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अभी तक तो शेफाली के अंदर साहस ही साहस था, लेकिन भाभी की बात और भाभी की घबराहट देख कर उसे भी पहली बार कुछ घबराहट सी हुई और जब वह बैठक के दरवाजे पर पहुंची तो कितना भी धैर्य रखने पर उस का मन आशंका से कांप उठा क्योंकि बैठक में बैठे सभी लोगों की नजरें उस के सैंडिलों पर ही थीं.

‘इन लोगों को मुझे देखना है या मेरी चाल अथवा सैंडिल को?’ यह प्रश्न उस के मन में हलचल मचा गया. फिर बरबस मुसकरा कर नमस्ते करने के बाद वह अनुराग की भाभी की बगल में बैठ गई. अनुराग से भी उस की यह फेस टू फेस पहली मुलाकात थी.

शेफाली प्रदर्शनी में सजी निर्जीव गुडि़या की तरह पलकें नीची किए बैठी थी. पुराने जमाने की लड़कियों की तरह उस के मन में अजीब सा संकोच था, जिस से उस के मुख का सौंदर्य फीका पड़ता जा रहा था. अनुराग की मां, छोटा भाई और बहन तीनों ही उस के अंगप्रत्यंग को नजरों से नापते हुए एकदूसरे को कनखियों से देखते हुए मुसकरा रहे थे. ‘‘रंग कैसा बताओगे? मेरे ही जैसा न? अच्छी तरह देख लो,’’ भाभी फुसफुसा कर

अपने देवर के कान में बोली, ‘‘रंग मु  झ से फीका नहीं होना चाहिए,’’ और फिर चश्मे के अंदर आंखें घुमाती हुई वह उस के मुख के और करीब आ गई. मगर तभी देवर ने अपनी भाभी को आंख मार कर हट जाने को कहा, जैसे कह रहा हो कि रंग की प्रतियोगिता में तो तुम हर तरह से पराजित हो भाभी. उसे अगर 100 से 90 मिलेंगे तो तुम्हें 10 भी नहीं मिलने के. ‘‘शेफाली, सुना है आप बहुत अच्छा गाती हैं. एक गाना सुना दीजिए न.’’

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