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बस में बहुत भीड़ थी, दम घुटा जा रहा था. मैं ने खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर 2-3 गहरीगहरी सांसें लीं. चंद लमहे धूप की तपिश बरदाश्त की, फिर सिर को अंदर कर लिया. छोटे बच्चे ने फिर ‘पानीपानी’ की रट लगा दी. थर्मस में पानी कब का खत्म हो चुका था और इस भीड़ से गुजर कर बाहर जा कर पानी लाना बहुत मुश्किल काम था. मैं ने उस को बहुत बहलाया, डराया, धमकाया, तंग आ कर उस के फूल से गाल पर चुटकी भी ली, मगर वह न माना.

मैं ने बेबसी से इधरउधर देखा. मेरी निगाह सामने की सीट पर बैठी हुई एक अधेड़ उम्र की औरत पर पड़ी और जैसे जम कर ही रह गई, ‘इसे कहीं देखा है, कहां देखा है, कब देखा है?’

मैं अपने दिमाग पर जोर दे रही थी. उसी वक्त उस औरत ने भी मेरी तरफ देखा और उस की आंखों में जो चमक उभरी, वह साफ बता गई कि उस ने मुझे पहचान लिया है. लेकिन दूसरे ही पल वह चमक बुझ गई. औरत ने अजीब बेरुखी से अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया और हाथ उठा कर अपना आंचल ठीक करने लगी. ऐसा करते हुए उस के हाथ में पड़ी हुई सोने की मोटीमोटी चूडि़यां आपस में टकराईं और उन से जो झंकार निकली, उस ने गोया मेरे दिमाग के पट खोल दिए.

उन खुले पटों से चांदी की चूडि़यां टकरा रही थीं...सलीमन बूआ...सलीमन बूआ...हां, वे सलीमन बूआ ही थीं. बरसों बाद उन्हें देखा था, लेकिन फिर भी पहचान लिया था. वे बहुत बदल चुकी थीं. अगर मैं ने उन को बहुत करीब से न देखा होता तो कभी न पहचान पाती.

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