Parenting Tips: 90 वीं सदी में जब हर घर में अमूमन 3-4 बच्चे होते थे या उस से पहले 80वीं सदी में हर घर में 10-12 बच्चे होना आम बात थी. तब बच्चों की परवरिश पर उतना ही ध्यान दिया जाता था जितना उन को जरूरत होती, जिस का नतीजा यह होता था कि हर बच्चा 2 साल की उम्र तक इंडिपैंडैंट बन जाता था. उन को भूख लगी है या खाना खिलाना है या उन को खेलने के लिए महंगे खिलौनों की जरूरत है जिस से उन का कौग्निटिव विकास हो सके, ये सब चोंचलेबाजी पहले वक्त में नहीं थी.

बच्चे पुराने पड़े टायर आदि से अपने लिए खुद खिलौने, गाडि़यां बनाते थे. कागज के पन्नों पर चोरसिपाही खेलते थे. भागतेदौड़ते अपने लिए खुद खेल बनाते थे. ऐसा नहीं है कि वे बच्चे कैरियर या जीवन में सफल नहीं हुए.

1 या 2 बच्चों के कल्चर ने इन दिनों पेरैंट्स को इतना कौंशस कर दिया है कि वे चाहते हैं उन का बच्चा किसी दूसरे से किसी मामले में कम न हो. सोशल मीडिया का इस में बहुत बड़ा हाथ है. अगर पड़ोस का बच्चा डांस, स्वीमिंग और फुटबाल खेल रहा है तो हम अपने बच्चे को इन के साथ पेंटिंग और म्यूजिक की क्लास भी कराते हैं. सोशल मीडिया पर रोज बच्चों के टिफिन में क्या नया दें इस के दर्जन भर पेज पेरैंट्स फौलो कर के रखते हैं और फिर पेरैंट्स ही कंपीटिशन में लग जाते हैं बेहतर टिफिन देने के.

हालात ये हैं कि घर में क्या खाना बनेगा, दीवारों पर कौन कलर होगा, यह भी छोटे से 5 साल के बच्चे से पूछा जाता है कि कौन सा कलर कराएं और कौन सा नहीं. अब आप जरा खुले दिमाग से सोच कर बताएं कि इस में क्या समझदारी की बात है? हमारा बच्चा तो घीया, तोरई नहीं खाता या मार्केट जाते ही उसे कोई नया खिलौना चाहिए. इस बात पर इतरा कर बड़े ही प्राउड के साथ पेरैंट्स एकदूसरे को बताते हैं.

दूसरे बच्चे के बाद पहले की चिंता और सोशल मीडिया की गाइडलाइन

आजकल सोशल मीडिया पर बाकायदा गाइड होती है कि दूसरे बच्चे के बाद भी पहले को कैसे ‘फील स्पैशल’ कराया जाए. पूरे परिवार की अटैंशन में पला पहला बच्चा दूसरे बच्चे के बाद कम होती अटैंशन से मैंटल स्ट्रैस में न आ जाए. अब ऐसे में आप को समझना होगा कि जो बच्चा 2 महीने का है वह अपनी हर जरूरत के लिए आप पर निर्भर है, वह अपनी जरूरत को ले कर बता भी नहीं सकता है. जबकि बड़े बच्चे ऐसा कर सकते हैं. तो जरूरी है उन्हें समय रहते सैल्फ डिपैंडैंट होने दें. अब 5-6 साल के बच्चे को भी आप हर बार वाशरूम ले कर जाएं तो यह बचकाना लगता है या उसे अपने हाथों से खाना खिला रहे हैं या फिर मार्केट में जाने के बाद जबरन उस के लिए कुछ न कुछ खरीद कर ला रहे हैं भले ही उस के बाद खिलौनों का अंबार लगा हो जिन्हें उस ने छुआ भी नहीं.

प्यार और बेवकूफी में फर्क

अगर आप ने फैसला किया है कि आप 2 बच्चों या 1 बच्चे के पेरैंट बनेंगे तो पहले खुद का मैच्योर होना जरूरी है. बच्चे को उतना ही पैंपर करें जितनी जरूरत है. प्यार और बेवकूफी में फर्क है यह पेरैंट्स को सम  झना होगा. कई घरों में बच्चे पेरैंट्स पर हाथ उठाते हैं चीखतेचिल्लाते हैं या फिर मार्केट या रैस्टोरैंट में ले जाने पर उन की पसंद का खिलौना न खरीदने पर या महंगी आइसक्रीम न खरीदने पर टैंट्रम थ्रो करते हैं. सोशल दबाव में आ कर पेरैंट्स उन की जिद पूरी भी कर देते हैं कि बाकी लोग क्या कहेंगे. अब हमें सम  झना होगा कि ये बाकी लोग कोई नहीं है.

मौल में धूम रही ग्रीन ड्रैस की औरत आप के बारे में क्या सोच रही है या ये जो अंकल आप को देख रहे हैं वे आप के बारे में क्या सोचेंगे यह सोचना आप बंद करें. अगर बच्चों को घुमाने बाहर ले जा रहे हैं तो पहले से बाउंड्री तय कर के जाएं, बच्चे को भी समझाएं कि नाजायज जिद पूरी नहीं की जाएगी. आप के एक बार   झुकने पर बच्चा हर बार वही रोनेधोने, चिल्लाने की ट्रिक अपनाएगा और उसी को आदत बना लेगा जो लौंग टर्म में आप के लिए बेहद नुकसानदायक साबित होगी.

बजट और जरूरत के अनुसार खिलौने दें, ट्रैंड के नहीं

आप इन दिनों किसी 1 साल के बच्चे के घर जाइए. आप को ऐसेऐसे खिलौने देखने को मिलेंगे जिन से बच्चे खेलते नहीं बस कमरे में भीड़ जरूर लगी रहती है. अब आप ही बताइए 1 साल के बच्चे को क्या रिमोट कंट्रोल कार से खेलना आएगा? नहीं न? अरे उस बच्चे को तो आप 1 चम्मच और कटोरी दे दें वह उन्हीं से खेल कर पूरा दिन निकाल देगा. अगर यकीन न हो आजमा कर देखें.

कई घरों में तो स्पैशल टौयरूम बना दिए जाते हैं, जिस में 99त्न ऐसे महंगे खिलौने होंगे जिन से खेलना बच्चे को आता ही नहीं. अगर आप का बजट आप को परमिशन देता है तो जरूर आप खुले दिल से खर्च करें, लेकिन फलां के घर में बच्चों के इतने खिलौने हैं. इस रेस में शामिल होने के लिए अगर आप ऐसा कर रही हैं तो इस आदत को तुरंत त्याग दें.

फुजूल जिद को करें इग्नोर

मार्वल कैरेट्स का क्रेज बच्चों में खूब देखने को मिलता है. नतीजा यह है कि हर दुकान पर मार्वल कैरेक्टर देखने को मिल जाएंगे. मैक्सिमम घरों में यह देखने को मिलता है कि अगर बच्चे को ले कर आप मार्केट जाएंगे तो वह जरूर एक नया खिलौनों का सैट खरीद कर लाएगा भले घर में उस के पास सेम खिलौने हों. अब आप ही बताइए यह फुजूल खर्च नहीं तो क्या है? ऐसी जिद आप को इग्नोर करनी आनी चाहिए भले ही आप का बच्चा सड़क पर क्यों न लेट जाए.

आप ही बताइए, 500 के खिलौने जिसे घर आते ही कोई वैल्यू नहीं मिलनी क्योंकि वैसा सैट घर में मौजूद है उस के लिए आप का बच्चा बाजार में रोए तो क्या आप उसे दिला देंगी? आप को बच्चे से पहले खुद स्ट्रौंग होना होगा और न कहना सीखना होगा. बच्चे का टैंट्रम 5-10 मिनट का होगा और जिद पूरी करने में आप को अपनी पूरे दिन की मेहनत का पैसा लुटाना होगा. अत: समझदारी से काम लें.

मार्बल हो या मिनियन, हर बार नया खिलौना खरीदना बच्चे के लिए नहीं, आप के पैसे और पेरैंटिंग की हार है, न कहना सीखें और बच्चे को भी सिखाएं कि हर मांग पूरी नहीं होगी.

बच्चे के लिए रोल मौडल बनें, आया नहीं

जब से पेरैंट्स के हाथ में फोन आया है तो उन पर बेहतरीन पेरैंटिंग का दबाव और बढ़ गया है. कैसे बच्चों के इमोशन का ध्यान रखें, जैंटल पेरैंटिंग बच्चों का बेहतरीन विकास, 2 साल के बच्चों को पढ़ना कैसे सिखाएं और बच्चों को बचपने से कैसे सुपरस्टार बनाएं, इन की रीलें देख कर पेरैंट्स इन दिनों खुद ही गिल्ट में जा रहे हैं. उन्हें लग रहा है जैसे ये सब ट्रैंड फौलो नहीं किया तो वे अच्छे पेरैंट नहीं बन पाएंगे.

कई सोशल मीडिया प्लेटफौर्म तो ऐसे हैं जो मांबाप को बच्चों की जिद के सामने कैसे   झुकें और कैसे अपने दिन का हर मिनट बच्चे के लिए ऐक्टिविटी प्लान करने में गुजारें, उस की बाकायदा पैसे ले कर ट्रेनिंग भी देते हैं.

अब के मिलेनियम पेरैंट्स को सम  झना होगा कि बच्चों को नेचर ने स्ट्रौंग बनाया है, वे देख कर सीखते हैं. तो उन को सिखाने के लिए ज्यादा एफर्ट्स मत लगाएं. जो आप की दिनचर्या है उस के हिसाब से जीवन बिताएं न कि बच्चे के हिसाब से खुद को ढालें. कुछ वक्त में बच्चा अपने ऐन्वायरन्मैंट को समझ कर खुद आप के हिसाब से एडजस्ट हो जाएगा. इस के लिए आप को ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है. इसलिए जरूरी है कि आप पर्सनैलिटी, दिनचर्या, रूटीन और लाइफस्टाइल पर ज्यादा फोकस कर के बच्चे के लिए रोल मौडल बनें, आया नहीं.

बच्चे को एडल्ट की तरह ट्रीट करें

प्यार दें, पर सीमाएं भी तय करें. बच्चों को बचपन से ही एडल्ट की तरह ट्रीट करना जरूरी है. लेकिन ऐसा एडल्ट जिसे प्यार भरपूर मिलेगा लेकिन प्यार के नाम पर उस की नाजायाज जिद पूरी नहीं की जाएगी. बच्चों से पूछना कौन से कलर की साइकिल, दीवारों पर कौन सा कलर, डिनर में क्या बनाएं, घूमने कहां जाएं ये सब बंद करें. बच्चों को सम  झाएं कि उन की बात सुनी जाएगी लेकिन किया वही जाएगा जो सही, व्यावहारिक और उन की पौकेट के हिसाब से होगा. उन के फैसले तभी माने रखेंगे जब वे फैसले लेने के लायक होगें. यस, ओपिनियन मैटर्स की बात को सम  झा जाएगा. उन की बात सुनी जरूर जाएगी लेकिन उस पर अमल ये जरुरी नहीं.

गिरेंगे नहीं तो संभलना कैसे सीखेंगे

यहां पेरैंट्स की भी गलती है. वे बच्चों को ले कर कुछ ज्यादा ही परेशान रहते हैं. पार्क भी जाएंगे तो बच्चे को खुला छोड़ने की बजाय उस के पीछेपीछे चलेंगे कि कहीं गिर न जाए, कोई बच्चा ही उस पर हाथ न उठा दे. अब बताइए विदाउट रिस्क क्या कभी कुछ हुआ है? बच्चे गिरेंगे नहीं तो संभलना कैसे सीखेंगे? इसलिए अपने शेयर की गलतियां बच्चों को खुद करने दें. स्लाइड से गिर जाओगे मत चढ़ो, यहां मत जाओ गिर जाओगे, अकसर यही आप को पार्क में सुनने को मिलेगा. अरे, उन्हें खुला छोड़ दें. गिरेंगे तभी तो संभलेंगे. ऐसा तो नहीं कि आप का जीवन परफैक्ट रहा हो और आप ने कोई गलती नहीं की. इसलिए बच्चों को भी खुद सीखनेखेलने दें और खुद भी चैन की सांस लें.

मातापिता को सम  झना होगा कि जीवन इतना आसान नहीं है जितना उन्होंने अपने बच्चे के लिए चारदीवारी के अंदर बना दिया है. बाहर बेहद संघर्ष है और उस के लिए बच्चे को स्ट्रौंग घर से ही बनना होगा. अगर घर पर आप बच्चे की हर पसंदनापसंद पर ध्यान देंगे तो क्या बाहर भी उसे ऐसा ही माहौल मिलेगा? नहीं न. इसलिए बच्चे को बचपन से एडजस्ट करने और न सुनने की आदत होनी चाहिए. बचपन से बच्चों में अपने काम करने की स्किल्स डैवलप होनी चाहिए.

इस के लिए आप को बच्चे को आजादी देनी होगी न कि ऐक्सट्रा पैंपरिंग. उसे सिखाएं खुद बाथरूम कैसे जाएं, कैसे खाने के बाद न सिर्फ अपने बरतन सिंक में रखें बल्कि उन्हें धोएं भी. हो सकता हो वह शुरू में प्लेट में गंदगी छोड़ दे, लेकिन आप की ड्यूटी है कि उसे अपने काम करने के लिए खुद प्रोत्साहित करें.

तो पेरैंट्स स्टैप बैक ऐंड रिलैक्स. बच्चों को उन की जरूरतों के हिसाब से पालिए न कि सोशल मीडिया के ट्रैंड्स के मुताबिक.

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