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अगले दिन वसुधा ने मानव को दफ्तर की तरफ जाते देखा तो वह भी पीछेपीछे पहुंच गई. मानव अपनी कुरसी पर बैठ ही रहा था कि एक बरसों से अनजान मगर सदियों से परिचित खुशबू ने उसे पलभर के लिए चौंका दिया, संयत हो कर मानव ने धीरे से कहा, ‘‘आओ वसुधा, सबकुछ हो गया न, कोई दिक्कत तो नहीं हुई? करण कहां है?’’

सबकुछ ठीक हो गया मगर ठीक कुछ भी नहीं है. मैं समंदर में गोते लगाती एक ऐसी नैया हूं जिस का न कोई किनारा है न साहिल. नियति एक के बाद एक मेरी परीक्षाएं लेती आ रही है और यह सिलसिला चलता जा रहा है, थमने का नाम ही नहीं ले रहा. कभी नहीं सोचा था कि तुम से यों अचानक मुलाकात हो जाएगी. जो कुछ कालेज में हुआ उस के बाद तो मैं तुम से नजर ही नहीं मिला सकती, कितने बड़े अपराधबोध में जी रही हूं मैं.’’

‘‘तुम्हें एक अपराधबोध से तो मैं

ने बिना कहे ही मुक्त कर

दिया. जब मेरी आंखें ही नहीं तो नजर मिलाने का तो प्रश्न ही नहीं,’’ मानव ने एक फीकी मुसकान फेंकते हुए कहा.

‘‘मगर, तुम्हारी आंखें?’’ वसुधा ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘लंबी कहानी है. मगर सार यही है कि पहली बार एहसास हुआ कि जातपांत के सदियों पुराने बंधन से हमारा समाज पूरी तरह से मुक्त नहीं हुआ है. जातिवाद के जहर को देश से निकलने में अभी कुछ वक्त और लगेगा. जब तुम्हारे रिश्तेदारों ने हमें बीकानेर फोर्ट की दीवार पर देखा तो वे अपना आपा खोने लगे. तुम्हारी बेवफाई ने आग में घी का काम किया. तुम ने तो बड़ी आसानी से यह कह कर दामन छुड़ा लिया कि मैं ने तुम्हें मजबूर किया मिलने के लिए और तुम्हारा मेरा कोई रिश्ता नहीं, मगर मुझ से वे बड़ी बेरहमी से पेश आए.’’

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