Tage Rita: Carving a Unique Identity in Winemaking

Tage Rita was born in the picturesque Ziro Valley of Arunachal Pradesh. She belongs to the Apatani tribe and holds a degree in Agricultural Engineering from the North Eastern Regional Institute of Science and Technology (NERIST), located in Nirjuli, Arunachal Pradesh. Tagi Rita began her career as an agricultural engineer, but soon evolved into a remarkable entrepreneur.

She is the founder of India’s first organic kiwi wine brand, Naara Aaba. In October 2017, she established the Naara Aaba Wine Company in memory of her late father-in-law. Based in Hong Village of Ziro, Arunachal Pradesh, this private Indian company is known for producing the country’s first organic kiwi wine.

Ziro Valley, famous for its fertile soil and scenic landscapes, produces kiwis in abundance. Rita combined her passion for agriculture with winemaking and transformed it into a successful business. Since kiwis were locally available, she didn’t need to source ingredients from outside. Her kiwi wine soon gained global recognition.

Tagi Rita spent six years researching and perfecting the process and formulation for the ideal kiwi wine. She started her venture with careful planning and scientific precision. Her journey as a successful woman in the male-dominated wine industry is both remarkable and inspiring. Initially, her winery had a production capacity of 20,000 liters, which has now expanded to 60,000 liters, benefiting over 300 farmers in its first year of operation.

The wine tastes best when served at 6 to 8°C, and the entire process from fermentation to bottling takes around four months. However, Rita’s achievements go far beyond wine production.

Notable Success

Rita’s extraordinary story has earned her multiple awards, including the ‘Women Transforming India Award’ by the United Nations and NITI Aayog in 2018, and the prestigious ‘Nari Shakti Puraskar’ in 2022.

Her company is now a significant employer, providing jobs to 25 permanent staff and 100 seasonal workers. With an annual revenue of ₹12 crore (120 million INR), Naara Aaba is a testament to Rita’s entrepreneurial skills. Her success echoes not just in business but also serves as an inspiration for aspiring entrepreneurs and advocates for sustainable agriculture.

“Women Must Recognize Their Strength”

Winner of the Grihshobha Inspire Award in the Business Leadership Achiever category, Rita expressed her excitement and said the award would continue to inspire her. She believes that there is no field where women cannot perform equally with men. Women must recognize their inner strength, break free from social constraints, and then no force in the world can stop them from achieving their goals.

Suparna Mitra: Chief Executive Officer (Watches & Wearables Division) of Titan Company Limited

Suparna Mitra is a name that needs no introduction. With her competence and vision, she has taken Titan to new heights. Her face naturally reflects confidence and determination, which is also evident in her work.

Early Life and Education

Suparna is an electrical engineer from Jadavpur University and holds an MBA from IIM Calcutta. With deep business acumen, she began her career as a management trainee at Hindustan Unilever Limited. Later, she joined Titan, where she worked in various roles across international and domestic marketing.

Her next role was as Director of Product Marketing at Talisma Corp. In 2006, she rejoined Titan as the Global Marketing Head, overseeing all marketing activities for both Indian and international markets. Currently, she serves as the CEO of Titan’s Watches & Wearables Division.

Leadership and Achievements

Under her leadership, Titan has introduced several innovations, such as the use of advanced materials like carbon fiber and ceramic. In 2024, to celebrate its 40th anniversary, Titan launched a limited-edition collection featuring the Flying Tourbillon watch—India’s first indigenously manufactured tourbillon timepiece.

Financially, Titan has seen remarkable growth under Suparna’s leadership. The watches and wearables division recorded a 280% year-on-year growth in Q1 FY22, with revenue nearly doubling to ₹292 crores.

Her efforts have significantly boosted brand development and played a crucial role in establishing Titan’s global recognition. In 2022, Business Standard awarded Titan “Company of the Year.”

Suparna also serves as an independent director at Swiggy, where she leverages her marketing and brand management expertise to guide the company’s growth strategies.

Leadership Style

Suparna Mitra is known as a determined, goal-oriented, and innovation-driven leader. She has always prioritized evolving customer preferences and used modern technology to steer Titan in a new direction.

Awards and Recognition

  • Awarded “Most Powerful Woman in Business” (2021)

  • Featured in Fortune India’s list for her exemplary leadership and influence in the industry.

Suparna’s achievements reflect her passion for excellence. She has not only impressed people with her talent but has also added new dimensions to the brands she has been associated with. Her journey serves as an inspiration for women, proving that with determination, reaching the pinnacle of success is entirely possible.

If women set their minds to it, scaling the heights of success is not difficult at all.

Sweating : तनाव और घबराहट के कारण हथेलियों और पैर में पसीना आता है, मैं क्या करूं ?

Sweating :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मेरी हथेलियों और पैर के तलवों में बहुत अधिक पसीना आता है और यह समस्या बारहों महीने बनी रहती है. कभीकभार कुछ दिन के लिए आराम आता है, लेकिन समस्या फिर से उतनी ही बढ़ जाती है. तनाव और घबराहट के क्षणों में यह परेशानी और बढ़ जाती है. कोई ऐसा उपाय बताएं जिस से मैं इस से छुटकारा पा सकूं?

जवाब-

आप की समस्या पूरे तौर पर शरीर क्रिया विज्ञान से जुड़ी हुई है. अगर हम मानसिक तनाव में रहते हैं तो इस का हमारे मस्तिष्क में बसे हाइपोथैलेमस पर सीधा असर पड़ता है. इसी से हमारे पसीने की ग्रंथियां सक्रिय हो उठती हैं. खास बात यह है कि इन ग्रंथियों की सब से बड़ी संख्या हथेलियों और पैरों के तलवों में होती हैं, इसीलिए शरीर के इन हिस्सों में सब से अधिक पसीना आता है. अगर शरीर के दूसरे अंगों, जैसे पीठ पर प्रति वर्गसैंटीमीटर 60 से 65 पसीने की ग्रंथियां होती हैं, तो हथेलियों और तलवों में यह संख्या 600-625 के बीच होती है.

इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए जरूरी होगा कि आप अपने मन को अधिक से अधिक शांत रखें. सुबहशाम सैर के लिए जाएं. कुछ समय योग के लिए निकालें. योग में ऐसे कई आसन हैं जिन से हम तनाव से छुटकारा पा सकते हैं. शव आसन और योग निद्रा इस के 2 सरल उदाहरण हैं. लगातार 3 से 6 महीने तक ये उपाय करने से आप अपने में बेहतरी महसूस करने लगेंगी. यदि फिर भी कुछ कमी महसूस हो तो उचित होगा कि किसी मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक से मदद लें. फिलहाल आप हथेलियों और तलवों पर ऐल्युमिनियम क्लोराइड का लोशन और पाउडर इस्तेमाल कर सकती हैं.

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क्या आप के साथ भी कभी ऐसा हुआ है कि आप कौंफ्रैंस रूम में खड़े हो कर प्रेजैंटेशन दे रहे हैं, सामने बौस, सीनियर्स और को-वर्कर्स बैठे हैं. मीटिंग काफी महत्त्वपूर्ण है और आप के दिल की धड़कनें बढ़ी हुई हैं. हथेलियां पसीने से भीग रही हैं?

अपने हाथों को आप किसी तरह पोंछने का प्रयास कर रहे होते हैं और घबराहट में आप के हाथों से नोट्स गिरते गिरते बचते हैं. ऐसी परिस्थिति में न सिर्फ आप का आत्मविश्वास घटता है बल्कि आप के व्यक्तित्त्व को ले कर दूसरों पर नकारात्मक असर पड़ता है. यह एक सामान्य प्रक्रिया है जो अकसर हमारे साथ होती है. यह अत्यधिक तनाव अथवा तनावपूर्ण परिस्थितियों की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है.

पहली मुलाकात, सामाजिक उत्तरदायित्व अथवा किसी निश्चित कार्य को न कर पाने के भय के दौरान भी कुछ इसी तरह की स्थिति महसूस होती है. कई दफा तीखे मसालेदार भोजन, जंक फूड्स, शराब का सेवन, धूम्रपान या कैफीन के अधिक प्रयोग से भी ऐसा हो सकता है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे… 

गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Hindi Fiction Stories : क्या वह लड़की मुसकान की हमशक्ल थी?

Hindi Fiction Stories : ‘‘आंटी, आप बारबार मुझे इस तरह क्यों घूर रही हैं?’’ मेघा ने जब एक 45 साल की प्रौढ़ा को अपनी तरफ बारबार घूरते देखा तो उस से रहा न गया. उस ने आगे बढ़ कर पूछ ही लिया, ‘‘क्या मेरे चेहरे पर कुछ लगा है?’’

‘‘नहीं बेटा, मैं तुम्हें घूर नहीं रही हूं. बस, मेरा ध्यान तुम्हारी मुसकराहट पर आ कर रुक जाता है. तुम तो बिलकुल मेरी बेटी जैसी दिखती हो, तुम्हारी तरह उस के भी हंसते हुए गालों पर गड्ढे पड़ते हैं,’’ इतना कह कर सुनीता पीछे मुड़ी और अपने आंसुओं को पोंछती हुई मौल से बाहर निकल गई. तेज कदमों से चलती हुई वह घर पहुंची और अपने कमरे में बैड पर लेट कर रोने लगी. उस के पति महेश ने उसे आवाज दी, ‘‘क्या हुआ, नीता?’’ पर वह बोली नहीं. महेश उस के पास जा कर पलंग पर बैठ गया और सुनीता का सिर सहलाता रहा, ‘‘चुप हो जाओ, कुछ तो बताओ, क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा क्या तुम से?’’

‘‘नहीं,’’ सुनीता भरेमन से इतना ही कह पाई और मुंह धो कर रसोई में नाश्ता बनाने के लिए चली गई. महेश को कुछ समझ में नहीं आया. वह सुनीता से बहुत प्यार करता है और उस की जरा सी भी उदासी या परेशानी उसे विचलित कर देती है. वह उसे कभी दुखी नहीं देख सकता. वह प्यार से उसे नीता कहता है. वह उस के पीछेपीछे रसोई में चला गया और बोला, ‘‘नीता, देखो, अगर तुम ऐसे ही दुखी रहोगी तो मेरे लिए बैंक जाना मुश्किल हो जाएगा. अच्छा, ऐसा करता हूं कि आज मैं बैंक में फोन कर देता हूं छुट्टी के लिए. आज हम दोनों पूरे दिन एकसाथ रहेंगे. तुम तो जानती ही हो कि जब तुम्हारे होंठों की मुसकान चली जाती है तो मेरा भी मन कहीं नहीं लगता.’’

‘‘मुसकान तो कब की हमें छोड़ कर चली गई है,’’ सुनीता के इन शब्दों से महेश को पलभर में ही उस की उदासी का कारण समझ में आ गया. आखिरकार, जिंदगी के 20 साल दोनों ने एकसाथ बिताए थे, इतना तो एकदूसरे को समझ ही सकते थे.

‘‘उसे तो हम मरतेदम तक नहीं भूल सकते पर आज अचानक, ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें उस की याद आ गई?’’

सुनीता ने मौल में मिली लड़की के बारे में बताया, ‘‘वह लड़की हमारी मुसकान की उम्र की ही होगी, यही कोई 16-17 साल की. पर जब वह मुसकराती है तो एकदम मुसकान की तरह ही दिखती है. वही कदकाठी, गोरा रंग. मैं तो बारबार चुपकेचुपके उसे देख रही थी कि उस ने मेरी चोरी पकड़ ली और पूछ लिया, ‘आंटी, आप ऐसे क्या देख रहे हैं?’ मैं कुछ कह नहीं पाई और घर वापस आ गई,’’ सुनीता ने फिर कहा, ‘‘चलो, अब तुम तैयार हो जाओ. मैं तुम्हारा खाना पैक कर देती हूं. अब मैं ठीक हूं,’’ और वह रसोई में चली गई. महेश तैयार हो कर बैंक चला गया पर सुनीता को रहरह कर बेटी मुसकान का खयाल आता रहा. एक जवान बेटी की मौत का दर्द क्या होता है, यह कोई सुनीता व महेश से पूछे. मुसकान खुद तो चली गई, इन से इन के जीने का मकसद भी ले गई. 4 साल पहले उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को एक दुर्घटना में खो दिया था. हर समय उन के दिमाग में यही खयाल आता था कि क्यों किसी ने मुसकान की मदद नहीं की? अगर कोई समय रहते उसे अस्पताल ले गया होता तो शायद आज वह जिंदा होती. उस पल की कल्पना मात्र से सुनीता के रोंगटे खड़े हो गए और वह फफकफफक कर रोने लगी.

जी भर कर रो लेने के बाद सुनीता जब उठी तो अचानक उसे चक्कर आ गया और वह सोफे का सहारा ले कर बैठ गई. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ. थोड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी तो वह बैडरूम में जा कर पलंग पर ढेर हो गई और फिर उसे याद नहीं कि वह कब तक ऐसे ही पड़ी रही. दरवाजे की घंटी की आवाज से वह उठी और बामुश्किल दरवाजे पर पहुंची. महेश उस के लिए उस का मनपसंद चमेली के फूलों का गजरा लाया था. चमेली की खुशबू उसे बहुत अच्छी लगती थी. पर आज ऐसा न था. आज उसे कुछ अच्छा न लग रहा था, चाह कर भी वह उस गजरे को हाथों में न ले पाई. जैसे ही महेश उस के बालों में गजरा लगाने के लिए आगे बढ़ा तो उस ने उसे रोक दिया, ‘‘प्लीज महेश, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ? क्या तुम अभी तक सुबह वाली बात से परेशान हो?’’ महेश ने कहा और उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर अपने पास बैठा लिया. ‘‘आज सुबह से ही कमजोरी महसूस कर रही हूं और चाह कर भी उठ नहीं पा रही हूं,’’ सुनीता ने बताया. महेश ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं है. वह सुबह वाली बात ही तुम सोचे जा रही होगी और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम ने खाना भी नहीं खाया होगा.’’सुनीता चुपचाप अपने पैरों को देखती रही.

‘‘अच्छा चलो, आज बाहर खाना खाते हैं. बहुत दिन हुए मैं अपनी बीवी को बाहर खाने पर नहीं ले कर गया.’’ महेश सुनीता को उस उदासी से छुटकारा दिलाना चाहता था जो हर पल उसे डस रही थी. उस के लिए शायद यह दुनिया की आखिरी चीज होगी जो वह देखना चाहेगा – सुनीता का उदास चेहरा. उस के तो दो जहान और सारी खुशियां सुनीता तक ही सिमट कर रह गई थीं, मुसकान के जाने के बाद. दोनों तैयार हो कर पास के होटल में खाना खाने चले गए. महेश ने उन सभी चीजों को मंगवाया जो सुनीता की मनपसंद थीं ताकि वह उदासी से बाहर आ सके.

‘‘अरे बस करो, मैं इतना नहीं खा पाऊंगी,’’ जब महेश बैरे को और्डर लिख रहा था तो उस ने बीच में ही कह कर रोक दिया.

‘‘अरे, तुम अकेले थोडे़ ही न खाओगी, मैं भी तो खाऊंगा. भैया, तुम जाओ और फटाफट से सारी चीजें ले आओ. मैं अपनी बीवी को अब और उदास नहीं देख सकता.’’ एक हलकी मुसकान सुनीता के होंठों पर फैल गई. यह सोच कर कि महेश उस से कितना प्यार करता है और अपनेआप पर उसे गर्व भी हुआ ऐसा प्यार करने वाला पति पा कर. खाना खाने के बाद सुनीता की तबीयत कुछ संभल गई. दोनों मनपसंद आइसक्रीम खा कर घर लौट आए. इतनी गहरी नींद में सोई सुनीता कि सुबह देर से आंख खुली. उस ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो बादल घिरे हुए थे. फिर उस ने पास लेटे महेश को देखा. वह चैन की नींद सो रहा था. एक रविवार को ही तो उसे उठने की जल्दी नहीं होती बाकी दिन तो वह व्यस्त रहता है. फ्रैश हो कर वह रसोई में चली गई चाय बनाने. जब तक चाय बनी, महेश उठ कर बैठक में अखबार ले कर बैठ गया. रोज का उन का यही नियम होता था-एकसाथ सुबहशाम की चाय, फिर अपनेअपने काम की भागदौड़. बाहर बादल गरजने लगे और फिर पहले धीरे, फिर तेज बारिश होने लगी. अचानक सुनीता को लगा कि कोई बाहर खड़ा है. उस ने खिड़की में से झांका. एक लड़की खड़ी थी. उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो देखा वह वही मौल वाली लड़की थी. उसे दोबारा देख कर सुनीता बहुत खुश हुई, ‘‘अरे बेटा, तुम आ जाओ, अंदर आ जाओ.’’

‘‘नहीं आंटी, मैं यहीं ठीक हूं,’’ उस ने डरते हुए कहा. वह कौन सा उसे जानती थी जो उस के घर के अंदर चली जाती. सुनीता ने बड़े प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उसे खींच कर अंदर ले आई.

‘‘आंटी, आप यहां रहती हैं? मैं तो कई बार इधर से गुजरती हूं पर मैं ने आप को नहीं देखा.’’ ‘‘हां बेटा, मैं जरा घर में ही व्यस्त रहती हूं.’’

‘‘आंटी, आई एम सौरी. शायद मैं ने आप का दिल दुखाया,’’ मेघा ने कहा.

महेश एक पल को मेघा को देख कर हतप्रभ रह गया. उसे अंदाजा लगाते देर नहीं लगी कि वह मौल वाली लड़की ही है, ‘‘आओ बेटा बैठो, हमारे साथ चाय पियो.’’ उस ने घबराते हुए महेश से नमस्ते की और बोली, ‘‘अंकल, मैं चाय नहीं पीती.’’

‘‘मुसकान भी चाय नहीं पीती थी. बस, कौफी की शौकीन थी. आजकल के बच्चे कौफी ही पसंद करते हैं,’’ ऐसा बोल कर सुनीता रसोई में चली गई. मेघा भी उस के पीछेपीछे रसोई में चली गई.

‘‘तुम्हारा घर पास में ही है शायद?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘हां आंटी, अगली गली में सीधे हाथ को मुड़ते ही जो तीसरा छोटा सा घर है वही मेरा है,’’ मेघा ने बताया. ‘‘अच्छा, वह नरेश शर्मा के साथ वाला?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, वही. मैं रोज यहां से अपने कालेज जाती हूं. आज रविवार है सो अपनी सहेली से मिलने जा रही थी. बारिश तेज हो गई, इसलिए यहीं पर रुक गई.’’ ‘‘कोई बात नहीं बेटा, यह भी तुम्हारा ही घर है. जब मन करे आ जाया करना, तुम्हारी आंटी को अच्छा लगेगा,’’ महेश ने कहा, ‘‘जब से मुसकान गई है तब से इस ने अपनेआप को इस घर में बंद कर लिया है, बाहर ही नहीं निकलती.’’ ‘‘मेरा नहीं मन करता किसी से भी बात करने का. जब से मुसकान गई है…’’ इतना बोलते ही सुनीता की रुलाई छूट गई तो मेघा ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आंटी, यह मुसकान कौन है?’’

‘‘मुसकान हमारी बेटी थी जिसे 4 साल पहले हम ने एक ऐक्सिडैंट में खो दिया.’’ मेघा ने देखा सुनीता आंटी लाख कोशिश करे अपना दुख छिपाने की पर फिर भी उदासी उन पर, अंकल पर और पूरे घर पर पसरी हुई थी.

इस बीच महेश बोले, ‘‘हौसला रखो नीता, मैं हूं न तुम्हारे साथ, बस मुसकान का इतना ही साथ था हमारे साथ.’’ इधर, मेघा ने अब जिज्ञासा जाहिर की, ‘‘आंटी, आप मुझे विस्तार से बताइए, क्या हुआ था.’’ ‘‘बेटा, हमारी शादी के 3 साल बाद मुसकान हमारे घर आई तो हमें ऐसा लगा कि इक नन्ही परी ने जन्म लिया है. हमारे घर में उस की मुसकराहट हूबहू तुम्हारे जैसी थी, ऐसे ही गालों में गड्ढे पड़ते थे.’’

‘‘ओह, तो इसलिए उस दिन आप मुझे मौल में बारबार मुड़मुड़ कर देख रही थीं.’’ ‘‘हां बेटा, अब तुम्हें सचाई पता चल गई, अब तो तुम नाराज नहीं होना अपनी आंटी से,’’ महेश ने कहा.

‘‘नहीं अंकल, वह तो मैं कब का भूल गई.’’

‘‘खुश रहो बेटा,’’ कहते हुए महेश चाय पीने लगे. सुनीता ने मेघा को बताना जारी रखा, ‘‘मुसकान को बारिश में घूमना बहुत पसंद था. हमारे लाड़प्यार ने उसे जिद्दी बना दिया था. इकलौती संतान होने से वह अपनी सभी जायजनाजायज बातें मनवा लेती थी. जब उस ने 10वीं की परीक्षा पास की तो स्कूटी लेने की जिद की. हम ने बहुत मना किया कि तुम अभी 15 साल की हो, 18 की होने पर ले लेना, पर वह नहीं मानी. खानापीना, हंसना, बोलना सब छोड़ दिया. हमें उस की जिद के आगे झुकना पड़ा और हम ने उसे स्कूटी ले दी. मैं ने उसे ताकीद की कि वह स्कूटी यहीं आसपास चलाएगी, दूर नहीं जाएगी. इसी शर्त पर मैं ने उसे स्कूटी की चाबी दी. वह मान गई और हम से लिपट गई. ‘‘उस दिन वह जिद कर के स्कूटी से अपनी सहेली के घर चली गई. हम उस का इंतजार कर रहे थे. उस दिन भी ऐसी ही बारिश हो रही थी. 2 घंटे बीत गए तब सिटी अस्पताल से फोन आया, ‘जी, हमें आप का नंबर एक लड़की के मोबाइल से मिला है. आप कृपया कर के जल्द सिटी अस्पताल पहुंच जाएं.’ ‘‘डर और घबराहट के चलते मेरे पैर जड़ हो गए. हम दोनों बदहवास से वहां पहुंचे. देखा, हमारी मुसकान पलंग पर लेटी हुई थी, औक्सीजन लगी हुई थी, सिर पर पट्टियां बंधी हुई थीं और साथ वाले पलंग पर उस की सहेली बेहोश थी. जब उसे होश आया तो उस ने बताया, ‘हम दोनों बारिश में स्कूटी पर दूर निकल गईं. पास से एक गाड़ी ने बड़ी तेजी से ओवरटेक किया, जिस से हमें कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा और उस गीली मिट्टी में स्कूटी फिसल गई. हम दोनों गिर गए और बेहोश हो गए. उस के बाद हम यहां कैसे पहुंचे, नहीं मालूम.’ ‘‘इसी बीच डाक्टर आ गए. उन्होंने मुझे और महेश को बताया कि सिर पर चोट लगने से बहुत खून बह गया है. हम ने सर्जरी तो कर दी है पर फिर भी अभी कुछ कह नहीं सकते. अभी 48 घंटे अंडर औब्जर्वेशन में रखना पड़ेगा. डाक्टर की बात सुन कर हम रोने लगे. ये भी परेशान हो गए. पलभर में हमारी दुनिया ही बदल गई. नर्स ने कहा, ‘घबराइए नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’ तकरीबन 2 घंटे बाद मुसकान को होश आया,’’ बोलतेबोलते सुनीता का गला रुंध आया तो वह चुप हो गई.

‘‘फिर क्या हुआ अंकल? प्लीज, आप बताइए?’’ मेघा ने डरते हुए पूछा. महेश के चेहरे पर अवसाद की गहरी परत छा गई थी तो सुनीता ने कहा, ‘‘वह जब होश में आई तो उस से कुछ कहा ही नहीं गया. बस, अपने हाथ जोड़ दिए और हमेशा के लिए शांत हो गई.’’ और फिर सुनीता फूटफूट कर रोने लगी. उन का रुदन देख कर मेघा की भी रुलाई छूट गई. उसे समझ नहीं आया कि वह उन से क्या कहे. उस ने सुनीता और महेश का हाथ अपने हाथों में ले कर बस इतना ही कहा, ‘‘मुझे अपनी मुसकान ही समझिए और मैं पूरी कोशिश करूंगी आप की मुसकान बनने की.’’

उन दोनों के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘खुश रहो बेटा.’’ बाहर बारिश थम चुकी थी और अंदर तूफान गुजर चुका था. मेघा वापस आने का वादा कर के वहां से चली गई. उस से बातें कर के दोनों बहुत हलका महसूस कर रहे थे. दोनों रविवार का दिन अनाथ आश्रम में गरीब बच्चों के साथ बिताते थे. दोनों कपड़े बदल कर वहां चले गए. मेघा जब भी कालेज जाती तो अकसर सुनीता और महेश को बाहर लौन में बैठे देखती तो कभी हाथ हिलाती, कभी वक्त होता तो मिलने भी चली जाती थी. वक्त गुजरने लगा. मेघा के आने से सुनीता अपनी सेहत को बिलकुल नजरअंदाज करने लगी. यदाकदा उसे चक्कर आते थे, कई बार आंखों के आगे धुंधला भी नजर आता तो वह सब उम्र का तकाजा समझ कर टाल जाती. इंतजार करतेकरते 10 दिन हो गए पर मेघा नहीं आई, न ही वह कालेज जाती नजर आई. दोनों को उस की चिंता हुई और जब दोनों से रहा नहीं गया तो वे एक दिन उस के घर पहुंच गए.दरवाजे की घंटी बजाई तो एक 49-50 साल की अधेड़ महिला ने दरवाजा खोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘क्या मेघा यहीं रहती है?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, आप सुनीता और महेशजी हैं?’’

सुनीता ने उत्सुकता से जवाब दिया, ‘‘हां, मैं सुनीता हूं और ये मेरे पति महेश हैं.’’

‘‘आप अंदर आइए. प्लीज,’’ बोल कर सुगंधा उन्हें कमरे में ले आई. पूरा घर 2 कमरों में सिमटा था. एक बैडरूम और एक बैठक, बाहर छोटी सी रसोई और स्नानघर. मेघा यहां अपनी मां सुगंधा के साथ अकेली रहती थी उस के पिताजी, जब वह बहुत छोटी थी तब ही संसार से जा चुके थे. सुगंधा एक स्कूल में अध्यापिका थी जिस से उन का घर का गुजारा चलता था. ‘‘मेघा कहां है? बहुत दिन हुए, वह घर नहीं आई तो हमें चिंता हुई. हम उस से मिलने आ गए,’’ सुनीता ने चिंता व्यक्त की.

‘‘वह दवा लेने गई है,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘आप को क्या हुआ बहनजी?’’ महेश ने पूछा.

सुगंधा उदास हो गई, ‘‘मेरी दवा नहीं भाईसाहब, वह अपनी दवा लेने गई है.’’

‘‘उसे क्या हुआ है?’’ दोनों ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘2-3 साल पहले की बात है. इसे बारबार यूरीन इनफैक्शन हो जाता था. डाक्टर दवा दे देते तो ठीक हो जाता पर बाद में फिर हो जाता. पिछले 10 दिनों से इनफैक्शन के साथ बुखार भी है. पैरों में सूजन भी आ गई है. मैं ने बहुत मना किया पर फिर भी जिद कर के दवा लेने चली गई. अभी आ जाएगी.’’

‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘डाक्टर को डर है कि कहीं किडनी फेल्योर का केस न हो,’’ कह कर वे रोने लगीं. सुनीता ने उठ कर उन्हें गले से लगा लिया और सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, ऐसा कुछ नहीं होगा. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘सुनीताजी, डाक्टर ने कुछ टैस्ट करवाए हैं. कल तक रिपोर्ट आ जाएगी,’’ सुगंधा ने बताया. इतने में मेघा आ गई. उस की मुसकान होंठों से गायब हो चुकी थी, रंग पीला पड़ गया था, आंखों के आसपास सूजन आ गई थी, वह बहुत कमजोर लग रही थी. सुनीता और महेश उसे देख कर सन्न रह गए. वे वहां ज्यादा देर न बैठ सके. चलते समय महेश ने मेघा के सिर पर हाथ रखा और सुगंधा से कहा, ‘‘बहनजी, कल हम आप के साथ रिपोर्ट लेने चलेंगे,’’ ऐसा कह कर वे दोनों अपने घर लौट आए. घर आ कर सुनीता सोफे पर ऐसी ढेर हुई कि काफी देर तक हिली ही नहीं. जब महेश ने उस से अंदर जा कर आराम करने को कहा तो वह अपनेआप को चलने में ही असमर्थ पा रही थी. महेश उसे सहारा दे कर अंदर ले गया, ‘‘परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा.’’ अगले दिन दोनों सुगंधा के साथ अस्पताल चले गए. उन पर पहाड़ टूट पड़ा जब डाक्टर ने बताया, ‘यह केस किडनी फेल्योर का है. अब मेघा को डायलिसिस पर रहना होगा जब तक डोनर किडनी नहीं मिल जाती.’ सुगंधा तो बेहोश हो कर गिर ही जाती अगर महेश ने उसे सहारा न दिया होता. उस ने उसे कुरसी पर बैठाया और पानी पिलाया, ‘‘हिम्मत रखिए सुगंधाजी, अगर आप ऐसे टूट जाएंगी तो मेघा को कौन संभालेगा? हम जल्दी मेघा के लिए डोनर ढूंढ़ लेंगे, आप चिंता न करें.’’

मेघा की बीमारी से दोनों परिवारों पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा. सुनीता तो अब ज्यादातर बीमार ही रहने लगी और अचानक एक दिन बेहोश हो कर गिर पड़ी. महेश अभी बैंक जाने के लिए तैयार ही हो रहा था कि धम्म की आवाज से रसोई में भागा तो देखा सुनीता नीचे फर्श पर बेहोश पड़ी हुई है. उस के हाथपैर फूलने लगे पर फिर हिम्मत कर के उस ने एंबुलैंस को फोन कर के बुलाया. इमरजैंसी में उसे भरती किया गया और सारे टैस्ट किए गए पर कुछ हासिल न हो सका. सुनीता हमेशा के लिए चली गई. डाक्टर ने जब कहा, ‘‘यह केस ब्रेन डैड का है, हम उन्हें बचा न पाए,’’ तो महेश धम्म से कुरसी पर गिर गया और सुनीता का चेहरा उस की आंखों के आगे घूमने लगा. पता नहीं वह कितनी देर वहीं पर उसी हाल में बैठा रहा कि अचानक वह फुरती से उठा और डाक्टर के पास जा कर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मैं सुनीता के और्गन डोनेट करना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि सुनीता की किडनी मेघा को लगा दी जाए.’’ डाक्टर ने फटाफट सारे टैस्ट करवाए और सुगंधा व मेघा को अस्पताल में बुला लिया. संयोग ऐसा था कि सुनीता की किडनी ठीक थी और वह मेघा के लिए हर लिहाज से ठीक बैठती थी. खून और टिश्यू सब मिल गए.औपरेशन के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘औपरेशन कामयाब रहा. बस, कुछ दिन मेघा को यहां अंडर औब्जर्वेशन रखेंगे और फिर वह घर जा कर अपनी जिंदगी सामान्य ढंग से जिएगी.’’

सुगंधा ने आगे बढ़ कर महेश के पांव पकड़ लिए और रोने लगीं. महेश ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, आप रोइए नहीं. बस, मेघा का खयाल रखिए.’’ घर आ कर सब क्रियाकर्म हो गया. बारीबारी से लोग आते रहे, अफसोस प्रकट कर के जाते रहे. अंत में महेश अकेला रह गया सुनीता की यादों के साथ. उस ने उठ कर सुनीता की फोटो पर हार चढ़ाया. अपने चश्मे को उतार कर अपनी आंखों को साफ करते हुए बोला, ‘‘देखा नीता, हमारी मुसकान को तो मैं बचा नहीं पाया, पर इस मुसकान को तुम ने बचा लिया.’’ जैसे ही महेश पलटा तो उस ने देखा कि उस के पीछे मेघा खड़ी थी और उसी ‘डिंपल वाली मुसकान के साथ जैसे कह रही हो कि आप अकेले नहीं हैं, यह ‘मुसकान’ है आप के साथ.

Hindi Story Collection : एक रिक्त कोना – क्यों वह शादी के बंधन से आजाद होना चाहती थी?

Hindi Story Collection :  कितने अकेलेपन में जी रहा था सुशांत. मां के लिए बरसों से उस का नन्हा मन तड़पा था. वही तड़प, वही दर्द, वही जमे आंसू आज शुभा के प्यार की हलकी सी आंच से पिघल कर आंखों से बाहर बह निकले. क्या शुभा सुशांत के मन का रिक्त कोना भर सकी? सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे:

‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?
‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे. आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरीचोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं. 5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता.

Hindi Moral Tales : घुटघुट कर क्यों जीना

Hindi Moral Tales :  मुझे यह तो पता था कि वे कभीकभार थोड़ीबहुत शराब पी लेते हैं, पर यह नहीं पता था कि उन का पीना इतना बढ़ जाएगा कि आज मेरे साथसाथ बच्चों को भी उन से नफरत होने लगेगी.

मैं ने उम्रभर जोकुछ सहा, जोकुछ किया, वह बस अपने बच्चों के लिए ही तो था, मगर मैं ने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि बड़े होने पर मेरे बच्चे ऐसे पिता को कैसे स्वीकारेंगे जो उन के लिए कभी एक आदर्श पिता बन ही नहीं पाए.

बात तब की है, जब मेरा घर कोलकाता में हुआ करता था. गरीब परिवार था. एक बहन और एक भाई थे, जिन के साथ बिताया बचपन बहुत ज्यादा यादगार था.

मुझे तालाब में गोते लगाने का बहुत शौक था. मैं पेड़ से आम तोड़ कर लाया करती थी. जिंदगी कितनी अच्छी थी उस वक्त. दिनभर बस खेलते ही रहना. स्कूल तो जाना होता नहीं था.

मम्मी ने उस वक्त यह कह कर स्कूल में दाखिला नहीं कराया था कि पढ़ाईलिखाई लड़कियों का काम नहीं है.

मैं 13 साल की थी, जब मम्मीपापा का बहुत बुरा झगड़ा हुआ था. मम्मी भाई को गोद में उठा कर अपने साथ ले गईं. कहां ले गईं, पापा ने नहीं बताया.

पापा के ऊपर अब मेरी और दीदी की जिम्मेदारी थी, वह जिम्मेदारी जिसे उठाने में न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, न फर्ज लगता था.

वे मुझे गांव की एक कोठी में ले गए और वहां झाड़ूपोंछे के काम में लगा दिया. मुझे वह काम ज्यादा अच्छे से तो नहीं आता था, पर मैं सीख गई. दीदी भी किसी दूसरी कोठी में काम करती थीं.

हम जहां काम करती थीं, वहीं रहती भी थीं इसलिए हमारा मिलना नहीं हो पाता था. मुझे घर की याद आती थी. कभीकभी मन करता था कि घर भाग जाऊं, लेकिन फिर खयाल आता कि अब वहां अपना है ही कौन.

मम्मी ने तो पहले ही अपनी छोटी औलाद के चलते या कहूं बेटा होने के चलते भाई को थाम लिया था.

मुझे उस कोठी में काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे जब बड़े साहब की बेटी दिल्ली से आई थीं. उन्होंने मुझे काम करते देखा तो साहब से कहा कि दिल्ली में अच्छी नौकरानियां नहीं मिलती हैं. इस लड़की को मुझे दे दो, अच्छा खिलापहना तो दूंगी ही.

बड़े साहब ने 2 मिनट नहीं लगाए और फैसला सुना दिया कि मैं अब शहर जाऊंगी.

मेरे मांबाप ने मुझे पार्वती नाम दिया था, शहर आ कर मेमसाहब ने मुझे पुष्पा नाम दे दिया. मुझे शहर में सब पुष्पा ही बुलाते थे. गांव में शहर के बारे में जैसा सुना था, यह बिलकुल वैसा ही था, बड़ीबड़ी सड़कें, मीनारों जैसी इमारतें, गाडि़यां और टीशर्ट पहनने वाली लड़कियां. सब पटरपटर इंगलिश बोलते थे वहां. कितनाकुछ था शहर में.

मेरी उम्र तब 17 साल थी. एक दिन जब मैं बरामदे में कपड़े सुखा रही थी, बगल वाले घर में काम करने वाली आंटी का बेटा मेमसाहब से पैसे मांगने आया था. वह देखने में सुंदर था, मेरी उम्र का ही था, गोराचिट्टा रंग और काले घने बाल.

मैं ने उस लड़के की तरफ देखा तो उस ने भी नजरें मेरी तरफ कर लीं. उस ने जिस तरह मुझे देखा था, उस तरह आज से पहले किसी और लड़के ने नहीं देखा था.

मेमसाहब के घर में सब बड़े मुझे बेटी की तरह मानते थे. उन के बच्चों की मैं ‘दीदी’ थी. घर में कोई मेहमान आता भी था तो मुझ जैसी नौकरानी पर किसी की नजर पड़ती भी तो क्यों? यह पहला लड़का था जिस का मुझे इस तरह देखना कुछ अलग सा लगा, अच्छा लगा.

अब वह रोज किसी न किसी बहाने यहां आया करता था. कभी आंटी को खाना देने, कभी कुछ सामान लेने या देने, कभी पैसे लौटाने और कभी तो अपने भाईबहनों की शिकायत ले कर. मैं उसे रोज देखा करती थी, कभीकभार तो मुसकरा भी दिया करती थी.

एक दिन मैं गेट के बाहर निकल कर झाड़ू लगा रही थी. तब वह लड़का मेरे पास आया और मुझ से मेरा नाम पूछा.

मैं ने उसे अपना नाम पुष्पा बताया. मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने अपना नाम पवन बताया.

‘हमारे नाम ‘प’ अक्षर से शुरू होते हैं,’ मुझे तो यही सोच कर मन ही मन खुशी होने लगी. उस ने मुझ से कहा कि उसे मैं पसंद हूं. मैं ने भी बताया कि मुझे भी वह अच्छा लगता है.

अब पवन अकसर मुझ से मिलने आया करता था. एक दिन जब वह आया तो साथ में एक अंगूठी भी लाया. वह सोने की अंगूठी थी. मेरी तो हवाइयां उड़ गईं. मेरे पास हर महीने मिलने वाली तनख्वाह के पैसों से खरीदी हुई एक सोने की अंगूठी थी और कान के कुंडल भी थे, लेकिन आज तक मेरे लिए इतना महंगा तोहफा कोई नहीं लाया था, कोई भी नहीं.

वैसे भी अपना कहने वाला मेरे पास था ही कौन? मेरी आंखों में आंसू थे. मैं रो पड़ी, तो उस ने मुझे गले से लगा लिया. मन हुआ कि बस इसी तरह, इसी तरह अपनी पूरी जिंदगी इन बांहों में गुजार दूं.

मैं ने पवन से शादी करने का मन बना लिया था. मेमसाहब को सब बताया तो वे भी बहुत खुश हुईं. मैं ने और पवन ने मंदिर में शादी कर ली. अब पवन मेरा सिर्फ प्यार नहीं थे, पति बन चुके थे.

हमारी शादी में उन का पूरा परिवार आया था और मेरे पास परिवार के नाम पर कोई नहीं था. मेमसाहब भी नहीं आई थीं. हां, उन्होंने कुछ तोहफे जरूर भिजवाए थे.

शादी को 2 हफ्ते ही बीते थे कि एक दिन पवन खूब शराब पी कर घर आए. उन की हालत सीधे खड़े होने की भी नहीं थी.

‘आप ने शराब पी है?’

‘हां.’

‘आप शराब कब से पीने लगे?’

‘हमेशा से.’

‘आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

‘चुप हो जा… सिर मत खा. चल, अलग हट,’ कहते हुए पवन ने मुझे इतनी तेज धक्का दिया कि मैं जमीन पर जा कर गिरी. मेरी चूडि़यां टूट कर हाथ में धंस गईं.

मैं पूरी रात नहीं सो पाई. शराब पीने के बाद इनसान इनसान नहीं रहता है, यह मैं बखूबी जानती थी.

मैं ने अगली सुबह पवन से बात नहीं की तो वे शाम को भी शराब पी कर घर आए. मैं ने पूछा नहीं, पर उन्होंने खुद ही कह दिया कि मेरी मुंह फुलाई शक्ल से मजबूर हो कर पी है.

अगले दिन वे मेरे लिए गजरा ले आए. मैं थोड़ा खुश भी हुई थी, पर वह खुशी शायद मेरी जिंदगी में ठहरने के लिए कभी आई ही नहीं.

4 दिन बाद ही अचानक पवन ने काम पर जाना छोड़ दिया. कहने लगे कि मालिक ड्राइविंग के नाम पर सामान उठवाता है तो मैं काम नहीं करूंगा. एक हफ्ते अपने मांबाप के आगे गिड़गिड़ा कर पैसे मांगे और जब पैसे खत्म हो गए तो शुरू हुई हमारी लड़ाइयां.

‘मेरे पास पैसे नहीं हैं,’ पवन ने मेरी ओर देखते हुए कहा.

‘अब तो मालकिन के दिए पैसे भी नहीं हैं मेरे पास,’ मैं ने जवाब दिया.

‘मैं खुद को बेच सकता तो बेच  देता, क्या करूं मैं…’ पवन की आंखों में आंसू थे.

‘घर खर्च के लिए पैसे नहीं हैं तो क्या हुआ, मम्मीपापा दे देंगे हमें.’

‘बात वह नहीं है,’ पवन ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘फिर क्या बात है?’ मैं ने हैरानी  से पूछा.

‘वह… वह… मैं ने जुआ खेला है.’

‘जुआ…’ मैं तकरीबन चीख पड़ी.

‘हां, 10,000 रुपए हार गया मैं… कर्जदार आते ही होंगे. मुझे माफ कर दे पुष्पा, मुझे माफ कर दे. आज के बाद न मैं शराब पीऊंगा, न जुआ खेलूंगा, तेरी कसम.’

‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ मैं ने बेबस हो कर कहा.

‘तुम्हारे कुंडल और अंगूठी तो हैं.’

एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं, लेकिन हैं तो वे मेरे पति ही, उन का कहा मैं कैसे झुठला सकती हूं. आखिर अब सिर पर परेशानी आई है तो बोझ भी तो दोनों को उठाना है. साथ भी तो दोनों को ही निभाना है.

मैं ने जिस खुशी से अपने कानों में वे कुंडल और उंगलियों में वे अंगूठियां पहनी थीं, उतने ही दुख से उन्हें उतार कर पवन के सामने रख दिया.

वे सुबह के घर से निकले थे, शाम को आए तो हाथ में मिठाई के 2 डब्बे थे. चाल डगमगाई हुई थी और मुंह से शराब की बू आ रही थी…

उस दिन पवन से जो मेरा विश्वास टूटा, वह शायद फिर कभी जुड़ नहीं पाया. मैं उन से कहती भी तो क्या… करती भी तो क्या… मेरी सुनने वाला था ही कौन.

शादी को 11 साल ही हुए थे और नमन और मीनू 10 और 8 साल के हो गए थे. पवन ने एक बार फिर काम करना शुरू तो कर दिया था, पर जो कमाते शराब और जुए में लुटा आते. मेरे हाथ में पैसों के नाम पर चंद रुपए आते जो बच्चों के लिए दूध लाने में निकल जाते.

मेरी सास कोठियों में बरतन मांजने का काम करती ही थीं, तो मैं ने सोचा कि मैं भी फिर यही काम करने लग जाती हूं. दोनों बच्चे स्कूल जाते और मैं काम पर. जिंदगी पवन के साथ कैसे बीत रही थी, यह तो नहीं पता, पर कैसे कट रही थी, यह अच्छी तरह पता था.

पवन के पिता ने अपनी गांव की जमीन बेच कर हमें दिल्ली में एक घर दिला दिया था. मैं ने काम करना भी छोड़ दिया. पवन ने पीना तो नहीं छोड़ा, पर कम जरूर कर दिया था. बच्चे भी नई जगह और नए माहौल में ढल गए थे.

हमारा गली के कोने में ही एक घर था. उस घर में रहने वाले मर्द कब पवन के दोस्त बन गए, पता नहीं चला. वे पवन के दोस्त बने तो उन की पत्नी मेरी दोस्त और उन के व हमारे बच्चे आपस में दोस्त बन गए.

वे लोग कुछ समय पहले तक बड़े गरीब थे. पर हाल के 2 सालों में उन के घर अच्छा खानापीना होने लगा. झुग्गी जैसा दिखने वाला घर अब मकान बन चुका था. वहीं दूसरी ओर पता नहीं क्यों, पर मेरे घर के हालात बिगड़ने लगे थे. पवन घर के खर्च में कटौती करने लगे थे. उन के और मेरे संबंध तो सामान्य थे, पर कुछ तो था जो अटपटा था.

एक दिन मैं गली की ही अपनी एक सहेली कमल की मम्मी के साथ बैठ कर मटर छील रही थी. हम दोनों यों ही अपनी बातों में लगी हुई थीं.

‘नमन की मम्मी, एक बात थी जो मैं कई दिनों से तुम्हें बताने के बारे में सोच रही हूं,’ कमल की मम्मी ने झिझकते हुए कहा.

‘हांहां, बोलो न, क्या हुआ?’

‘वह… मैं ने नमन के पापा को …वे उन के दोस्त हैं न जो कोने वाले घर में रहते हैं, वहां एक दिन पीछे से रात में जाते हुए देखा था.’

‘हां, तो किसी काम से गए होंगे.’

‘वह तो पता नहीं, पर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा. तुम अपनी हो तो सोचा बता दूं.’

मैं ने कमल की मम्मी की बातों पर विश्वास तो नहीं किया, पर वह बात मेरे दिमाग से निकल भी नहीं रही थी.

एक हफ्ता बीत गया, पर मुझे कुछ गड़बड़ नहीं लगी और पवन से सामने से कुछ भी पूछना मुझे सही नहीं लगा. आखिर पवन जैसे भी थे, बेवफा नहीं थे, धोखेबाज नहीं थे. वे मुझे इतना प्यार करते थे, मैं सपने में भी ऐसा कुछ नहीं सोच सकती थी.

अगली सुबह घर से निकलते वक्त पवन ने कहा कि वे रात को घर नहीं आएंगे, काम ज्यादा है औफिस में ही रुकेंगे.

रात के 2 बज रहे थे. बच्चे पलंग पर मेरे साथ ही सो रहे थे. मेरे मन में पता नहीं क्या आया, मैं उठी और मेरे पैर अपनेआप ही उस घर की तरफ मुड़ गए, जहां हमारे वे पड़ोसी रहते थे.

मैं घबराई, डर लग रहा था, पर मन में बारबार यही था कि जो मेरे दिमाग में है, वह बस सच न हो.

मैं ने उस घर के बाहर जा कर दरवाजा खटखटाया. अंदर से कुछ आवाज आई, पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. मैं आगे वाले दरवाजे पर गई, फिर दरवाजा खटखटाया. इस बार दरवाजा खुल गया.

अंदर से वह औरत नाइटी पहने आई. उस के पति भी उस के साथ थे. मेरी जान में जान आ गई. जो मैं सोच रही थी, वह सच नहीं था.

‘क्या हुआ नमन की मम्मी, इतनी रात गए आप यहां? सब ठीक तो है न?’

‘हां, वह नमन के पापा घर पर नहीं थे. जरा उन्हें फोन कर के पूछ लीजिए, मुझे संतुष्टि हो जाएगी.’

‘जी, अभी करता हूं फोन,’ उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा.

उन्होेंने फोन मिलाया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. फोन की घंटी की आवाज पिछले कमरे से आ रही थी. वे वहीं थे.

मैं तेजी से उस कमरे की तरफ गई. पवन अधनंगे मेरे सामने खड़े थे. मेरी आंखों से आंसू फूट पड़े. मेरी दुनिया उस एक पल में रुक सी गई.

‘यह क्या धंधा लगा रखा है यहां… यह है आप का काम… यहां जा रही है आप की सारी कमाई… यह है आप की ऐयाशी…’

मेरी हालत उस पल में क्या थी, यह तो शायद ही मैं बयां कर पाऊं, लेकिन जवाब में पवन ने जो कहा, वह सुन कर मुझ में बचाखुचा जो आत्मसम्मान था, जो जान थी, सब मिट्टी में मिल गए.

‘इस में गलत क्या है? तुझ में बचा ही क्या है. तुझे जाना है तो सामान बांध कर निकल जा मेरे घर से,’ पवन कपड़े पहनते हुए बोले.

मैं वहां से निकल गई. घर आई तो खुद पर अपने वजूद पर शर्म आई. मन तो किया कि सब छोड़छाड़ कर भाग जाऊं कहीं, मर जाऊं कहीं जा कर. पर बच्चों की शक्ल आंखों के सामने आ गई. उन्हें छोड़ कर मर गई तो वह कुलटा मेरे बच्चों को खा कर अपने बच्चों का पेट पालेगी. नहीं, मैं नहीं मरूंगी, मैं नहीं हारूंगी.

अगले दिन पवन घर आए तो न मैं ने उन से बात की और न उन्होंने. उन्हें खाना बना कर दिया जरूर, लेकिन वैसे ही जैसे घर की नौकरानी देती है.

अगले ही दिन जा कर मैं फिर से अपने काम पर लग गई. उस औरत का चक्कर तो पवन के मम्मीपापा के कानों तक पहुंचा तो उन्होंने छुड़वा दिया, लेकिन इस से मुझे क्या फर्क पड़ा,

पता नहीं.

शायद, मैं बहुत खुश थी क्योंकि पति तो आखिर पति ही है, वह चाहे कुछ भी करे. रिश्ते यों ही खत्म तो नहीं हो सकते न.

पवन ने मुझे से माफी मांगी तो मैं ने उन्हें कुछ दिनों में माफ भी कर दिया. जिंदगी पटरी पर तो आ गई थी, पर टूटी और चरमराई पटरी पर…

नमन और मीनू दोनों अब 22 साल और 24 साल के हैं. उन की मां आज भी कोठी मैं बरतन मांजती है. सिर के ऊपर अपनी छत नहीं है, क्योंकि बाप तो पहले ही उसे बेच कर खा गया. दोनों ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, यहांवहां से पैसे कमाकमा कर.

पवन की तो खुद की नौकरी का कोई ठिकाना तक नहीं है, कभी पी कर चले जाते हैं तो धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं. जिस उम्र में लोगों के बच्चे कालेज में पढ़ाई करते हैं, मेरे बच्चों को नौकरी करनी पड़ रही है. यह दुख मुझे खोखला करता है, हर दिन, हर पल.

हां, लेकिन मेरे बच्चे पढ़ेलिखे हैं. मेरा बेटा शराब या जुए का आदी नहीं है और न ही मेरी बेटी को कभी अपनी जिंदगी में किसी के घर में जूठे बरतन मांजने पड़ेंगे. वह मेरी तरह कभी रोएगी नहीं, घुटेगी नहीं उस तरह जिस तरह मैं घुटघुट कर जी हूं.

पवन एक जिम्मेदार बाप नहीं बन सके, मैं शायद जिम्मेदार मां बन गई. पवन से बैर करूं भी तो क्या, उन्होंने मुझे नमन और मीनू दिए हैं, जिस के लिए मैं उन की हमेशा एहसानमंद रहूंगी, लेकिन जिस जिंदगी के ख्वाब मैं देखा करती थी, वह हाथ तो आई, पर कभी मुंह न लगी.

‘‘सुन लिया तू ने. अब मैं सो जाऊं?’’

‘‘बस, एक सवाल और है.’’

‘‘पूछ…’’

‘‘आप ने जिंदगीभर इतना कुछ क्यों सहा? पापा को छोड़ क्यों नहीं दिया? मैं आप की जगह होती तो शायद ऐसे इनसान के साथ कभी न रहती.’’

‘‘मैं 12 साल की थी तो दुनिया से बहुत डरती थी, लेकिन ऐसे दिखाती थी कि चाहे शेर भी आ जाए तो मैं शेरनी बन कर उस से लड़ बैठूंगी. पर मैं अंदर ही अंदर बहुत डरती थी. तेरे पापा इस दुनिया के पहले इनसान थे जिन्होंने मेरे डर को जाना था.

‘‘जब मैं ने उन्हें जाना तो लगा कि इस भीड़ में कोई अपना मिल गया है. उन की आंखों में मेरे लिए जो प्यार था, वह कहीं और नहीं था.

‘‘जब मेरे सपने बिखरे, जब उन्होंने मुझे धोखा दिया, जब उन्होंने मुझे अनचाहा महसूस कराया, तो मैं फिर अकेली हो गई, डर गई थी मैं.

‘‘कभीकभी तो लगता था घुटघुट कर जीना है तो जीया ही क्यों जाए, पर जब तुम दोनों के चेहरे देखती तो लगता था, जैसे तुम ही हो मेरी हिम्मत और अगर मैं टूट गई तो तुम्हें कैसे संभालूंगी.

‘‘तुम दोनों मुझ से छिन जाते या मेरे बिना तुम्हें कुछ हो जाता, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती थी. तो बस जिंदगी जैसी थी, उसे अपना लिया मैं ने.’’

Latest Hindi Stories : ताजपोशी

Latest Hindi Stories : मम्मी की मृत्यु के बाद पिताजी बहुत अकेले हो गए थे, रचिता के साथ राहुल मेरठ पहुंचा, तेरहवीं के बाद बच्चों का स्कूल और अपने बैंक आदि की बात कह कर जाने की जुगत भिड़ाने लगा.

‘‘पापा, आप भी हमारे साथ इंदौर चलें,’’ रचिता ने कह तो दिया किंतु उस का दिल आधा था, इंदौर में उन का 3 कमरों का फ्लैट था, उस में पापा को भी रखना एक समस्या थी.

‘‘मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा,’’ पापा ने जब अपना अंतिम फैसला सुनाया तो उन की जान में जान आई.

‘‘लेकिन पापा तो अस्वस्थ हैं, वे अकेले कैसे रहेंगे?’’ रचिता के प्रश्न ने राहुल को कुछ सोचने पर विवश कर दिया. उसे ननिहाल की रजनी मौसी की याद आई जो विधवा थीं, उन की एक लड़की थी किंतु ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया, भाईभावज ने भी खोजखबर न ली तो अपने परिश्रम से मजदूरी कर के अपना और अपनी बच्ची का पेट पालने लगी.

राहुल ने ननिहाल में एक फोन किया और 2 दिन के अंदर रजनी मौसी मय पुत्री मेरठ हाजिर हो गईं, कृशकाय, अंदर को धंसी आंखों वाली रजनी मौसी के चेहरे पर नौकरी मिल जाने का नूर चमक रहा था, वे लगभग 40 वर्ष की मेहनतकश स्त्री थीं, बोलीं, ‘‘मैं आप की मां को दीदी कहा करती थी, रिश्ते में आप की मौसी हूं, इस घर को अपना मानूंगी और जीजाजी की सेवा में आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘आप चायनाश्ता बनाएंगी, खाना, दवा, देखभाल आप करेंगी, महरी बाकी झाड़ूपोछा, बरतन कर ही लेगी, पगार कितनी लेंगी?’’ रचिता ने पूछा.

‘‘मौसी भी कह रही हैं और पगार पूछ कर शर्मिंदा भी कर रही हैं. हम मांबेटी को खानेरहने का ठौर मिल गया और क्या चाहिए. जो आप की इच्छा हो दे दीजिएगा.’’

रचिता चुप हो गई, बात जितने कम में तय हो उतना अच्छा, राहुल के चेहरे पर भी संतोष था. उस का कर्तव्य था पापा की सेवा करना किंतु वह असमर्थ था, अब कोई मामूली रकम में उस कर्तव्य की भरपाई कर रहा था. पापा गमगीन थे. एक तो पत्नी का शोक, ऊपर से बेटाबहू, बच्चे सब जा रहे थे.

रचिता ने धीरे से राहुल के कान में कहा, ‘‘मम्मी की अलमारी में साडि़यां, जेवर व दूसरे कीमती सामान रखें हैं, पापा अब अकेले हैं. घर में बाहर के लोग भी रहेंगे. सो हमें उस की चाबी ले लेनी चाहिए.’’

‘‘पापा, अलमारी की चाबी कभी नहीं देंगे. अचानक तुम्हें जेवर, कपड़ों की चिंता क्यों होने लगी, धैर्य रखो, सब तुम्हें ही मिलेगा,’’ राहुल मुसकरा कर बोला.

बीचबीच में आने की बात कह कर राहुल, रचिता इंदौर रवाना हो गए, इंदौर में भी वे पापा, घर, अलमारी, बैंक के रुपयों, प्रौपर्टी की बातें करते रहते, उन्हें चिंता होती. चिंताग्रस्त हो कर वे फिर मेरठ रवाना हो गए, लगभग डेढ़ महीने में यह उन की दूसरी यात्रा थी.

घर के बाहर लौन साफसुथरा था, सारे पौधों में पानी डाला गया था, कई नए पौधे भी लगाए गए थे, दरवाजा खुलने पर रजनी मौसी ने मुसकराते हुए स्वागत किया, ‘‘आइए, आप का, फोन मिला था.’’

कुछ ही देर में मिठाई, पानी लिए फिर हाजिर हुईं, पूरा घर साफसुथरा सुव्यवस्थित था, उस की लड़की ने चाय बनाने से पहले सूचित किया, ‘‘बड़े साहब सो रहे हैं.’’

रचिता ने मांबेटी का निरीक्षण किया. दोनों ने बढि़या कपड़े पहने थे, बाल भी सुंदर तरीके से सेट थे, रजनी ने चूडि़यों, टौप्स के साथ बिंदी वगैरह भी लगाई हुई थी.

‘‘तुम्हारी मौसी का तो कायाकल्प हो गया,’’ रचिता फुसफुसाई.

‘‘भूखे, नंगे को सबकुछ मिलने लगेगा तो कायाकल्प तो होगा ही,’’ राहुल ने मुंह बना कर कहा.

दोनों असंतुष्टों की तरह चाय पीते पापा के जगने का इंतजार करते रहे. पापा को देख कर उन्हें और आश्चर्य हुआ. वे पहले से अधिक स्वस्थ और ताजादम लग रहे थे. पहले के झुकेझुके से पापा अब सीधे तन कर चल रहे थे. मम्मी के जाने के बाद हंसना भूल गए पापा ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘बड़ी जल्दी मिलने चले आए?’’

‘‘अब आप अकेले हो गए हैं तो हम ने सोचा…’’

‘‘अकेले कहां, रजनी है, उस की लड़की सरला है, उस को यहीं इंटर कालेज में डाल दिया है, शाम को एक घंटा पढ़ा दिया करता हूं, तेज है.’’

पापा सरला का गुणगान करते रहे फिर उसे पढ़ाने बैठ गए. रजनी मौसी सब के चाय, नाश्ते के बाद रात के खाने में जुट गईं. सबकुछ ठीक चल रहा था किंतु राहुल, रचिता असंतुष्ट मुखमुद्रा में बैठे थे. वे पापा के किसी काम नहीं आ पा रहे थे और अब उन को इन की कोई जरूरत भी नहीं रही.

रात को पापा सीरियल्स देखते हुए रजनी से उस के बारे में पूछताछ करते खूब हंसते रहे. सरला से पढ़ाई संबंधी बातें भी करते रहे, जीवन से निराश पापा को जीने की वजह मिल गई थी. रात में खाना खाते समय सब चुपचाप थे. खाना स्वादिष्ठ और मिर्चमसालेरहित था. रजनी मौसी एकएक गरम रोटी इसरार से खिलाती रहीं, अंत में खीर परोसी गई. पापा संतुष्ट एवं खुश थे. राहुल, रचिता संदेहास्पद दृष्टि से रजनी को घूर रहे थे. रात में टीवी कार्यक्रम की चर्चा रजनी और सरला से करते पापा कई बार बेटेबहू की उपस्थिति ही भूल गए, नातीपोतों का हालचाल भी नहीं पूछा. रात में सोते समय राहुल बोला, ‘‘यदि हम उसी समय अपने साथ पापा को ले चलते तो आज वे इस तरह मांबेटी में इनवौल्व न होते.’’

‘‘अरे, यहां क्या बुरा है, स्वस्थ हट्टेकट्टे हैं, खुश हैं, वहां 3 कमरों के डब्बे में कहां एडजस्ट करते इन्हें,’’ रचिता बोली.

‘‘तुम मूर्ख हो. तुम से बहस करना बेकार है. अब मामला हमारे हाथ से निकल रहा है. मुझे ही बात आगे बढ़ानी होगी.’’

‘‘बात क्या बढ़ाओगे?’’

‘‘अरे, तुम ही न कहती थीं इस बंगले को बेच कर इंदौर में अपने फ्लैट के ऊपर एक शानदार फ्लैट बनाओगी और बाकी रुपया बच्चों के नाम फिक्स कर दोगी?’’

‘‘हां, हां, लेकिन अब यह कहां संभव है?’’

‘‘अब पापा दिनप्रतिदिन स्वस्थ होते जा रहे हैं, उन की मृत्यु की प्रतीक्षा में तो हमारी उम्र बीत जाएगी, उन्हें इंदौर ले चलते हैं.’’

‘‘जैसा तुम उचित समझो, मैं एडजस्ट कर लूंगी,’’ रचिता बोली. उसे सास की अलमारी की भी चिंता थी जिस में कीमती गहने और अन्य महंगे सामान थे. उसे उन्हें देखनेभालने की प्रचुर इच्छा थी किंतु सासूमां के रहते इच्छा पूरी नहीं हुई और अब भी स्थितियां प्रतिकूल हो रही थीं.

अगले दिन दोनों ने रजनी मौसी का सेवाभाव देखा, नाश्ता, खाना, पापा के सारे कपड़े, बैडशीट, तौलिया आदि धोना, पापा के पूरे शरीर और सिर की जैतून की तेल से घंटेभर मालिश करना. उस दौरान पापा के चेहरे पर अपरिमित सुखशांति छाई रहती थी. तुरंत गुनगुने पानी से स्नान जिस में मौसी पूरी मदद करतीं. फिर उन का हलका नाश्ता करना यानी चपाती, सब्जी, ताजा मट्ठा आदि. किंतु रजनी मौसी ने राहुलरचिता के लिए अलग से देशी घी का हलवा और पोहा बनाया था, सब ने मजे ले कर खाया.

राहुल समझ गया था कि पापा के स्वास्थ्य में निरंतर सुधार का कारण क्या है, वह उन की इतनी सेवा कभी कर ही नहीं सकता था तब भी हिम्मत जुटा कर उस ने शब्दों द्वारा पापा को बांधने का प्रयास किया, ‘‘पापा, आप यहां कब तक दूसरों की दया पर निर्भर रहेंगे, हमारे साथ इंदौर चलिए, वहां नातीपोतों का साथ मिलेगा, सब साथ रहेंगे.’’

‘‘मैं किसी की दया पर निर्भर नहीं हूं. रजनी काम करती है, उस का पैसा देता हूं. वहां तुम्हारा घर छोटा है, तुम लोग मुश्किल में पड़ जाओगे.’’

‘‘इसीलिए तो अपने फ्लैट के ऊपर एक और वैसा ही फ्लैट बनवाना चाहता हूं,’’ राहुल ने कहा.

‘‘बिलकुल बनवाओ,’’ पापा ने कहा.

‘‘इस बंगले को बेच कर जो रकम मिलती उसी से फ्लैट बनवाता यदि आप हम लोगों के साथ चल कर रहते.’’

‘‘मैं अपने जीतेजी यह बंगला नहीं बेचूंगा. तुम लोन ले कर अपने बलबूते पर फ्लैट बनवाओ. आखिर बैंक औफिसर हो, अच्छा कमाते हो?’’

‘‘लेकिन 2 घरों की देखभाल…’’

‘‘उस की चिंता तुम मत करो?’’

एक आशा खत्म होने पर राहुल व्यग्र हो गया, ‘‘कम से कम अलमारी की चाबी ही दे दीजिए, रचिता अपने साथ मम्मी के गहने और जेवर ले जाना चाहती है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी के पास कपड़ों, गहनों का अभाव तो नहीं है, कम से कम मेरे मरने की प्रतीक्षा करो.’’

राहुल, रचिता मायूस हो कर इंदौर लौट आए. रास्ते में रचिता बोली, ‘‘पापा कहीं रजनी मौसी से प्रेम का चक्कर तो नहीं चला रहे?’’

राहुल को रचिता की बातें स्तरहीन लगीं किंतु वह चुप रहा, अगली बार वे बच्चों सहित जल्दी ही मेरठ पहुंचे. वहां रजनी को मां की साड़ी और गले में सोने की जंजीर पहने देख उन्हें शक हुआ. अच्छे खानपान से शरीर भर गया था. वे सुंदर लग रही थीं, उन की लड़की अच्छी शिक्षादीक्षा के कारण संभ्रांत और सुरुचिपूर्ण लग रही थी.

‘‘आप में बड़ा परिवर्तन आया है रजनी मौसी?’’ राहुल बोला. उस वक्त पापा वहां न थे.

‘‘कैसा परिवर्तन, वैसी ही तो हूं,’’ रजनी ने विनम्रता से कहा.

‘‘आप कामवाली कम, घरवाली ज्यादा लग रही हैं.’’

‘‘ऐसा कह कर पाप का भागी न बनाएं, हम तो मालिक की सेवा में प्राणपण एक किए रहते हैं. सो, कभीकभी इनाम मिल जाता है,’’ रजनी मौसी ने उन के घृणास्पद आक्षेप को भी अपनी विनम्रता से ढकने का प्रयास किया,

राहुलरचिता के ईर्ष्या, संदेह से दग्ध हृदय को तनिक राहत मिली, किंतु पापा राहुल की स्वार्थपूर्ण योजनाओं, प्रौपर्टी, धन, संपत्ति की बातों से चिढ़ गए. बोले, ‘‘बेटा, बाप की मृत्यु के बाद ही तो बेटे की ताजपोशी होती है. तू तो मेरे जीतेजी ही व्यग्र हुआ जा रहा है.’’

राहुल कैसे कहता जीर्णशीर्ण, कुम्हलाए पापा को रजनी मौसी अपने परिश्रम से दिनोंदिन स्वस्थ, प्रसन्न करती जा रही हैं. सो, दूरदूर तक उन की मृत्यु के आसार नजर नहीं आ रहे थे और उस के गाड़ीवाड़ी, बैंक बैलेंस आदि के सपने धराशायी हो गए थे. पापा के जीवित रहते ही उन्हें हथियाना चाह रहा था तो पापा के अडि़यल रवैये से वह सब संभव नहीं लग रहा था. रात के खाने के बाद साधारण बातचीत ने झगड़े का रूप ले लिया. राहुल अपनी असलियत पर उतर आया, बोला, ‘‘पापा, कहीं आप दूसरी शादी के चक्कर में तो नहीं हैं? यदि ऐसा है तो इस से शर्मनाक कुछ हो ही नहीं सकता.’’

पापा की बोलती बंद हो गई. वे हक्केबक्के इकलौते पुत्र का मुंह देखते रह गए लेकिन फिर जल्दी ही संभल गए, बोले, ‘‘आज तुझे अपना पुत्र कहते लज्जा का अनुभव होता है. एक निस्वार्थ स्त्री, जिस ने तेरे मरते हुए बाप को आराम और सुख के दो पल दिए, उसे तू ने गाली दी. साथ ही, अपने जन्मदाता को शर्मसार किया. मैं तुझे एक पल यहां बरदाश्त नहीं कर सकता. सुबह होते ही अपने परिवार सहित यहां से कूच कर जाओ. ऐसे पुत्र से तो निसंतान होना बेहतर है.’’

पापा के रुख को देख कर राहुल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. अगले ही दिन वे इंदौर लौट गए. फिर 1 वर्ष तक उस ने मेरठ का रुख नहीं किया. रजनी मौसी स्वयं फोन कर के पापा की खबर देती रहती थीं.

एक दिन पता चला, पापा बाथरूम में गिर गए हैं और उन के कूल्हे की हड्डी टूट गई है. राहुल एक दिन के लिए आया अवश्य किंतु कूल्हे की हड्डी के औपरेशन के कारण उन्हें हाई डोज एनीस्थीसिया दी गई थी, सो पापा से भेंट नहीं हुई. औपरेशन के बाद राहुल अगले ही दिन लौट आया, उस का एक वकील मित्र था मनमोहन, उस ने और रजनी मौसी ने बढ़चढ़ कर पापा की सेवा की इसलिए राहुल निश्ंिचत भी था. चूंकि मनमोहन पापा की प्रौपर्टी और धन की देखभाल करता था इसलिए राहुल उस से संपर्क बनाए रखता था.

पापा फिर बिस्तर से उठ नहीं पाए. वे बिस्तर के हो कर रह गए थे. रजनी, मनमोहन ने राहुल, रचिता को आने के लिए कहा किंतु उन्होंने बच्चों की परीक्षा और अन्य व्यस्तताओं का बहाना बनाया. अंत में उन्हें पापा की मृत्यु का समाचार मिला और राहुल, पत्नी व बच्चों सहित तुरंत मेरठ पहुंच गया.

वहां पिता के निस्पंद शरीर को देख कर उस की आंखों में आंसू नहीं आए. लोग रजनी मौसी की बहुत प्रशंसा कर रहे थे कि उस ने जितनी पापा की सेवा की वह घर का सदस्य नहीं कर सकता था. किंतु राहुल कुछ सुन नहीं रहा था. एक अजीब सा भाव उस के मनमस्तिष्क और शरीर में छाया था, गुरुत्तर भाव, सबकुछ मेरा. मैं इस घर, खेतखलिहान, बैंकबैलेंस सब का मालिक. मेरे ऊपर कोई नहीं, जो इच्छा हो, करो. कोई डांटडपट, आदेश, अवज्ञा नहीं. राहुल को लगा कि वह सिंहासन पर बैठा है और उस की ताजपोशी हो रही है. यह एहसास नया नहीं था, एक पीढ़ी के गुजर जाने के बाद दूसरी पीढ़ी के ‘बड़े’ को यह ‘सत्तासुख’ हमेशा ही ऐसा आनंदित करता है. तब बच्चे बुजुर्गों की मृत्यु से दुख नहीं वरन संतोष का अनुभव करते हैं. अचानक उस की वक्रदृष्टि रजनी मौसी पर पड़ी, उस ने धीरे किंतु विषपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘तेरहवीं के बाद तुम मांबेटी को मैं एक क्षण यहां नहीं देखना चाहता.’’

इस तरह पिता की मृत देह की उपस्थिति में उस ने रजनी मौसी, जिस ने उस के और रचिता के कर्तव्यों का बखूबी निर्वाह किया था, का पत्ता काट दिया. मनमोहन ने कुछ बोलने का प्रयास किया किंतु उस ने इशारों से उसे चुप करा दिया. वह अंतिम संस्कार के पूर्व किसी प्रकार का ‘तमाशा’ नहीं चाहता था, रजनी चुपचाप रोती रहीं.

अंतिम संस्कार के बाद राहुल की महत्ता जैसे और बढ़ गई. पिता को मुखाग्नि दे कर वह समाज के संभ्रांत लोगों के बीच बैठा दीनदुनिया की बातें करता रहा. उन के जाते ही उस के भीतर शांत बैठा परिवार का मुखिया फिर जाग गया. वह मनमोहन से पिता की संपत्ति का ब्यौरा लेने लगा और रजनी मौसी को अगले ही दिन जाने का आदेश सुना दिया. मनमोहन ने उसे समझाया, ‘‘राहुल, रुक जाओ, तेरहवीं तो हो जाने दो.’’

‘‘बिलकुल नहीं, तुम्हें नहीं पता इस स्त्री के कारण ही मेरे पिता मुझ से दूर हो गए, मुझे अंतिम समय कुछ न कर पाने का पितृकर्ज चढ़ गया.’’

‘‘किंतु रजनी मौसी ने अथक परिश्रम तो किया. तो कम से कम तेरहवीं की रस्म…’’

‘‘कैसी तेरहवीं? उस के लिए हम फिर आएंगे, इतनी लंबी छुट्टी न मुझे मिलेगी न बच्चों को स्कूल से, पर उस के पूर्व मैं घर लौक कर के जाऊंगा, लौकर से गहने निकलवा लूंगा, रुपए अपने खाते में ट्रांसफर करवा लूंगा, घर, अलमारी के कीमती सामान ठिकाने लगा दूंगा.’’

‘‘किंतु तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

‘‘अच्छा, भला कौन रोकेगा मुझे?’’

‘‘तुम्हारे पिता की वसीयत. उन्होंने तेरहवीं के दिन मुझ से वसीयत पढ़ने को कहा था. किंतु तुम्हारी जल्दबाजी के कारण आज ही मुझे तुम को बताना है कि यह घर वे रजनी मौसी के नाम कर गए हैं, बैंक के रुपयों का 50 प्रतिशत वे किसी अनाथाश्रम को दे कर गए हैं और बाकी 50 प्रतिशत तुम्हारे बच्चों के नाम कर गए हैं जो उन्हें बालिग होने पर मिलेगा. अलमारी और लौकर के जेवर वे तुम्हारी पत्नी को दे कर गए हैं.’’

राहुल के पैरों तले जमीन खिसक गई, वह विस्मय से मुंह खोले मनमोहन को ताकता रहा.

‘‘स्त्रीपुरुष का केवल एक ही रिश्ता नहीं होता, तुम ने उन पर, एक वृद्ध व्यक्ति पर चरित्रहीनता का आक्षेप लगा कर अंतिम समय में उन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया जिस का तुम्हें पश्चात्ताप करना होगा,’’ मनमोहन ने अपनी वाणी को विराम दिया और उसे हिकारत से देखते हुए चला गया, सिसकसिसक कर रोती रजनी के सामने आंखें उठाने की हिम्मत नहीं रह गई थी राहुल में, वह वैसे ही सिर झुकाए बैठा रह गया.

Hindi Kahaniyan : किराएदार

Hindi Kahaniyan : ‘‘बस, यों समझो कि मकान जो खाली पड़ा था, तुम ने किराए पर उठा दिया है,’’ डाक्टर उसे समझा रही थी, लेकिन उस की समझ से कहीं ऊपर की थीं डाक्टर की बातें, सो वह हैरानी से डाक्टर का चेहरा देखने लगी थी.

‘‘और तुम्हें मिल जाएगा 3 या 4 लाख रुपया. क्यों, ठीक है न इतनी रकम?’’

वह टकटकी लगाए देखती रही, कुछ कहना चाहती थी पर कह न सकी, केवल होंठ फड़फड़ा कर रह गए.

‘‘हां, बोलो, कम लगता है? चलो, पूरे 5 लाख रुपए दिलवा दूंगी, बस. आओ, अब जरा तुम्हारा चैकअप कर लूं.’’

खिलाखिला चेहरा और कसी देहयष्टि. और क्या चाहिए था डा. रेणु को. उसे उम्मीद के मुताबिक सफलता दिखाई देने लगी.

अस्पताल से घर तक का रास्ता तकरीबन 1 घंटे का रहा होगा. पर यह फासला उस के कदमों ने कब और कैसे नाप लिया, पता ही न चला. वह तो रास्तेभर सपने ही देखती आई. सपना, कि पक्का घर हो जहां आंधीतूफानवर्षा में घोंसले में दुबके चूजों की तरह उस का दिल कांपे न. सपना, कि जब बेटी सयानी हो तो अच्छे घरवर के अनुरूप उस का हाथ तंग न रहे. सपना, कि उस के मर्द का भी कोई स्थायी रोजगार हो, दिहाड़ी का क्या ठिकाना? कभी हां, कभी ना के बीच दिखाई देते कमानेखाने के लाले न पड़ें.

भीतर कदम रखते ही देसी शराब का भभका बसंती के नथुनों से टकराया तो दिमाग चकरा गया, ‘‘आज फिर चढ़ा ली है क्या? तुम्हें तो बहाना मिलना चाहिए, कभी काम मिलने की खुशी तो कभी काम न मिलने का गम.’’

‘‘कहां से आ रही है छम्मकछल्लो, हुंह? और तेरी ये…तेरी मुट्ठी में क्या भिंचा है, री?’’

एकबारगी उस ने मुट्ठी कसी और फिर ढीली छोड़ दी. नोट जमीन पर फैल गए. चंदू ऐसे लपका जैसे भूखा भेडि़या.

‘‘हजारहजार के नोट? 1,2,3,4 और यह 5…यानी 5 हजार रुपए? कहां से ले आई? कहां टांका फिट करा के आ रही है?’’

उस ने गहरी नजरों से बसंती को नीचे से ऊपर तक निहारा. फिर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल. तू बताती है कि मैं बताऊं, कहां से आई इतनी रकम?’’

‘‘डाक्टरनी मैडम ने दिए हैं.’’

‘‘क्या, क्या? पगला समझा है क्या? डाक्टर लोग तो रुपए लेते हैं, देने कब से लगे, री? तू मुझे बना रही है…मुझे? ये झूठी कहानी कोई और सुन सकता है, मैं नहीं. मुझे तो पहले ही शक था कि कोई न कोई चक्कर जरूर चला रखा है तू ने. कहीं वह लंबू ठेकेदार तो नहीं?’’

उस ने एक ही सांस में पूरी बोतल गटक ली, ‘‘मैं नहीं छोड़ूंगा. तुझे भी और उसे भी. किसी को नहीं,’’ कहते- कहते वह लड़खड़ा कर सुधबुध खो बैठा.

पूरी रात उधेड़बुन में बीती. बसंती सोचती रही कि वह किस दोराहे पर आ खड़ी हुई है. एक तरफ उस का देहधर्म है तो दूसरी ओर पूरे परिवार का सुनहरा भविष्य. और इन दोनों के बीच उस का दिल रहरह कर धड़क उठता कि आखिर कैसे वह किसी अनजान चीज को अपने भीतर प्रवेश होने देगी? पराए बीज को अपनी धरती में सिंचित करना. और फिर फसल बेगानों को सौंप देना. समय आने पर घर कर चुके किराएदार को अपने हाड़मांस से विलग कर सकेगी? अपने और पराए का फर्क क्या उस की कोख को स्वीकार्य होगा? अनुत्तरित प्रश्नों से लड़तीझगड़ती बसंती ने अपने और चंदू के बीच दीवार बना दी. सुरूर में जबजब चंदू ने कोशिश की तो तकिया ही हाथ आया. बसंती भावनाओं में बह कर सुनहरे सपनों को चकनाचूर नहीं होने देना चाहती थी. अलगाव की उम्र भी बरसभर से कम कहां होगी?

अपने मर्द के साथ बसंती ने डा. रेणु के क्लीनिक में प्रवेश किया तो डा. रेणु का चेहरा खिल उठा. डाक्टर ने परिचय कराया, ‘‘दिस इज बसंती…योर बेबीज सेरोगेट,’’ और फिर बसंती से मुखातिब हो कहने लगी, ‘‘ये ही वे ब्राउन दंपती हैं जिन्हें तुम दोगी हंसताखेलता बच्चा. तुम्हारी कोख से पैदा होने वाले बच्चे के कानूनी तौर पर मातापिता ये ही होंगे.’’

डाक्टर, बसंती के आगे सारी बातें खोल देना चाहती थी, ‘‘बच्चे से तुम्हारा रिश्ता जन्म देने तक रहेगा. बच्चा पैदा होने से अगले 3 महीने तक यानी अब से पूरे 1 साल तक का बाकायदा ऐग्रीमैंट होगा. जिस में ये सभी शर्तें दर्ज होंगीं. तुम्हारी हर जरूरत का खयाल ये रखेंगे और इन की जरूरत की हिफाजत तुम्हें करनी होगी. अपने से ज्यादा बच्चे की हिफाजत. समझ गईं न? कोई लापरवाही नहीं. सोनेजागने से खानेपीने तक मेरे परामर्श में अब तुम्हें रहना है और समयसमय पर चैकअप के लिए आना होगा. जरूरत पड़ी तो अस्पताल में ही रहना होगा.’’

डाक्टर की हर बात पर बसंती का सिर हिलाना चंदू को कुछ जंचा नहीं. वह बुदबुदाया, ‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल,’ और वह उठ खड़ा हुआ, ‘‘ये सब नहीं होगा, कहे देते हैं. इतने में तो बिलकुल नहीं, हां. यह तो सरासर गिरवी रखना हुआ न. तिस पर वो क्या कहा आप ने, हां किराएदार. पूरे एक बरस दीवार बन कर नहीं खड़ा रहेगा हम दोनों के बीच? आखिर कितना नुकसान होगा हमें, हमारे प्यार को, सोचा आप ने? इतने में नहीं, बिलकुल भी नहीं. डबल लगेगा, डबल. हम कहे देते हैं, मंजूर हो तो बोलो. नहीं तो ये चले, उठ बसंती, उठ.’’

‘‘हो, हो, ह्वाट ही से, ह्वाट? टेल मी?’’ ब्राउन ने जानने की उत्कंठा जाहिर की. डाक्टर को खेल बिगड़ता सा लगा तो वह ब्राउन की ओर लपकी, ‘‘मनी, मनी, मोर मनी, दे वांटेड.’’

‘‘हाऊमच?’’

‘‘डबल, डबल मनी वांटेड.’’

‘‘ओके, ओके. टैन लैख, आई एग्री. नथिंग मोर फौर अ बेबी. यू नो डाक्टर, इट इज मच चीपर दैन अदर कंट्रीज. टैन, आई एग्री,’’ ब्राउन ने दोनों हाथों की दसों उंगलियां दिखाते हुए चंदू को समझाने की कोशिश की और कोट की जेब से 50 हजार रुपए की गड्डी निकाल कर मेज पर पटक दी.

शुरूशुरू में तो बसंती को जाने  कैसाकैसा लगता रहा. एक लिजलिजा एहसास हर समय बना रहता. मानो, कुछ ऐसा आ चिपका है भीतर, जिसे नोच फेंकने की इच्छा हर पल होती. लेकिन बिरवे ने जाने कब जड़ें जमानी शुरू कर दीं कि उसे पता ही नहीं चला. अब पराएपन का एहसास मानो जाता रहा. सबकुछ अपनाअपना सा लगने लगा. डाक्टर ने पुष्टि कर दी कि उस के बेटा ही होगा तब से उसे अपनेआप पर अधिक प्यार आने लगा था.

लेकिन कभीकभी रातें उसे डराने लगी थीं. वह सपनों से चौंकचौंक जाती कि दूर कहीं जो बच्चा रो रहा है, वह उस का अपना बच्चा है. बिलखते बच्चे को खोजती वह जंगल में निकल जाती, फिर पहाड़ और नदीनालों को लांघती सात समुंदर पार निकल जाती. फिर भी उसे बच्चा दिखाई नहीं देता. लेकिन बच्चे का रुदन उस का पीछा नहीं छोड़ता और अचानक उस की नींद खुल जाती. तब अपनेआप जैसे वह निर्णय कर बैठती कि नहीं, वह बच्चा किसी को नहीं देगी, किसी भी कीमत पर नहीं.

सचाई यही है कि वह बच्चे की मां है. बच्चे को जन्म उसी ने दिया है, बच्चे का बाप चाहे कोई हो. उस का मन उसे दलीलें देता है कि एक बच्चे को अपनी मां से कोई छीन ले, अलग कर दे, ऐसा कानून धरती के किसी देश और अदालत का नहीं हो सकता. लिहाजा, बच्चा उसी के पास रहेगा. यदि फिर भी कुछ ऐसावैसा हुआ तो वह बच्चे को ले कर छिप जाएगी. ऐसेवैसे जाने कैसेकैसे सच्चेझूठे विचार उस का पीछा नहीं छोड़ते. और वह पैंडुलम की तरह कभी बच्चा देने और कभी न देने के निर्णय के बीच झूलती रहती.

आज और कल करतेकरते आखिर वह उन घडि़यों से गुजरने लगी जब कोई औरत जिंदगी और मौत की देहरी पर होती है. तब जब कोई मां अपने होने वाले बच्चे के जीवन की अरदास करती है, दुआ मांगती है कि या तो उस का बच्चा उस से दूर न होने पाए या फिर बच्चा मरा हुआ ही पैदा हो ताकि उस के शरीर का अंश उसी के देश और धरती में रहे, दफन हो कर भी. उस के न होने का विलाप वह कर लेगी…लेकिन…लेकिन देशदुनिया की इतनी दूरी वह कदापि नहीं सह सकेगी कि उम्रभर उस का मुंह भी न देख सके.

बेहोश होतेहोते उस के कान इतना सुनने में समर्थ थे कि ‘केस सीरियस हो रहा है. मां और बच्चे में से किसी एक को ही बचाया जा सकेगा. औपरेशन करना होगा, अभी और तुरंत.’

उस की आंख खुली तो नर्स ने गुडमौर्निंग कहते हुए बताया कि 10 दिन की लंबी बेहोशी के बाद आज वह जागी है. नर्स ने ही बताया कि उस ने बहुत सुंदरसलोने बेटे को जन्म दिया है. चूंकि उस का सीजेरियन हुआ है इसलिए उसे अभी कई दिन और करवट नहीं लेनी है.

‘‘बच्चा कैसा दिखता है?’’ उस ने पूछा तो नर्स उसे इंजैक्शन देती हुई कहने लगी, ‘‘नीली आंखों और गोल चेहरे वाला वह बच्चा सब के लिए अजूबा बना रहा. डाक्टर कह रही थी कि बच्चे की आंखें बाप पर और चेहरा मां पर गया है.

इंजैक्शन का असर था कि उस की आंखें फिर मुंदने लगी थीं. उस ने पास पड़े पालने में अपने बच्चे को टटोलना चाहा तो उसे लगा कि पालना खाली है. पालने में पड़े कागज को उठा कर उस ने अपनी धुंधलाती आंखों के सामने किया. चैक पर 9 लाख 45 हजार रुपए की रकम दर्ज थी.

शिथिल होते उस के हाथ से फिसल कर चैक जमीन पर आ गिरा और निद्रा में डूबती उस की पलकों से दो आंसू ढलक गए.

Viji Venkatesh: A Pioneer in Cancer Care and Beyond

Viji Venkatesh, a healthcare advocate and actress, has been working in the field of cancer care for decades. Even at 71, her confidence and energy defy her age, making her an inspiring figure.

https://ytu.be/PzWEOwImUMo

Viji Venkatesh exemplifies that it’s never too late to chase new dreams while driving meaningful change. Her remarkable contributions made her the rightful winner of the Grihshobha Inspire Awards 2025 in the “New Beginnings” category. At 71, she continues to break barriers and achieve milestones relentlessly.

A Powerhouse in Healthcare and Acting

With over 37 years in patient advocacy, Viji has been a driving force in improving cancer care accessibility. As the Regional Head for India and South Asia at The Max Foundation, she played a pivotal role in ensuring life-saving treatments reached cancer patients in low- and middle-income countries. Her work has helped countless families navigate the challenges of cancer treatment.

Her Cancer Care Journey Began in 1987

Starting with grassroots fundraising, she visited Nariman Point’s corporate offices to Kalwa and Belapur’s mills, where workers earning ₹1,200 donated ₹25 to support the cause. She educated herself by reading cancer research books from the British Council Library and launched tobacco awareness campaigns and breast self-examination workshops for workers and their wives—addressing key cancer risk factors.

Her relentless efforts have since:

  • Provided life-saving therapies to over 60,000 cancer patients across South Asia.

  • Ensured treatment for 30,000+ chronic myeloid leukemia (CML) patients.

Remarkably, Viji had no personal experience with cancer, yet she felt compelled to contribute, raise funds, and spread awareness.

Age is Just a Number: Venturing into Acting

After dedicating three-and-a-half decades to cancer care, Viji stepped into acting. She made her cinematic debut in Akhil Sathyan’s “Pachuvum Albhuthavilakkum” (Pachu and the Magic Lamp), co-starring Fahadh Faasil.

Her Message to Women

At the Grihshobha Inspire Awards, when asked what advice she’d give women, she said:

“Listen to your heart. Do what you feel is right. Be fearless. You have the power to bring joy and help others—hold onto that strength. When opportunities come, don’t hesitate; seize them.”

She believes that awards and recognition events motivate women to achieve greatness. Celebrating women’s accomplishments publicly empowers them to move forward without fear.

Achievements

  • Lifetime Achievement Award by a Global Health Organization.

  • Honored by the International CML Foundation (iCMLf) for her contributions to cancer care in South Asia.

Viji Venkatesh is a true inspiration, proving that passion and purpose have no age limit.

Best Hindi Stories : टेढ़ा है पर मेरा है

Best Hindi Stories :  नेहा को सारी रात नींद नहीं आई. उस ने बराबर में गहरी नींद में सोए अनिल को न जाने कितनी बार निहारा. वह 2-3 चक्कर बच्चों के कमरे के भी काट आई थी. पूरी रात बेचैनी में काट दी कि कल से पता नहीं मन पर क्या बीतेगी. सुबह की फ्लाइट से नेहा की जेठानी मीना की छोटी बहन अंजलि आने वाली थी. नेहा के विवाह को 7 साल हो गए हैं. अभी तक उस ने अंजलि को नहीं देखा था. बस उस के बारे में सुना था.

नेहा के विवाह के 15 दिन बाद ही मीना ने ही हंसीहंसी में एक दिन नेहा को बताया था, ‘‘अनिल तो दीवाना था अंजलि का. अगर अंजलि अपने कैरियर को इतनी गंभीरता से न लेती, तो आज तुम्हारी जगह अंजलि ही मेरी देवरानी होती. उसे दिल्ली में एक अच्छी जौब का औफर मिला तो वह प्यारमुहब्बत छोड़ कर दिल्ली चली गई. उस ने यहीं हमारे पास लखनऊ में रह कर ही तो एमबीए किया था. अंजलि शादी के बंधन में जल्दी नहीं बंधना चाहती थी. तब मांजी और बाबूजी ने तुम्हें पसंद किया… अनिल तो मान ही नहीं रहा था.’’

‘‘फिर ये विवाह के लिए कैसे तैयार हुए?’’ नेहा ने पूछा था.

‘‘जब अंजलि ने विवाह करने से मना कर दिया… मांजी के समझाने पर बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था.’’

नेहा चुपचाप अनिल की असफल प्रेमकहानी सुनती रही थी. रात को ही अंजलि का फोन आया था. उस का लखनऊ तबादला हो गया था. वह सीधे यहीं आ रही थी. नेहा जानती थी कि अंजलि ने अभी तक विवाह नहीं किया है.

मीना ने तो रात से ही चहकना शुरू कर दिया था, ‘‘अंजलि अब यहीं रहेगी, तो कितना मजा आएगा नेहा, तुम तो पहली बार मिलोगी उस से… देखना, कितनी स्मार्ट है मेरी बहन.’’

नेहा औपचारिकतावश मुसकराती रही. अनिल पर नजरें जमाए थी. लेकिन अंदाजा नहीं लगा पाई कि अनिल खुश है या नहीं. नेहा व अनिल और उन के 2 बच्चे यश और समृद्धि, जेठजेठानी व उन के बेटे सार्थक और वीर, सास सुभद्रादेवी और ससुर केशवचंद सब लखनऊ में एक ही घर में रहते थे और सब की आपस में अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. सब खुश थे, लेकिन अंजलि के आने की खबर से नेहा कुछ बेचैन थी. अंजलि सुबह अपने काम में लग गई. मीना बेहद खुश थी. बोली, ‘‘नेहा, आज अंजलि की पसंद का नाश्ता और खाना बना लेते हैं.’’

नेहा ने हां में सिर हिलाया. फिर दोनों किचन में व्यस्त हो गईं. टैक्सी गेट पर रुकी, तो मीना ने पति सुनील से कहा, ‘‘शायद अंजलि आ गई, आप थोड़ी देर बाद औफिस जाना.’’

‘‘मुझे आज कोई जल्दी नहीं है… भई, इकलौती साली साहिबा जो आ रही हैं,’’ सुनील हंसा.

अंजलि ने घर में प्रवेश कर सब का अभिवादन किया. मीना उस के गले लग गई. फिर नेहा से परिचय करवाया. अंजलि ने जिस तरह से उसे ऊपर से नीचे तक देखा वह नेहा को पसंद नहीं आया. फिर भी वह उस से खुशीखुशी मिली.

जब अंजलि सब से बातें कर रही थी, तो नेहा ने उस का जायजा लिया… सुंदर, स्मार्ट, पोनीटेल बनाए हुए, छोटा सा टौप और जींस पहने छरहरी अंजलि काफी आकर्षक थी. जब अनिल फ्रैश हो कर आया, तो अंजलि ने फौरन अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘हाय, कैसे हो?’’

अनिल ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसी हो?’’

‘‘कैसी लग रही हूं?’’

‘‘बिलकुल वैसी जैसे पहले थी.’’

नेहा के दिल को कुछ हुआ, लेकिन प्रत्यक्षतया सामान्य बनी रही. सुभद्रादेवी और केशवचंद उस से दिल्ली के हालचाल पूछते रहे. मीना व अंजलि के मातापिता मेरठ में रहते हैं. नेहा के मातापिता नहीं हैं. एक भाई है जो विदेश में रहता है.

नाश्ता हंसीमजाक के माहौल में हुआ. सब अंजलि की बातों का मजा ले रहे थे. बच्चे भी उस से चिपके हुए थे. यश और समृद्धि थोड़ी देर तो संकोच में रहे, फिर उस से हिलमिल गए. नेहा की बेचैनी बढ़ रही थी. तभी अंजलि ने कहा, ‘‘दीदी, अब मेरे लिए एक फ्लैट ढूंढ़ दो.’’

मीना ने कहा, ‘‘चुप कर, अब हमारे साथ ही रहेगी तू.’’

सुनील ने भी कहा, ‘‘अकेले कहीं रहने की क्या जरूरत है? यहीं रहो.’’

सुनील और अनिल अपनेअपने औफिस चले गए. केशवचंद पेपर पढ़ने लगे. सुभद्रादेवी तीनों से बातें करते हुए आराम से बाकी काम में मीना और नेहा का हाथ बंटाने लगीं.

नेहा को थोड़ा चुप देख कर अंजलि हंसते हुए बोली, ‘‘नेहा, क्या तुम हमेशा इतनी सीरियस रहती हो?’’

मीना ने कहा, ‘‘अरे नहीं, वह तुम से पहली बार मिली है… घुलनेमिलने में थोड़ा समय तो लगता ही है न…’’

अंजलि ने कहा, ‘‘फिर तो ठीक है वरना मैं ने तो सोचा अगर ऐसे ही सीरियस रहती होगी तो बेचारा अनिल तो बोर हो जाता होगा. वह तो बहुत हंसमुख है… दीदी, अनिल अब भी वैसा ही है शरारती, मस्तमौला या फिर कुछ बदल गया है? आज तो ज्यादा बात नहीं हो पाई.’’

मीना हंसी, ‘‘शाम को देख लेना.’’

नेहा मन ही मन बुझती जा रही थी. लंच के बाद अपने कमरे में थोड़ा आराम करने लेटी तो विवाह के शुरुआती दिन याद आ गए. अनिल काफी सीरियस रहता था, कभी हंसताबोलता नहीं था. चुपचाप अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर देता था. नवविवाहितों वाली कोई बात नेहा ने महसूस नहीं की थी. फिर जब मीना ने अनिल और अंजलि के बार में उसे बताया तो उस ने अपने दिल को मजबूत कर सब को प्यार और सम्मान दे कर सब के दिल में अपना स्थान बना लिया. अब कुल मिला कर उस की गृहस्थी सामान्य चल रही थी, तो अब अंजलि आ गई. नेहा यश और समृद्धि को होमवर्क करवा रही थी कि अंजलि उस के रूम में आ गई.

नेहा ने जबरदस्ती मुसकराते हुए उसे बैठने के लिए कहा, तो वह सीधे बैड पर लेट गई. बोली, ‘‘नेहा, अनिल कब तक आएगा?’’

‘‘7 बजे तक,’’ नेहा ने संयत स्वर में कहा.

‘‘उफ, अभी तो 1 घंटा बाकी है… बहुत बोर हो रही हूं.’’

‘‘चाय पीओगी?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘नहीं, अनिल को आने दो, उस के साथ ही पीऊंगी.’’

नेहा को अंजलि का अनिल के बारे में बात करने का ढंग अच्छा नहीं लग रहा था. लेकिन करती भी क्या.

कुछ कह नहीं सकती थी  अनिल आया, तो अंजलि चहक उठी फिर ड्राइंगरूम में सोफे पर अनिल के बराबर में बैठ कर ही चाय पी. घर के बाकी सभी सदस्य वहीं बैठे हुए थे. अंजलि ने पता नहीं कितनी पुरानी बातें छेड़ दी थीं.

नेहा का उतरा चेहरा देख कर अनिल ने पूछा, ‘‘नेहा, तबीयत तो ठीक है न? बड़ी सुस्त लग रही हो?’’

‘‘नहीं, ठीक हूं.’’

यह सुन कर अंजलि ने ठहाका लगाया. बोली, ‘‘वाह अनिल, तुम तो बहुत केयरिंग पति बन चुके हो… इतनी चिंता पत्नी की? वह दिन भूल गए जब मुझे जाता देख कर आंहें भर रहे थे?’’

यह सुन कर सभी घर वाले एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

तब मीना ने बात संभाली, ‘‘क्या कह रही हो अंजलि… कभी तो कुछ सोचसमझ कर बोला कर.’’

‘‘अरे दीदी, सच ही तो बोल रही हूं.’’

नेहा ने बड़ी मुश्किल से स्वयं को संभाला. दिल पर पत्थर रख कर मुसकराते हुए चायनाश्ते के बरतन समेटने लगी. सब थोड़ी देर और बातें कर के अपनेअपने काम में लग गए. डिनर के समय भी अंजलि अनिलअनिल करती रही और वह उस की हर बात का हंसतेमुसकराते जवाब देता रहा. अगले दिन अंजलि ने भी औफिस जौइन कर लिया. सब के औफिस जाने के बाद नेहा ने चैन की सांस ली कि अब कम से कम शाम तक तो वह मानसिक रूप से शांत रहेगी.

ऐसे ही समय बीतने लगा. सुबह सब औफिस निकल जाते. शाम को घर लौटने पर रात के सोने तक अंजलि अनिल के इर्दगिर्द ही मंडराती रहती. नेहा दिनबदिन तनाव का शिकार होती जा रही थी. अपनी मनोदशा किसी से शेयर भी नहीं कर पा रही थी. कुछ कह कर स्वयं को शक्की साबित नहीं करना चाहती थी. वह जानती थी कि उस ने अनिल के दिल में बड़ी मेहनत से अपनी जगह बनाई थी. लेकिन अब अंजलि की उच्छृंखलता बढ़ती ही जा रही थी. वह कभी अनिल के कंधे पर हाथ रखती, तो कभी उस का हाथ पकड़ कर कहीं चलने की जिद करती. लेकिन अनिल ने हमेशा टाला, यह भी नेहा ने नोट किया था. मगर अंजलि की हरकतों से उसे अपना सुखचैन खत्म होता नजर आ रहा था. क्या उस की घरगृहस्थी टूट जाएगी? क्या करेगी वह? घर में सब अंजलि की हरकतों को अभी बचपना है, कह कर टाल जाते.

नेहा अजीब सी घुटन का शिकार रहने लगी.

एक रात अनिल ने उस से पूछा, ‘‘नेहा, क्या बात है, आजकल परेशान दिख रही हो?’’

नेहा कुछ नहीं बोली. अनिल ने फिर कुछ नहीं पूछा तो नेहा की आंखें भर आईं, क्या अनिल को मेरी परेशानी की वजह का अंदाजा नहीं होगा? इतने संगदिल क्यों हैं अनिल? बच्चे तो नहीं हैं, जो मेरी मनोदशा समझ न आ रही हो… जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं. नेहा रात भर मन ही मन घुटती रही. बगल में अनिल गहरी नींद सो रहा था.

एक संडे सब साथ लंच कर के थोड़ी देर बातें कर के अपनेअपने रूम में आराम करने जाने लगे तो किचन से निकलते हुए नेहा के कदम ठिठक गए. अंजलि बहुत धीरे से अनिल से कह रही थी, ‘‘शाम को 7 बजे छत पर मिलना.’’

अनिल की कोई आवाज नहीं आई. थोड़ी देर बाद नेहा अपने रूम में आ गई. अनिल आराम करने लेट गया. फिर नेहा से बोला, ‘‘आओ, थोड़ी देर तुम भी लेट जाओ.’’

नेहा मन ही मन आगबबूला हो रही थी. अत: जानबूझ कर कहा, ‘‘बच्चों के लिए कुछ सामान लेना है… शाम को मार्केट चलेंगे?’’

‘‘आज नहीं, कल,’’ अनिल ने कहा.

नेहा ने चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘आज क्यों नहीं?’’

‘‘मेरा मार्केट जाने का मूड नहीं है… कुछ जरूरी काम है.’’

‘‘क्या जरूरी काम है?’’

‘‘अरे, तुम तो जिद करने लगती हो, अब मुझे आराम करने दो, तुम भी आराम करो.’’

नेहा को आग लग गई. सोचा, बता दे उसे पता है कि क्या जरूरी काम है… मगर चुप रही. आराम क्या करना था… बस थोड़ी देर करवटें बदल कर उठ गई और वहीं रूम में चेयर पर बैठ कर पता नहीं क्याक्या सोचती रही. 7 बजे की सोचसोच कर उसे चैन नहीं आ रहा था… क्या करे, क्या मांबाबूजी से बात करे, नहीं उन्हें क्यों परेशान करे, क्या कहेगी अंजलि अनिल से, अनिल क्या कहेंगे… उस से बातें करते हुए खुश तो बहुत दिखाई देते हैं.

7 बजे के आसपास नेहा जानबूझ कर बच्चों को पढ़ाने बैठ गई. मांबाबूजी पार्क में टहलने गए हुए थे. मीना और सुनील अपने रूम में थे. उन के बच्चे खेलने गए थे. तनाव की वजह से नेहा ने यश और समृद्धि को खेलने जाने से रोक लिया था. बच्चों में मन बहलाने का असफल प्रयास करते हुए उस ने देखा कि अनिल गुनगुनाते हुए बालों में कंघी कर रहा है. उस ने पूछा, ‘‘कहीं जा रहे हैं?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाल ठीक कर रहे हैं.’’

अनिल ने उसे चिढ़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘क्यों, कहीं जाना हो तभी बाल ठीक करते हैं?’’

‘‘आप हर बात का जवाब टेढ़ा क्यों देते हैं?’’

‘‘मैं हूं ही टेढ़ा… खुश? अब जाऊं?’’

नेहा की आंखें भर आईं, कुछ बोली नहीं. यश की नोटबुक देखने लगी. अनिल सीटी बजाता हुआ रूम से निकल गया.

5 मिनट बाद नेहा बच्चों से बोली, ‘‘अभी आई, तुम लोग यहीं रहना,’’ और कमरे से निकल गई. अनिल छत पर जा चुका था. उस ने भी सीढि़यां चढ़ कर छत के गेट से अपना कान लगा दिया. बिना आहट किए सांस रोके खड़ी रही.

तभी अंजलि की आवाज आई, ‘‘बड़ी देर लगा दी?’’

‘‘बोलो अंजलि, क्या बात करनी है?’’

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है?’’

नेहा को उन की बातचीत का 1-1 शब्द साफ सुनाई दे रहा था.

अनिल की गंभीर आवाज आई, ‘‘बात शुरू करो, अंजलि.’’

‘‘अनिल, यहां आने पर सब से ज्यादा खुश मैं इस बात पर थी कि तुम से मिल सकूंगी, लेकिन तुम्हें देख कर तो लगता है कि तुम मुझे भूल गए… मुझे तो उम्मीद थी मेरा कैरियर बनने तक तुम मेरा इंतजार करोगे, लेकिन तुम तो शादी कर के बीवीबच्चों के झंझट में पड़ गए. देखो, मैं ने अब तक शादी नहीं की, तुम्हारे अलावा कोई नहीं जंचा मुझे… क्या किसी तरह ऐसा नहीं हो सकता कि हम फिर साथ हो जाएं?’’

‘‘अंजलि, तुम आज भी पहले जैसी ही स्वार्थी हो. मैं मानता हूं नेहा से शादी मेरे लिए एक समझौता था, अपनी सारी भावनाएं तो तुम्हें सौंप चुका था… लगता था नेहा को कभी वह प्यार नहीं दे पाऊंगा, जो उस का हक है, लेकिन धीरेधीरे यह विश्वास भ्रम साबित हुआ. उस के प्यार और समर्पण ने मेरा मन जीत लिया. हमारे घर का कोनाकोना उस ने सुखशांति और आनंद से भर दिया. अब नेहा के बिना जीने की सोच भी नहीं सकता. जैसेजैसे वह मेरे पास आती गई, मेरी शिकायतें, गुस्सा, दर्द जो तुम्हारे लिए मेरे दिल में था, सब कुछ खत्म हो गया. अब मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. मैं नेहा के साथ बहुत खुश हूं.’’

गेट से कान लगाए नेहा को अनिल की आवाज में सुख और संतोष साफसाफ महसूस हुआ.

अनिल आगे कह रहा था, ‘‘तुम भाभी की बहन की हैसियत से तो यहां आराम से रह सकती हो लेकिन मुझ से किसी भी रिश्ते की गलतफहमी दिमाग में रख कर यहां मत रहना… मेरे खयाल में तुम्हारा यहां न रहना ही ठीक होगा… नेहा का मन तुम्हारी किसी हरकत पर आहत हो, यह मैं बरदाश्त नहीं करूंगा. अगर यहां रहना है तो अपनी सीमा में रहना…’’

इस के आगे नेहा को कुछ सुनने की जरूरत महसूस नहीं हुई. उसे अपना मन पंख जैसा हलका लगा. आंखों में नमी सी महसूस हुई. फिर वह तेजी से सीढि़यां उतरते हुए मन ही मन यह सोच कर मुसकराने लगी कि टेढ़ा है पर मेरा है.

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