शाम ढलने लगी थी. तालाब के हिलते पानी में पेड़ों की लंबी छाया भी नाचने लगी थी. तालाब के किनारे बैठी विनीता अपनी सोच में गुम थी. वह 2 दिन पहले ही लखनऊ से वाराणसी अपनी मां से मिलने आई थी, तो आज शाम होते ही अपनी इस प्रिय जगह की ओर पैर अपनेआप बढ़ गए थे.

‘‘अरे, वीनू...’’ इस आवाज कोे विनीता पीछे मुड़ कर देखे बिना पहचान सकती थी कि कौन है. वह एक ?ाटके से उठ खड़ी हुई. पलटी तो सामने आशीष ही था.

आशीष बोला, ‘‘कैसी हो? कब आईं?’’

‘‘2 दिन पहले,’’ वह स्वयं को संभालती हुई बोली, ‘‘तुम कैसे हो?’’

आशीष ने अपनी चिरपरिचित मुसकराहट के साथ पूछा, ‘‘कैसा दिख रहा हूं?’’

विनीता मुसकरा दी.

‘‘अभी रहोगी न?’’

‘‘परसों जाना है, अब चलती हूं.’’

‘‘थोड़ा रुको.’’

‘‘मां इंतजार कर रही होंगी.’’

‘‘कल इसी समय आओगी यहां?’’

‘‘हां, आऊंगी.’’

‘‘तो फिर कल मिलेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर विनीता घर चल दी.

घर आते समय विनीता का मन उत्साह से भर उठा. वही एहसास, वही चाहत, वही आकर्षण... यह सब सालों बाद महसूस किया था उस ने. रात को सोने लेटी तो पहला प्यार, जो आशीष के रूप में जीवन में आया था,

याद आ गया. याद आया वह दिन जिस दिन आशीष के दहेजलोभी पिता के कारण उन का पहला प्यार खो गया था. इस के बिना विनीता ने एक लंबा सफर तय कर लिया था. कैसे जी लिया जाता है पहले प्यार के बिना भी, यह वही जान सकता है, जिस ने यह सब  झेला हो.

विनीता का मन अतीत में कुलांचें भरने लगा... आशीष के पिता ने एक धनी परिवार की एकमात्र संतान दिव्या से आशीष का विवाह करा कर अपनी जिद पूरी कर ली थी और फिर अपने मातापिता की इच्छा के आगे विनीता ने भी एक आज्ञाकारी बेटी की तरह सिर झुका दिया था.

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