Divorced Women: सैकंड हैंड का टैग

Divorced Women: दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री सामंथा रूथ प्रभु की नागा चैतन्य से तलाक के बाद से ही आलोचना हो रही है. सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. एक ट्रोलर ने उन के चरित्र पर सवाल उठाते हुए सामंथा को तलाकशुदा, बरबाद सैकंड हैंड आइटम कह दिया.

हालांकि सामंथा की रिप्लाई के बाद ट्विटर यूजर ने अपनी खिंचाई होते देख कर अपने ट्वीट को डिलीट भी कर दिया.

कुछ इसी तरह की बात टीवी ऐक्टर काम्या पंजाबी के बारे में भी कही गई थी. तलाक के 7 साल बाद जब उन्होंने दूसरे रिश्ते में जुड़ने का फैसला लिया तब ट्रोल्स ने उन के होने वाले पति के साथ संवेदना जताते हुए पूछ लिया कि आखिर वे कैसे इस्तेमाल की हुई औरत के साथ खुश रह सकेंगे? मानो औरत न हुई, टूथब्रश हो गई जिसे एक बार किसी ने इस्तेमाल कर लिया तो फिर दूसरा कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता.

एक वैबसाइट है कोरा, जहां लोग सवाल पूछते हैं. सवाल खानेपकाने से ले कर कैंसर की दवाई की खुराक से ले कर औरतमर्द के रिश्ते पर भी डिस्कशन होती है. इसी कोरा वैबसाइट पर एक पति मासूम सा सवाल करते हैं. उन का सवाल था, ‘‘वैसे तो मेरी पत्नी बड़ी नेकदिल और हसीन है लेकिन जब भी मैं उस के करीब जाता हूं तो मु  झे ‘सैकंड हैंड’ सी फीलिंग आती है. सोचता हूं कि मु  झ से पहले भी उसे किसी पुरुष ने छुआ है. मैं इस सोच से छुटकारा कैसे पाऊं?’’

पुरुष बाहर भले ही कई महिलाओं से संबंध रख रहे हों या वे खुद तलाकशुदा हों, कोई बात नहीं लेकिन तलाकशुदा पत्नी से उन्हें ‘सैकंड हैंड’ की बू आती है.

नीचा दिखाने का प्रयास

हमारे समाज में एक तलाकशुदा पुरुष को उतने सवालों के जवाब नहीं देने पड़ते, जितने एक तलाकशुदा महिला को देने पड़ते हैं. अकसर औरतों में ही कमी निकाल कर उन्हें नीचा दिखाया जाता है, एहसास कराया जाता है कि कमी उन्हीं में है. तभी उन के पति ने छोड़ दिया. जबकि हर तलाक के पीछे कई कारण हो सकते हैं. जब एक औरत मां नहीं बन पाती है तब उसे बां  झ कह कर पति तलाक दे देता है क्योंकि उसे लगता है कि कमी औरत में ही है. वही मां बनाने लायक नहीं. जब एक औरत की कोख से सिर्फ बेटियां पैदा होती हैं तब भी उस का पति उसे तलाक दे देता है.

ट्रिपल तलाक को ले कर कानून बनने के बाद भी महिलाएं इस दर्द से गुजर रही हैं. हुमा हाशिम के पति ने इसलिए उस पर थूका, लातें मारीं और तलाक दे दिया क्योंकि उस ने सिर्फ बेटियां ही पैदा की थीं. जैसे औरत इंसान न हो कर दुधारू गाय हो गई कि जब तक दूध दिया ठीक वरना कोई काम कि नहीं रह जाती है. यहां तक की सिंदूर न लगाने पर भी पति अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है.

जी हां, पिछले साल ही गुवाहाटी हाई कोर्ट ने एक विचित्र ही और्डर पास किया था. कोर्ट के जजमैंट के हिसाब से गुवाहाटी हाई कोर्ट ने तलाक के मामले में कहा कि अगर विवाहिता हिंदू रीतिरिवाज के अनुसार शंखा, चूडि़यां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है तो यह माना जाएगा कि विवाहिता को शादी अस्वीकार है. यह टिप्पणी हाई कोर्ट ने एक पति द्वारा दायर की गई तलाक की याचिका मंजूर करते हुए कही थी.

जस्टिस अजय लंबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया की डबल बैंच ने कहा कि इन परिस्थितियों में अगर पति को पत्नी के साथ रहने को मजबूर किया जाए तो यह उत्पीड़न माना जा सकता है. लेकिन हमारे समाज में शादीशुदा होने का मतलब है शादीशुदा दिखना. किसी महिला का सिंदूर, चूडि़यां और मंगलसूत्र न पहनना यह दर्शाता है कि वह शादी को ही नहीं मानती, कितना बेतुका है. जबकि हिंदू मैरिज ऐक्ट में कहीं सिंदूर या मंगलसूत्र का उल्लेख नहीं है. एक महिला क्या पहने और क्या न पहने, क्या उस की अपनी मरजी नहीं होनी चाहिए? यदि शादी के माने सिर्फ कौस्मैटिक है तो फिर तो यह अजीब ही है.

हमारे देश में पुरुषों की दोबारा शादी आसान पर महिलाओं की नहीं

2011 की जनगणना के मुताबिक, शादी के बाद सिंगल हुई स्त्रियों यानी विधवा और तलाकशुदा औरतों की संख्या विधुर और तलाकशुदा मर्दों की तुलना में लगभग दोगुनी है.ऐसे पुरुषों की संख्या 1 करोड़ 60 लाख है तो महिलाओं की 3 करोड़ 20 लाख. पत्नी की मृत्यु या तलाक हो जाने के बाद एक पुरुष को किन्हीं खास परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता. बिना किसी समस्या के वह दूसरा विवाह कर लेता है. लेकिन वहीं अपने पति से तलाक लेने के बाद एक महिला को सम्मान नहीं दिया जाता. बिना किसी सोचविचार के यह मान लिया जाता है कि तलाक होने के पीछे महिला ही जिम्मेदार है.

कुछ नारीवादी जन महिलाओं से सांत्वना रखने वाले लोग भले ही उन्हें न्याय दिलाने के पक्ष में हों लेकिन स्वीडन के वैज्ञानिकों का कहना है कि तलाक के पीछे केवल महिलाएं ही जिम्मेदार होती हैं.

स्वीडन स्थित कानोर्लिंस्का इंस्टिट्यूट के अनुसंधानकर्ताओं ने यह स्थापित किया था कि तलाक की वजह एक मादा जीन होता है. वैवाहिक जीवन कितना सफल और स्थायित्व लिए होगा यह केवल महिला के शरीर में छिपा जीन ही निर्धारित करता है. जीन यह भी बता सकता है कि कोई महिला अपने दांपत्य जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर सकती है या नहीं.

समझौते करने की आदत

डेली मेल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, जिन महिलाओं के सामान्य जीन में भिन्नता होती है वे दूसरे व्यक्ति के साथ आसानी से नहीं जुड़ पाती हैं. अगर ऐसी महिलाएं विवाह कर भी लें तो उन के दांपत्य जीवन के सामान्य होने की संभावना केवल 50 फीसदी ही होती है. ऐसी महिलाओं का अपने पति के साथ ज्यादा नहीं बनती.

अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि यह जीन महिलाओं की औक्सीटोसिन हारमोन के लिए संसाधन प्रक्रिया को प्रभावित करता है जो प्यार और मातृत्व संबंधी लगाव के एहसास को बढ़ाता है. महिलाओं में औक्सीटोसिन हारमोन का उत्पादन बच्चे के जन्म के समय होता है. लेकिन अगर इस हारमोन का उत्पादन पर्याप्त तरीके से न हो तो शायद वह महिला अपने पति, मित्र और तो और संतान के साथ भी सामान्य जुड़ाव नहीं रख पाती.

इस अध्ययन पर गौर करें तो यह उस स्थापना को   झुठलाता प्रतीत होता है जिस के अनुसार, महिलाएं स्वभाव से भावुक और सहनशील होती हैं. इस के अलावा शोध ने उन के संबंध को बनाए रखने और सम  झौते करने की आदत को भी नकारा है.

विदेशों में जहां संबंधों का टूटना एक नौर्मल बात है क्योंकि विवाह जैसे संबंध वहां कुछ खास महत्त्व नहीं रखते तो ऐसे में उन के टूटने में किस की कितनी भूमिका रही यह बात शायद कोई माने नहीं रखती. लेकिन भारतीय हालात वहां से पूरी तरह भिन्न हैं. यहां संबंध जुड़ना जितना महत्त्व रखता है, उस से कहीं ज्यादा दुख संबंधविच्छेद पर होता है.

लेकिन इस शोध ने पुरुषप्रधान समाज की परंपराओं को बहुत अच्छी तरह निभाया है. वैसे भी देश, समाज हर गलती के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहराता आया है. यहां तक कि अगर किसी लड़की का बलात्कार होता है तो दोषी बलात्कारी नहीं बल्कि लड़की की पोशाक का होता है, उस ने कपड़े ही ऐसे पहने थे तो लड़का क्या करता बेचारा.

और हमारे दिग्गज नेतागण जो सभ्यता, संस्कृति का ढोल पीटते नहीं थकते का कहना है कि जब बलात्कार रोक नहीं सकते तो लेटे रहो और उस का आनंद लो. ठीक उसी स्थिति में जिस में आप हो.

इस नेताजी के भद्दे बयान पर वहां बैठे लोग ठहाके लगा कर हंस पड़ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे द्रौपदी के चीर हरण के समय सभा में बैठे लोग हंस रहे थे. जिन से हम उम्मीद करते हैं कि विधानसभा में बैठ कर वे देश हित में अच्छे कानून लाएंगे. लेकिन अगर उन की ही ऐसी घटिया मानसिकता है तो यह देश के लिए दुर्भाग्य ही है.

दोषी महिला ही क्यों

हमारे समाज में हमेशा से एक महिला को जज किया जाता रहा है. तलाक के लिए भी उसे ही दोषी ठहराया जाता है कि उसे ही रिश्ता निभाना नहीं आया. महिला पर ही रिश्ते में सामंजस्य बनाए रखने में असमर्थ होने के दाग लगते हैं. अकसर लोगों को कहते सुना है कि शिक्षा ने महिलाओं का दिमाग खराब कर रखा है. देखो कितनी मुखर है, तभी तो पिछली शादी नहीं निभ पाई इस की.

लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती है. तलाक के मामले में जितनी गलती एक महिला की होती है उतनी ही गलती पुरुष की भी होती है. ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि जब दर्द हद पार कर जाता है तब ही एक महिला तलाक के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है.

तलाकशुदा महिला जब अपनी जिंदगी में फिर से शादी का रंग भरने की सोचती है तो समाज केवल उसे एक उपभोग की वस्तु की तरह देखता है. जैसे तलाक के पहले भी उसे किसी ने भोगा है और अब हमेशा उसे भोगा जाएगा. उसे सैकंड हैंड और क्षतिग्रस्त माल सम  झा जाता है.मान लिया जाता है कि एक बार शादी होने और संबंध बनने के बाद महिला अपवित्र हो जाती है. लेकिन तलाकशुदा पुरुषों के लिए इस पितृसत्तात्मक समाज में अपवित्रता की अवधारणा नहीं है. समाज में पुरुषों का फिर से साथी चुनना सहज है.

जब एक तलाकशुदा महिला तलाक जैसे शब्द के दर्द को अपनी जिंदगी से बाहर निकालने के लिए घर से बाहर निकल कर काम करना चाहती है तो समाज उसे दोषी नजरों के साथसाथ उपभोग की वस्तु की नजरों से भी देखने लगता है कि देखो इसे घर में जिस्म की भूख नहीं मिट पा रही है तो बाहर निकल कर अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. क्या तलाक सिर्फ महिलाओं का ही होता है पुरुषों का नहीं? फिर उन्हें ही ऐसे तानोंउलाहनों से क्यों भेदा जाता है?

धर्म और रीतिरिवाज

हमारे देश में लड़की और शादी को इस तरह से जोड़ दिया गया है कि लड़की का जन्म ही शादी के लिए हुआ हो. शादी के पवित्रबंधन में बंध कर ही उस का जीवन सार्थक हो पाएगा. लड़कियों को बचपन से ही यह स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है कि पति के बिना एक महिला अधूरी, असहाय है.

परिवार, समाज उन्हें यही बताने की कोशिश करते हैं कि एक साथी के साथ जीनेमरने के अलावा महिला का अपना कोई अस्तित्व नहीं है. महिलाओं अपनी कोई वैकल्पिक दुनिया नहीं है. उन की पूरी दुनिया उन का घर, परिवार, बच्चे और पति ही है. सारे धर्म, संस्कार, रीतिरिवाज जैसे सिर्फ औरतों के लिए बनाए गए हैं.धर्म, रीतिरिवाज में उन्हें इस तरह से धकेल दिया गया है कि अब वे चाह कर भी उन से निकल नहीं पा रहीं.

पितृसत्तात्मक संरचना में एक तलाकशुदा और विधवा औरत को फिर से शादी करने की अनुमति नहीं है क्योंकि महिलाएं बच्चों की देखभाल कर सकती हैं, खाना बना सकती हैं, घर का ध्यान रख सकती हैं. एक महिला का अस्तित्व पति और परिवार की जरूरतों को पूरा करने के इर्दगिर्द ही सिमट कर रह जाता है.

तलाकशुदा और विधवा औरतों का दोबारा विवाह तभी संभव हो पाता है जब पहले पति से उस की कोई संतान न हो. लेकिन उन के लिए विकल्प के तौर पर वही पुरुष होते हैं जो या तो तलाकशुदा हों या उन के साथी की मौत हो चुकी हो. लेकिन पुरुषों के लिए शायद ही ऐसा होता है. उन्हें तो अनब्याही लड़की आराम से मिल जाती है. तलाकशुदा या विधवा औरत अकेली भी जीना चाहे तो उसे अभागिनी, कुलक्षणी, डायन घोषित कर दिया जाता है. एक महिला का तलाकशुदा या विधवा होना समाज में एक ‘सोशल स्टिग्मा’ है जो महिला के अस्तित्व को साथी की मौत होने या अलग होने के बाद ‘पति रहित या पति बिन’ की पहचान देता है.

आज भी भारत के कई हिस्सों में एक विधवा या तलाकशुदा महिला को रंगीन चटकमटक कपड़े पहनने पर टोका जाता है कि देखो तो इसे जरा भी शर्म नहीं आती ऐसे कपड़े पहन किसे दिखा रही है महारानी? बोल कर उसे अपने अनुसार जीने भी नहीं देते लोग. तीजत्योहार में भी ऐसी महिलाओं से दूरी बना कर रखी जाती है.

यही नहीं तलाकशुदा या विधवा औरतें अगर किसी पुरुष से हंसहंस कर बात भी करें तो परिवार और समाज उन पर चरित्रहीनता की मुहर लगा देता है और अगर भौंहें चढ़ा कर बात करें तो घमंडी कहलाती हैं. नौकरी करें तो कैरियर औबसैस्ड और अपने बच्चों की परवरिश के लिए गुजाराभत्ता की मांग करें तो लालची कहलाती हैं.

क्यों एक तलाकशुदा या विधवा औरतें समाज की नजरों में बेचारी बन कर रह जाती हैं? दया दिखा कर लोग उन के जीवन को बेरंग और खामोश बना देना चाहते हैं. कहने से बाज नहीं आते कि बेचारी अकेली औरत. कैसे जीएगी, क्या महिलाओं की खुशी का पैमाना पुरुष के साथ जीने में ही है? यहां लोग तलाकशुदा या विधवा औरतों के साथ सिंपैथी नहीं दिखाते बल्कि उन के जीवन को और संचित कर देते हैं.

डिवोर्सी का टैग

हमारे समाज में एक तलाकशुदा या विधवा औरत को वह सम्मान नहीं मिलता जो एक शादीशुदा औरत को मिलता है. तलाक के बाद एक औरत अपने मांबाप पर बो  झ बन जाती है. डिवोर्सी का टैग उस के नाम से जुड़ जाता है. एक औरत हरसंभव अपनी शादी को बचाने की कोशिश करती है. वह शादी में खुश न हो तो भी. लेकिन परिवार व समाज फिर भी उसे ही दोषी सम  झता है. लेकिन कोई यह जानने की कोशिश नहीं करता कि तलाक लेने की नौबत क्यों आन पड़ी? कोई तो बड़ी वजह होगी न वरना यों ही कोई रिश्ता नहीं तोड़ लेता.

बहुत सी औरतें घरेलू हिंसा सहने के बाद भी पति से इसलिए तलाक नहीं चाहतीं क्योंकि उन के पास इनकम का कोई स्रोत नहीं होता. बच्चे पालने, घर चलाने के लिए उन के पास पैसे नहीं होते. एक महिला का कहना है कि उस के 2 बच्चे हैं. पति ने चरित्रहीन बताते हुए तलाक का नोटिस भेज दिया. पति की एक प्रेमिका है और इसलिए वह पत्नी को तलाक देना चाहता है. लेकिन पत्नी तलाक नहीं चाहती क्योंकि उस के पास इनकम का कोई स्रोत नहीं है, बच्चों के भविष्य की सोच कर वह पति का जुल्म सहने को भी तैयार है पर तलाक देने को तैयार नहीं है.

‘और्गेनाइजेशन फौर इकौनोमिक कोऔरेशन ऐंड डैवलपमैंट’ के मुताबिक,1000 में से 13 शादियां तलाक पर खत्म हो रही हैं जोकि दुखद ही कहा जा सकता है,लेकिन जख्म जब पूरे शरीर में जहर बन कर फैलाने लगे और नौबत मरने की आ जाए तो अच्छा है कि उस अंग को ही काट कर फेंक दिया जाए.

पहले औरतों को इस कमतरी के एहसास से बचाने के कई तरीके खोजे गए. यहां तक कि मंडी में ले जा कर उन्हें बेचा जाने लगा ताकि वे बिकाऊ भले ही कहलाएं लेकिन पति की छोड़ी हुई नहीं. 16वीं सदी के ब्रिटेन में पत्नी से ऊबे हुए पति वाइफ सेलिंग मार्केट पहुंचते और बोलियां शुरू हो जातीं. जैसे भेड़बकरियों की मंडियां सजती हैं वैसे वहां हर शुक्रगवार को बीवियों

की भी खरीदफरोख्त होती थी. जितनी अच्छी त्वचा, जितना कसा हुआ बदन, नस्ल उतनी ही बढि़या मानी जाती थी और उस के ऊंचे दाम भी मिलते थे.

वाइफ सेलिंग की प्रथा

कई बार ऐसा भी होता कि किसी औरत का कोई खरीदार न मिल पाने पर ‘एक के साथ एक  फ्री’ का औफर दिया जाता था. जैसे पत्नी के साथ शिकारी कुत्ता या घोड़ा मुफ्त देने का औफर होता था. तब बेकार पत्नियां भी हाथोंहाथ बिक जाती थीं. पत्नियों की बिक्री ब्रिटेन के अलावा और कई देशों में हुई. लेकिन 18वीं सदी के मध्य तक लोग इस प्रथा का विरोध करने लगे. बीवियां बेचने वाले शौहर पर पत्थर फेंके जाने लगे. बर्कशायर हिस्ट्री में इस का विस्तार से जिक्र है कि किस तरह से वाइफ सेलिंग की प्रथा का अंत हुआ.

फिर तलाक को कानूनी मान्यता मिली, जहां लोग दर्दभरे रिश्ते से निकल कर खुल कर सांस लेने लगे. ऐसा कानून भारत में भी आया. लेकिन यहां तलाकशुदा पत्नी के माने ‘सैकंड हैंड’ है. लोगों की सोच कि बासी चावल में नया पानी डाल देने से भात ताजा नहीं बन जाती. जो भी हो आज औरतें यही कर रही हैं.

पति से तलाक लेने के बाद घर में मुंह छिपा कर आंसू नहीं बहा रही हैं बल्कि बाहर निकल कर जीने का जश्न मना रही हैं. सामंथा ने ‘पुष्पा’ फिल्म में   झूम कर नाचते हुए औरतों को यह संदेश दिया कि जिंदगी जीने का नाम है, घुटघुट कर मरने का नहीं.

दिव्या ने रितेश से प्रेम विवाह किया था. जब उस का रिश्ता शुरू हुआ था उस ने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि इस का अंत कुछ ऐसा होगा. जिस प्यार के लिए वह अपने परिवार तक से भिड़ गई थी वही एक दिन उसे इतनी तकलीफ देगा, सोचा तक न था. लेकिन अब वह उस रिश्ते को बहुत पीछे छोड़ कर आगे निकल चुकी है. उस का तलाक हो चुका है और वह सिंगल है. हालांकि वह सब इतना आसान नहीं था. लेकिन अब वह अपनी जिंदगी में आगे निकल चुकी है. दिव्या का कहना है कि वक्त अच्छा हो या बुरा, हमें कुछ न कुछ सिखा कर ही जाता है और उस ने भी अपने तलाक से बहुत कुछ सीखा.

तलाक के बाद सब से बड़ी सीख दिव्या को यह मिली कि किसी एक इंसान के नहीं होने से दुनिया खत्म नहीं हो जाती.  Divorced Women

Crime Story: सीक्रेट- रौकी और शोमा के बीच क्या था रिश्ता

Crime Story: आज सुबह वह रोज से जरा जल्दी जाग गई. उस ने झट से दरवाजा खोला और बाहर पड़े अखबार को उठा लाई. अखबार के एकएक पन्ने को वह बारीकी से देखने लगी. तभी एक कुटिल सी मुसकान उस के होंठों पर तैर गई.

उस की मां रसोई से पुकार रही थी, ‘‘शोमा…शोमा, तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है. रसोई में आ कर ले जाओ. ’’

पर शोमा तो खबर पढ़ने में मशगूल थी. पूरी खबर पढ़ कर बोली, ‘‘मां, क्यों शोर मचा रही हो? मेरे तो कान पक गए.’’

‘‘तुम्हारे कान पक गए और मेरी जीभ में छाले न पड़े तुम्हें पुकारपुकार कर? उलटा चोर कोतवाल को डांटे… इतनी जोर से पुकारा तो तुम्हें अब सुनाई दिया,’’ शोमा की मां ने उलाहना देते हुए कहा.

‘‘मां, क्यों नाराज होती हो. अखबार पढ़ रही थी और तुम हो कि लगातार बोलबोल कर खबरों का मजा किरकिरा कर रही थीं.’’

‘‘लो जी, यह भी मेरा ही दोष? क्या मिलेगा इन खबरों से? एक तो भरी सर्दी में गरमगरम चाय बना कर दो ऊपर से इन का खबरों का मजा किरकिरा हो गया…ऐसी कौन सी खास खबर आ गई आज अखबार में कि तुम मुंह अंधेरे उठ कर सब से पहले अखबार टटोलने लगीं?’’

‘‘खबरें तो खास ही होती हैं मां. तुम मुझे बोलने का मौका दो तो मैं तुम्हें बताऊं. मुझे जल्दी से बाहर जाना है. अब तुम सुनो तो मैं आगे की कहानी कहूं?’’

‘‘हां, कहो जल्दी से.’’

‘‘मां, मेरा वह क्लासमेट है न रौकी, जो हीरो जैसा दिखता है और तुम अकसर जिस के बालों का मजाक बनाया करती हो…’’

‘‘कौन रौकी?… अरे, वह बाइक वाला? जो पहले तुम पर कुछ खास मेहरबान था?’’

‘‘हां मां, वही जो मुझ पर बहुत फिदा था. उस का ऐक्सीडैंट हो गया. अखबार में अभी खबर पढ़ी. शायद शराब पी कर बाइक चला रहा था. उस से मिलने अस्पताल जाना होगा. सोचा कालेज जाने से पहले यह काम पूरा कर दूं, वरना उस से मिलने के लिए कालेज बंक करना पड़ेगा.’’

‘‘ओह, तो क्या इतना जरूरी है तुम्हारा अस्पताल जाना? अब तो तुम से

उस की कुछ खास बोलचाल भी नहीं…’’

‘‘इसलिए तो जरूरी है मां, वरना मेरे दूसरे दोस्त सोचेंगे कि मैं मन ही मन उस से चिढ़ती हूं. जबकि मेरे मन में तो उस के लिए कुछ बुरे भाव हैं ही नहीं? मां, दुनियादारी निभाने के लिए यह सब करना पड़ता है.’’

‘‘बात तो तुम ठीक कहती हो… ठीक है तुम नहा लो मैं तुम्हारा टिफिन पैक कर देती हूं.

शोमा तैयार हो कर अस्पताल पहुंची. वहां पहले से ही कई मित्रों का जमावड़ा लगा हुआ था. रौकी ने जैसे ही शोमा को देखा, तो बिस्तर से उठने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘अरे, शोमा तुम.’’

‘‘लेटे रहो रौकी,’’ इतना कह वह उसके बैड के पास पहुंच गई. हाथ में फूलों का गुलदस्ता थमाया और पूछा, ‘‘कैसे हो गया यह सब?’’

‘‘क्या बताऊं…’’ इससे पहले कि रौकी कुछ बताता दूसरा दोस्त चुटकी लेते हुए बोला, ‘‘शायद बड़ी पार्टी की थी इस ने. ज्यादा ही पी ली थी. उड़ाउड़ा फील कर रहा था. बिलकुल लाइट…’’ और सभी ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘तुम्हें पहले भी कितनी बार कहा रौकी, शराब पी कर बाइक मत चलाया करो.’’

शोमा की बात बीच में काटते हुए उस की दोस्त बोली, ‘‘अब नहीं चलाएगा. एक बार प्रसाद तो चख लिया. असल में अक्ल ठोकर खाने से ही आती है. समझाने से कौन समझता है भला,’’ उस ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा.

फिर से सब जोर का ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘शर्म नहीं आ रही तुम सब को? मैं यहां अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा दर्द से तड़प रहा हूं और तुम ठहाके लगा रहे हो…कैसे मित्र हो तुम सब मेरे?’’

‘‘मित्र ऐसे ही होते हैं, जो दर्द में पड़े दोस्त को ठहाके लगालगा कर उस का दर्द ही भुला दें,’’ और फिर अस्पताल के कमरे में जोर का ठहाका गूंज उठा.

‘‘ओके बाय, टेक केयर रौकी. मैं चलती हूं. कुछ हैल्प चाहिए हो तो बोलना,’’ शोमा ने अपना हाथ वेव करते हुए कहा, तो रौकी ने भी मुसकराते हुए उसे वेव कर दिया. सभी दोस्त एकसुर में बोले, ‘‘बाय शोमा.’’

वहां से निकल उस ने अपनी स्कूटी कालेज के रास्ते पर दौड़ा दी. अचानक ही उस के चेहरे के भाव बदल गए. भवें कुछ तन गईं और मुंह से निकला, ‘‘बेचारा. अब कर मजा अस्पताल में 1 महीना तो रहना ही पड़ेगा बच्चू.’’

शाम को जब वह घर पहुंची तो बहुत रिलैक्स फील कर रही थी… रोज की तरह उस के चेहरे पर परीक्षा के लिए तैयारी करने की चिंता रेखाएं नहीं थीं.

उस ने कौफी बनाई और बालकनी में जा कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी.

‘‘आज जिम नहीं जाओगी क्या?’’ मां ने शोमा को बैठे देख कर पूछा.

‘‘नहीं मां.’’

‘‘क्यों?’’ मां ने ऐनक चढ़ाते हुए तिरछी नजरों से देखा. रोज तो उड़नतश्तरी बनी भागीभागी कहती हो कि कौफी बना दो मां मैं लेट हो जाऊंगी. फिर ट्रेनर चला जाता है. आज क्या खास हो गया कि इतनी बेफिक्र हो?’’

‘‘अब मैं परफैक्ट फिट हो गई हूं मां. ट्रेनर ने ही बोला. अब मैं बिना उस की ट्रेनिंग ही अपनेआप को फिट रख सकती हूं, फिजिकली और मैंटली भी.’’

‘‘फिजिकली और मैंटली भी?’’

‘‘फिजिकली तो समझ आया पर मैंटली कैसे?’’

‘‘मां तुम नहीं समझोगी. जाने दो.’’

‘‘अरे, कैसे नहीं समझूंगी? पर तुम मुझे कुछ बताओ तो समझूं न. क्या जमाना आ गया बच्चे अपने मांबाप से कुछ शेयर ही नहीं करना चाहते.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो तुम मां. सब कुछ तो शेयर करती हूं मैं तुम से.’’

‘‘फिर बताती क्यों नहीं कि आज क्या खास बात है? तुम्हारे रोज के व्यवहार और आज के व्यवहार में बहुत फर्क है.’’

‘‘कैसा फर्क मां? रोज जैसे ही तो हूं.’’

‘‘तेरी मां हूं मैं. तुम्हारी नसनस पहचानती हूं. आज तुम्हारे चेहरे पर निश्ंिचतता के भाव हैं. रोज की तरह खामोशी नहीं. क्या रौकी से सुलह हो गई? तुम सुबह उस से मिलने अस्पताल गई थी न? क्या बात हुई? कैसा है वह अब? जब से उस से तुम्हारी दूरियां बढ़ीं तुम्हारे चेहरे की रंगत तो जैसे ढल ही गई… वह तो अच्छा हुआ तुम ने पत्रिकाएं व अच्छा साहित्य पढ़ना शुरू किया और जिम जा कर अपनेआप को फिट रखना शुरू किया.’’

शोमा अपनी मां की बात सुनते हुए बिलकुल खामोश थी. भावशून्य उस का चेहरा. न जाने उस की आंखें कहां खोई हुई थीं.

‘‘बेटा, बताती क्यों नहीं… क्या बात हुई रौकी से?’’ तुम्हारी मां हूं मैं और सिर्फ मां ही नहीं तुम्हारी दोस्त भी हूं.’’

‘‘मां तुम से क्या छिपाना… तुम तो मेरी धड़कन, मेरी नब्ज सब पढ़ लेती हो.’’

‘‘तुम्हें याद है मां पिछले वर्ष नए साल की पार्टी में मैं उस के साथ गई थी और पार्टी खत्म होने पर वह मुझे घर छोड़ने आया था.’’

‘‘लेकिन घर छोड़ने से पहले रास्ते में उस ने एक जगह बाइक रोकी और मुझ से बोला कि मेरे दोस्त को कुछ खास पेपर देने हैं. सिर्फ 5 मिनट का काम है. वह मुझे अपने दोस्त के घर अंदर ले गया. टेबल पर कुछ कागजात रख वह रसोई में गया. उस ने स्वयं फ्रिज से निकाल कर पानी पीया और मुझे भी दिया. जब मैं ने पूछा कि तुम्हारा दोस्त कहां है रौकी तो उस ने बिना कुछ जवाब दिए पानी का गिलास मेरी तरफ बढ़ा दिया. पार्टी में हम भारी खाना खा कर, खूब नाचकूद कर आए थे. प्यास मुझे भी लगी थी, इसलिए मैं ने भी पानी पी लिया. उस के बाद मुझे चक्कर सा आने लगा.’’

‘‘जब मैं होश में आई, मेरे कपड़े खुले हुए थे और रौकी मेरे पास लेटा हुआ था. मैं ने होश में आते ही उस से खूब झगड़ा किया. खूब रोई भी पर कोई असर नहीं हुआ. और तो और उस ने मुझ से माफी मांगने की भी जरूरत नहीं समझी. उस ने मुझे नशीली ड्रिंक पिला कर मुझ से बलात्कार किया था मां.’’

‘‘क्या? और तुम मुझे अब बता रही हो?’’ मां की आंखें फटी की फटी रह गई थीं.

‘‘हां मां… उस के बाद सुबह वह मुझे घर छोड़ गया.’’

‘‘तुम ने उसी दिन क्यों नहीं बताया यह सब? मां तिलमिला उठी थी.’’

‘‘क्या फायदा मां. तुम परेशान होतीं. ’’

‘‘मैं जानती थी कि यदि मैं तुम्हें बताऊंगी तो सब से पहले तो तुम स्वयं डर जाओगी और फिर समाज, इज्जत का वास्ता दे कर मुझे भी डराओगी. लेकिन मैं इस दुर्घटना के बाद डरी नहीं मां. मैं ने रौकी से बोलचाल बंद कर दी.’’

‘‘अच्छा किया. ऐसे दोस्त का क्या फायदा?’’

‘‘मां, मुझे किताबें पढ़ने की आदत तो थी ही. सस्पैंस स्टोरीज पढ़पढ़ कर मेरे दिमाग में एक दिन खयाल आया, ‘जैसे को तैसा’ और बस मैं ने मन ही मन एक योजना बना डाली.’’

‘‘मैं ने जिम जौइन किया. वहां वेट ट्रेनिंग ले कर अपनेआप को मानसिक व शारीरिक रूप से मजबूत बनाया.’’

‘‘जिम का ट्रेनर ऐक्सरसाइज शुरू करवाने के पहले व बाद में

अकसर स्ट्रैचिंग कराया करता था. कई बार वह मेरी दोनों बांहों को पीछे मोड़ कर हाथ जुड़वाता. शुरू में मुझे तकलीफ होती थी, क्योंकि मेरे शरीर में लचक नहीं थी. वह मुझे रोज धीरेधीरे उस की प्रैक्टिस करवाता और कहता कि एक बार में जोर से स्ट्रैच न करना वरना कंधे की हड्डियां टूट जाएंगी. इस स्ट्रैचिंग के लिए हड्डियों में लाचीलापन होना जरूरी है.’’

‘‘मैं ने अपनी पहली योजना में फिर कुछ और नया जोड़ दिया. पिछले पूरे 1 वर्ष में मैं ने मन ही मन उस बलात्कार के दंश को झेला है. कैसे एक दोस्त पुरुष अपनी महिला दोस्त का बलात्कार कर सकता है, मैं तो रौकी पर पूरा भरोसा किया करती थी. तभी तो उस के साथ रात के समय पार्टी के लिए चली गई थी.’’

‘‘वही तो सोचने की बात है. देखनेबोलने में इतना सभ्य, सलीकेदार रौकी इतनी घिनौनी हरकत करेगा, सोच भी नहीं सकती थी,’’ मां ने नाकमुंह सिकोड़ कर कहा.

‘‘मां, उस ने मेरा भरोसा तोड़ा है. और न सिर्फ भरोसा, बल्कि मैं किसी और का भरोसा कर सकूं इस लायक भी न छोड़ा. अपने साथ पढ़ने वाले हर लड़के को अब मैं उसी नजर से देखती हूं. कई बार सोचती हूं कि यदि एक लड़का ऐसा है तो इस का मतलब यह नहीं कि सभी ऐसे ही होंगे. पर बारबार समझाने पर भी मन के किसी कोने में एक डर तो बैठ ही गया और इस का जिम्मेदार सिर्फ रौकी है. जिस दिन जिम ट्रेनर ने स्ट्रैचिंग के गुर सिखाए मेरा इरादा पक्का होता चला गया.’’

‘‘मैं ने रौकी से फिर से बोलचाल शुरू की. उसे व्हाट्सऐप पर फिर से मैसेज करने लगी. शुरू में तो वह आश्चर्यचकित हो गया कि मैं फिर से उस से बोलने लगी लेकिन धीरेधीरे सब नौर्मल होने लगा. मैं अपने लड़की होने के गुणों का इस्तेमाल करने लगी और उसे अपनी और आकर्षित करने के सब नुसखे अपना डाले. जब मुझे भरोसा हो गया कि अब वह मेरे प्रेम जाल में फंस गया है तब एक दिन उसे एक हौट मैसेज भेज दिया.

उस मैसेज को पढ़ कर वह फिर से मुझ से अकेले मिलने को आतुर हो उठा और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने कालेज में उस से मिल कर उस के साथ डेट फिक्स की और एक एकांत सी जगह पर पूरे दिन की पिकनिक का प्लान बना लिया. वह बहुत खुश हो गया.

‘‘नियत दिन हम दोनों पिकनिक के लिए गए. एकांत में खूब सारी बातें की. साथ में खायापीया. नशे का शौकीन तो वह है ही सो मैं ने उसे ड्रिंक औफर किया. वह गटागट पीता गया और मेरे करीब आने लगा. मैं ने उसे अपने करीब आने से रोका भी नहीं. कुछ देर के बाद उसे अपनेआप पर कंट्रोल न रहा और मैं तो इसी वक्त का इंतजार कर रही थी. मैं ने उसे पेट के बल उलटापटका. उस के हाथ पीछे को घुमाए और पूरी ताकत के साथ जोर से घुमा दिए. कड़ककड़क की आवाज के साथ उस की हड्डियां टूट चुकी थीं.

‘‘उस के बाद मैं ने उस की बाइक उठाई, स्टार्ट की और पीछे की तरफ ले गई. वह जंगल का सुनसान रास्ता था. वहां कोई आवाजाही भी नहीं थी. मैं ने बाइक को चलती हालत में छोड़ दिया. थोड़ी देर बाइक सीधे चली और फिर घिसटती हुई सड़क के किनारे जा गिरी. उस के बाद मैं रोडवेज की बस में बैठ कर अपने घर आ गई.’’

‘‘ओह! तो तुम इसीलिए रात घर पर देर से आई थी और मैं पूरा दिन तेरी चिंता करती रही. तुझे फोन भी किया तो वह स्विच औफ दिखाता रहा.’’

‘‘हां मां, तुम ने ठीक समझा.’’

‘‘पर बेटी यह तो गुनाह है,’’ मां सिर पकड़ कर बोलीं.

‘‘हां, मां जो मैं ने किया वह गुनाह है और जो उस ने किया क्या वह धर्म था? शोमा तुनक कर बोली. उस के नथुने फूल गए थे. आंखें आग उगल रही थीं.’’

‘‘उस ने जो किया उसे वही मिला.’’

‘‘पर बेटी फिर जब तुम उस से अस्पताल मिलने गई तब वह कुछ बोला नहीं तुम से?’’

‘‘किस मुंह से बोलेगा मां? मैं सब के सामने उस से मुसकरा कर मिली.

जैसे पहले मिलती थी. सब को यह मालूम है कि हमारी सुलह हो चुकी है और जब वह अस्पताल पहुंचा वह नशे की हालात में था. आसपास के गांव के लोगों ने उसे अस्पताल पहुंचाया था. उस की बाइक रगड़ खाती हुई गिरी थी, जिस से साफ जाहिर था कि वह नशे की हालत में बाइक चला रहा था,उस का बैलेंस बिगड़ा और ऐक्सीडैंट हो गया. अखबार की खबर भी तो यही बताती है. यह देखो मां,’’ उस ने अखबार दिखाते हुए कहा.

‘‘उस के पास ऐसा कोई सुबूत नहीं कि जिस से वह कह सके कि मैं उस दिन उस से मिली भी थी. इस मुलाकात को मैं ने उसे सीक्रेट रखने को कहा था. अपने दोस्तों को मैं ने बताया कि मैं 2 दिन कालेज नहीं आउंगी, क्योंकि अपने रिश्तेदार के यहां पास के गांव मे जा रही हूं. बाकायदा मैं ने बस के आने और जाने के टिकट भी खरीदे और उसी टिकट से मैं बस में बैठ कर वापस आई. सब से बड़ी बात तो यह है कि रौकी सब जानते हुए भी मुंह नहीं खोल सकता, क्योंकि इस से उसी की इज्जत का कचरा होने वाला है. यदि उस ने अपना मुंह खोला तो मैं उस की बलात्कार वाली पोलपट्टी खोल दूंगी. बलात्कार वाले दिन के कपड़े मैं ने संभाल कर रखे हैं मां.’’

‘‘पर बेटी तुम में ये सब करने की हिम्मत कहां से आ गई?’’

‘‘क्या करती मां, सारी जिंदगी घुटघुट कर इस दंश को झेलती? यदि यह बात किसी और से साझा करती तो दुनिया भर के ताने सुनती. लोग मुझे ही दोष देते कि आखिर इतनी रात गए मैं उस के साथ गई ही क्यों थी.

‘‘मैं जानती थी मुझे सहानुभूति तो कहीं से मिलेगी नहीं, बल्कि इस दुर्घटना का जिम्मेदार भी मुझे ही ठहराया जाएगा. सिर्फ चेहरे की ही रंगत नहीं मां, मेरी आत्मा को भी लहूलुहान किया था रौकी ने. आज मुझे उस पुराने दर्द से मुक्ति मिली है.

‘‘न जाने कितनी मासूम बच्चियां और महिलाएं इस दंश को झेलती होंगी और न जाने कितनी अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेती होंगी? तो फिर मैं भी उन्हीं महिलाओं के नक्शेकदम पर चलूं? जिस ने पाप किया फल भी वही भुगते. सो जैसा उस ने किया वैसा उस ने पाया. मैं अपनेआप को इस में दोषी नहीं समझती हूं मां और तुम भी मुझ पर दोष मढ़ने की कोशिश न करना. हां, एक बात और… यह बात मेरे और आप के बीच रहनी चाहिए.’’

इस के बाद जो होगा मैं उस से भी निबट लूंगी. बस तुम्हारा दिया हौसला चाहिए.’’

मां ने उसे सीने से लगा लिया था और वह आंसू बहाती हुई मुसकरा रही थी.

‘‘शोमा का हौट मैसेज पढ़ कर रौकी उस से अकेले में मिलने को आतुर हो उठा…’’ Crime Story

लेखक- रोचिका अरुण शर्मा

Sad Story in Hindi: दुविधा- किस कशमकश में थी वह?

Sad Story in Hindi: एमबीए करते ही एक बहुत बड़ी कंपनी में मेरी नौकरी लग गई. हालांकि यह मेरी वर्षों की कड़ी मेहनत का ही परिणाम था फिर भी मेरी आशा से कुछ ज्यादा ही था. हाईटैक सिटी की सब से ऊंची इमारत की 15वीं मंजिल पर, जहां से पूरा शहर दिखाई देता है, मेरा औफिस है. एक बड़े एयरकंडीशंड हौल में शीशे के पार्टीशन कर के सब के लिए अलगअलग केबिन बने हुए हैं. आधुनिक सुविधाओं तथा तकनीकी उपकरणों से लैस है मेरा औफिस.

मेरे केबिन के ठीक सामने अकाउंट्स विभाग का स्टाफ बैठता है. उन से हमारा काम का तो कोई वास्ता नहीं है लेकिन हमारी तनख्वाह, भत्ते, अन्य बिल वही बनाते तथा पास करते हैं. कंपनी में पहले ही दिन अपनी टीम के लोगों से विधिवत परिचय हुआ लेकिन शेष सब से परिचय संभव नहीं था. सैकड़ों का स्टाफ है, कई डिवीजन हैं. उस पर ज्यादातर स्टाफ दिनभर फील्ड ड्यूटी पर रहता है.

मेरे सामने बैठने वाले अकाउंट्स विभाग के ज्यादातर कर्मचारी अधेड़ उम्र के हैं. बस, ठीक मेरे सामने वाले केबिन में बैठने वाला अकाउंटैंट मेरा हमउम्र था. वैसे उस से कोई परिचय तो नहीं हुआ था, बस, एक दिन लिफ्ट में मिला तो अपना परिचय स्वयं देते हुए बोला, ‘‘मैं सुबोध, अकाउंटैंट हूं.

कभी भी अकाउंट्स से जुड़ी कोई समस्या हो तो आप बेझिझक मुझ से कह सकती हैं,’’ बदले में मैं ने भी उसे अपना नाम बताया और उस का धन्यवाद किया था जबकि वह मेरे बारे में सब पहले से जानता ही था क्योंकि अकाउंट्स विभाग से कुछ छिपा नहीं होता है. उस के पास तो पूरे स्टाफ की औफिशियल कुंडली मौजूद होती है.

इस संक्षिप्त से परिचय के बाद वह जब कभी लिफ्ट में, सीढि़यों में, डाइनिंग हौल में या रास्ते में टकरा जाता तो कोई न कोई हलकाफुलका सवाल मेरी तरफ उछाल ही देता. ‘औफिस में कैसा लग रहा है?’, ‘आप का कोई बिल तो पैंडिंग नहीं है न?’, ‘आप अखबार और पत्रिका का बिल क्यों नहीं देती?’, ‘आप ने अपनी नई मैडिकल पौलिसी के नियम देख लिए हैं न?’ वगैरहवैगरह. बस, मैं उस के सवाल का संक्षिप्त सा उत्तर भर दे पाती, हर मुलाकात में इतना ही अवसर होता.

मुझे यहां काम करते 2-3 महीने बीत चुके थे. अभी भी अपनी टीम के अलावा शेष स्टाफ से जानपहचान नहीं के बराबर थी. वैसे भी दिनभर सब काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि इधरउधर की बात करने का कोई  मौका ही नहीं मिल पाता. हां, काम करतेकरते जब कभी नजरें उठतीं तो सामने बैठे सुबोध से जा टकराती थीं. ऐसे में कभीकभी वह मुसकरा देता तो जवाब में मैं भी मुसकरा कर फिर अपने काम में लग जाती.

लेकिन जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, मैं ने एक बात नोटिस की कि जब कभी भी मैं अपनी गरदन उठाती तो सुबोध को अपनी तरफ ही देखते हुए पाती. अब वह पहले की तरह मुसकराता नहीं था बल्कि अचकचा कर नीचे देखने लगता था या न देखने का बहाना करने लगता था.

खैर, मेरे पास यह सब सोचने का समय ही कहां था? मेरे सपनों के साकार होने का समय पलपल करीब आने लगा था. घर में मेरे और प्रखर के विवाह की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं. प्रखर और मैं कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. वहीं हमारी दोस्ती हुई फिर पता ही नहीं लगा कब हमारी दोस्ती इतनी आगे बढ़ गई कि हम दोनों ने जीवनसाथी बनना तय कर लिया.

घर वालों से बात की तो उन्होंने भी इस रिश्ते के लिए हां कर दी लेकिन शर्त यही थी कि पहले हम दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पूरी करेंगे, अपना भविष्य बनाएंगे. फिर शादी की सोचेंगे. पढ़ाई पूरी होते ही प्रखर को भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

एक दिन सुबह सुबोध लिफ्ट में फिर मिल गया. लिफ्ट में हम दोनों ही थे. बिना एक पल भी गंवाए उस ने और दिनों से हट कर सवाल पूछा था, ‘‘आप के घर में कौनकौन है?’’

मुझे उस से ऐसे सवाल की आशा नहीं थी. पूछा, ‘‘क्यों, क्या करेंगे जान कर?’’ मेरा उत्तर भी उस के अनुरूप नहीं था.

‘‘यों ही. सोचा, मां को आप के बारे में क्या बताऊंगा, जब मुझे ही आप के बारे में कुछ पता नहीं है?’’

‘‘क्यों, सब कुछ तो है आप के पास औफिस रिकौर्ड में नाम, पता, ठिकाना, शिक्षा वगैरह,’’ कहते हुए मैं हंस दी थी और वह मुझे देखता ही रह गया.

लिफ्ट हमारी मंजिल पर पहुंच चुकी थी. हम दोनों उतरे और अपनेअपने केबिन की ओर बढ़ गए.

अपनी सीट पर आ कर बैठी तो एहसास हुआ कि सुबोध क्या पूछ रहा था और नादानी में मैं ने उसे क्या उत्तर दे दिया. सब सोच कर इतनी झेंप हुई कि दिनभर गरदन उठा कर सामने बैठे हुए सुबोध को देखने का साहस ही नहीं हुआ. हालांकि उस की नजरों की चुभन को मैं ने दिनभर अपने चेहरे पर महसूस किया था. पता नहीं वह क्या सोच रहा था.

अगले दिन मैं जानबूझ कर लंच के लिए देर से गई ताकि मेरा सुबोध से सामना न हो जाए. उस समय तक डाइनिंग हौल लगभग खाली ही था. मैं ने जैसे ही प्लेट उठाई, अपने पीछे सुबोध को खड़ा पाया. उसी चिरपरिचित मुसकान के साथ, खाना प्लेट में डालते हुए वह धीमे से बोला, ‘‘कल आप ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मम्मी को बताना क्या है, अगले महीने की 20 तारीख को मेरी शादी है. उन्हें साथ ले आइएगा, मिलवा ही दीजिएगा.’’

मेरे इतना कहते ही उस के चेहरे पर दुख की ऐसी काली छाया दिखाई दी मानो हवा के तेज झोंके से बदली ने सूरज को ढक लिया हो. उस की आंखें मेरे चेहरे पर ऐसे टिक गईं मानो जानना चाहती हों, कहीं मैं मजाक तो नहीं कर रही.

लेकिन यह सच था. एक पल के लिए मुझे भी लगा कि भले ही यह सच था लेकिन मुझे उसे ऐसे सपाट शब्दों में नहीं बताना चाहिए था. वह प्लेट ले कर डाइनिंग टेबल के दूसरे छोर की कुरसी पर जा बैठा. वह लगातार मुझे देख रहा था. वह बहुत उदास था. शायद उस की आंखें भी नम थीं. मैं ने खाना खाते हुए उसे कई बार बहाने से देखा था. वह सिर्फ बैठा था, उस ने खाना छुआ भी नहीं था. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मैं क्या करती? ऐसे में उस से क्या कहती?

शादी में औफिस से बहुत से लोग आए लेकिन सुबोध नहीं आया. हां, औफिस वालों के हाथ उस ने बहुत ही खूबसूरत तोहफा जरूर भिजवाया था. क्रिस्टल का बड़ा सा फूलदान था, जिस ने भी देखा तारीफ किए बिना न रह सका.

विवाह होते ही मैं और प्रखर अपनी नई दुनिया में खो गए. हम ने वर्षों इस सब के लिए इंतजार किया था. हमें लग रहा था, हम बने ही एकदूसरे के लिए हैं. शादी के बाद हम विदेश घूमने चले गए.

महीनेभर की छुट्टियां कब खत्म हो गईं पता ही नहीं चला. मैं औफिस आई तो सहकर्मियों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कोई ‘छुट्टियां कैसी रहीं’ पूछ रहा था,  कोई नई ससुराल के बारे में जानना चाह रहा था, कोई प्रखर के बारे में पूछ कर चुटकी ले रहा था. वहीं, कोई शादी के अरेंजमेंट की तारीफ कर रहा था तो कोईकोई शादी में न आ पाने के लिए माफी भी मांग रहा था.

सब से फुरसत पा कर जब सामने वाले केबिन पर मेरी नजर पड़ी तो वहां सुबोध की जगह कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति चश्मा पहने बैठा था. मेरी नजरें पूरे हौल में एक कोने से दूसरे कोने तक सुबोध को तलाशने लगीं. वह कहीं नजर नहीं आया. मैं उसे क्यों तलाश रही थी, मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पता नहीं मुझे उस से हमदर्दी थी या मुझे उस को देखने की आदत सी हो गई थी. खैर, जो भी था मुझे उस की कमी खल रही थी.

कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा था कि सुबोध ने ही अपना तबादला दूसरे डिवीजन में करवा लिया था जो थोड़ी दूर, दूसरी बिल्ंिडग में है. सुबोध यहां से चला तो गया था लेकिन कुछ यहां ऐसा छोड़ गया था जो औफिस में यदाकदा उस की याद दिलाता रहता था. विशेष रूप से जब काम करतेकरते कभी अपनी नजर ऊपर उठाती तो सुबोध को वहां न पा कर कुछ अच्छा नहीं लगता था.

समय बीत रहा था. घर पहुंचते ही एक दूसरी दुनिया मेरा इंतजार कर रही होती थी, जिस में मेरे और प्रखर के अलावा किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं थी. दिनरात जैसे पंख लगा कर उड़े चले जा रहे थे. घूमनाफिरना, दावतें, मिलना- मिलाना आदि यानी हमारे जीवन का एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था.

6 महीने कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं लगा. एक सुबह मैं अपनी सीट पर जा कर बैठी तो यों ही नजर सामने वाले कैबिन पर पड़ी तो सुबोध को वहां बैठे पाया. पलभर को तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन यह सच था. सुबोध वापस लौट आया था, पता नहीं यह औफिस की जरूरत थी या सुबोध की. किस से पूछती, कौन बताता?

इस बात को कई सप्ताह बीत गए लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं हुई. इस के लिए न कभी सुबोध ने कोई कोशिश की न ही मैं ने. मैं ने न तो उस से शादी में न आने का कारण पूछा और न उस खूबसूरत तोहफे के लिए धन्यवाद ही दिया. हमारे बीच ज्यादा बातचीत का सिलसिला तो पहले भी नहीं था लेकिन अब एक अबोला सा छा गया था.

अब जब भी हमारी नजरें आपस में यों ही टकरा भी जातीं तो न वह पहले की भांति मुसकराता और न ही मैं मुसकरा पाती. वैसे उस की नजरों को मैं ने अकसर अपने आसपास ही महसूस किया है. एक सुरक्षा कवच की भांति उस की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या नाम दूं उस की इस मूक चाहत को?

समय इस सब से बेखबर आगे बढ़ रहा था. हमारा एक बेटा हो गया. अब मेरी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई थीं. ऐसे में समय अपने लिए ही कम पड़ने लगा था और कुछ सोचने का समय ही कहां था? मेरा जीवन घर, बेटे और औफिस में ही उलझ कर रह गया था. वैसे भी मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गई थी जहां अपनी घरगृहस्थी के आगे औरत को कुछ सूझता ही नहीं.

हां, प्रखर जरूर घर से बाहर दोस्तों के साथ ज्यादा रहने लगा था क्योंकि औफिस के बाद क्लब और पार्टियों में जाने की न तो मेरा थकाहारा शरीर आज्ञा देता, न मेरा मन ही इस के लिए राजी होता था. लेकिन प्रखर को रोकना मुश्किल था. बड़ी तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, महंगा सैलफोन, कीमती लैपटौप, पौश कौलोनी में बढि़या तथा जरूरत से बड़ा फ्लैट वगैरह सब कुछ हो तो व्यक्ति क्लब, दोस्तों और पार्टियों पर ही तो खर्च करेगा? पहले दोस्तों के बीच कभीकभी पीने वाला प्रखर अब लगभग हर रात पीने लगा था. यह बात अलग है कि वह पीता लिमिट में ही था.

एक रात प्रखर क्लब से लौटा तो मैं बेटे को सुला रही थी. मेरे पास बैठते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे औफिस में कोई सुबोध शर्मा है?’’

मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. प्रखर सुबोध के बारे में क्यों पूछ रहा है? वह सुबोध के बारे में क्या जानता है? उसे सुबोध के बारे में किस ने क्या बताया है? एकसाथ न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों?’’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘बस, यों ही, आज बातोंबातों में रवि बता रहा था. सुबोध, रवि का साला है. उसे घर वाले लड़कियां दिखादिखा कर परेशान हो गए हैं, वह शादी के लिए राजी ही नहीं होता. बूढ़ी मां बेटे के गम में बीमार रहने लगी है. वह तो रवि ने तुम्हारे औफिस का नाम लिया तो सोचा तुम जानती होगी. पता तो लगे आखिर सुबोध क्या चीज है जो कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती.’’

प्रखर बोले जा रहा था और मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी. मैं खीज उठी, ‘‘इतना बड़ा औफिस है, इतने डिवीजन हैं. क्या पता कौन सुबोध है जो तुम्हारे दोस्त रवि का साला है. नहीं करता शादी तो न करे, इस से तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?’’

कुछ तो प्रखर नशे में था उस पर मेरी दिनभर की थकान का खयाल कर वह इस बेवक्त के राग से स्वयं ही शर्मिंदा हो उठा.

‘‘तुम ठीक कहती हो, अब नहीं करता शादी तो न करे. रवि जाने या उस की बीवी, अब आधी रात को इस से हमें क्या लेनादेना है,’’ कह कर प्रखर तो कपड़े बदल कर सो गया लेकिन मैं रातभर सो न सकी. कितनी शंकाएं, कितने प्रश्न, कितने भय मुझे रातभर घेरे रहे.

अगले ही दिन जब ज्यादातर स्टाफ लंच के लिए जा चुका था, मैं सुबोध के केबिन में गई. मुझे अचानक आया देख कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मैं ने घबराई सी नजर अपने आसपास के स्टाफ पर डाली और उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘आप शादी क्यों नहीं कर रहे? आप के परिवार वाले कितने परेशान हैं?’’

एकाएक मेरे इस प्रश्न से वह चौंक उठा. शायद उसे कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया होगा.

‘‘आप की बहन और जीजाजी इतनी लड़कियां दिखा चुके हैं, आप को एक भी पसंद नहीं आई? आखिर आप को लड़की में ऐसा क्या चाहिए?’’

मेरे स्वर में थोड़ी तलखी थी, शायद भीतर का कोई डर था. हालांकि यह बेवजह था लेकिन धुआं उठता देख कर मैं डर गई थी, कहीं भीतर कोई चिनगारी न दबी हो जो मेरी घरगृहस्थी को जला कर राख कर दे.

‘‘घर जा कर आईना देखिएगा, स्वयं समझ जाएंगी,’’ सुबोध धीरे से फुसफुसाया था.

इतना सुनते ही मैं वहां उस की नजरों के सामने खड़ी न रह सकी. मैं लौट तो आई लेकिन मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था मानो सीने से उछल कर बाहर आ जाएगा.

मैं सुबोध के बारे में सोचने पर मजबूर हो गई. ऊपर से शांत दिखने वाले इस समुद्र की तलहटी में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपा था. अगर कहीं यह फूट पड़ा तो कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी.

भले ही मेरी और प्रखर की पहचान 10 वर्ष पुरानी है. मैं ने आज तक कभी उसे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है, फिर भी अगर कभी कहीं से कुछ यों ही सुबोध के बारे में सुनेगा तो क्या होगा? अनजाने में ही अगर सुबोध ने अपनी दीदीजीजाजी से मेरे बारे में या अपनी पसंद के बारे में कुछ कह दिया तो क्या रवि वह सब प्रखर को बताए बिना रहेगा? तब क्या होगा? पतिपत्नी का रिश्ता कितना भी मजबूत, कितना भी पुराना क्यों न हो, शक की आशंका से ही उस में दरार पड़ जाती है. फिर भले ही लाख यत्न कर लो उसे पहले रूप में लाया ही नहीं जा सकता.

हालांकि मुझे लगता था कि सुबोध ऐसा कुछ नहीं करेगा फिर भी मेरा दिल बैठा जा रहा था. मैं सुबोध से कुछ कह भी तो नहीं सकती थी. क्या कहती, किस अधिकार से कहती? हमारे बीच ऐसा था भी क्या जिस के लिए सुबोध को रोकती. मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं इतनी परेशान हो गई कि हर समय डरीसहमी, घबराई सी रहने लगी.

एक दिन अचानक प्रखर की तबीयत बहुत बिगड़ गई. कई दिनों से उस का बुखार ही नहीं उतर रहा था. उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा लेकिन बीमारी पकड़ में ही नहीं आ रही थी. हालत बिगड़ती देख कर उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया. वहां पहुंचते ही प्रखर को आईसीयू में भरती कर लिया गया. कई टैस्ट हुए, कई बड़े डाक्टर देखने आए. उस की बीमारी को सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन निकल गई. प्रखर की दोनों किडनियां बेकार हो गई थीं.

घरपरिवार तथा मित्रों की मदद से उस के लिए 1 किडनी की व्यवस्था करनी थी, वह भी एबी पोजिटिव ब्लड ग्रुप वाले की. किस का होगा यह ब्लड ग्रुप? कौन भला आदमी अपनी किडनी दान करेगा और क्यों? रेडियो, टीवी, अखबार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से हम हर कोशिश में जुट गए.

2 दिनों बाद डाक्टर ने आ कर खुशखबरी दी कि किडनी डोनर मिल गया है. उस के सब जरूरी टैस्ट भी हो गए हैं. आशा है प्रखर जल्दी ठीक हो जाएगा.

मैं पागलों की भांति उस फरिश्ते से मिलने दौड़ पड़ी. डाक्टर के बताए कमरे में जाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. मेरे सामने पलंग पर सुबोध लेटा था. मेरे कदम वहीं रुक गए. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. प्रखर के जीवन का प्रश्न था जो पलपल मौत की तरफ बढ़ रहा था. मुझे इस तरह सन्न देख कर वह बोला, ‘‘वह तो रवि जीजाजी से पता लगा कि उन के दोस्त, प्रखर बहुत सीरियस हैं. सौभाग्य से मेरा ब्लडग्रुप भी एबी पौजिटिव है इसलिए…’’

‘‘आप को पता था न, प्रखर मेरे पति हैं?’’ पता नहीं मैं ने यह सवाल क्यों किया था.

‘‘मेरे लिए आप की खुशी माने रखती है, बीमार कौन है यह नहीं.’’

शब्द जैसे उस के दिल की गहराइयों से निकल रहे थे. एक बार फिर उस ने मुझे निरुत्तर कर दिया था. मैं भारी कदमों, भारी दिल से लौट आई थी. प्रखर उस समय ऐसी स्थिति में ही नहीं था कि पूछता कि उसे जीवनदान देने वाला कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है?

औपरेशन हो गया. औपरेशन सफल रहा. दोनों की अस्पताल से छुट्टी हो गई. प्रखर स्वस्थ हो रहा है. उसे पता लग चुका है कि उसे किडनी दान करने वाला कोई और नहीं रवि का साला सुबोध ही है, जो मेरे ही औफिस में काम करता है. वह दिनरात तरहतरह के सवाल पूछता रहता है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वह पूछना तो चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता.

सवाल तो अब मेरे अंदर भी सिर उठाते रहते हैं जिन के जवाब मेरे पास नहीं हैं या मैं उन्हें तलाशना ही नहीं चाहती. डरती हूं, यदि कहीं मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल गए तो मैं बिखर ही न जाऊं.

आजकल प्रखर बहुत बदल गया है. डाक्टरों के इतना समझाने के बावजूद वह फिर से पीने लग गया है. कभी सोचती हूं एक दिन उस से खुल कर बात करूं. फिर सोचती हूं क्या बात करूं? किस बारे में बात करूं? हमारे जीवन में किस का महत्त्व है? उन 2-4 वाक्यों का जो इतने वर्षों में सुबोध ने मुझ से बोले हैं या उस के त्याग का जिस ने प्रखर को नया जीवन दिया है?

मैं अजीब सी कशमकश में घिरती जा रही हूं. प्रखर के पास होती हूं तो यह एहसास पीछा नहीं छोड़ता कि प्रखर के बदन में सुबोध की किडनी है जिस के कारण प्रखर आज जीवित है. हमारे न चाहते हुए भी सुबोध हम दोनों के बीच में आ गया है.

जबजब सुबोध को देखती हूं तो एक अनजाना सा डर पीछा नहीं छोड़ता कि उस के पास अब एक ही किडनी है. हर सुबह औफिस पहुंचते ही जब तक उसे देख नहीं लेती, मुझे चैन नहीं आता. उस के स्वास्थ्य के प्रति भी चिंतित रहने लगी हूं.

मेरा पूरा वजूद 2 भागों में बंट गया है. ‘जल बिन मछली’ सी छटपटाती रहती हूं. आजकल मुझे किसी करवट चैन नहीं. मैं जानती हूं प्रखर को मेरी खुशी प्रिय है इसीलिए मुझ से न कुछ कहता है, न कुछ पूछता है. बस, अंदर ही अंदर घुट रहा है. दूसरी तरफ बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के सुबोध को मेरी खुशी प्रिय है लेकिन क्या मैं खुश हूं?

सुबोध को देखती हूं तो सोचती हूं काश, वह मुझे कुछ वर्ष पहले मिला होता तो दूसरे ही पल प्रखर को देखती हूं तो सोचती हूं काश, सुबोध मिला ही न होता. यह कैसी दुविधा है? मैं यह कैसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जिस का कोई भी रास्ता मंजिल तक जाता नजर नहीं आता. Sad Story in Hindi

Short Story in Hindi: सॉरी… सना

Short Story in Hindi: दफ्तर में आज सिर्फ सना के ही चर्चे थे. सना ने सेल्स टीम में ज्वाइन किया था. लड़कों में उसकी खूबसूरती और लड़कियों में एटिट्यूट के चर्चे थे. एचआर असिस्टेंट ने पूरे फ्लोर पर एक-एक एम्लॉई से उसे मिलवाया. संभवत: ये पहला ऐसा मौका था जब दफ्तर में हर कोई हाथ मिलाकर नए एम्पालॉइ का स्वागत करना चाह रहा था. वैसे इसमें गलत भी क्या है, ये तो कॉरपोरेट कल्चर है. लेकिन उसकी बला की खूबसूरती एक बार तो उसे छूकर देख लेने की हसरत पूरी करा ही रही थी.

लंच ब्रेक में नई तरह की चर्चा ऑफिस में शुरू हो गई. ऑफिस की कैंटीन से दिखने वाली बाहर की चाय की थड़ी पर सना सिगरेट पी रही थी. अब चर्चा उसके सौन्दर्य की कम, उसके बोल्ड होने की ज्यादा होने लगी. कहीं ‘जज’ करने सरीखे व्यंग्य, कहीं ‘बायगॉड की कसम, तेरी भाभी मिल गई’ जैसी मजाक.

सना कैंटीन के रास्ते ऊपर फिर से फ्लोर पर लौट ही रही थी, कि पंचिंग गेट पर रौनक अपना कंधा उसे छूते हुए निकला. ‘ओह सॉरी’ बोल कर रौनक आगे बढ़ गया.

सना को ये ‘सॉरी’ आर्टीफिशियल सा लगा. वो बार-बार सोच रही थी कि कंधा टकराना नॉर्मल हो सकता है लेकिन पूरे हाथ को छूते हुए निकलना और सॉरी बोलते वक्त उसका आंखों की बजाये शरीर की ओर घूरना, एक सामान्य घटना नहीं थी. कुछ मिनट तक इस पर सोचने के बाद वो इस घटना को इग्नोर करते हुए फिर से एचआर विंग में जाकर बैठ गई. वहां पहुंचते ही रूमा ने उसे कहा- ‘छू गया तुम्हें भी वो हरामी ?’

‘सॉरी, क्या कहा आपने’, सना ने चौंक कर रूमा की ओर देखा. ‘देख रही थी मैं, गेट पर वो तुमसे कैसे टकरा कर गया.’

‘हां, वो सॉरी बोल रहे थे, हू इस ही ?’  सना ने रूमा की बात का जवाब दिया.

रूमा बोली- ‘वो रौनक है, बास्टर्ड साला… बस मौका चाहिए उसे टकराने का. तीन साल में कभी एक बार भी उसकी आंखे शरीर की तांक झांक से हटते नहीं देखी मैंने. इस फ्लोर पर कोई ऐसी लड़की नहीं, जिससे वो एक्सीडेंटली टकराता नहीं. बॉस का खास चमचा है, सब्जी पहुंचाने से लेकर बच्चों को टूशन ले जाने तक का जिम्मा इसी का है, इसलिए इसे कुछ बोल नहीं सकते. बस सहना पड़ता है.’

सना की ज्वाइनिंग और उस टक्कर को आज दो साल बीत चुके हैं. सना तीन दिन पहले रिजाइन भी कर चुकी है. रौनक वहीं उसी दफ्तर में रौनक फैला रहे हैं. अब भी वो किसी से भी टकरा जाते हैं.

न किसी ने उसे कुछ कहा, न किसी ने उसके ऊपर वालों से कुछ कहा. रौनक का प्रमोशन हो चुका है.  कैबिन मिल गया है. आते-जाते आजकल वो कंधे की बजाये सीधे-सीधे टकरा जाते हैं. ऑफिस फीमेल स्टाफ थोड़ा संभल कर चलता है तो वो फीमेल विजिटर्स से टकरा जाते हैं. पर हां, शराफत बरकरार है, ‘सॉरी’ जरूर बोलते हैं. Short Story in Hindi

Hindi Thriller Story: जवाब ब्लैकमेल का

Hindi Thriller Story: रमासन्न रह गई. उस के मोबाइल पर व्हाट्सऐप पर किसी ने उस के अंतरंग क्षणों का वीडियो भेजा था और साथ में यह संदेश भी कि यदि वह इस वीडियो तथा इस तरह के और वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड होते नहीं देखना चाहती तो उस के साथ उसे हमबिस्तर होना पड़ेगा और वह सबकुछ करना पड़ेगा जो वह

उस वीडियो में बड़े प्यार और कुशलता से कर रही है.

वह घर में फिलहाल अकेली थी. प्रकाश औफिस जा चुका था. वह शाम 7 बजे के बाद

ही घर लौटता है. क्या करे, वह समझ नहीं पा रही थी. ‘प्रकाश को फोन करूं क्या?’ उस ने सोचा.

नहीं, पहले समझ तो ले मामला क्या है मानो उस ने खुद से कहा. उस ने वीडियो क्लिप को ध्यान से देखा. कहीं यह वीडियो डाक्टर्ड तो नहीं? किसी पोर्न साइट में उस के चेहरे को फिट कर दिया गया हो शायद. पर नहीं. यह डाक्टर्ड वीडियो नहीं था. वीडियो में साफसाफ वही थी. दृश्य भी उस के बैडरूम का ही था

और उस के साथ जो पुरुष था वह भी प्रकाश ही था. बैडशीट भी उस की थी. इतनी कुशलता से कोई कैसे पोर्न वीडियो में तबदीली कर सकता है?

प्रकाश ओरल सैक्स का दीवाना था. वह तो पहले संकोच करती थी पर धीरेधीरे उस की झिझक भी मिट गई थी. अब वह भी इस का भरपूर आनंद लेने लगी थी. साथ ही प्रकाश उन क्षणों का आनंद रोशनी में ही लेना चाहता था. फ्लैट में और कोई था नहीं. अत: अकसर वे रोशनी में ही यौन सुख का आनंद लेते थे.

वीडियो में वह प्रकाश के साथ थी और बैडरूम के ठीक सामने स्विचबोर्ड भी साफसाफ दिख रहा था. पर ऐसा कैसे हो सकता है? यह दृश्य तो लगता है किसी ने जैसे कमरे में सामने खड़े हो कर फिल्माया है. उस का सिर चकराने लगा. उस की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था.

तभी उस के दिमाग में एक विचार कौंधा. ट्रूकौलर पर उस ने उस नंबर को सर्च किया, जिस से वीडियो क्लिप भेजा गया था. देवेंद्र महाराष्ट्र. ट्रूकौलर पर यही सूचना थी. देवेंद्र कौन हो सकता है? क्या इस नंबर पर कौल कर पता करे या फिर प्रकाश से बोले. वह कोई निर्णय कर पाती उस के पहले ही उस के मोबाइल की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो.’’

‘‘भाभीजी नमस्कार, आशा है वीडियो आप को पसंद आया होगा. ऐसे कई वीडियो हैं हमारे पास आप के. कम से कम 25. कहो तो इन्हें सोशल मीडिया पर अपलोड कर दूं?’’

‘‘कौन हो तुम और क्या चाहते हो?’’

‘‘बहुत सुंदर प्रश्न किया है आप ने. कौन हूं मैं और क्या चाहता हूं? कौन हूं यह तो सामने आने पर पला चल जाएगा और क्या चाहता हूं

यह तो वीडियो क्लिप के साथ मैं ने बता दिया है आप को. सच पूछो भाभीजी तो आप के वीडियो का मैं इतना दीवाना हूं कि मैं ने तो पोर्न साइट देखना ही छोड़ दिया है. आप तो पोर्न सुपर स्टार को भी मात कर देती हैं. आप ने मुझे अपना दीवाना बना लिया है.’’

रमा समझ नहीं पाई कि क्या किया जाए. गुस्सा तो उसे बहुत आ रहा था पर उस से ज्यादा उसे डर लग रहा था कि कहीं सचमुच उस ने सोशल मीडिया पर वीडियो अपलोड कर दिया तो वह क्या करेगी. फिर उस

ने एक उपाय सोचा और उस के अनुसार उसे जवाब दिया, ‘‘देखो, मैं तैयार हूं पर इस के लिए सुरक्षित जगह होनी चाहिए.’’

‘‘आप के घर से सुरक्षित जगह और क्या होगी? प्रकाशजी तो रात में ही वापस आते हैं न?’’

रमा चौंक पड़ी. मतलब वीडियो भेजने वाला प्रकाश का नाम भी जानता है और वह कब आता है यह भी उसे पता है.

‘‘आते तो 7 बजे के बाद ही हैं पर औफिस तो इसी शहर में है. कहीं बीच में आ गए तो फिर मेरी क्या हालत होगी? 2 दिनों के बाद वे अहमदाबाद जाने वाले हैं 1 सप्ताह के लिए. इस बीच में आप की बात मान सकती हूं.’’

‘‘अरे, वाह आप तो बड़ी समझदार निकलीं. मैं तो सोच रहा था आप रोनाधोना शुरू कर देंगी.’’

‘‘बस, आप वीडियो किसी को मत दिखाइए और मेरे मोबाइल पर कोई वीडियो मत भेजिए. ये कहीं देख न लें… इसे मैं डिलीट कर रही हूं.’’

‘‘जैसे 1 डिलीट करेंगें वैसे ही 5 भी डिलीट कर सकती हैं. मैं कुछ और वीडियो भेजता हूं. देख तो लीजिए आप कितनी कुशलतापूर्वक काम को अंजाम देती हैं. देख कर आप डिलीट कर दीजिएगा. इन वीडियोज ने तो मेरी नींद उड़ा दी है. इंतजार रहेगा 2 दिन बीतने का. हां, कोईर् चालाकी मत कीजिएगा. मुझे अच्छा नहीं लगेगा कि दुनिया आप की इस कलाकारी को देखे. रखता हूं.’’

फोन डिसकनैक्ट हो गया. कुछ ही देर में एक के बाद एक कई क्लिप उस के मोबाइल पर आते गए. उस ने 1-1 क्लिप को देखा. ऐसा लग रहा था मानो कोई अदृश्य हो कर उन के क्रीड़ारत वीडियोज बना रहा था. शाम को प्रकाश आया तो रमा का चेहरा उतरा हुआ था. ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ प्रकाश ने टाई की नौट ढीली करते हुए पूछा. ‘‘तबीयत बिलकुल ठीक नहीं है, बड़ी मुसीबत में हूं. दिनभर सोचतेसोचते दिमाग भन्ना गया है,’’ रमा ने तौलिया और पाजामा उस की ओर बढ़ाते हुए कहा. ‘‘कितनी बार तुम्हें सोचने के लिए मना किया है. छोटा सा दिमाग और सोचने जैसा भारीभरकम काम,’’ कपड़े बदलते हुए प्रकाश ने चुटकी ली.

‘‘पहले फ्रैश हो लो, चायनाश्ता कर लो, फिर बात करती हूं,’’ रमा ने कहा और फिर रसोई की ओर चल दी.

प्रकाश फ्रैश हो कर बाथरूम से आ कर नाश्ता कर चाय पीने लगा. रमा चाय का कप हाथ में लिए उदास बैठी थी.

‘‘हां, मुहतरमा, बताइए क्या सोच कर अपने छोटे से दिमाग को परेशान कर रही हैं?’’ प्रकाश ने यों पूछा मानो वह उसे किसी फालतू बात के लिए परेशान करेगी.

जवाब में रमा ने अपना मोबाइल फोन उठाया, स्क्रीन को अनलौक किया और उस वीडियो क्लिप को चला कर उसे दिखाया.

वीडियो देख प्रकाश भौचक्का रह गया, ‘‘यह… क्या है?’’

‘‘कोई देवेंद्र है, जिस ने मुझे यह क्लिप भेजा है. इसे सोशल साइट पर अपलोड करने की धमकी दे रहा था. अपलोड न करने के लिए वह मेरे साथ वही सब करना चाहता है जो वीडियो में मैं तुम्हारे साथ कर रही हूं. मैं ने उस से 2 दिन की मोहलत मांगी है. उस से कहा है कि 2 दिन बाद तुम अहमदाबाद जा रहे हो. उस दौरान उस की मांग पूरी की जाएगी.’’

प्रकाश 1-1 क्लिप को देख रहा था. उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि कैसे कोई इतना स्पष्ट वीडियो बना सकता है. उस ने अपने बैड के पास जा कर देखा. कहीं कोई गुप्त कैमरा लगाने की गुंजाइश नहीं थी और कोई गुप्त कैमरा लगाता कैसे. घर में तो किसी अन्य के प्रवेश करने का प्रश्न ही नहीं है. अपार्टमैंट में सिक्युरिटी की अनुमति के बिना कोई आ ही नहीं सकता. उस के प्लैट के सामने अपार्टमैंट का ही दूसरा फ्लैट था जो काफी दूर था. ‘‘हमें पुलिस को खबर करनी होगी,’’ प्रकाश ने कहा, ‘‘पर पहले एक बार खुद भी समझने की कोशिश की जाए कि मामला क्या है.’’ दोनों काफी तनाव में थे. खाना खा कर कुछ देर तक टीवी देखते रहे पर किसी चीज में मन नहीं लग रहा था. रात के 11 बजे दोनों सोने बैड पर गए, पर नींद आंखों से कोसों दूर थी. पतिपत्नी दोनों की ही इच्छा नहीं थी और दिनों की तरह रतिक्रिया में रत होने की. और दिन होता तो प्रकाश कहां मानता. मगर आज तनाव ने सबकुछ बदल दिया था.

प्रकाश की बांहों में लेटी रमा कुछ सोच रही थी. प्रकाश छत को निहार रहा था. एकाएक प्रकाश को खिड़की के पास कोई संदेहास्पद वस्तु दिखाई दी. वह झपट कर खिड़की के पास गया. उस ने देखा सैल्फी स्टिक की सहायता से सामने वाले फ्लैट की खिड़की से कोई मोबाइल से उन की वीडियोग्राफी कर रहा था. प्रकाश तुरंत बाहर निकल कर उस फ्लैट में गया और डोरबैल बजाई. पर मोबाइल में शायद उस ने उसे बाहर निकलते हुए देख लिया था. काफी देर डोरबैल बजाने के बाद भी दरवाजा नहीं खुला तो प्रकाश वापस आ गया. उस ने इंटरकौम से सोसाइटी के सचिव को फोन कर मामले की जानकारी दी. सचिव ने बताया कि उस में कोई देवेंद्र नाम का व्यक्ति रहता है और किसी प्राइवेट फर्म में काम करता है. इस तरह की घटना से सभी हैरान थे.

काफी कोशिश की गई देवेंद्र से बात करने की. पर न तो उस ने फोन उठाया न ही दरवाजा खोला. हार कर सिक्युरिटी को ताकीद कर दी गई कि उस व्यक्ति को सोसाइटी से बाहर न निकलने दिया जाए.

दूसरे दिन सुबह थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई और फिर देवेंद्र को गिरफ्तार कर लिया गया. ‘‘तुम ने बहुत अच्छा निर्णय लिया कि वीडियो के बारे में मुझे बता दिया. यदि उस के ब्लैकमेल के झांसे में आ जाती तो काफी मुश्किल होती और फिर वह न जाने कितने लोगों को इसी तरह ब्लैकमेल करते रहता,’’ प्रकाश ने बिस्तर पर लेटेलेटे रमा की कमर में हाथ डालते हुए कहा. रमा ने उस के हाथ को हटाते हुए कहा, ‘‘पहले खिड़की के परदे ठीक करो, बत्ती बुझाओ फिर मेरे करीब आओ.’’ प्रकाश खिड़की के परदे ठीक करने के लिए उठ गया. Hindi Thriller Story

Short Hindi Story: वाइफ के लिए गिफ्ट

Short Hindi Story: आज मुझे घर जाने की जल्दी थी. मैं ने अपनी 24 साल पुरानी श्रीमतीजी से मूवी दिखाने का वादा जो किया था. इन 24 सालों में यह मेरा 7वां वादा था जिसे मैं तनमनधन से पूरा करना चाहता था. जल्दीजल्दी सारा काम निबटा कर मैं बौस के कैबिन में गया और उन से घर जाने की अनुमति मांगी.

‘‘क्यों?’’ बौस ने गोली सी दागी.

‘‘जी… पत्नी को मूवी दिखाना है,’’ मैं हकला गया.

‘‘शादी की सालगिरह है क्या?’’

‘‘जी नहीं, शादी की 25वीं सालगिरह आने वाली है. इसलिए…’’

वे ठहाका मार कर के हंसे और फिर मुझे अनुमति मिल गई. मैं ने स्कूटर निकाला और फुल स्पीड पर चलाने लगा. मैं अपनी श्रीमतीजी का प्रसन्न चेहरा (जो कभीकभी ही देखने को मिलता था) मन में बसाए चला जा रहा था कि अचानक मेरी खुशी को बे्रक लग गया. टायर पंक्चर हो चुका था. जैसेतैसे स्कूटर घसीटता वर्कशौप तक लाया.

‘‘कितना समय लगेगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, लगभग 1 घंटा.’’

मेरा सारा जोश ठंडा हो गया. अब हम मूवी नहीं जा सकते थे. मरता क्या न करता, पास की दुकान पर पत्रिकाएं देखने लगा. सोचा अच्छी सी पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी को मना लूंगा. मैं ने पत्रिका ली और दुकान पर आ गया. थोड़ी देर में पंक्चर बन गया तो मन ही मन पत्नी को खुश करने के नएनए तरीके सोचता मैं घर चल दिया. घर पहुंचा तो डरतेडरते कमरे में प्रवेश किया. सामने का नजारा देखने लायक था. पलंग की चादर आधी ऊपर आधी नीचे झूल रही थी और तकियों की आधी रुई बाहर निकली हुई थी. इधरउधर नेलपौलिश की बिखरी टूटी शीशियां व लिपस्टिक, पाउडर अपनी कहानी अलग सुना रहे थे. मेरे कपड़े और श्रीमतीजी की साडि़यां भी इधरउधर बिखरी पड़ी थीं.

मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप उठा. अलमारी खोल कर देखी तो पाया कि बैंक से निकाले गए रुपए सुरक्षित थे. फिर मैं भगताभागता किचन में गया. वहां का तो हाल और भी बुरा था. पूरे किचन में उलटेसीधे पड़े जूठे, साफ बरतन, टूटी प्यालियां, इधरउधर बिखरी सब्जियां और सिंक से टपकता पानी. ऐसा लग रहा था जैसे भूकंप और बाढ़ साजिश रच कर एकसाथ हमारे घर आए हैं. हम बुद्धिमान थे, जल्दी ही समझ गए कि मूवी न देख पाने का क्रोध श्रीमतीजी ने घर पर उतारा है और यह उन के द्वारा किया गया अद्भुत इंटीरियर डैकोरेशन है. हम अपनी पत्नी की इस प्रतिभा के कायल हो गए.

डरतेडरते हम फैले सामान को समेट ही रहे थे कि काली का रूप धारण किए एक महिला मूर्ति ने प्रवेश किया. बिखरे बाल, लाल आंखें, हाथ में बेलन आदि… अभी हम इस दानवी रूप को पूरी तरह निहार भी नहीं पाए थे कि एक भयानक गर्जना सुनाई दी, ‘‘कितने बजे हैं?’’

आप भी पहचान गए न? जी हां ये हमारी प्राणप्रिया ही थीं.

‘‘वह मेरा स्कूटर…’’

‘‘भाड़ में जाओ तुम और साथ में तुम्हारा स्कूटर भी,’’ कहते हुए उन्होंने हमारा कौलर पकड़ कर झटका तो हम जमीन पर और हाथ की पत्रिका पलंग पर. वाह, पत्रिका ने तो कमाल ही कर दिया, हमें छोड़ कर वे पत्रिका पर झपटीं और उस का नाम पढ़ कर उन की आंखें चमक उठीं. वह था- करवाचौथ विशेषांक. वे पलटीं और बोलीं, ‘‘सुनो, हम ने माफ किया.’’

हम उन की इस अदा पर निढाल हो गए, ‘‘तो फिर चाय…’’ हम बोले तो वे बोलीं, ‘‘हांहां बरतन धो कर फटाफट बना लो और पास की दुकान से समोसे भी ले आना. तब तक मैं जरा इस पत्रिका के पन्ने पलट लूं.’’

और वह पत्रिका में ऐसे डूब गईं जैसे चाशनी में रसगुल्ला. अपनी गलती का फल तो मुझे ही भुगतना था, इसलिए शाम की चाय बनाने के साथ घर की सफाई भी मैं ने की और डिनर भी मैं ने ही बनाया. अगली सुबह मैं बिना नाश्ता किए ही औफिस चला गया. वे देर रात तक पत्रिका पढ़ने के कारण सो रही थीं. शाम को श्रीमतीजी हमें दरवाजे पर ही मिल गईं और बोलीं, ‘‘चाय लौट कर पीना अभी हम बाजार चल रहे हैं.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘पत्रिका में लिखे अनुसार हमें साड़ी, चूड़ी, मेकअप का सामान, ज्वैलरी आदि लानी है.’’

एक ही दिन में हम लुट चुके थे. यही नहीं 2 दिन की छुट्टी ले कर श्रीमतीजी को पार्लर भी ले जाना पड़ा. आखिर करवाचौथ का वह सुहाना दिन आ ही गया. मैं ने सोचा आज के मुख्य अतिथि तो हम ही हैं. लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? उस दिन सुबह श्रीमतीजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘सुनो, दूध गरम कर लेना और अपनी चाय के साथ मेरी भी बना लेना.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा तो निर्जल व्रत है.’’

‘‘इस बार नहीं है. पत्रिका में लिखा है कि शारीरिक रूप से कमजोर होने पर आप चायदूध ले सकते हैं और हां, दोपहर को मुझे दूध गरम कर के दे देना, उस के बाद मैं नहा लूंगी.’’

हम ने अपनी श्रीमतीजी के भारीभरकम कमजोर शरीर को देखा और किचन में चल दिए. लंच के लिए हम बेफिक्र थे कि उसे तो श्रीमतीजी बना ही लेंगी, लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? लंच के वक्त श्रीमतीजी दोनों हाथों में मेहंदी लगाए नए फरमान के साथ खड़ी थीं, ‘‘हम पैरों में मेहंदी लगवा रहे हैं, इसलिए लंच में तुम कुछ भी उलटासीधा खा लेना. हम ये सारी मेहनत आप के लिए ही तो कर रहे हैं.’’

कुछ बनाने की हिम्मत अब हमारे अंदर नहीं थी, इसलिए हम ने व्रत रखना ही उचित समझा. अभी पत्रिका के कुछ पन्ने शेष थे, अत: उस के अनुसार हम शाम को श्रीमतीजी को पार्लर ले कर गए. वहां ब्यूटीशियन ने 4,000 का चूना लगा कर श्रीमतीजी को देखने लायक खूबसूरत बना ही दिया. पानी में हाथ डालने से मेहंदी खराब न हो इसलिए डिनर भी बाहर ही किया. गिफ्ट में हमें सोने की अंगूठी भी देनी पड़ी क्योंकि सोना गिफ्ट में देने से पतिपत्नी में प्यार बढ़ता है, यह भी पत्रिका में लिखा था.

अब हमें पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी प्रसन्न करने के अपने विचार पर बहुत अफसोस हो रहा था और इस के पहले श्रीमतीजी पत्रिका के बाकी पन्ने पढ़ कर हमारी ऐसीतैसी करतीं, हम ने इस प्रण के साथ लाइट बंद कर दी कि गिफ्ट में श्रीमतीजी को जान भले ही दे दूं पर पत्रिका कभी नहीं दूंगा. Short Hindi Story

Best Family Drama : मां मां होती है

Best Family Drama : उस दिन सोशल नैटवर्किंग साइट पर जन्मदिन का केक काटती हुई प्रज्ञा और कुसुम का अपनी मां के साथ फोटो देख कर मुझे बड़ा सुकून मिला. नीचे फटाफट कमैंट डाल दिया मैं ने, ‘‘आंटी को स्वस्थ देख कर बहुत अच्छा लगा.’’ सालभर पहले कुसुम अपने पति के लखनऊ से दिल्ली स्थानांतरण के समय जिस प्रकार अपनी मां को ऐंबुलैंस में ले कर गई थी, उसे देख कर तो यही लग रहा था कि वे माह या 2 माह से ज्यादा नहीं बचेंगी. दिल्ली में उस की बड़ी बहन (Best Family Drama) प्रज्ञा पहले से अपनी ससुराल वालों के साथ पुश्तैनी घर में रह कर अपनी गृहस्थी संभाल रही थी.

जब कुसुम के पति का भी दिल्ली का ट्रांसफर और्डर आया तो 6 माह से बिस्तर पर पड़ी मां को ले कर वह भी चल पड़ी. यहां लखनऊ में अपनी 2 छोटी बेटियों के साथ बीमार मां की जिम्मेदारी वह अकेले कैसे उठाती. बड़ी बहन का भी बारबार छुट्टी ले कर लखनऊ आना मुश्किल हो रहा था.

प्रज्ञा और कुसुम दोनों जब हमारे घर के बगल में खाली पड़े प्लौट में मकान बनवाने आईं तभी उन से परिचय हुआ था. उन के पिता का निधन हुए तब 2 वर्ष हो गए थे. उन की मां  हमारे ही घर बैठ कर बरामदे से मजदूरों को देखा करतीं और शाम को पास ही में अपने किराए के मकान में लौट जातीं. वे अकसर अपने पति को याद कर रो पड़तीं. उन्हीं से पता चला था कि बड़ी बेटी प्रज्ञा 12वीं में और छोटी बेटी कुसुम छठवीं कक्षा में ही थी जब उन के पति को दिल का दौरा पड़ा. जिसे वे एंग्जाइटी समझ कर रातभर घरेलू उपचार करती रहीं और सुबह तक सही उपचार के अभाव में उन की मौत हो गई.

वे हमेशा अपने को कोसती रहतीं, कहतीं, ‘प्रज्ञा को अपने पिता की जगह सरकारी क्लर्क की नौकरी मिल गई है, उस का समय तो अच्छा ही रहा. पहले पिता की लाड़ली रही, अब पिता की नौकरी पा गई. छोटी कुसुम ने क्या सुख देखा? उस के सिर से पिता का साया ही उठ गया है.’

दरअसल, अंकल बहुत खर्चीले स्वभाव के थे. महंगे कपड़े, बढि़या खाना और घूमनेफिरने के शौकीन. इसीलिए फंड के रुपयों के अलावा बचत के नाम पर बीमा की रकम तक न थी.

प्रज्ञा हमेशा कहती, ‘मैं ही इस का पिता हूं. मैं इस की पूरी जिम्मेदारी लेती हूं. इस को भी अपने पैरों पर खड़ा करूंगी.’

आंटी तुनक पड़तीं, ‘कहने की बातें हैं बस. कल जब तुम्हारी शादी हो जाएगी, तो तुम्हारी तनख्वाह पर तुम्हारे पति का हक हो जाएगा.’

किसी तरह से 2 कमरे, रसोई का सैट बना कर वे रहने आ गए. अपनी मां की पैंशन प्रज्ञा ने बैंक में जमा करनी शुरू कर दी और उस की तनख्वाह से ही घर चलता. उस पर भी आंटी उसे धौंस देना न भूलतीं, ‘अपने पापा की जगह तुझे मिल गई है. कल को अपनी ससुराल चली जाएगी, फिर हमारा क्या होगा? तेरे पापा तो खाने में इतनी तरह के व्यंजन बनवाते थे. यह खाना मुझ से न खाया जाएगा.’ और भी न जाने क्याक्या बड़बड़ाते हुए दिन गुजार देतीं.

कुसुम सारे घर, बाहर के काम देखती. साथ ही अपनी पढ़ाई भी करती. बड़ी बहन सुबह का नाश्ता बना कर रख जाती, फिर शाम को ही घर लौट कर आती. वह रास्ते से कुछ न कुछ घरेलू सामान ले कर ही आती.

दोनों बहनें अपने स्तर पर कड़ी मेहनत करतीं, पर आंटी की झुंझलाहट बढ़ती ही जा रही थी. कभी पति, तो कभी अपना मनपसंद खाना, तरहतरह के आचार, पापड़, बडि़यां सब घर में ही तैयार करवातीं.

छुट्टी के दिन दोनों बहनें आचार, पापड़, बडि़यां धूप में डालती दिख जातीं. मेरे पूछने पर बोल पड़तीं, ‘पापा खाने के शौकीन थे तभी से मां को भी यही सब खाने की आदत हो गई है. न बनाओ, तो बोल पड़ती हैं, ‘जितना राजपाट था मेरा, तेरे पिता के साथ ही चला गया. अब तो तुम्हारे राज में सूखी रोटियां ही खानी पड़ रही हैं.’

उन दोनों बहनों को दिनरात मेहनत करते देख बहुत दुख भी होता. समय गुजरता गया, जल्द ही छोटी बहन की एमए की शिक्षा पूरी हो गई. प्रज्ञा 30 साल की हो गई. जब आंटी पर चारों तरफ से दबाव पड़ने लगा कि ‘प्रज्ञा की शादी कब करोगी?’ तो उन्होंने उलटा लोगों से ही कह दिया, ‘मैं अकेली औरत कहां जाऊंगी, तुम लोग ही कहीं देखभाल कर रिश्ता बता देना.’

दरअसल, उन्हें बेटियों की शादी की कोई जल्दी नहीं थी जबकि दोनों बेटियां विवाहयोग्य हो गई थीं. ज्यादातर रिश्ते इसी बात पर टूट जाते कि पिता नहीं, भाई भी नहीं, कौन मां की जिम्मेदारी जिंदगीभर उठाएगा. आखिर, प्रज्ञा की शादी तय हो ही गई.

पता चला कि लड़का बेरोजगार है और यों ही छोटेमोटे बिजली के काम कर के अपना खर्चा चलाता है. महेश का परिवार दिल्ली के पुराने रईस लोगों में से एक था, 4 बड़े भाई थे, सभी अच्छे पद पर नियुक्त थे. सो, सब से छोटे भाई के लिए कमाऊ पत्नी ला कर उन्होंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया.

महेश अब घरजमाई बन कर रहने लखनऊ आ गया. आंटी का बहुत खयाल रखता. मगर आंटी उसे ताना मारने से न चूकतीं. कुसुम ने प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना और घर में ट्यूशन ले कर घरखर्च में योगदान देना शुरू कर दिया था.

नवविवाहितों को 2 कमरों के घर में कोई एकांत नहीं मिल पाता था, ऊपर से मां की बेतुकी बातें भी सुननी पड़तीं. प्रज्ञा ने कभी भी इस बात को ले कर कोई शिकायत नहीं की, बल्कि वह जल्द से जल्द कुसुम के रिश्ते के लिए प्रयासरत हो उठी.

अपनी ससुराल की रिश्तेदारी में ही प्रज्ञा ने कुसुम का रिश्ता तय कर दिया. रमेश सरकारी दफ्तर में क्लर्क था और उस के घर में बीमार पिता के अलावा और कोई जिम्मेदारी नहीं थी. उस से बड़ी 2 बहनें थीं और दोनों ही दूसरे शहरों में विवाहित थीं. कुसुम की विदाई लखनऊ में ही दूसरे छोर में हो गई. सभी ने प्रज्ञा को बहुत बधाइयां दीं कि उस ने अपनी जिम्मेदारियों को बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया.

अब आंटी का दिलोदिमाग कुसुम के विवाह की चिंता से मुक्त हो गया था. कोई उद्देश्य जिंदगी में बाकी नहीं रहने से उन के खाली दिमाग में झुंझलाहट बढ़ने लगी थी. वे अकसर अपने दामाद महेश से उलझ पड़तीं. बेचारी प्रज्ञा औफिस से थकीमांदी आती और घर पहुंच कर सासदामाद का झगड़ा निबटाती.

धीरेधीरे आंटी को सफाई का मीनिया चढ़ता ही जा रहा था. अब वे घंटों बाथरूम को रगड़ कर चमकातीं. दिन में 2 से 3 बार स्नान करने लगतीं. अपने कपड़ों को किसी के छू लेने भर से दोबारा धोतीं. अपनी कुरसी, अपने तख्त पर किसी को हाथ भी धरने न देतीं.

वे अपने खोल में सिमटती जा रही थीं. पहले अपने भोजन के बरतन अलग किए, फिर स्नानघर के बालटीमग भी नए ला कर अपने तख्त के नीचे रख लिए.

प्रज्ञा के पूछने पर बोलीं, ‘मेरा सामान कोई छुए तो मुझे बहुत घिन आती है, बारबार मांजना पड़ता है. अब मैं ने अपने इस्तेमाल का सारा सामान अलग कर लिया है. अब तुम लोग इसे हाथ भी मत लगाना.’ प्रज्ञा को अपने पति महेश के समक्ष शर्मिंदगी उठानी पड़ती. हर समय घर में शोर मचा रहता, ‘बिना नहाए यह न करो, वह न करो, मेरी चीजों को न छुओ, मेरे वस्त्रों से दूर रहो’ आदिआदि.

दामाद तानाशाही से जब ऊब जाता तो 2-4 दिनों को अपने घरपरिवार, जोकि दिल्ली में था, से मिलने को चल देता. प्रज्ञा अपनी मां को समझाए या पति को, समझ न पाती. किसी तरह अपनी गृहस्थी बचाने की कोशिश में जुटी रहती. इन 4 सालों में वह 2 बच्चों की मां बन गई. खर्चे बढ़ने लगे थे और मां अपनी पैंशन का एक पैसा खर्च करना नहीं चाहतीं. वे उलटा उन दोनों को सुनाती रहतीं, ‘यह तनख्वाह जो प्रज्ञा को मिलती है अपने बाप की जगह पर मिलती है.’ उन का सीधा मतलब होता कि उन्हें पैसे की धौंस न देना.

आंटी आएदिन अपने मायके वालों को दावत देने को तैयार रहतीं. वे खुद भी बहुत चटोरी थीं, इसीलिए लोगों को घर बुला कर दावत करातीं. जब भी उन्हें पता चलता कि इलाहाबाद से उन के भाई या बनारस से बहन लखनऊ किसी शादी में शामिल हो रहे हैं तो तुरंत अपने घर पर खाने, रुकने का निमंत्रण देने को तैयार हो जातीं.

घर में जगह कम होने की वजह से जो भी आता, भोजन के पश्चात रुकने के लिए दूसरी जगह चला जाता. मगर उस के लिए उत्तम भोजन का प्रबंध करने में प्रज्ञा के बजट पर बुरा असर पड़ता. वह मां को लाख समझाती, ‘देखो मम्मी, मामा, मौसी लोग तो संपन्न हैं. वे अपने घर में क्या खाते हैं क्या नहीं, हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है. मगर वे हमारे घर आए हैं तो जो हम खाते हैं वही तो खिलाएंगे. वैसे भी हमारी परेशानियों में किस ने आर्थिक रूप से कुछ मदद की है जो उन के स्वागत में हम पलकपांवड़े बिछा दें.’ लेकिन आंटी के कानों में जूं न रेंगती. उन्हें अपनी झूठी शान और अपनी जीभ के स्वाद से समझौता करना पसंद नहीं था.

आंटी को आंखों से कम दिखने लगा था. एक दिन रिकशे से उतर कर भीतर आ रही थीं, तो पत्थर से ठोकर खा कर गिर पड़ीं. अब तो अंधेरा होते ही उन का हाथ पकड़ कर अंदरबाहर करना पड़ता. अब उन्होंने एक नया नाटक सीख लिया. दिनरात टौर्च जला कर घूमतीं. प्रज्ञा अपने कमरे में ही अपने छोटे बच्चों को भी सुलाती क्योंकि उस की मां तो अपने कमरे में बच्चों को घुसने भी न देतीं, अपने तख्त पर सुलाना तो दूर की बात थी. आंटी को फिर भी चैन न पड़ता. रात में उन के कमरे का दरवाजा खटका कर कभी दवा पूछतीं तो कभी पानी मांगतीं.

आंटी के कमरे की बगल में ही रसोईघर है, मगर रसोईघर से पानी लेना छोड़, वे प्रज्ञा और महेश को डिस्टर्ब करतीं. ऐसा वे उस दिन जरूर करतीं जब उन्हें उन के कमरे से हंसीमजाक की आवाज सुनाई देती. प्रज्ञा अपनी मां को क्या कहती, लेकिन महेश का मूड औफ हो जाता. आंटी उन की शादीशुदा जिंदगी में सेंध लगाने लगी थीं. इस बीच आंटी की दोनों आंखों के मोतियांबिंद के औपरेशन भी हुए. उस समय भी दोनों पतिपत्नी ने पूरा खयाल रखा. फिर भी आंटी का असंतोष बढ़ता ही गया.

उधर, कुसुम के बीमार ससुर जब चल बसे तब जा कर उस के मायके  के फेरे बढ़ने लगे. ऐसे में आंटी कुसुम से, प्रज्ञा की खूब बुराई करतीं और अपना रोना रोतीं, ‘वे दोनों अपने कमरे में मग्न रहते हैं. मेरा कोई ध्यान नहीं रखता. मेरी दोनों आंखें फूट गई हैं.’ कुसुम समझाबुझा कर चली जाती. इधर महेश का मन ऊबने लगा था. एक तो उस की आमदनी व काम में कोई इजाफा नहीं हो रहा था, ऊपर से सास के नखरे. प्रज्ञा और उस के बीच झगड़े बढ़ने लगे थे. प्रज्ञा न तो मां को छोड़ सकती थी, न ही पति को. दोनों की बातें सुन वह चुप रहती.

प्रज्ञा का प्रमोशन और ट्रांसफर जब दिल्ली हो गया तो उस ने चैन की सांस ली और अपनी मां से भी दिल्ली चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. वे अपनी सत्संग मंडली छोड़ कर कहीं जाना नहीं चाहती थीं. प्रज्ञा के खर्चे दिनोंदिन बढ़ ही रहे थे. महेश की कोई निश्चित आमदनी नहीं थी. प्रज्ञा ने कुसुम को बुलाया कि वह मां को समझाबुझा कर साथ में दिल्ली चलने को तैयार करे. मगर वे अपना घर छोड़ने को तैयार ही न हुईं. अंत में यह फैसला हुआ कि प्रज्ञा अपने परिवार के साथ दिल्ली चली जाए और कुसुम अपने पति के साथ मायके रहने आ जाएगी. अपनी ससुराल के एक हिस्से को कुसुम ने किराए पर चढ़ा दिया और अपनी मां के संग रहने को चली आई. आखिर वे दोनों अपनी मां को अकेले कैसे छोड़ देतीं, वह भी 70 साल की उम्र में.

कुसुम मायके में रहने आ गई. किंतु अभी तक तो वह मां से प्रज्ञा की ढेरों बुराइयों को सुन दीदी, जीजाजी को गलत समझती थी. अब जब ऊंट पहाड़ के नीचे आया तो उसे पता चला कि उस की मां दूसरों को कितना परेशान करती हैं. उस की 2 छोटी बेटियां भी थीं और घर में केवल 2 ही कमरे, इसीलिए वह अपनी बेटियों को मां के साथ सुलाने लगी.

मां को यह मंजूर नहीं था, कहने लगीं, ‘प्रज्ञा के बच्चे उस के साथ ही उस के कमरे में सोते थे, मैं किसी को अपने साथ नहीं सुला सकती.’ कुसुम ने 2 फोल्ंिडग चारपाई बिछा कर अपनी बेटियों के सोने का इंतजाम कर दिया और बोली, ‘पति को, बच्चों को अपने संग सुलाना पसंद नहीं है. और अगर कोई तुम्हारा सामान छुएगा तो मैं घर में ही हूं, जितनी बार कहोगी मैं उतनी बार धो कर साफ कर दूंगी.’ उस की मां इस पर क्या जवाब देतीं.

आंटी प्रज्ञा को तो अनुकंपा नौकरी के कारण खरीखोटी सुना देती थीं, मगर कुसुम से जब पैसों को ले कर बहस होती तो उस के सामने पासबुक और चैकबुक ले कर खड़ी हो जातीं और पूछतीं, ‘कितना खर्चा हो गया तेरा, बोल, अभी चैक काट कर देती हूं.’ कुसुम उन का नाटक देख वहां से हट जाती.

प्रज्ञा तो अपनी जौब की वजह से शाम को ही घर आती थी और घर में बच्चे महेश के संग रहते थे. शाम को थकीहारी लौटने के बाद किसी किस्म की बहस या तनाव से बचना चाहती. सो, वह अपनी मां की हर बात को सुन कर, उन्हें शांत रखने की कोशिश करती. मगर कुसुम घरेलू महिला होने के कारण दिनभर मां की गतिविधियों पर नजर रखती. वह आंटी की गलत बातों का तुरंत विरोध करती. आंटी ने प्रज्ञा को परेशान करने के लिए जो नाटक शुरू किए थे, अब वे उन की आदत और सनक में बदल चुके थे.

कुछ दिन तो आंटी शांत रहीं, मगर फिर कुसुम के सुखी गृहस्थ जीवन में आग लगाने में जुट गईं. कुसुम रात में आंटी को दवा खिला व सिरहाने पानी रख और अपनी बेटियों को सुला कर ही अपने कमरे में जाती. लेकिन आंटी को कहां चैन पड़ता. रात में टौर्च जला कर पूरे घर में घूमतीं. कभी अचानक ही दरवाजा खटका देतीं और अंदर घुस कर टौर्च से इधरउधर रोशनी फेंकतीं. उन से पूछो, तो कहतीं, ‘मुझे कहां दिखता हैं, मैं तो इसे रसोईघर समझ रही थी.’

रमेश को अपनी निजी जिंदगी में

दखलंदाजी बिलकुल पसंद नहीं थी.

अपनी बीवी के कहने से वह यहां रहने तो आ गया था मगर उस का छोटे से घर में दम घुटता था. साथ ही, उसे दिनभर सास के सौ नखरे सुनने को मिलते ही, रात में भी वे उन्हें चैन से सोने न देतीं. कुसुम मां को छोड़ नहीं सकती थी और प्रज्ञा से भी क्या कहती. अब तक वह ही तो इतने वर्षो तक मां को संभाले रही थी.

दोनों बहनों में केवल फोन से ही बातें होतीं. कुसुम मां की खाने की फरमाइशें देख कर हैरान हो जाती. अगर कुछ कहो तो मां वही पुराना राग अलापतीं, ‘तुम्हारे पापा होते तो आज मेरी यह गत न होती.’ यह सब सुन कर वह भी चुप हो जाती. मगर रमेश उबलने लगा था. उस ने पीना शुरू कर दिया. अकसर देररात गए घर आता और बिस्तर पर गिरते ही सो जाता.

कुसुम कुछ समझानाबुझाना चाहती भी, तो वह अनसुना कर जाता. दोनों के बीच का तनाव बढ़ने लगा था. मगर आंटी को सिर्फ समय से अपनी सफाई, पूजा, सत्संग और भोजन से मतलब था. इन में कोई कमी हो जाए, तो चीखचीख कर वे घर सिर पर उठा लेतीं. अब हर वक्त प्रज्ञा को याद करतीं कि वह ऐसा करती थी, महेश मेरी कितनी सेवा करता था आदिआदि.

यह सब सुन कर रमेश का खून खौल जाता. असल में महेश अपने भाइयों में सब से छोटा होने के कारण सब की डांट सुनने का आदी था. लेकिन रमेश 2 बहनों का एकलौता भाई होने के कारण लाड़ला पुत्र था. उस के बरदाश्त की सीमा जब खत्म हो गई तो एक रात वह वापस घर ही नहीं आया.

सब जगह फोन कर कुसुम हाथ पर हाथ धर कर बैठ गई. सुबह ननद

का फोन आया कि वह हमारे घर में

है. कानपुर से लखनऊ की दूरी महज

2-3 घंटे की तो है, सारी रात वह कहां था? इस का कोई जवाब ननद के पास भी नहीं था. फिर तो वह हर 15 दिन में बिना बताए गायब हो जाता और पूछने पर तलाक की धमकी देने लगा. कभी कहता, ‘कौन सा सुख है इस शादी से, अंधी लड़ाका सास और बेवकूफ बीवी, न दिन में चैन न रात में.’

कुसुम के शादीशुदा जीवन में तलाक की काली छाया मंडराने लगी थी. वह अकसर मेरे सामने रो पड़ती. आंटी किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं थीं. उस दिन उन की चीखपुकार सुन कर मैं उन से मिलने चली गई. पता चला कुसुम की छोटी बेटी रिनी की गेंद उछल कर उन के कमरे में चली गई. बस, इतने में ही उन्होंने घर सिर पर ले रखा था. पूरा कमरा धोया गया. दरवाजे, खिड़की, परदे, चादर सब धुलने के बाद ही उन्हें संतुष्टि हुई.

कुसुम ने बताया, ‘वह अपनी बेटियों को सिर्फ सोते समय ही मां के कमरे में ले जाती है. बाकी समय वह अपना कमरा बंद कर बैठी रहती है ताकि रिनी और मिनी उन के सामान को हाथ न लगा सकें. वैसे, मिनी 6 साल की हो गई है और बहुत समझदार भी है. वह दिन में तो स्कूल चली जाती है और शाम को दूसरे कमरे में ही बैठ कर अपना होमवर्क करती है, या फिर बाहर ही खेलती रहती है. लेकिन रिनी थोड़ी शैतान है. उसे नानी का बंद कमरा बहुत आकर्षित करता है. वह उस में घुसने के मौके तलाश करती रहती है.

‘रिनी दिनभर घर में ही रहती है और स्कूल भी नहीं जाती है. आज जब मां रसोई तक उठ कर गईं तो दरवाजा खुला रह गया. रिनी ने अपनी गेंद उछाल कर नानी के कमरे में डाल दी. फिर भाग कर उठाने चली गई. क्या कहूं इसे? 3 साल की छोटी बच्ची से ऐसा क्या अपराध हो गया जो मेरी मां ने हम दोनों को इतने कटु वचन सुना दिए.’

तभी आंटी कमरे से निकल कर मुझ से उलझ पड़ीं, ‘तुम्हारी मां ने तो तुम लोगों को कोई साफसफाई सिखाई नहीं है. मैं ने प्रज्ञा और कुसुम को कैसे काम सिखाया, मैं ही जानती हूं. मगर अपनी औलादों को यह कुछ न सिखा सकी. मैं मर क्यों नहीं जाती. क्या यही दिन देखने बाकी रह गए थे. बेटियों के रहमोकरम पर पड़ी हूं. इसी बात का फायदा उठा कर सब मुझे परेशान करते हैं. कुसुम, तेरी भी 2 बेटियां हैं. तू भी जब मेरी स्थिति में आएगी न, तब तुझे पता चलेगा.’

मैं यह सब सुन कर सन्न रह गई. ऐसा अनर्गल प्रलाप, वह भी अपनी बेटी के लिए. कुसुम अपनी बेटी को गोद में ले कर मुझे छोड़ने गेट तक आ गई.

‘ऐसी मां देखी है कभी जो सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जी रही हो?’

मैं क्या जवाब देती?

‘रमेश भी परेशान हो चुका है इन की हरकतों से, हमारे दांपत्य जीवन में भी सन्नाटा पसरा रहता है. जरा भी आहट पा, कमरे के बाहर मां कान लगा कर सुनने को खड़ी रहती हैं कि कहीं हम उन की बुराई तो नहीं कर रहे हैं. ऐसे माहौल में हमारे संबंध नौर्मल कैसे रह सकते हैं? अब तो रमेश को भी घर से दूर भागने का बहाना चाहिए. पता नहीं अपनी बहनों के घर जाता है या कहीं और? किस मुंह से उस से जवाब तलब करूं. जब अपनी मां ही ऐसी हो तो दूसरे से क्या उम्मीद रखना.’

आंटी का सनकीपन बढ़ता ही जा रहा था. उस दिन रिनी का जन्मदिन था, जिसे मनाने के लिए कुसुम और उस की मां में पहले ही बहुत बहस हो चुकी थी. आंटी का कहना था, ‘घर में बच्चे आएंगे तो यहांवहां दौड़ेंगे, सामान छुएंगे.’

कुसुम ने कहा, ‘तुम 2-3 घंटे अपने कमरे को बंद कर बैठ जाना, न तुम्हें कोई छुएगा न ही तुम्हारे सामान को.’

जब आंटी की बात कुसुम ने नहीं सुनी तो वे बहुत ही गुस्से में आ गईं. जन्मदिन की तैयारियों में जुटी कुसुम की उन्होंने कोई मदद नहीं की. मैं ही सुबह से 2-3 बार उस की मदद करने को जा चुकी थी. शाम को सिर्फ 10-12 की संख्या में बच्चे एकत्रित हुए और दोढाई घंटे में लौट गए.

आंटी कमरे से बाहर नहीं आईं. 8 बज गए तो कुसुम ने आंटी को डिनर के लिए पुकारा. तब जा कर वे अपने कोपभवन से बाहर निकलीं. शायद, उन्हें जोरों की भूख लग गई थी. वे अपनी कुरसी ले कर आईं और बरामदे में बैठ गईं. तभी रमेश अपने किसी मित्र को साथ ले कर घर में पहुंचा. उन्हें अनदेखा कर कुसुम से अपने मित्र का परिचय करा कर वह बोला, ‘यह मेरा बचपन का मित्र जीवन है. आज अचानक गोल मार्केट में मुलाकात हो गई. इसीलिए मैं इसे अपने साथ डिनर पर ले कर आ गया कि थोड़ी गपशप साथ में हो जाएगी.’

कुसुम दोनों को खाना परोसने को उठ कर रसोई में पहुंची ही थी कि बरामदे से पानी गिराने और चिल्लाने की आवाज आने लगी. आंटी साबुन और पानी की बालटी ले कर अपनी कुरसी व बरामदे की धुलाई में जुट गई थीं.

दरअसल, जीवन ने बरामदे में बैठ कर सिगरेट पीते समय आंटी की कुरसी का इस्तेमाल कर लिया था. आंटी रसोई से खाना खा कर जब निकलीं तो जीवन को अपनी कुरसी पर बैठा देख आगबबूला हो गईं. और फिर क्या था. अपने रौद्र रूप में आ गईं. जीवन बहुत खिसियाया, रमेश और कुसुम भी मेहमान के आगे शर्म से गड़ गए. दोनों ने जीवन को मां की मानसिक स्थिति ठीक न होने का हवाला दे कर बात संभाली.

दरअसल, आंटी अपने पति की मृत्यु के बाद से खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी थीं. वे ज्यादा पढ़ीलिखी न होने के कारण हीनभावना से ग्रस्त रहतीं. दूसरे लोगों से यह सुनसुन कर कि तुम्हारा कोई बेटा ही नहीं है, उन्होंने अपनी पकड़ बेटियों पर बनाए रखने के लिए जो चीखपुकार और धौंस दिखाने का रास्ता अख्तियार कर लिया था, वह बेटियों को बहुत भारी पड़ रहा था.

एक दिन आंटी रात में टौर्च जला कर घूम रही थीं कि किसी सामान में उलझ कर गिर पड़ीं. उन के सिर में अंदरूनी चोट आ गई थी. उस दिन से जो बिस्तर में पड़ीं तो उठ ही न पाईं. 6 महीने गुजर गए, लगता था कि अब गईं कि तब गईं. इसी बीच रमेश का भी तबादला दिल्ली हो गया. कुसुम ने अपनी मां को ऐंबुलैंस में दिल्ली ले जाने का फैसला कर लिया. जब वे जा रही थीं तब यही कह रही थीं, ‘पता नहीं वे दिल्ली तक सहीसलामत पहुंच भी पाएंगी या नहीं.’

मौका पाते ही मैं ने कुसुम को फोन लगाया और हालचाल पूछे. उस ने बताया, ‘‘यहां दीदी के ससुराल वालों का बहुत बड़ा पुश्तैनी घर है. मैं ने भी इसी में एक हिस्से को किराए पर ले लिया है. अब हम दोनों बहनें मिल कर उन की देखभाल कर लेती हैं अपनीअपनी सुविधानुसार.’’

‘‘और तुमहारे पति का मिजाज कैसा है?’’

‘‘उन की तो एक ही समस्या रहती थी हमारी प्राइवेसी की, वह यहां आ कर सुलझ गई. मैं भी अपने पति और बच्चों को पूरा समय दे पाती हूं.’’ उस की आवाज की खनक मैं महसूस कर रही थी.

‘‘और आंटी खुश हैं कि नहीं? या हमेशा की तरह खीझती रहती हैं?’’

‘‘मां को तो अल्जाइमर रोग लग गया है. वे सबकुछ भूल जाती हैं. कभीकभी कुछ बातें याद भी आ जाती हैं तो थोड़ाबहुत बड़बड़ाने लगती हैं. वैसे, शांत ही रहती हैं. अब वे ज्यादा बातें नहीं करतीं. बस, उन का ध्यान रखना पड़ता है कि वे अकेले न निकलें घर से. यहां दीदी के ससुराल वालों का पूरा सहयोग मिलता है.’’

‘‘तुम्हारी मां धन्य हैं जो इतनी समझदार बेटियां मिली हैं उन को.’’

‘‘मैं तो हमेशा मां की जगह पर खुद को रख कर देखती थी और इसीलिए शांत मन से उन के सारे काम करती थी. मेरी भी 2 बेटियां हैं. मां पहले ऐसी नहीं थीं. पापा का अचानक जीवन के बीच भंवर में छोड़ जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और मानसिक रूप से निर्बल होती चली गईं. शायद वे अपने भविष्य को ले कर भयभीत हो उठी थीं. चलो, अब सब ठीक है, जैसी भी हैं आखिर वे हमारी मां हैं और मां सिर्फ मां होती है.’’

और मैं उस की बात से पूरी तरह सहमत हूं.

Monsoon Fashion: बरसात के दिनों में भी खूबसूरत कैसे दिखें

Monsoon Fashion: बरसात का मौसम जितना सुकून देने वाला होता है, उतनी ही परेशानी भी ले कर आता है. स्टाइलिश दिखने की चाहत में गीले कपड़े, फिसलन भरी सड़कें और छतरी संभालने की मशक्कत के बीच भी फैशनेबल दिखना एक चुनौती से कम नहीं. लेकिन कुछ वाटरफ्रूफ फैशन ऐक्सैसरीज ऐसी हैं, जो न केवल आप को बारिश से बचाएंगी बल्कि आप को स्टाइलिश लुक भी देंगी.

आइए, जानते हैं ऐसी ही कुछ जरूरी और ट्रैंडी ऐक्सैसरीज के बारे में:

वाटरप्रूफ जैकेट्स और रेनकोट्स

अब रेनकोट्स का मतलब केवल प्लास्टिक की सादी परतें नहीं रह गया है. आजकल मार्केट में ट्रैंडी, हलकी और रंगबिरंगी वाटरप्रूफ जैकेट्स उपलब्ध हैं, जो आप को बारिश से बचाती हैं और फैशन स्टेटमैंट भी बनती हैं.

ट्रांसपेरैंट या प्रिंटेड अंब्रेला

छाते अब स्टाइल ऐक्सप्रैशन का हिस्सा बन चुके हैं. फूलों वाले प्रिंट, पोल्का डौट्स या ट्रांसपेरैंट अंब्रेला आप के लुक में चार चांद लगा सकता है. इसे अपने आउटफिट के साथ मैच कर के पहन लेना एक नया ट्रैंड बन गया है.

वाटरप्रूफ बैग्स और बैकपैक्स

चाहे औफिस जा रही हों या कालेज, आप का बैग अगर वाटरप्रूफ नहीं है तो बारिश में आप की सारी चीजें खराब हो सकती हैं. इसीलिए अब ऐसे बैग्स का चलन है जो वाटरप्रूफ भी हैं और डिजाइनर भी. इन पर रंगीन जिप, लैदर फिनिश और क्वर्की प्रिंट इन्हें खास बनाते हैं.

रबड़ गमबूट्स और वाटरप्रूफ फुटवियर

बारिश में स्लिपर पहनना परेशानी का सबब बन सकता है, ऐसे में रबड़ गमबूट्स या वाटरपू्रफ सैंडल्स बहुत उपयोगी होते हैं. आजकल फ्लोरल प्रिंटेड, ट्रांसपेरैंट और नेऔन रंगों में ये बूट्स आ रहे हैं जो बेहद आकर्षक लगते हैं.

वाटरप्रूफ स्मार्ट वाच और ऐक्सैसरीज

जो लोग टेक सेवी हैं, उन के लिए वाटरप्रूफ स्मार्ट वाच एक बैस्ट चौइस है. इस के अलावा रबड़ या सिलिकौन ब्रेसलेट, वाटरप्रूफ हेयरबैंड्स और क्लिप्स भी बरसात में स्टाइल को बरकरार रखते हैं.

वाटर रिजिस्टैंट मेकअप

अगर आप बरसात में खूबसूरत दिखना चाहती हैं तो वाटरप्रूफ मेकअप प्रोडक्ट्स जैसे मसकारा, काजल और लिपस्टिक का उपयोग करें. ये बहते नहीं हैं और लंबे समय तक टिकते हैं.  Monsoon Fashion

Saas-Bahu Relations: जब सास रिच और पब्लिक फिगर हो

Saas-Bahu Relations: भारतीय समाज में सासबहू का रिश्ता हमेशा जटिल रहा है. यह एक ऐसा बंधन है जहां 2 पीढ़ियां, 2 सोचें और 2 अलग संस्कार आमनेसामने होते हैं. ऐसे में जब सास एक सामान्य गृहिणी नहीं बल्कि एक अमीर, सशक्त और पब्लिक फिगर हों तो यह रिश्ता और भी संवेदनशील हो जाता है.

भारत में शादी सिर्फ 2 लोगों का मिलन नहीं बल्कि 2 परिवारों का भी संगम होता है. लेकिन जब बहू एक ऐसे परिवार में आती है जहां सास एक रिच और पब्लिक फिगर हो जैसेकि कोई राजनेता, फिल्मस्टार, बिजनैस वूमन या सोशल आइकान तो यह संबंध एक साधारण सासबहू के रिश्ते से कहीं ज्यादा जटिल हो जाता है.

इस लेख में हम समझेंगे कि ऐसे रिश्तों में संतुलन कैसे बनाए रखा जा सकता है, कौनकौन सी चुनौतियां सामने आती हैं और उन के समाधान के लिए कौन से व्यावहारिक व भावनात्मक कदम बहू उठा सकती है:

जब पहचान बन जाए बोझ, ‘अब तुम इस परिवार का चेहरा हो’ रीमा एक पढ़ीलिखी, आत्मनिर्भर लड़की थी, जिस ने एक राजनेता परिवार में शादी की थी. उस की सास संध्या देवी, 5 बार की सांसद, सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया में लोकप्रिय चेहरा थीं.

शादी के तीसरे दिन ही रीमा को एक प्रैस कौन्फ्रैंस में सास के साथ जाना पड़ा. उस ने हलकी सी कौटन की साड़ी पहनी और बिना मेकअप चली गई. प्रैस ने तसवीरें लीं और अगले दिन हैडलाइन थी-

‘नई बहू, सास की गरिमा को निभा नहीं पाई?’

घर लौटते ही सास ने मुसकरा कर कहा, ‘‘रीमा, तुम अब इस परिवार का चेहरा हो. हर चीज का मतलब बनता है. तुम्हारा पहनावा, बोलचाल, हावभाव. सब अब राजनीति से जुड़ा है.’’

रीमा ने सिर झुका लिया. उस के मन में पहला सवाल उठा-

‘‘क्या मैं अब रीमा नहीं रही?’’

बहुओं से अचानक उम्मीद की जाती है कि वे अपने अस्तित्व को छोड़ कर एक आदर्श भूमिका में ढल जाएं. लेकिन याद रखें पहचान खो देना रिश्तों को मजबूत नहीं करता. उसे धीरेधीरे ढालना चाहिए, न कि मिटा देना.

तुलना की तलवार, ‘‘जब मैं तुम्हारी उम्र में थी.’’ अंजलि को लिखना पसंद था, लेकिन अब उस का समय सिर्फ सामाजिक कार्यक्रमों, गैस्टों के स्वागत और ‘परफैक्ट बहू’ बनने में बीतता था. उस की सास एक प्रसिद्ध लेखिका अकसर कहतीं- ‘‘तुम्हारी उम्र में मैं ने तीसरी किताब पूरी कर ली थी और तुम एक ब्लौग पोस्ट नहीं लिख पाईं.’’

एक दिन अंजलि ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘मम्मीजी, आप मेरी प्रेरणा हैं, लेकिन मैं आप की कौपी नहीं बन सकती. मेरी सोच अलग है, मेरी राह अलग है.’’ उस दिन पहली बार सास चुप हो गईं.

बहू और सास की तुलना रिश्ते को खोखला बना देती है. बहू को भी चाहिए कि वह अपनी असुरक्षा को संवाद में बदले. सम्मान बनाए रखते हुए अपनी पहचान व्यक्त करना एक कला है.

भावनाएं भी माने रखती हैं

पब्लिक इमेज का प्रैशर, ‘‘रैड लिपस्टिक से ब्रैंड इमेज बिगड़ती है,’’ नेहा की शादी एक फिल्म प्रोड्यूसर परिवार में हुई थी. उस की सास एक जानीमानी टीवी अभिनेत्री थीं. एक इवेंट के दौरान नेहा ने अपनी पसंद की रैड लिपस्टिक लगाई और कैमरे के सामने आई.

रात को सास ने मुसकरा कर कहा, ‘‘नेहा, अगली बार न्यूड शेड ट्राई करना. रैड लिपस्टिक हमारी ब्रैंड इमेज से मैच नहीं करती.’’

नेहा का दिल टूट गया. वह बस यही चाहती थी कि कोई एक दिन पूछे, ‘‘तुम्हें क्या अच्छा लगता है?’’

बहू से उम्मीद होती है कि वह पब्लिक इमेज का हिस्सा बने. लेकिन उस की निजी भावनाएं भी माने रखती हैं. अगर बहू हर पल कैमरे के लिए जीएगी तो असली रिश्ता कहां बचेगा?

घर या औफिस? समयसारिणी वाला रिश्ता. शिखा की सास एक टौप बिजनैस वूमन थीं. सुबह 6 बजे योग, 7 बजे नाश्ता, 8 बजे बैठक. हर मिनट का हिसाब.

शिखा ने संडे को देर से उठने की गुजारिश की. सास बोलीं, ‘‘घर में सिस्टम होगा, तभी सम्मान मिलेगा.’’

शिखा मुसकराई, ‘‘तो क्या मु  झे छुट्टी के लिए मेल करना होगा?’’

सास कुछ नहीं बोलीं. लेकिन शिखा की बात उन्हें सोचने पर मजबूर कर गई.

हर घर एक संस्था बन जाए. यह जरूरी नहीं. प्यार, लचीलापन और स्पेस एक रिश्ते की बुनियाद हैं. बहू को चाहिए कि वह व्यंग्य से नहीं, बुद्धिमत्ता और संवाद से संतुलन बनाए.

मीडिया में बहू की छवि

निजी बातों का सार्वजनिक मंच एक टौक शो में सास ने कहा, ‘‘आजकल की बहुएं घर को होटल सम  झती हैं. उठती हैं 10 बजे, फिर फोन ले कर बैठ जाती हैं.’’

नेहा जो पास में बैठी थी, जानती थी यह ताना उसी के लिए. उस ने सास से कहा, ‘‘मम्मीजी, अगर कुछ कहें तो कैमरे के बजाय मु  झे सामने देख कर कहें. शायद तब रिश्ता और गहरा हो.’’

निजी बातें जब सार्वजनिक होती हैं तो रिश्ते में दरार आ जाती है. सम्मान दोतरफा हो, तभी रिश्ता टिकता है. जब संबंध दोस्ती में बदल जाए रूपा की सास एक प्रसिद्ध शैफ थीं. एक दिन रूपा ने खिचड़ी में पुदीना डाल दिया. सास ने हैरानी से पूछा, ‘‘यह क्या?’’

रूपा घबरा गई, पर बोली, ‘‘एक नया ट्राई किया, अच्छा नहीं लगा क्या?’’ सास मुसकराईं, ‘‘यह तो मजेदार है. अगली बार अपने शो में बनाएंगे, ‘रूपा की ट्विस्ट खिचड़ी’.’’

जहां कंट्रोल की जगह साझेदारी आ जाए, वहां रिश्ता सिर्फ निभाया नहीं, जीया जाता है. हर सासबहू को मौका देना चाहिए कि वे एकदूसरे के साथ सहयात्री बनें.

व्यावहारिक टिप्स: बहू कैसे बनाए संतुलन

– सुनना सीखें, लेकिन चुप न रहें, हर बात सुनें, लेकिन अपनी सोच रखें.

– व्यक्तिगत पहचान बनाए रखें, कपड़ों, रुचियों और कार्यों में खुद को खोने न दें.

– मीडिया से संवाद सम  झदारी से करें, कोई भी प्रतिक्रिया सोचसम  झ कर दें.

– सीमाएं स्पष्ट रखें, कब न कहना है- यह तय हो.

– संवाद में विनम्रता हो, पर कमजोरी नहीं- शब्दों में ताकत हो पर अहंकार नहीं.

– तुलना में नहीं, प्रेरणा में बदलें माहौल- तुलना के जवाब में सकारात्मक उदाहरण दें.

– साझा रुचियों पर रिश्ते बनाएं- कुकिंग, म्यूजिक या सोशल वर्क से कनैक्शन बनाएं.

– पब्लिक इमेज को गाइड मानें, शासन नहीं- वह नियंत्रण न बने.

– दूसरे के नजरिए को भी समझें- सास भी एक रोल निभा रही हैं, वे भी इंसान हैं.

– रिश्तों को समय दें, पर खुद को न भूलें- सब से जरूरी बात.

जब सास हो रिच और पब्लिक फिगर तो रिश्ता सिर्फ सासबहू का नहीं रहता. वह बन जाता है संवेदनशील, सार्वजनिक और सामाजिक समीकरण का हिस्सा.

बहू को जहां खुद को संभालना होता है, वहीं रिश्तों को भी सजाना पड़ता है. पर याद रहे- रिश्तों में संतुलन ‘मौन’ से नहीं, ‘संवाद’ से आता है.

सास अगर आकाश है तो बहू को जमीन बनना है- लेकिन यह जमीन भी मजबूत होनी चाहिए, जिसे कोई रौंद न सके.

Parenting Tips: क्या आप का बच्चा है ऐक्टिव लिसनर

Parenting Tips: बच्चों की अच्छी आदतों के पीछे उन के मातापिता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है क्योंकि बच्चे सब से पहले अपने घर से सीखते हैं. घर ही उन की पहली पाठशाला होती है.

आजकल सभी घरों में मातापिता दोनों ही वर्किंग होते हैं जिस कारण उन के पास समय का अभाव बना रहता है और चाह कर भी अपने बच्चों को ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं. इस कारण वे अपने बच्चों की रुचि, उन की बौद्धिक क्षमता, रचनात्मकता आदि पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते हैं जिस कारण कई बार उन का संपूर्ण विकास नहीं हो पता. जबकि ऐसा माना जाता है कि बच्चे के संपूर्ण विकास के लिए उस का ऐक्टिव लिसनर होना बहुत जरूरी है.

एक ऐक्टिव लिसनर बच्चा हमेशा आत्मविश्वास से भरा होता है क्योंकि उसे पता होता है कि उस ने जो कुछ भी सुना है वह ध्यानपूर्वक सुना है और उस पर सही तरीके से अमल किया है इसलिए वह गलत हो ही नहीं सकता और किसी भी सफलता के लिए आत्मविश्वास से भरा हुआ होना अति आवश्यक है इसलिए कहा जाता है आत्मविश्वास होना सफलता की पहली सीढ़ी है.

ऐक्टिव लिसनिंग क्या है

ऐक्टिव लिसनिंग का मतलब होता है बोलने वाले की पूरी बातों पर ध्यान देना और उस के द्वारा कही जाने वाली पूरी बातों को सम  झने की कोशिश करना.

बच्चे को ऐक्टिव लिसनर बनाने के लिए मातापिता अपनाएं ये तरीके:

बारबार हर चीज, काम के लिए न टोकें

एक ऐक्टिव लिसनर बच्चा एक अच्छा कम्यूनिकेटर और किसी भी काम में कुशल हो सकता है. बच्चों को ऐक्टिव लिसनर बनाने के लिए उन्हें बारबार हर चीज एवं काम के लिए न टोकें. 1 या 2 बार ही कहें. कई बार मातापिता बारबार एक ही चीज बच्चों को करने के लिए दोहराते रहते हैं. इस का परिणाम यह होता है कई बार बच्चा आप की बात सुनता ही नहीं है आप की बात पर ध्यान देना बंद कर देता है या फिर बच्चा आप की कोई भी बात बिना पूरी सुने अपना रिएक्शन देने लगता है. बच्चे का कुछ भी सीखने और कोई भी काम करने के लिए बात सुनना सब से महत्त्वपूर्ण है

आप भी बनें एक अच्छा श्रोता

यदि आप चाहते हैं कि आप का बच्चा अच्छा लिसनर बने तो आप को उस की बात ध्यान से सुननी होगी. इस के लिए आप का भी एक अच्छा श्रोता बनना जरूरी है एवं आप का अपना पूरा ध्यान उस की ओर केंद्रित करना जरूरी है ताकि आप उस की पूरी बात अच्छे से सम  झ सकें और जब आप कुछ बोलें या कहें तो बच्चा आप की बात ध्यान से सुने, बच्चे को आप की ओर देखने और सुनने के लिए कहना न पढ़ें.

कई बार मातापिता घर पर आने के बाद अपने मोबाइल की स्क्रीन के सामने कैद हो जाते हैं और बच्चों की बात ध्यान से नहीं सुनते जिस के कारण बच्चों में चिड़चिड़ाहट होती है और वे अपना गुस्सा चीजों पर उतारते हैं. उन का पूरा ध्यान आप की ओर केंद्रित होना एक ऐक्टिव लिसनर होने के लिए महत्त्वपूर्ण बात है.

बच्चों से सुनें एवं सुनाएं कहानियां 

अपने बच्चों के साथ छुट्टी के दिन कुछ अट्रैक्टिव ऐक्टिविटी करें जैसे आप कोई कहानी सुनाएं और उन से भी सुनें. बीचबीच में कहानी से संबंधित सवाल पूछें जैसेकि उन्हें क्या लगता है कि इस स्टोरी में आगे क्या होना चाहिए? क्या कहानी के पात्र को ऐसा करना चाहिए था? यदि तुम होते तो क्या करते?

कहानी के अंत में बच्चे से सुनी हुई कहानी का सार पूछें. उसे कहानी से क्या सीखने को मिला, कहानी के कौनकौन से पात्र ने उसे प्रभावित किया और क्यों? ऐसे सवाल पूछें ताकि वह पूरी कहानी ध्यान से सुने और एक अच्छा ऐक्टिव लिसनर बन सके तथा आप के सवालों के जवाब दे सके, साथ ही एक अच्छा कम्यूनिकेटर भी बन सके.

आप का ऐसा करना बच्चे को कोई भी बात ध्यान से सुनने की आदत डलवाएगा और वह धीरेधीरे एक ऐक्टिव लिसनर बन जाएगा. घर के सभी लोग एक कहानी बनाएं घर के सभी सदस्य 1-1 लाइन जोड़ते जाएं एवं बच्चों से भी ध्यानपूर्वक सुनने को कहें और उन का नंबर आने पर एक लाइन जोड़ने के लिए कहें ताकि वे सुन कर आगे की स्टोरी क्रिएट कर सकें. ऐसा करने से बच्चों में सुनने की आदत पड़ेगी और सुन कर आगे की स्टोरी क्रिएट करने की क्रिएटिविटी भी बढ़ेगी.

इन मुख्य बातों को ध्यान में रख कर आप अपने बच्चे में लिसनिंग हैबिट्स के साथ और भी आदतें डाल सकते हैं:

ऐक्टिव लिसनर बच्चे की विशेषताएं 

बच्चे की परफौर्मैंस पर प्रभाव: बच्चे का कुछ भी सीखने के लिए सुनना सब से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अकसर बच्चे क्लास में टीचर की बात को ध्यान से नहीं सुनते जिस के कारण उन्हें बाद में कुछ भी सम  झ नहीं आता और इस का सीधा असर उन की परफौर्मैंस पर पड़ता है और वे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं.

बच्चे की आत्मनिर्भरता बढ़ती है: एक ऐक्टिव लिसनर बच्चा पूरी तरह से आत्मनिर्भर बन जाता है क्योंकि वह हर काम को बखूबी करने की क्षमता रखता है.

आत्मविश्वास बढ़ता है: एक ऐक्टिव लिसनर बच्चा बहुत ज्यादा कौन्फिडैंट या आत्मविश्वास से भरा हुआ अनुभव करता है क्योंकि उसे पता होता है कि वह जो भी कर रहा है वह ठीक ही कर रहा है. उस ने उस काम के लिए दिए गए दिशानिर्देशों को अच्छी तरह से सुना और उन का अनुपालन किया है. उस के दिमाग में किसी भी तरह का कोई भी संदेह नहीं होता.

निराशा से दूर रहते है: ऐक्टिव लिसनर बच्चे निराशा से काफी दूर रहते है क्योंकि वे जो भी काम करते है उस में असफल होने की आशंका न के बराबर होती है क्योंकि वे आत्मविश्वास भरे हुए होते है वे यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते और सम  झते है कि वो जो भी कदम उस काम को करने के लिए उठा रहे है या कर रहे है उस में गलती होने की कोई गुंजाइश नहीं है उन के अंदर हमेशा एक सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है निराशा उन के ऊपर कभी भी हावी नहीं होती.

किसी भी बहस का हिस्सा बन सकता है: एक ऐक्टिव लिसनर बच्चा किसी भी बहस में एक ऐक्टिव प्रतिभागी बन सकता है और अपनी बात प्रभावी ढंग से रख सकता है क्योंकि वह सुनी हुई बातों को याद रखता है और उन बातों पर जिज्ञासा दिखाते हुए प्रश्न करता है तथा अपनी बात अच्छे से बोल सकता है. ऐक्टिव लिसनिंग में सकारात्मक कम्यूनिकेशन को प्रोत्साहित करना भी शामिल होता है.

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