प्रायश्चित- भाग 1: राहुल की मम्मी की क्या हो पाई शादी

‘‘नैक्स्ट.’’

राहुल ने अपनी फाइल उठाई और इंटरव्यूकक्ष में प्रवेश कर गया. प्रवेश करने वाले को देख कर बोर्ड की चेयरपर्सन प्रभालता चौंक गईं. हालांकि उन्होंने अपनी हैरानी को अन्य लोगों पर जाहिर नहीं होने दिया पर उन की नजर आने वाले पर जड़ी रही. राहुल भी उस नजर को भांप गया था, इसलिए वह भी असहज हो रहा था. वह बोर्ड के सामने पहुंचा तब मैडम बोलीं, ‘‘सिट डाउन,’’ और वह बैठ गया.

‘‘तुम्हारा नाम?’’

‘‘राहुल वर्मा.’’

‘‘पिता का नाम?’’

‘‘राज वर्मा.’’

आमतौर पर माता का नाम नहीं पूछा जाता लेकिन चेयरपर्सन शायद उस का पूरा इतिहास जानना चाहती थीं. इसलिए उन्होंने पूछ ही लिया, ‘‘माता का नाम?’’ जैसे छोटे बच्चे से अध्यापक पूछता है.

‘‘प्रभालता.’’

चेयरपर्सन की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी साथ ही उन के चेहरे की चमक भी बढ़ती जा रही थी. बाकी लोग सवालजवाब को सुन रहे थे, चुप थे.

‘‘तुम्हारे पिता क्या करते हैं?’’

‘‘जी, मेरे पिता मेरे जन्म से पहले ही मां को छोड़ कर चले गए.’’

‘‘क्या कोई अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़ कर जाता है?’’

‘‘मेरे पिता और मां ‘लिव इन रिलेशन’ में थे. मां के अनुसार, वे जल्दी ही शादी करने जा रहे थे.’’

‘‘पर यह बात बताते समय क्या तुम्हारे मन में यह विचार नहीं आया कि तुम्हारी नौकरी की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है क्योंकि अभी हमारा समाज इतना आधुनिक नहीं हुआ है.’’

‘‘जो सच है उसे छिपाने का क्या फायदा? यदि बाद में पता चले तब वह शायद ज्यादा नुकसानदायक हो सकता है.’’

‘‘तुम बहुत अच्छा सोचते हो. वैसे तुम को इस पद का कोई अनुभव है?’’

‘‘नहीं, अभी कहीं काम नहीं कर रहा हूं. मैं कुछ ट्यूशन पढ़ा लेता हूं.’’

‘‘इंटरव्यू के बाद कहां जाओगे? सीधे घर?’’ प्रश्न अजीब था, लेकिन सब चुप रहे.

‘‘नहीं, पहले ट्यूशन पढ़ाने जाऊंगा.’’

‘‘तुम कहां रहते हो? तुम्हारी मां क्या करती हैं?’’

‘‘यहां आश्रम में रहते हैं. मां बीमार रहती हैं.’’

‘‘ठीक है, अब तुम जा सकते हो.’’ वह चौंक गया क्योंकि उस से पहले के लोगों से पद से संबंधित प्रश्न पूछे गए थे और उस से जो प्रश्न किए गए थे उन का साक्षात्कार से कोई संबंध नहीं था. वह उठा और चल दिया. मैडम उस से जिस लहजे में बात कर रही थीं उस से उसे लगा था कि मैडम शायद और लोगों से भिन्न हैं. लेकिन उस की आशाओं पर तुषारापात हो गया जब मैडम ने उसे जाने के लिए कह दिया. वह बाहर आया और जब घर चलने लगा तब चपरासी ने रोक दिया, ‘‘अभी जाना नहीं है. इंटरव्यू का परिणाम सुन कर जाना. अभी थोड़ी देर में परिणाम आ जाएगा.’’ वह रुक गया. राहुल का नंबर आने से पहले सबकुछ संस्था की परंपरा के अनुसार चल रहा था, लेकिन राहुल के इंटरव्यूकक्ष में प्रवेश करते ही सब बदल गया. इंटरव्यू के दौरान चुप रहने वाली चेयरपर्सन ने किसी और को बोलने का अवसर नहीं दिया.

अमूमन मैडम खुद परिणाम सुनाती थीं लेकिन आज यह जिम्मेदारी उन्होंने कालेज के प्राचार्य को सौंप दी. पहली बार कालेज डैमो के बाद चयन कर रहा था. 2 दिन बाद डैमो था. मैडम बाहर आईं और अपनी कार खुद ड्राइव कर ले गईं. उन्होंने ड्राइवर का भी इंतजार नहीं किया. मैडम कई बार आश्रम जा चुकी थीं. लेकिन इस बार मकसद दूसरा था. कालेज से निकल कर मैडम ने अपनी कार को आश्रम की ओर मोड़ दिया. रास्ते में उन्होंने आश्रम के बच्चों के लिए गिफ्ट, फल आदि खरीद लिए. आश्रम पहुंच कर वे संचालक के कमरे में चली गईं. संचालक से उन्होंने प्रभालता के बारे में पूछा. संचालक महोदय ने किसी के साथ उन को प्रभालता के पास भेज दिया.उस के कमरे में पहुंच कर वे झिझकीं, आखिर क्या कह कर वे उन से मिलेंगी. अंदर पहुंच कर उन्होंने देखाराहुल की मम्मी बिस्तर पर लेटी हुई थीं. कमरा साफसुथरा था. मैडम मुसकरा उठीं. बिस्तर पर लेटी प्रभालता ने आने वाली को देखा और पूछा, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं?’’

‘‘मैं प्रभा इंडस्ट्रीज की मालिक, प्रभालता.’’

वे हंस पड़ीं और बोलीं, ‘‘आप तो मेरी हमनाम हो. पर आप को मुझ से क्या काम है?’’ ‘‘आप का बेटा मेरे कालेज में इंटरव्यू देने आया था.’’

‘‘तो क्या आप इंटरव्यू देने वाले हर एक के घर जाती हैं?’’

‘‘नहीं, आप के बेटे ने जिस प्रकार इंटरव्यू में अपनेआप को प्रस्तुत किया उस के बाद उस मां से मिलने का मन किया, जिस ने इतने अच्छे संस्कार दिए.’’

राहुल की मम्मी मुसकरा कर बोलीं, ‘‘आप उस की कुछ ज्यादा ही तारीफ कर रही हैं.’’ लेकिन मैडम शायद जल्दी से मुद्दे पर आना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने पूछ ही लिया, ‘‘राहुल के पापा?’’

‘‘वे इस के जन्म से पहले ही चले गए.’’

‘‘यह तो राहुल ने बताया है. आप तो यह बताओ कि क्या उन को पता था कि आप गर्भवती हो?’’

‘‘उन को पता नहीं था.’’ मैडम ने ठंडी सांस ली. मन ही मन एक तसल्ली हुई. वे ऐसा क्यों कर रही थीं? अभी तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा था.

मैडम ने पूछा, ‘‘राहुल के पापा घर छोड़ कर क्यों चले गए?’’ ‘‘इस प्रश्न का उत्तर तो मैं आज भी खोज रही हूं. जिस दिन वे गए थे उस दिन हम दोनों की आपस में लड़ाई हुई थी. पर ऐसा तो होेता रहता था. मैं ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था. मैं डाक्टर के पास चली गई. मैं गर्भवती हो गई थी. मैं खुशीखुशी घर आ गई. मैं यह खुशखबरी सुनाने के लिए उन का इंतजार करने लगी. वह इंतजार आज भी है. वे आए ही नहीं.’’

‘‘उन के औफिस से पता नहीं किया?’’

‘‘उन्होंने इतनी जल्दीजल्दी नौकरियां बदलीं कि यह पता नहीं चला कि कहां काम कर रहे हैं. हां, इतना जरूर था कि उस बार उन्होंने कहा था, अब हम जल्दी शादी कर लेंगे. यहां अपनी गाड़ी लंबे समय तक चलेगी. मैं बहुत खुश हो गई क्योंकि इन शब्दों का मुझे बहुत दिनों से इंतजार था. डाक्टर की सूचना से मैं और खुश हो गई. परंतु शाम होतेहोते मेरी सारी खुशी काफूर हो गई. वे दोपहर का खाना खाने भी नहीं आए. और आज तक नहीं आए.’’ वातावरण गंभीर हो गया. कुछ देर वहां चुप्पी छा गई. फिर राहुल की मां ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘जब उन को कुछ दिन से नहीं देखा तब लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई. शादीशुदा नहीं थी और एक कुंआरी लड़की किसी मर्द के साथ एक कमरे में रहे, उस समय के लोगों के लिए अजूबा था. जब तक वे रहे तब तक लोग कुछ नहीं बोले, लेकिन उन के जाने के बाद लोगों की नजरें बदल गईं. लोगबाग मुझे ऐसीवैसी औरत समझने लगे. मेरा लोगों की नजरों से बचना मुश्किल होने लगा.

बच्चे भी करते हैं मां-बाप पर अत्याचार

आप ने मर्द को औरत पर अत्याचार करते सुना होगा और औरत को भी मर्द पर अत्याचार करते सुना होगा. आप ने मांबाप को बच्चों पर अत्याचार करते सुना होगा. पर क्या आप ने कभी यह सुना है कि छोटेछोटे बच्चे भी मांबाप पर अत्याचार करते हैं? जिस प्रकार से उपरोक्त सारी बातें सच हैं उसी तरह यह भी सच है कि छोटेछोटे बच्चे भी मांबाप पर अत्याचार करते हैं. बहुत छोटे बच्चों का छोटीछोटी जिदों को मनवाने के लिए रूठना, कुछ खाने या कुछ न खाने की जिद में जोरजोर से रोनाचिल्लाना आदि उन की उम्र के मानसिक उत्पीड़न के उपकरण हैं.

यही बच्चे जब कुछ बडे़ हो कर स्कूल पहुंचते हैं तो जिस प्रकार ये मांबाप को पीड़ा पहुंचाते हैं वह न सुनते बनता है न कहते. शुरू में तो इन के टीचर ही इन के मसीहा बन जाते हैं. जो टीचर जिस बच्चे को भा गई, समझिए कि बच्चा आप का न रह कर उस का बन गया. वह टीचर चाहे जितनी भी गलत हो, बच्चा आप की सही बात को भी मानने को तैयार नहीं होगा और उस की गलत से गलत बात को भी सही मान कर उसी पर अमल करेगा, फिर चाहे आप जितने दुखी होते फिरें, बच्चे की बला से.

बच्चा जैसे ही कुछ और बड़ा हुआ और दोस्तों में रमने लगा, तब तो पूछिए मत. उस का दोस्त या सहेली ही उस के लिए सबकुछ हो जाएंगे, फिर चाहे मांबाप दीवार से सिर फोड़ लें, बच्चा फिर भी उन्हें ही गलत मानेगा. इस के पीछे पहला कारण तो उम्र का फासला है और दूसरा, मांबाप बच्चे को गलत काम करने से रोकते हैं, हर वक्त नसीहतें देते रहते हैं. और यही बच्चों को अच्छा नहीं लगता.

विदेशों में स्थिति

अपने देश में तो फिर भी डांट- फटकार से बात संभल जाती है पर इस संयुक्त राज्य अमेरिका की धरती पर, जहां वातावरण अलग है, विचारधारा अलग है, सोच अलग है और सब से बड़ी बात अप्रोच अलग है, बच्चे मांबाप के लिए मुसीबत का कारण बन जाते हैं. कई बार तो वे ऐसी स्थितियां खड़ी कर देते हैं कि मांबाप के लिए मुसीबत का पहाड़ ही तोड़ देते हैं. मैं ने कई घर वालों को अपने बच्चों के कारण खून के आंसू रोते देखा है.

भारतीय परिवेश से दूर अमेरिका, कनाडा सरीखे विकसित देशों में सब से बड़ी तलवार जो मांबाप के सिर पर लटक रही है वह है फोन नंबर 911 की तलवार. है तो यह ठीक वैसी ही तलवार जो भारत के फोन नंबर 100 की है पर उस से कहीं अधिक दुधारू और जानलेवा है. परिवार के जिस सदस्य पर यह तलवार उठ जाती है केवल वह सदस्य नहीं बल्कि समूचे परिवार का अस्तित्व भरभरा कर ढह जाता है. फर्ज कीजिए, किसी बच्चे की शरारतों से खीज कर उस के पिता या मां ने एक थप्पड़ जड़ दिया. कुछ नहीं, बच्चा रोधो कर चुप हो गया. दूसरे दिन बच्चा स्कूल गया और बातोंबातों में उस ने थप्पड़ वाली बात दोस्तों या टीचर को बता दी. दोस्तों ने कहा कि तेरे पापा ने थप्पड़ मारा तो तू ने पुलिस को क्यों नहीं बताया. वह आ कर पापा को डांट देते और फिर तेरे पापा या मम्मी कभी तेरे को कुछ नहीं कहते.

बच्चे को यह नुस्खा बड़ा कारगर लगा. डांटने का सारा सिलसिला खत्म और मौजमस्ती करने की पूरी छूट. अगर कोई डांटे तो 911 पर काल कर पुलिस को बुला लो. किसी बच्चे को मातापिता अथवा टीचर द्वारा थप्पड़ मारने पर उन को जेल हो जाना यहां के लोगों के लिए आम बात है लेकिन हमारे जैसे भारतीय परिवारों के लिए मुसीबत का वारंट.भारत तथा एशिया के दूसरे देशों से आए बच्चों में लाखों में से कोई एकआध के साथ ही ऐसी परिस्थिति आती होगी कि कोई बच्चा अपने मातापिता, परिवार के किसी सदस्य अथवा टीचर के खिलाफ पुलिस बुला ले. अगर ऐसा हो भी जाए तो पुलिस आ  कर बच्चे तथा उस को परेशान करने वाले को थोड़ा सा डराधमका कर मामला साफ कर देती है लेकिन अमेरिका की बात बिलकुल अलग है. यहां के स्कूली वातावरण में पलेबढे़ बच्चे इतने एग्रेसिव होते हैं कि वे खुद 911 नंबर डायल कर फोन उस बच्चे के हाथ में पकड़ा देंगे और उसे पुलिस को थप्पड़ वाली बात कहने के लिए उकसाएंगे. बच्चा अपनी मासूमियत में या फिर मित्रों के दबाव में आ कर थप्पड़ वाली बात पुलिस वालों को बता देगा और पुलिस पहुंच जाएगी उस के घर से उस के मांपिताजी को अरेस्ट करने के लिए.

बात अगर बच्चों तक ही सीमित रह जाए तो भी गनीमत है, टीचर को भी अगर किसी बच्चे को घर पर पडे़ थप्पड़ की बात पता चल गई तो वह स्वयं ही 911 पर काल कर के फोन बच्चे को पकड़ा देगी पुलिस को थप्पड़ का हाल बयां करने के लिए. तो लीजिए, टीचर की अथवा बच्चों की तो ठिठोली या यों कहिए कर्तव्यपूर्ति हो गई लेकिन सारा का सारा परिवार जेल पहुंच गया सोचिए कि उस परिवार में अगर केवल पिता ही कमाने वाला है और वही 6 महीने के लिए अरेस्ट हो गया और मां को अंगरेजी नहीं आती या कोई और मजबूरी है तो उस परिवार को तो आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता ही नहीं सूझेगा. ऐसी ही अनेक बातें हैं जिन पर बाहर से आए परिवारों को सावधानी से खुद को समझना और अपने बच्चों को समझाना बहुत जरूरी है ताकि कहीं ये बिना सोचेसमझे कदम न उठा दें.

ऐसी ही एक दूसरी कुशिक्षा जो एशियन देशों से आए बच्चे यहां आ कर उम्र से पहले ही सीख जाते हैं, वह है सेक्स की समय से पूर्व जानकारी. उन के मित्रों से मिली अधकचरी जानकारी उन्हें समय से पहले सेक्स सागर में गोते लगाने को उकसाने के लिए पर्याप्त है. ऐसे में घर में मांबाप की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है. इस के अलावा यहां आसानी से उपलब्ध इंटरनेट सुविधा आग में घी डालने के लिए पर्याप्त है. यह तो नामुमकिन है कि इन सब स्थितियों से बच कर आप यहां रह पाएंगे पर इतना तो कर ही सकते हैं कि बच्चों में अपने देश की संस्कृति और सभ्यता के बीज इतनी गहराई से बोते चले जाएं कि पथभ्रष्ट होने से पहले बच्चा सौ बार सोचने के लिए विवश हो जाए. अमेरिका आ कर सब को पैसा कमाने की ऐसी धुन सवार होती है कि बच्चों को लोग लगभग भूल ही जाते हैं और बच्चे हाथ से निकल जाते हैं. ऐसी गलतियों से स्वयं बचना और अपने बच्चों को भी बचाना नितांत आवश्यक है वरना लेने के देने पड़ सकते हैं और जिस जिंदगी को लोग खुशियोें का चार्टर बनाने के अपने संजो कर यहां आते हैं वह टार्चर बन कर रह जाती है.

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वो कोना: नीरा के मन में क्या थी कड़वाहट

कामवाली बाई चंदा से गैस्टरूम की सफाई कराते समय जैसे ही नीरा ने डस्टबिन खोला, उस में पड़ी बीयर की बोतलों से आ रही शराब की बदबू उस के नथुनों में जा घुसी. इस से उस का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा. वह तमतमाती हुई कमरे से बाहर निकली और जोर से चिल्लाई, ‘‘रोहन…रोहन, जल्दी नीचे आओ. मुझे अभी तुम से बात करनी है.’’ उस का तमतमाया चेहरा देख कर चंदा डर के कारण एक कोने में खड़ी हो गई. रोहन के साथसाथ दोनों बेटियां 9 वर्षीया इरा और 12 वर्षीया इला भी हड़बड़ाती सी कमरे से बाहर आ गईं. ‘‘ये बीयर की बोतलें घर में कहां से आईं रोहन?’’ नीरा ने क्रोध से पूछा.

‘‘आशीष लाया था, पर तुम इतने गुस्से में क्यों हो? आखिर हुआ क्या?’’ हमेशा शांत और खुश रहने वाली नीरा को इतना आक्रोशित देख कर रोहन ने हैरान होते हुए पूछा. ‘‘ये बीयर की बोतलें मेरे घर में क्यों आईं और किस ने डिं्रक की?’’ नीरा ने फिर गुस्से से चीखते हुए पूछा.

‘‘अरे, कल तुम मम्मी के यहां गई थीं न, तब मेरे कुछ दोस्त यहां आ गए. उन में से एक का जन्मदिन था. तो खापी कर चले गए. पर इस में इतना आसमान सिर पर उठाने की क्या बात है?’’ रोहन ने तनिक झुंझलाते हुए कहा. ‘‘रोहन, तुम्हें पता है कि मुझे ये सब बिलकुल भी पसंद नहीं है. और मेरे ही घर में, मेरा ही पति.’’ नीरा चीखती हुई बोली और जोरजोर से रोने लगी. नीरा का रौद्र रूप देख कर सभी हैरान थे. थोड़ी देर बाद इरा और इला चुपचाप तैयार हो कर अपने स्कूल चली गईं. नाश्ता कर के रोहन औफिस जाने से पहले नीरा से बोला, ‘‘चंदा के जाने के बाद तुम थोड़ा आराम कर लेना, तुम्हारी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही.’’

नीरा बिना कोई उत्तर दिए शांत बैठी रही. चंदा के जाने के साथ ही घर का काम भी खत्म हो गया. डायनिंग टेबल पर खाना लगा कर नीरा आंखें बंद कर के लेटी ही थी कि बड़ी बेटी इला स्कूल से आ गई. दरवाजा खोल कर वह फिर बिस्तर पर आ लेटी. इला अपना खाना ले कर मां के पास ही आ कर बैठ गई.

नीरा का मूड कुछ ठीक देख कर वह धीरे से बोली, ‘‘मां, सुबह आप को इतना गुस्सा क्यों आ गया था. इतना गुस्सा होते मैं ने आप को कभी नहीं देखा.’’

‘‘तो इस से पहले तुम्हारे पापा ने भी तो ऐसा काम नहीं किया था,’’ नीरा दुखी होती हुई बोली. ‘‘मम्मा, पापा तो कभी नहीं पीते, हो सकता है कोई और ले कर आ गया हो. आजकल तो यह फैशन माना जाता है, मां.’’

‘‘फैशन को स्थायी आदत बनते देर नहीं लगती, बेटा. अब तू जा और अपनी पढ़ाई कर. तेरी इस सब में पड़ने की उम्र नहीं है,’’ नीरा ने इला को टालने की गरज से कहा. ‘‘मां, आप भी न,’’ इला ने तुनक कर कहा और अपने रूम में चली गई.

नीरा सोचने लगी, इला को तो उस ने समझा दिया, वह बहल भी गई पर अपने मन के उस कोने को वह कहां ले जाए जहां सिर्फ दुख ही दुख था. वह अपने बचपन में बहुत कुछ देख चुकी थी. उस के पापा रेलवे में थे और कभीकभार पीना उन के शौक में शामिल था. वे जब भी पी कर आते, मम्मीपापा दोनों में जम कर लड़ाई होती. 7 साल की बच्ची नीरा डर कर एक कोने में खड़ी हो कर दोनों को झगड़ते देखती और फिर सो जाती. अगली सुबह मांपापा को प्यार से बातें करते देखती तो फिर खुश हो जाती. धीरेधीरे नीरा को समझ आने लगा था कि मां को पापा का शराब पीना बिलकुल भी पसंद नहीं था. पापा मां से कभी न पीने का प्रौमिस करते और कुछ दिनों बाद फिर पी कर आ जाते और मां गुस्से से पागल हो जातीं.

उस समय वह 10 साल की थी जब मामा की शादी में वे लोग आगरा गए थे. पापा उस दिन कुछ ज्यादा ही पी कर आ गए थे, इतनी कि उन से ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. नाना के घर में ये सब मना था. मामा और नाना की आंखों से मानो क्रोध के अंगारे निकल रहे थे. मां एक कोने में खड़ी आंसू बहा रही थीं. आज तक उन्होंने मायके में किसी को पापा के शराब पीने के बारे में नहीं बताया था. पर आज पापा ने उन्हें सब के सामने बेइज्जत कर दिया था. मामा किसी तरह उन्हें बैड पर लिटा कर आ गए थे. तब से उस के मन में भी शराब के प्रति नफरत भर गई थी.

अचानक इला की आवाज से वह पुरानी बातों से बाहर निकली. ‘‘मां, पापा आ गए हैं, चाय बना दी है, आप भी आ कर पी लीजिए.’’

वह उठ कर डायनिंग टेबल पर आ कर बैठ गई और खामोशी से चाय पीने लगी.

‘‘कैसी तबीयत है अब नीरा?’’ रोहन ने प्यार से पूछा. ‘‘मेरी तबीयत को क्या हुआ है?’’ नीरा तुनक कर बोली.

‘‘वह सुबह, तुम…’’ रोहन कुछ बोलता उस से पहले ही नीरा ने रोहन का हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोली, ‘‘रोहन, प्लीज दोबारा ऐसा मत करना. तुम तो कभी नहीं पीते थे, फिर अब ये दोस्तों को घर ला कर पीनापिलाना कैसे शुरू कर दिया?’’ ‘‘अरे, मैं कहां पीता हूं. आज शादी को 15 साल हो गए, तुम्हें कभी शिकायत का मौका मिला? पर हां, परहेज भी नहीं है. कालेज में कभीकभार पी लेता था. तुम्हें तो पता ही है कि पिछले महीने मेरा कालेज का दोस्त आशीष तबादला हो कर यहीं आ गया है. उसे लगा कि मैं अभी भी…सो, वही ले कर आ गया. कुछ और मित्र भी थे उस के साथ. तुम थीं नहीं तो यहीं खापी कर चले गए. झूठ नहीं कहूंगा, उन के साथ मैं ने भी थोड़ी सी ली थी. पर मुझे नहीं लगता कि वह इतनी बड़ी बात है जिस के लिए तुम इतनी ज्यादा परेशान हो,’’ रोहन ने प्यार से नीरा को समझाने की कोशिश करते हुए यह कहा तो नीरा की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

वह भर्राए हुए स्वर में बोली, ‘‘रोहन, आज तक कभी ऐसा अवसर आया ही नहीं जो मैं तुम्हें बताती कि इस शराब के कारण मेरा बचपन, मेरे मातापिता का प्यार सब गुम हो गया और मैं समय से बहुत पहले ही बड़ी हो गई.’’ ‘‘क्या मतलब, पापाजी?’’ रोहन हैरानी से बोला.

‘‘हां रोहन, पापा डिं्रक करते थे, पर कभीकभार. मां ने अपने घर में कभी ऐसा कुछ नहीं देखा था. पर फिर भी शुरू में उन्होंने अनदेखा किया और पापा से शराब छोड़ने के लिए कहा. पहले जब भी पापा पी कर आते थे, तो चुपचाप आ कर सो जाते थे. धीरेधीरे पापा का पीना बढ़ता गया. जब भी पापा पी कर आते, मां का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचता. दोनों में जम कर बहस होती और हमारा घर महाभारत का मैदान बन जाता था,’’ कहते हुए नीरा एक बार फिर अतीत में पहुंच गई. ‘‘तुम्हें पता है रोहन, जब मैं 12वीं की फाइनल परीक्षा दे रही थी तो एक दिन पापा पी कर घर आ गए. मम्मीपापा में उस दिन बात हाथापाई तक पहुंच गई. पापा गुस्से में घर से बाहर चले गए और रातभर वापस नहीं आए. दोनों को याद भी नहीं रहा कि कल उन की बेटी का एग्जाम है. नतीजा यह हुआ कि अगले दिन होने वाला मेरा कैमिस्ट्री का पेपर शराब की भेंट चढ़ गया. मैं पूरी रात रोती ही रही,’’ नीरा ने उदासी भरे स्वर में कहा.

‘‘ओह, तो इसलिए तुम सुबह गुस्से में थीं. पर आज तक तुम ने इस बारे में कभी बताया ही नहीं,’’ रोहन ने गंभीर स्वर में कहा. ‘‘मैं जब शादी के बाद यहां आई तो सब से ज्यादा खुश इसी बात से थी कि तुम्हारे यहां शराब को कोई हाथ भी नहीं लगाता था. मैं तुम्हें ये बातें बता कर अपने पापा की इमेज खराब नहीं करना चाहती थी. पर आज…’’ नीरा ने गहरी सांस लेते हुए बात अधूरी ही छोड़ दी.

‘‘चलो, अब दुख देने वाली यादों को दिल से निकाल दो. ये बंदा तुम्हारा दीवाना है, जो तुम कहोगी वही करेगा. चलो, हम दोनों मिल कर डिनर की तैयारी करते हैं,’’ रोहन ने हंसते हुए कहा और नीरा को ले कर किचन में चला गया. ‘‘रोहन, तुम सच कह रहे हो न?’’ पहले के अनुभवों से डरी नीरा गैस पर कुकर चढ़ाती हुई बोली.

‘‘हां भई, हां. पर एक बात कहूं नीरा, बुरा मत मानना. चूंकि तुम्हारे पापाजी तो हमारी शादी के 6 माह बाद ही गुजर गए थे पर जितना मैं ने उन्हें तुम्हारे बाबत जाना है, उस से लगता है कि वे सुलझे हुए इंसान थे. फिर उन को पीने की इतनी लत कैसे लग गई कि वे छोड़ ही नहीं पाए. जरूर तुम्हारी मम्मी तुम्हारे पापा को अपना दीवाना नहीं बना पाई होंगी. देखो, तुम ने कैसे मुझे अपने प्यार के जाल में बांध रखा है,’’ रोहन ने माहौल को हलका करने की गरज से नीरा को छेड़ते हुए कहा. ‘‘हां, रोहन, तुम काफी हद तक सही हो. मां ने पापा को कभी समझने की कोशिश नहीं की. पापा अपने परिवार को बहुत चाहते थे और मां उन के परिवार से उतनी ही नफरत करती थीं. अकसर इन्हीं मुद्दों पर बहस शुरू होती, जो झगड़े का रूप ले लेती. पापा गुस्से में घर से बाहर चले जाते और शराब का सहारा ले लेते. हमारे घर में रुपयापैसा सबकुछ था. बस, शांति नहीं थी.

‘‘इसीलिए तो मैं कह रही थी रोहन कि कभीकभार पीना कब हमेशा की लत बन जाती है, इंसान को पता ही नहीं चलता. तुम्हें ताज्जुब होगा कि पापा मेरी शादी के दिन भी खुद को कंट्रोल नहीं कर पाए थे और विदाई से पहले पी कर आए थे. उन का अंत भी शराब से ही हुआ. एक रात नशे में गाड़ी चला कर आ रहे थे कि एक ट्रक ने टक्कर मार दी. उस समय चूंकि मेरी नईनई शादी हुई थी, इसलिए उन की मौत को सिर्फ दुर्घटना के रूप में ही प्रस्तुत किया गया. परंतु सचाई यह थी कि वे शराब के नशे में गाड़ी चला रहे थे,’’ बोलतेबोलते नीरा सिसकने लगी. ‘‘बस, अब और दुखी होने की जरूरत नहीं है. खाना खाते हैं चल कर,’’ रोहन ने नीरा का मूड बदलने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘हां, इला और इरा को भी आवाज लगा दो, तब तक मैं खाना लगाती हूं,’’ नीरा ने आंसू पोंछते हुए कहा और टेबल पर खाना लगाने लगी. ‘‘अरे वाह, आलू के परांठे,’’ इरा कैसरोल में आलू के परांठे देख कर खुशी से चहकती हुई बोली.

‘‘वेरी अनएक्सपैक्टिड, वरना मां का सुबह से मूड देख कर तो मुझे लगा था कि आज खाने में खिचड़ी या दलिया ही मिलने वाला है. पापा, आप ने खाना बनाया?’’ इरा ने मुसकराते हुए तिरछी नजरों से रोहन की ओर देखते हुए पूछा. ‘‘अरे, नहीं भाई, तुम्हारी मम्मी ने ही बनाया है. तुम्हारी मम्मी की यही तो खासियत है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, यह अपने बच्चों और पति को नहीं भूलती. क्यों, है न नीरा?’’ रोहन ने मुसकराते हुए उस की ओर देखते हुए कहा तो वह भी अपनी मुसकान को नहीं रोक सकी.

दोनों बेटियां खाना खा कर चली गईं तो रोहन ने नीरा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और प्यार से बोला, ‘‘मेरे दिल की रानी, इतनी पीड़ा, इतना दुख अपने मन में समेटे थी और मुझे आज तक आभास ही नहीं हुआ. कैसा पति हूं मैं?’’ रोहन ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘नहीं रोहन, ऐसा मत कहो. खुद को जरा भी दोष मत दो. तुम्हारे जैसा समझदार और प्यार करने वाला पति, फूल सी प्यारी 2 बेटियां और इतने अच्छे सासससुर को पा कर मैं अपनी दुखतकलीफ भूल गई थी. पर आज ये बोतलें देख कर लगा कि अतीत की काली परछाइयां एक बार फिर मुझे घेरने आ गई हैं,’’ नीरा गंभीर स्वर में बोली. ‘‘आज से, बल्कि अभी से ही यह बंदा तुम से प्रौमिस करता है कि शराब या उस से जुड़ी किसी भी चीज को ताउम्र हाथ नहीं लगाएगा. खुश…’’ रोहन ने प्यार से नीरा के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘दरअसल नीरा, हम पुरुष बड़े अलग मिजाज के होते हैं. हम से जो काम प्यार से करवाया जा सकता है, वह गुस्से और अहं से बिलकुल मुमकिन नहीं है. बस, शायद मम्मीजी से यहीं चूक हो गई. वे प्यार और समझदारी से काम लेतीं तो शायद बात कुछ और होती. वे पापा को समझ नहीं पाईं, पर इस का मतलब यह भी नहीं कि पापा शराब पी कर घर के माहौल को और खराब करते. कभी अच्छे पलों में वे भी तो मां को समझाने की कोशिश कर सकते थे. उन्होंने खुद कभी इसे छोड़ने के बारे में क्यों नहीं सोचा?’’ रोहन बरतन सिंक में रखते हुए धीरे से बोला.

‘‘ऐसा नहीं है रोहन, पापा ने कई बार छोड़ने की कोशिश की पर शायद उन्हें घर में वह कोना ही नहीं मिल पाता था जहां वे सुकून तलाशते थे. दादी, चाचा, बूआ या परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए जब भी पापा कुछ करना चाहते, मां बिफर जातीं. पापा घर से दूर और शराब के नजदीक होते गए. न मां खुद को बदल पा रही थीं और न पापा. ऐसा नहीं कि दोनों में प्यार की कोई कमी थी, बस, जैसे ही शराब बीच में आ जाती, घर का पूरा माहौल ही बदल जाता था.’’ ‘‘अरे, बाप रे, 12 बज गए. सुबह मुझे औफिस भी जाना है,’’ कह कर रोहन उसे बैडरूम में ले गया.

जब वह बिस्तर पर लेटी तो रोहन ने उस का सिर अपने सीने पर रख लिया और बोला, ‘‘आज के बाद इस घर में ऐसी कोई चर्चा नहीं होगी.’’ नीरा बरसों से मन में दबी कड़वाहट, दुख, तकलीफ सब भूल कर चैन की नींद सो गई.

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Summer Special: बच्चों को परोसें अंजीर खूबानी स्मूदी

अगर आप हेल्दी स्मूदी गर्मियों में ट्राय करना चाहते हैं तो अंजीर खूबानी स्मूदी आपके लिए बेस्ट औप्शन है.

सामग्री

6 सूखे अंजीर 3-4 घंटे पानी में भीगे हुए

2 पकी खूबानियां

100 ग्राम मावा

1/2 लिटर ठंडा दूध

1 बड़ा चम्मच पिसी चीनी

5-6 भीगे व छिले बादाम

1/2 छोटा चम्मच इलायची पाउडर

1/2 कप बर्फ कुटी

थोड़ी सी पुदीना पत्ती कटी

विधि

मावा और दूध को मिला कर गरम करें. फिर चीनी डालें और अच्छी तरह मिलाएं. अब अंजीर, गुठली निकली खूबानियां और बादाम मिक्सी में डाल कर पेस्ट बना लें. अब इस में मावा मिश्रण, इलायची पाउडर और बर्फ डाल कर पीसें.

मिश्रण को गिलास में डाल पुदीनापत्ती से सजा कर सर्व करें.

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Summer Special: नागालैंड में मनाएं छुट्टियां

नागालैंड, भारत के पूर्वोत्तर का एक पहाड़ी क्षेत्र है जो अपनी पहाड़ियों और लुभावनी घाटियों के लिए प्रसिद्ध है. यहां का शांत वातावरण आपके मन को सुकून देगा और आप सारे गम भूल जायेंगे. इस जगह की खूबसूरती पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है. अक्टूबर से जून के बीच यहां घूमना सबसे अच्छा रहता है. 2438.4 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है.

कोहिमा वार सेमेटेरी

अगर आप विश्व युद्ध के इतिहास को याद करना चाहते हैं तो एक बार कोहिमा वार सेमेटेरी जरूर जाए. यह वार सेमेटेरी ब्रिटिश, भारतीय और ANZAC सैनिकों के सम्मान में समर्पित किया गया है.

मोकोकचुंग

मोकोकचुंग को नागालैंड की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी माना जाता है. ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और नदियों की ध्वनि आपको बहुत प्रभावित करेगी. यह पारंपरिक भूमि त्यौहार के मौसम के दौरान और सुंदर हो जाती है. यह समुद्र तल से 1325 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. मोकोकचुंग का मौसम साल भर एक जैसा ही होता है.

कैथोलिक चर्च

कोहिमा के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक है. यह एक बहुत ही पुरानी बैपटिस्ट कैथेड्रल है. यह जगह आपको नागालैंड के ईसाई धर्म के महत्त्व को दर्शाता है. यह चर्च बहुत ही बड़ा है और इसके जैसे आकार वाली चर्च आपको देखने नहीं मिलेगी. चर्च के अंदर की पेंटिंग बहुत ही खूबसूरत हैं.

डूज़ुकू वैली

डूज़ुकू वैली मनीपुर के सीमा के पास स्थित है. यह कोहिमा से लगभग 30 किमी की दूरी पर है. इस घाटी को अपनी प्राकृतिक सुंदरता और हर मौसम के फूलों के लिए जाना जाता है. डूज़ुकू घाटी की यात्रा करने के लिए सबसे अच्छा समय वसंत का होता है, इस समय पूरी घाटी फूलों से ढकी हुई होती है.

नागा हिल्स

नागा हिल्स 3825 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यह भारत और बर्मा के सीमा पर स्थित है. ‘नागा’ शब्द वहां के नागा लोगों के कारण रखा गया था, जिन्हे बर्मी भाषा में नागा या नाका बोला जाता है.

सोम

कोन्यक नागाओं की भूमि, सोम नगालैंड में यात्रा करने के लिए एक दिलचस्प जगह है. कोन्यक खुद को नूह और अभ्यास कृषि के वंशज मानते हैं. सोम जिला नागालैंड के उत्तरी दिशा में है. यह उत्तर में अरुणाचल प्रदेश के राज्य से घिरा है , असम के पश्चिम में और म्यांमार के पूर्व में है.

दीमापुर

दीमापुर नागालैंड का प्रवेश द्वार है. दीमापुर एक कमर्सियल प्लेस है. यहां आपको हर तरह के जरूरत के सामान मिल जाएंगे. दीमापुर में घूमने के लिए कई स्थान हैं. जैसे कछारी खंडहर, इनटंकी वन्यजीव अभयारण्य, दीमापुर प्राणी उद्यान, हरा पार्क, रिजर्व वन, शिल्प गांव, हथकरघा और हस्तशिल्प एम्पोरियम और दीमापुर ए ओ बैपटिस्ट चर्च.

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वो अजनबी है: प्रिया ने क्या किया था

मेरेजीवन में तुम वसंत की तरह आए और पतझड़ की तरह चले गए. तुम ने न तो मेरी भीगी आंखों को देखा और न ही मेरी आहों को महसूस किया.

यदि मैं चाहती तो तुम्हें बता देती कि तलाक लेना इतना भी आसान नहीं जितनी आसानी से मैं ने तुम्हारे उन तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, जिन्होंने मेरी वजूद की नींव को ही हिला दिया.

यदि मैं चाहती तो अपनी इस टूटीबिखरी जिंदगी का मुआवजा तुम से जीवनभर वसूलती रहती पर मेरे अंदर की औरत को यह कतई मंजूर नहीं था, क्योंकि जिस रिश्ते को अंजाम तक पहुंचना ही नहीं था उसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ने में ही मुझे अपनी और तुम्हारी भलाई दिखी थी.

मगर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ चंद्र? हमतुम प्यार करते थे न? तुम ने मेरी नौकरी के साथ ही मुझे अपनाया था न? फिर शादी के बाद ऐसा क्या हुआ जो तुम आम मर्दों की तरह अपनी जिद को मुझ पर लादने लगे?

अब तुम्हें क्या पता कि यह नौकरी मुझे कितनी मुश्किल से मिली थी पर तुम ने तो बिना सोचेसमझे ही फैसला कर लिया और हुक्म दे दिया कि यह नौकरी छोड़ दो निर्मला.

चंद्र तुम्हें क्या पता कि मुश्किलों से मिली चीज को आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता. फिर यह तो मेरी नौकरी थी न. तुम ने मुझे एक बेटी दी. याद है उस के जन्म पर हम दोनों कितने खुश थे पर तुम्हारी जिद ने इस खुशी के एहसास को भी कम कर दिया. तुम्हारा कहना था कि औरत का काम घर और बच्चे संभालना है. मैं हैरान थी. तुम कितने बदल गए थे. धीरेधीरे मुझे लगने लगा था कि तुम्हारे साथ मेरा कोई भविष्य नहीं है. तुम मेरी सोच को दबा कर मुझ पर हुकूमत करना चाहते थे.

आखिर हमारे तलाक का मुकदमा अदालत में आ ही गया. 5 साल तक हर तारीख पर मैं अदालत की सीढि़यां चढ़तीउतरती रही. दिलदिमाग सब सुन्न पड़ गए थे. कभीकभी सोचती पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा, पर आखिर छुटकारा मिल ही गया. जब 2 लोग आपसी तालमेल से साथ नहीं रह सकते तो कानून भी आखिर कब तक उन्हें बांध कर रख सकता था. पर जिस दिन तलाक मिल गया उस दिन लगा जैसे सबकुछ टूट कर बिखर गया और एक डर ने धड़कनें बढ़ा दीं. जब एक दिन चंद्र ने कानून के जरीए प्रिया को पाने की कोशिश की.

मगर तुम ने पास आ कर कहा, ‘‘निर्मला प्रिया तुम्हारे पास ही रहेगी, पर कभी यह मत भूलना कि वह मेरी भी बेटी है. मैं उस से मिलने आता रहूंगा, उस की चिंता रहेगी मुझे.’’

मैं क्या कहती. सबकुछ तो टूट गया था. पहले चंद्र से प्यार हुआ, फिर परिवार से बगावत कर के उस से शादी हुई. बच्ची पैदा हुई और फिर अकेली हो गई. नौकरी और चंद्र में से मुझे किसी एक को चुनना था और मैं ने नौकरी को चुन लिया. जानती थी सरकारी नौकरी थी. मरते दम तक साथ देगी पर चंद्र? उस ने तो बीच चौराहे पर अकेला छोड़ दिया था.

जख्म ताजा था, दर्द भी काफी था पर समय के साथसाथ हर जख्म भर जाता है,

ऐसा सुना था और सोचा मेरा भी भर ही जाएगा.

चंद्र और प्रिया के बीच एक डेट फिक्स हो गई थी. हर महीने का एक दिन उस ने प्रिया के नाम किया था. उस दिन का इंतजार प्रिया भी बेसब्री से करती. चंद्र आता और प्रिया को ले जाता. शाम को जब प्रिया वापस आती तो उस के पास ढेर सारे गिफ्ट होते. वह कहती कि मां पापा कितने अच्छे हैं, मेरा कितना खयाल रखते हैं और मैं… मेरे दिल में एक हूक सी उठती. इस बात का जवाब मुझे कभी नहीं मिलता कि मैं कैसी मां हूं.

प्रिया का कहना भी ठीक था. चंद्र ने न तो वह घर मुझ से वापस लिया, न ही अपनी बेटी, फिर मैं उस पर क्या इलजाम लगाऊं.

तलाक के बाद चंद्र ने कहा, ‘‘निर्मला, तुम प्रिया के साथ इसी घर में रहोगी.’’

मगर वह जैसे ही जाने लगा प्रिया उस से लिपट गई. पापा, मैं आप के साथ जाऊंगी.

5 साल की बच्ची की यह जिद मुझे अखर गई और मैं ने उसे कस कर तमाचा जड़ दिया. उसी दिन से हम मांबेटी के बीच एक हलकी सी दरार पैदा हो गई और फिर धीरेधीरे चौड़ी होती गई.

मैं कभीकभी सोचती कि क्या सारी गलती मेरी थी? क्या मुझे अपने पति को उस के दंभ के साथ अपनाए रखना चाहिए था? आखिर चंद्र ने क्यों मेरी नौकरी छुड़ानेकी जिद ठान ली थी? यह तो ठीक था कि नौकरी छोड़ने के बाद मैं चैन की जिंदगी गुजारती, एक आम औरत की तरह औरतों के साथ मेलजोल बढ़ाती, किट्टी पार्टियों में हिस्सेदारी करती और महल्ले में क्याक्या हो रहा है उस की पूरीपूरी जानकारी रखती. रोज पति से गहनों कपड़ों की फरमाइश करती. मगर मैं एक आम औरत से हट कर थी. मैं कैसे अपने अंदर की क्षमता को मार कर एक आम औरत बन जाती? क्या पुरुष की दासी बनने के बाद ही उस की गृहस्थी पर राज करने का अधिकार औरत को मिल सकता है?

विचारों की यह कशमकश हर पल, हर घड़ी मन में कुहराम मचाए रखती पर समझ में नहीं आता कि गलती किस की थी?

मैं एक मध्यवर्गीय परिवार की बेटी थी. पिता रिटायर्ड अध्यापक थे. उन के पास 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट था. एक कमरे में पापामम्मी और दूसरे में भाईभाभी और उन के बच्चे रहते थे. तलाक के मुकदमे के दौरान ही भाभी के तेवर बदलने लगे थे. उस ने एक दिन कह ही डाला, ‘‘तलाक के बाद तुम प्रिया के साथ कहां रहोगी निर्मला?’’

यानी एक तलाकशुदा लड़की को अपने पिता के घर में कोई जगह नहीं थी. आज सोचती हूं तो मन कांप उठता है. यदि चंद्र ने मुझे यह मकान रहने को न दिया होता तो?

पिछले 12 सालों से दिलोदिमाग घटनाओं के चक्रव्यूह में फंसा था कि अचानक जिंदगी में कुछ बदलाव आया. दफ्तर में नया बौस आ गया था. काम के दौरान अकसर फाइलें ले कर बौस के पास जाना पड़ता. बौस का नाम था शेखर.

धीरेधीरे मुझे महसूस होने लगा कि शेखर मुझ में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा है.

एक दिन शेखर ने कहा, ‘‘पता चला है कि आप का अपने पति से तलाक हो गया है?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने धीरे से कहा और फिर फाइल उठा कर चलने लगी तो शेखर ने फिर कहा, ‘‘मैं आप की तकलीफ को समझता हूं, क्योंकि मैं भी इस दर्द से गुजर चुका हूं.’’

मेरे दिल की धड़कनें तेज होने लगीं. मैं उन के कैबिन से बार आ गई.

एक लंबे अरसे से मर्द से दूर रहने के बाद मैं पत्थर की शिला सी बन गई थी पर अब आतेजाते शेखर की नजरों का सेंक मेरे अंदर की रूखीसूखी औरत को पिघलाने लगा था.

एक दिन आईने के सामने बैठ कर मैं ने खुद को गौर से देखा. मुझे लगा मेरा खूबसूरत चेहरा अभी भी वैसा ही है. चंद्र अकसर कहा करता था, ‘‘तुम कितनी सुंदर हो निर्मला.’’

बरसों बाद अचानक मेरी सोच ने करवट ली कि निर्मला तू क्यों खुद को मिटा रही है? खुद को संभाल निर्मला.

मैं अगले दिन जब दफ्तर पहुंची तो साथ काम करने वाली महिलाओं ने कहा, ‘‘वाऊ… निर्मला आज तो जंच रही हो.’’

मैं ने पुरुष सहकर्मियों की आंखों में भी अपने लिए प्रशंसा के भाव देखे.

उस दिन शाम को छुट्टी के बाद बस स्टौप पर पहुंची तो अचानक शेखर की गाड़ी पास आ खड़ी हुई, ‘‘निर्मलाजी गाड़ी में बैठिए. मैं ड्रौप कर दूंगा.’’

‘‘नहीं सर मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘जानता हूं आप रोज ही जाती हैं बस से, पर देख रही हैं काले बादल कैसे गरज रहे हैं… लगता है जल्दी बारिश शुरू होने लगेगी. फिर आप की बेटी भी तो आप का इंतजार कर रही होगी.’’

प्रिया का खयाल आते ही मैं गाड़ी में बैठ गई. लेकिन घर पहुंचतेपहुंचते तेज बरसात होने लगी थी. घर के सामने शेखर ने गाड़ी रोकी तो मैं ने कहा, ‘‘सर, बारिश तेज हो गई है. आप अंदर आ जाइए. बारिश बंद होने के बाद चले जाना.’’

शेखर मेरे साथ अंदर आ गए. प्रिया मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी. उस ने शेखर को हैरानी से देखा तो मैं ने कहा, ‘‘प्रिया, ये शेखर सर हैं हमारी कंपनी के बौस.’’

प्रिया ने शेखर को नमस्ते की और फिर अपने कमरे में चली गई. मैं ने महसूस किया कि प्रिया को शेखर का आना अच्छा नहीं लगा.

मैं ने कौफी बनाई और प्याला शेखर को थमा दिया. कुछ देर तक शेखर हमारे बारे में कुछ पूछते रहे, फिर बरसात के रुकते ही चले गए.

शेखर के जाने के बाद प्रिया मेरे पास आई और बोली, ‘‘मम्मा, मुझे तुम्हारा गैरों से मेलजोल पसंद नहीं है.’’

मेरे मुंह से अचानक निकला, ‘‘कोई अपना भी तो नहीं है.’’

प्रिया ने मुझे घूर कर देखा और फिर चली गई. लेकिन उस दिन के बाद मुझे लगा कि शेखर मुझ में दिलचस्पी लेने लगे हैं. उन्होंने एक दिन अपने बारे में बताया कि न चाहते हुए भी उन्हें अपनी पत्नी से तलाक लेना पड़ा.

अब कभीकभी शेखर मुझे अपनी गाड़ी में खाने पर ले जाते. धीरेधीरे मुझे उन का साथ अच्छा लगने लगा और हम दोनों और करीब आने लगे. मुझे लगने लगा कि मेरे मन का सूना कोना अब भरने लगा है. जबतब शेखर को भी मैं घर खाने पर बुलाने लगी थी. लेकिन मुझे यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही थी कि यदि मैं ने शेखर के साथ रिश्ते में एक कदम आगे बढ़ाया तो यह बात प्रिया को कतई मंजूर नहीं होगी.

शेखर अब इस रिश्ते को नाम देना चाहते थे. वे मुझे से शादी करना चाहते थे

पर प्रिया… उस का क्या होगा? वह बहुत संवेदनशील है… इस रिश्ते को कभी नहीं कुबूलेगी. लेकिन शेखर कहते कि माना प्रिया बड़ी संवेदनशील है, पर धीरेधीरे सौतेले पिता को कुबूल कर लेगी मगर मैं जानती थी शेखर के मामले में मैं उसी दो राहे पर आ खड़ी हुई थी जहां 17 साल पहले खड़ी थी. तब मुझे नौकरी और पति दोनों में से एक को चुनना था और अब मुझे शेखर और प्रिया दोनों में से एक को चुनना होगा, क्योंकि प्रिया किसी भी कीमत पर सौतेले पिता को कुबूल नहीं करेगी.

एक दिन प्रिया जब चंद्र से मिल कर आई तो गुस्से में भरी थी. उस ने आते ही अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. मैं देर तक दरवाजा खुलवाने की कोशिश करती रही, लेकिन प्रिया ने कोई जवाब नहीं दिया. मैं डर गई कि कहीं प्रिया कुछ ऐसावैसा न कर ले. मगर 1 घंटे बाद जब वह बाहर आई तो बहुत उदास थी. मैं उस का हाथ पकड़ अपने कमरे में ले आई और फिर खींच कर अपनी गोद में लिटा लिया और पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

प्रिया फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मम्मा, पापा ने शादी कर ली है.’’

उफ, अपने आदर्श पिता की जो तसवीर बेटी के मन में बसी थी वह टूट गईं. मेरे अंदर भी कुछकुछ टूटने लगा. चंद्र काफी दूर था… मेरे और उस के बीच कुछ भी नहीं था पर उस की शादी की बात सुन कर दर्द फिर हिलोरें लेने लगा.

मैं ने प्रिया को अपनी बांहों में बांध कर उस का दर्द कम करने की कोशिश की. फिर उठ कर चाय बना लाई. वह चुपचाप चाय पीने लगी. पर मेरे अंदर एक डर समाया था. शेखर जल्द ही शादी की तारीख तय करने वाले थे… यदि प्रिया ने कोई सीधा सवाल मुझ से पूछ लिया तो?

मैं उठी और आईने के सामने खड़ी हो कर कई सवाल किए. फिर मुझे अपने सवालों के जवाब मिल गए और मैं प्रिया के पास आ गई.

इस से पहले कि प्रिया मुझ से कुछ कहती मैं ने कहा, ‘‘प्रिया, पापा ने शादी कर ली है तो क्या… तुम्हारी ममा है न तुम्हारे साथ… तुम्हारी ममा सिर्फ तुम्हारी है.’’

यह सुनते ही प्रिय मेरे सीने से लग गई.

इस के बाद मैं ने शेखर से कह दिया कि हम केवल दोस्त हो सकते हैं, और किसी रिश्ते में नहीं बंध सकते. शेखर काफी समझदार थे. उन्होंने सहज रूप से इसे स्वीकार लिया.

हर बार की तरह उस दिन भी चंद्र की गाड़ी आ खड़ी हुई और चंद्र हौर्न बजाने लगा. लेकिन प्रिया ने कहा, ‘‘नहीं जाना  ममा मुझे.’’

तब तक चंद्र दरवाजे पर आ गया था.

पिता को देख कर प्रिया भड़क गई. बोली, ‘‘कौन हैं आप?’’

चंद्र ने हैरानी से प्रिया को देखा. उस के तेवरों की तपिश को महसूस किया. फिर चुपचाप सीढि़यां उतर लौट गया.

मैं ने हैरानी से प्रिया को देखा, तो वह बोली, ‘‘वह एक अजनबी है ममा.’’

प्रिया की बात सुन कर एक फीकी सी मुसकराहट मेरे होंठों पर आ गई और फिर मैं किचन में चली गई.

सतही तौर पर तो लगता था कि सबकुछ ठीक हो गया है, पर ऐसा कुछ था नहीं. मैं और प्रिया दोनों ही सहज नहीं हो पा रही थीं.

मैं प्रिया को आश्वस्त करना चाहती थी और इसीलिए शेखर से भी दूरियां बना ली थीं. लेकिन मैं महसूस कर रही थी कि कोई अपराधबोध प्रिया को अंदर ही अंदर खल रहा है.

एक दिन प्रिया कालेज से लौटी तो मुझे घर में देख कर बोली, ‘‘ममा, आप आज औफिस नहीं गईं?’’

‘‘मन कुछ ठीक नहीं था, इसलिए सोचा घर पर ही रह कर कुछ पढूंलिखूं तो शायद…’’

‘‘ममा, क्या मैं बहुत बुरी बेटी हूं?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘ओह नो… तुम तो मेरी प्यारी बेटी हो. ऐसा क्यों सोचती हो तुम?’’

‘‘ममा, पिछले कुछ दिनों से जो कुछ घटित हो रहा है उस ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया है.’’

प्रिया को मैं ने घूर कर देखा तो लगा कि वह छोटी बच्ची नहीं रही. उस की बातों

से लगने लगा था कि हालात ने उसे गंभीर बना दिया है.

तभी प्रिया बोली, ‘‘ममा, मैं आप की उदासी का कारण समझ सकती हूं कि पापा ने आप को कितना दर्द दिया है.’’

मैं ने टालने की गरज से कहां, ‘‘चलो हाथमुंह धो लो… देखो तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

‘‘नहीं ममा मैं अब यह समझने लगी हूं कि अकेलापन इंसान को किस कदर आहत कर देता है… शायद इसीलिए पापा ने भी शादी कर ली.’’

मैं ने प्रिया को हैरानी से देखा और समझा कि वह कुछ कहना चाहती है पर शायद संकोच के कारण कह नहीं पा रही. मैं ने चाय का प्याला उस के सामने रखा और खुद भी खोमोशी से चाय पीने लगी.

तभी प्रिया ने कहा, ‘‘ममा, मैं आज आप के औफिस गई थी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘शेखर अंकल से मिलने… सच कहूं तो कभीकभी हम अपनेआप में इतने खो जाते हैं कि सामने वाले को समझ ही नहीं पाते.’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘यही कि शेखर अंकल अच्छे इंसान हैं.’’ प्रिया ने यह कहा तो मेरे दिल की धड़कने बढ़ने लगीं. मैं उस के अगले किसी भी सवाल के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही थी.

तभी प्रिया ने कहा, ‘‘क्या आप शेखर अंकल को पसंद करती हैं?’’

शेखर का उदास चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया और फिर मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘हां.’’

प्रिया खिलखिला कर हंसने लगी. फिर बोली, ‘‘तो फिर आप उन से शादी क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘मगर तुम… नहीं प्रिया यह नहीं हो सकता,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्यों नहीं हो सकता बल्कि मैं तो कहती हूं यही होगा. आप ने बहुत दुख झेले हैं ममा… अब आप को जीवनसाथी मिलेगा और मुझे अपना पापा.’’

मैं प्रिया के इस बदले मिजाज से हैरान थी.

तभी दरवाजे पर आहट हुई. शेखर थे. उन्होंने अंदर आ कर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘प्रिया बिलकुल ठीक कह रही है निर्मला… सही फैसले सही समय पर ले लेने में ही बुद्धिमत्ता होती है.’’

मैं ने प्रिया की ओर देखा. उस की आंखों में इस रिश्ते के लिए स्वीकृति थी और फिर मैं ने भी शेखर को अपनी स्वीकृति दे दी.

‘‘मुझे यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही थी कि यदि मैं ने शेखर के साथ रिश्ते में एक कदम आगे बढ़ाया तो यह बात प्रिया को कतई मंजूर नहीं होगी…’’

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पथभ्रष्ठा- भाग 1: बसु न क्यों की आत्महत्या

हीथ्रोहवाई अड्डे पर अपने इकलौते बेटे संभव के साथ एक भारतीय लड़की को देख कर मैं चौंक गई. कौन होगी यह लड़की? संभव की सहकर्मी या उस की मंगेतर. जिस का जिक्र वह मुझ से ईमेल या फोन पर अकसर किया करता था? यहां पर भी तो कई भारतीय परिवार बसे हैं. मेरी उत्सुकता संभव की नजरों से छिप नहीं पाई थी. उस लड़की से हमारा परिचय करवाते हुए उस ने सिर्फ इतना ही बताया कि उस का नाम मुसकान है. संभव की फर्म में ही कंप्यूटर इंजीनियर है.

मुसकान का चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा. गोरा रंग, तीखे नैननक्श, लंबी छरहरी काया. बेहद सादे लिबास में भी गजब की आकर्षक लग रही थी.

सामान आदि कार में रखवा कर संभव दफ्तर के लिए निकल गया. दफ्तर में उस की महत्त्वपूर्ण मीटिंग थी, जिस में उस की मौजूदगी अनिवार्य थी. मुसकान ने हमें संभव की कार में बैठाया. हवाईअड्डे से घर तक जितने भी दर्शनीय स्थल थे उन से वह हमारा परिचय करवाती जा रही थी. मैं उस के हावभाव, बात करने के अंदाज को तोल रही थी. अतुल भी शायद यही सब आंक रहे थे.

घर पहुंच कर, मुसकान ने चाय व नाश्ता बनाया. ऐसा लगा, वह यहां, यदाकदा आती रहती है. तभी तो उस के व्यवहार में जरा सा भी अजनबीपन नहीं झलक रहा था. उस के बाद उस ने खाना बनाया. आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित रसोई में खाना बनाना कोई बड़ी बात नहीं थी. बड़ी बात थी हमारी पसंद का भोजन. उस के हाथों का बना शुद्ध भारतीय भोजन खा कर मन प्रसन्न हो उठा.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटी, तुम्हारा जन्म यहीं हुआ है या कुछ समय पहले ही यहां आई हो?’’

‘‘जी नहीं, मेरा बचपन यहीं बीता है. यहीं पढ़ीलिखी हूं.’’

‘‘तो फिर यह पाक कला मां ने सिखाई होगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी नहीं, मुझे यह सब संभव ने सिखाया है. उन्होंने ही मुझे भारतीय मानमर्यादा व संस्कारों से परिचित कराया है.’’

संभव का नाम लेते ही उस के कपोलों पर रक्तिम आभा फैल गई. हमें यह समझते देर नहीं लगी कि मुसकान ही हमारी होने वाली बहू है. उस के बाद कितनी देर तक वह हम से भारतीय संस्कृति और पंरपराओं के बारे में पूछती रही. कुछ देर तक औपचारिक से प्रसंग छिड़ते रहे. उस के बाद उस ने जाने की अनुमति ली, क्योंकि उसे भी दफ्तर जाना था.

मुसकान के जाने के बाद कितनी देर तक मैं और अतुल उसी के विषय में बातें करते रहे. पिछले 1 वर्ष से मैं और अतुल लगातार संभव को विवाह करने के लिए विवश करते आ रहे थे. कई संपन्न घरों के प्रस्ताव हमें ठुकारने पड़े थे. हजारों मील दूर अकेले, संभव के विषय में मैं जब भी सोचती परेशान हो उठती. ऐसा लगता, एक बार उस का घर बस जाए फिर हम चैन से रह सकेंगे. अब, विवाह न करने का कोई कारण भी तो नहीं था. उस ने बंगले से ले कर मोटरगाड़ी तक सभी सुखसुविधाओं के साधन जुटा लिए थे. हजारों डौलर का बैंक बैलेंस था. पिछली बार जब संभव ने अपनी मंगेतर का जिक्र मुझ से किया था तो ऐसा महसूस हुआ था, जैसे बहुत भारी दायित्व हमारे ऊपर से उतर गया है. अतुल को भी मैं ने मना लिया था कि चाहे संभव की प्रेमिका ब्रिटेन मूल की ही हो, हम इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार कर लेंगे.

मैं जानती थी संभव अंतर्मुखी है. अपने मन की बात खुल कर कहने में उसे समय लगता है. फिर भी उस के हावभाव से यह तो स्पष्ट हो ही गया था कि वह और मुसकान एकदूसरे को जीजान से चाहते हैं.

शाम को संभव के पहुंचते ही मैं ने उसे आड़े हाथों लिया. हम मांबेटे की चुहल में अतुल को भी खासा आनंद आ रहा था. मैं बारबार उस के मुंह से मुसकान का नाम सुनने का प्रयास कर रही थी. पर संभव शरमा कर बात का रुख बदल देता था.

अपने 3 माह के प्रवास में हम संभव की शादी शीघ्रातिशीघ्र करवा कर कुछ समय बहू के साथ गुजारना चाह रहे थे. इस के लिए हमारा मुसकान के मातापिता से मिलना जरूरी था.

संभव ने बताया था मुसकान की मां नहीं है. उस के पिता अपने दोनों बेटों के साथ यहां से लगभग 200 किलोमीटर दूर कंट्रीसाइड पर रहते हैं. वहां से रोज दफ्तर आनाजाना मुश्किल होता है. इसीलिए मुसकान, पीजी बन कर इलफोर्ड में रहती है.

सप्ताहांत पर हम मुसकान के घर गए. घर क्या था एक छोटा सा विला था, जो चारों ओर से रंगबिरंगे फूलों और हरेभरे लौन से घिरा था. फुहारों से पानी झर रहा था. बीच में छोटा सा जलाशय था. कुछ ही देर में हम मुसकान के सुसज्जित ड्राइंगरूम में पहुंच गए. तभी किसी ने मुझे पुकारा, ‘‘चारु.’’

मंद हास्य से युक्त उस प्रभावशाली व्यक्तित्व को काफी देर तक निहारती रह गई. नमस्कार जैसी औपचारिकता तक भूल गई. अतुल ने पहले उन की फिर मेरी ओर देखा तो उन का परिचय मैं ने अतुल से करवाया.

शुभेंदु जिसे मैं देख रही थी. कुछ भी तो नहीं बदला था इस अंतराल में. हां कहींकहीं केशों में दिखती सफेदी उम्र का एहसास अवश्य करा रही थी.

‘‘कैसी हो?’’ वही पुराना संबोधन. कितना अपना सा लगा था मुझे? मैं मुसकान के साथ शुभेंदु के संबंध को टटोलने लगी कि कहीं शुभेंदु मुसकान के परिवार के मित्र, पड़ोसी या निकट संबंधी तो नहीं? मुसकान की मां नहीं हैं, इसलिए हो सकता है शादी के विषय में बातचीत करने के लिए मुसकान के परिवार वालों ने शुभेंदु को बुला लिया हो. लेकिन जब मुसकान ने उन का परिचय अपने पिता के रूप में करवाया तो मैं जड़ हो गई कि तो क्या बसु की मृत्यु के बाद शुभेंदु ने दूसरा विवाह कर लिया और मुसकान उन की दूसरी पत्नी से है, क्योंकि शुभेंदु के बसु से 2 ही बेटे थे. राजेश और महेश.

वातावरण बोझिल न हो, इसलिए मैं ने ही बात छेड़ी, ‘‘कब आए देहरादून से?’’

‘‘करीब 20 वर्ष हो गए. उस समय मुसकान 2 वर्ष की थी. अपना पूरा तामझाम समेट कर मैं इन तीनों बच्चों को ले कर लंदन आ गया,’’ शुभेंद्र ने कुछ याद करते हुए बताया. तब अतुल ने पूछा, ‘‘नई जगह, नए लोगों से तालमेल बैठाने में बड़ी परेशानी हुई होगी? नए परिवेश में खुद को ढालना और वह भी बड़ी उम्र में काफी मुश्किल होता है.’’

थोड़ा वक्त तो लगा. लेकिन धीरेधीरे सब सहज होता गया. दोनों बहुओं और बेटों ने मिल कर हमारी काफी आवभगत की. पूरा परिवार माला के मोतियों सा आपस में गुंथा था. अब भारत में जब एकल परिवार प्रथा का प्रचलन जोरों पर है, शुभेंदु परिवार, संयुक्त परिवार प्रथा का जीताजागता उदाहरण था.

इधरउधर की बातों के बीच यह तय किया गया कि विवाह बेहद सादे तरीके और भारतीय परंपरा के अनुसार ही होगा. विवाह की तारीख अगले सप्ताह तय की गई. फिर हम सब घर लौट आए.

घर पहुंच कर अतुल और संभव बहुत खुश थे. अतुल को मनचाहे समधी मिले थे और संभव को मनपसंद जीवनसाथी. दोनों के मन की मुराद पूरी हो गई थी. लेकिन मुसकान मेरे लिए एक पहेली सी बन गई थी. ऐसा लग रहा था जैसे पुराने संबंधों पर नए रिश्तों की जिल्द चढ़ने वाली हो. पर उन संबंधों का संपर्कसूत्र हाथ नहीं आ रहा था. उस गुत्थी को सुलझाने के लिए मेरा शुभेंदु से मिलना बेहद जरूरी था. पर कहीं कोई अप्रासंगिक तथ्य सामने न आ जाए, इसलिए अगले दिन मैं अकेली ही उन के घर पहुंच गई.

इल्जाम- भाग 3: किसने किए थे गायत्री के गहने चोरी

भवानी प्रसाद पत्नी को चुप कराने लगे फिर समीक्षा से बोले,” असल में इन की भाभी इन्हें देखने आना चाहती थीं पर इन्होने भाभी से मिलने से इंकार कर दिया. अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि जो भाभी इन के दिल के इतनी करीब रही हैं उन से ही यह मिलना क्यों नहीं चाहती. रो भी रही है और मिलना भी नहीं है.”

“पिताजी आप मम्मी जी से आराम से बात कर लो, मैं बाहर चली जाती हूं. शायद वह आप से रोने का कारण शेयर कर लें,” कह कर समीक्षा कमरे से बाहर निकल गई.

भवानी प्रसाद ने जब अकेले में पत्नी से वजह पूछी तो कामिनी रोती हुई बोली,”आज मुझे बहुत पछतावा हो रहा है. मैं ने समीक्षा और उस के निर्दोष भाईबहन के साथ जो किया वह माफी योग्य भी नहीं.”

“यानि तुम ने जानबूझ कर….. “”हां मैं ने जानबूझ कर उन पर इल्जाम लगाया था. पर यह सब मेरे दिमाग की उपज नहीं थी. सच मानो मैं ने वह सब अपनी भाभी के कहने पर किया था. उन्होंने ही मुझे सलाह दी थी कि यदि तुम समीक्षा को घर से निकलवाना चाहती हो तो उस के घरवालों पर इल्जाम लगाओ. उन्हें बेइज्जत करो….” कहतेकहते वह फिर से रोने लगीं.

भवानी प्रसाद आश्चर्य से उस का चेहरा देखते रह गए.”हां भाभी ने ही मुझे कहा था कि बहू को मयंक और अपने पति के मन से उतारने के लिए उस के घरवालों पर चोरी का इल्जाम लगा दो. बहू खुद ही शर्मसार हो कर घर छोड़ देगी. मयंक भी पत्नी से झगड़ा करेगा और समीक्षा के घर वाले भी फिर दोबारा इधर का रुख नहीं करेंगे. ”

“तुम ऐसा कैसे कर सकती हो कामिनी. भाभी के कहने पर तुम ने 2 निर्दोष बच्चों के ऊपर इल्जाम लगा दिया. तुम्हारी योजना पूरी भी हो गई. दोनों बच्चे दोबारा कभी भी हमारे घर नहीं आए. तुम समीक्षा को मयंक और मेरे मन से उतारना चाहती थी, पर क्यों कामिनी? अपने बेटे की खुशियों की दुश्मन क्यों बनना चाहती थी? माना भाभी ने तुम्हें सलाह दी पर खुद भी तो सोचना चाहिए था न,” भवानी प्रसाद ने गुस्से में कहा.

कामिनी फूटफूट कर रोती हुई खुद को कोसने लगी तो उस की खराब हालत देखते हुए भवानी प्रसाद ने जल्द बात खत्म की और उसे सीने से लगा कर कहा,” जो हो गया उसे भूल जाओ कामिनी. अब तुम्हारे आगे जो है उसे देखो. तुम्हारी बहू तुम्हारी दिनरात सेवा कर रही है. बस उसे जी भर कर आशीर्वाद दे लो. तुम ने जो गलत किया उस का पछतावा खत्म हो जाएगा.”

“पछतावा तो तब खत्म होगा जब दोनों बच्चे फिर से इस घर में आएं. प्लीज आप समीक्षा को समझाओ न. वह अपने भाईबहन को फिर से हमारे घर में बुलाए. मैं एक बार उन से माफी मांग लूं.””पहले तो तुम्हें समीक्षा से माफी मांगनी चाहिए कामिनी. मैं समीक्षा को बुला कर लाता हूं.”

भवानी प्रसाद ने समीक्षा को बुलाया तो वह दौड़ी आई,” क्या हुआ पापा जी तबियत तो ठीक है न मम्मी की?” कामिनी समीक्षा के दोनों हाथ पकड़ कर सिर से लगा कर रोती हुई बोलीं,” माफ कर दे बेटा, मैं ने तेरे साथ बहुत गलत किया था. पर तू इस बुढ़िया के लिए अपनी नौकरी, अपना घर, अपने पति और बच्चों को छोड़ कर यहां बैठी हुई है, सेवा में लगी है. अरी पगली इतनी सेवा तो बेटियां भी नहीं करती और तू अपनी कुटिल, दुष्ट सास के लिए इतना कर रही है. ऐसी सास जिस ने कभी भी तुझे दिल से नहीं स्वीकारा. तेरे घर वालों पर चोरी का इल्जाम लगा दिया. उस बुढ़िया के लिए तू इतना क्यों कर रही है मेरी बच्ची? इस बुढ़िया को माफ कर दे,”

“मम्मीजी आप यह क्या कह रही हैं? आप मेरी मां जैसी हैं न. आप की तकलीफ में आप के काम आ सकूं यह तो मेरे लिए खुशी की बात है. पर आप इस तरह रोओ नहीं मम्मी जी प्लीज आप की तबियत खराब हो जाएगी. माफी की कोई बात नहीं. आप मुझे बहू के रूप में देखना नहीं चाहती थीं इसी वजह से आप का यह रिएक्शन हुआ. पर मुझे पता है आप दिल की बहुत अच्छी हैं और पछतावा करने की कोई बात नहीं. मैं मानती हूं मेरे भाईबहन के साथ आप ने बहुत गलत किया था. आप को इल्जाम लगाना था तो मुझ पर लगातीं मगर मेरे भाईबहन ने तो किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा था, ” समीक्षा ने उन के हाथों को सहलाते हुए कहा.

“इसी बात का तो पछतावा है मुझे मेरी बच्ची. मैं ने तेरे साथ बहुत गलत किया. देख ले इसी बात की सजा मिल रही है मुझे. बिस्तर पर आ गिरी हूं. “”मम्मी जी ऐसा कुछ नहीं है. आप ठीक हो जाओगी.”

“बेटा अब मुझे इस पछतावे से मुक्ति तभी मिलेगी जब तेरे भाईबहन से हाथ जोड़ कर माफी मांग लूंगी.””मम्मी जी आप परेशान न हों. मैं उन से बात करती हूं. मेरी बहन तो अभी अहमदाबाद में है. वहीँ शादी हुई है उस की इसलिए शायद वह नहीं आ सकेगी. पर भाई को बुलाने की पूरी कोशिश करती हूं,” कह कर समीक्षा ने फ़ोन उठा लिया.

उस ने फोन पर भाई को घर बुलाया तो उस ने साफ इंकार कर दिया,” दीदी आप तो जानती हो उस इल्जाम को मैं कितनी मुश्किल से अपने जेहन से दूर कर पाया हूँ.  22 -23 साल की उम्र में चोरी का इल्जाम लग जाए और वह भी अपनी बहन के ससुराल में तो बस एक यही इच्छा होती है कि कहीं जा कर डूब मरो.”

“नहीं दिवेश ऐसा नहीं सोचते. माफ कर दे उन्हें. उन की तबियत सही नहीं बिट्टो, ” समीक्षा ने भाई को समझाने की कोशिश की.तब तक कामिनी जी ने समीक्षा के हाथ से फोन ले लिया और दिवेश के आगे खुद ही गिड़गिड़ाने लगीं,” बेटा प्लीज मान जा. इस बुढ़िया को माफ कर दे. मैं इस दुनिया से ही जाने वाली हूं बेटा, बस अंतिम इच्छा पूरी कर दे. मुझे माफ कर दे. एक बार मेरे पास आ, मैं तेरे पैर छू कर माफी मांगना चाहती हूं,” कहतेकहते कामिनी जी फुटफुट कर रो पड़ीं.

रूपेश का दिल पसीज गया,” अरे नहीं आंटी जी आप जैसा कहोगी वैसा ही करूंगा. प्लीज डोंट वरी मैं आ रहा हूं.”

दिवेश की बात सुन कर रोतेरोते भी कामिनी जी के चेहरे पर सुकून के भाव खिल उठे. उन्होंने आंसू पोंछे और समीक्षा से बोली,” समीक्षा बेटा, दिवेश आ रहा है. अंदर वाला कमरा साफ़ कर दे वहीँ ठहराऊंगी उसे और अपने हाथ से खाना बना कर खिलाऊंगी. उस ने मेरी बात मान ली.”

समीक्षा कामिनी जी की ओर देख कर मुस्कुरा उठी और सहारा दे कर उन्हें बेड पर लिटा दिया. आज कामिनी जी के मन का एक भारी बोझ उतर गया था

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इल्जाम- भाग 1: किसने किए थे गायत्री के गहने चोरी

कामिनी जी के गहने नहीं मिल रहे थे. पूरे घर में हड़कंप मच गया. कम से कम 4 लाख के गहने अचानक चोरी कैसे हो सकते हैं.”कामिनी ध्यान से देखो. तुम ने ही कहीं रख दिए होंगे, ” उन के पति भवानी प्रसाद ने समझाया.

“मैं अभी इतनी भी बूढ़ी नहीं हुई हूं कि गहने कहां रखे यह याद न आए. जल्दीजल्दी में अपनी इसी अलमारी के ऊपर गहने रख कर दमयंती को विदा करने नीचे चली गई थी. मुश्किल से 5 मिनट लगे होंगे और इतनी ही देर में गहने गायब हो गए जैसे कोई ताक में बैठा हुआ हो,” भड़कते हुए कामिनी ने कहा.

“मम्मी जी कोई और पराया तो अब इस घर में बचा नहीं सिवा मेरे भाईबहन के. सीधा कहिए न कि आप उन पर गहने चोरी करने का इल्जाम लगा रही हैं,” कमरे के अंदर से आती समीक्षा ने सीधी बात की.

“बहू मैं किसी पर इल्जाम नहीं लगा रही मगर सच क्या है यह सामने आ ही गया. मैं ने नहीं कहा कि तेरे भाईबहन ने गहने चुराए हैं पर तू अपने मुंह से कह रही है. यदि ऐसा है तो फिर ठीक है. एक बार इन का सामान भी चेक कर लिया जाए तो गलत क्या है?”

“मम्मी यह कैसी बातें कर रही हो आप. समीक्षा के भाईबहन ऐसा कर ही नहीं सकते,” मयंक ने विरोध किया.

“ठीक है फिर मैं ने ही चुरा लिए होंगे अपने गहने या फिर इन पर इल्जाम लगाने के लिए जानबूझ कर छिपा दिए होंगे,” कामिनी जी ने गुस्से में कहा.

“मम्मी प्लीज इस तरह मत बोलो. चलो मैं आप के गहने ढूंढता हूं. हो सकता है अलमारी के पीछे गिर गए हों या हड़बड़ी में गलती से कहीं और रख दिए हों. मम्मी कई दफा इंसान दूसरे काम करतेकरते कोई चीज कहीं रख कर भूल भी जाता है. चलिए पहले आप का कमरा देख लेता हूं.”

पत्नी या सालेसाली को बुरा न लगे यह सोच कर मयंक ने पहले अपनी मां के कमरे में गहनों को अच्छी तरह ढूंढा. एकएक कोना देख लिया पर गहने कहीं नहीं मिले. फिर उस ने पूरे घर में गहनों को तलाश किया. कहीं भी गहने न मिलने पर कामिनी ने समीक्षा के भाईबहन के बैग खोलने का आदेश दे दिया. थक कर मयंक ने उन का बैग खोला और पूरी तरह से तलाशी ली मगर गहने वहां भी नहीं मिले.

कामिनी जी ने फिर भी आरोप वापस नहीं लिया उलटा तीखी बात यह कह दी कि उन्होंने गहने कहीं छिपा दिए होंगे. इधर समीक्षा के साथसाथ उस के भाईबहन अनुज और दिशा को भी इस तरह तलाशी ली जाने की घटना बहुत अखरी. दोनों नाराज होते हुए उसी दिन की ट्रेन ले कर अपने शहर को निकल गए.

जाते समय अनुज ने साफ़ शब्दों में अपनी बहन से कहा था ,” दीदी हम जानते हैं इस सब के पीछे जीजू या आप का कोई हाथ नहीं. हम चाहते हैं आप अपने ससुराल में खुशहाल जीवन जियें पर हम दोनों भाईबहन अब इस घर में कभी भी कदम नहीं रखेंगे.”

भाई की बात सुन कर समीक्षा की आंखों से आंसू बह निकले थे. मयंक ने उसे गले से लगा लिया था. समीक्षा का गुस्सा सातवें आसमान पर था. मयंक भी खुद को दोषी मान कर बुझाबुझा सा समीक्षा के आगेपीछे घूम रहा था. कामिनी जी अभी भी चिढ़ी हुई अपने कमरे में बैठी थी और मयंक समीक्षा को शांत करने के प्रयास में लगा था.

समीक्षा की शादी सहजता से नहीं हुई थी. उसे मयंक को जीवनसाथी बनाने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े थे. दोनों को कॉलेज टाइम में ही एकदूसरे से प्यार हो गया था. पहली नजर के प्यार को दोनों ही उम्र भर के बंधन में बांधना चाहते थे. मगर दोनों के ही घरवाले इस के लिए तैयार नहीं थे. काफी मान मनौवल और इमोशनल ड्रामे के बाद किसी तरह समीक्षा के घरवालों ने तो अपनी सहमति दे दी मगर मयंक के घर वालों की सहमति अभी भी बाकी थी. मयंक की मां कामिनी देवी किसी भी हाल में गैर जाति की बहू को अपने घर में लाने को तैयार नहीं थी. उन का कहना था कि कल को मयंक के छोटे भाईबहन भी फिर इसी तरह का कदम उठाएंगे. इसलिए वह मयंक को लव मैरिज की इजाजत नहीं दे सकतीं.

मयंक के पिता इस मामले में थोड़े उदार विचारों के थे. उन के लिए बेटे की खुशी ज्यादा मायने रखती थी. उन का आदेश पा कर मयंक ने समीक्षा के साथ कोर्ट मैरिज का फैसला लिया. जब कामिनी जी को यह बात पता चली तो उन का मुंह फूल गया. उन्हें इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि पति ने उन की इच्छा के विपरीत बेटे को लव मैरिज के लिए हां क्यों बोल दिया. कामिनी जी को इस बात पर भी काफी रोष था कि वह बेटे की शादी का हिस्सा भी नहीं बन पाई. एक मां के लिए बेटे की शादी का मौका बहुत खास होता है.

कुछ दिन इसी तरह बीत गए. समीक्षा घर में बहू बन कर आ गई थी मगर न तो घर में शादी की रौनक हुई और न ही रिश्तेदारों को न्योता मिला. नई बहू का गृहप्रवेश भी हो गया और घर में हंसीखुशी का माहौल भी नहीं बन सका.

कामिनी अलग कमरे में बंद रही आती तो भवानी प्रसाद संकोच में बहू से ज्यादा बातें नहीं करते. मयंक पहले की तरह ऑफिस चला जाता और देवर यानी विक्रांत और ननद दीक्षा का अधिकांश समय कॉलेज में बीतता. समीक्षा समझ नहीं पाती कि वह घर के हालातों को नार्मल कैसे बनाए. उसे पता था कि सास उसे पसंद नहीं करती. फिर भी वह अपनी तरफ से सासससुर का पूरा ख़याल रखती और उन का दिल जीतने का पूरा प्रयास करती.

धीरेधीरे भवानी प्रसाद समीक्षा के बातव्यवहार से काफी प्रभावित रहने लगे. कामिनी जी की नाराजगी भी कम होने लगी थी. मगर उन का मुंह इस बात पर अब भी फूला हुआ था कि बेटे की शादी भी हो गई और घर में कोई रौनक भी नहीं हुई. सब कुछ सूनासूना सा रह गया.

इस का समाधान भी भवानी प्रसाद ने निकाल लिया, “कामिनी क्यों न हम अपने बेटे का रिसेप्शन धूमधाम से करें. उस में सारे रिश्तेदार भी आ जाएंगे और घर में रौनक भी हो जाएगी.”

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दोषी कौन था- भाग 3: बुआ की चुप्पी का क्या कारण था

‘‘मेरे पास आओ, गीता. सच मानो, तुम्हारी इच्छा के बिना मैं कभी कुछ नहीं मांगूंगा. आओ, यहां आओ, मेरे पास.’’ उसे अपने समीप बिठाया. उस की डबडबाई बड़ीबड़ी आंखों में देखा, ‘‘क्या सोच रही हो, गीता? मैं तुम्हें अच्छा तो लगता हूं न?’’ उस ने नजरें झुका लीं. मैं ने बढ़ कर उस का माथा चूम लिया तो वह तड़प कर मेरे गले से लिपट कर बुरी तरह रोने लगी. ‘‘यह घर तुम्हारा है गीता, मैं भी तुम्हारा हूं. जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा. मैं तुम्हारा अपमान कभी नहीं होने दूंगा. बहुत सह लिया है तुम ने. अब कोई भी इंसान तुम्हें किसी तरह की पीड़ा नहीं पहुंचाएगा.’’ सुबकतेसुबकते वह मेरी बांहों में ही सो गई. सुबह वह उठी तो मेरी तरफ एक लजीली सी मुसकान लिए देखा. नए औफिस में मेरा पहला दिन अच्छा बीता. शाम को घर आया तो मेरी तरफ 5 हजार रुपए बढ़ा कर गीता धीरे से बोली, ‘‘यही मेरी जमापूंजी है. यह अब आप की ही है. चलिए, जरूरी सामान ले आएं. मैं ने सूची बना ली है.’’ मुझे उस के हाथ से रुपए लेने में संकोच हुआ. मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर वह आगे बढ़ी और रुपए मेरी कमीज की जेब में डाल दिए. फिर अपनी हथेली मेरे हाथ पर रख दी.

उसी दिन हम ने और जरूरी सामान खरीदा और टूटीफूटी गृहस्थी की शुरुआत की. कहां पागल थी गीता? पलपल मेरे घर को सजातीसंवारती, मेरे सुखदुख का खयाल रखती. मुझे तो यह किसी भी कोण से पागल न लगी थी. हां, शरीर अवश्य एक नहीं हो पाए थे, मगर उस के लिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं था. वह मुझे अपना समझती थी और मेरे सामीप्य में उसे सुख मिलता था, यही बहुत था. मैं सब को यह दिखा देना चाहता था कि उन्होंने गीता को कितना गलत समझा था. विशेषरूप से उस के पूर्व पति को जिस ने मात्र चंद पलों के शारीरिक सुख के अभाव में हर सुख को ताक पर रख दिया था. गीता मुझे अपने बचपन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती तो मैं बूआ पर खीझ उठता. मामामामी के पास अनाथों की तरह पलतेपलते उस ने क्याक्या नहीं सहा था. सुनातेसुनाते वह कई बार रो भी पड़ती. ऐसे में उसे बांहों में भर कर धीरज बंधाता. ‘‘मेरे पिता ने कभी मुड़ कर मेरी तरफ नहीं देखा. मां के जाते ही मैं अनाथ हो गई. अगर मैं मर गई तो क्या आप मेरे बच्चों को अनाथ कर देंगे? गौतम, क्या आप भी ऐसा करेंगे?’’

एकाएक उस के प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. रुंधे स्वर में उस ने फिर से पूछा, ‘‘क्या आप भी ऐसा ही करेंगे?’’ ‘‘ऐसा मत सोचो, गीता. मैं तुम से प्यार करता हूं, तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं चाहूंगा.’’ ‘‘मैं भी अपने पिता से बहुत प्यार करती हूं, उन का अनिष्ट नहीं चाहती थी, इसलिए कभी उन के पास नहीं आई. मां मुझे पसंद नहीं करतीं. मेरी वजह से उन की गृहस्थी में दरार न पड़े, ऐसा ही सोच सदा अपनी इच्छा मारती रही. लेकिन जब भी आप मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हैं तो मेरी इच्छा एकाएक जी सी उठती है.’’ ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा का सम्मान करता हूं, गीता. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है,’’ उस के गाल थपक कर मैं हंस पड़ा. मैं स्वयं हैरान था कि कैसे एक ही रिश्ते में बंधे हुए 2-2 नातों को निभा रहा हूं. मेरे सामीप्य में उस की हर

अतृप्त इच्छा शांत हो रही थी. कभी खिलौने के लिए होशोहवास खो बैठने वाली गीता अब मेरे लिए पागल रहने लगी थी. एक शाम उस ने पूछा, ‘‘आप भी कहीं मेरे पिता की तरह मुझ से आंखें तो नहीं फेर लेंगे? मुझ से मन तो नहीं भर जाएगा?’’ मैं हतप्रभ रह गया. गीता आगे बोली, ‘‘मैं आप की हर स्वाभाविक इच्छा को मार रही हूं. कैसे निभ पाएगा हमारा साथ? अपने पिता के सिवा मुझे कुछ भी नहीं सूझता. आप भी, आप भी पिता जैसे लगते हैं. मैं कुछ और सोचना चाहती हूं, मगर कैसे सोचूं?’’ स्नेह से पास बिठा मैं ने उसे चूमा तो मुझे उस का माथा कुछ गरम लगा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या? मैं अभी दवा ले कर आता हूं.’’

‘‘आप मेरे पास रहिए,’’ गीता ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. उस ने मुझे जाने नहीं दिया. काफी देर तक पास बैठा उस का सिर सहलाता रहा. हमारी शादी को लगभग 4 महीने हो गए थे. इस अंतराल में मैं ने यह महसूस कर लिया था कि गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है. एक दिन उस ने कहा, ‘‘कहीं मैं सचमुच तो पागल नहीं हूं? शायद यही सच हो.’’ ‘‘नहीं, तुम पागल नहीं हो, मैं कहता हूं न,’’ मैं ने दुलार कर उसे शांत कर दिया और उसी रात एक निश्चय ले लिया. दूसरी सुबह फूफाजी को गीता की बीमारी का झूठा तार दे दिया. सोचा, शायद बेटी का मोह उन्हें खींच लाए. तार देने के बाद मैं 2-3 दिन उन का इंतजार करता रहा. रहरह कर रोना आ जाता कि बेचारी गीता का ऐसा अनादर… तीसरे दिन मैं ने एक और तार दे दिया. उस का भी इंतजार किया, मगर कोई भी न आया. इसी तरह एक सप्ताह बीत गया. एक रात मैं बेहद बेचैन रहा. बारबार करवटें बदलता रहा, रहरह कर हर आहट पर उठ बैठता कि शायद मेरी गीता का हालचाल पूछने कोई आ रहा हो.

मैं सोचने लगा कि वे पिता हैं, पुरुष हैं, इतने मजबूर तो नहीं कि बेटी से चाह कर भी न मिल पाएं. आखिर क्यों वे इतने कठोर हो गए? उन दिनों मेरी हालत विचित्र सी हो गई थी. सुबह उठते ही मैं घर से निकल गया. मन में आ रहा था एक बार मुंबई जाऊं और फूफाजी को घसीट कर ले आऊं. स्टेशन पर गया, टिकट खरीदा. गाड़ी में बैठ गया, मगर पहले ही स्टेशन पर उतर गया. सोचा, क्यों जाऊं उन के पास? भटकभटक कर जब थक गया तो घर लौट आया.

‘‘कहां चले गए थे आप, सुबह से भूखेप्यासे?’’ गीता का घबराया स्वर कानों में पड़ा तो जैसे होश आया. मैं चुप ही रहा. नहाधो कर नाश्ता किया. गीता के अपमान पर बहुत गुस्सा आ रहा था. रात को मैं ने गीता को पास बुलाया, पर वह नीचे जमीन पर ही लेटी रही. तब स्वयं ही उठ कर नीचे चला आया और स्नेह से सहला दिया, ‘‘क्यों गीतू, मुझ से नाराज हो?’’ वह न जाने कब से रो रही थी. मैं अवाक् रह गया और उसे अपनी गोद में खींच लिया. ‘‘किसी ने कुछ कह दिया, गीता? क्या हुआ, रो क्यों रही हो?’’ अनायास ही उस के हाथों को पकड़ा तो कागज का एक मुड़ातुड़ा टुकड़ा मेरे हाथ में आ गया. उस के पिता को भेजे गए तार की वह रसीद थी.

‘‘आप ने पिताजी को तार क्यों भेजा? क्या मुझे वापस भेजना…?’’

‘‘नहीं गीता, पागल हो गई हो क्या?’’ एक झटके से उसे बांहों में भींच लिया. उस के भीगे चेहरे पर स्नेह चुंबन जड़ते हुए मुश्किल से मैं बोल पाया, ‘‘तुम्हें वापस भेज दूंगा, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’ फिर मैं उसे अपने पास बिस्तर पर ले आया और जबरदस्ती उस का चेहरा सामने किया, ‘‘तुम्हारे लिए सब को छोड़ दिया है गीता, भला तुम्हें…’’

‘‘तो आप ने उन्हें तार क्यों भेजा?’’ उस के मासूम प्रश्न का मैं ने उत्तर दे दिया. सब साफसाफ बताया तो वह तड़प उठी, क्योंकि उस की बीमारी की बात सुन कर भी पिता के सब्र का प्याला छलका नहीं था. मेरी छाती में समाई वह देर तक सुबकती रही. अपने प्रति अनायास झलक आए अविश्वास ने उस रात अनजाने ही मेरे शरीर की ऊष्मा को भड़का दिया था. मैं उसे कितना चाहता हूं, यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न करने लगा. मैं ने उसे यह एहसास भी दिलाना चाहा कि वह मेरे ही शरीर का एक अभिन्न अंग है. अपने अनछुए, अनकहे भाव रोमरोम से फूटते प्रतीत होने लगे. उन्हीं क्षणों में मेरे सीने में समाईसमाई वह मेरे अस्तित्व में भी कब समा गई, पता ही न चला. वे चंद क्षण आए और हमें पतिपत्नी बना कर चले गए. गीता मुझे एकदम नईनई सी लगने लगी थी. उस रात हम दोनों ने पहली बार महसूस किया कि शारीरिक सुख क्या होता है. यह मेरी विजय ही तो थी कि गीता अपनी कुंठाओं से मुक्त हो कर अभिसारिका बन गई थी. उस के मन की डगर से होता हुआ मैं उस के तन तक जा पहुंचा था.

फिर एक दिन मुझे पता चला कि मैं पिता बनने जा रहा हूं. मैं ने कहा, ‘‘मुझे प्यारी सी तुम्हारी जैसी बेटी चाहिए गीता, मैं उस से बहुत प्यार करूंगा.’’ लेकिन मेरा हर्ष और उत्साह एकाएक ठंडा पड़ गया, जब शून्य में निहारते हुए वह बोली, ‘‘प्यारव्यार सब धरा रह जाएगा. मैं मर गई तो आप भी उस से ऐसे ही आंखें फेर लेंगे, जैसे पिताजी ने मुझ से.’’

‘‘नहीं गीता, ऐसा नहीं सोचते.’’

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