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‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है, मां? भेज दो उस के मायके. बड़े चालाक बनते हैं वे. अपनी बीमार बेटी तुम्हारे मत्थे मढ़ गए.’’

‘‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भी भेजी हैं पर अंजू खुद नहीं जा रही और सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है उस में, इतनी प्यारी है वह.’’

‘‘तो ठीक है, करती रहो सेवा उस की.’’

और फिर एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा था मैं ने. वैसे भी इधर व्यवसाय के सिलसिले में अश्विनी काफी परेशान थे. कई जगह माल भेज कर पैसों की वसूली नहीं हो पा रही थी. एक दिन शाम को बहुत झल्लाए थे मेरे ऊपर.

‘‘रीना, क्या तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारी भाभी अस्पताल में हैं.’’

‘‘तो इस में नया क्या है?’’

‘‘क्या औपचारिकतावश उन का हाल नहीं पूछना चाहिए तुम्हें? अब वे घर आ गई हैं. चलो, मिल कर आते हैं. बीमार मनुष्य से यदि दो शब्द भी सहानुभूति के बोलो तो दुख बंट जाता है.’’

बेमन से मैं तैयार हो कर चल पड़ी थी. एक पल के लिए उन का पीला चेहरा देख कर तरस भी आया, पर न जाने दूसरे ही पल वह घृणा में क्यों बदल गया था. मैं मां से बतियाती रही. मां लगातार अंजू का ध्यान रख रही थीं और मैं कुढ़ रही थी. वातावरण को सामान्य बनाने के लिए मां बोली थीं, ‘‘रीना, अंजू का गाना सुनोगी?’’

मैं ने बेमन से ‘हां’ कहा. अंजू के प्रति छिपा तिरस्कार मां बखूबी पहचानती थीं. और तभी अंजू का गाना सुना. इतना मीठा स्वर मैं ने पहली बार सुना था. उन्होंने उस के कपड़े बदलवाए. उस की उंगलियां फिर मुड़ गई थीं. वह हमारे जाने से बहुत खुश होती थी. जितना मेरे पास आने का प्रयत्न करती मैं उसे मूक प्रताड़ना देती.

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