Moral Stories in Hindi : शेष चिह्न

Moral Stories in Hindi :  मायके और ससुराल वालों की सेवा में समर्पित निधि के सपने तो जैसे बिखर कर रह गए थे. जीवन के रेगिस्तान में भटकती निधि क्या ‘अपनों के प्यार’ की मरीचिका को पा सकी?

निधि की शादी तय हो गई थी पर उस को ऐसा लग रहा था मानो मरघट पर जाना है…लाश के साथ नहीं, खुद लाश बन कर. उस का और मेरा परिचय एक प्राइवेट स्कूल में हुआ था जिस में मैं अंगरेजी की अध्यापिका थी और वह साइंस की अध्यापिका हो कर आई थी.

उस का अप्रतिम रूप, कमल पंखड़ी सा गुलाबी रंग, पतला छरहरा बदन, सौम्य नाकनक्श थे पर घर की गरीबी के कारण विवाह न हो पा रहा था.

निधि का छोटा सा कच्चा पुश्तैनी मकान था. परिवार में 4 बहनों पर एकमात्र छोटा भाई अविनाश था. बस, सस्ते कपड़ों को ओढ़तेपहनते, गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह खिंच रही थी.

बड़ी बहन आरती के ग्रेजुएट होते ही एक क्लर्क से बात पक्की कर दी गई तो पिता ने कुछ जी.पी.एफ. से रुपए निकाल कर विवाह की रस्में पूरी कीं. किसी प्रकार आरती घर से विदा हो गई. सब ने चैन की सांस ली. कुछ महीने आराम से निकल गए.

आरती को दान- दहेज के नाम पर साधारण सामान ही दे पाए थे. न टेलीविजन न अन्य सामान, न सोना न चांदी. ससुराल में उस पर जुल्मों के पहाड़ टूटने लगे पर वह सब सहती रही.

फिर एक दिन उस ने अपनी कोख से बेटे के बजाय बेटी जनी तो उस पर जुल्म और बढ़ते ही गए. और एक रात अत्याचारों से घबरा कर वह पड़ोसियों की मदद से रोतीकलपती अपने साथ एक नन्ही सी जान को ले कर पिता की देहरी पर लौट आई. उस का यह हाल देख कर पूरे परिवार की चीत्कार पड़ोस तक जा पहुंची. फिर क्याकुछ नहीं भुगता पूरे घर ने. आरती ने तो कसम खा ली थी कि वह जीवन भर वहां नहीं जाएगी जहां ऐसे नराधम रहते हैं.

इस तरह मय ब्याज के बेटी वापस आ गई. अत्याचारों की गाथा, चोटों के निशान देख कर फिर उसी घर में बहन को भेजने का सब से ज्यादा विरोध निधि ने ही किया. 3-4 वर्ष के भीतर  ही तलाक हो गया तो मातापिता की छाती पर फिर से 4 बेटियों का भार बढ़ गया.

मुसीबत जैसे चारों ओर से काले बादलों की तरह घिर आई थी. उस पर महंगाई की मार ने सब कुछ अस्तव्यस्त कर दिया. जो सब की कमाई के पैसे मिलते वह गरम तवे पर पानी की बूंद से छन्न हो जाते. तीजत्योहार सूखेसूखे बीतते. अच्छा खाना उन्हें तब ही नसीब होता जब पासपड़ोस में शादी- विवाह होते. अच्छे सूटसाड़ी पहनने को उन का मन ललक उठता, पर सब लड़कियां मन मार कर रह जातीं.

निधि तो बेहद क्षुब्ध हो उठती. जहां उस के विवाह की बात होती, उस का रूप देख कर लड़के मुग्ध हो जाते  पर दानदहेज के लोभी उस के गुणशील को अनदेखा कर मुंह मोड़ लेते.

निधि मुझ से कहती, ‘‘सच कहती हूं मीनू, लगता है कहीं से इतना पैसा पा जाऊं कि अपने घर की दशा सुधार दूं. इस के लिए यदि कोई रईस बूढ़ा भी मिलेगा तो मैं शादी के लिए तैयार हो जाऊंगी. बहुत दुख, अभाव झेले हैं मेरे पूरे परिवार ने.’’

‘‘तू पागल हो गई है क्या? अपना पद्मिनी सा रूप देखा है आईने में? मेरे सामने ऐसी बात मत करना वरना दोस्ती छोड़ दूंगी. परिवार के लिए बूढ़े से ब्याह करेगी? क्या तू ने ही पूरे घर का ठेका लिया है? और भी कोई सोचता है ऐसा क्या?’’

मेरी आंखें नम हो गईं तो देखा वह भी अपनी पलकें पोंछ रही थी.

‘‘सच मीनू, तू ने गरीबी की परछाईं नहीं देखी पर हम बचपन से ही इसे भोग रहे हैं. अरे, अपनों के लिए इनसान बड़े से बड़ा त्याग करता है. मैं मर जाऊं तो मेरी आत्मा धन्य हो जाएगी. बीमार अम्मां व बाबूजी कैसे जी पाएंगे अपनी प्यारी बेटियों को दुखी देख कर. पता है, मैं पूरे 28 वर्ष की हो गई हूं, नीतिप्रीति भी विवाह की आयु तक पहुंच गई हैं. मुझे कई लड़के देख चुके हैं. लड़की पसंद, शिक्षा पसंद, नहीं पसंद है तो कम दहेज. यही तो हम सब के साथ होगा. धन के आगे हमारे रूपगुण सब फीके पड़ गए हैं.’’

उस की बातों पर मैं हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘अरे, तू तो किसी घर की राजरानी बनेगी. देख लेना तेरा दूल्हा सिरआंखों पर बैठाएगा तुझे. धनदौलत पर लोटेगी तू्.’’

‘‘रहने दे, ऐसे ऊंचे सपने मत दिखा, जो आगे चल कर मेरी छाती में टीस दें. हां, तुझे अवश्य ऐसा ही वरघर मिलेगा. अकेली बेटी, 2 बड़े भाई, सब ऊंचे पदों पर.’’

‘‘कहां राजा भोज कहां गंगू तेली? बड़े परिवार की समस्या पर ही तो सोचती हूं ऐसा, अपनी कुरबानी देने की.’’

फिर आएदिन मैं यही सुनती थी कि निधि को देखने वाले आए और गए. धन के अभाव में सब मुंह चुरा गए. इतनी तगड़ी मांगें कि घर भर के सिर फिर जाते. यहां तो शादी का खर्च उठाना मुश्किल था. उस पर लाखों की मांग.

एक दिन गरमी की दोपहर में आ कर निधि ने विस्फोट किया, ‘‘मीनू, तुझे याद है एक बार मैं ने तुझ से कहा था कि अगर कोई मालदार धनी बूढ़ा वर ही मिल जाएगा तो मैं उस से शादी करने को तैयार हो जाऊंगी. लगता है वही हो रहा है.’’

मैं ने घबरा कर अपनी छाती थाम ली फिर गुस्से से भर कर बोली, ‘‘तो क्या किसी बूढ़े खूसट का संदेशा आया है और तू तैयार हो गई है?’’ इतना कह कर तब मैं ने उस के दोनों कंधे झकझोर दिए थे.

वह बच्चों सी हंसी हंस दी. फिर पसीना पोंछती हुई बोली, ‘‘तू तो ऐसी घबरा रही है जैसे मेरे बजाय तेरी शादी होने जा रही है. देख, मैं बूढ़े खूसट की फोटो लाई हूं. उस की उम्र 40 के आसपास है और वह दुहेजा है. 4 साल पहले पत्नी मर गई थी.’’

उस ने फोटो मेरे हाथ पर रख दिया. ‘‘अरे वाह, यह तो बूढ़ा नहीं जवान, सुंदर है. तू मजाक कर रही है मुझ से?’’

‘‘नहीं रे, मजाक नहीं कर रही… दुहेजा है.’’

‘‘कहीं दहेज के चक्कर में पहली को मार तो नहीं डाला. क्या चक्कर है?’’ मैं बोली.

‘‘यह मेरी मौसी की ननद का देवर है,’’ निधि ने बताया.

‘‘सेल्स टेक्स कमिश्नर है. तीसरी बार बेटे को जन्म देते समय पत्नी की मौत हो गई थी.’’

‘‘तो क्या 2 संतान और हैं?’’

‘‘हां, 1 बेटी 10 साल की, दूसरी 8 साल की.’’

‘‘तो तुझे सौतेली मां का दर्जा देने आया है?’’

‘‘यह तो है पर पत्नी की मृत्यु के 4 साल बाद बड़ी मुश्किल से दूसरी शादी को तैयार हुआ है. घर पर बूढ़ी मां हैं. एक बड़ी बहन है जो कहीं दूर ब्याही गई है, बढ़ती बच्चियों को कौन संभाले. वह ठहरे नौकरीपेशा वाले. समय खराब है. इस से उन्हें तैयार होना पड़ा.’’

‘‘तो तू जाते ही मां बनने को तैयार हो गई, मदर इंडिया.’’

‘‘हां रे. अम्मांबाबूजी तो तैयार नहीं थे. मौसी प्रस्ताव ले कर आई थीं. मुझ से पूछा तो मैं क्या करती. जन्म भर अम्मांबाबूजी की छाती पर मूंग तो न दलती. दीदी व उन की बेटी बोझ बन कर ही तो रह रही हैं. फिर 2 बहनें और भी शूल सी गड़ती होंगी उन की आंखों में. कब तक बैठाए रहेंगे बेटियों को छाती पर?

‘‘मैं अगर इस रिश्ते को हां कर दूंगी तो सब संभल जाएगा. धन की उन के यहां कमी नहीं है, लखनऊ में अपनी कोठी है. ढेरों आम व कटहल के बगीचे हैं. नौकरचाकर सब हैं.

‘‘मैं सब को ऊपर उठा दूंगी, मीनू,’’ निधि ने जैसे अपने दर्द को पीते हुए कहा, ‘‘मेरे मातापिता की कुछ उम्र बच जाएगी नहीं तो उन के बाद हम सब कहां जाएंगे. बाबूजी 2 वर्ष बाद ही तो रिटायर हो रहे हैं, फिर पेंशन से क्या होगा इतने बड़े परिवार का? बता तो तू?’’

मैं ने निधि को खींच कर छाती से लगा लिया. लगा, एक इतनी खूबसूरत हस्ती जानबूझ कर अपने को परिवार के लिए कुरबान कर रही है. मेरे साथ वह भी फूटफूट कर रो पड़ी.

निधि शाम को आने का मुझ से वचन ले कर वापस लौट गई. फिर शाम को भारी मन लिए मैं उस के घर पहुंची. उस की मौसी आ चुकी थीं और वर के रूप में भूपेंद्र बैठक में आराम कर रहे थे. निधि को अभी देखा नहीं था. मैं मौसी के पास बैठ कर वर के घर की धनदौलत का गुणगान सुनती रही.

‘‘बेटी, तुम निधि की सहेली हो न,’’ मौसी ने पूछा, ‘‘वह खुश तो है इस शादी से, तुम से कुछ बात हुई?’’

‘‘मौसी? यह आप स्वयं निधि से पूछ लो. पास ही तो बैठी है वह.’’

‘‘वह तो कुछ बोलती ही नहीं है, चुप बैठी है.’’

‘‘इसी में उस की भलाई है,’’ मैं जैसे बगावत पर उतर आई थी.

‘‘मीनू, तुम नहीं जानती घर की परिस्थिति, पर मुझ से कुछ छिपा नहीं है. निधि की मां मुझ से छोटी है. उसी के आग्रह पर मैं अब तक कई लड़के वालों के पतेठिकाने भेजती रही पर बेटा, पैसों के लालची आज के लोग रूपगुण के पारखी नहीं हैं…फिर आरती में क्या कमी है, लेकिन क्या हुआ उस के साथ…मय ब्याज के वापस आ गई…ये निधि है 28 पार कर चुकी है. आगे 2 और हैं.’’

मैं उन के पास से उठ आई, ‘‘चल निधि, कमरे में बैठते हैं.’’

वह उठ कर अंदर आ गई.

मैं ने जबरन निधि को उठाया. उस का हाथमुंह धुलाया और हलका सा मेकअप कर के उसे मौसी की लाई साडि़यों में से एक साड़ी पहना दी, क्योंकि निधि को शाम का चायनाश्ता ले कर अपने को दिखाने जाना था. सहसा वर बैठक से निकल कर बाथरूम की ओर गया तो मैं अचकचा गई. कौन कह सकता है देख कर कि वह 40 का है. क्षण भर में जैसे अवसाद के क्षण उड़ गए. लगा, भले ही वर दुहेजा है पर निधि को मनचाहा वरदान मिल गया.

शाम के समय लड़की दिखाई के वक्त नाश्ते की प्लेटें लिए निधि के साथ मैं भी थी. तैयार हो कर तरोताजा बैठा प्रौढ़ जवान वर सम्मान में उठ कर खड़ा हो गया और उस के मुंह से ‘बैठिए’ शब्द सुन कर मन आश्वस्त हो उठा.

हम दोनों बैठ गए. निधि ने चाय- नाश्ता सर्व किया तो उस ने प्लेट हम लोगों की ओर बढ़ा दी. फिर हम दोनों से औपचारिक वार्त्ता हुई तो मैं ने वहां से उठना ही उचित समझा. खाली प्लेट ले कर मैं बाहर आ गई. दोनों आपस में एकदूसरे को ठीक से देखपरख लें यह अवसर तो देना ही था. फिर पूरे आधे घंटे बाद ही निधि बाहर आई.

‘‘क्या रहा, निधि?’’ मैं निकट चली आई.

‘‘बस, थोड़ी देर इंतजार कर,’’ यह कह कर निधि मुझे ले कर एक कमरे में आ गई. फिर 1 घंटे बाद जो दृश्य था वह ‘चट मंगनी पट ब्याह’ वाली बात थी.

रात 8 बजतेबजते आंगन में ढोलक बज उठी और सगाई की रस्म में जो सोने की चेन व हीरे की अंगूठी उंगलियों में पहनाई गई उन की कीमत 60 हजार से कम न थी.

15 दिन बाद ही छोटी सी बरात ले कर भूपेंद्र आए और निधि के साथ भांवरें पड़ गईं. इतना सोना चढ़ा कि देखने वालों की आंखें चौंधिया गईं. सब यह भूल गए कि वर अधिक आयु का है और विधुर भी है. बस, एक बात से सब जरूर चकरा गए थे कि दूल्हे की दोनों बेटियां भी बरात में आई थीं. पर वे कहीं से भी 12 और 8 की नहीं दिखती थीं. बड़ी मधु 16 वर्ष और छोटी विधु 12 की दिखती थीं. जवानी की डगर पर दोनों चल पड़ी थीं. सब को अंदाज लगाते देर नहीं लगी कि वर 50 की लाइन में आ चुका है.

निधि से कोई कुछ न कह सका. सब तकदीर के भरोसे उसे छोड़ कर चुप्पी लगा गए. 1 माह तक ससुराल में रह कर निधि जब 10 दिन के लिए मायके आई थी तो मैं ही उस से मिलने पहुंची थी. सोने से जैसे वह मढ़ गई थी. एक से बढ़ कर एक महंगे कपड़े, साथ ही सारे नए जेवर.

एक बात निधि को बहुत परेशान किए थी कि वे दोनों लड़कियां किसी प्रकार से विमाता को अपना नहीं पा रही थीं. बड़ी तो जैसे उस से सख्त नफरत करती, न साथ बैठती न कभी अपने से बोलती. पति से इस बात पर चर्चा की तो उन्होंने निधि को समझा दिया कि लोगों ने या इस की सहेलियों ने इस के मन में  उलटेसीधे विचार भर दिए हैं. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. अपनी बूढ़ी दादीमां का कहना भी वे दोनों टाल जातीं.

निधि हर समय इसी कोशिश में रहती कि वे दोनों उसे मां के बजाय अपना मित्र समझें. इस को निधि ने बताने की भी कोशिश की पर वे दोनों अवहेलना कर अपने कमरों में चली गईं. खाने के समय पिता के कई बार बुलाने पर वे डाइनिंग रूम में आतीं और थोड़ाबहुत खा कर चल देतीं. पिता भी जैसे पराए हो गए थे. पिता का कहना इस कान से सुनतीं उस कान निकाल देतीं.

निधि यदि कहती कि किसी सब्जेक्ट में कमजोर हो तो वह पढ़ा सकती है तो मधु फटाक से कह देती कि यहां टीचरों की कमी नहीं है. आप टीचर जरूर रही हैं पर छोटे से शहर के प्राइवेट स्कूल में. हम क्या बेवकूफ हैं जो आप से पढ़ेंगे और यह सुन कर निधि रो पड़ती.

एक से एक बढि़या डिश बनाने की ललक निधि में थी पर मायके में सुविधा नहीं थी इसलिए वह अपने शौक को पूरा न कर सकी. यहां पुस्तकों को पढ़ कर या टेलीविजन में देख कर तरहतरह की डिश बनाती, पूरे घर को खिलाती, पति और सास तो खुश होते पर उन दोनों बहनों की प्लेटें जैसी भरी जातीं वैसी ही कमरों से आ कर सिंक में पड़ी दिखतीं.

कई बार पिता ने प्यार से समझाया कि वह अब तुम्हारी मां हैं, उन का आदर करो, उन्हें अपना समझो तो बड़ी मधु फटाक से उत्तर दे देती, ‘पापा, आप की वह सबकुछ हो सकती हैं पर हमारी तो सौतेली मां हैं.’

इस पर पिता का कई बार हाथ उठ गया. निधि पक्ष ले कर आगे आई तो अपमानित ही हुई. इस से चुपचाप रो कर रह जाती. लड़कियां कहां जाती हैं, रात में देर से क्यों आती हैं. कुछ नहीं पूछ सकती थी वह.

लड़कियों के पिता सदैव गंभीर रहे. हमेशा कम बोलना, जैसे उन के चेहरे पर उच्च पद का मुखौटा चढ़ा रहता. बेटियों को भी कभी पिता से हंसतेबोलते नहीं देखा. कई बार निधि के मन में आया कि वह मधु से कुछ पूछे, बात करे पर वह तो हमेशा नाक चढ़ाए रहती.

बूढ़ी सास प्यार से बोलतीं, समझातीं, खानेपीने का खयाल रखने को कहतीं. जब बेटियों के बारे में वह पूछती तो कह देतीं, ‘‘सखीसहेलियों ने उलटासीधा भरा होगा. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. तू भूपेंद्र से बता दिया कर जो समस्या हो.’’

‘‘मांजी, एक तो रात में वह देर से आते हैं फिर वह इस स्थिति में नहीं होते कि उन से कुछ कहा जाए. दिन में बेटियों की बात बेटियों के सामने तो नहीं कह सकती, वह भी तब जब दोनों जैसे लड़ने को तैयार बैठी रहती हैं. मैं तो बोलते हुए भी डरती हूं कि पता नहीं कब क्या कह कर अपमान कर दें.’’

‘‘इसी से तो शादी करनी पड़ी कि पत्नी आ जाएगी तो कम से कम रात में घर आएगा तो उसे संभाल तो लेगी. अब तो तुझे ही सबकुछ संभालना है.’’

अधरों की हंसी, मन की उमंग, रसातल में समाती चली जा रही थी. सब सुखसाधन थे. जेवर, कपड़े, रुपएपैसे, नौकरचाकर परंतु लगता था वह जंगल में भयभीत हिरनी सी भटक रही है. मायके की याद आती, जहां प्रेम था, उल्लास था, अभावों में भी दिन भर किल्लोल के स्वर गूंजते थे. तभी एक दिन देखा कि दोनों बहनें मां का वार्डरोव खोल कर कपड़े धूप में डाल रही हैं और लाकर से उन के जेवर निकाल कर बैग में ठूंस रही हैं. निधि का माथा ठनका. उस दिन छुट्टी थी. सब घर पर ही थे. वह चुपके से घर के आफिस में गई. उस समय वह अकेले ही थे. बोली, ‘‘क्या मैं आ सकती हूं?’’

‘‘अरे, निधि, आओ, आओ, बैठो,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल से सिर उठाया.

‘‘ये मधुविधु कहीं जा रही हैं क्या?’’

‘‘क्यों, तुम्हें क्यों लगा ऐसा? पूछा नहीं उन से?’’

‘‘पूछ कैसे सकती हूं…कभी वे बोलती भी हैं क्या? असल में उन्होंने अपनी मां के कपड़े धूप में डाले हैं और जेवर बैग में रख रही हैं.’’

‘‘दरअसल, वह अपनी मां के जेवर बैंक लाकर में रखने को कह रही थीं तो मैं ने ही कहा कि निकाल लो, कल रख देंगे, घर पर रखना ठीक नहीं है. दोनों की शादी में दे देंगे.’’

‘‘क्षमा करें, अकसर दोनों कभी अकेले जा कर रात में देर से घर आती हैं. इस से आप से कहना पड़ा,’’ निधि जाने के लिए उठ खड़ी हुई.

‘‘ठहरो, निधि, तुम कभी शौपिंग को नहीं जाती हो? भई, रुपएपैसे मेरी अलमारी में पड़े रहते हैं. जेवर, कपड़े जो चाहिए खरीद लाया करो. कोई रोक नहीं है. आजकल तो महिलाएं नएनए डिजाइन के गहनेकपड़े पहन कर घूमती हैं. मैं चाहता हूं कि तुम भी वैसी ही घूमो, क्लब ज्वाइन कर लो, इस से परिचय बढ़ेगा. पढ़ीलिखी हो, सुंदर हो, थोड़ा स्मार्ट बनो.’’

दूसरे दिन दोनों बहनें बैंक जा कर सारे जेवर बैंक लाकर में रख आईं और चाबी अपने पास रख ली.

निधि कई बार मायके हो आई थी. कभी सोचा था कि दोनों छोटी बहनों को वह अपने पास रख कर पढ़ाएगी पर वह सब जैसे स्वप्न हो गया. हां, रुपए ले जा कर वह सब को कपड़े आदि अवश्य खरीद देती. हर बार जरूरत की कुछ न कुछ महंगी चीज खरीद कर रख जाती. रंगीन टेलीविजन, पंखे, छोटा सा फ्रिज आदि. इस से ज्यादा रुपए लेने की उस की हिम्मत नहीं थी. जब तक निधि मायके रहती कुछ दिन को अच्छा भोजन पूरे घर को मिल जाता, बाद में फिर वही पुराना क्रम चल पड़ता.

अभी मायके से आए निधि को केवल 15 दिन ही हुए थे कि अचानक जैसे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. वह बीमार थी. कई दिनों से खांसी से पीडि़त थी. दोनों बहनें खापी कर अपने कमरे में बैठी टेलीविजन देख रही थीं.

तभी जोर से दरवाजे की घंटी बजी. उस ने आ कर दरवाजा खोला तो कुछ अनजाने चेहरों को देख कर चौंक गई.

‘‘आप लोग कौन हैं. साहब घर पर नहीं हैं,’’ उन्हें भीतर घुसते देख कर निधि घबरा गई, ‘‘अरे, अंदर कैसे घुस रहे हैं आप लोग?’’ वह चिल्ला कर बोली ताकि दोनों बहनें सुन लें लेकिन  टेलीविजन के तेज स्वर के कारण उस की आवाज वहां तक नहीं पहुंची. खिड़की से झांक कर दोबारा निधि चिल्ला कर बोली, ‘‘मधु, देखो ये लोग कौन हैं और घर में घुसे जा रहे हैं.’’

‘‘मैडम, हम विजिलेंस आफीसर हैं और आप के यहां छापा मारने आए हैं. यह देखिए मेरा आई कार्ड.’’

दोनों बहनें बाहर दौड़ कर आईं और चिल्ला कर बोलीं, ‘‘पापा घर पर नहीं हैं. जब वह आएं तब आप लोग आइए.’’

‘‘पापा आप के अभी नहीं आ पाएंगे, क्योंकि वह पुलिस हिरासत में हैं.’’

‘‘क्यों, क्या किया है उन्होंने?’’

‘‘शायद आप को पता नहीं कि आप के पापा रिश्वत लेते रंगेहाथों पकड़े गए हैं. अब तो बेल होने पर ही घर आ पाएंगे,’’ यह सुन कर निधि को चक्कर आ गया और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

‘‘पापा से फोन कर के हम बात कर लें तब आप को अंदर घुसने देंगे,’’ यह कहते हुए मधु ने फोन लगाया तो पापा का भर्राया स्वर गूंजा, ‘‘कानून में बाधा मत डालो, मधु. लेने दो तलाशी.’’

शाम को जब वह हारेथके घर आए तो लग रहा था महीनों से बीमार हों. पैर लड़खड़ा रहे थे. उन्होंने पहले निधि को फिर मधु व विधु की ओर देखा. बरामदे में पूरी शक्ति लगा कर वह अपने भारी- भरकम शरीर को चढ़ा पाए पर संभल नहीं पाए और धड़ाम से गिर पड़े. होंठों से झाग बह चला. तीनों के मुंह से चीखें निकल गईं. डाक्टर आया तो उन्होंने तुरंत अस्पताल में भरती करने की सलाह दी. तीनों उन्हें एंबुलेंस में लाद कर अस्पताल ले गईं. डाक्टरों ने हृदयाघात बताया.

निधि सारी रात पति के सिरहाने बैठी रही. दोनों बहनें कुछ देर को घर लौटीं, क्योंकि चपरासी ने बताया था कि मांजी की हालत बहुत खराब हो गई है.

उन्हें होश आया तो वह बोले, ‘‘निधि, मुझे बहुत दुख है कि अभी अपने विवाह को केवल 10 माह ही हुए हैं और मैं इस प्रकार झूठे मामले में फंसा दिया गया. तुम यह मकान बेच कर मां को ले कर मायके चली जाना. मधु के मामा संपन्न हैं. वे उन्हें जरूर इलाहाबाद ले जाएंगे. यदि मां को ले जाना चाहें तो ले जाने देना. मैं ने कुछ रुपए कबाड़खाने के टूटे बाक्स में पुराने कागजों के नीचे दबा रखे हैं. वहां कोई न ढूंढ़ पाएगा. तुम अपने कब्जे में कर लेना. बचे रहे तो मुकदमा लड़ने के काम आएंगे.’’

निधि फूटफूट कर रो पड़ी फिर बोली, ‘‘पर वहां तो सील लग गई है. पुलिस का पहरा है,’’ निधि के मुंह से यह सुन कर उन की आंखों से ढेरों आंसू लुढ़क पड़े. फिर पता नहीं कब दवा के नशे में सोतेसोते ही उन्हें दूसरा दौरा पड़ा, 3 हिचकियां आईं और उन के प्राण निकल गए.

निधि की तो अब दुनिया ही उजड़ गई. जिस धन की इच्छा में उस ने अधेड़ विधुर को अपनाया था वह उसे मंझधार में ही छोड़ कर चला गया.

मातापिता सब आए. मधु के नाना, मामा आदि पूरा परिवार जुड़ आया. सब उस के अशुभ चरणों को कोस रहे थे. चारों ओर के व्यंग्य व लांछनों से वह घबरा गई. पुलिस ने उस के मायके तक को खंगाल डाला था.

मांजी तो जीवित लाश सी हो गई थीं. निधि की हालत देख कर उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और पूजागृह से अपनी संदूक खींच कर उसे यह कहते हुए सौंप दी, ‘‘बेटी, इस में जो कुछ है तेरा है. मैं तो अपनी बेटी के पास शेष जीवन काट लूंगी. यह लोग तुझे जीने नहीं देंगे. मकान बिकेगा तो तुझे भी हिस्सा मिलेगा. मेरे दामाद व बेटी तुझे अवश्य हिस्सा दिलवाएंगे. तू अपने नंगे गले में मेरा यह लाकेट डाल ले और ये चूडि़यां, शेष तो सब सरकारी हो गया. बेटी, 1 साल बाद जहां चाहे दूसरा विवाह कर लेना… अभी तेरी उम्र ही क्या है.’’

वह चुपचाप रोती रही. फिर उसे ध्यान आया और जहां पति ने बताया था वहां ढूंढ़ा तो 10 लाख की गड्डियां प्राप्त हुईं. तलाशी तो पहले ही हो चुकी थी इस से वह सब ले कर मांबाप के साथ मायके आ गई. बस, वह पेंशन की हकदार रह गई थी. वह भी तब तक जब तक कि वह पति की विधवा बन कर रहे.

निधि ने रुपए किसी बैंक में नहीं डाले बल्कि उन से कंप्यूटर खरीद कर बहनों के साथ अपनी कंप्यूटर क्लास खोल ली. उस ने बैंक से लोन भी लिया था, जिस से कभी पकड़ी न जाए. अच्छी पेंशन मिली वह भी केस निबटने के कई वर्ष बाद.

मैं निधि के घर तुरंत गई थी. उस का वैधव्य रूप, शिथिल काया, कांतिहीन चेहरा देख कर खूब रोई.

‘‘मीनू, देख, कैसा राजसुख भोग कर लौटी हूं. रही बात अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिलने की तो वह 2 राज्यों के चलते कभी न मिल पाएगी. मैं उत्तर प्रदेश में रह नहीं सकती और मध्य प्रदेश में नौकरी मिल नहीं सकती. हर माह पेंशन के लिए मुझे लखनऊ जाना पड़ेगा. गनीमत है कि मैं बाप पर भार नहीं हूं. पति सुख नहीं केवल धन सुख भोग पाऊंगी. इसी रूप की तू सराहना करती थी पर वहां तो सब मनहूस की पदवी दे गए.

‘‘वे क्या जानें कि मैं ने आधी रात को नशे में चूर डगमगाए पति की भारीभरकम देह को कैसे संभाला है. मद में चूर, कामातुर असफल पुरुष की मर्दानगी को गरम रेत पर पड़ी मछली सी तड़प कर लोटलोट कर काटी हैं ये पूरे 10 माह की रातें. मेरा कुआंरा अनजाना तनमन जैसे लाज भरी उत्तेजना से उद्भासित हो उठता.’’

‘‘निधि, संभाल अपनेआप को. तू जानती है न कि मैं अभी इस अनुभव से सर्वथा अनजान हूं.’’

‘‘ओह, सच में मीना. मैं अपनी रौ में सब भूल गई कि तू यह सब क्या जाने. मुझे क्षमा करेगी न?’’

‘‘कोई बात नहीं निधि, तेरी सखी हूं न, जो समझ पाई वह ठीक, नहीं समझी वह भी ठीक. तेरा मन हलका हुआ. शायद विवाह के बाद मैं तेरी ये बातें समझ पाऊंगी, तब तेरी यह व्यथा बांटूंगी.’’

‘‘तब तक ये ज्वाला भी शीतल पड़ जाएगी. मैं अपने पर अवश्य विजय पा लूंगी. अभी तो नया घाव है न जैसे आवां से तप कर बरतन निकलता है तो वह बहुत देर तक गरम रहता है.’’

‘‘अच्छा, अब चलूंगी. बहुत देर हो गई.

Hindi Drama 2025 : बुढ़ापे में बच्चों के साथ रिश्ते की कहानी

Hindi Drama 2025 : सुनयना का निधन 3 महीने पहले ही तो हुआ था. पत्नी का यूं अचानक चले जाना मेरे लिए बहुत घातक था. इस सदमे ने मेरे वजूद को तोड़ कर रख दिया था. मैं, मैं नहीं रहा था. मेरी स्थिति उस खंडहर मकान जैसी हो गई थी जो नींव से तो जुड़ा था पर मकान कहलाने लायक नहीं था. इन 3 महीनों में ही परिवार पर से मेरा दबदबा लगभग खत्म हो चला था. बहू स्नेहा, जो कभी मेरे पैरों की आहट से डरती और बचती फिरती थी, अब मुझ से जिरह करने लगी थी. बेटा प्रतीक मुझ से चेहरा उठा कर बात करने लगा था. दोनों पूरी तरह से गिरगिट की तरह रंग बदल चुके थे. आखिर क्यों? मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.

वैसे तो घर में सभी तरह के काम करने के लिए नौकर हैं पर अब मैं होलटाइमर हूं. चौबीस घंटे वाला खिदमतगार. झाड़ूपोंछा करने वाली सुबह 9 बजे आती है और अपना काम कर के 10 बजे तक चली जाती है. उस के कुछ देर बाद ही चौकाबरतन करने वाली आती है और पौन घंटे में काम खत्म कर के चली जाती है. कपड़े धोने के लिए अलग नौकरानी है और कार चलाने के लिए एक ड्राइवर भी है, लेकिन दिन में तो  24 घंटे होते हैं और 24 तरह के काम भी. सुनयना की मृत्यु के बाद से वे सभी काम मैं, 65 साल का बूढ़ा, संभालता हूं.

मैं ने बदलते हालात से समझौता कर लिया है. मेरा मानना है कि समझौता शब्द बहुत गुणकारी है. आप की सारी उलझनों को पल भर में सुलझा देता है. आप की जिंदगी में बड़े से बड़ा तूफान आ जाए, मुलायम घास की तरह झुक कर उसे गुजर जाने देना ठीक है. अकड़ू पेड़ तो टूट कर गिर जाते हैं.

पत्नी के निधन के कुछ दिन बाद प्रतीक गुस्से से भरा मेरे पास चला आया था. आते ही एक प्रश्न जड़ा था, ‘रात आप ने खाना क्यों नहीं खाया?’

मैं ने सहज भाव से कहा था, ‘कल हमारी शादी की वर्षगांठ थी, बेटे. तेरी मां की याद आ गई. फिर खाने का मन ही नहीं हुआ. रात तो मैं सो भी नहीं पाया.’

जब उसे एहसास हुआ कि मेरे भूखे सो जाने का कारण किसी प्रकार की नाराजगी नहीं थी तो नाटकीय अफसोस जताते हुए वह बोला, ‘ओह, मुझे याद ही नहीं रहा, बाबा. दरअसल, जिंदगी इतनी मशीनी हो गई है कि न दिन के गुजरने का एहसास होता है और न ही रात के. काम, काम और सिर्फ काम. आराम के पल, इन काम के पलों के बीच कहां खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता? ऐसे में कोई क्याक्या याद रखे?’

प्रतीक चला गया था. और मैं सोचने लगा कि आज रिश्ते कितने संकुचित हो चले हैं. इस पीढ़ी के लोग यह तो याद रखते हैं कि पति का बर्थडे कब है? पत्नी का कब? बच्चों का कब? अपनी मैरिज ऐनीवरसरी कब है? पर हमारी पीढ़ी के बारे में कुछ याद नहीं रहता. यह कैसी विडंबना है? एक हमारा समय था. हम मातापिता को बेहिसाब सम्मान देते थे.  जबकि यह पीढ़ी तो मांबाप को नौकरों की तरह समझने में भी नहीं हिचकिचाती, सेवा करना तो दूर की बात है.

इस पीढ़ी की एक और खास आदत है, मातापिता का किया भूलने की. आज प्रतीक यह भी भूल चुका है कि उस की पढ़ाई के लिए हम ने यह घर कभी गिरवी रखा था. अपना भविष्य भुला कर उस का वर्तमान संवारा था. पता नहीं, इस पीढ़ी को अपने काम के सामने रिश्ते भी क्यों छोटे लगने लगते हैं? घर वालों से भी बातें करते समय शब्दों में व्यावसायिकता की बू आती है. पक्के पेशेवर हो चुके हैं. हमारी शादी की वर्षगांठ भूल जाने का बड़ा ही अच्छा बहाना बनाया था उस ने.

सुनयना की मृत्यु से पहले तक घर में, मेरा दबदबा हमेशा बना रहा. न प्रतीक ने कभी मुझ से आंखें मिला कर बात की और न ही स्नेहा ने कभी ऐसा व्यवहार किया, जिस से कि हमें ठेस पहुंचे. जीवन में हम ने मातापिता से यही सीखा था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं, पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर जरूर होता है.

ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. प्यार केवल जोड़ता है, तोड़ता नहीं. उन की इस नसीहत को मैं ने घर की नींव में डाला था. यही कारण है कि मैं यह प्रयास करता रहता ताकि रिश्तों में कड़वाहट कभी न आए.

एक दिन शरीर की टूटन के कारण मैं देर तक सोता रह गया तो स्नेहा ने मुझे कमरे में आ कर जगाया. तेज आवाज में बोली, ‘बाबा, आप ने तो हद कर दी है. सुबह 10 बजे उठने की आदत बना डाली है. दिनभर हमारे पीछे आप सोते रहते हैं. मुफ्त का खाना खाते हैं. इस आलीशान घर में रहते हैं. आप को न पानी का बिल भरना पड़ता है और न ही लाइट का. सर्दी में हीटर और गरमी में एसी जैसी सुविधाएं तो हम ने जुटा ही रखी हैं तो क्या हम आप से यह उम्मीद भी न करें कि आप सुबह समय से उठ जाएं और घर संभालें? हम औफिस जा रहे हैं. घर में नौकर काम कर रहे हैं. उन्हें अकेला तो नहीं छोड़ा जा सकता. उठिए और घर का दरवाजा बंद कर लीजिए.’

स्नेहा मुझे नींद से झकझोर कर चली गई. मैं स्तब्ध था. सोच रहा था कि स्नेहा ने कितनी आसानी से मेरे एक दिन लेट उठने को, मेरी रोज की आदत में तबदील कर दिया था. शरीर की टूटन की परवा न करते हुए भी उठ कर दरवाजा बंद कर लिया था. कल प्रतीक ने भी ऐसा ही व्यवहार किया था. उस ने औफिस जाते समय मुझ से कहा था, ‘बाबा, आखिर इस तरह कब तक चलेगा? आप घर का जरा सा भी ध्यान नहीं रखते. घर से नौकर सामान चुराचुरा कर ले जाते हैं. रसोई से मसाले चोरी होते हैं. तेल, घी हर 15-20 दिन में खत्म हो जाते हैं. साबुन पता नहीं कहां जाते हैं. मेरा एक तौलिया और एक नीली शर्ट कितने दिनों से ढूंढ़े नहीं मिल रहे. स्नेहा की कई मैक्सियां और साडि़यां दिखाई नहीं देती हैं. घर में चोरियां न हों, आप को इस का खयाल तो रखना चाहिए. जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए.’

मन ही मन मैं उबल कर रह गया. जी में आया कि मुंह पर कस कर एक थप्पड़ जड़ दूं. मुझे सिखाने चला है कि मैं क्या करूं, क्या न करूं? आज के बच्चे जब घर में भी प्रोफैशनल किस्म की बातें करते हैं तो मुझे गुस्सा कुछ ज्यादा ही आता है. चिढ़ होने लगती है. वैसे मैं समझ गया था कि उस ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया है? दिल्ली में विश्वासपात्र नौकर मिलना एक बड़ी समस्या है. बाहरी प्रदेशों से नौकरी की चाह लिए आए लोगों को बिना उन का आचरण और चरित्र जाने

24 घंटे घर में नहीं रखा जा सकता. पता नहीं वे कब कौन सा कांड कर बैठें या घर की बहुमूल्य संपत्ति ले कर चलते बनें. उन की इस जरूरत के लिए भला मुझ से अधिक लायक होलटाइमर नौकर और कौन हो सकता है?

बस, इसी क्षण मेरा मन घर से उचट गया. मुझे लगने लगा कि मेरी सल्तनत अब पूरी तरह से धराशायी हो गई है. परिवार में मेरी स्थिति शून्य हो गई है. घर में रोज बढ़ता तनाव मुझे पसंद नहीं था, इसलिए परेशानी मुझे अधिक थी. बेटाबहू मिल कर मुझ पर प्रहार किए जा रहे थे. परिवार में एकदूसरे को प्रतिदिन सहना यदि दूभर होने लगे तो घर टूटने की संभावनाएं बढ़ ही जाती हैं. घर टूटे, मुझे यह मंजूर नहीं था, क्योंकि मैं समझता था कि घर तोड़ना बहुत आसान है, उसे जोड़े रखना बहुत कठिन.

सोचा, कैसे हाथों से फिसलती रेत को रोकूं? अपनी परेशानियों को घर की चारदीवारी से बाहर जाने से बचाऊं? वह भी ऐसे समय में जब परिवार के किनारे टूटते हुए लग रहे हैं? रिश्तों में दरार साफसाफ दिखाई दे रही है. घर के झगड़े और रिश्तों में मनमुटाव के किस्से यदि बाहर जाने लगें, तब कोई क्या कर पाएगा? जगहंसाई होगी. उसे न प्रतीक रोक पाएगा, न स्नेहा और न मैं. कपड़ा जरा सा फटा हो तो उस में से थोड़ा ही दिखाई देता है, यदि पूरा का पूरा फट जाए तो कोई क्या छिपा पाएगा?

मन हुआ था कि शांति से जीने के लिए इस जलालतभरी जिंदगी से हमेशाहमेशा के लिए दूर हो जाऊं. घर बेच कर, इन्हें बेघर कर दूं और वृद्धाश्रम चला जाऊं. तब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी. इन रिश्तों के लिए मैं मर जाऊंगा. फिर स्नेहा किसे अपना क्रोध दिखाएगी? प्रतीक किस से यह कहेगा कि जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए?

वृद्धाश्रम के हाल ही कौन से अच्छे होते हैं. वहां अजीब तरह की छीछालेदर होती है. संचालक से ले कर इनमेट तक आप को नोंचने लगते हैं. प्रश्न पर प्रश्न. क्या हुआ? बच्चों ने निकाल दिया? बच्चे मारतेपीटते थे? कोई बीमारी है? दवादारू नहीं करते थे? खाना नहीं देते थे? भैया, अगर कुछ पैसों का जुगाड़ हो सके तो यहां से खिसक लो. किराए का मकान लो और अपनी मरजी की जिंदगी जिओ.  आश्रम नाम के सेवाधाम होते हैं, किसी जेल से कम नहीं हैं वे. मैं तो इन बेतुके प्रश्नों का उत्तर देतेदेते ही मर जाऊंगा.

दूसरे पल ही मेरी इस सोच को मन नकार गया. मेरे निश्चय की दृढ़ता तोड़ने लगा. मन ने मुझे समझाया कि यदि मैं ने ऐसा कदम उठाया तो स्नेहरूपी घर को बनाए रखने के सपने का क्या होगा? मैं अपने पैर पर आप ही कुल्हाड़ी नहीं मार लूंगा? मन ने यह भी समझाया कि एक क्षण तो मैं झगड़ों और मनमुटाव की बातों को घर से बाहर न जाने देने की बात सोचता हूं, फिर दूसरे ही पल वृद्धाश्रम जाने की बात करता हूं. यह विरोधाभास क्यों? क्या मेरे रिश्ते इस तरह हमेशा के लिए नहीं टूट जाएंगे?

हमारी पीढ़ी के लोग कहेंगे कि कैसे मतलबी होते हैं आज के बच्चे? जिन्होंने जरा से खर्च के बोझ की खातिर बूढ़े बाप को घर से निकाल दिया. इस पीढ़ी के बच्चे सोचेंगे कि घर आखिर घर होता है. उस में हमेशा कूड़ा जमा किए रखने की कोई जगह नहीं होती. प्रतीक और स्नेहा ने ठीक ही किया. कम से कम अब बूढ़े से कोई अटक तो नहीं रहेगी, और न रहेगी हर वक्त की चखचख. दोनों अब अपने तरीके से जी तो सकेंगे.

दोपहर को मेरे सोने का समय होता है. तब तक घर के सभी काम खत्म हो जाते हैं. खाना बनाने वाली मेरे लिए खाना बना कर जा चुकी होती है. उस के जाने के बाद मैं तसल्ली से खाना खाता हूं और खा कर सो जाता हूं. शाम को काम का सिलसिला 5 बजे से शुरू होता है. उस से कुछ पहले उठ कर मैं चाय पीता हूं और नौकरों के आने का इंतजार करने लगता हूं.

पर आज मुझे नींद ही नहीं आई. लाख चाहा कि प्रतीक और स्नेहा के किए बरताव को भूल जाऊं. घर जिस तरह चल रहा है, चलने दूं. पर अपनों के दिए घाव कुछ इतने गहरे होते हैं कि कभी सूखते ही नहीं. सोचने लगा कि सुनयना की मृत्यु के बाद से ही, ऐसा क्या हो गया कि बच्चे इतना अकड़ने लगे हैं? अभद्र व्यवहार करने का दुस्साहस करने लगे हैं.

मैं सोचने लगा कि बढ़ती हुई उम्र के साथ मेरी मजबूरियां बढ़ गई हैं. मैं अशक्त हो गया हूं. हाथपैर अब साथ नहीं देते. बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा कर लिया है. एक जाती है तो दूसरी आती है. कुछ तो पक्का घर बना बैठी हैं. यदि डाक्टरों की बात मानूं तो जिंदगी एकचौथाई ही बची है. दिमाग दगा दे चुका है. क्या सही है और क्या गलत, समझ में ही नहीं आता. मन और मस्तिष्क के बीच उठापटक चलती रहती है. पूंजी के नाम पर अब केवल यह मकान ही है. बाकी जो थी वह सुनयना की बीमारी में खत्म हो गई. जराजरा सी जरूरतों के लिए मुझे इन बच्चों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. शायद ये मजबूरियां ही इन की अकड़ और अभद्र व्यवहार का कारण हों? केवल मेरी ही नहीं, इन की भी तो मजबूरियां हैं. दिल्ली में मकान खरीदना आसान बात नहीं है. मकानों की कीमतें दिनदूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही हैं. इस उम्र में महंगे मकान खरीदने का पैसा इन के पास नहीं है. ये इसीलिए इस घर में टिके हुए हैं, वरना कभी का मुझे अकेला छोड़ कर चले गए होते.

दूसरी मजबूरी यह है कि इन्हें एक होलटाइमर नौकर नहीं मिल रहा है. निश्चित रूप से इन का यह व्यवहार इसी कारण है. मन ने कहा, ‘मैं मजबूर जरूर हूं, पर इतना लाचार भी नहीं कि अपने स्वाभिमान की चिता जला दूं. अब मैं किसी हालत में इन से समझौता नहीं करूंगा. मैं ने निश्चय कर लिया कि मकान बेच दूंगा और किराए के मकान में रह कर जिंदगी गुजार दूंगा.’

शाम को प्रतीक और स्नेहा के घर लौटने से पहले प्रौपर्टी ब्रोकर आ गया. मकान देख कर दूसरे दिन खरीदार लाने का वादा कर के चला गया. जब प्रतीक और स्नेहा घर लौटे तो रोजमर्रा की तरह मैं ने ही दरवाजा खोला. मैं उन से सख्त नाराज था. मैं ने उन की तरफ देखा भी नहीं. दरवाजा खोल कर अपने कमरे में चला गया. वे दोनों भी अपने कमरे में चले गए. सोते वक्त जी बहुत हलकाहलका लगा. तनाव भी कम हो गया था.

बडे़ सवेरे ब्रोकर खरीदार ले कर आ गया. उस समय प्रतीक और स्नेहा दोनों ही घर में थे. इस से पहले कि मैं ब्रोकर से कुछ बात कर पाऊं, प्रतीक ब्रोकर से बोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘ये सज्जन इस मकान को खरीदना चाहते हैं,’’ ब्रोकर ने अपने साथ आए खरीदार की ओर इशारा करते हुए कहा.

अब इस से पहले कि प्रतीक कुछ और पूछ पाए, मैं बोल उठा, ‘‘मैं यह मकान बेच रहा हूं.’’

‘‘आप मकान बेच रहे हैं, क्यों?’’ प्रतीक मेरे इस फैसले पर अचंभित दिखा.

‘‘मेरी मरजी.’’

‘‘यह मकान नहीं बिकेगा. यह मैं कह रहा हूं,’’ प्रतीक ने अब ब्रोकर की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘आप जाइए, प्लीज. बाबा ने यह फैसला जरा जल्दी में ले लिया है. अगर हम पक्का निर्णय ले सके तो मैं खुद आप को फोन कर के बुला लूंगा.’’

ब्रोकर और परचेजर दोनों लौट गए. मेरे क्रोध की सीमा टूटने वाली ही थी कि प्रतीक मुझ से बोला, ‘‘यह आप क्या करने जा रहे थे, बाबा? अपना प्यारा सा घर बेच रहे थे? आखिर क्यों?’’

‘‘ताकि मैं तुम लोगों के अत्याचार से छुटकारा पा सकूं. जीवन के जो आखिरी दिन बचे हैं, उन्हें चैन से जी सकूं. मुझे नौकर बना कर छोड़ दिया है तुम दोनों ने. बच्चे मुझे अपमानित करें, यह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकता,’’ मैं आवेश में कांपने लगा था.

प्रतीक मुझे बांहों से थामते हुए बोला, ‘‘बाबा, मैं आप के आक्रोश का कारण समझ गया हूं. आप पहले बैठिए.’’

मुझे कुरसी पर बिठाने के बाद वह और स्नेहा फर्श पर मेरे समीप ही बैठ गए. प्रतीक ने मेरा हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोलना शुरू किया, ‘‘आप स्नेहा और मेरे व्यवहार से नाराज हैं, मैं समझ चुका हूं. हम भी पश्चात्ताप में जल रहे हैं, यह हमारा सच है. हम आप से इस व्यवहार के लिए क्षमा मांगना चाहते थे, पर आप के खौफ के कारण हम आप का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. हमारे ही व्यवहार के कारण यह घर बिखर जाएगा. बाबा, हम उन बच्चों में से नहीं हैं जो घर में अपने बुजुर्गों की अहमियत नहीं समझते. दरअसल, दिनभर की भागमभाग और काम की टैंशन हमें इतना चिड़चिड़ा कर देती है कि हम कभीकभी यह भूल जाते हैं कि हम किस से बातें कर रहे हैं और क्या बातें कर रहे हैं.’’

प्रतीक की इन बातों से मेरा क्रोध कुछ शांत हुआ. मैं ने प्रतीक और स्नेहा के चेहरों को पढ़ा. वास्तव में पश्चात्ताप उन के चेहरों पर डोल रहा था. संवेदनाओं के बादल उमड़घुमड़ रहे थे. किसी भी समय आंसुओं की बारिश संभव थी.

प्रतीक ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘बाबा, पहले तो आप यह समझ लीजिए कि आप हम पर बोझ नहीं हैं. आप मजबूर भी नहीं हैं और यह भी कि हम भविष्य में आप को अकेला छोड़ कर कहीं जाने वाले नहीं हैं. घर में आप का स्थान नौकरों का भी नहीं है. आप जरा मेरे साथ हमारे कमरे में चलिए. वहां मंदिर को देखिए और खुद तय कर लीजिए कि हमारे दिल में आप का स्थान कहां है? सोचिए, यदि घर में 3 प्राणी हों और उन में से 2 सुबह से रात तक घर से बाहर रहते हों तो पीछे से घर कौन संभालेगा? वही जो घर में रहता हो.’’

प्रतीक ने लंबी सांस ली. भर आई आंखों को अपने रूमाल से पोंछा. स्नेहा ने भी अपनी आंखें पोंछी. प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘होता यह है कि जीवन की मुख्यधारा से अलगथलग पड़ते बुजुर्ग अपनेआप को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं. इंसीक्योरिटी की यह भावना उन में डर और शंकाओं को जन्म देती है. वे हर वक्त यही सोचते रहते हैं कि उन के इस बुरे वक्त में उन का सहारा कौन बनेगा? बच्चे उन की आंखों से दूर हो जाएं तो लगता है कि बच्चों को भी उन की परवा नहीं है. यह इंसिक्योरिटी की भावना फिर उन्हें सही सोचने ही नहीं देती.

‘‘हमारी पीढ़ी भी बाबा, बुजुर्गों के प्रति कुछ कम लापरवाह नहीं है. हम खुली जिंदगी जीना चाहते हैं. कोई रोकटोक और अनुशासन हमें पसंद नहीं. जब हम घर से बाहर होते हैं, खुले आकाश में आजाद पंछियों की तरह उड़ते हैं. जो जी चाहे करते हैं और जब घर में घुसते हैं तो हमारी आजादी के पंख कट जाते हैं. हम घर में फड़फड़ाते रहते हैं. बुजुर्गों का दबदबा, खौफ और घर का अनुशासन घुटन पैदा करने लगता है. तब हमारा भी मन करता है कि इस घुटनभरी जिंदगी से दूर भाग जाएं. ऐसे में दोनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य नहीं बन पाता. दोनों पीढि़यां ही मानने लगती हैं कि घर में यदि सासबहू हैं, तो झगड़ा तो होगा ही. बुजुर्ग और युवा साथसाथ रहते हैं, तो टकराव तो होगा ही.’’

मैं प्रतीक को एकटक देखता ही चला गया. सोचने लगा, मेरा छोटा सा बच्चा इतना विद्वान कब हो गया, मुझे पता ही नहीं चल पाया. कितनी नजदीकी से इस ने जिंदगी को पढ़ा है. मुझे मेरे सोच गड़बड़ाते हुए लगने लगे. प्रतीत हुआ कि शायद मैं ही गलत था.

प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘बाबा, आप ने हमें सिखाया था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर तो होता ही है. ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. जो रिश्ता टूट जाए, समझ लो वहां प्यार था ही नहीं. बड़ा होतेहोते इस सीख का सही अर्थ मैं समझ गया हूं. यदि मैं गलत नहीं हूं तो घर सिर्फ ईंटगारे का बना होता है.

‘‘आदर्श घर वह होता है जहां रिश्ते एकदूसरे का आदर करते हैं. वहां ससुर ससुर होते हैं, सास सास और बहू बहू. उन में आदर तो होता है, प्यार नहीं. और घर वही मधुवन बन पाता है जहां रिश्तों में प्यार होता है. वहां न ससुर होते हैं, न सास और न बहू. तीनों के बीच आदर से अधिक एकदूसरे के लिए प्यार होता है.’’

उस ने मुझे देखा, शायद मेरे चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ने के लिए. फिर बोला, ‘‘बाबा, हम इस घर को केवल आदर्श घर ही बना सके, महकतागमकता उपवन नहीं. यह घर आज तक आप के खौफ में जिया है. हम डरतेडरते जीते रहे हैं. रिश्तों में प्यार था कहां? सिर्फ खौफ था. घर में घुसने की इच्छा नहीं होती थी. लगता था कि हम जेल में घुस रहे हैं. आज भी हमारे संबंधों में वह खुलापन है कहां? हम जो खुली जिंदगी जीना चाहते हैं, वह है कहां?’’

‘‘बस बेटे, बस…’’ मैं ने उठ कर दोनों बच्चों को गले लगा लिया और कहा, ‘‘घर में गलत मैं ही था. जो सीख मैं तुम लोगों को देता रहा, मैं ने खुद उस पर अमल नहीं किया. अभी इसी वक्त मैं ने अपने खौफ का गला घोंट दिया है. अब हम तीनों आपस में मित्र हैं. ससुर, बेटा या बहू नहीं.’’

दोनों बच्चे मुझ से लिपटलिपट कर रोने लगे. मेरी आंखें भी बिना बहे न रह पाईं. अब मैं ने अपना कमरा, जो घर के मुख्यद्वार के पास था, उन्हें दे कर खुद को घर के पिछवाड़े में शिफ्ट कर लिया है ताकि बच्चे अपनी खुली जिंदगी जी सकें. मुख्यद्वार पर लगी अपनी नेमप्लेट हटा कर प्रतीक के नाम की लगवा दी है. अब हम तीनों जब साथ बैठते हैं तो हंसीठट्ठे ही सुनाई देते हैं.

अब घर से बाहर जो भी बुजुर्ग या युवा मुझ से मिलते हैं, मैं सभी से

कहता हूं कि यदि घर को घर बनाए रखना है तो बुजुर्ग अपना रौबदाब

छोड़ें, बच्चों को खुली जिंदगी दें और बच्चे अपने बुजुर्गों को कूड़ा न समझें, उन का खयाल रखें. विचारों का यह तालमेल घर में प्यार ही प्यार भर देगा. वह प्यार जो सब को आपस में जोड़ता है, एकदूसरे से तोड़ता नहीं.

– सतीश सक्सेना

Happy New Year 2025 : समझौते की एक सुखद सफलता

Happy New Year 2025 : जब मां का फोन आया, तब मैं बाथरूम से बाहर निकल रहा था. मेरे रिसीवर उठाने से पहले ही शिखा ने फोन पर वार्त्तालाप आरंभ कर दिया था. मां उस से कह रही थीं, ‘‘शिखा, मैं ने तुम्हें एक सलाह देने के लिए फोन किया है. मैं जो कुछ कहने जा रही हूं, वह सिर्फ मेरी सलाह है, सास होने के नाते आदेश नहीं. उम्मीद है तुम उस पर विचार करोगी और हो सका तो मानोगी भी…’’

‘‘बोलिए, मांजी?’’ ‘‘बेटी, तुम्हारे देवर पंकज की शादी है. वह कोई गैर नहीं, तुम्हारे पति का सगा भाई है. तुम दोनों के व्यापार अलग हैं, घर अलग हैं, कुछ भी तो साझा नहीं है. फिर भी तुम लोगों के बीच मधुर संबंध नहीं हैं बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि संबंध टूट चुके हैं. मैं तो समझती हूं कि अलगअलग रह कर संबंधों को निभाना ज्यादा आसान हो जाता है.

‘‘वैसे उस की गलती क्या है…बस यही कि उस ने तुम दोनों को इस नए शहर में बुलाया, अपने साथ रखा और नए सिरे से व्यापार शुरू करने को प्रोत्साहित किया. हो सकता है, उस के साथ रहने में तुम्हें कुछ परेशानी हुई हो, एकदूसरे से कुछ शिकायतें भी हों, किंतु इन बातों से क्या रिश्ते समाप्त हो जाते हैं? उस की सगाई में तो तुम नहीं आई थीं, किंतु शादी में जरूर आना. बहू का फर्ज परिवार को जोड़ना होना चाहिए.’’ ‘‘तो क्या मैं ने रिश्तों को तोड़ा है? पंकज ही सब जगह हमारी बुराई करते फिरते हैं. लोगों से यहां तक कहा है, ‘मेरा बस चले तो भाभी को गोली मार दूं. उस ने आते ही हम दोनों भाइयों के बीच दरार डाल दी.’ मांजी, दरार डालने वाली मैं कौन होती हूं? असल में पंकज के भाई ही उन से खुश नहीं हैं. मुझे तो अपने पति की पसंद के हिसाब से चलना पड़ेगा. वे कहेंगे तो आ जाऊंगी.’’

‘‘देखो, मैं यह तो नहीं कहती कि तुम ने रिश्ते को तोड़ा है, लेकिन जोड़ने का प्रयास भी नहीं किया. रही बात लोगों के कहने की, तो कुछ लोगों का काम ही यही होता है. वे इधरउधर की झूठी बातें कर के परिवार में, संबंधों में फूट डालते रहते हैं और झगड़ा करा कर मजा लूटते हैं. तुम्हारी गलती बस इतनी है कि तुम ने दूसरों की बातों पर विश्वास कर लिया. ‘‘देखो शिखा, मैं ने आज तक कभी तुम्हारे सामने चर्चा नहीं की है, किंतु आज कह रही हूं. तुम्हारी शादी के बाद कई लोगों ने हम से कहा, ‘आप कैसी लड़की को बहू बना कर ले आए. इस ने अपनी भाभी को चैन से नहीं जीने दिया, बहुत सताया. अपनी भाभी की हत्या के सिलसिले में इस का नाम भी पुलिस में दर्ज था. कुंआरी लड़की है, शादी में दिक्कतें आएंगी, यही सोच कर रिश्वत खिला कर उस का नाम, घर वालों ने उस केस से निकलवाया है.’

‘‘अगर शादी से पहले हमें यह समाचार मिलता तो शायद हम सचाई जानने के लिए प्रयास भी करते, लेकिन तब तक तुम बहू बन कर हमारे घर आ चुकी थीं. कहने वालों को हम ने फटकार कर भगा दिया था. यह सब बता कर मैं तुम्हें दुखी नहीं करना चाहती, बल्कि कहना यह चाहती हूं कि आंखें बंद कर के लोगों की बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए. खैर, मैं ने तुम्हें शादी में आने की सलाह देने के लिए फोन किया है, मानना न मानना तुम्हारी मरजी पर निर्भर करता है,’’ इतना कह कर मां ने फोन काट दिया था. मां ने कई बार मुझे भी समझाने की कोशिश की थी, किंतु मैं ने उन की पूरी बात कभी नहीं सुनी. बल्कि,? उन पर यही दोषारोपण करता रहा कि वह मुझ से ज्यादा पंकज को प्यार करती हैं, इसलिए उन्हें मेरा ही दोष नजर आता है, पंकज का नहीं. इस पर वे हमेशा यहां से रोती हुई ही लौटी थीं.

लेकिन सचाई तो यह थी कि मैं खुद भी पंकज के खिलाफ था. हमेशा दूसरों की बातों पर विश्वास करता रहा. इस तरह हम दोनों भाइयों के बीच खाई चौड़ी होती चली गई. लेकिन फोन पर की गई मां की बातें सुन कर कुछ हद तक उन से सहमत ही हुआ. मां यहां नहीं रहती थीं. शादी की वजह से ही पंकज के पास उस के घर आई हुई थीं. वे हम दोनों भाइयों के बीच अच्छे संबंध न होने की वजह से बहुत दुखी रहतीं इसीलिए यहां बहुत कम ही आतीं.

लोग सही कहते हैं, अधिकतर पति पारिवारिक रिश्तों को निभाने के मामले में पत्नी पर निर्भर हो जाते हैं. उस की नजरों से ही अपने रिश्तों का मूल्यांकन करने लगते हैं. शायद यही वजह है, पुरुष अपने मातापिता, भाईबहनों आदि से दूर होते जाते हैं और ससुराल वालों के नजदीक होते जाते हैं.

दूसरों शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अपने रक्त संबंधों के प्रति अधिक वफादार होती हैं. इसीलिए अपने मायके वालों से उन के संबंध मधुर बने रहते हैं. बल्कि कड़ी बन कर वे पतियों को भी अपने परिवार से जोड़ने का प्रयास करती रहती हैं. वैसे पुरुष का अपनी ससुराल से जुड़ना गलत नहीं है. गलत है तो यह कि पुरुष रिश्तों में संतुलन नहीं रख पाते, वे नए परिवार से तो जुड़ते हैं, किंतु धीरेधीरे अपने परिवार से दूर होते चले जाते हैं. भाईभाई में, भाईबहनों में कहासुनी कहां नहीं होती. लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं होता कि संबंध समाप्त

कर लिए जाएं. मेरे साथ यही हुआ, जानेअनजाने मैं पंकज से ही नहीं, अपने परिवार के अन्य सदस्यों से भी दूर होता चला गया. सही माने में देखा जाए तो संपन्नता व कामयाबी के जिस शिखर पर बैठ कर मैं व मेरी पत्नी गर्व महसूस कर रहे थे, उस की जमीन मेरे लिए पंकज ने ही तैयार की थी. उस के पूर्ण सहयोग व प्रोत्साहन के बिना अपनी पत्नी के साथ मैं इस अजनबी शहर में आने व अल्प पूंजी से नए सिरे से व्यवसाय शुरू करने की बात सोच भी नहीं सकता था. उस का आभार मानने के बदले मैं ने उस रिश्ते को दफन कर दिया. मेरी उन्नति में मेरी ससुराल वालों का 1 प्रतिशत भी योगदान नहीं था, किंतु धीरेधीरे वही मेरे नजदीक होते गए. दोष शिखा का नहीं, मेरा था. मैं ही अपने निकटतम रिश्तों के प्रति ईमानदार नहीं रहा. जब मैं ने ही उन के प्रति उपेक्षा का भाव अपनाया तो मेरी पत्नी शिखा भला उन रिश्तों की कद्र क्यों करती?

समाज में साथ रहने वाले मित्र, पड़ोसी, परिचित सब हमारे हिसाब से नहीं चलते. हम में मतभेद भी होते हैं. एकदूसरे से नाखुश भी होते हैं, आगेपीछे एकदूसरे की आलोचना भी करते हैं, लेकिन फिर भी संबंधों का निर्वाह करते हैं. उन के दुखसुख में शामिल होते हैं. फिर अपनों के प्रति हम इतने कठोर क्यों हो जाते हैं? उन की जराजरा सी त्रुटियों को बढ़ाचढ़ा कर क्यों देखते हैं? कुछ बातों को नजरअंदाज क्यों नहीं कर पाते? तिल का ताड़ क्यों बना देते हैं? मैं सोचने लगा, पंकज मेरा सगा भाई है. यदि जानेअनजाने उस ने कुछ गलत किया या कहा भी है तो आपस में मिलबैठ कर मतभेद मिटाने का प्रयास भी तो कर सकते थे. गलतफहमियों को दूर करने के बदले हम रिश्तों को समाप्त करने के लिए कमर कस लें, यह तो समझदारी नहीं है. असलियत तो यह है कि कुछ शातिर लोगों ने दोस्ती का ढोंग रचाते हुए हमें एकदूसरे के विरुद्ध भड़काया, हमारे बीच की खाई को गहरा किया. हमारी नासमझी की वजह से वे अपनी कोशिश में कामयाब भी रहे, क्योंकि हम ने अपनों की तुलना में गैरों पर विश्वास किया.

मैं ने निर्णय कर लिया कि अपने फैसले मैं खुद लूंगा. पंकज की शादी में शिखा जाए या न जाए, किंतु मैं समय पर पहुंच कर भाई का फर्ज निभाऊंगा. उस की सगाई में भी शिखा की वजह से ही मैं तब पहुंचा, जब प्रोग्राम समाप्त हो चुका था. सगाई वाले दिन मैं जल्दी ही दुकान बंद कर के घर आ गया था, लेकिन शिखा ने कलह शुरू कर दिया था. वह पंकज के प्रति शिकायतों का पुराना पुलिंदा खोल कर बैठ गई थी. उस ने मेरा मूड इतना खराब कर दिया था कि जाने का उत्साह ही ठंडा पड़ गया. मैं बिस्तर पर पड़ापड़ा सो गया था. जब नींद खुली तो रात के 10 बज रहे थे. मन अंदर से कहीं कचोट रहा था कि तेरे सगे भाई की सगाई है और तू यहां घर में पड़ा है. फिर मैं बिना कुछ विचार किए, देर से ही सही, पंकज के घर चला गया था.

मानव का स्वभाव है कि अपनी गलती न मान कर दोष दूसरे के सिर पर मढ़ देता है, जैसे कि वह दोष मैं ने शिखा के सिर पर मढ़ दिया. ठीक है, शिखा ने मुझे रोकने का प्रयास अवश्य किया था किंतु मेरे पैरों में बेड़ी तो नहीं डाली थी. दोषी मैं ही था. वह तो दूसरे घर से आई थी. नए रिश्तों में एकदम से लगाव नहीं होता. मुझे ही कड़ी बन कर उस को अपने परिवार से जोड़ना चाहिए था, जैसे उस ने मुझे अपने परिवार से जोड़ लिया था.

शिखा की सिसकियों की आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ. वह बाहर वाले कमरे में थी. उसे मालूम नहीं था कि मैं नहा कर बाहर आ चुका हूं और फोन की पैरलेल लाइन पर मां व उस की पूरी बातें सुन चुका हूं. मैं सहजता से बाहर गया और उस से पूछा, ‘‘शिखा, रो क्यों रही हो?’’ ‘‘मुझे रुलाने का ठेका तो तुम्हारे घर वालों ने ले रखा है. अभी आप की मां का फोन आया था. आप को तो पता है न, मेरी भाभी ने आत्महत्या की थी. आप की मां ने आरोप लगाया है कि भाभी की हत्या की साजिश में मैं भी शामिल थी,’’ कह कर वह जोर से रोने लगी.

‘‘बस, यही आरोप लगाने के लिए उन्होंने फोन किया था?’’ ‘‘उन के हिसाब से मैं ने रिश्तों को तोड़ा है. फिर भी वे चाहती हैं कि मैं पंकज की शादी में जाऊं. मैं इस शादी में हरगिज नहीं जाऊंगी, यह मेरा अंतिम फैसला है. तुम्हें भी वहां नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘सुनो, हम दोनों अपनाअपना फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं. मैं चाहते हुए भी तुम्हें पंकज के यहां चलने के लिए बाध्य नहीं करना चाहता. किंतु अपना निर्णय लेने के लिए मैं स्वतंत्र हूं. मुझे तुम्हारी सलाह नहीं चाहिए.’’ ‘‘तो तुम जाओगे? पंकज तुम्हारे व मेरे लिए जगहजगह इतना जहर उगलता फिरता है, फिर भी जाओगे?’’

‘‘उस ने कभी मुझ से या मेरे सामने ऐसा नहीं कहा. लोगों के कहने पर हमें पूरी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए. लोगों के कहने की परवा मैं ने की होती तो तुम को कभी भी वह प्यार न दे पाता, जो मैं ने तुम्हें दिया है. अभी तुम मांजी द्वारा आरोप लगाए जाने की बात कर रही थीं. पर वह उन्होंने नहीं लगाया. लोगों ने उन्हें ऐसा बताया होगा. आज तक मैं ने भी इस बारे में तुम से कुछ पूछा या कहा नहीं. आज कह रहा हूं… तुम्हारे ही कुछ परिचितों व रिश्तेदारों ने मुझ से भी कहा कि शिखा बहुत तेजमिजाज लड़की है. अपनी भाभी को इस ने कभी चैन से नहीं जीने दिया. इस के जुल्मों से परेशान हो कर भाभी की मौत हुई थी. पता नहीं वह हत्या थी या आत्महत्या…लेकिन मैं ने उन लोगों की परवा नहीं की…’’ ‘‘पर तुम ने उन की बातों पर विश्वास कर लिया? क्या तुम भी मुझे अपराधी समझते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें अपराधी नहीं समझता. न ही मैं ने उन लोगों की बातों पर विश्वास किया था. अगर विश्वास किया होता तो तुम से शादी न करता. तुम से बस एक सवाल करना चाहता हूं, लोग जब किसी के बारे में कुछ कहते हैं तो क्या हमें उस बात पर विश्वास कर लेना चाहिए.’’

‘‘मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह सब झूठ है. हम से जलने वालों ने यह अफवाह फैलाई थी. इसी वजह से मेरी शादी में कई बार रुकावटें आईं.’’ ‘‘मैं ने भी उसे सच नहीं माना, बस तुम्हें यह एहसास कराना चाहता हूं कि जैसे ये सब बातें झूठी हैं, वैसे ही पंकज के खिलाफ हमें भड़काने वालों की बातें भी झूठी हो सकती हैं. उन्हें हम सत्य क्यों मान रहे हैं?’’

‘‘लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे बातें झूठी हैं. खैर, लोगों ने सच कहा हो या झूठ, मैं तो नहीं जाऊंगी. एक बार भी उन्होंने मुझ से शादी में आने को नहीं कहा.’’ ‘‘कैसे कहता, सगाई पर आने के लिए तुम से कितना आग्रह कर के गया था. यहां तक कि उस ने तुम से माफी भी मांगी थी. फिर भी तुम नहीं गईं. इतना घमंड अच्छा नहीं. उस की जगह मैं होता तो दोबारा बुलाने न आता.’’

‘‘सब नाटक था, लेकिन आज अचानक तुम्हें हो क्या गया है? आज तो पंकज की बड़ी तरफदारी की जा रही है?’’

तभी द्वार की घंटी बजी. पंकज आया था. उस ने शिखा से कहा, ‘‘भाभी, भैया से तो आप को साथ लाने को कह ही चुका हूं, आप से भी कह रहा हूं. आप आएंगी तो मुझे खुशी होगी. अब मैं चलता हूं, बहुत काम करने हैं.’’ पंकज प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना लौट गया.

मैं ने पूछा, ‘‘अब तो तुम्हारी यह शिकायत भी दूर हो गई कि तुम से उस ने आने को नहीं कहा? अब क्या इरादा है?’’

‘‘इरादा क्या होना है, हमारे पड़ोसियों से तो एक सप्ताह पहले ही आने को कह गया था. मुझे एक दिन पहले न्योता देने आया है. असली बात तो यह है कि मेरा मन उन से इतना खट्टा हो गया है कि मैं जाना नहीं चाहती. मैं नहीं जाऊंगी.’’ ‘‘तुम्हारी मरजी,’’ कह कर मैं दुकान चला गया.

थोड़ी देर बाद ही शिखा का फोन आया, ‘‘सुनो, एक खुशखबरी है. मेरे भाई हिमांशु की शादी तय हो गई है. 10 दिन बाद ही शादी है. उस के बाद कई महीने तक शादियां नहीं होंगी. इसीलिए जल्दी शादी करने का निर्णय लिया है.’’

‘‘बधाई हो, कब जा रही हो?’’ ‘‘पूछ तो ऐसे रहे हो जैसे मैं अकेली ही जाऊंगी. तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘तुम ने सही सोचा, तुम्हारे भाई की शादी है, तुम जाओ, मैं नहीं जाऊंगा.’’ ‘‘यह क्या हो गया है तुम्हें, कैसी बातें कर रहे हो? मेरे मांबाप की जगहंसाई कराने का इरादा है क्या? सब पूछेंगे, दामाद क्यों नहीं आया तो

क्या जवाब देंगे? लोग कई तरह की बातें बनाएंगे…’’ ‘‘बातें तो लोगों ने तब भी बनाई होंगी, जब एक ही शहर में रहते हुए, सगी भाभी हो कर भी तुम देवर की सगाई में नहीं गईं…और अब शादी में भी नहीं जाओगी. जगहंसाई क्या

यहां नहीं होगी या फिर इज्जत का ठेका तुम्हारे खानदान ने ही ले रखा है, हमारे खानदान की तो कोई इज्जत ही नहीं है?’’

‘‘मत करो तुलना दोनों खानदानों की. मेरे घर वाले तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. क्या तुम्हारे घर वाले मुझे वह इज्जत व प्यार दे पाए?’’ ‘‘हरेक को इज्जत व प्यार अपने व्यवहार से मिलता है.’’

‘‘तो क्या तुम्हारा अंतिम फैसला है कि तुम मेरे भाई की शादी में नहीं जाओगे?’’ ‘‘अंतिम ही समझो. यदि तुम मेरे भाई की शादी में नहीं जाओगी तो

मैं भला तुम्हारे भाई की शादी में क्यों जाऊंगा?’’

‘‘अच्छा, तो तुम मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो?’’ कह कर शिखा ने फोन रख दिया.

दूसरे दिन पंकज की शादी में शिखा को आया देख कर मांजी का चेहरा खुशी से खिल उठा था. पंकज भी बहुत खुश था.

मांजी ने स्नेह से शिखा की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम आ गई, मैं बहुत खुश हूं. मुझे तुम से यही उम्मीद थी.’’ ‘‘आती कैसे नहीं, मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं. आप के आग्रह को कैसे टाल सकती थी?’’

मैं मन ही मन मुसकराया. शिखा किन परिस्थितियों के कारण यहां आई, यह तो बस मैं ही जानता था. उस के ये संवाद भले ही झूठे थे, पर अपने सफल अभिनय द्वारा उस ने मां को प्रसन्न कर दिया था. यह हमारे बीच हुए समझौते की एक सुखद सफलता थी.

यह तो न सोचा था : पीहर में चैन से नहीं रह सकी सुमि

पीहर के जादू में बंधी सुमि पहली बार पीहर पहुंची तो वहां वह न चैन से सो सकी, न हंस या रो ही सकी. वहां हरकोई बदलाबदला सा नजर आने लगा था…

सुमि पहली बार पीहर जा रही थी. उस का मन जैसे कहीं टिक ही नहीं रहा था. जाने क्या बैचेनी सी होने लगी थी कि कहीं कुछ करने लगती तो गुदगुदी सी होने लगती. सुमि को पहली बार पीहर में रहने का वह अनोखा आनंद लेना था, जिस के बारे में वह फिलहाल सोच ही रही थी.

बिलकुल वैसे ही जैसे उस की बूआ प्रफुल्लित और आनंदित हो जाती थीं जबजब वे पीहर आती थीं. सुमि घर पर सब चीजों पर गौर करती रहती और दादी मां और मम्मी का हाथ बंटाया करती थी. दादी उन तैयारियों के दौरान  हमेशा एक किस्सा जरूर सुनाती थीं. जब बूआ का विवाह हुआ तो उन को दिल्ली में 7-8 महीने बहुत ही सघन इलाके में रहना पड़ा. बूआ को आदत थी खेतखलिहान, बागबगीचे की.

दादी को जब बूआ ने पत्र लिखा कि वे पीहर आ रही हैं तो यह खबर पा कर वह उसी पल से मां के साथ गजब उत्साह में तैयारी करने लगीं. एक पूरी क्यारी हरे खुशबूदार पुदीने की ही तैयार की गई ताकि बूआ को सुबहशाम बिना नागा चटनी मिल सके. पापड़, चिप्स, सब ताजा तैयार किए गए. बूआ जब आईं तब से लौटने तक वे नाश्ता हो या लंच या चाय, लस्सी बस बाहर हरी घास पर ही बैठतीं और मजे से पूरा आनंद लेती थीं.

जब सुमि ने होश संभाला तब से उस ने बूआ को बहुत ही मजेदार पाया. अब बूआ की प्रतीक्षा करने वाले 3 हो गए. सुमि अपनी मां और दादी के साथ जो भी मदद हो सकती थी करती और बूआ के इंतजार में राह देखती रहती. ऐसे ही सुमि का बचपन गुजर गया.

मगर कालेज तक आतेआते बूआ 7 समंदर पार अमेरिका चली गईं. उस के बाद दादी नहीं रहीं. मगर बूआ के साथ बीते दिन तो उस के साथ हमेशा रहते थे. वह जितना याद करती उतना ही जवां हो जाते वे पुराने दिन.

सुमि ने जब भी अपनी गरमी की यादों को खंगाला  तबतब उस की बूआ भी साथसाथ ही चली आईं.

वे तो आनी ही थीं क्योंकि हर छुट्टी बूआ से ही जुड़ी हुई थी. यों सुमि को भी बूआ के साथ बहुत मजा आता था. बूआ पेड़ पर चढ़ जातीं और लीची, लुकाट, जामुन तोड़ कर देतीं. सुमि हंसतेहंसते बटोरती और वाह बूआ वाह कह कर खूब ताली बजाती थी.

सुमि का विवाह 10 महीने पहले ही हुआ था. उस को बूआ और दादी के साथ गुजारे सभी पल रहरह कर याद आ रहे थे…

सुमि और उस के भाई का विवाह एकसाथ ही हुआ था. इसलिए सुमि को ‘पीहर’ नामक शब्द अब और भी चमत्कृत कर रहा था क्योंकि वहां पर भाभी भी तो थीं.

सुमि की ससुराल यहां फिरोजाबाद में थी. पूरा शहर ही बहुत सघन. अब जिस दिन से पीहर जाने का दिन तय हुआ था उस के हाथपैर अजीबोगरीब हरकतें कर रहे थे. अगर कपडे़ पैक कर रही होती तो दादी याद आ जाती. जब बूआ लौटने की तैयारी कर रही होती थीं तो दादी अपनी सुंदरसुंदर साडि़यां ला कर बूआ की अटैची में रखती जातीं. उस के बाद कुछ और ले आतीं. बूआ मना करतीं मगर दादी कभी नहीं मानती थीं. वे बूआ की विदाई तक यही कोशिश करतीं कि वे यह चीज भी साथ ले जाएं वे भी रख लें न जाने अब कितने महीनों में आना होगा? अगली मुलाकात कब होगी.

पीहर के जादू में बंधी हुई और वहां के ऐशोआराम के सम्मोहन में सुमि फिरोजाबाद से पीहर पहुंच ही गई. सारा रास्ता वह न तो कायदे से बैठ सकी थी, न हंस या रो सकी थी और न एक पल चैन से सो सकी थी और न ही पूरी तरह जाग ही सकी थी. वह कहीं सपनों वाली दुनिया में थी.

पीहर का इतना सुख कैसे जी सकूंगी एक बार में. कहीं मैं खुशी से मर ही न जाऊं  यही विचार करती हुई वह पीहर की देहरी पर आ खड़ी हुई. बाहर से ही उस को बहुत सारे लोगों के हंसनेबोलने की आवाज आ रही थी.

उस ने अपने आने की सूचना दे दी थी मगर फिर भी कोई उस का इंतजार नहीं कर रहा था. खैर, वह अंदर गई तो उस की भाभी गले मिली और शगुन के लिए 500 का नोट रखने लगी सुमि के हाथ में मगर मां ने तुरंत टोक दिया, ‘‘अरे, इतने नहीं बस सौ का नोट रख दे, शगुन ही तो करना है. अब बहन को तो जीवनभर देना ही है.’’

यह सुन कर भाभी ने 100 का नोट दे दिया. सुमि को लगा किसी ने उस को धारदार कांच पकड़ने को दे दिया है. वह बस बुत बनी रही. कभी लड़ाई करने का उस का स्वभाव रहा नहीं सो वह खामोश हो गई. उस की भाभी की चारों बहनें आई हुई थीं. इसीलिए खूब हंगामा मचा हुआ था. उस का मन भी उन से बातें करने का था.

मगर सुमि का दिल ही टूट गया जब मां ने कहा, ‘‘तेरा भाई आज ससुराल वालों में बहुत व्यस्त है इसलिए तू बुरा मत मानना. वैसे भी अब तो तू हर रोज वीडियोकौल पर दिखती ही है. हां घर पर बिलकुल जगह नहीं है इसलिए वह पास वाला गैस्टहाउस है वहां रुक जाना वह हम ने खरीद लिया है एक कमरे में पुरानी परिचित रहती हैं तू बोर नहीं होगी और सुना वहां सब सही तो है?’’

‘‘हां वे, कंवर साहब तु?ो लेने कब आएंगे? अगर पता चल जाए तो तेरी भाभी उस दिन अवकाश ले कर तुम को बाहर खाना खिलाने ले जाएगी. जिम्मेदारी तो निभानी है. दोनों को साथ ले जाना सही होगा.’’

फिर से सुन, यह मु?ो पहले ही बता देना. मेरे यों भी बहुत काम हैं. तेरे भाई की सालियां आई हुई हैं उन को बाहर ले कर जा रहे हैं.

‘‘हां, सुन तू पहले चायनाश्ता कर ले फिर अपना सामान वहां गैस्टहाउस में रख देना.’’

सुमि का दिल धक्क कर के जैसे बैठ सा गया. उस की मां तो बिलकुल ही

दुनियादार हो गई थी. न कोई प्रेम न गले लगाना. कुछ नहीं उस के बाद मां ने कुछ वाक्य सुमि के सादगी भरे वस्त्र और उस के साधारण ससुराल पर कहे जो सुमि के दिल पर लगे. मां को उस से न तो बात करनी थी न ही कोई खास प्रेम था फिर भी उस को यहां बुलाया ताकि आसपास के रिश्तेदार यह न कह दें कि बेटी पीहर नहीं आई.

सुमि ने सामान गैस्टहाउस में रखा तो पड़ोस के कमरे से एक महिला आ गई. सुमि ने चट पहचान लिया. वह तो उस की सगी मामी थी. कितनी कमजोर लग रहीं थी. वह सुमि से बहुत ही स्नेह से मिली, खूब बातें हुईं.

मामी ने बताया कि वह 2 दिन पहले ही आई है. उस की जमीन का काम है. अब तो सुमि की मां ही उस की सारी जमीन की खरीदफरोख्त का काम देखती हैं इसलिए मामी यहां आई थी.’’

यह सब जान कर सुमि को बहुत बुरा लगा कि मामी को हाथ खर्च का रुपया भी मांगना पड़ता है वह रुपया जो मामी का ही है. कितना दबाया जा रहा था मामी को.

‘लोग रुपएपैसे के लिए कितना गिर जाते हैं उफ,’ सुमि यह सब सोच रही थी कि सुमि की मां उन दोनों को भोजन के लिए बुलाने आ गईं. हाल में सब का डिनर लगा दिया गया था.

सुमि ने अपने भाई को वहीं देखा. उस को लगा कि वह बहुत खुश होगा मगर वह बस इतना ही बोला कि ये सब कैसे कपडे़ पहन रखे हैं? जरा ब्रैंड वाले कुरते पहना कर और नई कार कब खरीद रहे हो?’’

बाकी कोई बात, अपनापन कुछ नहीं. जैसे वह यहां जबरदस्ती आ गई है और उन सबकी आफत हो गई हो कि अब तो बस रिश्ता निभाना है.

सुमि ने वहां पर भी देखा उस की सगी मां बस अपनी वहू और अपने बेटे की ससुराल वालों को खुश करने में लगी थीं. इस बीच उस की मां और भाई ने उस के साधारण ससुराल की खिल्ली भी उड़ाई. सुमि कोई तमाशा नहीं करना चाहती थी. वह अपने आंसू पी गई. मगर सुमि को मन ही मन बहुत ठेस पहुंची.

कहां तो उस को लगता था कि मां उस का त्याग याद करेगी. उस ने मुफ्त वाले

स्कूल और कालेज में पढ़ाई की ताकि जमीनजायदाद सब बची रहे. कभी कोई फालतू खर्च नहीं किया. हमेशा पैदल ही स्कूल और कालेज गई. यही सोच कर कि सब बचत काम आएगी. मगर यहां तो उस का जूठन खा कर सब अहंकार में सराबोर हैं.

सुमि ने किसी तरह फटाफट खाना खत्म किया और चुपचाप अपने कमरे में चली गई.

अगले दिन सब के जागने से पहले ही वह उस घर से, जगह से, उस शहर से उस परिवार से पक्की विदाई ले चुकी थी. उस ने तय कर लिया था कि अब उस घर में सिर्फ शादीब्याह पर आएगी. उस का मायका कोई नहीं है, भाई नहीं है, भाभी नहीं है और मां अपनी नहीं रहीं तो कैसा मायका. उसे अपनी जिंदगी अपनी तरह से जीनी है, अपने आत्मविश्वास के साथ.

 

 

धुरंधरों से एक मुलाकात: नामचीन लेखकों से मिलने पर सुनंदा के साथ क्या हुआ

सुनंदा की कुछ नामचीन लेखकों से मिलने की बड़ी तमन्ना थी. लेकिन जब वह उन से मिली तो फिर कभी न मिलने की ठान ली. आखिर क्या हुआ था उस के साथ…

सुनंदा बहुत खुश थी कि आखिरकार उसे साहित्य जगत की इतनी महान हस्तियों के साक्षात दर्शन हो जाएंगे. साहित्य जगत के (तथाकथित) धुरंधर उस के शहर बनारस में एक साहित्यिक संस्था के किसी आयोजन में आ रहे थे. सुजाता फेसबुक पर तीनों से जुड़ी थी. नंदिनी, विनय गोपाल और रंजना की तिकड़ी फेसबुक की सब से चर्चित तिकड़ी थी. तीनों ही साठ से ऊपर थे, कई पत्रिकाओं में तीस साल से लिख रहे थे. अब अचानक पता नहीं क्यों

तीनों ने साहित्यिक पत्रिकाओं की तरफ रुख कर लिया था. सुनंदा कई सालों से तीनों की रचनाएं पढ़ती आ रही थी और उन की बड़ी इज्जत करती थी. वह खुद 10 साल से लेखन जगत में अपनी अच्छी पहचान बना चुकी थी. उस की कहानियां, लेख निरंतर छप रहे थे. सोशल मीडिया पर तीनों से जुड़ कर सुनंदा बहुत खुश रहती कि 3 वरिष्ठ लेखक उस की मित्रता सूची में हैं. वह दिल से उन का सम्मान करती. सोशल मीडिया पर अब जब सामने ही सब कुछ आ जाता है तो इन तीनों को भी पता था कि सुनंदा आजकल लिख रही है. अब उस ने नोट किया कि तीनों को ईगो मसाज करवाने की आदत है. ये तीनो यही चाहते कि जूनियर राइटर्स उन की हर रचना पर, उन की हर पोस्ट पर वाहवाही करते रहें, पर वह इन लोगों से मिलना, उन से बातें करना, उन के विचार जानना चाहती थी. इतने बड़े लेखकों के साथ कुछ पल भी बिता लेगी तो धन्य हो जाएगी.

तीनों से फेसबुक के मैसेंजर पर संपर्क कर फोन नंबर ले चुकी थी. मिलने का समय और स्थान तय होने के बाद वह उस जगह पहुंची जहां तीनों हाथ में कोई बुक लिए बैठे थे और उस पर चर्चा कर रहे थे. सुनंदा ने आदरपूर्वक अभिवादन किया. 3 बड़े लेखकों को सामने देख उसे पसीना सा आया. वह भावविभोर हो गई. विनय ने कहा, ‘‘सब से पहले अपना, सब का परिचय दे देता हूं आप को.’’ ‘‘अरे, नहींनहीं, आप तीनों किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. लेखन की दुनिया का हर इंसान आप को जानता है.’’

रंजना अपनी जगह बैठीबैठी इठलाई. विनय थोड़ा और तन गए, नंदिनी ने विनय और रंजना पर ऐसी नजर डाली, जैसे कह रही हों कि देखा हम कितने बड़े लेखक हैं.’’विनय ने बहुत ही अपनत्व से नंदिनी की तरफ देख कर कहा, ‘‘हमारा परिचय देना तो बड़ी बात नहीं, पर हां नंदिनी जी हम तीनों में बेस्ट हैं. क्या लिखती हैं, वाह. हम दोनों ही शायद नंदिनीजी के सबसे बड़े फैन हैं.’’

नंदिनी जी ने अपनी गरदन थोड़ी और अकड़ा ली. रंजना ने भी बेहद मीठे स्वर में कहा, ‘‘नंदिनीजी के साथ बैठ कर तो हम ही धन्य हो जाते हैं, 1-1 शब्द क्या लिखती हैं, वाह.’’सुनंदा इस बातचीत से बहुत प्रभावित हुई, सोचा. वाह कितने खुले दिल से दोनों नंदिनीजी की तारीफ कर रहे हैं. वाह, कोई कंपीटिशन नहीं, कोई जलन नहीं. सुनंदा ने नम्रता से कहा, ‘‘आप जैसे बड़े लेखकों से मिलने का आज…’’

सुनंदा की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि नंदिनी की गंभीर आवाज आयी, ‘‘लेखक नहीं, हम साहित्यकार हैं.’’मिलते ही पहला ?ाटका सा लगा. सुनंदा ने धीरे से कहा, ‘‘एक ही बात है, नंदिनीजी.’’

जवाब रंजना ने दिया, ‘‘अरे, एक बात कैसे है? साहित्यकार आम लेखक नहीं होते.’’

विनय ने थोड़ा अपेक्षाकृत नरमी से कहा, ‘‘देखिए सुनंदाजी, आप अभी नई हैं और आप सिर्फ कमर्शियल पत्रिकाओं के लिए लिखती हैं. साहित्य के लिए लिखने वाले कुछ अलग होते हैं, थोड़ा श्रेष्ठ होते हैं. आम पत्रिकाओं में छपना एक बहुत साधारण बात है.’’

सुनंदा जैसे अभी तक तीनों के व्यक्तित्व के घेरे में आसमान में बहुत ऊपर उड़ रही थी. दिमाग में यही बात थी कि आज मैं इतने बड़े नामों के साथ बैठी हूं. अब अचानक जमीन पर आ गिरी. थोड़ी देर चुप रही, फिर नंदिनी ने उसे आम सी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘आजकल क्या छपा है तुम्हारा इधर ?’’

‘‘जी, एक कहानी और एक लेख छपा है.’’ रंजना के मुंह से अचानक निकल गया, ‘‘मेरी तो आजकल स्वीकृत ही नहीं हो रही हैं.’’ नंदिनी ने अचानक कहा, ‘‘अरे, हमें क्या जयरत है इन पत्रिकाओं में लिखने की, हम साहित्य के लोग हैं. हम ने जितने दिन इन पत्रिकाओं में लिखा, सम?ा लो अपना समय खराब किया.’’

विनय ने कहा, ‘‘पहले मैं भी कई पत्रिकाओं में बहुत लिखता था, पर आजकल मेरी भी स्वीकृत नहीं हो रही हैं. पता नहीं क्या बात है,’’ फिर एक ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘पर ठीक है, हम तो अब साहित्य की तरफ मुड़ गए. अब हम से इन फैमिली ड्रामों पर, सैक्स पर, बेकार के विषयों पर लिखा भी नहीं जाता. अच्छा साहित्य लिखते हैं, बड़ेबड़े विषय उठाते हैं. हम तो अब साहित्य के क्षेत्र के धुरंधर हैं.’’

सुनंदा अब इन आत्ममुग्ध लोगों के विचार सुन कर मन ही मन बहुत कुछ सोचविचार कर रही थी. उसे महसूस हुआ कि तीनों के चेहरों पर छाई गंभीरता नकली है, चेहरों के भाव बनावटी हैं. उस ने कई पत्रिकाओं में इन को पढ़ा था पर आजकल ये कहीं नहीं छप रहे थे. उस ने पूछा, ‘‘आप की हाल की ही रचनाएं पढ़ना चाहती हूं, कृपया बताइए कि कौन सी साहित्यिक पत्रिका में पढ़ सकती हूं?’’

 

‘‘साहित्य संसार, साहित्य सरिता, कथा संसार.’’

 

सुनंदा मुसकरा दी, ‘‘ये तो यहां नहीं मिलती हैं. कभी मार्केट में देखा ही नहीं. मैं ने तो इन का नाम भी कभी नहीं सुना.’’

 

‘‘एक नई साहित्यिक पत्रिका और आई है, ‘अमृत’ हम तीनों की भी छपी है इस में. इस में भेज कर देखो तुम, कोशिश करो कुछ ऐसा लिखने की जो किसी साहित्यिक पत्रिका में छप सके.’’

‘‘अमृत? वही जो सौरभ ने शुरू की है जो इन सब पत्रिकाओं में लिखते थे? सुना है एक पत्रिका के ऐडिटर ने जब उन की कई कहानियां रिजैक्ट कीं तो इन्होंने गुस्से में अपनी ही यह पत्रिका निकाल ली. अब ये हर राइटर से रचनाएं मांगमांग कर छाप रहे हैं और पहले ही साफ कर देते हैं कि पत्रिका नई है तो कोई मानदेय नहीं दे पाएंगे. ऊपर साहित्यिक पत्रिका भी लिख देते हैं. हम जैसे कमर्शियल राइटर्स से ही तो कहानियां मांग रहे हैं.’’

तीनों के चेहरों पर एक नापसंदगी के भाव आए, आंखों ही आंखों में एकदूसरे से कहा कि यह कल की आई लेखिका हमारी बताई पत्रिका की इनसल्ट कर रही है. नंदिनी ने बात बदल दी, कहा, ‘‘तुम अच्छा लिखती हो, पर इन पत्रिकाओं में क्यों अपना समय खराब कर रही हो. जानता कौन है तुम्हें? पहचान तो साहित्य से जुड़ कर ही मिलेगी.’’

‘‘जी, मैं ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं के पीछे भागना नहीं चाहती. आएदिन कोई भी पत्रिका निकाल देता है. उस के ऊपर साहित्यिक लिख देता है, तो क्या कोई पत्रिका इतने से ही साहित्यिक कहलाई जाने लगती है? ये जो हर लेखक आजकल कभी भी ऐडिटर बन जाता है और अपनी पत्रिका निकाल देता है, उनमे तो मेरी कोई रुचि नहीं, रोज कोई न कोई पत्रिका मार्केट में आ रही है. मैं आम पाठकों से जुड़े रहना चाहती हूं और इन कमर्शियल पत्रिका को आम आदमी ही पढ़ता है, मैं खुश हूं इन में लिख कर.’’

‘‘पर इन से तुम आगे नहीं बढ़ पाओगी,’’ रंजना ने उस पर एक तीखी, चुभती नजर डाली.

सुनंदा अब सम?ा गई थी कि सामने बैठे अपनेआप को धुरंधर मानने वाले लेखक अब पत्रिकाओं में छप नहीं पा रहे हैं तो साहित्य का चोला ओढ़ लिया है. अंगूर खट्टे हैं इन के लिए, आज भी इन की रचनाएं पत्रिकाओं में छपना शुरू हो जाएं तो ये साहित्य की बड़ीबड़ी बातें करना छोड़ देंगे. उस ने विनम्रता से कहा, ‘‘मैं इन्हीं पत्रिकाओं में लिख कर खुश हूं और जो पहचान इन में लिख कर मिली है, उस से पूरी तरह संतुष्ट हूं. मैं आम पाठकों से जुड़े रहना चाहती हूं, ये पत्रिकाएं आम इंसान पढ़ता है और सीधेसीधे रचनाओं से जुड़ जाता है, बड़ेबड़े भाषाई कौशल से भरी बातें आम पाठक को नहीं भातीं. साहित्य मैं ने भी बहुत पढ़ा है, पसंद किया है.’’मन में आया, कहे, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि

जिन्हें आज कमर्शियल पत्रिकाएं बता कर नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं ये सामने बैठे साहित्य के धुरंधर. आज अपनी पुरानी सोच के चलते ये समय के साथ चलती नई सोच वाली कमर्शियल पत्रिकाओं में नहीं छप रहे तो ये पत्रिकाएं बेकार हो गई. वाह, क्या दलबदलू धुरंधर हैं. ये पत्रिकाएं मार्केट में, सब जगह, हर शहर, गांव में दिखती हैं, आम पाठक इन से जुड़ता है और मेरे जैसे लेखक इन पाठकों से सुनंदा को इन तीनों की बातें थोड़ी अजीब तो लग रही थीं पर वह मन ही मन वैसे बहुत खुश थी कि उसे आज इन 3 वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलने का अवसर मिला है. सालों से इन का लिखा पढ़ती आ रही थी. मन ही मन खुद से कहा कि ठीक है, बड़े लेखक हैं, सफल हैं, नाम कमाया है, थोड़ा गुरूर आ ही गया होगा.)

 

तभी में नंदिनी का फोन बज उठा. वे बात करने के लिए रूम से बाहर चली गईं तो सुनंदा ने सम्मानपूर्वक कहा, ‘‘मैं ने अभी आप लोगों के फोटो देखे थे फेसबुक पर नंदिनीजी को बड़ा पुरस्कार मिला है. थोड़े दिन पहले ही उन्हें कुछ और भी पुरस्कार मिले थे न. बड़ी खुशी हो रही है आज मु?ो कि मैं इतने बड़े पुरस्कार विजेताओं के सामने बैठी हूं. नंदिनी जी ने तो कमाल कर दिया है. इस साल लगभग सारे पुरस्कार उन्हें ही मिले हैं न.’’

 

रंजना ने बहुत ही भेद भरी नजरों से विनय गोपाल को देखा. अपनी हंसी रोकने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘आप ही बताइए विनयजी, नंदिनीजी को ये पुरस्कार कैसे मिले हैं?’’

 

विनय ने एक अजीब सी मुसकराहट से कहा, ‘‘क्या बताऊं सुनंदाजी, नंदिनीजी के कौंटैक्ट्स बहुत हैं, इन के पति एक बड़े सरकारी अफसर हैं. इन के लिए कोई पुरस्कार पाना जैसे घर की बात है. वरना हम इन से कम अच्छा नहीं लिखते. अरे, 5 लाख के पुरस्कार की डील कुछ लेदे कर लेते हैं ये लोग. ऐसे हिसाब होता है कि 5 लाख का पुरस्कार है, हमें दिलवा दो, 2 लाख तुम रख लेना, 3 हमारे, बस स्टेज पर खड़े हो कर माला पहन कर फोटो खिंचवाने के लिए बहुत कुछ यानी सामदामदंडभेद से चलता है और नंदिनीजी तो जब यंग थीं और भी कई चीजें करती आई हैं. पुरस्कार पाने के लिए, वैसे शायद अभी भी बहुत कुछ कर लेती हैं,’’ इतना कह कर विनय गोपाल ने रंजना की तरफ देख कर जिस तरह से आंख मारी सुनंदा को जैसे एक करंट सा लगा.

इतने में नंदिनी लौट आईं. दोनों के चेहरों पर नंदिनी के लिए फिर आदर ही आदर था. सुनंदा पलपल बदलते माहौल पर हैरान थी. नंदिनी ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘तुम सम?ा नहीं रही हो, साहित्य की दुनिया में आ कर देखो कैसेकैसे पुरस्कार मिलते हैं. इन कमर्शियल पत्रिकाओं से क्या मिलता है?’’‘‘मन की खुशी.’’‘पुरस्कार तो नहीं मिलते न?’’

‘‘पुरस्कारों का सच भी काफी कुछ जान चुकी हूं इसलिए पुरस्कारों के पीछे नहीं भागना चाहती.’’नंदिनी ने उसे इस बात पर घूरा ही था कि इतने में विनय गोपाल के मोबाइल फोन की घंटी बजी. उन्होंने फोन उठा कर बात करनी शुरू की. उन के चेहरे पर नाराजगी के भाव आए, स्वर में खिन्नता थी. बात कर के अनमने ढंग से फोन रखा तो रंजना ने पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ? सब ठीक तो है न?’’

विनय गोपाल ने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘पड़ोस के स्कूल के मैनेजर का फोन था, स्कूल के किसी फंक्शन में चीफ गैस्ट बना कर बुलाने के लिए.’’

नंदिनी ने कहा, ‘‘इस में तकलीफ क्या है?’’‘‘तकलीफ यही है कि हम बस इसी काम के लिए रह गए हैं. हमारा लिखा तो ये लोग पढ़ते नहीं, बस बुला कर सम्मान दे देंगे, स्कूल, कालेजों में बुला लेंगे.’’

रंजना ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, ‘‘ये तो आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं. कोई हमारी लिखी रचना पढ़ ही नहीं रहा. पासपड़ोस, रिश्तेदार, कोई नहीं पढ़ रहा है. भाई, हम लिख किस के लिए रहे हैं? हमारे जैसे वरिष्ठ साहित्यकार बस क्या यही करते रहेंगे?’’

नंदिनी ने भी सहमति में सिर हिलाया, ‘‘बस हम एकदूसरे का ही लिखा आपस में पढ़ते रहेंगे?’’

अचानक माहौल की इस अजीबोगरीब गंभीरता पर सुनंदा स्तब्ध थी, इन मूर्धन्य हस्तियों के दुख पर मन ही मन हैरान थी. ‘‘आप लोगों का काफी समय ले लिया. अब आज्ञा दीजिए,’’ कह कर सुनंदा हाथजोड़ कर खड़ी हो गई.

तीनों ने बैठेबैठे सिर हिला दिए. धुरंधरों से मोहभंग हो चुका था. कहां तो सोच कर गई थी कि सीनियर राइटर्स से मिलेगी, उन का आशीर्वाद लेगी, लेखन पर चर्चा करेगी, बेहतर लिखने के लिए मार्गदर्शन मिलेगा.

‘‘ठीक है, फिर मिलेंगें,’’ विनय गोपाल ने कहा और फिर तीनों ने बैठेबैठे हाथ उठा कर बाय किया. बाहर निकलती हुई सुनंदा ने मन ही मन सोचा कि नहीं, शायद नहीं मिलेंगें. एक अनुभव काफी है और मन ही मन हंसती हुई वहां से निकल गई.

नो ऐंट्री: आखिर निशांत से क्यों छुटकारा पाना चाहती थी ईशा

ईशा एक सुखमय वैवाहिक जीवन बिता रही थी. मगर तभी उस के जीवन में निशांत का आगमन हो गया, जो एक शातिर आदमी था. अब ईशा इस रिश्ते से छुटकारा पाना चाहती थी. क्या इतना आसान था…

‘‘तुम्हीं  मेरे हर पल में, तुम आज में तुम कल में.’’ ‘‘हे शोना, हे शोना,’’ एफएम पर चल रहे गाने के साथ गुनगुनाती ईशा अपने विवाहित जीवन में काफी प्रसन्न थी. कालेज पूरा होतेहोते उस की शादी हो गई. उस ने जैसे जीवनसाथी की कल्पना की, मयूर ठीक वैसा ही निकला. देखने में आकर्षक कहना ठीक होगा. वैसे ईशा के मुकाबले मयूर उन्नीस ही था किंतु वह जानती थी कि लड़कों की सूरत से ज्यादा सीरत परखना आवश्यक होता है. आखिर ताउम्र का साथ है. ईशा ने अपनी पूरी होशियारी दर्शाते हुए मयूर का चयन किया. ईशा जैसी खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तों की कमी न थी. कई परिवार के जरीए आए तो कई मजनू जिंदगी में वैसे भी टकराए किंतु वह अपना जीवनसाथी उसी को चुनेगी जो उस के मानदंडों पर खरा उतरेगा.

मयूर अपनी शराफत, प्यार करने की काबिलियत और सचाई के कारण अव्वल आया.

2 वर्ष पूर्व जब मयूर एक कजिन की शादी में उस से टकराया तब उसे पहली नजर में वह एक शांत, सुशील और विनम्र लड़का लगा. फोन नंबर ऐक्सचेंज होते ही कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेज कर मयूर ने ईशा का मन पिघला दिया और उस ने इस रिश्ते के लिए जल्द ही हामी भर दी. चट मंगनी पट ब्याह कर ईशा मयूर के घर आ गई.

तब से ले कर आज तक दोनों एकदूसरे के प्यार में डुबकियां लगाते आए हैं. प्रेम का सागर होता ही इतना मीठा है कि चाहे जितनी बार गोते लगा लो यह प्यास नहीं बु?ाती. एकदूसरे के साथ सामंजस्य बैठाते हुए दोनों ने धीरेधीरे अपनी जिंदगी को रोजमर्रा की पटरी पर दौड़ने के लायक बना लिया. मयूर एक प्राइवेट कंपनी में उच्च पदासीन, ईशा की हर चाह को जबान पर आने से पहले ही पूरा कर दिया करता. ईशा पूरे आनंद के साथ घर संभालने लगी. विवाहित जीवन सुखमय था. इस से ज्यादा की कामना भी नहीं थी ईशा को.

‘‘इस शनिवार को हमारी कंपनी ने फैमिली डे का आयोजन रखा है. मेरी कंपनी हर साल यह आयोजन करती है जिस में सभी अपने परिवारों के साथ आते हैं. खूब धूम मचती है, तरहतरह के खेल खिलाए जाते हैं, खानापीना, नाचनागाना. सब एकदूसरे के परिवारों के सदस्यों से भी मिल लेते हैं. पिछली बार तुम अपने मायके गई हुई थीं इसलिए अब की बार तुम पहली बार सब से मिलोगी.’’

‘‘अच्छा, फिर तो बहुत मजा आएगा. इसी बहाने मैं तुम्हारी कंपनी के सहकर्मियों व उन के परिवारों से मिलूंगी,’’ मयूर की बात सुन ईशा भी खुश हो गई.

शनिवार को मयूर की मनपसंद मोरिया नीले रंग की पटोला साड़ी में ईशा का गोरा रंग और भी निखर आया. उस पर सोने का हलका सैट पहनने से मानो उस की खूबसूरती में चार चांद लग गए. सलीके से किया मेकअप और स्ट्रेटन किए कमर तक लहराते बाल. ईशा को ले कर जैसे ही मयूर पार्टी में दाखिल हुआ सब निगाहें उस की ओर उठ गईं. जोड़ी वाकई काबिले तारीफ लग रही थी.

फैमिली डे पर कहीं कोई भेदभाव नहीं था. जैसे कंपनी का मैनेजमैंट वैसे

ही कंपनी के कर्मचारी और उसी तरह कंपनी के वर्कर्स के साथ भी बरताव किया जा रहा था. सभी अपनेअपने परिवार के साथ घुलमिल रहे थे. कुछ ही देर में नाचगाना शुरू हुआ. कंपनी में काम करने वाले कुछ वर्कर्स आए और मयूर को कंधों पर उठा कर डांस फ्लोर की ओर ले गए. यह दृश्य देख कर ईशा का मन बागबाग हो गया. अपने पति के प्रति उस के मातहतों का इतना प्यार देख कर उसे आज मयूर पर नाज हो उठा. आज फैमिली डे में आ कर ईशा को ज्ञात हुआ कि मयूर अपने परिश्रमी स्वभाव के कारण अपनी कंपनी में कितना चहेता है.

तभी एक हैंडसम नवयुवक ईशा के पास की कुरसी खींच कर बैठते हुए बोला, ‘‘हाय, मेरा नाम निशांत है. मैं मयूर का दोस्त हूं. आप की शादी में भी आया था पर इतने लोगों के बीच शायद मुलाकात याद न रही हो.’’

ईशा उस मुलाकात को कैसे भूल सकती थी भला. उसे अपनी शादी का वह मंजर याद हो आया जब मयूर के सभी दोस्त स्टेज पर आ कर फोटो खिंचवा रहे थे. तब सभी मित्र दूल्हादुलहन बने मयूर और ईशा को घेर कर आगेपीछे खड़े होने लगे.

इतने में निशांत हंस कर ईशा के पास आ गया, ‘‘हम तो अपनी दुलहनिया के पास बैठेंगे,’’ और उसी के सोफे पर उस से चिपक कर बैठ गया. अपनी बांह ईशा के गले में डालते हुए उस

ने फोटोग्राफर से कहा, ‘‘अब खींच ले, भाई, हमारा फोटो.’’

ईशा को निशांत का नाम तब ज्ञात नहीं था किंतु उसे उस की दिलेरी बहुत भा गई. वह स्वयं भी एक बिंदास लड़की होने के कारण निशांत द्वारा भरी सभा में खुलेआम की गई यह हरकत उसे आकर्षित कर गई.

मयूर बेहद नियमानुसार चलने वाला लड़का था. हर बात घर वालों के कहे अनुसार करना, हर निर्णय लेने से पहले बड़ों से पूछना, छोटे से छोटे कानून का पालन करना. उस के साथ रहने पर ईशा भी एक सीधीसादी लड़की की भांति रहने लगी क्योंकि आखिर यह एक अरेंज्ड मैरिज थी और वह चाहती थी कि मयूर आरंभ से उस से प्रभावित हो जाए.

आज ईशा ने निशांत को यहां देखने की उम्मीद नहीं की थी किंतु जब वह सामने आया तो वह अनजान बनी रही, ‘‘ठीक कह रहे हैं आप. शादी के समय कितने लोगों से मिलनाजुलना होता है वह कहां याद रह पाता है. आप भी मयूर के ही डिपार्टमैंट में काम करते हैं?’’

‘‘जी नहीं, मैं तो औपरेशंस में हूं. देखा आप ने, मयूर को वर्कर्स कितना पसंद करते हैं. बहुत सीधा है. सब से घुलमिल जाता है.’’

‘‘जी,’’ ईशा के चेहरे की मुसकराहट थमने का नाम नहीं ले रही थी.

‘‘डांस करना पसंद करेंगी?’’ कहते हुए निशांत ने अपना सीधा हाथ आगे बढ़ाया. ईशा आगे कुछ सोच पाती उस से पहले निशांत बोला, ‘‘मयूर बुरा नहीं मानेगा, उसे वर्कर्स के साथ डांस करने में ज्यादा मजा आ रहा है.’’

आज निशांत ने पुन: ईशा के समक्ष अपनी अपरंपरागत सोच दर्शाई. कुछ न कहते हुए ईशा निशांत के साथ डांस फ्लोर पर उतर गई. नाचतेनाचते निशांत कहने लगा, ‘‘कहां आप इतनी स्मार्ट और आकर्षक और कहां मयूर. मेरा मतलब है आप की स्मार्टनैस के आगे मयूर थोड़ा भोंदू ही लगता है.’’

ईशा के अचकचा कर देखने पर निशांत ने आगे कहा, ‘‘बुरा मत मानिएगा, मेरा दोस्त है इसलिए कह सकता हूं.’’

मयूर के आने पर निशांत बोला, ‘‘हूर के साथ लंगूर कैसे?’’

मगर उत्तर में मयूर केवल हंसता रहा. फिर सारी पार्टी में निशांत ईशा के आसपास ही घूमता रहा. कभी उस के लिए रसमलाई लाता तो कभी कोक का गिलास. उस की उपस्थिति में निशांत मयूर की हंसी भी उड़ाता रहा और मयूर सबकुछ सुन कर हंसता रहा.

‘‘यह निशांत कैसा लड़का है?’’

‘‘बहुत अच्छा लड़का है. मेरा बहुत अच्छा दोस्त है. बहुत इंटैलिजैंट है. अपने डिपार्टमैंट का हीरा है,’’ मयूर ने निशांत की प्रशंसा के पुल बांध दिए, ‘ठीक ही कह रहा था वह. मयूर वाकई भोंदू है जो यह नहीं सम?ाता कि कौन उस का सच्चा दोस्त है और कौन नहीं,’ ईशा सोच में पड़ गई. ईशा निशांत की उस से फ्लर्ट करने की कोशिश भली प्रकार सम?ा रही थी. निशांत की ये हरकतें ईशा को बुरी नहीं लगीं अपितु मन के किसी कोने में पुलकित कर गईं.

उसी हफ्ते एक दुपहरी ईशा को एक फोन आया, ‘‘सरप्राइस कर दिया न तुम्हें? देखा, कितना स्मार्ट हूं मैं, तुम्हारा नंबर निकाल लिया,’’ दूसरी ओर से निशांत की विजय से ओतप्रोत हंसी की आवाज आई.

मगर ईशा इतनी जल्दी प्रभावित होने वाली कहां थी. अपने पीछे मजनुओं की पंक्तियों की उसे आदत थी, ‘‘कभीकभी ज्यादा स्मार्टनैस भारी पड़ जाती है. जनाब, अपना नाम तो बताइए,’’ ईशा ने पलटवार किया.

‘‘सेव कर लो यह नंबर,’’ निशांत बोला, ‘‘निशांत बोल रहा हूं, मैडम. मैं ने तुम दोनों को अपने घर लंच पर बुलाने के लिए फोन किया है. मयूर को मैं औफिस में ही न्योता दे चुका हूं पर तुम्हें भी निजी तौर पर आमंत्रित करना चाहता था इसलिए फोन किया,’’ उस ने अपनी बात पूरी की.

शाम को जब मयूर घर लौटा तो ईशा ने निशांत के फोन की बात बताई.

‘‘हां, पता है. मु?ा से ही तुम्हारा नंबर लिया था उस ने,’’ मयूर ने लापरवाही से कहा.

‘‘मेरा नंबर देने की क्या जरूरत थी? तुम्हें बुलाया, मु?ो बुलाया, एक ही बात है,’’ ईशा इस सिलसिले में मयूर की मानसिकता टटोलना

चाहती थी.

‘‘क्या फर्क पड़ता है… उस का मन था तुम से बात करने का,’’ मयूर ने सरलता से कहा, ‘‘इस रविवार दोपहर का लंच हम निशांत के साथ करेंगे. बहुत दूर नहीं है उस का घर.’’

रविवार को ईशा ने फूलों की प्रिंट वाली ड्रैस के साथ हाई हील्स पहनीं

और अपने बालों को हाई पोनीटेल में बांध लिया. इस वेशभूषा में वह अपनी साड़ी वाली छवि से बिलकुल उलट लग रही थी.

इस नए अवतार में निशांत ने ईशा देखा तो वह पूरे जोरशोर से उस के इर्दगिर्द चक्कर लगाने लगा. उसे लगने लगा मानो ईशा उसे अपने व्यक्तित्व का हर रंग दिखाना चाहती है. पाश्चात्य परिधान में उसे देख कर निशांत उस पर और भी मोहित हो गया, ‘‘अरे… रे… रे… मैं तो तुम्हें भारतीय नारी सम?ा था पर तुम तो दोधारी तलवार निकलीं. बेचारा मयूर. उस के पास तो ऐसी तलवार के लायक कमान भी नहीं है,’’ धीरे से ईशा के कानों में फुसफुसा कर कहता हुआ निशांत साइड से निकल गया.

मन ही मन ईशा हर्षाने लगी. शादीशुदा होने के उपरांत भी उस में आशिक बनाने की कला जीवित थी, यह जानकर वह संतुष्ट हुई. उस पर ऐसा भी नहीं था कि निशांत मयूर की आंख बचा कर यह सब कह रहा था. उस दिन निशांत, मयूर के सामने भी कई बार ईशा से फ्लर्ट करने की कोशिश करता रहा और मयूर हंसता रहा.

घर लौटते समय ईशा ने मयूर से निशांत की शिकायत की, ‘‘देखा तुम ने, निशांत कैसे फ्लर्ट करने की कोशिश करता है.’’

वह नहीं चाहती थी कि मयूर के मन में उस के प्रति कोई गलतफहमी हो जाए.

ईशा की बात को मयूर ने यह कह कर टाल दिया, ‘‘निशांत तो है ही मनमौजी किस्म का लड़का और फिर तुम उस की भाभी लगती हो. देवरभाभी में तो हंसीमजाक चलता रहता है. पर तुम उसे गलत मत सम?ाना, वह दिल का बहुत साफ और नेक लड़का है.’’

अगले हफ्ते मयूर कंपनी के काम से दूसरे शहर टूर पर गया. रोज की तरह ईशा दोपहर में कुछ देर सुस्ता रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी बजी. किसी कूरियर बौय की अपेक्षा करती ईशा ने जब दरवाजा खोला तो सामने निशांत को खड़ा देख वह हैरान रह गई, ‘‘तुम… इस वक्त यहां? लेकिन मयूर तो औफिस के काम से बाहर गए हैं.’’

‘‘मु?ो पता है. मैं तुम से ही मिलने आया हूं. अंदर नहीं बुलाओगी,’’ निशांत की साफगोई पर ईशा मन ही मन मोहित हो उठी. ऊपर से चेहरे पर तटस्थ भाव लिए उस ने निशांत को अंदर आने का इशारा किया और स्वयं सोफे पर बैठ गई.

निशांत ठीक उस के सामने बैठ गया, ‘‘अरे

यार, तुम्हारे यहां घर आए मेहमान को चायकौफी पूछने का रिवाज नहीं है क्या?’’

‘‘मैं ने सोचा औफिस के टाइम पर यहां आए हो तो जरूर कोई खास बात होगी. पहले वही सुन लूं,’’ ईशा ने अपने बालों में उंगलियां घुमाते हुए कहा. निशांत के साथ ईशा का बातों में नहले पर दहला मारना दोनों को पसंद आने लगा. आंखों ही आंखों के इशारे और जबानी जुगलबाजी उन की छेड़खानी में नए रंग भरती.

‘‘खास बात नहीं, खास तो तुम हो. सोचा मयूर तो यहां है नहीं, तुम्हारा हालचाल पूछता चलूं,’’ निशांत के चेहरे पर लंपटपने के भाव उभरने लगे.

‘‘मैं अपने घर में हूं. मु?ो भला किस बात की परेशानी?’’ ईशा ने दोटूक बात की. वह देखना चाह रही थी कि निशांत कहां तक जाता है.

‘‘ईशा, तुम शायद मु?ो गलत सम?ाती हो इसीलिए मु?ा से यों कटीकटी रहती हो. क्या मैं तुम्हें हैंडसम नहीं लगता?’’ संभवत: निशांत को अपने सुंदर रंगरूप का आभास भली प्रकार था.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं. असल में निशांत, तुम मयूर के दोस्त हो, मेरे नहीं.’’

‘‘यह कैसी बात कह दी तुम ने? दोस्ती करने में कितनी देर लगती है… फ्रैंड्स?’’ कहते हुए निशांत ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो प्रतिउत्तर में ईशा ने अदा से अपना हाथ निशांत के हाथ में दे दिया.

‘‘यह हुई न बात,’’ कह निशांत पुलकित

हो उठा.

फिर कौफी पी कर कुछ देर बैठ कर

निशांत लौट गया. आज पहली मुलाकात में इतना पर्याप्त था, दोनों ने अपने मन में यही सोचा. निशांत को आगे बढ़ने में कोई संकोच नहीं था किंतु वो ईशा के दिल के अंदर की बात नहीं जनता था. इतनी जल्दी वह कोई खतरा उठाने के मूड में नहीं था. कहीं ईशा उस पर कोई आरोप लगा दे तो उस की क्या इज्जत रह जाएगी समाज में. उधर ईशा विवाहिता होने के कारण हर कदम फूंकफूंक कर रखने के पक्ष में थी. वैसे भी निशांत मयूर का मित्र है. उस की अनुपस्थिति में आया है. कहीं ऐसा न हो कि इसे मयूर ने ही भेजा हो… ईशा के मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे. दुर्घटना से देर भली.

मयूर के लौटने पर ईशा ने उसे निशांत के आने की बात स्वयं ही बता दी. मयूर को जरा सा अटपटा लगा, ‘‘अच्छा. मेरी गैरहाजिरी में क्यों आया?’’

उस की प्रतिक्रिया से ईशा आश्वस्त हो गई कि निशांत के आने में मयूर का कोई हाथ नहीं. फिर उस ने स्वयं ही बात संभाल ली, ‘‘मैं खुश हुई निशांत के आने से. कम से कम तुम्हारे यहां न होने पर इस नए शहर में मेरी खैरखबर लेने वाला कोई तो है.’’

ईशा की बात से मयूर शांत हो गया.

‘‘निशांत सच में तुम्हारा एक अच्छा मित्र है,’’ ईशा ने बात की इति कर दी.

अब ईशा के फोन पर निशांत की कौल्स अकसर आने लगीं. सावधानी बरतते हुए उस ने नंबर याद कर लिया पर अपने फोन में सेव नहीं किया. ऐसे में कभी उस का फोन मयूर के हाथ लग भी जाए तो बात खुलने का कोई डर नहीं.

किंतु ऐसे संबंध मन की चपलता को

जितनी हवा देते हैं, मन के अंदर छिपी शांति

को उतना ही छेड़ बैठते हैं. एक दिन मयूर के

फोन पर निशांत की कौल आई. मयूर बाथरूम

में था. ईशा ने देखा कि निशांत की कौल है तो उस का दिल फोन उठाने का कर गया, ‘‘मयूर, तुम्हारे लिए निशांत की कौल है. कहो तो उठा लूं?’’  ईशा ने बाथरूम के बाहर से पुकारा.

‘‘रहने दो, मैं बाहर आ कर कर लूंगा,’’ मयूर से इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी ईशा को.

दिल के हाथों मजबूर उस ने फोन उठा लिया, ‘‘हैलो’’ बड़े नजाकत भरे अंदाज में उस ने कहा तो निशांत भी मचल उठा, ‘‘पता होता कि फोन पर आप की मधुर आवाज सुनने को मिल जाएगी तो जरा तैयार हो कर बैठता,’’ निशांत ने फ्लर्ट करना शुरू कर दिया.

ईशा मुसकरा उठी. वह कुछ कहती उस से पहले मयूर पीछे से आ गया, ‘‘किस से बात कर रही हो?’’

‘‘बताया तो था कि निशांत की कौल है.’’

‘‘मैं ने तुम्हें फोन उठाने के लिए मना किया था. मैं बाद में कौल कर लेता. खैर, अब लाओ मु?ो दो फोन,’’ मयूर के तलखीभरी स्वर ने ईशा को डगमगा दिया. उस ने सोचा नहीं था कि मयूर उस से इस सुर में बात करेगा.

‘‘क्या मयूर को निशांत और मु?ा पर शंका होने लगा है? क्या मयूर ने कभी निशांत का कोई मैसेज पढ़ लिया मेरे फोन पर? पर मैं तो सभी डिलीट कर देती हूं. कहीं गलती से कभी कोई छूट तो नहीं गया…’’ ईशा के मन में अनगिनत खयाल कौंधने लगे.

निशांत से रंगरलियों में ईशा को जितना आनंद आने लगा उतना ही मयूर के सामने आने पर बात बिगड़ जाने का डर सताने लगा. जैसे उस दिन जब ईशा और निशांत एक कैफे में मिले थे तब कैसे ईशा ने निशांत को एक भी पिक नहीं खींचने दी थी. यह चोरी पकड़े जाने का डर नहीं तो और क्या था.

अगले दिन निशांत की जिद पर ईशा फिर उस से मिलने चल दी. सोचा,

‘आज निशांत से मिलना भी हो जाएगा और रिटेल थेरैपी का आनंद भी ले लूंगी,’ तैयार हो कर ईशा शहर के चुनिंदा मौल पहुंची. जब तक निशांत पहुंचता, उस ने थोड़ी विंडो शौपिंग करनी शुरू की कि किसी ने उस का कंधा थपथपाया. पीछे मुड़ी तो सागरिका को सामने देख जड़ हो गई.

‘‘अरे, क्या हुआ, पहचानना भी भूल गई क्या? ऐसा तो नहीं होना चाहिए शादी के बाद कि अपनी प्यारी सहेली को ही भुला बैठे,’’ सागरिका बोल उठी. वह वहां खड़ी खिलखिलाने लगी लेकिन ईशा उसे अचानक सामने पा थोड़ी हतप्रभ रह गई. फिर दोनों बचपन की पक्की सहेलियां गले मिलीं और एक कौफी शौप में बैठ कर गप्पें लगाने लगीं. अपनी शादीशुदा जिंदगी के थोड़ेबहुत किस्से सुना कर ईशा सागरिका से उस का हाल पूछने लगी.

‘‘क्या बताऊं, ईशु, हेमंत मेरी जिंदगी में क्या आया बहार आ गई. उस जैसा जीवनसाथी शायद ही किसी को मिले. मेरी इतनी प्रशंसा करता है, हर समय साथ रहना चाहता है. आज भी मु?ो लेने आने वाला है. तुम भी मिल लेना,’’ सागरिका ने बताया.

‘‘नहींनहीं सागू, मु?ो देर हो जाएगी. मु?ो निकलना होगा,’’ ईशा हेमंत की शक्ल नहीं देखना चाहती थी. वह तुरंत वहां से घर के लिए निकल गई. रास्ते में निशांत को फोन कर के अचानक तबीयत बिगड़ जाने का बहाना बना दिया. रास्ते भर ईशा विगत की गलियों से गुजरते हुए अपने कालेज के दिनों में पहुंच गई जब बहनों से भी सगी सखियों सागरिका और ईशा के सामने हेमंत एक छैलछबीले लड़के के रूप में आया था. ऊंची कदकाठी, ऐथलैटिक बौडी, बास्केटबौल चैंपियन और पूरे कालेज का दिल मोह लेने वाला.

ईशा की दोस्त जल्दी ही हेमंत से हो गई क्योंकि ईशा की स्वयं भी बास्केटबौल में रुचि थी. वह हेमंत से बास्केटबौल खेलने के गुर सीखने लगी. फिर सागरिका के कहने पर निकट आते वैलेंटाइंस डे पर ईशा ने हेमंत से अपने दिल की बात कहने की ठानी. किंतु वैलेंटाइंस डे से पहले रोज डे पर हेमंत ने सागरिका को लाल गुलाब दे कर अचानक प्रपोज कर दिया. ईशा के साथसाथ सागरिका भी हक्कीबक्की रह गई. कुछ कहते न बना. बाद में अकेले में ईशा ने अपने दिल को सम?ा लिया कि हेमंत की तरफ से कभी कोई संदेश नहीं आया था और न ही उस ने कभी उस से कुछ ऐसा कहा था. वे दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त थे.

मगर वह जवानी ही क्या जो रास्ता न भटके. जवानी में हमारे हारमोंस हम से वह सब करवा जाते हैं जिसे बाद में स्वीकारना तक कठिन हो जाए. युवावस्था ऐसा काल है जिस में केवल वर्तमान होता है, न भूत, न भविष्य. आज जो कदम हम उठा रहे हैं उस का कल हमें क्या भुगतान करना पड़ सकता है, यह सोचना जवानी का काम नहीं.

कालेज के आखिरी साल में एक दिन ईशा अपने होस्टल के कमरे से बाहर आ

रही थी कि हेमंत वहां आ गया. उस ने अचानक उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘ईशा, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या हुआ?’’ ईशा अचकचा गई.

‘‘ईशा, मैं ने तुम्हारी आंखों में अपने लिए कुछ पढ़ा है लेकिन अफसोस तुम मेरी आंखों में ?ांकने से चूक गईं.’’

‘‘यह कैसी बात कर रहे हो, हेमंत? तुम सागरिका के बौयफ्रैंड हो.’’

‘‘क्या केवल एक दिन के लिए… आज के लिए तुम यह बात भूल नहीं सकतीं? क्या मैं तुम्हें क्यूट नहीं लगता? क्या तुम मु?ो पसंद नहीं करतीं? अगर मैं ?ाठ बोल रहा हूं तो बेशक तुम फौरन इस कमरे से चली जाओ.’’

ईशा का दिमाग यह कह रहा था कि यह सागरिका के साथ धोखा होगा परंतु उस का मन इस बात से हर्षित होने लगा कि जिस हेमंत को वह मन ही मन चाहती थी वह भी उसे अपने समीप लाना चाहता है. आखिर दिलदिमाग पर हावी हो गया. उस दिन ईशा और हेमंत अपनी सीमाएं लांघते हुए एकदूसरे के आगोश में समा गए. जवानी का उबाल दूध की तरह उफनने लगा. दोनों ने सारी हदें पार कर दीं.

जब यह तूफान शांत हुआ तब ईशा का ध्यान सागरिका की ओर गया. अपने दिल की बात सुन कर क्षणिक सुख की खातिर ईशा ने हेमंत के साथ जो किया उस के कारण अब उस का मन ग्लानि से भरने लगा. अपनी सब से प्यारी सखी को धोखा दे कर वह बहुत पछताने लगी.

उस घटना के पश्चात जब कभी ईशा सागरिका के सामने आती, उसे धोखा देने का घाव एक बार फिर हरा हो जाता. इस से बचने हेतु ईशा, सागरिका से नजरें चुराती, उस से न मिलने के बहाने खोजती फिरती. अपने बचपन की सहेली को यों खो बैठने का दुख ईशा को बहुत सताता किंतु सागरिका की आंखों में देख कर बात करने की हिम्मत अब ईशा खो चुकी थी. यहां तक कि अंतिम वर्ष की परीक्षा के पश्चात उस ने मातापिता के सु?ाए रिश्ते के लिए फौरन हामी भर दी. ईशा का विवाह हो गया और वह अपनी नई दुनिया में खो गई.

आज सागरिका को पुन: मिलने के कारण ईशा के सामने सारा अतीत फिर से तन कर खड़ा हो गया. उस समय ईशा किसी से जुड़ी नहीं थी. उस के जीवन में किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं थी. हेमंत ने भी यही कह कर उस के मन में उठ रहे संदेह को दबा दिया, ‘‘तुम किसी प्रकार की ग्लानि क्यों ओढ़ती हो? आखिर तुम तो किसी से कमिटेड नहीं हो. यदि किसी को आपत्ति होनी चाहिए तो वह मैं या सागरिका हैं. मु?ो कोई परेशानी नहीं और सागरिका को इस बात की भनक भी नहीं पड़ने दूंगा,’’ हेमंत उस के अंदर चल रहे द्वंद्व को कुचलने में सफल रहा. परंतु आज स्थिति अलग है.

चाहने न चाहने की यह लकीर चाकू की धार से भी ज्यादा पैनी होती है. कुछ कट जाने का डर होता है. ईशा वही गलती दोहराना नहीं चाहती थी. सागरिका उस की सहेली थी इसलिए वह उस से दूरी बना पाई, किंतु यदि मयूर को उस पर शक हो गया या उसे निशांत से उस के चोरीछिपे मिलनेजुलने के बारे में पता चल गया तो क्या वह अपने चंचल मन की खातिर अपनी बसीबसाई गृहस्थी तोड़ सकेगी? क्या वह इतनी बड़ी कीमत चुकाने को तैयार है?

घर लौटते हुए ईशा का सिर दर्द से फटने लगा. विचारों के अनगिनत घोड़े उस के दिलोदिमाग को रौंदने लगे. घर पहुंच कर ईशा ने माथे पर बाम लगाया और बिस्तर पर ढेर हो गई. शाम घिर आई थी. छिटपुट अंधेरा होने लगा. किंतु ईशा का मन आज घर की बत्तियां जलाने का भी नहीं हुआ. यों ही बैठेबैठे वह बाहर के वातावरण से मेल खाते अपने हृदय के अंधेरों में भटकने लगी. क्या करे उसे कुछ सम?ा नहीं आ रहा था, ‘‘कितनी बड़ी बेवकूफ हूं मैं जो अपने सुनहरे जीवन में खुद ही आग लगाने का काम कर बैठी.’’

उस का मन 2 भागों में बट गया और दोनों ही पलड़े अपनीअपनी ओर ?ाकने लगे. एक मन कहता कि जो हो गया सो हो गया. आगे नहीं होगा. इस अध्याय को यहीं समाप्त करो. दूसरा मन कहता कहीं निशांत ने मयूर को बता दिया तो उस की गृहस्थी का क्या होगा. क्या जवाब देगी वह मयूर को. सिर पकड़ कर बैठी ईशा, मयूर के घर लौटने से चेती.

‘‘क्या हुआ? अंधेरे में क्यों बैठी हो?’’ मयूर ने घर में प्रवेश करते ही पूछा.

‘‘सिर में दर्द है इसलिए रोशनी में जाने की इच्छा नहीं की,’’ ईशा ने उदासीन सुर में उत्तर दिया.

मयूर ने ईशा के सिर को दबाया, खाना बनाया, फिर उसे दवाई दे कर जल्दी सोने भेज दिया.

‘‘कितनी बड़ी गलती कर बैठी मैं जो इतना खयाल रखने वाले पति के होते हुए बाहर भटकने लगी. क्या प्यार करने वाले जीवनसाथी के बावजूद मु?ो बाहर वालों की प्रशंसा की इतनी लालसा है कि उस के बदले मैं अपना बसाबसाया जीवन बरबाद कर दूं? अपने पीछे चाहने वालों की कतार की लोलुपता इतनी तीव्र हो गई कि मैं अपना वर्तमान भुला बैठी. यह कितना बड़ा अनर्थ करने जा रही थी मैं,’’ ईशा मानो निद्रा से जाग गई. केवल बंद नयनों में ही नींद नहीं आती, कितनी बार वह जागृत अवस्था को भी शिथिल बनाने के योग्य होती है. किंतु जब जागो तभी सवेरा. ईशा के मनमस्तिष्क में छाया अब हर धुंधलका साफ हो गया.

ईशा एक सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए अपने मन पर कोई अनावश्यक

बो?ा नहीं चाहती थी. उस ने निशांत से अपने बढ़ रहे संबंधों की इति करने का निश्चय कर लिया. वैसे भी अभी देर नहीं हुई. उन दोनों के मध्य कोई ऐसा अध्याय नहीं खुला था जिस की कीमत उसे अपना स्वर्णिम काल दे कर चुकानी पड़े.

अब जब कभी निशांत ने ईशा के घर आना चाहा या फिर उसे बाहर मिलने का न्योता दिया, ईशा ने हर बार कोई न कोई बहाना बना दिया. हर बार वह अबाध गति से स्थिति से निकलने में सफल रही. किंतु बारंबार ऐसा होने पर निशांत को संदेह होना स्वाभाविक था.

‘‘मु?ो ऐसा क्यों लग रहा है जैसे तुम मु?ा से मिलना नहीं चाहतीं. कोई भूल हो गई क्या मु?ा से?’’ उसे ईशा की उपेक्षा खलने लगी. वह ईशा की विमुखता का कारण जानना चाहता था.

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम तो जानते हो कि मैं एक विवाहिता स्त्री हूं. घरगृहस्थी के चक्करों में बेहद व्यस्त रहती हूं,’’ ईशा गृहस्थ जीवन की व्यस्तता का बहाना दे कर बच गई.

‘‘मयूर के साथ आओ कभी घर पर या फिर किसी संडे हम दोनों आते हैं तुम्हारे घर,’’ निशांत एक शातिर लड़का था. ईशा के जवाबों और प्रतिक्रियाओं से उसे सम?ाते देर न लगी कि अब इस गली में उस का प्रवेश निषेध है. आखिर ‘नो ऐंट्री’ के बोर्ड के आगे वह कितनी देर अपनी गाड़ी का हौर्न बजाता रहता.                     द्य

 

वापस: महेंद्र को कामयाब बनाने के लिए सुरंजना ने क्या किया

महेंद्र को कामयाब इंसान बनाने के लिए सुरंजन ने ऐसा क्या किया कि सब उस की वाहवाही करने लगे…सुरंजना के सामने स्क्रीन पर महेंद्र का परीक्षा परिणाम था और उस की आंखें उस पर लिखे अंकों पर केंद्रित थीं. महेंद्र फेल होतेहोते बचा था. अधिकांश विषयों में उत्तीर्णांक से 1-2 नंबर ही ज्यादा थे और गनीमत थी कि किसी भी विषय में रैड निशान नहीं लगा था. सुरंजना सोच रही थी, सदा ही प्रथम श्रेणी में आने वाला मेधावी युवक क्योंकर इस सीमा तक असफल हो गया? सीनियर सैकंडरी परीक्षा में पूरे पश्चिम बंगाल में महेंद्र को 10वां स्थान मिला था. इस के पश्चात कोलकाता विश्वविद्यालय के बीकौम औनर्स के इम्तिहान में उस का प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान था और उसे स्कोलरशिप मिली थी. स्कूल में भी वह हर कक्षा में सदा प्रथम आता रहा था. फिर इस बार चार्टर्ड अकाउंटैंट की इंटरमीडिएट परीक्षा में वह एकदम इतना नीचे क्योंकर आ सका? उस के जीवन के इर्दगिर्द मौजूद वर्तमान परिस्थितियों में क्या पहले की परिस्थितियों की अपेक्षा कोई मौलिक परिवर्तन हुआ है?

सुरंजना का हृदय कांप उठा. इस बार की सीए इंटर परीक्षा के करीब 6 मास पूर्व महेंद्र की उस के साथ मैरिज होना निश्चय ही महेंद्र के लिए एक बेसिक चेंज परिवर्तन ही तो है. इस के साथ ही सुरंजना को याद आने लगे वे अनगिनत कमैंट, जो महेंद्र के मित्रों ने विवाह के अवसर पर उस को लक्ष्य कर के महेंद्र से कहे थे.

महेंद्र से उस का परिचय कालेज में उस समय हुआ था, जब वह बीकौम के अंतिम वर्ष में थी. लाइब्रेरी में किताबें देने के लिए 2 क्लर्क थे. महेंद्र और वह 2 विपरीत दिशाओं से लाइब्रेरी में आए थे और उन क्लर्कों के पास जा कर एक ही लेखक की अकाउंटैंसी की पुस्तक की मांग कर रहे थे. संयोग से उस समय उस किताब की एक ही प्रति मौजूद थी. दोनों ही क्लर्क एकदूसरे को देख कर मुसकराए थे और फिर उन में से एक ने जो कुछ ज्यादा ही मजाकिया स्वभाव का था, कहा, ‘‘काश, आप दोनों एक होते तो आज इस तरह की विकट समस्या से बखूबी काम चला लेते. आप दोनों ही बताइए, अब मैं क्या करूं?’’

उस की बात सुन कर एकबारगी तो सुरंजना शर्म से लाल हो उठी थी और उस से कुछ कहते नहीं बना था. पर महेंद्र ने तुरंत बात को संभाल लिया, ‘‘ठीक है सर, कम से कम इस किताब के लिए तो हम आप के ‘काश’ को टैंपरेरली वास्तविकता में बदल ही सकते हैं. आप किताब मेरे नाम से जारी कर दें. हम दोनों सा?ो में एक ही किताब से बखूबी काम चला लेंगे.’’

फिर किताब और उसे साथ लिए महेंद्र मैदान के दूसरे छोर की बैंच पर आ कर बैठा था. महेंद्र के व्यक्तित्व से तो वह बहुत पहले से प्रभावित थी, उस दिन की ‘घटना’ के बाद परिचय और भी घनिष्ठ हो गया और यह परिचय धीरेधीरे कब और किस तरह प्यार के लहलहाते पौधे में परिवर्तित हो गया, दोनों में से कोई भी तो नहीं जान सका था.

महेंद्र का अधिकांश समय अध्ययन में ही बीतता और अपनी इसी व्यस्तता के क्षणों में से वह कुछ समय निकाल प्रतिदिन उसे ले कर ?ाल के उस पार चला जाता. वहां किसी ?ाड़ी के पीछे दोनों एकदूसरे की आंखों में ?ांकते हुए किसी और ही दुनिया में खो जाते. भावी जीवन के तानेबाने बुने जाते. महेंद्र यदाकदा उन्माद में भर कर उसे अपनी बांहों में समेट कर उस के होंठों पर अपने प्यार की मुहर अंकित कर देता और तब वह भी अपना मुंह उस की छाती में छिपा कर एक अजीब सिहरन से भर उठती थी. पर दूसरे ही क्षण ज्यों ही उसे मर्यादा का बोध होता, वह छिटक कर महेंद्र के आगोश से परे हट जाती.

उस दिन वातावरण में शाम का धुंधलका उतर आया था. ?ाल के किनारे एक घनी ?ाड़ी की ओट में महेंद्र उस की गोद में सिर रखे लेटा हुआ था और वह उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए ‘आप की नजरों ने सम?ा प्यार के काबिल मु?ो…’ गीत गुनगुना रही थी. उस की आवा बहुत सुरीली थी. गीत समाप्त होतेहोते महेंद्र ने रोमांच से अभिभूत हो अपनी दोनों बांहें उस की गरदन की ओर फैला कर उसे नीचे की ओर ?ाका लिया और अपने तप्त अधरों को उस के ललाट की चमकती बिंदी पर धर दिया.

‘‘राजी, अब यह दूरी और नहीं सही जाती. अपने और मेरे बीच यह कैसी लक्ष्मण रेखा बनाए हुए हो? क्या तुम्हें मु?ा पर विश्वास नहीं?’’ महेंद्र फुसफुसाया. बांहें उस की कमर के इर्दगिर्द और भी कस गई थीं.

‘‘उफ, मिक्की तुम भी कैसीकैसी बातें सोचते रहते हो. मु?ो तुम पर अपनेआप से भी ज्यादा विश्वास है. पर इस सैपरेशन का भी अपना महत्त्व है.  डरती हूं कि कहीं मेरा संसर्ग, मेरा प्यार तुम्हें  अपने एक पथ से डिस्टै्रक्ट न कर दे,’’ हिचकिचाते हुए उस ने अपने मन का भय महेंद्र के सामने प्रकट कर ही दिया.

‘‘मैं सम?ा नहीं, तुम आखिर क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘मिक्की, पहले कभी सुना था कि नारी की कमनीय काया और

मांसल सौंदर्य के प्रति पुरुष इस कदर आसक्त हो जाता है कि वह अपने कर्तव्य के प्रति भी उदासीन हो जाता है. बस, डर रही हूं कि कहीं उस तथाकथित लक्ष्मण रेखा के पार जा कर तुम भी अपने अध्ययन के प्रति उदासीन न हो जाओ. 1 माह बाद ही बीकौम की फाइनल परीक्षा है और अगले 6 महीनों के बाद ही तुम्हें सीए की इंटर परीक्षा मेें भी बैठना है. कहीं मेरा प्यार ऐग्जाम में अच्छी रेंज प्राप्त करने की तुम्हारी परंपरा पर कुठाराघात न कर दे.’’

‘‘खूब… हमारी राजी दूर की कौड़ी लाने में कितनी माहिर है, आज पता चला. अगर तुम्हारे इस संशय को एक नियम के रूप में मान लिया जाए तो भी निवेदन करना चाहूंगा कि हरेक नियम के कुछ ठोस अपवाद भी होते हैं. फिर मुख्य बात है, आत्मविश्वास. तुम्हारा संसर्ग मु?ो हम की ओर फोकस होने की प्रेरणा देगा न कि हम से डिस्ट्रैक्ट होने का आघात.’’

फिर बीकौम की परीक्षाएं समाप्त होते ही दोनों विवाह सूत्र में बंध गए. दोनों के मांबाप ने थोड़ा विरोध किया पर चूंकि दोनों कोलकाला में होस्टल में रहते थे, मांबाप को मालूम था कि उन्हें रोकने से कोई लाभ न होगा. उन्होंने खासी धूमधाम से शादी कर दी. दोनों के मांबाप साधारण आय वाले थे पर गरीब न थे. विवाह की वेदी पर से उठने के बाद ज्यों ही उन्हें एकांत मिला, महेंद्र के कुछ अंतरंग मित्रों ने उन दोनों को घेर लिया.

‘‘भई, अब अपना मिक्की गया काम से. एक होनहार छात्र की प्रतिभा की सम?ा लो कि आज हत्या हो गई,’’ एक मित्र आंखें नचाते

हुए बोला.

‘‘ठीक ही तो कह रहा है अविनाश, भाभी जैसी रूपसी की देह का स्वाद चख चुकने के बाद भला मिक्की का अध्ययन की ओर मन लगेगा?’’

‘‘स्कूल के जमाने से ले कर आज तक की सभी परीक्षाओं में निरंतर बढि़या परिणाम लाने वाले इस महेंद्र से हम लोगों ने कितनी उम्मीदें बांधी थीं. पूरा विश्वास था कि चार्टर्ड अकाउंटैंसी स्वर्णपदक जरूर प्राप्त करेगा पर अब पास हो जाए तो ही बहुत है.’’

‘‘पास होने की बात कहते हो? अरे, अब तो यह देखना है कि अध्ययन जारी भी रख पाता है या नहीं.’’

अविनाश की इस बात पर उस के सभी मित्र सम्मिलित रूप से उठे थे. उन के कटाक्ष सुन कर वह किसी अनजानी अपराधबोध की भावना से भर गई थी. महेंद्र अपने मित्रों के कटाक्षों को हलके रूप से ले रहा था. उस के चेहरे पर आत्मविश्वास की गहरी छाप विद्यमान थी और वह ओजपूर्ण स्वर में बोला, ‘‘दोस्तो, भविष्य की चिंता में वर्तमान को भी क्यों भुलाए दिए जा रहे हो? कम से कम जिंदगी की इस बेहतरीन उपलब्धि पर मित्र के नाते मु?ो बधाई तो दो.’’

शादी के बाद के 2-3 महीने तो पैशनेट नाइट्स के नशे में

देखते ही देखते गुजर गए. कभी कश्मीर की डल ?ाल पर तैरते शिकारे पर, कभी शिमला की वादियों में उड़नतश्तरी से उड़ते तोपटिब्बे पर तो कभी दार्जिलिंग की किसी ऊंची बर्फीली पहाड़ी पर स्कैटिंग करते हुए वे दिन किस तरह रोमांच और सिहरन भरी व्यस्तता में बीतते गए थे. इन सब से छुट्टी मिलती तो महेंद्र उसे आलिंगन में समेटे कमरे में पड़ा रहता. 1-2 बार दबी जबान से उस ने महेंद्र को उस की ऐग्जाम की जिम्मदारी से अवगत कराया, तो महेंद्र लापरवाही भरे अंदाज में बोला, ‘‘जानेमन, क्या बेवक्त की शहनाई ले कर बैठ जाती हो? बाबा, अपनी जिम्मेदारियों को तुम्हारा मिक्की खूब सम?ाता है.’’

मगर महेंद्र अपनी जिम्मेदारियों को सम?ा कहां सका था. जबजब वह उस से ऐग्जाम की तैयारियों के प्रति गंभीर हो जाने का आग्रह करती, महेंद्र या तो अगले दिन से ही अध्ययन की शुरुआत नए सिरे से करने की बात कह कर टाल देता अथवा नाराज हो जाने का अभिनय करते हुए कहा, ‘‘लगता है, हमारा प्यार सोडा वाटर की गैस की तरह साबित होगा. लगता है प्यार का उन्माद तुम्हारे मन से उतर चला है और तुम मु?ा से बोर होने लगी हो. लगता है…’’

इस से आगे वह उसे कहने ही नहीं देती थी और किसी पागल की तरह उस की छाती पर छोटेछोटे मुक्के बरसाती आर्द्र स्वर में कहती, ‘‘काश, मिक्की, तुम जान पाते कि राजी तुम्हारी अनुपस्थिति में किस तरह अधूरी हो जाती है, पर तुम्हारे मित्रों के वे कमैंट ?ाठे किस तरह साबित हो सकेंगे.’’

एक बार वह उसे एकांत देने के उद्देश्य से ही अपने मायके चली गई थी, पर महेंद्र

तो उस के चले जाने पर विक्षिप्त सा हो गया. उस के पास महेंद्र के मैसेज पर मैसेज आने लगे, जिन में वह अपने एकाकीपन और विक्षिप्तावस्था का वर्णन करते हुए अत्यंत करुण शब्दों में उस से वापस लौट आने का अनुरोध करता. वह दिन भर में 10-20 बार मैसेज भेजता. फिर कुछ दिनों के बाद महेंद्र स्वयं ही उस के मायके पहुंच गया और करीब एक सप्ताह वहां बिता कर उसे साथ ले कर ही लौटा.

सुरंजना की आंखें छलछला उठी थीं.

विवाह के बाद के पिछले 6 माह की घटनाओं

में रोमांच, सिहरन और टीसों का क्या खूब समन्वय था. स्क्रीन में देखते रिजल्ट पर से नजरें हटा कर वह बिस्तर पर लेट गई. महेंद्र किसी अबोध शिशु सा बेसुध नींद में पड़ा था. बाहर वातावरण की नीरवता यदाकदा किसी आवारा कुत्ते की भूंभूं से भंग हो उठती थी. सुरंजना के मस्तिष्क में निरंतर द्वंद्व चल रहा था कि क्या सचमुच नारी की मांसल देह और उस का मादक सौंदर्य एक कमिटेड और रिस्पौंसिबल व्यक्ति के लिए अभिशाप साबित होता है? महेंद्र के मित्रों के कमैंट क्या सचमुच सही साबित हो जाएंगे? विवाह के पहले की महेंद्र के अंतर की दृढ़ता और उस का कौन्फिडैंस विवाह के बाद कहां चला गया?

सुरंजना उठी. एक गिलास पानी पीया. इस तरह पराजय और कुंठा के एहसास को प्रश्रय देने से काम नहीं चलेगा. उस का मस्तिष्क तेजी से किसी योजना की रूपरेखा को संवारने में उल?ा हुआ था. इस कठिन समय में उस की अपनी स्टै्रंथ और सैल्फ कौन्फिडैंस क्या काम नहीं आएगा? अनायास रिजल्ट पर उस की नजर और मजबूत हो गई. एक ठोस निर्णय पर पहुंच जाने से उस के चेहरे पर संतोष और इतमीनाना की रेखा खिंच आई.

सुबह किसी के ?ाक?ोरने पर महेंद्र की नींद टूटी. सामने सुरंजना को भाप उड़ाते कौफी के प्याले लिए खड़े देख कर उस की आंखें विस्मय से फैल गईं, ‘‘तुम… इतनी सुबह?’’

‘‘हां, सुबह का समय स्टडी व ऐनालिसिस के लिए सब से ज्यादा उपयुक्त होता है न? कौफी लो, सारा आलस्य दूर हो जाएगा. फिर फटाफट तैयार हो कर अपने स्टडीरूम में पहुंचो, नाश्ता वहीं मिलेगा.’’

सचमुच कौफी पीने पर महेंद्र को ताजगी

का अनुभव हुआ. अपेक्षाकृत 2 घंटे पूर्व उठ

जाने से ?ां?ालाहट नहीं हुई. कुछ देर बाद वह तैयार हो कर अपने स्टडीरूम में पहुंचा. सारे स्टडीरूम की काया पलट हो चुकी थी. कलट्टर गायब था. बड़ी मेज पर एक फूलदान रखा था, जिस में ताजे गुलाबों का एक बड़ा सा गुलदस्ता महक रहा था. रैकों में किताबें करीने से सजा कर रखी गई थीं.

उसी समय सुरंजना नाश्ते की प्लेटें लिए कक्ष में आई. चेहरे पर ताजे खिले कमल की सी स्निग्धता थी. महेंद्र ने आगे बढ़ कर उसे हग कर लिया.

‘‘बस… बस… 6 बजने ही वाले हैं. 2 घंटे निरंतर कंस्ट्रेट हो कर पढ़ो. मन को जरा भी इधरउधर न भटकने देना.’’

न जाने कैसा जादू किया था सुरंजना के स्वरों ने. महेंद्र पूरी तरह एकाग्र हो कर पढ़ने

लग गया. ठीक 8 बजे द्वार पर आहट सुन कर महेंद्र की चेतना लौटी. देखा, सामने सुरंजना मुसकराती हुई खड़ी थी. उस के एक हाथ में चाय की प्याली थी और दूसरे में उस दिन का ताजा अखबार. सुरंजना ने अब अखबार लगवा लिया था ताकि महेंद्र मोबाइल से दूर रहने की आदत डाल ले.

‘‘जब तक तुम चाय की चुसकियां लोगे,

मैं तुम्हें आज की मुख्यमुख्य खबरें पढ़ कर

सुनाती हूं.’’

आधे घंटे बाद सुरंजना अध्ययन कक्ष से चली गई, पर इस आधे घंटे की

चुहलबाजी से महेंद्र को अपने अंदर एक नई स्फूर्ति और ताजगी का एहसास हुआ. उसे आश्चर्य हो रहा था, अभी कल तक सुरंजना को ले कर उस का मस्तिष्क सब समय जिस तरह के सैक्सुअल पैशन से भरा रहता था, आज उसे सुरंजना के सामने आते ही उस तरह के पैशन का बोध नहीं हुआ. वह दूने जोश से स्टडी में लग गया. इस का फल भी उसे मिला. पिछले कई माह से अधूरे पड़े नोट्स सब पूरे हो गए थे. कौस्ट ऐनालिसिस तथा बैलेंसशीट जैसे विषयों के कई अध्याय उसे सहज ही सम?ा आ गए थे. आज के अध्ययन से उस के चेहरे पर संतोष की रेखा खिंच आई थी. 12 बजे तक वह किताबों में तन्मय हो कर उल?ा रहा, जब तक कि सुरंजना उसे खाने की मेज पर न बुला ले गई.

‘‘अब 2 घंटे तक मैं तुम्हारे पास रहूंगी. सुन रहे हो न, मिक्की, मैं होऊंगी, तुम होंगे और हमारे बीच कोई भी नहीं होगा. मेहरबानी कर के मु?ो अपनी बांहों में छिपा लो.’’

महेंद्र स्वयं को रोक नहीं पाया. 3 बजे से पुन: अध्ययन कक्ष की दिनचर्या शुरू हुई. अब तक महेंद्र के चेहरे पर भी आत्मविश्वास गहरा उठा था. इसी बीच सुरंजना कौफी का प्याला लिए एक बार उस के पास आई. उस की क्षणिक उपस्थिति महेंद्र में एक नया साहस भर देती. सुरंजना ने अपने औफिस से सबैटिकल ले

लिया था. उस की बकाया छुट्टियां थीं. उन छुट्टियों में भी वह औफिस का काम कंप्यूटर पर करती रहती थी और कई बार तो महेंद्र को पढ़ता छोड़ कर औफिस भी हो आई थी. छुट्टी में भी उस काम के प्रति कमिटमैंट को देख कर सब खुश थे. उस की अनुपस्थिति किसी को खल नहीं  रही थी.

शाम को सुरंजना आग्रह कर के उसे ?ाल के पार ले गई. वहां ?ाड़ी के पीछे महेंद्र उस की गोद में सिर रख कर लेट गया. दोनों एकदूसरे की आंखों में ?ांकते रहे और दूर रेडियो पर ‘बांहों में तेरे मस्ती के घेरे, सांसों में तेरे खुशबू के डेरे…’ गीत की आवाज हवा में तैरती हुई कानों में रस घोलती रही.

रात में 8 बजे महेंद्र तरोताजा हो पुन: अध्ययन में जुट गया. सुरंजना रसोई का काम खत्म

कर के जब कक्ष में आई तो 11 बज रहे थे. महेंद्र अकाउंटैंसी की मोटीमोटी पुस्तकों में उल?ा हुआ था. उसे देख सुरंजना दबे पांव लौट गई और एक प्याला गरम कौफी बना लाई. उस के लौटने तक महेंद्र को ?ापकी आ गईर् थी.

‘‘मिक्की…’’ सुरंजना ने हलके से उसे आवाज दी, ‘‘बहुत थक गए हो, मिक्की चलो, अब समाप्त कर दो?’’

उनींदा सा महेंद्र मुसकराया और कौफी

का प्याला थामते हुए बोला, ‘‘सचमुच इस

समय मैं कौफी की ही इच्छा महसूस कर रहा

था. तुम जा कर सो जाओ. मैं कुछ देर और बैठूंगा, राजी.’’

‘‘तब मैं भी यही रहूंगी. इन अकाउटैंसी की पुस्तकों को रखो अब. वर्णनात्मक विषय जैसे लेखा परीक्षण वगैरह की कोई पुस्तक निकालो. मैं पढ़ूंगी, तुम सुनना. इस से पढ़ी हुई बातें मस्तिष्क में फिर से सजीव हो उठेंगी.’’

सुरंजना महेंद्र के मना करने पर भी 2 बजे तक अध्ययन कक्ष में रही. लेखा परीक्षण तथा तत्संबंधी कानून के 2-2 अध्याय उस ने पढ़े, महेंद्र तन्मय हो कर सुनता रहा.

समय तेजी से बीतता रहा. महेंद्र अब पूरे विश्वास, संयम और धैर्य के साथ एकाग्र हो कर पढ़ाई में लग गया था. सुरंजना अपनी योजना के अनुरूप व्यवस्थित ढंग से उसे प्रोत्साहन देती रही. शाम को ?ाल तक टहलने के लिए ले जाना, रात में अंतिम समय तक उस के पास अध्ययन कक्ष में रहना ये दोनों बातें सुरंजना सदैव जिद कर के करती रही.

परीक्षा से 1 सप्ताह पूर्व से ही महेंद्र

सबकुछ भूल कर बस अध्ययन कक्ष में ही कैद हो कर रह गया. सुरंजना अपनी बढ़ी हुई जिम्मेदारियों के प्रति पूरी तरह सचेत थी. अध्ययन कक्ष और रसोई के बीच यह किसी तितली की तरह उड़ती रहती. दोपहर को कुछ देर के लिए वह महेंद्र के मना करने पर भी उसे खींच कर सोने के कमरे में ले जाती.

कुछ देर का उस का संसर्ग महेंद्र पर किसी टौनिक सा असर करता और वह रात्रि

को पूरे उत्साह के साथ अध्ययन में लग जाता. अध्ययन कक्ष में सुरंजना रात देर तक कभी किसी विषय के अध्याय विशेष को उसे पढ़ कर सुनाती, कभी उस की मेज के पीछे खड़ी हो कर उस के सिर को हलकेहलके सहलाती रहती या कभी यत्रतत्र बिखरी किताबें एवं नोट्स की कापियों को करीने से सजा कर रखती रहती. अंतिम दौर में, जब थकावट चरम सीमा पर पहुंच गई, महेंद्र को कभीकभी रात में अध्ययन कक्ष में ही गहरी ?ापकी आ जाती. सुरंजना तब वहीं कक्ष में ही बिस्तरा बिछा देती.

नियत समय पर परीक्षा हुई और परिणाम भी घोषित हुए. महेंद्र और सुरंजना

का परिश्रम रंग लाया. महेंद्र ने प्रथम श्रेणी में प्राप्त हुई और उसे स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था. नगर के सभी प्रमुख समाचारपत्रों में उस की तसवीर प्रकाशित की गई.

समाचारपत्र की उस प्रति को लिए महेंद्र खुशी से उन्मादित हो दौड़ता हुआ रसोई में

आया. सुरंजना उस समय आटा गूंध रही थी. अखबार उस के हाथ में थमा कर विक्षिप्त सा हो महेंद्र ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘अब तक तुम केवल राजी ही थीं, पर अब से तुम मेरे लिए प्रेरणा भी हो.’’                                  द्य

अंधा इश्क ले डूबा: गर्लफ्रेंड और पत्नी ने राजशेखर को क्यों धोखा दिया

राज शेखर आज अपने अंधे इश्क पर लानत भेज रहा है. दरिया किनारे बैठा इस सोच में डूबा है कि अब किधर जाऊं? क्या उस पत्नी के पास जिसे मैं ने बिना किसी गुनाह के सजा दी या उस धोखेबाज लड़की के पास जिस के साथ बिना शादी के पतिपत्नी की तरह रहा, जिस पर अपना सबकुछ लुटा दिया?

मगर मैं ने तो खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है, मेरा तो कुछ न रहा. न पत्नी न परिवार. अंधे इश्क ने सब बरबाद कर दिया, मेरा अंधा इश्क मुझे ले डूबा. जी हां. राजशेखर की 2 पत्नियां हैं. 2 पत्नियों से अर्थ यह नहीं कि उस ने 2 शादियां की हैं, 2 पत्नियों का अर्थ एक से शादी की और दूसरी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रहा था.

आइए, आप को उन दोनों से मिलाते हैं…पहली पत्नी मातापिता ने अच्छे खानदान में रिश्ता तय किया. लड़की सान्या जो पढ़ीलिखी होने के साथसाथ घरेलू भी है, जो जानती है कि परिवार को कैसे प्यार की डोर से बांध कर रखा जा सकता है और दूसरी (पत्नी कहें या लड़की या रखैल, बेशक आजकल लिव इन रिलेशनशिप को लोग गलत नहीं मानते, लेकिन पहले ऐसे रिश्तों को हिराकत की नजर से देखा जाता था और ऐसी स्त्रियों को रखैल कहा जाता था) तो वह दूसरी है साक्षी जो उसी बैंक में कार्यरत है.

आइए, पहले आप को पहली पत्नी अर्थात सान्या से मिलाते हैं… मुंबई शहर के ऐक्सिस बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत राजशेखर की अच्छीखासी गृहस्थी चल रही है. शादी के 1 साल बाद ही एक प्यारा सा बेटा दिया कुदरत ने जिस का नाम रोहन रखा.सान्या हमेशा यही कहती, ‘‘मातापिता के कदमों में मेरा स्वर्ग, राजशेखर मेरा दिल और रोहन मेरी धड़कन. और मुझे क्या चाहिए, कुदरत ने सबकुछ तो दे दिया.’’

राजशेखर अकसर उस से ठिठोली करता, ‘‘सान्या अगर कभी मु?ो कुछ हो गया न तो तुम फिर से अपना घर बसा लेना. मगर हां इतना ध्यान रखना, तुम चुनाव सोचसम?ा कर करना. ऐसा शख्स चुनना जो हमारी इस धड़कन को अपने दिल में बसा ले.’’ सान्या उस के मुंह पर हाथ रखते हुए कहती, ‘‘ऐसी बातें क्यों करते हो?

मैं आप के हाथों इस संसार से विदा लूं ये मेरा सौभाग्य है. हां, आप जरूर ऐसा जीवनसाथी चुनना जो हमारी इस धड़कन को अपने दिल में बसा ले.’’ ‘‘अरे उस की तुम फिक्र न करो. मैं तो सोचता हूं कि तुम्हारे सामने ही शादी कर लूं ताकि तुम भी देखपरख लो,’’ इस तरह से हंसते हुए उसे छेड़ता और मां चप्पल ले कर पीछे भागती, ‘‘आ… आ मैं कराती हूं तेरी शादी. इस चप्पल से मारमार कर तेरा थोबड़ा न बिगाड़ दिया तो,’’ और नन्हा लगभग 3-4 साल का रोहन ताली बजाबजा कर खुश होता.

मगर कहते हैं न कि जो भी बोलो सोच कर बोलो न जाने कब जबां पर मां सरस्वती वास कर ले और कही बात सत्य साबित हो जाए. वही हुआ… राजशेखर के ही बैंक के स्टाफ में एक नई लड़की साक्षी आई. देखने में बला की खूबसूरत. ऊंचालंबा कद, गोरा रंग, तीखे नैननक्श, सुराहीदार गरदन, गदराया बदन, उभार कामदेव को आमंत्रित करते. इंद्रलोक की कोई अप्सरा हो जैसे. बैंक के कर्मचारी उस पर मर मिटे, हरकोई उस के पास आने, उस से बात करने के लिए लालायित रहता. हरकोई उस के साथ दो पल बिताने को तरसता.

 

मगर साक्षी का अधिकतर समय राजशेखर के कैबिन में ही बीतता क्योंकि वह जूनियर मैनेजर होने के साथसाथ दिमाग की भी बहुत तेज थी. बड़ेबड़े हिसाबकिताब तो जितनी देर में राजशेखर कैलकुलेटर निकालता उतनी देर में तो वह टोटल बना कर बता देती. किसी खास विषय पर भी यदि कोई राय लेनी हो तो राजशेखर उसी की मदद लेता.

अब भला आग और घी दूर रह सकते हैं क्या और खासतौर पर ऐसे समय में जब बीवी का अधिक ध्यान घरपरिवार और बच्चे पर हो जाए तो उस समय मर्द की इच्छाएं कई बार दब कर रह जाती हैं. ऐसे में अगर उसे बाहर स्वादिष्ठ खाना नजर आ जाए तो वह चखने क्या खाने से भी नहीं चूकता. यही हाल राजशेखर का था. उस के सामने स्वादिष्ठ व्यंजन की भरी थाली थी. (आप समझ ही गए होंगे कि यहां किस तरह की थाली की बात हो रही है) तो राजशेखर साक्षी की तरफ आकर्षित हो रहा था और राजशेखर था भी सजीला जवान, साफ रंग, भरा हुआ शरीर, छोटेछोटे बालों के साथ फ्रैंच कट दाढ़ी, आंखों पर जब चश्मा लगाता तो ऐसा लगता मानो कोई अंगरेज चला आ रहा है. महज 32-33 साल की मगर दिखने में अपनी उम्र से भी कम लगता था तो साक्षी भी उस पर मर मिटी.

आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई थी. नजदीकियां बढ़ती गईं और प्यार का रूप ले बैठीं. अब तो एकदूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे. राजशेखर जब घर पर होता तब भी साक्षी के बारे में सोचता या साक्षी से ही फोन पर बातें करता रहता. इस तरह से 2 साल बीत गए दोनों का प्यार पर्वत की चोटी तक पहुंच रहा था. मार्च की क्लोजिंग थी. काम का काफी प्रैशर था जो राजशेखर को कंप्लीट कर के अगले दिन रिपोर्ट करनी थी. लेकिन शाम के 7 बजने को आए अभी तक काम पूरा नहीं हुआ था. सारा स्टाफ भी जाने लगा तो साक्षी बोली, ‘‘सर, क्या मैं आप की मदद के लिए रुक जाऊं?’’

‘‘हां साक्षी, काम अभी बहुत ज्यादा है, अगर तुम हैल्प करोगी तो मैं भी जल्दी फ्री हो जाऊंगा.’’ दोनों को काम करतेकरते रात के 10 बज गए और दोनों थक कर चूर हो गए थे. साक्षी ने कौफी बनाई और दोनों पीने लगे. कौफी पीते हुए अचानक न जाने कैसे कौफी साक्षी के कपड़ों पर गिर गई.

तब राजशेखर ने अपनी शर्ट उतार कर दी, ‘‘साक्षी इसे पहन लो और अपनी शर्ट धो कर सुखा लो.’’राजशेखर के सिक्स पैक देख कर साक्षी उन की तारीफ करते हुए जैसे ही उन्हें छुआ राजशेखर के बदन में करंट सा प्रवाहित  हो गया. उस का दिल बेकाबू हो गया, खुद को न रोक सका और उस ने साक्षी को बांहों में भर लिया.

शायद साक्षी भी विरोध नहीं करना चाहती थी. उस के मन में भी मीठीमीठी बांसुरी बजने लगी. टूट कर बिखर गई वह राजशेखर की बांहों में. साक्षी ने राज के होंठों पर अपने नाजुक नर्म होंठ रख दिए. दोनों की सांसों से सांसें टकराने लगती. राजशेखर ने साक्षी को और जोर से कस कर बाहों में समेटना चाहा तो साक्षी के उभारों पर जोर पड़ा और उस के मुंह से हलकी सी सिसकारी निकली, ‘‘उफ राज, क्या करते हो?’’

राजशेखर ने उसे फिर से कस कर भींच लिया. साक्षी को अच्छा लग रहा था मगर वह इतराती हुई बोली, ‘‘राज… क्या करते हो?’’‘तुम्हारे मुंह से बारबार राज सुनने के लिए… आज पहली बार तुम ने मु?ो राज कहा. फिर से कहो वरना और जोर से दबाऊंगा.’’

साक्षी ने शर्म से पलकें झुका लीं. राज ने ऊंगली से उस की ठोड़ी को ऊपर उठाया और मनुहार करते हुए बोला, ‘‘प्लीज साक्षी, कहो न.’’ साक्षी राज के चेहरे पर चुंबनों की बौछार करते हुए राज, राज, राज कहने लगी. इस तरह से दोनों एकदूसरे में खो गए. और अंत वही हुआ, आग और घी का मिलन, आग की लपटों में बदल गया. झुलस गए दोनों इस आग में. मन से तो एक थे आज तन से भी एक हो गए.

प्यार का यह सिलसिला यों ही चलता रहा. जब राजशेखर कहीं मुंबई से बाहर मीटिंग के लिए जाता तो साक्षी भी साथ होती. कभी शहर से बाहर तो कभी शहर के किसी कोने में दोनों के मधुर मिलन की गाथा लिखी जाती. राजशेखर और साक्षी लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे. राजशेखर घर से बहाना करता काम के सिलसिले में बाहर जाने का और साक्षी के साथ रहता और साक्षी से भी कोई न कोई बहाना बना कर कभी इस घर तो कभी उस घर 2 नावों में पैर रख कर सफर कर रहा था.

आखिर साक्षी भी कब तक चुप रहती. उस ने पूछताछ शुरू कर दी इधर सान्या तो बहुत प्यारी और भोली थी. वैसे भी उस के लिए पति तो परमेश्वर होता है उस की हर बात सच्ची होती है इसलिए वह उस पर शक कर ही नहीं सकती थी. मगर साक्षी के सामने राजशेखर को सच उगलना पड़ा. उसे बताना पड़ा कि वहशादीशुदा है ‘‘क्या? राज यू आर ए मैरिड मैन? तुम शादीशुदा हो और तुम ने आज तक मुझे अंधेर में रखा, तुम ने बताया क्यों नहीं कि तुम शादीशुदा हो?’’

‘‘साक्षी पहले तुम ने भी कभी इस बारे में बात नहीं की, तुम पूछती तो क्या मैं झूठ बोलता तुम से और मैं ने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया. मैं सच्चा प्यार करता हूं तुम से. तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता.’’ ‘‘मैं भी तुम से बेइंतहा मुहब्बत करती हूं और तुम्हारे सिवा कोई और मेरे तन को छूना तो क्या आंखें उठा कर भी नहीं देख सकता. तुम्हें अपनी पत्नी को तलाक दे कर मु?ा से शादी करनी होगी.’’

‘‘यह नामुमकिन है क्योंकि न तो मैं अपने बेटे के बिना जी सकता हूं और न ही सान्या के… तलाक होने पर बेटा तो किसी एक के पास ही रहेगा. लेकिन दूसरा तो जीतेजी मर जाएगा. मैं सान्या को मरते हुए नहीं देख सकता. वैसे भी सान्या मु?ो तलाक देने के नाम पर ही आत्महत्या कर लेगी, वह मु?ा से बेपनाह और सच्ची महब्बत करती है.’’

‘तो क्या मेरा प्यार झूठा है?’’ नहीं साक्षी मैं यह नहीं कह रहा. तुम अगर दिल हो तो सान्या धड़कन है. मैं दोनों में से किसी को नहीं छोड़ सकता.’’मगर अब साक्षी को अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगी. उस ने इस रिश्ते को बनाए रखने के लिए राजशेखर के सामने एक शर्त रखी, ‘‘तुम अपनी पत्नी और बेटे को नहीं छोड़ सकते, लेकिन क्या गारंटी है कि तुम मेरा साथ पूरी जिंदगी निभाओगे और कुदरत न करे अगर मु?ा से पहले तुम्हें कुछ हो गया तो मेरे पास क्या है? तुम्हारी पत्नी के पास तुम्हारा परिवार है, उस का परिवार है और सब से अहम तुम्हारी सारी प्रौपर्टी उस के पास है. मेरा तो तुम्हारे सिवा कोई भी नहीं. न आगे न पीछे.’’

‘‘तुम ऐसा क्यों सोचती हो? जो मेरा है वह हम दोनों का है.’’ ‘‘मैं कोरी बातों पर विश्वास नहीं कर सकती. तुम कल ही अपनी आधी प्रौपर्टी मेरे नाम करो. कम से कम कुछ तो हो मेरे पास.’’

‘‘ठीक है जैसा तुम चाहो. मुझे थोड़ा समय दो मैं आधी प्रौपर्टी तुम्हारे नाम कर दूंगा.’’मगर साक्षी बहुत ने चालाकी से प्रौपर्टी के पेपर बनवा कर राजशेखर को बातों में उल?ा कर उन पर हस्ताक्षर करवा लिए और राजशेखर एक भी पेपर देख नहीं पाया क्योंकि साक्षी ने राजशेखर के वकील को खरीद लिया था और सारी की सारी प्रौपर्टी अपने नाम लिखवा ली.

साक्षी फिगर मैंटनैंस के चक्कर में मां नहीं बनना चाहती थी, इधर सान्या दूसरी बार मां बनने वाली थी. राजशेखर सान्या का अधिक ध्यान रखने लगा क्योंकि उस की तबीयत खराब रहने लगी. लेकिन साक्षी को अब यह बात हजम नहीं होती. पुराना प्यार हमेशा पुरानी शराब सा होता है जो हर पल भरपूर नशा देता है. राजशेखर फिर से सान्या की तरफ आकर्षित होने लगा.

मगर साक्षी को दूर जाते भी वह बरदाश्त नहीं कर सका. आखिर एक दिन राजशेखर ने मन मजबूत कर के सान्या और अपने परिवार को छोड़ने का फैसला कर लिया है और साफ लफ्जों में साक्षी के साथ अपना प्यार कबूल करते हुए उन्हें छोड़ कर साक्षी के पास चला गया.

न जाने क्यों फिर भी आजकल साक्षी अकसर राजशेखर से नाराज रहने लगी थी. आज भी राज औफिस में उस के कैबिन में उसे मनाने के लिए गया तो कैबिन के दरवाजे की तरफ साक्षी की पीठ थी जिस कारण उसे पता नहीं चला कि कोई अंदर आया है.

साक्षी फोन पर किसी से बात कर रही थी, ‘‘यार प्रौपर्टी तो मैं ने अपने नाम करवा ली है, बस अब सोच रही हूं कि इस राज नाम की मक्खी को दूध से निकाल कर फेंक ही दूं. बस फिर तुम और हम. हा… हा… हा… लव यू डार्लिंग.’’

ये सब सुन कर राज के होश उड़ गए. अंदर आते ही उस ने साक्षी के हाथ से जैसे ही फोन लेना चाहा साक्षी ने जोर से फोन जमीन पर फेंक कर मारा ताकि राज को पता न चले कि वह किस से बात कर ली थी, जिस से फोन टूट गया.‘‘साक्षी, मैं ने तुम से अंधा इश्क किया था, जिस का मुझे यह सिला मिला. तुम्हारे लिए मैं ने अपना परिवार तक छोड़ दिया और तुम ने मेरे साथ यह क्या किया?’’ राजशेखर लगभग रोने लगा.

 

‘‘राज, तुम ऐसे बिहेव क्यों कर रहे हो? क्या किया मैं ने तुम्हारे साथ? मेरी तो कुछ सम?ा में नहीं आ रहा, तुम कह क्या रहे हो?’’‘‘मैं ने सब सुन लिया है. अपने आशिक के साथ मिल कर तुम ने धोखे से मेरी सारी प्रौपर्टी अपने नाम करवा ली. तुम ने जो किया वह बहुत गलत किया जिस के लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं कर सकता. लेकिन मैं तुम्हें सजा भी नहीं दे सकता क्योंकि मैं अभी भी तुम से प्यार करता हूं. हां, मगर आज के बाद तुम्हारे पास सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं होगा. दौलत तो होगी तुम्हारे पास मगर प्यार को तरसोगी तुम.’’

‘‘जब तुम सबकुछ जान ही गए हो तो जाओ मेरा पीछा छोड़ो. और हां जल्द ही तुम्हारी उस फैमिली को भी घर से बाहर करने वाली हूं मैं क्योंकि तुम्हारी सारी प्रौपर्टी अब मेरी है.’’राजशेखर के पास आज कुछ नहीं. जिस के लिए परिवार छोड़ा उस ने सारी प्रौपर्टी ले कर उसे छोड़ा.

राज ने परिवार के पास वापस जाना चाहा तो परिवार ने उसे अपनाने से इनकार कर दिया क्योंकि उसी के करण परिवार आज सड़क पर आ गया था. सान्या मासूम बच्चों और बुजुर्ग सासससुर को ले कर कहां जाए? अपनी ऐसी स्थिति देख कर सान्या को राज से नफरत हो गई. इधर साक्षी ने अपने उस आशिक के पास जा कर शादी की बात की तो उसे पता चला कि उस ने जो प्रौपर्टी के पेपर बनवाए थे वे उस ने साक्षी के नहीं बल्कि अपने नाम करवा लिए थे.राज को साक्षी ठोकर मार चुकी थी और इधर प्रौपर्टी भी हाथ से गई. न घर की न घाट की और यही हाल राज का भी है..‘‘जाएं तो जाएं कहां, समझेगा कौन यहां, दर्द भरे दिल की जबां.’’

तेरा साथ है तो : क्यों औरत ही ऐडजस्ट करती रहे?

आखिर एक औरत ही क्यों कभी मातापिता के लिए, तो कभी पतिबच्चों के लिए ऐडजस्ट करती रहे? आशा के साथ भी यही होता आ रहा था. एक दिन उस ने खुद को बदलने का फैसला कर लिया…

किचन में चाय बनाती हुई आशा की फटी कुरती से झांकती उस की बांह देख अनिल को याद आया कि उस ने उस से कुछ पैसे मांगे थे अपने वास्ते कपड़े खरीदने के लिए और अनिल ने कहा था कि हां ठीक है ले लेना मगर वह भूल गया. काम की व्यस्तता के कारण उसे याद ही नहीं रहा और आशा यह सोच कर चुप लगा गई कि शायद अभी अनिल के पास पैसे नहीं होंगे. कोई बात नहीं अगले महीने ले लेगी. लेकिन अनिल को तो अगले महीने भी याद नहीं रहा कि आशा को पैसे देने हैं. आशा ने भी फिर पैसे इसलिए नहीं मांगे कि जब होगा खुद ही दे देगा.

‘ओह,’ एक गहरी सांस लेते हुए अनिल खुद में ही बुदबुदाया, ‘आमदनी अठ्ठनी और खर्च रुपया. यहां कमाई से ज्यादा तो खर्चे हैं घर के. तनख्वाह आते ही ऐसे उड़ जाती है जैसे पतंग. चलो, आज बैंक से थोड़े पैसे निकाल कर आशा को दे दूंगा,’ सोच में मग्न अनिल को यह भी ध्यान नहीं रहा कि आशा चाय रख गई है.

‘‘चाय ठंडी हो रही है, पी लो,’’ आशा ने टोका तो अनिल अचकचा कर उधर देखने लगा. ‘‘पता है न अगले महीने से अमन बेटे की बोर्ड की परीक्षा शुरू होने वाली है? लेकिन तुम चिंता मत करो, उस की तैयारी अच्छी चल रही है. अच्छा, मैं नाश्ता तैयार कर देती हूं तब तक तुम स्नान कर लो,’’ बोल कर आशा जाने ही लगी कि उसे एक जरूरी बात याद आया गया और पलट कर फिर बोली, ‘‘अरे सुनो, मांजी की दवा खत्म हो गई है. औफिस से आते वक्त लेते आना. अच्छा, तुम रहने देना. मु?ो आज बाजार जाना ही है तो मैं ही ले आऊंगी.’’

 

‘‘हां, तुम्हीं ले आना दवा क्योंकि हो सकता है कि आज मु?ो औफिस से आने में देर हो जाए,’’ अपनी चाय खत्म करते हुए अनिल बोला और सोचने लगा कि उसे अपने लिए तो कभी समय ही नहीं मिल पाता है. सुबह खापी कर जल्दी औफिस भागो और रात में थकेहारे घर पहुंचो, खाओ और सो जाओ. जिंदगी तो जैसे मशीन बन कर रह गई है. वैसे आज तो औफिस में उतना ज्यादा काम नहीं है. लेकिन मु?ो तो आज अपनी कलीग शलिनी के बेटे के जन्मदिन पर जाना है, इसलिए घर आने में लेट तो हो ही जाएगा. लेकिन यह बात मैं ने आशा को इसलिए नहीं बताई कि बेकार में हजार सवाल करेगी और कहेगी, खुद तो मजे करते हो और मु?ो कहीं ले कर नहीं जाते.

 

‘‘यह लो, अब मुंगेरी लाल की तरह क्या सोचने लगे? यही सोच रहे हों न कि तुम अपनी बीवी को समय नहीं दे पाते,’’ आशा हंसी, ‘‘इसलिए कहती हूं 2-4 दिन की छुट्टी ले कर कहीं घूमने चलते हैं. लेकिन तुम्हें तो अपने काम से ही फुरसत नहीं मिलती. जब देखो कामकामकाम की रट लगाए रहते हो.’’

आशा की बात पर अनिल ने उसे गौर से देखा और सोचने लगा कि यहां तो सब को अपनी पड़ी है. मां अलग तीर्थयात्रा की रट लगाए हुई है, अमन को जब देखो पैसे चाहिए होते और आशा को उस से हरदम यही शिकायत रहती है कि वह उसे कहीं घुमाने ले कर नहीं जाता. तो क्या घूमनेफिरने में पैसे खर्च नहीं होते? कहां से आएंगे पैसे? लेकिन इसे यह बात कहां सम?ा में आती है. अपने मन में सोच अनिल तिलमिला उठा.

‘‘बोलो न क्या सोच रहे हो?’’ आशा ने अनिल को धीरे से धक्का देते हुए पूछा. ‘‘नहीं सोच नहीं रहा हूं बल्कि देख रहा हूं कि न तो घर में बीवी खुश है और न औफिस में बौस. मैं ही पागल हूं जो पूरे दिन पागलों की तरह मेहनत करता रहता हूं,’’ मुंह बनाते हुए बोल कर अनिल बाथरूम में घुस गया.

उधर आशा सोचने लगी कि ये अनिल भी अजीब ही इंसान हैं. जरा मजाक भी करो तो गुस्सा हो जाते हैं. खैर, वह भी कुछ न बोल कर किचन में चली गई. वैसे आशा भी सम?ाती थी कि अनिल अपनी जगह सही हैं. आखिर, पूरा दिन परिवार के लिए ही तो खटते रहते हैं. जिंदगी में इंसान को थोड़ाबहुत एडजस्ट करना आना चाहिए.

अनिल को भी इस बात का बुरा लगा कि उस ने आशा से गलत तरीके से बात की. लेकिन वह भी क्या करे? क्या उस का मन नहीं करता अपने परिवार के साथ समय बिताने का? आशा ने उस से कहा था इस संडे वह उस के साथ बाजार चलेगी. अपने लिए कुछ कपड़े खरीदने. लेकिन इस संडे भी उसे औफिस जाना पड़ गया, तो क्या करे वह? ‘‘आशा, नाश्ता बन गया तो दो भाई वरना रहने दो मैं बाहर ही कुछ खा लूंगा,’’ अपनी शर्ट के बटन लगाते हुए अनिल बोला तो आशा झट से नाश्ता लगाने लगी. उस ने अनिल का लंचबौक्स टेबल पर रखते हुए बस इतना ही कहा, ‘‘कुछ पैसे देते जाना क्योंकि बाजार से सामान लाने जाना है.’’ ‘‘हां, ठीक है,’’ कह कर अनिल जल्दीजल्दी नाश्ता करने लगा.

‘जब देखो राजधानी ऐक्स्प्रैस पर सवार रहते हैं’ आशा मन ही मन बुदबुदाई, ‘सुबह उठाओ तो उठेंगे नहीं, 2 मिनट 2 मिनट कर के 2 घंटे लगा देंगे और मु?ो कहते हैं मैं देर करवा देती हूं. फिर बोली, ‘‘अच्छा, सुनो, औफिस पहुंच कर एक फोन कर देना.’’ आशा की बात पर अनिल को हंसी आ गई.

‘‘हंस क्यों रहे हो? शुक्र मनाओ कि मैं तुम्हारी इतनी चिंता करती हूं वरना औरों की बीवियों को देखो… लेकिन तुम से तो जरा यह भी नहीं होता कि बैठ कर बीवी से प्यार की दो बातें ही कर लें. जब देखो ?िड़कते रहते हो या काम का रोना रोते रहते हो.’’

आशा की बात पर अनिल ने कुछ बोलना चाहा पर तभी आशा ने कहा, ‘‘कुछ बोलने की जरूरत नहीं, जाओ अब, बाय,’’ और दरवाजा लगा लिया और सोचने लगी कि वह भी सम?ा रही है कि अनिल को किसी बात की चिंता खाए जा रही है. यही कि इस साल अमन का 10वीं कक्षा का बोर्ड ऐग्जाम है और वह उसे समय नहीं दे पा रहा है. तो मैं ने कब उस से इस बात की शिकायत की है बल्कि मैं तो खुद अमन को पढ़ाती भी हूं और पूरे घर का भी खयाल रखती हूं, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों बातबात पर चिढ़ते रहते हैं ये. कोई भी बात बोलो उलटा ही जवाब देते हैं. बेकार में अपना बीपी तो बढ़ाते ही हैं, मेरा भी हाई कर देते हैं. वैसे किसी ने सही कहा कि काम भले मत करो पर काम की चिंता जरूर करो अनिल यही तो करते हैं. घरबाहर का सारा काम करती हूं मैं और दिखावा करते हैं ये. ऐसा जताते हैं जैसे पूरे संसार का बो?ा इन्होंने ही उठाया हुआ है. मु?ो तो लगता है इस घर में मेरी किसी को पड़ी ही नहीं है. अनिल हैं कि जब देखो काम का ही रोना रोते रहते हैं और मेरी सास को अपनी सोसायटी की सहेलियों से ही फुरसत नहीं है. मेरा बेटा अमन तभी ‘मांमां’ करता मेरा पास आता है जब उसे भूख लगती या पैसों की जरूरत पड़ती है.

अनिल सरकारी बैंक में नौकरी करता है. उस की कमाई इतनी तो है कि वह अपने परिवार का खर्चा चला सके. लेकिन दिनप्रतिदिन बढ़ती महंगाई को ले कर वह चिंचित रहता है कि आगे सब कैसे चलेगा. अगले साल अमन को किसी अच्छी कोचिंग में भी डालना पड़ेगा तो इतने पैसे कहां से आएंगे? इस बात की भी उसे चिंता हो रही है. ऊपर से अनिल की मां की दवा डाक्टर पर भी अलग खर्चा होता है हर महीने. इसी कारण से वह खिन्न रहता है और उस का सारी भड़ास आशा पर निकलती है. लेकिन इस में आशा की क्या गलती है?

‘शीतल, मेरी सहेली, कई दिनों से मुझे एक 9वीं कक्षा की एक बच्ची को ट्यूशन पढ़ाने को बोल रही है. लेकिन अनिल से बिना पूछे मैं ‘हां’ नहीं करना चाहती. चलो न, आज शाम जब वे औफिस से घर आएंगे तो मैं उन से ट्यूशन पढ़ाने के बारे में बात कर लूंगी’ अपने मन में सोच आशा रात के खाने की तैयारी में लग गई. औफिस से आने पर आशा ने जब अनिल से ट्यूशन पढ़ाने वाली बात कही तो वह यह कह कर बात को टाल गया कि अभी वह बहुत थका हुआ है, सुबह बात करेगा. लेकिन सुबह भी वह यह बोल कर औफिस निकल गया कि शाम को बात करेगा. अनिल का व्यवहार कभीकभी आशा की सम?ा से बाहर हो जाता था. कभी तो वह एकदम सुल?ा हुआ पति लगता उसे और कभी एकदम खड़ूस. मतलब कह नहीं सकते कि ऊंट कब किस करवट बैठेगा. कब वह किस बात पर आशा पर भड़क जाएगा और कब प्यार से बात करेगा, नहीं पता होता था आशा को. इसलिए वह अनिल से संभल कर बात करती.

आशा का कहना था कि भले कपड़ेलत्ते मत दो बहुत घुमानेफिराने भी मत ले कर जाओ लेकिन कम से कम ढंग से तो बात करो मु?ा से. लेकिन अनिल तो बस अपने मतलब से मतलब रखता आशा से. आशा भले ही दिनभर घर में खटती रहे पर वाहवाही तो अनिल की होती क्योंकि वह कमा कर चार पैसे घर में जो लाता. घर की बढ़ती जिम्मेदारियों के बीच आशा यह भी भूल चुकी थी कि उस की भी कुछ

जरूरतें और सपने हैं. उसे भी अपने लिए थोड़ा वक्त चाहिए. कभीकभी तो आईने में अपना चेहरा देखे उसे कई दिन बीत जाते. सुबह उठते ही अपने बालों को मुट्ठी में लपेट कर एक जूड़ा बनाती और काम में लग जाती. वह तो यह भी भूल चुकी थी कि शादी के पहले वह एक स्वतंत्र युवती हुआ करती थी और अपने फैसले खुद लिया करती थी. उसे तो यह चेतना भी नहीं रही कि घरपरिवार की व्यस्ताओं के बीच उस के जीवन के कई वसंत यों ही बीत गए. अपनी शादी के इन 16 सालों में याद नहीं उसे कि अनिल उसे कहीं घुमाने ले कर गया हो या कोई उस के पसंद का उपहार ही खरीद कर दिया हो.

नहीं-नहीं, वह कोई शिकायत नहीं कर रही, बस बता रही है. वैसे यह बात तो वह भी मानती है कि उस में गजब की सहनशक्ति है खासकर के शादी के बाद जिंदगी में समंजस्य बैठाना उस ने खूब अच्छी तरह सीख लिया है क्योंकि यही सुखी गृहस्थ जीवन का मूलमंत्र बताया गया है. शादी के पहले आशा एक हाई स्कूल में टीचर थी लेकिन शादी के बाद उसे जौब छोड़नी पड़ी क्योंकि अनिल ऐसा चाहता था. अनिल का कहना था कि अगर वह जौब करेगी, तो घर कौन संभालेगा? लेकिन आज जब अमन बड़ा हो चुका है तो क्यों वह बच्चों को ट्यूशन नहीं पढ़ा सकती है? लेकिन अनिल इस के लिए भी तैयार नहीं है. आखिर चाहता क्या है वह आशा को सम?ा ही नहीं आता.

बात दरअसल यह है कि मर्द आज भी औरतों को बेडि़यों में बांध कर रखना चाहता है. उसे पसंद ही नहीं औरत उस से आगे बढ़े. पुरुष को तो अपने आगे हाथ फैलाने वाली, डांट खाने वाली, उस की सेवा करने वाली और एक आवाज पर तुरंत हाजिर हो जाने वाली पत्नी ज्यादा अच्छी लगती है. समाज की भी यही सोच है संस्कारी तो वही औरतें होती हैं, जो घरपरिवार को ठीक से संभाल सकें, न कि वे जो बाहर जा कर नौकरी करती हैं और पराए पुरुषों के साथ हंसतीबतियाती हैं. लेकिन असल बात तो यह है कि यह समाज औरतों को चारदीवारी में बंद कर के रखना चाहता है. खैर, शीतल बारबार मैसेज कर आशा से रिक्वैस्ट कर रही थी कि वह उस बच्ची यानी चिया को ट्यूशन पढ़ा दे तो बड़ी मेहरबानी होगी. शीतल ने बताया था उसे कि चिया की मां नहीं है. 2020 में कोरोना में वह चल बसी. फिर चिया के पापा ने दूसरी शादी नहीं की क्योंकि अपनी बेटी को वे सौतेली मां नहीं देना चाहते थे. अब चिया की दादी ही उस की देखभाल करती है. चिया के पापा एक बहुत बड़े सरकारी अफसर हैं. इसलिए उन्हें अपनी बेटी को पढ़ाने का समय नहीं मिल पाता है. चिया का अगले साथ 10वीं कक्षा का बोर्ड का ऐग्जाम है और उस के पापा इस बात को ले कर परेशान हैं कि अगर उस की पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाई तो कहीं फेल न हो जाए.

दरअसल, वे अपनी बेटी चिया को बाहर किसी कोचिंग या ट्यूशन क्लासेस में नहीं भेजना चाहते हैं. सोच रहे कि कोई अच्छी महिला टीचर मिल जाए, जो उन के घर में ही आ कर चिया को पढ़ा जाए तो बहुत अच्छा होगा. इस के लिए वे कितना भी पैसा देने को तैयार हैं. शीतल को चिया के लिए आशा से अच्छी कोई दूसरी टीचर नजर नहीं आई, इसलिए वह बारबार रिक्वैस्ट कर रही थी वह चिया को पढ़ाए. मगर आशा अनिल से पूछे बिना हां नहीं कहना चाहती थी.

आशा ने अनिल से जब चिया को पढ़ाने की बात कही और बताया कि उसे उस के घर पर जा कर ही पढ़ाना है तो अनिल मान तो गया लेकिन कहने लगा कि वह देख ले क्योंकि मां से घर का कोई काम होगा नहीं. अमन का वैसे भी अगले महीने बोर्ड ऐग्जाम है, तो उसे किसी काम में उल?ाना सही नहीं होगा और उसे तो कहां समय मिल पाता है जो वह कुछ सोचे ‘‘अरे, तुम इन सब बातों की चिंता क्यों करते हो. मैं सब संभाल लूंगी न और वैसे भी 2 घंटे ही तो पढ़ाना है उस बच्ची को,’’ आशा ने अनिल के मन की उल?ान को सुल?ाते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं दोपहर में ही पढ़ाया करूंगी उसे क्योंकि दोपहर मैं वैसे भी सो कर ही बिताती हूं, तो नहीं सोऊंगी और क्या. ठीक है न?’’ आशा की बात पर अनिल ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर कहा, ‘‘ठीक है, जो तुम्हें ठीक लगे.’’ ‘‘हां, तो फिर ठीक है. मैं शीतल को बोल देती हूं.’’

अनिल के पूछने पर कि कितने पैसे दे रहे ट्यूशन पढ़ाने के? आशा बोली, ‘‘अभी पैसों की कोई बात नहीं की है.’’ 15 साल की चिया इतनी प्यारी बच्ची थी कि तुरंत ही उस ने आशा का मन मोह लिया. पढ़ने में वैसे तो वह ठीकठाक ही थी. लेकिन उसका मैथ और अंगरेजी बहुत कमजोर था. इसलिए तो उस के पापा चाहते थे कि कोई मैथअंगरेजी का टीचर मिल जाए तो अच्छा रहेगा. आशा को दुख हुआ जान कर कि उस की मां नहीं है. 2020 में कोरोना में जब उस की मां गुजर गई, तो चिया बहुत उदास रहने लगी थी. इस कारण वह अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान नहीं दे पाई और 1 साल पीछे रह गई वरना तो वह इसी साल 10वीं कक्षा का बोर्ड का ऐग्जाम देती. खैर, अब जो हो चुका उसे वापस तो नहीं लाया जा सकता. लेकिन आशा ने सोच लिया कि वह चिया को अच्छे से पढ़ाएगी ताकि उस का मैथ और अंगरेजी अच्छी हो जाए.

 

अनिल को औफिस भेज कर, फिर घर के सारे काम निबटा कर आशा चिया को पढ़ाने उस के घर चली जाती. यही रोज का नियम बन चुका था. उसे चिया को पढ़ाते 1 महीने से ऊपर हो चुका था. आशा के पास एक स्कूटी थी उसी से वह चिया को पढ़ाने जाती थी. उधर चिया भी बड़ी बेसब्री से अपनी टीचर आशा का इंतजार कर रही होती और जैसे ही आशा को देखती, चहक कर कहती, ‘‘मैम, आ गईं आप? देखो, आप ने जो मु?ो मैथ्स की वर्कशीट दी थी, मैं ने सारे बना लिए. सही है की नहीं, आप चैक कर लो, तब तक मैं आप के लिए पानी ले कर आती हूं.’’

‘‘नहीं चिया, पानी रहने दो. तुम इधर आ कर बैठो,’’ आशा उसे अपने पास बैठाते हुए सम?ाती कि मैथ को बस ठीक से सम?ाना होता है, ‘‘देखो, अगर तुम से सवाल हल नहीं हो रहा हो तो इसे गेम की तरह सम?ा कर सौल्ब करने की कोशिश करो. तब बाकी विषयों की तरह तुम्हें मैथ भी आसान लगने लगेगा,’’ आशा उसे इतने प्यार से सम?ाती कि चिया को अपनी मां याद आ जाती.

 

वह जब आशा से हिंदी में बात करती तो आशा मुसकराते हुए कहती कि अब यही बात वह अंगरेजी में बोल कर सुनाए. ऐसे धीरेधीरे कर चिया की मैथ और अंगरेजी में पकड़ अच्छी होने लगी. पहले के मुकाबले अब क्लास में उस के अच्छे नंबर आने लगे. चिया की प्रोग्रैस रिपोर्ट देख कर उस के पापा आनंद काफी खुश हुए और बोले कि अब आगे भी आशा ही उसे पढ़ाया करेगी.

चिया की दादी भी अपनी पोती की पढ़ाई और उसे चहकते हुए देख कर बहुत खुश होतीं. अपनी मां के चले जाने से चिया काफी उदास रहने लगी थी. पढ़ाई से भी उस का मन उचटने लगा था. हर दम वह चिड़चिड़ी सी रहती. न तो किसी से ठीक से बात करती न खातीपीती ही थी. लेकिन शुक्र है कि आशा ने एक मां की तरह आ कर उसे संभाल लिया. वह उसे सिर्फ पढ़ाती ही नहीं बल्कि बाहरी ज्ञान भी देती. आशा को इतने अच्छे से पढ़ाते देख कर आनंद को बहुत खुशी होती कि चिया को एक अच्छी ट्यूटर मिल गई.

आशा के मना करने के बावजूद आनंद उस के लिए चाय बना लाता और हंसते हुए कहता कि एक बार पी कर देखे, वह चाय बहुत अच्छी बनाता है और उस की बात पर आशा हंस पड़ती. आशा जब अनिल से चिया और उस के पापा की बात करती और कहती कि वे बड़े ही अच्छे लोग हैं तो अनिल तुनक कर कहता कि वह सिर्फ चिया को पढ़ाने से मतलब रखे. वे लोग अच्छे हैं बुरे हैं, इससे उसे क्या लेनादेना? इसी तरह चिया को पढ़ाते हुए आशा को 6 महीने हो गए.

चिया चाहती थी कि आशा कल उसे पढ़ाने न आए, ‘‘क्यों, कल क्यों नहीं पढ़ना है तुम्हें? कहीं जा रही हो?’’ आशा ने पूछा तो सकुचाते हुए चिया बोली कि नहीं, कहीं जाना तो नहीं है. लेकिन कल उस का जन्मदिन है, तो इसलिए नहीं पढ़ना.

‘‘ओह, तो कल मेरी प्यारी चिया का बर्थडे है?’’ चिया के गाल पर एक प्यारा सा चुंबन देते हुए एक बच्ची की तरह इठलाती हुई आशा बोली, ‘‘कल मेरा भी जन्मदिन है.’’ ‘‘क्या, सच में मैम?’’ चिया तो उछल ही पड़ी कि कल उस की मैम का भी बर्थडे है. चिल्ला कर वह अपनी दादी और पापा को बुला लाई और कहने लगी कि कल उस की मैम का भी बर्थडे, तो कितना अच्छा है न. कहने लगी कि क्यों न उस की मैम और वह, दोनों साथ में अपना बर्थडे, सैलिब्रेट करें?

उस की बात पर उस के पापा और दादी दोनों खुश हो कर बोले, ‘‘हां, यह तो बहुत ही बढि़या आइडिया है. ‘‘अरे नहीं,’’ आशा एकदम से बोल पड़ी, ‘‘चिया, तुम अपना बर्थडे पापादादी के साथ सैलिब्रेट करो. मैं परसो आती हूं तुम्हें पढ़ाने ओके न?’’  बोल कर वह जाने ही लगी कि पीछे से आनंद की आवाज ने उसे रोक लिया.

वह कहने लगा, ‘‘चिया की खुशी की खातिर वह अपना बर्थडे इस के साथ सैलिब्रेट नहीं कर सकती? ‘‘नहीं, मैं कैसे. मेरा मतलब है कि मुझे घर में काम…’’ आशा को तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले मगर चिया अपनी मैम का दुपट्टा पकड़ कर कहने लगी, ‘‘प्लीज… प्लीज हां कह दो.’’

 

मजबूरन आशा को हां कहना पड़ा क्योंकि वह चिया का दिल नहीं दुखा सकती थी. आशा यह सोच कर मुसकरा उठी कि चलो, अच्छा है, उसे अनिल से पर्मिशन नहीं लेगी पड़ेगी पार्टी में जाने के लिए क्योंकि वह तो 10 दिनों की ट्रेनिंग के लिए गुरुग्राम गया हुआ है. उस की सास भी अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ तीरथ यात्रा पर गई हुई हैं और अमन को तो वैसे भी अपनी पढ़ाई और दोस्तों के अलावा किसी बात से कोई मतलब नहीं रहता. तो वह आराम से पार्टी ऐंजौय कर सकेगी वरना अनिल यहां होता तो तुरंत कहता कि क्या जरूरत है यह पार्टीवार्टी में जाने की? अनिल इतना बोरिंग इंसान है न कि क्या कहें. खुद तो खुश रहना आता नहीं उसे, दूसरों को भी खुश नहीं देखता.

सच कहें तो आशा को अब अनिल से ज्यादा आनंद का साथ भाने लगा था. उन के साथ टाइम स्पैंड करना उसे पौजिटिविटी देता था. इसलिए जब कभी वह उसे फिल्म देखने या पिकनिक वगैरह पर जाने के लिए आग्रह करता तो वह न नहीं बोलती और उन के साथ चल पड़ती थी. लेकिन अनिल को वह इस बारे में कुछ नहीं बताती क्योंकि बेकार में बखेड़ा करता. वैसे भी पति से थोड़ा ?ाठ बोल देने में कोई हरज नहीं है. इस से रिश्ते भी सही रहते हैं और जिंदगी के मजे भी लिए जा सकते हैं.

वैसे आशा और आनंद के बीच कोई ऐसीवैसी बात नहीं थी. बस दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता था और कुछ नहीं. मगर अनिल कहां यह बात सम?ा पाएगा. वह तो यही कहेगा कि अच्छा, तो अब चिया के साथ उस के पापा भी  तुम्हें अच्छे लगने लगे? कोई चक्करवक्कर तो नहीं तुम दोनों के बीच? छि:, अनिल की सोच भी न कितनी गंदी है. वैसे सारे मर्द एकजैसे होते हैं. अपनी पत्नी को चाहे वह कितना ही प्यार क्यों न करते हों पर पत्नी के मुंह से किसी गैरमर्द की तारीफ सुन ही नहीं सकते कभी. ईर्ष्या जो होने लगती है उन्हें. लेकिन खुद गैरऔरतों के साथ ठहाके लगा सकते हैं, उन से देर रात तक बात कर सकते हैं क्योंकि वे मर्द जो ठहरे. उन के लिए सब जायज है.

 

अभी पिछले महीने जब आशा का फोन पानी में गिर गया तो जब वह उसे दुकानदार के पास रिपेयर कराने ले कर गई तो दुकानदार कहने लगा कि पानी में गिर जाने के चलते फोन पूरी तरह से डैमेज हो चुका है. अब इतनी जल्दी नया फोन कहां से लाती वह और फोन के बिना काम भी नहीं चल सकता. इसलिए घर में जो पुराना बटन वाला फोन पड़ा था उसे ही यूज करने लगी. जब चिया को फोन पानी में गिर जाने वाली बात पता चली तो वह तुरंत अपने पापा से कह कर आशा के लिए नया फोन खरीदवा लाई.

 

मगर वह उन से इतना महंगा फोन कैसे ले सकती थी. मगर फिर वही… चिया की जिद के आगे वह हार गई. लेकिन कैसेकैसे उसे अपना फोन अनिल से छिपा कर रखना पड़ा वही जानती है. फिर बाद में तो यही कहा उस ने कि अपने ट्यूशन के पैसे से उस ने यह फोन खरीदा है. आनंद जब औफिशियल टूर पर विदेश जाता, तब वह सब के साथसाथ आशा के लिए कुछ न कुछ वहां से उपहार ले कर आता था. लेकिन आशा के लिए वह उपहार मुसीबत बन जाता था क्योंकि अनिल से उसे छिपा कर जो रखना पड़ता था नहीं तो वह तुरंत सम?ा जाता कि यह आनंद ने उसे दिया है और फिर उस का ट्यूशन पढ़ाना बंद करा देता.

शुरू में तो आशा को ऐसा सब करते गिल्टी महसूस होती थी लेकिन अब नहीं होती. अनिल जब उस से उपहार के बारे में पूछता है तो ठसक से कह देती है, अपने पैसे से खरीदा. वैसे अनिल भी उस से कौन सा सब सच ही बोलता है? और इंसान की अपनी भी कोई पर्सनल लाइफ होती है कि नहीं? शादी के इतने सालों में आशा को याद नहीं कि कभी उस ने अपनी पत्नी को कोई ढंग की चीज दिलाई हो या कभी उस ने आशा का जन्मदिन मनाया हो. उपहार वगैरह तो दूर की बात, अनिल ने कभी उसे एक बार हैप्पी बर्थ डे भी विश नहीं किया होगा. लेकिन मजाक में इतना जरूर कह देता कि यह तुम्हारा असली वाला जन्मदिन है या यह भी नकली है और जोर से ठहाका लगा कर हंस देता, तो आशा को बहुत बुरा लगता. क्या वह कभी उन से ऐसा बोली बल्कि उस के बर्थडे पर बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती आई है.

चिया का बर्थडे शहर के बहुत बड़े होटल में रखा गया था. वैसे आनंद ने अनिल को भी बर्थडे, पार्टी में इन्वाइट किया था, लेकिन वह तो ट्रेनिंग के लिए गुरुग्राम गया हुआ था. लेकिन आशा को सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह चिया को क्या गिफ्ट दे. अब कपड़े देना सही नहीं होगा क्योंकि वह ब्रैंडेड कपड़े पहनती है और वह उतने महंगे कपड़े उसे नहीं दे सकती. फिर क्या गिफ्ट दे सम?ा नहीं आ रहा था उसे. फिर लगा, क्यों न उसे एक बड़ा सा टैडी गिफ्ट कर दे. वैसे भी उसे टैडीबियर बहुत पसंद है. सो एक बड़ा सा पिंक टेडी बियर, जो ढाई हजार तक में आया, आशा ने चिया के लिए पैक करवा लिया.

 

चूंकि पार्टी रात में थी तो आनंद बोला कि वह खुद आशा को लेने आएगा. वैसे भी उसे इतनी रात को स्कूटी से आते डर लगता तो ठीक है आशा ने सोचा. लेकिन आनंद गाड़ी को होटल में न ले जा कर एक मौल के

 

सामने रोक दी और उसे अंदर चलने का इशारा किया. आशा उस के पीछेपीछे मौल की तरफ बढ़ गई लेकिन दिमाग सोच रहा था कि आनंद उसे यहां मौल में ले कर क्यों आया है? ‘हो सकता है चिया के लिए कुछ सरप्राइज गिफ्ट खरीदना हो’ आशा ने सोचा. लेकिन आनंद उसे बीबा के शोरूम में ले गया और उस के लिए एक बहुत ही सुंदर और काफी ऐक्सपैनसिव ड्रैस पसंद कर बोला कि वह ट्रायल रूम में जा कर चेंज कर आए.

‘‘लेकिन आनंदजी, यह मैं कैसे? नहीं मु?ो यह नहीं…’’ आशा बोल ही रही थी कि आनंद ने आंखों के इशारे से कहा कि सब देख रहे हैं. सो प्लीज और वह ट्रायलरूम की तरफ बढ़ गई. जब बाहर निकली तो यलो कलर के उस सूट में आनंद उसे अपलक निहारता रह गया. रास्तेभर वह इसी ऊहापोह में रही कि यह गलत है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए. एक गैरपुरुष से इतना महंगा गिफ्ट नहीं ले सकती वह. हां, माना कि आनंद का साथ उसे कुछ घंटों के लिए राहत और आराम का माहौल देता है. मगर यह सब ठीक नहीं है और अनिल से क्या कहेगी जब वह इस सूट के बारे में पूछेगा तब? ऐसे कई सवाल उसे परेशान करने लगे. लेकिन आशा का दिल बोला कि इस में गलत क्या है? और उपहार तो कोई भी किसी को दे सकता है, इस में महंगा और सस्ता क्या? वह भी तो चिया के लिए टैडी बियर ले कर आई है कि नहीं? परंतु आशा अपने दिल की बात भी नकार रही थी.

आशा की मनोस्थिति पढ़ते हुए आनंद कहने लगा, ‘‘यह चिया की जिद थी कि मैं आप को मौल ले जा कर एक बढि़या सा सूट खरीदवाऊं. उस ने यह भी कहा कि आप के गोरे रंग पर पीला सूट बहुत अच्छा लगेगा. वैसे चिया सही बोल रही थी. पीला रंग आप पर बहुत सूट करता है,’’ बोल कर आनंद ने एक भरपूर नजरों से जब आशा को देखा तो वह शरमा गई और खिड़की से बाहर ?ांकने लगी.

 

चिया के साथ आशा ने भी केक काटा वह भी जीवन में पहली बार. पार्टी में खूब मस्ती और गाना, डांस हुआ. रात के करीब 12 बजे पार्टी खत्म हुई. चिया इतनी थक चुकी थी कि वह गाड़ी में ही सो गई. लेकिन आशा अब अपने घर जाना चाहती थी. लेकिन चिया ने उस का हाथ इतनी जोर से पकड़ा हुआ था कि आशा को छुड़ाते नहीं बन रहा था. आनंद कहने लगा कि वैसे भी रात के 2 बज चुके हैं तो वह सुबह आशा को उस के घर छोड़ देगा.

 

आशा चिया के पास ही लेट गई. लेकिन उसे नींद ही नहीं आ रही थी. मन में एक डर लग रहा था कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर रही? अनिल से ?ाठ बोल कर कुछ गलत तो नहीं कर रही? उस की आंखें खुली देख कर आनंद 2 कप कौफी बना लाया और हंसते हुए बोला कि उसे भी नींद नहीं आ रही है, तो क्यों न दोनों साथ में कौफी पीते हुए गप्पें मारें. आनंद को अपने इतने बड़े ओहदे का जरा भी घमंड नहीं था. उसे देख कर कोई कह ही नहीं सकता था कि उस के अंडर में हजारों आदमी काम करते हैं और वह अपने औफिस में बौस है.

 

‘‘क्या हुआ, कौफी अच्छी नहीं बनी?’’ आशा को अनमना सा कौफी शिप करते देख आनंद बोला.

 

‘‘नहीं, कौफी तो बहुत ही अच्छी बनी है लेकिन… मैं कौफी पीती नहीं.’’

 

‘‘अरे, तो…तो मैं आप के लिए चाय बना लाता हूं न,’’ बोल कर आनंद उठने ही लगा कि आशा ने उस का हाथ पकड़ लिया कि नहीं रहने दीजिए. आनंद बताने लगा कि अपनी पत्नी के लिए सुबह की चाय वही बनाया करत था. आनंद की आंखों में अपनी पत्नी के लिए इतना प्यार देख कर आशा सोचने लगी कि एक आनंद हैं जो आज भी अपनी पत्नी से इतना प्यार करते हैं और एक अनिल है जिसे उस की कोई फिक्र ही नहीं है. उन की पत्नी के बारे में पूछने पर भावुक होते हुए आनंद कहने लगा कि वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था. लेकिन पता नहीं क्यों वह उसे छोड़ कर चली गई. लेकिन अब वह अपनी पत्नी की यादों के सहारे जीने की कोशिश कर रहा है. आशा भी अपने बारे में आनंद को बताने लगी तो अनायास ही उस की आंखों में आंसू आ गए. उस की आंखों में आंसू देख जब आनंद ने प्यार से उस का हाथ सहलाया तो वह उस के सीने से लग फफक पड़ी. उस एक पल में दोनों के बीच की सारी दूरियां मिट गईं और जो नहीं होना चाहिए वह सब हो गया उन के बीच.

 

सुबह आनंद ने आशा को उस के घर ड्रौप कर दिया. लेकिन पूरा रास्ते उन के बीच कोई बात नहीं हुई. चिया को गले में टौंसिल का दर्द उठ गया था इसलिए आशा उसे 2 दिन पढ़ाने नहीं गई. पर उस रात वाली बात उस के जेहन से निकल ही नहीं पा रही थी. बारबार मन में यही खयाल आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ?

 

ऐसा नहीं होना चाहिए था? मन में एक अजीब सी बेचैनी हो रही थी कि वह अनिल के साथ धोखा कर रही है. यह गलत है. उसे ऐसा नहीं करना चाहिए.

 

तीसरे दिन सुबहसुबह ही आनंद ने फोन कर के आशा को बताया कि चिया को बहुत तेज बुखार है. सुन कर वह जितनी जल्दी हो सके, स्कूटी से उन के घर पहुंच गई. डाक्टर ने बताया कि चिया को वायरल फीवर हुआ है. चिया की दादी अपने बड़े बेटे के पास इंदौर गई हुई थी वरना आशा को उस के पास रुकने की जरूरत नहीं पड़ती. डाक्टर के बताए अनुसार वह चिया को समयसमय पर दवाई, जूस वगैरह दे रही थी और थोड़ेथोड़े वक्त पर उस का बुखार भी चैक कर रही थी.

 

आशा को यों चुप देख कर आनंद कहने लगा कि उस रात जो कुछ भी हुआ उन के बीच, उस में गलती किसी की भी नहीं थी. बस हो गया और वे उसे रोक नहीं पाए. इसलिए आशा खुद में गिल्ट महसूस न करे. आनंद ने जिस अपनेपन से आशा का कंधा थपथपया, वह अंदर तक सिहर उठी और उस से लिपट गई. आज फिर दोनों सारी सीमाएं तोड़ कर उसी रौ में बहते चले गए और फिर ऐसा बारबार होने लगा.आशा अपने मन में यह सोच कर मुसकरा उठी कि आनंद का साथ है तो अब उसे कोई गम नहीं है. चिया का बुखार अब उतरने लगा था मगर सर्दीखांसी अब भी उसे जकड़े हुए थी.

 

चिया के 9वीं कक्षा के पेपर अच्छे गए. लेकिन अब आशा को सम?ा नहीं आ रहा था

 

कि वह क्या बहाना बनाकर आनंद से मिलने

 

जाए क्योंकि अनिल तुरंत कहेगा कि चिया का ऐग्जाम तो खत्म हो गया न? फिर क्यों जा रही हो? वैसे अनिल को जब जिस से जहां मिलने जाना होता है, मिलता ही है. लेकिन आशा पर ही आंखें गड़ाए रहता है कि वह कहां और क्यों जाती है. अनिल जब देर रात औफिस से घर आता है तो क्या आशा उस से सवाल करती है उस ने इतनी देर कहां लगा दी और उस के साथ कौन थी? तो फिर उस से ही इतने सवालजवाब क्यों?

उस दिन अलमारी में वही सूट देख कर जो आनंद ने उसे उस के जन्मदिन पर गिफ्ट किया था, अनिल ने चौंक कर पूछा कि यह किस की ड्रैस है तो आशा को ?ाठ बोलना पड़ा कि यह शीतल की ड्रैस है. उस ने ड्राईवाश के लिए दी थी, लेकिन गलती से उस के आ गया. ऐसी कितनी ही बातें हैं जो उसे अनिल से छिपानी पड़ता हैं.

अनेक विचारों से जूझने के बादआखिरकार आशा ने सोच लिया कि वह आनंद से मिलती रहेगी. हां, मानती है कि जो वह कर रही है वह एक शादीशुदा औरत को शोभा नहीं देता है. लेकिन क्या यही सब एक शादीशुदा पुरुष को शोभा देता है? और क्या सहीगलत का सारा ठेका औरतों ने ही ले रखा है? मर्द छुट्टे सांड की तरह जहां जिस के साथ मन आए, जा सकता है? औरत नहीं? अगर वह अनिल की पर्सनल लाइफ में दखल नहीं देती तो उसका भी कोई हक नहीं बनता उस से कोई सवाल करने का.

आखिर एक औरत ही क्यों कभी मांबाप की इज्जत की खातिर, तो कभी पतिबच्चों के लिए एडजस्ट करती रहे? क्या एक औरत को खुद के लिए खुश रहने का हक नहीं है और क्या फर्क पड़ता है कि वह खुशी उस से किस से मिल रही है? अपने मन में सोच आशा ने आनंद को फोन किया कि वह उन से मिलने आ रही है.

साउथ फिल्मों के एक्टर चिरंजीवी पद्म विभूषण से सम्मानित

साउथ में तेलुगू फिल्मों के मेगास्टार चिरंजीवी को हाल ही में पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया है.

चिरंजीवी एक ऐसे एक्टर है जो हमेशा विवादों से अलग रहे. उन्होंने कुछ ऐसे रोल्स किए हैं जिसने दर्शकों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी है. अपने करियर में चिरंजीवी ने 150 से अधिक फिल्मों में काम किया.  अपने काम के प्रति समर्पण, जूनून और प्रतिबद्धता के कारण आज चिरंजीवी ने यह मकाम हासिल किया है.वर्कफ्रंट की बात करें तो चिरंजीवी इन दिनों अपनी आने वाली फिल्म विशंभर की शूटिंग कर रहे हैं. फिल्म में एक्ट्रेस त्रशा लीड रोल में हैं. यह फिल्म 2025 की शुरुआत में रिलीज होगी.

चिरंजीवी की फिल्म इंद्रा द टाइगर ऐसा फिल्म थी जिसने लोगों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी. इस फिल्म में उनके साथ सोनोली बेंद्रे ने भी काम किया. यह फिल्म साल 2002 में आई थी. फिल्म की कहानी एक आदमी की है जो अपने जिले में पानी की समस्या से लड़ने वाले दो परिवारों के बीच शांति कायम करने की कोशिश करता है। समस्या को हल करने के लिए, वह प्रतिद्वंद्वी परिवार की लड़की से शादी करने के लिए सहमत होता है।

उनकी कुछ हिट फिल्में हैं गॉडफादर, आचार्य टैगोर, शंकर दादा एमबीबीएस, स्टालिन, शंकर दादा जिंदाबाद हैं. वहीं फ्लौप फिल्मों की बात करें तो भोला शंकर उनकी एक बहुत बड़ी फलौप फिल्म है.

आपको बता दें कि इससे पहले अवार्ड के लिए चुने जाने पर चिरंजीवी ने सोशल मीडिया प्लैटफौर्म एक्स पर वीडियो शेयर किया था. वीडियो में उन्होंने कहा था कि यह खबर मिलने के बाद उनके पास शब्द नहीं बचे हैं और इसके लिए सबका अभिवादन करते हैं.

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