अचानक गाड़ी को ब्रेक लगा तो उस ने देखा वह लखनऊ के अपने उसी बरसों पुराने महल्ले में खड़ी है.
‘‘चलो मां, अपना पुराना महल्ला आ गया.’’
‘‘हां, राजू, चलती हूं,’’ दो पल को मालती ठगी सी खड़ी रह गई. उस की आंखों के समक्ष यहां बीते हुए सभी पल साकार हो रहे थे.
सुधीर के साथ इस महल्ले के छोटे से कमरे से जीवन की शुरुआत करने से ले कर, नया घर बना कर यह जगह छोड़ कर जाने तक के सभी क्षण एकाएक उस की आंखों के आगे घूम गए. पर यहां आज भी कुछ नहीं बदला. आज भी यहां छोटेछोटे पुराने मकान उसी दृढ़ता के साथ खड़े दिखाई दे रहे थे.
एक ही शहर में रहते हुए भी यह जगह उस से कितनी दूर हो गई थी.
उसे देखते ही सरोज ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘अरे, मालती बहन. कितनी खुशी हो रही है तुम्हें देख कर, बता नहीं सकती.’’
भावातिरेक से मालती की आंखें भर आईं. शब्द उस के मुंह में ही अटक कर रह गए. तभी पड़ोस के घर से पुनीत की मां भी आ गई.
‘‘अरे, राजीव की मां, तुम. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. आज तुम इधर का रास्ता कैसे भूल गईं.’’
‘‘ऐसा न कहो बहन. तुम लोगों को भला कैसे भूल सकती हूं. हर पल तुम सभी को याद करती हूं. जब रहा नहीं गया तो मिलने चली आई.’’
फिर उस के बाद तो जो बातों का सिलसिला चला तो समय का पता ही नहीं चला. तीनों सहेलियां अपने बीते दिनों को याद कर के खुश होती रहीं.
राजीव ने कहा, ‘‘मां, अब चलें,’’
मालती को ध्यान आया, अरे, उसे तो वापस जाना है.
वहां से चली तो राजीव ने पूछा, ‘‘मां, कुछ खाओगी?’’
‘‘अरे नहीं राजू,’’ सकुचाते हुए मालती बोली.
‘‘नहीं क्यों, क्या तुम्हें याद नहीं पापा के साथ हम दोनों तिवारी के यहां अकसर शाम को चाट खाने आया करते थे? तुम्हें तो वैसे भी गणेशगंज के तिवारी के दहीबड़े बहुत पसंद थे. फिर आज क्यों मना कर रही हो?’’
‘‘मैं इतनी बड़ी, भला क्या बाजार में खाती अच्छी लगूंगी?’’
‘‘अरे, इतने दिनों बाद गणेशगंज आई हो तो दहीबड़े तो तुम्हें खाने ही पड़ेंगे. दहीबड़ों को थोड़े ही मालूम है कि मेरी मां खुद को बूढ़ा समझने लगी हैं,’’ कह कर राजीव हंस दिया.
उस की बात सुन कर मालती को भी हंसी आ गई. आखिर मालती को कहना पड़ा, ‘‘ठीक है, तेरा मन है तो चल, खिला दे.’’
समय के साथ यहां भी बहुत कुछ बदल गया है. पहले जहां ठेला हुआ करता था, आज वहां बढि़या दुकान है परंतु स्वाद आज भी वही है. उसे याद आया यहां सुधीर और राजीव के साथ वह हमेशा आया करती थीं पर आज पहली बार सुधीर साथ नहीं हैं. सोच कर मालती की आंखें नम हो आईं.
घर पहुंचतेपहुंचते काफी अंधेरा घिर आया. कपड़े बदल कर मालती रसोई की ओर चल दी तो राजीव ने कहा, ‘‘मां, अब खाने के लिए कुछ मत करना. मेरा तो पेट भरा है.’’
‘‘थोड़ा कुछ तो बना दूं.’’
‘‘नहींनहीं, तुम चाहो तो अपने लिए कुछ बना लो.’’
‘‘अरे, मुझ से अब कहां खाया जाएगा. वहां सरोज ने इतना नाश्ता करा दिया फिर तू ने भी खिला दिया.’’
‘‘ठीक है, अब तुम आराम से सो जाओ. थक गई होंगी.’’
मालती सच में थक गई थी. वह लाइट बंद कर बिस्तर पर लेट गई. परंतु आज शरीर थका होने पर भी मन बहुत प्रसन्न है. कितने दिनों बाद, चाहे कुछ समय के लिए ही सही, उसे अपना जीवन जीने का अवसर तो मिला.
तभी कुछ देर बाद दरवाजे पर आहट सुन उस ने देखा तो राजीव की आवाज सुनाई दी, ‘‘मां, सो गईं क्या?’’
‘‘नहीं तो, ऐसे ही लेटी थी. आ, अंदर आ, बत्ती जला ले.’’
‘‘नहीं, रहने दो, एक बार लेटने के बाद तुम्हें लाइट अच्छी नहीं लगती न. वैसे भी कुछ काम नहीं था, ऐसे ही आ गया. तुम थकी होगी न,’’ कह कर राजीव पलंग पर उस के पैरों के पास आ कर बैठ गया.
‘‘तो क्या हुआ? थकी तो हूं, पर साथ ही आज मैं बहुत खुश हूं. तू ने मेरी बहुत दिनों की इच्छा पूरी कर दी. न जाने कब से वहां जा कर उन सब से मिलना चाह रही थी. इसीलिए सच कहूं तो थकान महसूस ही नहीं हो रही.’’
‘‘सच ही तो है मां, वहां जा कर आज मुझे भी बहुत अच्छा लगा. पुराने लोगों में जो अपनापन और प्रेम है वह आज ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलता. लेकिन अपनी व्यस्तताओं के कारण हम अपने ही दायरे में सीमित हो कर रह जाते हैं.’’
‘‘ऐसा होता है, राजू.’’
‘‘लेकिन मां, ऐसा क्यों होता है कि हमारे अपनों को ही, जिन से हम बहुत प्रेम करते हैं, अपनी व्यस्तताओं के कारण समय नहीं दे पाते?’’
आज राजीव मां से अपने मन में उठी हर जिज्ञासा का समाधान चाह रहा था.
मालती ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ, राजू? असली चीज है मनुष्य का मन. यदि मन में प्रेम और अपनापन है तो जरूरी नहीं कि उस को हर समय व्यक्त किया जाए.’’
‘‘मां…’’ बोलतेबोलते राजीव अटक सा गया. मालती अंधेरा होने के बाद भी अपने बेटे के मुख के भावों को स्पष्ट देख पा रही थी. वह समझ रही थी कि राजीव क्या कहना चाह रहा है. ऋचा का मालती के प्रति रूखा व्यवहार राजीव से छिपा नहीं है. परंतु यह भी तो सच है कि स्वयं उसी ने तो बेटे को प्रारंभ से ही संस्कार दिए थे कि किसी भी प्रकार के तनावपूर्ण वातावरण को दूर करने के लिए यदि थोड़ा सहन भी करना पड़े तो कर लेना चाहिए.
बेटे की बात से वह इतना तो समझ गई कि ऋचा ने लाख प्रयत्न किया हो लेकिन आज भी राजीव के मन से मां के प्रति स्नेह को वह कम नहीं कर पाई है. अपने बेटे की लाचारी देख कर मालती का मन भर आया. उस ने राजीव के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अब जा कर सो जा. सुबह ऋचा को लेने भी तो जाना है.’’
‘‘मां…कोई कितना भी प्रयत्न कर ले लेकिन तुम्हारे राजू को तुम्हारे लिए कभी राजीव नहीं बना पाएगा?’’
यह कह कर राजीव कमरे से बाहर चला गया. घर में मां के साथ जो व्यवहार हो रहा है शायद उसी कारण मां से आंखें मिलाने का साहस नहीं रह गया है उस में. पर उस की विवशता को मां उस का बदलाव न समझें, यह बात बहुत कुछ न कह कर थोड़े में ही कह गया वह.
राजीव के जाने के बाद मालती लेटी तो उस ने देखा कि उस की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है. पर ये आंसू किसी दुख या लाचारी के नहीं अपितु अपने बेटे को पाने के हैं जिसे वह अपने से दूर जान कर दुखी रहती थी. आज उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है. ऋचा के प्रति मन में जो भी आक्रोश है वह राजीव से बात करने पर पल में धुल गया.