ब्रेकअप के कारण मैं डिप्रेशन में आ गई हूं…. क्या करूं?

Breakup : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मैं अपने दोस्तों से अपनी रिलेशनशिप्स के बारे में बात करने में कम्फर्टेबल नहीं हूं और यही कारण है कि मैं अपनी परेशानी यहां कह रही हूं. मैं अपने बौयफ्रैंड से ब्रेकअप करना चाहती थी और इसी कारण मैं ने जानबूझ कर उस से लड़ाई कर ली. वह और मैं भविष्य में एकसाथ नहीं रह सकते, इसलिए मुझे लगा कि हमें ब्रेकअप कर लेना चाहिए. लड़ाई के 2 दिन बाद तक मैं ने उस से बात नहीं की और मैं समझ भी नहीं पा रही थी कि अगर वह मुझे मनाने आया तो मैं क्या कहूंगी. हुआ यह कि उस ने मुझे नहीं मनाया और उस के बिना मेरा मन नहीं लगा तो मैं ने खुद ही उसे मैसेज कर दिया. वह मुझ से गुस्सा हो गया. मैं ने उस से बात करने की कोशिश की तो समझ आया कि अब वह मुझ से बात नहीं करना चाहता. मुझे पिछले कई दिनों से डिप्रैशन जैसा लग रहा है और अब यह दुख भी सहन नहीं हो रहा. क्या करूं, समझ नहीं आ रहा?

जवाब-

आखिर हुआ वही जो आप चाहती थीं तो अब इस तरह भागना कैसा. आप चाहती थीं कि आप का ब्रेकअप हो जाए और हो गया. आप चाहती थीं कि वह आप को मनाने न आए क्योंकि आप के पास जवाब नहीं है देखिए वह नहीं आया. हो सकता है वह समझ गया हो कि आप के मन में क्या चल रहा है, इसलिए उस ने आप के फैसले को नकारने के बजाय उसे चुपचाप मान लिया. आप अगर जानती हैं कि आप दोनों का एकसाथ कोई भविष्य नहीं है और आप को आज या कल ब्रेकअप करना ही है तो यह मौका बारबार नहीं आएगा. दुखदर्द होगा, आप को सहना भी होगा और यह मौका आप के पास खुद चल कर आया है, इसे इस तरह जाने देना सही नहीं होगा. आप को आज या कल इस से गुजरना ही है तो अभी क्यों नहीं. आगे फैसला आप का खुद का है.

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सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Stories : मुखरित मौन – मानसी को क्या समझाना चाहती थी सुजाता

Stories :  अवनी आखिर परिमल की हो गई. विदाई का समय आ गया. मम्मीपापा अपनी इकलौती, लाड़ली, नाजों पली गुडि़या सी बेटी को विदा कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. बेटी तो आती रहेगी विवाह के बाद भी, पर बेटी पर यह अधिकारबोध शायद तब न रहेगा.

यह एक प्राचीन मान्यता है. अधिकार तो बेटे पर विवाह के बाद बेटी से भी कम हो जाता है, पर बोध कम नहीं होता शायद. उसी सूत्र को पकड़ कर बेटी के मातापिता की आंखें विदाई के समय आज भी भीग जाती हैं. हृदय आज भी तड़प उठता है, इस आशंका से कि बेटी ससुराल में दुख पाएगी या सुख. हालांकि, आज के समय में यह पता नहीं रहता कि वास्तव में दुख कौन पा सकता है, बेटी या ससुराल वाले. अरमान किस के चूरचूर हो सकते हैं दोनों में से, उम्मीदें किस की ध्वस्त हो सकती हैं.

विदाई के बाद भरीआंखों से अवनी कार में बैठी सड़क पर पीछे छूटती वस्तुओं को देख रही थी. इन वस्तुओं की तरह ही जीवन का एक अध्याय भी पीछे छूट गया था और कल से एक नया अध्याय जुड़ने वाला था जिंदगी की किताब में. जिसे उसे पढ़ना था. लेकिन पता नहीं अध्याय कितना सरल या कठिन हो.

‘मम्मी, मैं परिमल को पसंद करती हूं और उसी से शादी करूंगी,’ घर में उठती रिश्ते की बातों से घबरा कर अवनी ने कुछ घबरातेलरजते शब्दों में मां को सचाई से अवगत कराया.

‘परिमल? पर बेटा वह गैरबिरादरी का लड़का, पूरी तरह शाकाहारी व नौकरीपेशा परिवार है उन का.’

‘उस से क्या फर्क पड़ता है, मम्मी?’

‘लेकिन परिमल की नौकरी भी वहीं पर है. तुझे हमेशा ससुराल में ही रहना पड़ेगा, यह सोचा तूने?’

‘तो क्या हुआ? आप अपने जानने वाले व्यावसायिक घरों में भी मेरा विवाह करोगे तो क्या साथ में नहीं रहना पड़ेगा? वहां भी रह लूंगी. है ही कौन घर पर, मातापिता ही तो हैं. बहन की शादी तो पहले ही हो चुकी है.’

‘व्यावसायिक घर में तेरी शादी होगी तो रुपएपैसे की कमी न होगी. कई समस्याओं का समाधान आर्थिक मजबूती कर देती है,’ मानसी शंका जाहिर करती हुई बोली.

‘ओहो मम्मी, इतना मत सोचो. अकसर हम जितना सोचते हैं, उतना कुछ होता नहीं है. मैं और परिमल दोनों की अच्छी नौकरियां हैं. मुझे खुद पर पूरा भरोसा है. निबट लूंगी सब बातों से. आप तो बस, पापा को मनाओ, क्योंकि मैं परिमल के अलावा किसी दूसरे से विवाह नहीं करूंगी.’

अवनी के तर्कवितर्क से मानसी निरुत्तर हो गई थी. आजकल के बच्चे कुछ कहें तो मातापिता के होंठों पर हां के सिवा कुछ नहीं होना चाहिए. यही आधुनिक जीवनशैली व विचारधारा का पहला दस्तूर है. अवनी के मातापिता ने भी सहर्ष हां बोल दी. दोनों पक्षों की सफल वार्त्ता के बाद अवनी व परिमल विवाह सूत्र में बंध गए थे.

बरात विदा होने से पहले ही बरातियों की एक कार अपने गंतव्य की तरफ चल दी थी, जिन में परिमल की मम्मी भी थीं ताकि वे जल्दी पहुंच कर बहू के स्वागत की तैयारियां कर सकें. बरात देहरादून से वापस दिल्ली जा रही थी.

बरात जब घर पहुंची तो नईनवेली बहू के स्वागत में सब के पलकपांवड़े बिछ गए. द्वारचार की थोड़ीबहुत रस्मों के बाद गृहप्रवेश हो गया. पंडितजी भी अपनी दक्षिणा पा कर दुम दबा कर भागे और घर पर इंतजार करते बैंड वाले भी अपना कर्तव्य पालन कर भाग खड़े हुए. बरात के दिल्ली पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज गए थे. खाना तैयार था. अधिकांश बराती तो रास्ते से ही इधरउधर हो लिए थे. करीबी रिश्तेदार, जिन्होंने घर तक आने की जरूरत महसूस की थी, भी खाना खा कर जाने को उद्यत हो गए. परिमल की मां सुजाता ने सब को भेंट वगैरह दे कर रुखसत कर दिया.

घर में अब सुजाता, सरस, बेटीदामाद व दूल्हादुलहन रह गए थे. दामाद की नौकरी तो दूसरे शहर में थी, पर घर स्थानीय था. इसलिए बेटीदामाद भी अपने घर चले गए.

‘‘परिमल, तुम ने भी होटल में कमरा बुक किया हुआ है, तुम भी निकल जाओ. तुम्हारे दोस्त तुम्हें छोड़ देंगे और ड्राइवर तुम्हारे दोस्तों को घर छोड़ता हुआ चला जाएगा. काफी देर हो रही है, आराम करो,’’ सरस बोले.

परिमल बहुत थका हुआ था. इतने थके हुए थे दोनों कि उन का होटल जाने का भी मन नहीं हो रहा था, ‘‘यहीं सो जाते हैं, पापा. मेरा कमरा खाली ही तो है. घर में तो कोई मेहमान भी नहीं है.’’

सुजाता चौंक गईं. मन ही मन सोचा, ‘नई बहू क्या सोचेगी.’ ‘‘नहींनहीं, तुम्हारा कमरा तो बहुत अस्तव्यस्त है. आज तो होटल चले जाओ. कल सबकुछ व्यवस्थित कर दूंगी,’’ सुजाता बोलीं.

परिमल दुविधा में सोफे पर बैठा ही रहा और साथ में अवनी भी. थकान के मारे आंखें मुंद रही थीं. मायके की बात होती तो सारा तामझाम उतार कर, शौर्ट्स और टीशर्ट पहन कर, फुल एसी पंखा खोल कर चित्त सो जाती, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं कर सकती थी. इसलिए चुप बैठी रही.

‘‘जाओ परिमल, ड्राइवर इंतजार कर रहा है.’’

‘‘चलो अवनी,’’ थकेमांदे अवनी व परिमल, थके शरीर को धकेल कर कार में बैठ गए. अवनी का दिल कर रहा था पीछे सिर टिकाए और सो जाए.

शादी से पहले उस के पापा ने उस की मम्मी से कहा था कि अवनी व परिमल का दिल्ली से देहरादून की फ्लाइट का टिकट करवा देते हैं. रोड की 7-8 घंटे की जर्नी इन्हें थका देगी. लेकिन भारतीय संस्कार आड़े आ गए. इसलिए मानसी बोलीं, ‘शादी के बाद अवनी उन की बहू है. वे उसे ट्रेन से ले जाएं, कार से ले जाएं, बैलगाड़ी से ले जाएं या फिर फ्लाइट से, हमें बोलने का कोई हक नहीं.’

सुन कर अवनी मन ही मन मुसकरा दी थी, ‘वाह भई, भारतीय परंपरा… सड़क  मार्ग से यात्रा करने में मेरी तबीयत खराब होती है, इसलिए मुझे उलटी की दवाई खा कर जाना पड़ेगा. लेकिन बेटी को चाहे कितनी भी ऊंची शिक्षा दे दो और वह कितने ही बड़े पद पर कार्यरत क्यों न हो, एक ही रात में उस के मालिकों की अदलाबदली कैसे हो जाती है? उस पर अधिकार कैसे बदल जाते हैं? उस की खुद की भी कोई मरजी है? खुद की भी कोई तकलीफ है? खुद का भी कोई निर्णय है? इस विषय में कोई भी जानना नहीं चाह रहा.’

लेकिन उस की शादी होने जा रही थी. वह बमुश्किल एक महीने की छुट्टी ले पाई थी. 20 दिन विवाह से पहले और 10 दिन बाद के. लेकिन उन 10 दिनों की भी कशमकश थी. उसे ससुराल में शादी के बाद की कुछ जरूरी रस्मों में भी शामिल होना था और हनीमून ट्रिप पर भी जाना था. बहुत टाइट शैड्यूल था. शादी से पहले की छुट्टियां भी जरूरी थीं. उसे शादी की तैयारियों के लिए भी समय नहीं मिल पाया था. ऐसा लग रहा था,

शादी भी औफिस के जरूरी कार्यों की तरह ही निबट रही है. शायद वे दोनों एक महीने के किसी प्रोजैक्ट को पूरा करने आए हैं. ऊपर से मम्मी के उपदेश सुनतेसुनते वह तंग आ गई थी. ‘बहू को ऐसा नहीं करना चाहिए, बहू को वैसा नहीं करना चाहिए, ऐसे रहना, वैसे रहना, चिल्ला कर बात नहीं करना, सुबह उठना, औफिस से आ कर थोड़ी देर सासससुर के पास बैठना, किचन में जितनी बन पाए मदद जरूर करना…’

एक दिन सुनतेसुनते वह भन्ना गई, ‘मम्मी, जब भैया की शादी हुई थी, तब भैया को भी यही सब समझाया था? स्त्रीपुरुष की समानता का जमाना है. भाभी भी नौकरी करती हैं. भैया को भी सबकुछ वही करना चाहिए, जो भाभी करती हैं. मसलन, उन के मातापिता, भाईबहन, रिश्तेदारों से अच्छे संबंध रखना, किचन में मदद करना, भाभी से ऊंचे स्वर में बात न करना, औफिस से आ कर हफ्ते में भाभी के मम्मीपापा से 2-3 बार बात करना और सुबह उठ कर भाभी के साथ मिलजुल कर काम करना आदि…लड़की को ही यह सब क्यों सिखाया जाता है?’

उस के बाद मम्मी के निर्देश कुछ बंद हुए थे. अवनी को मन ही मन मम्मी पर दया आ गई. गलती मम्मी की नहीं, मम्मी की पीढ़ी की है जो नईपुरानी पीढ़ी के बीच झूल रही है. उच्च शिक्षित है लेकिन अधिकतर आत्मनिर्भर नहीं रही. इसलिए कई तरह के अधिकारों से वंचित भी रही. उच्च शिक्षा के कारण गलतसही भले ही समझी हो, नए विचारों को अपनाने का माद्दा भले ही रखती हो, लेकिन गलत को गलत बोलती नहीं है. नए विचारों को अपने आचरण में लाने की हिम्मत नहीं करती.

यहां तक कि मम्मी की पीढ़ी की आत्मनिर्भर महिलाएं भी नईपुरानी विचारधारा के बीच झूलती, नईपुरानी परंपराओं के बीच पिसती रहती हैं. फुल होममेकर्स की शायद आखिरी पीढ़ी है, जो अब समाप्त होने की कगार पर है.

कार होटल पहुंच गई और अवनी व परिमल को कमरे तक पहुंचा कर परिमल के दोस्त चले गए. रात के 12 बज रहे थे. कमरे में पहुंच कर दोनों ने चैन की सांस ली.

2 प्रेमी पिछले 4 सालों से इस रात का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. लेकिन थके शरीर नींद की आगोश में जाना चाहते थे. दोनों इतने थके थे कि बात करने के मूड में भी नहीं थे. शादी की 3 दिनों तक चली परंपरावादी प्रक्रिया ने उन्हें बुरी तरह थका दिया था. ऊपर से देहरादूनदिल्ली का भीड़ के कारण 8-9 घंटे का सफर. दोनों उलटेसीधे कपड़े बदल कर औंधेमुंह सो गए.

सुबह देहरादून व दिल्ली के दोनों घरों में सभी देर से उठे. लेकिन 10 बजतेबजते सभी उठ गए. बेटी को विदा कर बेटी की मां आज भी चैन से कहां रह पाती है, चाहे वह लड़के को बचपन से ही क्यों न जानती हो. 12 बज गए मानसी से रहा न गया. उन्होंने अवनी को फोन मिला दिया. गहरी नींद के सागर में गोते लगा रही अवनी, फोन की घंटी सुन कर बमुश्किल जगी. परिमल भी झुंझला गया. स्क्रीन पर मम्मी का नाम देख कर मोबाइल औन कर कानों से लगा लिया.

‘‘कैसी है मेरी अनी?’’

‘‘सो रही है, मरी नहीं है,’’ अवनी झुंझला कर बोली, ‘‘इतनी सुबह क्यों फोन किया?’’ मम्मी को बुरा तो लगा पर बोली, ‘‘सुबह कहां है, 12 बज रहे हैं, कैसी है?’’

‘‘अरे कैसी है मतलब…कल 12 बजे तो आई हूं देहरादून से. आज 12 बजे तक क्या हो जाएगा मुझे. हमेशा ही तो आती हूं नौकरी पर छुट्टियों के बाद, तब तो आप फोन नहीं करतीं. आज ऐसी क्या खास बात हो गई? कल मैसेज कर तो दिया था पहुंचने का.’’

मानसी निरुत्तर हो, चुप हो गई. ‘‘अभी मैं सो रही हूं, फोन रखो आप. जब उठ जाऊंगी तो खुद ही मिला दूंगी,’’ कह कर अवनी ने फोन रख दिया.

मानसी की आंखें भर आईं. आज की पीढ़ी की बहू की तटस्थता तो दुख देती ही है, पर बेटी की तटस्थता तो दिल चीर कर रख देती है. यह असंवेदनहीन मशीनी पीढ़ी तो किसी से प्यार करना जैसे जानती ही नहीं. जब मां को ऐसे जवाब दे रही है तो सास को कैसे जवाब देगी.

मानसी एक शिक्षित गृहिणी थी और सास सुजाता एक उच्चशिक्षित कामकाजी महिला. वे केंद्रीय विद्यालय में विज्ञान की अध्यापिका थीं. सुबह पौने 8 बजे घर से निकलतीं और साढ़े 4 बजे तक घर पहुंचतीं. सरस रिटायर हो चुके थे. लेकिन सुजाता के रिटायरमैंट में अभी 3 साल बाकी थे. सुजाता आधुनिक जमाने की उच्चशिक्षित सास थीं. कभी कार, कभी स्कूटी चला कर स्कूल जातीं, लैपटौप पर उंगलियां चलातीं. और जब किचन में हर तरह का खाना बनातीं, कामवाली के न आने पर बरतन धोतीं, झाड़ूपोंछा करतीं तो उन के ये सब गुण पता भी न चलते. सरस एक पीढ़ी पहले के पति, पत्नी के कामकाजी होने के बावजूद, गृहकार्य में मदद करने में अपनी हेठी समझते और पत्नी से सबकुछ हाथ में मिल जाने की उम्मीद करते.

सुजाता सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी व्यस्त थीं. नौकरी की व्यस्तता के कारण उन का ध्यान दूसरी कई फालतू बातों की तरफ नहीं जाने पाता था. दूसरा, सोचने का आयाम बहुत बड़ा था. कई बातें उन की सोच में रुकती ही नहीं थीं. इधर से शुरू हो कर उधर गुजर जाती थीं.

2 बज गए थे. लंच का समय हो गया था. बच्चे अभी होटल से नहीं आए थे. सरस ने एकदो बार फोन करने की पेशकश की, पर सुजाता ने सख्ती से मना कर दिया कि उन्हें फोन कर के डिस्टर्ब करना गलत है.

‘‘तुम्हें भूख लग रही है, सरस, तो हम खाना खा लेते हैं.’’

‘‘बच्चों का इंतजार कर लेते हैं.’’

‘‘बच्चे तो अब यहीं रहेंगे. थोड़ी देर और देखते हैं, फिर खा लेते हैं. न उन्हें बांधो, न खुद बंधो. वे आएंगे तो उन के साथ कुछ मीठा खा लेंगे.’’

सुजाता के जोर देने पर थोड़ी देर

बाद सुजाता व सरस ने खाना खा लिया. बच्चे 4 बजे के करीब आए. वे सो कर ही 2 बजे उठे थे. अब कुछ फ्रैश लग रहे थे. उन के आने से घर में चहलपहल हो गई. सरस और सुजाता को लगा बिना मौसम बहार आ गई हो. सुजाता ने उन का कमरा व्यवस्थित कर दिया था. बच्चों का भी होटल जाने का कोई मूड नहीं था. परिमल भी अपने ही कमरे में रहना चाहता था. इसलिए वे अपनी अटैचियां साथ ले कर आ गए थे. थोड़ी देर घर में रौनक कर, खाना खा कर बच्चे फिर अपने कमरे में समा गए.

अवनी अपनी मम्मी को फोन करना फिर भूल गई. बेचैनी में मानसी का दिन नहीं कट रहा था. दोबारा फोन मिलाने पर अवनी की सुबह की डांट याद आ रही थी. इसलिए थकहार कर समधिन सुजाता को फोन मिला दिया. थकी हुई सुजाता भी लंच के बाद नींद के सागर में गोते लगा रही थीं. घंटी की आवाज से बमुश्किल आंखें खोल कर मोबाइल पर नजरें गड़ाईं. समधिन मानसी का नाम देख कर हड़बड़ा कर उठ कर बैठ गईं.

‘‘हैलो,’’ वे आवाज को संयत कर नींद की खुमारी से बाहर खींचती हुई बोलीं.

‘‘हैलो, सुजाताजी, लगता है आप को डिस्टर्ब कर दिया. दरअसल, अवनी ने फोन करने को कहा था, पर अभी तक नहीं किया.’’

‘‘ओह, अवनी अपने कमरे में है. बच्चे 4 बजे आए होटल से. खाना खा कर कमरे में चले गए हैं. फोन करना भूल गई होगी शायद. जब बाहर आएगी तो मैं याद दिला दूंगी.’’

‘‘हां, जी,’’ बेटी की सुबह की डांट से क्षुब्ध मानसी सुजाता से भी संभल कर व धीमी आवाज में बात कर रही थी. सुजाता का हृदय द्रवित हो गया. बेटी की मां ऐसी ही होती है.

‘‘बेटी की याद आ रही है?’’ वे स्नेह से बोलीं.

‘‘हां, आ तो रही है,’’ मानसी की आवाज भावनाओं के दबाव से नम हो गई, ‘‘पर ये आजकल के बच्चे, मातापिता की भावनाओं को समझते कहां हैं,’’ सुबह की घटना से व्यथित मानसी बोल पड़ी.

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं. दरअसल, बच्चों के जीवन में उलझने के लिए बहुतकुछ है. और मातापिता के जीवन में सिर्फ बच्चे, इसलिए ऐसा लगता है. अवनी बहुत प्यारी बच्ची है. लेकिन अभी नईनई शादी है न, इसलिए आप चिंता मत कीजिए. वह आप की लाड़ली बेटी है तो हमारे घर की भी संजीवनी है. बाहर आएगी तो मैं बात करने के लिए कह दूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मानसी ने फोन रख दिया. सुजाता की नींद तो मानसी के फोन से उड़ गई थी. सरस भी आवाज से उठ गए थे. इसलिए वह उठ कर मुंहहाथ धो कर चाय बना कर ले आई.

बच्चे दूसरे दिन हनीमून पर निकल गए. वापस आए तो कुछ दिन अवनी के घर देहरादून चले गए. इस बीच, सुजाता की छुट्टियां खत्म हो गईं. बच्चे वापस आए तो उन की भी छुट्टियां खत्म हो गई थीं. दोनों के औफिस शुरू हो गए और दोनों अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. वैसे तो सुजाता बहुत ही आधुनिक विचारों की कामकाजी सास थीं पर वे इस नई पीढ़ी को नवविवाहित जीवन की शुरुआत करते बड़े आश्चर्य व कुतूहल से देख रही थीं. इन बच्चों की दिनचर्या में उन के मोबाइल व लैपटौप के अलावा किसी के लिए भी जगह नहीं थी.

उन के औफिस संबंधी अधिकतर काम तो मोबाइल से ही निबटते थे. बाकी बचे लैपटौप से. सुबह 8, साढ़े 8 बजे के निकले बच्चे रात के साढ़े 8 बजे के बाद ही घर में घुसते. उन की दिनचर्या में अपने नवविवाहित साथी के लिए ही जगह नहीं थी, फिर सासससुर की कौन कहे. ‘‘इन्हें प्यार करने के लिए फुरसत कैसे मिली होगी?’’ सुजाता अकसर सरस से परिहास करतीं, ‘‘लगता है प्यार भी मोबाइल पर ही निबटा लिया होगा औफिस के जरूरी कार्यों की तरह.’’

मानसी बेटी से बात करने के लिए तरस जाती. पहले सिर्फ उस की नौकरी थी, इसलिए थोड़ीबहुत बात हो जाती थी. पर अब उस की दिनचर्या का थोड़ाबहुत हिस्सेदार परिमल भी हो गया था.

‘‘सासससुर के साथ भी थोड़ाबहुत बैठती है छुट्टी के दिन? कभी किचन का रुख भी कर लिया कर. अब तेरी शादी हो गई है. तेरे सासससुर अच्छे हैं पर थोड़ीबहुत उम्मीद तो वे भी करते होंगे,’’  एक दिन फोन पर बात करते हुए मानसी बोली.

‘‘उफ, मम्मी, फिर शुरू हो गए आप के उपदेश. अरे, जब मैं किसी से बदलने की उम्मीद नहीं करती, जो जैसा है वैसा ही रह रहा है, तो मुझ से बदलने की उम्मीद कैसे कर सकता है कोई. शादी मेरे लिए ही सजा क्यों है. यह मत पहनो, वह मत करो. मन हो न हो, सब से बातचीत करो. जल्दी उठो. रिश्तेदार आएं तो उन्हें खुश करो,’’ अवनी झल्ला कर बोली.

कमरे के बाहर से गुजरती सुजाता के कानों में अवनी की ये बातें पड़ गईं. सुजाता बहुत ही खुले विचारों की महिला थीं. हर बात का सकारात्मक पहलू देखना व विश्लेषणात्मक तरीके से सोचना उन की आदत थी.

पारंपरिक सास के कवच से बाहर आ कर एक स्त्री के नजरिए से वे सोचने लगीं, ‘आखिर गलत क्या कह रही है अवनी. शादी सजा क्यों बन जाती है किसी लड़की के लिए. लड़के के लिए शादी न कल सजा थी न आज, पर लड़की के लिए…वे खुद भी कामकाजी रही हैं. अंदरबाहर की जिम्मेदारियों में बुरी तरह पिसी हैं. पति ने भी इतना साथ नहीं दिया. कितने ही क्षण ऐसे आए जब नौकरी बचाना भी मुश्किल हो गया था. कामकाजी होते हुए भी उन से एक संपूर्ण गृहिणी वाली उम्मीद की गई.’

ऐसे विचार कई बार उन के हृदय को भी आंदोलित करते थे. पर गलत को गलत कहने की उच्चशिक्षित होते हुए यहां तक कि आर्थिकरूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी उन की पीढ़ी ने हिमाकत नहीं की. उन्हें लग रहा था जैसे उन की पीढ़ी का मौन अब अवनी की पीढ़ी की लड़कियों के मुंह से मुखरित हो रहा है. अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की दिनचर्या अपने हिसाब से शुरू होती है और अपने हिसाब से खत्म होती है. यह देख कर उन्हें अच्छा भी लगता. अवनी की पीढ़ी की लड़की का जीवन पतिरूपी पुरुष के जीवन के खिलने व सफल होने के लिए आधार मात्र नहीं है बल्कि दोनों ही बराबर के स्तंभ थे. एक भी कम या ज्यादा नहीं. वे अपने बेटे को अवनी से ज्यादा बदलते हुए देख रही थीं शादी के बाद.

वह पहले से जल्दी उठता. दोनों भागदौड़ कर तैयार होते. बैडरूम ठीक करते. अपनेअपने कपड़े प्रैस करते, उन्हें अलमारियों में लगाते. नाश्ते के लिए एक टोस्ट सेंकता तो दूसरा कोल्ड कौफी बनाता. एक कौर्नफ्लैक्स बाउल में डालता तो दूसरा दूध गिलास में. एक औमलेट बनाता तो दूसरा टोस्ट पर बटर लगाता. सुजाता खुद कामकाजी थीं. इसलिए उन की बहुत अधिक मदद नहीं कर सकती थीं. बस, घर की व्यवस्था उन्हें ठीकठाक मिल रही थी. राशनपानी, सब्जी कब कहां से आएगा, कामवाली कब काम करेगी, खाना कब बनेगा, इस का सिरदर्द न होना भी बहुत बड़ी मदद थी. इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर मदद को ले कर वे चुप ही रहती थीं.

लेकिन परिमल को हर कदम पर अवनी का साथ व स्वतंत्रता देते देख, सुजाता को अपना जीवन व्यर्थ जाया जाने जैसा लगता. वे खुद तो कभी नौकरी व घर के बीच पूरी ही नहीं पड़ीं. ऊपर से सारे रिश्तेनाते. अवनी को तो रिश्तेनाते निभाने की कोई फिक्र ही नहीं थी. यहां तक तो उस की न तो सोच जाती न ही समय था. उस पर भी अब परिवार छोटे. एक टाइम की चाय भी नहीं पिलानी है. और फिर व्हाट्सऐप…चाय की प्याली भी गुडमौर्निंग के साथ व्हाट्सऐप पर भेज दो, और जरूरत पड़ने पर बर्थडे केक भी, यह सब सोच कर सुजाता मन ही मन मुसकराईं.

अवनी की पीढ़ी की लड़कियों ने जैसे एक युद्ध छेड़ रखा है. वर्षों से आ रही नारी की पारंपरिक छवि के विरुद्ध सुजाता सोचतीं, भले ही कितना कोस लो आजकल की लड़कियों को, सच तो यह है कि सही मानो में वे अपना जीवन जी रही हैं. मुखरित हो चुकी हैं, यह पीढ़ी ऐसा ही जीवन शायद उन की पीढ़ी या उन से पहले और उन से पहले की भी पीढ़ी की लड़कियों ने चाहा होगा पर कायदे और रीतिरिवाजों में बंध कर रह गईं. पुरुषों के बराबर समानता स्त्रियों को किसी ने नहीं दी. लेकिन यह पीढ़ी अपना वह अधिकार छीन कर ले रही है.

फिर विकास तो अपने साथ कुछ विनाश तो ले कर आता ही है. गेहूं के साथ घुन तो पिस ही जाता है. अवनी और परिमल दोनों आजकल अत्यधिक व्यस्त थे. रात में भी देर से लौट रहे थे. वर्कलोड बहुत था. दोनों के रिव्यू होने वाले थे. घर आ कर दोनों जैसातैसा खा कर दोचार बातें कर के औंधेमुंह सो जाते. छुट्टी के दिन भी दोनों लैपटौप पर आंखें गड़ाए रहते.

मानसी की बेचैनी सीमा पार कर रही थी. उस में सुजाता जैसा धैर्य नहीं था. न ही वह सुजाता की तरह व्यस्त थी. इसलिए नई पीढ़ी की अपनी बहू के क्रियाकलापों को भी सहजता से नहीं ले पाती और अपनी भड़ास निकालने के लिए बेटी के कान भी उपलब्ध नहीं थे. मां के दुखदर्द सुनना अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की न आदत है न फुरसत. पर बेटी से मोह कम कर बहू से मोह बढ़ाना मानसी जैसी महिलाओं को भी नहीं आता.

यदि अवनी ससुराल में न रह कर कहीं अलग रह रही होती तो मानसी अब तक आ धमकती. पर नएनए समधियाने में जा कर रहने में पुराने संस्कार थोड़े आड़े आ ही जाते थे. बेटी तो 2-4 बातें कर के फोन रख देती पर जबतब सुजाता से बात कर वह अपनी भड़ास निकाल लेती.

उन का इस कदर पुत्रीमोह देख कर सुजाता को अजीब तरह का अपराधबोध सालने लगता. जैसे उन की बेटी को उन से अलग कर के उन्होंने कोई गुनाह कर दिया हो. उन्हें कभी मानसी की फोन पर कही अजीबोगरीब बातों से चिड़चिड़ाहट होती तो कभी खुद भी एक बेटी की मां होने के नाते द्रवित हो जातीं.

बेटी से प्यार तो सुजाता को भी बहुत था. पर उस की व्यस्तता उन्हें प्यार जताने तक का समय नहीं देती, मोह की कौन कहे. पर मानसी की हालत देख कर उन्हें लगता कि सच ही कहते हैं, ‘खाली दिमाग शैतान का घर.’ हर इंसान को कहीं न कहीं व्यस्त रहना चाहिए. नौकरी ही जरूरी नहीं है और भी कई तरीके हैं व्यस्त रहने के. उस का दिल करता किसी दिन इतमीनान से समझाए मानसी को कि बच्चों से मोह अब कुछ कम करे और खुद की जिंदगी से प्यार करे.

अभी 55-56 वर्ष की उम्र होगी उन की. बहुत कुछ है जिंदगी में करने के लिए अभी. हर समय बेटीबेटी कर के, उस के मोह में फंस कर, वह खुद की भी जिंदगी बोझ बना रही है और बेटी की जिंदगी में भी उलझन पैदा कर रही है. अवनी की पीढ़ी

की लड़कियों की जिंदगी व्यस्तताभरी है. इस पीढ़ी को कहां फुरसत है कि वह मातापिता, सासससुर के भावनात्मक पक्ष को अंदर तक महसूस करे. लेकिन समझा न पाती, रिश्ता ही ऐसा था.

इसी बीच, कंपनी ने अवनी को 15 दिन की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई भेज दिया. अवनी जाने की तैयारी करने लगी. घर में किसी के मन में दूसरा विचार ही न आया. एक आत्मनिर्भर लड़की को औफिस के काम से जाना है, तो बस जाना है. लेकिन अवनी की मम्मी बेचैन हो गई.

‘‘कैसे रहेगी तू वहां अकेली इतने दिन. कभी अकेली रही नहीं तू. दिल्ली में भी तू अपनी फ्रैंड के साथ रहती थी,’’ मानसी कह रही थी. सुजाता को भी मोबाइल की आवाज सुनाई दे रही थी.

‘‘अकेले का क्या मतलब मम्मी. नौकरी में तो यह सब चलता रहता है. कंपनी मुझे भेज रही है. आप हर समय चिंता में क्यों डूबी रहती हैं. ऐसा करो आप और पापा कुछ दिनों के लिए कहीं घूम आओ या ऐसा करो गरीब बच्चों को इकट्ठा कर के आप पढ़ाना शुरू कर दो,’’ अवनी भन्नाती हुई बोली. अवनी की बात सुन कर सुजाता की हंसी छूटने को हुई.

‘‘तू हर समय बात टाल देती है. मैं तुझे अकेले नहीं जाने दे सकती. मैं चलती हूं तेरे साथ.’’

‘‘आफ्फो मम्मी, आप का वश चले तो मुझे वाशरूम भी अकेले न जाने दो. मेरी शादी हो गई है अब. जब यहां किसी को एतराज नहीं तो आप क्यों परेशान हो रही हैं. मेरे साथ जाने की कोई जरूरत नहीं.’’

‘‘मां की चिंता तू क्या जाने. जब मां बनेगी तब समझेगी,’’ मानसी की आवाज भर्रा गई.

‘‘मां, अगर इतनी चिंता करती हैं तो मुझे मां ही नहीं बनना. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. मैं फोन औफ कर रही हूं. मुझे औफिस का जरूरी काम खत्म करना है.’’

‘‘अच्छा, फोन औफ मत कर. जरा मम्मी से बात करा अपनी.’’

अवनी ने फोन सुजाता को पकड़ा दिया. आज मानसी की बातें सुन कर सुजाता का दिल किया कि बुरा ही मान जाए मानसी पर वे अब चुप नहीं रहेंगी, अपनी बात बोल कर रहेंगी. वे फोन पर बात करतेकरते अपने कमरे में आ कर बैठ गईं.

‘‘देख रही हैं आप. कैसे रहेगी वहां अकेली. मुझे भी मना कर रही है. आप परिमल से कहिए न कि छुट्टी ले कर उस के साथ जाए.’’ उस की बेसिरपैर की बात पर झुंझलाहट हो गई सुजाता को.

‘‘परिमल के पास इतनी छुट्टी कहां है मानसीजी. और फिर यह तो शुरुआत है. जैसेजैसे नौकरी में समय होता जाएगा, ऐसे मौके तो आते रहेंगे. आप चिंता क्यों कर रही हैं. आप ने उच्च शिक्षा दी है बेटी को तो कुछ अच्छा करने के लिए ही न. घर बैठने के लिए तो नहीं. समझदार व आत्मविश्वासी लड़कियां हैं आजकल की. इतनी चिंता करनी छोड़ दीजिए आप भी.’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं आप. कैसे छोड़ दूं चिंता. आप नहीं करतीं अपनी बेटी की चिंता?’’

‘‘मैं चिंता करती हूं मानसीजी, पर अपनी चिंता बच्चों पर लादती नहीं हूं.’’ सुजाता का दिल किया, अगला वाक्य बोले, ‘और न बेटी की सास को जबतब कुछ ऐसावैसा बोल कर परेशान करती हूं,’ पर स्वर को संभाल कर बोलीं, ‘‘बच्चों की अपनी जिंदगी है. यदि बच्चे अपनी जिंदगी में खुश हैं तो बस मातापिता को चाहिए कि दर्शक बन कर उन की खुशी को निहारें और खुद को व्यस्त रखें. आज की पीढ़ी बहुत व्यस्त है, इन की तुलना अपनी पीढ़ी से मत कीजिए. इस का मतलब यह नहीं कि बच्चों को हम से प्यार नहीं, पर उन की दिनचर्या ही ऐसी है कि कई छोटीछोटी खुशियों के लिए उन के पास समय ही नहीं है या कहना चाहिए खुशियों के मापदंड ही बदल गए हैं उन की जिंदगी के.’’

मानसी एकाएक रो पड़ी फोन पर. सुजाता का दिल पसीज गया. लेकिन सोचा, आखिर बेटी से मोह भंग तो होना ही चाहिए मानसी का.

‘‘मानसीजी, क्यों दिल छोटा कर रही हैं. अवनी आप की बेटी है और जिंदगीभर आप की बेटी रहेगी. लेकिन एक बच्ची आप के पास भी है. उसे भी अवनी के नजरिए से देखेंगी तो वह भी उतनी ही अपनी लगेगी. प्यार कीजिए बच्चों से, पर अपना प्यार, अपना रिश्ता लाद कर उन की जिंदगी नियंत्रित मत कीजिए. बल्कि, अपनी जिंदगी खुशी से जीने के तरीके ढूंढि़ए. अभी हमारी ऐसी उम्र नहीं हुई है. खूबसूरत उम्र है यह तो. सब जिम्मेदारियों से अब जा कर फारिग हुए हैं. अपने छूटे हुए शौक पूरे कीजिए. अब वे दिन लद गए कि बच्चों की शादी की और बुढ़ापा आ गया. अब तो समय आया है एक नई शुरुआत करने का.’’

मानसी चुप हो गई. सुजाता को समझ नहीं आ रहा था कि मानसी उन की बात कितनी समझी, कितनी नहीं. उसे अच्छा लगा या बुरा. ‘‘आप सुन रही हैं न,’’ वे धीरे से बोलीं.

‘‘हूं…’’

‘‘मैं आप का दिल नहीं दुखाना चाहती, बल्कि बड़ी बहन की तरह आप का साथ देना चाहती हूं. अवनी खुश है अपनी जिंदगी में. व्यस्त है अपनी नौकरी में. आप के पास कम आ पाती है, कम बात कर पाती है तो क्या आप सोचती हैं कि वह हमारे पास रहती है, तो हमारी बहुत बातें हो जाती हैं. आप दूर हैं, फिर भी फोन पर बात कर लेती हैं, लेकिन मैं तो जब उसे अपने सामने थका हुआ देखती हूं तो खुद ही बातों में उलझाने का मन नहीं करता. छुट्टी के दिन बच्चे काफी देर से सो कर उठते हैं. फिर उन के हफ्ते में करने वाले कई काम होते हैं. शाम को थोड़ाबहुत इधरउधर घूमने या मूवी देखने चले जाते हैं.

‘‘यदि इस तरह से हम हर समय अपनी खुशियों के लिए बच्चों का मुंह देखते रहेंगे तो हमारी खुशियां रेत की तरह फिसल जाएंगी मुट्ठी से और हथेली में कुछ भी न बचेगा. इसीलिए कहा इतना कुछ. अगर मेरी बात का बुरा लगा हो तो क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘नहींनहीं, आप की बात का बुरा नहीं लगा मुझे. बल्कि आप की बात पर सोच रही हूं. बहुत सही कह रही हैं. अवनी भी जबतब कुछ ऐसा ही समझाती है मगर झल्ला कर. मैं भी कोई नई राह ढूंढ़ती हूं. आप नौकरी में व्यस्त हैं, इसीलिए जिंदगी को सही तरीके से समझ पा रही हैं शायद.’’

‘‘नौकरी के अलावा भी बहुत से रास्ते हैं जिंदगी में व्यस्त रहने के. मैं भी रिटायरमैंट के बाद कोई नया रास्ता ढूंढ़ूंगी. आप भी सोच कर ढूंढि़ए और ढूंढ़ कर सोचिए,’’ कह कर सुजाता हंस दी.

‘‘हां जी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं. कब जा रही है अवनी?’’

‘‘परसों सुबह की फ्लाइट से.’’

‘‘ठीक है. कल रात उसे ‘गुड विशेज’ का मैसेज कर दूंगी,’’ कह कर मानसी खिलखिला कर हंस पड़ी और साथ ही सुजाता भी.

Kahaniyan : इलाज – क्या मीना का सही इलाज हो पाया

राम स्नेही और जसोदा की बेटी मीना को अकसर पागलपन के दौरे पड़ते थे. वह गोरीचिट्टी और खूबसूरत थी. मातापिता को सयानी हो चली मीना की शादी की चिंता सता रही थी. शादी की उम्र आने से पहले उस की बीमारी का इलाज कराना बेहद जरूरी था.

राम स्नेही का खातापीता परिवार था. उन की अच्छीखासी खेतीबारी थी. उन्होंने गांवशहर के सभी डाक्टरों और वैद्यों के नुसखे आजमाए, पर कोई इलाज कारगर साबित नहीं हुआ.

मीना को पागलपन के दौरे थमे नहीं. दौरा पड़ने पर उस की आवाज अजीब सी भारी हो जाती थी. वह ऊटपटांग बकती थी. चीजों को इधरउधर फेंकती थी. कुछ देर बाद दौरा थम जाता था और मीना शांत हो जाती थी और उसे नींद आ जाती थी. नींद खुलने पर उस का बरताव ठीक हो जाता था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. उसे कुछ याद नहीं रहता था.

सरकारी अस्पताल का कंपाउंडर छेदीलाल राम स्नेही के घर आया था. राम स्नेही ने पिछले साल सरकारी अस्पताल के तमाम चक्कर लगाए थे. अस्पताल में डाक्टर हफ्ते में केवल 3 दिन आते थे. डाक्टर की लिखी परची के मुताबिक छेदीलाल दवा बना कर देता था.

छेदीलाल लालची था. वह मनमानी करता था. मरीजों से पैसे ऐंठता था. पैसे नहीं देने पर वह सही दवा नहीं देता था. वह मीना की बीमारी से वाकिफ था. उसे मालूम था कि मीना की हालत में कोई सुधार नहीं हो पाया है.

राम स्नेही ने डाक्टरी इलाज में पानी की तरह रुपया बहाया था, लेकिन निराशा ही हाथ लगी थी. छेदीलाल को इस बात की भी खबर थी. ‘‘मीना को तांत्रिक को दिखाने की जरूरत है. यह सब डाक्टर के बूते के बाहर है,’’ छेदीलाल ने जसोदा को सलाह दी.

‘‘झाड़फूंक जरूरी है. मैं कब से जिद कर रही हूं, इन को भरोसा ही नहीं है,’’ जसोदा ने हामी भरी.

‘‘मैं ने एक तांत्रिक के बारे में काफी सुना है. उन्होंने काफी नाम कमाया है. वे उज्जैन शहर से ताल्लुक रखते हैं. गांवशहर घूमते रहते हैं. अब उन्होंने यहां पहाड़ी के पुराने मंदिर में धूनी रमाई है,’’ ऐसा कहते हुए छेदीलाल ने एक छपीछपाई परची जसोदा को थमाई.

उस समय राम स्नेही अपने खेतों की सैर पर निकले थे. जब वे घर लौटे, तो जसोदा ने उन को छेदीलाल की दी हुई परची थमाई और मीना को तांत्रिक के पास ले जाने की जिद पर अड़ गईं.

दरअसल, जब मीना को दौरे पड़ते थे, तब जसोदा को ही झेलना पड़ता था. वे मीना के साथ ही सोती थीं. चिंता से देर रात तक उन्हें नींद नहीं आती थी. वे बेचारी करवटें बदलती रहती थीं.

जसोदा की जिद के सामने राम स्नेही को झुकना पड़ा. जसोदा और मीना को साथ ले कर वे पहाड़ी के एक पुराने मंदिर में पहुंचे. मंदिर के साथ 3 कमरे थे. वहां बरसों से पूजापाठ बंद था. तांत्रिक के एक चेले, जो तांत्रिक का सहयोगी और सैके्रटरी था, ने उन का स्वागत किया.

तांत्रिक के सैक्रेटरी ने अपनी देह पर सफेद भभूति मल रखी थी और चेहरे पर गहरा लाल रंग पोत रखा था. सैके्रटरी ने फीस के तौर पर एक हजार रुपए वसूले और तांत्रिक से मिलने की इजाजत दे दी.

तांत्रिक ने भी अपनी देह पर भभूति मल रखी थी. चेहरे पर काला रंग पोत रखा था. दाएंबाएं दोनों तरफ नरमुंड और हड्डियां बिखेर रखी थीं. वह हवन कुंड में लगातार कुछ डाल रहा था और मन ही मन कुछ बुदबुदा भी रहा था.

‘‘जल्दी बता, क्या तकलीफ है?’’ तांत्रिक ने सवाल किया.

‘‘बेटी को अकसर मिरगी के दौरे पड़ते हैं. इलाज से कोई फायदा नहीं हुआ,’’ जसोदा ने बताया.

‘‘शैतान दवा से पीछा नहीं छोड़ता. अतृप्त आत्मा का देह में बसेरा है. सब उसी के इशारे पर होता है,’’ कह कर तांत्रिक ने मीना को सामने बिठाया. हाथ में हड्डी ले कर उस के चेहरे पर घुमाई और जोरजोर से मंत्र बोले.

‘‘शैतान से कैसे नजात मिलेगी बाबा?’’ पूछते हुए जसोदा ने हाथ जोड़ लिए.

‘‘अतृप्त आत्मा है. उसे लालच देना होगा. बच्ची की देह से निकाल कर उसे दूसरी देह में डालना होगा,’’ तांत्रिक ने बताया.

‘‘हमें क्या करना होगा?’’ इस बार राम स्नेही ने पूछा.

‘‘अनुष्ठान का खर्च उठाना पड़ेगा… दूसरी कुंआरी देह का जुगाड़ करना होगा… आत्मा दूसरी देह में ही जाएगी,’’ तांत्रिक ने बताया और दोबारा पूरी तरह से तैयार हो कर आने को कहा.

राम स्नेही सुलझे विचारों के थे. उन्होंने अपनी ओर से मना कर दिया. वैसे, वे खर्च उठाने को तो तैयार थे, लेकिन दूसरी देह यानी दूसरे की बेटी लाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं थे. उन की मीना की बीमारी किसी दूसरे की बेटी को लगे, वे ऐसा नहीं चाहते थे.

लेकिन जसोदा जिद पर अड़ी थीं. अपनी बेटी के लिए वे हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार थीं. राम स्नेही ने इस बाबत सोच कर जल्दी ही कुछ करने की बात कही.

एक रात को राम स्नेही और जसोदा अपनी बेटी मीना को साथ लिए बैलगाड़ी में सवार हो कर पहाड़ी मंदिर की ओर निकल पड़े. गाड़ी में उन के साथ एक कुंआरी लड़की और थी. बैलगाड़ी में टप्पर लगा था, जिस से सवारियों की जानकारी नहीं हो सकती थी. दोनों लड़कियों को चादर से लपेट कर बिठाया गया था.

तांत्रिक के सैक्रेटरी ने देह परिवर्तन अनुष्ठान के खर्च के तौर पर 10 हजार रुपए की मांग की. राम स्नेही तैयार हो कर आए थे. उन्होंने रुपए जमा करने में कोई आनाकानी नहीं की.

‘‘अनुष्ठान देर रात को शुरू होगा और यह 3 रातों तक चलेगा…’’ सैक्रेटरी ने बताया और अनुष्ठान पूरा होने के बाद आने को कहा.

राम स्नेही और जसोदा अपने घर वापस लौट आए. जसोदा को उम्मीद थी कि तांत्रिक के अनुष्ठान से मीना ठीक हो जाएगी.

दोनों लड़कियों को एक कमरे में बिछे बिस्तरों पर बिठाया गया. अनुष्ठान से पहले उन्हें आराम करने को कहा गया. तांत्रिक ने लड़कियों के सेवन के लिए नशीला प्रसाद और पेय भिजवाया. नशीले पेय के असर में दोनों लड़कियों को अपने देह की सुध नहीं रही. वे अपने बिस्तरों पर बेसुध लेट गईं.

तांत्रिक और उस के सैक्रेटरी ने देर तक दारूगांजे का सेवन किया. नशे में धुत्त वे दोनों लड़कियों के कमरे में घुस आए. अनुष्ठान के नाम पर उन का लड़कियों के साथ गंदा खेल खेलने का इरादा था. उन को कुंआरी देह की भूख थी. वे ललचाई आंखों से बेसुध लेटी कच्ची उम्र की लड़कियों को घूर रहे थे. थोड़ी ही देर में वे उन की देह पर टूट पड़े.

मीना के साथ आई दूसरी लड़की झटके से उठी. उस ने तांत्रिक के सैक्रेटरी को जोरदार घूंसा जमाया और जोरजोर से चिल्लाना शुरू किया.

मीना ने भी तांत्रिक को झटक कर जमीन पर गिरा दिया. नशे में धुत्त तांत्रिकों को निबटने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई. मौके पर पुलिस के कई जवान भी आ गए. उन्होंने उन दोनों को हथकड़ी पहना दी.

राम स्नेही को इस तरह के फरेब का पहले से ही डर था. उन्होंने थाने जा कर पूरी रिपोर्ट दी थी. थानेदार ने ही दूसरी देह का इंतजाम किया था. दूसरी लड़की सुनैना थाने में काम करने वाली एक महिला पुलिस की बेटी थी. उस ने जूडोकराटे की ट्रेनिंग ली हुई थी. वह इस मुहिम से जुड़ने के लिए फौरन तैयार हो गई थी.

सुनैना को नशीली चीज व पेय से बचने की हिदायत दी गई थी. उसे हमेशा सतर्क रहने और तांत्रिकों को भरमाने के लिए जरूरी स्वांग भरने की भी सलाह दी गई थी.

हथियारबंद जवानों को पहाड़ी मंदिर के आसपास तैनात रहने के लिए भेजा गया था. जवानों ने वरदी नहीं पहनी थी. जसोदा को इस मुहिम की कोई खबर नहीं थी.

सरकारी अस्पताल के कंपाउंडर छेदीलाल ने यह सारी साजिश रची थी. उस ने अपने ससुराल के गांव के 2 नशेड़ी आवारा दोस्तों चंदू लाल और मनोहर को नशे के लिए पैसे का जुगाड़ करने और जवानी के मजे लेने का आसान तरीका समझाया था.

थाने में पिटाई हुई, तो चंदू लाल और मनोहर ने सच उगल दिया. छेदीलाल को नशीली दवाओं व दिमागी मरीजों को दी जाने वाली दवाओं की अधकचरी जानकारी थी. उसे अस्पताल से गिरफ्तार कर लिया गया. तीनों को इस प्रपंच के लिए जेल की हवा खानी पड़ी. छेदीलाल को नौकरी से बरखास्त कर दिया गया. राम स्नेही को उन के रुपए वापस मिल गए.

थानेदार ने जयपुर के एक नामी मनोचिकित्सक का पता बताया. उन की सलाह के मुताबिक राम स्नेही ने मीना का इलाज जयपुर में कराने का इरादा किया. जसोदा ने हामी भरी. इस से मीना के ठीक होने की उम्मीद अब जाग गई थी.

Storytelling : एक घड़ी औरत

Storytelling :  आतंकित और हड़बड़ाई प्रिया ने तकिए के नीचे से टौर्च निकाल कर सामने की दीवार पर रोशनी फेंकी. दीवार की इलैक्ट्रौनिक घड़ी में रेडियम नहीं था, इसलिए आंख खुलने पर पता नहीं चलता था कि कितने बज गए हैं. अलार्म घड़ी खराब हो गई थी, इसलिए उसे दीवार घड़ी का ही सहारा लेना पड़ता था. ‘फुरसत मिलते ही वह सब से पहले अलार्म घड़ी की मरम्मत करवाएगी. उस के बिना उस का काम नहीं चलने का,’ उस ने मन ही मन सोचा. एक क्षण को उसे लगा कि वह औरत नहीं रह गई है, घड़ी बन गई है. हर वक्त घड़ी की सूई की तरह टिकटिक चलने वाली औरत. उस ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि जिंदगी ऐसे जीनी पड़ेगी. पर मजबूरी थी. वह जी रही थी. न जिए तो क्या करे? कहां जाए? किस से शिकायत करे? इस जीवन का चुनाव भी तो खुद उसी ने किया था.

उस ने अपने आप से कहा कि 6 बज चुके हैं, अब उठ जाना चाहिए. शरीर में थकान वैसी ही थी, सिर में अभी भी वैसा ही तनाव और हलका दर्द मौजूद था, जैसा सोते समय था. वह टौर्च ज्यादा देर नहीं जलाती थी. पति के जाग जाने का डर रहता था. पलंग से उठती और उतरती भी बहुत सावधानी से थी ताकि नरेश की नींद में खलल न पड़े. बच्चे बगल के कमरे में सोए हुए होते थे.

जब से अलार्म घड़ी बिगड़ी थी, वह रोज रात को आतंकित ही सोती थी. उसे यह डर सहज नहीं होने देता था कि कहीं सुबह आंख देर से न खुले, बच्चों को स्कूल के लिए देर न हो जाए. स्कूल की बस सड़क के मोड़ पर सुबह 7 बजे आ जाती थी. उस से पहले उसे बच्चों को तैयार कर वहां पहुंचाना पड़ता था. फिर आ कर वह जल्दीजल्दी पानी भरती थी.

अगर पानी 5 मिनट भी ज्यादा देर से आता था तो वह जल्दी से नहा लेती ताकि बरतनों का पानी उसे अपने ऊपर न खर्च करना पड़े. सुबह वह दैनिक क्रियाओं से भी निश्ंिचत हो कर नहीं निबट पाती. बच्चों को जल्दीजल्दी टिफिन तैयार कर के देने पड़ते. कभी वे आलू के भरवां परांठों की मांग करते तो कभी पूरियों के साथ तली हुई आलू की सब्जी की. कभी उसे ब्रैड के मसालाभरे रोल बना कर देने पड़ते तो कभी समय कम होने पर टमाटर व दूसरी चीजें भर कर सैंडविच. हाथ बिलकुल मशीन की तरह काम करते. उसे अपनी सुधबुध तक नहीं रहती थी.

एक दिन में शायद प्रिया रोज दसियों बार झल्ला कर अपनेआप से कहती कि इस शहर में सबकुछ मिल सकता है पर एक ढंग की नौकरानी नहीं मिल सकती. हर दूसरे दिन रानीजी छुट्टी पर चली जाती हैं. कुछ कहो तो काम छोड़ देने की धमकी कि किसी और से करा लीजिए बहूजी अपने काम.

उस की तनख्वाह में से एक पैसा काट नहीं सकते, काटा नहीं कि दूसरे दिन से काम पर न आना तय. सो, कौन कहता है देश में गरीबी है? शोषण है? शोषण तो ये लोग हम मजबूर लोगों का करते हैं. गरीब और विवश तो हम हैं. ये सब तो मस्त लोग हैं.

‘कल भी नहीं आई थी वह. आज भी अभी तक नहीं आई है. पता नहीं अब आएगी भी या मुझे खुद ही झाड़ूपोंछा करना पड़ेगा. इन रानी साहिबाओं पर रुपए लुटाओ, खानेपीने की चीजें देते रहो, जो मांगें वह बिना बहस के उन्हें दे दो. ऊपर से हर दूसरे दिन नागा, क्या मुसीबत है मेरी जान को…’ प्रिया झल्ला कर सोचती जा रही थी और जल्दीजल्दी काम निबटाने में लगी हुई थी.

‘अब महाशय को जगा देना चाहिए,’ सोच कर प्रिया रसोई से कमरे में आई और फिर सोए पति को जगाया, ‘‘उठिए, औफिस को देर करेंगे आप. 9 बजे की बस न मिली तो पूरे 45 मिनट देर हो जाएगी आप को.’’

‘‘अखबार आ गया?’’

‘महाशय उठेंगे बाद में, पहले अखबार चाहिए,’ बड़बड़ाती प्रिया बालकनी की तरफ चल दी जहां रबरबैंड में बंधा अखबार पड़ा होता है क्योंकि अखबार वाले के पास भी इतना समय नहीं होता कि वह सीढि़यां चढ़, दरवाजे के नीचे पेपर खिसकाए.

ट्रे में 2 कप चाय लिए प्रिया पति के पास आ कर बैठ गई. फिर उस ने एक कप उन की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘अखबार में ऐसा क्या होता है जो आप…’’

‘‘दुनिया…’’ नरेश मुसकराए, ‘‘अखबार से हर रोज एक नई दुनिया हमारे सामने खुल जाती है…’’

चाय समाप्त कर प्रिया जल्दीजल्दी बिस्तर ठीक करने लगी. फिर मैले कपड़े ढूंढ़ कर एकत्र कर उन्हें दरवाजे के पीछे टंगे झोले में यह सोच कर डाला कि समय मिलने पर इन्हें धोएगी, पर समय, वह ही तो नहीं है उस के पास.

हफ्तेभर कपड़े धोना टलता रहता कि शायद इतवार को वक्त मिले और पानी कुछ ज्यादा देर तक आए तो वह उन्हें धो डालेगी पर इतवार तो रोज से भी ज्यादा व्यस्त दिन…बच्चे टीवी से चिपके रहेंगे, पति महाशय आराम से लेटेलेटे टैलीविजन पर रंगोली देखते रहेंगे.

‘‘इस मरी रंगोली में आप को क्या मजा आता है?’’ प्रिया झल्ला कर कभीकभी पूछ लेती.

‘‘बंदरिया क्या जाने अदरक का स्वाद? जो गीतसंगीत पुरानी फिल्मों के गानों में सुनने को मिलता है, वह भला आजकल के ड्रिल और पीटी करते कमर, गरदन व टांगे तोड़ने वाले गानों में कहां जनाब.’’

प्रिया का मन किया कि कहे, बंदरिया तो अदरक का स्वाद खूब जान ले अगर उस के पास आप की तरह फुरसत हो. सब को आटेदाल का भाव पता चल जाए अगर वह घड़ी की सूई की तरह एक पांव पर नाचती हुई काम न करे. 2 महीने पहले वह बरसात में भीग गई थी. वायरल बुखार आ गया था तो घरभर जैसे मुसीबत में फंस गया था. पति महाशय ही नहीं झल्लाने लगे थे बल्कि बच्चे भी परेशान हो उठे थे कि आप कब ठीक होंगी, मां. हमारा बहुत नुकसान हो रहा है आप के बीमार होने से.

‘‘सुनिए, आज इतवार है और मुझे सिलाई के कारीगरों के पास जाना है. तैयार हो कर जल्दी से स्कूटर निकालिए, जल्दी काम निबट जाएगा, बच्चे घर पर ही रहेंगे.’’

‘‘फिर शाम को कहोगी, हमें आर्ट गैलरी पहुंचाइए, शीलाजी से बात करनी है.’’

सुन कर सचमुच प्रिया चौंकी, ‘‘बाप रे, अच्छी याद दिलाई. मैं तो भूल ही गई थी यह.’’

नरेश से प्रिया की मुलाकात अचानक ही हुई थी. नगर के प्रसिद्ध फैशन डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट से प्रिया को डिगरी मिलते ही एक कंपनी में नौकरी मिल गई. दिल लगा कर काम करने के कारण वह विदेश जाने वाले सिलेसिलाए कपड़ों की मुख्य डिजाइनर बन गई.

नरेश अपनी किसी एक्सपोर्टइंपोर्ट की कंपनी का प्रतिनिधि बन कर उस कंपनी में एक बड़ा और्डर देने आए तो मैनेजर ने उन्हें प्रिया के पास भेज दिया. नरेश से प्रिया की वह पहली मुलाकात थी. देर तक दोनों उपयुक्त नमूनों आदि पर बातचीत करते रहे. अंत में सौदा तय हो गया तो वह नरेश को ले कर मैनेजर के कक्ष में गई.

फिर जब वह नरेश को बाहर तक छोड़ने आईर् तो नरेश बोले, ‘आप बहुत होशियार हैं, एक प्रकार से यह पूरी कंपनी आप ही चला रही हैं.’

‘धन्यवाद जनाब,’ प्रिया ने जवाब दिया. प्रशंसा से भला कौन खुश नहीं होता.

बाद में किसी न किसी बहाने नरेश औफिस में आते रहे. प्रिया को बहुत जल्दी एहसास हो गया कि महाशय के दिल में कुछ और है. एक दिन वह शाम को औफिस से बाहर निकल रही थी कि नरेश अपने स्कूटर पर आते नजर आए. पहले तो वह मुसकरा दी पर दूसरे ही क्षण वह सावधान हो गई कि अजनबी आदमी से यों सरेराह हंसतेमुसकराते मिलना ठीक नहीं है.

‘अगर बहुत जल्दी न हो आप को, तो मैं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठ कर आप से एक बात करना चाहता हूं,’ नरेश ने पास आ कर कहा.

प्रिया इनकार नहीं कर पाई. उन के साथ रेस्तरां की तरफ चल दी. वेटर को 1-1 डोसा व कौफी का और्डर दे कर नरेश प्रिया से बोले, ‘भूख लगी है, आज सुबह से वक्त नहीं मिला खाने का.’

वह जानती थी कि यह सब असली बात को कहने की भूमिका है. वह चुप रही. नरेश उसे भी बहुत पसंद आए थे… काली घनी मूंछें, लंबा कद और चेहरे पर हर वक्त झलकता आत्मविश्वास…

‘टीवी में एक विज्ञापन आता है, हम कमाते क्यों हैं? खाने के लिए,’ प्रिया हंसी और बोली, ‘कितनी अजीब बात है, वहां विज्ञापन में उस बेचारे का खाना बौस खा जाता है और यहां वक्त नहीं खाने देता.’

‘हां प्रिया, सचमुच वक्त ही तो हमारा सब से बड़ा बौस है,’ नरेश हंसे. फिर जब तक डोसा और कौफी आते तब तक नरेश ने पानी पी कर कहना शुरू किया, ‘अपनी बात कहने से मुझे भी कहीं देर न हो जाए, इसलिए मैं ने आज तय किया कि अपनी बात तुम से कह ही डालूं.’

प्रिया समझ गई थी कि नरेश उस से क्या कहना चाहते हैं, पर सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही.

‘वैसे तो तुम किसी न किसी से शादी करोगी ही, प्रिया, क्या वह व्यक्ति मैं हो सकता हूं? कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. अगर तुम ने किसी और के बारे में तय कर रखा हो तो मैं सहर्ष रास्ते से हट जाऊंगा. और अगर तुम्हारे मांबाप तुम्हारी पसंद को स्वीकार कर लें तो मैं तुम्हें अपनी जिंदगी का हमसफर बनाना चाहता हूं.’

प्रिया चुप रही. इसी बीच डोसा व कौफी आ गई. नरेश उस के घरपरिवार के बारे में पूछते रहे, वह बताती रही. उस ने नरेश के बारे में जो पूछा, वह नरेश ने भी बता दिया.

जब नरेश के साथ वह रेस्तरां से बाहर निकली तो एक बार फिर नरेश ने उस की ओर आशाभरी नजरों से ताका, ‘तुम ने मेरे प्रस्ताव के बारे में कोईर् जवाब नहीं दिया, प्रिया?’

‘अपने मांबाप से पूछूंगी. अगर वे राजी होंगे तभी आप की बात मान सकूंगी.’

‘मैं आप की राय जानना चाहता हूं.’ सहसा एक दूरी उन के बीच आ गई.

‘क्यों एक लड़की को सबकुछ कहने के लिए विवश कर रहे हैं?’ वह लजा गई, ‘हर बात कहनी जरूरी तो नहीं होती.’

‘धन्यवाद, प्रिया,’ कह कर नरेश ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

उस के बाद जैसे सबकुछ पलक झपकते हो गया. उस ने अपने घर जा कर मातापिता से बात की तो वे नाराज हुए. रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. जाति बाधा बन गई. वह उदास मन से जब वापस लौटने लगी तो पिता उसे स्टेशन तक छोड़ने आए, ‘तुम्हें वह लड़का हर तरह से ठीक लगता है?’ उन्होंने पूछा.

प्रिया ने सिर्फसिर ‘हां’ में हिलाया. पिता कुछ देर सोचते रहे. जब गाड़ी चलने को हुई तो किसी तरह गले में फंसे अवरोध को साफ करते हुए बोले, ‘बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी और कुछ नहीं प्रिया. वैसे, तुम खुद अब समझदार हो, अपना भलाबुरा स्वयं समझ सकती हो. बाद में कहीं कोई धोखा हुआ तो हमें दोष मत देना.’

मातापिता इस शादी से खुश नहीं थे, इसलिए प्रिया ने उन से आर्थिक सहायता भी नहीं ली. नरेश ने भी अपने मातापिता से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली. दोनों ने शादी कर ली. शादी में मांबाप शामिल जरूर हुए पर अतिथि की तरह.

विवाह कर घर बसाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी खर्च करने के बाद भी दोनों को अपने मित्रोंसहेलियों से कुछ उधार लेना पड़ा था. उसे चुका कर वे निबटे ही थे कि पहला बच्चा आ गया. उस के आने से न केवल खर्चे बढ़े, कुछ समय के लिए प्रिया को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी. जब दूसरी कंपनी में आई तो उसे पहले जैसी सुविधाएं नहीं मिलीं.

नरेश की भागदौड़ और अधिक बढ़ गई थी. घर का खर्च चलाने के लिए वे दिनरात काम में जुटे रहने लगे थे.

‘मैं ने एक फ्लैट देखा है, प्रिया’ एक दिन नरेश ने अचानक कहा, ‘नया बना है, तीसरी मंजिल पर है.’

‘पैसा कहां से आएगा?’ प्रिया नरेश की बात से खुश नहीं हुई. जानती थी कि फ्लैट जैसी महंगी चीज की कल्पना करना सपना है. पर दूसरे बच्चे की मां बनतेबनते प्रिया ने अपनेआप को सचमुच एक नए फ्लैट में पाया, जिस की कुछ कीमत चुकाई जा चुकी थी पर अधिकांश की अधिक ब्याज पर किस्तें बनी थीं, जिन्हें दोनों अब तक लगातार चुकाते आ रहे थे.

उस की नई बनी सहेली ने प्रिया का परिचय एक दिन शीला से कराया, ‘नगर की कलामर्मज्ञा हैं शीलाजी,’ सहेली ने आगे कहा, ‘अपने मकान के बाहर के 2 कमरों में कलादीर्घा स्थापित की है. आजकल चित्रकारी का फैशन है. इन दिनों हर कोईर् आधुनिक बनने की होड़ में नएपुराने, प्रसिद्ध और कम जानेमाने चित्रकारों के चित्र खरीद कर अपने घरों में लगा रहे हैं. 1-1 चित्र की कीमत हजारों रुपए होती है. तू भी तो कभी चित्रकारी करती थी. अपने बनाए चित्र शीलाजी को दिखाना. शायद ये अपनी कलादीर्घा के लिए उन्हें चुन लें. और अगर इन्होंने कहीं उन की प्रदर्शनी लगा दी तो तेरा न केवल नाम होगा, बल्कि इनाम भी मिलेगा.’

प्रिया शरमा गई, ‘मुझे चित्रकारी बहुत नहीं आती. बस, ऐसे ही जो मन में आया, उलटेसीधे चित्र बना देती थी. न तो मैं ने इस के विषय में कहीं से शिक्षा ली है और न ही किसी नामी चित्रकार से इस कला की बारीकियां जानीसमझी हैं.’

लेकिन वह सचमुच उस वक्त चकित रह गई जब शीलाजी ने बिना हिचक प्रिया के घर चल कर चित्रों को देखना स्वीकार कर लिया. थोड़ी ही देर में तीनों प्रिया के घर पहुंचीं.

2 सूटकेसों में पोलिथीन की बड़ीबड़ी थैलियों में ठीक से पैक कर के रखे अपने सारे चित्रों को प्रिया ने उस दिन शीलाजी के सामने पलंग पर पसार दिए. वे देर तक अपनी पैनी नजरों से उन्हें देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘अमृता शेरगिल से प्रभावित लगती हो तुम?’

प्रिया के लिए अमृता शेरगिल का नाम ही अनसुना था. वह हैरान सी उन की तरफ ताकती रही.

‘अब चित्रकारी करना बंद कर दिया है क्या?’

‘हां, अब तो बस 3 चीजें याद रह गई हैं, नून, तेल और लकड़ी,’ हंसते वक्त उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगी.

शीलाजी उस दिन उस के सारे चित्र अपने साथ ले गईं. कुछ दिनों बाद औफिस में उन का फोन आया कि वे उन चित्रों की प्रदर्शनी अमृता शेरगिल और हुसैन जैसे नामी चित्रकारों के चित्रों के साथ लगाने जा रही हैं. सुन कर वह हैरान रह गई. प्रदर्शनी में वह अपनी सहेली और नरेश के साथ गई थी. तमाम दर्शकों, खरीदारों और पत्रकारों को देख कर वह पसोपेश में थी. पत्रकारों से बातचीत करने में उसे खासी कठिनाई हुई थी क्योंकि उन के सवालों के जवाब देने जैसी समझ और ज्ञान उस के पास नहीं था. जवाब शीलाजी ने ही दिए थे.

वापस लौटते वक्त शीलाजी ने नरेश से कहा, ‘आप बहुत सुखी हैं जो ऐसी हुनरमंद बीवी मिली है. देखना, एक दिन इन का देश में ही नहीं, विदेशों में भी नाम होगा. आप इन की अन्य कार्यों में मदद किया करो ताकि ये ज्यादा से ज्यादा समय चित्रकारिता के लिए दे सकें. साथ ही, यदि ये मेरे यहां आतीजाती रहें तो मैं इन्हें आधुनिक चित्रकारिता की बारीकियां बता दूंगी. किसी भी कला को निखारने के लिए उस के इतिहास की जानकारी ही काफी नहीं होती, बल्कि आधुनिक तेवर और रुझान भी जानने की जरूरत पड़ती है.’

नरेश के साथ उस दिन लौटते समय प्रिया कहीं खोई हुई थी. नरेश ही बोले, ‘तुम तो सचमुच छिपी रुस्तम निकलीं, प्रिया. मुझे तुम्हारा यह रूप ज्ञात ही न था. मैं तो तुम्हें सिर्फ एक कुशल डिजाइनर समझता था, पर तुम तो मनुष्य के मन को भी अपनी कल्पना के रंग में रंग कर सज्जित कर देती हो.’

व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी. आमदनी का छोटा ही सही, पर एक जरिया प्रिया को नजर आने लगा तो वह पूरे उत्साह से रंग, कूचियां और कैनवस व स्टैंड आदि खरीद लाई. पर समस्या यह थी कि वह क्याक्या करे? कंपनी में ड्रैस डिजाइन करने जाए या घर संभाले, बच्चों की देखरेख करे या पति का मन रखे? अपने स्वास्थ्य की तरफ ध्यान दे या रोज की जरूरतों के लिए बेतहाशा दौड़ में दौड़ती रहे?

प्रिया की दौड़, जो उस दिन से शुरू हुई, आज तक चल रही थी. घर और बाहर की व्यस्तता में उसे अपनी सुध नहीं रही थी.

‘‘अब हमें एक कार ले लेनी चाहिए,’’ एक दिन नरेश ने कहा.

प्रिया सुन कर चीख पड़ी, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्यों?’’ नरेश ने हैरानी से पूछा.

‘‘फ्लैट के कर्ज से जैसेतैसे इतने सालों में अब कहीं जा कर हम मुक्त हो पाए हैं,’’ प्रिया बोली, ‘‘कुछ दिन तो चैन की सांस लेने दो. अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, उन की मांगें भी बढ़ती जा रही हैं. पहले होमवर्क मैं करा दिया करती थी पर अब उन के गणित व विज्ञान…बाप रे बाप… क्याक्या पढ़ाया जाने लगा है. मैं तो बच्चों के लिए ट्यूटर की बात सोच कर ही घबरा रही हूं कि इतने पैसे कहां से आएंगे. पर आप को अब कार लेने की सनक सवार हो गई.’’

‘‘अरे भई, आखिरकार इतनी बड़ी कलाकार का पति हूं. शीलाजी की कलादीर्घा में आताजाता हूं तुम्हें ले कर. लोग देखते हैं कि बड़ा फटीचर पति मिला है बेचारी को, स्कूटर पर घुमाता है. कार तक नहीं ले कर दे सका. नाक तो मेरी कटती है न,’’ नरेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां मां, पापा ठीक कहते हैं,’’ बच्चों ने भी नरेश के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘अपनी कालोनी में सालभर पहले कुल 30 कारें थीं. आज गिनिए, 200 से ऊपर हैं. अब कार एक जरूरत की चीज बन गई है, जैसे टीवी, फ्रिज, गैस का चूल्हा आदि. आजकल हर किसी के पास ये सब चीजें हैं, मां.’’

‘‘पागल हुए हो तुम लोग क्या,’’ प्रिया बोली, ‘‘कहां है हर किसी के पास ये सब चीजें? क्या हमारे पास वाश्ंिग मशीन और बरतन मांजने की मशीन है? कार ख्वाब की चीज है. टीवी, कुकर, स्टील के बरतन और गैस हैं ही हमारे पास. किसी तरह तुम लोगों के सिर छिपाने के लिए हम यह निजी फ्लैट खरीद सके हैं. घर की नौकरानी रोज छुट्टी कर जाती है, काम का मुझे वक्त नहीं मिलता, पर करती हूं, यह सोच कर कि और कौन है जो करेगा. जरूरी क्या है, तुम्हीं बताओ, कार या अन्य जरूरत की चीजें?’’

‘‘तुम कुछ भी कहो,’’ नरेश हंसे, ‘‘घर की और चीजें आएं या न आएं, बंदा रोजरोज शीलाजी या अन्य किसी के घर इस खटारा स्कूटर पर अपनी इतनी बड़ी कलाकार बीवी को ले कर नहीं जा सकता. आखिर हमारी भी कोईर् इज्जत है या नहीं?’’

उस दिन प्रिया जीवन में पहली बार नरेश पर गुस्सा हुई जब एक शाम वे लौटरी के टिकट खरीद लाए, ‘‘यह क्या तमाशा है, नरेश?’’ उस का स्वर एकदम सख्त हो गया.

‘‘लौटरी के टिकट,’’ नरेश बोले, ‘‘मुझे कार खरीदनी है, और कहीं से पैसे की कोई गुंजाइश निकलती दिखाईर् नहीं देती, इसलिए सोचता हूं…’

‘‘अगर मुझे खोना चाहते हो तभी आज के बाद इन टिकटों को फिर खरीद कर लाना. मैं गरीबी में खुश हूं. मैं दिनरात घड़ी की तरह काम कर सकती हूं. मरखप सकती हूं, भागदौड़ करती हुई पूरी तरह खत्म हो सकती हूं, पर यह जुआ नहीं खेलने दूंगी तुम्हें इस घर में. इस से हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा, सिवा बरबादी के.’’

प्रिया का कड़ा रुख देख कर उस दिन के बाद नरेश कभी लौटरी के टिकट नहीं लाए. पर प्रिया की मुसीबतें कम नहीं हुईं. बढ़ती महंगाई, बढ़ते खर्च और जरूरतों में सामंजस्य बैठाने में प्रिया बुरी तरह थकने लगी थी. नरेश में भी अब पहले वाला उत्साह नहीं रह गया था. प्रिया के सिर में भारीपन और दर्र्द रहने लगा था. वह नरेश से अपनी थकान व दर्द की चर्चा अकसर करती पर डाक्टर को ठीक से दिखाने का समय तक दोनों में से कोई नहीं निकाल पाता था.

प्रिया को अब अकसर शीलाजी व अन्य कलापे्रमियों के पास आनाजाना पड़ता, पर वह नरेश के साथ स्कूटर पर या फिर बस से ही जाती. जल्दी होने पर वे आटोरिक्शा ले लेते. और तब वह नरेश की कसमसाहट देखती, उन की नजरें देखती जो अगलबगल से हर गुजरने वाली कार को गौर से देखती रहतीं. वह सब समझती पर चुप रहती. क्या कहे? कैसे कहे? गुंजाइश कहां से निकाले?

‘‘औफिस से डेढ़ लाख रुपए तक का हमें कर्ज मिल सकता है, प्रिया,’’ नरेश ने एक रात उस से कहा, ‘‘शेष रकम हम किसी से फाइनैंस करा लेंगे.’’

‘‘और उसे ब्याज सहित हम कहां से चुकाएंगे?’’ प्रिया ने कटुता से पूछा.

‘‘फाइनैंसर की रकम तुम चुकाना और अपने दफ्तर का कर्ज मैं चुकाऊंगा पर कार ले लेने दो.’’

नरेश जिस अनुनयभरे स्वर में बोले वह प्रिया को अच्छा भी लगा पर वह भीतर ही भीतर कसमसाई भी कि खर्च तो दोनों की तनख्वाह से पूरे नहीं पड़ते, काररूपी यह सफेद हाथी और बांध लिया जाए…पर वह उस वक्त चुप रही, ठीक उस शुतुरमुर्ग की तरह जो आसन्न संकट के बावजूद अपनी सुरक्षा की गलतफहमी में बालू में सिर छिपा लेता है.

पति के जाने के बाद प्रिया जल्दीजल्दी तैयार हो कर अपने दफ्तर चल दी. लेकिन आज वह निकली पूरे 5 मिनट देरी से थी. उस ने अपने कदम तेज किए कि कहीं बस न निकल जाए, बस स्टौप तक आतीआती वह बुरी तरह हांफने लगी थी.

Hindi Short Story : काका-वा

Hindi Short Story : बिहार से तबादला होने के बाद रानी जब चेन्नई पहुंची तो उस के लिए सबकुछ ही बदला हुआ था. हवा, पानी, खानपान, पहनावा और भाषा सबकुछ ही तो अलग था. शुरूशुरू में चेन्नई के लोग भी उसे अजीब ही लगते थे. अधिकतर औरतों ने पूरे शरीर पर ही हलदी रगड़ी हुई होती. शुरू में तो रानी को लगा शायद यहां की औरतें पीलिया रोग से पीडि़त हैं. पर धीरेधीरे यह भेद भी खुल गया कि नहाने से पहले हलदी लगाना यहां की परंपरा है.

भाषा न आने के कारण रानी को अकेलापन अधिक लगता था. वह आसपास बोले जाने वाले शब्दों को ध्यान से सुनती पर सब उस के सिर के ऊपर से गुजर जाते थे. तमिल भाषा सिखाने वाली एक किताब भी वह ले आई थी. उसे यहां के कौए भी अलग नजर आते थे. बिहार जैसे कौए नहीं थे. यहां के कौए तो पूरे के पूरे चमकीले काले थे और आकार में भी कुछ बड़े थे. उन की कांवकांव में भी अधिक कर्कशता थी और घर में फुदकने वाली, चींचीं करने वाली चिडि़यां तो यहां थीं ही नहीं.

यहां सुबह उठने के बाद जैसे ही रानी रसोई में चाय बनाने जाती, तो रसोई की खिड़की की मुंडेर पर कौओं के ही दर्शन करती. उस की रसोई की खिड़की से सामने वाली बड़ी इमारत साफ नजर आती थी और उसे ऐसा लगा कि उस इमारत के सभी फ्लैटों के रसोईघर इसी दिशा में थे क्योंकि सभी खिड़कियों की मुंडेरों पर कौओं के लिए चावल डले होते. उस के गांव में तो लोग कबूतर को दाना देना अच्छा समझते थे, पर यहां कौओं को पके हुए चावल डालना शायद अच्छा समझा जाता था. यही देख कर उस ने भी कौओं को चावल डालने की बात सोची. पर सुबहसुबह वह चावल नहीं पकाती थी. उस की रसोई में तो सुबह के समय परांठे और पूरियां बनती थीं.

पहले दिन उस ने आधी चपाती के टुकड़े खिड़की की बाहरी चौखट पर रख दिए पर एक भी कौआ नहीं आया. उसे बहुत दुख हुआ कि कौओं ने चपाती का एक टुकड़ा भी ग्रहण नहीं किया. सारा दिन रोटी के टुकड़े वहीं पड़े रहे. दूसरे दिन फिर उस ने नाश्ते में बनी पहली रोटी के कुछ टुकड़े कर के खिड़की में डाल दिए. शायद घी की महक थी या रानी की श्रद्धा का असर था कि एक कौआ उड़ कर आया, बैठा और उस ने रोटी के टुकड़ों को ध्यान से देखा. फिर अपने पंजों में उठा कर कुछ देर बैठा रहा जैसे सोच रहा हो कि यह नई चीज खाऊं या नहीं, फिर उस ने पूरा का पूरा टुकड़ा निगल लिया. फिर दूसरा टुकड़ा चोंच में उठा कर उड़ गया. फिर दूसरा कौआ आया तो उस ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया दोहराई.

आज रानी को अच्छा लगा और उस का हौसला बढ़ गया. दूसरे दिन उस ने एक बड़ी रोटी बनाई और उस के अनेक टुकड़े कर के खिड़की के बाहर डाल दिए. पहले एक कौआ आया और उस ने कुछ ऐसी आवाज निकाली कि उसे सुन कर बहुत सारे कौए एकसाथ आ गए और पल भर में ही सारी रोटी खा गए. आज रानी को बहुत अच्छा लगा. उस ने सोचा कि ये दक्षिण भारतीय कौए भी अब रोटी खाना सीख गए हैं. अब तो कौओं को रोटी डालना उस की सुबह की दिनचर्या में शामिल हो गया था. धीरेधीरे वह कौओं को पहचानने भी लगी थी. एक कौए की चोंच मुड़ी हुई थी. दूसरे कौए का एक पंजा ही नहीं था तो एक और कौए की गरदन के बाल झड़े हुए थे. वह सोचती कि जैसे उसे कौओं की पहचान होती जा रही है वैसे ही क्या कौए भी उसे पहचानते होंगे? पर इस का कोई उत्तर उस के पास नहीं था.

एक दिन रानी ने डबलरोटी का नाश्ता तैयार किया. डबलरोटी के ही छोटेछोटे टुकड़े कर के उस ने खिड़की में डाल दिए. कौए आए, कांवकांव किया, पर उन्होंने डबलरोटी के टुकड़े नहीं खाए. उन्हें वहीं छोड़ कर वे उड़ गए, उस ने सोचा पहले रोटी नहीं खाते थे और आज डबलरोटी नहीं खा रहे हैं. कल भी उन्हें यही डालूंगी तब खा लेंगे.

दूसरे दिन फिर उस ने डबलरोटी डाली पर किसी भी कौए ने नहीं खाई. तीसरे दिन फिर उस ने डबलरोटी डाली पर फिर कौओं ने नहीं खाई. तब उस ने जल्दी से आटा निकाला, एक रोटी बनाई और रोटी के टुकड़े डाले. कौओं ने पहले की तरह पल भर में सब टुकड़े लपक लिए थे. आज उस ने जाना कि कौओं की भी पसंद और नापसंद होती है. उस की जांच करने के लिए उस ने अगले दिन उबले चावल डाले. कौए आए और सूंघ कर चले गए. दिनभर चावल वहीं पड़े रहे और गिलहरियां खाती रहीं. उस दिन रानी ने गिलहरियों के व्यवहार को भी करीब से देखा, कैसे एकएक दाने को दोनों पंजों से पकड़ कर कुतरकुतर कर बड़े प्यार से खाती हैं. उन की चमकती हुई दोनों आंखें कितनी सुंदर लगती हैं. इन जीवों का व्यवहार देखने में रानी को आनंद आने लगा था. उसे लगा था कि उसे तो जीवशास्त्री बनना चाहिए था.

कौओं को रोटी डालतेडालते रानी ने उन के व्यवहार को भी बहुत करीब से देखा. उस ने देखा कि कौओं में भी लालच होता है. कई कौए तो अधिक से अधिक रोटी के टुकड़े निगल कर और फिर चोंच में भी दबा कर उड़ जाते थे. अपने रोज के साथियों के लिए एक टुकड़ा तक नहीं छोड़ते थे. ऐसे दबंग कौओं से कमजोर कौए डरते भी थे. दबंग कौए जब तक खिड़की पर बैठे रहते कमजोर कौए दूर बैठे उन के उड़ने का इंतजार करते. जब दबंग कौए उड़ जाते तभी वे खिड़की पर आते और बचेखुचे टुकड़ों को खा कर ही संतोष कर लेते थे.

कौओं के खाने की प्रक्रिया में रानी ने उन की काली, पतली और लंबी जीभ भी देखी. उन की जीभ देख कर उसे उबकाई सी आने लगती थी. उसे टेढ़ी चोंच वाले और एक पैर वाले कौए पर विशेष दया आती थी. इसलिए उन दोनों विकलांग कौओं के लिए वह अलग से रोटी रख लेती थी. जब और सब कौए रोटी ले कर उड़ जाते थे तब वे दोनों कौए एकसाथ खिड़की पर आते और वह दोनों को रोटी डालती. आराम से अपनाअपना हिस्सा ले कर वे उड़ जाते थे.

रानी ने एक और बात जानी कि कमजोर कौओं में बहुत अधिक धीरज होता है. कभीकभी रानी काम में इतना अधिक व्यस्त होती कि उन दोनों को देख कर भी उन्हें अनदेखा सा कर जाती थी. पर वे दोनों शांत बैठे इंतजार करते रहते थे. एकदो बार तो आधे घंटे से अधिक देर तक दोनों धीरज धरे बैठे रहे थे. उन्हें इस तरह देख कर उस ने मन ही मन उन से माफी मांगी थी और उन्हें रोटी दे दी थी. इतनी देर से भोजन न मिलने पर भी उन में अधीरता नहीं थी, दोनों ने बड़े शांत भाव से रोटी खाई. टेढ़ी चोंच वाले कौए पर उसे अधिक दया आती थी क्योंकि वह रोटी का टुकड़ा बड़ी मुश्किल से उठा पाता था.

कौओं से दोस्ती ने रानी को दार्शनिक भी बना दिया था. वह मानव और पक्षियों की तुलना करने लगती. उसे लगता दोनों में कितनी समानता है. दोनों में लालच है, दोनों में पसंदनापसंद है, दोनों में धीरज है, दोनों में मैत्री और दया भी है.

रानी जब इस प्रकार दोनों की तुलना करती तो उस के मन में एक विचार बारबार आता था कि क्या ये भी मनुष्य को पहचानते हैं. इस मुश्किल का हल भी उसे शीघ्र ही मिल गया. तभी एक अंगरेजी की पत्रिका उस के हाथ लगी. उस में पूरा एक लेख था कि कौए भी आदमी को पहचानते हैं. इस कहानी में एक ऐसे व्यक्ति के अनुभव लिखे हुए थे जिस ने एक कौए को पाल रखा था और वह कौआ हजारों की भीड़ में उसे पहचान कर उस के कंधे पर ही आ कर बैठता था. यह पढ़ कर रानी भी खुश हुई कि ये दोनों कौए जो रोज उस के हाथ की रोटी खा कर जाते हैं उसे जरूर पहचानते होंगे. इस का प्रमाण भी उसे मिल गया. एक दिन सुबह की सैर के लिए निकली तो टेढ़ी चोंच वाला कौआ उड़ता हुआ आया और उस के सिर पर बैठ गया. अचानक इतने बोझ को सिर पर महसूस कर के वह घबरा गई थी और उस ने जोर से धक्का दे कर उसे उड़ा दिया था. घर आ कर उस ने जब इस घटना के बारे में बताया तो सब ने इस का अलगअलग अर्थ लगाया. पति बोले, ‘‘जल्दी नहा लो. कौए कितने गंदे होते हैं.’’

सासूमां बोलीं, ‘‘यह तो बहुत बड़ा अपशकुन है. कौए का सिर पर बैठना घर में किसी की मृत्यु का संकेत देता है. जल्दी मंदिर जाओ और एक चांदी का कौआ दान करो.’’

अनजाने में ही रानी के इस दोस्त ने उसे दुविधा में डाल दिया था. फिर उस ने अंगरेजी पत्रिका के लेख के सहारे सासूमां को समझाया कि कौऐ का यह व्यवहार दोस्ती के कारण था. वह कौआ किसी चांदी के दुकानदार का एजेंट तो था नहीं, इसलिए इस तर्कहीन दान की बात एकदम बेकार है. सासूमां ने भी जब इस पर ध्यान से सोचा तो उन्हें अपने द्वारा बताए गए इस उपाय पर खुद हंसी आने लगी.

जिंदगी अपनी रफ्तार चलती रही. कौए के सिर पर बैठने के अपशकुन का वहम दम तोड़ चुका था. चेन्नई में आना रानी को भा गया था. वह सुबह उठते ही अन्य चेन्नई वालों की तरह आवाज लगाती, ‘‘काका वा (अर्थात कौएजी) आओ और भोजन ग्रहण करो.’’

इमोशन भी है निटिंग

न्यूयार्क से बहू श्रुति ने फोन पर कहा, ‘‘मम्मीजी, आप लैपटौप पर मेल चैक कर लेना. अनन्या का फोटो भेजा है.’’

हेमाजी ने तुरंत पति से गुहार लगाई और बैठ गईं लैपटौप के सामने. अनन्या को उन की बनाई भेजी ऊन की फ्राक पहने देख हेमाजी अपनी ही कृति पर मुग्ध हो उठीं. ऊन से बुनी गई फ्राक बहुत सुंदर व प्यारी लगी. अनन्या पर तो खूब फब रही थी. बस, फिर क्या था, उन की जो भी परिचिता या सहेली आती, वे उन्हें अनन्या का फोटो दिखाना न भूलतीं.

हेमाजी अपने जमाने की बुनाई विश्ेषज्ञ थीं. उन की बुनाई के चर्चे हर जगह होते. बुनाई विशेषांकों में भी उन के डिजाइन छप चुके थे. उन की नजर तो बस, ऊनी वस्त्रों के डिजाइन एवं रंग संयोजन पर ही होती. भले ही वह व्यक्ति खुद को घूरते देख फूला न समाए. वे मन ही मन उस का डिजाइन याद कर, घर जा कर बुन कर ही रहतीं. एक कार्यक्रम में सभी की नजर कलाकारों की गायकी पर थी. हेमाजी ‘हाय’ कर बैठीं,  ‘हाय राम! यह तो एक और अदनान सामी है, इस की बीवी को इस के स्वैटर के लिए कितने सारे फंदे डालने पड़ते होंगे और कितनी बार गिरे फंदों को उठाना पड़ता होगा? इतने सारे फंदों के लिए लंबी सलाई कहां से ले कर आती होगी?’

हेमाजी को अपने कौशल को अतीत तक सीमित रखना उन के बस में नहीं था. अब बड़े तो हाथ के स्वैटर पहनने से रहे, नौनिहालों पर ही अपनी कारीगरी निछावर करती रहतीं. आम के आम गुठलियों के दाम. कम कीमत में ही सुंदर, सलीकेदार प्यारा सा उपहार तैयार हो जाता. ब्याज में तारीफ हो जाती सो अलग.

शिवानी के बेटे स्थिर का खरगोश वाला स्वैटर और टोपा कालोनी में खूब प्रसिद्धि पा चुका है. शिवानी बड़े नाज से कहती, ‘‘मेरी मम्मी की उंगलियों का कमाल है. स्थिर के लिए वे मनमोहक रंगों एवं खूबसूरत डिजाइन ईजाद करती ही रहती हैं.’’

विभा ने अपने बी.ई. कर रहे बेटे के स्वैटर में अद्भुत डिजाइन डाला, जिस में एक ही सलाई में 9 रंगबिरंगे धागे एकसाथ चल रहे थे. स्वैटर बनने पर तो वह बहुत वाहवाही हुई. लेकिन स्वैटर बनाते समय जो फजीहत हुई वह विभा ही जानती है. उल?ो ऊन को सुल?ाने में पति एवं बच्चों का बहुत सहयोग रहा.

रेणु बुनाई प्रतियोगिता में प्रथम आई तो उन की खूब प्रशंसा हुई. डिजाइन कठिन था, फिर भी समय सीमा में सफाई के साथ बुना गया था. सखियों एवं पड़ोसियों की ईर्ष्या बधाई देते समय साफ ?ालक रही थी.

बुनाई को हौबी बनाएं

पूर्वा जब स्कूल में पढ़ती थी, एक दिन आ कर बोली, ‘‘आंटी, मु?ो सलाई में फंदे डालना सिखा दो, मेरी मम्मी को तो कुछ नहीं आता.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारी मम्मी तो डाक्टर है और जरूरी नहीं कि हर काम किसी से बने.’’

पूर्वा तपाक से बोली, ‘‘नहीं आंटी, घर का काम हर लड़की को सीखना ही चाहिए. पता नहीं कब काम आ जाए.’’

आज पूर्वा एक बड़ी कंपनी की सी.ई.ओ. है फिर भी गृहस्थी के किसी भी हुनर से अनभिज्ञ नहीं एवं आत्मविश्वास से लबरेज है.

शीत ऋतु अपने अनेक रंग बिखेरे घरों में राज करती है. कहीं तिल्ली के व्यंजन, मूंग की दाल का या गाजर का हलवा, मेथी और उड़द के लड्डुओं की सौगात लाती है तो किसी को हर वक्त गरमगरम अदरकतुलसी वाली चाय की तलब बनी ही रहती है. लेकिन धूप सेंकती, गप लगाती, बतियाती उंगलियों के कौशल को सलाई से ऊन में उतारती महिलाएं कुछ इस तरह आकर्षित करती हैं कि देखने वालों का मन भी बुनाई करने का हो ही जाता है. पड़ोसियों की देखादेखी, किस ने कितनी बुनाई की, कितने वस्त्रों को आकार दिया, यह सब मन के किसी कोने में बना रहता है.

ऊन का भी अपना फैशन होता है. पतलामोटा, चमकीला, रंगबिरंगा आदि. हमारे देश में ही दक्षिण की शीत ऋतु एक स्वैटर या एक शाल में निकल जाती है, जबकि उत्तर भारत में ठंड में ऊनी वस्त्र अनिवार्य आवश्यकता में शामिल हो जाते हैं. स्थानीय परिवेश इस हुनर को प्रभावित करता है. ठंड अधिक हो तो यह कला खूब फलेगी, फूलेगी. कई आकारप्रकार के रंगों में ये वस्त्र अपनी विशिष्टता लिए बाजार में अपना आधिपत्य जमाते रहते हैं. बुनाई पसंद महिलाएं उन के साथ कदम से कदम मिला कर नए डिजाइनों का आविष्कार करती ही रहती हैं.

बुनाई कहीं आदत है, हौबी है तो नशा

भी है. लोग तो इन महिलाओं को निटिंग ऐडिक्ट कहने से भी बाज नहीं आते. ये हर पल कुछ नया बनाने का हौसला रखती हैं. छोटे, पुराने स्वैटर को खोल कर नया बनाना इन के बाएं हाथ का खेल है. पुलओवर, कार्डिगन, गाउन, स्वैटर, टौप, ब्लाउज, टीशर्ट, टोपे, मोजे, फ्राक, शाल, कुशनकवर, खिलौने आदि क्या नहीं बना देतीं.

बस, बनाने की मंशा हो, फिर दिमाग बुनाई के आसपास ही घूमता है. उठतेबैठते, रसोई में, बाजार में, सिनेमा में, टीवी के सामने बुनाई का फितूर ही रखता है. गृहकार्य जैसेतैसे निबटा कर ऊन और सलाइयां इन के हाथों की शोभा बढ़ाती रहती हैं. ये धुन की भी पक्की होती हैं. हाथ की थकान या दर्द से कराहते हुए भी उसी में रमी रहती हैं. कई लोग कहते हैं कि फलां की जबान कैंची की तरह चलती है. अजी, इन की बुनाई करती उंगलियों को तो देखो, कैंची और जबान दोनोें चकमा खा जाएंगी.

उंगलियों का कौशल

सर्दियों का मौसम आने के पूर्व बरसात में ही बुनाई का बैकग्राउंड बनने लगता है. इन के पास बुनाई विशेषांकों का नायाब कलैक्शन होता है. कल्पनाशक्ति इतनी प्रबल कि किसी भी रंग, डिजाइन का संयोजन सुंदर और मनमोहक बनाने में कसर नहीं छोड़तीं. भले उन्हें बड़ी मानसिक कशमकश से ही क्यों न गुजरना पड़े.

सच तो यह है कि हाथों से बने ऊनी वस्त्र अपनी अलग पहचान बनाते हैं, व्यक्तित्व को निखारते, संवारते हैं, खुद को विशिष्ट बनाने के साथ स्वावलंबी बनाने का यह जरिया भी है तो बचत करने के प्रयास भी है.

प्रत्येक गृहिणी का मन घरपरिवार को खुश देखने का होता है. बुनाई की मशीनों ने बुनाई को पेशा जरूर बना दिया है. बदलते फैशन ने हाथ से बुने वस्त्रों को बीते दिनों की बात कह दिया. लेकिन अभी भी उंगलियों का कौशल बरकरार है. ये गृहिणी की सू?ाबू?ा, कलात्मक अभिव्यक्ति का परिचय देती हैं. थोड़ा सा श्रम, थोड़ी सी लगन, थोड़ी सी बचत आप के लाड़ले को स्मार्ट बना देती है. आप की बेटी रंगबिरंगे परिधानों में किसी परी से कम नहीं लगती.

किटी पार्टी में आप की शाल, ब्लाउज, कार्डिगन महफिल की रौनक को दोगुना कर देते हैं. पुरुष वर्ग के लिए शालीन, सुरुचिपूर्ण रंग व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान करते हैं. वहीं वरिष्ठों के लिए उन की सुविधा सर्वोपरि है. न रंगों का अधिक मोह न नायाब नमूने की चाह. बस, ठीक नाप के हों, तन को पूरी तरह सुरक्षा प्रदान कर सकें. अधिक की चाह भी नहीं और ये खुद रखरखाव के प्रति सजग होते हैं. शीत ऋतु रंगबिरंगे, विभिन्न आकार, प्रकार, डिजाइन, फैशन के अनुरूप किशोरकिशोरियों का तो गर्मजोशी से स्वागत करती नजर आती है.

खूबसूरत और मनभावन

इस हुनर की जानकार महिलाएं घर, पड़ोस, सिनेमाहाल, पार्क में, ट्रेन में, सफर में, पार्टी में कोई न कोई तिकड़म लगा कर बुनने के लिए समय चुरा ही लेती हैं. इसीलिए तो इन की एकाग्रता पर अंकुश लगाने के लिए संसर, विधानसभाओं, दफ्तरों में बंदिश लगी हुई है- ‘कृपया बुनाई न करें.’ बेचारी वहां कैसे समय काटती होंगी? 1-1 पल 1-1 युग सा बीतता होगा. इस कला के पीछे एक और मानसिकता काम करती है- कहीं गली, पासपड़ोस, कालोनी या शहर में 2 स्वैटर एक से न बन जाएं और किसी से मिलतेजुलते भी न बनें. पहनने में यों एकदम अलग दिखें कि देखने वाले दांतों तले उंगली दबा लें.

सब से अधिक भय तो अपने रंग, डिजाइन के कौमन होने का होता है. लेकिन राज की बात तो यह है कि डिजाइन जितना सुंदर, जितना खूबसूरत और मनभावन होगा, वह उतनी ही जल्दी कौमन हो जाता है. यदि आप नहीं बताएंगी तो कोई न कोई पारखी नजर येनकेन प्रकारेण डिजाइन उतारने मेें सफलता अर्जित कर ही लेगी. बहुत पैनी नजर होती है इन की. तब न आप का नाम होगा और न एहसान. आप के अभूतपूर्व नमूने का श्रेय कोई और ले जाएगा. बुनाई से जुड़ती हैं नारी की कोमल भावनाएं, परिवार के प्रति लगाव एवं समर्पण.

राइटर- सरोज राय

Lips Care Tips : लिप्स की टैनिंग से पाना चाहती हैं छुटकारा, तो अपनाएं ये आसान टिप्स

Lips Care Tips : चेहरा हमारे व्यक्तित्त्व का आईना होता है. यही कारण है कि हर महिला अपने चेहरे को खूबसूरत बनाने के लिए बहुत से जतन करती है. लेकिन यह भी सच है कि चेहरा तभी खूबसूरत दिखाई देता है जब त्वचा बेदाग व होंठ गुलाबी हों. फटे और टैन होंठ चेहरे की सुंदरता को फीका कर देते हैं.

इस में सब से ज्यादा चिंता की बात यह है कि महिलाएं अपने शरीर के अन्य पार्ट्स की टैनिंग को ले कर तो बहुत जागरूक होती हैं, लेकिन लिप्स की टैनिंग को ले कर बिलकुल भी अवेयर नहीं होती हैं. जानिए, होंठों की देखभाल करने के कुछ महत्वपूर्ण टिप्स :

1. कई बार होंठों पर घटिया किस्म का कौस्मैटिक यूज करने से भी होंठ टैन हो जाते हैं या फिर जरूरत से ज्यादा कौस्मैटिक के प्रयोग से भी होंठों का रंग गहरा पड़ सकता है.

2. धूम्रपान की वजह भी होंठ काले हो जाते हैं.

3. ज्यादा देर तक स्विमिंग करने से भी होंठों में कालापन आ सकता है.

4. ज्यादा कैफीन का सेवन होंठों के कालेपन का कारण बनता है.

टैनिंग दूर करने के टिप्स

लिप फेशियल : डर्मावर्ल्ड स्किन क्लिनिक के डर्मैटोलौजिस्ट ऐंड हेयर क्लीनिक्स डा. रोहित बत्रा का कहना है कि लोग आमतौर पर चेहरे पर ही फेशियल करते हैं. वो इस बात से अनजान होते हैं कि लिप फेशियल द्वारा लिप्स की टैनिंग से पूरी तरह मुक्ति पा सकते हैं. यही नहीं यह लिप्स को और भी ज्यादा आकर्षक बना देता है. मगर इसे किसी ऐक्सपर्ट से ही कराएं.

लिप ट्रीटमैंट व लिप मास्क : इन दिनों मार्केट में लिप की टैनिंग दूर करने के लिए लिप लाइटनिंग जैसे ट्रीटमैंट्स भी उपलब्ध हैं जो बहुत लोकप्रिय भी हो रहे हैं. इस के अलावा इन दिनों लिप मास्क भी लिप्स की सुंदरता बढ़ाने के लिए बहुत पौपुलर हो रहे हैं.

अन्य नुस्खे

अनार : अनार के रस के प्रयोग से भी टैनिंग दूर होती है. इसे हलदी के साथ मिला कर होंठों पर लगाएं. 15 मिनट बाद ठंडे पानी से चेहरा धो लें.

गुलाब की पंखुडि़यां : होंठों की टैनिंग को दूर करने के लिए गुलाब की पंखुडि़यां बहुत ही फायदेमंद होती हैं. इन्हें पीस कर थोड़ी सी ग्लिसरीन मिला कर घोल को रोज रात को होंठों पर लगा कर सो जाएं, सुबह धो लें.

नीबू : सुबह और शाम नीबू के रस को होठों पर रगड़ें. 10 मिनट बाद ठंडे पानी से चेहरा धो लें. यह टैनिंग दूर करने का बहुत ही कारगर उपाय है.

केसर और दूध : केसर के इस्तेमाल से भी होंठों का कालापन दूर होता है. कच्चे दूध में केसर मिला कर उसे रात को होंठों पर लगा कर सो जाएं, सुबह ठंडे पानी से चेहरा धो लें.

चुकंदर : चुकंदर को काट कर टुकड़ों को होंठों पर घिसें या फिर इस का रस निकाल कर नीबू के रस में मिला कर भी लगा सकती हैं. नियमित लगाने से होंठ गुलाबी व चमकदार बनते हैं.

चीनी का स्क्रब : होंठों की टैनिंग हटाने के लिए चीनी में नारियल तेल की कुछ बूंदें डाल कर ब्रश की सहायता से बिलकुल हलके हाथों से लिप्स को स्क्रब करें. होठों का कालापन दूर हो जाएगा.

Health Tips : मुझे डायबिटीज है, क्या मैं फल खा सकता हूं?

Health Tips : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मेरी उम्र 42 साल है. मैं एक शिक्षण संस्थान में क्लर्क हूं. पिछले 2-3 वर्षों से मुझे कब्ज की शिकायत है. क्या करूं?

जवाब

लगातार लंबे समय तक बैठे रहने से एब्डौमिनल कैविटी/उदर गुहा दब जाती है जिस से पाचन क्रिया धीमी पड़ जाती है और कब्ज का कारण बन जाती है. जो लोग रोज घंटों बैठे रहते हैं उन में आंतों की मूवमैंट भी नहीं होती है जिस से आंतें अपनी पूरी क्षमता के साथ काम नहीं कर पाती हैं. आंतों में पचे हुए भोजन की गति सामान्य न होना कब्ज का कारण बन जाता है. आप अपनी जौब तो बदल नहीं सकती लेकिन अपनी आदतों में बदलाव जरूर ला सकती हैं. जंक फूड्स के बजाय संतुलित, पोषक और हलके भोजन का सेवन करें. 7-8 घंटे की नींद लें. खाने और सोने का एक समय निर्धारित कर लें क्योंकि आप क्या खाते हैं और कितना सोते हैं उस के साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आप कब खाते और सोते हैं. सप्ताह में कम से कम 150 मिनट अपना मनपसंद वर्कआउट करें. अनावश्यक तनाव न पालें.

सवाल

मुझे फल खाना बहुत पसंद हैं लेकिन मुझे डायबिटीज है. ऐसे में क्या मुझे इन्हें खाना बंद कर देना चाहिए?

जवाब

यह एक सामान्य लेकिन पूरी तरह से गलत धारणा है. जिन्हें डायबिटीज है वे सामान्य लोगों की तरह सभी फल खा सकते हैं लेकिन उन्हें केवल मात्रा का ध्यान रखना है. आप रोज 150-200 ग्राम फल बिना किसी परेशानी के खा सकती हैं. जिन्हें डायबिटीज है उन्हें ऐसे फल खाना चाहिए जिन का ग्लाइसेमिक इंडैक्स कम हो जैसे सेब, संतरा, पपीता, नाशपाती, अमरूद, अनार. अंगूर, आम, चीकू, पाइनऐप्पल से परहेज करना चाहिए लेकिन अगर बहुत मन करे तो कभीकभार बिलकुल थोड़ी मात्रा में इन्हें ले सकते हैं. आप कभीकभी एक छोटा केला भी खा सकती हैं लेकिन बड़े आकार का केला न खाएं.

सवाल

मेरी उम्र 24 साल है और मैं 26 सप्ताह की गर्भवती हूं. मुझे पिछले 2 सप्ताह से पीलिया है और खुजली बहुत हो रही है. मैं इसे कैसे मैनेज करूं और इस का मेरी गर्भावस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

गर्भावस्था के दौरान फीमेल हारमोंस का स्राव बढ़ जाता है. लिवर में बौयल के प्रवाह में अवरोध आने के कारण पीलिया और खुजली होने का खतरा बढ़ जाता है. पहले आप जरूरी जांचे कराएं ताकि पीलिया होने के दूसरे कारणों जैसे वायरल हेपेटाइटिस की आशंका को समाप्त किया जा सके. तब लिवर स्पैशलिस्ट आप को कुछ दवाइयां शुरू करेगा. इस के साथ ही रक्त में बौयल ऐसिड को भी नियंत्रित करने की आवश्यकता होगी क्योंकि इस से गर्भावस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. गंभीर स्थिति में गर्भावस्था को समय पूर्व समाप्त करने की जरूरत पड़ सकती है.

डा. विशाल खुराना

डाइरैक्टर, गैस्ट्रोएंटरोलौजी, मैट्रो हौस्पिटल, फरीदाबाद. 

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Hosting House Party : हाउस पार्टी करना चाहते हैं प्लान, तो फौलो करें ये टिप्स

Hosting House Party : मौसम और समय कोई भी हो हम छोटी सी खुशी को भी दोस्तों और परिवारजनों के साथ पार्टी कर के शेयर करते हैं. होटल या रैस्टोरेंट जहां बड़े आयोजनों के लिए उपयुक्त रहते हैं, वहीं यदि आप के घर में थोड़ा सा भी स्पेस है तो आप घर पर भी किसी भी छोटीमोटी पार्टी को मैनेज कर सकते हैं.

घर पर पार्टी करने का सब से बड़ा लाभ यह होता है कि होटल की अपेक्षा घर में आप और आप के मेहमान फ्री हो कर ऐंजौय कर सकते हैं क्योंकि यहां पर किसी भी प्रकार की कोई बंदिश नहीं होती है साथ ही यह होटल की अपेक्षा काफी बजट फ्रैंडली भी रहता है.

घर पर पार्टी करने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है ताकि घर पर भी आप होटल जैसी पार्टी का आनंद उठा सकें :

थीम है सब से जरूरी

आजकल हौलीबुड, बौलीवुड, स्पोर्ट्स, 90 टीज, औस्कर रैड कार्पेट, सुपर हीरो, हैलोवीन जैसी पार्टी थीम प्रचलन में हैं। आप अपनी मनपसंद कोई भी थीम चुन सकते हैं. सभी मेहमानों को थीम के बारे में सूचित कर दें ताकि मेहमान थीम के अनुसार अपना आउटफिट और मेकअप डिसाइड कर सकें. जहां तक हो सके आप अपने घर की सजावट को भी थीम के साथ मैच करने का प्रयास करें.

डांस ऐंड फन

कोई भी पार्टी डांस और फन के बिना अधूरी होती है इसलिए पार्टी स्पेस के एक कौर्नर में डांस फ्लोर तैयार अवश्य रखें. कुछ कौमन डांस सौंग्स के साथसाथ मेहमानों के इंडीविजुअल डांस के सौंग्स की भी लिस्ट बना कर रखें ताकि आप सभी मेहमानों के सौंग्स आराम से चला सकें. आप स्वयं भी पार्टी को ऐंजौय कर सकें। गाने चलाने के लिए किसी प्रोफैशनल की मदद भी ली जा सकती है.

डांस फ्लोर को रंगबिरंगी लाइट्स से सजा कर डैकोरेटिव लुक दिया जा सकता है.

फ्लावर डैकोरेशन

कोई भी पार्टी डैकोरेशन के बिना अधूरी रहती है. घर की सजावट में सफेद, पिंक, लाइट यलो जैसे सौफ्ट न्यूट्रल रंगों के फूलों को शामिल करें ताकि ब्लैक, गोल्डन और सिल्वर जैसे पार्टी थीम के प्रत्येक रंग के साथ फूलों का बैलेंस बना रहे.

यदि आप का बजट हो तो आप आर्टिफिशियल फ्लावर्स की जगह रजनीगंधा, गुलाब, मोगरा और गेंदे के फूलों से भी सजावट कर सकते हैं. अधिक शाइन के लिए आप गोल्डन ग्लिटर से ढंके गिलास जार वास का भी प्रयोग कर सकतीं हैं.

कलर्स तय करें

थीम के अकौर्डिंग आप कलर निर्धारित करें. थीम कोई भी हो आप बहुत सारे रंगों का प्रयोग करने के बजाय एक मेन रंग के साथ 2 कंट्रास्ट कलर तय करें ताकि पार्टी बहुत अधिक भड़काऊ न हो कर सौम्यता बनी रहे.

प्रभावी हो डैकोरेशन

बहुत अधिक डैकोरेशन से जगह को भरने की जगह प्रभावी डैकोरेशन रखें मसलन यदि बर्थडे पार्टी है तो बड़ेबड़े 2-3 बर्थडे वाले बैलून लगा दें। ऐनिवर्सरी पार्टी में हार्टशेप के बैलून लगाए जा सकते हैं. इसी तरह रिटायरमैंट पार्टी में आप ग्रे और व्हाइट कलर के बैलून लगा सकती हैं.

अवसर के अनुकूल आप किसी एक दीवार पर एक बड़ा सा बैनर लगा कर उसे मुख्य दीवार बना सकते हैं. अलगअलग लेंथ और साइज की सजावट का उपयोग करें. तैरते हुए हीलियम गुब्बारे या लटके हुए पौमपौम का प्रयोग भी किया जा सकता है.

पर्याप्त हो स्पेस

मेहमानों की संख्या के अनुसार टेबल सजाएं। ध्यान रखें कि मेहमानों के पास बैठने के लिए पर्याप्त जगह हो. यदि आप छोटी सी पार्टी को भी ग्रैंड लुक देना चाहते हैं और आप के पास पर्याप्त स्पेस है तो बुफे के स्थान पर कुछ राउंड टेबल और चेयर्स को सेट करें ताकि मेहमानों को प्लेट ले कर हरसमय खड़ा न रहना पड़े.

घड़ी न भूलें

यदि आप ने पार्टी के लिए कुछ गेम्स प्लान किए हैं तो काउंटडाउन याद दिलाने के लिए दीवार पर 1 या 2 बड़ी घड़ियां लगाएं अथवा सैंड टाइमर सेट करें. आप चाहें तो डैकोरेटिव अलार्म क्लौक भी सेंटर में सेट कर सकते हैं.

पैट्स को दूर रखें

आजकल अधिकांश घरों में पेट्स होते हैं. पार्टी अरैंज करते समय कोशिश करें कि पैट्स पार्टी में डिस्टरबैंस न करें. आप इन्हें किसी कमरे में बंद करें या फिर एक दिन के लिए डौग होस्टल में भेज दें ताकि सभी मेहमान और आप निश्चिंत हो कर पार्टी को ऐंजौय कर सकें.

Social Issue : अमीरों की सुनो वह तुम्हारी सुनेगा

Social Issue :  देश की खस्ता हो रही इकौनौमी का एक और सुबूत है कि अब प्रीमियम प्रोडक्ट्स भी छोटे पैक्स में मिलने लगे हैं. एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) यानी ज्यादा बिकने वाली आम जरूरत की चीजों की खपत अब बढ़नी बंद हो गई है जबकि देश की जनसंख्या बढ़ रही है.

इन प्रोडक्ट्स को बनाने वालों ने पिछले 2 दशकों में प्रीमियम प्रोडक्ट्स बना कर गरीबों, अमीरों व सुपर अमीरों के बीच लाइनें लगानी शुरू की थीं और टूथपेस्ट जैसी चीज भी 300-400 रुपए की बिकने लगी थी. एअर कंडीशंड, अंगरेजी बोलने वाले स्टाफ वाले मौलों में खुले स्टोर चाहते ही यह थे कि वे महंगे प्रोडक्ट्स बेचें जिन पर उन का मार्जिन अच्छा हो जिस में से कुछ वे पौइंट्स के रूप में ग्राहकों को लौटा सकें.

बहुत अमीरों की तो संख्या में कमी नहीं हुई पर गरीबों और अमीरों के बीच की बिरादरी लड़खड़ाने लगी है. अच्छे पढ़ेलिखे, अपना लाइफ स्टाइल सुधारने के चक्कर वाले क्व20 की कौफी की जगह क्व150-300 कीकौफी पीने वाले अब पैसे की तंगी महसूस कर रहे हैं.

इन मिडल रिचों के खर्चे बढ़ गए हैं. गाड़ी मिड साइज की ही खरीदनी है, फ्लैट अच्छी सोसायटी में ही हो, सप्ताह में 4 बार खाना अच्छे रेस्तरां में ही हो, कपड़े, जूते ब्रैंडेड ही हों, बच्चों को महंगे प्राइवेट इंगलिश मीडियम स्कूल में ही भेजा जाए, फोन और लैपटौप महंगा ही हो. इन सब के पास ग्रौसरी के लिए पैसा कहां बचता है? अब प्रीमियम प्रोडक्ट्स खरीदने की आदत पड़ गई तो उन के छोटे पैक्स की मांग होने लगी है. छोटी फैमिली में बड़े पैक खत्म ही नहीं होते और बोतल का रंग फीका पड़ने लगता है.

अब सभी बड़ी कंपनियां महंगे रोजमर्रा के टूथपेस्ट, शैंपू, सोप, कंडीशनर, डिटर्जैंट, मसालों, क्रीमों, रैडीमेड फूड व छोटे पैक बनाने लगी हैं. इस से खपत बढ़ेगी, यह तो पता नहीं पर सर्कुलेशन बढ़ जाएगा, यह अंदाजा है.

असल में लोगों की जेबों में पैसा कम बच रहा है क्योंकि फालतू के खर्च ज्यादा हो रहे हैं. सब से बड़ा बेकार का खर्च डिजिटल मोड पर है. लोग बेबात में नया स्मार्ट मोबाइल, स्मार्ट वाच, लैपटौप, डेटा पैक, इयरबड खरीद रहे हैं. स्मार्ट बड़े टीवी पर महंगे ओटीटी प्लेटफौर्म सब्सक्राइव किए जा रहे हैं. बेमतलब के टूरिस्ट स्पौटों पर जाया जा रहा है.

यही नहीं, दकियानूसीपन फिर भी भरा है और इसलिए इंजीनियर, डाक्टर, एमबीए, लौयर्स बड़ा मोटा पैसा पैशनेबल धार्मिक आश्रमों पर खर्च कर रहे हैं. उन के लिए मैडिटेशन, योगा क्लासेज, हाई ऐंड टैंपल, और्गेनिक फूड, पिलग्रिम टूरिज्म जिस में एअर और हैलिकाप्टर राइड्स होते हैं, जम कर इस्तेमाल हो रहा है. जो पैसा सेहत के लिए सामान खरीदने के लिए खर्च होना चाहिए वह जिम मैंबरशिप में खर्च होता है.

धर्म के नाम पर मोटिवेशनल स्पीकर्स की बाढ़ आ गई है जो पर्सनैलिटी इंप्रूवमैंट के नाम पर भारी डोनेशन वसूल कर लेते हैं. गरीब लोग कुंभ जैसे मेलों में सस्ते टैंटों में साथसाथ बिस्तर लगा कर सोते हैं, अमीरों के लिए 5 स्टार सुविधाएं अलग टैंटों में दी जा रही हैं क्योंकि वे मोटी दक्षिणा देते हैं.

घरों में अमीरों और धर्म अमीरों ने अपने घरेलू मंदिर बना लिए हैं जहां रातदिन दीए जलते रहते हैं. ये इग्नोरैंट इररैशनल रिच यंग भी गिफ्ट में गणेश, शिव, लक्ष्मी के ऐब्स्ट्रैक्ट आर्ट वाले महंगे सिंबल बांटते फिरते हैं. पैसा तो लिमिटेड है. जरूरत पर खर्च करो या धर्म पर बरबाद करो.

धर्म पर ही नहीं, यही लोग अपने खाली समय में कुछ पढ़ने की जगह घंटों महंगी शराबों पर भी खर्च करते हैं. यह खर्च लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया है. रात देर तक पीते रहने वाले सुबह पूजापाठी बन जाते हैं और उस के बाद हैल्थ कौंशस हो कर ब्रैंडे़ड जूते और वाकिंग ड्रैस पहन कर निकलते हैं.

जो लोग दोगलेपन में जीते हैं उन से पैसा बचाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन के क्रैडिट कार्ड हमेशा लिमिट क्रौस करते रहते हैं. पैसा हो तो घर का सामान खरीदेंगे न.

अच्छा लाइफस्टाइल जरूरी है पर कल के लिए बचाना ज्यादा जरूरी है. ये युवा रिच कल का जिम्मा तो धर्म और शेयर बाजार पर डाल देते हैं. अगर इन की गिनती फिर भी काफी दिख रही है तो इसलिए कि इस यंग रिच क्लास में काफी लोग ऐसे हैं जिन के पेरैंट्स ने कौड़ीकौड़ी जमा कर कोई मकान, जमीन खरीदी थी और अब उस का दाम बढ़ गया है. वे उसी पैसे पर फूल रहे हैं. मांबाप भी अंधविश्वासी थे पर महल्ले के मंदिर में कुछ अपने 2-4 रुपए चढ़ा कर काम निकाल लेते थे, आज के युवा स्टाइल में 20 मील दूर बने विशाल मंदिर में जाते हैं क्योंकि मांबाप की खरीदी या बनाई संपत्ति का दाम बढ़ गया है.

जो पैसे वाले दिख रहे हैं, उन में से दो-तिहाई इसी तरह के हैं. इन की हैसीयत की पोल अब खुल रही है.

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