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दिसंबर की ठंडी सुबह के7 बज रहे थे. गलन और ठंडी हवा की परवाह किए बिना सुनीता कमरे का दरवाजा खोल बालकनी में निकल गई थी. कल के धुले सारे कपड़ों को छूछू कर देखा तो सब में सिमसिमाहट बाकी थी. एकएक कर के वह सारे कपड़ों को पलटने लगी.

मन ही मन वह सोच रही थी कि सूरज की कुछ किरणें अगर इन पर पड़ जाएंगी तो ये कपड़े सूख जाएंगे. इन्हें हटा कर आज के धुले कपड़ों को फैलाने की जगह बन जाएगी. इतने में देवरानी अनामिका हाथ में 2 कप चाय ले कर आ गई. कप पकड़ाते हुए उदास स्वर में अनामिका बोली, ‘‘दीदी पापाजी की आज की हालत देख कर डर ही लग रहा है. ऐसा लगता है कभी भी कुछ भी हो सकता है.’’

सुनीता ने उस के कंधे पर सांत्वना भरा हाथ रखते हुए कहा, ‘‘हिम्मत रखो, हम ने उन की सेवा में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है.’’

दोनों ने मुंह में चाय का कप लगाया ही था कि पापाजी के कमरे से चीखपुकार सुन कर उधर की ओर भागीं. वहां जा कर देखा तो उन के पिता तुल्य ससुर रामाशीषजी अपनी अंतिम सांस ले चुके थे. जिस अनहोनी की आशंका से उन का पूरा परिवार 2 दिन पहले से ही उन के पास इकट्ठा हो चुका था वह घटित हो चुका था.

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रामाशीषजी अपने पीछे 2 बेटे और 2 बेटियों का भरापूरा परिवार छोड़ गए थे. रामाशीषजी पिछले 6 महीनों से लगातार बीमार चल रहे थे और इन 6 महीने के बीच में उन्हें 5 बार अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ा. लेकिन इस बार भरती करने के बाद भी उन की हालत में जब किसी प्रकार का कोई सुधार नहीं हुआ तो डाक्टर ने उन्हें घर पर ही रख कर उन की सेवा करने की सलाह दी. तभी से किसी अनहोनी की आशंका से उन के चारों बच्चे उन के पास इकट्ठे हो गए थे.

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