Family Kahani: रिश्तों का कटु सत्य- अंकल को क्या मिला ईमानदारी का फल

Family Kahani: उस दिन दोनों ने अपनेअपने काम से छुट्टी ली थी. कई दिनों से दोनों ने एक फैसला लिया था कि वे अपने पुश्तैनी मकान में रहेंगे, क्योंकि आंटी का रिटायरमैंट करीब था और अंकल भी अपनी सेहत के चलते कचहरी के अपने काम को ज्यादा नहीं ले रहे थे. शुगर होने के चलते थक जाते थे. अंकल और आंटी को हालांकि आंटी के अनुज के बच्चों का पूरा प्यार और अपनत्व मिल जाता था, लेकिन वास्तविकता में दोनों ही एकदूसरे का सच्चा सहारा थे.

पारिवारिक मूल्यों को बखूबी समझने वाले अंकल ने अब तक जो कमाया, सारा का सारा अपनी मां और अपने भाईभतीजों को ही दिया था. आंटी की एक निजी विद्यालय में नौकरी थी, उसी से उन का घरखर्च चल रहा था. इसी सब के चलते दोनों ने किराए के मकान को छोड़ कर अपने पुश्तैनी मकान के फर्स्टफ्लोर के अपने कमरे में जा कर रहने का फैसला लिया था.

लगभग 30 वर्षों पहले दोनों किराए के मकान में आ गए थे. आंटी जब से ससुराल में ब्याह कर आई थीं, वहां उन्होंने कलहक्लेश, झगड़े जैसा माहौल ही देखा था. घर के किसी भी सदस्य का व्यवहार अच्छा नहीं था. ताने, उलाहने, मारपीट, भद्दी भाषा और चरित्रहीनता जैसे उन के आचरण से तंग आ कर ही अंकल और आंटी ने एक दिन अपना जरूरी सामान बांधा और एक रिकशा में सवार हो कर घर से निकल पड़े.

मानसिक अशांति से थोड़ी राहत तो पाई, लेकिन बहुत सी कठिनाइयों से उन्हें दोचार होना पड़ा, क्योंकि उन के पास पलंगबरतन कुछ भी नहीं था. हर चीज पर घरवालों ने अधिकार जमा रखा था. वह घर नहीं, मुसीबतों का एक अड्डा नजर आता था. पानी की एक बूंद को तरसते थे.

आंटी एक संपन्न परिवार से ऐसी ससुराल में आई थीं जहां तमीज और तहजीब नाम की चीज कोई नहीं जानता था. अंकल की मां को चुगलखोर औरत के रूप में सारा महल्ला जानता था. अंकल ने जब अपनी आंखों से देखा, कानों से सुना कि किस तरह घर के लोग आंटी के नाक में दम करते हैं जब वे घर पर नहीं होते हैं, तब उन्हें यकीन हुआ कि वास्तव में घरवाले बदतमीजी की सारी हदें लांघ चुके हैं.

किराए के मकान में आ जाने के बाद भी अंकलअांटी अपने पुश्तैनी मकान में बराबर आतेजाते थे, हर मौके पर मौजूद रहते. वहां अपनत्व या इज्जत नाम की कोई बात ही नहीं थी, तब भी अंकल पारिवारिक मूल्यों के पक्षधर और बेहद सरल स्वभाव के धनी होने के नाते अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी कभी नहीं करते थे.

अधिकार शब्द को तो अंकल ने जैसा भुला ही दिया था. अधिवक्ता थे तो रोजाना कचहरी आनाजाना रहता था, जाते और आते रोज अपनी मां के पास रुकते थे, हर तरह की मदद करने को तैयार रहते. खुद कितनी भी तंगी में हों, मां को हमेशा बिना मांगे ही रुपएपैसे देते थे बिजली के बिल, राशन सबकुछ के लिए. ये उन की सादगी कहें, मां की चतुराई या कहें अंकल की दूरदर्शिता.

आंटी की जहां तक बात है, ससुराल वालों के साथ रहते समय बहुत सारे कटु और कसक देने वाले अनुभव उन्हें वहां मिले थे. विवाह के कुछ समय बाद ही, अभी आंटी नईनवेली ही थीं कि, उन के सासससुर ने एक दिन उन के कमरे में आ कर उन से उन के सभी जेवर उतरवा लिए थे, जो अलमारी में थे, वे भी सारे ले लिए इस वादे के साथ कि जल्द ही लौटा देंगे. अब चूंकि आंटी का सारा स्त्रीधन वे लोग ले ही चुके थे, तो अब उन को उन से वास्ता भी क्या रखना था. अब वो देनदार थे, सो, जितना हो सकता था उतना परेशान करते थे.

इसी बीच, आंटी के पीहर पक्ष से बड़ी रकम लाखों में उधार मांग ली लौटा देने की शर्त पर आंटी ने अपने पीहर पक्ष को कभी भी अपनी आपबीती नहीं बताई थी. एक तो आंटी को संस्कार ही ऐसे मिले थे कि वे स्वभाव से ही गंभीर थीं और दे ही देंगे तो उन्हें क्यों कहना जैसा भाव भी मन में था.

अंकल को भी आंटी ने बहुत दिनों बाद बताया कि सारे जेवर आप के मातापिता ने ले लिए. अंकल ने जरा भी आशंका नहीं जताई. सोचा, कोई बात नहीं, दे देंगे वापस. उधर आंटी के मातापिता ने ताउम्र अपना धन वापस नहीं मांगा. मांग ही नहीं सके, अपने दामाद के लिए उन के मन में सम्मान और प्यार था इस कारण. आंटी का पीहर बहुत दूर था, आंटीअंकल खुद ही वर्ष में एकदो बार मिल आते थे.

बहुत आहत मन से अंकलआंटी उस घर से निकले थे, लेकिन अब समय का लंबा फर्क और मजबूरी उन्हें फिर वहां ले जा रही थी. किराया नहीं दे सकेंगे, सो, अपने कमरे में जाने का विचार किया.

आंटी ने अंकल से कहा, ‘‘आप कल उधर जाओगे तो अपना कमरा खोल आना, मैं साफ करने के लिए जाऊंगी, फिर जरूरी सामान रख आएंगे.’’

अंकल ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

अगले दिन अंकल ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, हम ने अपने कमरे में लौटने का विचार किया है क्योंकि आप की बहू रिटायरमैंट के करीब है, मकान का किराया देना मुश्किल होगा. सेहत की वजह से मैं भी वकालत का काम कम ही लेता हूं.’’

अंकल की बात सुनते ही मां को तो जैसे सांप सूंघ गया हो. बिना जवाब दिए घर से बाहर निकल गईं.

अंकल अपने घर आ गए. आंटी ने कहा, ‘‘कमरा खोल आए क्या?’’

अंकल ने कहा, ‘‘नहीं, कल चलेंगे, तब कमरा झाड़ देना तुम.’’

अगले दिन अंकल, मां के पास रोजाना की तरह जा बैठे और कहा, ‘‘मां, आप की बहू को अभी साथ ला रहा हूं, कमरा साफ कर जाएंगे. और कल रविवार है, कल से यहीं आ जाएंगे हम आप के पास.’’

अंकल की बात सुनते ही आसपास के कमरों से सारा कुनबा ही जैसे कूद पड़ा. बरामदे में पहले से सभी जमा थे. अंकल रोजाना इसी समय आया करते थे. बेटी और दामाद को भी बुला रखा था. छोटेबड़े सभी इकट्ठा थे. कोई कुछ बोले, इस से पहले अंकल ने फिर कहा, ‘‘मां, क्या बात है, बोल नहीं रहा कोई?’’

इतने में बिजली सी कड़कती कर्कश आवाज में बोलते हुए अंकल की मां अंकल पर टूट पड़ीं. अंकल को धकियाती हुई बाहर के दरवाजे तक ले गई. बहन, जीजा ने धक्के मारे. भाइयों ने जलीकटी कहीं. भाभियां मुसकरा रही थीं.

अंकल अचानक हुए इस हमले को सह न सके, कुछ समझ न सके और लड़खड़ा कर नीचे गिर पड़े. मां व बहन ने गिरने पर भी धक्के दिए. अंकल का बाजू हिल गया, पैंट घुटने से फट गई. इस अजीब व्यवहार व अपमान ने अंकल का दिमाग घुमा दिया. पगड़ी उतर कर दूर जा गिरी. अंकल अकेले उठ पाने की हालत में नहीं थे. किसी तरह सीढ़ी पकड़ कर उठे और अपने घर पहुंचे. बदहवास, परेशान, लज्जित और चुप, वे तत्काल बोलने की स्थिति में नहीं थे. आंटी ने उन्हें देखा तो सहम गईं और प्रश्नों की झड़ी लगा दी.  किसी भी प्रश्न का कोईर् जवाब अंकल नहीं दे रहे थे.

आंटी ने खाना परोसा. अंकल ने नहीं खाया. आराम करने को कह कर करवट ले ली. आंटी को काटो तो खून नहीं. अंकल ही सेहत को ले कर वैसे भी हर वक्त चिंता में रहती थीं और आज क्या हुआ, क्यों नहीं बताते. ऐसे में स्वभाविक ही था चिंता का बढ़ना. आंटी ने देखा कुहनी तथा घुटने छिले थे, पैंट फटी थी, अब तो यही अनुमान लगाया कि स्कूटर तेज चलाया होगा. पर मन नहीं माना. अंकल कभी तेज चलाते ही न थे स्कूटर. चोट आखिर कैसे लगी होगी. कहीं खड्डों वाली सड़क पर स्कूटर फंस गया होगा.

कहते हैं कि जब स्नेह, प्रीति, लगाव का दायरा छोटा हो तो वह एक पर ही केंद्रित हो जाता है, आंटी की कुछ ऐसी ही स्थिति थी. अंकल ही उन के पास थे, जीवनसाथी से लगाव होना स्वभाविक भी है. फिर दोनों का साथ. तीसरा तो कोई जबतब ही पास आता, अधिकतर तो दोनों अकेले ही होते थे. अंकल से आंटी ने सब जानना चाहा. पर अंकल शायद सोए तो थे ही नहीं, सुबक रहे थे, रो रहे थे. तकिया आंसुओं से भीग गया था.

बहुत मनुहारें करने के बाद अंकल ने बताया, ‘‘मैं गया था उस घर में, किंतु अब हम कभी वहां नहीं जाएंगे. कभी भी नहीं.’’

‘‘आखिर क्यों?’’ आंटी ने तुरंत जानना चाहा था. अब आशंकाओं ने आंटी के मन को घेरना शुरू कर दिया था,  आशंकाओं को आधार भी मिलने लगा था भीतर ही भीतर. जिस घर में उचित सम्मान कभी नहीं मिला, बड़े होने के नाते भी नहीं, वहां तो कुछ भी गड़बड़ हो सकती है. ऐसा आंटी के मन में विचार उठ रहा था.

अब अंकल ने सारी बात बताई, लेकिन रोते हुए, सुबकते हुए. अंकल के चेहरे पर मन की पीड़ा को साफ पढ़ा जा सकता था. आंखों से मानो दिल का दर्द टपकटपक पड़ रहा था. सारी आपबीती बताई. आंटी अंकल को दुखी देख कर तड़प उठीं, किंतु खुद को रोका. यह वक्त अंकल को सहारा देने का है, सताने या सुनाने का नहीं. अब जबकि अंकल खुद भुगत कर आए हैं, तो क्या बचा है कहनेसुनने को.

अब तो उन्हें मां की भक्ति से मिले रिजल्ट का साक्षात अनुभव हुआ है. जिन भाइयों ने कभी भैया कह कर बुलाया भी नहीं, उन्हें अंकल ने कहांकहां सहारा नहीं दिया? एक को तो सरकारी नौकरी भी अपनी जानपहचान के बूते परीक्षा के प्रश्नपत्र पूर्व में ही बता कर दिलवाई जैसेतैसे. शेष की आर्थिक मदद, कानूनी मदद करते रहे. आज उन्होंने ठोकरें मार कर बाहर कर दिया था.

आंटी ने अंकल को सहारा दिया, ‘‘हमें जाना ही नहीं वहां, आप चिंता न करें. आप के साले, साली कितना पूछते हैं आप को, हमेशा मदद के लिए खड़े रहते हैं. सो, परेशान नहीं होना है. बस, इस बात को यहीं रोको.’’ आंटी अंकल की सेहत न बिगड़ जाए, इस बात से भीतर ही भीतर डर रही थीं. इस के बाद अंकल हमेशा गुमसुम रहने लगे थे. काम पर जाते, जल्दी घर आ जाते.

फिर एक दिन बहुत कठिन घड़ी आई. अंकल कचहरी में बेहोश हो कर गिर गए. आंटी के भाई को सूचना मिली तो फौरन उन्होंने संभाला, अस्पताल पहुंचाया. सभी जांचें हुईं. अंकल को बीते दिनों अपनों से मिली प्रताड़ना के कारण गहरा आघात पहुंचा था. विश्वासघात के शिकार हुए थे वे. सूचना तो उन के घरवालों को भी दी गई किंतु किसी ने हाल जानना जरूरी नहीं समझा, वे ही तो गुनाहगार थे, वे क्यों आते पूछने. पक्षपातिनी मां, वह बेरहम बहन किसी को दुख नहीं हुआ अपने ही घर के सदस्य के बीमार होने का.

आंटी नौकरी पर थीं, लौटीं तो बहुत दुखी हुईं. उन की व्यथा का कोई पारावार न था. आते ही अंकल से लिपट गईं. सब पूछ डाला भाई से, चिकित्सक से, रिपोर्ट पढ़ी.

अंकल अपने साथ घटित उस अपमानजनक व्यवहार को याद करें भी तो कैसे? कटु सत्य से सामना हुआ था उन का. एक बहुत बड़े राज से परदा उठा था. मन में चल रही उठापटक ने अंकल को असामान्य हालत में पहुंचा दिया था. अंकल रहरह कर यही बुदबुदाते, ‘मैं ने बिगाड़ा क्या है उन का?’

लगभग 8 माह तक ससुराल वालों की सेवा से अंकल थोड़ा स्वस्थ हुए.

एक दिन अंकल के पास उन का

एक नजदीकी रिश्तेदार फुफेरा

भाई आया और कहने लगा, ‘‘तुम्हारा पुश्तैनी मकान वे लोग बेच रहे हैं, ऐसी भनक मुझे लगी है.’’ अंकल के साथ हुए अमानवीय व्यवहार का उसे पता था. उस ने आगे कहा, ‘‘तुम्हें कानूनी मदद लेनी चाहिए.’’

अब क्योंकि अपने पुश्तैनी घर में वे जा नहीं सकते थे, सो, याचिका लगा कर न्याय दिलाने की व घर में अपना हक लेने की अपील की. पहली पेशी पर ही सारा राज जाहिर हो गया. अंकल की मां, भाई सब मिल कर कचहरी में आए. वकील के माध्यम से अंकल के हाथ की लिखी दस्तबरदारी के सरकारी कागजात पेश कर दिए वह भी 15 वर्ष पूर्व की गई समस्त कार्यवाही के. केस वहीं खत्म हो गया, जब खुद ही अपना हक छोड़ने को लिख दिया तो अब  कोई प्रावधान ऐसा न बचा था कि आगे सुनवाई हो.

अंकल अनजान थे इस कटु सत्य से. यदि जानते होते तो केस ही क्यों लगाते भला? खुद अधिवक्ता हो कर भी मां की चाल न समझ सके, क्योंकि कोई मां पर ही विश्वास नहीं करेगा तो किस पर करेगा? अब सारा मामला समझ आ गया कि क्यों घर से खदेड़ा? क्यों उन्हें वापस घर आने देना नहीं चाहते थे. उन्होंने सिर्फ मिल्कीयत की खातिर यह षड्यंत्र रचा था. मिल कर आपस में बांटना था, घर की कीमत, जमीनजायदाद सब बहुत पहले ही लिखवा ली थी, बेच भी दी थी, ये राज भी खुल गए. अंकल के पास कुछ नहीं था.

ऐसे आस्तान के सांप निकले अंकल के अपने. और मां की ऐसी घिनौनी हरकत को क्या कहा जाए? क्या इस बेटे को पैदा नहीं किया था? यह आसमान से गिरा था? या इस बेटे को उस की सरलता या ईमानदारी का यह इनाम दिया गया था? अपनों द्वारा दी गई ऐसी सजा जिसे दिल पर ले लिया अंकल ने. शहरभर के शुभचिंतक अंकल का हालचात पूछते रहते हैं. आंटी के पितृगृह के भाईबहन ने तनमनधन से अंकल की सहायतासेवा की. यदि इन लोगों का सहारा न होता तो पता नहीं क्या हाल होता दोनों का? एक वे अपने हैं जिन्होंने मार कर फेंका, एक ये पराए हैं जिन्होंने संभाला ही नहीं, सहारा भी बने हैं.

अनेक लोग अंकल के परिजनों को लानतें दे चुके हैं, सामाजिक बहिष्कार कर चुके हैं उन का. तब भी धन की लालसा में घिरे वे लोग एकजुट हैं. उन के लिए तो एक ही बात अर्थ रखती है, ‘बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपैया.’ हंसतेमुसकराते दंपती की हंसी छीन कर आज वे पुश्तैनी मकान की करोड़ों की कीमत पाने को प्रयासरत हैं.

भविष्य के वे लखपति अपने इस अनमोल हीरे के हृदय को चूरचूर कर के कितने आनंद में हैं, और इधर अपनों द्वारा विश्वासघात की मार सह कर न केवल घर में, बल्कि एक ही कक्ष में कैद हो कर रह गए है अंकलआंटी, यह कैसा समाज है, कैसा न्याय है. Family Kahani

लेखक- जसबीर कौर

Long Hindi Story: दूसरी बार

Long Hindi Story: आसमान से गिर कर खजूर में अटकना इसी को कहते हैं. गांव के एकाकी जीवन से ऊब कर अम्मां शहर आई थीं, किंतु यहां भी बोझिल एकांत उन्हें नागपाश की तरह जकड़े हुए था. लगता था, जहां भी जाएंगी वहां चुप्पी, वीरानी और मनहूसियत उन के साथ साए की तरह चिपकी रहेगी. गांव में कष्ट ही क्या था उन्हें? सुबह चाय के साथ चार रोटियां सेंक लेती थीं, उन के सहारे दिन मजे में कट जाता था. कोई कामधाम नहीं, कोई सिरदर्द नहीं. उलझन थी तो यही कि पहाड़ सा लंबा दिन काटे नहीं कटता था.

भूलेभटके कोई पड़ोसिन आ जाती तो कमर पर हाथ रख कर ठिठोली करती, ‘‘अम्मांजी को अपनी गृहस्थी से बड़ा मोह है. रातदिन चारपाई पर पड़ेपड़े गड़े धन की चौकसी किया करती हैं.’’

‘‘कैसा गड़ा धन, बहू?’’ वह उदासीन भाव से जवाब देतीं, ‘‘लेटना तो वक्त काटने का एक जरिया है. बैठेबैठे थक जाती हूं तो लेटी रहती हूं. लेटेलेटे थक जाती हूं तो उठ बैठती हूं.’’

पड़ोसिन सहानुभूति जताते हुए वहीं देहरी पर बैठ जाती, ‘‘जिंदगी का यही रोना है. जवानी में आदमी के पास काम ज्यादा, वक्त कम होता है. बुढ़ापे में काम कुछ नहीं, वक्त ही वक्त रह जाता है. बालबच्चे अपनी दुनिया में रम जाते हैं. बूढ़े मांबाप बैठ कर मौत का इंतजार करते हैं. उन में से अगर एक चल बसे तो दूसरे की जिंदगी दूभर हो जाती है. जब से बाबूजी गुजरे हैं, तुम्हारे चेहरे पर हंसी नहीं दिखाई दी. न हो तो कुछ दिन के लिए राकेश भैया के यहां घूम आओ. मन बदल जाएगा.’’

‘‘यही मैं भी सोचती हूं,’’ वह गंभीर भाव से सिर हिलातीं, ‘‘राकेश की चिट्ठी आई है कि वह अगले महीने आएगा. तभी उस से कहूंगी कि मुझे अपने साथ ले चले.’’

पर अम्मां को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. राकेश खुद ही उन्हें साथ ले चलने के लिए आतुर हो उठा. वजह यह थी कि बेटे के सत्कार में मां ने बड़े चाव से भोजन बनाया था…दाल, चावल, रोटी, तरकारी और चटनी.

किंतु जब थाली सामने आई तो राकेश समझ नहीं सका कि इन में से कौन सी वस्तु खाने लायक है? दाल, चावल में कंकड़ भरे हुए थे. कांपते हाथों की वजह से कोई रोटी अफगानिस्तान का नक्शा बन गई थी तो कोई रोटी कम, डबलरोटी ज्यादा लग रही थी. तरकारी के नाम पर नमकीन पानी में तैरते आलू के टुकड़े थे. कुचले हुए आम में कहने भर के लिए पुदीना था.

अम्मां ने खुद ही अपराधी भाव से सफाई दी, ‘‘यह खाना कैसे खा सकोगे, बेटा? बुढ़ापे में न हाथपांव चलते हैं, न आंखों से सूझता है. अपने लिए जैसेतैसे चार टिक्कड़ सेंक लेती हूं. तुम्हारे लायक खाना नहीं बना सकी. आज तुम भूखे ही रह जाओगे.’’

‘‘खाना बहुत अच्छा बना है, अम्मां. सालों बाद तुम्हारे हाथ की बनी रोटी खाई तो पेट से ऊपर खा गया हूं,’’ राकेश ने आधा पेट खा कर उठते हुए कहा. उस ने मन ही मन फैसला भी कर लिया कि अम्मां को इस हालत में एक दिन भी अकेला नहीं छोड़ेगा.

भावनाओं के जोश में उस ने दूसरा फैसला यह किया कि गांव का मकान बेच देगा. वह जानता था कि अगर मकान रहा तो अम्मां कुछ ही दिनों में गांव लौटने की जिद करेंगी. कांटा जड़ से उखड़ जाए तभी अच्छा है. सदा की संकोची अम्मां बेटे के सामने अपनी अनिच्छा जाहिर न कर सकीं. नतीजा यह हुआ कि 2 दिन में मकान बिक गया. तीसरे दिन गांव के जीवन को अलविदा कह कर अम्मां बेटे के साथ शहर चली आईं.

शहर आते ही पहला एहसास उन्हें यही हुआ कि गांव का मकान बेचने में जल्दबाजी हो गई है. बहू ने उन्हें देख कर जिस अंदाज में पांव छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया, वह उन्हें बहुत खला. आखिर वह बच्ची तो थी नहीं. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि रखती थीं. बच्चों ने भी एक बार सामने आ कर नमस्ते की औपचारिकतावश और फिर न जाने घर के किस कोने में समा गए.

बहू ने नौकर को हुक्म दिया, ‘‘अम्मांजी के लिए पीछे वाला कमरा ठीक कर दो. गुसलखाना जुड़ा होने के कारण वहां इन को आराम रहेगा. एक पलंग बिछा दो और इन का सामान वहीं पहुंचा दो. उस के बाद चाय दे आना. मैं लता मेम साहब के यहां किटी पार्टी में जा रही हूं.’’

बहू सैंडल खटखटाती हुई चली गई और वह भौचक्की सी सोफे पर बैठी रह गईं. कुछ देर बाद नौकर ने उन्हें उन के कमरे में पहुंचा दिया. एक ट्रे में चायनाश्ता भी ला दिया. अकेले बैठ कर चाय का घूंट भरते हुए उन्होंने सोचा, ‘क्या सिर्फ इसी चाय की खातिर भागी हुई यहां आई हूं?’

पर यह चाय भी अगली सुबह कहां मिल सकी थी? रात का खाना वह नहीं खातीं, यह बात बहू जानती थी. इसलिए उस ने शाम को खाने के लिए नहीं पुछवाया. कुछ और लेंगी, यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी.

वह इंतजार करती रहीं कि बहूबच्चों में से कोई न कोई उन के पास अवश्य आएगा, हालचाल पूछेगा पर निराशा ही हाथ लगी.

जब बहूबच्चों की आवाजें आनी बंद हो गईं और घर में सन्नाटा छा गया तो एक ठंडी सांस ले कर वह भी लेट गई. टूटे मन को उन्होंने खुद ही दिलासा दिया, ‘मुझे सफर से थका जान कर ही कोई नहीं आया. फुजूल ही मैं बात को इतना तूल दे रही हूं.’

सुबह  जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वह बेचैन होने लगीं. मुंह अंधेरे उठ कर उन्होंने दैनिक कार्यों से छुट्टी पा ली थी. अब चाय की तलब उन्हें व्याकुल बना रही थी. दूर से आती चाय के प्यालों की खटरपटर जब सही न गई तो उन्होंने सोचा, ‘लो, मैं भी कैसी मूर्ख हूं. यहां बैठी चाय का इंतजार कर रही हूं. आखिर कोई मेहमान तो हूं नहीं. मुझे खुद उठ कर बालबच्चों के बीच पहुंच जाना चाहिए. यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना कितना बेतुका है?’

बीच के कमरों को पार कर के वह खाने के कमरे में जा पहुंचीं. वहां बड़ी सी मेज के इर्दगिर्द बैठे बहूबच्चे चायनाश्ता कर रहे थे. राकेश शायद पहले ही खापी कर उठ चुका था. अम्मां को देख कर एकबारगी सन्नाटा सा खिंच गया. अगले ही पल बहू तमक कर उठते हुए बोली, ‘‘बुढ़ापे में जबान शायद ज्यादा ही चटोरी हो जाती है.’’

अम्मां समझ नहीं सकीं कि इस बात का मतलब क्या है? भौचक्की सी बहू का मुंह ताकने लगीं.

बहू ने तीखी आवाज में बात स्पष्ट की, ‘‘इन्हें दफ्तर जाने की जल्दी थी. बच्चों के स्कूल का समय हो रहा था. मैं जल्दीजल्दी सब को खिलापिला कर आप के पास चाय भेजने की सोच रही थी पर तब तक सब्र नहीं कर सकीं आप?’’

अम्मां फीकी हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘ठीक कहती हो, बहू. अभी चाय के लिए कौन सी देर हो गई थी? मैं ही हड़बड़ी में बैठी न रह सकी.’’

वह वापस अपने कमरे में लौट आईं. कुछ देर बाद नौकर एक गिलास में ठंडी चाय और एक तश्तरी में 2 जले हुए टोस्ट ले कर आ पहुंचा. जिस चाय के लिए वह इतनी आकुल थीं, वह चाय अब जहर का घूंट बन चुकी थी. बड़ी मुश्किल से ही अम्मां उसे गले से नीचे उतार सकीं. न चाहते हुए भी आंखों के सामने मेवे, फल और मिठाई से सजी हुई खाने की मेज बारबार घूम रही थी.

चाय पी कर गिलास रख रही थीं कि बेटा बड़े व्यस्त भाव से कमरे में आ कर बोला, ‘‘क्या हाल है, अम्मां? यहां आ कर अच्छा लगा तुम्हें?’’

‘‘हां, बेटा.’’

‘‘चायवाय पी?’’

‘‘पी ली.’’

‘‘मैं ने सुधा से कह दिया है कि तुम्हारे आराम का पूरा खयाल रखे. दोपहर के खाने में अपनी मनपसंद चीज बनवा लेना. मैं दफ्तर जा रहा हूं. शाम को देर से लौटूंगा. इस मशीनी जिंदगी में मुझे मिनट भर की फुरसत नहीं. तुम बिना किसी संकोच के अपनी हर जरूरत सुधा को बता देना.’’

‘‘ठीक है, बेटा,’’ वह प्लास्टिक के चाबी भरे बबुए की तरह नपेतुले शब्द ही बोल पाईं.

बस, दिनभर में सिर्फ यही बातचीत थी, जो किसी ने उन के साथ की. उस के बाद सारा दिन वह अकेली पड़ीपड़ी ऊबती रहीं. नौकर एक बार आ कर उन के कमरे में पानी से भरी सुराही रख गया. दोबारा आ कर उन्हें खाने की थाली दे गया.

उस के बाद कोई उन के कमरे में झांकने तक नहीं आया. सुबह का अनुभव इतना कड़वा था कि खुद उन की हिम्मत भी दोबारा बहूबच्चों के बीच जाने की नहीं हुई. बोझिल अकेलापन सांप की तरह उन को निरंतर डसता रहा.

वह पहली दफा बेटेबहू के यहां नहीं आई थीं. पहले भी तनु और सोनू के जन्म पर राकेश उन्हें लिवा लाया था. जिद कर के सालसालभर रोके रखा था. उस समय इसी बहू ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. इतना लाड़ लड़ाती थी कि अपनी सगी बेटी भी क्या दिखाएगी? दूध, फल, दवा हर चीज उन्हीं के हाथ से लेती थी. जरा देर होती नहीं कि ‘अम्मांअम्मां’ कह कर आसमान सिर पर उठा लेती थी.

राकेश हंस कर कहा करता था, ‘तुम ने इसे बहुत सिर चढ़ा रखा है, अम्मां. देखता हूं कि इस के सामने मेरी कदर घट गई है. यह पराए घर की लड़की तुम्हारी सगी हो गई है और मैं सौतेला हो गया हूं. इस चालाक बिल्ली ने सीधे मेरी दूध की हांडी पर मुंह मारा है,’ सुन कर वह भी हंस पड़ती थीं.

उन दिनों राकेश की आर्थिक स्थिति साधारण थी. घर में एक भी नौकर न था. अम्मां बहू की देखभाल करतीं, नवजात बच्ची को संभालती और घर की सारसंभाल करतीं. एक पांव बहू के कमरे में रहता था और एक रसोई में.

इन महारानी को तो बच्ची को झबला पहनाना तक नहीं आता था. बच्ची कपड़े भिगोती तो लेटेलेटे गुहार लगाती थीं, ‘अम्मांजी, जल्दी आना. अपनी नटखट पोती की कारस्तानी देखना.’

अब भी वही अम्मां थीं और वही बहूरानी. बदलाव आया था तो सिर्फ स्थितियों में. बहू अब हर महीने हजारों रुपए कमाने वाले अफसर की बीवी थी और अम्मां बूढ़ी व लाचार होने के कारण उस के किसी काम की नहीं रहीं. तभी तो घर के कबाड़ की तरह कोने में पटक दी गईं. अगर अब भी उन के बदन में अचार, मुरब्बे और बडि़यां बनाने की ताकत होती तो यह बहू अपनी मिसरी घुली आवाज में ‘अम्मांअम्मां’ पुकारते नहीं थकती.

अशक्त प्राणी को दया कर के परसी हुई थाली दे देती थी यही क्या कम था? पर बूढ़े आदमी की पेटभर रोटी के अलावा भी कोई जरूरत होती है, इसे बहू क्यों नहीं समझती? जिस अकेलेपन को भरने के लिए गांव छोड़ा, वही अकेलापन यहां भी कुंडली मार कर उन्हें अपनी गिरफ्त में लिए हुए था. इस वेदना को कौन समझता?

अम्मां ठंडी सांस भर कर पलंग पर लेट जातीं. अपनेआप उन के कमरे में कोई नहीं आता. यदि वह उठ कर सब के बीच पहुंचतीं तो एकएक कर के सब खिसकने लगते. यों आपस में बहूबच्चे हंसते, कहकहे लगाते, पर अम्मां के आते ही सब को कोई न कोई काम जरूर याद आ जाता. सब के चले जाने पर वह अचकचाई हुई कुछ देर खड़ी रहतीं, फिर खिसिया कर अपने कमरे की तरफ चल पड़तीं.

पांव में जहर फैल जाने पर आदमी उसे काट कर फेंक देना पसंद करता है, लेकिन अम्मां तो बहूबच्चों के उल्लासभरे जीवन का जहर न थीं फिर क्यों घर वालों ने उन्हें विषाक्त अंग की भांति अलग कर दिया है, इसे वह समझ नहीं पाती थीं. वह इतनी सीधी और सौम्य थीं कि उन से किसी को शिकायत हो ही नहीं सकती थी.

बहू आधीआधी रात को पार्टियों से लौटती. तनु और सोनू अजीबोगरीब पोशाकें पहने हुए बाजीगर के बंदर की तरह भटकते. अम्मां कभी किसी को नहीं टोकतीं. फिर भी सब उन की निगाहों से बचना चाहते थे. हर एक की दिली ख्वाहिश यही रहती थी कि वह अपने कमरे से बाहर न निकलें. खानेपीने, नहानेधोने और सोने की सारी व्यवस्थाएं जब कमरे में कर दी गई हैं तो अम्मां को बाहर निकलने की क्या आवश्यकता है?

एक दिन अकेले बैठेबैठे जी बहुत ऊबा तो वह कमरे में झाड़ ू लगाने के लिए आए नौकर से इधरउधर की बातें पूछने लगीं, क्या नाम है? कहां घर है? कितने भाईबहन हैं? बाप क्या करता है?

उन का यह काम कितना निंदनीय था, इस का आभास कुछ देर बाद ही हो गया. बहू पास वाले कमरे में आ कर, ऊंची आवाज में उन्हें सुनाते हुए बोलीं, ‘‘जैसा स्तर है वैसे ही लोगों के साथ बातें करेंगी. नौकर के अलावा और कोई नहीं मिला उन्हें बोलने के लिए.’’

उत्तर में तनु की जहरीली हंसी गूंज गई. वह अपनी कुरसी पर पत्थर की तरह जड़ बैठी रह गई थीं.

गांव में भी अम्मां अकेली थीं, पर वहां यह सांत्वना थी कि सब के बीच पहुंचने पर एकाकीपन की यंत्रणा से मुक्ति मिल जाएगी. यहां आ कर वह निराशा के अथाह समुद्र में डूब गई थीं. रेगिस्तान में प्यासे मर जाना उतनी पीड़ा नहीं देता, जितना कि नदी किनारे प्यास से दम तोड़ देना.

गली का घर होता, सड़क के किनारे बना मकान होता तो कम से कम खिड़की से झांकने पर राह चलते आदमियों के चेहरे नजर आते. यहां अम्मां किसी सजायाफ्ता कैदी की तरह खिड़की की सलाखों के नजदीक खड़ी होतीं तो उन्हें या तो ऊंचे दरख्त नजर आते या फूलों से लदी क्यारियां. फिर भी वह खिड़की के पास कुरसी डाले बैठी रहती थीं. कम से कम ठंडी हवा के झोंके तो मिलते थे.

बैठेबैठे कुछ देर को आंखें झपक जातीं तो लगता जैसे बाबूजी पास खड़े कह रहे हैं, ‘सावित्री, उठोगी नहीं? देखो, कितनी धूप चढ़ आई है? चायपानी का वक्त निकला जा रहा है.’ चौंक कर आंखें खोलते ही सपने की निस्सारता जाहिर हो जाती. बाबूजी अब कहां, याद आते ही मन गहरी पीड़ा से भर उठता.

झपकी लेते हुए अम्मां खीझ जातीं, ‘ओह, यह बाबूजी इतना शोर क्यों कर रहे हैं? चीखचीख कर आसमान सिर पर उठाए ले रहे हैं. क्या कहा? राकेश ने दवात की स्याही फैला दी. अरे, बच्चा है. फैल गई होगी स्याही. उस के लिए क्या बच्चे को डांटते ही जाओगे? बस भी करो न.’

चौंक कर जाग उठीं अम्मां. बाबूजी की नहीं, यह तो खिड़की के नीचे भूंकते कुत्तों की आवाज है. वह हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुईं और ‘हटहट’ कर के कुत्तों को भगाने लगीं. बुढ़ापे के कारण नजर कमजोर थी. फिर भी इतना मालूम पड़ गया कि किसी कमजोर और मरियल कुत्ते को 3-4 ताकतवर कुत्ते सता रहे हैं. शायद धोखे से फाटक खुला ही रह गया होगा, तभी लड़ते हुए भीतर घुस आए थे.

इधरउधर देख कर अम्मां ने मच्छरदानी का डंडा निकाला और उसे खिड़की की सलाखों से बाहर निकाल कर भूंकते हुए कुत्तों को धमकाने लगीं. काफी कोशिश के बाद वह सूखे मरियल कुत्ते को आतताइयों के शिकंजे से बचा सकीं.

हमलावरों के चले जाने पर चोट खाया हुआ कमजोर कुत्ता वहीं हांफता हुआ बैठ गया और कातर निगाहों से अम्मां की ओर देखने लगा. सब ओर से दुरदुराया हुआ वह कुत्ता उन से शरण की भीख मांग रहा था. इस गंदे, घिनौने, जख्मी और मरियल कुत्ते पर अनायास ही अम्मां सदय हो उठीं. वह खुद क्या उस जैसी नहीं थीं? बूढ़ी, कमजोर, उपेक्षिता और सर्वथा एकाकी. तन चाहे रोगी न था, पर मन क्या कम जख्मी और लहूलुहान था?

दोपहर को जब नौकर खाना लाया तो अम्मां ने बड़े प्यार से उस घायल कुत्ते को 2 रोटियां खिला दीं. भावावेश के न जाने किन क्षणों में नामकरण भी कर दिया ‘झबरा.’ झड़े हुए रोएं वाले कुत्ते के लिए यह नाम उतना ही बेमेल था, जितना किसी भिखारी का करोड़ीमल. पर अम्मां को इस असमानता की चिंता न थी. उन की निगाह एक बार भी कुत्ते की बदसूरती पर नहीं गई.

अम्मां अब काफी संतुष्ट थीं, प्रसन्न थीं. उन्हें लगता, जैसे अब वह अकेली नहीं हैं. झबरा उन के साथ है. झबरा को उन की जरूरत थी. दोएक दिन उन्हें उस के भाग जाने की चिंता बनी रही. पर धीरेधीरे यह आशंका भी मिट गई. झबरा के स्नेह दान ने अम्मां के बुझते हुए जीवन दीप की लौ में नई जान डाल दी थी.

पर घर वालों को उन का यह छोटा सा सुख भी गवारा नहीं हुआ.

एक दिन बहू तेज चाल से चलती हुई कमरे में आई और खिड़की के पास जा कर नाक सिकोड़ते हुए बोली, ‘‘छि:, कितना गंदा कुत्ता है. न जाने कहां से आ गया है. चौकीदार को डांटना पड़ेगा. उस ने इसे भगाया क्यों नहीं?’’

‘‘अम्मांजी का पालतू कुत्ता है जी. अब तो चुपड़ी रोटी खाखा कर मोटा हो गया है,’’ पीछे खड़े हुए नौकर ने पीले गंदे दांतों की नुमाइश दिखा दी.

‘‘बेशर्म, सड़क के लावारिस कुत्ते को हमारा पालतू कुत्ता बताता है. हमें पालना ही होगा तो कोई बढि़या विदेशी नस्ल का कुत्ता पालेंगे. ऐसे सड़कछाप कुत्ते पर तो हम थूकते भी नहीं हैं,’’ बहू रुष्ट स्वर में बोली.

अगले ही पल उस ने नौकर को नादिरशाही हुक्म दिया, ‘‘देखो, अंधेरा होने पर इस कुत्ते को कहीं दूर फेंक आना. इसे बोरी में बंद कर के ऐसी जगह फेंकना, जहां से दोबारा न आ सके.’’

बहू जिस अफसराना अंदाज से आई थी वैसे ही वापस चली गई.

अम्मां ने बड़े असहाय भाव से खिड़की की ओर देखा. न जाने क्यों उन का जी डूबने लगा.

पिछले साल बाबूजी के मरते समय भी उन्हें ऐसी ही अनुभूति हुई थी. लगा था, जैसे इतनी बड़ी दुनिया में अनगिनत आदमियों की भीड़ होने पर भी वह अकेली रह गई हैं.

अकेलेपन का वही एहसास इस समय अम्मां को हुआ. उन्होंने खुद को धिक्कारा, ‘छि:, कितनी ओछी हूं मैं? बेटे, बहू और चांदसूरज जैसे 2 पोतीपोते के रहते हुए मैं अकेली कैसे हो गई? यह मामूली कुत्ता क्या मुझे अपने बच्चों से भी ज्यादा अजीज है?’

पर खुद को धोखा देना आसान न था. अकेलेपन की भयावहता से आशंकित मन दूसरी बार दहशत से भर गया. पिछले साल बाबूजी के चिर बिछोह पर वह रोई थीं. हालांकि तब से मन बराबर रोता रहा था, पर आज भी आंखें दूसरी बार छलछला उठीं. Long Hindi Story

Social Story in Hindi: न्यूजर्सी की गोरी काली बहुएं

Social Story in Hindi: करीब 4 दशकों पहले बिहार के दरभंगा से अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में आए श्रीकांत के परिवार में सभी कुछ अच्छा ही चल रहा था कि अचानक दक्षिण अफ्रीका के एक मजदूर की बेटी ने उन के बेटे सुनील के जीवन में प्रवेश कर के उन के शांत परिवार में हलचल मचा दी.

श्रीकांत भले ही अमेरिकी संस्कृति में पूरी तरह से रचबस गए थे लेकिन उन की मानसिकता अभी भी भारतीय थी. सदियों से चली आ रही परंपराओं के जाल में उलझे ही रह गए थे. वही अंधविश्वास, वही पाखंड, वही रूढि़वादिता और वही आडंबरों की अमरबेल जो भारत से लाए थे उस से आज तक खुद को मुक्त नहीं कर पाए थे.

दूसरे को जीवनमुक्ति का संदेश देने वाले पंडित श्रीकांत इसे अपने दिल में कहां उतार पाए थे. यह बात और है कि उन्होंने न्यूजर्सी दुर्गा मंदिर में पूजाअर्चना करवा कर करोड़ों की संपत्ति अर्जित कर ली थी. पलक झपकते ही वे ग्रीनकार्ड हासिल कर के सालभर के बाद ही लंबी छलांग लगा कर अमेरिका के सम्मानित नागरिक भी बन गए थे. ज्यादातर लोग उन्हें पंडितजी कह कर ही बुलाते.

सभी धर्मों का यह लचीलापन ही है कि इन अकर्मण्यों का एक बड़ा समूह देशदुनिया के सभी वर्गों को अंगूठा दिखाते हुए घंटी, घंटा, बजा कर राज कर रहा है तो कहीं मीनारों से आवाज लगा कर कहर बरसाया जाता है. अंधविश्वासियों को ग्रहनक्षत्रों की तिलिस्मी दुनिया के चक्रव्यूहों में फंसा कर देखतेदेखते ही, बिना तिनका तोड़े, ये करोड़पति बन जाते हैं.

धर्मरूपी गलियारों को पार कर के कहीं सुदूर मिट्टी से जुड़े श्रीकांत आज अमेरिका के न्यूजर्सी में पैलेस औन व्हील में रह रहे हैं. सूर्योदय से रात के अंतिम पहर तक संस्कृत के कुछ गलतसलत मंत्र पढ़ कर घंटीशंख बजा कर डौलरों बटोर रहे हैं.

यही नहीं, पाश्चात्य कलेवरों में सजी, फर्राटेदार अंगरेजी बोलते युवकयुवतियां जब इन के चरणस्पर्श करते हैं तो श्रीकांतजी की आंखों की चमक देखते ही बनती है. कैमरे की आंखों से छिपा कर भक्तजन जब इन की मुट्ठी गरम करते हैं तो इन की प्रसन्नता मंदिर में चारों ओर प्रतिष्ठित देवीदेवताओं की मूर्तियों की मुसकान में प्रतिबिंबित होने लगती है.

ऊंची आवाज में बात करने की मनाही होने पर भी जोरों का जयकारा लग ही जाता है. मेवे, मिष्ठान, फलों व उपहारों के ढेर से अगर कुछ उठा कर किसी भक्त को दे देते हैं तो वह अपनी सारी काबिलीयत भूल कर इन के चरणों में बिछ जाता है.

सूतकनातक के संस्कारों को विधिवत कराने वाले, लयबद्ध मंत्रों से ब्याह की रस्मों को संपन्न कराने वाले, ग्रह, नक्षत्रों की उलटी गति को मूंगा, मोती, हीरा, पन्ना, गोमेद आदि कीमती रत्नों को पहना कर चुटकियों में सीधा करने का दावा करने वाले, प्रसिद्धि के शीर्ष पर विराजमान पंडितजी की ऐसी नियति हो गई थी कि न मक्खी निगलते बन रही थी न उगलते. काली घटा, सारा, ही बदली बन कर पंडितजी के आंगन में बरसेगी, उन का सुपुत्र सुनील अड़ा हुआ था.

यह तो चर्चा थी पंडितजी की अद्भुत महिमा की जो बिना किसी डिगरी या शैक्षणिक योग्यता के दुनिया के सब से प्रभुत्वशाली देश अमेरिका में अपनी अल्पबुद्धि से विजयश्री का नगाड़ा बजा कर वारेन्यारे कर रहे थे. ऐसे सुख के एक छोटे तिनके के लिए भी बड़ेबड़े बुद्धिजीवी तरस कर रह जाते हैं.

4 साल पहले ही अपने बड़े बेटे सुशील का रिश्ता एक गोरी अमेरिकी किशोरी से कर के यही पंडितजी बिछेबिछे जा रहे थे तो आज जब उन का दूसरा बेटा किसी दक्षिण अफ्रीकी अश्वेत लड़की के प्रति अनुरक्त था तो उस का इतना विरोध क्यों? अब प्रेमप्रीत की कोई जातिपांति तो होती नहीं है, वह तो अचानक ही दिल में होने वाली एक अति सुंदर प्रक्रिया है, जिस में भीगने वालों को किसी तरह का होश नहीं रहता है, अब श्रीकांतजी को कौन समझाए.

रोजाना विभिन्न देवीदेवताओं के अनुरक्त होने की, कमल नयनों के टकराने की रोचक गाथा, रस ले कर सुनाने वाले पंडितजी अपने सुपुत्र की चाहत क्यों नहीं समझ पा रहे हैं.

अति गोरे पंडितजी क्या उस दक्षिण अफ्रीकी के काले रंग पर तो नहीं अटक गए हैं? अब उन्हें कौन समझाए कि वह काली ही उन के बेटे के हृदय की मल्लिका बन बैठी है. अगर वे शादी की अनुमति नहीं भी देंगे तो इस की परवा ही कौन करता है. कानून उन्हें बांध कर एक कर ही देगा. ऐसे दिनरात काले राम, कृष्ण, काली, शनि आदि अति काले देवीदेवताओं का शृंगार कर के, उन के काले रंग पर प्रकाश डाल कर महिमा गान करने वाले पंडितजी की इस दोहरी मानसिकता पर कौन उंगली उठाए?

कथनीकरनी में फर्क करने वाले श्रीकांतजी को काली रंगत वाली सारा गले से नहीं उतर रही थी. सुनील को साम, दाम, दंड, व भेद सारी नीतियों से समझा चुके थे कि उस काली सारा का भूत अपने दिमाग से उतार दे जिस की मां मुसलिम है और बाप का पता तक नहीं है. पर सुनील इन की सुनने क्यों लगा. वह तो सिर से पांव तक उस काली बदली के प्यार की बौछार में भीग गया था. भारत होता तो यही पंडितजी 2-4 खड़ाऊं उसे लगा कर मन में भड़क रहे ज्वालामुखी को शांत कर लेते, पर इस परदेस की रीत ही निराली है. जहां आपा खोया नहीं कि पुलिस पकड़ कर सीधे जेल में डाल देती है.

अंधविश्वास, रूढि़वादिता व संकीर्णता के दलदल में फंसे रहने वालों का न्यारावारा करने वाले पंडितजी के पैर स्वयं ही धरती में धंसे जा रहे थे. उन्होंने तो सुनील को घर से निकल जाने की भी बात कह दी थी लेकिन उन की पत्नी ने ऐसी हायतोबा मचाई कि वे ऐसा नहीं कर सके. उन के दोनों बेटे तो ऐसा कुछ खास कमा नहीं रहे थे कि अलग अपनी गृहस्थी बसा लेते. फिर पंडितजी ठगीगीरी से कमाए गए अकूत धन के वारिस भी तो यही थे.

यह बात और थी कि बला की बुद्धि रखने वाले पंडितजी ने अपनी बड़ी बहू एलिस को कृष्ण की राधा की उपाधि दे कर अपने रहनसहन में ढाल लिया था. हिंदुस्तानी वेशभूषा में जब वह सज कर मंदिर के लंबेचौड़े प्रांगण में डोलती तो उस के अथाह छलकते रूप पर देखने वालों की आंखें हटाए नहीं हटती थीं. अपने टूटेफूटे शब्दों में जब वह गीता का श्लोक बोलती तो अंधविश्वास की भूलभुलैए में घूमते हिंदू चढ़ावे के साथ उस की भी चरण वंदना करने से नहीं चूकते थे. जिसे देख कर पंडितजी अपने द्वारा फेंके गए पाशे पर बलिहार जाया करते थे.

सुनील की जिद से उन की नींद का उड़ना ठीक ही था. अपने गाढ़े रंग से काली घटाओं को भी शर्माती आधी मुसलिम सारा पर पंडितजी कौन सी जादुई छड़ी घुमाते कि वह भी एलिस की तरह सफेद रोशनी सी चमचमाती. पंडितजी का वहां पर भी तो समाज था जो उन से ऊपरी सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए मन ही मन मनो लड्डू फोड़ रहा था.

सारा जैसी लड़कियों के माथे पर अब विश्व और ब्रह्मांड सुंदरी के ताज सज रहे हैं, ऐसे उदाहरणों से सुनील ने अपने व्यथित पिता को शीतल करना चाहा, पर असफल रहा. सारा को छोड़ कर किसी को भी जीवनसंगिनी बना ले, कह कर उन्होंने सुनील को समझाना चाहा पर वे उसे उस के निश्चय से डिगा नहीं सके.

निश्चित तिथि को सुनील ने सारा के साथ कोर्टमैरिज कर ली और उसे घर ले आया. पंडिताइन ने उन की आरती उतारी. पंडितजी के लाख मना करने के बावजूद हीरे, पन्ने, मोतियों आदि रत्नों से सजा अपना सतलड़ा हार सारा के गले में डाल दिया. इस असंभावित स्वागत से मुग्ध हो कर सारा ने उन्हें अपने से लिपटा लिया तो उस की विशाल काया में पंडिताइन की दुबलीपतली क्षीण काया लुप्त ही हो गई. अल्पशिक्षित पंडिताइन ने इसे अपना अच्छा समय समझा.

मन मार कर अपने मंदिर परिसर में अनेक मेहमानों को भ्रमित करते हुए पंडितजी ने सारा पर जरसी गाय का गोबर और गंगाजल छिड़क कर अग्नि के समक्ष अनगिनत मंत्रों का पाठ कर के, जो सभी की समझ से बाहर थे, उसे हिंदू बना लिया. सारा के काले, मोटे, भीमकाय रिश्तेदार पंडितजी की एकएक अदा पर झूम कर अपना वृहत मस्तिष्क झुलाते रहे थे.

न्यूजर्सी के सब से बड़े शानदार होटल में नई बहू के आगमन के उपलक्ष्य में पंडितजी ने बहुत बड़ी पार्टी दी. पार्टी में उन के अतिशिक्षित, उच्च पदस्थ भक्तजन कीमती तोहफों और बड़ेबड़े मौल के उपहारकार्डों के साथ सम्मिलित हुए. अमेरिकी भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे जो हमेशा की तरह उन की धार्मिक व सामाजिक उदारता को दर्शा रहा था. इस आयोजन में कौन, किस को अनुगृहित कर रहा था, समझ से परे था.

भारतीय दुलहन के लिबास में सारा जंच रही थी. यहां पर ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बेमिसालता अवर्णनीय हो जाती है जो बदसूरतों को भी कमनीय और खूबसूरत बना जाती है. सारा की रूपछटा पर जहां पंडितजी का सुपुत्र मुग्ध हुआ जा रहा था वहीं पर उस की हंसी काले बादल के बीच बिजली की तरह चमक कर पंडितजी की छाती को बेध, उन्हें भस्म किए जा रही थी.

सामूहिक पारिवारिक फोटो के लिए जब उन की दोनों बहुएं स्टेज पर एकसाथ खड़ी हुईं तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो दिनरात एकदूसरे से गले मिल रहे हों. दिखावे के लिए ही हो, पर पंडित अपनी पंडिताइन के साथ लोगों की बधाइयों के भार से दुहरे हुए जा रहे थे. मौमडैड कह कर सारा का उन दोनों से लिपटना पंडितजी के लिए असहनीय हो रहा था. रिश्तेदारों की कुटिल हंसी और चुभती नजर से आहत हो कर, विश्व बंधुत्व का राग हमेशा अलापने वाले पंडितजी उतनी ठंड में भी पसीने से भीग गए थे. Social Story in Hindi

Social Story: चरित्र- क्यों देना पड़ा मणिकांत को अपने चरित्र का प्रमाण

Social Story: ‘‘उफ, इसे भी अभी ही बजना था,’’ आटा सने हाथों से ही मधु ने दरवाजा खोला. सामने मणिकांत खड़ा था, जो उसी के कालिज में लाइब्रेरी का चपरासी था.

‘‘तुम…’’ बात अधूरी छोड़ मधु रोते विशू को उठाने लपकी मगर अपने आटा सने हाथ देख कर ठिठक गई. परिस्थिति को भांपते हुए मणिकांत ने अपने हाथ की पुस्तकें नीचे रखीं और विशू को गोद में उठा कर चुप कराने लगा.

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर मधु हाथ धोने रसोई में चली गई. एक मिनट बाद ही तौलिए से हाथ पोंछते हुए वह फिर कमरे में आई और मणिकांत की गोद से विशू को ले लिया.

‘‘मैडम, आप ये पुस्तकें लाइब्रेरी में ही भूल आई थीं,’’ पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए मणिकांत ने कुछ इस तरह से कहा मानो वह अपने आने के मकसद को जाहिर कर रहा हो.

मधु को याद आया कि पुस्तकें ढूंढ़ कर जब वह उन्हें लाइब्रेरियन से अपने नाम इश्यू करवा रही थी तभी उस का मोबाइल बज उठा था. लाइब्रेरी की शांति भंग न हो इसलिए वह बात करती हुई बाहर आ गई थी. पति सुमित का फोन था. वह आफिस के कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों को डिनर पर ला रहे थे. मधु को जल्दी

घर पहुंचना था. जल्दबाजी में वह अंदर से पुस्तकें लेना भूल गई और सीधे घर आ गई थी.

‘‘अरे, यह तो मैं कल ले लेती, पर तुम्हें मेरे घर का पता कैसे चला?’’

‘‘जहां चाह वहां राह. किसी से पूछ लिया था. लगता है आप खाना बना रही हैं. बच्चे को तब तक मैं रख लेता हूं,’’ मणिकांत ने विशू को गोद में लेने के लिए दोनों हाथ आगे बढ़ाए तो मधु पीछे हट गई.

‘‘नहीं…नहीं, मैं सब कर लूंगी. मेरा तो यह रोज का काम है. तुम जाओ,’’ दरवाजा बंद कर वह विशू को सुलाने का प्रयास करने लगी. विशू को थपकी देते हाथ मानो उस के दिमाग को भी थपथपा रहे थे.

उस की जिंदगी कितनी भागम- भाग भरी हो गई है. बाई तो बस, बंधाबंधाया काम करती है, बाकी सब तो उसे ही देखना पड़ता है. सुबह जल्दी उठ कर लंच पैक कर सुमित को आफिस रवाना करना, विशू को संभालना, खुद तैयार होना, विशू को रास्ते में क्रेच छोड़ना, कालिज पहुंचना, लौटते समय विशू को लेना, घर पहुंच कर सुबह की बिखरी गृहस्थी समेटना और उबासियां लेते हुए सुमित का इंतजार करना.

थकेहारे सुमित रात को कभी 10 तो कभी 11 बजे लौटते. कभी खाए और कभी बिना खाए ही सो जाते. मधु जानती थी, प्राइवेट नौकरी में वेतन ज्यादा होता है तो काम भी कस कर लिया जाता है. यद्यपि पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. सुमित 8 बजे तक घर लौट आते थे और शाम का खाना दोनों साथ खाते थे. लेकिन जब से सुमित की कंपनी के मालिक की मृत्यु हुई थी और उन की विधवा ने सारा काम संभाला था तब से सुमित की जिम्मेदारियां भी बहुत बढ़ गई थीं और उस ने देरी से आना शुरू कर दिया था.

मधु शिकायत करती तो सुमित लाचारी से कहते, ‘‘क्या करूं डियर, आना तो मैं भी जल्दी चाहता हूं पर मैडम को अभी काम समझने में समय लगेगा. उन्हें बताने में देर हो जाती है.’’

एक विधवा के प्रति सहज सहानुभूति मान कर मधु चुप रह जाती.

शादी से पहले की प्रवक्ता की अपनी नौकरी वह छोड़ना नहीं चाहती थी. उस का पढ़ने का शौक शादी के बाद तक बरकरार था. इसलिए अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से समय निकाल कर वह लाइब्रेरी से पुस्तकें लाती रहती थी और देर रात सुमित का इंतजार करते हुए उन्हें पढ़ती रहती. हालात से अब उस ने समझौता कर लिया था. पर कभीकभी कुछ बेहद जरूरी मौकों पर उसे सुमित की गैरमौजूदगी खलती भी थी.

उस दिन भी वह आटो में गृहस्थी का सारा सामान ले कर 2 घंटे बाद घर लौटी तो थक कर चूर हो चुकी थी. गोद में विशू को लिए उस ने दोनों हाथों में भरे  हुए थैले उठाने चाहे तो लगा चक्कर खा कर वहीं न गिर पड़े. तभी जाने कहां से मणिकांत आ टपका था.

तुरतफुरत मणिकांत ने मधु को मय सामान और विशू के घर के अंदर पहुंचा दिया था. शिष्टतावश मधु ने उसे चाय पीने के लिए रोक लिया. वह चाय बनाने रसोई में घुसी तो विशू ने पौटी कर दी. मधु उस के कपड़े बदल कर लाई तब तक देखा मणिकांत 2 प्यालों में चाय सजाए उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अरे, तुम ने क्यों तकलीफ की? मैं तो आ ही रही थी,’’ मधु को संकोच ने आ घेरा था.

‘‘तकलीफ कैसी, मैडम? आप को इतना थका देख कर मैं तो वैसे भी कहने वाला था कि चाय मुझे बनाने दें, पर…’’

‘‘अच्छा, बैठो. चाय पीओ,’’ मधु ने सामने के सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अच्छा, तुम इधर कैसे आए?’’

‘‘इधर मेरा कजिन रहता है. उसी से मिलने जा रहा था कि आप दिख गईं,’’ चाय पीते हुए मणिकांत ने पूछा, ‘‘मैडम, साहब कहीं बाहर नौकरी करते हैं?’’

‘‘अरे, नहीं. इसी शहर में हैं पर दफ्तर में बहुत व्यस्त रहते हैं इसलिए घर देर से आते हैं. सबकुछ मुझे ही देखना पड़ता है,’’ मधु कह तो गई पर फिर बात बदलते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘मांपिताजी हैं, जो गांव में रहते हैं. शादी अभी हुई नहीं है. थोड़ा पढ़ालिखा हूं इसलिए शहर आ कर नौकरी करने लगा. पढ़नेलिखने का शौक है इसलिए पुराने मालिक ने यहां लाइब्रेरी में लगवा दिया,’’ कहते हुए मणिकांत उठ खड़ा हुआ. मधु उसे छोड़ने बाहर आई. उसे वापस उसी दिशा में जाते देख मधु ने टोका, ‘‘तुम अपने कजिन के यहां जाने वाले थे न?’’

‘‘हां…हां. पर आज यहीं बहुत देर हो गई है. फिर कभी चला जाऊंगा.’’

उस का रहस्यमय व्यवहार मधु की समझ में नहीं आ रहा था. उसे तो यह भी शक होने लगा था कि वह अपने कजिन से नहीं बल्कि उसी से मिलने आया था.

रात को मधु ने सुमित को मणिकांत के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘भई, कमाल है,’’ सुमित बोले, ‘‘एक तो बेचारा तुम्हारी इतनी मदद कर रहा है और तुम हो कि उसी पर शक कर रही हो. खुद ही तो कहती रहती हो कि मैं गृहस्थी और विशू को अकेली ही संभालतेसंभालते थक जाती हूं. कोई हैल्पिंगहैंड नहीं है. अब यदि यह हैल्पिंग- हैंड आ गया है तो अपनी शिकायतों को खत्म कर दो. चाहो तो उसे काम के बदले पैसे दे दिया करो ताकि तुम्हें उस से काम लेने में संकोच न हो.’’

‘‘हूं, यह भी ठीक है,’’ मधु को सुमित की बात जंच गई.

अब मधु गाहेबगाहे मणिकांत की मदद ले लेती. वह तो हर रोज आने को तैयार था पर मधु का रवैया भांप कम ही आता था. हां, जब भी मणिकांत आता मधु के ढेरों काम निबटा जाता. कभी बिना कहे ही शाम को ढेरों सब्जियां ले कर पहुंच जाता. मधु उसे हिसाब से कुछ ज्यादा ही पैसे पकड़ा देती. फिर वह देर तक विशू को खिलाता रहता, तब तक मधु सारे काम निबटा लेती. फिर मधु उसे खाना खिला कर ही भेजती थी.

पैसे लेने में शुरू में तो मणिकांत ने बहुत आनाकानी की पर जब मधु ने धमकी दी कि फिर यहां आने की जरूरत नहीं है तो वह पैसा लेना मान गया. विशू भी अब उस से बहुत हिलमिल गया था. मधु को भी उस की आदत सी पड़ गई थी.

मणिकांत का पढ़ने का शौक भी मधु के माध्यम से पूरा हो जाता था क्योंकि वह लाइब्रेरी से अच्छी पुस्तकें चुनने में उस की मदद करती थी. किसी पुस्तक के बारे में उसे घंटों समझाती. इस तरह अपनी नीरस जिंदगी में अब मधु को कुछ सार नजर आने लगा था.

वह मणिकांत को छोटे भाई की तरह स्नेह करने लगी थी. मणिकांत के मुंह से भी अब उस के लिए मैडम की जगह दीदी संबोधन निकलने लगा था जिसे सुन कर मधु का मन बड़ी बहन के बड़प्पन से फूल उठता. सुमित भी खुश था क्योंकि अब उस के देर से लौटने पर भी मधु खुशी मन से उस का स्वागत करती थी. वरना पहले तो वह शिकायतों का अंबार लगा देती थी. लेकिन आश्चर्य की बात थी कि इतने लंबे समय में भी सुमित और मणिकांत का अभी तक आमनासामना नहीं हुआ था. कारण, एक तो वह छुट्टी वाले दिन नहीं आता था. दूसरे, वह कभी देर रात तक नहीं रुकता था.

सुमित को मणिकांत से मिलवाने के लिए मधु ने एक रविवार मणिकांत को लंच के समय आने को कहा. नियत समय पर मणिकांत तो पहुंच गया लेकिन आफिस से जरूरी फोन आ जाने के कारण सुमित उस के आने से पहले ही निकल गए. देर तक इंतजार कर आखिर मणिकांत बिना मिले ही चला गया जिस का मधु को भी बहुत अफसोस रहा.

इस घटना के कुछ दिन बाद मधु एक दिन कालिज पहुंची तो उसे लगा कि आज कालिज की फिजा कुछ बदली- बदली सी है. विद्यार्थी से ले कर साथी अध्यापक तक उसे विचित्र नजरों से घूर रहे थे. किसी अनहोनी की आशंका से पीडि़त मधु स्टाफरूम में जा कर बैठी ही थी कि एक चपरासी ने आ कर सूचित किया कि मैडम, प्रिंसिपल साहब आप को बुला रहे हैं. अनमनी सी वह चुपचाप उस के पीछेपीछे चल दी.

‘‘मुझे समझ नहीं आ रहा है कि आप जैसी जिम्मेदार और गंभीर व्यक्तित्व वाली प्रवक्ता ने इतना घटिया कदम क्यों उठाया?’’ बिना किसी भूमिका के प्रिंसिपल ने अपनी बात कह दी.

‘‘जी?’’ मधु बौखला उठी, ‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’

‘‘कालिज के एक अदने से चपरासी मणिकांत के संग नाजायज संबंध रखते हुए आप को शरम नहीं आई? विद्यार्थियों के सम्मुख यह कैसा आदर्श प्रस्तुत कर रही हैं आप?’’

‘‘आप होश में तो हैं? इतना गंदा आरोप लगाने से पहले आप ने कुछ सोचा तो होता,’’ क्रोध के आवेश में मधु थरथर कांप रही थी.

‘‘पूरी तहकीकात करने के बाद ही मैं आप से रूबरू हुआ हूं. आप के साथी अध्यापकों और विद्यार्थियों ने कई बार आप दोनों को अकेले बातचीत करते भी देखा है.’’

‘‘क्या किसी से बात करना गुनाह है?’’

‘‘आप के पड़ोसियों ने भी पूछताछ में बताया है कि वह अकसर आप के यहां आता है और आप के पति की गैरमौजूदगी में काफी वक्त वहां गुजारता है.’’

‘‘हां, तो इस से आप जो आरोप लगा रहे हैं वह तो सिद्ध नहीं होता. मणि मेरे छोटे भाई की तरह है और हम दोनों बहनभाई की तरह ही एकदूसरे का खयाल रखते हैं,’’ मधु गुस्से में बोली, ‘‘आप मणिकांत को बुलवाइए. अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.’’

‘‘वह आज कालिज नहीं आया है. घर पर भी नहीं मिला. शायद भेद खुल जाने के भय से शहर छोड़ कर भाग गया है.’’

‘‘जब कोई भेद है ही नहीं तो खुलेगा क्या? हमारा रिश्ता शीशे की तरह पाकसाफ है. मेरे पति को भी मुझ पर पूरा विश्वास है. आज तक हमारे संबंधों को ले कर उन्होंने कभी कोई शक नहीं किया.’’

प्रिंसिपल मधु को ऐसे देखने लगे मानो सामने कोई पागल खड़ा हो.

‘‘क्या आप नहीं जानतीं कि आप पर चरित्रहीन होने का आरोप आप के पति ने ही लगाया है?’’

‘‘क्या?’’ मधु के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था.

‘‘वह आप से तलाक चाहते हैं,’’ प्रिंसिपल साहब बोले, ‘‘इसी बारे में साक्ष्य जुटाने सुमितजी कल कालिज आए थे. आप तब तक घर जा चुकी थीं. उन्होंने मणिकांत से आप के अवैध संबंधों के बारे में पूछताछ की. आप की चरित्रहीनता विद्यार्थियों पर गलत प्रभाव डाले, इस से पहले मैं चाहूंगा कि आप त्यागपत्र दे दें.’’

मधु किंकर्तव्यविमूढ़ बैठी रही. उसे गहरा मानसिक आघात लगा था.

‘‘मैं आप की मनोदशा समझ रहा हूं पर मजबूर हूं. अब आप जा सकती हैं.’’

लड़खड़ाते कदमों से मधु कैसे कालिज से निकली और कैसे घर पहुंची उसे खुद होश न था. उस की दुनिया उजड़ चुकी थी. अपने केबिन में बैठ कर कंपनी की उन्नति के लिए स्ट्रेटजी रचने वाला उस का पति उस के खिलाफ इतनी बड़ी स्ट्रेटजी रचता रहा और उसे भनक तक नहीं लगी. लेकिन सुमित ने यह सब किया क्यों? क्या मणिकांत उसी का आदमी था? सोचसोच कर मधु का भेजा घूम रहा था.

लाइब्रेरी और आफिस आदि में फोन से पूछताछ करने पर मधु को पता चला कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सुमित साहब ने उसे कालिज लाइब्रेरी में लगवाया था. मधु का अगला दिन भी आंसू बहाने और तहकीकात करने में बीत गया. न मणिकांत मिला और न सुमित ही घर लौटे. सुमित के मोबाइल पर घंटी जाती रहती और फिर फोन कट जाता.

मधु की भूखप्यास गायब हो चुकी थी. आंखों से नींद उड़ चुकी थी. वह छत की ओर टकटकी लगाए लेटी थी. तभी दरवाजे पर ठकठक हुई.

‘जरूर सुमित होंगे,’ सोच कर मधु ने लपक कर दरवाजा खोला. लेकिन सामने मणिकांत को देख वह एकबारगी स्तब्ध रह गई. फिर उस का कालर पकड़ कर 2-3 थप्पड़ जमा दिए.

‘‘आस्तीन के सांप, मेरी जिंदगी बरबाद कर देने के बाद अब यहां क्या लेने आए हो?’’

‘‘दीदी वो…’’

‘‘खबरदार जो अपनी गंदी जबान से मुझे दीदी कहा…’’

‘‘दीदी, प्लीज, मेरी बात तो सुनिए. मुझे खुद नहीं पता था कि सुमित साहब के इरादे इतने भयानक हैं.’’

‘‘कब से जानते हो तुम सुमित को?’’

‘‘मैं पहले उन्हीं के आफिस में काम करता था. उन के बारे में बहुत ज्यादा तो नहीं जानता था. बस, इतना पता था कि मालिक की मौत के बाद अब साहब ही कंपनी के कर्ताधर्ता हैं. मालकिन भी उन्हीं के इशारों पर नाचती हैं.

‘‘मैं अकसर आफिस में खाली समय में पुस्तकें पढ़ा करता था. सुमित साहब मेरे इस शौक से वाकिफ थे. उन्होंने मुझे इस के लिए कभी नहीं टोका जिस के लिए मैं उन का शुक्रगुजार था. एक दिन उन्होंने मुझे अकेले में बुलाया और कहा कि मुझे उन का एक काम करना होगा. आफिस में व्यस्तता की वजह से वह अपनी बीवी यानी आप की पर्याप्त मदद नहीं कर पाते जिस से आप काफी तनाव में रहती हैं. वह मुझे आप के कालिज में लगवा देंगे. मुझे धीरेधीरे आप को विश्वास में ले कर घर और विशू की देखभाल का काम संभालना होगा. लेकिन आप को कुछ पता नहीं चलना चाहिए.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’ मधु ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मुझे भी उन की यह बात समझ में नहीं आई थी. इसीलिए मैं ने भी यही सवाल किया था. तब उन्होंने बताया कि आप नौकर या आया रखने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि एक अनजान आदमी से आप को हमेशा घर और विशू की सुरक्षा की चिंता सताती रहेगी. इसलिए मुझे पहले जानेअनजाने आप की मदद कर आप का विश्वास जीतना होगा. इस कार्य में साहब ने मेरी पूरी मदद करने का भरोसा भी दिया क्योंकि वह आप को परेशान नहीं देख सकते थे.

‘‘उस रोज रविवार के दिन जब आप ने मुझे लंच पर साहब से मिलवाने की बात कही थी तो मुझे लगा शायद आज साहब आप के सामने अपने सरप्राइज का खुलासा करेंगे, लेकिन वह तो मेरे आने से पहले ही चले गए थे. सरप्राइज तो उन्होंने मुझे कल बुला कर दिया.

‘‘वह कंपनी की विधवा मालकिन से शादी रचा कर कंपनी के एकछत्र मालिक बनना चाहते हैं लेकिन इस के लिए उन्हें पहले आप से तलाक लेना होगा और इस के लिए उन के पास आप के खिलाफ ठोस साक्ष्य होने चाहिए. आप पर चरित्रहीनता का लांछन लगाने के लिए उन्होंने मुझे मोहरा बनाया. मैं तो यह सोच कर उन के इशारों पर चलता रहा कि एक नेक काम में मैं उन की मदद कर रहा हूं. पर छी, थू है ऐसे आदमी पर जो पैसे के लालच में इतना गिर गया है कि अपनी बीवी के चरित्र पर ही कीचड़ उछाल रहा है.’’

‘‘लेकिन उन्होंने तुम्हें कल क्यों बुलाया?’’

‘‘वह नीच आदमी चाहता है कि सचाई जानने के बाद भी मैं उस के इशारों पर काम करूं. उस ने 50 हजार रुपए निकाल कर मेरे सामने रख दिए और कहा कि वह और भी देने को तैयार है लेकिन मुझे अदालत में उस की हां में हां मिलानी होगी. बयान देना होगा कि आप चरित्रहीन हैं और आप मेरे संग…’’ शरम से मणिकांत ने गरदन झुका ली.

‘‘तो अब तुम क्या…’’ मधु ने थूक गटकते हुए बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘मेरा चरित्र उस नीच आदमी के चरित्र जितना सस्ता नहीं है, दीदी,’’ मणिकांत बोला, ‘‘पैसा होते हुए भी और पैसे के लालच में वह इतना गिर गया कि अपनी बीवी के चरित्र का सौदा करने लगा. ऐसा पैसा पा कर भी मैं क्या करूंगा जिस से इनसान इनसान न रहे, हैवान बन जाए. हालांकि बात न मानने पर उस ने मुझे जान से मारने की धमकी दी है पर मैं उसे उस के कुटिल मकसद में कामयाब नहीं होने दूंगा. इस के लिए चाहे मुझे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े.’’

‘‘तुम्हें अपनी जान देने की जरूरत नहीं है, भाई,’’ मधु भावुक स्वर में बोली, ‘‘मुझे अब न उस आदमी की चाह है और न उस के पैसे की. इसलिए तलाक हो या न हो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं अपने विशू को ले कर यहां से बहुत दूर चली जाऊंगी. तुम भी उस की बात मान लो. पैसा सबकुछ तो नहीं होता लेकिन बहुतकुछ होता है. उस पैसे से एक नई जिंदगी शुरू करो.’’

‘‘थूकता हूं मैं ऐसी नई जिंदगी पर. और आप यह कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हैं? अन्याय सहने वाला भी उतना ही दोषी है जितना कि अन्याय करने वाला. दीदी, यह पाठ भी आप ही ने तो मुझे पढ़ाया था. आप कुछ भी करें लेकिन मैं दुनिया को आप के चरित्र की सचाई बता कर रहूंगा और उस चरित्रहीन को समाज के सामने नंगा कर दूंगा.’’

आवेश से तमतमाते मणिकांत की बातों ने मधु को झकझोर कर रख दिया. उस के मानसपटल में बिजली कौंध रही थी और उस में एक ही वाक्य उभरउभर कर आ रहा था. करोड़ों की संपत्ति का स्वामी सुमित इस सद्चरित के स्वामी मणिकांत के सम्मुख कितना दीनहीन है. Social Story

लेखक- अनिल के. माथुर

Family Story: डैबिट कार्ड- क्या पत्नी सौम्या का हक समझ पाया विवेक

Family Story: सौम्या के मोबाइल पर एक के बाद एक 2 मैसेज आए थे. उस ने चैक किया कि उस के उकाउंट से विवेक ने 15 हजार निकाल लिए हैं. यह आज की बात नहीं हमेशा की है. विवेक सौम्या के पैसों पर अपना हक समझता है.

सौम्या आज भी उस दिन को कोसती है जब प्यार में अंधी हो कर तन, मन और धन सबकुछ विवेक को शादी की पहली ही रात समर्पित कर दिया था.

विवेक और सौम्या शादी से पहले से एकदूसरे को जानते थे. दोनों ने जब एकसाथ जिंदगी गुजारने का फैसला किया तो उन के घर वालों ने भी कोई आपत्ति नहीं करी.

प्यार में भीगी सौम्या ने पत्नी का फर्ज निभाते हुए अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की बागडोर विवेक के हाथों में थमा दी थी. यह वही सौम्या थी जो शादी से पहले नारी मुक्ति और भी न जाने कितनी बड़ीबड़ी बातें करती थी.

शुरू के कुछ महीनों में तो सौम्या को कोई फर्क नहीं पड़ा पर जब शादी के बाद वह पहली बार कुछ दिन रहने के लिए अपने घर जाने लगी तो उस ने विवेक से कहा, ‘‘विवेक मुझे कुछ पैसे चाहिए, अपने घर वालों के लिए मुझे गिफ्ट लेने हैं.’’

विवेक हंसते हुए बोला, ‘‘क्यों अपने घर वालों के ऊपर एहसान चढ़ा रही हो. बेटियों से कोई कुछ लेता थोड़े ही है. रही बात पैसों की तो जान अपने घर जा रही हो, वहां की तो तुम प्रिंसेस हो, तुम्हें क्या जरूरत पड़ेगी.’’

‘‘अरे यार मेरे भी तो कुछ खर्चे होंगे,’’ सौम्या बोली, ‘‘शादी से पहले तो मैं ने कभी अपने मम्मीपापा के आगे हाथ नहीं फैला, तो अब क्या हाथ फैलाना अच्छा लगेगा?’’

विवेक ने सौम्या को क्व5 हजार दे तो दिए थे, मगर ऐसे जैसे वह कोई एहसान कर रहा हो. पहली बार सौम्या को लगा कि शायद विवेक

को अपना डैबिट कार्ड दे कर उस ने गलती कर दी है.

मगर घर जा कर सौम्या मौजमस्ती में सब भूल गई. सौम्या अपने पापा की लाड़ली थी, इसलिए जब वह वापस आई तो उस का पर्स

नोटों से भरा था. कुछ दिनों तक जब तक सौम्या का पर्स नोटों से भरा हुआ रहा, यह बात आईगई हो गई थी. फिर अगले महीने जब सौम्या को पार्लर जाना हुआ तो उस ने विवेक से पैसे मांगे, तो विवेक ने क्व1 हजार पकड़ा दिए.

सौम्या ठुनकते हुए बोली, ‘‘यार इतने पैसों में तो कुछ भी नहीं होगा.’’

‘‘कोई भी फेशियल क्व1,200 से नीचे नहीं है और फिर मुझे वैक्सिंग, आईब्रोज, ब्लीच भी कराना है और मैं तो बालों को हाईलाइट कराने की भी सोच रही थी.’’

इस से पहले कि विवेक कुछ बोलता, सौम्या की सास कल्पना बोल पड़ीं, ‘‘अरे मेरा सौम्या बेटा वैसे ही इतना सुंदर है… पार्लर जा कर अपनी नैसर्गिक खूबसूरती को खत्म मत करो.’’

सौम्या ने विवेक की तरफ देखा तो वह बोला, ‘‘बस आईब्रोज और थोड़ा हेयर ट्रिम करा लो और बाकी पैसे तुम्हारे.’’

सौम्या को कुछ समझ नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करे. अत: वह चुपचाप पार्लर चली गई और थोड़ा सा काम करा कर, मार्केट चली गई. वेस्ट साइड पर बेहद खूबसूरत कुरते आए हुए थे. एक कुरते को देख कर सौम्या की नजर ठहर गई. ग्रे कुरते पर लाल फूल थे और लाल फूलों वाला प्लाजो व लाल और ग्रे रंग का दुपट्टा.

जब सौम्या ने रेट देखा तो क्व1,500 का टैग देख कर उस ने ठंडी आह भरी.

घर वापस आ कर जब सौम्या ने विवेक को सूट के बारे में बताया तो वह बोला, ‘‘तुम्हारी इसी फुजूलखर्ची को रोकने के लिए तुम्हारा डैबिट कार्ड मैं ने अपने पास रखा है.’’

कल्पना भी मीठी मुसकान बिखेरते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, शादी के बाद तेरामेरा कुछ नहीं होता बस हमारा होता है. मेरी सारी साडि़यां तुम्हारी हैं… औफिस में बदलबदल कर पहना करो.’’

सौम्या मन मसोस कर रह गई. वह कैसे कहे कि वह इतनी चमकदमक के कपड़े पहनना पसंद नहीं करती है.

एक दिन सौम्या ने अपनी मम्मी से जब अपने डैबिट कार्ड के बारे में बात करी तो वे

बोलीं, ‘‘अरे तो क्या विवेक तुम्हें ऐब्यूज करता है? तुम्हें किसी चीज की कमी है क्या?’’

सौम्या ने कहा, ‘‘मम्मी बात मेरी फ्रीडम की है… मेरे पैसे हैं जैसे चाहे वैसे खर्च करूं.’’

मम्मी बोलीं, ‘‘तेरी इसी फुजूलखर्ची के कारण विवेक ने यह किया होगा.’’

सौम्या को लगने लगा था कि शायद वही गलत है, विवेक सही है. मगर रोज उसे विवेक के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता था. जब कभी भी वह विवेक से अपने डैबिट कार्ड को वापस करने को बोलती तो वह हमेशा कहता, ‘‘अगर मैं गलत कर रहा होता तो तुम्हारे मम्मीपापा क्या ऐसा होने देते?’’

मगर सौम्या को यह गुलामी वाला जीवन रास नहीं आ रहा था.

आज शुक्रवार है. सौम्या की पूरी टीम का बाहर शौपिंग और मस्ती करने का इरादा था. जयति ने सौम्या से पूछा, ‘‘चलोगी न तुम भी?’’

‘‘हां चलूंगी मगर आज मैं अपना वालेट घर भूल गई हूं’’ सौम्या ने कहा.

जयति खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘अरे तो क्या मुश्किल है, मेरा कार्ड स्वाइप कर लेना.’’

उस दिन सौम्या ने खूब मजा किया. तय था कि सारा खर्च बराबर बांट लेंगे. सौम्या के हिस्से में क्व2 हजार खानेपीने का खर्च था और सौम्या ने क्व2 हजार की एक ड्रैस भी ले ली थी.

जब सौम्या रात को 11 बजे घर लौटी तो पूरा घर सो चुका था. विवेक सौम्या को देख कर बोला, ‘‘यह क्या तुम ने शराब पी रखी है?’’

सौम्या हंसते हुए बोली, ‘‘अरे यार भूल गए क्या पहले भी तो मैं तुम्हारे साथ हर फ्राइडे नाइट ऐसे ही पीती थी?’’

‘‘हां पर यार तब की बात और थी,’’

विवेक बोला.

‘‘अब हम शादीशुदा हैं… हम पर घर की जिम्मेदारिया हैं. तुम्हारी इसी फुजूलखर्ची के कारण मैं तुम्हारा डैबिट कार्ड नहीं देता हूं.’’

सौम्या बोली, ‘‘पर मैं ने तो जयति से ले कर क्व4 हजार खर्च कर दिए हैं आज.’’

विवेक गुस्से में बोला, ‘‘क्या जरूरत थी? जयति जैसी औरतों के आगेपीछे कोई नहीं है. उन्हें तो तितली बन कर उड़ने का शौक होता है ताकि नया शिकार फंसा सकें.’’

सौम्या को विवेक का जयति के बारे में ऐसा बोलना बिलकुल अच्छा नहीं लगा.

सोमवार को पूरा दिन सौम्या जयति से नजरें चुराती रही. सौम्या को ऐसे पाईपाई का मुहताज होना अच्छा नहीं लग रहा था.

सौम्या रोज विवेक से जयति को देने के लिए पैसे मांगती, विवेक रोज उसे एक लंबाचौड़ा लैक्चर देता. मगर आज जब सौम्या ने देखा कि विवेक उस के ही डैबिट कार्ड से अपने लिए शौपिंग कर रहा है तो उसे उस के दोगलेपन पर बहुत गुस्सा आया.

सौम्या ने जयति को पूरी बात बता दी. जयति बोली, ‘‘यार तुम इतना सब सह ही क्यों रही हो. आज मेरे साथ बैंक चलना और नए डैबिट कार्ड के लिए अप्लाई कर देना.’’

सौम्या बोली, ‘‘मगर क्या यह ठीक रहेगा?’’

‘‘अरे यह ठीकगलत नहीं बल्कि तुम्हारा मौलिक अधिकार है,’’ जयति बोली.

सौम्या ने जयति के साथ बैंक जा कर नए डैबिट कार्ड के लिए ऐप्लिकेशन दे दी.

अगले दिन जब सौम्या दफ्तर से आई तो विवेक गुस्से में बोला, ‘‘क्या तुम ने अपना डैबिट कार्ड ब्लौक करवाया है?’’

सौम्या बिना डरे बोली, ‘‘हां क्योंकि मैं अपनी कमाई को अपने तरीके से खर्च करना चाहती हूं.’’

विवेक की मम्मी कल्पना बोलीं, ‘‘किस चीज की कमी है तुम्हें सौम्या? विवेक तभी मैं ऐसी तेज लड़की के खिलाफ थी.’’

‘‘सौम्या मैं ने अपने परिवार वालों को बड़ी मुश्किल से मनाया था,’’ विवेक बोला, ‘‘बस इतना ही विश्वास है तुम्हें मुझ पर?’’

सौम्या बोली, ‘‘चलो अगर अपना डैबिट कार्ड दे कर ही विश्वास को जीत सकते हैं, तो तुम अपना डैबिट कार्ड दे दो, मैं अपना तुम्हें दे दूंगी.’’

विवेक पैर पटकते हुए अंदर चला गया और फिर पूरे घर ने सौम्या से बोलना छोड़ दिया. सौम्या के घर वालों को भी सौम्या की गलती लग रही थी.

सौम्या से जब और अधिक सहन नहीं

हुआ तो वह जयति के साथ रहने चली गई. जयति 35 वर्षीय तलाकशुदा महिला थी जो जिंदगी अपनी शर्तों पर जीती थी.

सौम्या को अपना नया डैबिट कार्ड मिल गया था. सब से पहले उस ने जयति के पैसे लौटाए और फिर जयति को डिनर पर ले गई.

विवेक वहां अपने क्लाइंट के साथ पहले से बैठा था. सौम्या को जयति के साथ देख कर उस के तनबदन में आग लग गई और सौम्या

के पास आ कर बोला, ‘‘इसी सैरसपाटे के लिए तुम्हें कार्ड चाहिए था. अभी भी समय है आंखें खोलो नहीं तो तुम भी जयति जैसी कैटेगरी में

आ जाओगी.’’

सौम्या चुपचाप सुनती रही और विवेक के जाने के बाद रोने लगी.

जयति समझते हुए बोली, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम वापस वही गुलामी वाला जीवन जी सकती हो? यदि हां तो बेशक वापस चली जाओ.’’

सौम्या रोआंसी आवाज में बोली, ‘‘मैं विवेक को क्या समझती थी और वह कैसा है.’’

जयति ने कहा, ‘‘खुद को खो कर अगर

तुम विवेक को पाना चाहती हो, तो आज ही

चली जाओ. मगर अपने लिए खुश होना है

तो कुछ असुविधा जरूर होगी, मगर परिणाम सुखद होगा.’’

सौम्या को विवेक ने पहले डरायाधमकाया मगर जब बात नहीं बनी तो उस ने

फिर से बहलायाफुसलाया मगर जब सौम्या टस से मस नहीं हुई तो विवेक भी डर गया.

विवेक भी अपनी शादी को एक डैबिट कार्ड के कारण दांव पर लगाना नहीं चाहता था. एक आम पति की तरह वह सौम्या की हर चीज पर अपना हक समझता था, मगर वह ऐसा करतेकरते भूल गया था कि वह सौम्या के मौलिक अधिकार का हनन कर रहा है.

विवेक ने सौम्या को फ्राइडे की रात फोन कर के डिनर के लिए बुलाया. सौम्या जब पहुंची तो विवेक पहले से ही वहां बैठा उस की प्रतीक्षा कर रहा था.

विवेक सौम्या से बोला, ‘‘सौम्या आई एम सौरी, मैं शादी के बाद अपनी सीमारेखा भूल गया था. सच पूछो तो जब तुम ने मुझे अपना डैबिट कार्ड खुद ही दे दिया था तो मुझे लगा कि शायद मैं तुम्हारी पूरी जिंदगी को अपने हिसाब से

कंट्रोल कर सकता हूं. बिना मेहनत करे तुम्हारे डैबिट कार्ड से पैसे निकलवाने में मुझे मजा आने लगा था. मगर मैं गलत था यह मुझे एहसास हो गया है.’’

सौम्या बोली, ‘‘इस के लिए हमें जयति का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिस ने मुझे मेरे हक के लिए खड़ा होना सिखाया वरना मैं तो समझ रही थी कि तुम से अपनी कमाई पर अपना हक मांग कर मैं कुछ गलत कर रही हूं.’’

तभी वेटर बिल ले कर आया तो विवेक बोला, ‘‘मैडम क्या आप आज इस बिल को स्पौंसर करना पसंद करेंगी.’’

सौम्या ने मुसकराता हुए अपना डैबिट कार्ड स्वाइप कर दिया. Family Story

Moral Story: आलिया- क्या हुआ था आलिया को एहसास

Moral Story: अगर कोई कुछ सीखना चाहता है तो वह इन्हीं अच्छेबुरे लोगों के बीच रह कर ही सीख सकता है. अगर कोई आगे बढ़ना चाहता है तो उसे इन्हीं लोगों के साथ ही आगे चलना होगा.

लेकिन उन लोगों का क्या, जिन्होंने यह दुनिया जी ही नहीं? ऐसे लोग जो अपने ख्वाबों में अपनी एक अलग दुनिया जीते हैं. वे किताबों, घर के बनाए उसूलों और टैलीविजन देख कर ही पूरी जिंदगी गुजार देते हैं.

ऐसे ही लोगों में से एक है आलिया. वह 12वीं क्लास में पढ़ती है. देखने में होशियार लगती है. और है भी, लेकिन उस ने अपना दिमाग सिर्फ किताब के कुछ पन्नों तक ही सिमटा रखा है. 12वीं क्लास में होने के बावजूद उस ने आज तक बाजार से अपनेआप एक पैन नहीं खरीदा है. वह छोटे बच्चों की तरह लंच बौक्स ले कर स्कूल जाती है और अपने पास 100 रुपए से ज्यादा जेबखर्च नहीं रखती है.

आलिया के पास आर्ट स्ट्रीम है और स्कूल में उस की एक ही दोस्त है हिना, जो साइंस स्ट्रीम में पढ़ती है. दोनों का एक सब्जैक्ट कौमन है, इसलिए वे दोनों उस एक सब्जैक्ट की क्लास में मिलती हैं और लंच बे्रक साथ ही गुजारती हैं.

आलिया को लगता है कि अगर कोई बच्चा 100 रुपए से ज्यादा स्कूल में लाता है तो वह बिगड़ा हुआ है. पार्टी करना, गपें मारना और किसी की खिंचाई करना गुनाह के बराबर है.

अगर कोई लड़की स्कूल में बाल खोल कर और मोटा काजल लगा कर आती है और लड़कों से बिंदास बात करती है तो वह उस के लिए बहुत मौडर्न है.

सच तो यह है कि आलिया बनना तो उन के जैसा ही चाहती है, पर चाह कर भी ऐसा बन ही नहीं पाती है. क्लास के आधे से ज्यादा बच्चों से उस ने आज तक बात नहीं की है.

एक बार रोहन ने आलिया से पूछा, ‘‘आलिया, क्या तुम हमारे साथ पार्टी में चलोगी? श्वेता अपने फार्महाउस पर पार्टी दे रही है.’’

आलिया का मन तो हुआ जाने का, पर उसे यह सब ठीक नहीं लगा. उस ने सोचा कि इतनी दूर फार्महाउस पर वह अकेली कैसे जाएगी.

‘‘नहीं, मैं नहीं आऊंगी. वह जगह बहुत दूर है,’’ आलिया बोली.

‘‘तो क्या हुआ. हम तुम्हें अपने साथ ले लेंगे. तुम कहां रहती हो, हमें जगह बता दो,’’ श्वेता ने भी साथ चलने के लिए कहा.

‘‘नहीं, मैं वहां नहीं जा पाऊंगी,’’ आलिया ने साफ लहजे में कहा.

‘‘बाय आलिया,’’ छुट्टी के वक्त रोहन ने आलिया से कहा.

आलिया सोचने लगी कि आज वह इतनी बातें क्यों कर रही है. वह रोहन की बात को अनसुना करते हुए आगे निकल गई.

रोहन को लगा कि वह बहुत घमंडी है. इस के बाद उस ने कभी आलिया से बात नहीं की.

अगले दिन आलिया को लंच ब्रेक में हिना मिली. अरे, हिना के बारे में तो बताया ही नहीं. वह आलिया की तरह भीगी बिल्ली नहीं है, बल्कि बहुत बिंदास और मस्त लड़की है. लेकिन अलग मिजाज होने के बावजूद दोस्ती हो ही जाती है. हिना की भी अपनी क्लास में ज्यादा किसी से बनती नहीं थी. इसी वजह से वे दोनों दोस्त बन गईं.

हिना को आलिया इसलिए पसंद थी, क्योंकि वह ज्यादा फालतू बात नहीं करती थी और कभी भी हिना की बात नहीं काटती थी. आलिया को कभी पता ही नहीं चलता था कि कौन किस तरह की बात कर रहा है.

बचपन से ले कर स्कूल के आखिरी साल तक आलिया सिर्फ स्कूल पढ़ने जाती है. बाकी बच्चे कैसे रहते हैं और कैसे पढ़ते हैं, इस पर उस ने कभी ध्यान ही नहीं दिया. अपनी 17 साल की जिंदगी में वह इतना कम बोली है कि शायद बात करना ही भूल गई है. उस की जिंदगी के बारे में जितना बताओ, उस से कहीं ज्यादा अजीब है.

हां, तो हम कहां थे. अगले दिन आलिया लंच ब्रेक में हिना से मिली और रोहन के बारे में बताया.

‘‘आलिया, सिर्फ ‘बाय’ कहने से कोई तुम्हें खा नहीं जाएगा. अगर बच्चे पार्टी नहीं करेंगे, तो क्या 80 साल के बूढ़े करेंगे. वैसे, कर तो वे भी सकते हैं, पर इस उम्र में पार्टी करने का ज्यादा मजा है. स्कूल में हम सब पढ़ने आते हैं, पर यों अकेले तो नहीं रह सकते हैं न. बेजान किताबों के साथ तो बिलकुल नहीं.

‘‘खुद को बदलो आलिया, इस से पहले कि वक्त हाथ से निकल जाए. क्या पता कल तुम्हें उस से काम पड़ जाए, पर अब तो वह तुम से बात भी नहीं करेगा. तू एवरेज स्टूडैंट है, पर दिनभर पढ़ती रहती है और तेरी क्लासमेट पूजा जो टौपर है, वह कितना ऐक्स्ट्रा करिकुलर ऐक्टिविटीज में हिस्सा लेती है. इतने सारे दोस्त हैं उस के.

‘‘टौपर वही होता है, जो दिमागी और जिस्मानी तौर पर मजबूत होता है. जो सिर्फ पढ़ाई ही नहीं करता, बल्कि जिंदगी को भी ऐंजौय करता है.’’

‘‘अच्छा ठीक है. अब लैक्चर देना बंद कर,’’ आलिया ने कहा.

‘‘तू फेसबुक पर कब आएगी? मुझे अपनी कजिन की शादी की पिक्स दिखानी हैं तुझे,’’ हिना ने कहा.

‘‘मेरे यहां इंटरनैट नहीं है. फोटो बन जाएं तब दिखा देना.’’

‘‘ठीक है देवीजी, आप के लिए यह भी कर देंगे,’’ हिना ने मजाक में कहा.

लंच ब्रेक खत्म हो गया और वे दोनों अपनीअपनी क्लास में चली गईं.

‘‘मम्मी, पापा या भाई से कह कर घर में इंटरनैट लगवा दो न.’’

‘‘भाई तो तेरा बाहर ही इंटरनैट इस्तेमाल कर लेता है और पापा से बात की थी. वे कह रहे थे कि कुछ काम नहीं होगा, सिर्फ बातें ही बनाएंगे बच्चे.’’

‘‘तो आप ने पापा को बताया नहीं कि भाई तो बाहर भी इंटरनैट चला लेते हैं और मुझे उस का कखग तक नहीं आता है. मेरे स्कूल में सारे बच्चे इंटरनैट इस्तेमाल करते हैं,’’ आलिया ने थोड़ा गुस्सा हो कर कहा.

‘‘अच्छा, अब ज्यादा उलटीसीधी जिद न कर. पता नहीं, किन जाहिलों में रह रही है. बात करने की तमीज नहीं है तुझे. इतना चिल्लाई क्यों तू?’’ मां ने डांटते हुए कहा.

आलिया अकेले में सोचने लगी कि भाई तो बाहर भी चला जाता है. उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होती और वह घर में ही रहती है, फिर भी भिखारियों की तरह हर चीज मांगनी पड़ती है.

कुछ पेड़ हर तरह का मौसम सह लेते हैं और कुछ बदलते मौसम का शिकार हो जाते हैं. आलिया ऐसे ही बदलते मौसम का शिकार थी.

आलिया का परिवार सहारनपुर से है. उस की चचेरी और ममेरी बहनें हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ती हैं. 12वीं क्लास के बाद ही ज्यादातर सब की शादी हो जाती है. दिल्ली में रहने के बाद भी आलिया नहीं बदली. जब वह छोटी थी तब उस के सारे काम भाई और मम्मी ही करते थे.

वे जितना प्यार करते थे, उतनी ही उस पर पाबंदी भी रखते थे. दिल्ली में एक अच्छे स्कूल में होने की वजह से उसे पढ़ाई का बढि़या माहौल मिला, पर स्कूल के दूसरे बच्चों के घर के माहौल में और उस के घर के माहौल में जमीनआसमान का फर्क था.

आलिया स्कूल से घर दोपहर के 3 बजे आती है, फिर खाना खाती है, ट्यूशन पढ़ती है. रात में थोड़ा टीवी देखने के बाद 10 या 11 बजे तक पढ़ कर सो जाती है. उस के घर के आसपास कोई उस का दोस्त नहीं है और उस के स्कूल का भी कोई बच्चा वहां नहीं रहता है.

कुछ दिनों के बाद स्कूल के 12वीं क्लास के बच्चों की फेयरवैल पार्टी थी. आलिया भी जाना चाहती थी, पर भाई और पापा काम की वजह से उसे ले कर नहीं गए और अकेली वह जा नहीं सकती थी. न घर वाले इस के लिए तैयार थे, न उस में इतनी हिम्मत थी.

12वीं क्लास के एग्जाम हो गए. पास होने के बाद हिना और आलिया का अलगअलग कालेज में दाखिला हो गया. आलिया की आगे की कहानी क्या है. जो हाल स्कूल का था, वही हाल कालेज का भी था. घर से कालेज और कालेज से घर. पूरे 3 साल में बस 2-3 दोस्त ही बन पाए.

बाद में आलिया ने एमबीए का एंट्रैस एग्जाम दिया, पर पापा के कहने पर बीएड में एडमिशन ले लिया. उस के पापा को प्राइवेट कंपनी में जौब तो करानी नहीं थी, इसलिए यही ठीक लगा.

बीएड के बाद आलिया का रिश्ता पक्का हो गया. नवंबर में उस की शादी है.

एक बात तो बतानी रह गई. 12वीं क्लास के बाद उस ने अपना फेसबुक अकाउंट बना लिया था. जैसेतैसे घर पर इंटरनैट लग गया था. एक दिन उस ने फेसबुक खोला तो हिना का स्टेटस मिला कि उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई है.

आलिया ने फिर हिना के फोटो देखे और दूसरे क्लासमेट के भी. सभी अपने दोस्तों के साथ किसी कैफे में तो किसी फंक्शन के फोटो डालते रहते हैं. सभी इतने खुश नजर आते हैं.

अचानक आलिया को एहसास हुआ कि सभी अपनी जिंदगी की छोटीबड़ी यादें साथ रखते हैं. सभी जितना है, उसे और अच्छा बनाने की कोशिश करते हैं. स्कूल टाइम से अब तक सब कितने बदल गए हैं. कितने अच्छे लगने लगे हैं.

सभी काफी खुश लगते हैं और वह… आलिया को एहसास हुआ कि उस ने कभी जिंदगी जी ही नहीं. स्कूल या कालेज की एक भी तसवीर उस के पास नहीं है. शादी के बाद जिंदगी न जाने कौन सा रंग ले ले, पर जिसे वह अपने हिसाब से रंग सकती थी, वह सब उस ने मांबाप के डर और अकेलेपन से खो दिया.

वह दिन भी आ गया, जब आलिया की शादी हुई. हिना भी उस की शादी में आई थी. विदाई के वक्त आलिया की आंखों में शायद इस बात के आंसू थे कि वह जिस वक्त को बिना डरे खुशी से जी सकती थी, उसे किताबों के पन्नों में उलझा कर खत्म कर दिया. जो वक्त बीत गया है, उस में कोई कमी नहीं थी, पर आने वाला वक्त उसे नापतोल कर बिताना होगा. Moral Story

लेखिका- असफिया खान

Bollywood Romantic Movies: फिल्मों में प्यार का नया अंदाज

Bollywood Romantic Movies: रोमांटिक फिल्में हमेशा बनती रही हैं, जिन में प्यार के अनेक रंगों को अलगअलग तरीके से प्रस्तुत किया जाता है. फिर चाहे प्रेमियों का प्यार की खातिर जान देने की बात हो, एकतरफा प्यार हो, प्यार में धोखा मिलने पर बदला लेने वाले आशिक का प्यार हो, मानसिक तौर पर बीमार प्यार करने वाले साइको आशिक का प्यार ही क्यों न हो, अब तक की रोमांटिक फिल्मों में मेकर्स ने अपनी कहानी के जरीए हर तरह का प्यार दर्शाने की कोशिश की है, जो काफी हद तक सफल भी रही है.

एक दौर वह भी था

रोमांटिक फिल्मों का एक दौर एक वह भी था जिस में दादा मुनि अर्थात अशोक कुमार हुआ करते थे और एक ही झाड़ पर चिपके हुए पूरा रोमांटिक गाना फिल्मा लेते थे जैसे ‘प्रेम नगर की डागरिया में…’

इस के बाद शम्मी कपूर और देवानंद की रोमांटिक फिल्मों का दौर आया, जिन की फिल्मों के गाने आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं, लेकिन उस दौरान रोमांटिक फिल्मों में हीरो इतना उछलकूद मचाते थे कि हीरोइन भी घबरा जाती थी जैसे शम्मी कपूर का गाना ‘तारीफ करूं क्या उस की…’ या ‘बदन पर सितारे लपेटे हुए…’ गानों में शम्मी कपूर के इतने लटकेझटके होते थे कि उन के साथ वाली हीरोइन घबरा जाती थी कि पता नहीं अब अगला स्टेप क्या होने वाला है.

दर्शकों की पसंद

इसी तरह देवानंद जो हमेशा हिलतेडुलते रहते थे, उन की रोमांटिक फिल्में दर्शकों को आज भी रोमांचित कर देती हैं. देवानंद पर फिल्माया गाना ‘अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं…’ आज भी कई प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं को रिझाने के लिए गाते हैं. इसी तरह दिलीप कुमार रोमांटिक फिल्मों के लिए जाने जाते हैं.

एक दौर वह भी आया जब साउथ के ऐक्टर कमल हसन और अरविंद स्वामी ने ‘एकदूजे के लिए’ और ‘रोजा, ‘बांबे’ जैसी रोमांटिक फिल्मों के जरीए दर्शकों को प्यार का पाठ पढ़ाया.

फिल्म ‘एकदूजे के लिए’ देखने के बाद कुछ पागल प्रेमियों ने आत्महत्या तक करने की कोशिश की जिस के बाद फिल्म का क्लाइमैक्स बदलना पड़ा था.

खान हीरोज का जलवा

रोमांटिक फिल्मों में खान हीरोज का जबरदस्त योगदान रहा है. सलमान खान की रोमांटिक फिल्म ‘मैं ने प्यार किया’, ‘हम आप के हैं कौन’, ‘तेरे नाम’ आदि फिल्मों ने दर्शकों के दिलों में ऐसी छाप छोड़ी कि आज भी सलमान खान को बतौर रोमांटिक हीरो दर्शक देखना चाहते हैं, खासतौर पर हर उम्र की लड़कियां सलमान खान की दीवानी हैं.

रोमांस किंग

इसी तरह रोमांस के किंग कहलाए जाने वाले शाहरुख खान की रोमांटिक फिल्में ‘कुछकुछ होता है’, ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’ और ‘दीवाना’ फिल्म ने सब को शाहरुख खान का आज भी दीवाना बना रखा है.

परफैक्शनिस्ट कहलाने वाले आमिर खान ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘कयामत से कयामत तक’, ‘इश्क’, ‘फना’ आदि रोमांटिक फिल्मों की वजह से आज भी रोमांस के किंग कहलाते हैं.

रोमांटिक फिल्मों की खास बात

रोमांटिक फिल्में वही सफल होती हैं, जो दर्शकों को पूरे दिल से कनैक्ट कर पाती हैं. हाल ही में रिलीज फिल्म ‘सैयारा’ जिस में दोनों कलाकार नए हैं लेकिन डाइरैक्टर मोहित सूरी जो इंटेंस लव स्टोरी बनाने के लिए जाने जाते हैं और जिन को खासतौर पर रोमांटिक फिल्मों को ले कर खास जानकारी है कि कौन सी प्रेम कहानी दर्शकों के दिल को झंझोड़ सकती है, यह बात मोहित सूरी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, जिस के चलते जहां उन्होंने ‘आशिक 2’ बना कर दर्शकों को पूरी तरह रुला दिया था, वहीं ‘सैयारा’ के जरीए डाइरैक्टर मोहित सूरी ने न्यू जैनरेशन की नस पकड़ ली.

बेहतरीन प्रेम कहानी के साथ नए कलाकार अहान पांडे और अनीता पड्डा से उन्होंने इतना बेहतरीन काम करवाया कि यह रोमांटिक इमोशनल फिल्म देखने के बाद खासतौर पर युवा दर्शक पागल की तरह ही हो गए. कई बेहोश हो गए तो कई दर्शक रोरो कर थिएटर से बाहर निकले.

कहने का मतलब यह है कि प्यार कल भी था और आज भी है, जो हर किसी को कभी न कभी किसी न किसी से होता जरूर है. और वे रोमांटिक फिल्में जो दिल के पुराने तार छेड़ने में कामयाब हो जाती हैं बौक्स औफिस पर सफलता के झंडे फहराने में कामयाब हो जाती हैं.

नवोदित ऐक्टरों के साथ बनी ‘सैयारा’ ने महज 6 दिन में ₹200 करोड़ का कलैक्शन कर के रोमांटिक फिल्मों की इतिहास में एक नया रिकौर्ड कायम कर दिया.

Vaani Kapoor: दुबले होने पर सुनने पड़े थे ताने

Vaani Kapoor: 36 वर्षीय मौडल व ऐक्ट्रैस वाणी कपूर ने अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत यशराज की फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ से की. फिल्मों में आने से पहले वाणी कपूर को रंग और बहुत ज्यादा पतले होने की वजह से बौडी शेमिंग का शिकार होना पड़ा था.लेकिन वाणी ने हार नहीं मानी और ‘बेफिक्र’, ‘रेड 2’, ‘बेलबौटम’, ‘खेलखेल’ आदि फिल्मों में मुख्य भूमिका निभाने के बाद ओटीटी पर वैबसीरीज सीरीज में भी काम की शुरुआत की.

क्राइम थ्रिलर

नेटफ्लिक्स और वाईआरएफ ऐंटरटेनमैंट की बहुप्रतीक्षित माइथोलौजिकल क्राइम थ्रिलर वैबसीरीज ‘मंडला मर्डर्स’ का प्रीमियर 25 जुलाई, 2025 को हो चुका है. यह सीरीज न केवल अपनी अनूठी शैली के लिए चर्चा में है, बल्कि इसलिए भी खास है क्योंकि इस के साथ वाणी कपूर डिजिटल डैब्यू कर रही हैं.

खास है यह शो

यह शो वाणी के लिए इसलिए भी बेहद खास है क्योंकि इस में वे पहली बार निर्देशक गोपी पुथरन के साथ काम कर रही हैं, जिन के निर्देशन में बनी ‘मर्दानी’ फ्रैंचाइजी को आलोचकों और दर्शकों दोनों ने खूब सराहा है.

वाणी कपूर ने अनुभव साझा करते हुए कहा,”गोपी के साथ ‘मंडला मर्डर्स में काम करना एक मास्टर क्लास जैसा है. वे जिस तरह से यथार्थवाद और मनोवैज्ञानिक गहराई को एकसाथ पिरोते हैं, वह हर दृश्य को एक बहुपरतीय अनुभव बना देता है. उन के साथ काम करना सिर्फ प्रेरणादायक नहीं, बल्कि एक ऐसी यात्रा है जो क्राइम थ्रिलर की परिभाषा ही बदल देती है.”

उन्होंने आगे कहा,”गोपीजी की सब से खास बात है उन की प्रामाणिकता के प्रति प्रतिबद्धता. वे हर कलाकार से यह अपेक्षा करते हैं कि वह अपने किरदार की अदृश्य परतों को तलाशे. यह प्रक्रिया चुनौतीपूर्ण है, लेकिन उस से भी ज्यादा संतोषजनक उन के साथ यह रचनात्मक यात्रा मेरे लिए अभूतपूर्व है और व्यक्तिगत रूप से बेहद परिवर्तनकारी रही है.”

रहस्यमयी किरदार

‘मंडला मर्डर्स’ नेटफ्लिक्स और यशराज फिल्म्स की संयुक्त साझेदारी का दूसरा प्रोजैक्ट है, जिस का आगाज वर्ष 2023 में आई हिट सीरीज ‘द रेलवे मैन’ से हुआ था.

इस सीरीज में वाणी कपूर के साथ वैभव राज गुप्ता, सुरवीन चावला और श्रिया पिलगांवकर जैसे दमदार कलाकार रहस्यमयी किरदारों में दिखाई देंगे.

गोपी पुथरन द्वारा निर्देशित यह सीरीज मिथकीय प्रतीकों, गहन मनोविज्ञान और अपराध की परतों से बुनी गई एक नई शैली की शुरुआत मानी जा रही है. मनन रावत इस शो के सह निर्देशक हैं और इस का निर्माण वाईआरएफ ऐंटरटेनमैंट ने किया है. Vaani Kapoor

Sad Story in Hindi: दर्द- जोया ने क्यों किया रिश्ते से इनकार

Sad Story in Hindi: ‘‘तुम अभी तक गई नहीं हो…’’ छोटी बहन हया ने हैरान हो कर जोया से पूछा.

‘‘कहां…?’’ जोया ने भी हैरान होते हुए कहा.

‘‘आजर भाई को अस्पताल में देखने,’’ हया ने कहा.

‘‘मैं क्यों जाऊं…’’ जोया ने लापरवाही से कहा.

‘‘घर के सब लोग जा चुके हैं, लेकिन तुम हो कि अभी तक नहीं गईं… आखिर वे तुम्हारे मंगेतर हैं…’’

‘‘मंगेतर… मंगेतर था… लेकिन अब नहीं. एक अपाहिज मेरा मंगेतर नहीं हो सकता. मु झे उस की बैसाखी नहीं बनना,’’ जोया आईने के सामने खड़ी अपने बाल संवार रही थी और छोटी बहन हया के सवालों के जवाब लापरवाही से दे रही थी.

जब बाल सैट हो गए तो जोया ने खुद को आईने में नीचे से ऊपर तक देखा और पर्स नचाते हुए दरवाजे से बाहर निकल गई.

आजर के यहां का दस्तूर था कि रिश्ते आपस में ही हुआ करते थे और शायद इसी रिवाज को जिंदा रखने के लिए मांबाप ने बचपन में ही उस का रिश्ता उस के चाचा की बेटी जोया से तय कर दिया था.

आजर कम बोलने वाला सुलझा हुआ लड़का था और जोया को उसकी मां के बेजा लड़ाप्यार ने जिद्दी बना दिया था.

शायद यही वजह थी कि बचपन में दोनों साथ खेलतेखेलते  झगड़ने लगते थे. जो खिलौना आजर के हाथ में होता, जोया उसे लेने की जिद करती और

जब तक आजर उसे दे नहीं देता, वह चुप न होती.

उस दिन तो हद ही हो गई थी. आजर पुरानी कौपी का कवर लिए हुए था. कवर पर कोई तसवीर बनी थी. शायद उसे पसंद थी.

जोया की नजर उस कवर पर पड़ गई. वह चिल्लाने लगी. ‘यह मेरा है… इसे मैं लूंगी…’’

आजर भी बच्चा था. बजाय उसे देने के दोनों हाथ पीछे कर के छिपा लिया. वह चीखती रही, चिल्लाती रही… यहां तक कि बड़े लोग भी वहां आ गए.

‘तोबा… कागज के टुकड़े के लिए जिद कर रही है… अभी अगर यह आजर के हाथ में न होता तो रद्दी होता… क्या लड़की है. कयामत बरपा कर दी इस ने तो…’ बड़ी अम्मी बड़बड़ाई थीं.

यों ही लड़ते झगड़ते दोनों बड़े हो गए और बचपन पीछे छूट गया. दोनों उम्र के उस मुकाम पर थे, जहां जागती आंखें ख्वाब देखने लगती हैं और जब आजर ने जोया की आंखों में देखा तो हया की लाली उतर आई… नजर अपनेआप  झुकती चली गई. शायद उसे मंगेतर का मतलब सम झ आ गया था. अब वह आजर की इज्जत करती… उस की बातों में शरीक होती… उस के नाम पर हंसती… घर वालों को इतमीनान हो गया था कि चलो, सबकुछ ठीक हो गया है.

बड़ी अम्मी इन दिनों मायके गई हुई थीं और जब लौटीं तो उन के साथ एक दुबलीपतली सी लड़की सना थी, जिस की मां बचपन में गुजर चुकी थी. बाप ने दूसरी शादी कर ली थी… अब उस के भी 4 बच्चे थे… बेचारी कोल्हू के बैल की तरह लगी रहती.

दादा से पोती की हालत देखी न जाती. दादा बड़ी अम्मी के रिश्ते के चाचा थे… जब बड़ी अम्मी उन से मिलने गईं तो पोती का दुखड़ा ले कर बैठ गए. ‘किसी की मां न मरे…’ बड़ी अम्मी ने ठंडी सांस ली, ‘पर, आप इसे हमारे साथ भेज दीजिए,’ बड़ी अम्मी ने कुछ सोच कर कहा था.

अंधा क्या चाहे दो आंखें… वे खुशीखुशी राजी हो गए. लेकिन बहू का खयाल आते ही उन की सारी खुशी काफूर हो गई. वह न जाने देगी और जब नजर उठाई तो वह दरवाजे पर खड़ी थी. उस ने सारी बातें सुन ली थीं.

बड़ी अम्मी कब हारने वाली थीं. उन्होंने अपने तरकश से एक तीर छोड़ा… जो सही निशाने पर जा बैठा. उन्होंने हर महीने कुछ रकम भेजने का वादा किया और उसे ले आईं.

सना ने आते ही पूरा घर संभाल लिया था. इतना काम उस के लिए कुछ भी नहीं था. वह आंखें बंद कर के कर लेती और उसे सौतेली मां के जुल्मों से भी नजात मिल गई थी. वह यहां आ कर खुश थी.

अगर कभी घर में गैस खत्म हो जाती तो लकडि़यों के चूल्हे पर सेंकी हुई सुर्खसुर्ख रोटियां और धीमीधीमी आंच पर दम की हुई हांड़ी से निकलती खुशबू फैलती तो भूख अपनेआप लग जाती.

चाची की तरफ मातम बरपा होता, ‘अरे, गैस खत्म हो गई. अब क्या करें…  भाभी सिलैंडर वाला आया क्या…’ फिर बाजार से पार्सल आते, तब जा कर खाना मिलता.

और अगर कभी मिर्ची पाउडर खत्म हो जाता, तो सना खड़ी मिर्च निकाल लेती और उन्हें सिलबट्टे पर पीस कर खाना तैयार कर देती. सालन देख कर अम्मी को पता चलता था कि मिर्ची खत्म हो गई है.

और चाची की तरफ ऐसा होता तो जोया कहती, ‘न बाबा न, मेरे हाथ में जलन होने लगती है. हया, तुम इसे पीस लो.’ हया भी साफ मना कर देती.

सना तुम कौन हो… कहां से आई हो… सादगी की मूरत… जिंदगी की आइडियल सना… तुम्हारी किन लफ्जों में तारीफ करूं…

यह सुन कर आजर का दिल बिछबिछ जाता… फिर उसे जोया का खयाल आता… वह तो उस का मंगतेर है. कल को उस की उस से शादी हो जाएगी, फिर यह कशिश क्यों? वह सना की तरफ क्यों खिंचा जा रहा है? अकसर तनहाई में वह उस के बारे में सोचता रहता.

एक दिन आजर गाड़ी से लौट रहा था कि रास्ते में उस का ऐक्सिडैंट हो गया. अस्पताल पहुंचने पर डाक्टर ने कहा, ‘अब ये अपने पैरों पर चल नहीं सकेंगे.’

सारा घर वहां जमा था. सब का रोरो कर बुरा हाल था.

जब से आजर का ऐक्सिडैंट हुआ था, जोया ने अपने कालेज के दोस्तों से मिलना शुरू कर दिया था. आज भी वह तैयार हो कर किसी से मिलने गई थी. हया के लाख सम झाने पर भी उस पर कोई असर नहीं हुआ था.

आजर अस्पताल के बैड पर दोनों पैरों से लाचार लेटा हुआ था… हर आहट पर देखता… शायद वह आ जाए… जिस से दिल का रिश्ता जुड़ा है… वफा के सिलसिले हैं…लेकिन दूर तक जोया का कहीं पता न था.

एक आहट पर उस के खयालात बिखर गए. अम्मी आ रही थीं. उन के पीछे सना थी. अम्मी ने इशारा किया तो वह सामने स्टूल पर बैठ गई.

अम्मी रात का खाना ले कर आई थीं. आजर खाना खा रहा था और कनखियों से सना को देख रहा था. फुल आस्तीन वाला कुरता, चूड़ीदार पाजामा, सिर पर चुन्नी डाले वह खामोश बैठी थी.

‘काश, इस की जगह जोया होती,’ आजर ने सोचा, फिर जल्दी से नजरें  झुका लीं. कहीं उस के चेहरे से अम्मी उस का दर्द न पढ़ लें… और मुंह में निवाला रख कर चबाने लगा.

जब आजर खाने से फारिग हो गया, तो अम्मी बरतन समेटने लगीं.

‘‘अम्मी, आप रहने दीजिए. मैं कर लूंगी,’’ सना की महीन सी आवाज आई. उस ने बरतन समेट कर थैले में रखे और खड़ी हो गई.

जब सना बरतन उठा रही थी तो खुशबू का  झोंका उस के पास से आया और आजर को महका गया. अम्मी उसे अपना खयाल रखने की हिदायत दे कर चली गईं.

आज आजर को डिस्चार्ज मिल गया था. बैसाखियों के सहारे जब वह घर के अंदर आया तो अम्मी का कलेजा मुंह को आने लगा. अब सना आजर का पहले से ज्यादा खयाल रखने लगी थी.

एक दिन देवरानीजेठानी बरामदे में बैठी हुई थीं. देवरानी शायद बात का सिरा ढूंढ़ रही थी, ‘‘भाभी, हम आप से कुछ कहना चाहते हैं…’’ कहते हुए उन्होंने उन की आंखों में देखा.

‘‘जोया ने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. वह आजर से निकाह नहीं करना चाहती, क्योंकि आजर तो…’’ उन्होंने जुमला अधूरा ही छोड़ दिया और उठ कर चली आईं.आजर ने नोटिस किया था कि अम्मी बहुत बु झीबु झी सी रहती हैं. आखिर आजर पूछ ही बैठा, ‘‘अम्मी, क्या बात है… आप बहुत उदास रहती हैं…

‘‘कुछ नहीं… बस ऐसे ही… जरा तबीयत ठीक नहीं है…’’‘‘मैं जानता हूं कि आप क्यों परेशान हैं… जोया ने इस रिश्ते से मना कर दिया है.’’

अम्मी ने चौंक कर आजर की तरफ देखा.

‘‘हां अम्मी, मु झे मालूम है… वह मु झे देखने तक नहीं आई… अगर रिश्ता नहीं करना था तो इनसानियत के नाते तो आ सकती थी. जिस का इनसानियत से दूरदूर तक वास्ता न हो, मु झे खुद उस से कोई रिश्ता नहीं रखना.’’

‘‘मेरे बच्चे,’’ अम्मी की आंखों से आंसू निकल पड़े. उन्होंने उसे गले से लगा लिया.

‘‘अम्मी, मेरी शादी होगी… उसी वक्त पर होगी…’’ अम्मी ने उस की आंखों में देखा, जिस का मतलब था, ‘अब तु झ से कौन शादी करेगा…’

‘‘अम्मी, मैं सना से शादी करूंगा. मैं ने सना से बात कर ली है.’’

यह सुन कर अम्मी ने फिर उसे गले से लगा लिया.

शादी की तैयारियां होने लगीं और जो वक्त जोया के साथ शादी के लिए तय था, उसी वक्त पर आजर और सना का निकाह हो गया.

आजर को कुछ याद आया. एक बार जोया ने बातोंबातों में कहा था कि शादी के बाद वह हनीमून के लिए स्विस्ट्जरलैंड जाएगी…

आजर ने स्विट्जरलैंड जाने की ख्वाहिश जाहिर की तो अम्मी ने उसे जाने की इजाजत दे दी.

आज आजर हनीमून से लौट रहा था. सना अंदर दाखिल हुई तो कितनी निखरीनिखरी और कितनी खुश लग रही थी. फिर उस ने दरवाजे की तरफ मुसकरा कर देखा और कहा, ‘‘आइए न…’’ इतने पर आजर अंदर दाखिल हुआ. उसे देख कर अम्मी की आंखें हैरत से फैलती चली गईं. वह अपने पैरों पर चल कर आ रहा था.

‘‘बेटे, यह सब क्या है?’’ उन्होंने आगे बढ़ कर उसे थाम लिया.

‘‘बताता हूं… पहले आप बैठिए तो सही…’’ आजर ने दोनों हाथ पकड़ कर उन्हें बिठा दिया.

‘‘आप बड़े लोग अपने बच्चों के फैसले तो कर देते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि बड़े हो कर उन की सोच कैसी होगी, उन के खयालात कैसे होंगे, उन का नजरिया कैसा होगा और मु झे सच्चे हमदर्द की तलाश थी, जिस के अंदर कुरबानी का जज्बा हो. एकदूसरे के लिए तड़प हो. और ये सारी खूबियां मुझे सना में नजर आईं… इसलिए मैं ने डाक्टर से मिल कर एक प्लान बनाया. वह ऐक्सिडैंट  झूठा था. मेरे पैर सहीसलामत थे. यह मेरा सिर्फ नाटक था… नतीजा आप के सामने है.

‘‘जोया ने खुद इस रिश्ते से इनकार कर दिया… सना ने मुझ अपाहिज को कुबूल किया… मैं सना का हूं…’’

दरवाजे पर खड़ी जोया ने सारी बातें सुन ली थीं. उस का जी चाह रहा था कि सबकुछ तोड़फोड़ डाले. Sad Story in Hindi

लेखक- अशरफ खान

Motivational Story in Hindi: औक्टोपस कैद में

Motivational Story in Hindi: ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडं़ूगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना सम झ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह सम झौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे  झुक लिया जाए. मु झे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मु झे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

अर्चना ने वंदना को सम झाया था, ‘औरत को तो हर जगह  झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं.  झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर सम झौता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए  मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उल झी कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी  िझ झक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से

वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मु झे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जु झारू थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई सम झ चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार सम झाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ सम झ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात की कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था. Motivational Story in Hindi

लेखक- मुकेश नौटियाल

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