एक तरफ गजल गायक व गजल सुनने वाले गायब होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मुंबई की जानी मानी रेडियोलौजिस्ट डा. काकोली बोरठाकुर अपने पहले 6 गजलों के सोलो गजल एलबम ‘दिल के पास’ में आवाज का जादू बिखेरेंगी. इस में शकील बदायुनी की डुएट गजल ‘कैसे कह दूं कि मुलाकात नहीं होती…’ को डा. काकोली ने भजन सम्राट अनूप जलोटा के साथ गाया है.

आसाम में जन्मी काकोली की परवरिश डाक्टर परिवार में हुई है. उन के माता-पिता के साथ साथ भाईबहन, चाचा सभी डाक्टर हैं. लेकिन काकोली को संगीत भी अपनी मां से विरासत में मिला. उनकी मां आरती डाक्टर होने के साथ-साथ फोक गायिका भी थीं.

घर के माहौल ने आपको संगीत से जोड़ा?

सच कहूं तो शुरुआत में मेरी मां डाक्टर आरती ने ही मुझे संगीत सीखने के लिए भेजा. यह वह दौर था, जब बच्चे अपने बड़ों की बात आंख मूंद कर मानते थे. स्कूल में संगीत सीखते और घर में रियाज करतेकरते मेरे अंदर भी संगीत के प्रति ललक बढ़ गई.

बचपन में संगीत की समझ न होने पर भी हम सीखते रहे. पर बाद में संगीत की समझ हुई. मुंबई आने के बाद जब मेरा संपर्क भजन सम्राट व गजल गायक अनूप जलोटाजी से हुआ, तब मैंने उन से संगीत की कुछ बारीकियां सीखीं. अब मैं संगीत को गहराइयों में जा कर समझती हूं. संगीत में रूह बहुत जरूरी है. यह रूह आप सीख नहीं सकते, यह तो दिल से आती है.

संगीत के अलावा डाक्टरी पेशा?

मेरे परिवार में सभी डाक्टर हैं. मैं भी पढ़ाई में गोल्ड मैडलिस्ट थी. मेरे घर में मेरे मम्मीपापा, बूआ, भाई सभी डाक्टर हैं. मतलब मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है, जो डाक्टर न हो. हां, मेरे पति संगीत जगत में नहीं हैं. वे रिलायंस में हैं.

मुंबई आने से पहले आप ने सिर्फ अपनी मां से ही संगीत सीखा था?

हां, मुझे संगीत की प्रेरणा अपनी मां से मिली. पर बाद में मैं ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली. मैं ने 1996 में लखनऊ के ‘भातखंडे संगीत विद्यापीठ’ से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में विशारद की डिगरी हासिल की. मैं ने मुंबई के टाटा मैमोरियल अस्पताल से रेडियोलौजी में पोस्ट ग्रैजुएशन भी किया है. 15 वर्षों से नवी मुंबई में रेडियोलौजिस्ट के रूप में अपना खुद का अस्पताल चला रही हूं.

अस्पताल में महिलाओं के स्वास्थ्य की फिक्र, तो घर पर मां और पत्नी की जिम्मेदारियों को निभाना कभी आसान नही रहा. पर हर जिम्मेदारी को निभाते हुए संगीत से भी जुड़ी रही.

सुबह शाम संगीत का रियाज करने से मेरी सारी थकावट दूर हो जाती है. संगीत के पैशन ने मुझे हमेशा प्रसन्न रखा. मेरी 2 टीनऐजर बेटियां भी खुश हैं. मुंबई पहुंचने के बाद मेरी मुलाकात भजन सम्राट अनूप जलोटा, पंडित अजय पोहनकर, उस्ताद मकबूल खान और राकेश पंडित से हुई.

मैंने मुंबई में अपने संगीत के कार्यक्रम देने शुरू किए. तब मेरी मुलाकात अनूप जलोटा से हुई. मैंने उन के साथ भी कई बार स्टेज पर गाया. अनूप जलोटा के साथ मैं ने गजल, भजन और सेमीक्लासिकल गीत गाए हैं. मेरा अपना पहला गजल एलबम ‘दिल के पास’ है, जिसे ‘टाइम्स म्यूजिक’ बाजार में ले कर आया है.

आप ने अपना पहला गजल एलबम ‘दिल के पास’ बनाने की बात कब सोची?

मुंबई के स्टेज कार्यक्रमों में मैं गजल तो गा ही रही थी, इत्तेफाक से मेरे दिमाग में एक दिन आया कि मुझे भी अपना संगीत एलबम बनाना चाहिए. यदि मैं यह कहूं कि संगीत के प्रति पैशन और गजल को बढ़ावा देने के मकसद से मैं अपना पहला गजल एलबम ‘दिल के पास’ ले कर आ रही हूं तो भी गलत नहीं होगा. पर मैं ने डाक्टरी पेशे से समय निकाल कर संगीत की साधना करते हुए इस एलबम को तैयार किया है. इसे तैयार करने में भजन सम्राट व गजल गायक अनूप जलोटा से काफी मदद मिली.

इस एलबम में किस तरह की गजलें हैं?

इस एलबम की सभी गजलें रोमांस से जुड़ी हैं. इन गजलों में रोमांस का हर पहलू नजर आएगा. इस एलबम की गजलें शकील बदायुनी, शकील आजमी और इरशाद दलाल ने लिखी हैं. इस में नए गजलकार इरशाद दलाल की एक गजल है ‘उन से नजरें मिलाने को जी चाहता है, जमाना भूल जाने को जी चाहता है…’ जबकि गजल ‘आए नहीं साजन…’ में श्रोताओं को ठुमरी का रसास्वादन मिलेगा. इस के साथसाथ एलबम में नए कलाकारों को भी मौका मिला है.

आपके लिए संगीत क्या है?

मेरे लिए संगीत खुद को तनावमुक्त रखने का बेहतरीन माध्यम है. संगीत खुद को समझाने के साथसाथ दूसरों को भी समझा देता है. संगीत दोस्त व हमराही है. संगीत तनहाई को दूर करता है. मेरे जैसे दूसरे पेशे में व्यस्त रहने वाले लोगों के लिए भी संगीत सब से बड़ा सुकून देने वाला साथी है.

आप मशहूर रेडियोलौजिस्ट हैं और संगीत से भी जुड़ी हुई हैं. ऐसे में आपकी दिनचर्या क्या रहती है?

सुबह 6 बजे उठ कर घर का काम निबटा कर 2 घंटे संगीत का रियाज करती हूं. फिर तैयार हो कर 10 बजे तक अस्पताल पहुंच जाती हूं. शाम को 6 बजे घर पहुंचती हूं. चाय वगैरह पीने के बाद 2 घंटे संगीत का रियाज करती हूं. फिर घर के काम करती हूं.

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