Latest Hindi Stories : वजूद – क्या छिपा रही थी शहला

Latest Hindi Stories : ‘‘शहला… अरी ओ शहला… सुन रही है न तू? जा, जल्दी से तैयार हो कर अपने कालेज जा,’’ आंगन में पोंछा लगाती अम्मी ने कहा, तो रसोईघर में चाय बनाती शहला को एकबारगी अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

हैरान सी शहला ने नजर उठा कर इधरउधर देखा. अम्मी उस से ही यह सब कह रही थीं.

शहला इतना ही कह पाई, ‘‘अम्मी, वह चाय…’’

‘‘मैं देख लूंगी. तू कालेज जा.’’

फिर क्या था, शहला को मानो पर लग गए थे. अगले 10 मिनट में वह तैयार हो कर किताबें संभाल अपनी साइकिल साफ कर के चलने को हुई, तो अम्मी ने आवाज लगाई, ‘‘रोटी सेंक दी है तेरे लिए. झटपट चाय के साथ खा ले, नहीं तो भूखी रहेगी दिनभर.’’

अम्मी में आए इस अचानक बदलाव से हैरान शहला बोल उठी, ‘‘अरे अम्मी, रहने दो न. मैं आ कर खा लूंगी. कालेज को देर हो जाएगी.’’

हालांकि शहला का पेट अम्मी द्वारा दी गई खुशी से लबालब था, फिर भी ‘अच्छाअच्छा, खा लेती हूं’ कह कर उस ने बात को खत्म किया.

शहला अम्मी को जरा सा भी नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए जल्दी से नाश्ता किया, बीचबीच में वह चोर निगाहों से अम्मी के चेहरे की तरफ देखती रही, फिर उस ने नजरें इधरउधर घुमा कर अपनी खुशी बांटने के लिए अब्बू को तलाशा. इस उम्मीद में कि शायद वे खेत से लौट आए हों, पर भीतर से वह जानती थी कि उन के लौटने में अभी देरी है.

सो, नफीसा के सिर पर हाथ फेर कर जावेद को स्कूल के लिए तैयार होने की कह कर मन ही मन अब्बू को सलाम कर के शहला ने अपनी साइकिल आंगन से बाहर निकाल ली. बैग कैरियर में लगाने के बाद वह ज्यों ही साइकिल पर सवार हुई, तो लगा मानो आज उस की साइकिल को पर लग गए हों.

चाय की इक्कादुक्का दुकानों को छोड़ कर शहर के बाजार अभी बंद ही थे. तेजी से रास्ता पार कर शहला अपने कालेज जा पहुंची.

चौकीदार राजबीर काका के बच्चे स्कूल जाने को तैयार खड़े थे. उन्होंने उसे नमस्ते किया और उस ने राजबीर काका को. स्टैंड पर साइकिल खड़ी कर के वह तकरीबन दौड़ती हुई पीछे मैदान में उस के पास जा पहुंची.

एक पल ठिठक कर उसे देखा और लिपट गई उस से. अब तक ओस की ठिठुरन से सिकुडा सा खड़ा वह अचानक उस की देह की छुअन, लिपटी बांहों की गरमी पा कर खुशी में झरने लगा था और उस को सिर से पैर तक भर दिया नारंगी डंडी वाले दूधिया फूलों से.

शहला कहने लगी, ‘‘बस बाबा, बस, अब बंद करो ये शबनम भीगे फूलों को बरसाना और जल्दी से मेरी बात सुनो,’’ वह उतावली हो रही थी.

शहला के गांव का स्कूल 12वीं जमात तक ही था. उस की जिगरी सहेलियों विद्या और मीनाक्षी को उन की जिद पर उन के मातापिता शहर के कालेज में भेजने को राजी हो गए, लेकिन शहला के लाख कहने पर भी उसे आगे पढ़ने की इजाजत नहीं मिली.

इस बात से शहला बहुत दुखी थी. उस की अम्मी की जिद के आगे किसी की न चली और उसे अपनी पक्की सहेलियों से बिछुड़ जाना पड़ा. यहां कुछ लड़कियों से उस की दोस्ती हो गई थी, पर विद्या और मीनाक्षी से जो दिल का रिश्ता था, वह किसी से न बन पाया, इसलिए वह खाली समय में अपने दिल की बात कहनेबांटने के लिए कालेज के बड़े से बगीचे के इस हरसिंगार के पेड़ के पास चली आती.

यह हरसिंगार भी तो रोज फूल बरसा कर उस का स्वागत करता, सब्र के साथ उस की बात सुनता, उसे मुसकराने की प्रेरणा दे कर उस को हौसला देता.

पर आज की बात ही कुछ और है, इसलिए शहला हरसिंगार के तने से पीठ टिका कर बैठी और कहने लगी, ‘‘आज अम्मी ने मुझे खुद कालेज आने के लिए कहा. उन्होंने मन लगा कर पढ़ने को कहा. अव्वल रहने को कहा और आगे ऊंची पढ़ाई करने को भी कहा.

‘‘मालूम है, उन अम्मी ने, उन्होंने… हरसिंगार तू जानता है न मेरी पुराने खयालात वाली अम्मी को. इसी तंगखयाली के मारे उन्होंने मुझे 12वीं के आगे पढ़ाने से मना कर दिया था. उन पर तो बस मेरे निकाह का भूत सवार था. दिनरात, सुबहशाम वे अब्बू को मेरे निकाह के लिए परेशान करती रहतीं.

‘‘इसी तरह अब्बू से दिनरात कहसुन कर उन्होंने कुछ दूर के एक गांव में मेरा रिश्ता तय करवा दिया था. लड़के वालों को तो और भी ज्यादा जल्दी थी. सो, निकाह की तारीख ही तय कर दी.

‘‘अच्छा, क्या कह रहा है तू कि मैं ने विरोध क्यों नहीं किया? अरे, किया…   अब्बू ने मेरी छोटी उम्र और पढ़ाई की अहमियत का वास्ता दिया, पर अम्मी ने किसी की न सुनी.

‘‘असल में मेरी छोटी बहन नफीसा  बहुत ही खूबसूरत है, पर कुदरत ने उस के साथ बहुत नाइंसाफी की. उस की आंखों का नूर छीन लिया.

‘‘3-4 साल पहले सीढ़ी से गिर कर उस के सिर पर चोट लग गई थी. इसी चोट की वजह से उस की आंखों की रोशनी चली गई थी. उस से छोटा मेरा भाई जावेद…

‘‘इसलिए… अब तू ही कह, जब अम्मी की जिद के आगे अब्बू की नहीं चली, तो मेरी मरजी क्या चलती?

‘‘हरसिंगार, तब तक तुम से भी तो मुलाकात नहीं हुई थी. यकीन मानो, बहुत अकेली पड़ गई थी मैं… इसलिए बेचारगी के उस आलम में मैं भी निकाह के लिए राजी हो गई.

‘‘पर तू जानता है हरसिंगार… मेरा निकाह भी एक बड़े ड्रामे या कहूं कि किसी हादसे से कम नहीं था…’’

हरसिंगार की तरफ देख कर शहला मुसकराते हुए आगे कहने लगी, ‘‘हुआ यों कि तय किए गए दिन बरात आई.

‘‘बरात को मसजिद के नजदीक के जनवासे में ठहराया गया था और वहीं सब रस्में होती रहीं. फिर काजी साहब ने निकाह भी पढ़वा दिया.

‘‘सबकुछ शांत ढंग से हो रहा था कि अम्मी की मुरादनगर वाली बहन यानी मेरी नसीम खाला रास्ते में जाम लगा होने की वजह से निकाह पढ़े जाने के थोड़ी देर बाद घर पहुंचीं.

‘‘बड़ी दबंग औरत हैं वे. जल्दबाजी में तय किए गए निकाह की वजह से वे अम्मी से नाराज थीं…’’ कहते हुए शहला ने हरसिंगार के तने पर अपनी पीठ को फिर से टिका लिया और आगे बोली, ‘‘इसलिए बिना ज्यादा किसी से बात किए वे दूल्हे को देखनेमिलने की मंसा से जनवासे में चली गईं. उस वक्त बराती खानेपीने में मसरूफ थे. उन्हें खाला की मौजूदगी का एहसास न हो पाया.

‘‘वे जनवासे से लौटीं और अचानक अम्मी पर बरस पड़ीं, ‘आपा, शहला का दूल्हा तो लंगड़ा है. तुम्हें ऐसी भी क्या जल्दी पड़ रही थी कि अपनी शहला के लिए तुम ने टूटाफूटा लड़का ढूंढ़ा?’

‘‘यह जान कर अम्मी, अब्बू और बाकी रिश्तेदार सब सकते में आ गए. मामले की तुरंत जांचपड़ताल से पता चला कि दूल्हा बदल दिया गया था.

‘‘लड़के वालों ने अब्बू के भोलेपन का फायदा उठा कर चालाकी से असली दूल्हे की जगह उस के बड़े भाई से मेरा निकाहनामा पढ़वा दिया था.

‘‘बात खुलते ही बिचौलिया और कुछ बराती दूल्हे को ले कर मौके से फरार हो गए.

‘‘हमारे खानदान व गांव के लोग इस धोखाधड़ी के चलते बहुत गुस्से में थे. सो, गांव की पंचायत व दूसरे लोगों के साथ मिल कर उन्होंने बाकी बरातियों को जनवासे के कमरे में बंद कर दिया.

‘‘अब मरता क्या न करता वाली बात होने पर दूल्हे के गांव की पंचायत और कुछ लोग बंधक बरातियों को छुड़ाने पहुंच गए. दोनों गांवों की पंचायतों और बुजुर्गों ने आपस में बात की. लड़के वाले किसी भी तरह से निकाह को परवान चढ़ाए रखना चाहते थे.

‘‘वे कहने लगे, ‘विकलांग का निकाह कराना कोई जुर्म तो नहीं, जो तुम इतना होहल्ला कर रहे हो. वैसे भी अब तो निकाह हो चुका है. बेहतर यही है कि तुम लड़की की रुखसती कर दो.

‘‘‘तुम लड़की वाले हो और लड़कियां तो सीने का पत्थर हुआ करती हैं. अब तुम ने तो लड़की का निकाह पढ़वा दिया है न. छोटे भाई से नहीं, तो बड़े से सही. क्या फर्क पड़ता है. तुम समझो कि तुम्हारे सिर से तो लड़की का बोझ उतर ही गया.’

‘‘सच कहूं, उस समय मुझे एहसास हुआ कि हम लड़कियां कितनी कमजोर होती हैं. हमारा कोई वजूद ही नहीं है. तभी अब्बू की भर्राई सी आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘मेरी बेटी कोई अल्लाह मियां की गाय नहीं, जो किसी भी खूंटे से बांध दी जाए और न ही वह मेरे ऊपर बोझ है. वह मेरी औलाद है, मेरा खून है. उस का सुख मेरी जिम्मेदारी है, न कि बोझ… अगर वह लड़की है, तो उसे ऐसे ही कैसे मैं किसी के भी हवाले कर दूं.’

‘‘और कुछ देर बाद हौसला कर के उन्होंने पंचायत से तलाकनामा के लिए दरख्वास्त करते हुए कहा, ‘जनाब, यह ठीक है कि विकलांग होना या उस का निकाह कराना कोई जुर्म नहीं, पर दूसरों को अंधेरे में रख कर या दूल्हा बदल कर ऐसा करना तो दगाबाजी हुई न?

‘‘‘मैं दगाबाजी का शिकार हो कर अपनी पढ़ीलिखी, सलीकेदार, जहीन लड़की को इस जाहिल, बेरोजगार और विकलांग के हाथ सौंप दूं, क्या यही पंचायत का इंसाफ है?’

‘‘यकीन मानो, मुझे उस दिन पता चला कि मैं कोई बोझ नहीं, बल्कि जीतीजागती इनसान हूं. उस दिन मेरी नजर में अब्बू की इज्जत कई गुना बढ़ गई थी, क्योंकि उन्होंने मेरी खातिर पूरे समाज, पंचायत से खिलाफत करने की ठान ली थी.

‘‘लेकिन, पुरानी रस्मों को एक झटके से तोड़ कर मनचाहा बदलाव ले आना, चाहे वह समाज के भले के लिए ही क्यों न हो, इतना आसान तो नहीं. चारों तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई थी… दोनों गांवों के लोग और पंचायत अभी भी सुलह कर के निकाह बरकरार रखने की सिफारिश कर रहे थे.

‘‘अब्बू उस समय बेहद अकेले पड़ गए थे. उस बेबसी के आलम में हथियार डालते हुए उन्होंने गुजारिश की, ‘ठीक है जनाब, पंच परमेश्वर होते हैं. मैं ने अपनी बात आप के आगे रखी, फिर भी अगर मेरी बच्ची की खुशियां लूट कर और उसे हलाल करने का गुनाह मुझ से करा कर शरीअत की आन और आप लोगों की आबरू बचती है, तो मैं निकाह को बरकरार रखते हुए अपनी बच्ची की रुखसती कर दूंगा, लेकिन मेरी भी एक शर्त है.

‘‘‘बात यह है कि शहला की छोटी बहन नफीसा बहुत ही खूबसूरत है और जहीन भी, लेकिन एक हादसे में उस की नजर जाती रही. बस, यही एक कमी है उस में.

‘‘‘आप के कहे मुताबिक जब बेटियों को हम बोझ ही समझते हैं और आप सब मेरे खैरख्वाह एक बोझ को उतारने में मेरी इतनी मदद कर रहे हैं. मुझे तो अपने दूसरे बोझ से भी नजात पानी है और फिर किसी शारीरिक कमी वाले शख्स का निकाह कराना कोई गुनाह भी नहीं, तो क्यों न आप नफीसा का निकाह इस लड़के के छोटे भाई यानी जिसे हम ने अपनी शहला के लिए पसंद किया था, उस से करा दें? हिसाबकिताब बराबर हो जाएगा और दोनों बहनें एकसाथ एकदूसरे के सहारे अपनी जिंदगी भी गुजार लेंगी.’

‘‘बस, फिर क्या था, हमारे गांव की पंचायत व बाकी लोग एक आवाज में अब्बू की बात की हामी भरने लगे, पर दूल्हे वालों को जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘हां, उस के बाद जो कुछ भी हुआ, मेरे लिए बेमानी था. मैं उस दिन जान पाई कि मेरा भी कोई वजूद है और मैं भेड़बकरी की तरह कट कर समाज की थाली में परोसे जाने वाली चीज नहीं हूं.

‘‘मेरे अब्बू अपनी बेटी के हक के लिए इस कदर लड़ाई लड़ सकते हैं, मैं सोच भी नहीं सकती थी. फिर तो… दूल्हे वालों ने मुझे तलाक देने में ही अपनी भलाई समझी. मैं तो वैसे भी इस निकाह के हक में नहीं थी, बल्कि आगे पढ़ना चाहती थी.

‘‘हां, उस के बाद कुछ दिन तक घर में चुप्पी का माहौल रहा, फिर परेशानी के आलम में अम्मी अब्बू से कहने लगीं, ‘जावेद के अब्बू, तुम्हीं कहो कि अब इस लड़की का क्या होगा. क्या यह बोझ सारी उम्र यों ही हमारे गले में बंधा रहेगा?’

‘‘हरसिंगार, तू जानना चाहता है कि अब्बू ने अम्मी से क्या कहा?’’ अब्बू बोले, ‘नुसरत, बेटियां बोझ नहीं हुआ करतीं. वे तो घर की रौनक होती हैं. बोझ होतीं तो कोई हमारे घर के बोझ को यों मांग कर के अपने घर ले जाता. बेटियां तो एक छोड़ 2-2 घर आबाद करती हैं. अब मत कोसना इन्हें.

‘‘‘कल मैं शहर के अस्पताल में नफीसा की आंखों के आपरेशन के लिए बात करने गया था. वहां आधे से ज्यादा तो लेडी डाक्टर थीं और वे भी 25-26 साल की लड़कियां. उन में से 2 तो मुसलिम हैं, डाक्टर जेबा और डाक्टर शबाना. क्या वे किसी की लड़कियां नहीं हैं?

‘‘‘हां, डाक्टर ने उम्मीद दिलाई है कि हमारी नफीसा फिर से देख सकेगी. और हां, तू इन के निकाह की चिंता मत कर. सब ठीक हो जाएगा.

‘‘‘अरे हां नुसरत, तब तक क्यों न शहला को आगे पढ़ने दें? कोई हुनर हाथ में होगा, तो समाजबिरादरी में सिर उठा कर जी सकेगी हमारी शहला.

‘‘‘अब जमाना बदल चुका है. तू भी लड़कियों के लिए अपनी तंगखयाली छोड़ उन के बारे में कुछ बढि़या सोच…’

‘‘और हरसिंगार, अब्बू ने जमाने की ऊंचनीच समझा कर, मेरी भलाई का वास्ता दे कर अम्मी को मना तो लिया, पर मुझे बड़े शहर भेज कर पढ़ाने को वे बिलकुल राजी नहीं हुईं, इसलिए अब्बू ने उन की रजामंदी से यहां कसबे के इस आईटीआई में कटिंगटेलरिंग और ड्रैस डिजाइनिंग कोर्स में मेरा दाखिला भी करा दिया.

‘‘अब मैं हर रोज साइकिल से यहां पढ़ने आने लगी. यहां नए लोग, नया माहौल, नया इल्म तो मिला ही, उस के साथसाथ हरदम व हर मौसम में खिलखिलाने वाले एक प्यारे दोस्त के रूप में तुम भी मिल गए और मेरी जिंदगी के माने ही बदल गए.

‘‘पर अम्मी अभी भी अंदर से घबराई हुईं और परेशान रहती हैं. जबतब मुझे कोसती रहती हैं, ताने मारती हैं और छोटेबड़े काम के लिए मुझे छुट्टी करने पर मजबूर करती हैं.

‘‘इसी बीच पिछले हफ्ते शहर के एक बड़े अस्पताल में अब्बू ने नफीसा की आंखों का आपरेशन करा दिया. उस दिन अम्मी भी हमारे साथ अस्पताल गई थीं और आपरेशन थिएटर के बाहर खड़ी थीं.

‘‘तभी आपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला और डाक्टर शबाना ने मुसकराते हुए कहा, ‘आंटीजी, मुबारक हो. आपरेशन बहुत मुश्किल था, इसलिए ज्यादा समय लग गया, पर पूरी तरह से कामयाब रहा.’

‘‘जानता है हरसिंगार, अम्मी हैरत में पड़ी उन्हें बहुत देर तक देखती रहीं, फिर उन से पूछने लगीं, ‘बेटी, यह आपरेशन तुम ने किया है क्या?’

‘‘वे बोलीं, ‘जी हां.’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘कुछ नहीं बेटी, मैं तो बस…’

‘‘उस के बाद अम्मी जितना वक्त अस्पताल में रहीं, वहां की लेडी डाक्टरों और नर्सों को एकटक काम करते देखती रहती थीं.

‘‘उस दिन से अम्मी काफी चुपचाप सी रहने लगी थीं. कल नफीसा के घर लौटने के बाद अब्बू से कहने लगीं, ‘शहला के अब्बू, सुनो…’

‘‘अब्बू ने अम्मी से पूछ ही लिया, ‘नुसरत, आज कुछ खास हो गया क्या, जो तुम मुझे जावेद के अब्बू की जगह शहला के अब्बू कह कर बुलाने लगी?’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘अरे, तुम ही तो कहते हो कि लड़का और लड़की में कोई फर्क नहीं होता और फिर तुम शहला के बाप न हो क्या?’

‘‘वे आगे कहने लगीं, ‘मैं तो यह कह रही थी कि नफीसा की आंख ठीक हो जाए, तो उसे भी दोबारा स्कूल पढ़ने भेज देंगे. पढ़लिख कर वह भी डाक्टर बन जाए, तो कैसा रहेगा?’

‘‘यह सुन कर अब्बू ने कहा, ‘अब तुम कह रही हो, तो ठीक ही रहेगा.’

‘‘इतना कह कर अब्बू मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगे थे और आज सुबह अम्मी ने मेरे कालेज जाने पर मुहर लगा दी.’’

खुशी में सराबोर शहला खड़ी हो कर फिर से लिपट गई अपने दोस्त से और आसमान की तरफ देख कर कहने लगी, ‘‘देखो न हरसिंगार, आज की सुबह कितनी खुशनुमा है… बेदाग… एकदम सफेद… है न?

‘‘आज तुझ से सब कह कर मैं हलकी हो गई हूं. निकाह के वाकिए को तो मैं एक बुरा सपना समझ कर भूल चुकी हूं. याद है तो मुझे अपनी पहचान, जिस से रूबरू होने के बाद अब जिंदगी मुझे बोझ नहीं, बल्कि एक सुरीला गीत लगती है,’’ कहतेकहते शहला की आंखों में जुगनू झिलमिलाने लगे.

Hindi Stories Online : ममता – क्या थी गायत्री और उसकी बेटी प्रिया की कहानी

Hindi Stories Online : दालान से गायत्री ने अपनी बेटी की चीख सुनी और फिर तेजी से पेपर वेट के गिरने की आवाज आई तो उन के कान खड़े हो गए. उन की बेटी प्रिया और नातिन रानी में जोरों की तूतू, मैंमैं हो रही थी. कहां 10 साल की बच्ची रानी और कहां 35 साल की प्रिया, दोनों का कोई जोड़ नहीं था. एक अनुभवों की खान थी और दूसरी नादानी का भंडार, पर ऐसे तनी हुई थीं दोनों जैसे एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों.

‘‘आखिर तू मेरी बात नहीं सुनेगी.’’

‘‘नहीं, मैं 2 चोटियां करूंगी.’’

‘‘क्यों? तुझे इस बात की समझ है कि तेरे चेहरे पर 2 चोटियां फबेंगी या 1 चोटी.’’

‘‘फिर भी मैं ने कह दिया तो कह दिया,’’ रानी ने अपना अंतिम फैसला सुना डाला और इसी के साथ चांटों की आवाज सुनाई दी थी गायत्री को.

रात गहरा गई थी. गायत्री सोने की कोशिश कर रही थीं. यह सोते समय चोटी बांधने का मसला क्यों? जरूर दिन की चोटियां रानी ने खोल दी होंगी. वह दौड़ कर दालान में पहुंचीं तो देखा कि प्रिया के बाल बिखरे हुए थे. साड़ी का आंचल जमीन पर लोट रहा था. एक चप्पल उस ने अपने हाथ में उठा रखी थी. बेटी का यह रूप देख कर गायत्री को जोरों की हंसी आ गई. मां की हंसी से चिढ़ कर प्रिया ने चप्पल नीचे पटक दी. रानी डर कर गायत्री के पीछे जा छिपी.

‘‘पता नहीं मैं ने किस करमजली को जन्म दिया है. हाय, जन्म देते समय मर क्यों नहीं गई,’’ प्रिया ने माथे पर हाथ मार कर रोना शुरू कर दिया.

अब गायत्री के लिए हंसना मुश्किल हो गया. हंसी रोक कर उन्होंने झिड़की दी, ‘‘क्या बेकार की बातें करती है. क्या तेरा मरना देखने के लिए ही मैं जिंदा हूं. बंद कर यह बकवास.’’

‘‘अपनी नातिन को तो कुछ कहती नहीं हो, मुझे ही दोषी ठहराती हो,’’ रोना बंद कर के प्रिया ने कहा और रानी को खा जाने वाली आंखों से घूरने लगी.

‘‘क्या कहूं इसे? अभी तो इस के खेलनेखाने के दिन हैं.’’

इस बीच गायत्री के पीछे छिपी रानी, प्रिया को मुंह चिढ़ाती रही.

प्रिया की नजर उस पर पड़ी तो क्रोध में चिल्ला कर बोली, ‘‘देख लो, इस कलमुंही को, मेरी नकल उतार रही है.’’

गायत्री ने इस बार चौंक कर देखा कि प्रिया अपनी बेटी की मां न लग कर उस की दुश्मन लग रही थी. अब उन के लिए जरूरी था कि वह नातिन को मारें और प्रिया को भी कस कर फटकारें. उन्होंने रानी का कान ऐंठ कर उसे साथ के कमरे में धकेल दिया और ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘प्रिया, रानी के लिए तू ऐसा अनापशनाप मत बका कर.’’

प्रिया गायत्री की बड़ी लड़की है और रानी, प्रिया की एकलौती बेटी. गरमियों में हर बार प्रिया अपनी बेटी को ले कर मां के सूने घर को गुलजार करने आ जाती है.

गायत्री ने अपने 8 बच्चों को पाला है. उन की लड़कियां भी कुछ उसी प्रकार बड़ी हुईं जिस तरह आज रानी बड़ी हो रही है. बातबात पर तनना, ऐंठना और चुप्पी साध कर बैठ जाना जैसी आदतें 8-10 वर्ष की उम्र से लड़कियों में शुरू होने लगती हैं. खेलने से मना करो तो बेटियां झल्लाने लगती हैं. पढ़ने के लिए कहो तो काटने दौड़ती हैं. घर का थोड़ा काम करने को कहो तो भी परेशानी और किसी बात के लिए मना करो तो भी.

प्रिया के साथ जो पहली घटना घटी थी वह गायत्री को अब तक याद है. उन्होंने पहली बार प्रिया को देर तक खेलते रहने के लिए चपत लगाई थी तो वह भी हाथ उठा कर तन कर खड़ी हो गई थी. गायत्री बेटी का वह रूप देख कर अवाक् रह गई थीं.

प्रिया को दंड देने के मकसद से घर से बाहर निकाला तो वह 2 घंटे का समय कभी तितलियों के पीछे भागभाग कर तो कभी आकाश में उड़ते हवाई जहाज की ओर मुंह कर ‘पापा, पापा’ की आवाज लगा कर बिताती रही थी पर उस ने एक बार भी यह नहीं कहा कि मां, दरवाजा खोल दो, मैं ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.

घड़ी की छोटी सूई जब 6 को भी पार करने लगी तब गायत्री स्वयं ही दरवाजा खोल कर प्रिया को अंदर ले आई थीं और उसे समझाते हुए कहा था, ‘ढीठ, एक बार भी तू यह नहीं कह सकती थी कि मां, दरवाजा खोल दो.’

प्रिया ने आंखें मिला कर गुस्से से भर कर कहा था, ‘मैं क्यों बोलूं? मेरी कितनी बेइज्जती की तुम ने.’

अपने नन्हे व्यक्तित्व के अपमान से प्रिया का गला भर आया था. गायत्री हैरान रह गई थीं. उस दिन के बाद से प्रिया का व्यवहार ही जैसे बदल सा गया था.

ऐसी ही एक दूसरी घटना गायत्री को नहीं भूलती जब वह सिरदर्द से बेजार हो कर प्रिया से बोली थीं, ‘बेटा, तू ये प्लेटें धो लेना, मैं डाक्टर के पास जा रही हूं.’

प्रिया मां की गोद में बिट्टो को देख कर ही समझ गई थी कि बाजार जाने का उस का पत्ता काट दिया गया है.

गायत्री बाजार से घर लौट कर आईं तो देखा कि प्रिया नदारद है और प्लेट, पतीला सब उसी तरह पड़े हुए थे. गायत्री की पूरी देह में आग लग गई पर बेटी से उलझने का साहस उन में न हुआ था. क्योंकि पिछली घटना अभी गायत्री भूली नहीं थीं. गोद के बच्चे को पलंग पर बैठा कर क्रोध से दांत किटकिटाते हुए उन्होंने बरतन धोए थे. चूल्हा जला कर खाना बनाने बैठ गई थीं.

इसी बीच प्रिया लौट आई थी. गायत्री ने सभी बच्चों को खाना परोस कर प्रिया से कहा था, ‘तुझे घंटे भर बाद खाना मिलेगा, यही सजा है तेरी.’

प्रिया का चेहरा फक पड़ गया था. मगर वह शांत रह कर थोड़ी देर प्रतीक्षा करती रही थी. उधर गायत्री अपने निर्णय पर अटल रहते हुए 1 घंटे बाद प्रिया को बुलाने पहुंचीं तो उस ने देखा कि वह दरी पर लुढ़की हुई थी.

गायत्री ने उसे उठ कर रसोई में चलने को कहा तो प्रिया शांत स्वर में बोली थी, ‘मैं न खाऊंगी, अम्मां, मुझे भूख नहीं है.’

गायत्री ने बेटी को प्यार से घुड़का था, ‘चल, चल खा और सो जा.’

प्रिया ने एक कौर भी न तोड़ा. गायत्री के पैरों तले जमीन खिसक गई थी. इस के बाद उन्होंने बहुत मनाया, डांटा, झिड़का पर प्रिया ने खाने की ओर देखा भी नहीं था. थक कर गायत्री भी अपने बिस्तर पर जा बैठी थीं. उस रात खाना उन से भी न खाया गया था.

दूसरे दिन प्रिया ने जब तक खाना नहीं खाया गायत्री का कलेजा धकधक करता रहा था.

उस दिन की घटना के बाद गायत्री ने फिर खाने से संबंधित कोई सजा प्रिया को नहीं दी थी. प्रिया कई बार देख चुकी थी कि गायत्री उस की बेहद चिंता करती थीं और उस के लिए पलकें बिछाए रहती थीं. फिर भी वह मां से अड़ जाती थी, उस की कोई बात नहीं मानती थी. इतना ही नहीं कई बार तो वह भाईबहन के युद्ध में अपनी मां गायत्री पर ताना कसने से भी बाज नहीं आती, ‘हां…हां…अम्मां, तुम भैया की ओर से क्यों न बोलोगी. आखिर पूरी उम्र जो उन्हीं के साथ तुम्हें रहना है.’

गायत्री ने कई घरों के ऐसे ही किस्से सुन रखे थे कि मांबेटियों में इस बात पर तनातनी रहती है कि मां सदा बेटों का पक्ष लेती हैं. वह इस बात से अपनी बेटियों को बचाए रखना चाहती थीं पर प्रिया को मां की हर बात में जैसे पक्षपात की बू आती थी.

ऐसे ही तानों और लड़ाइयों के बीच प्रिया जवानी में कदम रखते ही बदल गई थी. अब वह मां का हित चाहने वाली सब से प्यारी सहेली हो गई थी. जिस बात से मां को ठेस लग सकती हो, प्रिया उसे छेड़ती भी नहीं थी. मां को परेशान देख झट उन के काम में हाथ बंटाने के लिए आ जाती थी. मां के बदन में दर्द होता तो उपचार करती. यहां तक कि कोई छोटी बहन मां से अकड़ती, ऐंठती तो वही प्रिया उसे समझाती कि ऐसा न करो.

बेटों के व्यवहार से मां गायत्री परेशान होतीं तो प्रिया उन की हिम्मत बढ़ाती. गायत्री उस के इस नए रूप को देख चकित हो उठी थीं और उन्हें लगने लगा था कि औरत की दुनिया में उस की सब से पक्की सहेली उस की बेटी ही होती है.

यही सब सोचतेविचारते जब गायत्री की नींद टूटी तो सूरज का तीखा प्रकाश खिड़की से हो कर उन के बिछौने पर पड़ रहा था. रात की बातें दिमाग से हट गई थीं. अब उन्हें बड़ा हलका महसूस हो रहा था. जल्दी ही वह खाने की तैयारी में जुट गईं.

आटा गूंधते हुए उन्होंने एक बार खिड़की से उचक कर प्रिया के कमरे में देखा तो उन के होंठों पर हंसी आ गई. प्रिया रानी के सिरहाने बैठी उस का माथा सहला रही थी. गायत्री को लगा वह प्रिया नहीं गायत्री है और रानी, रानी नहीं प्रिया है. कभी ऐसे ही तो ममता और उलझन के दिन उन्होंने भी काटे हैं.

गायत्री ने चाहा एक बार आवाज दे कर रानी को उठा ले फिर कुछ सोच कर वह कड़ाही में मठरियां तलने लगीं. उन्हें लगा, प्रिया उठ कर अब बाहर आ रही है. लगता है रानी भी उठ गई है क्योंकि उस की छलांग लगाने की आवाज उन के कानों से टकराई थी.

अचानक प्रिया के चीखने की आवाज आई, ‘‘मैं देख रही हूं तेरी कारस्तानी. तुझे कूट कर नहीं धर दिया तो कहना.’’

कितना कसैला था प्रिया का वाक्य. अभी थोड़ी देर पहले की ममता से कितना भिन्न पर गायत्री को इस वाक्य से घबराहट नहीं हुई. उन्होंने देखा रानी, प्रिया के हाथों मंजन लेने से बच रही है. एकाएक प्रिया ने गायत्री की ओर देखा तो थोड़ा झेंप गई.

‘‘देखती हो अम्मां,’’ प्रिया चिड़चिड़ा कर बोली, ‘‘कैसे लक्षण हैं इस के? कल थोड़ा सा डांट क्या दिया कि कंधे पर हाथ नहीं धरने दे रही है. रात मेरे साथ सोई भी नहीं. मुझ से ही नहीं बोलती है मेरी लड़की. तुम्हीं बोलो, क्या पैरों में गिर कर माफी मांगूं तभी बोलेगी यह,’’ कह कर प्रिया मुंह में आंचल दे कर फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐंठी, तनी रानी का सारा बचपन उड़ गया. वह थोड़ा सहम कर प्रिया के हाथ से मंजनब्रश ले कर मुंह धोने चल दी.

गायत्री ने जा कर प्रिया के कंधे पर हाथ रखा और झिड़का, ‘‘यह क्या बचपना कर रही है. रानी आखिर है तो तेरी ही बच्ची.’’

‘‘हां, मेरी बच्ची है पर जाने किस जन्म का बैर निकालने के लिए मेरी कोख से पैदा हुई है,’’ प्रिया ने रोतेसुबकते कहा, ‘‘यह जैसेजैसे समझदार होती जा रही है, इस के रंगढंग बदलते जा रहे हैं.’’

‘‘तो चिंता क्यों करती है?’’ गायत्री ने फुसफुसा कर बेहद ममता से कहा, ‘‘थोड़ा धीरज से काम ले, आज की सूखे डंडे सी तनी यह लड़की कल कच्चे बांस सी नरम, कोमल हो जाएगी. कभी इस उम्र में तू ने भी यह सब किया था और मैं भी तेरी तरह रोती रहती थी पर देख, आज तू मेरे सुखदुख की सब से पक्की सहेली है. थोड़ा धैर्य रख प्रिया, रानी भी तेरी सहेली बनेगी एक दिन.’’

‘‘क्या?’’ प्रिया की आंखें फट गईं.

‘‘क्यों अम्मां, मैं ने भी कभी आप का इसी तरह दिल दुखाया था? कभी मैं भी ऐसे ही थी सच? ओह, कैसा लगता होगा तब अम्मां तुम्हें?’’

बेटी की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू देख कर गायत्री की ममता छलक उठी और उन्होंने बेटी के आंसुओं को आंचल में समेट कर उसे गले से लगा लिया.

Famous Hindi Stories : सौतेले लोग – क्या हुआ कौशल के साथ

Famous Hindi Stories : कौशल के जीवन में जैसे कोई सुनामी आ गई थी. वे अपने दफ्तर के दौरे पर थे. पत्नी अंकिता बच्चों को स्कूल भेज कर घर की साफसफाई कर रही थी. आज जाने उसे क्या सूझा था कि उस ने घर को धो डालने का प्लान बना लिया था. जैसे ही उस ने पाइप लगा कर कमरे में पानी डाला, अचानक बिजली आ गई. उसे आहट भी नहीं हुई होगी कि बिजली उस की मौत का पैगाम ले कर आई है. कमरे में कूलर लगा था और उसी के करैंट में वह बिलकुल स्याह हो चुकी थी. पूरा घर अंदर से बंद था. लगभग 3 बजे जब दोनों बच्चे स्कूल से आए और दरवाजा खोलने की कोशिश की तो पता ही नहीं चला अंदर क्या हुआ है. अड़ोसीपड़ोसी इकट्ठे हो गए. दरवाजा खुला तो कौशल को फोन से सारी बातें बताई गईं. पुलिस बुलाई गई. ससुराल से ले कर स्वजनों तक खबर करैंट की भांति दौड़ गई.

2 मासूम बच्चे 3 साल की बेटी और 5 साल का बेटा. सभी सहमे और डरे हुए थे. नियति को तो जो करना था उस ने अपना खेल, खेल लिया था. कौशल उजड़ गए थे. न बच्चे संभलते, न गृहस्थी, न नौकरी. दोनों बच्चों को उन्होंने ननिहाल भेज दिया था. तब उन्हें अपनी मां की बड़ी याद आई थी. एक वर्ष पहले ही उन की मौत हुई थी. वे होतीं तो बच्चे आज बिना घरघाट के नहीं रहते. कौशल का सबकुछ लुट चुका था. दिमाग और दिल से भी वे डर गए थे. पत्नी का नीलावर्ण उन की आंखों से दूर नहीं हो पा रहा था. कौशल की नजर अब अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों और मैरिज पोर्टल्स पर भी जाती पर उन की नैया को दोबारा कौन पार उतारेगा, कहीं आस न बंधती. ड्यूटी पर जाते तो दोनों बच्चों का मासूम चेहरा याद आता. पत्नी का स्नेह याद आता. सोचते कि अब जाने कैसे होंगे दोनों.

वे जब भी ससुराल जाते, उन्हें दोनों बच्चों के रूखे बाल दिखाई देते और उन के भोले प्रश्न उन्हें अंदर से कुरेद देते, पापा, ‘आप हम लोगों के साथ क्यों नहीं रहते? मम्मी रहतीं तो हम लोग आप के पास ही होते न.’ उन्हें बच्चों से अलग रहना इसलिए भी नहीं भाता कि ये उन के अक्षरज्ञान का समय था. मां नहीं है और पिता भी इतनी दूर. इस से वे तड़प जाते. हजार कोशिशों के बाद जो रिश्ते मिलते, उन में संदेह ज्यादा जबकि संभावना कम दिखाई देती. एक टीचर उन से ब्याह के लिए राजी थी. उस का नाम था कला. उस से कौशल कुमार ने शादी से संबंधित बातें कीं. वह बहुत ही व्यस्त टीचर थी. स्कूल में पढ़ाने के बाद भी बच्चों के 3 बैच उस से ट्यूशन पढ़ने आते. उस के लिए शादी सामान्य सी बात थी. क्या हुआ, आप के 2 बच्चे हैं तो वे भी मेरे साथ मेरे ही स्कूल में पढ़ लेंगे. मैं शादी के लिए राजी हूं, पर नौकरी छोड़ पाना मेरे लिए संभव नहीं होगा.

कौशल कला की नौकरी छोड़ने वाली बात को दिल से लगा बैठे थे. बच्चों के लिए मां ढूंढ़ रहे थे. पर मां कहां मिली. वह तो मास्टरनी ही होगी. टुकुरटुकुर बेचारे बिना मुंह के बच्चे देखते रह जाएंगे. ‘मम्मा खीर बनाओ,’ बेटा तो मम्मी से पीले चावल की फरमाइश करता था. बच्चे नहीं खाते तो पत्नी सुबह ही पुआपूरी बना कर खिला देती थी. अब सिर्फ उंगली पकड़ कर तीनों भागते ही नजर आएंगे. उन की आंखों के कोर भीग गए.

कौशल की चिंता जायज थी. एक जीवन खुशियों से भरा था, दूसरा डरावना महसूस हो रहा था. 2 नादान मासूम बच्चे और हजार प्रश्नों से घिरे कौशल. किसी ने उन्हें दूसरी लड़की का पता भी बताया पर मालूम हुआ उस के तो विवाहपूर्व ही प्रेमप्रसंग काफी चर्चे में हैं. वह भी कौशल से ब्याह करना चाहती थी. इस विषय पर पूछे जाने पर उस ने बड़ी बेबाकी से कहा, इतने दिनों तक ब्याह नहीं हुआ तो थोड़ाबहुत तो चलता है और आप कौन सा मुझ से पहली शादी करने वाले हैं, आप के साथ मुझे आप के बच्चों को भी तो संभालना पड़ेगा. कौशल उस की बातों से दुखी हो गए. वे जानबूझ कर विवाह के लिए कैसे हां करते. उस के चरित्र का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ेगा. इतने बोल्ड तो कौशल नहीं हो पाते. उन्हें लगता वे मर जाते तो पत्नी कुछ भी कर के बच्चों को पाल लेती पर वे अकेले 2 बच्चों की नैया पार नहीं लगा सकते. वे अपने दोस्तों के घर भी जाते तो उन के लिए सिर्फ संवेदना दी जाती.

उन्हें तो जीवन चाहिए था. एक खुशगवार घर का, एक मुसकराती पत्नी का, 2 हंसतेखेलते बच्चों के विकास का. पता नहीं वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे. उन्हें अपने विधुर जीवन पर तरस आता. अंकिता और दोनों बच्चों की तसवीर ले कर वे घंटों रो लेते पर जीवन का हल नहीं दिखाई पड़ता. कईकई दिनों तक वे छुट्टियां ले कर बिना खाए घर में ही रह जाते. न किसी से मिलते न बातें करते. अखबार के विज्ञापन में पत्नी ढूंढ़ते. इसी तलाश में वे गरीब से गरीब घर की लड़कियों को भी देख आए थे. विधवा और छोड़ दी गई महिलाओं के साथ भी वे गठबंधन को राजी थे पर कुछ न कुछ फेरे सामने आते ही गए. विधवा स्त्री भी 2 बच्चों के पिता के नाम पर तैयार नहीं हुई थी. एक महिला तो कौशल से पूछ बैठी थी, पत्नी दुर्घटना में मरी या मारा था. कौशल टूट चुके थे. हालांकि वे बच्चों के लिए सौतेली मां नहीं लाना चाहते थे. यह उन के जीवन की मजबूरी थी. उन्होंने मन को कड़ा किया और एक विवाह प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. जीवन की मजबूरियों ने उन्हें बहुत मजबूर किया था. इस बार अनामिका से विवाह की सहमति उन्होंने दे दी.

कौशल एक अच्छे इंसान थे. अनामिका उन के सामने दुबली सी आम लड़की थी. उस ने उन की मजबूरियों को सुना था, जाना था और अपनी सहमति दे दी थी. विवाह हो गया. अनामिका ने गृहस्थी संभाल ली. सभी कहते थे, ‘सौतेली मां बच्चों का खयाल नहीं रखेगी, अपनी ही सुखसुविधाओं का खयाल रखेगी.’ वर्षों की धारणा को अनामिका ने मिट्टी में मिला दिया था. बेटी को उस ने कंठहार बना लिया था. बेटे को भी वह पूरी देखरेख में रखती. कौशल का अब समय अच्छा था कि उन्हें अनामिका जैसी पत्नी मिली थी. खानापीना, झाड़ूबुहारू, बरतनकपड़े और आखिर में पति के पांव दबा कर सोना उस की आदत थी. कौशल के घर वाले दबाव बनाते कि एक कामवाली बाई को क्यों नहीं रखते. बच्चों के लिए ट्यूटर क्यों नहीं रखते. पत्नी को मशीन क्यों बनाया है. कईर् बार उन्होंने अनामिका से कहा पर उस ने कहा कि वह सारे दिन घर में क्या करेगी.

वे कहते थे कि घर अनामिका का अधिकार क्षेत्र है, वही जाने कैसे घर चलाना है. अनामिका भी तुरंत कौशल के पक्ष में खड़ी हो जाती. मुझे सारे काम करने पसंद हैं. मैं कर पाती हूं, फिर क्या जरूरत है इन सब की. धीरेधीरे बच्चे पढ़ने लगे. नौकरी में आ गए. अनामिका वैसे ही सेवाभाव से कार्यरत रही. पुरानी मान्यताएं और परंपराएं उस के सामने गलत साबित होती गईं. समझ में नहीं आता किस के कैसे रूप हैं. घर वालों को लगता कौशल ही सौतेला व्यवहार कर रहे हैं. पर उन्हें खाना मिलता है. बच्चे खुशीखुशी पढ़ाई कर रहे हैं. जब सबकुछ दिखाई पड़ रहा है तो कोई चाहे जैसे अपनी गृहस्थी चलाए. सब के रिश्ते तो सौतेले ही हैं. बच्चे मां को आदर देना सीख गए थे. कोई काम बिना बताए नहीं करते.

दूसरों को गृहस्थी में टांग अड़ाने की न तो गुंजाइश थी, न जरूरत. इसलिए सभी मन मसोस कर चुप रहते. तभी पड़ोस में मदन भैया की अचानक मौत हो गई. सुना था कि उन्होंने अपनी पत्नी के मरने के बाद दूसरा विवाह किया था जबकि उन के 4 बच्चे थे. पर मदन भैया की दूसरी पत्नी बीमारी का ऐसा स्वांग रचती कि बेचारे मदन भैया ही खाना बना कर पत्नी व बच्चों को खिलाते.

पैसों के लिए भी तकरार होती. इसी बीच मदन भैया को हार्टअटैक हो गया. अब पत्नी सौतेले बच्चों से बातें भी नहीं करती. कैसे चलेगी गृहस्थी उन पांचों की. मदन भैया के क्रियाकर्म के बाद सौतेले लोग क्या कहेंगे, समझ में नहीं आया पर अनामिका की सेवा, उस की कर्तव्यनिष्ठा ने सारे रिश्तों को मात दे दी थी.

अनामिका से जब मुलाकात हुई तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘दीदी, हर कोई अपनाअपना वर्तमान बनाता है. क्या फर्क पड़ता है अगर मैं सुबह से शाम तक खटती हूं. ऐसा तो हर मां करती है. मेरी मां भी किया करती थीं. फिर मेरा तो परिवार ही छोटा है.’ तब लगने लगा कि कौशल मेरी नजरों में, पत्नी के साथ जो सौतेला व्यवहार करता है वह सौतेला नहीं, बल्कि मोहब्बत से भरा अपनापन है. मैं अपने नजरिए से उन का अपनापन नहीं जान पाई थी. आखिर, मैं भी कितना जानती थी अनामिका और कौशल को. पर मुझे उन के बीच सौतेलापन दिखाई पड़ता था. पर अब लगा, सौतेले लोगों को समझ पाना इतना भी आसान नहीं. सचमुच जीवन जीना एक कला है, सभी इसे समझ नहीं पाते.

Hindi Stories Online : पहली तारीख – क्यों परेशान हो जाती थी रेखा

Hindi Stories Online :  डोरबैल बजी तो रेखा ने दरवाजा खोला. न्यूजपेपर वाला हाथ में पेपर लिए किसी से फोन पर बात कर रहा था. रेखा ने उस के हाथ से अखबार ले दरवाजा बंद किया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. जैसे ही रेखा ने दरवाजा खोला तो अखबार वाला बोला, ‘‘मैडम, यह हिंदी का अखबार. आप के घर हिंदी और अंगरेजी 2 पेपर आते हैं.’’

‘‘अरे, फिर तभी क्यों नहीं दे दिया?’’

‘‘जब तक देता, आप ने दरवाजा ही बंद कर दिया,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘अच्छा, ठीक है,’’ कह रेखा ने अखबार ले कर दरवाजा बंद कर दिया. तभी विपुल यानी रेखा के पति का शोर सुनाई दिया.

‘‘अरे भई कहां हो?’’ रेखा के पति विपुल की आवाज आई.

तभी डोरबैल भी बजती है. रेखा परेशान सी दरवाजा खोलने चल दी. दरवाजा खोला तो सामने वही अखबार वाला खड़ा था. अब रेखा ने गुस्से से पूछा, ‘‘अब क्या है?’’

‘‘मैडम, वह अखबार का बिल,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘पहले नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से से कह रेखा ने दरवाजा बंद कर दिया.

उधर विपुल आवाज पर आवाज लगाए जा रहा था, ‘‘रेखा, तौलिया तो दे दो, मैं नहा चुका हूं. कब से आवाजें लगा रहा हूं.’’

रेखा ने तौलिया पकड़ाया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. दरवाजा खोलते ही रेखा गुस्से में चीखी, ‘‘क्यों बारबार बैल बजा रहे हो?’’

‘‘मैडम, यह गृहशोभा.’’

‘‘नहीं चाहिए,’’ कह रेखा दरवाजा बंद करने लगी.

तभी अखबार वाला बोला, ‘‘अरे, आप ने ही तो कल मैगजीन लाने को बोला था.’’

‘‘क्या ये सब काम एक बार में नहीं कर सकते?’’ कह रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया.

‘‘इतनी देर लगती है क्या तौलिया देने में?’’ विपुल बोला.

‘‘मैं क्या करती, घंटी पर घंटी बजाए जा रहा था, तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘लगता है तुम्हें पसंद करता है,’’ विपुल हंसते हुए बोला.

‘‘विपुल, मैं मजाक के मूड में नहीं हूं.’’

तभी फिर डोरबैल बजती है. रेखा गुस्से से दरवाजा खोल कर बोली, ‘‘अब क्या है?’’

सामने दूध वाला था. बोला, ‘‘मैडम दूध.’’

रेखा ने थोड़ा शांत हो दूध ले लिया.

‘‘अरे भई नाश्ता लगाओ. देर हो रही है. औफिस जाना है,’’ विपुल की आवाज आई.

रेखा आंखें तरेरते हुए विपुल को देख किचन में चली गई. विपुल किसी से फोन पर बात कर रहा था.

फिर डोरबैल बजी. रेखा ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला.

‘‘मैडम, दूध का बिल,’’ दूध वाला बोला.

‘‘क्या परेशानी है तुम सब को? क्या यह बिल दूध के साथ नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से में बोल रेखा ने बिल ले लिया.

‘‘क्या खिला रही हो नाश्ते में?’’ विपुल बोला.

रेखा बोली, ‘‘अपना सिर… घंटी पर घंटी बज रही… ऐसे में क्या बन सकता है? ब्रैडबटर से काम चला लो.’’

‘‘अरे, तुम्हारे हाथों से तो हम जहर भी खा लेंगे,’’ विपुल ने कहा.

‘‘देखो, मैं इतनी भी बुरी नहीं हूं,’’ रेखा बोली.

तभी फिर से डोरबैल बज उठी. रेखा गुस्से से बोली, ‘‘विपुल, दरवाजा खोलो… फिर मत कहना मुझे औफिस को देर हो रही है.’’

विपुल ने फोन पर बात करते हुए ही दरवाजा खोला. दूध वाला ही खड़ा था.

दूध वाला बोला, ‘‘साहब, हम कल दूध देने नहीं आएंगे.’’

‘‘जब दूध दिया था तब नहीं बता सकते थे?’’ विपुल ने डांटा.

‘‘सर, भूल गया था.’’

विपुल औफिस चला गया. औफिस पहुंच कर उस ने रेखा को फोन किया. तभी फिर घंटी बज उठी. रेखा जब दरवाजा खोलने पर पेपर वाले को देखती है, तो उस का गुस्सा 7वें आसमान को छू जाता है. विपुल फोन लाइन पर ही था. अत: बोला, ‘‘अरे, रेखा अब कौन है?’’

‘‘वही तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘यह क्या बना रखा है… क्या सारा दिन दरवाजे पर ही बैठे रहें एक चौकीदार की तरह?’’

‘‘अब क्या लेने आए हो?’’ रेखा तमतमाते हुए बोली.

‘‘सुबह के 50 दे दो… फिर से नहीं आऊंगा,’’ पेपर वाला बोला.

‘‘कोई 50 नहीं मिलेंगे. चले जाओ यहां से,’’ रेखा ने कहा.

इस बीच फोन कट गया था. वह नहाने जा ही रही थी कि फिर से डोरबैल की आवाज पर भिन्ना गई. दरवाजा खोला तो सामने केबल वाला खड़ा था.

‘‘मैडम, केबल का बिल,’’ वह बोला.

‘‘कुछ और देना है तो वह भी दे दो.’’

‘‘मैडम, समझा नहीं,’’ वह बोला.

‘‘कुछ नहीं,’’ रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया और फिर नहाने चली गई.

तभी उसे कुछ शोर सुनाई देता है. ध्यान से सुनने पर, ‘मैडमजी, मैडमजी,’ एक लड़की की आवाज सुनाई दी.

नहा कर दरवाजा खोला तो सामने नौकरानी की लड़की खड़ी थी.

रेखा ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए?’’

‘‘मैडमजी, मम्मी आज काम पर नहीं आएंगी. शाम को जिस औफिस में सफाई करती हैं, वहां पगार लेने गई हैं… वहां लंबी लाइन लगी है.’’

रेखा गुस्से में बोली, ‘‘अच्छाअच्छा, ठीक है.’’

‘इसे भी आज ही…’ रेखा मन ही मन बड़बड़ाई और फिर सोचने लगी कि आज खाने में बनेगा क्या… इतनी देर हो गई है… घड़ी की तरफ देखा 1 बज चुका था. अभी सोच ही रही थी कि फिर घंटी बजी. वह चुपचाप यह सोच बैठी रही कि अब दरवाजा नहीं खोलेगी. 2… 3… 4… बार घंटी बजी पर वह नहीं उठी.

तभी फोन बजा. विपुल बोला, ‘‘अरे भई, क्या हम यहीं खड़े रहेंगे… दरवाजा तो खोलो.’’

रेखा मन ही मन सोचती कि इतनी जल्दी कैसे आ गए? क्या बात है? फिर जल्दी से दरवाजा खोला.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ विपुल बोला.

‘‘अरे, आप इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘कैसे आ गए. तुम सुबह से परेशान थीं. सोचा, चलो आज लंच बाहर ही करते हैं.’’

रेखा सवाल भरी निगाहों से विपुल की तरफ देखने लगी तो वह बोला, ‘‘अरे बावली, आज पहली तारीख है.’’

Interesting Hindi Stories : आखिर क्यों – क्या दूर हुआ सुरभि और सास का अंधविश्वास

Interesting Hindi Stories : नवंबर मास की ठंडी शाम थी. मैं आफिस से घर लौटी तो घरों में बल्ब जगमगा उठे थे. सुरभि के घर से आती दूधिया रोशनी ने उस के वापस लौट आने की पुष्टि कर दी थी. एक बार मन किया, दौड़ कर उस का हालचाल पूछूं, पर तुरंत ही उस का यों चुपचाप लौट आना मुझे अनेक आशंकाओं से आतंकित कर गया.

घर के बाहरी द्वार पर खड़ी सासू मां को देखते ही मैं अपने पर काबू नहीं रख पाई और बेसाख्ता बोल उठी, ‘‘मांजी, आप को पता है, सुरभि लौट आई है.’’

‘‘लेकिन कब? तुम्हें कैसे पता लगा,’’ मांजी के हैरानी भरे प्रश्न ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें भी उस के लौट आने की कोई खबर नहीं है.

‘‘अभी लौटी, तो देखा उस के घर उजाला हो रहा है,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘अच्छा, तो जा, जल्दी से उस की खबर ले आ, बड़ी चिंता हो रही है मुझे.’’

फिर सचमुच मुझ से भी रहा न गया. आशाआशंका के भंवर में फंसे अपने उद्विग्न चित्त को ले, मैं उस के घर की ओर बढ़ गई. बरसों पुराना घटनाक्रम सहसा मेरी आंखों के  सामने चलचित्र की भांति क्रमबद्ध हो उठा. सुरभि से मेरा परिचय तब से है जब मैं यहां नईनवेली ब्याह कर आई थी. वह भी मेरी तरह कालोनी के गुप्ताजी की बहू और उन के सुपुत्र विपिन, जो फैक्टरी में सुपरवाइजर था, की दुलहन थी. मुझ से कोई 3 साल पहले ही ब्याह कर आई थी.

उस की सास कौशल्या देवी से ही पहलेपहल मुझे मालूम हुआ कि उस की गोद अब तक सूनी है. एक दिन जब उस की सास हमारे घर आई हुई थीं तब सासू मां के परिचय कराने के उपरांत मैं ने उन के चरण स्पर्श किए तो वह मुझे ‘दूधों नहाओ पूतों फलो’ के आशीर्वाद से नवाजना नहीं चूकीं. साथ ही उलाहना देते हुए मेरी सास से बोलीं, ‘मैं तो अपनी बहू को 3 साल से यही दुआ दे रही हूं पर लगता है बहन, निगोड़ी बांझ है.’

प्रत्युत्तर में मैं ने मांजी को सांत्वना देते हुए सुना, ‘अरे कौशल्या, तुम तो नाहक नाउम्मीद हो रही हो. अभी तो सिर्फ 3 साल हुए हैं, अरे, थोड़ा मौजमस्ती करने दो उन्हें. समय आने पर सब ठीक हो जाएगा.’

इस बीच मैं नेहा, नितिन की मां भी बन गई पर सुरभि की गोद सूनी ही रही. एक दिन मौका लगने पर एकांत में मैं ने उसे टटोला, ‘तुम ने किसी डाक्टर से अपनी जांच वगैरह कभी करवाई.’’

‘नीति, तुम तो जानती हो, मेरी सास को डाक्टरों से ज्यादा साधुसंतों, तांत्रिकों व ओझाओं पर विश्वास है,’ उस ने कहा.

मैं हतप्रभ सी रह गई. आज के इस चिकित्सा विज्ञान के क्रांतिकारी युग में कोई इस के चमत्कार से अछूता कैसे रह सकता है.

फिर तो आएदिन सुरभि मुझे बताती रहती. आज सासू मां के साथ फलांफलां साधु के दर्शनार्थ जाना है या अमुक-अमुक महात्मा शहर में पधारने वाले हैं, उन के सत्संग में जाना है, आदिआदि.

आज इस बात को लगभग 8 वर्ष होने को आए हैं. 1 माह के लिए मैं अपने मायके आगरा गई हुई थी. लौटी तो पता चला सुरभि नए मेहमान के आगमन की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा से सराबोर थी. सुन कर बहुत अच्छा लगा. 9 माह के पूर्ण प्रसवकाल के पश्चात उस की झोली सुंदर सलोने बच्चे से भर गई. अनेकानेक प्रयासों के बाद उसे यह संतान नसीब हुई थी. अत: उस ने उस का नाम ‘सार्थक’ रखना चाहा. परंतु सासू मां का मानना था कि यह सब गुरु महाराज वत्सलानंद के आशीर्वाद से संभव हुआ है, अत: बच्चे को नाम दिया गया ‘वत्सल’.

हालांकि पहलेपहल वह सास के इस तर्क से आहत हो उठी थी पर फिर मैं ने ही उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयास किया था, ‘वैसे तो सार्थक वास्तव में एकदम सटीक नाम है परंतु वत्सल भी कम सुंदर नाम नहीं है. और फिर नाम में क्या रखा है. वत्सल चाहे ईश्वर की सौगात हो या वत्सलानंद की कृपा का फल, तुम्हें क्या फर्क पड़ता है.’

‘नहींनहीं नीति. तुम गलत समझ रही हो, यह सच है कि वत्सल उन्हीं के प्रताप का फल है. जिस माह हम ने उन से दीक्षा ली थी उसी माह उन के आशीर्वाद से यह मेरे गर्भ में आ गया.’

संयोग मात्र को सास अपने गुरु की कृपा समझ बैठी थी. कौशल्या देवी के अंधविश्वासी रंगों में रंगे उस के विचार सुन कर पहली बार मुझे झटका सा लगा.

फिर तो यह आम बात हो गई. वत्सल का अन्नप्राशन हो या नामकरण, जन्मोत्सव हो या फिर स्कूल में उस के नामांकन का कार्य, सभी कार्यकलापों के लिए शुभमुहूर्त स्वामी वत्सलानंद की सुझाई गई तिथियों के हिसाब से क्रियान्वित होने लगे.

मैं ने एकआध बार अपनी सास से इस बात का जिक्र किया तो वह कहने लगीं, ‘अरे जाने दो बहू, अपनीअपनी सोच है, चाहे गुरु की कृपा रही हो या ईश्वर की इच्छा, यही क्या कम है कि कौशल्या का घरआंगन बच्चे की किलकारियों से गुंजायमान हो उठा है.’

सब कुछ निर्बाध गति से चल रहा था कि एक दिन सांझ को बच्चों ने बताया कि स्कूल में प्रार्थना सभा के दौरान वत्सल खड़ेखड़े गिर पड़ा और फिर उसे बहुत उल्टियां हुईं. अत: मैं ने मांजी को उस का हालचाल ले आने को कहा.

मांजी लौट कर आईं तो चिंतामग्न सी दिखीं. पूछने पर उन्होंने बताया कि कौशल्या बता रही थी कि वत्सल को इस तरह की शिकायत 2-4 बार पहले भी हो चुकी है परंतु बजाय किसी डाक्टर को दिखाने के वे स्वामीजी के चक्कर में पड़े हैं.

दूसरे दिन सुरभि को समझाने की गरज से मैं आफिस से लौटते हुए सीधे उस के घर गई. देखती क्या हूं कि बैठकखाने का सुसज्जित विशाल कक्ष धूप व अगरबत्ती की अनोखी सुगंध से सुशोभित है. कक्ष के एक ओर, एक बड़े से तख्त पर बिछे बेशकीमती पलंगपोश पर एक स्थूलकाय महात्मा भगवा वस्त्र धारण किए हुए विराजमान हैं जो संस्कृत के श्लोकों की स्तुति में विचारमग्न हैं. मैं असमंजस की स्थिति से उबरने का प्रयास कर ही रही थी कि सुरभि आई और कक्ष के एक कोने में मुझे बिठाते हुए स्वामीजी के बारे में बताने लगी, ‘यही गुरु वत्सलानंद जी हैं. वत्सल की बीमारी सुन कर महाराज घर आ कर उस के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए संजीवनी जाप कर रहे हैं. सच, वत्सल अपनेआप को काफी अच्छा महसूस कर रहा है.’

वस्तुत: स्वामीजी पर विश्वास से अभिप्रेरित उस परिवार के लोगों का निर्मल मन, बारबार यह झूठा आश्वासन दिला रहा था कि बच्चा स्वस्थ हो रहा है, पर क्या सुरभि भी बच्चे के गिरते स्वास्थ्य का मूल्यांकन नहीं कर पा रही थी. इस से अधिक मैं उसे सुन नहीं सकी. तभी तो लगभग घसीटते हुए मैं सुरभि को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘सुरभि तुम्हें ये क्या हो गया है, तुम तो इन थोथी बातों पर विश्वास नहीं करती थीं, फिर आज कैसे इन ढोंगी साधुओं की बातों में फंस गईं. वत्सल को इस समय इन के जपतप की नहीं बल्कि किसी अच्छे डाक्टर के परीक्षण की आवश्यकता है. देख नहीं रही हो, वह किस कदर कमजोर हो गया है.’

पर मेरी बात सुन कर वह जरा भी विचलित नहीं हुई, बल्कि कहने लगी, ‘नहीं नीति, पहले मैं भी इन की शक्तियों से अनभिज्ञ थी, पर अब मैं इन की दिव्य शक्तियों को जान चुकी हूं.’

मैं उसे कुछ और समझाने का प्रयत्न करती कि इस के पूर्व स्वामीजी, जिन्होंने कदाचित क्रोधाग्नि में धधकती मेरी मुखर वाणी सुन ली थी, क्रोध से गरज उठे, ‘ये कौन है जो मेरे ‘भैरव’ देव को ललकार रहा है. कुछ अनिष्ट हुआ तो हमें दोष मत देना. हम साधुसंन्यासी हैं, हमारा भी मानसम्मान है, पर जहां हमारा अपमान हो, हम पर अविश्वास हो, वहां एक पल और ठहरना असंभव.’

‘नहींनहीं गुरुदेव, क्षमा कीजिए,’ क्षमायाचना से भीगे उस की सासू मां के शब्द गूंजे और अगले ही पल उन्होंने स्वामीजी के चरण पकड़ लिए, ‘हमें नहीं पता था वरना मैं उसे आप के सामने आने की इजाजत कभी नहीं देती.’

उसी क्षण सुरभि की बदलती मुखमुद्रा व उस की आग्नेय दृष्टि देख कर मुझे यह आभास होने में क्षण भर भी नहीं लगा कि स्वामीजी के विरुद्ध बोल कर मैं यहां सर्वथा अवांछनीय हो गई हूं. अत: बाहर की ओर रुख करने में ही मैं ने भलाई समझी.

और फिर मेरे घर लौटने के पूर्व ही कौशल्या देवी ने मेरी सास को फोन पर हिदायत दे डाली, ‘अपनी बहू को इतनी ढील मत दो, शारदा. जो मन में आता है बोल देती है, बड़ेछोटे किसी का लिहाज नहीं. आज तो उस ने स्वामीजी का ही अपमान कर डाला. हमारा विपिन तो उन्हें इतना मानता है कि उस ने पूरे 50 हजार रुपए उन की संस्था को श्रद्धा से दान कर दिए.’

अभी वह न जाने और क्याक्या सुनातीं कि मुझे घर आया देख कर मांजी ने फोन काट दिया और मुझे संबोधित कर बोलीं, ‘बेटा, तुम क्यों इन लोगों से उलझती हो, वे गड्ढे में गिरना चाहते हैं तो उन्हें कौन रोक सकता है.’

‘मांजी, मैं तो वत्सल की हालत देख कर आपे में नहीं रह सकी थी, यदि चाचीजी को इतना बुरा लगा है तो मैं उन से माफी मांग लूंगी पर बेचारा वत्सल,’ मैं आह भर कर रह गई.

यों ही 4-5 माह बीत गए. उस दिन की घटना की कड़वाहट से दोनों परिवारों के मध्य एक शीतयुद्ध का मौन पसर गया था. पर कालोनी के अन्य लोगों से मांजी वत्सल की खोजखबर लेती रहतीं. सुना था कि उस की हालत दिन पर दिन गिरती जा रही है, स्कूल में भी वह हफ्तों अनुपस्थित रहने लगा है. इधर बच्चों की वार्षिक परीक्षाएं आरंभ हो चुकी थीं. परीक्षा के दौरान एक दिन वत्सल चक्कर खा कर सीट से लुढ़क पड़ा, जिस से उसे सिर में गंभीर चोट लग गई. आननफानन में स्कूल वालों ने उसे शहर के एक बड़े अस्पताल में भर्ती करा दिया. उसी दौरान उसे अनेक परीक्षणों से गुजरना पड़ा. सुन कर मैं भी अपने को रोक नहीं सकी और वत्सल से मिलने अस्पताल जा पहुंची. सुरभि मुझे देखते ही मुझ से लिपट कर रो पड़ी.

उस की सास भी मुझ से नजरें चुरा रही थी. पूछने पर पता चला कि वत्सल को ब्रेन ट्यूमर था जो घर वालों की लापरवाही की वजह से अधिक जटिल अवस्था में पहुंच गया था. मुझे देखते ही वह फफकफफक कर रो पड़ी और गले से लिपट कर बोली, ‘नीति, तुम ने मुझे समझाने का बहुत प्रयास किया था, पर मेरी ही मति भ्रष्ट हो गई थी जो उस पाखंडी के चक्कर में फंस गई,’

उस की आंखों से अंधविश्वास का परदा हट चुका था.

2 दिन पश्चात उसे डाक्टरों के निर्देशानुसार दिल्ली के एक बड़े अस्पताल ले जाया गया. 12 दिनों तक एडमिट रहने के बाद उस का

ब्रेन ट्यूमर का आपरेशन हुआ फिर करीब 10 घंटे बाद उस के होश में आ जाने की खबर सुरभि ने मुझे फोन पर दी, ‘नीति, लगता है, ईश्वर ने मेरी सुन ली.

यही उस का अंतिम संदेश था.

जब कुछ दिनों तक कोई खबर नहीं मिली तो उस के देवर के यहां फोन किया तो पता चला कि दूसरे ही दिन वह कोमा में चला गया था, तब से सघन चिकित्सा परीक्षण से गुजर रहा है. उस के बाद लाख प्रयत्न करने पर भी कोई खबर नहीं मिल सकी. और आज उस का यों बिना किसी पूर्व सूचना के लौट आना मन को आशंकित कर रहा है. किसी अनिष्ट की कल्पना मात्र से मैं थरथरा उठी.

घर पहुंची तो उस का मुख्यद्वार उढ़का पड़ा था. उसे ठेल कर मैं भीतर बढ़ी तो सामने नजर पड़ी, सुरभि फटीफटी नजरों से शून्य में ताक रही है, उस के भाईभाभी ने किसी तरह उसे थाम रखा था. सास भी अपना सिर पकड़ कर गमगीन सी फर्श की ओर एकटक निहार रही थी. विपिन प्रस्तर की बुत बने एक कोने में बैठे थे. उन के बुझेबुझे चेहरों ने मेरे अनुमानित अनिष्ट की पुष्टि कर दी थी.

सुरभि की भाभी ने ही बताया कि कोमा में जाने के 5 दिन बाद उसे पुन: होश आ गया था, उस दिन उस ने मां के हाथों से दलिया भी खाया, तो हमारी खोई आस भी लौट आई. परंतु उस दिन वह शायद मां की ममता को तृप्त करने, उस जगी आस को झूठा साबित करने को ही जाग्रत हुआ था. उस रात वह जो सोया तो फिर कभी नहीं जगा. बताते-बताते वह स्वयं रो पड़ीं. मैं भी अपने आंसुओं को कहां रोक पाई थी.

एक नन्हामासूम सा बच्चा अंधविश्वासों की बलि चढ़ गया था. अंधविश्वास की इतनी बड़ी सजा आखिर उस मासूम को ही क्यों मिली. काश इन ढोंगी साधुसंन्यासियों के लिए भी कानून में मृत्युदंड का प्रावधान होता जो भोलेभाले लोगों को अपने झूठे जाल में फांस कर इन के जीवन तक से खेलने से नहीं हिचकिचाते.

सुरभि इस हादसे से उन्मादित हो उठी थी. कभी वह वीभत्स हंसी हंसती तो कभी उस की मर्मभेदी चीख हृदय पर शूल बन कर उतर जाती.

अंधविश्वास की धुंध छंटने में सचमुच बहुत देर लग चुकी थी और हकीकत की सुबह, काली अंधेरी रात से भी अधिक स्याह प्रतीत हो रही थी. मेरे कानों में मानो वत्सल का प्रश्न गूंज रहा था, आखिर क्यों हुआ यह सब मेरे साथ?

कहानी- दया हीत

Hindi Story Collection : अजनबी

Hindi Story Collection : ‘‘देखिए भारतीजी, आप अन्यथा  न लें, आप की स्थिति को देखते हुए तो मैं कहना चाहूंगी कि अब आप आपरेशन करा ही लें, नहीं तो बाद में और भी दूसरी उलझनें बढ़ सकती हैं.’’

‘‘अभी आपरेशन कैसे संभव होगा डाक्टर, स्कूल में बच्चों की परीक्षाएं होनी हैं. फिर स्कूल की सारी जिम्मेदारी भी तो है.’’

‘‘देखिए, अब आप को यह तय करना ही होगा कि आप का स्वास्थ्य अधिक महत्त्वपूर्ण है या कुछ और, अब तक तो दवाइयों के जोर पर आप आपरेशन टालती रही हैं पर अब तो यूटरस को निकालने के अलावा और कोई चारा नहीं है.’’

डा. प्रभा का स्वर अभी भी गंभीर ही था.

‘‘ठीक है डाक्टर, अब इस बारे में सोचना होगा,’’ नर्सिंग होम से बाहर आतेआते भारती भी अपनी बीमारी को ले कर गंभीर हो गई थी.

‘‘क्या हुआ दीदी, हो गया चेकअप?’’ भारती के गाड़ी में बैठते ही प्रीति ने पूछा.

प्रीति अब भारती की सहायक कम छोटी बहन अधिक हो गई थी और ऊपर वाले फ्लैट में ही रह रही थी तो भारती उसे भी साथ ले आई थी.

‘‘कुछ नहीं, डाक्टर तो आपरेशन कराने पर जोर दे रही है,’’ भारती ने थके स्वर में कहा था.

कुछ देर चुप्पी रही. चुप्पी तोड़ते हुए प्रीति ने कहा, ‘‘दीदी, आप आपरेशन करा ही लो. कल रात को भी आप दर्द से तड़प रही थीं. रही स्कूल की बात…तो हम सब और टीचर्स हैं ही, सब संभाल लेंगे. फिर अगर बड़ा आपरेशन है तो इस छोटी सी जगह में क्यों, आप दिल्ली ही जा कर कराओ न, वहां तो सारी सुविधाएं हैं.’’

भारती अब कुछ सहज हो गई थी. हां, इसी बहाने कुछ दिन बच्चों व अपने घरपरिवार के साथ रहने को मिल जाएगा, ऐसे तो छुट्टी मिल नहीं पाती है. किशोर उम्र के बच्चों का ध्यान आता है तो कभीकभी लगता है कि बच्चों को जितना समय देना चाहिए था, दिया नहीं. रोहित 12वीं में है, कैरियर इयर है. रश्मि भी 9वीं कक्षा में आ गई है, यहां इस स्कूल की पिं्रसिपल हो कर इतने बच्चों को संभाल रही है पर अपने खुद के बच्चे.

‘‘तुम ठीक कह रही हो प्रीति, मैं आज ही अभय को फोन करती हूं, फिर छुट्टी के लिए आवेदन करूंगी.’’

स्कूल में कौन सा काम किस को संभालना है, भारती मन ही मन इस की रूपरेखा तय करने लगी. घर में आते ही प्रीति ने भारती को आराम से सोफे पर बिठा दिया और बोली, ‘‘दीदी, अब आप थोड़ा आराम कीजिए और हां, किसी चीज की जरूरत हो तो आवाज दे देना, अभी मैं आप के लिए चाय बना देती हूं, कुछ और लेंगी?’’

‘‘और कुछ नहीं, बस चाय ही लूंगी.’’

प्रीति अंदर चाय बनाने चल दी.

सोफे पर पैर फैला कर बैठी भारती को चाय दे कर प्रीति ऊपर चली गई तो भारती ने घर पर फोन मिलाया था.

‘‘ममा, पापा तो अभी आफिस से आए नहीं हैं और भैया कोचिंग के लिए गया हुआ है,’’ रश्मि ने फोन पर बताया और बोली, ‘‘अरे, हां, मम्मी, अब आप की तबीयत कैसी है, पापा कह रहे थे कि कुछ प्राब्लम है आप को…’’

‘‘हां, बेटे, रात को फिर दर्द उठा था. अच्छा, पापा आएं तो बात करा देना और हां, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? नीमा काम तो ठीक कर रही है न…’’

‘‘सब ओके है, मम्मी.’’

भारती ने फोन रख दिया. घड़ी पर नजर गई. हां, अभी तो 7 ही बजे हैं, अजय 8 बजे तक आएंगे. नौकरानी खाना बना कर रख गई थी पर अभी खाने का मन नहीं था. सोचा, डायरी उठा कर नोट कर ले कि स्कूल में कौन सा काम किस को देना है. दिल्ली जाने का मतलब है, कम से कम महीने भर की छुट्टी. क्या पता और ज्यादा समय भी लग जाए.

फिर मन पति और बच्चों में उलझता चला गया था. 6-7 महीने पहले जब इस छोटे से पहाड़ी शहर में उसे स्कूल की प्रधानाचार्य बना कर भेजा जा रहा था तब बिलकुल मन नहीं था उस का घरपरिवार छोड़ने का. तब उस ने पति से कहा था :

‘बच्चे बड़े हो रहे हैं अजय, उन्हें छोड़ना, फिर वहां अकेले रहना, क्या हमारे परिवार के लिए ठीक होगा. अजय, मैं यह प्रमोशन नहीं ले सकती.’

तब अजय ने ही काफी समझाया था कि बच्चे अब इतने छोटे भी नहीं रहे हैं कि तुम्हारे बिना रह न सकें. और फिर आगेपीछे उन्हें आत्मनिर्भर होना ही है. अब जब इतने सालों की नौकरी के बाद तुम्हें यह अच्छा मौका मिल रहा है तो उसे छोड़ना उचित नहीं है. फिर आजकल टेलीफोन, मोबाइल सारी सुविधाएं इतनी अधिक हैं कि दिन में 4 बार बात कर लो. फिर वहां तुम्हें सुविधायुक्त फ्लैट मिल रहा है, नौकरचाकर की सुविधा है. तुम्हें छुट्टी नहीं मिलेगी तो हम लोग आ जाएंगे, अच्छाखासा घूमना भी हो जाएगा.’’

काफी लंबी चर्चा के बाद ही वह अपनेआप को इस छोटे से शहर में आने के लिए तैयार कर पाई थी.

रोहित और रश्मि भी उदास थे, उन्हें भी अजय ने समझाबुझा दिया था कि मां कहीं बहुत दूर तो जा नहीं रही हैं, साल 2 साल में प्रधानाचार्य बन कर यहीं आ जाएंगी.

यहां आ कर कुछ दिन तो उसे बहुत अकेलापन लगा था, दिन तो स्कूल की सारी गतिविधियों में निकल जाता पर शाम होते ही उदासी घेरने लगती थी. फोन पर बात भी करो तो कितनी बात हो पाती है. महीने में बस, 2 ही दिन दिल्ली जाना हो पाता था, वह भी भागदौड़ में.

ठीक है, अब लंबी छुट्टी ले कर जाएगी तो कुछ दिन आराम से सब के साथ रहना हो जाएगा.

9 बजतेबजते अजय का ही फोन आ गया. भारती ने उन्हें डाक्टर की पूरी बात विस्तार से बता दी थी.

‘‘ठीक है, तो तुम फिर वहीं उसी डाक्टर के नर्सिंग होम में आपरेशन करा लो.’’

‘‘पर अजय, मैं तो दिल्ली आने की सोच रही थी, वहां सुविधाएं भी ज्यादा हैं और फिर तुम सब के साथ रहना भी हो जाएगा,’’ भारती ने चौंक कर कहा था.

‘‘भारती,’’ अजय की आवाज में ठहराव था, ‘‘भावुक हो कर नहीं, व्यावहारिक बन कर सोचो. दिल्ली जैसे महानगर में जहां दूरियां इतनी अधिक हैं, वहां क्या सुविधाएं मिलेंगी. बच्चे अलग पढ़ाई में व्यस्त हैं, मेरा भी आफिस का काम बढ़ा हुआ है. इन दिनों चाह कर भी मैं छुट्टी नहीं ले पाऊंगा. वहां तुम्हारे पास सारी सुविधाएं हैं, फिर आपरेशन के बाद तुम लंबी छुट्टी ले कर आ जाना. तब आराम करना. और हां, आपरेशन की बात अब टालो मत. डाक्टर कह रही हैं तो तुरंत करा लो. इतने महीने तो हो गए तुम्हें तकलीफ झेलते हुए.’’

भारती चुप थी. थोड़ी देर बात कर के उस ने फोन रख दिया था. देर तक फिर सहज नहीं हो पाई.

वह जो कुछ सोचती है, अजय उस से एकदम उलटा क्यों सोच लेते हैं. देर रात तक नींद भी नहीं आई थी. सुबह अजय का फिर फोन आ गया था.

‘‘ठीक है, तुम कह रहे हो तो यहीं आपरेशन की बात करती हूं.’’

‘‘हां, फिर लंबी छुट्टी ले लेना…’’ अजय का स्वर था.

प्रीति जब उस की तबीयत पूछने आई तो भारती ने फिर वही बातें दोहरा दी थीं.

‘‘हो सकता है दीदी, अजयजी ठीक कह रहे हों. यहां आप के पास सारी सुविधाएं हैं. नर्सिंग होम छोटा है तो क्या हुआ, डाक्टर अच्छी अनुभवी हैं, फिर अगर आपरेशन कराना ही है तो कल ही बात करते हैं.’’

भारती ने तब प्रीति की तरफ देखा था. कितनी जल्दी स्थिति से समझौता करने की बात सोच लेती है यह.

फिर आननफानन में आपरेशन के लिए 2 दिन बाद की ही तारीख तय हो गई थी.

अजय का फिर फोन आ गया था.

‘‘भारती, मुझे टूर पर निकलना है, इसलिए कोशिश तो करूंगा कि उस दिन तुम्हारे पास पहुंच जाऊं पर अगर नहीं आ पाऊं तो तुम डाक्टर से मेरी बात करा देना.’’

हुआ भी यही. आपरेशन करने से पहले डाक्टर प्रभा की फोन पर ही अजय से बात हुई, क्योंकि उन्हें अजय की अनुमति लेनी थी. सबकुछ सामान्य था पर एक अजीब सी शून्यता भारती अपने भीतर अनुभव कर रही थी. आपरेशन के बाद भी वही शून्यता बनी रही.

शरीर का एक महत्त्वपूर्ण अंग निकल जाने से जैसे शरीर तो रिक्त हो गया है, पर मन में भी एक तीव्र रिक्तता का अनुभव क्यों होने लगा है, जैसे सबकुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं है उस के पास.

‘‘दीदी, आप चुप सी क्यों हो गई हैं, आप के टांके खुलते ही डाक्टर आप को दिल्ली जाने की इजाजत दे देंगी. बड़ी गाड़ी का इंतजाम हो गया है. स्कूल के 2 बाबू भी आप के साथ जाएंगे. अजयजी से भी बात हो गई है,’’ प्रीति कहे जा रही थी.

तो क्या अजय उसे लेने भी नहीं आ रहे. भारती चाह कर भी पूछ नहीं पाई थी.

उधर प्रीति का बोलना जारी था, ‘‘दीदी, आप चिंता न करें…भरापूरा परिवार है, सब संभाल लेंगे आप को, परेशानी तो हम जैसे लोगों की है जो अकेले रह रहे हैं.’’

पर आज भारती प्रीति से कुछ नहीं कह पाई थी. लग रहा था कि जैसे उस की और प्रीति की स्थिति में अधिक फर्क नहीं रहा अब.

हालांकि अजय के औपचारिक फोन आते रहे थे, बच्चों ने भी कई बार बात की पर उस का मन अनमना सा ही बना रहा.

अभी सीढि़यां चढ़ने की मनाही थी पर दिल्ली के फ्लैट में लिफ्ट थी तो कोई परेशानी नहीं हुई.

‘‘चलो, घर आ गईं तुम…अब आराम करो,’’ अजय की मुसकराहट भी आज भारती को ओढ़ी हुई ही लग रही थी.

बच्चे भी 2 बार आ कर कमरे में मिल गए, फिर रोहित को दोस्त के यहां जाना था और रश्मि को डांस स्कूल में. अजय तो खैर व्यस्त थे ही.

नौकरानी आ कर उस के कपड़े बदलवा गई थी. फिर वही अकेलापन था. शायद यहां और वहां की परिस्थिति में कोई खास फर्क नहीं था, वहां तो खैर फिर भी स्कूल के स्टाफ के लोग थे, जो संभाल जाते, प्रीति एक आवाज देते ही नीचे आ जाती पर यहां तो दिनभर वही रिक्तता थी.

बच्चे आते भी तो अजय को घेर कर बैठे रहते. उन के कमरे से आवाजें आती रहतीं. रश्मि के चहकने की, रोहित के हंसने की.

शायद अब न तो अजय के पास उस से बतियाने का समय है न पास बैठने का, और न ही बच्चों के पास. आखिर यह हुआ क्या है…2 ही दिन में उसे लगने लगा कि जैसे उस का दम घुटा जा रहा है. उस दिन सुबह बाथरूम में जाने के लिए उठी थी कि पास के स्टूल से ठोकर लगी और एक चीख सी निकल गई थी. दरवाजे का सहारा नहीं लिया होता तो शायद गिर ही पड़ती.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ अजय यह कहते हुए बालकनी से अंदर की ओर दौडे़.

‘‘कुछ नहीं…’’ वह हांफते हुए कुरसी पर बैठ गई थी.

‘‘भारती, तुम्हें अकेले उठ कर जाने की क्या जरूरत थी? इतने लोग हैं, आवाज दे लेतीं. कहीं गिर जातीं तो और मुसीबत खड़ी हो जाती,’’  अजय का स्वर उसे और भीतर तक बींध गया था.

‘‘मुसीबत, हां अब मुसीबत सी ही तो हो गई हूं मैं…परिवार, बच्चे सब के होते हुए भी कोई नहीं है मेरे पास, किसी को परवा नहीं है मेरी,’’ चीख के साथ ही अब तक का रोका हुआ रुदन भी फूट पड़ा था.

‘‘भारती, क्या हो गया है तुम्हें? कौन नहीं है तुम्हारे पास? हम सब हैं तो, लगता है कि इस बीमारी ने तुम्हें चिड़चिड़ा बना दिया है.’’

‘‘हां, चिड़चिड़ी हो गई हूं. अब समझ में आया कि इस घर में मेरी अहमियत क्या है… इतना बड़ा आपरेशन हो गया, कोई देखने भी नहीं आया, यहां अकेली इस कमरे में लावारिस सी पड़ी रहती हूं, किसी के पास समय नहीं है मुझ से बात करने का, पास बैठने का.’’

‘‘भारती, अनावश्यक बातों को तूल मत दो. हम सब को तुम्हारी चिंता है, तुम्हारे आराम में खलल न हो, इसलिए कमरे में नहीं आते हैं. सारा ध्यान तो रख ही रहे हैं. रही बात वहां आने की, तो तुम जानती ही हो कि सब की दिनचर्या है, फिर नौकरी करने का, वहां जाने का निर्णय भी तो तुम्हारा ही था.’’

इतना बोल कर अजय तेजी से कमरे के बाहर निकल गए थे.

सन्न रह गई भारती. इतना सफेद झूठ, उस ने तो कभी नौकरी की इच्छा नहीं की थी. ब्याह कर आई तो ससुराल की मजबूरियां थीं, तंगहाली थी. 2 छोटे देवर, ननद सब की जिम्मेदारी अजय पर थी. सास की इच्छा थी कि बहू पढ़ीलिखी है तो नौकरी कर ले. तब भी कई बार हूक सी उठती मन में. सुबह से शाम तक काम से थक कर लौटती तो घर के और काम इकट्ठे हो जाते. अपने स्वयं के बच्चों को खिलाने का, उन के साथ खेलने तक का समय नहीं होता था, उस के पास तो दुख होता कि अपने ही बच्चों का बालपन नहीं देख पाई.

फिर यह बाहर की पोस्ंिटग, उस का तो कतई मन नहीं था घर छोड़ने का. यह तो अजय की ही जिद थी, पर कितनी चालाकी से सारा दोष उसी के माथे मढ़ कर चल दिए.

इच्छा हो रही थी कि चीखचीख कर रो पड़े, पर यहां तो सुनने वाला भी कोई नहीं था.

पता नहीं बच्चों से भी अजय ने क्या कहा था, शाम को रश्मि और रोहित उस के पास आए थे.

‘‘मम्मी, प्लीज आप पापा से मत लड़ा करो. सुबह आप इतनी जोरजोर से चिल्ला रही थीं कि अड़ोसपड़ोस तक सुन ले. कौन कहेगा कि आप एक संभ्रांत स्कूल की पिं्रसिपल हो,’’ रोहित कहे जा रहा था, ‘‘ठीक है, आप बीमार हो तो हम सब आप का ध्यान रख ही रहे हैं. यहां पापा ही तो हैं जो हम सब को संभाल रहे हैं. आप तो वैसे भी वहां आराम से रह रही हो और यहां आ कर पापा से ही लड़ रही हो…’’

विस्फारित नेत्रों से देखती भारती सोचने लगी कि अजय ने बच्चों को भी अपनी ओर कर लिया है. अकेली है वह… सिर्फ वह…

Latest Hindi Stories : एक रिश्ता प्यारा सा – अमर ने क्या किया था

Latest Hindi Stories :  “अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

वैसे भी 30 साल की अविवाहित, अकेली और खूबसूरत कन्या के साथ दोस्ती रखने के लिए लोग मरते हैं. फिर मैं तो इन सब के साथ काम कर रही हूं. 8 घंटे का साथ है. मुझे किसी भी चीज की जरूरत होती है तो सहकर्मी तुरंत मेरी मदद कर देते हैं. अच्छा ही है वरना अनजान शहर में अकेले रहना आसान नहीं होता.

दिल्ली के इस ब्रांच ऑफिस में मैं अपने एक प्रोजेक्ट वर्क के लिए आई हुई हूं. दोतीन महीने का काम है. फिर अपने शहर जयपुर वाले ब्रांच में चली जाऊंगी. इसलिए ज्यादा सामान ले कर नहीं आई हूं.

मैं ने लक्ष्मी नगर में एक कमरे का घर किराए पर ले रखा है. बगल के कमरे में दो लड़कियां रहती हैं. जबकि मेरे सामने वाले घर में पतिपत्नी रहते हैं. शायद उन की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ है. पत्नी हमेशा साड़ी में दिखती है. मैं सुबहसुबह जब भी खिड़की खोलती हूं तो सामने वह लड़का अपनी बीवी का हाथ बंटाता हुआ दिखता है. कभीकभी वह छत पर एक्सरसाइज करता भी दिख जाता है.

उस की पत्नी से मेरी कभी बात नहीं हुई मगर वह लड़का एकदो बार मुझे गली में मिल चुका है. काफी शराफत से वह इतना ही पूछता है,” कैसी हैं आप ? कोई तकलीफ तो नही यहां.”

“जी नहीं. सब ठीक है.” कह कर मैं आगे बढ़ जाती.

इधर कुछ दिनों से देश में कोरोना के मामले सामने आने लगे हैं. हर कोई एहतियात बरत रहा है. बगल वाले कमरे की दोनों लड़कियों के कॉलेज बंद हो गए. दोनों अपने शहर लौट गई .

उस दिन सुबहसुबह मेरे घर से भी मम्मी का फोन आ गया,” बेटा देख कोरोना फैलना शुरु हो गया है. तू घर आ जा.”

“पर मम्मी अभी कोई डरने की बात नहीं है. सब काबू में आ जाएगा. यह भी तो सोचो मुझे ऑफिस ज्वाइन किए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे लूं? बॉस पर अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ेगा. वैसे भी ऑफिस बंद थोड़े न हुआ है. सब आ रहे हैं.”

“पर बेटा तू अनजान शहर में है. कैसे रहेगी अकेली? कौन रखेगा तेरा ख्याल?”

“अरे मम्मी चिंता की कोई बात नहीं. ऑफिस में साथ काम करने वाले मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. सरला मैडम तो मेरे घर के काफी पास ही रहती है. उन की फैमिली भी है. 2 लोग हैं और हैं जिन का घर मेरे घर के पास ही है. इसलिए आप चिंता न करें. सब मेरा ख्याल रखेंगे.”

“और बेटा खानापीना… सब ठीक चल रहा है ?”

“हां मम्मा. खानेपीने की कोई दिक्कत नहीं है . मुझे जब भी कैंटीन में खाने की इच्छा नहीं होती तो सरला मैडम या दिवाकर सर से कह देती हूं. वे अपने घर से मेरे लिए लंच ले आते हैं. ममा डोंट वरी. मैं बिल्कुल ठीक हूं. गली के कोने में ढाबे वाले रामू काका भी तो हैं. मेरे कहने पर तुरंत खाना भेज देते हैं. ममा कोरोना ज्यादा फैला तो मैं घर आ जाऊंगी. आप चिंता न करो .”

उस दिन मैं ने मां को तो समझा दिया था कि सब ठीक है. मगर मुझे अंदाज भी नहीं था कि तीनचार दिनों के अंदर ही देश में अचानक लॉकडाउन हो जाएगा और मैं इस अनजान शहर में एक कमरे में बंद हो कर रह जाऊंगी. न घर में खानेपीने की ज्यादा चीजें हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट ही खुला हुआ है .

मैं ने सरला मैडम से मदद मांगी तो उन्होंने टका सा जवाब दे दिया,” देखो माया अभी तो अपने घर में ही खाने की सामग्री कब खत्म हो जाए पता नहीं . अभी न तुम्हारा घर से निकलना उचित है और न हमारे घर में ऐसा कोई है जो तुम्हें खाना दे कर आए. आई एम सॉरी. ”

“इट्स ओके .” बस इतना ही कह सकी थी मैं. इस के बाद मैं ने दिवाकर सर को फोन किया तो उन्होंने उस दिन तो खाना ला कर दे दिया मगर साथ में अपना एक्सक्यूज भी रख दिया कि माया अब रोज मैं खाना ले कर नहीं आ सकूंगा. मेरी बीवी भी तो सवाल करेगी न.

“जी मैं समझ सकती हूं . मुझे उन की उम्मीद भी छोड़नी पड़ी. अब मैं ने रमन जी को फोन किया जो हर समय मेरे लिए जान हाजिर करने की बात करते रहते थे. उन का घर भी लक्ष्मी नगर में ही था. हमेशा की तरह उन का जवाब सकारात्मक आया. शाम में खाना ले कर आने का वादा किया. रात हो गई और वह नहीं आए. मैं ने फोन किया तो उन्होंने फोन उठाया भी नहीं और एक मैसेज डाल दिया, सॉरी माया मैं नहीं आ पाऊंगा.

अब मेरे पास खाने की भारी समस्या पैदा हो गई थी. किराने की दुकान से ब्रेड और दूध ले आई. कुछ बिस्किट्स और मैगी भी खरीद ली. चाय बनाने के लिए इंडक्शन खरीदा हुआ था मैं ने. उसी पर किसी तरह मैगी बना ली. कुछ फल भी खरीद लिए थे. दोतीन दिन ऐसे ही काम चलाया मगर ऐसे पता नहीं कितने दिन चलाना था. 21 दिन का लॉकडाउन था. उस के बाद भी परिस्थिति कैसी होगी कहना मुश्किल था.

उस दिन मैं दूध ले कर आ रही थी तो गेट के बाहर वही लड़का जो सामने के घर में रहता है मिल गया. उस ने मुझ से वही पुराना सवाल किया,” कैसी हैं आप? सब ठीक है न? कोई परेशानी तो नहीं?”

“अब ठीक क्या? बस चल रहा है. मैगी और ब्रेड खा कर गुजारा कर रही हूं .”

“क्यों खाना बनाना नहीं जानती आप?

उस के सवाल पर मैं हंस पड़ी.

“जानती तो हूं मगर यहां कोई सामान नहीं है न मेरे पास. दोतीन महीने के लिए ही दिल्ली आई थी. अब तक ऑफिस कैंटीन और रामू काका के ढाबे में खाना खा कर काम चल जाता था. मगर अब तो सब कुछ बंद है न. अचानक लॉक डाउन से मुझे तो बहुत परेशानी हो रही है.”

“हां सो तो है ही. मेरी वाइफ भी 5-6 दिन पहले अपने घर गई थी. 1 सप्ताह में वापस आने वाली थी. संडे मैं उसे लेने जाता तब तक सब बंद हो गया. उस के घरवालों ने कहा कि अभी जान जोखिम में डाल कर लेने मत आना. सब ठीक हो जाए तो आ जाना. अब मैं भी घर में अकेला ही हूं.”

“तो फिर खाना?”

“उस की कोई चिंता नहीं. मुझे खाना बनाना आता है. ” उस के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“क्या बात है! यह तो बहुत अच्छा है. आप को परेशानी नहीं होगी.”

“परेशानी आप को भी नहीं होने दूंगा. कल से मैं आप के लिए खाना बना दिया करूंगा. आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ सामान लाना हो तो वह भी मुझे बताइए. आप घर से मत निकला कीजिए. मैं हूं न.”

एक अनजान शख्स के मुंह से इतनी आत्मीयता भरी बातें बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.” थैंक यू सो मच “मैं इतना ही कह पाई.

अगले दिन सुबहसुबह वह लड़का यानी अमर मेरे लिए नाश्ता ले कर आ गया. टेबल पर टिफिन बॉक्स छोड़ कर वह चला गया था. नाश्ते में स्वादिष्ट पोहा खा कर मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मैं दोपहर का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे वह फिर टिफिन भर लाया. इस बार टिफिन में दाल चावल और सब्जी थे. मैं सोच रही थी कि किस मुंह से उसे शुक्रिया करूं. अनजान हो कर भी वह मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है.

मैं ने उसे रोक लिया और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. वह थोड़ा सकुचाता हुआ बैठ गया. मैं बोल पड़ी ,” आई नो एक एक अनजान, अकेली लड़की के घर में ऐसे बैठना आप को अजीब लग रहा होगा. मगर मैं इस अजनबीपन को खत्म करना चाहती हूं. आप अपने बारे में कुछ बताइए न. मैं जानना चाहती हूं उस शख्स के बारे में जो मेरी इतनी हेल्प कर रहा है.”

“ऐसा कुछ नहीं माया जी. हम सब को एकदूसरे की सहायता करनी चाहिए.” बड़े सहज तरीके से उस ने जवाब दिया और फिर अपने बारे में बताने लगा,

“दरअसल मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं. मेरठ में मेरा घर है . स्कूल में हमेशा टॉप करता था. मगर घर के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे. सो इंटर के बाद ही मुझे नौकरी करनी पड़ी. करोल बाग में मेरा ऑफिस है. वाइफ भी मेरठ की ही है. बहुत अच्छी है. बहुत प्यार करती है मुझ से. हम दोनों की शादी पिछले साल ही हुई थी. दिल्ली आए ज्यादा समय नहीं हुआ है.”

“बहुत अच्छे. मैं भी दिल्ली में नई हूं. हमारे इस ऑफिस का एक ब्रांच जयपुर में भी है. वही काम करती थी मैं. यहां एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आई हुई हूं .अगर प्रमोशन मिल गया तो शायद हमेशा के लिए भी रहना पड़ जाए.”

अच्छा जी अब आप खाना खाएं. देखिए मैं ने ठीक बनाया है या नहीं.”

आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाते हैं. सुबह ही पता चल गया था. कह कर मैं हंस पड़ी. वह भी थोड़ा शरमाता हुआ मुस्कुराने लगा था. मैं खाती रही और वह बातें करता रहा.

अब तो यह रोज का नियम बन गया था. वह 3 बार मेरे लिए खाना बना कर लाता. मैं भी कभीकभी चाय बना कर पिलाती. किसी भी चीज की जरूरत होती तो वह ला कर देता . मुझे निकलने से रोक देता.

मेरे आग्रह करने पर वह खुद भी मेरे साथ ही खाना खाने लगा. हम दोनों घंटों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करते.

इस बीच मम्मी का जब भी फोन आता और वह चिंता करतीं तो मैं उन्हें समझा देती कि सब अच्छा है. मम्मी जब भी खाने की बात करतीं तो मैं उन्हें कह देती कि सरला मैडम मेरे लिए खाना बना कर भेज देती हैं. कोई परेशानी की बात नहीं है.

इधर अमर की वाइफ भी फोन कर के उस का हालचाल पूछती. चिंता करती तो अमर कह देता कि वह ठीक है. अपने अकेलेपन को टीवी देख कर और एक्सरसाइज कर के काट रहा है.

हम दोनों घरवालों से कही गई बातें एकदूसरे को बताते और खूब हंसते. वाकई इतनी विकट स्थिति में अमर का साथ मुझे मजबूत बना रहा था. यही हाल अमर का भी था. इन 15- 20 दिनों में हम एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. और फिर एक दिन हमारे बीच वह सब हो गया जो उचित नहीं था.

अमर इस बात को ले कर खुद को गुनहगार मान रहा था. मगर मैं ने उसे समझाया,” तुम्हारा कोई दोष नहीं अमर. भूल हम दोनों से हुई है. पर इसे भूल नहीं परिस्थिति का दोष समझो. यह भूल हम कभी नहीं दोहराएंगे. मगर इस बात को ले कर अपराधबोध भी मत रखो. हम अच्छे दोस्त हैं और हमेशा रहेंगे. एक दोस्त ही दूसरे का सहारा बनता है और तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. मुझे खुशी है कि मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिला.”

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर से भी तनाव की रेखाएं गायब हो गई और वह मंदमंद मुस्कुराने लगा.

Hindi Moral Tales : विद्रोह – क्या राकेश को हुआ गलती का एहसास

Hindi Moral Tales : सीमा को अपने मातापिता के घर में रहते हुए करीब 15 दिन हो चुके थे. इस दौरान उस का अपने पति राकेश से किसी भी तरीके का कोई संपर्क नहीं रहा था. उस शाम राकेश को अचानक घर आया देख कर वह हैरान हो गई.

‘‘बेटी, आपसी मनमुटाव को ज्यादा लंबा खींचना खतरनाक साबित हो जाता है. राकेश के साथ समझदारी से बातें करना,’’ अपनी मां की इस सलाह पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर किए बिना सीमा ड्राइंगरूम में राकेश के सामने पहुंच गई.

‘‘तुम्हें मेरे साथ घर चलना पडे़गा, सीमा,’’ राकेश ने बिना कोई भूमिका बांधे सख्त लहजे में कहा.

‘‘तुम्हारा घर मैं छोड़ आई हूं,’’ सीमा ने भी रूखे अंदाज में अपना फैसला उसे सुना दिया.

‘‘क्या हमेशा के लिए?’’ राकेश ने उत्तेजित हो कर सवाल किया.

‘‘ऐसा ही समझ लो,’’ सीमा ने विद्रोही स्वर में जवाब दिया.

‘‘बेकार की बात मत करो. मेरी सहनशक्ति का तार टूट गया तो पछताओगी,’’ राकेश भड़क उठा.

‘‘मुझे डरानेधमकाने का अब कोई फायदा नहीं है,’’ सीमा ने निडर हो कर कहा, ‘‘अगर तुम्हें और कोई बात नहीं कहनी है तो मैं अपने कमरे में जा रही हूं.’’

राकेश ने अपनी पत्नी को अचरज भरी निगाहों से देखा.  उन की शादी को करीब 12 साल  हो चुके थे. इस दौरान उस ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि सीमा ऐसे विद्रोही अंदाज में उस से पेश आएगी.

उठ कर खड़ी होने को तैयार सीमा को हाथ के इशारे से राकेश ने बैठने को कहा और फिर  बताया कि कल सुबह मयंक और शिक्षा होस्टल से 10 दिनों की छुट्टियां बिताने घर पहुंच रहे हैं.

कुछ देर सोच में डूबी रहने के बाद सीमा ने व्याकुल स्वर में कहा, ‘‘उन दोनों को यहां मेरे पास छोड़ जाना.’’

‘‘तुम्हें पता है कि तुम क्या बकवास कर रही हो. वह दोनों यहां नहीं आएंगे,’’ राकेश गुस्से से फट पड़ा.

‘‘फिर जैसी तुम्हारी मर्जी, मैं बच्चों से कहीं बाहर मिल लिया करूंगी,’’ सीमा ने थके से अंदाज में राकेश का फैसला स्वीकार कर लिया.

‘‘यह कैसी मूर्खता भरी बात मुंह से निकाल रही हो. तुम्हारे बच्चे 4 महीने बाद घर लौट रहे हैं और तुम उन के साथ घर रहने नहीं आओगी. तुम्हारा यह फैसला सुन कर मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है.’’

‘‘अपने बच्चों के साथ कौन मां नहीं रहना चाहेगी,’’ सीमा का अचानक गला भर आया, ‘‘मैं अपने फैसले से मजबूर हूं. मुझे उस घर में लौटना ही नहीं है.’’

‘‘हम अपने झगडे़ बाद में निबटा लेंगे, सीमा. फिलहाल तो बच्चों के मन की सुखशांति के लिए घर चलो. तुम्हें घर में न पाने का सदमा वे दोनों कैसे बरदाश्त करेंगे? अब वे दोनों बहुत छोटे बच्चे नहीं रहे हैं. मयंक 10 साल का और शिखा 8 साल की हो रही है. उन दोनों को बेकार ही मानसिक कष्ट पहुंचाने का फायदा क्या होगा?’’ राकेश ने चिढे़ से अंदाज में उसे समझाने का प्रयास किया.

‘‘एक दिन तो बच्चों को यह पता लगेगा ही कि हम दोनों अलग हो रहे हैं. यह कड़वी सचाई उन्हें इस बार ही पता लग जाने दो,’’ उदास सीमा अपनी जिद पर अड़ी रही.

‘‘ऐसा हुआ ही क्या है हमारे बीच, जो तुम यों अलग होने की बकवास कर रही हो?’’ राकेश फिर गुस्से से भर गया.

‘‘मुझे इस बारे में तुम से अब कोई बहस नहीं करनी है.’’

‘‘इस वक्त सहयोग करो मेरे साथ, सीमा.’’

सीमा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह सिर झुकाए सोच में डूबी रही.

राकेश ने अंदर जा कर अपने सासससुर को सारा मामला समझाया. मयंक और शिखा की खुशियों की खातिर वह अपनी नाराजगी व शिकायतें भुला कर राकेश की तरफ  हो गए.

सीमा पर ससुराल वापस लौटने के लिए अब अपने मातापिता का दबाव भी पड़ा. अपने बच्चों से मिलने के लिए उस का मन पहले ही तड़प रहा था. अंतत: उस ने एक शर्त के साथ राकेश की बात मान ली.

‘‘मैं तुम्हारे साथ बच्चों की मां के रूप में लौट रही हूं, पत्नी के रूप में नहीं. पतिपत्नी के टूटे रिश्ते को फिर से जोड़ने का कोई प्रयास न करने की तुम कसम खाओ, तो ही मैं वापस लौटूंगी,’’ बडे़ गंभीर हो कर सीमा ने अपनी शर्त राकेश को बता दी.

अपमान का घूंट पीते हुए राकेश को मजबूरन अपनी पत्नी की बात माननी पड़ी.

‘‘बच्चे कल आ रहे हैं, तो मैं भी कल सुबह घर पहुंच जाऊंगी,’’ अपना निर्णय सुना कर सीमा ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चली आई.

सीमा के व्यक्तित्व में नजर आ रहे जबरदस्त बदलाव ने उस के मातापिता व पति को ही नहीं, बल्कि उसे खुद को भी अचंभित कर दिया था.

उस रात सीमा की आंखों से नींद दूर भाग गई थी. पलंग पर करवटें बदलते हुए वह अपनी विवाहित जिंदगी की यादों में खो गई. उसे वे घटनाएं व परिस्थितियां रहरह कर याद आ रही थीं जो अंतत: राकेश व उस के दिलों के बीच गहरी खाई पैदा करने का कारण बनी थीं.

उस शाम आफिस से देर से लौटे राकेश की कमीज के पिछले हिस्से में लिपस्टिक से बना होंठों का निशान सीमा ने देखा. अपने पति को उस ने कभी बेवफा और चरित्रहीन नहीं समझा था. सचाई जानने को वह उस के पीछे पड़ गई तो राकेश अचानक गुस्से से फट पड़ा था.

‘हां, मेरी जिंदगी में एक दूसरी लड़की है,’ सीमा के दिल को गहरा जख्म देते हुए उस ने चिल्ला कर कबूल किया, ‘उस की खूबसूरती, उस का यौवन और उस का साथ मुझे वह मस्ती भरा सुख देते हैं जो तुम से मुझे कभी नहीं मिला. मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं, उसे नहीं.’

‘मेरे सारे गुण…मेरी सेवा और समर्पण को नकार कर क्या तुम एक चरित्रहीन लड़की के लिए मुझे छोड़ने की धमकी दे रहे हो?’ राकेश के आखिरी वाक्य ने सीमा को जबरदस्त मानसिक आघात पहुंचाया था.

‘उस लड़की के लिए न कोई अपशब्द कभी मेरे सामने निकालना और न उसे छोड़ने की बात करना. तुम अपनी घरगृहस्थी और बच्चों में खुश रहो और मुझे भी खुशी से जीने दो,’ कहते हुए बड़ी बेरुखी दिखाता राकेश बाथरूम में घुस गया था.

वह रात सीमा ने ड्राइंगरूम में पडे़ दीवान पर आंसू बहाते हुए काटी थी. उस के दिलोदिमाग में विद्रोह के बीज को इन्हीं आंसुओं ने अंकुरित होने की ताकत दी थी.

उस रात सीमा ने अपने दब्बूपन व कायरता को याद कर के भी आंसू बहाए थे.

राकेश शादी के बाद से ही उसे अपमानित कर नीचा दिखाता आया था. घर व बाहर वालों के सामने बेइज्जत कर उस का मजाक उड़ाने का वह कोई मौका शायद ही चूकता था.

सीमा के सुंदर नैननक्श की तारीफ नहीं बल्कि उस के सांवले रंग का रोना वह अकसर जानपहचान वालों के सामने रोता.

घर की देखभाल में जरा सी कमी रह जाती तो उसे सीमा को डांटनेडपटने का मौका मिल जाता. उस का कोई काम मन मुताबिक न होता तो वह उसे बेइज्जत जरूर करता.

बच्चों के बडे़ होने के साथ सीमा की जिम्मेदारियां भी बढ़ी थीं. 2 साल पहले सास के निधन के बाद तो वह बिलकुल अकेली पड़ गई थी. उन के न रहने से सीमा का सब से बड़ा सहारा टूट गया था.

राकेश के गुस्से से बच्चे डरेसहमे से रहते. उस के गलत व्यवहार को देख सारे रिश्तेदार, परिचित और दोस्त उसे एक स्वार्थी, ईर्ष्यालु व गुस्सैल इनसान बताते.

सीमा मन ही मन कभीकभी बहुत दुखी व परेशान हो जाती पर कभी किसी बाहरी व्यक्ति के मुंह से राकेश की बुराई सुनना उसे स्वीकार न था.

‘वह दिल के बहुत अच्छे हैं…मुझे बहुत प्यार करते हैं और बच्चों में तो उन की जान बसती है. मैं बहुत खुश हूं उन के साथ,’ सीमा सब से यह कहती भी थी और अपने मन की गहराइयों में इस विश्वास की जड़ें खुद भी मजबूत करती रहती थी.

घर में डरेसहमे से रह रहे मयंक व शिखा के व्यक्तित्व के समुचित विकास को ध्यान में रखते हुए वह उन्हें पिछले साल होस्टल में डालने को तैयार हो गई थी.

उन की पढ़ाई व घर का ज्यादातर खर्चा वह अपनी तनख्वाह से चलाती थी. राकेश करीब 1 साल से घरखर्च के लिए ज्यादा रुपए नहीं देता था. यह सीमा को उस रात ही समझ में आया कि वह जरूर अपनी प्रेमिका पर जरूरत से ज्यादा खर्चा करने के कारण घर की जिम्मेदारियों से हाथ खींचने लगा है.

अगले दिन वह आफिस नहीं गई थी. घर छोड़ कर मायके जाने की सूचना उस ने राकेश को उस के आफिस जाने से पहले दे दी थी.

‘तुम जब चाहे लौट सकती हो. मैं तुम्हें कभी लेने नहीं आऊंगा, यह ध्यान रखना,’ उसे समझानेमनाने के बजाय उस ने उलटे धमकी दे डाली थी.

‘मैं इस घर में कभी नहीं लौटूंगी,’ सीमा ने अपना निर्णय उसे बताया तो राकेश मखौल उड़ाने वाले अंदाज में हंस कर घर से बाहर चला गया था.

राकेश चाहेगा तो वह उसे तलाक दे देगी, पर उस के पास अब कभी नहीं लौटेगी, सीमा की इस विद्रोही जिद को उस के मातापिता लाख कोशिश कर के  भी तोड़ नहीं पाए थे.

लेकिन एक मां अपने बच्चों के मन की सुखशांति व खुशियों की खातिर अपने बेवफा पति के घर लौटने को तैयार हो गई थी.

सीमा को अगले दिन उस के मातापिता राकेश के पास ले गए. उस ने वहां पहुंचते ही पहले घर की साफसफाई की और फिर रसोई संभाल ली. अपने बेटाबेटी के लिए वह उन की मनपसंद चीजें बडे़ जोश के साथ बनाने के काम में जल्दी ही व्यस्त हो गई थी.

राकेश और उस के बीच नाममात्र की बातें हुईं. दोनों बच्चों को स्टेशन से ले कर राकेश जब 11 बजे के करीब घर लौटा, तब घर भर में एकदम से रौनक आ गई. मयंक और शिखा के साथ खेलते, हंसतेबोलते और घूमतेफिरते सीमा के लिए समय पंख लगा कर उड़ चला. दोनों बच्चे अपने स्कूल व दोस्तों की बातें करते न थकते. उन के हंसतेमुसकराते चेहरों को देख कर सीमा फूली न समाती.

जब कभी सीमा अकेली होती तो उदास मन से यह जरूर सोचती कि अपने कलेजे के टुकड़ों को कैसे बताऊंगी कि मैं ने उन के पापा को छोड़ कर अलग रहने का फैसला कर लिया है. उन हालात को यह मासूम कैसे समझेंगे जिन के कारण मुझे इतना कठोर फैसला करना पड़ा है.

वह रात को बच्चों के साथ उन के कमरे में सोती. दिन भर की थकान इतनी होती कि लेटते ही गहरी नींद आ जाती और मन को परेशान या दुखी करने वाली बातें सोचने का समय ही नहीं मिलता.

राकेश इन तीनों की उपस्थिति में अधिकतर चुप रह कर इन की बातें सुनता. उस में आए बदलाव को सब से पहले मयंक ने पकड़ा.

‘‘मम्मी, पापा बहुत बदलेबदले लग रहे हैं इस बार,’’ मयंक ने घर आने के तीसरे दिन दोपहर में सीमा के सामने अपनी बात कही.

‘‘वह कैसे?’’ सीमा की आंखों में उत्सुकता के भाव जागे.

‘‘वह पहले की तरह हमें हर बात पर डांटतेधमकाते नहीं हैं.’’

‘‘और मम्मी आप से भी लड़ना बंद कर दिया है पापा ने,’’ शिखा ने भी अपनी राय बताई.

‘‘मुझे तो इस बार पापा बहुत अच्छे लग रहे हैं.’’

‘‘मुझे भी बहुत प्यारे लग रहे हैं,’’ शिखा ने भी भाई के सुर में सुर मिलाया.

अपने बच्चों की बातें सुन कर सीमा मुसकराई भी और उस की आंखों में आंसू भी छलक आए. राकेश की बेवफाई को याद कर उस के दिल में एक बार नाराजगी, दुख व अफसोस से मिश्रित पीड़ा की तेज लहर उठी. जल्दी ही मन को संयत कर वह बच्चों के साथ विषय बदल कर इधरउधर की बातें करने लगी.

उस दिन शाम को राकेश बैडमिंटन खेलने के 4 रैकिट और शटलकौक खरीद लाया. दोनों बच्चे खुशी से उछल पड़े. उन की जिद के आगे झुकते हुए सीमा को भी उन तीनों के साथ बैडमिंटन खेलना पड़ा. यह शायद पहला अवसर था जब राकेश के साथ उस ने किसी गतिविधि में सहज व सामान्य हो कर हिस्सा लिया था.

उस रात सीमा बच्चों के कमरे में सोने के लिए जाने लगी तो राकेश ने उसे रोकने के लिए उस का हाथ पकड़ लिया था.

‘‘नो,’’ गुस्से और नफरत से भरा सिर्फ यह एक शब्द सीमा ने मुंह से निकाला तो राकेश की इस मामले में कुछ और कहने या करने की हिम्मत ही नहीं हुई.

बच्चों का मन रखने के लिए सीमा राकेश के साथ उस के दोस्तों के घर चायनाश्ते व खाने पर गई.

राकेश के सभी दोस्तों व उन की पत्नियों ने सीमा के सामने उस के पति के अंदर आए बदलाव पर कोई न कोई अनुकूल टिप्पणी जरूर की थी. उन के हिसाब से राकेश अब ज्यादा शांत, हंसमुख व सज्जन इनसान हो गया है.

सीमा ने भी उस में ये सब परिवर्तन महसूस किए थे, पर उस से अलग रहने के निर्णय पर वह पूर्ववत कायम रही.

राकेश ने दोनों बच्चों को कपड़ों व अन्य जरूरी सामान की ढेर सारी खरीदारी खुशीखुशी करा कर उन का मन और ज्यादा जीत लिया.

बच्चों को उन के वापस होस्टल लौटने में जब 4 दिन रह गए तब सीमा ने राकेश से कहा, ‘‘मेरी सप्ताह भर की छुट्टियां अब खत्म हो जाएंगी. बाकी 4 दिन बच्चे नानानानी के पास रहें, तो बेहतर होगा.’’

‘‘बच्चे वहां जाएंगे, तो मैं उन से कम मिल पाऊंगा,’’ राकेश का स्वर एकाएक उदास हो गया.

‘‘बच्चों को कभी मुझ से और कभी तुम से दूर रहने की आदत पड़ ही जानी चाहिए,’’ सीमा ने भावहीन लहजे में जवाब दिया.

राकेश कुछ प्रतिक्रिया जाहिर करना चाहता था, पर अंतत: धीमी आवाज में उस ने इतना भर कहा, ‘‘तुम अपने घर बच्चों के साथ चली जाओ. उन का सामान भी ले जाना. वे वहीं से वापस चले जाएंगे.’’

नानानानी के घर मयंक और शिखा की खूब खातिर हुई. वे दोनों वहां बहुत खुश थे, पर अपने पापा को वे काफी याद करते रहे. राकेश उन के बहुत जोर देने पर भी रात को साथ में नहीं रुके, यह बात दोनों को अच्छी नहीं लगी थी.

अपने मातापिता के पूछने पर सीमा ने एक बार फिर राकेश से हमेशा के लिए अलग रहने का अपना फैसला दोहरा दिया.

‘‘राकेश ने अगर अपने बारे में तुम्हें सब बताने की मूर्खता नहीं की होती, तब भी तो तुम उस के साथ रह रही होंती. तुम्हें संबंध तोड़ने के बजाय उसे उस औरत से दूर करने का प्रयास करना चाहिए,’’ सीमा की मां ने उसे समझाना चाहा.

‘‘मां, मैं ने राकेश की कई गलतियों, कमियों व दुर्व्यवहार से हमेशा समझौता किया, पर वह सब मैं पत्नी के कर्तव्यों के अंतर्गत करती थी. उन की जिंदगी में दूसरी औरत आ जाने के बाद मुझ पर अच्छी बीवी के कर्तव्यों को निभाते रहने के लिए दबाव न डालें. मुझे राकेश के साथ नहीं रहना है,’’ सीमा ने कठोर लहजे में अपना फैसला सुना दिया था.

अगले दिन बच्चे अपने पापा का इंतजार करते रहे पर वह उन से मिलने नहीं आए. इस कारण वे दोनों बहुत परेशान और उदास से सोए थे. सीमा को राकेश की ऐसी बेरुखी व लापरवाही पर बहुत गुस्सा आया था.

उस ने अगले दिन आफिस से राकेश को फोन किया और क्रोधित स्वर में शिकायत की, ‘‘बच्चों को यों परेशान करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है. कल उन से मिलने क्यों नहीं आए?’’

‘‘एक जरूरी काम में व्यस्त था,’’ राकेश का गंभीर स्वर सीमा के कानों में पहुंचा.

‘‘मैं सब समझती हूं तुम्हारे जरूरी काम को. अपनी रखैलों से मिलने की खातिर अपने बच्चों का दिल दुखाना ठीक नहीं है. आज तो आओगे न?’’

‘‘अपनी रखैल से मिलने सचमुच आज मुझे नहीं जाना है, इसलिए बंदा तुम सब से मिलने जरूर हाजिर होगा,’’ राकेश की हंसी सीमा को बहुत बुरी लगी, तो उस ने जलभुन कर फोन काट दिया.

राकेश शाम को सब से मशहूर दुकान की रसमलाई ले कर आया. यह सीमा की सब से ज्यादा पसंदीदा मिठाई थी. वह नाराजगी की परवा न कर उस के साथ हंसीमजाक व छेड़छाड़ करने लगा. बच्चों की उपस्थिति के कारण वह उसे डांटडपट नहीं सकी.

राकेश दोनों बच्चों को बाजार घुमा कर लाया. फिर सब ने एकसाथ खाना खाया. सीमा को छोड़ कर सभी का मूड बहुत अच्छा बना रहा.

बच्चों को सोने के लिए भेजने के बाद वह राकेश से उलझने को तैयार थी पर उस ने पहले से हाथ जोड़ कर उस से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अपने अंदर के ज्वालामुखी को कुछ देर और शांत रख कर जरा मेरी बात सुन लो, डियर.’’

‘‘डोंट काल मी डियर,’’ सीमा चिढ़ उठी.

‘‘यहां बैठो, प्लीज,’’ राकेश ने बडे़ अधिकार से सीमा को अपनी बगल में बिठा लिया तो वह ऐसी हैरान हुई कि गुस्सा करना ही भूल गई.

‘‘मैं ने कल पुरानी नौकरी छोड़ कर आज से नई नौकरी शुरू कर दी है. कल शाम मैं ने अपनी ‘रखैल’ से पूरी तरह से संबंध तोड़ लिया है और अपने अतीत के गलत व्यवहार के लिए मैं तुम से माफी मांगता हूं,’’ राकेश का स्वर भावुक था, उस ने एक बार फिर सीमा के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘मुझे तुम्हारे ऊपर अब कभी विश्वास नहीं होगा. इसलिए इस विषय पर बातें कर के न खुद परेशान हो न मुझे तंग करो,’’ न चाहते हुए भी सीमा का गला भर आया.

‘‘अपने दिल की बात मुझे कह लेने दो, सीमा, सब तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, पर मैं ने सदा तुम में कमियां ढूंढ़ कर तुम्हें गिराने व नीचा दिखाने की कोशिश की, क्योंकि शुरू से ही मैं हीनभावना का शिकार बन गया था. तुम हर काम में कुशल थीं और मुझ से ज्यादा कमाती भी थीं.

‘‘मैं सचमुच एक घमंडी, बददिमाग और स्वार्थी इनसान था जो तुम्हें डरा कर अपने को बेहतर दिखाने की कोशिश करता रहा.

‘‘फिर तुम ने मेरी चरित्रहीनता के कारण मुझ से दूर होने का फैसला किया. पहले मैं ने तुम्हारी धमकी को गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि तुम कभी मेरे खिलाफ विद्रोह करोगी, ऐसा मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.

‘‘पिछले दिनों मैं ने तुम्हारी आंखों में अपने लिए जो नाराजगी व नफरत देखी, उस ने मुझे जबरदस्त सदमा पहुंचाया. सीमा, मेरी घरगृहस्थी उजड़ने की कगार पर पहुंच चुकी है, इस सचाई को सामने देख कर मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई.

‘‘मुझे तब एहसास हुआ कि मैं न अच्छा पति रहा हूं, न पिता. पर अब मैं बदल गया हूं. गलत राह पर मैं अब कभी नहीं चलूंगा, यह वादा दिल से कर रहा हूं. मुझे अकेला मत छोड़ो. एक अच्छा पति, पिता व इनसान बनने में मेरी मदद करो.

‘‘तुम मां होने के साथसाथ मुझ से कहीं ज्यादा समझदार व सुघड़ स्त्री हो. औरतें घर की रीढ़ होती हैं. मेरे पास लौट कर हमारी घरगृहस्थी को उजड़ने से बचा लो, प्लीज,’’ यों प्रार्थना करते हुए राकेश का गला भर आया.

‘‘मैं सोच कर जवाब दूंगी,’’ राकेश के आंसू न देखने व अपने आंसू उस की नजरों से छिपाने की खातिर सीमा ड्राइंगरूम से उठ कर बच्चों के पास चली गई.

अपने बच्चों के मायूस, सोते चेहरों को देख कर वह रो पड़ी. उस के आंसू खूब बहे और इन आंसुओं के साथ ही उस के दिल में राकेश के प्रति नाराजगी, शिकायत व गुस्से के सारे भाव बह गए.

कुछ देर बाद राकेश उस से कमरे में विदा लेने आया.

‘‘आप रात को यहीं रुक जाओ कल बच्चों को जाना है,’’ सीमा ने धीमे, कोमल स्वर में उसे निमंत्रण दिया.

राकेश ने सीमा की आंखों में झांका, उन में अपने लिए प्रेम के भाव पढ़ कर उस का चेहरा खिल उठा. उस ने बांहें फैलाईं तो लजाती सीमा उस की छाती से लग गई.

Hindi Moral Tales : अब जाने दो उसे – रिश्तों की कशमकश

Hindi Moral Tales :  मुझे नाकारा और बेकार पड़ी चीजों से चिढ़ होती है. जो हमारे किसी काम नहीं आता फिर भी हम उसे इस उम्मीद पर संभाले रहते हैं कि एक दिन शायद वह काम आए. और जिस दिन उस के इस्तेमाल का दिन आता है, पता चलता है कि उस से भी कहीं अच्छा सामान हमारे पास है. बेकार पड़ा सामान सिर्फ जगह घेरता है, दिमाग पर बोझ बनता है बस.

अलमारी साफ करते हुए बड़बड़ा रहा था सोम, ‘यह देखो पुराना ट्रांजिस्टर, यह रुकी हुई घड़ी. बिखरा सामान और उस पर कांच का भी टूट कर बिखर जाना…’ विचित्र सा माहौल बनता जा रहा था. सोम के मन में क्या है, यह मैं समझ नहीं पा रहा था.

मैं सोम से क्या कहूं, जो मेरे बारबार पूछने पर भी नहीं बता रहा कि आखिर वजह क्या है.

‘‘क्या रुक गया है तुम्हारा, जरा मुझे समझाओ न?’’

सोम जवाब न दे कर सामान को पैर से एक तरफ धकेल परे करने लगा.

‘‘इस सामान में किताबें भी हैं, पैर क्यों लगा रहे हो.’’

सोम एक तरफ जा बैठा. मुझे ऐसा भी लगा कि उसे शर्म आ रही है. संस्कारों और ऊंचे विचारों का धनी है सोम, जो व्यवहार वह कर रहा है उसे उस के व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं माना जा सकता क्योंकि वह ऐसा है ही नहीं.

‘‘कल किस से मिल कर आया है, जो ऐसी अनापशनाप बातें कर रहा है?’’

सोम ने जो बताया उसे सुन कर मुझे धक्का भी लगा और बुरा भी. किसी तांत्रिक से मिल कर आया था सोम और उसी ने समझाया था कि घर का सारा खड़ा सामान घर के बाहर फेंक दो.

‘‘खड़े सामान से तुम्हारा क्या मतलब है?’’

‘‘खड़े सामान से हमारा मतलब वह सामान है जो चल नहीं रहा, बेकार पड़ा सामान, जो हमारे काम में नहीं आ रहा वह सामान…’’

‘‘तब तो सारा घर ही खाली करने वाला होगा. घर का सारा सामान एकसाथ तो काम नहीं न आ जाता, कोई सामान आज काम आ रहा है तो कोई कल. किताबों को पैरों से धकेल कर बाहर फेंक रहे हो. ट्रांजिस्टर में सैल डालोगे तो बजेगा ही… क्या तुम ने पूरी तरह समझा कि वह तांत्रिक किस सामान की बात कर रहा था?’’

‘‘हमारे घर का वास्तु भी ठीक नहीं है,’’ सोम बोला, ‘‘घर का नकशा भी गलत है. यही विकार हैं जिन की वजह से मुझे नौकरी नहीं मिल रही, मेरा जीवन ठहर गया है भाई.’’

सोम ने असहाय नजरों से मुझे देखा. विचित्र सी बेचैनी थी सोम के चेहरे पर.

‘‘अब क्या घर को तोड़ कर फिर से बनाना होगा? नौकरी तो पहले से नहीं है… लाखों का जुगाड़ कहां से होगा? किस घरतोड़ू तांत्रिक से मिल कर आए हो, जिस ने यह समझा दिया कि घर भी तोड़ दो और घर का सारा सामान भी बाहर फेंक दो.’’

हंसी आने लगी थी मुझे.

मां और बाबूजी कुछ दिन से घर पर नहीं हैं. सोम उन का ज्यादा लाड़ला है. शायद उदास हो गया हो, इसलिए बारबार जीवन ठहर जाने का गिला कर रहा है. मैं क्या करूं, समझ नहीं पा रहा था.

‘‘तुम्हें नीलू से मिले कितने दिन हो गए हैं? जरा फोन करना उसे, बुलाना तो, अभी तुम्हारा जीवन चलने लगेगा,’’ इतना कह मैं ने मोबाइल उठा कर सोम की तरफ उछाल दिया.

‘‘वह भी यहां नहीं है, अपनी बूआ के घर गई है.’’

मुझे सोम का बुझा सा स्वर लगा. कहीं यही कारण तो नहीं है सोम की उदासी का. क्या हो गया है मेरे भाई को? क्या करूं जो इसे लगे कि जीवन चलने लगा है.

सुबहसुबह मैं छत पर टहलने गया. बरसाती में सामान के ढेर पर नजर पड़ी. सहसा मेरी समझ में आ गया कि खड़ा सामान किसे कहते हैं. भाग कर नीचे गया और सोम को बुला लाया.

‘‘यह देख, हमारे बचपन की साइकिलें, जिन्हें जंग लगी है, कभी किसी काम में नहीं आने वालीं, सड़े हुए लोहे के पलंग और स्टूल, पुराना गैस का चूल्हा, यह पुराना टीवी, पुराना टूटा टेपरिकार्डर और यह साइकिल में हवा भरने वाला पंप…इसे कहते हैं खड़ा सामान, जो न आज काम आएगा न कल. छत का इतना सुंदर कोना हम ने बरबाद कर रखा है.’’

आंखें फैल गईं सोम की. मां और बाबूजी घर पर नहीं थे सो बिना रोकटोक हम ने घर का सारा कबाड़ बेच दिया. सामान उठा तो छत का वह कोना खाली हो गया जिसे हम साफसुथरा कर अपने लिए छोटी सी आरामगाह बना सकते थे.

नीचे रसोई में भी हम ने पूरी खोज- खबर ली. ऊपर वाली शैल्फ पर जला हुआ पुराना गीजर पड़ा था. बिजली का कितना सामान जमा पड़ा था, जिस का उपयोग अब कभी होने वाला नहीं था. पुरानी ट्यूबें, पुराने हीटर, पुरानी इस्तरी.

हम ने हर जगह से खड़ा सामान निकाला तो 4 दिन में घर का नकशा बदल गया. छत को साफ कर गंदी पड़ी दीवारों पर सोम ने आसमानी पेंट पोत दिया. प्लास्टिक की 4 कुरसियां ला कर रखीं, बीच में गोल मेज सजा दी. छत से सुंदर छोटा सा फानूस लटका दिया. जो खुला भाग किसी की नजर में आ सके वहां परदा लगा दिया, जिसे जरूरत पड़ने पर समेटा भी जा सके और फैलाया भी.

‘‘एक हवादार कमरे का काम दे रहा है यह कोना. गरमी के मौसम में जब उमस बढ़ने लगेगी तो यहां कितना आराम मिला करेगा न,’’ उमंग से भर कर सोम ने कहा, ‘‘और बरसात में जब बारिश देखने का मन हो तो चुपचाप इसी कुरसी पर पसर जाओ…छत की छत, कमरे का कमरा…’’

सोम की बातों को बीच में काटते हुए मैं बोल पड़ा, ‘‘और जब नीलू साथ होगी तब और भी मजा आएगा. उस से पकौड़े बनवा कर खाने का मजा ही कुछ और होगा.’’

मैं ने नीलू का नाम लिया इस पर सोम ने गरदन हिला दी.

‘‘सच कह रहे हो भाई, नीचे जा कर देखो, रसोई भी हलकीफुलकी हो गई है… देख लेना, जब मां आएंगी तब उन्हें भी खुलाखुला लगेगा…और अगर मां ने कबाड़ के बारे में पूछा तो क्या कहेंगे?’’

‘‘उस सामान में ऐसा तो कोई सामान नहीं था जिस से मां का काम रुकेगा. कुछ काम का होता तब तो मां को याद आएगा न?’’

मेरे शब्दों ने सोम को जरा सा आश्वासन क्या दिया कि वह चहक कर बोला, ‘‘भाई क्यों न रसोई के पुराने बरतन भी बदल लें. वही प्लेटें, वही गिलास, देखदेख कर मन भर गया है. मेहमान आएं तो एक ही रंग के बरतन मां ढूंढ़ती रह जाती हैं.’’

सोम की उदासी 2 दिन से कहीं खो सी गई थी. सारे पुराने बरतन थैले में डाल हम बरतनों की दुकान पर ले गए. बेच कर, थोड़े से रुपए मिले. उस में और रुपए डाल कर एक ही डिजाइन की कटोरियां, डोंगे और प्लेटें ला कर रसोई में सजा दीं.

हैरान थे हम दोनों भाई कि जितने रुपए हम एक पिक्चर देखने में फूंक देते हैं उस से बस, दोगुने ही रुपए लगे थे और रसोई चमचमा उठी थी.

शाम कालिज से वापस आया तो खटखट की आवाज से पूरा घर गूंज रहा था. लपक कर पीछे बरामदे में गया. लकड़ी का बुरादा उड़उड़ कर इधरउधर फैल गया था. सोम का खाली दिमाग लकड़ी के बेकार पड़े टुकड़ों में उलझा पड़ा था. मुझे देख लापरवाही से बोला, ‘‘भाई, कुछ खिला दे. सुबह से भूखा हूं.’’

‘‘अरे, 5 घंटे कालिज में माथापच्ची कर के मैं आया हूं और पानी तक पूछना तो दूर खाना भी मुझ से ही मांग रहा है, बेशर्म.’’

‘‘भाई, शर्मबेशर्म तो तुम जानो, मुझे तो बस, यह कर लेने दो, बाबूजी का फोन आया है कि सुबह 10 बजे चल पड़ेंगे दोनों. शाम 4 बजे तक सारी कायापलट न हुई तो हमारी मेहनत बेकार हो जाएगी.’’

अपनी मस्ती में था सोम. लकड़ी के छोटेछोटे रैक बना रहा था. उम्मीद थी, रात तक पेंट आदि कर के तैयार कर देगा.

लकड़ी के एक टुकड़े पर आरी चलाते हुए सोम बोला, ‘‘भाई, मांबाप ने इंजीनियर बनाया है. नौकरी तो मिली नहीं. ऐसे में मिस्त्री बन जाना भी क्या बुरा है… कुछ तो कर रहा हूं न, नहीं तो खाली दिमाग शैतान का घर.’’

मुझे उस पल सोम पर बहुत प्यार आया. सोम को नीलू से गहरा जुड़ाव है, बातबेबात वह नीलू को भी याद कर लेता.

नीलू बाबूजी के स्वर्गवासी दोस्त की बेटी है, जो अपने चाचा के पास रहती है. उस की मां नहीं थीं, जिस वजह से वह अनाथ बच्ची पूरी तरह चाचीचाचा पर आश्रित है. बी.ए. पास कर चुकी है, अब आगे बी.एड. करना चाहती है. पर जानता हूं ऐसा होगा नहीं, उसे कौन बी.एड. कराएगा. चाचा का अपना परिवार है. 4 जमातें पढ़ा दीं अनाथ बच्ची को, यही क्या कम है. बहुत प्यारी बच्ची है नीलू. सोम बहुत पसंद करता है उसे. क्या बुरा है अगर वह हमारे ही घर आ जाए. बचपन से देखता आ रहा हूं उसे. वह आती है तो घर में ठंडी हवा चलने लगती है.

‘‘कड़क चाय और डबलरोटी खाखा कर मेरा तो पेट ही जल गया है,’’ सोम बोला, ‘‘इस बार सोच रहा हूं कि मां से कहूंगा, कोई पक्का इंतजाम कर के घर जाएं. तुम्हारी शादी हो जाए तो कम से कम डबल रोटी से तो बच जाएंगे.’’

सोम बड़बड़ाता जा रहा था और खातेखाते सभी रैक गहरे नीले रंग में रंगता भी जा रहा था.

‘‘यह देखो, यह नीले रंग के छोटेछोटे रैक अचार की डब्बियां, नमक, मिर्च और मसाले रखने के काम आएंगे. पता है न नीला रंग कितना ठंडा होता है, सासबहू दोनों का पारा नीचा रहेगा तो घर में शांति भी रहेगी.’’

सोम मुझे साफसाफ अपने मनोभाव समझा रहा था. क्या करूं मैं? कितनी जगह आवेदन दिया है, बीसियों जगह साक्षात्कार भी दे रखा है. सोचता हूं जैसे ही सोम को नौकरी मिल जाएगी, नीलू को बस, 5 कपड़ों में ले आएंगे. एक बार नीलू आ जाए तो वास्तव में हमारा जीवन चलने लगेगा. मांबाबूजी को भी नीलू बहुत पसंद है.

दूसरी शाम तक हमारा घर काफी हलकाफुलका हो गया था. रसोई तो बिलकुल नई लग रही थी. मांबाबूजी आए तो हम गौर से उन का चेहरा पढ़ते रहे. सफर की थकावट थी सो उस रात तो हम दोनों ने नमकीन चावल बना कर दही के साथ परोस दिए. मां रसोई में गईं ही नहीं, जो कोई विस्फोट होता. सुबह मां का स्वर घर में गूंजा, ‘‘अरे, यह क्या, नए बरतन?’’

‘‘अरे, आओ न मां, ऊपर चलो, देखो, हम ने तुम्हारे आराम के लिए कितनी सुंदर जगह बनाई है.’’

आधे घंटे में ही हमारी हफ्ते भर की मेहनत मां ने देख ली. पहले जरा सी नाराज हुईं फिर हंस दीं.

‘‘चलो, कबाड़ से जान छूटी. पुराना सामान किसी काम भी तो नहीं आता था. अच्छा, अब अपनी मेहनत का इनाम भी ले लो. तुम दोनों के लिए मैं लड़कियां देख आई हूं. बरसात से पहले सोचती हूं तुम दोनों की शादी हो जाए.’’

‘‘दोनों के लिए, क्या मतलब? क्या थोक में शादी करने वाली हो?’’ सोम ने झट से बात काट दी. कम से कम नौकरी तो मिल जाए मां, क्या बेकार लड़का ब्याह देंगी आप?’’

चौंक उठा मैं. जानता हूं, सोम नीलू से कितना जुड़ा है. मां इस सत्य पर आंख क्यों मूंदे हैं. क्या उन की नजरों से बेटे का मोह छिपा है? क्या मां की अनुभवी आंखों ने सोम की नजरों को नहीं पढ़ा?

‘‘मेरी छोड़ो, तुम भाई की शादी करो. कहीं जाती हो तो खाने की समस्या हो जाती है. कम से कम वह तो होगी न जो खाना बना कर खिलाएगी. डबलरोटी खाखा कर मेरा पेट दुखने लगता है. और सवाल रहा लड़की का, तो वह मैं पसंद कर चुका हूं…मुझे भी पसंद है और भाई को भी. हमें और कुछ नहीं चाहिए. बस, जाएंगे और हाथ पकड़ कर ले आएंगे.’’

अवाक् रह गया मैं. मेरे लिए किसे पसंद कर रखा है सोम ने? ऐसी कौन है जिसे मैं भी पसंद करता हूं. दूरदूर तक नजर दौड़ा आया मैं, कहीं कोई नजर नहीं आई. स्वभाव से संकोची हूं मैं, सोम की तरह इतना बेबाक कभी नहीं रहा जो झट से मन की बात कह दूं. क्षण भर को तो मेरे लिए जैसे सारा संसार ही मानो गौण हो गया. सोम ने जो नाम लिया उसे सुन कर ऐसा लगा मानो किसी ने मेरे पैरों के नीचे से जमीन ही निकाल ली हो.

‘‘नीलू भाई को बहुत चाहती है मां. उस से अच्छी लड़की हमारे लिए कोई हो ही नहीं सकती…अनाथ बच्ची को अपना बना लो, मां. बस, तुम्हारी ही बन कर जीएगी वह. हमारे घर को नीलू ही चाहिए.’’

आंखें खुली रह गई थीं मां की और मेरी भी. हमारे घर का वह कोना जिसे हम ने इतनी मेहनत से सुंदर, आकर्षक बनाया वहां नीलू को मैं ने किस रूप में सोचा था? मैं ने तो उसे सोम के लिए सोचा था न.

नीलू को इतना भी अनाथ मत समझना…मैं हूं उस का. मेरा उस का खून का रिश्ता नहीं, फिर भी ऐसा कुछ है जो मुझे उस से बांधता है. वह मेरे भाई से प्रेम करती है, जिस नाते एक सम्मानजनक डोर से वह मुझे भी बांधती है.

‘‘तुम्हें कैसे पता चला? मुझे तो कभी पता नहीं चला.’’

‘‘बस, चल गया था पता एक दिन…और उसी दिन मैं ने उस के सिर पर हाथ रख कर यह जिम्मेदारी ले ली थी कि उसे इस घर में जरूर लाऊंगा.’’

‘‘कभी अपने मुंह से कुछ कहा था उस से तुम दोनों ने?’’ बारीबारी से मां ने हम दोनों का मुंह देखा.

मैं सकते में था और सोम निशब्द.

‘‘नीलू का ब्याह तो हो भी गया,’’ रो पड़ी थीं मां हमें सुनातेसुनाते, ‘‘उस की बूआ ने कोई रिश्ता देख रखा था. 4 दिन हो गए. सादे से समारोह में वह अपने ससुराल चली गई.’’

हजारों धमाके जैसे एकसाथ मेरे कानों में बजे और खो गए. पीछे रह गई विचित्र सी सांयसांय, जिस में मेरा क्याक्या खो गया समझ नहीं पा रहा हूं. पहली बार पता चला कोई मुझ से प्रेम करती थी और खो भी गई. मैं तो उसे सोम के लिए इस घर में लाने का सपना देखता रहा था, एक तरह से मेरा वह सपना भी कहीं खो गया.

‘‘अरे, अगर कुछ पता चल ही गया था तो कभी मुझ से कहा क्यों नहीं तुम ने,’’ मां बोलीं, ‘‘सोम, तुम ने मुझे कभी बताया क्यों नहीं था. पगले, वह गरीब क्या करती? कैसे अपनी जबान खोलती?’’

प्रकृति को कोई कैसे अपनी मुट्ठी में ले सकता है भला? वक्त को कोई कैसे बांध सकता है? रेत की तरह सब सरक गया हाथ से और हम वक्त का ही इंतजार करते रह गए.

सोम अपना सिर दोनों हाथों से छिपा चीखचीख कर रोने लगा. बाबूजी भी तब तक ऊपर चले आए. सारी कथा सुन, सिर पीट कर रह गए.

वह रात और उस के बाद की बहुत सी रातें ऐसी बीतीं हमारे घर में, जब कोई एक पल को भी सो नहीं पाया. मांबाबूजी अपने अनुभव को कोसते कि क्यों वे नीलू के मन को समझ नहीं पाए. मैं भी अपने ही मापदंड दोहरादोहरा कर देखता, आखिर मैं ने सोम को क्यों और किसकिस कोण से सही नहीं नापा. सब उलटा हो गया, जिसे अब कभी सीधा नहीं किया जा सकता था.

सोम एक सुबह उठा और सहसा कहने लगा, ‘‘भाई, खड़े सामान की तरह क्यों न अब खड़े भावों को भी मन से निकाल दें. जिस तरह नया सामान ला कर पुराने को विदा किया था उसी तरह पुराने मोह का रूप बदल क्यों न नए मोह को पाल लिया जाए. नीलू मेरे मन से जाती नहीं, भाभी मान जिस पर ममता लुटाता रहा, क्यों न उसे बहन मान नाता जोड़ लूं…मैं उस से मिलने उस के ससुराल जाना चाहता हूं.’’

‘‘अब क्यों उसे पीछे देखने को मजबूर करते हो सोम, जाने दो उसे…जो बीत गई सो बात गई. पता नहीं अब तक कितनी मेहनत की होगी उस ने खुद को नई परिस्थिति में ढालने के लिए. कैसेकैसे भंवर आए होंगे, जिन से स्वयं को उबारा होगा. अपने मन की शांति के लिए उसे तो अशांत मत करो. अब जाने दो उसे.’’

मन भर आया था मेरा. अगर नीलू मुझ से प्रेम करती थी तो क्या यह मेरा भी कर्तव्य नहीं बन जाता कि उस के सुख की चाह करूं. वह सब कभी न होने दूं. जो उस के सुख में बाधा डाले.

रो पड़ा सोम मेरे कंधे से लग कर. खुशनसीब है सोम, जो रो तो सकता है. मैं किस के पास जा कर रोऊं और कैसे बताऊं किसी को कि मैं ने क्या नहीं पाया, ऐसा क्या था जो बिना पाए ही खो दिया.

‘‘सिर्फ एक बार उस से मिलना चाहता हूं भाई,’’ रुंधा स्वर था सोम का.

‘‘नहीं सोम, अब जाने दो उसे.

Hindi Kahaniyan : छंटता कुहरा – क्या था उपेक्षा का पति के लिए प्लान

Hindi Kahaniyan :  ‘‘अबतो तेरी शादी को 2 साल हो गए हैं. आखिर तू कब तक मु झ से छोटीछोटी बातों पर सलाह लेता रहेगा, हर काम के बारे में पूछता रहेगा… इस तरह दूध पीता बच्चा बनने से तो काम नहीं चलेगा. अब तो मेरा पल्लू छोड़,’’ अपनी सास को पति पर इस तरह  झुं झलाते देख कावेरी मन ही मन मुसकरा उठी.

कावेरी उस समय अपने कमरे की  झाड़पोंछ कर रही थी जब वल्लभ ने आ कर कहा था कि उसे अपने दोस्तों को अपनी प्रोमोशन की पार्टी देनी है और तुम सारी व्यवस्था कर लेना. तब उस ने हमेशा की तरह अपनी सास पर बात डालते हुए कहा था कि मांजी से पूछ लो और यह भी पूछ लेना कि क्याक्या बनेगा तथा बाजार से कितना सामान आएगा.

वल्लभ तो सदा से यही कहता और चाहता था कि मां की ही चले, इसलिए कावेरी को मात्र सूचना दे कर वह मां से पूछने चला गया. मगर आज आशा के विपरीत मां की तरफ से हिदायतें मिलने के बजाय डांट पड़ी तो वह हैरान रह गया. मगर कावेरी खुश थी कि इतने वर्षों में ही सही उस की तरकीब काम तो आई.

जब कावेरी का वल्लभ के साथ विवाह हुआ था तो वह सरकारी दफ्तर में अच्छे पद पर काम करता था. एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की जैसा घरवर चाहती है, उसी के अनुरूप था वह. एक ननद थी जिस की शादी हो चुकी थी. घर में सिर्फ सासससुर थे और कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं थी. कावेरी के मातापिता इस विवाह से संतुष्ट थे तो वह खुद भी खुश थी. लेकिन विवाह के 2 दिन बाद ही वह जान गई कि उस के उच्च पदासीन पति की डोर उस की मां के हाथों में है. पति ही नहीं ससुर तक की नकेल सास के हाथों में है. घर में उन्हीं की चलती है. अपना दबदबा बनाए रखने की उन्हें आदत सी हो गई है.

वल्लभ हर बात मां से पूछ कर करता था. यहां तक कि सोना, नहाना, जानाआना, क्या खाना है, क्या पहनना है, हर चीज पर मां की हुकूमत थी. मां अपने इकलौते बेटे पर ममता लुटाती हैं, ठीक है पर उन की ममता का घेरा इतना जकड़ा था कि उस में किसी का सेंध लगाना नामुमकिन तो था ही, साथ ही इस के बाहर न आने के कारण वल्लभ डरपोक भी बन गया था. मां की हर बात उस के लिए अंतिम होती थी. फिर चाहे वह सही हो या गलत. कावेरी मांबेटे के रिश्ते के बीच नहीं आना चाहती थी, पर मां को उन दोनों के बीच आते देख कावेरी छटपटा जाती.

मां उन्हें अकेली भी नहीं छोड़ती थीं. या तो उन के कमरे में बैठी रहतीं या फिर बेटे को कमरे में बुला लेतीं. पति की निकटता की चाह में कावेरी मन ही मन कुढ़ती रहती.

वल्लभ से कहती तो वह लड़ता, ‘‘तुम मांबेटे के बीच कांटे बोना चाहती हो? मां सही ही कहती हैं कि बीवी के आते ही मां का साम्राज्य खत्म हो जाता है, पर मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. इस घर में वही होगा जो मां चाहेंगी.’’

कावेरी ने बहुत सम झाने की कोशिश की कि मां अपनी जगह हैं और पत्नी अपनी जगह पर मां की उंगली पकड़ने के आदी वल्लभ को उस की कोईर् बात सम झ न आती. घर में तो सास चिपकी ही रहतीं पर कहीं बाहर जाना होता तो भी साथ रहतीं. कावेरी की हर बात में नुक्स निकालना और वल्लभ को भड़काना तो जैसे उन का शौक बन गया था. पति सुख क्या होता है, कावेरी सम झ ही नहीं पा रही थी. अपने बेटे के सारे काम वे खुद करतीं.

कावेरी करना चाहती तो कहतीं, ‘‘तू 2 दिन की आई छोकरी मेरे बेटे पर हक जमाना चाहती है? अरे, इतना बड़ा तो मैं ने ही किया है न इसे? इस की जरूरतों से वाकिफ हूं मैं… तू क्या जाने कितना नमक या मिर्च खाता है यह.’’

कावेरी चुप रहती. आंसुओं को बंद कमरे में बहने देती. हद है… कैसी मां हैं… बेटे से इतना लगाव था तो शादी क्यों की थी. असल में वल्लभ को किसी के साथ बांटना उन्हें पसंद न था. सास के दबदबे से आतंकित कावेरी सदा डरीसहमी रहती. नववधू के चेहरे पर जो लालिमा और रौनक होती है वह कावेरी के चेहरे पर कभी नजर नहीं आई. उस का निजी तो कुछ था ही नहीं. उन दोनों की आपस की बातों को सास कुरेदकुरेद कर पूछतीं. कावेरी शर्म से गड़ जाती जब सास उस के कमरे की चीजों को उलटतीं.

एक दिन तो कावेरी यह सुन कर सन्न रह गई जब सास ने कहा, ‘‘खबरदार जो मेरे बेटे के साथ ज्यादा सोई. दिनबदिन कमजोर होता जा रहा है वह… अपने ही पति को खाने पर तुली हुई है.’’

कावेरी का मन चिल्लाने को करता पर पति ही साथ न था तो विद्रोह कैसे करती. ससुर उसे करुण दृष्टि से देखते और स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेर देते तो पत्नी की  िझड़की खाते, ‘‘बहू के साथ मिल कर कौन सा प्रपंच रच रहे हो… याद रखना मेरी सत्ता कोई नहीं छीन सकता है.’’

कावेरी सम झ गई थी कि अगर उसे इस घर में रहना है तो चुप रहने के सिवा उस के पास और कोई रास्ता नहीं है. सास मानो उस के धैर्य की परीक्षा ले रही थीं. वे चाहती थीं कि कावेरी उन के खिलाफ कुछ बोले और वल्लभ उस से नफरत करने लगे. मगर कावेरी पति के थोड़ेबहुत प्यार को खोना नहीं चाहती थी. इसलिए सास की किसी भी बात का प्रतिकार नहीं करती.

वल्लभ उसे एक नन्हे शिशु जैसा लगता जो कुएं के मेढक के समान था,

जिस ने स्वयं रास्ता खोजना सीखा ही न था. कावेरी को यह सोच कर हैरत होती कि वह नौकरी कैसे कर पाता है. उस का मन होता कि वह वल्लभ के काम में उस की हिस्सेदार बने पर वह सारी बातें मां को बताता.

कावेरी कुछ पूछती तो  िझड़क देता, ‘‘अपनी हद में रहो, बेकार के सवालजवाब करना मु झे पसंद नहीं.’’

‘‘मैं तुम्हारी बीवी हूं वल्लभ, तुम्हारे दुखसुख की साथी. मैं हर क्षण तुम्हारे साथ बांटना चाहती हूं. फिर छोटीछोटी बातें ही नजदीकियां लाती हैं. जब मां को सब बता सकते हो तो मु झे क्यों नहीं?’’ अकेले में कभी कावेरी कुछ कहने का साहस करती तो वल्लभ आगबबूला हो मां के पास जा कर बैठ जाता.

कुढ़तीचिढ़ती अपनेआप को कोसती कावेरी को लगता कि वह पागल हो जाएगी. कभी आत्महत्या करने का विचार आता. मायके लौटने का विकल्प उस के पास न था. मध्यवर्ग की यही बड़ी त्रासदी है कि अगर एक बार लड़की को विदा कर दिया तो उस के अकेले लौटने का प्रश्न ही नहीं उठता है. कौन मांबाप ब्याहता बेटी को रख सकते हैं? फिर कावेरी अपने अंतस के दुख कैसे बांटती, इसलिए भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती.

फिर उसे लगा ऐसे तो समस्या का समाधान नहीं निकलेगा. जितना वह कुढ़ेगी या रोएगी, सास उतना ही उसे सताएगी और पति और विमुख होता जाएगा. ब्याह को तब 1 साल भी नहीं हुआ था कि उस के अंदर एक नया जीव सांस लेने लगा.

वल्लभ अपनी खुशी व्यक्त करना चाहता तो सास एकदम टोक देतीं, ‘‘बालबच्चे सभी के होते हैं. इस में इतनी खुशी की क्या बात है?’’

अपने अंश की खुशी कावेरी अकेले ही बांटती. उस का मन करता कि वल्लभ उस के साथ आने वाले के लिए ख्वाब बुने. पर हर पल मां के साए में दुबका रहने वाला व्यक्ति अपने दिल की भावनाओं को व्यक्त कर पाना और बांट पाना कैसे सीख पाता.

‘नन्हे शिशु का आगमन एक सुखद माहौल में न हुआ तो’ यह सोच कर ही कावेरी कांप जाती. उसी की खातिर उस ने भी वल्लभ जैसा बनने का निश्चय किया. विरोध तो वह पहले भी नहीं करती थी. बस अब चुपचाप, निर्विकार ढंग से काम में लगी रहती. सास को यह बात खलती कि आखिर बहू उस के क्यों नहीं सलाह लेती या पलट कर कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं करती है.

असल में सास चाहती थीं कि बहू सारा दिन उन की चापलूसी करे. इस से उन के अहं को संतुष्टि मिलती कि बेटा ही नहीं, बहू भी उन की मुट्ठी में है. अपनी सत्ता छिन जाने का डर बुढ़ापे में ज्यादा गंभीर रूप ले लेता है. कावेरी उन के मनोभावों को ताड़ गई थी, इसलिए उस ने वैसा ही व्यवहार करना शुरू कर दिया, ‘जी मांजी, आप जो कहती हैं, वही सही है. ऐसा ही करूंगी,’ कहतेकहते उसे इस अभिनय में रस आने लगा. अगर इसी तरह घर में सुखशांति रह सकती है तो इस में बुराई क्या है. कावेरी ने ऐसा रुख अपनाया कि सास को लगे कि वही सर्वोपरि हैं.

‘मांजी दूध कितना लेना है, मांजी सब्जी कौन सी और कितनी बनेगी’ या ‘प्रैस वाली को कौन से कपड़े देने हैं?’ जैसे सवालों की बौछार वह सारा दिन करती रहती.

हमेशा अपनेआप में सिमटी रहने वाली बहू को इतना मनुहार करते और सम्मान देते देख वल्लभ की मां जहां हैरान हुईं वहीं संतुष्ट भी हुईं. अब उन्होंने वल्लभ के कान भरने छोड़ दिए थे. किस बात में कावेरी का दोष निकालतीं जब वह हर बात में उन की राय लेने लगी थी.

वल्लभ कावेरी की पीड़ा को न पहले सम झ पाया था न ही अब सम झ पाया. वह तो इसी में खुश था कि कावेरी हर बात मां की मरजी के अनुसार करती है.

‘‘तुम काफी बदल गई हो,’’ वल्लभ की निकटता कावेरी की सांसों को छू रही थी, खिन्नता और उदासी जो उन के कमरे में निजी क्षणों में बिखरी रहती थी, उस की जगह आत्मीयता ने ले ली थी.

‘‘मां कह रही थीं कि उन से हर बात पूछ कर करने लगी हो. देखों मैं शुरू से ही चाहता था कि मां को उचित सम्मान देना चाहिए. फिर पिताजी तक उन की हां में हां मिलाते हैं.’’

‘‘सही कह रहे हैं आप, पर आप को मेरी एक बात माननी होगी,’’ कावेरी ने डरतेडरते कहा.

‘‘क्या?’’ उस की पलकों को चूमते हुए वल्लभ ने पूछा.

‘‘आप बातबात पर चिढ़ना और नाराज होना छोड़ दें. इस से बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘बस इतनी सी बात है, जब तुम मां की बात मानने लगी हो तो फिर मैं भी न नहीं कहूंगा.’’

बांहों में समाई कावेरी का मन टीस उठा था. हर शब्द में मां का जिक्र और उन्हीं की वजह से पति का मिलता प्यार.

पहला बेटा हुआ तो सास खिल उठीं. कावेरी ने भी बड़ी चालाकी से मुन्ने

की सारी जिम्मेदारी उन पर डाल दी. कहती कि मांजी, मुन्ने का दूध का टाइम हो गया है, आप ठीक बनाती हैं, जरा बना दीजिए. मुन्ना रो रहा है, इसे आप ही संभालिए. फिर तो नैपी बदलने से ले कर हर काम कावेरी सास को सौंपती गई. हालांकि वह अपने बेटे का काम स्वयं ही करना चाहती थी पर जानती थी कि ऐसा करने पर मांजी मीनमेख निकालने लगेंगी या कहेंगी कि जैसे मैं ने तो बच्चे पाले ही नहीं हैं. वह किसी भी तरह की अप्रिय स्थिति से बचना चाहती थी.

एक दिन मुन्ना रात को रोने लगा और चुप ही न हुआ तो मांजी ने कहा, ‘‘ला मु झे दे, मैं इसे अपने पास सुला लेती हूं.’’

उस दिन के बाद से कावेरी ने मुन्ने को उन्हीं के पास सुलाना शुरू कर दिया. मां की ममता को भविष्य को सुखद करने के लिए कुछ समय दबाना आवश्यक हो गया था. वल्लभ तो इसी में खुश था कि मुन्ना मां के सुरक्षित हाथों में है.

सास की व्यस्तता बढ़ गई और कावेरी अभिनय में चतुर होती गई. पर मन ही मन डरती थी कि कहीं बच्चा भी पिता जैसा दब्बू बना तो क्या होगा पर एक विश्वास था कि आखिर कब तक मांजी अपना वर्चस्व जता तानाशाही चलाती रहेंगी.

उम्र बढ़ने पर शरीर भी जवाब देने लग जाता है और फिर जिस औरत ने सारी उम्र हुकूमत की हो और इसी कारण दिनरात एक कर दिए हों, वह थकने भी जल्दी लगती है. कावेरी महसूस करने लगी थी कि मांजी थकने लगी हैं. कई बार उस के कुछ पूछने पर  झल्लाने लगतीं. लेकिन कावेरी अनजान बनी उन के सुपुर्द 10 काम और कर देती. घर की साम्राज्ञी की अवहेलना कैसे करती वह. वल्लभ भी बच्चे के साथ ज्यादा समय गुजारने लगा था. पिता बनने के बाद उस के व्यक्तित्व में सुधार आया था. उस का भी एक वजूद है, यह बात उसे  झं झोड़ने लगी थी.

मांजी कहीं किसी रिश्तेदार के घर शादी में जाने की इच्छा प्रकट करतीं तो कावेरी  झट से कह देती, ‘‘बच्चा आप के बिना कैसे रहेगा और फिर मैं अकेली बच्चे और घर को कैसे संभालूंगी या बच्चे को अपने साथ ले जाइए या…’’

वह अपनी बात अधूरी छोड़ देती तो मातृभक्त पत्नी को स्नेहसिक्त नजरों से ताकता वल्लभ कह उठता, ‘‘ठीक ही तो कह रही है मां, कावेरी. तुम्हारे बिना तो घर एक दिन में ही अस्तव्यस्त हो जाएगा.’’

फिर उन का जाना टल जाता.

हालांकि कावेरी को बाहर जाने की इजाजत नहीं मिलती थी पर अब वह स्वयं ही फिल्म के टिकट ले आता.

कावेरी कहती, ‘‘बच्चे के साथ मैं कैसे जाऊंगी. आप टिकट ले आए हैं तो मांजी को ले जाइए.’’

तब मांजी को ही कहना पड़ता, ‘‘मैं बच्चे को संभाल लूंगी, तुम दोनों चले जाओ.’’

बेटे की खुशी की खातिर उन्हें बहू पर कमान ढीली करनी पड़ती. स्वयं उन्हें घूमने का बहुत शौक था पर अब बच्चे की वजह से कहीं नहीं निकल पाती थीं. पहले कावेरी को ढेर सारी चेतावनियां दे कर जाती थीं पर अब उन्हें लगने लगा था कि उन की आजादी छिनती जा रही है. बेटा भी बहू के निकट होता जा रहा है. पोते को न संभाले तो बेटा नाराज हो जाएगा और वह उन के रोब के साए से निकल गया तो क्या होगा, सोच कर ही वे कांप उठतीं. इसी कशमकश में बहू के ऊपर से सारे प्रतिबंध हटते गए.

मगर उस दिन तो हद हो गई जब उन की बहन की बेटी के ब्याह में जाने की बात उठी. कावेरी रोने लगी, ‘‘मांजी, हम आप के बिना क्या करेंगे… आप न जाएं, इन्हें भेज दें.’’

‘‘अरे, 2-3 दिनों में आ जाऊंगी,’’ वे जैसे कुछ राहत पाने को व्याकुल थीं. वैसे भी वल्लभ के जाने का मतलब था बहू भी उस के साथ जाएगी, वह भी बच्चे को छोड़ कर. पर वल्लभ अड़ गया कि वही जाएगा. उस का आत्मविश्वास देख कावेरी को खुशी हुई.मांजी का सम्मान करना ठीक है पर खुली हवा में सांस लेने का सब को अधिकार है, यह जताना भी बहुत जरूरी था. अपनी आजादी सभी को बहुत प्यारी होती है. फिर चाहे वह बच्चा हो या बड़ा.

कावेरी मर्यादाओं या सीमाओं का उल्लंघन करने में यकीन नहीं करती थी पर चाहती थी कि वल्लभ, बाबूजी और बच्चे का अपना एक व्यक्तित्व हो ताकि वे कुएं के मेढक न बनें. बाबूजी की दुखद स्थिति से वह परिचित थी. अपने वजूद को नगण्य होते देखना कितना पीड़ादायक होता है, मांजी को इस बात का एहसास कराना जरूरी था. एक कुहरा जो उन के रिश्तों में छाया था, जिस की वजह से सब घुटते रहते थे, उसे हटाना जरूरी था.

पलंग पर विचारों में डूबी कावेरी न जाने और कितनी देर बैठी रहती अगर वल्लभ आ कर उसे  झं झोड़ता नहीं, ‘‘सुना न कि मां क्या कह रही हैं? यह अचानक मां को क्या हो गया है… अब क्या होगा… दोस्तों को क्या जवाब दूंगा. पार्टी नहीं दी तो वे मजाक उड़ाएंगे. वैसे भी…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘आप चिंता न करें, सारा इंतजाम हो जाएगा. मां अब आराम चाहती हैं, मैं सब संभाल लूंगी,’’ आत्मविश्वास की किरणें और 2 सालों का धैर्य उस के चेहरे को दिपदिपा रहा था.

वल्लभ को लगा अब कुछ कहना या पूछना बेकार है. उसे अपने इर्दगिर्द छाया कुहारा छंटता सा महसूस हुआ.

कावेरी मन ही मन मुसकराई और फिर किचन की ओर चल दी.

‘‘वल्लभ कावेरी की पीड़ा को न पहले सम झ पाया था न ही अब सम झ पाया. वह तो इसी में खुश था कि कावेरी हर बात मां की मरजी के अनुसार करती है…’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें