कुछ रिश्ते जन्म से ही मिले होते हैं, जिन्हें हम नकार नहीं सकते. दूर होते हुए भी उनकी यादे हमेशा हमारे मन में रहती है. लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो अप्रत्याशित रूप से हमारे जिन्दगी में आते हैं और उनकी अहमियत जीवनभर बनी रहती है. ऐसे ही एक रिश्ते की कहानी है फिल्म “आम्ही दोघी”. यह फिल्म गौरी देशपांडे द्वारा लिखित कथा संग्रह ‘पाऊस आला मोठा’ पर आधारित है.
सावि (प्रिया बापट) एक प्रैक्टिकल और खुले विचारों की लड़की है. पिता (किरण करमरकर) कोल्हापुर के जाने माने वकील होने के वजह से बचपन से ही हर सुख सुविधा उसके कदमों में रहती है. मां नहीं होने का कुछ फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि हम प्रैक्टिकल है, यह बचपन से ही उसे उसके पिता सिखाते हैं. इसलिए वह ठान लेती है कि आगे से किसी भी बात का बुरा नहीं मानना है. एक दिन अचानक पिता शादी करके दूसरी मां (मुक्ता बर्वे) को घर लाते है, जिसका नाम अम्मी है.
अम्मी और सावि की उम्र में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. उसे पढने-लिखने बिल्कुल नहीं आता है. साड़ी लपेटकर और बालों का अम्बाडा बांध कर वह पुरे दिन रहती है. “मेरे पिता की पत्नी ऐसी कैसी हो सकती है? मुझसे बिना पूछे उन्होंने शादी क्यों की?” ऐसे अनेक प्रश्न सावि के मन उठते हैं, जिनको वह मन में ही दबाये रहती है. पिता के इस तरह प्रैक्टिकल रवैये से सावि उनसे मानसिक तौर पर दूर होते जाती है. लेकिन सावि और अम्मी के बीच दोस्ती हो जाती है.
धीरे-धीरे अपने मुहफट स्वभाव के कारण सावि अम्मी से भी दूर होने लगती है. आगे की पढाई करने के लिए मुंबई आने के बाद वह अम्मी को पूरी तरह से भूल जाती है. एक दिन अचानक अम्मी उसके पिता की मौत की खबर लेकर उसके घर आती हैं. इतना होने पर भी सावि को बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. वह अम्मी को अपने घर में रहने देती है. लेकिन दोनों के बीच पहले जैसी दोस्ती नहीं हो पाती है. सावि को शादी जैसे रिवाजों पर विश्वास नहीं होने के कारण उसका प्रेमी राम (भूषण प्रधान) उसे छोड़कर चला जाता है.
यह बात उसे बुरी तो लगती है लेकिन इसे भी वह जान बुझकर टाल देती है. उसे समझने वाली एकमात्र अम्मी को भी ल्यूकेमिया की बीमारी हो जाती है. अब तक समानांतर चलने वाली सावि और अम्मी की जिन्दगी एक बिंदु पर आकर मिलने वाली होती है, लेकिन उससे पहले ही अम्मी के जीवन का अंत हो जाता है. मरने के पहले अम्मी का आखिरी संवाद सावि के जिन्दगी को मानसिक रूप से बदल देता है. प्रैक्टिकल होकर हम कितने रिश्ते गवा देते हैं, ये सोचकर सावि जिन्दगी में पहली बार रोती है. इस बार उसके और अम्मी के बीच भावुक रिश्ते का एहसास सावि को सही मायने में होता है.
फिल्म की पूरी कहानी में उनके साथ होता है गुरू ठाकुर का गाना “ कोणते नाते म्हणू”. यह गाना कहानी में जान डालता है. कहानी में कहीं भी उलझन नहीं है, फिर भी समय काल का थोडा हेर फेर दिखाई देता है. वास्तव में कौन सा समय चल रहा है. कितने वर्ष आगे जा रहा है, बिल्कुल पता नहीं चल पाता है. अम्मी के प्रति आत्मीयता रखने वाले पिता सावि से इतना दूरी क्यों बनाये रखते है यह अंत तक समझ नहीं आता है. प्रिया बापट, मुक्ता बर्वे सहित सभी कलाकारों ने बहुत अच्छा अभिनय किया है. लेकिन स्कूल जाने वाली सावि की भूमिका में प्रिया बापट के बजाय उसी उम्र की कोई और अभिनेत्री होती तो सहज लगता. फिल्म कहीं भी बोर नहीं करती है, यही निर्देशक की सफलता है. –
निर्देशक- प्रतिमा जोशी कलाकार- मुक्ता बर्वे, प्रिया बापट, भूषण प्रधान एवं किरण करमरकर
पटकथा– प्रतिमा जोशी, भाग्यश्री जाधव संवाद- भाग्यश्री जाधव