Divorced Women: दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री सामंथा रूथ प्रभु की नागा चैतन्य से तलाक के बाद से ही आलोचना हो रही है. सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. एक ट्रोलर ने उन के चरित्र पर सवाल उठाते हुए सामंथा को तलाकशुदा, बरबाद सैकंड हैंड आइटम कह दिया.
हालांकि सामंथा की रिप्लाई के बाद ट्विटर यूजर ने अपनी खिंचाई होते देख कर अपने ट्वीट को डिलीट भी कर दिया.
कुछ इसी तरह की बात टीवी ऐक्टर काम्या पंजाबी के बारे में भी कही गई थी. तलाक के 7 साल बाद जब उन्होंने दूसरे रिश्ते में जुड़ने का फैसला लिया तब ट्रोल्स ने उन के होने वाले पति के साथ संवेदना जताते हुए पूछ लिया कि आखिर वे कैसे इस्तेमाल की हुई औरत के साथ खुश रह सकेंगे? मानो औरत न हुई, टूथब्रश हो गई जिसे एक बार किसी ने इस्तेमाल कर लिया तो फिर दूसरा कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता.
एक वैबसाइट है कोरा, जहां लोग सवाल पूछते हैं. सवाल खानेपकाने से ले कर कैंसर की दवाई की खुराक से ले कर औरतमर्द के रिश्ते पर भी डिस्कशन होती है. इसी कोरा वैबसाइट पर एक पति मासूम सा सवाल करते हैं. उन का सवाल था, ‘‘वैसे तो मेरी पत्नी बड़ी नेकदिल और हसीन है लेकिन जब भी मैं उस के करीब जाता हूं तो मु झे ‘सैकंड हैंड’ सी फीलिंग आती है. सोचता हूं कि मु झ से पहले भी उसे किसी पुरुष ने छुआ है. मैं इस सोच से छुटकारा कैसे पाऊं?’’
पुरुष बाहर भले ही कई महिलाओं से संबंध रख रहे हों या वे खुद तलाकशुदा हों, कोई बात नहीं लेकिन तलाकशुदा पत्नी से उन्हें ‘सैकंड हैंड’ की बू आती है.
नीचा दिखाने का प्रयास
हमारे समाज में एक तलाकशुदा पुरुष को उतने सवालों के जवाब नहीं देने पड़ते, जितने एक तलाकशुदा महिला को देने पड़ते हैं. अकसर औरतों में ही कमी निकाल कर उन्हें नीचा दिखाया जाता है, एहसास कराया जाता है कि कमी उन्हीं में है. तभी उन के पति ने छोड़ दिया. जबकि हर तलाक के पीछे कई कारण हो सकते हैं. जब एक औरत मां नहीं बन पाती है तब उसे बां झ कह कर पति तलाक दे देता है क्योंकि उसे लगता है कि कमी औरत में ही है. वही मां बनाने लायक नहीं. जब एक औरत की कोख से सिर्फ बेटियां पैदा होती हैं तब भी उस का पति उसे तलाक दे देता है.
ट्रिपल तलाक को ले कर कानून बनने के बाद भी महिलाएं इस दर्द से गुजर रही हैं. हुमा हाशिम के पति ने इसलिए उस पर थूका, लातें मारीं और तलाक दे दिया क्योंकि उस ने सिर्फ बेटियां ही पैदा की थीं. जैसे औरत इंसान न हो कर दुधारू गाय हो गई कि जब तक दूध दिया ठीक वरना कोई काम कि नहीं रह जाती है. यहां तक की सिंदूर न लगाने पर भी पति अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है.
जी हां, पिछले साल ही गुवाहाटी हाई कोर्ट ने एक विचित्र ही और्डर पास किया था. कोर्ट के जजमैंट के हिसाब से गुवाहाटी हाई कोर्ट ने तलाक के मामले में कहा कि अगर विवाहिता हिंदू रीतिरिवाज के अनुसार शंखा, चूडि़यां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है तो यह माना जाएगा कि विवाहिता को शादी अस्वीकार है. यह टिप्पणी हाई कोर्ट ने एक पति द्वारा दायर की गई तलाक की याचिका मंजूर करते हुए कही थी.
जस्टिस अजय लंबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया की डबल बैंच ने कहा कि इन परिस्थितियों में अगर पति को पत्नी के साथ रहने को मजबूर किया जाए तो यह उत्पीड़न माना जा सकता है. लेकिन हमारे समाज में शादीशुदा होने का मतलब है शादीशुदा दिखना. किसी महिला का सिंदूर, चूडि़यां और मंगलसूत्र न पहनना यह दर्शाता है कि वह शादी को ही नहीं मानती, कितना बेतुका है. जबकि हिंदू मैरिज ऐक्ट में कहीं सिंदूर या मंगलसूत्र का उल्लेख नहीं है. एक महिला क्या पहने और क्या न पहने, क्या उस की अपनी मरजी नहीं होनी चाहिए? यदि शादी के माने सिर्फ कौस्मैटिक है तो फिर तो यह अजीब ही है.
हमारे देश में पुरुषों की दोबारा शादी आसान पर महिलाओं की नहीं
2011 की जनगणना के मुताबिक, शादी के बाद सिंगल हुई स्त्रियों यानी विधवा और तलाकशुदा औरतों की संख्या विधुर और तलाकशुदा मर्दों की तुलना में लगभग दोगुनी है.ऐसे पुरुषों की संख्या 1 करोड़ 60 लाख है तो महिलाओं की 3 करोड़ 20 लाख. पत्नी की मृत्यु या तलाक हो जाने के बाद एक पुरुष को किन्हीं खास परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता. बिना किसी समस्या के वह दूसरा विवाह कर लेता है. लेकिन वहीं अपने पति से तलाक लेने के बाद एक महिला को सम्मान नहीं दिया जाता. बिना किसी सोचविचार के यह मान लिया जाता है कि तलाक होने के पीछे महिला ही जिम्मेदार है.
कुछ नारीवादी जन महिलाओं से सांत्वना रखने वाले लोग भले ही उन्हें न्याय दिलाने के पक्ष में हों लेकिन स्वीडन के वैज्ञानिकों का कहना है कि तलाक के पीछे केवल महिलाएं ही जिम्मेदार होती हैं.
स्वीडन स्थित कानोर्लिंस्का इंस्टिट्यूट के अनुसंधानकर्ताओं ने यह स्थापित किया था कि तलाक की वजह एक मादा जीन होता है. वैवाहिक जीवन कितना सफल और स्थायित्व लिए होगा यह केवल महिला के शरीर में छिपा जीन ही निर्धारित करता है. जीन यह भी बता सकता है कि कोई महिला अपने दांपत्य जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर सकती है या नहीं.
समझौते करने की आदत
डेली मेल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, जिन महिलाओं के सामान्य जीन में भिन्नता होती है वे दूसरे व्यक्ति के साथ आसानी से नहीं जुड़ पाती हैं. अगर ऐसी महिलाएं विवाह कर भी लें तो उन के दांपत्य जीवन के सामान्य होने की संभावना केवल 50 फीसदी ही होती है. ऐसी महिलाओं का अपने पति के साथ ज्यादा नहीं बनती.
अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि यह जीन महिलाओं की औक्सीटोसिन हारमोन के लिए संसाधन प्रक्रिया को प्रभावित करता है जो प्यार और मातृत्व संबंधी लगाव के एहसास को बढ़ाता है. महिलाओं में औक्सीटोसिन हारमोन का उत्पादन बच्चे के जन्म के समय होता है. लेकिन अगर इस हारमोन का उत्पादन पर्याप्त तरीके से न हो तो शायद वह महिला अपने पति, मित्र और तो और संतान के साथ भी सामान्य जुड़ाव नहीं रख पाती.
इस अध्ययन पर गौर करें तो यह उस स्थापना को झुठलाता प्रतीत होता है जिस के अनुसार, महिलाएं स्वभाव से भावुक और सहनशील होती हैं. इस के अलावा शोध ने उन के संबंध को बनाए रखने और सम झौते करने की आदत को भी नकारा है.
विदेशों में जहां संबंधों का टूटना एक नौर्मल बात है क्योंकि विवाह जैसे संबंध वहां कुछ खास महत्त्व नहीं रखते तो ऐसे में उन के टूटने में किस की कितनी भूमिका रही यह बात शायद कोई माने नहीं रखती. लेकिन भारतीय हालात वहां से पूरी तरह भिन्न हैं. यहां संबंध जुड़ना जितना महत्त्व रखता है, उस से कहीं ज्यादा दुख संबंधविच्छेद पर होता है.
लेकिन इस शोध ने पुरुषप्रधान समाज की परंपराओं को बहुत अच्छी तरह निभाया है. वैसे भी देश, समाज हर गलती के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहराता आया है. यहां तक कि अगर किसी लड़की का बलात्कार होता है तो दोषी बलात्कारी नहीं बल्कि लड़की की पोशाक का होता है, उस ने कपड़े ही ऐसे पहने थे तो लड़का क्या करता बेचारा.
और हमारे दिग्गज नेतागण जो सभ्यता, संस्कृति का ढोल पीटते नहीं थकते का कहना है कि जब बलात्कार रोक नहीं सकते तो लेटे रहो और उस का आनंद लो. ठीक उसी स्थिति में जिस में आप हो.
इस नेताजी के भद्दे बयान पर वहां बैठे लोग ठहाके लगा कर हंस पड़ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे द्रौपदी के चीर हरण के समय सभा में बैठे लोग हंस रहे थे. जिन से हम उम्मीद करते हैं कि विधानसभा में बैठ कर वे देश हित में अच्छे कानून लाएंगे. लेकिन अगर उन की ही ऐसी घटिया मानसिकता है तो यह देश के लिए दुर्भाग्य ही है.
दोषी महिला ही क्यों
हमारे समाज में हमेशा से एक महिला को जज किया जाता रहा है. तलाक के लिए भी उसे ही दोषी ठहराया जाता है कि उसे ही रिश्ता निभाना नहीं आया. महिला पर ही रिश्ते में सामंजस्य बनाए रखने में असमर्थ होने के दाग लगते हैं. अकसर लोगों को कहते सुना है कि शिक्षा ने महिलाओं का दिमाग खराब कर रखा है. देखो कितनी मुखर है, तभी तो पिछली शादी नहीं निभ पाई इस की.
लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती है. तलाक के मामले में जितनी गलती एक महिला की होती है उतनी ही गलती पुरुष की भी होती है. ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि जब दर्द हद पार कर जाता है तब ही एक महिला तलाक के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है.
तलाकशुदा महिला जब अपनी जिंदगी में फिर से शादी का रंग भरने की सोचती है तो समाज केवल उसे एक उपभोग की वस्तु की तरह देखता है. जैसे तलाक के पहले भी उसे किसी ने भोगा है और अब हमेशा उसे भोगा जाएगा. उसे सैकंड हैंड और क्षतिग्रस्त माल सम झा जाता है.मान लिया जाता है कि एक बार शादी होने और संबंध बनने के बाद महिला अपवित्र हो जाती है. लेकिन तलाकशुदा पुरुषों के लिए इस पितृसत्तात्मक समाज में अपवित्रता की अवधारणा नहीं है. समाज में पुरुषों का फिर से साथी चुनना सहज है.
जब एक तलाकशुदा महिला तलाक जैसे शब्द के दर्द को अपनी जिंदगी से बाहर निकालने के लिए घर से बाहर निकल कर काम करना चाहती है तो समाज उसे दोषी नजरों के साथसाथ उपभोग की वस्तु की नजरों से भी देखने लगता है कि देखो इसे घर में जिस्म की भूख नहीं मिट पा रही है तो बाहर निकल कर अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. क्या तलाक सिर्फ महिलाओं का ही होता है पुरुषों का नहीं? फिर उन्हें ही ऐसे तानोंउलाहनों से क्यों भेदा जाता है?
धर्म और रीतिरिवाज
हमारे देश में लड़की और शादी को इस तरह से जोड़ दिया गया है कि लड़की का जन्म ही शादी के लिए हुआ हो. शादी के पवित्रबंधन में बंध कर ही उस का जीवन सार्थक हो पाएगा. लड़कियों को बचपन से ही यह स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है कि पति के बिना एक महिला अधूरी, असहाय है.
परिवार, समाज उन्हें यही बताने की कोशिश करते हैं कि एक साथी के साथ जीनेमरने के अलावा महिला का अपना कोई अस्तित्व नहीं है. महिलाओं अपनी कोई वैकल्पिक दुनिया नहीं है. उन की पूरी दुनिया उन का घर, परिवार, बच्चे और पति ही है. सारे धर्म, संस्कार, रीतिरिवाज जैसे सिर्फ औरतों के लिए बनाए गए हैं.धर्म, रीतिरिवाज में उन्हें इस तरह से धकेल दिया गया है कि अब वे चाह कर भी उन से निकल नहीं पा रहीं.
पितृसत्तात्मक संरचना में एक तलाकशुदा और विधवा औरत को फिर से शादी करने की अनुमति नहीं है क्योंकि महिलाएं बच्चों की देखभाल कर सकती हैं, खाना बना सकती हैं, घर का ध्यान रख सकती हैं. एक महिला का अस्तित्व पति और परिवार की जरूरतों को पूरा करने के इर्दगिर्द ही सिमट कर रह जाता है.
तलाकशुदा और विधवा औरतों का दोबारा विवाह तभी संभव हो पाता है जब पहले पति से उस की कोई संतान न हो. लेकिन उन के लिए विकल्प के तौर पर वही पुरुष होते हैं जो या तो तलाकशुदा हों या उन के साथी की मौत हो चुकी हो. लेकिन पुरुषों के लिए शायद ही ऐसा होता है. उन्हें तो अनब्याही लड़की आराम से मिल जाती है. तलाकशुदा या विधवा औरत अकेली भी जीना चाहे तो उसे अभागिनी, कुलक्षणी, डायन घोषित कर दिया जाता है. एक महिला का तलाकशुदा या विधवा होना समाज में एक ‘सोशल स्टिग्मा’ है जो महिला के अस्तित्व को साथी की मौत होने या अलग होने के बाद ‘पति रहित या पति बिन’ की पहचान देता है.
आज भी भारत के कई हिस्सों में एक विधवा या तलाकशुदा महिला को रंगीन चटकमटक कपड़े पहनने पर टोका जाता है कि देखो तो इसे जरा भी शर्म नहीं आती ऐसे कपड़े पहन किसे दिखा रही है महारानी? बोल कर उसे अपने अनुसार जीने भी नहीं देते लोग. तीजत्योहार में भी ऐसी महिलाओं से दूरी बना कर रखी जाती है.
यही नहीं तलाकशुदा या विधवा औरतें अगर किसी पुरुष से हंसहंस कर बात भी करें तो परिवार और समाज उन पर चरित्रहीनता की मुहर लगा देता है और अगर भौंहें चढ़ा कर बात करें तो घमंडी कहलाती हैं. नौकरी करें तो कैरियर औबसैस्ड और अपने बच्चों की परवरिश के लिए गुजाराभत्ता की मांग करें तो लालची कहलाती हैं.
क्यों एक तलाकशुदा या विधवा औरतें समाज की नजरों में बेचारी बन कर रह जाती हैं? दया दिखा कर लोग उन के जीवन को बेरंग और खामोश बना देना चाहते हैं. कहने से बाज नहीं आते कि बेचारी अकेली औरत. कैसे जीएगी, क्या महिलाओं की खुशी का पैमाना पुरुष के साथ जीने में ही है? यहां लोग तलाकशुदा या विधवा औरतों के साथ सिंपैथी नहीं दिखाते बल्कि उन के जीवन को और संचित कर देते हैं.
डिवोर्सी का टैग
हमारे समाज में एक तलाकशुदा या विधवा औरत को वह सम्मान नहीं मिलता जो एक शादीशुदा औरत को मिलता है. तलाक के बाद एक औरत अपने मांबाप पर बो झ बन जाती है. डिवोर्सी का टैग उस के नाम से जुड़ जाता है. एक औरत हरसंभव अपनी शादी को बचाने की कोशिश करती है. वह शादी में खुश न हो तो भी. लेकिन परिवार व समाज फिर भी उसे ही दोषी सम झता है. लेकिन कोई यह जानने की कोशिश नहीं करता कि तलाक लेने की नौबत क्यों आन पड़ी? कोई तो बड़ी वजह होगी न वरना यों ही कोई रिश्ता नहीं तोड़ लेता.
बहुत सी औरतें घरेलू हिंसा सहने के बाद भी पति से इसलिए तलाक नहीं चाहतीं क्योंकि उन के पास इनकम का कोई स्रोत नहीं होता. बच्चे पालने, घर चलाने के लिए उन के पास पैसे नहीं होते. एक महिला का कहना है कि उस के 2 बच्चे हैं. पति ने चरित्रहीन बताते हुए तलाक का नोटिस भेज दिया. पति की एक प्रेमिका है और इसलिए वह पत्नी को तलाक देना चाहता है. लेकिन पत्नी तलाक नहीं चाहती क्योंकि उस के पास इनकम का कोई स्रोत नहीं है, बच्चों के भविष्य की सोच कर वह पति का जुल्म सहने को भी तैयार है पर तलाक देने को तैयार नहीं है.
‘और्गेनाइजेशन फौर इकौनोमिक कोऔरेशन ऐंड डैवलपमैंट’ के मुताबिक,1000 में से 13 शादियां तलाक पर खत्म हो रही हैं जोकि दुखद ही कहा जा सकता है,लेकिन जख्म जब पूरे शरीर में जहर बन कर फैलाने लगे और नौबत मरने की आ जाए तो अच्छा है कि उस अंग को ही काट कर फेंक दिया जाए.
पहले औरतों को इस कमतरी के एहसास से बचाने के कई तरीके खोजे गए. यहां तक कि मंडी में ले जा कर उन्हें बेचा जाने लगा ताकि वे बिकाऊ भले ही कहलाएं लेकिन पति की छोड़ी हुई नहीं. 16वीं सदी के ब्रिटेन में पत्नी से ऊबे हुए पति वाइफ सेलिंग मार्केट पहुंचते और बोलियां शुरू हो जातीं. जैसे भेड़बकरियों की मंडियां सजती हैं वैसे वहां हर शुक्रगवार को बीवियों
की भी खरीदफरोख्त होती थी. जितनी अच्छी त्वचा, जितना कसा हुआ बदन, नस्ल उतनी ही बढि़या मानी जाती थी और उस के ऊंचे दाम भी मिलते थे.
वाइफ सेलिंग की प्रथा
कई बार ऐसा भी होता कि किसी औरत का कोई खरीदार न मिल पाने पर ‘एक के साथ एक फ्री’ का औफर दिया जाता था. जैसे पत्नी के साथ शिकारी कुत्ता या घोड़ा मुफ्त देने का औफर होता था. तब बेकार पत्नियां भी हाथोंहाथ बिक जाती थीं. पत्नियों की बिक्री ब्रिटेन के अलावा और कई देशों में हुई. लेकिन 18वीं सदी के मध्य तक लोग इस प्रथा का विरोध करने लगे. बीवियां बेचने वाले शौहर पर पत्थर फेंके जाने लगे. बर्कशायर हिस्ट्री में इस का विस्तार से जिक्र है कि किस तरह से वाइफ सेलिंग की प्रथा का अंत हुआ.
फिर तलाक को कानूनी मान्यता मिली, जहां लोग दर्दभरे रिश्ते से निकल कर खुल कर सांस लेने लगे. ऐसा कानून भारत में भी आया. लेकिन यहां तलाकशुदा पत्नी के माने ‘सैकंड हैंड’ है. लोगों की सोच कि बासी चावल में नया पानी डाल देने से भात ताजा नहीं बन जाती. जो भी हो आज औरतें यही कर रही हैं.
पति से तलाक लेने के बाद घर में मुंह छिपा कर आंसू नहीं बहा रही हैं बल्कि बाहर निकल कर जीने का जश्न मना रही हैं. सामंथा ने ‘पुष्पा’ फिल्म में झूम कर नाचते हुए औरतों को यह संदेश दिया कि जिंदगी जीने का नाम है, घुटघुट कर मरने का नहीं.
दिव्या ने रितेश से प्रेम विवाह किया था. जब उस का रिश्ता शुरू हुआ था उस ने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि इस का अंत कुछ ऐसा होगा. जिस प्यार के लिए वह अपने परिवार तक से भिड़ गई थी वही एक दिन उसे इतनी तकलीफ देगा, सोचा तक न था. लेकिन अब वह उस रिश्ते को बहुत पीछे छोड़ कर आगे निकल चुकी है. उस का तलाक हो चुका है और वह सिंगल है. हालांकि वह सब इतना आसान नहीं था. लेकिन अब वह अपनी जिंदगी में आगे निकल चुकी है. दिव्या का कहना है कि वक्त अच्छा हो या बुरा, हमें कुछ न कुछ सिखा कर ही जाता है और उस ने भी अपने तलाक से बहुत कुछ सीखा.
तलाक के बाद सब से बड़ी सीख दिव्या को यह मिली कि किसी एक इंसान के नहीं होने से दुनिया खत्म नहीं हो जाती. Divorced Women