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कहानी- वंदना आर्य

चारों तरफ रोशनी थी. सारा माहौल जगमगा रहा था. वह आलीशान कोठी खुशबू और टिमटिमाते बल्बों से दमक रही थी. विशाल लौन करीने से सजाया गया था. चारों तरफ मेजें सजी थीं. बैरे फुरती से मेहमानों की खातिरदारी में लगे थे. लकदक करते जेवर, कपड़ों से सजी औरतें और मर्द मुसकराते, कहकहे लगाते इधरउधर फिर रहे थे. फूलों से सजे स्टेज पर दूल्हादुलहन भी हंसतेमुसकराते फोटो के लिए पोज दे रहे थे. सब हंसीमजाक में मस्त थे.

आज मिस्टर स्वरूप के बड़े बेटे सतीश की शादी थी. पैसा जम कर बहाया गया था. वे शहर के जानेमाने रईस और रुतबे वाले व्यक्ति थे. उन की पत्नी सरोजिनी इस उम्र में भी काफी फिट और आकर्षक लग रही थीं. आज वे खुद भी दुलहन की तरह सजी थीं.

लौन के एक कोने में एक कुरसी में गुमसुम सी बैठी दिव्या सोच रही थी कि इस माहौल में वह कहां फिट होती है. कितनी ही देर से वह अकेली बैठी है पर किसी को भी उस का खयाल तक नहीं आया. अपनी उपेक्षा से उस का मन भर आया. उस का ग्रामीण परिवेश में पलाबढ़ा मानस इस चकाचौंधभरी दुनिया को देख कर सहम जाता था. अब तो उसे लगने लगा था कि इस परिवार के लोग इस बात को भुला ही चुके हैं कि वह इस परिवार की छोटी बहू बनने वाली है, अनुज की मंगेतर है. 7 महीने पहले ही धूमधाम से उन की सगाई हुई थी. अगर आज मम्मीपापा जीवित होते तो शायद परिस्थिति ही दूसरी होती. मातापिता की स्मृति से उस की आंखें भर आईं.

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