उसे सुंदरम का कहा याद आने लगा, ‘रश्मि, मैं तुम्हारी हर खुशी का खयाल रखूंगा. लेकिन मेरी प्यारी रश्मि, कर्तव्य के आगे मैं तुम्हें भी भूल जाऊंगा.’
उसे अपने स्वर भी सुनाई दिए, ‘सुंदरम, क्या दुनिया में तुम्हीं अकेले डाक्टर हो? हर समय तुम मरीज को नहीं देखने जाओगे तो दूसरा डाक्टर ही उसे देख लेगा.’
‘रश्मि, अगर ऐसे ही हर डाक्टर सोचने लगे तो फिर मरीज को कौन देखेगा?’
‘मैं कुछ नहीं जानती, सुंदरम. क्या तुम्हें मरीज मेरी जिंदगी से भी प्यारे हैं? क्या मरीजों में ही जान है, मुझ में नहीं? इस तरह तो तुम मुझे भी मरीज बना दोगे, सुंदरम. क्या तुम्हें मेरी बिलकुल परवा नहीं है?’
अजीब कशमकश में पड़ा सुंदरम उस की आंखों के आगे फिर तैर आया, ‘मुझे रुलाओ नहीं, रश्मि. क्या तुम समझती हो, मुझे तुम्हारी परवा नहीं रहती? सच पूछो तो रश्मि, मुझे हरदम तुम्हारा ही खयाल रहता है. कई बार इच्छा होती है कि सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास ही आ कर बैठ जाऊं, चाहे दुनिया में कुछ भी क्यों न हो जाए.
‘लेकिन क्या करूं, रश्मि. जब भी किसी मरीज के बारे में सुनता या उसे देखता हूं तो मेरी आंखों के आगे मां का तड़पता शरीर तैर जाता है और मैं रह नहीं पाता. मुझे लगता है, 14 साल पहले की स्थिति उपस्थित होने जा रही है. उस समय किसी डाक्टर की गलती ने मेरी मां के प्राण लिए थे और आज मैं मरीज को न देखने जा कर उस के प्राण ले रहा हूं. और उस के घर वाले उसी तरह मरीज की असमय मृत्यु से पागल हुए जा रहे हैं, मुझ को कोस रहे हैं, जिस तरह मैं ने व मेरे घर वालों ने डाक्टर को समय पर न आने से मां की असमय मृत्यु हो जाने पर कोसा था.’
‘रश्मि, मैं जितना भी बन सकता है, तुम्हारे पास ही रहने की कोशिश करता हूं. 24 घंटों में काफी समय तब भी निकल आता है, तुम्हारे पास बैठने का, तुम्हारे साथ रहने का. मेरे अलग होने पर तुम अविनाश से ही खेल लिया करो या टेप ही चला लिया करो. तुम टेप सुन कर भी अपने नजदीक मेरे होने की कल्पना कर सकती हो.’
‘ऊंह, केवल इन्हीं बातों के सहारे जिंदगी नहीं बिताई जा सकती, सुंदरम. नहीं, बिलकुल नहीं.’
‘रश्मि, मुझे समझने की कोशिश करो. मेरे दिल की गहराई में डूब कर मुझे पहचानने की कोशिश करो. मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत है, रश्मि. मुझे तुम्हारे प्यार की जरूरत है, रश्मि. उस प्यार की, उस सहारे की जो कर्तव्य पथ पर बढ़ते मेरे कदमों को सही दिशा प्रदान करे. तुम क्या जानो, रश्मि, तुम जब प्रसन्न हो, जब तुम्हारा चेहरा मुसकराता है तो मेरे मन में कैसे अपूर्व उत्साह की रेखा खिंच जाती है.
‘और जब तुम उदास होती हो, तुम नहीं जानतीं, रश्मि, मेरा मन कैसीकैसी दशाओं में घूम उठता है. मरीज को देखते वक्त, कैसी मजबूती से, दिल को पत्थर बना कर तुम्हें भूलने की कोशिश करता हूं. और मरीज को देखने के तुरंत बाद तुम्हारी छवि फिर सामने आ जाती है और उस समय मैं तुरंत वापस दौड़ पड़ता हूं, तुम्हारे पास आने के लिए, तुम्हारे सामीप्य के लिए…
‘रश्मि, जीवन में मुझे दो ही चीजें तो प्रिय हैं-कर्तव्य और तुम. तुम्हारी हर खुशी मैं अपनी खुशी समझता हूं, रश्मि. और मेरी खुशी को यदि तुम अपनी खुशी समझने लगो तो…तो शायद कोई समस्या न रहे. रश्मि, मुझे समझो, मुझे पहचानो. मैं हमेशा तुम्हारा मुसकराता चेहरा देखना चाहता हूं. रश्मि, मेरे कदमों के साथ अपने कदम मिलाने की कोशिश तो करो. मुझे अपने कंधों का सहारा दो, रश्मि.’
और रश्मि के आगे घूम गया सुंदरम का तेजी से हावभाव बदलता चेहरा. चलचित्र की भांति उस के आगे कई चित्र खिंच गए. मां की असमय मृत्यु की करुणापूर्ण याद समेटे, आज का बलिष्ठ, प्यारा सुंदर, जो मां को याद आते ही बच्चा बन जाता है, पत्नी के आगे बिलख उठता है. रो उठता है. वह सुंदरम, जो कर्तव्य पथ पर अपने कदम जमाने के लिए पत्नी का सहारा चाहता है, उस की मुसकराहट देख कर मरीज को देखने जाना चाहता है और लौटने पर उस की वही मुसकराहट देख कर आनंदलोक में विचरण करना चाहता है लेकिन वह करे तो क्या करे? वह नहीं समझ पाती कि सुंदरम सही है या वह. इस बात की गहराई में वह नहीं डूब पाती. उस का मन इस समस्या का ऐसा कोई हल नहीं खोज पाता, जो दोनों को आत्मसंतोष प्रदान करे. सुंदरम की मां डाक्टर की असावधानी के कारण ही असमय मृत्यु की गोद से समा गई थीं और उसी समय सुंदरम का किया गया प्रण ही कि ‘मैं डाक्टर बन कर किसी को भी असमय मरने नहीं दूंगा,’ उसे डाक्टर बना सका था. इस बात को वह जानती थी.
किंतु वह नहीं चाहती कि इसी कारण सुंदरम उस की बिलकुल ही उपेक्षा कर बैठे. कुछ खास अवसरों पर तो उसे उस का खयाल रखना ही चाहिए. उस समय वह किसी अपने दोस्त डाक्टर को ही फोन कर के मरीज के पास क्यों न भेज दे?
रश्मि ने एक गहरी सांस ली. खयालों में घूमती उस की पलकें एकदम फिर पूरी खुल गईं और फिर उसे लगा, वही अंधेरा दूरदूर तक फैला हुआ है. वह समझ नहीं पा रही थी कि इस अंधेरे के बीच से कौन सी राह निकाले?
अंधेरे की चादर में लिपटी उस की आंखें दूरदूर तक अंधेरे को भेदने का प्रयास करती हुई खयालों में घूमती चली गईं. उसे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया, उसे खुद पता न चला. अगले दिन कौलबैल एक बार फिर घनघनाई. और इस बार न केवल बजी ही, बल्कि बजती ही चली गई. इस के साथ ही दरवाजे पर भी जोरों की थाप पड़ने लगी. और यह थाप ऐसी थी जो रश्मि को पांव से ले कर सिर तक झकझोर गई. उस के चेहरे की भावभंगिमा भयंकर हो गई और शरीर कांपने सा लगा. माथे की सलवटें जरूरत से ज्यादा गहरी हो गईं और दांत आपस में ही पिसने लगे. पति का मधुर सामीप्य उसे फिर दूर होता प्रतीत हुआ और भावावेश में उस की मुट्ठियां भिंचने लगीं. उस का एकएक अंग हरकत करने लगा और वह अपने को बहुत व्यथित तथा क्रोधित महसूस करने लगी.
वह चोट खाई नागिन की तरह उठी. आज तो वह कुछ कर के ही रहेगी. मरीज को सुना कर ही रहेगी और इस तरह सुनाएगी कि कम से कम यह मरीज तो फिर आने का नाम ही नहीं लेगा. अपना ही राज समझ रखा है. ‘उफ, कैसे दरवाजा पीट रहा है, जैसे अपने घर का हो? क्या इस तरह तंग करना उचित है? वह भी आधी रात को? खुद तो परेशान है ही, दूसरों को बेमतलब तंग करना कहां की शराफत है?’ वह बुदबुदाई और मरीज के व्यवहार पर अंदर ही अंदर तिलमिला गई.
‘‘मैं देखती हूं,’’ दरवाजे की ओर बढ़ते हुए सुंदरम को रोकते हुए रश्मि बोली.
‘‘ठीक है,’’ सुंदरम ने कहा, ‘‘देखो, तब तक मैं कपड़े पहन लेता हूं.’’
रश्मि दरवाजा खोलते हुए जोर से बोली, ‘‘कौन है?’’
‘‘मैं हूं, दीदी,’’ बाहर से उस के भाई सूरज की घबराई हुई सी आवाज आई.