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बीजी की बात जब मौन रह कर भी नकार दी गई या राजी द्वारा ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि कुछ दिन तक तो राजी पहले नीचे सब को खाना बनाती पर बाद में बीचबीच में ऊपर की रसोई में बच्चों के लिए स्कूल का भी लंच बना लेती. फिर धीरेधीरे बच्चों के स्कूल से आने के बाद का भोजन भी ऊपर ही बनने लगा और एक दिन जब मैं और राजी नीचे बीजी वाले घर में गए थे कि बीजी ने खुद ही राजी से वह सब कह दिया जो राजी बीजी के मुंह से बहुत पहले सुनना चाहती थी. पर कम से कम बीजी से तो मुझे वह सब कहने की उम्मीद न थी क्योंकि मैं ने बीजी को 40 साल से बहुत करीब से देखा था. इतना करीब से जितना बाबूजी ने भी बीजी को न देखा हो.

बीजी ने उस दिन बिना किसी भूमिका के राजी से कहा था, ‘‘राजी, तू ऊपरनीचे दौड़ती थक जाती है. ऐसा कर, ऊपर की किचन में ही खाना बना लिया कर. मैं नीचे कर लिया करूंगी.’’

‘‘पर बीजी आप?’’

‘‘हमारा क्या? सारा दिन मैं करती भी क्या हूं? इन के और अपने लिए मैं यहीं खाना बना लिया करूंगी. जिस दिन खाना न बने उस दिन को तू तो है ही,’’ पता नहीं कैसे क्या सोच कर बीजी ने हंसते हुए राजी का स्पेस को और स्पेस दी तो मैं हत्प्रभ. आखिर बीजी भी समझौते करना सीख ही गई.

उस वक्त तब मैं ने साफ महसूस किया था कि कल तक जो बीजी उम्र की ढलान

पर बाबूजी से अधिक अपने को फिसलने से बचाए रखे थी, आज वही बीजी उम्र की ढलान से अधिक जज्बाती ढलान पर फिसली जा रही थी. जब आदमी सम?ौता करता हो तो ढलानों पर ऐसे ही फिसलता होगा शायद अपने को पूरी तरह फिसलाव के हवाले कर.

इस निर्णय के बाद से बीजी के  चेहरे पर से धीरेधीरे मुसकराहट गायब रहने लगी. यह बात दूसरी थी कि मैं और दोनों बच्चे सुबहशाम बीजी के पास जा आते. बच्चे तो कई बार वहीं से डिनर कर के आते तो राजी तुनकती भी. पर मुझे अधिक देर तक बीजी, बाबूजी के साथ बच्चों का रहना अच्छा लगता. उस वक्त कई बार तो मुझे ऐसा लगता काश मैं भी चीनू होता. काश मैं भी किट्टी होती.

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जिस बीजी के हाथों के बने खाने से रोगी भी ठीक हो जाते थे, धीरेधीरे वही बीजी अपने ही हाथों बने खाने से बीमार होने लगी.

अब मैं जब भी बीजी को अस्पताल ले जाने को कहता तो वह हंसते हुए टाल जाती, ‘‘अभी तेरे बाबूजी हैं न. वैसे भी अभी कौन सी मरी जा रही हूं. बूढ़ा शरीर है. कब तक इसे उठाए अस्पताल भागता रहेगा. जब लगेगा कि मुझे तेरे साथ अस्पताल जाना चाहिए, तुझे कह दूंगी.’’

और बीजी बिस्तर पर पड़ीपड़ी पता नहीं बड़ी देर तक किस ओर देखती रहती. मुझ से पूरी तरह बेखबर हो. जैसे में उस के पास होने के बाद भी उस के पास बिलकुल भी न होऊं. बीजी को टूटते देख तब टूट तो मैं भी रहा होता पर बीजी से कम तेजी से. कई बार हम केवल अपने को असहाय हो टूटता देखते भर हैं. अपने टूटने को रोकना न उस वक्त अपने हाथ में होता है न किसी और के हाथों में. कई बार टूटना हमारी नियति होती है और उसे चुपचाप भोगने के सिवा हमारे पास दूसरा कोई और विकल्प होता ही नहीं. फिर हम चाहे कितने ही विकल्प खोजने के लिए सैकड़ों सूरजों की रोशनी में कितने ही हाथपांवों को इधरउधर मारते रहें.

दिसंबर का महीना था. आखिर वही हुआ. बीजी ने जम कर चारपाई पकड़ ली. बीजी को जो एक बार बुखार आया तो उसे साथ ले कर

ही गया.

शायद सोमवार ही था उस दिन. सामने पेड़ के पत्ते पीले तो आसमान में सूरज पीला. एक ओर बीजी का चेहरा पीला तो दूसरी ओर बीजी को तापती धूप. बीजी ने चारपाई पर लेटेलेटे पूछा, ‘‘राजी कहां है?’’

‘‘बीजी ऊपर है, कोई गैस्ट आया है. उसे देख रही होगी. कुछ करना है क्या?’’

‘‘नहीं. तू जो पास है तो लगता है मेरे पास मेरी पूरी दुनिया है,’’ बीजी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते कहा.

बाबूजी साफ मुकर गए थे, ‘‘तेरी बीजी ने मेरा बहुत खयाल रखा है सारी उम्र, मेरे बदले खुद मरती रही. अब मैं भी चाहता हूं कि…’’

‘‘टाइम क्या हो गया?’’ बीजी ने पूछा तो मैं ने मोबाइल में टाइम देख कर कहा, ‘‘बीजी, 5 बजे रहे हैं.’’

‘‘बड़ी देर नहीं कर दी आज इन्होंने बजने में?’’ बीजी ने अपना दर्द अपने में छिपाते पूछा.

‘‘बीजी, रोज तो इसी वक्त 5 बजते हैं. हमारी जल्दी से तो समय नहीं चलेगा न?’’ मैं ने बीजी के अजीब से सवाल पर कहा तो वह बोली, ‘‘देख न, रोज 5 बजते हैं और एक दिन हम ही नहीं होते, पर 5 फिर भी बजते हैं. हमारे जाने के बाद भी सब वैसा ही तो रहता है संकु. बस कोई एक नहीं रहता. एक समय के बाद उसे क्या, किसी को भी नहीं रहना चाहिए,’’ कह बीजी ने पता नहीं क्यों दूसरी ओर मुंह फेर लिया था तब.

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और बीजी चली गई. 15 दिन तक उस के जाने के अनुष्ठान होते रहे. बाबूजी ने

मुझ से बीजी का मेरा काम भी न करने दिया. जब भी मैं कुछ कहता, वे मुझे बस चुप भर रहने का इशारा कर के रोक देते. तब पहली बार पता चला था कि बाबूजी बीजी को कितना चाहते थे? बीजी को कितनी गंभीरता से लेते थे? नहीं तो मैं ने तो आज तक यही सोचा था कि बाबूजी ने बीजी को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं. बीजी ही बाबूजी की चिंता करती रही उम्रभर और मरने के बाद भी करती रहेगी.

बीजी अपने रास्ते चली गई तो हम सब की जिंदगी बीचबीच में बीजी को याद करते अपने रास्ते चलने लगी. मैं महसूस करता कि बाबूजी को अब बीजी पहले से अधिक याद आ रही हो जैसे. जब कभी परेशान होता तो बाबूजी को कम बीजी को अपने कंधे पर हाथ रखे अधिक महसूस करता.

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