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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

स्टेशन के भीतर प्रवेश करते ही मैं ने अपने फेस मास्क को नाक पर ढंग से चढ़ाया. स्टेशन के बाहर तो खामोशी थी ही, लेकिन अंदर प्लेटफार्म पर जैसा सन्नाटा था वैसा तो इस से पहले मैं ने कभी नहीं देखा था.

रेलवे द्वारा औपचारिक थर्मल चेकिंग के बाद जब मैं अपनी सेकंड एसी की साइड वाली बर्थ पर पहुंची, तो अमित को देख कर चौंक गई.

अमित इस राजधानी ट्रेन में दिल्ली से चढ़ा होगा, क्योंकि उस का बेड रोल पहले से ही ऊपरी बर्थ पर बिछा था और वो आगरा आने से पहले तक नीचे वाली बर्थ पर बैठा हुआ आया था.

उस सीमित यात्रियों वाले सैनेटाइज्ड कोच में मास्क लगाए हुए मुझे वो पहचान नहीं पाया.

मुझ से उस की मुलाकात तभी हुई थी, जब वो मुझे पसंद करने अपने मम्मीपापा के साथ आया था. मेरी मम्मी महेश मामाजी द्वारा सुझाए इस रिश्ते को ले कर अति उत्साह से भरी हुई थीं.

अमित से एकांत में बात करते समय मैं ने महसूस किया कि वो घर में बोलने वाली आम बोलचाल की भाषा हिंदी में पूछी गई मेरी हर बात का उत्तर सिर्फ और सिर्फ अंगरेजी भाषा में दे कर मुझ पर अपना रोब डालने का लगातार प्रयास कर रहा था और मैं दो कारणों से उस से हिंदी में ही बात किए जा रही थी.

पहला कारण तो ये था कि अभी कुछ देर पहले सब के बीच वो खूब ढंग से हिंदी में बात कर रहा था. मेरे साथ एकांत मे ऐसा शो कर रहा था, जैसे लंदन से आया हो.

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