लेखक - डा. मधुकर एस. भट्ट

साल 1976 की बात रही होगी. उन दिनों मैं मेडिकल कालेज अस्पताल के सर्जरी विभाग में सीनियर रैजीडैंट के पद पर काम कर रहा था. देश में आपातकाल का दौर चल रहा था. नसबंदी आपरेशन का कोहराम मचा हुआ था. हम सभी डाक्टरों को नसबंदी करने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया था, और इसे अन्य सभी आपरेशन के ऊपर प्राथमिकता देने का भी निर्देश था. लक्ष्य पूरा न होने पर वेतन वृद्धि और उन्नति रोकने की चेतावनी दे दी गई थी. हम लोगों की ड्यूटी अकसर गावों में आयोजित नसबंदी कैंप में भी लग जाया करती थी.

कैंप के बाहर सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की भीड़ लगी रहती थी. उन्हें प्रेरक का काम दे दिया गया था और निर्धारित कोटा न पूरा करने पर उन की नौकरी पर भी खतरा था. कोटा पूरा करने के उद्देश्य से वृद्धों को भी वे पटा कर लाने में नहीं हिचकते थे.

कुछ व्यक्ति तो बहुत युवा रहते थे, जिन का आपरेशन करने में अनर्थ हो जाने की आशंका बनी रहती थी. कैंप इंचार्ज आमतौर पर सिविल सर्जन रहा करते थे. रोगियों से हमारी पूछताछ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी.

बुजुर्ग शिक्षकों की स्थिति बेहद खराब थी. उन से प्रेरक का काम हो नहीं पाता था, लेकिन अवकाशप्राप्ति के पूर्व कर्तव्यहीनता के लांछन से अपने को बचाए रखना भी उन के लिए जरूरी रहता था. वे इस जुगाड़ में रहते थे कि यदि कोई रोगी स्वयं टपक पड़े तो  प्रेरक के रूप में अपना नाम दर्ज करवा लें या कोटा पूरा कर चुके शिक्षक की आरजूमिन्नत से शायद काम बन जाए. जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी का यह तरीका कितना उपयुक्त था, यह तो आपातकाल के विश्लेषकों का विषय है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...