बेस्ट बहू औफ द हाउस- भाग 2: कैसा था श्रद्धा का ससुराल

इस पर श्रद्धा ने बड़े प्रेम व आदर के साथ सास की बात का विरोध करते हुए कहा था, “मम्मी जी, मैं कुक के बनाए तरहतरह के व्यंजनों के बजाय अपना बनाया हुआ साधारण मगर हैल्दी खाना पसंद करती हूं. प्लीज, मुझ से किचन में काम करने का मेरा अधिकार मत छीनिएगा.’

उस की बात सुन कर सास को कुछ अटपटा सा लगा और भाभियों ने भी भवें चढ़ा लीं. छोटी भाभी ने व्यंग्य से कहा, “श्रद्धा, यह तुम्हारा छोटा सा घर नहीं है जहां खुद ही खाना बनाना पड़े. हमारे यहां बहुत सारे नौकरचाकर और रसोइए दिनरात काम में लगे रहते हैं.”

श्रद्धा मुसकरा कर किचन में चली गई. उस ने अपने हाथों से पूरा खाना तैयार किया. हलवा भी बनाया. जब श्रद्धा ने खाना परोसा, तो खाना खा कर सब उंगलियां चाटते रह गए. सबों को खाना बहुत पसंद आया. अमन तो उस के खाने की तारीफ करते नहीं थक रहा था. सासससुर ने खुश हो कर उसे नेग भी दिया.

बाद में भी घर में भले ही कुक तरहतरह के व्यंजन तैयार करते रहते मगर वह अपने हाथों का बना साधारण खाना ही खाती और अमन भी उस के हाथ का खाना ही पसंद करने लगा था. अमन को श्रद्धा के खाने की तारीफें करता देख दोनों भाभियों ने भी अपने हाथों से कुछ आइटम्स बना कर अपनेअपने पति को रिझाने का प्रयास किया. फिर तो अकसर ही दोनों भाभियां किचन में दिखने लगी थीं.

श्रद्धा भले ही अपना छोटा सा घर छोड़ कर बड़े बंगले में रहने आ गई थी मगर उस के रहने के तरीकों में कोई परिवर्तन नहीं आया था. उस ने अपने कमरे के बाहर वाले बरामदे में एक टेबलकुरसी डाल कर उसे स्टडीरूम बना लिया था. कंप्यूटर, प्रिंटर, टेबललैंप आदि अपने टेबल पर सजा लिए. अमन के कहने पर एक छोटा सा फ्रिज भी उस ने साइड में रखवा लिया. बरामदा बड़ा था और शीशे की खिड़कियां लगी हुई थीं. वह बाहर का नजारा देखते हुए बहुत आराम से अपना काम करती. जब दिल करता, खिड़कियां खोल कर ताजी हवा का आनंद लेती. बरामदे के कोने में 3 -4 छोटे गमलों में पौधे भी लगवा दिए.

भले ही उस की अलमारियां लेटेस्ट स्टाइल के कपड़ों व गहनों से भरी हुई थीं मगर वह अपनी पसंद के साधारण मगर कंफर्टेबल कपड़ों में ही रहना पसंद करती थी.

शानदार बाथटब होने के बावजूद वह शावर के नीचे खड़ी हो कर नहाती. तरहतरह के शैंपू होने के बावजूद वह मुल्तानी मिट्टी से बाल धोती. कभी भी हेयर ड्रायर या ऐसी चीजों का इस्तेमाल वह न करती.

घर में कई सारी कीमती गाड़ियों के होते हुए भी वह पहले की तरह बस से औफिस आतीजाती रही. बसस्टैंड पर उतर कर 10 मिनट वाक कर के औफिस पहुंचने की आदत बरकरार रखी.

शादी के बाद पहले दिन जब वह बस से औफिस जा रही थी तो तुषिता ने टोका था, “भाभी, हमारे घर में इतनी गाड़ियां हैं. कोई क्या कहेगा कि इतने बड़े खानदान की नईनवेली बहू बस से औफिस जा रही है.”

“तुषि, मैं बस से औफिस मजबूरी में नहीं जा रही हूं बल्कि इसलिए जा रही हूं ताकि मेरी दौड़नेभागने और वाक करने की आदत बनी रहे. बचपन से ही मुझे शरीर को जरूरत से ज्यादा आराम देने की आदत नहीं रही है. वैसे भी, बस में आप 10 लोगों से इंटरैक्ट करते हो. आप की प्रैक्टिकल नौलेज बढ़ती है. इस में गलत क्या है?”

“जी, गलत तो कुछ नहीं,” मुंह बना कर तुषिता ने कहा और अंदर चली गई.श्रद्धा ने अपने कमरे में से तमाम ऐसी चीजें निकाल कर बाहर कर दीं जो केवल शोऔफ के लिए थीं या लग्जरियस लाइफ के लिए थीं. जब श्रद्धा अपने कमरे से कुछ सामान बाहर करवा रही थी तो सास ने सवाल किया था, “यह क्या कर रही हो बहू?”

“मम्मी जी, मुझे कमरा खुलाखुला सा अच्छा लगता है. जिन चीजों की जरूरत नहीं, उन्हें हटा रही हूं. आप ही बताइए, नकली फूलों से सजे इस कीमती फ्लौवर पौट के बजाय क्या मिट्टी का यह गमला और इस में मनीप्लांट का पौधा अच्छा नहीं लग रहा? बाजार से खरीदे गए इन शोपीसेज के बजाय मैं ने अपने हाथ की बनाई कुछ कलात्मक चीजें दीवार पर लगा दी हैं. आप कहें तो हटा दूं. वैसे, मुझे तो अच्छी लग रही हैं.

“नहींनहीं, रहने दो. दूसरों को भी तो पता चले कि हमारी छोटी बहू में कितने हुनर हैं,” कह कर सास ने चुप्पी लगा ली.

श्रद्धा ने खुद को अपनी मिट्टी से भी जोड़े रखा था. सुबह उठ कर ऐक्सरसाइज करना, घास पर नंगे पांव चलना, गार्डनिंग करना, कुकिंग करना, वाक करना आदि उस की पसंदीदा गतिविधियां थीं. अमन के कहने पर उस ने स्विमिंग करना और कार चलाना जरूर सीख लिया था मगर दैनिक जीवन में इन से दूर ही रहती. शाम को समय मिलने पर डांस करती तो सुबहसुबह साइकिल ले कर निकल पड़ती. पैसे भले ही कितने भी आ जाएं मगर फालतू पैसे खर्च नहीं करती.

उस की ये हरकतें देख कर अमन के दोनों भाईभाभियां, बहन और मांबाप कसमसा कर रह जाते, पर कुछ कह नहीं पाते क्योंकि श्रद्धा शिकायत के लायक कुछ भी गलत नहीं करती थी.

इधर एक दिन जब दोनों भाभियां सास के साथ किटी पार्टी में जाने के लिए सजधज रही थीं तो सास ने श्रद्धा से भी चलने को कहा. इस पर श्रद्धा ने जवाब दिया, “मम्मी जी, आज तो मैं एक लैक्चर अटैंड करने जा रही हूं. संदीप माहेश्वरी के मोटिवेशनल स्पीच का प्रोग्राम है. सौरी, मैं आप के साथ किटी पार्टी में नहीं आ पाऊंगी.”

श्रद्धा को प्यार और आश्चर्य से देखते हुए सास ने कहा, “दूसरों से बहुत अलग है तू. पर, सही है. मुझे तेरी बातें कभीकभी अच्छी लगती हैं. एक दिन मैं भी चलूंगी तेरे साथ लेक्चर सुनने. पर आज किटी पार्टी का ही प्लान है. मेरी सहेली ने अरेंज किया है न.”

“जी मम्मी, जरूर,”  कह कर श्रद्धा मुसकरा पड़ी.अगले संडे सास भी श्रद्धा के साथ लेक्चर सुनने गई और आ कर बहुत तारीफें कीं.

इसी तरह वक्त गुजरता गया. शुरू में श्रद्धा की आदतों और हरकतों से चिढ़ने और पसंद न करने वाली श्रद्धा की सास, ननद और भाभियां धीरेधीरे उसी के रंग में रंगती चली गईं. अब वे भी अकसर कार अवौयड कर देतीं.

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बेस्ट बहू औफ द हाउस- भाग 1: कैसा था श्रद्धा का ससुराल

अमन ने श्रद्धा को सब से पहले एक बसस्टौप पर देखा था. सिंपल मगर आकर्षक गुलाबी रंग के टौप और डैनिम में दोस्तों साथ खड़ी थी. दूसरों से बहुत अलग दिख रही थी. उस के चेहरे पर शालीनता थी. खूबसूरत इतनी कि नजरें न हटें. अमन एकटक उसे देखता रहा जब तक कि वह बस में चढ़ नहीं गई. अगले दिन जानबूझ कर अमन उसी समय बसस्टौप के पास कार खड़ी कर रुक गया. उस की नजरें श्रद्धा को तलाश रही थीं. थोड़ी दूर पर उसे श्रद्धा नजर आ गई. आज उस ने स्काई ब्लू रंग की ड्रैस पहनी थी, जिस में वह बहुत जंच रही थी.

 

ऐसा दोतीन दिनों तक लगातार होता रहा. अमन समय पर उसी बसस्टौप पर पहुंचता. एक दिन बस आई और जब श्रद्धा उस में चढ़ने लगी तो अचानक अमन  ने भी अपनी कार पार्क की और तेजी से बस में चढ़ गया. श्रद्धा बाराखंबा मैट्रो स्टेशन की बगल वाले बसस्टैंड पर उतरी और वहां से वाक करते हुए सूर्यकिरण बिल्डिंग में घुस गई. पीछेपीछे अमन भी उसी बिल्डिंग में घुसा. वह लड़की सीढ़ियां चढ़ती हुई तीसरेफ्लोर पर जा कर रुकी. वहां एक एडवरटाइजिंग कंपनी का बड़ा सा औफिस था. लड़की उस औफिस में दाखिल हो गई.

अमन कुछ देर बाहर टहलता रहा. फिर उस ने बाहर खड़े गार्ड से पूछा, “भैया, अभी जो मैडम अंदर गई हैं, वे यहां की मैनेजर हैं क्या?””जी, वे यहां डिजिटल मार्केटिंग मैनेजर और कौपी एडिटर हैं. आप को क्या काम है? क्या आप श्रद्धा मैडम से मिलना चाहते हैं?”

“जी हां, मैं मिलना चाहता हूं,” अमन ने कहा.”ठीक है. मैं उन्हें खबर दे कर आता हूं,”  कह कर गार्ड अंदर चला गया और कुछ ही देर में निकल आया.

उस ने अमन को अंदर जाने का इशारा किया. अमन अंदर पहुंचा तो चपरासी उसे श्रद्धा के केबिन तक ले गया. केबिन बहुत आकर्षक था. सारी चीजें करीने से रखी हुई थीं. एक कोने में छोटेछोटे गमलों में कुछ पौधे भी थे. अमन को बैठने का इशारा करते हुए श्रद्धा उस की तरफ मुखातिब हुई. अमन उसे देखता रह गया. दिल का प्यार आंखों में उभर आया. श्रद्धा अमन से पहली बार मिल रही थी.

उस ने सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा, “जी हां, बताइए मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?” “ऐक्चुअली मेरी एक कंपनी है. हम स्नैक्स आइटम्स बनाते हैं. मैं आप से अपने प्रोडक्ट्स की ब्रैंडिंग और ऐड कैंपेन के सिलसिले में बात करना चाहता था. आप कौपी एडिटर भी हैं, सो, आप से  ऐड भी लिखवाना था.”

“मगर मैं ही क्यों?” श्रद्धा ने कहा, तो अमन को कोई जवाब नहीं सूझा.फिर कुछ सोचता हुआ बोला, “दरअसल, मेरे एक दोस्त ने आप का नाम रेफर किया था. इस कंपनी के बारे में भी बताया था. काफी तारीफ़ की थी.”

“चलिए ठीक है. हम इस सिलसिले में विस्तार से बात करेंगे. अपने कुछ सहयोगियों के साथ मैं आप के मैनेजर की एक मीटिंग फिक्स कर देती हूं. आप या आप के मैनेजर मीटिंग अटेंड कर सकते हैं.”जी, मीटिंग में मैनेजर नहीं, बल्कि मैं खुद ही आना चाहता हूं. मैं इस तरह के कामों को खुद ही हैंडल करता हूं. मैं तो चाहूंगा कि आप भी उस मीटिंग में जरूर रहें, प्लीज.”

“ग्रेट. तो ठीक है. अगले मंडे हम मीटिंग कर लेते हैं.”अमन ने खुश हो कर हामी में सिर हिलाया और वापस लौट आया. मगर अपना दिल श्रद्धा के पास ही छोड़ आया. उस की आंखों के आगे श्रद्धा का ही शालीन और खूबसूरत चेहरा घूमता रहा. वह बेसब्री से अगले मंडे का इंतजार करने लगा.

अगले मंडे समय से पहले ही वह मीटिंग के लिए पहुंच गया. श्रद्धा को देख कर उस के चेहरे पर मीठी मुसकान खिल गई थी. श्रद्धा के साथ 2 और लोग थे. ऐड कैंपेन के बारे में डिटेल में बातें हुईं. मीटिंग के बाद श्रद्धा के दोनों सहयोगी चले गए. अमन अभी श्रद्धा के पास ही बैठा रहा. कोई न कोई बात निकालता रहा.

2 दिनों बाद वह फिर काम की प्रोग्रैस के बारे में जानने के बहाने श्रद्धा के पास पहुंच गया. अब तक अमन के व्यवहार और बातचीत के लहजे से श्रद्धा को महसूस होने लगा था कि अमन के मन में क्या चल रहा है. अमन के लिए भी अपनी फीलिंग अब और अधिक छिपाना कठिन हो रहा था.

अगली दफा वह श्रद्धा के पास एक कार्ड ले कर पहुंचा. कार्ड देते हुए अमन ने हौले से कहा, “इस कार्ड में लिखी एकएक बात मेरे दिल की आवाज है. प्लीज, एक बार पूरा पढ़ लो, फिर जवाब देना.”

श्रद्धा ने कार्ड खोला और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, “मैं लव ऐट फर्स्ट साइट पर विश्वास नहीं करता था. मगर बसस्टैंड पर तुम्हें पहली नजर देखते ही दिल दे बैठा हूं. तुम्हारे लिए जो महसूस कर रहा हूं वह आज तक जिंदगी में किसी के लिए भी महसूस नहीं किया. रियली, आई लव यू. क्या तुम्हें हमेशा के लिए मेरा बनना स्वीकार होगा?”

श्रद्धा ने पलकें उठाईं और अमन की तरफ मुसकरा कर देखती हुई बोली, “बसस्टैंड से मेरे औफिस तक का आप का सफर कमाल का रहा. मुझे भी इतने प्यार से कभी किसी ने अपना बनने की इल्तिजा नहीं की. मैं आप का प्रपोजल स्वीकार करती हूं,” कहते हुए श्रद्धा की आंखें शर्म से झुक गईं और अमन का चेहरा खुशी से खिल उठा.

अमन ने अपने घर में श्रद्धा के बारे में बताया, तो सब दंग रह गए कि अमन जैसा शर्मीला लड़का लव मैरिज की बात कर रहा है. यानी, लड़की में कुछ तो खास बात जरूर होगी. अमन के घर में मांबाप के अलावा 2 बड़े भाई, भाभियां और एक बहन तुषिता थे. भाइयों के 2 छोटेछोटे बच्चे भी थे. उन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईसों में होती थी. जबकि, श्रद्धा एक गरीब परिवार की लड़की थी. उस ने अपनी काबिलीयत और लगन के बल पर ऊंची पढ़ाई की और एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे तक पहुंची. उस के अंदर स्वाभिमान कूटकूट कर भरा था. वह मेहनती होने के साथ ही जिंदगी बहुत व्यवस्थित ढंग से जीना पसंद करती थी

जल्द ही दोनों के परिवार वालों की रजामंदी मिल गई और अमन ने श्रद्धा से शादी कर ली.शादी के बाद पहले दिन जब वह किचन की तरफ बढ़ी तो सास ने उस से कहा, “बेटा, रिवाज है कि नई बहू कुछ मीठा बनाती है. जा तू हलवा बना ले. उस के बाद तुझे किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. बहुत सारे कुक हैं हमारे पास.”

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अपराजिता- भाग 3: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

उस दिन अपराजिता शाम को बैंक से थकीहारी वापस आई ही थी कि बड़े भाई ने उस के पास आ कर बैठते हुए उस का पर्स उठा लिया और उस में कुछ तलाशने लगा.

यह देख कर वह चिल्लाई, ‘‘भैया, मेरा पर्स रखो. क्या चाहिए आप को?’’

‘‘छुटकी, मुझे 3 हजार रुपए चाहिए. ये रहे 3 हजार,’’ अपराजिता के पर्स में रखे रुपयों की एक गड्डी से 3 हजार रुपए गिन कर निकालते हुए बड़े भाई ने कहा.

‘‘भैया…’’ वह क्रोध से चीखी, ‘‘ये  रुपए मुझे मां को देने हैं घर खर्च के लिए. इन्हें मत लो,’’ लेकिन उस के चिल्लाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा और वह कुटिल भाव से मुसकराते हुए  कमरे से बाहर निकल गया, यह कहते हुए, ‘‘इतने रुपए कमाती है. थोड़े हमें दे देगी तो तेरा क्या घट जाएगा?’’

भाई की बात ने उस के क्रोध में आहुति

का काम किया और वह गुस्से में फनफनाती

हुई फिर से चीखी, ‘‘आप दोनों मौजमस्ती

करते रहो, यारीदोस्ती में पैसे उड़ाते रहो और

मैं आप को पैसे देती रहूं? खान लग रही है न

मेरे पास?’’

तभी मां हमेशा की तरह बेटे के पक्ष में बोल पड़ीं, ‘‘अरे छुटकी, क्या हुआ जो थोड़े रुपए ले गया तो? भाई है तेरा, कल को वह कमाएगा तो तू ले लेना उस से.’’

‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा मां… इन दोनों के यही लक्षण रहे तो इन की नौकरी तो लगने से रही.’’

‘‘तू तो जब बोलेगी अशुभ ही बोलेगी.  ऐसी बहन न देखी मैं ने जो भाइयों को कोसे. यह तू अच्छा नहीं कर रही छुटकी.’’

मां का यों भाई का गलत बात पर पक्ष लेते देख उस की आंखों में पानी भर आया. तभी छोटा भाई आ कर बोला, ‘‘ज्यादा हवा में मत उड़ छुटकी. दो पैसे क्या कमाने लगी है,  खुद को तीस मार खां समझने लगी है. अरे तू इस घर में रहती है, खाती है तो क्या इस घर के लिए, हमारे लिए तेरा कोई फर्ज नहीं बनता?’’

तभी मां भी बोल पड़ी, ‘‘छुटकी, भाई कह तो ठीक रहा है. जब से तू कमाने लगी है, तू आसमान में उड़ने लगी है. जरा धरती पर रह छुटकी. इतना घमंड अच्छा नहीं. रहती, खाती भी तो है न तू घर में. तो थोड़े पैसे हम पर खर्च कर देती है तो ऐसा कौन सा एहसान कर देती है तू हम पर? कोई पेड़ से तो नहीं टपकी तू… अभी तक तेरे खर्चे झेले ही हैं न हम ने.’’

दोनों भाइयों और मां की यह जलीकटी सुन उस का मन छलनी हो आया और फिर क्रोध से सुलगते हुए बोली, ‘‘ठीक है मां, वादा रहा जो आप की इतनी बातें सुन कर भी मैं इस घर में रहूं और खाऊं. आप लोगों को मुझ से नहीं मेरे पैसों से प्यार है. तो ठीक है मैं जल्द ही अपने रहने व खाने का इंतजाम और कहीं कर लूंगी,’’ कहते हुए वह बैंक चली गई.

उस दिन पूरे दिन वह आपे में नहीं रही. मां और भाइयों के जहर बुझे बोल उस के मन को चीरे जा रहे थे. उस ने घर से अलग होने के मुद्दे पर बहुत सोचा.

मां और भाइयों के अपने साथ के व्यवहार पर बहुत चिंतन के बाद वह इस निष्कर्ष पर

पहुंची कि मां और दोनों भाई महज उस के पैसों से प्यार करते हैं. उन्हें उस के सुखदुख, उस की भावनाओं की कोई परवाह नहीं. तो ऐसे स्वार्थी रिश्तों से बंध कर उस घर में रहने का कोई मतलब नहीं.

पिछले कुछ समय से काव्या के मातापिता और भाई का उस के प्रति केयरिंग व्यवहार

देख उसे अपने जीवन में इन सब की कमी

का एहसास शिद्दत से होता. उस के जीवन से अपने जीवन की तुलना करने को विवश हो

जाती और पाती कि उसे न तो काव्या की तरह

मां और भाइयों का प्यारदुलार मिला, न ही परवाह. तो ऐसे रिश्तों से चिपके रहने का क्या औचित्य है, जिन का आधार खुदगर्जी और

स्वार्थ हो?

इस मुद्दे पर गंभीरता से सोच उस ने घर से अलग होने का निर्णय लिया. जल्द ही उसे घर के पास एक स्टाफ क्वार्टर मिल गया और वह उस में शिफ्ट हो गई.

आज नए घर में उस की पहली सुबह थी. परदों की ओट से सवेरे का उजास छनछन कर

आ रहा था. अपने नए घर में वह बेहद सुकून महसूस कर रही थी. न मां की खिटपिट न भाइयों की चिकचिक.

उसे अपने घर में आए अभी 1 सप्ताह ही हुआ था कि मां का फोन आ गया. वह

रोतेरोते कहने लगीं, ‘‘बेटा, तू तो हम सब से

रूठ कर चली गई. दोनों भाई मुझे बहुत तंग करते हैं. तू पैसे देती थी तब घर में रोजाना सब्जी बन पाती थी. किराए की आमदनी से रोजरोज सब्जी का जुगाड़ नहीं हो पाता. दोनों भाइयों ने बहुत क्लेश कर रखा है. कल मैं ने बस दाल के साथ रोटी परोसी तो बड़े ने मेरा हाथ गुस्से में झटक कर थाली फेंक दी. मेरा हाथ अभी तक दुख

रहा है. छोटे ने भी बहुत झकझक के बाद दाल से रोटी खाई.’’

‘‘ये सब आप के अंधे प्यार का नतीजा है. अब मैं क्या कहूं? आप चाहो तो मेरे घर आ जाओ.’’

‘‘न बेटा, वहां आ गई तो दोनों भाइयों को रोटी बना कर कौन खिलाएगा? मैं उन्हें छोड़ कर नहीं आ सकती न.’’

‘‘अब मैं क्या कहूं? दोनों की इतनी उम्र हो आई अभी तक अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाए. चलो मैं थोड़े रुपए आप को अभी देते हुए बैंक निकल जाऊंगी.’’

अपराजिता ने घर जा कर मां के हाथों में

2 हजार रुपए रखे.

2-3 दिनों बाद ही मां का फोन फिर आ गया, ‘‘बेटा, कुछ रुपए दे जा… जो दे गई थी, खत्म हो गए.’’

‘‘खत्म हो गए? अभी 3 दिन पहले ही तो मैं ने आप को 2 हजार रुपए दिए थे. 2-3 दिनों में ही खर्च हो गए?’’

‘‘बेटा, दोनों रोना रो रहे थे. तेरे बाबूजी को याद कर रहे थे कि आज वे होते तो हम दोनों की कहीं न कहीं नौकरी जरूर लगवा देते. बेटा मुझ से उन का रोना देखा नहीं गया तो मैं ने दोनों को 5-5 सौ रुपए दे दिए.’’

‘‘आप भाइयों को कोई नौकरी ढूंढ़ने के लिए कहने के बदले मेरी खूनपसीने की कमाई उन्हें गुलछर्रे उड़ाने के लिए दे रही हो, यह ठीक नहीं मां. अब से मैं आप को पैसे नहीं देने वाली. आप जानो आप का काम जाने,’’ कहते हुए अपराजिता ने गुस्से से फोन काट दिया.

मां का फोन शाम को फिर आया. घंटी बजे जा रही पर अपराजिता ने उसे सुन कर भी अनसुना कर दिया.

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अपराजिता- भाग 2: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

मातापिता और भाइयों के हाथों सतत अपमान और अवमानना से उस में उन सब के सामने अपने वजूद की सार्थकता सिद्ध करने की चाह जगी.

वह दिनरात पढ़ाई में जुटी रहती. अपनी कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान पर आती. जहां दोनों भाई कभी 50-55% से अधिक अंक नहीं ला पाते, वह हमेशा 90% से अधिक अंक लाती.

घर में जहां उसे लड़की होने की वजह से भाइयों की अपेक्षा हेय और कमतर समझा जाता, वहीं स्कूल में उस के शिक्षकशिक्षिकांएं उस की पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन एवं मृदु स्वभाव के कारण उसे बेहद प्यार करते. उस पर जान छिड़कते.

उस के घर की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत न थी. पिता एक निजी कंपनी में क्लर्क थे. उन  की तनख्वाह 5 प्राणियों के परिवार की जरूरतों को पूरा करने में ही खर्च हो जाती.

उसे याद नहीं मांपिता ने उस के निजी खर्च के लिए कभी 10 रुपए उस के हाथ में रखे हों.  10वीं कक्षा के बाद से ही वह अपने खर्चों के लिए अपने पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी, जो अभी तक जारी था. पिछले कुछ वर्षों से तो वह अपनी ट्यूशन की कमाई से कुछ रुपए हर महीने मां को भी देने लगी थी, जो हमेशा पैसों की तंगी से जूझती रहती थीं.

वक्त के साथ शिक्षा का पायदान उत्तरोत्तर चढ़ते हुए उस ने अपनी पोस्ट ग्रैजुएशन पूरी की और फिर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी.  उन्ही दिनों उस के पिता का अचानक हार्ट अटैक से देहांत हो गया.

पिता की मृत्यु के बाद घर का माहौल और तंगहाल हो गया. पिता की नियमित आय बंद होने से घर में पैसों की बेहद कमी हो गई.

उन के बापदादों के जमाने के घर का एक हिस्सा किराए पर उठा था. उस के किराए से बड़ी मुश्किल से दालरोटी भर चल पाती.

उस तनाव भरे दौर में भी अपराजिता ने अपने हालात के सामने घुटने नहीं टेके और पूरी तैयारी से अनेक प्रतियोगी परीक्षाएं देती रही. उन्ही दिनों उस की प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ और वह पहली बार में ही सफल रही.

तभी उस की सोच में व्यवधान डालते हुए काव्या का फोन आ गया. उस ने उस से कहा कि वह शाम के 7 बजे तक बबल्स जरूर पहुंच जाए.

बबल्स उस के घर के पास ही था. अत: 7 बजतेबजते वहां पहुंच गई.

‘‘अरे अपराजिता बिटिया, बहुतबहुत बधाई, पहली बार में ही कंपीटीशन ऐग्जाम क्लियर करने के लिए,’’ काव्या की मम्मी ने उसे बड़े स्नेह से गले लगाते हुए कहा.

‘‘थैंक यू सो मच आंटी.’’

‘‘बधाई बेटा,’’ काव्या के पापा भी बोल पड़े.

‘‘बधाई दीदी,’’ काव्या का छोटा भाई बोला.

‘‘थैंक यू सो मच अंकल. थैंक यू अभी.’’

‘‘भई, मैं तो इस बात से बहुत खुश हूं कि हमारी सीतागीता की जोड़ी यूनिवर्सिटी के बाद भी कायम रहेगी. तुम दोनों ने एकसाथ पढ़ाई की, अब नौकरी में भी दोनों साथसाथ रहोगे. बहुत बढि़या बच्चो,’’ काव्या के पापा ने कहा.

तभी काव्या की मम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, तेरे होते मुझे काव्या की बिलकुल फिक्र नहीं होती.’’

‘‘ओ मम्मा, कम औन, अब यह अपनी इस हैलिकौप्टर पेरैंटिंग पर ब्रेक लगाओ. मैं अब बच्ची नहीं रही, जो मुझे अभी भी अपराजिता की जरूरत हो,’’ काव्या ने तनिक बनावटी गुस्से से कहा.

‘‘यह तो तू गलत कह रही है मेरी लाडो. तू तो मेरे लिए हमेशा बच्ची ही रहेगी.’’

‘‘50 साल की हो जाऊंगी तब भी,’’ काव्या ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों को चौड़ा करते हुए इठलाते हुए कहा.

इस पर उस की मां ने प्यार से उसे गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘हां बिट्टो रानी, तू

50 साल की हो जाएगी तब भी.’’

तभी काव्या के पापा बोले, ‘‘हां तो भई, हमारी यह सीतागीता की जोड़ी बैंक पर धावा बोलने कब जा रही है?’’

उन की इस बात पर इस बार अपराजिता मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंकल हम दोनों की जौइनिंग एक ही दिन है. पहली मार्च की

जौइनिंग है.’’

‘‘बढि़या, बहुत बढि़या. शायद इन बैंक वालों को भी खबर लग गई कि ये दोनों इकट्ठी अपनी बैस्ट परफौर्मैंस देती हैं.’’

इस पर अपराजिता ने तनिक मुसकराते हुए उन्हें जवाब दिया, ‘‘जी अंकल, साथसाथ तो हम अच्छेअच्छों की छुट्टी कर दें.’’

तभी काव्या की मां अपराजिता से बोलीं, ‘‘बेटा, तेरे होते हुए मुझे इस की बिलकुल चिंता नहीं होती. फिर भी बेटा, इस का ध्यान रखना. तुझे तो पता है तेरी यह सहेली खाने की बड़ी

चोर है. दोनों एकसाथ लंच करना और यूनिवर्सिटी की तरह इस से इस का पूरा लंच खत्म करवा दिया करना.’’

‘‘जी… जी… आंटी, मेरे होते हुए आप को बिलकुल चिंता करने की जरूरत नहीं है. आई प्रौमिस, मैं इस का पूरापूरा ध्यान रखूंगी.’’

अपराजिता की वह पूरी शाम गप्पों, हंसीमजाक में बेहद खुशगवार गुजरी.

वह जब काव्या के परिवार से मिलती, तो जहां एक ओर उन सब का अपने प्रति गर्मजोशी भरा आत्मीय व्यवहार उसे भीतर तक अभिभूत कर देता, वहीं दूसरी ओर काव्या के प्रति उन सब का बेशर्त, भरपूर लाड़दुलार देख मन ही मन एक अजीब से खालीपन की अनुभूति से भी भर उठती.  आज भी यही हुआ था.

काव्या की फैमिली के बारे में सोचतेसोचते रात को कब वह नींद के आगोश में समा गई, उसे पता भी नहीं चला.

बैंक जौइनिंग का वक्त करीब आता जा रहा था और नियत दिन उस ने अपनी नौकरी जौइन  कर ली. उसे नौकरी करते 1 माह होने को आया.

उस दिन वह बहुत खुश थी. उस के अकाउंट में उस की पहली तनख्वाह आई थी. वह और काव्या दोनों साथसाथ अपनी  पहली सैलरी से अपनेअपने घर वालों के लिए गिफ्ट्स लेने बाजार गईं.

अपराजिता और काव्या दोनों ने अपनेअपने पेरैंट्स और

भाइयों के लिए बढि़या कपड़े खरीदे और फिर दोनों खुशीखुशी अपनेअपने घर लौटीं.

‘‘लो मां, यह साड़ी आप के लिए, हां बड़े भैया, यह शर्टपैंट आप के लिए, छोटे भैया, यह आप के लिए.’’

‘‘अरे वाह छुटकी, तेरे तो ठाट हो गए. अब हर महीने तेरे बैंक में 70 हजार रुपए आ जाएंगे?’’

‘‘हां भैया, वह तो है. भैया जरा मन लगा कर पढ़ाई कर लो, तो आप की भी जिंदगी बन जाएगी.’’

‘‘बस, बस कर छुटकी, ज्यादा भाषण मत झाड़. नौकरी ही लगी है, कोई खजाना हाथ नहीं लगा, जो सुबह से प्रवचन दे रही है.’’

‘‘आप दोनों 30 बरस के होने को आए और अभी तक मां को और मुझे आप दोनों के खर्चे उठाने पड़ते हैं. अपने दिल पर हाथ रख कर बोलिए, क्या यह सही है?’’

‘‘बस कर छुटकी. जल्द ही हमारे दिन भी आएंगे. ऐग्जाम दे रहे हैं न हम दोनों भी. अब हम दोनों मांगलिक हैं तो इस में हमारा क्या कुसूर?’’

‘‘भैया, फालतू के बहानेबाजी तो करो मत. पढ़ाई करो पढ़ाई,’’ लेकिन उन दोनों को अकल  नहीं आनी थी और नहीं आई.

अपराजिता की नौकरी लगे 1 साल होने को आया. दोनों भाइयों की यारीदोस्ती, मौजमस्ती बदस्तूर जारी रही.

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अपराजिता- भाग 1: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

‘‘हैलो अपराजिता, अभीअभी मेल आया है. मुझे यूनीयन बैंक की नेहरू पैलेस वाली ब्रांच में एक तारीख को जौइन करना है.  हम सब शाम को बबल्स जा रहे हैं पार्टी करने. तू 7 बजे तक वहां जरूर पहुंच जाना,’’ काव्या ने नौकरी मिलने की खुशी में चहकते हुए अपनी जिगरी सहेली अपराजिता से कहा.

‘‘क्या तुझे भी नेहरू पैलेस ब्रांच जौइन करना है? मुझे भी वहीं का अपौइंटमैंट लैटर आया है.’’

‘‘ओ…’’ वह खुशी से चीखी, ‘‘यार हम ने एक स्कूल में पढ़ाई की, एक ही कालेज, यूनिवर्सिटी में साथ रहे और अब एक ही जगह नौकरी. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. मैं अभी जा कर मम्मापापा को बताती हूं. वे भी बहुत

खुश होंगे. चल शाम को देर मत करना. टाइम पर पहुंच जाना. आज तो डबल धमाका करेंगे,’’ अपूर्व खुशी से उछलते हुए काव्या ने अपराजिता से कहा.

फोन रख कर अपराजिता तनिक उदास हो उठी. घर में ऐसा कोई भी तो नहीं है, जिस से वह खुल कर अपने मन की खुशी बांट पाए. कहने को 2 बड़े भाई हैं, लेकिन उन का होना न होने के ही बराबर है. उन दोनों की जिंदगी में उस की कोई अहमियत ही नहीं. बस अपनाअपना राग अलापते रहते हैं दोनों.

मां को भी उस की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं. उन की नजरों में उस की खुशियोंगमों का कोई मोल नहीं. उन्हें तो दोनों भाइयों के आगे कुछ दिखता ही नहीं.

अनायास आंखों के सामने काव्या का खिलाखिला चेहरा कौंध उठा

कि कितनी खुश है काव्या… जान छिड़कने वाले पेरैंट्स और एक छोटा भाई. उन के घर पर तो काव्या की बैंक जौइनिंग को ले कर जश्न मन

रहा होगा.

तभी उस की मां वहां आईं, ‘‘अरे छुटकी,  जरा कुछ रुपए तो देना. बड़ा भाई रुपए मांग

रहा है. उस के जूते टूट गए हैं. उसे नए जूते खरीदने हैं.’’

अपराजिता के मन की कड़वाहट जबान पर उतर आई, ‘‘मां, भैया से कहो अपने खर्चे खुद झेला करें. कल सहेलियों की पार्टी करी थी नई नौकरी की.  इस महीने के सारे ट्यूशन के रुपए खर्च हो गए.’’

‘‘अरे करम जली, पार्टी में सारे रुपए खर्च कर दिए? इतने में तो बड़ा भाई के जूते आ जाते. बिचारा टूटे जूतों से काम चला रहा है. क्या जरूरत थी भला पार्टी करने की? नौकरी ही तो लगी है. कोई राजपाट नहीं मिल गया जो पैसे उड़ाती फिर रही है. भाई चाहे जीए या मरे, इन महारानी को पार्टी करनी है.’’

मां के कड़वे बोलों से अपराजिता की आंखों में आंसू डबडबा आए. उन्हें रोकने का प्रयास करते हुए वह  बोली, ‘‘अभी पिछले

महीने ही भैया ने मुझ से पैसे ले कर अपने

बर्थडे की पार्टी की थी. उस से पिछले महीने

छोटे भैया ने  पिकनिक पार्टी में मेरे पूरे 5 हजार रुपए उड़ा डाले थे. उन से तो आप कुछ नहीं बोलतीं. मैं ने अपने ही पैसों से जरा पार्टी क्या कर दी, आप टोकाटाकी कर रही हैं. हद है मेरे

ही पैसों पर मेरा कोई हक नहीं. मां यह बात

सही नहीं.’’

‘‘चल, चल, चुप रह. ज्यादा जबान न चला. जरा दो पैसे क्या कमाने लग गई, जमीन पर तेरे पैर ही नहीं रहे. आसमान में उड़ने लगी है. अपनी हद में रह लड़की.’’

‘‘हमेशा भाइयों का ही पक्ष लेती हो आप. आप की इसी तरफदारी और अंधे प्यार की वजह से दोनों आज तक सही ढंग से सैट नहीं हो पाए हैं. मैं दोनों से इतनी छोटी हूं और मेरी बैंक में नौकरी लग गई. ये दोनों अभी तक नौकरी की तलाश में जूते घिस रहे हैं.’’

‘‘बस, बस कर छुटकी. तेरी जबान बहुत लंबी हो आई है आजकल. कोशिश कर तो रहा हूं. कहीं न कहीं नौकरी लग ही जाएगी,’’ बड़े भाई ने  तनिक तैश में आते अपराजिता से कहा.

‘‘भैया, आप बैठ कर ढंग से पढ़ाई तो

करते नहीं. दिन भर दोस्तों के साथ बाहर रहते

हो. बिना पढ़ाई करे कोई बढि़या नौकरी नहीं मिलती. नौकरी के लिए बहुत मेहनत करनी

पड़ती है. देखा नहीं? पूरा साल कितनी कड़ी मेहनत की मैं ने तब जा कर यह ऐग्जाम क्लियर कर पाई.’’

तभी बड़े भैया का पक्ष लेते हुए मां फिर

से बोलीं, ‘‘अरे, दोनों भाई भारी मांगलिक हैं

और मांगलिक बच्चों के हर काम देर से होते हैं. दोनों को नौकरी मिलने में देर जरूर हो रही है, लेकिन मेरी बात गांठ बांध ले लड़की जल्द ही तुझ से भी बढि़या नौकरी लगेगी मेरे दोनों कुंवरों  की.’’

‘‘हां मां, दिन भर यारदोस्तों के साथ रह कर नौकरी लग जाती तो आज कोई बेरोजगार ही नहीं होता. लेकिन आप सब को यह बात समझ में आए तब तो. नौकरी नहीं लगी तो मांगलिक होने की वजह से. वाह वाह क्या लौजिक है,’’ अपराजिता ने मां को पलट कर जवाब दिया और फिर खिन्न मन से अपने कमरे में चली गई.

उस ने एक बार फिर से अपना लैपटौप औन कर मेल खोल कर अपना अपौइंटमैंट लैटर देखा. उसे करीब 70 हजार रुपए सैलरी मिलेगी. इतना बढि़या वेतन देख कर मन की भीतरी तह तक  मानो गहरा सुकून पहुंचा. वह आंखें बंद कर पलंग पर लेट गई.  मन पखेरू कब वर्तमान से अतीत में जा कर फुदकने लगा पता ही नहीं चला.

उस ने एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में अपने मातापिता की सब से छोटी संतान के रूप में जन्म लिया था. उस से बड़े 2 भाई थे. पुरातनपंथी सोच वाले मातापिता ने हमेशा उसे भाइयों की तुलना में कमतर आंका. मांपिता ने बचपन से उस के लड़की होने की वजह से उस से भेदभाव किया.

हर कदम पर उसे एहसास दिलाया जाता कि लड़की होने की वजह से वह दोयम दर्जे पर है. मातापिता का लाड़प्यार क्या होता है, उस ने कभी महसूस ही नहीं किया. उन का सारा दुलार दोनों भाइयों के हिस्से में आता. उन की हर जरूरत का ध्यान रखा जाता. उन की हर छोटीबड़ी, जायजनाजायज मांग पूरी की जाती. खानेपीने, पहननेओढ़ने सब में उन दोनों और उस के बीच साफसाफ फर्क दिखता. उन की हर बात को तवज्जो दी जाती. दोनों भाई हमेशा मातापिता की गोद में चढ़ेचढ़े इठलाते, जबकि वह तृषित  निगाहों से उन्हें देखती.

अपराजिता के मासूम कोमल मन पर मातापिता के इस भेदभाव भरे रवैए ने बहुत गलत प्रभाव डाला. दिनरात मातापिता और भाइयों की उपेक्षा की शिकार वह उन सब के इस रवैए से अपनी ही खोल में सिमटती गई. अंतर्मुखी बन गई. बहुत कम बोलती.

उसे सुकून मिलता तो मात्र किताबों में. किताबों के काले अक्षरों में रम वह दीनदुनिया भूल जाती. अपना दर्द भूल जाती. दुनिया में कोई रोशन कोना था तो वह था उस का स्कूल.

जहां घर में उसे उपेक्षा मिलती, वहीं  स्कूल में उस की पढ़ाकू प्रवृत्ति ने उसे सभी शिक्षकशिक्षिकाओं की आंखों का तारा बना दिया.

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वर्चुअल प्रोडक्शन तकनीकः सिनेमा जगत में नई क्रांति

वैज्ञानिक उन्नति के साथ ही सिनेमा में भी नई नई तकनीक का इजाद होता रहता है. कोविड की आपदा के दौरान जब फिल्मों की शूटिंग बंद हो गई और कई तरह की समस्याएं सामने नजर आने लगी.  तब फिल्म निर्देशक विक्रम भट्ट ने विचार करना शुरू किया कि ऐसी कौन सी तकनीक अपनाई जाए.  जिससे फिल्मों की शूटिंग कम समय में भव्य स्तर पर और कम खर्च में की जा सके. तब उन्हें वर्चुअल प्रोडक्शन तकनीक का ज्ञान मिला. उसके बाद विक्रम भट्ट ने के सेरा सेरा संग हाथ मिलाया और अब मंुबई में गोराई. बोरीवली में के सेरा सेरा और विक्रम भट्ट का स्टूडियो वर्चुअल वर्ल्ड बनकर तैयार है. जो कि भारत का पहला और सबसे बड़ा एलईडी वर्चुअल प्रोडक्शन स्टूडियो है. इस स्टूडियो में वर्चुअल कंटेंट का प्रोडक्शन जोरों पर शुरू हो गया है. विक्रम भट्ट ने इस वर्ष वर्चुअल प्रोडक्शन के तहत बनी पांच फिल्में प्रदर्शित करने की योजना पर काम कर रहा है.

‘वर्चुअल प्रोडक्शन तकनीक’ का उपयोग कर विक्रम भट्ट ने भारत की पहली वर्चुअल फिल्म ‘‘जुदा होके भी‘‘ का निर्माण कर लिया है.  जिसमें उन्हें के सेरा सेरा के सतीश का सहयोग मिला है. फिल्म ‘‘जुदा होके भी‘‘ की कहानी 20 साल पहले विक्रम भट्ट द्वारा निर्देशित सफलतम फिल्म ‘‘राज‘‘ के आगे की कहानी है.  इस फिल्म का लेखन महेश भट्ट ने किया है.  जबकि निर्देशन विक्रम भट्ट का है.  इसमें नायक की भूमिका अक्षय ओबराय ने निभाई है.  फिल्म ‘‘ जुदा होके भी‘‘ 15 जुलाई को सिनेमाघरों में पहुंचेगी.  इसका मोशन पोस्टर 30 मई को लांच किया गया.

इस अवसर पर पत्रकारों से बात करते हुए विक्रम भट्ट ने कहा-‘‘यह कोई जादू नहीं बल्कि यह दो सफर की शुरूआत है. एक सफर है मेरा और मेरे बॉस का. मेरे मेंटॉर का. मेरे पिता का. जिनके सहारे मैं बचपन से चला आ रहा हॅूं और आज वह मेरी कंपनी के क्रिएटिब हेड हैं. मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या हो सकती है कि उनके गाइडेंस के तहत हमारी फिल्में बन रही हैं. नई तकनीक यानी कि ‘वर्चुअल प्रोडक्शन’ के तहत बनी मेरी नई फिल्म ‘‘जुदा होके भी ’’ मेरी बीस वर्ष पहले की सफल फिल्म ‘राज’ के आगे की कहानी है. जहां हमने ‘राज’ को छोड़ा था. वहीं से हमने ‘जुदा होके भी’ को शुरू किया है. इस सफर के साथ दूसरा सफर शुरू हुआ ‘वर्चुअल प्रोडक्शन’ का. जब लॉक डाउन आया और फिल्मों की शूटिंग रोकनी पड़ी. तो हमने इस एक नई तकनीक को ढूंढ़ा और अपनाया. जो कि ‘वर्चुअल प्रोडक्शन’ तकनीक है. इसी नई तकनीक का हिस्सा है यह स्टूडियो. जहां आप बैठे हुए हैं. यहां पर विशाल एलईडी स्क्रीन है. हमने भारत की पहली वर्चुअल फिल्म ‘जुदा होके भी’ का निर्माण यहीं पर किया है. यह साठ बाय पचास का स्टूडियो है. फिल्म में हिल स्टेशन से लेकर ट्ेन तक सब कुछ है और हमने यह सब वर्चुअली ही तैयार किया है. हमने इस तकनीक को अपनाया और फिर हमने इस संबंध में के सेरा सेरा के चेअरमैन सतीश से बात की और वह हमारे साथ आ गए. हम इस वर्ष ‘जुदा हो के भी’ को मिलाकर पांच फिल्में प्रदर्शित करने वाले है. इसके बाद प्रति वर्ष 25 वर्चुअल फिल्में बनाकर प्रदर्शित करने की हमारी योजना है. हम कम पैसे मंे इतनी बड़ी व भव्य फिल्में बनाकर दर्शकों तक पहुंचाएंगे. जिसकी कल्पना लोग नहीं कर सकते. यह दो सफर अब हमारे लिए एक सफर बन गए हैं. अब तकनीक और रचनात्मकता का अनूठा मिलन हुआ है. हमने भले ही भारत की पहली वर्चुअल फिल्म ‘जुदा होके भी’ बना ली है. पर यही सिनेमा का भविष्य है.  ’’

जबकि महेश भट्ट ने कहा-‘‘जब मैं अपनी 53 वर्ष की यात्रा को देखता हॅंू. तो पाता हॅंू कि जब जब मेरा बुरा वक्त आया. तब तब कहीं न कहीं से अजीब सी ताकत या अजीब सी एनर्जी मुझे मिलती रही है. कुछ नया मेरे अंदर प्रगट हुआ. इस कोविड आपदा के दौरान कुछ ऐसा ही विक्रम के साथ हुआ. दो वर्ष तक दुनिया रूकी रही और विक्रम लगातार प्रयास रत रहा कि कुछ नई राह निकाली जाए. कोविड के दौरान हम देख रहे थे कि किसी तरह फिल्म की योजना बनती थी. सरकार से इजाजत लेकर सेट पर शूटिंग के लिए पहुॅचते थे. फिर कोई बीमार हो जाता था और शूटिंग बंद हो जाती थी. सेट बनाने में लगा पैसा पानी पानी हो रहा था. कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही थीं. लेकिन कौन कहता है कि मिरायकल घटित नही होतेे. एक दिन विक्रम ने मुझसे अजीब जुबान मे कुछ कहा. कभी विक्रम मेरी उंगली पकड़कर चला करता था. आज मैं विक्रम का हाथ पकड़कर चलता हूं. तो विक्रम ने मुझसे  वर्चुअल प्रोडक्शन तकनीक’ के बारे में बात की. तो यह अजीब सा दौर है. इस तकनीक के चलते हम इसी सेट पर सुबह एअरपोर्ट का दृश्य. लंच के बाद घर के दृश्य और रात में न्यूयार्क.  अमरीका के दृश्य फिल्मा सकते हैं. यहां कम समय में हम भव्यतम फिल्म बना सकते हैं. कलाकार को भी ज्यादा समय देने की जरुरत नही.  हर फिल्म का बजट आधे से भी कम हो जाएगा. हम यहां दस करोड़ रूपए में सौ करोड़ का लुक दे सकते हैं. इससे पूरी फिल्म इंडस्ट्री को फायदा होगा. मैने अनुभव किया कि ‘के सेरा सेरा’ के चेअरमैन सतीश दूसरों की तरह अतीत में ही जान फंूकने की कोशिश करने की बजाय भविष्य की ओर देखते हैं. वह सदैव आगे बढ़ने में यकीन करते हैं. आज कंटेंट चलेगा.  जिसे हम इस नई तकनीक के साथ भव्यरूप में बेहतरीन कंटेंट दर्शकों तक पहुॅचा सकेंगें. ’’

‘के सेरा सेरा’के चेअरमैन सतीश ने कहा-‘‘यह पूरी फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक रिव्यूलोशन है. इस तकनीक की जानकारी जैसे जैसे दूसरे फिल्मकारों तक पहुॅचेगी.  वैसे वैसे लोगों के लिए यह फायदेमंद साबित होगा. ’’

‘‘फिल्म ‘‘जुदा होके भी ’’ भी रहस्य प्रधान प्रेम कहानी और संगीतमय फिल्म है. इस फिल्म में प्रेम कहानी में हॉरर है. हॉरर में प्रेम कहानी नही है. फिल्म ‘जुदा होके भी ’की टैग लाइन है-‘‘लव एज ए न्यू एनिमी. ’सीधे शब्दों में कहे तो इस फिल्म में प्यार का दुश्मन हॉरर है.

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Udaariyan के इस हैंडसम हीरो ने की शादी, फोटोज वायरल

सीरियल ‘उडारियां’ (Udaariyaan) में जहां अंगद, तेजो को पाने की पूरी कोशिश रहता है तो वहीं रियल लाइफ में अंगद यानी एक्टर करण वी ग्रोवर (Karan V Grover) को उनकी तेजो मिल गई है. दरअसल, बीते दिन एक्टर करण वी ग्रोवर ने अपनी गर्लफ्रेंड औऱ एक्ट्रेस पॉपी जब्बल के साथ शादी कर ली है, जिसकी फोटोज सोशलमीडिया पर वायरल हो रही है. आइए आपको दिखाते हैं ‘उडारियां’ के अंगद की वेडिंग फोटोज की झलक…

वेडिंग फोटो हुई वायरल

शादी की खबर का ऐलान करते हुए एक्ट्रेस पॉपी जब्बल और एक्टर करण वी ग्रोवर ने अपनी शादी की फोटो फैंस के साथ शेयर की है. फोटो की बात करें तो करण वी ग्रोवर अपनी पत्नी के साथ शादी के मंडप में खड़े नजर आ रहे हैं. इस दौरान उनका लुक लाइट पिंक के कौम्बिनेशन में नजर आ रहा है. फैंस और सेलेब्स एक्टर की वेडिंग फोटोज देखकर दोनों को बधाईयां दे रहे हैं. वहीं उनके वेडिंग लुक की तारीफें भी करते नजर आ रहे हैं.

 

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शादी में पहुंची एक्टर की बेस्ट फ्रेंड

 

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करण वी ग्रोवर और पॉपी जब्बल ने 10 साल तक डेटिंग करने के बाद हिमाचल प्रदेश में डेस्टिनेशन वेडिंग रचाई है. वहीं उन्होंने इस दौरान अपने लुक पर भी खासा ध्यान दिया है. शादी के लिए जहां करण वी ग्रोवर ने पगड़ी पिंक और लाइट पिंक शेरवानी कैरी की है तो वहीं पॉपी जब्बल व्हाइट पिंक कलर के लहंगे में बेहद खूबसूरत लग रही हैं. इसके अलावा शादी में मेहमानों की बात करें तो करण वी ग्रोवर की शादी में उनकी बेस्ट फ्रेंड शमा सिकंदर भी अपने पति के साथ पहुंची थीं. वहीं एक्टर के रिसेप्शन की वीडियो और फोटोज भी तेजी से सोशलमीडिया पर वायरल हो रही हैं.

 

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KK ने 53 वर्ष की उम्र में कहा दुनिया को अलविदा, कोलकाता में हुआ निधन

बीते दिनों जहां पंजाबी सिंगर सिद्धू मूसेवाला के मर्डर से पूरा देश हैरान था तो वहीं अब बौलीवुड के पौपुलर सिंगर केके (KK) ने दुनिया को अलविदा कह दिया है, जिसके चलते इंडस्ट्री में शोक की लहर दौड़ गई है. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

हार्ट अटैक से हुआ निधन

 

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हाल ही में सिंगर केके कोलकाता में एक कंसर्ट करने पहुंचे थे. वहीं कंसर्ट में परफॉर्मेंस के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ गया, जिसके बाद सिंगर को अस्पताल पहुंचाया गया. हालांकि अस्पताल में डौक्टर्स ने केके को मृत घोषित कर दिया. खबरों की मानें तो केके का हार्ट अटैक के कारण निधन हुआ है. लेकिन अभी तक पूरा मामला साफ नहीं हो पाया है.

आखिरी वीडियो आया सामने

 

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कई बौलीवुड की हिट फिल्मों का गाना गा चुके सिंगर केके के लाइव कंसर्ट की कुछ वीडियो सोशलमीडिया पर वायरल हो रही है, जिसमें वह आखिरी बार गाना गाते हुए नजर आ रहे हैं. वहीं सेलेब्स भी इस आखिरी वीडियो को देखकर भावुक होते नजर आ रहे हैं.

सेलेब्स ने जताया दुख

केके के निधन से बौलीवुड और टीवी इंडस्ट्री को तगड़ा झटका लगा है. वहीं फैंस और सेलेब्स सोशलमीडिया के जरिए सिंगर को श्रद्धांजलि देते हुए नजर आ रहे हैं. बौलीवुड के जाने माने सिंगर शंकर महादेवन, श्रेया घोषाल, हर्षदीप कौर के अलावा एक्टर सलमान खान, अजय देवगन और अक्षय कुमार जैसे सितारे उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं. वहीं टीवी इंडस्ट्री के कलाकार भी सिंगर के निधन से दुखी हैं.

केके के हैं कई हिट गाने

‘हम रहे या ना रहें कल, कल याद आएंगे ये पल…’, दिल इबादत, तू जो मिला जैसे हिट गाने केके गा चुके हैं, जिसे आज भी फैंस सुनना पसंद करते हैं. वहीं अपने कोलकत्ता कंसर्ट के दौरान सिंगर ने यही गाने गाए थे.

बता दें, हाल ही में पंजाबी सिंगर सिद्धू मूसेवाला की हत्या हुई थी, जिसके बाद बीते दिन उनका अंतिम संस्कार किया गया था. इसी के चलते पूरी इंडस्ट्री शोक में थी. वहीं सिंगर केके के निधन से फैंस बेहद दुखी हैं.

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इसमें बुरा क्या है: क्यों किया महेश और आभा ने वह फैसला

महेश और आभा औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि आभा का मोबाइल बज उठा. आभा ने नंबर देखा, ‘रुक्मिणी है,’ कहते हुए फोन उठाया. कुछ ही पलों बाद ‘ओह, अच्छा, ठीक है,’ कहते हुए फोन रख दिया. चेहरे पर चिंता झलक रही थी. महेश ने पूछा, ‘‘कहीं छुट्टी तो नहीं कर रही है?’’

‘‘3 दिन नहीं आएगी. उस के घर पर मेहमान आए हैं.’’ दोनों के तेजी से चलते हाथ ढीले पड़ गए थे. महेश ने कहा, ‘‘अब?’’

‘‘क्या करें, मैं ने पिछले हफ्ते 2 छुट्टियां ले ली थीं जब यह नहीं आई थी और आज तो जरूरी मीटिंग भी है.’’

‘‘ठीक है, आज और कल मैं घर पर रह लेता हूं. परसों तुम छुट्टी ले लेना,’’ कह कर महेश फिर घर के कपड़े पहनने लगे. उन की 10वीं कक्षा में पढ़ रही बेटी मनाली और चौथी कक्षा में पढ़ रहा बेटा आर्य स्कूल के लिए तैयार हो चुके थे. नीचे से बस ने हौर्न दिया तो दोनों उतर कर चले गए. आभा भी चली गई. महेश ने अंदर जा कर अपनी मां नारायणी को देखा. वे आंख बंद कर के लेटी हुई थीं. महेश की आहट से भी उन की आंख नहीं खुली. महेश ने मां के माथे पर हाथ रख कर देखा, बुखार तो नहीं है?

मां ने आंखें खोलीं. महेश को देखा. अस्फुट स्वर में क्या कहा, महेश को समझ नहीं आया. महेश ने मां को चादर ओढ़ाई, किचन में जा कर उन के लिए चाय बनाई, साथ में एक टोस्ट ले कर मां के पास गए. उन्हें सहारा दे कर बिठाया. अपने हाथ से टोस्ट खिलाया. चाय भी चम्मच से धीरेधीरे पिलाई. 90 वर्ष की नारायणी सालभर से सुधबुध खो बैठी थीं. वे अब कभीकभी किसी को पहचानती थीं. अकसर उन्हें कुछ पता नहीं चलता था. रुक्मिणी को उन्हीं की देखरेख के लिए रखा गया था. रुक्मिणी के छुट्टी पर जाने से बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती थी. इतने में साफसफाई और खाने का काम करने वाली मंजू बाई आई तो महेश ने कहा, ‘‘मंजू, देख लेना मां के कपड़े बदलने हों तो बदल देना.’’

मां का बिस्तर गीला था. मंजू ने ही उन्हें सहारा दे कर खड़ा किया. बिस्तर महेश ने बदल दिया. ‘‘मां के कपड़े बदल दो, मंजू,’’ कह कर महेश कमरे से बाहर गए तो मंजू ने नारायणी को साफ धुले कपड़े पहनाए और मां को फिर लिटा दिया.

नारायणी के 5 बेटे थे. सब से बड़ा बेटा नासिक के पास एक गांव में रहता था. बाकी चारों बेटे मुंबई में ही रहते थे. महेश घर में सब से छोटे थे. नारायणी ने हमेशा महेश के ही साथ रहना पसंद किया था. महेश का टू बैडरूम फ्लैट एक अच्छी सोसाइटी में दूसरे फ्लोर पर था. एक वन बैडरूम फ्लैट इसी सोसाइटी में किराए पर दिया हुआ था. पहले महेश उसी में रहते थे पर बच्चों की पढ़ाई और मां की दिन पर दिन बढ़ती अस्वस्थता के चलते बाकी भाइयों के आनेजाने से वह फ्लैट काफी छोटा पड़ने लगा था. तो वे इस फ्लैट में शिफ्ट हो गए थे. मां की सेवा और देखरेख में महेश और आभा ने कभी कोई कमी नहीं छोड़ी थी. कुछ महीनों पहले जब नारायणी चलतीफिरती थीं, रुक्मिणी का ध्यान इधरउधर होने पर सीढि़यों से उतर कर नीचे पहुंच जाती थीं. फिर वाचमैन ही उन्हें ऊपर तक छोड़ कर जाया करता था. महेश के सामने वाले फ्लैट में रहने वाले रिटायर्ड कुलकर्णी दंपती ने हमेशा महेश के परिवार को नारायणी की सेवा करते ही देखा था. उन के दोनों बेटे विदेश में कार्यरत थे. आमनेसामने दोनों परिवारों में मधुर संबंध थे. पर जब से नारायणी बिस्तर तक सीमित हो गई थीं, सब की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी.

बच्चे स्कूल से वापस आए तो महेश ने हमेशा की तरह पहले मां को बिठा कर अपने हाथ से खिलाया. उस के औफिस में रहने पर रुक्मिणी ही उन का हर काम करती थी. फिर बच्चों के साथ बैठ कर खुद लंच किया. मां की हालत देख कर महेश की आंखें अकसर भर आती थीं. उसे एहसास था कि उस के पैदा होने के एक साल बाद ही उस के पिता की मृत्यु हो गई थी. पिता गांव के साधारण किसान थे. 5 बेटों को नारायणी ने कई छोटेछोटे काम कर के पढ़ायालिखाया था. अपने बच्चों को सफल जीवन देने में जो मेहनत नारायणी ने की थी उस के कई प्रत्यक्षदर्शी रिश्तेदार थे जिन के मुंह से नारायणी के त्याग की बातें सुन कर महेश का दिल भर आता था. यह भी सच था कि जितनी जिम्मेदारी और देखरेख मां की महेश करते थे उतनी कोई और बेटा नहीं कर पाया था. शायद, इसलिए नारायणी हमेशा महेश के साथ ही रहना पसंद करती थीं.

नारायणी को एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था, यहां तक कि घूमनेफिरने का प्रोग्राम भी इस तरह बनाया जाता था कि कोई न कोई घर पर उन के पास रहे. मनाली की इस साल 10वीं बोर्ड की परीक्षा थी. तो वह अपनी पढ़ाई में व्यस्त थी. शाम को महेश के बड़े भाई का फोन आया कि वे होली पर मां को देखने सपरिवार आ रहे हैं. मनाली के मुंह से तो सुनते ही निकला, ‘‘पापा, उस दौरान बोर्ड की परीक्षाएंशुरू होंगी. मैं सब लोगों के बीच कैसे पढ़ूंगी?’’ ‘‘ओह, देखते हैं,’’ महेश इतना ही कह पाए. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था पर आजकल मां को देखने के नाम पर जो भीड़ अकसर जुटती रहती थी उस से महेश और आभा को काफी असुविधा हो रही थी. हर भाई के 2 या 3 बच्चे तो थे ही, सब आते तो उन की आवभगत में महेश या आभा को औफिस से छुट्टी करनी ही पड़ती थी, ऊपर से बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ता. मां को देखने आने का नाम ही होता, उन के पास बैठ कर उन की सेवा करने की इच्छा किसी की भी नहीं होती. सब घूमतेफिरते, अच्छेअच्छे खाने की फरमाइश करते. भाभियां तो मां के गीले कपड़े बदलने के नाम से ही कोई बहाना कर वहां से हट जातीं. आभा ही रुक्मिणी के साथ मिल कर मां की सेवा में लगी रहती. अब महेश थोड़ा चिंतित हुए, दिनभर सोचते रहे कि क्या करें, मां की तरफ से भी लापरवाही न हो, बच्चों की पढ़ाई में भी व्यवधान न हो.

महेश और आभा दोनों ही मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पदों पर थे. आर्थिक स्थिति अच्छी ही थी, शायद इसलिए भी दिनभर कई तरह की बातें सोचतेसोचते आखिर एक रास्ता महेश को सूझ ही गया. रात को आभा लौटी तो महेश, भाई के सपरिवार आने का और मनाली की परीक्षाओं का एक ही समय होने के बारे में बताते हुए कहने लगे, ‘‘आभा, दिनभर सोचने के बाद एक बात सूझी है. मैं दूसरा फ्लैट खाली करवा लेता हूं. मां को वहां शिफ्ट कर देते हैं. मां के लिए किसी अतिविश्वसनीय व्यक्ति का उन के साथ रहने का प्रबंध कर देते हैं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो महेश? मां अकेली रहेंगी?’’

‘‘अकेली कहां? हम वहां आतेजाते ही रहेंगे. पूरी नजर रहेगी वहां हमारी. जो भी रिश्तेदार उन्हें देखने के नाम से आते हैं, वहीं रह लेंगे और यहां भी आने की किसी को मनाही थोड़े ही होगी. मैं ने बहुत सोचा है इस बारे में, मुझे इस में कुछ गलत नहीं लग रहा है. थोड़े खर्चे बढ़ जाएंगे, 2 घरों का प्रबंध देखना पड़ेगा, किराया भी नहीं आएगा. लेकिन हम मां की देखरेख में कोई कमी नहीं करेंगे. बच्चों की पढ़ाई भी डिस्टर्ब नहीं होने देंगे.’’

‘‘महेश, यह ठीक नहीं रहेगा? मां को कभी दूर नहीं किया हम ने,’’ आभा की आंखें भर आईं.

‘‘तुम देखना, यह कदम ठीक रहेगा. किसी को परेशानी नहीं होगी. और अगर किसी को भी तकलीफ हुई तो मां को यहीं ले आएंगे फिर.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे.’’

अगला एक महीना महेश और आभा काफी व्यस्त रहे. दूसरा फ्लैट बस 2 बिल्ंडग ही दूर था. किराएदार भी महेश की परेशानी समझ जल्दी से जल्दी फ्लैट खाली करने के लिए तैयार हो गए. महेश ने स्वयं उन के लिए दूसरा फ्लैट ढूंढ़ने में सहयोग किया. महेश की रिश्तेदारी में एक लता काकी थीं, जो विधवा थीं, जिन की कोई संतान भी नहीं थी. वे कभी किसी रिश्तेदार के यहां रहतीं, कभी किसी आश्रम में चली जातीं. महेश ने उन की खोजबीन की तो पता चला वे पुणे में किसी रिश्तेदार के घर में हैं. महेश खुद कार ले कर उन्हें लेने गए. नारायणी जब स्वस्थ थीं, वे तब कई बार उन के पास मिलने आती थीं. महेश को देख कर लता काफी खुश हुईं और जब महेश ने कहा, ‘‘बस, मैं आप पर ही मां की देखभाल का भरोसा कर सकता हूं काकी, आप उन के साथ रहना, घर के कामों के लिए मैं एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दूंगा,’’ लता खुशीखुशी महेश के साथ आ गईं.

दूसरा फ्लैट खाली हो गया. एक फुलटाइम मेड राधा का प्रबंध भी हो गया था. एक रविवार को मां को दूसरे फ्लैट में ले जाया जा रहा था. महेश और आभा ने उन के हाथ पकड़े हुए थे. वे बिलकुल अंजान सी साथ चल रही थीं. सामने वाले फ्लैट के मिस्टर कुलकर्णी पूरी स्थिति जानते ही थे. वे कह रहे थे, ‘‘महेशजी, आप ने सोचा तो सही है पर आप की भागदौड़ और खर्चे बढ़ने वाले हैं.’’

‘‘हां, देखते हैं, आगे समझ आ ही जाएगा, यह सही है या नहीं?’’ आभा ने वहां किचन पूरी तरह से सैट कर ही दिया था. लता काकी को सब निर्देश दे दिए गए थे. महेश ने उन्हें यह भी संकेत दे दिया था कि वे उन्हें हर महीने कुछ धनराशि भी जरूर देंगे. वे खुश थीं. उन्हें अब एक ठिकाना मिल गया था. सोसाइटी में पहले तो जिस ने सुना, हैरान रह गया. कई तरह की बातें हुईं. किसी ने कहा, ‘यह तो ठीक नहीं है, बूढ़ी मां को अकेले घर में डाल दिया.’ पर समर्थन में भी लोग थे. उन का कहना था, ‘ठीक तो है, मां जी को देखने इतना आनाजाना होता है, लोगों की भीड़ रहती थी, यह अच्छा विचार है.’ महेश और बाकी तीनों भी मां के आसपास ही रहते, जिस को समय मिलता, वहीं पहुंच जाता. मां अब किसी को पहचानती तो थीं नहीं, पर फिर भी सब ज्यादा से ज्यादा समय वहीं बिताते. वहां की हर जरूरत पर उन का ध्यान रहता. मिस्टर कुलकर्णी ने अकसर देखा था महेश सुबह औफिस जाने से पहले और आने के बाद सीधे वहीं जाते हैं और छुट्टी वाले दिन तो अकसर सामने ताला रहता, मतलब सब नारायणी के पास ही होते. 3 महीने बीत गए. होली पर भाई सपरिवार आए. पहले तो उन्हें यह प्रबंध अखरा पर कुछ कह नहीं पाए. आखिर महेश ही थे जो सालों से मां की सेवा कर रहे थे. मनाली की परीक्षाएं भी बिना किसी असुविधा के संपन्न हो गई थीं. मां की हालत खराब थी. उन्होंने खानापीना छोड़ दिया था. डाक्टर को बुला कर दिखाया गया तो उन्होंने भी संकेत दे दिया कि अंतिम समय ही है. कभी भी कुछ हो सकता है. बड़ी मुश्किल से उन के मुंह में पानी की कुछ बूंदें या जूस डाला जाता. लता काकी को इन महीनों में एक परिवार मिल गया था.

मां को कुछ होने की आशंका से लता काकी हर पल उदास रहतीं और एक रात नारायणी की सांसें उखड़ने लगीं तो लता काकी ने फौरन महेश को इंटरकौम किया. महेश सपरिवार भागे. मां ने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं. सब बिलख उठे. महेश बच्चे की तरह रो रहे थे. आभा ने सब भाइयों को फोन कर दिया. सुबह तक मुंबई में ही रहने वाले भाई पहुंच गए, बाकी रिश्तेदारों का आना बाकी था. सोसाइटी में सुबह खबर फैलते ही लोग इकट्ठा होते गए. भीड़ में लोग हर तरह की बातें कर रहे थे. कोई महेश की सेवा के प्रबंध की तारीफ कर रहा था, वहीं सोसाइटी के ही दिनेशजी और उन की पत्नी सुधा बातें बना रहे थे, ‘‘अंतिम दिनों में अलग कर दिया, अच्छा नहीं किया, मातापिता बच्चों के लिए कितना करते हैं और बच्चे…’’

वहीं खड़े मिस्टर कुलकर्णी से रहा नहीं गया. उन्होंने कहा, ‘‘भाईसाहब, महेशजी ने अपनी मां की बहुत ही सेवा की है, मैं ने अपनी आंखों से देखा है.’’

‘‘हां, पर अंतिम समय में दूर…’’

‘‘दूर कहां, हर समय तो ये सब उन के आसपास ही रहते थे. उन की हर जरूरत के समय, वे कभी अकेली नहीं रहीं, आर्थिक हानिलाभ की चिंता किए बिना महेशजी ने सब की सुविधा का ध्यान रखते हुए जो कदम उठाया था, उस में कुछ भी बुरा नहीं है. आप के बेटेबहू भी तो अपने बेटे को ‘डे केयर’ में छोड़ कर औफिस जाते हैं न, तो इस का मतलब यह तो नहीं है न, कि वे अपने बेटे से प्यार नहीं करते. आजकल की व्यस्तता, बच्चों की पढ़ाई, सब ध्यान में रखते हुए कुछ नए रास्ते सोचने पड़ते हैं. इस में बुरा क्या है. बातें बनाना आसान है. जिस पर बीतती है वही जानता है.  महेशजी और उन का परिवार सिर्फ प्रशंसा का पात्र है, एक उदाहरण है.’’ वहां उपस्थित बाकी लोग मिस्टर कुलकर्णी की बात से सहमत थे. दिनेशजी और उन की पत्नी ने भी अपने कहे पर शर्मिंदा होते हुए उन की बात के समर्थन में सिर हिला दिया था.

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इल्जाम- भाग 2: किसने किए थे गायत्री के गहने चोरी

कामिनी जी ने यह बात स्वीकार कर ली.सही मौका देख कर रिसेप्शन का आयोजन किया गया. कामिनी ने इस में अपनी सारी अधूरी तमन्नाऐं पूरी कीं. खानपान और सजावट का शानदार प्रबंध किया गया. नए कपड़े, गहने और रिश्तेदारों की जमघट के बीच वह पुराने दर्द भूल गईं. कई दिनों तक मेहमानों का आनाजाना लगा रहा. हंसीठहाकों की मजलिस के बीच घर में एक नए माहौल की शुरुआत हुई.

भवानी प्रसाद को लगने लगा कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा. उन की तरह कामिनी भी समीक्षा को दिल से स्वीकार कर लेगी. समीक्षा के घर वालों से मेलजोल बढ़ाने और कामिनी के फूले मुंह को छिपाने के लिए भवानी प्रसाद ने समीक्षा के भाईबहन को 7-8 दिनों के लिए घर में ही रोक लिया.

समीक्षा का भाई अनुज काफी मजाकिया स्वभाव का था तो वहीं बहन दिशा डांस गाने में बहुत होशियार थी. मयंक की बहन दीक्षा और भाई विक्रांत भी अनुज और दिशा के साथ खूब मस्तीधमाल करते. 3 -4 दिन इसी तरह धमालमस्ती में बीत गए. समीक्षा और मयंक भी नए माहौल का मजा ले रहे थे. कामिनी भी नार्मल रहने लगी थी. सब कुछ अच्छा चल रहा था कि इसी बीच गहनों की चोरी वाली घटना ने सब को सकते में डाल दिया. हंसीखुशी और मस्ती का माहौल कुछ ही देर में तनावपूर्ण हो गया था.

अनुज और दिशा उसी शाम अपने घर चले गए थे और समीक्षा बिल्कुल खामोश सी हो गई थी. कामिनी का बड़बड़ाना चालू रहा जब कि मयंक समीक्षा को नार्मल करने के प्रयास में लगा रहता. भवानी प्रसाद अपने कमरे में उदास से बैठे रहते. उन्होंने सोचा था घर में हंसीखुशी आएगी पर हो गया था उलटा. वक्त के साथ जख्म भरते गए. कामिनी और समीक्षा सामान्य व्यवहार करने लगी थीं मगर एकदूसरे के प्रति उदासीनता लंबे समय तक कायम रही.

करीब 6-7 माह का समय इसी तरह गुजर गया. एक दिन मयंक घर लौटा तो चेहरे पर एक अलग ही तरह के सुकून और खुशी के भाव थे.

आते ही उस ने समीक्षा से कहा, मैं ने बताया था न कि मुंबई में एक जगह खाली है और उस के लिए मैं ने महीनों पहले ट्रांसफर की अर्जी दी थी. वह आज अप्रूव हो गई. इस महीने की 25 तारीख को मुझे वहां की ब्रांच ऑफिस को ज्वाइन करना है.”

सुन कर समीक्षा का चेहरा भी खिल उठा. मयंक ने अपनी मां को यह बात बताई तो उन्होंने सवालिया नजरों से बेटे की तरफ देखा और फिर उदास हो कर पलकें झुका लीं. भवानी प्रसाद ने भी उदास हो कर अपने बेटे की तरफ देखा. दोनों समझ रहे थे कि मयंक के इस फैसले की वजह क्या है. पर वे कहते भी तो क्या.

मयंक और समीक्षा मुंबई शिफ्ट हो गए. इस के एकदो साल बाद ही मयंक के भाई विक्रांत को पुणे यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया. वह एमबीए पढ़ने वहां चला गया और जल्द ही वहीँ उसे जॉब भी मिल गई. 2 -4 साल में छोटी बहन की शादी हो गई. अब घर में केवल भवानी प्रसाद और कामिनी ही रह गए थे.

वक्त इसी तरह गुजरता गया. मयंक और समीक्षा को मुंबई आए करीब 10 साल बीत चुके थे. उन को एक प्यारा सा बेटा भी हुआ जो अब 6 साल का हो चुका था.

एक दिन मयंक के पास भवानी प्रसाद का फोन आया. वह काफी दुखी स्वर में बोल रहे थे,” बेटा तेरी मां की तबियत सही नहीं है. उसे कैंसर…,” कहतेकहते भवानी प्रसाद रो पड़े.

“यह क्या कह रहे हैं पापा, सही से बताइए क्या हुआ मां को? पापा प्लीज रोइए मत.””बेटा उसे आंतों का कैंसर हो गया है. कुछ दिनों से न ढंग से खापी रही है और न कोई काम कर पाती है. तुरंत उल्टी हो जाती है. खून भी निकलता है. इतनी कमजोर हो गई है कि क्या बताऊं. डॉक्टर ने सर्जरी और कीमोथेरपी के लिए कहा है पर बेटा मैं अकेला सब कुछ कैसे संभालूं?”

“चिंता मत करो पापा. मैं कुछ करता हूं. पहले आप यह बताओ कि विक्रांत ने क्या कहा? क्या वह आ सकता है ?””नहीं बेटा वह कह रहा है कि उस के ऑफिस में अभी 4 महीने की ट्रेनिंग है. मैं ने कहा कि बहू को भेज दे तो कह रहा है कि वह भी तो वर्किंग है. ऑफिस छोड़ कर कैसे आएगी. हम ने दीक्षा से भी कहा था पर उस के दोनों बच्चे अभी बहुत छोटे हैं. कह रही थी कि बच्चे मां को परेशान करेंगे.”

“कोई बात नहीं पापा आप चिंता न करो. मैं समीक्षा से बात करता हूं. हो सका तो वह अपने स्कूल से एक महीने की छुट्टी ले कर मां के पास पहुंच जाएगी. ”

“बेटा देख ले हमें अभी किसी की जरूरत तो बहुत है पर बहू भी तो स्कूल टीचर है, वर्किंग है. उस के जॉब पर असर न पड़े तभी भेजना. वैसे भी बहू के साथ हम ने जो सलूक किया था उस के बाद हमारा कोई हक नहीं कि हम उसे बुलाएं.”

“डोंट वरी पापा मैं बात कर के बताता हूं.”अगले दिन ही मयंक ने फोन कर के बताया,” पापा समीक्षा ने मां की सेवा के लिए एक माह की छुट्टी ले ली है. जरूरत पड़ी तो छुट्टी आगे बढ़ा लेगी. मैं भी 1 सप्ताह के लिए आ रहा हूं.”

2 दिन बाद ही मयंक समीक्षा के साथ घर पहुंच गया. कामिनी जी बेड पर थीं. नौकर भी छुट्टी पर जा चुका था. समीक्षा ने सब से पहले नहाधो कर पूरे घर की साफसफाई की. फिर सास को अच्छी तरह नहला कर कपड़े बदले. उन के बेड का कवर, पिलो कवर आदि निकाल कर धो दिए. नए बेडशीट बिछाए. परदे आदि धोए. अगले दिन ही मयंक मां को ले कर अस्पताल पहुंचा. संभावित इलाजों के बारे में बात की. अभी मां को कीमो सेशन दिए जा रहे थे. मयंक ने डॉक्टर से हर मसले पर सलाहमशवरा कर बेहतर इलाज का इंतजाम कराया. एक सप्ताह रुक कर वह वापस चला गया और समीक्षा दिल लगा कर सास की सेवा करती रही.

कामिनी जी फिलहाल निजी काम करने में भी समर्थ नहीं थीं. कई बार कपड़े में उल्टी कर देतीं तो कभी कपड़े गंदे हो जाते. खुद पर कंट्रोल नहीं रख पातीं. पर समीक्षा हर तरह की परेशानियों में सास के साथ खड़ी रहती. उन की बैसाखी बन कर वह इस तकलीफ के समय में उन का सहारा बनी हुई थी. हमेशा उन्हें खुश रखने की कोशिश करती. शरीर की तकलीफ़ों के साथसाथ मन की तकलीफें भी घटाने के प्रयास में लगी रहती. कभी मालिश करती तो कभी चंपी.

समय इसी तरह गुजरता रहा. कामिनी जी समीक्षा को दिनरात आशीर्वाद देती रहतीं. उन को अपने किए पर बहुत शर्मिंदगी महसूस होती कि जिस बहू के परिवार पर चोरी का इल्जाम लगा दिया था आज केवल वही उन के काम आ रही थी. वह चाहती तो दूसरों की तरह आने से इनकार भी कर सकती थी पर उस ने ऐसा नहीं किया. वह घर को और सास को ऐसे संभाल रही थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.

एक दिन कामिनी जी बैठीबैठी रोने लगीं. समीक्षा ने बहुत पूछा कि आखिर रोने की वजह क्या है मगर वह केवल रोती रहीं. उन्हें बहुत देर तक फफकफफक कर रोता देख समीक्षा बेचैन हो गई. वह ससुर को बुला कर लाई.

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