Latest Hindi Stories : कुहरा छंट गया- रोहित क्या निभा पाया कर्तव्य

Latest Hindi Stories  : ‘‘बेटे का जन्मदिन मुबारक हो…’’ रोहित ने मीनाक्षी की तरफ गुलाब के फूलों का गुलदस्ता बढ़ाते हुए कहा तो उसे यों प्रतीत हुआ मानो अचानक आसमान उस के कदमों तले आ गया हो. 2 वर्ष तक उस ने रोहित के द्वेष और क्रोध को झेला था. अब तो अपने सारे प्रयत्न उसे व्यर्थ लगने लगे थे. रोहित कभी भी नन्हे को नहीं अपनाएगा, उस ने यह सोच लिया था.

‘‘रोहित, तुम?’’ मीनाक्षी को मानो शब्द नहीं मिल रहे थे. उस ने आश्चर्य से रोहित को देखा, जो नन्हे को पालने से गोद में उठाने का प्रयास कर रहा था.

‘‘मैं ने तुम्हें बहुत कष्ट दिया है, मीनाक्षी. तुम ने जो भी किया, वह मेरे कारण, मेरे पौरुष की खातिर… और मैं इतना कृतघ्न निकला.’’

‘‘रोहित…’’

‘‘मीनाक्षी, मैं तुम्हारा ही नहीं, इस नन्हे का भी दोषी हूं,’’ कहते हुए रोहित की आंखों से आंसू बहने लगे. मीनाक्षी घबरा उठी. रोहित की आंखों में आंसू ही तो वह नहीं देख सकती थी. इन्हीं आंसुओं की खातिर तो वह गर्भ धारण करने को तैयार हुई थी. वह रोहित को बहुत प्यार करती थी और व्यक्ति जिसे प्यार करता है उसे रोता नहीं देख सकता. बच्चा रोहित की गोद में आ कर हैरानी से उसे देखने लगा. एक वर्ष में उसे इस का ज्ञान तो हो ही गया था कि कौन उसे प्यार करता है, कौन नहीं. नन्हे की तरफ देखते हुए मीनाक्षी उन बीते दिनों में खो गई, जब परिस्थितियों से मजबूर हो कर उसे मां बनना पड़ा था. अस्पताल का वह कक्ष अब भी उसे याद था, जहां उसे सुनाई पड़ा था, ‘मुबारक हो, बेटा हुआ है.’ नर्स के बताते ही लक्ष्मी, उन के पति दयाशंकर एवं छोटी ननद नेहा, सभी खुशी से पागल हुए जा रहे थे.

‘क्या हम अंदर आ सकते हैं?’ 14 वर्षीया नेहा ने चहकते हुए पूछा.

‘नहीं बेटे, अभी थोड़ी देर बाद तुम्हारी भाभी बाहर आ जाएंगी. थोड़ा धैर्य रखो,’ नर्स ने मुसकरा कर कहा.शीघ्र ही नर्स एक नवजात शिशु को ले कर बाहर आई तो लक्ष्मी उधर लपकी. उस ने बच्चे को अपने सीने से लगा लिया.प्रसव प्राकृतिक हुआ था, इस कारण थोड़ी देर बाद मीनाक्षी को भी स्ट्रेचर पर लिटा कर कमरे में पहुंचा दिया गया. लगभग 8 वर्ष बाद लक्ष्मी की बहू मीनाक्षी को पुत्र हुआ था. क्याक्या नहीं किया था लक्ष्मी ने, कितने डाक्टरों को दिखलाया था पर उन के लाख कहने पर भी नीमहकीमों और संतों के पास जाने को बहू कभी तैयार नहीं हुई थी. मीनाक्षी ने नजरें उठा कर सासससुर और नेहा को देखा पर उस की आंखें रोहित को तलाश रही थीं. वह उस से सुनना चाहती थी कि उस ने उसे बेटा दे कर सबकुछ दे दिया है. जब वह नहीं दिखा तो उस ने धीमे से नेहा से पूछा, ‘तुम्हारे भैया नहीं दिखाई दे रहे?’

‘बाहर ही तो थे, शायद संकोचवश कहीं चले गए होंगे,’ नेहा ने झूठ बोला ताकि भाभी का मन दुखी न हो. फिर नेहा हंस कर मुन्ने के छोटेछोटे हाथों की बंद मुट्ठियों को छूने लगी. उधर रोहित का व्यवहार पत्नी के प्रति अजीब तरह का हो गया था. कभी जरूरत से ज्यादा प्यार जताता तो कभी बिलकुल तटस्थ हो जाता.

8 वर्ष तक बच्चा न होने की यंत्रणा दोनों ने झेली थी. घर वालों, पासपड़ोस और रिश्तेदारों के सवाल सुनसुन कर दोनों ऊब चुके थे. लक्ष्मी जाने कहांकहां से गंडाताबीज लाती. उन का मन रखने के लिए मीनाक्षी पहन भी लेती लेकिन उस की समझ में नहीं आता था कि उन से बच्चा कैसे होगा. लक्ष्मी बहू को अकसर इधरउधर की घटनाएं बताया करती कि फलां की बहू या फलां की बेटी को 12 साल तक बच्चा नहीं हुआ. डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया. जलालपुर के एक पहुंचे हुए महात्मा आए थे. उन्हीं के पास देविका अपनी बेटी को ले गई थी. फिर ठीक नौवें महीने बेटा हुआ, एकदम गोराचिट्टा. ‘लेकिन उस की मां तो काली थी. और पिता भी…’

‘महात्मा के तेज से ही ऐसा हुआ… और नहीं तो क्या,’ नेहा की बात काट कर लक्ष्मी ने अपनी दलील दी थी. मीनाक्षी एक कान से सुनती, दूसरे से निकाल देती. उसे इन सब बातों में कोई रुचि नहीं थी. वह जानती थी कि यह सब कपोलकल्पित बातें हैं. महात्मा और संत औरतों के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, तभी बच्चे पैदा होते हैं. मर्द इस कारण चुप रहते हैं कि उन की मर्दानगी पर धब्बा न लगे और कुछ औरतें नासमझी में उसे महात्मा का ‘प्रसाद’ मान लेती हैं, तो कुछ बांझ कहलाए जाने के भय से यह दुराचार सहनेकरने पर मजबूर हो जाती हैं. इसी कारण लक्ष्मी जब भी उसे किसी साधुमहात्मा के पास चलने को कहती, वह टाल जाती. रोहित तटस्थ रहता. उस ने जांच करवा ली थी, कमी उसी में थी. अब तो आएदिन घर में इसी विषय पर बातचीत चलती रहती. घर का प्रत्येक सदस्य चाहता था कि उन के घर एक नन्हा मेहमान आए. मीनाक्षी ने इन सब बातों से ध्यान हटा कर एक स्कूल में नौकरी कर ली ताकि ध्यान बंटा रहे. खाली समय में नेहा की पढ़ाई में मदद कर देती. घर का काम भी करने के लिए मुंह से कुछ न कहती. उधर लक्ष्मी, दयाशंकर और नेहा बच्चे को खिलाने लगे. लक्ष्मी बोली, ‘देखिए, बिलकुल रोहित पर गया है.’

‘और आंखें तो भाभी की ली हैं इस ने,’ नेहा चहक कर बोली. उन की बातें सुन कर मीनाक्षी की आंखें अनायास नम हो आईं.

आंखों के आंसू में अतीत फिर आकार लेने लगा…

एक वर्ष पूर्व रोहित ने उस के सामने एक प्रस्ताव रखा था. उस दिन रोहित दफ्तर से जल्दी ही घर आ गया था. उस के हाथ में एक पत्रिका थी. पत्रिका उस के सामने रखते हुए उस ने कहा था, ‘आज मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूं.’ ‘क्या?’ शृंगारमेज के सामने बैठी मीनाक्षी ने घूम कर पति को देखा. रोहित ने उसे बांहों में भर लिया और पत्रिका का एक समस्या कालम खोल कर उस के सामने रख दिया.

‘यह क्या है?’ पत्रिका पर उचटती नजर डालते हुए मीनाक्षी ने पूछा.

‘यह पढ़ो,’ एक प्रश्न पर रोहित ने अपनी उंगली रख दी. मीनाक्षी की नजर शब्दों पर फिसलने लगी. लिखा था, ‘मेरे पति के वीर्य में बच्चा पैदा करने के शुक्राणु नहीं हैं. हमारी शादी को 5 वर्ष हो चुके हैं. हम ने कृत्रिम गर्भाधान के विषय में पढ़ा है. क्या आप हमें विस्तार से बताएंगे कि हमें क्या कुछ करना होगा. हां, मेरे अंदर कोई कमी नहीं है.’ मीनाक्षी ने प्रश्नसूचक नजर ऊपर उठाई तो रोहित ने इशारा किया कि वह इस का जवाब भी पढ़ ले. जवाब में लिखा था कि इस तरह की समस्या आने पर औरत के गर्भ में किसी दूसरे पुरुष का वीर्य डाल दिया जाता है. बंबई के एक अस्पताल का पता भी दे रहे हैं, जहां वीर्य बैंक है. इस तरह की बात बहुत ही गुप्त रखी जाती है. वीर्य उन्हीं पुरुषों का लिया जाता है जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं. वैसे अब और भी कई शहरों में इस तरह कृत्रिम गर्भाधान करने का साधन सुलभ है.

‘तो?’ मीनाक्षी ने रोहित की तरफ देखा.

‘देखो मीनाक्षी, हम बच्चा पैदा नहीं कर सकते. इसी तरह की समस्या हमारी भी है. क्यों न हम भी यही करें,’ रोहित ने मीनाक्षी को समझाने का प्रयास किया.

‘तुम्हारा मतलब क्या है?’ मीनाक्षी की त्योरी चढ़ गईं.‘मतलब यह कि उस बच्चे को पैदा तुम करोगी और बाप मैं कहलाऊंगा.’

‘नहीं, रोहित…’ मीनाक्षी भड़क कर खड़ी हो गई, ‘एक पराए पुरुष का वीर्य मेरे गर्भ में जाएगा…वहां धीरेधीरे एक बच्चे का निर्माण होगा. न तुम जानते होगे कि वह बच्चा किस का है. न मैं जानूंगी कि वह वीर्य किस पुरुष का  है. पर जब किसी पराए पुरुष का वीर्य मेरे गर्भ में जाएगा तो मैं पवित्र कहां रहूंगी? पति के अलावा किसी दूसरे पुरुष की सहगामिनी तो बनी…?’

‘लेकिन यह कृत्रिम गर्भाधान होगा… वीर्य इंजैक्शन के सहारे तुम्हारे अंदर डाला जाएगा.’ ‘चाहे जैसे भी हो, शारीरिक मिलन के दौरान भी तो यही क्रिया होती है. फर्क यह है कि यहां बगैर पुरुष को देखे या छुए उस का वीर्य अंदर जाएगा. मैं तुम्हारी बात तो नहीं जानती लेकिन मेरा हृदय इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है.’रोहित खामोश हो गया. मीनाक्षी का कहना भी सही था. जाति, धर्म की तो उसे चिंता नहीं थी, लेकिन बच्चा अपने खानदान, अपने रक्त से तो जुड़ नहीं सकेगा. आजीवन वह उसे अपना बच्चा नहीं समझ पाएगा. क्या मात्र मां के गर्भ में रह कर वह उस का पुत्र हो जाएगा? बचपन से अब तक जो संस्कार उस के अंदर डाले गए हैं कि पिता को अग्नि देने का अधिकार पुत्र को है, क्या वह उसे नकार पाएगा? मीनाक्षी के गर्भ में रह कर, उस की छाती का दूध पी कर वह उस के वात्सल्य का भागीदार तो हो जाएगा, पर क्या उस से भी…?

यह मुद्दा ऐसा उठा जिस ने रोहित और मीनाक्षी के बीच एक अनजानी दूरी बिखेर दी. अब तो रोहित भी तंग आ चुका था. यारदोस्त उस से कुछ पूछते या सहानुभूति जताते या डाक्टर का पता देते तो उसे लगता, उस का पौरुष मोम बन कर पिघल रहा है. कुदरत ने उस के साथ ऐसा मजाक क्यों किया? उस के आंगन में एक भी फूल नहीं खिल रहा था. मां कई बार उस से कह चुकी थीं कि वह बहू की जांच करवा ले, पर वह उन्हें कैसे बताता कि कमी उन की बहू में नहीं, स्वयं उसी में है. धीरेधीरे रोहित और मीनाक्षी इस तथ्य को स्वीकारने लगे कि उन के बीच तीसरा कभी नहीं आएगा. मीनाक्षी स्कूल में और रोहित दफ्तर में अपना वक्त गुजारता रहा. मांबाप की बातें दोनों एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल देते. उन्हीं दिनों रोहित ने मीनाक्षी को फिर आ कर बताया कि उस का एक मित्र अपनी पत्नी का कृत्रिम गर्भाधान करवा कर आया है. न जाने रोहित सच कह रहा था या मीनाक्षी को मानसिक रूप से तैयार कर रहा था, लेकिन मीनाक्षी को प्रतीत हुआ जैसे यह मुद्दा उन के विवाहित जीवन में खाई पैदा कर देगा. वह जानती थी कि बच्चा पैदा कर के वह रोहित से और दूर हो जाएगी. कहीं रोहित के दिमाग में कोई बात बैठ गई तो? मर्द के स्वभाव का क्या भरोसा? मीनाक्षी पढ़ीलिखी, अच्छे संस्कार वाले परिवार की बेटी थी, पति को हर हाल में स्वीकार करने वाली. उस ने रोहित को कई बार समझाने का प्रयास किया कि एक बच्चा ही तो जीवन की मंजिल नहीं. वह चाहे तो अनाथालय से कोई बच्चा गोद ले ले.

लेकिन लक्ष्मी या दयाशंकर इस के लिए तैयार न होते थे. अगर रिश्तेदारों का बच्चा गोद लेते तो उस पर अंत तक रोहित या मीनाक्षी अपना हक न समझ पाते. इस तरह के कई केस हुए थे, जब बच्चों के मांबाप महज जायदाद के लालच में अपना बच्चा दे तो देते हैं, लेकिन हर मामले में राय देने भी पहुंच जाते हैं. अब समस्या यह थी कि बच्चा आए कहां से? गोद लेना नहीं था और कृत्रिम गर्भाधान के लिए मीनाक्षी तैयार नहीं थी. ‘तो क्या रोहित का दूसरा ब्याह कर दिया जाए?’ यह लक्ष्मी की राय थी. लेकिन रोहित जानता था कि वह चाहे दूसरी शादी कर ले या तीसरी, वह बच्चा पैदा नहीं कर सकता. वह एक उमस भरी रात थी. अचानक मीनाक्षी उठी तो देखा, कूलर का पानी खत्म हो गया है, सिर्फ पंखा चल रहा है. उस ने सोचा, गुसलखाने से पानी ला कर डाल दे, तभी उस की नजर बगल में पड़े पलंग पर पड़ी. रोहित वहां नहीं था. वह चौंकी और घड़ी पर नजर डाली. रात के 2 बजे थे. इस समय रोहित कहां चला गया? उबासी लेते हुए उस ने खिड़की से बाहर झांका. छत पर दीवार का सहारा लिए एक साया सा नजर आया. कूलर बंद कर के मीनाक्षी दबेपांव छत पर गई.

‘यहां क्या कर रहे हो, रोहित?’ मीनाक्षी ने हौले से पूछा. रोहित घूमा तो मानो मीनाक्षी के दिल पर बिजली सी गिरी. उस की आंखें डबडबाई हुई थीं. मीनाक्षी का दिल धक से रह गया. उस ने आज तक रोहित को हंसतेमुसकराते या खामोश तो देखा था, पर रोते हुए पहली बार देखा था. उस का हृदय चीत्कार कर उठा. ऐसी कौन सी बात हो गई जो रोहित को रुला गई?

‘रोहित…तुम रो क्यों रहे हो?’

‘मीनाक्षी…’ कहता हुआ रोहित पत्नी के सीने में मुंह छिपा कर रो पड़ा. मीनाक्षी प्यार से उस के बालों में उंगलियां फेरती रही.

‘मीनाक्षी, मैं लोगों की नजरों की ताव नहीं सह सकता. मैं…मैं…’ मीनाक्षी ने अपनी हथेली रोहित के होंठों पर रख दी. आगे कुछ भी कहने की जरूरत न थी. वह सब समझ गई. उस ने रोहित को कस कर अपने सीने से चिपका लिया. उस ने फैसला कर लिया कि वह रोहित की बात मान कर गर्भधारण करेगी. घर में रोहित ने बताया कि वह बंबई के प्रसिद्ध डाक्टर से मीनाक्षी की जांच करवाएगा.  अगर जरूरत पड़ी तो उस का छोटा सा औपरेशन होगा और फिर कुदरत ने चाहा तो मीनाक्षी गर्भवती हो जाएगी. मां ने भी साथ चलने की बात की तो रोहित ने मना कर दिया. बंबई के नर्सिंग होम में दोनों की जांच हुई. गर्भधारण करने वाले दिनों के बीच मीनाक्षी के गर्भ में इंजैक्शन के जरिए वीर्य डाल दिया गया. 10 दिन के बाद जब मासिक तिथि गुजर गई तो उस के 24 घंटे के अंदर ही जांच की गई. तब पता चला कि मीनाक्षी गर्भवती हो गई है. इस झूठी खुशखबरी के साथ दोनों वापस घर लौट आए. मीनाक्षी के गर्भवती होने की खबर मानो पूरे घर में होली, दीवाली सा त्योहार ले कर आई. एक बार मीनाक्षी को लगा कि काश, यह गर्भ रोहित से होता तो इस खुशी में वह भागीदार होती. लेकिन फिर उस ने अपने विचारों को झटक दिया और सोचा, इस बच्चे को रोहित का ही मान कर उसे 9 माह गर्भ में रखना है.

एक दिन मां ने कहा, ‘लो बहू, इस में रोहित के बचपन की तसवीरें हैं. इन्हें देखती रहा करोगी तो बच्चा बिलकुल बाप पर जाएगा.’ उस समय रोहित भी वहीं बैठा चाय पी रहा था. मां की बात सुनते ही चाय का प्याला उस के हाथ से छलक गया. थोड़ी सी चाय पैंट पर भी गिर पड़ी. उसे महसूस हुआ जैसे उस के जीवन में भी ऐसा ही गरम छींटा पड़ चुका है. खुशी का यह माहौल कहीं उसे मानसिक क्षति न दे जाए. मीनाक्षी ने मुसकराते हुए तसवीरें ले लीं और गौर से देखने लगी. एक फोटो में रोहित के पूरे बदन पर साबुन का झाग था और वह नंगा था. यह देख कर मीनाक्षी जोर से हंस पड़ी. मां भी हंस दीं, पर रोहित चाह कर भी मुसकरा न सका. न जाने यह कैसी फांस उस  के गले में अटक गई थी जो न उसे हंसने दे रही थी, न सचाई को ईमानदारी से निगलने दे रही थी. धीरेधीरे प्रसव का समय पास आता गया. मीनाक्षी को डाक्टर के पास बराबर रोहित ही ले कर जाता. उस का विचार था कि प्रसव भी बंबई में ही हो, पर मां इस के लिए तैयार न हुईं.

मीनाक्षी ने प्रसव से एक माह पूर्व छुट्टी ले ली. लेकिन एक बात वह गहराई से महसूस कर रही थी कि रोहित उस से कटने लगा है. दफ्तर से भी वह देर से आता था. रात में भी उस की तरफ पीठ कर के सो जाता. कभी किसी काम के लिए वह उसे जगाती तो वह ले आता और स्वयं तकिया उठा कर दूसरे कमरे में जा कर सो जाता. मां को उठना पड़ता है, यह सोच कर मीनाक्षी कई बार तकलीफ होने पर भी रोहित को न उठाती. सोचती, अजीब होता है मर्द का स्वभाव. जिस काम को करवाने के लिए रोहित ने आंसुओं का सहारा लिया, वही आज उसे इस कदर कचोट रहा है कि वह पत्नी के दर्द से अनजान उस से दूर होता जा रहा है. मीनाक्षी जितना भी सोचती उतनी ही उलझती जाती. मां कहतीं, ‘रोहित, बहू को शाम को टहला लाया कर.’ पर उस समय रोहित जानबूझ कर कहीं चला जाता. मीनाक्षी समझ गई थी कि वह उस से कटना चाहता है. शायद कोई ऐसा प्रश्न है जो उसे सहज नहीं होने दे रहा है.

जिस दिन मीनाक्षी को प्रसव पीड़ा हुई उस समय रोहित दफ्तर से अभी तक लौटा न था. बाबूजी ने उसे फोन किया तो पता चला कि वहां से वह 4 बजे ही निकल चुका है. दयाशंकर ने ही आटोरिकशा बुलाया, मां और नेहा ने मीनाक्षी को आटो में बैठाया. पड़ोस की 2-3 महिलाएं भी मदद को आ गईं. फिर शीघ्र ही मीनाक्षी ने साधारण तरीके से एक गोलमटोल बच्चे को जन्म दिया. ‘‘भाभी, भैया आए हैं,’’ नेहा के स्वर पर मीनाक्षी ने ऊपर देखा. अब तक तो वह अतीत के बंद पन्नों में ही उलझी थी. रोहित के एक हाथ में खाने का डब्बा था और दूसरे में गुलाबों का गुलदस्ता. सिर नीचा किए उस ने डब्बा मेज पर रखा तो लक्ष्मी ने नेहा को इशारा किया कि वह भी बाहर चली चले और दोनों को थोड़ी देर अकेला छोड़ दे. मां एवं नेहा के जाते ही रोहित ने मीनाक्षी के कमजोर हाथों को पकड़ कर आंखों से लगा लिया. परंतु उस ने एक बार भी घूम कर बच्चे की तरफ न देखा. मीनाक्षी चाहती थी, रोहित उस से प्यार से कहे कि आज हम पूर्ण हो गए हैं. तुम ने मेरे प्यार को गरिमा प्रदान की है. लेकिन बिना एक शब्द बोले रोहित मीनाक्षी का हाथ हौले से दबा कर बाहर निकल गया. फिर शुरू हुआ रोहित और नन्हे के बीच एक अनजानी दूरी का मौन युद्ध. रोहित सब के बीच बच्चे को देख भी लेता, लेकिन अकेले में वह उस की तरफ रुख न करता. मीनाक्षी जानती थी कि ऐसा क्यों है. नन्हे के जन्म के उपलक्ष्य में दिए गए भोज में भी उस ने विशेष रुचि नहीं दिखाई थी.

एक दिन तो हद हो गई. उस समय मीनाक्षी गुसलखाने में थी. नन्हा बिस्तर पर खेल रहा था. रोहित सो रहा था. उस का बिस्तर अलग लगा था. उस ने बहाना यह बनाया हुआ था कि बच्चे के रात में रोने व ज्यादा जगह लेने के कारण वह अलग सोता है. तभी बच्चे ने दूध उलट दिया. उसे खांसी भी आई और रोतेरोते वह बेहाल हो गया. मीनाक्षी किसी तरह उलटेसीधे कपड़े पहन कर बाहर निकली तो देखा रोहित कमरे में नहीं था. जी चाहा कि वह उस का हाथ पकड़ कर पूछे कि तुम तो इस से ऐसे कतरा रहे हो मानो मैं ने यह बच्चा नाजायज पैदा किया है. आखिर क्यों चाहा था तुम ने यह बच्चा? क्या सिर्फ अपने अहं की संतुष्टि के लिए? लेकिन वह ऐसा कुछ भी न कर सकी क्योंकि रोहित इसे स्वीकार न कर के कोई बहाना ही गढ़ लेता. बच्चा अपनी गोलमटोल आंखों से देखते हुए किलकारी भरता तो परायों का मन भी वात्सल्य से भर उठता. पर रोहित  जाने किस मिट्टी का बना था, जो मीनाक्षी की कोख से पैदा हुए बच्चे को भी अपना नहीं रहा था. वह चाह कर भी बच्चे को प्यार न कर पाता. बच्चे को देखते ही उसे उस अनजान व्यक्ति का ध्यान हो जाता जिस का बीज मीनाक्षी की कोख में पड़ा था. जब भी वह बाहर निकलता तो बच्चे के चेहरे से मिलतेजुलते व्यक्ति को तलाशता. यह जानते हुए भी कि गर्भधारण तो बंबई में हुआ था और ज्यादा संभावना इसी बात की थी कि वह व्यक्ति भी बंबई का ही होगा.

लेकिन आदमी के हृदय का क्या भरोसा? अपने पौरुष पर आंच न आए, इसी कारण रोहित ने अपनी पत्नी को पराए पुरुष का वीर्य गर्भ में धारण करने को मजबूर किया था. लेकिन अब उसी पत्नी एवं बच्चे से उस की बढ़ती दूरी एक प्रश्न खड़ा कर रही थी कि व्यक्ति इतना स्वार्थी होता है? जिंदगी की रफ्तार कभीकभी बड़ी धीमी लगती है. मीनाक्षी का एकएक पल पहाड़ सा लगता. जब जीवन में कोई उत्साह ही न हो तो जीने का मकसद ही क्या है? जीवन नीरस तो लगेगा ही. अब न रोहित का वह पहले वाला प्यार था न मनुहार, ऊपर से बच्चे की खातिर  रातरात भर जागने के कारण मीनाक्षी का स्वास्थ्य गिरने लगा. वह चिड़चिड़ी हो गई. लक्ष्मी भरसक प्रयास करती कि बहू खुश रहे, स्वस्थ रहे लेकिन जब मानसिक पीड़ा हो तो कहां से वह स्वस्थ दिखती. एक दिन बच्चे को कमरे में छोड़ कर मीनाक्षी रोहित के लिए नाश्ता तैयार करने नीचे गई. बच्चा नेहा के साथ खेल रहा था. तब तक नेहा के किसी मित्र का फोन आ गया और वह पुकारने पर नीचे चली गई. बच्चा फर्श पर खेल रहा था. रोहित उस समय तैयार हो रहा था. टाई की गांठ बांधते हुए उस ने बच्चे की तरफ देखा तो वह भी रोहित को टकटकी बांध कर देखने लगा. उस समय अनायास ही रोहित को बच्चा बहुत प्यारा लगा. उस ने झुक कर बच्चे की आंखों में झांका तो वह हंस दिया.

तभी आहट हुई तो रोहित झट से उठ कर खड़ा हो गया. ठंड के दिन थे, इसलिए कमरे में हीटर लगा था. बच्चा रोहित की दिशा में पलटा और खिसक कर थोड़ा आगे आ गया. तभी मीनाक्षी ने भी कमरे में प्रवेश किया. उसी क्षण बच्चा लाल ‘राड’ देख कर हुलस कर उसे छूने को लपका. मीनाक्षी यह दृश्य देखते ही भय से चीख उठी. नाश्ते की ट्रे उस के हाथ से छूट गई. उस ने लपक कर बच्चे को अपनी तरफ खींचा तो वह डर कर रोने लगा. रोहित हत्प्रभ खड़ा रह गया. मीनाक्षी उस की तरफ देख कर चिल्ला उठी, ‘‘कैसे बाप हो तुम?’’ लेकिन वाक्य पूरा होने के पूर्व ही वह चुप हो गई. फिर वितृष्णा से बोली, ‘‘नहीं, तुम इस के बाप नहीं हो, क्योंकि तुम ने स्वयं को कभी इस का बाप समझा ही नहीं. अरे, गला घोंट दो इस का क्योंकि यह नाजायज औलाद है. मैं ही मूर्ख थी जो तुम्हारे आंसुओं से पिघल गई.’’ रोते हुए मीनाक्षी बच्चे को उठा कर बाहर चली गई और रोहित ठगा सा खड़ा रह गया. उस दिन दफ्तर में रोहित काफी उलझा रहा. रहरह कर नन्हे का चेहरा, उस की मुसकराहट और फिर घबरा कर रोना, सब कुछ उसे याद आ जाता. वह उस का बेटा है, इस सत्य को वह आखिर क्यों स्वीकार नहीं कर पाता? मीनाक्षी उस की पत्नी है और यह उस की कोख से पैदा हुआ है. मीनाक्षी उसे प्यार करती है, किसी अन्य को नहीं…वह जितना ही सोचता उतना ही उलझता जाता.

उस दिन कार्यालय अधिकारी नहीं आए थे. सभी कर्मचारी थोड़ी देर बाद ही उठ गए. रोहित ने पूछा तो मालूम हुआ कि अधिकारी के पुत्र का निधन हो गया है. बच्चा 8 वर्ष का था. तैरने गया था और डूब गया. रोहित का मन भी दुखी हो गया. वह भी सब के साथ चल पड़ा. अधिकारी अभी युवा ही थे. उन की 2 वर्ष की एक बेटी भी थी. उस की मृत्यु पर उन की हालत काफी खराब हो गई थी. सभी उन्हें तसल्ली दे रहे थे. रोहित ने देखा तो उलझ सा गया, यह होती है पिता की पीड़ा. ये उस के पिता हैं तभी तो इतने दुखी हैं. थोड़ी देर बाद शव उठने लगा तो मां रोती हुई बच्चे से लिपट गई. तभी जैसे एक विस्फोट हुआ. उस के कार्यालय के कर्मचारी ने ही बताया था, ‘‘यह इन की पत्नी का बेटा था. इन का नहीं, इन की तो बेटी है.’’

‘‘मतलब?’’ रोहित ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘इन की यह पत्नी अपनी शादी के सालभर बाद ही विधवा हो गई थी. 2 वर्ष बाद ही इन्होंने इस से शादी कर ली. कुल 22 वर्ष की थी. इन के परिवार वालों ने काफी हंगामा मचाया था, लेकिन इन्होंने किसी की परवा नहीं की. इस से शादी की और बच्चे को अपने खून से भी बढ़ कर चाहा. बाद में लड़की हुई. यह तो बच्चा पैदा करने को ही तैयार नहीं थे कि कहीं बेटे के प्यार में कमी न आ जाए. पता नहीं अब बेटे का वियोग ये कैसे सह पाएंगे.’’ वह व्यक्ति बताता जा रहा था, लेकिन रोहित को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. उस के सामने अपने नन्हे का चेहरा घूम रहा था. वह कितना निष्ठुर बाप है, कितना स्वार्थी. उस ने अभी तक नन्हे को अपना पुत्र नहीं माना है. हर घड़ी उस से दूर ही जाता रहा है. उस के साहब ने तो अपनी पत्नी के पहले पति के बच्चे को अपनाया है, जिस व्यक्ति से उस की पत्नी के शारीरिक संबंध रहे होंगे. लेकिन मीनाक्षी तो उस व्यक्ति को जानती भी नहीं, उसे देखा नहीं, छुआ नहीं. सिर्फ पति के कहने पर बच्चे को जन्म दिया है. वह घर लौटा तो फूलों का एक गुलदस्ता भी ले लिया. कमरे में घुसा तो देखा मीनाक्षी पलंग पर सिर टिकाए लेटी है. उस ने ध्यान से देखा, मीनाक्षी का रंग पहले से दब गया था. वह दुबली हो गई थी. रोहित का मन पश्चात्ताप से भर उठा. सारा द्वेष, रोष बह चला तो ध्यान बच्चे की तरफ गया. प्यार से उस ने उसे उठा लिया.

मीनाक्षी चौंकी, तभी नेहा ऊपर आई और बोली, ‘‘मां कह रही हैं, नन्हे के जन्मदिन में 4 दिन शेष हैं. सामान की और मेहमानों की सूची देख लीजिए.’’

‘‘ठीक है…तुम चलो, मैं अभी आया.’’ नेहा चली गई. मीनाक्षी को अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था. वह स्वप्न देख रही है या हकीकत? क्या रोहित बदल गया है?

‘‘रोहित…’’ उस के होंठों से निकला. ‘‘मीनाक्षी, अब कुछ न बोलो. इतने दिनों तक मैं जिस मानसिक संताप से गुजरा हूं उस की आंच मैं ने तुम तक भी पहुंचाई है. मुझे क्षमा कर दो. तुम ने मेरे पौरुष की लाज रखी है, उस को गरिमा प्रदान की है. पर मैं अपने अहं में डूबा रहा. तुम मेरे लिए पहले से भी ज्यादा प्रिय हो…’’ उस का स्वर भर्रा गया. वह आगे बोला, ‘‘आज मेरे अंदर पिता के अधिकार और कर्तव्य ने जन्म लिया है. उसे जिंदा रहना है. मेरे बेटे का जन्मदिन नजदीक ही है, लेकिन मेरे लिए तो उस का जन्म आज ही हुआ है. वह सिर्फ तुम्हारा नहीं, मेरा बेटा भी है…हमारा पुत्र है.’’

‘‘रोहित,’’ मीनाक्षी हैरान थी.

‘‘आओ नीचे चलें. हम अपने बच्चे का जन्मदिन इतनी धूमधाम से मनाएंगे, इतनी धूमधाम से कि…’’

‘‘बसबस,’’ मीनाक्षी ने उस के होंठों पर कांपता हाथ रख दिया.

‘‘मैं जो देख रही हूं, वह सच है तो अब बस…ज्यादा खुशी मैं सह नहीं पाऊंगी.’’

‘‘मीनाक्षी…’’ कहते हुए रोहित ने नन्हे के साथ मीनाक्षी को भी अपने सीने से लिपटा लिया.

Famous Hindi Stories : खुशियों की दस्तक – क्या कौस्तुभ और प्रिया की खुशी वापस लौटी

Famous Hindi Stories : जिंदगी के लमहे किस पल क्या रंग लेंगे, इस की किसी को खबर  नहीं होती. चंद घंटों पहले तक कौस्तुभ की जिंदगी कितनी सुहानी थी. पर इस समय तो हर तरफ सिवा अंधेरे के कुछ भी नहीं था. प्रतिभाशाली, आकर्षक और शालीन नौजवान कौस्तुभ को जो देखता था, तारीफ किए बिना नहीं रह पाता था. एम. एससी. कैमिस्ट्री में गोल्ड मैडलिस्ट कौस्तुभ पी. एच.डी करने के  साथ ही आई.ए.एस. की तैयारी भी कर रहा था. भविष्य के ऊंचे सपने थे उस के, मगर एक हादसे ने सब कुछ बदल कर रख दिया. आज सुबह की ही तो बात थी कितना खुश था वह. 9 बजे से पहले ही लैब पहुंच गया था. गौतम सर सामने खड़े थे. उन्हीं के अंडर में वह पीएच.डी. कर रहा था. अभिवादन करते हुए उस ने कहा, ‘‘सर, आज मुझे जल्दी निकलना होगा. सोच रहा हूं, अपने प्रैक्टिकल्स पहले निबटा लूं.’’

‘‘जरूर कौस्तुभ, मैं क्लास लेने जा रहा हूं पर तुम अपना काम कर लो. मेरी सहायता की तो यों भी तुम्हें कोई जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन मैं यह जानना जरूर चाहूंगा कि जा कहां रहे हो, कोई खास प्लान?’’ प्रोफैसर गौतम उम्र में ज्यादा बड़े नहीं थे. विद्यार्थियों के साथ दोस्तों सा व्यवहार करते थे और उन्हें पता था कि आज कौस्तुभ अपनी गर्लफ्रैंड नैना को ले कर घूमने जाने वाला है, जहां वह उसे शादी के लिए प्रपोज भी करेगा. कौस्तुभ की मुसकराहट में प्रोफैसर गौतम के सवाल का जवाब छिपा था. उन के जाते ही  कौस्तुभ ने नैना को फोन लगाया, ‘‘माई डियर नैना, तैयार हो न? आज एक खास बात करनी है तुम से…’’

‘‘आई नो कौस्तुभ. शायद वही बात, जिस का मुझे महीनों से इंतजार था और यह तुम भी जानते हो.’’ ‘‘हां, आज हमारी पहली मुलाकात की वर्षगांठ है. आज का यह दिन हमेशा के लिए यादगार बना दूंगा मैं.’’ लीड कानों में लगाए, बातें करतेकरते कौस्तुभ प्रैक्टिकल्स की तैयारी भी कर रहा था. उस ने परखनली में सल्फ्यूरिक ऐसिड डाला और दूसरी में वन फोर्थ पानी भर लिया. बातें करतेकरते ही कौस्तुभ ने सोडियम मैटल्स निकाल कर अलग कर लिए. इस वक्त कौस्तुभ की आंखों  के आगे सिर्फ नैना का मुसकराता चेहरा घूम रहा था और दिल में उमंगों का ज्वार हिलोरें भर रहा था.

नैना कह रही थी, ‘‘कौस्तुभ, तुम नहीं जानते, कितनी बेसब्री से मैं उस पल का इंतजार कर रही हूं, जो हमारी जिंदगी में आने वाला है. आई लव यू …’’ ‘‘आई लव यू टू…’’ कहतेकहते कौस्तुभ ने सोडियम मैटल्स परखनली में डाले, मगर भूलवश दूसरी के बजाय उस ने इन्हें पहली वाली परखनली में डाल दिया. अचानक एक धमाका हुआ और पूरा लैब कौस्तुभ की चीखों से गूंजने लगा. आननफानन लैब का स्टाफ और बगल के कमरे से 2-4 लड़के दौड़े आए. उन में से एक ने कौस्तुभ की हालत देखी, तो हड़बड़ाहट में पास रखी पानी की बोतल उस के चेहरे पर उड़ेल दी. कौस्तुभ के चेहरे से इस तरह धुआं निकलने लगा जैसे किसी ने जलते तवे पर ठंडा पानी डाल दिया हो. कौस्तुभ और भी जोर से चीखें मारने लगा.

तुरंत कौस्तुभ को अस्पताल पहुंचाया गया. उस के घर वालों को सूचना दे दी गई. इस बीच कौस्तुभ बेहोश हो चुका था. जब वह होश में आया तो सामने ही उस की गर्लफ्रैंड नैना  उस की मां के साथ खड़ी थी. पर वह नैना को देख नहीं पा रहा था. हादसे ने न सिर्फ उस का अधिकांश चेहरा, बल्कि एक आंख भी बेकार कर दी थी. दूसरी आंख भी अभी खुल नहीं सकती थी, पट्टियां जो बंधी थीं. वह नैना को छूना चाहता था, महसूस करना चाहता था, मगर आज नैना उस से बिलकुल दूर छिटक कर खड़ी थी. उस की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह कौस्तुभ के करीब आए. कौस्तुभ 6 महीनों तक अस्पताल, डाक्टर, दवाओं, पट्टियों और औपरेशन वगैरह में ही उलझा रहा. नैना एकदो दफा उस से मिलने आई पर दूर रह कर  ही वापस चली गई. कौस्तुभ की पढ़ाई, स्कौलरशिप और भविष्य के सपने सब अंधेरों में खो गए. लेकिन इतनी तकलीफों के बावजूद कौस्तुभ ने स्वयं को पूरी तरह टूटने नहीं दिया था. किसी न किसी तरह हिम्मत कर सब कुछ सहता रहा, इस सोच के साथ कि सब ठीक हो जाएगा. मगर ऐसा हुआ नहीं. न तो लौट कर नैना उस की जिंदगी में आई और न ही उस का चेहरा पहले की तरह हो सका. अब तक के अभिभावक उस पर लाखों रुपए खर्च कर चुके थे. पर अपना चेहरा देख कर वह स्वयं भी डर जाता था.

घर आ कर एक दिन जब कौस्तुभ ने नैना को फोन कर बुलाना चाहा, तो वह साफ मुकर गई और स्पष्ट शब्दों में बोली, ‘‘देखो कौस्तुभ, वास्तविकता समझने का प्रयास करो. मेरे मांबाप अब कतई मेरी शादी तुम से नहीं होने देंगे, क्योंकि तुम्हारे साथ मेरा कोई भविष्य नहीं. और मैं स्वयं भी तुम से शादी करना नहीं चाहती क्योंकि अब मैं तुम्हें प्यार नहीं कर पाऊंगी. सौरी कौस्तुभ, मुझे माफ कर दो.’’ कौस्तुभ कुछ कह नहीं सका, मगर उस दिन वह पूरी तरह टूट गया था. उसे लगा जैसे उस की दुनिया अब पूरी तरह लुट चुकी है और कुछ भी शेष नहीं. मगर कहते हैं न कि हर किसी के लिए कोई न कोई होता जरूर है. एक दिन सुबह मां ने उसे उठाते हुए कहा, ‘‘बेटे, आज डाक्टर अंकुर से तुम्हारा अपौइंटमैंट फिक्स कराया है. उन के यहां हर तरह की नई मैडिकल सुविधाएं उपलब्ध हैं. शायद तेरी जिंदगी फिर से लौटा दे वह.’’कौस्तुभ ने एक लंबी सांस ली और तैयार होने लगा. उसे तो अब कहीं भी उम्मीद नजर नहीं आती थी, पर मां का दिल भी नहीं तोड़ सकता था.

कौस्तुभ अपने पिता के साथ डाक्टर के यहां पहुंचा और रिसैप्शन में बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करने लगा. तभी उस के बगल में एक लड़की, जिस का नाम प्रिया था, आ कर बैठ गई. साफ दिख रहा था कि उस का चेहरा भी तेजाब से जला हुआ है. फिर भी उस ने बहुत ही करीने से अपने बाल संवारे थे और आंखों पर काला चश्मा लगा रखा था. उस ने सूट पूरी बाजू का पहन रखा था और दुपट्टे से गले तक का हिस्सा कवर्ड था. लेकिन उस के चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था. न चाहते हुए भी कौस्तुभ ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप भी ऐसिड से जल गई थीं?’’उस ने कौस्तुभ की तरफ देखा फिर गौगल्स हटाती हुई बोली, ‘‘जली नहीं जला दी गई थी उस शख्स के द्वारा, जो मुझे बहुत प्यार करता था.’’ कहतेकहते उस लड़की की आंखें एक अनकहे दर्द से भर गईं, लेकिन वह आगे बोली, ‘‘वह मजे में जी रहा है और मैं हौस्पिटल्स के चक्कर लगाती पलपल मर रही हूं. मेरी शादी किसी और से हो रही है, यह खबर वह सह नहीं सका और मुझ पर तेजाब फेंक कर भाग गया. एक पल भी नहीं लगा उसे यह सब करने में और मैं सारी जिंदगी के लिए…

‘‘इस बात को हुए 1 साल हो गया. लाखों खर्च हुए पर अभी भी तकलीफ नहीं गई. मांबाप कितना करेंगे, उन की तो सारी जमापूंजी खत्म हो गई है. अपने इलाज के लिए अब मैं स्वयं कमा  रही हूं. टिफिन तैयार कर मैं उसे औफिसों में सप्लाई करती हूं.’’

‘‘मैं आप का दर्द समझता हूं. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहा हूं. कितनी खूबसूरत थी मेरी जिंदगी और आज क्या हो गई,’’ कौस्तुभ ने कहा. एकदूसरे का दर्द बांटतेबांटते कौस्तुभ और प्रिया ने एकदूसरे का नंबर भी शेयर कर लिया. फिर अकसर दोनों के बीच बातें होने लगीं. दोनों को एकदूसरे का साथ पसंद आने लगा. वैसे भी दोनों की जिंदगी एक सी ही थी. एक ही दर्द से गुजर रहे थे दोनों. एक दिन घर वालों के सुझाव पर दोनों ने शादी का फैसला कर लिया. कोर्ट में सादे समारोह में उन की शादी हो गई.कौस्तुभ को एक नाइट कालेज में नौकरी मिल गई. साथ ही वह शिक्षा से जुड़ी किताबें भी लिखने लगा और अनुवाद का काम भी करने लगा. 2 साल के अंदर उन के घर एक चांद सा बेटा हुआ. बच्चा पूर्ण स्वस्थ था और चेहरा बेहद खूबसूरत. दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा. बेटे को अच्छी शिक्षा दिला कर ऊंचे पद पर पहुंचाना ही अब उन का लक्ष्य बन गया था. बच्चा पिता की तरह तेज दिमाग का और मां की तरह आकर्षक निकला. मगर थोड़ा सा बड़ा होते ही वह मांबाप से कटाकटा सा रहने लगा. वह अपना अधिकांश वक्त दादादादी या रामू काका के पास ही गुजारता, जिसे उस की देखभाल के लिए रखा गया था.

कौस्तुभ समझ रहा था कि वह बच्चा है, इसलिए उन के जले हुए चेहरों को देख कर डर जाता है. समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. लेकिन 8वीं कक्षा के फाइनल ऐग्जाम के बाद एक दिन उस ने अपने दादा से जिद की, ‘‘बाबा, मुझे होस्टल में रह कर पढ़ना है.’’

‘‘पर ऐसा क्यों बेटे?’’ बाबा चौंक उठे थे.कौस्तुभ तो अपने बेटे को शहर के सब से अच्छे स्कूल में डालने वाला था. इस के लिए कितनी कठिनाई से दोनों ने पैसे इकट्ठा किए थे. मगर बच्चे की बात ने सभी को हैरत में डाल दिया. दादी ने लाड़ लड़ाते हुए पूछा था, ‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो बेटा, भला यहां क्या प्रौब्लम है तुम्हें? हम इतना प्यार करते हैं तुम से, होस्टल क्यों जाना चाहते हो?’’ मोहित ने साफ शब्दों में कहा था, ‘‘मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि तुम्हारे मांबाप कितने बदसूरत हैं. इसीलिए वे मेरे घर भी नहीं आते. मैं इन के साथ नहीं रहना चाहता.’’ मोहित की बात पर दादी एकदम से भड़क उठी थीं, ‘‘ये क्या कह रहे हो? तुम तो जानते हो कि मम्मीपापा कितनी मेहनत करते हैं तुम्हारे लिए, तभी तुम्हें नएनए कपड़े और किताबें ला कर देते हैं. और तुम्हें कितना प्यार करते हैं, यह भी जानते हो तुम. फिर भी ऐसी बातें कर रहे हो.’’ तभी कौस्तुभ ने मां का हाथ दबा कर उन्हें चुप रहने का इशारा किया और दबे स्वर में बोला, ‘‘ये क्या कर रही हो मम्मी? बच्चा है, इस की गलती नहीं.’’

मगर कई दिनों तक मोहित इसी बात पर अड़ा रहा कि उसे होस्टल में रह कर पढ़ना है, यहां नहीं रहना. दादादादी इस के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. आखिर पूरे घर में चहलपहल उसी की वजह से तो रहती थी. तब एक दिन कौस्तुभ ने अपनी मां को समझाया, ‘‘मां, मैं चाहता हूं, हमारा बच्चा न सिर्फ शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहे और इस के लिए जरूरी है कि हम उसे अपने से दूर रखें. वह हमारे साथ रहेगा तो जाहिर है कभी भी खुश और मानसिक रूप से मजबूत नहीं बन सकेगा. मेरी गुजारिश है कि वह जो चाहता है, उसे वैसा ही करने दो. मैं कल ही देहरादून के एक अच्छे स्कूल में इस के दाखिले का प्रयास करता हूं. भले ही वहां फीस ज्यादा है पर हमारे बच्चे की जिंदगी संवर जाएगी. उसे वह मिल जाएगा, जिस का वह हकदार है और जो मुझे नहीं मिल सका.’’

2 सप्ताह के अंदर ही कौस्तुभ ने प्रयास कर के मोहित का ऐडमिशन देहरादून के एक अच्छे स्कूल में करा दिया, जहां उसे 70 हजार डोनेशन के देने पड़े. पर बच्चे की ख्वाहिश पूरी करने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था. मोहित को विदा करने के बाद प्रिया बहुत रोई थी. उसे लग रहा था जैसे मोहित हमेशा के लिए उस से बहुत दूर जा चुका है. और वास्तव में ऐसा ही हुआ. छुट्टियों में भी मोहित आता तो बहुत कम समय के लिए और उखड़ाउखड़ा सा ही रहता. उधर उस के पढ़ाई के खर्चे बढ़ते जा रहे थे जिन्हें पूरा करने के लिए कौस्तुभ और प्रिया को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही थी. समय बीतते देर नहीं लगती. मोहित अब बड़ा हो चुका था. उस ने बीए के बाद एम.बी.ए. करने की जिद की. अबतक कौस्तुभ के मांबाप दिवंगत हो चुके थे. कौस्तुभ और प्रिया स्वयं ही एकदूसरे की देखभाल करते थे. उन्होंने एक कामवाली रखी थी, जो घर के साथ बाहर के काम भी कर देती थी. इस से उन्हें थोड़ा आराम मिल जाता था. मगर जब मोहित ने एम.बी.ए. की जिद की तो कौस्तुभ के लिए पैसे जुटाना एक कठिन सवाल बन कर खड़ा हो गया. कम से कम 3-4 लाख रुपए तो लगने ही थे. इतने रुपयों का वह एकसाथ इंतजाम कैसे करता?

तब प्रिया ने सुझाया, ‘‘क्यों न हम घर बेच दें? हमारा क्या है, एक छोटे से कमरे में भी गुजारा कर लेंगे. मगर जरूरी है कि मोहित ढंग से पढ़ाईलिखाई कर किसी मुकाम तक पहुंचे.’’ ‘‘शायद ठीक कह रही हो तुम. घर बेच देंगे तो काफी रकम मिल जाएगी,’’ कौस्तुभ ने कहा. अगले ही दिन से वह इस प्रयास में जुट गया. अंतत: घर बिक गया और उसे अच्छी रकम भी मिल गई. उन्होंने बेटे का ऐडमिशन करा दिया और स्वयं एक छोटा घर किराए पर ले लिया. बाकी बचे रुपए बैंक में जमा करा दिए ताकि उस के ब्याज से बुढ़ापा गुजर सके. 1 कमरे और किचन, बाथरूम के अलावा इस घर में एक छोटी सी बालकनी थी, जहां बैठ कर दोनों धूप सेंक सकते थे.

बेटे के ऐडमिशन के साथ खर्चे भी काफी बढ़ गए थे, अत: उन्होंने कामवाली भी हटा दी और दूसरे खर्चे भी कम कर दिए. अब उन्हें इंतजार था कि बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही उस की अच्छी सी नौकरी लग जाए और वे उस के सपनों को पूरा होते अपनी आंखों से देखें.

फिर एक खूबसूरत सी लड़की से उस की शादी करा दें और पोतेपोतियों को खिलाएं. मगर एक दिन मोहित के आए फोन ने उन के इस सपने पर भी पल में पानी फेर दिया, जब उस ने बताया कि पापा मुझे सिंगापुर में एक अच्छी जौब मिल गई है और अगले महीने ही मैं हमेशा के लिए सिंगापुर शिफ्ट हो जाऊंगा. ‘‘क्या? सिंगापुर जा रहा है? पर क्यों बेटे?’’ कौस्तुभ की जबान लड़खड़ा गई, ‘‘अपने देश में भी तो अच्छीअच्छी नौकरियां हैं, फिर तू बाहर क्यों जा रहा है?’’ लपक कर प्रिया ने फोन ले लिया था, ‘‘नहींनहीं बेटा, इतनी दूर मत जाना. तुझे देखने को आंखें तरस जाएंगी. बेटा, तू हमारे साथ नहीं रहना चाहता तो न सही पर कम से कम इसी शहर में तो रह. हम तेरे पास नहीं आएंगे, पर इतना सुकून तो रहेगा कि हमारा बेटा हमारे पास ही है. कभीकभी तो तेरी सूरत देखने को मिल जाएगी. पर सिंगापुर चला गया तो हम…’’ कहतेकहते प्रिया रोने लगी थी.

‘‘ओह ममा कैसी बातें करती हो? भारत में कितनी गंदगी और भ्रष्टाचार है. मैं यहां नहीं रह सकता. विदेश से भी आनाजाना तो हो ही जाता है. कोशिश करूंगा कि साल दो साल में एक दफा आ जाऊं,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया था. प्रिया के आंसू आंखों में सिमट गए. उस ने रिसीवर रखा और बोली, ‘‘वह फैसला कर चुका है. वह हम से पूरी तरह आजादी चाहता है, इसलिए जाने दो उसे. हम सोच लेंगे हमारी कोई संतान हुई ही नहीं. हम दोनों ही एकदूसरे के दुखदर्द में काम आएंगे, सहारा बनेंगे. बस यह खुशी तो है न कि हमारी संतान जहां भी है, खुश है.’’ उस दिन के बाद कौस्तुभ और प्रिया ने बेटे के बारे में सोचना छोड़ दिया. 1 माह बाद मोहित आया और अपना सामान पैक कर हमेशा के लिए सिंगापुर चला गया. शुरुआत में 2-3 माह पर एकबार फोन कर लेता था, मगर धीरेधीरे उन के बीच एक स्याह खामोशी पसरती गई. प्रिया और कौस्तुभ ने दिल पत्थर की तरह कठोर कर लिया. खुद को और भी ज्यादा कमरे में समेट लिया. धीरेधीरे 7 साल गुजर गए. इन 7 सालों में सिर्फ 2 दफा मोहित का फोन आया. एक बार अपनी शादी की खबर सुनाने को और दूसरी दफा यह बताने के लिए कि उस का 1 बेटा हो गया है, जो बहुत प्यारा है.

कौस्तुभ और प्रिया का शरीर अब जर्जर होता रहा था. कहते हैं न कि आप के शरीर का स्वास्थ्य बहुत हद तक मन के सुकून और खुशी पर निर्भर करता है और जब यही हासिल न हो तो स्थिति खराब होती चली जाती है. यही हालत थी इन दोनों की. मन से एकाकी, दुखी और शरीर से लाचार. बस एकदूसरे की खातिर दोनों जी रहे थे. पूरी ईमानदारी से एकदूसरे का साथ दे रहे थे. एक दिन दोनों बाहर बालकनी में बैठे थे, तो एक महिला अपने बच्चे के साथ उन के घर की तरफ आती दिखी. कौस्तुभ सहसा ही बोल पड़ा, ‘‘उस बच्चे को देख रही हो प्रिया, हमारा पोता भी अब इतना बड़ा हो गया होगा न? अच्छा है, उसे हमारा चेहरा देखने को नहीं मिला वरना मोहित की तरह वह भी डर जाता,’’ कहतेकहते कौस्तुभ की पलकें भीग गईं. प्रिया क्या कहती वह भी सोच में डूब गई कि काश मोहित पास में होता.

तभी दरवाजे पर हुई दस्तक से दोनों की तंद्रा टूटी. दरवाजा खोला तो सामने वही महिला खड़ी थी, बच्चे की उंगली थामे. ‘‘क्या हुआ बेटी, रास्ता भूल गईं क्या?’’ हैरत से देखते हुए प्रिया ने पूछा.

‘‘नहीं मांजी, रास्ता नहीं भूली, बल्कि सही रास्ता ढूंढ़ लिया है,’’ वह महिला बोली. वह चेहरे से विदेशी लग रही थी मगर भाषा, वेशभूषा और अंदाज बिलकुल देशी था. प्रिया ने प्यार से बच्चे का माथा चूम लिया और बोली, ‘‘बड़ा प्यारा बच्चा है. हमारा पोता भी इतना ही बड़ा है. इसे देख कर हम उसे ही याद कर रहे थे. लेकिन वह तो इतनी दूर रहता है कि हम आज तक उस से मिल ही नहीं पाए.’’

‘‘इसे भी अपना ही पोता समझिए मांजी,’’ कहती हुई वह महिला अंदर आ गई.

‘‘बेटी, हमारे लिए तो इतना ही काफी है कि तू ने हमारे लिए कुछ सोचा. कितने दिन गुजर जाते हैं, कोई हमारे घर नहीं आता. बेटी, आज तू हमारे घर आई तो लग रहा है, जैसे हम भी जिंदा हैं.’’

‘‘आप सिर्फ जिंदा ही नहीं, आप की जिंदगी बहुत कीमती भी है,’’ कहते हुए वह महिला सोफे पर बैठ गई और वह बच्चा भी प्यार से कौस्तुभ के बगल में बैठ गया. सकुचाते हुए कौस्तुभ ने कहा, ‘‘अरे, आप का बच्चा तो मुझे देख कर बिलकुल भी नहीं घबरा रहा.’’

‘‘घबराने की बात ही क्या है अंकल? बच्चे प्यार देखते हैं, चेहरा नहीं.’’ ‘‘यह तो तुम सही कह रही हो बेटी पर विश्वास नहीं होता. मेरा अपना बच्चा जब इस की उम्र का था तो बहुत घबराता था मुझे देख कर. इसीलिए मेरे पास आने से डरता था. दादादादी के पास ही उस का सारा बचपन गुजरा था.’’

‘‘मगर अंकल हर कोई ऐसा नहीं होता. और मैं तो बिलकुल नहीं चाहती कि हमारा सागर मोहित जैसा बने.’’ इस बात पर दोनों चौंक कर उस महिला को देखने लगे, तो वह मुसकरा कर बोली, ‘‘आप सही सोच रहे हैं. मैं दरअसल आप की बहू सारिका हूं और यह आप का पोता है, सागर. मैं आप को साथ ले जाने के लिए आई हूं.’’ उस के बोलने के लहजे में कुछ ऐसा अपनापन था कि प्रिया की आंखें भर आईं. बहू को गले लगाते हुए वह बोली, ‘‘मोहित ने तुझे अकेले क्यों भेज दिया? साथ क्यों नहीं आया?’’ ‘‘नहीं मांजी, मुझे मोहित ने नहीं भेजा मैं तो उन्हें बताए बगैर आई हूं. वे 2 महीने के लिए पैरिस गए हुए हैं. मैं ने सोचा क्यों न इसी बीच आप को घर ले जा कर उन को सरप्राइज दे दूं. ‘‘मोहित ने आज तक मुझे बताया ही नहीं था कि मेरे सासससुर अभी जिंदा हैं. पिछले महीने इंडिया से आए मोहित के दोस्त अनुज ने मुझे आप लोगों के बारे में सारी बातें बताईं. फिर जब मैं ने मोहित से इस संदर्भ में बात करनी चाही तो उस ने मेरी बात बिलकुल ही इग्नोर कर दी. तब मुझे यह समझ में आ गया कि वह आप से दूर रहना क्यों चाहता है और क्यों आप को घर लाना नहीं चाहता.’’

‘‘पर बेटा, हम तो खुद भी वहां जाना नहीं चाहते. हमें तो अब ऐसी ही जिंदगी जीने की आदत हो गई है,’’ कौस्तुभ बोला.

‘‘मगर डैडी, आज हम जो खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं, सब आप की ही देन है और अब हमारा फर्ज बनता है कि हम भी आप की खुशी का खयाल रखें. जिस वजह से मोहित आप से दूर हुए हैं, मैं वादा करती हूं, वह वजह ही खत्म कर दूंगी.’’ ‘‘मेरे अंकल एक बहुत ही अच्छे कौस्मैटिक सर्जन हैं और वे इस तरह के हजारों केस सफलतापूर्वक डील कर चुके हैं. कितना भी जला हुआ चेहरा हो, उन का हाथ लगते ही उस चेहरे को नई पहचान मिल जाती है. वे मेरे अपने चाचा हैं. जाहिर है कि वे आप से फीस भी नहीं लेंगे और पूरी एहतियात के साथ  इलाज भी करेंगे. आप बस मेरे साथ सिंगापुर चलिए. मैं चाहती हूं कि हमारा बच्चा दादादादी के प्यार से वंचित न रहे. उसे वे खुशियां हासिल हों जिन का वह हकदार है. मैं नहीं चाहती कि वह मोहित जैसा स्वार्थी बने और हमारे बुढ़ापे में वैसा ही सुलूक करे जैसा मोहित कर रहा है’’ प्रिया और कौस्तुभ स्तंभित से सारिका की तरफ देख रहे थे. जिंदगी ने एक बार फिर करवट ली थी और खुशियों की धूप उन के आंगन में सुगबुगाहट लेने लगी थी. बेटे ने नहीं मगर बहू ने उन के दर्द को समझा था और उन्हें उन के हिस्से की खुशियां और हक दिलाने आ गई थी.

Family Drama : अंतर्व्यथा – कैसी विंडबना में थी वह

Family Drama : बंद अंधेरे कमरे में आंखें मूंदे लेटी हुई मैं परिस्थितियों से भागने का असफल प्रयास कर रही थी. शाम के कार्यक्रम में तो जाने से बिलकुल ही मना कर दिया, ‘‘नहीं, अभी मैं तन से, मन से उतनी स्वस्थ नहीं हुई हूं कि वहां जा पाऊं. तुम लोग जाओ,’’ शरद के सिर पर हाथ फेरते हुए मैं ने कहा, ‘‘मेरा आशीर्वाद तो तुम्हारे साथ है ही और हमेशा रहेगा.’’ सचमुच मेरा आशीर्वाद तो था ही उस के साथ वरना सोच कर ही मेरा सर्वांग सिहर उठा. शाम हो गई थी. नर्स ने आ कर कहा, ‘‘माताजी, साहब को जो इनाम मिलेगा न, उसे टीवी पर दिखलाया जा रहा है. मैडम ने कहा है कि आप के कमरे का टीवी औन कर दूं,’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह टीवी औन कर के चली गई. शहर के लोकल टीवी चैनल पर शरद के पुरस्कार समारोह का सीधा प्रसारण हो रहा था.

cookery

मंच पर शरद शहर के गण्यमान्य लोगों के बीच हंसताखिलखिलाता बैठा था. सुंदर तो वह था ही, पूरी तरह यूनिफौर्म में लैस उस का व्यक्तित्व पद की गरिमा और कर्तव्यपरायणता के तेज से दिपदिप कर रहा था. मंच के पीछे एक बड़े से पोस्टर पर शरद के साथसाथ मेरी भी तसवीर थी. मंच के नीचे पहली पंक्ति में रंजनजी, बहू, बच्चे सब खुशी से चहक रहे थे. लेकिन चाह कर भी मैं वर्तमान के इस सुखद वातावरण का रसास्वादन नहीं कर पा रही थी. मेरी चेतना ने जबरन खींच कर मुझे 35 साल पीछे पीहर के आंगन में पटक दिया. चारों तरफ गहमागहमी, सजता हुआ मंडप, गीत गाती महिलाएं, पीली धोती में इधरउधर भागते बाबूजी, चिल्लातेचिल्लाते बैठे गले से भाभी को हिदायतें देतीं मां और कमरे में सहेलियों के गूंजते ठहाके के बीच मुसकराती अपनेआप पर इठलाती सजीसंवरी मैं. अंतिम बेटी की शादी थी घर की, फिर विनयजी तो मेरी सुंदरता पर रीझ, अपने भैयाभाभी के विरुद्ध जा कर, बिना दानदहेज के यह शादी कर रहे थे. इसी कारण बाबूजी लेनदेन में, स्वागतसत्कार में कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहते थे.

शादी के बाद 2-4 दिन ससुराल में रह कर मैं विनयजी के साथ ही जबलपुर आ गई. शीघ्र ही घर में नए मेहमान के आने की खबर मायके पहुंच गई. भाभी छेड़तीं भी, ‘बबुनी, कुछ दिन तो मौजमस्ती करती, कितनी हड़बड़ी है मेहमानजी को.’ सचमुच विनयजी को हड़बड़ी ही थी. हमेशा की तरह उस दिन भी सुबह सैर करने निकले, बारिश का मौसम था. बिजली का एक तार खुला गिरा था सड़क पर, पैर पड़ा और क्षणभर में सबकुछ खत्म. मातापिता जिस बेटी को विदा कर के उऋण ही हुए थे उसी बेटी का भार एक अजन्मे शिशु के साथ फिर उन्हीं के सिर पर आ पड़ा. ससुराल में सासससुर थे नहीं. जेठजेठानी वैसे भी इस शादी के खिलाफ थे. क्रियाकर्म के बाद एक तरह से जबरन ही मैं वहां जाने को मजबूर थी. ‘सुंदरता नहीं काल है. यह एक को ग्रस गई, पता नहीं अब किस पर कहर बरसाएगी,’ हर रोज उन की बातों के तीक्ष्ण बाण मेरे क्षतविक्षत हृदय को और विदीर्ण करते. मन तो टूट ही चुका था, शरीर भी एक जीव का भार वहन करने से चुक गया.

7वें महीने ही सवा किलो के अजय का जन्म हुआ. जेठ साफ मुकर गए. 7वें महीने ही बेटा जना है. पता नहीं विनय का है भी या नहीं. एक भाई था वह गया, अब और किसी से मेरा कोई संबंध नहीं. सब यह समझ रहे थे कि हिस्सा न देने का यह एक बहाना है. कोर्टकचहरी करने का न तो किसी को साहस था न ही कोई मुझे अपने कुम्हलाए से सतमासे बच्चे के साथ वहां घृणा के माहौल में भेजना चाहता था. 1 साल तो अजय को स्वस्थ करने में लग गया. फिर मैं ने अपनी पढ़ाई की डिगरियों को खोजखाज कर निकाला. पहले प्राइमरी, बाद में मिडल स्कूल में पढ़ाने लगी. मायका आर्थिक रूप से इतना सुदृढ़ नहीं था कि हम 2 जान बेहिचक आश्रय पा सकें. महीने की पूरी कमाई पिताजी को सौंप देती. वे भी जानबूझ कर पैसा भाइयों के सामने लेते ताकि बेटे यह न समझें कि बेटी भार बन गई है. अपने जेबखर्च के लिए घर पर ही ट्यूशन पढ़ाती. मां की सेवा का असर था कि अजय अब डोलडोल कर चलने लगा था. इसी बीच, मेरे स्कूल के प्राध्यापक थे जिन के बड़े भाई प्यार में धोखा खा कर आजीवन कुंवारे रहने का निश्चय कर जीवन व्यतीत कर रहे थे. छत्तीसगढ़ में एक अच्छे पद पर कार्यरत थे. उन्हें सहयोगी ने मेरी कहानी सुनाई. वे इस कहानी से द्रवित हुए या मेरी सुंदरता पर मोहित हुए, पता नहीं लेकिन आजीवन कुंवारे रहने की उन की तपस्या टूट गई. वे शादी करने को तैयार थे लेकिन अजय को अपनाना नहीं चाहते थे. मैं शादी के लिए ही तैयार नहीं थी, अजय को छोड़ना तो बहुत बड़ी बात थी. मांबाबूजी थक रहे थे. वे असमंजस में थे. वे लोग मेरा भविष्य सुनिश्चित करना चाहते थे.

भाइयों के भरोसे बेटी को नहीं रखना चाहते थे. बहुत सोचसमझ कर उन्होंने मेरी शादी का निर्णय लिया. अजय को उन्होंने कानूनन अपना तीसरा बेटा बनाने का आश्वासन दिया. रंजनजी ने भी मिलनेमिलाने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई. इस प्रकार मेरे काफी प्रतिरोध, रोनेचिल्लाने के बावजूद मेरा विवाह रंजनजी के साथ हो गया. मैं ने अपने सारे गहने, विनयजी की मृत्यु के बाद मिले रुपए अजय के नाम कर अपनी ममता का मोल लगाना चाहा. एक आशा थी कि बेटा मांपिताजी के पास है जब चाहूंगी मिलती रहूंगी लेकिन जो चाहो, वह होता कहां है. शुरूशुरू में तो आतीजाती रही 8-10 दिन में ही. चाहती अजय को 8 जन्मों का प्यार दे डालूं. उसे गोद में ले कर दुलारती, रोतीबिलखती, खिलौनों से, उपहारों से उस को लाद देती. वह मासूम भी इस प्यारदुलार से अभिभूत, संबंधों के दांवपेंच से अनजान खुश होता.

बड़े भैया के बच्चों के साथसाथ मुझे बूआ पुकारता. धीरेधीरे मायके आनाजाना कम होता गया. शरद के होने के बाद तो रंजनजी कुछ ज्यादा कठोर हो गए. सख्त हिदायत थी कि अजय के विषय में कभी भी उसे कुछ नहीं बतलाया जाए. मायके में भी मेरे साथ शरद को कभी नहीं छोड़ते. मेरा मायके जाना भी लगभग बंद हो गया था. शायद वह अपने पुत्र को मेरा खंडित वात्सल्य नहीं देना चाहते थे. फोन का जमाना नहीं था. महीने दो महीने में चिट्ठी आती. मां बीमार रहने लगी थीं.

मेरे बड़े भैया मुंबई चले गए. छोटे भाई अनुज की भी शादी हो गई और जैसी उम्मीद थी उस की पत्नी सविता को 2 बड़ेबूढ़े और 1 बच्चे का भार कष्ट देने लगा. अंत में अजय को 11 साल की उम्र में ही रांची के बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया. फासले बढ़ते जा रहे थे और संबंध छीजते जा रहे थे. एकएक कर के पापामां दोनों का देहांत हो गया. मां के श्राद्ध में अजय आया था. लंबा, दुबलापतला विनयजी की प्रतिमूर्ति. जी चाहता खींच कर उसे सीने से लगा लूं, खूब प्यार करूं लेकिन अब उसे रिश्तों का तानाबाना समझ में आ चुका था.

वह गुमसुम, उदास और खिंचाखिंचा रहता. पापा के देहांत के बाद उस के प्यारदुलारस्नेह का एकमात्र स्रोत नानी ही थीं, वह सोता भी अब सूख चुका था. अब उसे मेरी जरूरत थी. मैं भी अजय के साथ कुछ दिन रहना चाहती थी. अपने स्नेह, अपनी ममता से उस के जख्म को सहलाना चाहती थी लेकिन रंजनजी के गुस्सैल स्वभाव व जिद के आगे मैं फिर हार गई. शरद को पड़ोस में छोड़ कर आई थी. उस की परीक्षा चल रही थी. जाना भी जरूरी था लेकिन वापस लौट कर एक दर्द की टीस संग लाई थी. इस दर्द का साझेदार भी किसी को बना नहीं पाती. जब शरद को दुलारती अजय का चेहरा दिखता. शरद को हंसता देखती तो अजय का उदास सूखा सा चेहरा आंखों पर आंसुओं की परत बिछा जाता. उस के बाद अजय का आना बहुत कम हो गया. छुट्टियों में भी वह घर नहीं आता.

महीने दो महीने में अनुज, मेरा छोटा भाई ही उस से भेंट कर आता. वह कहता, ‘दीदी, मुझे उस की बातों में एक अजीब सा आक्रोश महसूस होता है, कभी सरकार के विरुद्ध, कभी परिवार के विरुद्ध और कभी समाज के विरुद्ध. ‘इस महीने जब उस से मिलने गया था, वह कह रहा था, मामा, जिस समाज को आप सभ्य कहते हैं न वह एक निहायत ही सड़ी हुई व्यवस्था है. यहां हर इंसान दोगला है. बाहर से अच्छाई का आवरण ओढ़ कर भीतर ही भीतर किसी का हक, किसी की जायदाद, किसी की इज्जत हथियाने में लगा रहता है. मैं इन सब को बेनकाब कर दूंगा. ‘ये आदिवासी लोग भोलेभाले हैं. यही भारत के मूल निवासी हैं और यही सब से ज्यादा उपेक्षित हैं. मैं उन्हें जाग्रत कर रहा हूं अपने अधिकारों के प्रति. अगर मिलता नहीं है तो छीन लो. यह समाज कुछ देने वाला नहीं है. ‘प्रगति के उत्थान के नाम पर भी इन का दोहन ही हो रहा है. इन के साथसाथ जंगल, जो इन का आश्रयदाता है, जिस पर ये लोग आर्थिक रूप से भी निर्भर हैं, उस का व उस में पाई जाने वाली औषधियों, वनोपाज सब का दोहन हो रहा है.

अगर यही हाल रहा तो ये जनजाति ही विलुप्त हो जाएगी. मैं ऐसा होने नहीं दूंगा.’ अचानक एक दिन खबर आई कि अजय लापता है. अनुज ने उसे ढूंढ़ने में जीजान लगा दी. मैं भी एक सप्ताह तक रांची में उस के कमरे में डटी रही. उस के कपड़े, किताबें सहेजती, उस के अंतस की थाह तलाशती रही. दोस्तों ने बतलाया कि उस के लिए घर से जो भी पैसा आता उसे वह गांव वालों में बांट देता. उन्हें पढ़ाता, उन का इलाज करवाता, उन के बच्चों के लिए किताबें, कपड़े, दवा, खिलौने ले कर जाता. उन के साथ गिल्लीडंडा, हौकी खेलता. अपने परिवार से मिली उपेक्षा, मातापिता के प्यार की प्यास ने ही उसे उन आदिवासियों की तरफ आकृष्ट किया. उन भोलेभाले लोगों का निश्छल प्रेम उस के अंदर अपनों के प्रति धधक रहे आक्रोश को शांत करता और इसी कारण उन लोगों के प्रति एक कर्तव्यभावना जाग्रत हुई जो धीरेधीरे नक्सलवाद की तरफ बढ़ती चली गई. अजय का कुछ पता नहीं चला. वहां से लौटने पर पहली बार रंजनजी से जम कर लड़ी थी, ‘आप के कारण मेरा बेटा चला गया. आप को मैं कभी माफ नहीं करूंगी.

क्या मैं सौतेली मां थी कि आप को लगा, अपने दोनों बेटों में भेदभाव करती. रही बात उस के खर्च की तो उस के पास पैसों की कभी कमी नहीं थी. उसे केवल प्यार की दरकार थी, ममता की छांव चाहिए थी, वह भी मैं नहीं दे पाई. मेरा आंचल इतना छोटा नहीं था जिस में केवल एक ही पुत्र का सिर समा सकता था. एक मां का आंचल तो इतना विशाल होता है कि एक या दो क्या, धरती का हर पुत्र आश्रय पा सकता है. आप को आप के किए की सजा अवश्य मिलेगी.’ पता नहीं मेरे भीतर उस वक्त कौन सा शैतान घुस गया था कि मैं अपने पुत्र के लिए अपने ही पति को श्राप दिए जा रही थी. रंजनजी को भी अपनी गलती का पछतावा था. शायद इसी कारण वे मेरी बातें चुपचाप सह गए. दिन, महीने, साल बीत गए, अजय का कुछ पता नहीं चला. इधर, शरद अपनी बुद्धि और पिता के कुशल मार्गदर्शन में कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता हुआ आईपीएस में चयनित हो गया. शादी हुई, 2 प्यारे बच्चे हुए. अभी उस की पोस्टिंग बस्तर के इलाके में हुई थी. मैं और रंजनजी दोनों ने विरोध किया, ‘लेदे कर कहीं दूसरी जगह तबादला करवा लो.’ लेकिन उस ने भी उस चैलेंज को स्वीकार किया.

‘मां, बड़े शहर के लोगों का दिल छोटा होता है, न शुद्ध हवा, न पानी, न खाना. यहां तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. इसी वातावरण में तो बड़ा हुआ हूं. मुझे क्यों दिक्कत होगी.’ सचमुच 1 साल के भीतर उस की ख्याति फैल गई. आत्मसमर्पण किए नक्सलियों के लिए ‘अपनालय’ का शुभारंभ किया जिस में मैडिटेशन सैंटर, गोशाला, फलों का बगीचा सबकुछ था उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए. खुद मुख्यमंत्री ने इस का उद्घाटन किया था. प्रदेश में हजारों नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, पकड़े भी गए. शरद का यही सुप्रयास उस की जान का दुश्मन बन गया. उस दिन सुबह 6 बजे ही घर के हर फोन की घंटियां घनघनाने लगीं. फोन उठाते ही रंजनजी चौंक उठे और उन्हें चौंका देख मैं घबरा गई. ‘क्या? कब? कैसे? जंगल में वह क्या करने गया था.’ हर प्रश्न हृदय पर हथौड़े सा प्रहार कर रहा था. ‘क्या हुआ था उस के साथ?’ मेरी आवाज लड़खड़ा गई. ‘तुम्हारी आह लग गई. शरद का अपहरण हो गया,’ वे फूटफूट कर रो रहे थे. बरसों पहले कही बात उन के मन में धंस गई थी. शायद अपनी करनी से वे भयाकांत भी थे. इसी कारण उन के मुंह से यह बात निकली. लेकिन मेरा? मेरा क्या? मेरा तो हर तरफ से छिन गया. लग रहा था छाती के अंदर, जो रस या खून से भराभरा रहता है, उस को किसी ने बाहर निकाल कर स्पंज की तरह निचोड़ दिया हो.

इसी कारण उन के मुंह से यह बात निकली. लेकिन मेरा? मेरा क्या? मेरा तो हर तरफ से छिन गया. लग रहा था छाती के अंदर, जो रस या खून से भराभरा रहता है, उस को किसी ने बाहर निकाल कर स्पंज की तरह निचोड़ दिया हो. टीवी के हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में यह खबर प्रसारित हो रही थी. दूसरे दिन अपहरणकर्ता का संभावित स्कैच जारी किया गया. दाढ़ी भरे उस दुबलेपतले चेहरे में भी चमकती उन 2 आंखों को पहचानने में मेरी आंखें धोखा नहीं खा पाईं. मैं ने अनुज को फोन लगाया, उस ने मेरे शक को यकीन में बदला. रहीसही कसर उस के नाम से पूरी हुई- ‘अज्जू भैया’. मैं शरद के मुंह से कई बार यह नाम सुन चुकी थी. ‘बहुत खतरनाक खूंखार इंसान है, इस को किसी तरह पकड़ लिया तो समझो नक्सलियों का खेल खत्म.’ उस ने ही बारूदी सुरंग बिछा कर पैट्रोलिंग पर गए शरद को बंदी बनाया. 2 कौंस्टेबल, 1 ड्राइवर शहीद हुए थे. अनुज आ गया था. नक्सलियों से 2 बार बातचीत असफल रही थी. मुख्यमंत्री की अपील का भी कोई असर नहीं था. अनुज के साथ मिल कर बहुत हिम्मत कर के मैं ने यह निर्णय लिया. मैं ने कलैक्टर साहब से बात की, ‘मुझे वार्त्ता के लिए भेजा जाए,’ पहले तो उन्होंने साफ मना कर दिया, ‘आप? वह भी इस उम्र में, एक खूंखार नक्सली से मिलने जंगल जाएंगी? पता भी है कितनी जानें ले चुका है?

बातचीत में, व्यवहार में, जरा सी चूक से जान जा सकती है.’ मैं फफक पड़ी, ‘ममता की कोई उम्र नहीं होती, सर. भले ही वह खूंखार हो, है तो किसी का बेटा ही, एक मां के आगे जरूर झुकेगा.’ मैं ने रंजनजी को भी जाने से सख्ती से मना कर दिया. अनुज मेरे साथ था. घने सरई, सागवान, पलाश के पेड़ों, बरगद की विशाल लटों से उलझते हुए हमें एक खुली जगह ले जाया गया. आंखें बंधी थीं. अंदाज से समझ में आया कि गंतव्य आ गया है. फुसफुसाहट हो रही थी. रास्ते में 5-6 जगह हमारी जांच की गई थी. यहां फिर जांच हुई और पट्टी खोल दी गई. साफसुथरी जगह में एक झोंपड़ीनुमा घर था. उसी के सामने खटिया पर अजय बैठा था. मामा को देखते ही परिचय की कौंध सी चमकी जो मुझे देखते ही विलुप्त हो गई. कितनी घृणा, कितना आक्रोश था उन नजरों में. कुछ देर की खामोशी के बाद उस ने साथियों को आंखों से जाने का इशारा किया. अब सिर्फ हम 3 थे. वह हमारी तरफ मुखातिब हुआ, ‘ओह, तो वह पुलिस वाला आप का बेटा है, कहिए, क्यों आई हैं? रिश्ते का कौन सा जख्म बचा है जिसे और खरोंचने आई हैं? आप क्या सोचती हैं, मैं उसे छोड़ दूंगा, कभी नहीं. अब तो और नहीं. मुझे जन्म दे कर आप ने जो पाप किया है उस की सजा तो आप को भुगतनी ही होगी.’ अनुज कुछ कहने को आतुर हुआ, उस के पहले ही मैं उस के पैरों पर गिर पड़ी, ‘मुझे सजा दो, गोलियों से भून दो, आजीवन बेडि़यों से जकड़ कर अपने पास रखो लेकिन उसे छोड़ दो, उसे मेरी गलती की सजा मत दो. मैं पापिन हूं, तुम को अधिकार है, तुम अपने सारे कष्टों का, दुखों का बदला मुझ से ले लो. ‘मैं लाचार थी. तुम ने एक गाय देखी है रस्सी में बंधी, जिसे उस का मालिक दूसरे के हाथों में थमा देता है, वह चुपचाप चल देती है दूसरे खूंटे से बंधने.’ ‘नहीं, गाय से मत कीजिए तुलना,’ वह चिल्लाया, ‘गाय तो अपने बच्चे के लिए खूंटा उखाड़ कर भाग आती है. आप तो वह भी नहीं कर पाईं.

एक मासूम को तिलतिल कर जलते देखती रहीं. आप ने एक पाप किया मुझे जन्म दे कर, दूसरा पाप किया मुझे पालपोस कर जिंदा रखने का. यह जिंदगी ही मेरे लिए नरक बन गई. जिस जिंदगी को आप संवार नहीं सकती थीं उस में जान फूंकने का आप को कोई हक नहीं था,’ उस का एकएक शब्द घृणा और तिरस्कार में लिपटा था. मैं गिड़गिड़ाने लगी, ‘मैं कमजोर थी, सचमुच गाय से भी कमजोर. अजय, मेरे बेटे, मैं माफी के भी काबिल नहीं. मैं मरना चाहती हूं, वह भी तुम्हारे हाथों, तभी मुझे शांति मिलेगी. बेटा, मुझे बंधक बना लो लेकिन उसे छोड़ दो, वह तुम्हारा भाई है.’ ‘खबरदार, भाई मत कहना, अगर यह वास्ता दोगी तो अभी जा कर उसे गोलियों से भून दूंगा,’ वह चिल्लाया, पहली बार उस के मुंह से मेरे लिए अनादर सूचक संबोधन निकले थे, ‘वह तुम्हारा बेटा है बस, इतना ही जानता हूं. जानते हैं मामा,’ वह अनुज की तरफ मुड़ कर कह रहा था, ‘नानाजी ने पता नहीं क्या सोच कर 15वीं सालगिरह पर दिनकर की रश्मिरथि मुझे उपहार में दी थी. अकसर मैं जब बहुत उदास होता, उसे खोल कर बैठ जाता. न जाने कितनी रातों की उदासी को मैं ने अपने आंसुओं से धोया है उसे पढ़ते हुए, कुंती-कर्ण संवाद तो मुझे कंठस्थ थे- दुनिया तो उस से सदा सभी कुछ लेगी पर क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी. लेकिन मामा, मैं कर्ण नहीं हूं, मैं कर्ण नहीं बनूंगा.’

लोगों की नजरों में एक क्रूर, हत्यारा अज्जू भैया अभी निर्विरोध मेरे सीने से लग कर फूटफूट कर रो रहा था. रात बीतने को थी, अचानक वह उठा, झोपड़ी के अंदर गया और कोई चीज अनुज को थमाई, फिर थोड़ी देर उसे कुछ समझाता रहा. अनुज पीछे की तरफ पहाड़ी की ओर चला गया. मैं ने निर्णय ले लिया था कि अब अजय को छोड़ कर नहीं जाऊंगी. मुझे किसी की चिंता नहीं थी, किसी का डर नहीं था लेकिन अजय ने मेरी बात सुन कर फिर उसी घृणित भाव से कहा, ‘अब बहुत देर हो गई, यहां किस के साथ किस के भरोसे रहेंगी, शेर, चीता और भालू के भरोसे? क्या आप जानती हैं एसपी को छोड़ने के बाद मेरे साथी मुझे जिंदा छोड़ेंगे? कभी नहीं. उन के हाथों मरने से तो अच्छा है खुद ही…’ बात अचानक बीच में ही छोड़ कर उस ने मेरी आंखों पर पट्टी बांधी और एक जगह ला कर छोड़ दिया फिर बोला, ‘भागिए.’ मैं असमंजस में थी. आगे शरद और अनुज दौड़ रहे थे. मैं भी उन के पीछे हांफते हुए दौड़ने लगी. अनुज ने रुक कर मुझे अपने आगे कर लिया. तभी पीछे से 3-4 राउंड गोली चलने की आवाज आई.

अनुज चिल्लाया, ‘शरद, गोली चलाओ, वे लोग हमारा पीछा कर रहे हैं,’ शरद के पास बंदूक कहां होगी? मैं सोच ही रही थी कि सचमुच शरद पीछे मुड़ कर गोलियां दागने लगा. घबरा कर मैं बेहोश हो गई. सुबह जब मेरी आंखें खुलीं, मैं अस्पताल में थी. तालियों की गड़गड़ाहट सुन कर मैं वर्तमान में लौटी. मेयर साहब शरद को मैडल पहना रहे थे. शरद की इस बड़ी उपलब्धि का सारा खोखलापन नजर आ रहा था. भीतर ही भीतर यह खोखलापन मुझे ही खोखला करता जा रहा था. अजय का अनुज को कुछ दे कर समझाना. शरद के पास बंदूक का होना. अनुज का शरद को गोली चलाने के लिए उकसाना. अचानक मेरे सामने से सारे रहस्य पर से परदा उठ गया. मैं स्तब्ध थी. प्रायश्चित्त का गहरा बवंडर घुमड़ रहा था जो मुझे निगलता जा रहा था. मेरा दम घुटने लगा. सामने टीवी पर अजय की फोटो दिखाई दी. नीचे लिखा था, ‘आतंक का अंत’. फिर मेरी बड़ी सी सुंदर तसवीर दिखाई जाने लगी और शीर्षक था ‘ममता की विजय’. मेरे पुत्रप्रेम और हिम्मत के कसीदे पढ़े जा रहे थे लेकिन मुझे मेरा चेहरा धीरेधीरे विकृत, फिर भयानक होता नजर आया. घबरा कर मैं ने पास रखे पेपरवेट को उठा कर टीवी पर जोर से फेंका और दूसरी ओर लुढ़क गई

Latest Hindi Stories : जिंदगी के रंग

Latest Hindi Stories : ‘‘बीबीजी…ओ बीबीजी, काम वाली की जरूरत हो तो मुझे आजमा कर देख लो न,’’ शहर की नई कालोनी में काम ढूंढ़ते हुए एक मकान के गेट पर खड़ी महिला से वह हाथ जोड़ते हुए काम पर रख लेने की मनुहार कर रही थी.

‘‘ऐसे कैसे काम पर रख लें तुझे, किसी की सिफारिश ले कर आई है क्या?’’

‘‘बीबीजी, हम छोटे लोगों की सिफारिश कौन करेगा?’’

‘‘तेरे जैसी काम वाली को अच्छी तरह देख रखा है, पहले तो गिड़गिड़ा कर काम मांगती हैं और फिर मौका पाते ही घर का सामान ले कर चंपत हो जाती हैं. कहां तेरे पीछे भागते फिरेंगे हम. अगर किसी की सिफारिश ले कर आए तो हम फिर सोचें.’’

cookery

ऐसे ही जवाब उस को न जाने कितने घरों से मिल चुके थे. सुबह से शाम तक गिड़गिड़ाते उस की जबान भी सूख गई थी, पर कोई सिफारिश के बिना काम देने को तैयार नहीं था.

कितनों से उस ने यह भी कहा, ‘‘बीबीजी, 2-4 दिन रख के तो देख लो. काम पसंद नहीं आए तो बिना पैसे दिए काम से हटा देना पर बीबीजी, एक मौका तो दे कर देखो.’’

‘‘हमें ऐसी काम वाली की जरूरत नहीं है. 2-4 दिन का मौका देते ही तू तो हमारे घर को साफ करने का मौका ढूंढ़ लेगी. ना बाबा ना, तू कहीं और जा कर काम ढूंढ़.’’

‘आज के दिन और काम मांग कर देखती हूं, यदि नहीं मिला तो कल किसी ठेकेदार के पास जा कर मजदूरी करने का काम कर लूंगी. आखिर पेट तो पालना ही है.’ मन में ऐसा सोच कर वह एक कोठी के आगे जा कर बैठ गई और उसी तरह बीबीजी, बीबीजी की रट लगाने लगी.

अंदर से एक प्रौढ़ महिला बाहर आईं. काम ढूंढ़ने की मुहिम में वह पहली महिला थीं, जिन्होंने बिना झिड़के उसे अंदर बुला कर बैठाते हुए आराम से बात की थी.

‘‘तुम कहां से आई हो? कहां रहती हो? कौन से घर का काम छोड़ा है? क्याक्या काम आता है? कितने रुपए लोगी? घर में कौनकौन हैं? शादी हुई है या नहीं?’’ इतने सारे प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी उन्होंने एकसाथ ही.

बातों में मिठास ला कर उस ने भी बड़े धैर्य के साथ उत्तर देते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मैं बाहर से आई हूं, मेरा यहां कोई घर नहीं है, मुझे घर का सारा काम आता है, मैं 24 घंटे आप के यहां रहने को तैयार हूं. मुझ से काम करवा कर देख लेना, पसंद आए तो ही पैसे देना. 24 घंटे यहीं रहूंगी तो बीबीजी, खाना तो आप को ही देना होगा.’’

उस कोठी वाली महिला पर पता नहीं उस की बातों का क्या असर हुआ कि उस ने घर वालों से बिना पूछे ही उस को काम पर रखने की हां कर दी.

‘‘तो बीबीजी, मैं आज से ही काम शुरू कर दूं?’’ बड़ी मासूमियत से वह बोली.

‘‘हां, हां, चल काम पर लग जा,’’ श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘तेरा नाम क्या है?’’

‘‘कमला, बीबीजी,’’ इतना बोल कर वह एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘बीबीजी, मेरा थोड़ा सामान है, जो मैं ने एक जगह रखा हुआ है. यदि आप इजाजत दें तो मैं जा कर ले आऊं,’’ उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘कितनी देर में वापस आएगी?’’

‘‘बस, बीबीजी, मैं यों गई और यों आई.’’

काम मिलने की खुशी में उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस ने अपना सामान एक धर्मशाला में रख दिया था, जिसे ले कर वह जल्दी ही वापस आ गई.

उस के सामान को देखते ही श्रीमती चतुर्वेदी चौंक पड़ीं, ‘‘अरे, तेरे पास ये बड़ेबड़े थैले किस के हैं. क्या इन में पत्थर भर रखे हैं?’’

‘‘नहीं बीबीजी, इन में मेरी मां की निशानियां हैं, मैं इन्हें संभाल कर रखती हूं. आप तो बस कोई जगह बता दो, मैं इन्हें वहां रख दूंगी.’’

‘‘ऐसा है, अभी तो ये थैले तू तख्त के नीचे रख दे. जल्दी से बर्तन साफ कर और सब्जी छौंक दे. अभी थोड़ी देर में सब आते होंगे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ कह कर उस ने फटाफट सारे बर्तन मांज कर झाड़ूपोंछा किया और खाना बनाने की तैयारी में जुट गई. पर बीबीजी ने एक पल को भी उस का पीछा नहीं छोड़ा था, और छोड़तीं भी कैसे, नईनई बाई रखी है, कैसे विश्वास कर के पूरा घर उस पर छोड़ दें. भले ही काम कितना भी अच्छा क्यों न कर रही हो.

उस के काम से बड़ी खुश थीं वह. उन की दोनों बेटियां और पति ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है, आज तो घर बड़ा चमक रहा है?’’

मिसेज चतुर्वेदी बोलीं, ‘‘चमकेगा ही, नई काम वाली कमला जो लगा ली है,’’ यह बोलते समय उन की आंखों में चमक साफ दिखाई दे रही थी.

‘‘अच्छी तरह देखभाल कर रखी है न, या यों ही कहीं से सड़क चलते पकड़ लाईं.’’

‘‘है तो सड़क चलती ही, पर काम तो देखो, कितना साफसुथरा किया है. अभी तो जब उस के हाथ का खाना खाओगे, तो उंगलियां चाटते रह जाओगे,’’ चहकते हुए मिसेज चतुर्वेदी बोलीं.

सब खाना खाते हुए खाने की तारीफ तो करते जा रहे थे पर साथ में बीबीजी को आगाह भी करा रहे थे कि पूरी नजर रखना इस पर. नौकर तो नौकर ही होता है. ऐसे ही ये घर वालों का विश्वास जीत लेते हैं और फिर सबकुछ ले कर चंपत हो जाते हैं.

यह सब सुन कर कमला मन ही मन कह रही थी कि आप लोग बेफिक्र रहें. मैं कहीं चंपत होने वाली नहीं. बड़ी मुश्किल से तो तुझे काम मिला है, इसे छोड़ कर क्या मैं यों ही चली जाऊंगी.

खाना वगैरह निबटाने के बाद उस ने बीबीजी को याद दिलाते हुए कहा, ‘‘बीबीजी, मेरे लिए कौन सी जगह सोची है आप ने?’’

‘‘हां, हां, अच्छी याद दिलाई तू ने, कमला. पीछे स्टोररूम है. उसे ठीक कर लेना. वहां एक चारपाई है और पंखा भी लगा है. काफी समय पहले एक नौकर रखा था, तभी से पंखा लगा हुआ है. चल, वह पंखा अब तेरे काम आ जाएगा.’’

उस ने जा कर देखा तो वह स्टोररूम तो क्या बस कबाड़घर ही था. पर उस समय वह भी उसे किसी महल से कम नहीं लग रहा था. उस ने बिखरे पड़े सामान को एक तरफ कर कमरा बिलकुल जमा लिया और चारपाई पर पड़ते ही चैन की सांस ली.

पूरा दिन काम में लगे रहने से खाट पर पड़ते ही उसे नींद आ गई थी, रात को अचानक ही नींद खुली तो उसे, उस एकांत कोठरी में बहुत डर लगा था. पर क्या कर सकती थी, शायद उस का भविष्य इसी कोठरी में लिखा था. आंख बंद की तो उस की यादों का सिलसिला शुरू हो गया.

आज की कमला कल की डा. लता है, एस.एससी., पीएच.डी.. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कितने बड़े घर में उस का जन्म हुआ था. मातापिता ने उसे कितने लाड़प्यार से पाला था. 12वीं तक मुरादाबाद में पढ़ाने के बाद उस की जिद पर पिता ने उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए भेज दिया था. गुणसंपन्न (मेरिटोरिअस) छात्रा होने के कारण उसे जल्द ही हास्टल में रहने की भी सुविधा मिल गई थी.

लता ने बी.एससी. बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की. फिर वहीं से एस.एससी. बौटनी कर लिया. पढ़ाई के अलावा वह दूसरी गतिविधियों में भाग लेती थी. भाषण और वादविवाद के लिए जब वह मंच पर जाती थी तो श्रोताओं के दिलोदिमाग पर अपनी छाप छोड़ जाती थी. उस के अभिनय का तो कोई जवाब ही नहीं था, यूनिवर्सिटी में होने वाली नाटकप्रतियोगिताओं में उस ने कई बार प्रथम स्थान प्राप्त किया था. बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से ही लता ने एम.फिल और पीएच.डी. भी कर ली थी.

पीएच.डी. पूरी करने के बाद उस ने मुंबई विश्वविद्यालय में लेक्चरर पद के लिए आवेदन किया था. वह इंतजार कर रही थी कि कब साक्षात्कार के लिए पत्र आए, तभी एक दिन अचानक घटी एक घटना ने उसे आसमान से जमीन पर पटक दिया.

एक रात घर में सभी लोग सोए हुए थे कि अचानक कुछ लोगों ने हमला बोल दिया. उस की आंखों के सामने उन्होंने उस के मातापिता को गोलियों से भून डाला. भाई ने विरोध किया तो उसे भी गोली मार दी गई. वह इतना डर गई कि अपनी जान बचाने के लिए पलंग के नीचे छिप गई.

अपने सामने अपनी दुनिया को बरबाद होते देखती रही, बेबस लाचार सी, पर कुछ भी नहीं बोल पाई थी वह. ये लोग पिता के किसी काम का बदला लेने आए थे. पिता की पुश्तैनी लड़ाई चल रही थी. कितने ही खून हो चुके थे इस बारे में.

6 लोगों के सामने वह कर भी क्या सकती थी. पलंग के नीचे छिपी वह अपने आप को सुरक्षित अनुभव कर रही थी. पिता ने कभीकभार सुनाई भी थीं ये बातें. अत: उसे कुछ आभास सा हो गया था कि ये लोग कौन हो सकते हैं. उस के जेहन में पिता की कही बातें याद आ रही थीं.

डर का उस ने अपने को और सिकोड़ने की कोशिश की तो उन में से एक की नजर उस पर पड़ गई और उस ने पैर पकड़ कर उसे पलंग के नीचे से खींच लिया और चाकू से उस पर वार करने जा रहा था कि उस के एक साथी ने उस का हाथ पकड़ कर मारने से रोक दिया.

‘लड़की, हम क्या कर सकते हैं यह तो तू ने देख ही लिया है. इस घर का सारा कीमती सामान हम ले कर जा रहे हैं. चाहें तो तुझे भी मार सकते हैं पर तेरे बाप से बदला लेने के लिए तुझे जिंदा छोड़ रहे हैं कि तू दरदर घूम कर भीख मांगे और अपने बाप के किए पर आंसू बहाए. हमारे पास समय कम है. हम जा रहे हैं पर कल इस मकान में तेरा चेहरा देखने को न मिले. अगर दिखा तो तुझे भी तेरे बाप के पास भेज देंगे,’ इतना कह कर वे सभी अंधेरे में गुम हो गए.

अब सबकुछ शांत था. कमरे में उस के सामने खून से लथपथ उस के परिवार के लोगों की मृत देह पड़ी थी. वह चाह कर भी रो नहीं सकती थी. घड़ी पर नजर पड़ी तो रात के सवा 3 बजे थे. लता का दिमाग तेजी से चल रहा था. उस के रुकने का मतलब है पुलिस के सवालों का सामना करना. अदालत में जा कर वह अपने परिवार के कातिलों को सजा दिला पाएगी. इस में उसे संदेह था क्योंकि भ्रष्ट पुलिस जब तक कातिलों को पकड़ेगी तब तक तो वे उसे मार ही डालेंगे.

उस ने अपने सारे सर्टिफिकेट और अपनी किताबें, थीसिस, 4 जोड़ी कपड़े थैली में भर कर घर से निकलने का मन बना लिया, पापा और मम्मी ने उसे जेब खर्च के लिए जो रुपए दिए वे उस ने किताबों के बीच में रखे थे. उन पैसों का ध्यान आया तो वह कुछ आस्वस्त हुई.

किसी की हंसतीखेलती दुनिया ऐसे भी उजड़ सकती है, ऐसी तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. फिर भी चलने से पहले पलट कर मांबाप और भाई के बेजान शरीर को देखा तो आंखों से आंसू टपक पड़े. फिर पिता के हत्यारे की कही बातें याद आईं तो वह तेजी से निकल गई. चौराहे तक इतने सारे सामान के साथ वह भागती गई थी. उस में पता नहीं कहां से इतनी ताकत आ गई थी. शायद हत्यारों का डर ही उसे हिम्मत दे रहा था, वहां से दूर भागने की.

लता ने सोचा कि किसी रिश्तेदार के यहां जाने से तो अच्छा है, जहां नौकरी के लिए आवेदन कर रखा है वहीं चली जाती हूं. आखिर छात्र जीवन में की गई एक्ंिटग कब काम आएगी. किसी के यहां नौकरानी बन कर काम चला लूंगी. जब तक नौकरी नहीं मिलेगा, किसी धर्मशाला में रह लूंगी. मुंबई जाते समय उसे याद आया कि उस की रूम मेट सविता की मामी मुंबई में ही रहती हैं.

एक बार सविता से मिलने उस की मामी होस्टल में आई थीं तो उन से लता की भी अच्छी जानपहचान हो गई थी. उस ने योजना बनाई कि धर्मशाला में सामान रख कर पहले वह सविता की मामी के यहां जा कर बात करेगी, क्योंकि उस ने मुंबई विश्वविद्यालय के फार्म पर मुरादाबाद का पता लिखा है और वहां के पते पर इंटरव्यू लेटर जाएगा तो इस की सूचना उसे किस तरह मिलेगी.

टे्रन से उतरने के बाद लता स्टेशन से बाहर आई और कुछ ही दूरी पर एक धर्मशाला में अपने लिए कमरा ले कर थैले में से उस डायरी को निकालने लगी जिस में सविता की मामी का पता उस ने लिख रखा था. फिर उस किताब में से रुपए ढूंढ़े और सविता की मामी के घर पहुंच गई.

मामी के सामने अपनी असलियत कैसे बताती इसलिए उस ने कहा कि उस की मुंबई में नौकरी लग गई है, लेकिन स्थायी पते का चक्कर है इसलिए मैं आप के घर का पता विश्वविद्यालय में लिखा देती हूं.

वहां से लौट कर काम की तलाश करते लता को श्रीमती चतुर्वेदी ने काम पर रख लिया था. वैसे लता मुंबई में किसी प्राइवेट कालिज में कोशिश कर के नौकरी पा सकती थी, पर एक तो प्राइवेट कालिजों में तनख्वाह कम, ऊपर से किराए का मकान ले कर रहना, खाने का जुगाड़, बिजली, पानी का बिल चुकाना, यह सब उस थोड़ी सी तनख्वाह में संभव नहीं था. दूसरे, वह अभी उस घटना से इतनी भयभीत थी कि उस ने 24 घंटे की नौकरानी बन कर रहना ही अच्छा समझा.

इस तरह लता से कमला बनी वह रोज सुबह उठ कर काम में लग जाती. दिन भर काम करती हुई उस ने बीबीजी और सभी घर वालों का मन मोह लिया था. कमला के लिए अच्छी बात यह थी कि वह लोग शाम का खाना 5 बजे ही खा लेते थे, इसलिए सारा काम कर के वह 7 बजे फ्री हो जाती थी.

काम से निबट कर वह अपने छोटे से कमरे में पहुंच जाती और फिर सारी रात बैठ कर इंटरव्यू की तैयारी करती. वैसे छात्र जीवन में वह बहुत मेहनती रही थी, इसलिए पहले से ही काफी अच्छी तैयारी थी. लेकिन फिर भी मुंबई विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति पाना और वह भी बिना किसी सिफारिश के बहुत ही मुश्किल था. वह तो केवल अपनी योग्यता के बल पर ही इंटरव्यू में पास होने की तैयारी कर रही थी. आत्मविश्वास तो उस में पहले से ही काफी था. दिल्ली विश्वविद्यालय में भी उस ने कितने ही सेमिनार अटेंड किए थे. अब तो वह बस, सारे कोर्स रिवाइज कर रही थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के घर 4 दिन उस के बहुत अच्छे गुजरे. 5वें दिन धड़कते दिल से उस ने पूछा, ‘‘आप ने क्या सोचा बीबीजी, मुझे काम पर रखना है या हटाना है?’’

‘‘मान गई लता मैं तुम्हें, क्या एक्ंिटग की थी तुम ने, कह रही थी कि मुझे लाइट बिना नींद ही नहीं आती. लेकिन लता, सच में मुझे बहुत खुशी हो रही है…हम सभी को, कितने संघर्ष के बाद तुम इतने ऊंचे पद पर पहुंचीं. सच, तुम्हारे मातापिता धन्य हैं, जिन्होंने तुम जैसी साहसी लड़की को जन्म दिया.’’

‘‘पर बीबीजी…ओह, नहीं आंटीजी, मैं तो आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी, यदि आप ने मुझे शरण नहीं दी होती तो मैं कैसे इंटरव्यू की तैयारी कर पाती? मैं जहां भी रहूंगी, इस परिवार को सदैव याद रखूंगी.’’

‘‘क्या कह रही है…तू कहीं नहीं रहेगी, यहीं रहेगी तू, सुना तू ने, जहां मेरी 2 बेटियां हैं, वहीं एक बेटी और सही. अब तक तू यहां कमला बनी रही, पर अब लता बन कर हमारे साथ हमारे ही बीच रहेगी. अब तो जब तेरी डोली इस घर से उठेगी तभी तू यहां से जाएगी. तू ने जिंदगी के इतने रंग देखे हैं, बेटी उन में एक रंग यह भी सही.’’

खुशी के आंसुओं के बीच लता ने अपनी सहमति दे दी थी.

Moral Stories in Hindi : राजीव और उसके परिवार को कौनसी मिली नई खुशियां

Moral Stories in Hindi : ‘‘देखो, शालिनी, मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि यदि साल में एक बार तुम से पैसे मांगूं तो तुम मुझ से लड़ाई मत किया करो.’’ ‘‘साल में एक बार? तुम तो एक बार में ही इतना ज्यादा हार जाते हो कि मैं सालभर तक चुकाती रहती हूं.’’

शालिनी की व्यंग्यभरी बात सुन कर राजीव थोड़ा झेंपते हुए बोला, ‘‘अब छोड़ो भी. तुम्हें तो पता है कि मेरी बस यही एक कमजोरी है और तुम्हारी यह कमजोरी है कि इतने सालों में भी मेरी इस कमजोरी को तुम दूर नहीं कर सकीं.’’ राजीव के तर्क को सुन कर शालिनी भौचक्की रह गई. राजीव जब चला गया तो शालिनी सोचने लगी कि उस के जीवन की शुरुआत ही कमजोरी से हुई थी. एमए का पहला साल भी वह पूरा नहीं कर पाई थी कि उस के पिता ने राजीव के साथ उस की शादी की बात तय कर दी. राजीव पढ़ालिखा था और देखने में स्मार्ट भी था.

सब से बड़ी बात यही थी कि उस की 40 हजार रुपए महीने की आमदनी थी. शालिनी ने तब सोचा था कि वह अपने मातापिता से कहे कि वे उसे एमए पूरा कर लेने दें, पर राजीव को देखने के बाद उसे स्वयं ऐसा लगा था कि बाद में शायद ऐसा वर न मिले. बस, वहीं से शायद राजीव के प्रति उस की कमजोरी ने जन्म लिया था. उसे आज लगा कि विवाह के बाद भी वह राजीव की मीठीमीठी बातों व मुसकानों से क्यों हारती रही.

शादी के बाद शालिनी की वह पहली दीवाली थी. सुबहसुबह ही जब राजीव ने उस से कहा कि 10 हजार रुपए निकाल कर लाना तो शालिनी चकित रह गई थी कि कभी भी 1-2 हजार रुपए से ज्यादा की मांग न करने वाले राजीव ने आज इतने रुपए क्यों मांगे. शालिनी ने पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘लाओ यार,’’ राजीव हंस कर बोला था, ‘‘जरूरी काम है. शाम को काम भी बता दूंगा.’’ राजीव की रहस्यपूर्ण मुसकराहट देख कर शालिनी ने समझा था कि वह शायद उस के लिए नई साड़ी लाएगा. शालिनी दिनभर सुंदर कल्पनाएं करती रही. पर जब शाम के 7-8 बजने पर भी राजीव घर नहीं लौटा तो दुश्चिंताओं ने उसे आ घेरा. तरहतरह के बुरे विचार उस के मन में आने लगे, ‘कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई. किसी ने राजीव की बाइक के आगे पटाखे छोड़ कर उसे घायल तो नहीं कर दिया.’

8 बजने के बाद इस विचार से कि घर की दहलीज सूनी न रहे, उस ने 4 दीए जला दिए. पर उस का मन भयानक कल्पनाओं में ही लगा रहा. पूरी रात आंखों में कट गई पर राजीव नहीं आया. हड़बड़ा कर जब वह सुबह उठी थी तो अच्छी धूप निकल आई थी और उस ने देखा कि दूसरे पलंग पर राजीव सोया पड़ा है. उस के पास पहुंची, पर तुरंत ही पीछे भी हट गई. राजीव की सांसों से शराब की बू आ रही थी. तभी शालिनी को रुपयों का खयाल आया. उस ने राजीव की सभी जेबें टटोल कर देखीं पर सभी खाली थीं.

‘तो क्या किसी ने राजीव को शराब पिला कर उस के रुपए छीन लिए?’ उस ने सोचा. पर न जाने कितनी देर फिर वह वहीं खड़ीखड़ी शंकाओं के समाधान को ढूंढ़ती रही थी और आखिर में यह सोच कर कि उठेंगे तब पूछ लूंगी, वह काम में लग गई थी. दोपहर बाद जब राजीव जागा तो चाय देते समय शालिनी ने पूछा, ‘‘कहां थे रातभर? डर के मारे मेरे प्राण ही सूख गए थे. तुम हो कि कुछ बताते भी नहीं. क्या तुम ने शराब पीनी भी शुरू कर दी? वे रुपए कहां गए जो तुम किसी खास काम के लिए ले गए थे?’’

शालिनी ने सोचा था कि राजीव झेंपेगा, शरमाएगा, पर उसे धोखा ही हुआ. शालिनी की बात सुन कर राजीव मुसकराते हुए बोला, ‘‘धीरेधीरे, एकएक सवाल पूछो, भई. मैं कोई साड़ी खरीदने थोड़े ही गया था.’’ ‘‘क्या?’’ शालिनी चौंक कर बोली थी.

‘‘चौंक क्यों रही हो? हर साल हम एक दीवाली के दिन ही तो बिगड़ते हैं.’’ ‘‘तो तुम जुआ खेल कर आ रहे हो? 10 हजार रुपए तुम जुए में हार गए?’’ वह दुखी होते हुए बोली थी.

तब राजीव ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा था, ‘‘अरे यार, सालभर में एक ही बार तो रुपया खर्च करता हूं. तुम तो साल में 5-6 हजार रुपयों की 4-5 साड़ीयां खरीद लेती हो.’’ शालिनी ने सोचा कि थोड़ी  ढील दे कर भी वह राजीव को ठीक कर लेगी, पर यही उस की दूसरी कमजोरी साबित हुई.

पहले 10 हजार रुपए पर ही खत्म हो जाने वाली बात 20 हजार रुपए तक पहुंच गई, जिसे चुकाने के लिए अगली दीवाली आ गई थी. पिछली बार तो उस ने छिपा कर बच्चों के लिए 10 हजार रुपए रखे थे, पर राजीव उन्हीं को ले कर चल दिया. जब राजीव रुपए ले कर जाने लगा तो शालिनी ने उसे टोकते हुए कहा था, ‘कम से कम बच्चों के लिए ही इन रुपयों को छोड़ दो,’ पर राजीव ने उस की एक न मानी.

उसी दिन शालिनी ने सोच लिया था कि अगली दीवाली पर इस मामले को वह निबटा कर ही रहेगी.

शाम को 5 बजे राजीव लौटा. बच्चों ने उसे खाली हाथ देखा तो निराश हो गए, पर बोले कुछ नहीं. शालिनी ने उन्हें बता दिया था कि पटाखे उन्हें किसी भी हालत में दीए जलने से पहले मिल जाएंगे. राजीव ने पहले कुछ देर तक इधरउधर की बातें कीं, फिर शालिनी से पूछा, ‘‘क्यों, हमारी मां के घर से आए हुए पटाखे यों ही पड़े हैं न?’’

शालिनी ने कहा, ‘‘पड़े थे, हैं नहीं.’’ ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मैं ने कामवाली के बच्चों को दे दिए.’’ ‘‘पर क्यों?’’

‘‘उस के आदमी ने उस से रुपए छीन लिए थे.’’ राजीव ने कुछ सोचा, फिर बोला, ‘‘ओहो, तो यह बात है. घुमाफिरा कर मेरी बात पर उंगली रखी जा रही है.’’

‘‘देखो, राजीव, मैं ने आज तक कभी ऊंची आवाज में तुम्हारा विरोध नहीं किया. तुम्हें खुद ही मालूम है कि तुम्हारी आदतें क्याक्या गजब ढा सकती हैं.’’ शालिनी की बात सुन कर राजीव झुंझला कर बोला, ‘‘ठीक है, ठीक है. मुझे सब पता है. अभी तुम्हारा बिगड़ा ही क्या है? तुम्हें किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ा है न?’’

शालिनी ने कहा, ‘‘यही तो डर है. कल कहीं मुझे कामवाली की तरह किसी और के सामने हाथ न फैलाना पड़े.’’ ऐसा कह कर शालिनी ने शायद राजीव की कमजोर रग पर हाथ रख दिया था. वह बोला, ‘‘बकवास बंद करो. पता भी है क्या बोल रही हो? जरा से रुपयों के लिए इतनी कड़वी बातें कह रही हो.’’ ‘‘जरा से रुपए? तुम्हें पता है कि साल में एक बार शराब पी कर बेहोशी में तुम हजारों खो कर आते हो. तुम्हें तो बच्चों की खुशियां छीन कर दांव पर लगाने में जरा भी हिचक नहीं होती. हमेशा कहते हो कि साल में एक बार ही तुम्हारे लिए दीवाली आती है. कभी सोचा है कि मेरे और बच्चों के लिए भी दीवाली एक बार ही आती है? कभी मनाई है कोई दीवाली तुम ने हमारे साथ?’’ शालिनी के मुंह से कभी ऐसी बातें न सुनने वाला राजीव पहले तो हक्काबक्का खड़ा रहा. फिर बिगड़ कर बोला, ‘‘अगर तुम मुझे रुपए न देने के इरादे पर पक्की हो तो मैं भी अपने मन की करने जा रहा हूं.’’ और जब तक शालिनी राजीव से कुछ कहती, वह पहले ही मोटरसाइकिल निकालने चला गया.

शालिनी सोचने लगी कि इन 11 सालों में भी वह नहीं समझ पाई कि हमेशा मीठे स्वरों में बोलने वाला राजीव इस तरह एक दिन में बदल सकता है. ‘कहीं राजीव दीवाली के दिन दोस्तों के सामने बेइज्जती हो जाने के डर से तो नहीं खेलता. लगता है अब कोई दूसरा ही तरीका अपनाना पड़ेगा,’ शालिनी ने तय किया.

उधर मोटरसाइकिल निकालने जाता हुआ राजीव सोच रहा था, ‘वह क्या करे? पटाखे ला कर देगा तो उस की नाक कट जाएगी. शालिनी रुपए भी नहीं देगी, उसे इस का पता था. अचानक उसे अपने मित्र अक्षय की याद आई. क्यों न उस से रुपए लिए जाएं.’ वह मोटरसाइकिल बाहर निकाल लाया. तभी ‘‘कहीं जा रहे हैं क्या?’’ की आवाज सुन कर राजीव चौंका. उस ने देखा, सामने से अक्षय की पत्नी रमा और उस के दोनों बच्चे आ रहे हैं.

‘‘भाभी, तुम? आज के दिन कैसे बाहर निकल आईं?’’ उस ने मन ही मन खीझते हुए कहा. ‘‘पहले अंदर तो बुलाओ, सब बताती हूं,’’ अक्षय की पत्नी ने कहा.

‘‘हां, हां, अंदर आओ न. अरे इंदु, प्रमोद, देखो तो कौन आया है,’’ मोटरसाइकिल खड़ी करते हुए राजीव बोला. इंदु, प्रमोद भागेभागे बाहर आए. शालिनी भी आवाज सुन कर बाहर आ गई, ‘‘रमा भाभी, तुम, भैया कहां हैं?’’

‘‘बताती हूं. पहले यह बताओ कि क्या तुम लोग एक दिन के लिए मेरे बच्चों को अपने घर में रख सकते हो?’’ शालिनी ने तुरंत कहा, ‘‘क्यों नहीं. पर बात क्या है?’’

रमा ने उदास स्वर में कहा, ‘‘बात यह है शालिनी कि तुम्हारे भैया अस्पताल में हैं. परसों उन का ऐक्सिडैंट हो गया था. दोनों टांगों में इतनी चोटें आई हैं कि 2 महीने तक उठ कर खड़े नहीं हो सकेंगे. और सोचो, आज दीवाली है.’’

राजीव ने घबरा कर कहा, ‘‘इतनी बड़ी बात हो गई और आप ने हमें बताया तक नहीं?’’ रमा ने कहा, ‘‘तुम्हें तो पता ही है कि मेरे जेठजेठानी यहां आए हुए हैं. अब ये अस्पताल में पड़ेपड़े कह रहे हैं कि पहले ही मालूम होता तो उन्हें बुलाता ही नहीं. कहते हैं तुम लोग जा कर घर में रोशनी करो. मेरा तो क्या, किसी का भी मन इस बात को नहीं मान रहा.’’

राजीव और शालिनी दोनों ही जब चुपचाप खड़े रहे तो रमा ही फिर बोली, ‘‘अब मैं ने और उन के भैया ने कहा कि हमारा मन नहीं है तो वे कहने लगे, ‘‘मैं क्या मर गया हूं जो घर में रोशनी नहीं करोगी? आखिर थोड़ी सी चोटें ही तो हैं. बच्चों के लिए तो तुम्हें करना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं सोचती रही कि क्या करूं. तुम लोगों का खयाल आया तो बच्चों को यहां ले आई. तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’’ इंदु, जो रमा की बातें ध्यान से सुन रही थी, राजीव से बोली, ‘‘पापा, आप राकेश, पिंकी के लिए भी पटाखे लाएंगे न?’’

राजीव चौंक कर बोला, ‘‘हां, हां. जरूर लाऊंगा.’’ राजीव ने कह तो दिया था, पर उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. वह इसी उधेड़बुन में था कि शालिनी अंदर से रुपए ला कर उस के हाथों में रखती हुए बोली, ‘‘जल्दी लौटिएगा.’’ तभी इंदु बोली, ‘‘पापा, आप को अपने दोस्त के घर जाना है न.’’

‘दोस्त के घर,’ राजीव ने चौंक कर इंदु की ओर देखा, ‘‘हां पापा, मां कह रही थीं कि आप के एक दोस्त के हाथ और पैर टूट गए हैं, वहीं आप उन के लिए दीवाली मनाने जाते हैं.’’ राजीव को समझ में नहीं आया कि क्या कहे. उस ने शालिनी को देखा तो वह मुसकरा रही है.

मोटरसाइकिल चलाते हुए राजीव का मन यही कह रहा था कि वह चुपचाप अपनी मित्रमंडली में चला जाए, पर तभी उसे अक्षय की बातें याद आ जातीं. राजीव सोचने लगा कि एक अक्षय है जो अस्पताल में रह कर भी बच्चों की दीवाली की खुशियों को ले कर चिंतित है और एक मैं हूं जो बच्चों को दीवाली मनाने से रोक रहा हूं. शालिनी भी जाने क्या सोचती होगी मेरे बारे में? उस ने बच्चों से उन के पिता की गलती छिपाने के लिए कितनी अच्छी कहानी गढ़ कर सुना रखी है. मोटरसाइकिल का हौर्न सुन कर सब बच्चे भाग कर बाहर आए तो देखा आतिशबाजियां और मिठाई लिए राजीव खड़ा है.

प्रमोद कहने लगा, ‘‘इंदु, इतनी सारी आतिशबाजियां छोड़ेगा कौन?’’ ‘‘ये हम और तुम्हारी मां छोड़ेंगे,’’ राजीव ने कहा और दरवाजे पर आ खड़ी हुई शालिनी को देखा जो जवाब में मुसकरा रही थी.

शालिनी ने शरारत से पूछा, ‘‘रुपए दूं, अभी तो रात बाकी है?’’ राजीव ने जब कहा, ‘‘सचमुच दोगी?’’ तो शालिनी डर गई. तभी राजीव शालिनी को अपने निकट खींचते हुए बोला, ‘‘मैं कह रहा था कि रुपए दोगी तो बढि़या सा एक खाता तुम्हारे नाम से किसी बैंक में खुलवा दूंगा.’’

Best Hindi Stories : एक से बढ़कर एक – दामाद सुदेश ने कैसे बदली ससुरजी की सोच

Best Hindi Stories : दरवाजेकी बैल बजाने के बजाय दरवाजा खटखटाने की आवाज सुन कर और आने वाली की पुकार सुन कर मैं सम झ गया कि कौन आया है. मैं ने कहा, ‘‘अरे भई जरा ठहरो… मैं आ रहा हूं,’’ बैठेबैठे ही मैं ने आने वाले से कहा.

यह सुन कर मेरी पत्नी बोली, ‘‘लगता है भाई साहब आए हैं,’’ कहते हुए उस ने ही दरवाजा खोल दिया.

‘‘आइए भाई साहब, बहुत दिनों बाद आज हमारी याद आई है.’’

‘‘भाभीजी, मैं आज एक खास काम से आप के पास आया हूं. लेकिन पहले चाय पिलाइए.’’

नंदा से चाय की फरमाइश की है तो मैं सम झ गया कि आज जरूर उस का कोई काम है. मैं ने अपने सामने रखे सारे कागजात उठा कर रख दिए, क्योंकि उस के आने की मु झे भी बड़ी खुशी हुई थी.

‘‘हां. बोलो क्या काम है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘देखो राजाभाई, मैं चित्रा की शादी पक्की करने जा रहा हूं. लड़का अच्छा है और घरबार भी ठीकठाक है… मु झे रुपयों की कोई कमी नहीं है. मेरी सिर्फ 2 बेटियां हैं. मेरा सबकुछ उन्हीं का तो है. मैं उन्हें बहुत कुछ दूंगा. सच है कि नहीं? फिर भी लड़के की ज्यादा जानकारी तो मालूम करनी ही पड़ेगी और वही काम ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूं.’’

दादाजी की बेटी चित्रा सचमुच बहुत सुंदर और भली लड़की थी. अमीरी में पल कर भी बहुत सीधीसादी थी. हम दोनों को हमेशा यही सवाल सताता कि चित्रा की मां बड़े घर की बेटी. मायके से खूब धनदौलत ले कर आई थी और हमेशा अपना बड़प्पन जताने वाली. उस की पढ़ाईलिखाई ज्यादा नहीं हुई थी और उसे न कोई शौक था, न किसी कला का ज्ञान. वह अपनी अमीरी के सपनों में खोने वाली और इसीलिए उस की मेरी पत्नी से जमी नहीं.

‘‘देख, राजाभाई, मेरे पास दौलत की कोई कमी नहीं है और मेरी बेटी भी अच्छी है. तो हमें अच्छा दामाद तो मिलना ही चाहिए.’’

‘‘हां भई हां. तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो. तुम्हारा देखा हुआ लड़का जरूर अच्छा ही होगा.’’

मैं उस के शब्द सुन कर चौंक पड़ा. बार रे बाप. क्या मैं फिर से ऐसे ही फंसूंगा? मेरे मन में विचार आया.

‘‘राजाभाई, लड़का तुम्हारी जानकारी में है. तुम्हारी चचेरी साली का बेटा, जो सदाशिव पेठ में रहता है.’’

इस पर मैं ने और नंदा ने एकदूसरे की तरफ देखा. हाल ही में हम ने एक शादी तय करने में योगदान दिया था. अब इस दोस्त से क्या कहूं? मैं वैसे ही उठ खड़ा हुआ और सुदेश का खत अलमारी से निकाल कर उसे दे दिया.

‘‘दादाजी, तुम्हारी चित्रा की शादी तय हो रही है, यह सुन कर हम दोनों को बहुत खुशी हो रही है. चित्रा बड़ी गुणी लड़की है. अत: उसे अच्छी ससुराल मिलनी चाहिए यही हमारी भी तमन्ना है. लेकिन अब पहले जैसी परिस्थितियां नहीं रही है. आजकल हर घर में 1-2 बच्चे… अपनी बच्चियों को मांबाप खूब धनदौलत देते हैं. तुम्हारे जैसे धनवान सिर्फ देते ही नहीं, बल्कि उस का बोलबोला भी करते हैं.

‘‘बारबार कह कर दिखाते हैं कि हम ने बेटी को इतना दिया, उतना दिया. यह बात किसी को पसंद आती है तो किसी को नहीं और लगता है कि उस का अपमान किया जा रहा है. इस पर वे क्या करते हैं, वह अब तुम्हीं इस खत में पढ़ लो. मैं क्या कहना चाहता हूं वह तुम सम झ जाओगे-

‘‘माननीय काकाजी को नमस्कार. मैं यह पत्र जानबू झ कर लिख रहा हूं, क्योंकि आज या कल कुछ बातें आप को मालूम होंगी, तो उस के कारण आप को पहले ही ज्ञात कराना चाहूंगा. पिछले कुछ दिनों से मैं बहुत परेशान हूं. फिर आप कहेंगे कि पहले क्यों नहीं बताया. जो कुछ घटित हुआ है उस समस्या का हल मु झे ही निकालना था.

‘‘हो सकता है मेरा निकाला हुआ हल आप को पसंद न आए. आप को कोई दोष न दे, यही मेरी इच्छा है. आप ने हमारी शादी तय करने में बड़ा योगदान दिया है. वैसे शादियां तय कराना आप का सामाजिक कार्य है. लेकिन कभीकभी ऐसा भी हो सकता है यह बतलाने के लिए ही यह पत्र लिख रहा हूं.

‘‘शादी के बाद मैं अपनी पत्नी के साथ उस के मायके जाया करता था. लेकिन हर बार किसी न किसी कारण वहां से नाराज हो कर ही लौटता था.

‘‘सासूमां अकसर कहतीं कि आप ने जो पैंट पहनी है, वह हम ने दी थी. वही है न? हां, क्या कभी अपनी पत्नी को कोई साड़ी दिलाई या जो हम ने दी थी उसी से काम चलाते हो?

‘‘फिर अपनी बेटी से पूछतीं कि बेटी क्या कोई नया गहना बनवाया या नहीं या गहने भी हमारे दिए हुए ही हैं. गले में अभी तक मामूली मंगलसूत्र ही है. क्या मैं दूं अपने गले का निकाल कर? मैं देख रही थी कि तेरे ससुराल वाले कुछ करते भी हैं या नहीं.

‘‘मेरी सास हमारे घर में आती तब भी वही ढाक के तीन पात. यह थाली हमारी दी हुई है न. यह सैट इतनी जल्दी क्यों निकाला है.

‘‘वह दूरदूर के रिश्तेदारों को हमारा घर दिखाने लातीं और बतातीं कि बेटी की गृहस्थी के लिए हम ने सबकुछ दिया है.

‘‘सुबह होते ही सास का फोन आता कि क्या तुम अभी तक उठी नहीं हो. आज खाने में क्या बना रही हो? खाना बनाने के लिए नौकरानी क्यों नहीं रख लेती. तुम अपनी सास से कह दो कि मैं ने कभी खाना बनाया नहीं है और मेरी मां को भी इस की आदत नहीं है. अगर तुम नौकरानी नहीं रख सकती तो मु झे बताओ, मैं एक नौकरानी तुम्हारे लिए भेज दूंगी, जो तुम्हारे सारे काम कर लेगी?

‘‘हमारी नईनई शादी हुई थी. सो अकसर फिल्म देखने जाते, तो फिर बाहर होटल में ही खाना खा लेते. तो कभी शौपिंग के लिए निकल पड़ते. शुरूशुरू में यह बात मु झे चुभी नहीं. मेरे मातापिता, भैयाभाभी कौन हमें सम झाता? मां तो मेरी बिलकुल सीधीसादी. उस ने देखा कि उस का बेटा यानी मैं तो हूं पूरा गोबर गणेश, फिर अपनी बीवी को क्या सम झाऊंगा. घर में होने वाली कलह से बचने के लिए उस ने मेरी अलग गृहस्थी बसाई. हम दोनों को उस पर बहुत गुस्सा आया, लेकिन इस से मेरी आंखें पूरी तरह खुल गईं.

‘‘सिर्फ मीठीमीठी बातें और अच्छे शानदार कपड़े पहनने से पेट तो नहीं भरता. मेरी पत्नी को तो दालचावल भी बनाना नहीं आता था. पहले जब मैं ससुराल जाता तो मेरी सास बतातीं कि यह पूरनपूरी नीतू ने ही बनाई है. आज का सारा खाना उसी ने बनाया है. आप को गुलाबजामुन पसंद हैं न, वे भी उसी ने बनाए हैं.

‘‘मेरे घर में मां और भाभी होने के कारण मेरी पत्नी को क्याक्या बनाना आता है, इस का पता ही नहीं चला. उसे पूरनपूरी तो क्या सादी चपाती भी बनाना नहीं आता था. अगर अपनी मां से पूछ कर कुछ बनाना है तो पूछे कैसे? हमारे घर में फोन ही नहीं था. सबकुछ मुश्किल.

‘‘हमारे यहां फोन नहीं था तो उस के मांबाप हमेशा घर में आते कहते कि हमेशा बाहर की चीजें ला कर खाते रहते. मेरी नाराजगी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. जब तक हमारी गृहस्थी अलग नहीं थी, तब सारा खर्च पिताजी और भाईसाहब उठाते थे.

‘‘इसलिए यह बो झ मेरे सिर पर कभी नहीं आया. पैसा कैसे खर्च किया जाए, मितव्ययित कैसे की जाए, मु झे इस का बिलकुल ज्ञान नहीं था. होटल में खाना, घूमना, मौजमस्ती तथा शौपिंग में ही मेरी सारी कमाई खर्च हो जाती थी. पिताजी से पैसा मांगना भी मु झे अच्छा नहीं लगता था. मां मेरी इस मजबूरी को सम झती थीं, इसलिए वे अपने साथसाथ मेरे घर के लिए भी राशन का इंतजाम कर देती थीं.

‘‘अब मु झे जीवन की असलियत का पता चलने लगा था. नईनई शादी की मौजमस्ती अब खत्म हो चली थी. इस से उबरने के लिए अब हमें अपना रास्ता खोज निकालना था और यही सोच कर मैं ने नीतू को सब बातें ठीक से सम झाने का फैसला कर लिया.

‘‘उसी समय शहर से जरा दूर पिताजी का एक प्लाट था. वे उसे मु झे देने वाले हैं यह बात उन्होंने मेरे ससुर को बताई तो उन्होंने घर बनाने के लिए रुपया दिया. हम सब से जरा दूर रहने के लिए गए, इसलिए बहुत से सवाल अपनेआप हल हो जाएंगे. अत: बंगला बनने तक मैं खामोश रहा.

‘‘नए घर में रहने के लिए जाने के बाद मैं ने अपनी पत्नी को सम झाया कि अब मेरी कमाई में ही घर का सारा खर्च चलाना है. उस ने मितव्ययिता शुरू कर दी. हमारा बाहर घूमनाफिरना बंद हो गया. शुरुआत में उसे घर के काम करने में बड़ी दिक्कत आती. इसलिए मैं भी उसे सहायता करता था. धीरेधीरे उस ने खाना बनाना सीख लिया. शहर से जरा दूर होने से अब मेरे सासससुर का आनाजाना जरा कम हो गया था. लेकिन सास जब कभी हमारे घर आतीं, तो फिर शुरू हो जाती कि नीतू तुम कैसे अपनी गृहस्थी चलाती हो. तुम्हारे घर में यह चीज नहीं है, वह चीज नहीं है.

‘‘इस पर नीतू अपनी मां को जवाब देती कि मां तुम्हारी गृहस्थी को कितने साल हो गए? मैं तुम्हारी उम्र की हो जाऊंगी तो मेरे पास भी वे सारी चीजें हो जाएंगी.

‘‘मु झे न बता कर मेरी सास हमारे लिए कोई चीज ले कर आती और कहतीं कि सुदेश बेटा, देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाई हूं. तुम्हारे पास यह चीज नहीं थी, इसलिए ले आई हूं. यह इंपौर्टेड माल है. मु झे तो इंडियन चीजें जरा भी पसंद नहीं आतीं.

‘‘मैं भी नहले पर दहला मारता कि हां, लेकिन मु झे भी दूसरों की दी हुई चीजें पसंद नहीं आती.

‘‘मेरी पत्नी नीता न मु झ से कुछ कह पाती और न अपनी मां से. लेकिन मेरी नाराजगी की वजह अब वह सम झने लगी थी. वह अब घर के सारे काम खुद करने लगी और मेरे प्यार के कारण अब उस में आत्मविश्वास जागने लगा था. अत: अब उस में धीरेधीरे परिवर्तन होने लगा. अब वह अपनी मां से सीधे कह देती कि मां, अब तुम मेरे लिए कुछ न लाया करो. सुदेश को भी तुम्हारा बरताव पसंद नहीं आता और इस से हम दोनों के बीच मनमुटाव होता है और  झगड़ा होने लगता है.

‘‘दूसरों की भावनाओं को सम झना मेरी सास ने कभी सीखा ही नहीं था और शान दिखाने की आदत कैसे छूटती? अब मु झे अपनी आमदनी बढ़ा कर इन सब से छुटकारा पाना था.

‘‘संयोग से मेरी कामना पूरी होने लगी. मैं ने एक लघु उद्योग शुरू किया और वह फूलनेफलने लगा. अब कमाई बढ़ने लगी, लेकिन यह बात मैं ने नीतू से छिपाये रखी.‘‘इसी बीच मेरे ससुर ने अपनी उम्र के 59 साल पूरे किए. इस अवसर का मैं ने लाभ उठाने का फैसला किया और अपने मातापिता से कहा कि मैं अपने ससुर की 60वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा हूं.

‘‘मेरे यह प्रस्ताव सुन कर मातापिता खुश हो गए. मां बोली कि दामाद भी तो बेटा ही होता है रे अच्छा कर रहे हो बेटा.

‘‘लेकिन मां को मेरी तिरछी चाल जरा भी सम झ में नहीं आईं.

‘‘मेरे सासससुर को जब यह बात पता चली तो वे बहुत खुश हो गए. इस पर मेरी पत्नी जरा छटपटाई, क्योंकि उस के मातापिता के लिए मेरे प्यार से अच्छी तरह वाकिफ थी, अत: मेरे आयोजन के बारे में उस के मन में शंका थी, यह बात उस के चेहरे पर साफ  झलकती थी.

‘‘समारोह के दिन सुबह होमहवन और पूजा के बाद सारे पुरोहितों को ससुर के हाथों किसी को चांदी का बरतन, किसी को चांदी की कटोरी तो किसी को चांदी की थाली आदि मेरे घर की महंगी चीजें दान करवाईं. उपस्थित ब्राह्मण और मेरे रिश्तेदार यह देख कर चकित रह गए. छोटीमोटी वस्तुओं को मैं ने घर के कोने में सजा रखा था, अत: मैं उन्हें अांगन में ले आया हूं.

‘‘मैं ने मेरे नौकर से सुबह ही कह दिया था कि वह  झोंपड़पट्टी में रहने वाले गरीबों को वहां ले कर आए. उन्हें अंदर बुलाया गया और सास के हाथों से 1-1 चीज का बंटवारा होने लगा. 1-1 चीज देते समय सास का चेहरा उतर गया था. आखिर उन्होंने मु झ से पूछ ही लिया कि अरे सुदेश, यह तुम क्या कर रहे हो. मेरी दी हुए सारी चीजें गरीबों में क्यों बांट रहे हो?

‘‘लेकिन सारी चीजों का बंटवारा होने तक मैं खामोश रहा. फिर बोला कि हां, वे सारी चीजें आप ने हमें दी थीं, अब अपने ही हाथों से आप ने उन्हें गरीबों में बांट दिया है. वैसे आप का हमें कुछ देना मु झे जरा भी नहीं भाया. अब आप किसी के सामने मु झ से नहीं पूछ सकेंगी कि सुदेश यह चीज हमारी दी हुई है. इन चीजों का दान करने से अब इन गरीबों की दुआएं आप को मिलेंगी. मैं तो आप के उपकारों से अब मुक्त हो गया हूं.

‘‘सब लोगों के सामने मैं ने अपने ससुर के हाथ में बंगला बनाने की लागत का चैक रख दिया और उन्हें नमस्कार करते हुए बोला कि यह रकम आप ने मु झे बंगला बनाने के लिए दी थी. यह राशि मैं आप को लौटा रहा हूं. बहुत सी संस्थाए गरीबों के लिए काम करती हैं. आप ये रुपए उन्हें दान करेंगे तो उन के लिए यह बड़ी सहायता होगी. इस पर वे बोले कि लेकिन यह राशि मैं ने तुम से वापस कहां मांगी थी?

‘‘वापस नहीं मांगी थी, लेकिन कईर् लोगों के सामने आप ने बारबार कहा कि मैं ने बंगला बना कर दिया है. मेरे मातापिता के आशीर्वाद से मैं यह रकम आप को वापस करने के काबिल हो गया हूं. आप ने बंगला बनाने के लिए रुपए दिए, लेकिन जिस जमीन पर यह बंगला बनाया गया वह तो मेरे पिताजी का दी हुई थी, यह बात आप भूल गए? आप अपने बेटी से पूछिए कि क्या मेरे पिताजी ने कभी उस से कहा कि यह जमीन मेरा दी हुई है.

‘‘सासूमां, वैसे आप के मु झ पर बड़े उपकार है आप ने जो कुछ दिया, उस का बारबार बखान न करतीं, तो मैं जिद कर के इस हालत में कभी नहीं पहुंचता कि आप के उपकारों का बो झ उतार सकूं. मु झे तो आप के सिर्फ आशीर्वाद की जरूरत है. कहते हैं कि दान देते वक्त एक हाथ की खबर दूसरे हाथ को नहीं होनी चाहिए और आप तो अपनी ही बेटी को दी हुई चीजों का लोगों के सामने ढिंढोरा पीटते थे.

‘‘मेरा यह व्यवहार मेरे मातापिता को बिलकुल अच्छा नहीं लगा. मेरे पत्नी को तो इस बात का गहरा सदमा लगा. वह अपनी मां से बोली कि मैं ने हजार बार कहा था, लेकिन तुम ने सुना नहीं. तुम्हें ऐसा ही जवाब मिलना था.

‘‘मेरे ससुर गुस्से से आगबबूला हो गए तो मेरे पिताजी ने उन्हें सम झाया कि साहब, जाने भी दीजिए. मेरा बेटा नादान है और उस से गलती हुई है. उस की गलती के लिए मैं आप से क्षमायाचना करता हूं. उसे ऐसा बरताव नहीं करना चाहिए था.

‘‘मेरे पिताजी की बात सुन कर मेरे ससुर को पश्चात्ताप हुआ. वे बोले कि सुदेश मु झे तुम पर बहुत गुस्सा आया था, लेकिन मैं ने तुम्हारे बरताव पर सोचा था तो पाया कि तुम ही ठीक हो. कांटे से कांटा निकालने की कहावत को तुम ने चरितार्थ किया है. पैसे से आया घमंड अब खत्म हो गया है. अब तुम हमें माफ कर दो. हमारे कारण तुम्हें काफी सहना पड़ा.

‘‘काकाजी, अब मैं उन का असली दामाद बन गया हूं. इस पर आप प्रतिक्रिया जरूर लिखिएगा.

‘‘आप का सुदेश’’

दादाजी ने पत्र वापस करते हुए कहा, ‘‘वह बिलकुल ठीक कह रहा है. देने वाले को भी चाहिए कि वह सुख प्राप्त करने के लिए दें. छोटीछोटी चीजें इकट्ठा करतेकरते हम ने दुख सहे, अब अपने बच्चों को ये सब न सहना पड़े, इसलिए वे अपनी बेटी को देते हैं. लेकिन उस में घमंड की भावना नहीं होनी चाहिए वरना लेने वाले की भावनाओं को ठेस पहुंचना स्वाभाविक है, यह ध्यान में रखना आवश्यक है.

‘‘अब मेरे हाथ से भी यह ऐसी गलती होने जा रही थी. तुम ने यह पत्र पढ़ने का मौका दे कर मु झे जगा दिया है. हमारे कारण हमारी बेटी की गृहस्थी में तूफान नहीं उठना चाहिए. तुम मेरी तरफ से सुदेश को धन्यवाद कहना कि उस के कारण और एक ससुर जाग गया है.

‘‘कहते हैं कि दान देते वक्त एक हाथ की खबर दूसरे हाथ को नहीं होनी चाहिए  और आप तो अपनी ही बेटी को दी हुई चीजों का लोगों के सामने ढिंढोरा पीटते थे…’’

लेखिका- कल्पना घाणेकर

Interesting Hindi Stories : बेस्ट बहू औफ द हाउस

Interesting Hindi Stories : अमन ने श्रद्धा को सब से पहले एक बसस्टौप पर देखा था. सिंपल मगर आकर्षक गुलाबी रंग के टौप और डैनिम में दोस्तों साथ खड़ी थी. दूसरों से बहुत अलग दिख रही थी. उस के चेहरे पर शालीनता थी. खूबसूरत इतनी कि नजरें न हटें. अमन एकटक उसे देखता रहा जब तक कि वह बस में चढ़ नहीं गई. अगले दिन जानबूझ कर अमन उसी समय बसस्टौप के पास कार खड़ी कर रुक गया. उस की नजरें श्रद्धा को तलाश रही थीं. थोड़ी दूर पर उसे श्रद्धा नजर आ गई. आज उस ने स्काई ब्लू रंग की ड्रैस पहनी थी, जिस में वह बहुत जंच रही थी.

ऐसा दोतीन दिनों तक लगातार होता रहा. अमन समय पर उसी बसस्टौप पर पहुंचता. एक दिन बस आई और जब श्रद्धा उस में चढ़ने लगी तो अचानक अमन  ने भी अपनी कार पार्क की और तेजी से बस में चढ़ गया. श्रद्धा बाराखंबा मैट्रो स्टेशन की बगल वाले बसस्टैंड पर उतरी और वहां से वाक करते हुए सूर्यकिरण बिल्डिंग में घुस गई. पीछेपीछे अमन भी उसी बिल्डिंग में घुसा. वह लड़की सीढ़ियां चढ़ती हुई तीसरेफ्लोर पर जा कर रुकी. वहां एक एडवरटाइजिंग कंपनी का बड़ा सा औफिस था. लड़की उस औफिस में दाखिल हो गई.

अमन कुछ देर बाहर टहलता रहा. फिर उस ने बाहर खड़े गार्ड से पूछा, “भैया, अभी जो मैडम अंदर गई हैं, वे यहां की मैनेजर हैं क्या?””जी, वे यहां डिजिटल मार्केटिंग मैनेजर और कौपी एडिटर हैं. आप को क्या काम है? क्या आप श्रद्धा मैडम से मिलना चाहते हैं?”

“जी हां, मैं मिलना चाहता हूं,” अमन ने कहा.”ठीक है. मैं उन्हें खबर दे कर आता हूं,”  कह कर गार्ड अंदर चला गया और कुछ ही देर में निकल आया.

उस ने अमन को अंदर जाने का इशारा किया. अमन अंदर पहुंचा तो चपरासी उसे श्रद्धा के केबिन तक ले गया. केबिन बहुत आकर्षक था. सारी चीजें करीने से रखी हुई थीं. एक कोने में छोटेछोटे गमलों में कुछ पौधे भी थे. अमन को बैठने का इशारा करते हुए श्रद्धा उस की तरफ मुखातिब हुई. अमन उसे देखता रह गया. दिल का प्यार आंखों में उभर आया. श्रद्धा अमन से पहली बार मिल रही थी.

उस ने सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा, “जी हां, बताइए मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?” “ऐक्चुअली मेरी एक कंपनी है. हम स्नैक्स आइटम्स बनाते हैं. मैं आप से अपने प्रोडक्ट्स की ब्रैंडिंग और ऐड कैंपेन के सिलसिले में बात करना चाहता था. आप कौपी एडिटर भी हैं, सो, आप से  ऐड भी लिखवाना था.”

“मगर मैं ही क्यों?” श्रद्धा ने कहा, तो अमन को कोई जवाब नहीं सूझा.फिर कुछ सोचता हुआ बोला, “दरअसल, मेरे एक दोस्त ने आप का नाम रेफर किया था. इस कंपनी के बारे में भी बताया था. काफी तारीफ़ की थी.”

“चलिए ठीक है. हम इस सिलसिले में विस्तार से बात करेंगे. अपने कुछ सहयोगियों के साथ मैं आप के मैनेजर की एक मीटिंग फिक्स कर देती हूं. आप या आप के मैनेजर मीटिंग अटेंड कर सकते हैं.”जी, मीटिंग में मैनेजर नहीं, बल्कि मैं खुद ही आना चाहता हूं. मैं इस तरह के कामों को खुद ही हैंडल करता हूं. मैं तो चाहूंगा कि आप भी उस मीटिंग में जरूर रहें, प्लीज.”

“ग्रेट. तो ठीक है. अगले मंडे हम मीटिंग कर लेते हैं.”अमन ने खुश हो कर हामी में सिर हिलाया और वापस लौट आया. मगर अपना दिल श्रद्धा के पास ही छोड़ आया. उस की आंखों के आगे श्रद्धा का ही शालीन और खूबसूरत चेहरा घूमता रहा. वह बेसब्री से अगले मंडे का इंतजार करने लगा.

अगले मंडे समय से पहले ही वह मीटिंग के लिए पहुंच गया. श्रद्धा को देख कर उस के चेहरे पर मीठी मुसकान खिल गई थी. श्रद्धा के साथ 2 और लोग थे. ऐड कैंपेन के बारे में डिटेल में बातें हुईं. मीटिंग के बाद श्रद्धा के दोनों सहयोगी चले गए. अमन अभी श्रद्धा के पास ही बैठा रहा. कोई न कोई बात निकालता रहा.

2 दिनों बाद वह फिर काम की प्रोग्रैस के बारे में जानने के बहाने श्रद्धा के पास पहुंच गया. अब तक अमन के व्यवहार और बातचीत के लहजे से श्रद्धा को महसूस होने लगा था कि अमन के मन में क्या चल रहा है. अमन के लिए भी अपनी फीलिंग अब और अधिक छिपाना कठिन हो रहा था.

अगली दफा वह श्रद्धा के पास एक कार्ड ले कर पहुंचा. कार्ड देते हुए अमन ने हौले से कहा, “इस कार्ड में लिखी एकएक बात मेरे दिल की आवाज है. प्लीज, एक बार पूरा पढ़ लो, फिर जवाब देना.”

श्रद्धा ने कार्ड खोला और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, “मैं लव ऐट फर्स्ट साइट पर विश्वास नहीं करता था. मगर बसस्टैंड पर तुम्हें पहली नजर देखते ही दिल दे बैठा हूं. तुम्हारे लिए जो महसूस कर रहा हूं वह आज तक जिंदगी में किसी के लिए भी महसूस नहीं किया. रियली, आई लव यू. क्या तुम्हें हमेशा के लिए मेरा बनना स्वीकार होगा?”

श्रद्धा ने पलकें उठाईं और अमन की तरफ मुसकरा कर देखती हुई बोली, “बसस्टैंड से मेरे औफिस तक का आप का सफर कमाल का रहा. मुझे भी इतने प्यार से कभी किसी ने अपना बनने की इल्तिजा नहीं की. मैं आप का प्रपोजल स्वीकार करती हूं,” कहते हुए श्रद्धा की आंखें शर्म से झुक गईं और अमन का चेहरा खुशी से खिल उठा.

अमन ने अपने घर में श्रद्धा के बारे में बताया, तो सब दंग रह गए कि अमन जैसा शर्मीला लड़का लव मैरिज की बात कर रहा है. यानी, लड़की में कुछ तो खास बात जरूर होगी. अमन के घर में मांबाप के अलावा 2 बड़े भाई, भाभियां और एक बहन तुषिता थे. भाइयों के 2 छोटेछोटे बच्चे भी थे. उन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईसों में होती थी. जबकि, श्रद्धा एक गरीब परिवार की लड़की थी. उस ने अपनी काबिलीयत और लगन के बल पर ऊंची पढ़ाई की और एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे तक पहुंची. उस के अंदर स्वाभिमान कूटकूट कर भरा था. वह मेहनती होने के साथ ही जिंदगी बहुत व्यवस्थित ढंग से जीना पसंद करती थी

जल्द ही दोनों के परिवार वालों की रजामंदी मिल गई और अमन ने श्रद्धा से शादी कर ली.शादी के बाद पहले दिन जब वह किचन की तरफ बढ़ी तो सास ने उस से कहा, “बेटा, रिवाज है कि नई बहू कुछ मीठा बनाती है. जा तू हलवा बना ले. उस के बाद तुझे किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. बहुत सारे कुक हैं हमारे पास.”

इस पर श्रद्धा ने बड़े प्रेम व आदर के साथ सास की बात का विरोध करते हुए कहा था, “मम्मी जी, मैं कुक के बनाए तरहतरह के व्यंजनों के बजाय अपना बनाया हुआ साधारण मगर हैल्दी खाना पसंद करती हूं. प्लीज, मुझ से किचन में काम करने का मेरा अधिकार मत छीनिएगा.’

उस की बात सुन कर सास को कुछ अटपटा सा लगा और भाभियों ने भी भवें चढ़ा लीं. छोटी भाभी ने व्यंग्य से कहा, “श्रद्धा, यह तुम्हारा छोटा सा घर नहीं है जहां खुद ही खाना बनाना पड़े. हमारे यहां बहुत सारे नौकरचाकर और रसोइए दिनरात काम में लगे रहते हैं.”

श्रद्धा मुसकरा कर किचन में चली गई. उस ने अपने हाथों से पूरा खाना तैयार किया. हलवा भी बनाया. जब श्रद्धा ने खाना परोसा, तो खाना खा कर सब उंगलियां चाटते रह गए. सबों को खाना बहुत पसंद आया. अमन तो उस के खाने की तारीफ करते नहीं थक रहा था. सासससुर ने खुश हो कर उसे नेग भी दिया.

बाद में भी घर में भले ही कुक तरहतरह के व्यंजन तैयार करते रहते मगर वह अपने हाथों का बना साधारण खाना ही खाती और अमन भी उस के हाथ का खाना ही पसंद करने लगा था. अमन को श्रद्धा के खाने की तारीफें करता देख दोनों भाभियों ने भी अपने हाथों से कुछ आइटम्स बना कर अपनेअपने पति को रिझाने का प्रयास किया. फिर तो अकसर ही दोनों भाभियां किचन में दिखने लगी थीं.

श्रद्धा भले ही अपना छोटा सा घर छोड़ कर बड़े बंगले में रहने आ गई थी मगर उस के रहने के तरीकों में कोई परिवर्तन नहीं आया था. उस ने अपने कमरे के बाहर वाले बरामदे में एक टेबलकुरसी डाल कर उसे स्टडीरूम बना लिया था. कंप्यूटर, प्रिंटर, टेबललैंप आदि अपने टेबल पर सजा लिए. अमन के कहने पर एक छोटा सा फ्रिज भी उस ने साइड में रखवा लिया. बरामदा बड़ा था और शीशे की खिड़कियां लगी हुई थीं. वह बाहर का नजारा देखते हुए बहुत आराम से अपना काम करती. जब दिल करता, खिड़कियां खोल कर ताजी हवा का आनंद लेती. बरामदे के कोने में 3 -4 छोटे गमलों में पौधे भी लगवा दिए.

भले ही उस की अलमारियां लेटेस्ट स्टाइल के कपड़ों व गहनों से भरी हुई थीं मगर वह अपनी पसंद के साधारण मगर कंफर्टेबल कपड़ों में ही रहना पसंद करती थी.

शानदार बाथटब होने के बावजूद वह शावर के नीचे खड़ी हो कर नहाती. तरहतरह के शैंपू होने के बावजूद वह मुल्तानी मिट्टी से बाल धोती. कभी भी हेयर ड्रायर या ऐसी चीजों का इस्तेमाल वह न करती.

घर में कई सारी कीमती गाड़ियों के होते हुए भी वह पहले की तरह बस से औफिस आतीजाती रही. बसस्टैंड पर उतर कर 10 मिनट वाक कर के औफिस पहुंचने की आदत बरकरार रखी.

शादी के बाद पहले दिन जब वह बस से औफिस जा रही थी तो तुषिता ने टोका था, “भाभी, हमारे घर में इतनी गाड़ियां हैं. कोई क्या कहेगा कि इतने बड़े खानदान की नईनवेली बहू बस से औफिस जा रही है.”

“तुषि, मैं बस से औफिस मजबूरी में नहीं जा रही हूं बल्कि इसलिए जा रही हूं ताकि मेरी दौड़नेभागने और वाक करने की आदत बनी रहे. बचपन से ही मुझे शरीर को जरूरत से ज्यादा आराम देने की आदत नहीं रही है. वैसे भी, बस में आप 10 लोगों से इंटरैक्ट करते हो. आप की प्रैक्टिकल नौलेज बढ़ती है. इस में गलत क्या है?”

“जी, गलत तो कुछ नहीं,” मुंह बना कर तुषिता ने कहा और अंदर चली गई.श्रद्धा ने अपने कमरे में से तमाम ऐसी चीजें निकाल कर बाहर कर दीं जो केवल शोऔफ के लिए थीं या लग्जरियस लाइफ के लिए थीं. जब श्रद्धा अपने कमरे से कुछ सामान बाहर करवा रही थी तो सास ने सवाल किया था, “यह क्या कर रही हो बहू?”

“मम्मी जी, मुझे कमरा खुलाखुला सा अच्छा लगता है. जिन चीजों की जरूरत नहीं, उन्हें हटा रही हूं. आप ही बताइए, नकली फूलों से सजे इस कीमती फ्लौवर पौट के बजाय क्या मिट्टी का यह गमला और इस में मनीप्लांट का पौधा अच्छा नहीं लग रहा? बाजार से खरीदे गए इन शोपीसेज के बजाय मैं ने अपने हाथ की बनाई कुछ कलात्मक चीजें दीवार पर लगा दी हैं. आप कहें तो हटा दूं. वैसे, मुझे तो अच्छी लग रही हैं.

“नहींनहीं, रहने दो. दूसरों को भी तो पता चले कि हमारी छोटी बहू में कितने हुनर हैं,” कह कर सास ने चुप्पी लगा ली.

श्रद्धा ने खुद को अपनी मिट्टी से भी जोड़े रखा था. सुबह उठ कर ऐक्सरसाइज करना, घास पर नंगे पांव चलना, गार्डनिंग करना, कुकिंग करना, वाक करना आदि उस की पसंदीदा गतिविधियां थीं. अमन के कहने पर उस ने स्विमिंग करना और कार चलाना जरूर सीख लिया था मगर दैनिक जीवन में इन से दूर ही रहती. शाम को समय मिलने पर डांस करती तो सुबहसुबह साइकिल ले कर निकल पड़ती. पैसे भले ही कितने भी आ जाएं मगर फालतू पैसे खर्च नहीं करती.

उस की ये हरकतें देख कर अमन के दोनों भाईभाभियां, बहन और मांबाप कसमसा कर रह जाते, पर कुछ कह नहीं पाते क्योंकि श्रद्धा शिकायत के लायक कुछ भी गलत नहीं करती थी.

इधर एक दिन जब दोनों भाभियां सास के साथ किटी पार्टी में जाने के लिए सजधज रही थीं तो सास ने श्रद्धा से भी चलने को कहा. इस पर श्रद्धा ने जवाब दिया, “मम्मी जी, आज तो मैं एक लैक्चर अटैंड करने जा रही हूं. संदीप माहेश्वरी के मोटिवेशनल स्पीच का प्रोग्राम है. सौरी, मैं आप के साथ किटी पार्टी में नहीं आ पाऊंगी.”

श्रद्धा को प्यार और आश्चर्य से देखते हुए सास ने कहा, “दूसरों से बहुत अलग है तू. पर, सही है. मुझे तेरी बातें कभीकभी अच्छी लगती हैं. एक दिन मैं भी चलूंगी तेरे साथ लेक्चर सुनने. पर आज किटी पार्टी का ही प्लान है. मेरी सहेली ने अरेंज किया है न.”

“जी मम्मी, जरूर,”  कह कर श्रद्धा मुसकरा पड़ी.अगले संडे सास भी श्रद्धा के साथ लेक्चर सुनने गई और आ कर बहुत तारीफें कीं.

इसी तरह वक्त गुजरता गया. शुरू में श्रद्धा की आदतों और हरकतों से चिढ़ने और पसंद न करने वाली श्रद्धा की सास, ननद और भाभियां धीरेधीरे उसी के रंग में रंगती चली गईं. अब वे भी अकसर कार अवौयड कर देतीं.

घर की पार्किंग में महंगी व आलीशान कारों के साथ अब छोटी कारें भी खड़ी हो गईं. सास और भाभियां कई बार उस के साथ लेक्चर अटेंड करने पहुंचने लगीं. उन्हें भी समझ आ रहा था कि किटी पार्टीज में गहनेकपड़ों का शोऔफ़ करने या बिचिंग करने में समय बरबाद करने के बजाय बहुत अच्छा है नई बातें जानना और जीवन को दिशा देने वाले लेक्चर व सैमिनार अटेंड करना, ज्ञान बढ़ाना, किताबें पढ़ना और कला दीर्घा जैसी जगहों में जाना.

श्रद्धा ने कुछ किताबें और पत्रिकाएं खरीदी थीं और उन्हें अपने कमरे की एक छोटी सी अलमारी में करीने से लगा दिया था. पर धीरेधीरे जब किताबों और पत्रिकाओं की संख्या बढ़ने लगी तो अमन के कहने पर उस ने घर के एक कमरे को छोटी सी लाइब्रेरी का रूप दे दिया और सारी किताबें व पत्रिकाएं वहां सजा दीं. अब तो परिवार के दूसरे सदस्य भी आ कर वहां बैठते और शांति व सुकून के साथ पत्रिकाएं, किताबें पढ़ते.

श्रद्धा से प्रभावित हो कर घर धीरेधीरे घर का माहौल बदलने लगा था. दोनों भाभियों ने कुक को हटा कर खुद ही किचन का काम संभाल लिया, तो सास ने भी घर के माली का हिसाब कर दिया. अब सासबहू मिल कर गार्डनिंग करतीं. श्रद्धा की देखादेखी भाभियां खुद कपड़े धोने,  प्रैस करने और घर को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारियां निभाने लगी थीं. तुषिता भी अपने छोटेमोटे सारे काम खुद निबटा लेती.

इस तरह के परिवर्तनों का एक सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि परिवार के सदस्य अपना ज्यादा से ज्यादा समय एकदूसरे के साथ बिताने लगे. खाना बनाते समय जहां दोनों भाभियों, सास और श्रद्धा को आपस में अच्छा समय बिताने का मौका मिलता, वहीँ घर के सभी सदस्य प्यार से एक ही डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाना खाने लगे. खाने की तारीफें होने लगीं. घर की बहुओं को और अच्छा करने का प्रोत्साहन मिलने लगा. वहीं, गार्डनिंग के शौक ने सास के साथ श्रद्धा की बौन्डिंग बेहतर कर दी. अब तुषिता भी गार्डनिंग में रुचि लेने लगी थी. ननद और सास के साथ श्रद्धा इन पलों का खूब आनंद लेती.

इसी तरह शौपिंग के लिए नौकरों को भेजने के बजाय श्रद्धा खुद अमन को ले कर पैदल बाजार तक जाती. मौल के बजाय वह लोकल मार्केट से सामान लेना पसंद करती. फलसब्जियां भी खुद ही ले कर आती. श्रद्धा को देख कर बाकी दोनों भाभियां भी संडे शाम को अकसर अपने पति को ले कर शौपिंग के लिए निकलने लगीं. उन्हें अपने पति के साथ समय बिताने का अच्छा मौका मिल जाता था.

समय के साथ परिवार के सभी सदस्यों को नौकरों पर निर्भर रहने के बजाय खुद अपना काम करने की आदत लग चुकी थी. घर में प्यार और शांति का माहौल था. व्यापार पर भी इस का बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा. उन का व्यापार चमचमाने लगा था. बड़े बड़े और्डर्स मिलने लगे. दूरदूर तक उन के आउटलेट्स खुलने लगे थे. हर तरह के पारिवारिक, व्यावसायिक और सामाजिक विवाद समाप्त हो चले थे.

श्रद्धाके अच्छे व्यवहार का नतीजा था कि रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ उन के संबंध और भी ज्यादा सुधरने लगे थे. किसी रिश्तेदार या पड़ोसी के साथ घर के किसी सदस्य का विवाद होता, तो श्रद्धा उसे समझाती. उस की ग़लतियों की तरफ ध्यान दिलाती. वह समझाती कि पड़ोसियों और रिश्तेदारों से अच्छे रिश्ते के लिए थोड़ा सब्र कर लेना और एकदूसरे को माफ कर देना भी जरूरी होता है. इस से रिश्ते गहरे हो जाते हैं. श्रद्धा की सोच और उस के व्यवहार का तरीका घर के सभी सदस्यों पर असर डाल रहा था. उन की जिंदगी बदल रही थी.

इसी दौरान एक दिन शाम के समय सास का फ़ोन आया. वह काफी घबराई हुई आवाज में बोली, “श्रद्धा, बेटा तू जल्दी से सिटी हौस्पिटल आ जा. तेरी अलका भाभी का एक्सिडैंट हो गया है. वह तुषिता के साथ स्कूटी पर जा रही थी, तभी किसी ने टक्कर मार दी. अलका को बहुत गहरी चोट लगी है. मैं और तुषिता हौस्पिटल में हैं. तेरे दोनों जेठ आज बिज़नैस के सिलसिले में ग्रेटर नोएडा गए हुए हैं. उन को आने में देर हो जाएगी. अमन भी लगता है मीटिंग में है, फोन नहीं उठा रहा.”

“कोई नहीं मां, आप घबराओ नहीं. मैं तुरंत आती हूं.”श्रद्धा ने तुरंत कैब किया और सिटी हौस्पिटल पहुंच गई. अलका के सिर में गहरी चोट लगी थी. उस का खून काफी बह गया था. उसे तुरंत औपरेट करना था, खून भी चढ़ाना था. श्रद्धा ने डाक्टर से अपना खून देने की बात की क्योंकि उस का ब्लड ग्रुप भी ‘ओ पौजिटिव’ था.

फटाफट सारे काम हो गए. आते समय श्रद्धा अपनी चैकबुक साथ लाई थी. डाक्टर ने 2 लाख रुपए जमा करने को कहा. उस ने तुरंत जमा कर दिए.

शाम तक घर के बाकी लोग भी हौस्पिटल पहुंच गए थे. अलका अभी आईसीयू में ही थी. उसे होश नहीं आया था. अगले दिन डाक्टर्स ने कहा कि अलका अब खतरे से बाहर है, मगर अभी उस के एक पैर की सर्जरी भी होनी है क्योंकि इस दुर्घटना में उस के एक पैर के घुटने से नीचे वाली हड्डी डैमेज हो गई थी. सो, उसे भी औपरेट करना था. आननफानन यह काम भी हो गया. एक सप्ताह हौस्पिटल में रह कर अलका घर आ गई.  मगर अभी भी उसे करीब 2 महीने बैडरैस्ट पर रहना था.

ऐसे समय में श्रद्धा ने अलका की सारी जिम्मेदारियां उठा लीं. उस ने औफिस से 15 दिनों की छुट्टी ले ली. अलका के सारे काम वह अपने हाथों से करती. यहां तक कि उस के बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना, स्कूल से लाना, पढ़ाना, खिलानापिलाना यह सब श्रद्धा करने लगी. औफिस जौइन करने के बाद भी वह सारी जिम्मेदारियां बखूबी उठाती रही. हालांकि, अब तुषिता भी यथासंभव उस की मदद करती.

धीरेधीरे यह कठिन समय भी गुजर गया. अलका अब ठीक हो गई थी. सारा परिवार श्रद्धा के व्यवहार की तारीफ़ करते नहीं थकता था. उस ने अपने प्यारभरे व्यवहार से सब को अपना मुरीद बना लिया था. सुख और दुख दोनों में ही श्रद्धा ने जिस तरह अपने जीवन में संतुलन बना कर रखा और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाया था, उस से हर कोई प्रभावित था.

कई महीनों बाद जब अलका पूर तरह ठीक हो गई तो सासससुर ने घर में ग्रैंड पार्टी रखी और उस में अपनी बहू श्रद्धा को ‘बेस्ट बहू औफ द हाउस’ का अवार्ड दे कर सम्मानित किया. घर का हर सदस्य आज मिल कर श्रद्धा के लिए तालियां बजा रहा था.

Hindi Fiction Stories : झटका – दादी की क्या थी तरकीब

Hindi Fiction Stories : स्कूलके प्रिंसिपल अमनजी के सामने प्रिया और संदीप आंखों में चिंता और तनाव के भाव लिए बैठ गए.

‘‘आप के बेटे समीर को इस वक्त स्कूल में होना चाहिए पर वह यहां नहीं है. पिछले 2 हफ्तों में उस ने यह 5वीं छुट्टी करी है,’’ अमनजी ने बिना कोई भूमिका बांधे यह सूचना दे कर उन दोनों को जोरदार झटका दिया.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? वह तो रोज सुबह तैयार हो कर स्कूल जाने को घर से निकलता है,’’ प्रिया की आंखों में फौरन हैरानी और उलझन के भाव उभरे.

‘‘क्या वह रोज स्कूल बस में आप की आंखों के सामने बैठता है?’’

‘‘आजकल वह बस से नहीं बल्कि अपने दोस्त रवि के साथ कार से स्कूल आता है.’’

‘‘आप दोनों रवि के बारे में क्या जानते हैं?’’

‘‘यही कि उस के मातापिता दोनों आईटी कंपनी में अच्छी पोस्टों पर हैं. कुछ दिन पहले समीर से मैं ने उस के पिछले टैस्टों में आए नंबर पूछे थे. मेरा अंदाजा है कि वह पढ़ने में ज्यादा अच्छा नहीं है,’’ इस बार जवाब संदीप ने दिया.

अमनजी ने कुछ पलों की खामोशी के बाद गंभीर लहजे में उन्हें बताया, ‘‘रवि के मातापिता बहुत दौलतमंद हैं, संदीपजी मेरी नजरों में वह एक बिगड़ा हुआ रईसजादा है. ट्यूशनों के बल पर वह 12वीं कक्षा तक अपनी गाड़ी खींच ले जाएगा पर उस के कभी अच्छे नंबर नहीं आएंगे. उसे अच्छे नंबर लाने की चिंता भी नहीं है क्योंकि अपने मातापिता की गांव की जमीन के बल पर वह कोई डिगरी विदेश में जा कर ले लेगा. क्या समीर के लिए भी आप दोनों ने ऐसा ही कुछ सोच रखा है?’’

‘‘उसे विदेश में पढ़ाने की हमारी औकात नहीं है, सर. हमारी तो बड़े बाजार में गारमैंट की छोटी शौप है.’’

‘‘समीर के 10वीं कक्षा के बोर्ड में 88% आए थे, लेकिन इस साल वह पढ़ने में पिछड़ता जा रहा है. मुझे यह बताते हुए बहुत अफसोस हो रहा है कि वह आजकल गलत दोस्तों के साथ घूमने लगा है.’’

‘‘क्या उस के ये नए, गलत दोस्त भी स्कूल से गायब रहते हैं?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘सर, क्या आप को मामूल है कि ये सब इस वक्त कहां हैं?’’

‘‘रवि के घर. जिस दिन भी क्रिकेट का वन डे मैच होता है ये 4-5 लड़के स्कूल नहीं आते हैं. मुझे इन की गलत आदतों की रिपोर्ट कल ही इन के एक साथी से मिली है. क्या आप दोनों ने समीर के अंदर ऐसा कोई बदलाव महसूस नहीं किया जो उस के यों बिगड़ने की तरफ इशारा करता हो?’’

प्रिया ने फौरन अपने बेटे की उन से शिकायत करी, ‘‘आजकल वह काफी जिद्दी, बदतमीज और झगड़ालू हो गया है. जरा सा डांटो तो फट पलट कर जवाब देता है. अपने दोस्तों की तारीफ करता है और उसे हर चीज बढि़या और ब्रैंडेड चाहिए… यूनिट टैस्ट में तो उस के नंबर कम आ ही रहे हैं.’’

‘‘किसी भी किशोर के बिगड़ने के ये सब शुरुआती लक्षण हैं. औफिस के बाहर उस के दोस्त मोहित और कपिल के मातापिता बैठे हुए हैं. आप सब एकसाथ रवि के घर जाइए और देखिए कि वहां क्या हो रहा है. कल सुबह आप दोनों समीर के साथ मुझ से मिलने आएं,’’ संदीप से मिलाने को हाथ बढ़ा कर प्रिंसिपल साहब ने मुलाकात समाप्त होने का इशारा कर दिया.

आधे घंटे बाद सब लड़कों के मातापिता रवि के पिता के नए फ्लैट के अंदर थे. घर के नौकर ने उन्हें ड्राइंगरूम में बैठा कर के भीतर जाने से रोकना चाहा, पर वे जबरदस्ती रवि के बैडरूम तक जा पहुंचे.

रवि के कमरे में सिगरेट के धुएं की गंध भरी हुई थी. मेज पर बीयर की बोतलें और

गिलास रखे थे. एक लड़की रवि की बगल में उस के साथ सट कर बैठी हुई थी. उस ने किसी और स्कूल की वरदी पहनी हुई थी. टीवी पर आईपीएल मैच चल रहा था.

उन्हें अचानक सामने देख वे सब घबराए से चौंक कर उठ खड़े हुए. मोहित और कपिल के पेरैंट्स की तरह संदीप ने वहीं समीर को डांटना शुरू नहीं किया और उस का हाथ पकड़ उसे कमरे से बाहर ड्राइंगहौल में ले आया.

‘‘आप दोनों को यहां नहीं आना चाहिए था,’’ समीर शर्मिंदा होने के बजाय उलटा उन पर नाराज हो उठा.

‘‘यहां नहीं आते तो तुम्हारी करतूतों का कैसे पता लगता? तुम सिगरेट और शराब पीने लगे हो. शर्म आनी चाहिए तुम्हें,’’ उस के बोलने का गलत ढंग देख संदीप को तेज गुस्सा आ गया.

‘‘थोड़ी सी बीयर पी लेने में शर्म आने की क्या बात है? आप भी तो रोज शाम को पीते हो?’’ समीर ने अपना हाथ झटके से छुड़ाया और मेज पर रखा बैग उठा कर बाहर की तरफ चल पड़ा.

‘‘मेरे साथ तमीज से पेश नहीं आओगे तो मैं थप्पड़ मारमार कर तुम्हारे दांत तोड़ डालूंगा.’’

‘‘शोर कैसे न मचाऊं? क्या तुम हमारी नाक कटाने वाले काम नहीं कर रहे? कल को तुम्हारी यही गंदी आदतें तुम्हारे फेफड़ों और जिगर को खराब कर डालेंगी, बेवकूफ  लड़के.’’

समीर ने इस बार उलट कर कोई जवाब नहीं दिया और हौल से बाहर निकल गया.

सारे रास्ते संदीप और प्रिया उसे डांटतेसमझते हुए आए, पर मुंह सुजा कर बैठे समीर ने एक शब्द भी अपने मुंह से नहीं निकाला. जब घर के सामने कार रुकी तो वह झटके से दरवाजा खोल कर उतरा और पैर पटकता अंदर चला गया.

अंदर आने के बाद संदीप ने उसे गुस्से से भरी आवाज में कई बार पुकारा तो ही वह अपने कमरे से निकल कर ड्राइंगरूम में आया. अब तक समीर की दादी भी अपने कमरे से निकल कर वहीं आ गई थीं.

समीर के तेवर ऐसा दर्शा रहे थे मानो वह अपने मातापिता से उलझने के लिए पूरी तरह से तैयार था और हुआ भी ऐसा ही. संदीप ने अपने बेटे को डांटना शुरू किया तो उस ने पलट कर उलटे जवाब देने शुरू कर दिए.

कुछ देर तक दादी ने चुप रह कर सारे मामले को समझ और फिर ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘अब सब शांत हो कर आपस में बात करो. समीर अभी हम सब से प्रौमिस करेगा कि वह सिगरेट और शराब से दूर रहेगा और ज्यादा मेहनत से पढ़ाई भी करेगा.’’

अपनी मां की सलाह को नजरअंदाज करते हुए संदीप ने समीर पर गुस्सा करना जारी रखा, ‘‘तुम्हारे तेवर देख कर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा है कि तुम रत्ती भर भी बदलोगे. आज तुम्हारी कलई खुली है. तुम शराब, सिगरेट और गलत कंपनी के शिकार बन चुके हो. स्कूल न जा कर बदमाश दोस्तों के साथ आवारागर्दी करते हो.’’

इस बार समीर ने जोर से चिल्ला कर जवाब दिया, ‘‘गलत कंपनी में घूमना मेरी मजबूरी है, डैड. अरे, मैं उन्हीं लड़कों के साथ घूमूंगा न जो मुझे अपना दोस्त बना कर मेरे साथ घूमने को तैयार होंगे. जो लड़के मुझ पर हंसें, जो मेरा मजाक उड़ाएं और मुझ से कटें मैं क्यों उन के साथ घूमूंगा?’’

‘‘लड़के तुम पर क्यों हंसते हैं?’’

‘‘आप दोनों के रोजरोज के लड़ाईझगड़ों ने मुझे तमाशा बनवा दिया है.’’

‘‘ज्यादा बकवास मत करो. हम पहले मातापिता नहीं हैं जिन के बीच लड़ाईझगड़ा होता है. तुम्हारे पढ़ाई में पिछड़ने और बिगड़ने का असली कारण यही है कि तुम गलत सोहबत में पड़ चुके हो. फिर कोई अच्छा सहपाठी तुम्हारे साथ क्यों घूमेगा?’’

‘‘सारा दोष मेरे सिर मढ़ने की कोशिश मत करो, पापा,’’ समीर उन के सामने तन कर खड़ा हो गया, ‘‘असली कारण तो यह है कि हमारे घर में आप दोनों के कारण 24 घंटे मची रहने वाली हायतोबा और गालीगलौज के कारण मैं ढंग से पढ़ नहीं पाता हूं. इसी कारण मैं गलत कंपनी में भी पड़ा हूं. मैं महीने में 10 दिन नानाजी के घर से स्कूल जाता हूं, 20 दिन यहां से. लोग मुझ से इस का कारण पूछते हैं तो मैं शर्म से जमीन में गड़ जाता हूं. मैं उन्हें कैसे बताऊं कि मेरी मां आए दिन लड़ कर मायके भाग आती है? साल में 8 बार तो आप पापा की बिना मरजी के इस तीर्थ और उस आश्रम में रहने चली जाती हैं और पापा अपने काम के बदले राजनीति करने चले जाते हैं. दादी ही घर में रह जाती हैं. क्या मैं पूछ सकता हूं कि अपने व्यवहार के कारण आप दोनों ने मेरी जिंदगी में इतनी टैंशन क्यों भर रखी है? मुझे अपने सहपाठियों के बीच हंसी का पात्र क्यों बनवा रखा है?’’

‘‘इस वक्त बात हमारी नहीं बल्कि तुम्हारी हो रही है.’’

‘‘अपनेआप को कठघरे में खड़ा देखना किसी को अच्छा नहीं लगता डैड. आप दोनों को मेरी फिक्र होती तो रातदिन क्लेश न करते रहते. आप दोनों को तो आपस में मारपीट करने से भी परहेज नहीं है. अगर मुझे आप की नाक कटाने वाला काम नहीं करना चाहिए तो क्या यही बात आप दोनों पर नहीं लागू होती है? पापा, आप बचपन से न जाने कौन सा इतिहास पढ़पढ़ कर ऊंचनीच, भेदभाव, इतिहास का बदला लेने जुलूसों में जा कर पथराव करते रहे हैं और अब मां से झगड़ते हैं. पड़ोस के खान अंकल को तो आप पीठ पीछे न जाने क्याक्या कहते रहते हैं.’’

‘‘इन बातों को छोड़ और यह सोच कि अपनी पढ़ाई का नुकसान कर के तुम

अपना कितना ज्यादा नुकसान कर रहे हो,’’ इस बार संदीप सुर नीचा कर के बोले.

‘‘मुझे पता है कि मैं फेल नहीं होऊंगा. वैसे भी मुझे बिजनैस करना है, कोई डाक्टर, इंजीनियर नहीं बनना है,’’ समीर ने लापरवाही से जवाब दिया.

‘‘बेकार की बात मत कर. तुझे पता तो है कि हमारे पास तेरे दोस्त के पिता जितनी दौलत नहीं है जो 40-50 लाख लगा कर बिजनैस करा सकें. तू हवा में उड़ना बंद कर और पढ़ाई में मन लगा.’’

‘‘आप जितना लगा सको, उतना पैसा लगा देना. बाकी का फाइनैंस मेरे दोस्त संभाल लेंगे.’’ इन में से कुछ की रिश्वत की मोटी कमाई है और कुछ ने गांव में करोड़ों की जमीन बेची हैं.

‘‘तेरे ये दोस्त तेरा साथ देंगे, ऐसी गलतफहमी का शिकार मत बनो.’’

‘‘आप दोनों अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हो तो वैसा ही मुझे भी करने दो,’’ समीर ने रुखाई से जवाब दिया.

‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? तिल बराबर अक्ल नहीं है तेरे पास और चला है खुद अपनी जिंदगी के फैसले करने. पहले मुझे यह बताओ कि शराब और सिगरेट खरीदने को तुम्हारे पास पैसे कहां से आते हैं?’’ संदीप ने प्रिया की तरफ नाराजगी से देखते हुए सवाल किया.

‘‘मेरी तरफ गुस्से से देखने की जरूरत नहीं है. मैं इसे जेबखर्च से ज्यादा पैसे नहीं देती हूं,’’ प्रिया एकदम से गुस्सा उठीं.

‘‘आप दोनों आपस में झगड़ना शुरू करो, उस से पहले मैं ही बता देता हूं कि मैं पैसे कहां से पाता हूं,’’ समीर ने उन का मजाक उड़ाने वाले लहजे में बोलना शुरू किया.

‘‘रात को पीने के बाद क्या सुबह तक आप को याद रहता है कि आप के पर्स में

कितने रुपए थे? क्या किसी को याद है कि मुझे इस महीने की स्कूल फीस किस ने दी  थी?’’

‘‘तुम को फीस मैं ने दी थी,’’ प्रिया ने जवाब दिया.

‘‘नहीं, मैं ने दी थी,’’ संदीप ने हर शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘आप दोनों के अलावा दादी ने भी मुझे फीस दी थी,’’ समीर के होंठों पर व्यंग्य भरी मुसकान झलक उठी.

‘‘इस ने आ कर बताया था कि फीस के पैसे खो गए थे…यह बोला कि तुम पीटोगे, तो मैं ने भी फीस दी थी. अरे शैतान, तू मुझ से भी झठ बोलने लगा है,’’ दादी ने पोते को गुस्से से घूरा.

‘‘सौरी दादी, आप से तो मैं ने रुपए अपने एक दोस्त की फीस भरने को लिए थे,’’ समीर ने दादी से माफी मांगी और फिर अपने मातापिता से शिकायती स्वर में बोला, ‘‘आप दोनों मेरे बारे में या किसी भी और विषय पर आपस में बात ही कहां करते हो. मैं पहले भी ऐसा घोटाला कर चुका हूं. तब क्या आप मुझे पकड़ पाए थे?’’

‘‘शर्म नहीं आ रही है तुझे अपने गलत कामों की तारीफ करते हुए?’’ संदीप गुस्से से फट पड़े.

‘‘मेरे लिए यहां आप दोनों के सामने शर्मिंदा होना कोई बड़ी बात नहीं है, पर मैं अपने दोस्तों के सामने शर्मिंदा नहीं हो सकता हूं. वे 4 दफा मुझ पर पैसे खर्च करेंगे तो 1 बार मुझे भी करने पड़ेंगे या नहीं? मेरी पौकेट मनी बहुत कम है और तभी मुझे हेराफेरी और चोरी करनी पड़ती है.’’

‘‘मेरा दिल कर रहा है कि हंटर मारमार कर तेरी चमड़ी उधेड़ दूं,’’ संदीप उस की तरफ आक्रामक लहजे में बढ़े.

‘‘आप ने अगर मुझ पर हाथ उठाया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा. आप भी जुलूसों में कितना मारने की बातें करते हैं. कितनी बार दुकान बंद कर के हल्ला मचाने भीड़ में जाते रहते हैं. आप मारने की धमकियां देते हैं, मैं खुद मर जाऊंगा.’’

समीर की इस धमकी को सुन संदीप का मुंह हैरानी के मारे खुला का खुला रह गया.

प्रिया ने उसे खींच कर समीर से दूर किया और अपने मन की चिंता व्यक्त करी, ‘‘अब ये बातें छोडि़ए और कल अमनजी से होने वाली मुलाकात के बारे में सोचिए. वहां भी अगर इस ने ऐसी ही बदतमीजी दिखाई तो वे इसे स्कूल से निकाल देंगे.’’

‘‘मौम, डौंट वरी अबाउट हिम. वो रवि को स्कूल से निकालने की हिम्मत नहीं कर सकते हैं क्योंकि रवि के पापा स्कूल के चेयरमैन के गांव के हैं और फिर उन का पैसा भी स्कूल में लगा हैं. अगर रवि स्कूल से नहीं निकलेगा तो हम में से कोई भी नहीं निकलेगा,’’ समीर फिर से लापरवाह नजर आने लगा.

‘‘तुम्हें रवि का साथ छोड़ अपने को सुधारना होगा,’’ प्रिया ने भावुक हो कर उसे सलाह दी.

‘‘अगर तुम ने अपने को फौरन नहीं बदला तो एक दिन बहुत पछताओगे,’’ संदीप अब दुखी और परेशान दिख रहे थे.

‘‘सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि घर में हरेक को बदलना और सुधरना होगा, अब भी आप ऐसा क्यों नहीं कह रहे हो?’’ समीर ने चुभते लहजे में पूछा.

प्रिया और संदीप दोनों से फौरन ही उसे कोई जवाब देते नहीं बना. उन्हें चुप करा कर समीर निडर, विद्रोही भाव से अपने कमरे की तरफ चल पड़ा. दोनों उसे रोकने की हिम्मत नहीं कर सके.

दोनों थकेहारे और टूटे से नजर आ रहे थे. दोनों को आपस में लड़ने या एकदूसरे पर आरोप लगाने की ताकत भी अपने अंदर महसूस नहीं हो रही थी. वे समीर को कैसे डांटते या समझते क्योंकि वह तो उन्हीं को कठघरे में खड़ा कर

गया था.

कुछ देर की खामोशी के बाद प्रिया ने रोनी सूरत बना कर कहा, ‘‘हमारे स्वार्थी

और नासमझ भरे व्यवहार से समीर को गुमराह होने का मौका मिला. पता नहीं वह अब कभी ठीक रास्ते पर लौट भी पाएगा या नहीं? न जाने क्यों हम घर और दुकान का काम छोड़ कर राजनीति के पचड़े में पड़ गए.’’

‘‘हम उसे किसी अच्छे मनोवैज्ञानिक को दिखाएंगे,’’ संदीप ने उस का हाथ पकड़ कर धैर्य बंधाने की कोशिश करी.

दादी ने दोनों को समझते हुए सलाह दी, ‘‘कुछ महीने पहले तक समीर पढ़ाई में पूरी दिलचस्पी लेता था. उस के व्यवहार से भी हमें कोई शिकायत नहीं थी. अब तेज झटका खाने के बाद अगर आगे हम सब समझदारी और प्यार से काम लेंगे तो वह निश्चित रूप से सही राह पर लौट आएगा. गलत व्यवहार की जड़ें अभी उस के मन में ज्यादा गहरी नहीं गई हैं.’’

‘‘हम दोनों आपसी संबंधों का सुधारेंगे क्योंकि समीर के भविष्य से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हमारे लिए कुछ भी नहीं है,’’ प्रिया की आंखों से आंसू बहने लगे थे.

समीर ने उस का हाथ पकड़ कर प्यार से चूमा और फिर भावुक हो कर कहा, ‘‘मुझे विश्वास है कि हमारे बदलते ही सबकुछ ठीक

हो जाएगा. हमारी अगर उसे कमियों ने गलत

राह पर धकेला है तो हमारे अंदर आने वाला अच्छा बदलाव उसे सही रात पर आने की प्रेरणा भी देगा.’’

अतीत के सारे गिलेशिकवे भुला कर दोनों लंबे समय के बाद अपनेआप को दूसरे के बहुत करीब महसूस कर रहे थे. समीर की दादी ने सदा सुखी और खुश रहने का आशीर्वाद देते हुए दोनों को अपने गले से लगा लिया था.

Hindi Story Collection : देर से ही सही – क्या अविनाश और सीमा की जिंदगी खुशहाल हो पाई

Hindi Story Collection : सीमा को लगा कि घर में सब लोग चिंता कर रहे होंगे. लेकिन जब वह घर पहुंची तो किसी ने भी उस से कुछ नहीं पूछा, मानो किसी को पता ही नहीं कि आज उसे आने में देर हो गई है. पिताजी और बड़े भैया ड्राइंगरूम में बैठे किसी मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे. छोटी बहन रुचि पति रितेश के साथ आई थी. वह भी बड़ी भाभी के कमरे में मां के साथ बड़ी और छोटी दोनों भाभियों के साथ बैठी गप मार रही थी. सीमा ने अपने कमरे में जा कर कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और खुद ही रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. रसोई से आती बरतनों की खटपट सुन कर छोटी भाभी आईं और औपचारिक स्वर में पूछा, ‘‘अरे, सीमा दीदी…आप आ गईं. लाओ, मैं चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, मैं बना लूंगी,’’ सीमा ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया तो छोटी भाभी वापस चली गईं.

सीमा एक गहरी सांस ले कर रह गई. कुछ समय पहले तक यही भाभी उस के दफ्तर से आते ही चायनाश्ता ले कर खड़ी रहती थीं. उस के पास बैठ कर उस से दिन भर का हालचाल पूछती थीं और अब…

सीमा के अंदर से हूक सी उठी. वह चाय का कप ले कर अपने कमरे में आ गई. अब चाय के हर घूंट के साथ सीमा को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अकेली, कितनी उपेक्षित सी हो गई है.

चाय पीतेपीते सीमा का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा.

सीमा के पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. स्कूल के बाद ट्यूशन आदि कर के उन्होंने अपने चारों बच्चों को जैसेतैसे पढ़ाया और बड़ा किया. चारों बच्चों में सीमा दूसरे नंबर पर थी. उस से बड़ा सुरेश और छोटा राकेश व रुचि थे, क्योंकि एक स्कूल के अध्यापक के लिए 6 लोगों का परिवार पालना और 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना आसान नहीं था अत: बच्चे ट्यूशन कर के अपनी कालिज की फीस और किताबकापियों का खर्च निकाल लेते थे.

सीमा अपने भाईबहनों में सब से तेज दिमाग की थी. वह हमेशा कक्षा में प्रथम आती थी. उस का रिजल्ट देख कर पिताजी यही कहते थे कि सीमा बेटी नहीं बेटा है. देख लेना सीमा की मां, इसे मैं एक दिन प्रशासनिक अधिकारी बनाऊंगा.

अपने पिता की इच्छा को जान कर वह दोगुनी लगन से आगे की पढ़ाई जारी करती. बी.ए. करने के बाद सीमा ने 3 वर्षों के अथक परिश्रम से आखिर अपनी मंजिल पा ही ली. और आज वह महिला एवं बाल विकास विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है. सीमा के मातापिता उस की इस सफलता से फूले नहीं समाते.

‘सीमा की मां, अब हमारे बुरे दिन खत्म हो गए. मैं कहता था न कि सीमा बेटी नहीं बेटा है,’ उस की पीठ थपथपाते हुए जब पिताजी ने उस की मां से कहा तो वह गर्व से फूल गई थीं. वह अपना पूरा वेतन मांपिताजी को सौंप देती. अपने ऊपर बहुत कम खर्च करती. मांपिताजी ने बहुत तकलीफें सह कर ही गृहस्थी चलाई थी अत: वह चाहती थी कि अब वे दोनों आराम से रहें, घूमेंफिरें. अकसर वह दफ्तर से मिली गाड़ी में अपने परिवार के साथ बाहर घूमने जाती, उन्हें बाजार ले जाती.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सुरेश और राकेश पढ़लिख कर नौकरियों में लग गए थे. उन की नौकरी के लिए भी सीमा को अपने पद, पहचान और पैसे का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ा था. सीमा की सारी सहेलियों की शादी हो गई. जब भी उन में से कोई सीमा से मिलती तो उस का पहला सवाल यही रहता, ‘सीमा, तुम शादी कब कर रही हो? नौकरी तो करती रहोगी लेकिन अब तुम्हें अपना घर जल्दी बसा लेना चाहिए.’

सुरेश का विवाह हुआ फिर कुछ समय बाद राकेश का भी विवाह हुआ. तब भी मांपिताजी ने उस के विवाह की सुध नहीं ली. समाज में और रिश्तेदारों में कानाफूसी होने लगी. रिश्तेदार जो भी रिश्ता सीमा के लिए ले कर आते, मांपिताजी या सुरेश उन सब में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा देते. इसी तरह समय बीतता रहा और घर में रुचि के विवाह की बात चलने लगी, लेकिन बड़ी बहन कुंआरी रहने के कारण छोटी के विवाह में अड़चन आने लगी. तभी सीमा के लिए अविनाश का रिश्ता आया.

अविनाश भी उसी की तरह प्रशासनिक अधिकारी था. उस में ऐसी कोई बात नहीं थी कि सीमा के घर वाले कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा पाते. रिश्तेदारों के दबाव के आगे झुक कर आखिर बेमन से उन्हें सीमा की शादी अविनाश से करनी पड़ी.

दोनों की छोटी सी गृहस्थी मजे से चल रही थी. शादी के बाद भी सीमा अपनी आधी से ज्यादा तनख्वाह अपने मातापिता को दे देती. एक ही शहर में रहने की वजह से अकसर ही वह मायके चली आती. घर में खाना बनाने के लिए रसोइया था ही इसलिए वह अविनाश के लिए ज्यादा चिंता भी नहीं करती थी. पर अविनाश को उस का यों मायके वालों को सारा पैसा दे देना या हर समय वहां चला जाना अच्छा नहीं लगता था. वह अकसर सीमा को समझाता भी था लेकिन वह उस की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. आखिरकार, अविनाश ने भी उसे कुछ कहना छोड़ दिया.

अतीत की यादों से सीमा बाहर निकली तो देखा कमरे में अंधेरा हो आया था. पर सीमा ने लाइट नहीं जलाई. अब उसे एहसास हो रहा था कि उस के मातापिता ने अपने स्वार्थ के लिए उस की बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

सीमा के मातापिता को हर समय यही लगता कि आखिर कब तक सीमा उन की जरूरतें पूरी करती रहेगी. कभी तो अविनाश उसे रोक ही देगा. सीमा की मां और भाभियां हमेशा अविनाश के खिलाफ उस के कान भरती रहतीं. उसे कभी घर के छोटेमोटे काम करते देख कहतीं, ‘‘देखो, मायके में तो तुम रानी थीं और यहां आ कर नौकरानी हो गईं. यह क्या गत हो गई है तुम्हारी.’’

मातापिता के दिखावटी प्यार में अंधी सीमा को तब उन का स्वार्थ समझ में नहीं आया था और वह अविनाश को छोड़ कर मायके आ गई. कितना रोया था अविनाश, कितनी मिन्नतें की थीं उस की, कितनी बार उसे आश्वासन दिया था कि वह चाहे उम्र भर अपनी सारी तनख्वाह मायके में देती रहे वह कुछ नहीं बोलेगा. उसे तो बस सीमा चाहिए. लेकिन सीमा ने उस की एक नहीं सुनी और उसे ठुकरा आई.

भाभी के कमरे से अभी भी हंसीठहाकों की आवाजें आ रही थीं. सीमा को याद आया कि जब 4 साल पहले वह अविनाश का घर छोड़ कर हमेशा के लिए मायके आ गई थी तब सब काम उस से पूछ कर किए जाते थे, यहां तक कि खाना भी उस से पूछ कर ही बनाया जाता था.

और अब…अंधेरे में सीमा ने एक गहरी सांस ली. धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. रुचि की शादी हो गई. उस की शादी में भी उस ने अपनी लगभग सारी जमापूंजी पिता को सौंप दी थी. आज वही रुचि मां और भाभियों में ही मगन रहती है. अपने ससुराल के किस्से सुनाती रहती है. दोनों भाभियां, भैया, मां और पिताजी बेटी व दामाद के स्वागत में उन के आगेपीछे घूमते रहते हैं और सीमा अपने कमरे में उपेक्षित सी पड़ी रहती है.

रुचि के नन्हे बच्चे को देखते ही उस के दिल में एक टीस सी उठती. आज उस का भी नन्हा सा बच्चा होता, पति होता, अपना घर होता. सीमा दीवार से सिर टिका कर बैठ गई. तभी मां कमरे में आईं.

‘‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’’ मां ने बत्ती जलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, बस थोड़ा सिर में दर्द है,’’ सीमा ने दूसरी ओर मुंह कर के जल्दी से अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘सुन बेटी, मुझे तुझ से कुछ काम था,’’ मां ने अपने स्वर में मिठास घोलते हुए कहा.

‘‘बोलो मां, क्या काम है?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘रुचि दीवाली पर मायके आई है तो मैं सोच रही थी कि उसे एकाध गहना बनवा दूं. दामाद और नन्हे के लिए भी कपड़े लेने हैं. तुम कल बैंक से 15 हजार रुपए निकलवा लाना. कल शाम को ही बाजार जा कर गहने व कपड़े ले आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कल देखेंगे,’’ सीमा ने तल्ख स्वर में कहा.

सीमा ने मां से कह तो दिया पर उस का माथा भन्ना गया. 15 हजार रुपए क्या कम होते हैं. कितने आराम से कह दिया निकलवाने को. इतने सालों से वह अपने पैसों से घरभर की इच्छाओं की पूर्ति करती आ रही है लेकिन आज तक इन लोगों ने उस के लिए एक चुनरी तक नहीं खरीदी. मां को रुचि के लिए गहनेकपड़े खरीदने की चिंता है लेकिन उस के लिए दीवाली पर कुछ भी खरीदना याद नहीं रहता.

दूसरे दिन दफ्तर में सीमा का मन पूरे समय अविनाश के इर्दगिर्द घूमता रहा. उसे अपने किए पर आज पछतावा हो रहा था. लंच में उस की सहेली अनुराधा उस के कमरे में आ बैठी. अकसर दोनों साथसाथ लंच करती थीं.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ अनुराधा ने कहा, ‘‘मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तू बहुत ज्यादा परेशान लग रही है.’’

अनुराधा ने लंच करते समय जब अपनेपन से पूछा तो सीमा अपनेआप को रोक नहीं पाई. घर वालों के उपेक्षापूर्ण व स्वार्थी रवैए के बारे में उसे सबकुछ बता दिया.

‘‘देख सीमा, मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था कि अविनाश को छोड़ कर तू ने अच्छा नहीं किया पर तू मायके वालों के स्वार्थ को प्यार समझे बैठी थी और मेरी एक नहीं मानी. अब हकीकत का तुझे भी पता चल गया न.’’

‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ सीमा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अब जा कर आंखें खुली हैं तेरी लेकिन जब अविनाश ने तुझे मनाने और घर वापस ले जाने की इतनी बार कोशिशें कीं तब तो…बेचारा मनामना कर थक गया,’’ अनुराधा का स्वर कड़वा सा हो गया.

‘‘मैं अपनी गलती मानती हूं. अब बहुत सजा भुगत चुकी हूं मैं. मेरे पास अपना कहने को कोई नहीं रहा. मैं बिलकुल अकेली रह गई हूं, अनु,’’ इतना कह सीमा फफक पड़ी.

सीमा को रोते देख अनुराधा का मन पिघल गया. उसे चुप कराते हुए वह बोली, ‘‘देख, सीमा, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हां, देर तो हो गई है लेकिन इस के पहले कि और देर हो जाए तू अविनाश के पास वापस चली जा. तेरा पति होगा, अपना घर, अपना बच्चा, अपना परिवार होगा,’’ अनुराधा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाया.

‘‘लेकिन क्या अविनाश मुझे माफ कर के फिर से अपना लेगा?’’ सीमा ने सुबकते हुए पूछा.

‘‘वह करे या न करे पर तुझे अपनी ओर से पहल तो करनी ही चाहिए और जहां तक मैं अविनाश को जानती हूं वह तुझे दिल से अपना लेगा, क्योंकि यह तो तुम भी जानती हो कि उस ने अब तक शादी नहीं की है,’’ अनुराधा ने कहा.

सीमा ने आंसू पोंछ लिए. आखिरी बार जब अविनाश उसे समझाने आया था तब जातेजाते उस ने सीमा से यही कहा था कि मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे और मैं जिंदगी भर तुम्हारा इंतजार करूंगा.

अनुराधा ने सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘जा, खुशीखुशी जा, बिना संकोच के अपने घर वापस चली जा. बाकी तेरी बहन की शादी हो चुकी है, भाई कमाने लगे हैं, पिताजी को पेंशन मिलती है. उन लोगों को अपना घर चलाने दे, तू जा कर अपना घर संभाल. एक नई जिंदगी तेरी राह देख रही है.’’

क्या करे क्या न करे? इसी ऊहापोह में दीवाली बीत गई. त्योहार पर घर वालों के व्यवहार ने सीमा के निर्णय को और अधिक दृढ़ कर दिया.

छुट्टियां बीत जाने के बाद जब सीमा आफिस गई तो मन ही मन उस ने अपने फैसले को पक्का किया. अपने जो भी जरूरी कागजात व अन्य सामान था उसे सीमा ने आफिस के अपने बैग में डाला और आफिस चली गई. आफिस में अनुराधा से पता चला कि अविनाश शहर में ही है टूर पर नहीं गया है. शाम को घर पर ही मिलेगा.

शाम को आफिस से निकलने के बाद सीमा ने ड्राइवर को अविनाश के घर चलने के लिए कहा. हर मोड़ पर उस का दिल धड़क उठता कि पता नहीं क्या होगा. सारे रास्ते सीमा सुख और दुख की मिलीजुली स्थिति के बीच झूलती रही. 10 मिनट का रास्ता उसे 10 साल लंबा लगा था. गाड़ी अविनाश के घर के सामने जा रुकी. धड़कते दिल से सीमा ने गेट खोला और कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद ही अविनाश ने दरवाजा खोला.

‘‘सीमा, तुम…आज अचानक. आओआओ, अंदर आओ,’’ अविनाश सीमा को देखते ही खुशी से कांपते स्वर में बोला. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि सीमा को देख कर वह कितना खुश है.

‘‘मुझे माफ कर दो, अविनाश. घर वालों के झूठे मोह में पड़ कर मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ पहुंचाई है, बहुत दुख दिए हैं, पत्नी होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया मैं ने, लेकिन आज मेरी आंखें खुल गई हैं. क्या तुम मुझे फिर से…’’ सीमा ने अपना बैग नीचे रखते हुए पूछा तो आगे के शब्द आंसुओं की वजह से गले में ही फंस गए.

‘‘नहींनहीं, सीमा, गलती सभी से हो जाती है. जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. यह घर और मैं आज भी तुम्हारे ही हैं. देखो, तुम्हारा घर आज भी वैसे का वैसा ही है,’’ अविनाश ने सीमा को अपने सीने से लगा लिया.

सीमा का जब सारा गुबार आंसुओं में बह गया तो वह अविनाश से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने मायके वालों के प्रति अपना आखिरी कर्तव्य पूरा कर आती हूं.’’

‘‘वह क्या, सीमा?’’ अविनाश ने आश्चर्य और आशंका से पूछा.

‘‘उन्हें फोन तो कर दूं कि मैं अपने घर आ गई हूं, वे मेरी चिंता न करें,’’ सीमा ने हंसते हुए कहा तो अविनाश भी हंसने लगा.

‘‘हैलो, कौन…मां?’’ सीमा ने मायके फोन लगाया तो उधर से मां ने फोन उठाया.

‘‘हां, सीमा, तुम कहां हो…अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचीं?’’

‘‘मां, मैं घर पहुंच गई हूं, अपने घर…अविनाश के पास.’’

‘‘यह क्या पागलपन है, सीमा,’’ यह सुनते ही सीमा की मां बौखला गईं, ‘‘इस तरह से अचानक ही तुम…’’

मां और कुछ कहतीं इस से पहले ही सीमा ने फोन काट दिया. अपने नए जीवन की शुरुआत में वह किसी से उलटासीधा सुन कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. उसे प्यास लगी थी. पानी पीने के लिए सीमा रसोई में गई तो देखा एक थाली में अविनाश दीपक सजा रहा है.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अविनाश?’’ सीमा ने कौतूहल से पूछा.

‘‘दीये सजा रहा हूं.’’ अविनाश ने उत्तर दिया.

‘‘लेकिन दीवाली तो बीत चुकी है.’’

‘‘हां, लेकिन मेरे घर की लक्ष्मी तो आज आई है, तो मेरी दीवाली तो आज ही है. इसलिए उस के स्वागत में ये दीये जला रहा हूं,’’ अविनाश ने सीमा की तरफ प्यार से देखते हुए कहा तो सीमा का मन भर आया.

अब वह पतिपत्नी के इस अटूट स्नेह संबंध को हमेशा हृदय से लगा कर रखेगी, यह सोच कर वह भी दीये सजाने में अविनाश की मदद करने लगी. देर से ही सही लेकिन आज उन के जीवन में प्यार और खुशहाली के दीये झिलमिला रहे थे.

Hindi Fiction Stories : मैं हूं न – ननद की भाभी ने कैसे की मदद

Hindi Fiction Stories : लड़के वाले मेरी ननद को देख कर जा चुके थे. उन के चेहरों से हमेशा की तरह नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देखने को मिली थी. कोई कमी नहीं थी उन में. पढ़ी लिखी, कमाऊ, अच्छी कदकाठी की. नैननक्श भी अच्छे ही कहे जाएंगे. रंग ही तो सांवला है. नकारात्मक उत्तर मिलने पर सब यही सोच कर संतोष कर लेते कि जब कुदरत चाहेगी तभी रिश्ता तय होगा. लेकिन दीदी बेचारी बुझ सी जाती थीं. उम्र भी तो कोई चीज होती है.

‘इस मई को दीदी पूरी 30 की हो चुकी हैं. ज्योंज्यों उम्र बढ़ेगी त्योंत्यों रिश्ता मिलना और कठिन हो जाएगा,’ सोचसोच कर मेरे सासससुर को रातरात भर नींद नहीं आती थी. लेकिन जिसतिस से भी तो संबंध नहीं जोड़ा जा सकता न. कम से कम मानसिक स्तर तो मिलना ही चाहिए. एक सांवले रंग के कारण उसे विवाह कर के कुएं में तो नहीं धकेल सकते, सोच कर सासससुर अपने मन को समझाते रहते.

मेरे पति रवि, दीदी से साल भर छोटे थे. लेकिन जब दीदी का रिश्ता किसी तरह भी होने में नहीं आ रहा था, तो मेरे सासससुर को बेटे रवि का विवाह करना पड़ा. था भी तो हमारा प्रेमविवाह. मेरे परिवार वाले भी मेरे विवाह को ले कर अपनेआप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे. उन्होंने भी जोर दिया तो उन्हें मानना पड़ा. आखिर कब तक इंतजार करते.

मेरे पति रवि अपनी दीदी को बहुत प्यार करते थे. आखिर क्यों नहीं करते, थीं भी तो बहुत अच्छी, पढ़ीलिखी और इतनी ऊंची पोस्ट पर कि घर में सभी उन का बहुत सम्मान करते थे. रवि ने मुझे विवाह के तुरंत बाद ही समझा दिया था उन्हें कभी यह महसूस न होने दूं कि वे इस घर पर बोझ हैं. उन के सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, इसलिए कोई भी निर्णय लेते समय सब से पहले उन से सलाह ली जाती थी. वे भी हमारा बहुत खयाल रखती थीं. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी थी, इसलिए उन को पा कर मुझे लगा जैसे मुझे बड़ी बहन मिल गई हैं.

एक बार रवि औफिस टूअर पर गए थे. रात काफी हो चुकी थी. सासससुर भी गहरी नींद में सो गए थे. लेकिन दीदी अभी औफिस से नहीं लौटी थीं. चिंता के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी. तभी कार के हौर्न की आवाज सुनाई दी. मैं ने खिड़की से झांक कर देखा, दीदी कार से उतर रही थीं. उन की बगल में कोई पुरुष बैठा था. कुछ अजीब सा लगा कि हमेशा तो औफिस की कैब उन्हें छोड़ने आती थी, आज कैब के स्थान पर कार में उन्हें कौन छोड़ने आया है.

मुझे जागता देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘सोई नहीं अभी तक?’’

‘‘आप का इंतजार कर रही थी. आप के घर लौटने से पहले मुझे नींद कैसे आ सकती है, मेरी अच्छी दीदी?’’ मैं ने उन के गले में बांहें डालते हुए उन के चेहरे पर खोजी नजर डालते हुए कहा, ‘‘आप के लिए खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज औफिस में ही खा लिया था. अब तू जा कर सो.’’

‘‘गुड नाइट दीदी,’’ मैं ने कहा और सोने चली गई. लेकिन आंखों में नींद कहां?

दिमाग में विचार आने लगे कि कोई तो बात है. पिछले कुछ दिनों से दीदी कुछ परेशान और खोईखोई सी रहती हैं. औफिस की समस्या होती तो वे घर में अवश्य बतातीं. कुछ तो ऐसा है, जो अपने भाई, जो भाई कम और मित्र अधिक है से साझा नहीं करती और आज इतनी रात को देर से आना, वह भी किसी पुरुष के साथ, जरूर कुछ दाल में काला है. इसी पुरुष से विवाह करना चाहतीं तो पूरा परिवार जान कर बहुत खुश होता. सब उन के सुख के लिए, उन की पसंद के किसी भी पुरुष को स्वीकार करने में तनिक भी देर नहीं लगाएंगे, इतना तो मैं अपने विवाह के बाद जान गई हूं. लेकिन बात कुछ और ही है जिसे वे बता नहीं रही हैं, लेकिन मैं इस की तह में जा कर ही रहूंगी, मैं ने मन ही मन तय किया और फिर गहरी नींद की गोद में चली गई.

सुबह 6 बजे आंख खुली तो देखा दीदी औफिस के लिए तैयार हो रही थीं. मैं ने कहा, ‘‘क्या बात है दीदी, आज जल्दी…’’

मेरी बात पूरी होने हो पहले से वे बोलीं,  ‘‘हां, आज जरूरी मीटिंग है, इसलिए जल्दी जाना है. नाश्ता भी औफिस में कर लूंगी…देर हो रही है बाय…’’

मेरे कुछ बोलने से पहले ही वे तीर की तरह घर से निकल गईं. बाहर जा कर देखा वही गाड़ी थी. इस से पहले कि ड्राइवर को पहचानूं वह फुर्र से निकल गईं. अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अवश्य दीदी किसी गलत पुरुष के चंगुल में फंस गई हैं. हो न हो वह विवाहित है. मुझे कुछ जल्दी करना होगा, लेकिन घर में बिना किसी को बताए, वरना वे अपने को बहुत अपमानित महसूस करेंगी.

रात को वही व्यक्ति दीदी को छोड़ने आया. आज उस की शक्ल की थोड़ी सी झलक

देखने को मिली थी, क्योंकि मैं पहले से ही घात लगाए बैठी थी. सासससुर ने जब देर से आने का कारण पूछा तो बिना रुके अपने कमरे की ओर जाते हुए थके स्वर में बोलीं, ‘‘औफिस में मीटिंग थी, थक गई हूं, सोने जा रही हूं.’’

‘‘आजकल क्या हो गया है इस लड़की को, बिना खाए सो जाती है. छोड़ दे ऐसी नौकरी, हमें नहीं चाहिए. न खाने का ठिकाना न सोने का,’’ मां बड़बड़ाने लगीं, तो मैं ने उन्हें शांत कराया कि चिंता न करें. मैं उन का खाना उन के कमरे में पहुंचा दूंगी. वे निश्चिंत हो कर सो जाएं.

मैं खाना ले कर उन के कमरे में गई तो देखा वे फोन पर किसी से बातें कर रही थीं. मुझे देखते ही फोन काट दिया. मेरे अनुरोध करने पर उन्होंने थोड़ा सा खाया. खाना खाते हुए मैं ने पाया कि पहले के विपरीत वे अपनी आंखें चुराते हुए खाने को जैसे निगल रही थीं. कुछ भी पूछना उचित नहीं लगा. उन के बरतन उन के लाख मना करने पर भी उठा कर लौट आई.

2 दिन बाद रवि लौटने वाले थे. मैं अपनी सास से शौपिंग का बहाना कर के घर से सीधी दीदी के औफिस पहुंच गई. मुझे अचानक आया देख कर एक बार तो वे घबरा गईं कि ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि मुझे औफिस आना पड़ा.

मैं ने उन के चेहरे के भाव भांपते हुए कहा, ‘‘अरे दीदी, कोई खास बात नहीं. यहां मैं कुछ काम से आई थी. सोचा आप से मिलती चलूं. आजकल आप घर देर से आती हैं, इसलिए आप से मिलना ही कहां हो पाता है…चलो न दीदी आज औफिस से छुट्टि ले लो. घर चलते हैं.’’

‘‘नहीं बहुत काम है, बौस छुट्टी नहीं देगा…’’

‘‘पूछ कर तो देखो, शायद मिल जाए.’’

‘‘अच्छा कोशिश करती हूं,’’ कह उन्होंने जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश की. फिर बौस के कमरे में चली गईं.

बौस के औफिस से निकलीं तो वह भी उन के साथ था, ‘‘अरे यह तो वही आदमी

है, जो दीदी को छोड़ने आता है,’’ मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला. मैं ने चारों ओर नजर डाली. अच्छा हुआ आसपास कोई नहीं था. दीदी को इजाजत मिल गई थी. उन का बौस उन्हें बाहर तक छोड़ने आया. इस का मुझे कोई औचित्य नहीं लगा. मैं ने उन को कुरेदने के लिए कहा, ‘‘वाह दीदी, बड़ी शान है आप की. आप का बौस आप को बाहर तक छोड़ने आया. औफिस के सभी लोगों को आप से ईर्ष्या होती होगी.’’

दीदी फीकी सी हंसी हंस दीं, कुछ बोलीं नहीं. सास भी दीदी को जल्दी आया देख कर बहुत खुश हुईं.

रात को सभी गहरी नींद सो रहे थे कि अचानक दीदी के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आने लगीं. मैं उन के कमरे की तरफ लपकी. वे कुरसी पर निढाल पड़ी थीं. मैं ने उन के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्या बात है दीदी? ऐसा तो हम ने कुछ खाया नहीं कि आप को नुकसान करे फिर बदहजमी कैसे हो गई आप को?’’

फिर अचानक मेरा माथा ठकना कि कहीं दीदी…मैं ने उन के दोनों कंधे हिलाते हुए कहा, ‘‘दीदी कहीं आप का बौस… सच बताओ दीदी…इसीलिए आप इतनी सुस्त…बताओ न दीदी, मुझ से कुछ मत छिपाइए. मैं किसी को नहीं बताऊंगी. मेरा विश्वास करो.’’

मेरा प्यार भरा स्पर्श पा कर और सांत्वना भरे शब्द सुन कर वे मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगीं और सकारात्मकता में सिर हिलाने लगीं. मैं सकते में आ गई कि कहीं ऐसी स्थिति न हो गई हो कि अबौर्शन भी न करवाया जा सके. मैं ने कहा, ‘‘दीदी, आप बिलकुल न घबराएं, मैं आप की पूरी मदद करूंगी. बस आप सारी बात मुझे सुना दीजिए…जरूर उस ने आप को धोखा दिया है.’’

दीदी ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘ये बौस नए नए ट्रांसफर हो कर मेरे औफिस में आए थे. आते ही उन्होंने मेरे में रुचि लेनी शुरू कर दी और एक दिन बोले कि उन की पत्नी की मृत्यु 2 साल पहले ही हुई है. घर उन को खाने को दौड़ता है, अकेलेपन से घबरा गए हैं, क्या मैं उन के जीवन के खालीपन को भरना चाहूंगी? मैं ने सोचा शादी तो मुझे करनी ही है, इसलिए मैं ने उन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. मैं ने उन से कहा कि वे मेरे मम्मी पापा से मिल लें. उन्होंने कहा कि ठीक हूं, वे जल्दी घर आएंगे. मैं बहुत खुश थी कि चलो मेरी शादी को ले कर घर में सब बहुत परेशान हैं, सब उन से मिल कर बहुत खुश होंगे. एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि शादी से पहले मैं उन का घर तो देख लूं, जिस में मुझे भविष्य में रहना है. मैं उन की बातों में आ गई और उन के साथ उन के घर चली

गई. वहां उन के चेहरे से उन का बनावटी मुखौटा उतर गया. उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और धमकी दी कि यदि मैं ने किसी को बताया तो उन के कैमरे में मेरे ऐसे फोटो हैं, जिन्हें देख कर मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी. होश में आने के बाद जब मैं ने पूरे कमरे में नजर दौड़ाई तो मुझे पल भर की भी देर यह समझने में न लगी कि वह शादीशुदा है. उस समय उस की पत्नी कहीं गई होगी. मैं क्या करती, बदनामी के डर से मुंह बंद कर रखा था. मैं लुट गई, अब क्या करूं?’’ कह कर फिर फूटफूट कर रोने लगीं.

तब मैं ने उन को अपने से लिपटाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें दीदी. अब देखती हूं वह कैसे आप को ब्लैकमेल करता है. सब से पहले मेरी फ्रैंड डाक्टर के पास जा कर अबौर्शन की बात करते हैं. उस के बाद आप के बौस से निबटेंगे. आप की तो कोई गलती ही नहीं है.

आप डर रही थीं, इसी का फायदा तो वह उठा रहा था. अब आप निश्चिंत हो कर सो जाइए. मैं हूं न. आज मैं आप के कमरे में ही सोती हूं,’’ और फिर मैं ने मन ही मन सोचा कि अच्छा है, पति बाहर गए हैं और सासससुर का कमरा

दूर होने के कारण आवाज से उन की नींद नहीं खुली. थोड़ी ही देर में दोनों को गहरी नींद ने आ घेरा.

अगले दिन दोनों ननदभाभी किसी फ्रैंड के घर जाने का बहाना कर के डाक्टर

के पास जाने के लिए निकलीं. डाक्टर चैकअप कर बोलीं, ‘‘यदि 1 हफ्ता और निकल जाता तो अबौर्शन करवाना खतरनाक हो जाता. आप सही समय पर आ गई हैं.’’

मैं ने भावातिरेक में अपनी डाक्टर फ्रैंड को गले से लगा लिया.

वे बोलीं, ‘‘सरिता, तुम्हें पता है ऐसे कई केस रोज मेरे पास आते हैं. भोलीभाली लड़कियों को ये दरिंदे अपने जाल में फंसा लेते हैं और वे बदनामी के डर से सब सहती रहती हैं. लेकिन तुम तो स्कूल के जमाने से ही बड़ी हिम्मत वाली रही हो. याद है वह अमित जिस ने तुम्हें तंग करने की कोशिश की थी. तब तुम ने प्रिंसिपल से शिकायत कर के उसे स्कूल से निकलवा कर ही दम लिया था.’’

‘‘अरे विनीता, तुझे अभी तक याद है. सच, वे भी क्या दिन थे,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

पारुल के चेहरे पर भी आज बहुत दिनों बाद मुसकराहट दिखाई दी थी. अबौर्शन हो गया.

घर आ कर मैं अपनी सास से बोली, ‘‘दीदी को फ्रैंड के घर में चक्कर आ गया था, इसलिए डाक्टर के पास हो कर आई हैं. उन्होंने बताया

है कि खून की कमी है, खाने का ध्यान रखें और 1 हफ्ते की बैडरैस्ट लें. चिंता की कोई बात नहीं है.’’

सास ने दुखी मन से कहा, ‘‘मैं तो कब से कह रही हूं, खाने का ध्यान रखा करो, लेकिन मेरी कोई सुने तब न.’’

1 हफ्ते में ही दीदी भलीचंगी हो गईं. उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘तुम कितनी अच्छी हो भाभी. मुझे मुसीबत से छुटकारा दिला दिया. तुम ने मां से भी बढ़ कर मेरा ध्यान रखा. मुझे तुम पर बहुत गर्व है…ऐसी भाभी सब को मिले.’’

‘‘अरे दीदी, पिक्चर अभी बाकी है. अभी तो उस दरिंदे से निबटना है.’’

1 हफ्ते बाद हम योजनानुसार बौस की पत्नी से मिलने के लिए गए. उन को उन के पति का सारा कच्चाचिट्ठा बयान किया, तो वे हैरान होते हुए बोलीं, ‘‘इन्होंने यहां भी नाटक शुरू कर दिया…लखनऊ से तो किसी तरह ट्रांसफर करवा कर यहां आए हैं कि शायद शहर बदलने से ये कुछ सुधर जाएं, लेकिन कोई…’’ कहते हुए वे रोआंसी हो गईं.

हम उन की बात सुन कर अवाक रह गए. सोचने लगे कि इस से पहले न जाने

कितनी लड़कियों को उस ने बरबाद किया होगा. उस की पत्नी ने फिर कहना शुरू

किया, ‘‘अब मैं इन्हें माफ नहीं करूंगी. सजा दिलवा कर ही रहूंगी. चलो पुलिस

स्टेशन चलते हैं. इन को इन के किए की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप जैसी पत्नियां हों तो अपराध को बढ़ावा मिले ही नहीं. हमें आप पर गर्व है,’’ और फिर हम दोनों ननदभाभी उस की पत्नी के साथ पुलिस को ले कर बौस के पास उन के औफिस पहुंच गए.

पुलिस को और हम सब को देख कर वह हक्काबक्का रह गया. औफिस के सहकर्मी भी सकते में आ गए. उन में से एक लड़की भी आ कर हमारे साथ खड़ी हो गई. उस ने भी कहा कि उन्होंने उस के साथ भी दुर्व्यवहार किया है. पुलिस ने उन्हें अरैस्ट कर लिया. दीदी भावातिरेक में मेरे गले लग कर सिसकने लगीं. उन के आंसुओं ने सब कुछ कह डाला.

घर आ कर मैं ने सासससुर को कुछ नहीं बताया. पति से भी अबौर्शन वाली बात तो छिपा ली, मगर यह बता दिया कि वह दीदी को बहुत परेशान करता था.

सुनते ही उन्होंने मेरा माथा चूम लिया और बोले, ‘‘वाह, मुझे तुम पर गर्व है. तुम ने मेरी बहन को किसी के चंगुल में फंसने से बचा लिया. बीवी हो तो ऐसी.,’’

उन की बात सुन कर हम ननदभाभी दोनों एकदूसरे को देख मुसकरा दीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें