बंगले में प्रवेश करते वक्त रिद्धी बिलकुल निश्चिंत थी कि अभी यहां सिर्फ मिथिलेश ही उसे मिलेगा. मिथिलेश अपने बैडरूम में लैपटौप पर औफिस का काम रहा था. उस की पीठ दरवाजे की तरफ थी. रिद्धी ने मिथिलेश की पीठ पर धीरे से एक चपत लगाई.

मिथिलेश चौंक गया. फिर तुरंत संभलते हुए बोला, ‘‘ओह. साली साहिबा आप?’’

‘‘क्यों जीजू आप क्या दीदी का इंतजार कर रहे थे? वह तो अभीअभी क्लीनिक गई होगी.’’

‘‘अरे नहींनहीं, मैं तो तुम्हें ही याद कर रहा था.’’

‘‘ऐसा है तो एक अच्छी सी सैल्फी लेती हूं… आप की शादी के 5 साल हो गए, इकलौती साली के साथ आप की एक भी सैल्फी नहीं,’’ रिद्धी ने शिकायत की.

‘‘कैसे हो सैल्फी? तुम तो इन 5 सालों में दुधमुंही बच्ची थी. कहां फटकती थी मेरे पास,’’ मिथिलेश नजदीकी बढ़ाते हुए रिद्धी की आंखों में देखने लगा.

रिद्धी के शरीर में धीरेधीरे चूहल दौड़ने लगी. वह जीजू के साथ लिपट कर  इस तरह सैल्फी खींचने लगी कि मिथिलेश की सांसें उखड़ गईं. रिद्धी के मन की पोटली मिथिलेश के सामने छितर गई थी. सैल्फी के बाद चुप्पी के शुन्य को भरते हुए वह बोल पड़ी, ‘‘देखो जीजू, सैल्फी में भी हम एकदूसरे के साथ कितने अच्छे लग रहे हैं.’’

मिथिलेश लैपटौप को छोड़ अपने बिस्तर पर आ गया और फिर एक झटके में रिद्धी को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘जीजू दीदी को पता चला तो?’’

‘‘महीनेभर से तुम्हारे दिल का हाल मैं साफ पढ़ रहा हूं, अब भूल जाओ दीदी को. घरवाली को वश में रखना मुझे बखूबी आता है.’’

रिद्धी अब तक मिथिलेश से लगभग लिपट चुकी थी. 23 साल की नवयौवना ने 35 साल के मिथिलेश के पौरुष को वशीभूत कर लिया था. प्रथम अनुभूति की लीला जब थमी, रिद्धी का मन कुछ बेचैन हो उठा. बोली, ‘‘जीजू, क्या मुझ से गलती हो गई?’’

मिथिलेश ने उस के होंठों को अपने चुंबन में जकड़ने के बाद आश्वस्त किया, ‘‘हमारी परंपरा है कि पत्नियां अपने पतियों को सदा खुश रखें. अब खुश मैं कैसे होता

हूं यह जानने की कोई जरूरत ही नहीं. ज्यादा मत सोचो, तुम कालेज की पढ़ाई खत्म कर लो, फिर अपने विभाग में लगवा दूंगा… 11 बजने को हैं, मुझे भी औफिस के लिए निकलना है.’’

रिद्धी के लिए नौकरी की बात भी एक बड़ा लालच थी, जिसे वह अनदेखा नहीं कर पाई तो रिद्धी और मिथिलेश ने अपनी सुविधानुसार अपना दर्शन बना कर रिश्ते के विश्वास को दरकिनार कर दिया. उन की रंगरलियां बिना किसी रोकटोक के चलती रहीं.

आज से 5 साल पहले उस दिन दोपहर 3 बजे के करीब 24 साल की सिद्धी वाहन के इंतजार में यूनिवर्सिटी के बाहर खड़ी थी. अचानक सामने से बाइक पर बैठा चिन्मय आता दिखा. सिद्धी को देख वह रुक गया, ‘‘अरे चिन्मय? 2 साल से कहां थे?’’

‘‘एमकौम और बैंक परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था,’’ तुम बताओ?

‘‘चलोचलो गांधी मैदान चलते हैं,’’ सिद्धी ने फूरती दिखाई.

चिन्मय ने कहा, ‘‘बैठो बाइक पर.’’

बिना किसी औपचारिकता के वह पीछे बैठ तो  गई, लेकिन यहां लोगों के पास बातें बनाने के लिए ऐसे मसले मिल जाएं तो उन के पास वक्त की कमी नहीं रहती. खैर, इस मुलाकात को वह जाया नहीं करना चाहती थी.

पटना के प्रसिद्ध गोलघर के पास ही है गांधी मैदान. लोगों की तफरीह के लिए अच्छा खुला इलाका है. दोनों ने पर्यटकों के लिए बने बेंच पर अपना आसन जमाया. शाम होने में वक्त था. लोग न के बराबर थे.

‘‘और सुनाओ?’’ पहले की तरह ही शरमीले चिन्मय ने मंदमंद मुसकराते हुए पूछा.

‘‘साइकोलौजी में मास्टर पूरा हुआ. 80% है… और तुम्हारा?’’ सिद्धी की उत्सुकता बढ़ गई थी चिन्मय के बारे में जानने को.

‘‘बैंक की नौकरी ही मेरे हिस्से समझे. तुम अब क्या करोगी?’’

‘‘एक चपत लगाऊंगी तुम्हें. ऐसी भेदभरी नजरों से क्यों देख रहे हो? मन में कोई चोर है क्या?’’ सिद्धी ने बिंदास अंदाज में पूछा.

‘‘चोर नहीं, जो है वह बताना तो चाहता हूं, मगर ?िझक रहा हूं.’’

‘‘बता भी दो, हमारी दोस्ती 10वीं कक्षा के बाद से है. अब नई दुलहन की तरह शरमाना छोड़ो,’’ सिद्धी ने अधिकार से कहा. यह सुन चिन्मय बोला, ‘‘शादी कर लो मुझ से, परीक्षाएं बेहतर गईं हैं, नौकरी की गारंटी दे सकता हूं.’’

सिद्धी का मजाकिया लहजा अचानक गायब हो गया. बोली, ‘‘क्या बोल रहे हो, चिन्मय? एक तो तुम मेरे हमउम्र, दूसरे तुम कायस्थ और मैं ब्राह्मण. मेरे घर वाले काट डालेंगे दोनों को. मेरे पापा इनकम टैक्स विभाग में अच्छे पद पर हैं, इसलिए बड़ी उम्र तक पढ़लिख रही हूं, गांव में तो 15-16 साल तक लड़कियों की शादी हो जाती है. फिर अभी मेरा इरादा क्लीनिक खोलने का है. ये सब कह कर मैं पापा को गुस्सा नहीं दिलवा सकती.’’

चिन्मय कमजोर और दुखी महसूस करने लगा  था. उस ने अनुनय के स्वर में कहा, ‘‘सच कह दो सिद्धी मैं तुम्हें कभी पसंद नहीं था?’’

सिद्धी अपने दिल के हरेक कोने में फैली छोटेछोटे जुगनुओं की रोशनी को अनदेखा नहीं कर पाई. उस के करीब जा कर उस के हाथों को अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘तुम मेरे लिए क्या हो इतनी जल्दीबाजी में मैं बता नहीं सकती. मगर शादी पसंद करने से हो नहीं सकती. सच कहूं तो दोस्त पति नहीं बन सकता. उस का रोब हो तो वह इज्जत देने के काबिल बनता है… उसे समर्पण किया जा सकता है. कुछ बातें व्यावहारिक होती हैं.’’

‘‘काश, तुम मुझे समझ पाती,’’ निराश चिन्मय की आंखें छलछला आई थीं.

‘‘चिन्मय, हमारे घर वालों और गांव वालों की जातिवादी कट्टरता को तुम नहीं जानते. मैं तुम्हें उन से दूर ही रखना चाहती हूं.’’

और तब से वह फोन नंबर के रूप में सिद्धी के मोबाइल के कौंटैक्ट लिस्ट में बस सेव हो कर रह गया.

मिथिलेश इनकम टैक्स विभाग में सिद्धी के पापा से ऊंचे औहदे पर आसीन था. सिद्धी के पापा को ऐसा दामाद हीरों में कोहिनूर लगा था.

रूप की धनी, हंसमुख, उच्चशिक्षिता सिद्धी रोबदार अफसर के बंगले में राजलक्ष्मी सी रौनक ले कर बसने आ गई.

सालभर उन दोनों के बीच आर्कषण का जादू चलता रहा. मगर सिद्धी के इज्जतदार, रोबदार पति के आकर्षण का सच धीरेधीरे सामने आने लगा.

सिद्धी अब काउंसिलिंग के लिए अपना क्लीनिक खोलना चाहती थी. उस ने पति के अकाउंट में जमा पिता के दिए 15 लाख कैश में से 2 लाख मांगे. मिथिलेश अनसुना करता रहा.

रात को उस ने सोते वक्त भी यही दोहराया तो मिथिलेश का जवाब था, ‘‘जब तक बच्चे नहीं हो जाते तुम कुछ भी नहीं करोगी.’’

‘‘मगर मेरे लिए यह बहुत जरूरी है.’’

‘‘अभी जरूरी है विस्तर पर पति को खुश करना, ज्यादा बातें मत बनाओ.’’

सिद्धी व्याकुल हो गई. बोली, ‘‘ये क्या कि बच्चे जब तक…’’

मिथिलेश के एक झन्नाटेदार थप्पड़ ने उस के होश उड़ा दिए. त्योरियां चढ़ गईं मिथिलेश की. बोला, ‘‘सीधी बात समझ नहीं आती. बिस्तर पर आते ही तुरंत मेरी सेवा में लग जाया करो,’’ अब तक मिथिलेश ने उस की साड़ी निकाल किनारे फेंक दी थी और उस की संगमरमरी देह पर निर्ममता के हजारों घोड़े दौड़ा दिए थे.

अपनी जानकारी में या अपनी बिरादरी में अब तक ऐसी ही स्त्रियों को वह देखता आया था जो पति के दुर्व्यवहार को हंस कर टाल जाया करती थीं.

मिट्टी कितनी ही एक सी हो, मूर्तियां तो अलग होती ही हैं. सिद्धी भी मिथिलेश की उम्मीद से परे थी. वह न तो उठी और न ही चाय बनाई. मिथिलेश भी मिथिलेश था. वह रसोई से चाय के खाली कप उठा लाया और बैडरूम की जमीन पर पटक दिए. उसे बालों से पकड़ कर खींचा और चीखा, ‘‘बाप का राज समझती है? औरत हो कर मर्द पर गुस्सा दिखाती है? मांबाप ने पति की इज्जत करना नहीं सिखाया? मुंह उठा कर चली आई,’’ और बस तब से हर दिन रोबदार, इज्जतदार पति के प्रति समर्पण का कुहरा छटता गया. उस की लगभग प्रतिदिन ऐसे इज्जतदार पति से मुलाकात होती जो उस का गर्व नहीं बल्कि खुद में अहंकार का विस्फोट था. उसे पास बैठा कर कभी उस की मनुहार नहीं करता, बल्कि अपराधी की तरह सिद्धी को सामने खड़ा कर उसे फटकरता था.

ऐसे कठिन दिन बिताए. फिर भी 5 साल गुजर गए. सिद्धी को अपने जीवन में कुछ अच्छा होने की उम्मीद अब भी बाकी लगती थी, यद्यपि अब तक न तो बच्चे हो पाए थे और न ही कैरियर बन पाया था.

इतना जरूर था कि उस की निराशा बगावत पर आ गई थी और डर की दीवार टूटने पर आमादा थी.

एक दिन अचानक उस के पिता की मृत्यु की सूचना आई. सिद्धी खबर मिलते ही मां के पास चली गई. लेकिन मिथिलेश तो श्राद्ध के दिन अपना चेहरा दिखाने पहुंचा.

चिन्मय अब बैंक में मैनेजर था. सूटबूट में उस की रौनक देखते ही बनती थी. सिद्धी के पिता की मृत्यु के बाद मां के घर में पसरे सूनेपन को चिन्मय भरसक भरने की कोशिश करता. सिद्धी के साथ ठिठोली करता, उसे चिढ़ाता, उस से मानमनौबल करता. सिद्धी की जो बातें कभी उस का बचपना लगती थीं आज मिथिलेश के व्यक्तित्व से दोचार होने के बाद एक पुरुष साथी में जरूरी गुण लगने लगी थी. इज्जत देने के लिए प्रेम होना जरूरी है और पतिपत्नी के बीच प्रेम समानता के बिना कहां संभव है?

चिन्मय की मदद से उस ने एक प्राइवेट नर्सिंगहोम में साइकोलौजिस्ट की नौकरी ढूंढ़ ली थी. तनख्वाह अच्छी थी. सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक वहां बैठने की बात थी जो सिद्धी को सहज स्वीकार्य था.

खोए हुए आत्मविश्वास का मंत्रपाठ जो चिन्मय ने दिया उस के भरोसे अब मिथिलेश की नाजायज चीखों के आगे डटे रहने की उस में फिर से शक्ति आने लगी. अलबत्ता, मिथिलेश धीरेधीरे उस की तरफ से लापरवाह होता गया. कुछ हद तक अनसुने, अनदेखे का भाव. हां बिस्तर की चाकरी सिद्धी को हर हाल में करनी पड़ती.

चिन्मय की जिंदगी निराली थी. बड़े भाईभाभी उस के साथ रहते तो थे, लेकिन आंगन के बीच एक दीवार खड़ी थी जो भाभी कोशिशों का नतीजा थी. सिद्धी के प्रति लगाव और भाभी का व्यवहार कुल मिला कर उस ने शादी के खयाल को परे ही कर रखा था.

एक तरफ के दोमंजिले मकान में चिन्मय ऊपर और नीचे  उस के मम्मीपापा रहते थे. मातापिता की उम्र अधिक थी और ज्यादातर वे कामवाली के भरोसे रहते. चिन्मय उन का बराबर खयाल रखता. छुट्टी के दिन उन्हें घुमाने भी ले जाता.

वापस आ कर सिद्धी मिथिलेश के गुस्से को और झेल पाने में खुद को लाचार पा रही थी. कुछ मन लगे, कुछ ध्यान बंटे इसलिए रिद्धी को वह अपने पास बुलाने लगी थी. यों साल गुजरा. आज सिद्धी की तबीयत ठीक नहीं थी. सोचा कि नर्सिंगहोम न जाए, फिर कुछ मरीजों का सोच कर वह चली गई. वापस जब आई तब दिन के 11 बज रहे थे. सोचा था जल्दी आ कर थोड़ा आराम कर लेगी.

सीढि़यों से दूसरी मंजिल पर आतेआते उस ने कई ऐसी आवाजें सूनीं जिन से विश्वास की चूलें हिल गईं. आंखें पथरा गईं. बैडरूम से आती आवाजें साफ होती गईं जो सीने में सौसौ हथौड़ों के बराबर थीं.

रिद्धी की आवाज आ रही थी, ‘‘जीजू बस अब और नहीं,’’ खिलखिलाहट के साथ कहती हुई वह शायद जीजू पर लोट गई थी.

सिद्धी की अनुभवी आंखें अंदर का सारा दृश्य देख रही थीं.

‘‘जीजू… दीदी आ जाएगी,’’ छोड़ो अब और नहीं.

‘‘अभी देर है, वैसे आ भी जाएगी तो क्या, मैं परवाह नहीं करता.’’

सिद्धी दूसरे कमरे तक किसी तरह खुद को ढकलते हुए ले गई और बिस्तर पर फेंक दिया अपनेआप को. घृणा से भर गई वह अपने जीवन के प्रति. एक पत्नी होने का उसे इतना दुखद सिला क्यों मिल रहा है?

मिथिलेश बदमिजाज था, पत्नी को पैरों की जूती समझता था. परंपरावादी सोच को शास्त्रवाक्य मान कर पत्नी को अपने से नीच जीव समझता था. सहने की हद होती है और इस हद की रेखा सिद्धी को ही खींचनी थी.

रात को सोते वक्त सिद्धी की सपनों से लवरेज आंखें अफसोस के आंसुओं से दोहरी हो गईं.

मिथिलेश उसे देखते ही मशीन की तरह अपने शिकंजे में कसने लगा. वह परे हट कर चीखी, ‘‘आप ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा

क्यों किया?’’

ढीठ की तरह मिथिलेश ने जवाब दिया, ‘‘मुझ पर उंगली उठाने का तुम्हें कोई हक नहीं. पहले मेरा वंश बढ़ाओ, फिर सवाल करना, समझ.’’

यही एक नश्तर था जो सिद्धी को हर आड़े वक्त पर चुभता था. क्या वह वाकई मां  बनने लायक नहीं थी? क्या वह इतने सालों से बिना चैकअप कराए बैठी है? वह नहीं, मिथिलेश पिता बनने के काबिल नहीं. लेकिन वह चुप है ताकि मिथिलेश को बुरा न लगे.

इधर मिथिलेश इस खुशी में उसे धोखे और मक्कारी से नवाज रहा है कि वह औरत है. उस के पैरों की जूती है. क्यों शरीर की किसी कमी के जाहिर होने पर मर्द की इज्जत चली जाएगी? क्यों मर्द की इज्जत अहंकार की प्रत्यंचा पर चढ़ा तीर होती है? क्या मिथिलेश जैसा पति दोस्त नहीं. पत्नी का मालिक होता है? सैकड़ों अनसुलझे सवाल सिद्धी को परेशान करने लगे थे.

मिथिलेश के दिल में क्यों इतनी खुन्नस है? क्या सिद्धी का पढ़ालिखा समझदार होना मिथिलेश के अंह को चोट पहुंचाता है? क्या यही इज्जतदार होने की निशानी है?

अगले दिन दोपहर तक सिद्धी का कोई अतापता नहीं था. खानेपीने का इंतजाम कर वह निकल गई थी. शाम को मिथिलेश के हाथों में उस का डाक्टरी परीक्षण था. यह उस के स्त्रीत्व का प्रमाणपत्र था जैसे.

रिपोर्ट को नौर्मल देख मिथिलेश की त्योरियां चढ़ गईं. रिपोर्ट को टेबल पर फेंक उस ने कहा, ‘‘यह अपनी किसी पहचानवाली से करवा लाई हो, आपस की मिलीभगत होगी.’’

‘‘आप ने खुद की जांच कर ली है या नहीं… कुछ नहीं तो कम से कम मेरी बहन के साथ मेरे पीछे गलत रिश्ता तो न बनाते,’’ सिद्धी ने तीखे शब्दों में कहा.

सिद्धी ने उसी वक्त अपने मन के सारे दरवाजे मिथिलेश के लिए बंद कर दिए. मन के रीते कोने में सुकून की छोटी सी एक सांस बची थी और वह था चिन्मय.

आज सारे बंधन उस ने इस देहरी पर तोड़े और कुछ जरूरी सामान के साथ वह बाहर आ गई. टैक्सी कर यूनिवर्सिटी गेट के पास पहुंची. चिन्मय को उस ने पहले ही फोन कर दिया था. चिन्मय का घर यहां से करीब था, आज रविवार था, वह घर पर ही था, सो जल्दी वह यूनिवर्सिटी गेट पहुंच गया. सिद्धी को अपनी कार में बैठा कर वह अपने घर ले आया.

एक मूक वार्त्तालाप ने सिद्धी के दर्द का पूरा खुलासा कर दिया था.

चिन्मय के घर पहुंच कर वह फ्रैश हुई, कपड़े बदले और फिर फोन की सिम नष्ट कर दी और चिन्मय के  मम्मीपापा से मिलने पहुंच गई. चिन्मय ने याद दिलाया जरूरी कौंटैक्ट के बारे में. सिद्धी ने निश्चित किया कि डायरी में जरूरी नंबर उस के पास नोट हैं.

चिन्मय ने मम्मी से कहा, ‘‘देखो एक पुरानी लड़की आई है, अब कुछ दिन इसे यही रहना है.’’

मम्मी स्मृति पर बल देते हुए उसे कुछ देर देखती रही, फिर कहा, ‘‘अरे सिद्धी हो क्या?’’

सिद्धी ने उन के पैर छुए, तो मम्मी ने कहा, ‘‘बेटी ब्राह्मण हो कर हमारे पैर न छुओ.’’

‘‘ऐसा अब कभी न कहना आंटी. मैं ने जाति के अंहकार का चाबुक पोरपोर में सहा है. जिंदगी और रिश्ते दंभ से नहीं सरलता और प्रेम से चलते हैं.’’

मम्मी ने उसे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बिटिया तो बड़े पते की बात करती है. जा इसे ऊपर अपनी बगल वाला कमरा दे दे. जब तक चाहो रहो बेटी, हमारी दुनिया आबाद हो जाएगी.’’

सालों से अनास्था, अपमान और निराशा के तूफान में जो उलझ थी, आज इस सही किनारे पर लगने की उम्मीद ने उसे बड़ा धैर्य बंधाया.

रात को सोने से पहले चिन्मय सिद्धी का बिछावन आदि सही करने के लिए उस के कमरे में गया.

वह सो रही थी. चिन्मय ने उस के माथे पर हाथ रखा तो चौंक पड़ा, ‘‘सिद्धी तुम्हें तो बुखार है.’’

‘‘कुछ देर तुम मेरे पास रहो,’’ सिद्धी के स्वर में अनुनय था.

चिन्मय ?झिझका, ‘‘क्या हुआ? नहीं बैठोगे?’’

‘‘मैं डर रहा हूं.’’

‘‘मैं तुम्हें डराउंगी नहीं,’’ सिद्धी ने निराशा में भी परिहास किया.

‘‘मैं खुद से डर रहा हूं, कहीं पुरानी मनोदशा के भंवर में न फंस जाऊं.’’

‘‘मैं ने मना कब किया?’’

‘‘नहीं, अब मैं तुम पर कोई हक नहीं जमा सकता. तुम किसी और की हो.’’

सिद्धी ने उसे अपने पास जोर से खींच कर कहा, ‘‘जाति, परंपरा और शास्त्र से भी ऊपर होता है मनुष्य का चरित्र और उस का मन. मैं ने ऊंचनीच, परंपरा, उम्र, आदि कई आधारहीन सोचों के चलते तुम जैसे नर्मदिल, हंसमुख, सरल और जिम्मेदार इंसान को खो दिया था. मगर अब आंडबरों के बोझ से मैं ने खुद को मुक्त कर लिया है. जाति के दिखावे में मैं अपने मन से और छल नहीं कर सकती. रही बात समाज की तो कागज पर एक हस्ताक्षर और सबकुछ खत्म.’’

चिन्मय ने उठना चाहा. बोला, ‘‘कल सुबह बातें करेंगे. तुम आवेश में हो. गलती की गुंजाइश बढ़ती जा रही.’’

चिन्मय के हाथ को सिद्धी ने कस लिया था. बोली, ‘‘चिन्मय, उन लोगों ने मुझे बांझ कह कर घर से निकाला, जबकि यह सच नहीं था. मिथिलेश ने मेरी बहन के साथ रिश्ता बना कर मुझे सड़क पर फेंकने की पूरी तैयारी की. अब चाहे समाज मेरे बारे में कुछ भी राय बनाए मैं यह साबित कर के रहूंगी कि मैं नहीं थी बांझ.’’

चिन्मय दूर हटते हुए बोला, ‘‘तुम बदहवास हो रही हो, मैं अपनेआप को शायद रोक न पाऊं. यह प्यार बचपन का है सिद्धी, मेरी परीक्षा मत लो. तुम नहीं जानती तुम मेरे लिए क्या हो.’’

‘‘चिन्मय, मैं नहीं जानती तुम मुझ से क्या पाओगे, मगर मैं तुम से याचना करती हूं मुझे साबित कर दो… मुझे हीनता की बेडि़यों से मुक्त करो… यह पूरी जिम्मेदारी मेरी होगी.’’

प्रेम और आंकाक्षा, ने दोनों को एक सूत्र में पिरो दिया. रात की चांदनी खिड़की से

आ कर उन की इस मधुयामिनी को स्नेहिल स्पर्श देती रही.

कुछ दिन बाद उस ने तलाक की मांग कर ली. मिथिलेश ने भी हां कर दी. 8 महीने बीत चुके थे. मिथिलेश से डिवोर्स जल्दी मिल गया. कुछ जानपहचान के वकीलों ने दोनों को अलग करा ही दिया.

सिद्धी मां बनने वाली थी. कुछ समय इंतजार फिर वह चिन्मय की अर्द्धांगिनी बनेगी. सिद्धी अपनी मां का आशीर्वाद ले चुकी थी.

रिद्धी को भी जब मिथिलेश के अहंकार के हाथों खूब जिल्लतें उठानी पड़ीं तो वह भी उस से तोबा कर हमेशा के लिए गोवा चली गई.

बेटे के जन्म के बाद सिद्धी कुछ ठान कर चिन्मय और बेटे लावण्य को ले मिथिलेश के घर पहुंची. अच्छा ही था कि सिद्धी को पहले से पता हो गया था कि किसी लड़की वाले को उस दिन बातचीत के लिए मिथिलेश के घर वालों ने बुलाया था.

बैठक में उन तीनों को अचानक देख सब चौंक गए.

मिथिलेश ने तीव्र क्रोध में कहा, ‘‘तुम यहां क्यों आई?’’

‘‘कुछ बातें बाकी रह गई थीं उन्हें कहे बिना हिसाब का गणित मिल ही नहीं रहा था, मिथिलेश,’’ शांत और दृढ़ सिद्धी ने धीरेधीरे कहा.

मिथिलेश अपना नाम उस के मुंह से सुन अवाक रह गया.

सिद्धी ने कहा, ‘‘तुम क्या हो मिथिलेश? अंहकार में सने एक धोखेबाज व्यक्ति. अफसर की कुरसी एक पल में छिन जाए तो रह जाएगा क्या? एक दुश्चरित्र बदमिजाज आदमी?’’

‘‘तुम्हें इज्जत देना इतना भी आसान नहीं मिथिलेश… और पत्नी तो सुखदुख की सहचरी होती है. कामना के बीज से प्रेम का संसार रचने वाली. उसे क्या छोटेबड़े के जाल में उलझते हो? ‘पति का नाम लेना पाप है’ इस सोच से अब निकल जाओ आगे की राह तुम्हारी सरल नहीं होगी.’’

मिथिलेश के अंहकार और आडंबर ने कभी सिद्धी को जानने का मौका ही नहीं दिया. वह हैरान था.

सिद्धी ने लड़की वालों की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आप एक बहन को इस के हवाले करने से पहले सोचिएगा जरूर. आज मेरी गोद में मेरा बच्चा है जबकि मैं इस घर में बांझ होने के कलंक से दूषित कर धोखे का शिकार हुई और अपमानित कर निकाली गई. फिर आप की बेटी की बारी है. यह मर्द होने के अहंकार से इतना त्रस्त है कि अपनी कमी को कभी स्वीकारेगा नहीं और पत्नी पर दोष मढ़ कर स्वयं को तृप्त महसूस करेगा.’’

मिथिलेश क्रोध में तमतमाया पहले की तरह सिद्धी की ओर हाथ उठाने को दौड़ा. तुरंत चिन्मय ने सख्त हाथों से उसे रोक लिया.

मिथिलेश तड़प रहा था. बोला, ‘‘खुद के चरित्र का ठिकाना नहीं…’’

चिन्मय तुरंत उस की बात को पकड़ते हुए बोल पड़ा, ‘‘चिन्मय प्रसाद उस का ठिकाना है. वह मेरे घर की लक्ष्मी है, मेरे मन का हार है, हम ने रजिस्टर्ड मैरिज के लिए कोर्ट में अर्जी डाल दी है. कुछ दिनों में यह मेरे सिर का ताज बन जाएगी. गलती से भी अब कभी सिद्धी के बारे में गलत बातें न कहना.’’

नए बनने वाले रिश्तेदार मिथिलेश के घर से मौका पाते ही खिसक लिए.

सिद्धी पूर्ण संतुष्ट हो गई थी. मित्रता, विश्वास और प्रेम का जो समर्पण उस के पास था उस के स्पर्श से अब वह संपूर्णा थी… सिद्ध संपूर्णा.

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