Sad Story: लमहे पराकाष्ठा के- रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी

Sad Story: लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना.

इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रू्रण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में.

उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी…’ Sad Story

लेखक- डा. शशि मंगल

Family Story: टूटे हुए पंखों की उड़ान- अर्चना ने क्या चुना परिवार या सपना

Family Story: गली में घुसते ही शोरगुल के बीच लड़ाईझगड़े और गालीगलौज की आवाजें अर्चना के कानों में पड़ीं. सड़ांध भरी नालियों के बीच एक संकरी गली से गुजर कर उस का घर आता था, जहां बरसात में मारे बदबू के चलना मुश्किल हो जाता था.

दुपट्टे से नाक ढकते हुए अर्चना ने घर में कदम रखा, तो वहां का नजारा ही दूसरा था. आंगन के बीचोंबीच उस की मां और पड़ोस वाली शीला एकदूसरे पर नाक फुलाए खड़ी थीं. यह रोज की बात थी, जब किसी न किसी बात पर दोनों का टकराव हो जाता था.

मकान मालिक ने किराए के लालच में कई सारे कोठरीनुमा कमरे बनवा रखे थे, मगर सुविधा के नाम पर बस एक छोटा सा गुसलखाना और लैट्रिन थी, जिसे सब किराएदार इस्तेमाल करते थे.

वहां रहने वाले किराएदार आएदिन किसी न किसी बात को ले कर जाहिलों की तरह लड़ते रहते थे. पड़ोसन शीला तो भद्दी गालियां देने और मारपीट करने से भी बाज नहीं आती थी.

गुस्से में हांफती, जबान से जहर उगलती प्रेमा घर में दाखिल हुई. पानी का बरतन बड़ी जोर से वहीं जमीन पर पटक कर उस ने सिगड़ी जला कर उस पर चाय का भगौना रख दिया.

‘‘अम्मां, तुम शीला चाची के मुंह क्यों लगती हो? क्या तुम्हें तमा करके मजा आता है? काम से थकहार कर आओ, तो रोज यही सब देखने को मिलता है. कहीं भी शांति नहीं है,’’ अर्चना गुस्से से बोली.

‘‘हांहां, तमाशा तो बस मैं ही करती हूं न. वह तो जैसे दूध की धुली है. सब जानती हूं… उस की बेटी तो पूरे महल्ले में बदनाम है. मक्कार औरत नल में पानी आते ही कब्जा जमा कर बैठ जाती है. उस पर मुझे भलाबुरा कह रही थी.

‘‘अब तू ही बता, मैं कैसे चुप रहूं?’’ चाय का कप अर्चना के सामने रख कर प्रेमा बोली.

‘‘अच्छा लाडो, यह सब छोड़. यह बता कि तू ने अपनी कंपनी में एवांस पैसों की बात की?’’ यह कहते हुए प्रेमा ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा भी नहीं था अब तक, जो दिनभर की कड़ी मेहनत से कुम्हलाया हुआ था.

‘‘अम्मां, सुपरवाइजर ने एडवांस पैसे देने से मना कर दिया है. मंदी चल रही है कंपनी में,’’ मुंह बिचकाते हुए अर्चना ने कहा, फिर दो पल रुक कर उस ने कुछ सोचा और बोली, ‘‘जब हमारी हैसियत ही नहीं है तो क्या जरूरत है इतना दिखावा करने की. ननकू का मुंडन सीधेसादे तरीके से करा दो. यह जरूरी तो नहीं है कि सभी रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते बांटे जाएं.’’

‘‘यह क्या बोल रही है तू? एक बेटा है हमारा. तुम बहनों का एकलौता भाई. अरी, तुम 3 पैदा हुईं, तब जा कर वह पैदा हुआ… और रिश्तेदार क्या कहेंगे? सब का मान तो रखना ही पड़ेगा न.’’

‘‘रिश्तेदार…’’ अर्चना ने थूक गटका. एक फैक्टरी में काम करने वाला उस का बाप जब टीबी का मरीज हो कर चारपाई पर पड़ गया था, तो किसी ने आगे आ कर एक पैसे तक की मदद नहीं की. भूखे मरने की नौबत आ गई, तो 12वीं का इम्तिहान पास करते ही एक गारमैंट फैक्टरी में अर्चना ने अपने लिए काम ढूंढ़ लिया.

अर्चना के महल्ले की कुछ और भी लड़कियां वहां काम कर के अपने परिवार का सहारा बनी हुई थीं. अर्चना की कमाई का ज्यादातर हिस्सा परिवार का पेट भरने में ही खर्च हो जाता था. घर की बड़ी बेटी होने का भार उस के कंधों को दबाए हुए था. वह तरस जाती थी अच्छा पहननेओढ़ने को. इतने बड़े परिवार का पेट पालने में ही उस की ज्यादातर इच्छाएं दम तोड़ देती थीं.

कोठरी की उमस में अर्चना का दम घुटने लगा, सिगड़ी के धुएं ने आंसू ला दिए. सिगड़ी के पास बैठी उस की मां खांसते हुए रोटियां सेंक रही थी.

‘‘अम्मां, कितनी बार कहा है गैस पर खाना पकाया करो… कितना धुआं है,’’ दुपट्टे से आंखमुंह पोंछती अर्चना ने पंखा तेज कर दिया.

‘‘और सिलैंडर के पैसे कहां से आएंगे? गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. अरी, रुक जा. अभी धुआं कम हो जाएगा, कोयले जरा गीले हैं.’’

अर्चना उठ कर बाहर आ गई. कतार में बनी कोठरियों से लग कर सीढि़यां छत पर जाती थीं. कुछ देर ताजा हवा लेने के लिए वह छत पर टहलने लगी. हवा के झोंकों से तनमन की थकान दूर होने लगी.

टहलते हुए अर्चना की नजर अचानक छत के एक कोने पर चली गई. बीड़ी की महक से उसे उबकाई सी आने लगी. पड़ोस का छोटेलाल गंजी और तहमद घुटनों के ऊपर चढ़ाए अपनी कंचे जैसी गोलगोल आंखों से न जाने कब से उसे घूरे जा रहा था.

छोटेलाल कुछ महीने पहले ही उस मकान में किराएदार बन कर आया था. अर्चना को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था. अर्चना और उस की छोटी बहनों को देखते ही वह यहांवहां अपना बदन खुजाने लगता था.

शुरू में अर्चना को समझ नहीं आया कि वह क्यों हर वक्त खुजाता रहता है, फिर जब वह उस की बदनीयती से वाकिफ हुई, तो उस ने अपनी बहनों को छोटेलाल से जरा बच कर रहने की हिदायत दे दी.

‘‘यहां क्या कर रही है तू इतने अंधेरे में? अम्मां ने मना किया है न इस समय छत पर जाने को. चल, नीचे खाना लग गया है,’’ छोटी बहन ज्योति सीढि़यों पर खड़ी उसे आवाज दे रही थी.

अर्चना फुरती से उतर कर कमरे में आ गई. गरम रोटी खिलाती उस की मां ने एक बार और चिरौरी की, ‘‘देख ले लाडो, एक बार और कोशिश कर के देख ले. अरे, थोड़े हाथपैर जोड़ने पड़ें, तो वह भी कर ले. यह काम हो जाए बस, फिर तुझे तंग न करूंगी.’’

अर्चना ने कमरे में टैलीविजन देखती ज्योति की तरफ देखा. वह मस्त हो कर टीवी देखने में मगन थी. ज्योति उस से उम्र में कुल 2 साल ही छोटी थी. मगर अपनी जवानी के उठान और लंबे कद से वह अर्चना की बड़ी बहन लगती थी.

9वीं जमात पास ज्योति एक साड़ी के शोरूम में सेल्सगर्ल का काम करती थी. जहां अर्चना की जान को घरभर के खर्च की फिक्र थी, वहीं ज्योति छोटी होने का पूरा फायदा उठाती थी.

‘‘अम्मां, ज्योति भी तो अब कमाती है. तुम उसे कुछ क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरी, अभी तो उस की नौकरी लगी है, कहां से ला कर देगी बेचारी?’’ मां की इस बात पर अर्चना चुप हो गई.

‘‘ठीक है, मैं फिर से एक बार बात करूंगी, मगर कान खोल कर सुन लो अम्मां, यह आखिरी बार होगा, जब तुम्हारे इन फुजूल के रिवाजों के लिए मैं अपनी मेहनत की कमाई खर्च करूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है. अपनी कमाई की धौंस मत जमा. चार पैसे क्या कमाने लगी, इतना रोब दिखा रही है. अरे, कोई एहसान नहीं कर रही है हम पर,’’ गुस्से में प्रेमा का पारा फिर से चढ़ने लगा.

एक कड़वाहट भरी नजर अपनी मां पर डाल कर अर्चना ने सारे जूठे बरतन मांजने के लिए समेटे.

बरतन साफ कर अर्चना ने अपना बिस्तर लगाया और सोने की कोशिश करने लगी, उसे सुबह जल्दी उठना था, एक और जद्दोजेहद भरे दिन के लिए. वह कमर कस के तैयार थी. जब तक हाथपैर चलते रहेंगे, वह भी चलती रहेगी. उसे इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम वह किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाती.

अर्चना के होंठों पर एक संतुष्टि भरी फीकी मुसकान आ गई और उस ने आंखें मूंद लीं. Family Story

Family Kahaniyan: दहेज- अलका के घरवाले क्यों परेशान थे

Family Kahaniyan: डाक्टर के केबिन से बाहर निकल कर राहुल सिर पकड़ कर बैठ गया. उस की मम्मी आईं और उस से पूछने लगीं, ‘‘डाक्टर ने ऐसा क्या कह दिया कि तू अपना सिर पकड़ कर बैठ गया?’’

राहुल बोला, ‘‘मम्मी, अलका डाक्टर बन गई है.’’

‘‘कौन अलका?’’ मम्मी ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘वही अलका, जिस से दहेज में 5 लाख रुपए न मिलने की वजह से हम फेरों के समय बरात वापस ले आए थे.’’

‘‘पर बेटा, शादी के लिए तो उस ने ही मना किया था,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘और क्या करती वह? ताऊजी और पापा ने उस समय उस के पापा को इतना जलील किया था कि उस ने शादी करने से मना कर दिया,’’ राहुल बोला.

‘‘पर बेटा, तू इतना परेशान क्यों हो गया है?’’

‘‘मम्मी, मैं ने तो बस यही कहा था, ‘डाक्टर, हमें तो अलका की हाय खा गई. शादी को 12-13 साल हो गए, पर औलाद का मुंह देखने को तरस गए. हर बार किसी न किसी वजह से पेट गिर जाता है. इस बार खुश थे कि अब हम औलाद का मुंह देख लेंगे, पर यह समस्या आ गई.’

‘‘हमारी डाक्टर ने अलका का नाम लिया और कहा कि अब वे ही कुछ कर सकती हैं.’’

‘‘मम्मी, अलका रिपोर्ट देखतेदेखते बोली, ‘जिस लड़की की बरात फेरों के समय वापस लौट जाए, वह कभी दुआ तो नहीं देगी.’

‘‘फिर उस ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा. उस की शक्ल देख कर मेरी बोलती बंद हो गई.

‘‘आगे और कोई बात होती कि तभी नर्स ने आ कर तैयारी शुरू कर दी. अलका उठ कर चलने लगी, फिर मेरी पीठ को सहलाते हुए बोली, ‘डरो मत, मैं डाक्टर पहले हूं, अलका बाद में.’’’

पर राहुल की मम्मी कुछ और ही सोच रही थीं, इसलिए उन्होंने बेटे की बात पर कोई गौर नहीं किया.

थोड़ी देर बाद मम्मी ने पूछा, ‘‘क्या अलका शादीशुदा है?’’

राहुल बोला, ‘‘नहीं मम्मी. लेकिन आप यह क्या पूछ रही हैं?’’

‘‘बेटा सोच, उस ने अभी तक शादी क्यों नहीं की? उस से कह दे कि बच्चे को बचाने की कोशिश करे. बहू न बचे, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल चीखा, ‘‘आप कितनी बेरहम हैं. मैं वही गलती दोबारा नहीं करूंगा. एक बार ताऊजी और पापा के खिलाफ नहीं बोल कर मुझे अलका जैसी लड़की से हाथ धोना पड़ा था. मुझे अपनी बीवी और बच्चा दोनों चाहिए.’’

उधर डाक्टर अलका  के सामने लेटी कविता जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी. वह उस शख्स की बीवी थी, जो अलका के साथ होने वाले फेरों पर अपनी बरात वापस ले गया था.

डाक्टर अलका के सामने उस दिन का एकएक सीन घूम गया, जिस ने उन की जिंदगी बदल दी थी.

राहुल और अलका मंडप के नीचे बैठे हुए थे कि तभी राहुल के पापा की आवाज गूंजी थी, ‘रुक जाओ…’

फिर वे अलका के पापा से बोले थे, ‘5 लाख रुपए का इंतजाम और करो. अब फेरे तभी होंगे, जब आप 5 ख रुपए का इंतजाम कर लोगे.’

अलका और उस के परिवार वाले सभी चौंक कर रह गए थे. अलका के पापा और चाचा दोनों राहुल के पापा के सामने गिड़गिड़ा रहे थे, पर उन का एक ही राग था कि 5 लाख रुपए का इंतजाम करो, नहीं तो बरात वापस ले जाएंगे.

इसी बीच राहुल के ताऊजी बोले थे, ‘अरे समधीजी, आप के लिए गर्व की बात होनी चाहिए कि आप की 12वीं पास लड़की को सरकारी नौकरी वाला लड़का मिल रहा है… ऊपर से यह सांवली भी है. आप 5 लाख रुपए का इंतजाम कर लें, फिर सारी कमियां छिप जाएंगी.’

फिर पापा राहुल से बोले थे, ‘उठ बेटा, हम वापस चलते हैं.’

बहुत देर से चुपचाप सुन रही अलका उठी और दहाड़ी, ‘अरे, यह क्या उठेगा, मैं ही उठ जाती हूं.

‘मैं अब यह शादी नहीं करूंगी. आप शौक से बरात ले जाएं. लेकिन मेरे पापा का जो अब तक खर्च हुआ है, सब दे कर जाएं.’

फिर अलका अपने चाचा से बोली थी, ‘चाचाजी, आप पुलिस को बुलाइए.’

अब तक जो शेर की तरह दहाड़ रहे थे, वे भीगी बिल्ली बन गए थे. वे अलका पर शादी के लिए दबाव डालने लगे थे, पर अलका ने शादी करने से साफ मना कर दिया और बरात लौट गई थी.

कमरे में आ कर अलका रोने लगी थी. उस की बूआ पास आ गई थीं. वह उन से लिपट कर रोने लगी और बोली थी, ‘बूआ, मैं और पढ़ना चाहती हूं.’

बूआ ने अपने भाई से कहा था, ‘भैया, मैं ने पहले ही कहा था कि अभी अलका की उम्र ही क्या हुई है… पर आप को तो बस नौकरीपेशा लड़के का लालच आ गया. देख लिया नतीजा…

‘भैया, मेरे कोई बच्चा नहीं है, इसलिए अलका की जिम्मेदारी मुझे सौंप दो. इसे मैं अपने साथ ले जाऊंगी. मैं इसे आगे पढ़ाऊंगी.’

इस के बाद बूआ अलका को अपने साथ ले गई थीं. उस समय वह 12वीं जमात विज्ञान से कर रही थी, तभी पीएमटी का इश्तिहार आया था. अलका ने पीएमटी का इम्तिहान देने की इच्छा जाहिर की, तो उस की बूआ ने उस की इच्छा पूरी की.

अलका ने बहुत मेहनत की. अब उस का एक ही मकसद था कि कुछ कर के दिखाना है. उस की मेहनत रंग लाई और उस का पीएमटी में चयन हो गया.

अलका को पता था कि बूआ भी माली रूप से कमजोर थीं, लेकिन बूआ ने किसी तरह उसे डाक्टरी पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया था.

अलका को बाद में पता चला था कि उस की बूआ ने उस के दाखिले के लिए अपने कुछ जेवर बेचे थे, इसलिए उस ने अपने सहपाठियों से कहा कि उस के लिए कुछ ट्यूशन बता दें, जिस से वह अपनी बूआ को कुछ राहत दे सके.

अलका के सहपाठी उस के काम आए. उन्हीं में डाक्टर विश्वास भी थे. उन्होंने कुछ ट्यूशन बता दिए. बस, यहीं से अलका की निकटता डाक्टर विश्वास से बढ़ने लगी और उस हद तक पहुंच गई, जहां दोनों एकदूसरे के बिना नहीं रह पा रहे थे.

3 साल बाद अलका एक नर्सिंगहोम की मालकिन थी. इस नर्सिंगहोम की मालकिन बनने में भी डाक्टर विश्वास ने ही मदद की थी.

अब अलका इतनी काबिल डाक्टर हो गई थी कि बिगड़े केस भी ठीक कर देती थी. कविता का केस भी तभी अलका के पास आया, जब दूसरे डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे.

डाक्टर अलका के लिए यह सब से मुश्किल केस था, क्योंकि अगर वह अपने काम में नाकाम हुई तो लोग यही कहेंगे कि अलका ने अपना बदला ले लिया. उस का कैरियर भी चौपट हो जाएगा, जबकि उस को पता था कि उस के सामने लेटी औरत का कोई कुसूर नहीं था.

अलका को बारबार पसीना आ रहा था. उस की ऐसी हालत देख कर नर्स बोली, ‘‘डाक्टर क्या हुआ? आप अपनेआप को संभालो.’’

अलका बोली, ‘‘डाक्टर विश्वास को फोन लगाओ.’’

थोड़ी देर बाद जब नर्स ने कहा कि डाक्टर विश्वास कुछ ही देर में पहुंचने वाले हैं, तब जैसे अलका को हिम्मत मिली. अब उस के लिए कविता एक आम मरीज थी. 2 घंटे बाद जब बच्चे के रोने की आवाज गूंजी, तब सब खुशी से उछल पड़े.

बाकी काम अपने सहायकों पर छोड़ कर डाक्टर अलका डाक्टर विश्वास के साथ बाहर निकल गई.

कविता 3 दिन अस्पताल में रही. राहुल और अलका की मुलाकात नहीं हुई या राहुल ही खुद अलका से कन्नी काट लेता था.

3 महीने बीत गए थे. अलका अस्पताल जाने की तैयारी कर रही थी कि तभी एक आवाज ने उसे चौंकाया. उस ने आवाज की तरफ देखा और बोली, ‘‘अरे कविताजी, आप?’’

अपने बच्चे को डाक्टर अलका की गोद में सौंपते हुए कविता बोली, ‘‘मुझे सब पता चल गया है, जो इन्होंने आप के साथ किया था.’’

‘‘मैं तो अब सबकुछ भूल गई हूं, क्योंकि आज मैं जिस मुकाम पर खड़ी हूं, तब मैं सोचती हूं कि अगर उस समय मेरी शादी हो गई होती, तब मैं इस मुकाम पर नहीं पहुंच पाती.’’

‘‘पर इन्होंने जो किया, वह गलत किया.’’

‘‘हां, मुझे भी उस समय बुरा लगा था कि राहुल ने अपने पापा का विरोध नहीं किया था. तब मुझे लगा कि अगर मेरी शादी राहुल के साथ हो जाती, तो हो सकता है कि बाद में भी दहेज ही मेरी मौत की वजह बन जाए, इसलिए मैं ने शादी के लिए मना कर दिया.’’

फिर अलका ने कविता से पूछा, ‘‘क्या अब भी राहुल ऐसे ही हैं?’’

‘‘नहीं, अब वे बदल गए हैं. मुझे आप के अस्पताल की नर्स ने बताया कि उस दिन भी इन की मम्मी ने दबाव डाला था कि डाक्टर से कह दे कि अगर बचाने की बात हो, तो बहू को नहीं, बल्कि बच्चे को बचा ले. तब इन्होंने मम्मी को डांट दिया था.

‘‘इन्होंने अपनी मां से कहा था कि एक बार पापा की बात का विरोध न कर के अलका जैसी लड़की को खो बैठा हूं, पर वह गलती अब दोबारा नहीं करूंगा.

‘‘तब मुझे यह पता नहीं था कि वह लड़की आप हैं.’’

बात को मोड़ देते हुए अलका ने पूछा, ‘‘इस बच्चे का क्या नाम रखा?’’

‘‘विश्वास,’’ कविता बोली.

तभी डाक्टर विश्वास वहां आए. अपना नाम सुन कर वे बोले, ‘‘मेरा नाम क्यों लिया जा रहा है?’’

कविता ने बताया, ‘‘हम ने अपने बच्चे का नाम आप के नाम पर रखा है.’’

डाक्टर विश्वास बोले, ‘‘अरे, विश्वास नाम मत रखो, वरना मेरी तरह कुंआरा ही रह जाएगा.’’

‘‘देखो, कैसे ताना मार रहे हैं,’’ अलका बोली, ‘‘आज से पहले कभी इन्होंने प्रपोज नहीं किया? और आज प्रपोज किया है, तो ताना भी मार रहे हैं. अब मुझे क्या सपना आया था कि आप से केवल दोस्ती नहीं है, कुछ और भी है.’’

डाक्टर विश्वास के बोलने से पहले ही कविता बोली, ‘‘बहुत खूब. दोनों ने प्रपोज भी किया और ताना भी मारा. अब शादी की तारीख भी तय कर लो.’’

‘शादी की तारीख तो हमारे बड़े तय करेंगे,’ वे दोनों एकसाथ बोले.

कुछ दिन बाद अलका और विश्वास की शादी की तारीख तय हो गई. राहुल और कविता उन के खास मेहमान थे. Family Kahaniyan

Hindi Love Story: अधूरा सा इश्क- क्या था अमन का फैसला

Hindi Love Story: यादों के झरोखे पर आज फिर किसी ने दस्तक दी थी. न चाहते हुए भी अमन का मन उस और खींचता चला गया. अपनी बेटी का आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा उसे बारबार कचोट रहा था.

“विनय, मुझे माफ कर दो, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. मैं अपने पापा को धोखा नहीं दे सकती. मैं उन का गुरूर हूं…उन के भरोसे को मैं तोड़ नहीं सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

देर रात श्रेया के कमरे की जलती हुई लाइट को देख अमन के कदम उस ओर बढ़ गए थे. श्रेया की हिचिकियों की आवाजें बाहर तक आ रही थीं. अमन दरवाजे पर कान लगाए खड़ा था. फोन पर उधर किसी ने क्या कहा अमन यह तो नहीं सुन पाया पर श्रेया के शब्द सुन कर उस के पैर कमरे के बाहर ही जम गए. कितना गुस्सा आया था उसे…पिताजी के खिलाफ जा कर उस ने श्रेया का कालेज में दाखिला कराया था और वह…

“आग और भूसे को एकसाथ नहीं रखा जाता. वैसे भी इसे दूसरे घर जाना है. कल कोई ऊंचनीच हो गई तो मुझ से मत कहना.”

अपने बाबा की बात सुन श्रेया संकोच और शर्म से गड़ गई थी. तब अमन ने कितने विश्वास के साथ कहा था,”पिताजी, मुझे श्रेया पर पूरा भरोसा है. वह मेरा सिर कभी झुकने नहीं देगी.”

श्रेया रोतेरोते सो गई. अमन उसे सोता हुआ देख रहा था. उस की छोटी सी गुड़िया कब इतनी बड़ी हो गई… तकिया आंसुओं से गीला हो गया था. बिस्तर के बगल में रखे लैंप की रौशनी में उस का मासूम चेहरा देख अमन का कलेजा मुंह को आ गया. कितना थका सा लग रहा था उस का चेहरा मानों वह मीलों का सफर तय कर के आई हो. कितनी मासूम लग रही थी वह.

उस की श्रेया किसी लड़के के चक्कर में…अभी उस ने दुनिया ही कहां देखी है? आजकल के ये लड़के बाप के पैसों से घुमाएंगेफिराएंगे और फिर छोड़ देंगे. श्रेया के मासूम चेहरे को देख अमन को किसी की याद आ गई. सच मानों तो इतने सालों के बाद भी वह उस चेहरे को भूल नहीं पाया था.

उसे लगा आज किसी ने उसे 25 साल पीछे ला कर खड़ा कर दिया हो. न जाने कितनी ही रातें उस ने उस के खयालों में बिता दी थीं. उस के जाने से कुछ नहीं बदला था, रात भी आई थी…चांद भी आया था पर बस नींद नहीं आई थी.

कितनी बार…हां, न जाने कितनी ही बार वह नींद से जाग कर उठ जाता.तब एक बात दिमाग में आती, जब खयाल और मन में घुमड़ते अनगिनत सवाल और बवाल करने लगे तब तुम आ जाओ. तुम्हारा वह सवाल जनून बन जाएगा और बवाल जीवन का सुकून…आज सोचता हूं तो हंसी आती है. बावरा ही तो था वह…बावरे से मन की यह न जानें कितनी बावरी सी बातें थीं. कोई रात ऐसी नहीं थी जब वह साथ नहीं होती. हां, यह बात अलग थी कि वह साथ हो कर भी साथ नहीं होती. अमन को कभीकभी लगता था कि उस के बिना तो रात में भी रात न होती. शायद इसी को तो इश्क कहते हैं… इतने साल बीत जाने पर भी वह उस को माफ नहीं कर पाया था.

सच कहा है किसी ने मन से ज्यादा उपजाऊ जगह कोई नहीं होती क्योंकि वहां जो कुछ भी बोया जाए उगता जरूर है चाहे वह विचार हो, नफरत हो या प्यार. कुछ ख्वाहिशें बारिश की बूंदों की तरह होती हैं जिन्हें पाने की जीवनभर चाहत होती है. उस चाहत को पाने में हथेलियां तो भीग जाती हैं पर हाथ हमेशा खाली रहता है. उस का प्यार इतना कमजोर था कि वह हिम्मत नहीं कर पाई. बस, कुछ सालों की ही तो बात थी…

“कैसी लग रही हूं मैं..?” खुशी ने मुसकराते हुए अमन से पूछा था. अमन उस के चेहरे में खो सा गया था. लाल सुर्ख जोड़े और मेहंदी लगे हाथों में वस और भी खूबसूरत लग रही थी. वह उसे एकटक देखता रहा और सोचता रहा कि मेरा चांद किसी और की छत पर चमकने को तैयार था.

“तुम हमेशा की तरह खूबसूरत…बहुत खूबसूरत लग रही हो.”

“सच में…”

“क्या तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं, कोई गवाह चाहिए तुम्हें…”

अमन की आंखों में न जाने कितने सवाल तैर रहे थे. ऐसे सवाल जिन का जवाब उस के पास नहीं था. खुशी ने अचकचा कर अपनी आंखें फेर लीं और भरसक हंसने का प्रयास करने लगी. अमन उस मासूम हंसी को कभी नहीं भूल सकता था. न जाने क्या सोच कर वह एकदम से चुप हो गया. उस समय वे दोनों कमरे में अकेले थे. बारात आने वाली थी.सब तैयारी में इधरउधर दौड़भाग रहे थे. कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.

शायद बारात आ गई थी. भीड़ का शोर बढ़ता जा रहा और खुशी के चेहरे पर बेचैनी भी…वह तेजी से अपनी उंगलियों में दुपट्टे को लपेटती और फिर ढीला छोड़ देती. कुछ था जो उस के हाथों से छूटने जा रहा था पर….खुशी सोच रही थी कि माथे का सिंदूर रिश्ते की निशानी हो सकती है पर क्या प्यार की भी? तब खुशी ने ही बोलना शुरू किया, “अमन, शायद तुम्हें मुझ से, अपने जीवन से शिकायत हो. शायद तुम्हें लगे कुदरत ने हमारा साथ नहीं दिया पर एक बार खिड़की से बाहर उन चेहरों को देखो जो मेरी खुशी के लिए कितने दिनों से दौड़भाग रहे हैं. मेरे पापा से मिल कर देखो, खुशी उन की आंखों से बारबार छलक रही है और मेरी मां… वह भी कितनी खुश है.

“क्या अगर आज हम ने उन की मरजी के खिलाफ जा कर चुपचाप शादी कर ली होती, इतने लोगों को दुख पहुंचा कर हम नए जीवन की शुरुआत कर पाते? तुम्हें शायद मेरी बातें आज न समझ में आए पर एक न एक दिन तुम्हें लगेगा कि मैं गलत नहीं थी. हो सके तो मुझे भूल जाना…”

“भूल जाना…” आसानी से कह दिया था खुशी ने यह सब पर क्या यह इतना आसान था? अमन मुसकरा कर रह गया. उस की मुसकराहट में खुशी को न पा पाने का गम, अपने बेरोजगार होने की मजबूरी बारबार साल रही थी. आज खुशी जिन लोगों का दिल रखने की कोशिश कर रही थी, क्या किसी ने उस का दिल रखने की कोशिश की? खुशी की बहनें जयमाल के लिए खुशी को ले कर चली गईं. अमन काफी देर तक उस स्थान को देखता रहा जहां खुशी बैठी थी. उस के वजूद की खुशबू वह अभी तक महसूस कर रहा था.

खुशी सिर्फ उस के जीवन से नहीं जा रही थी, उस के साथ उस की खुशियां, उस के होने का मकसद को भी ले कर चली गई थी. वह तेजी से उठा और भीड़ में गुम हो गया.

“अरे अमन, वहां क्यों खड़े हो? यहां आओ न… फोटो तो खिंचवाओ,” खुशी की मां ने हुलस कर कहा और वह झट से दोस्तों के साथ मंच पर चढ़ गया. न जाने क्यों खुशी का चेहरा उतर गया था. एक अजीब सा तनाव और गुस्सा अमन के चेहरे पर था, जैसे किसी बच्चे से उस का पसंदीदा खिलौना छीन लिया गया हो. अमन खुशी के पति के पीछे जा कर खड़ा हो गया, जैसे वह खुद को बहला रहा था. जिस जगह पर आज खुशी का पति बैठा है इस जगह पर तो उसे होना चाहिए था.

आज उस का मन यादों के भंवर में घूम रहा था. याद है, आज भी उसे खुशी से वह पहली मुलाकात… फरवरी की गुलाबी ठंड शीतल हवा के झोंके चेहरे से टकरा कर एक अजीब सी मदहोशी में डुबो रहे थे. बादलों से झांकता सूरज बारबार आंखमिचौली कर रहा था.

तभी सामने से आती एक सुंदर सी लड़की जिस ने पीले सलवारकमीज पर चांदी की चूड़ियां डाल रखी थीं, उस पर नजरें टिक गईं. हाथ की कलाई में बंधी घड़ी को उस ने बेचैनी से देखा. शायद उसे क्लास के लिए आज देर हो गई थी. उस के चेहरे पर बिखरी हुई लटें किसी का भी मन मोह लेने में सक्षम थी, हर पल उस के कदम अमन की ओर बढ़ते जा रहे थे और उस के हर बढ़ते हुए कदम के साथ अमन का दिल जोरजोर से धङकने लगा था. सांसें थम सी गई थीं, चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. शायद यह उम्र का असर था या फिर कुछ और, उस की निगाहों की कशिश उसे अपनी ओर खींचने को मजबूर करती थीं. उसे रोज देखने की आदत न जाने कब मुहब्बत में बदल गई.

वे घंटों एकदूसरे के साथ सीढ़ियों पर बैठे रहते थे, उन के मौन के बीच भी कोई था जो बोलता था. एकदूसरे का साथ उन्हें अच्छा लगता था. आज भी उस रास्ते से जब वह गुजरता तो लगता वह उन सीढ़ियों पर बैठा उस का इंतजार कर रहा है और वह अपनी सहेलियों के बीच घिरी कनखियों से उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही है.

यहीं…हां, यहीं तो उस ने अपनी शादी का कार्ड पकड़ाया था. न जाने क्यों उस की बोलती और चमकती आंखों में लाल डोरे उभर आए थे. कुछ खोईखोई सी लग रही थी वह… उस दिन भी तो उस ने उस का पसंदीदा रंग पहन रखा था. यह इत्तिफाक था या फिर कुछ और वह आज तक समझ नहीं पाया…

हाथों में वही चांदी की चूड़ियां… लाल सुर्ख कार्ड को उस ने अपनी झुकी पलकों और कंपकंपाते हाथों के साथ अमन को पकड़ाया. पता नहीं वह भ्रम था या फिर कुछ और… उस के गुलाबी होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए थे पर…हिरनी सी चंचल आंखों से में एक अजीब सा सूनापन था. खालीपन तो उस की आंखों में भी था…

“आओगे न…” इन 2 शब्दों ने उस के कानों तक आतेआते न जाने कितने मीलों का सफर तय किया था. सच ही तो है, हम सब एक सफर में ही तो हैं.

“तुम…तुम सचमुच चाहती हो मैं आऊं?”

आंसू की 2 बूंदें उस कार्ड पर टप से टपक पङे और वह मेरे बिना कोई जवाब दिए दूर बहुत दूर चली गई. कितना गुस्सा आया था उस दिन… एक बार… हां, एक बार भी नहीं सोचा उस ने मेरे बारे में…क्या वह मेरा इंतजार नहीं कर सकती थीं? कितनी शामें मैं ने उस की उस पसंदीदा जगह पर इंतजार किया था पर वह नहीं आई. शायद उसे आना भी नहीं था. खिड़की से झांकता पेड़ मुझ से बारबार पूछता कि क्या वह आएगी? पर नहीं, पार्क में पड़ी लकड़ी की वह बैंच…

आज भी उस बैंच पर गुलमोहर के फूल गिरते हैं, जिन्हें वह अपने नाजुक हाथों में घुमाघुमा अठखेलियां करती थी. बारिश की बूंदें जब उस के चेहरे को छू कर मिट्टी में लोट जाती तब वह उस की सोंधी खुशबू से पागल सी हो जाती. बरगद का वह विशाल पेङ जहां वह अमन के साथ घंटों बैठ कर भविष्य के सपने बुनती, आज भी उस का इंतजार कर रहा था. अपनी नाजुक कलाइयों से वह उस विशाल पेङ को बांधने का निर्रथक प्रयास करती, उस का वह बचपना आज भी अमन को गुदगुदा देता.

अमन सोच रहा था कि शब्द और सोच इंसान की दूरियां बढ़ा देते हैं और कभी हम समझ नहीं पाते और कभी समझा नहीं पाते. कल वह खुशी को समझ नहीं पाया था और आज वह श्रेया को नहीं समझ पा रहा. उस ने तो सिर्फ उतना ही देखा और समझा जितना वह देखना और समझना चाहता था. जिंदगीभर उसे खुशी से शिकायतें रहीं पर एक बार भी उस ने यह सोचा कि खुशी को भी तो उस से शिकायतें हो सकती हैं? वह भी तो उस के पिता से मिल कर उन्हें समझा सकता था? खुशी का दिया जख्म उसे आज तक टीस देता था पर आज श्रेया के प्यार के बारे में जान कर भी वह कुछ नहीं करेगा?

क्या उस नए जख्म को बरदाश्त कर पाएगा? खुशी और श्रेया न जाने क्यों उसे आज एक ही नाव पर सवार लग रहे थे, जो दूसरों का दिल रखने के चक्कर में अपना दिल रखना कब का भूल चुके थे.

सच कहा था उस दिन खुशी ने कि एक दिन मुझे उस की बातें समझ में आएंगी. अमन की आंखें बोझिल हो रही थीं, वह थक गया था अपने विचारों से लड़तेलड़ते…उस की पत्नी नींद के आगोश में थी. अमन खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. बाहर तेज बारिश हो रही थी. हवा के झोंके ने अमन के तन को भिगो दिया. पानी की तेज धार में पत्ते धूल गए थे और कहीं न कहीं अमन की गलतफहमियां भी… वह निश्चय कर चुका था कि बेशक उस की जिंदगी में खुशी नहीं आ पाई थी मगर मेरी श्रेया किसी की नफरत का शिकार नहीं बनेगी…वह कल ही उस से बात करेगा. Hindi Love Story

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

Hindi Crime Story: पानी चोर

Hindi Crime Story: रात के तकरीबन 2 बजे थे. कल्पना ने अपना कई दिनों से खाली पड़ा घड़ा उठाया और उसे साड़ी के पल्लू से ढक कर दबे पैर घर से चल पड़ी. करीब 15 मकानों के बाद वह एक कोठी के सामने रुक गई.

कल्पना को कोठी की एक खिड़की अधखुली नजर आई. उस ने धीरे से पल्ला धकेला, तो खिड़की खुल गई. उस की आंखें खुशी से चमक उठीं. वह उस खिड़की को फांद कर कोठी में घुस गई. कोठी के अंदर पंखों व कूलरों की आवाजों के अलावा एकदम खामोशी थी. लोग गहरी नींद में सो रहे थे.

कल्पना एक कमरा पार कर के दूसरे कमरे में पहुंची. वहां अलमारी अधखुली थी, जिस में से नोटों की गड्डियां व सोने के गहने साफ दिखाई दे रहे थे. कल्पना उन्हें नजरअंदाज करती हुई आगे बढ़ गई और तीसरे कमरे में पहुंची. वहां कई टंकियों में पानी भरा हुआ था.

कल्पना ने अपना घड़ा एक टंकी में डुबोया और पानी भर कर जिस तरह से कोठी में दाखिल हुई थी, उसी तरह से पानी ले कर अपने घर लौट आई.

‘‘पानी ले आई कल्पना. जब मैं ने देखा कि घड़ा घर पर नहीं है, तो सोचा कि तू पानी लेने ही गई होगी,’’ कल्पना के अधेड़ पति शंकर ने कहा, जो 2 महीने से मलेरिया से पीडि़त हो कर चारपाई पर पड़ा था.

‘‘जी, पानी मिल गया. आप पानी पी कर अपनी प्यास बुझाएं. मैं दूसरा घड़ा भर कर लाती हूं. अजीत उठे, तो उसे भी पानी पिला दीजिएगा,’’ कल्पना ने पानी से भरा गिलास देते हुए कहा.

शंकर ने पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई. 2 दिनों से इस घर के तीनों लोगों ने एक बूंद पानी भी नहीं पीया था. अजीत तो कल्पना का दूध पी लेता था, मगर कल्पना और शंकर प्यास से बेचैन हो गए थे.

कल्पना ने पानी से भरा हुआ दूसरा घड़ा भी ला कर रख दिया. जब वह तीसरा घड़ा उठा कर बाहर जाने लगी, तब शंकर ने पूछा, ‘‘आज भीड़ नहीं है क्या? तू ने पानी पीया? टैंकर कहां खड़ा है? क्या आज सरपंच ने टैंकर अपने घर में खाली नहीं किया?’’

‘‘आप आराम कीजिए, मैं अभी यह घड़ा भी भर कर लाती हूं,’’ कह कर कल्पना तीसरा घड़ा उठा कर चली गई.

इस बार भी कल्पना उसी तरह कोठी में दाखिल हुई और घड़ा टंकी में डुबोया. घड़े में पानी भरने की आवाज से अब की बार कोठी का कुत्ता जाग कर भूंकने लगा.

तभी कल्पना को बासी रोटी के टुकड़े एक थाली में पड़े दिखाई दिए. कल्पना ने रोटी का टुकड़ा उठा कर कुत्ते की ओर फेंका और घड़ा उठा कर तीर की मानिंद कोठी के बाहर हो गई.

तभी एक काले से आदमी ने वहां आ कर तेज आवाज में कल्पना से पूछा, ‘‘कौन हो?’’

कल्पना बिना कुछ कहे आगे बढ़ती गई. वह आवाज पहचान गई थी. वह सरपंच राम सिंह ठाकुर की आवाज थी.

सरपंच ने कल्पना का पीछा करते हुए कहा, ‘‘चोर कहीं की, पानी चोर. शर्म नहीं आती पानी चुराते हुए.’’

इतना कह कर सरपंच ने कल्पना को दबोच लिया. उस ने खुद को छुड़ाना चाहा, तो सरपंच बोला, ‘‘मैं अभी ‘पानी चोर’ कह कर शोर मचा कर सारे गांव वालों को जमा कर दूंगा. भलाई इसी में है कि तू वापस कोठी चल और मुझे खुश कर दे. मैं तेरी हर मुराद पूरी करूंगा.’’

‘‘चल हट,’’ हाथ छुड़ाते हुए कल्पना ने कहा. सरपंच ने जब देखा कि कल्पना नहीं मान रही है, तो उस ने ‘चोरचोर, पानी चोर’ कह कर जोरजोर से आवाजें लगानी शुरू कर दीं.

आवाज सुन कर गांव वाले लाठी व फरसा ले कर कोठी के पास जमा हो गए. कुछ लोग लालटेनें ले कर आए. मामला जानने के बाद कुछ लोग कल्पना से हमदर्दी जताते हुए कह रहे थे कि बेचारी क्या करती, 2 दिनों से उसे पानी नहीं मिला था. दूसरी ओर सरपंच के चमचे कह रहे थे कि इस पानी चोर को पुलिस के हवाले करो.

‘‘ऐसा मत करो, बेचारी गरीब है. छोड़ दो बेचारी को,’’ एक बूढ़ी औरत ने हमदर्दी जताते हुए कहा.

किसी ने कल्पना के पति शंकर को जा कर बताया कि कल्पना सरपंच के घर से पानी चुराते हुए पकड़ ली गई है और उसे थाना ले जा रहे हैं.

बीमार शंकर भागाभागा आया और सरपंच के पैरों पर गिर कर कल्पना की ओर से माफी मांगने लगा. मगर ठाकुर ने उसे पैरों की ठोकर मार दी और कल्पना को ले कर थाने की ओर चल पड़ा. बेचारा शंकर यह सदमा बरदाश्त न कर सका और वहीं हमेशा के लिए सो गया.

कल्पना को ले कर जब सरपंच और उस के चमचे थाने पहुंचे, तो थानेदार ने पूछा, ‘‘क्या हो गया? यह लड़की कौन है? इसे बांध कर क्यों लाए हो?’’

सरपंच ने थानेदार को नमस्ते करते हुए कहा, ‘‘जी, मैं गांव डोगरपुर का सरपंच ठाकुर राम सिंह हूं. इस औरत ने मेरी हवेली में घुस कर चोरी की है. मैं ने इसे रंगे हाथों पकड़ा है और आप के पास शिकायत करने आया हूं,’’ सरपंच ने कहा.

‘‘कितना माल यानी मेरा मतलब है कि कितना सोनाचांदी व रुपए चोरी किए हैं इस ने?’’ थानेदार ने पूछा.

‘‘जी, रुपए या सोनाचांदी नहीं, इस ने तो एक घड़ा पानी मेरे घर में घुस कर चुराया है.

‘‘समूचे इलाके के लोग बूंदबूंद पानी के लिए तरस रहे हैं, वे 15 किलोमीटर पैदल चल कर मुश्किल से एक घड़ा पानी ले कर लौटते हैं.

‘‘इस की हिम्मत तो देखिए साहब, खिड़की फांद कर पानी चुरा कर ले जा रही थी,’’ सरपंच ने बताया.

‘‘क्या चाहते हो तुम?’’

‘‘आप रिपोर्ट लिख कर इस औरत को जेल भेज दो,’’ सरपंच ने कहा.

‘‘जाओ मुंशीजी के पास रिपोर्ट लिखवा दो.’’

‘‘मुंशीजी, रिपोर्ट लिखाने से पहले सरपंच को अच्छी तरह समझा देना,’’ थानेदार ने मुंशीजी को आवाज लगा कर कहा.

मुंशीजी ने सरपंच को एक ओर ले जा कर उस के कान में कुछ कहा.

‘‘अरे हैड साहब, मैं कई सालों से सरपंच हूं. मैं यह अच्छी तरह जानता हूं कि बिना लिएदिए आजकल कोई काम नहीं होता है,’’ सरपंच ने जेब से नोटों की 2 गड्डियां निकाल कर मुंशीजी के हवाले कर दीं.

मुंशीजी ने सरपंच की एफआईआर दर्ज कर ली. कल्पना को थानेदार के सामने पेश किया, ‘‘श्रीमानजी, यह वही लड़की है, जिस ने मेरे घर से एक घड़ा पानी चुराया है.’’

थानेदार ने कल्पना को नीचे से ऊपर तक घूरा और बोला, ‘‘क्या तू ने चोरी की? चोरी करते वक्त तुझे शर्म नहीं आई?’’

कल्पना पत्ते की तरह कांप रही थी. उस के रोने से मुरझाए हुए चेहरे पर आंसुओं की लाइनें नजर आ रही थीं.

दूसरे दिन कल्पना को अदालत में पेश किया गया. वहां सरपंच के साथ उस के चमचे कल्पना के खिलाफ गवाही देने के लिए आए हुए थे.

पुलिस ने पानी से भरा हुआ वह घड़ा अदालत में पेश किया, जो कल्पना के पास से जब्त किया गया था. जज ने सब से पहले कल्पना की ओर देखा, जो कठघरे में सिर नीचा किए खड़ी थी.

अदालत ने गवाहों के लिए पुकार लगवाई. सरपंच के चमचों ने अदालत को बताया कि कल्पना ने पानी चुराया, जिसे सरपंच ने रंग हाथों पकड़ लिया. मगर मौके पर कोई गवाह नहीं था. सभी गवाहों ने यही बताया कि सरपंच ने उन्हें बताया.

जज ने कल्पना से पूछा, ‘‘क्यों, क्या तुम ने एक घड़ा पानी सरपंच के घर से चुराया?’’

‘‘जी, एक घड़ा नहीं, बल्कि 3 घड़े पानी मैं सरपंच के घर से लाई. पर उसे चुराया नहीं, बल्कि अपने हिस्से का ले कर आई,’’ कल्पना ने बेधड़क हो कर बताया.

‘‘अपने हिस्से का… चुराया नहीं, लाई का क्या मतलब है?’’ जज ने पूछा.

‘‘इस भयंकर गरमी में गांव के सारे कुएं, हैंडपंप व तालाब सूख गए हैं. एकएक बूंद पानी के लिए गांव वाले तरस रहे हैं. प्यास से मर रहे हैं.

‘‘पंचायत ने गांव में पानी का इंतजाम किया है. हमारे गांव में पानी के लिए सिर्फ 2 टैंकरों का इंतजाम है, जिस में से एक टैंकर सरपंच अपने घर खाली करा लेता है, जिसे वह चोरी से बेचता है. दूसरे टैंकर का पानी गांव वाले छीनाझपटी कर के लेते हैं.

‘‘मैं वह अभागी औरत हूं, जिसे कई दिनों से एक बूंद पानी नहीं मिला. बीमार पति घर में हैं. मैं सरपंच के घर से अपने हिस्से का पानी ही लाई हूं.

‘‘मेरी बातों पर यकीन न हो, तो इन गांव वालों से पूछ लीजिए. मैं अदालत से गुजारिश करती हूं कि मैं पानी चोर नहीं हूं, बल्कि असली पानी चोर तो सरपंच है. सरपंच के घर की टंकियां पानी से भरी पड़ी हैं.’’

अदालत में गांव वालों ने भी कहा कि यह बात सच है. कल्पना सही कह रही है. वह 50 रुपए प्रति घड़े की दर से पानी बेचता है. अभी इस वक्त भी सरपंच के घर पानी के लिए ग्राहकों की लंबी कतार लगी है.

सरपंच बगलें झांकने लगा. जज को सरपंच व पुलिस की जालसाजी की बू इस मुकदमे में आने लगी. कल्पना को अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया और असली चोर को पकड़ने के लिए जांच के आदेश जारी कर दिए गए.

कल्पना जब अपने गांव पहुंची, तो उसे पता चला कि किसी ने रात में ही उस के पति शंकर, जो सदमे से उसी दिन चल बसा था, की लाश फूंक दी थी.

जब कल्पना अपने घर पहुंची, तो उस का अबोध लड़का अजीत भी हमेशा के लिए सोया हुआ मिला. कल्पना ने जैसे ही अपने बेटे की लाश को देखा, तो उस की जोर से चीख निकल पड़ी.

‘‘अजीत… अजीत…’’ कह कर वह बेहोश हो गई. गांव वाले जो कल्पना के खिलाफ थे, अब सरपंच के खिलाफ नारेबाजी करने लगे, ‘पानी चोर… सरपंच पानी चोर… असली चोर सरपंच…’

कल्पना पागल हो चुकी थी. वह अपने बेटे की लाश को बता रही थी, ‘‘बेटे, मैं पानी चोर नहीं हूं, असली पानी चोर सरपंच है.’’

इतना कह कर कल्पना कभी हंसती, तो कभी रोने लगती थी. पुलिस ने सरपंच के घर से लबालब भरी पानी की कई टंकियों को जब्त किया. जो पानी खरीदने आए थे, उन्हें गवाह बना कर ठाकुर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.
लेखक- मानिक झोड़ ‘काकाजी’

Hindi Fiction Story: आसमान छूते अरमान

Hindi Fiction Story: चंद्रो बस से उतर कर अपनी सहेलियों के साथ जैसे ही गांव की ओर चली, उस के कानों में गांव में हो रही किसी मुनादी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘गांव वालो, मेहरबानो, कद्रदानो, सुन लो इस बार जब होगा मंगल, गांव के अखाड़े में होगा दंगल. बड़ेबडे़ पहलवानों की खुलेगी पोल, तभी तो बजा रहा हूं जोर से ढोल. देखते हैं कि मंगलवार को लल्लू पहलवान की चुनौती को कौन स्वीकार करता है. खुद पटका जाता है कि लल्लू को पटकनी देता है. मंगलवार शाम4 बजे होगा अखाड़े में दंगल.’‘‘देख चंद्रो, इस बार तो तेरा लल्लू गांव में ही अखाड़ा जमाने आ गया,’’ एक सहेली बोली.

‘‘धत्… चल, मैं तुझ से बात नहीं करती,’’ चंद्रो ने कहा.

‘‘अब तू हम से क्या बात करेगी चंद्रो. अब तो तू उस के खयालों में खो जाएगी,’’ दूसरी सहेली बोली.

चंद्रो ने शरमा कर दुपट्टे में अपना मुंह छिपा लिया. तब तक उस का घर भी आ चुका था. वह अपनी सहेलियों को छोड़ कर तेजी से घर के दरवाजे की ओर बढ़ गई.

चंद्रो का पूरा नाम चंद्रवती था. वह कभी छुटपन में लल्लू की सहपाठी रही थी, तभी उन के बीच प्यार का बीज फूट गया था. चंद्रवती को चंद्रो नाम देने वाला भी लल्लू पहलवान ही था.

चंद्रवती को पढ़नेलिखने, गीतसंगीत और डांस में ज्यादा दिलचस्पी थी. उस के अरमान बचपन से ही ऊंचे थे. लल्लू पहलवानी का शौक रखता था. पढ़ाई में उस की इतनी दिलचस्पी नहीं थी, जितनी अखाड़े में जोरआजमाइश करने की.

फिलहाज, चंद्रवती हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. यह उस का एमए का आखिरी साल था. उस का कालेज गांव से 14-15 किलोमीटर दूर शहर में था. अपनी सहेलियों के साथ वह रोज ही बस से कालेज जाती थी. उस के मातापिता उस के लिए अच्छे वर की तलाश कर रहे थे.

लल्लू पहलवान को कुश्ती लड़नेका शौक ऐसा चढ़ा था कि पढ़ाई बहुत पीछे छूट गई थी. लेकिन पहलवानी में उस ने अपनी धाक जमा ली थी. 40-50 किलोमीटर दूर तक के गांवों में उस की बराबरी का कोई पहलवान न था. अब वह पेशेवर पहलवान बन चुका था और अच्छी कमाई कर रहा था.

चंद्रवती रातभर लल्लू की यादों में खोई रही. वे बचपन की यादें और अब अल्हड़ जवानी. चंद्रवती को लल्लू से मिले कई साल हो चुके थे, लेकिन उस का वह बचपन का मासूम चेहरा अभी भी आंखों में समाया हुआ था.

मंगलवार को शाम 4 बजे तक अखाड़े में तिल धरने की भी जगह न बची थी. औरतों को बिठाने के लिए अखाड़ा समिति ने अलग से इंतजाम किया था. पहली कुश्ती मुश्किल से 5 मिनट चली. लल्लू ने कुछ देर तक तो पहलवान के साथ दांवपेंच दिखाए और फिर उसे कंधे पर उठा कर अखाड़े का जो चक्कर लगाया, तो तालियों की बरसात होने लगी.

कुछ देर बाद पांच मुकाबले हुए और सब का हाल पहले पहलवानों जैसा ही हुआ.

अब लल्लू के चेहरे पर थकान साफ नजर आ रही थी. उसे सभी मुकाबलों में जीत मिलने का इनाम मिल चुका था.

जब सब गांव वाले जाने लगे, तो चंद्रवती की सहेलियां उसे लल्लू से मिलाने के लिए जबरन पकड़ कर ले गईं.लल्लू भीड़ से घिरा हुआ था, फिर भी सहेलियां चंद्रवती को लल्लू से मिलाने पर आमादा थीं. यह काम किया चंद्रवती की सहेली मधु के भाई माधवन ने. उस ने लल्लू से कान में जा कर कहा, ‘‘तुम्हारी कोई रिश्तेदार उधर खड़ी है. वह एक मिनट के लिए तुम से मिलना चाहती है.’’

लल्लू उठ कर गया, तो वहां 5-6 लड़कियां खड़ी थीं. लेकिन उन में से उसे कोई भी अपनी रिश्तेदार नजर नहीं आई. उस ने पूछा, ‘‘कहां है मेरी रिश्तेदार?’’

‘‘पहलवानजी, अपनी रिश्तेदार को भी नहीं पहचानते. बड़े पहलवान हो गए हो, इसलिए बचपन के रिश्ते को ही भूल गए,’’ चंद्रवती की एक सहेली इंदू ने उलाहना देते हुए कहा.

चंद्रवती का दिल जोरजोर से धड़क रहा था कि कहीं लल्लू उसे भूल ही न गया हो. तब मधु ने कहा, ‘‘किसी चंद्रो को जानते हो तुम? कोई चंद्रो पढ़ती थी तुम्हारे साथ बचपन में?’’

चंद्रो का नाम सुनते ही लल्लू का चेहरा खिल उठा. उस के मुंह से अनायास ही निकला, ‘‘अरे चंद्रो, हां, कहां है मेरी चंद्रो?’’

यह सुनते ही चंद्रो शरमा कर अपनेआप में ही मिसट गई. सहेलियां मुसकरा पड़ीं और लल्लू भी अपने उतावलेपन पर शर्मिंदा हो गया. कुछ ही दिनों में चंद्रवती लल्लू के घरआंगन को महकाने के लिए आ गई. कुछ दिन तक तो लल्लू चंद्रवती के प्यार में ऐसा खोया रहा कि पहलवानी के सारे दांवपेंच भूल गया. दोनों एकदूसरे को पा कर बहुत खुश थे.

उन दोनों की गृहस्थी बड़े आराम से पटरी पर चल रही थी. उन्हीं दिनों गांव में पंचायत चुनाव आ गए. लल्लू की राजनीति में कोई दिलचस्पी न थी, लेकिन चंद्रवती को राजनीति विरासत में मिली थी. उस के दादा अपने गांव में कई साल प्रधान रहे थे और अब उस के चाचा राम सिंह अपने गांव के प्रधान थे.

गांव वालों का लल्लू को प्रधान बनाने का इशारा था, लेकिन चुनाव आयोग ने उन के गांव के प्रधान का पद औरत के लिए रिजर्व कर दिया था.

लल्लू को पूरा गांव अपने पक्ष में लग रहा था, इसलिए वह चाह कर भी मना नहीं कर सका और उस ने चंद्रवती को चुनावी मैदान में उतार दिया. चुनाव एकतरफा रहा और चंद्रवती मालिनपुर गांव की प्रधान बन गई. शुरूशुरू में प्रधान के सारे काम लल्लू ही देखता था, लेकिन किसी कागज पर दस्तखत करने हों या फिर ग्राम प्रधानों की बैठक में जाना हो, तब चंद्रवती का जाना जरूरी हो जाता था.

चंद्रवती पढ़ीलिखी थी, अफसरों से बात करना ठीक से जानती थी, ग्राम प्रधान के अपने हकों को भी वह अच्छी तरह समझती थी. धीरेधीरे ग्राम प्रधानी का कामकाज उस के हाथों में आने लगा और लल्लू किनारे लगने लगा.

अब चंद्रवती पराए मर्दों से शरमाती न थी. उसे कहीं अकेले जाना पड़ता, तो वह लल्लू की बाट न जोहती थी. किसी को चंद्रवती से मिलना होता, तो वह उस से सीधा मिलता. लल्लू सिर्फ दरबारी बन कर रह गया था, सिंहासन पर चंद्रवती बैठी थी.

प्रधानों के संघ में चंद्रवती जितनी खूबसूरत और पढ़ीलिखी कम ही औरतें थीं, इसलिए प्रधान संघ का सचिव पद पाने में वह कामयाब हो गई. चंद्रवती के अरमान अब आसमान छूने लगे थे. वह मर्दों को दुनिया में मुकाम हासिल करने के गुर सीखने लगी. लंगोट के कच्चे मर्द को एक ही मुसकान से कैसे पस्त किया जा सकता है, यह वह अच्छी तरह जान गई थी.

अब चंद्रवती हमेशा बड़े नेताओं और अफसरों से मेलजोल बढ़ाने के मौके तलाशने लगी. यह वह सीढ़ी थी, जिस पर चढ़ कर वह अपनी इच्छाओं के आसमान पर पहुंच सकती थी.

एक बार प्रदेश सरकार का मंत्री भूरेलाल जिले के दौरे पर आया, तो उस की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उस का दौरा मालिनपुर में ही लगा दिया.चंद्रवती अपने दबदबे से मालिनपुर में तरक्की के अनेक काम करवा चुकी थी. जिसे देखने के लिए मंत्री को ग्राम प्रधान से मिलने की इच्छा और बढ़ गई.

चंद्रवती ने पहले से ही मंत्री के लिए नाश्ते का इंतजाम घर पर ही कर रखा था. भूरेलाल का स्वागत करने के लिए चंद्रवती सजीधजी दरवाजे पर ही खड़ी थी. वह खूबसूरती के भूखे इन मर्दों को अच्छी तरह से जानती थी.

चंद्रवती के रूप को देख कर भूरेलाल की आंखें चौंधिया गईं. चंद्रवती ने बैठक को भी ऐसा सजाया था कि भूरेलाल देखता ही रह गया. जब चंद्रवती भूरेलाल के सामने बैठी, तो वह गांव की तरक्की के काम की बात भूल कर उस की खूबसूरती को देखने में मगन हो गया.

जब चंद्रवती ने अपने सुकोमल हाथों और एक मोहन मुसकान से उसे चाय की प्याली पकड़ाई, तब जा कर भूरेलाल की नींद टूटी.

भूरेलाल गांव का दौरा कर के चला तो गया, पर उस का दिल मालिनपुर में ही अटक कर रह गया. शाम को ही मंत्री भूरेलाल ने फोन कर के चंद्रवती को उस की ‘अच्छी चाय’ के लिए धन्यवाद दिया.

चंद्रवती जान गई थी कि तीर निशाने पर लगा है. उस ने योजनाएं बनानी शुरू कर दीं कि मंत्री भूरेलाल से क्याक्या काम करवाने हैं और आगे बढ़ने के लिए इस सीढ़ी का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है.

अब मालिनपुर गांव में तरक्की का जो भी छोटाबड़ा काम होता, उस का उद्घाटन भूरेलाल के ही हाथों होता. भूरेलाल चंद्रवती को पार्टी के कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए बुलाने लगा.

जल्दी ही भूरेलाल ने चंद्रवती की ताजपोशी खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद पर करवा दी. फिर तो चंद्रवती को नीली बत्ती की गाड़ी मिल गई.

ओहदा बढ़ते ही चंद्रवती आजाद पंक्षी हो गई. लल्लू पहलवान ने उसे घोंसले में ही कैद रखने के लिए उस के पर कतरने की काफी कोशिश की, लेकिन चंद्रवती के सामने उस की अब बिसात ही क्या थी.

एक दिन भूरेलाल ने मौका देख कर कहा, ‘‘चंद्रवतीजी, आप खूबसूरत होने के साथसाथ काबिल भी हो. कोशिश करो, तो विधायक भी बन सकती हो.’’

चंद्रवती ने इतराते हुए कहा, ‘‘मंत्रीजी, ऐसे दिन हमारे कहां?’’

‘‘हम तुम्हारे साथ हैं न. बस, तुम्हें साथ देने की जरूरत है,’’ भूरेलाल ने आखिरी शब्द चंद्रवती के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा. चंद्रवती मंत्री भूरेलाल के एहसानों से इतना दब चुकी थी कि वह कोई विरोध न कर सकी, सिर्फ अपना हाथ पीछे खींच लिया.

भूरेलाल ने सकपकाते हुए कहा, ‘‘चंद्रवती, देखो राजनीति करने के लिए बहुतकुछ कुरबान करना पड़ता है. अब देखो विधायक का टिकट पाना है, तो अनेक नेताओं से मिलना ही पड़ेगा. अब मैं तुम्हें प्रदेश अध्यक्ष से मिलवाना चाहता हूं, उस के लिए तुम्हें लखनऊ तो चलना ही पड़ेगा. घर जा कर सोचना और ‘हां’ और ‘न’ में जवाब देना. वैसे तो तुम समझदार हो ही.’’

चंद्रवती इस ‘हां’ और ‘न’ का मतलब अच्छी तरह समझती थी. घर पहुंचने पर वह कुछ दुविधा में थी. लल्लू से जब उस ने लखनऊ जा कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने की बात कही, तो उस ने कहा, ‘‘चंद्रवती, धीरेधीरे चलो, तुम उड़ रही हो. हम जितना ऊंचे उड़ते हैं, उतना नीचे भी गिरते हैं.’’

लेकिन चंद्रवती को लल्लू की बात समझ में नहीं आई. उसे लगा कि पहलवानी करतेकरते लल्लू का दिमाग भी छोटा हो गया है. विधायक बनना है, तो कुछ कुरबानी तो देनी ही पड़ेगी.

चंद्रवती प्रदेश अध्यक्ष से मिलने के लिए लखनऊ जाने की तैयारी करने लगी. बुझे मन से लल्लू भी उस के साथ लखनऊ गया.भूरेलाल ने उन के ठहरने का इंतजाम पहले से ही एक होटल में कर दिया था.

अगले दिन भूरेलाल चंद्रवती को लेने होटल गया. चंद्रवती उस के साथ कार में बैठ कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने चली गई. लल्लू को यह बात नागवार गुजरी.

प्रदेश अध्यक्ष भी चंद्रवती की खूबसूरती को निहारता रह गया. मंत्री भूरेलाल ने चंद्रवती की तारीफ के पुल बांध दिए. प्रदेश अध्यक्ष ने चंद्रवती को विधायक का टिकट देने के लिए विचार करने का आश्वासन दिया. चंद्रवती को लगा, जैसे उसे विधायकी का टिकट मिल ही गया.

इस के बाद तो चंद्रवती पार्टी के नेताओं और मंत्रियों के घर और दफ्तर के चक्कर काटने में ही मशगूल हो गई. मंत्री भूरेलाल ने उसे बता दिया था कि जितने नेता और मंत्री उस के टिकट की सिफारिश कर देंगे, उस का टिकट उतना ही पक्का.

अब चंद्रवती अपना ज्यादा समय लखनऊ में ही बिताने लगी थी. उसे लल्लू की अब कोई चिंता नहीं थी. लल्लू भी इस बात को अच्छी तरह से समझ चुका था कि चिडि़या अब उस के हाथ से निकल चुकी है.

भूरेलाल राजनीति का तो मंजा हुआ खिलाड़ी था ही, इश्कमिजाजी का भी वह शौकीन था. वह जानता था कि चंद्रवती उस के जाल में फंस चुकी है. उस ने खादी के विदेशों में प्रचारप्रसार के लिए यूरोपीय देशों का 20 दिन का टूर बनाया और चंद्रवती का नाम भी टूर में जाने वाले लोगों की लिस्ट में शामिल था. लल्लू के विरोध के बावजूद चंद्रवती भूरेलाल के साथ टूर पर गई.

चंद्रवती को लगता था कि भूरेलाल ही वह सहारा और सीढ़ी है, जो उसे उस की मंजिल तक पहुंचाएगा. यूरोप के 20 दिन के टूर में चंद्रवती ने अपना सबकुछ भूरेलाल को सौंप दिया.

इधर लल्लू इतना दुखी हो चुका था कि चंद्रवती से तलाक लेने के अलावा उसे और कोई रास्ता न सूझता था. उस ने तलाकनामा के लिए वकील से कागजात तैयार करा लिए. चंद्रवती इस के लिए खुशी से तैयार थी. न अब उसे गांव पसंद था और न लल्लू ही.

चंद्रवती भूरेलाल के जरीए और मंत्रियों से मिली. अब उस की पौबाहर थी. सुबह से शाम तक न जाने कितने लोग उसे सैल्यूट मारते. एक फोन पर वह मंत्रियों और अफसरों से लोगों के काम करवाती. ऐसा लगता, जैसे चंद्रवती प्रदेश में अलग सरकार चला रही हो.

लेकिन राजनीति में किस का सूरज कब उग जाए और कब डूब जाए, कौन कह सकता है. चंद्रवती की हनक देख कई लोग उस के विरोधी हो गए. वे चंद्रवती को फंसाने की ताक में लग गए. मीडिया भी उस की हनक से हैरान था.

एक दिन चंद्रवती और भूरेलाल की जरा सी लापरवाही से उन के अंतरंग संबंधों की तसवीरें विरोधियों के हाथ पड़ गईं. फिर मीडिया तक जाने में इसे कितनी देर लगती.

अगले ही दिन 2 काम हो गए. खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद से चंद्रवती को बरखास्त कर दिया गया. कहां तो वह विधायक बनने का सपना देख रही थी, प्रदेश अध्यक्ष ने उस की पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ही रद्द कर दी. मंत्रियों, नेताओं और अफसरों ने उस का मोबाइल नंबर तक अपने मोबाइलों से निकाल दिया.

भूरेलाल के मंत्री पद पर बन आई, तो उस ने चंद्रवती से अपने संबंधों को विरोधियों की साजिश और मीडिया के गंदे मन की उपज बताया. उस ने सार्वजनिक रूप से ऐलान किया कि वह चंद्रवती को केवल एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में जानता है, उस से ज्यादा उस का चंद्रवती से कोई लेनादेना नहीं है.

चंद्रवती ने इतने दिनों में जो बेनामी दौलत कमाई थी, उस से उस ने लखनऊ में एक बंगला तो खरीद ही लिया था. लेकिन राजनीतिक रुतबा खत्म होते ही उस की सारी शानोशौकत पर रोक लग गई. अब उस का दरबार सूना हो चुका था.

जल्दी ही चंद्रवती को अर्श से फर्श पर गिरने का एहसास हो गया. इस बेकद्री और अकेलेपन के चलते वह तनाव की शिकार हो गई. नींद की गोलियां उस का सहारा बनीं.

भूरेलाल उस के फोन को उठाता तक न था. तब एक दिन उस से मिलने वह उस के दफ्तर पहुंच गई. अर्दली ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन वह ‘मैडम’ ही कहता रह गया और वह उस के दफ्तर में पहुंच गई. उस के वहां पहुंचते ही भूरेलाल उस पर बिफर पड़ा, ‘‘तेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘भूरेलाल, मैं ने तुझ पर अपना सबकुछ लुटा दिया और अब कहता है कि मेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘बकवास बंद कर. जो औरत अपने आदमी को छोड़ कर दूसरों के साथ हमबिस्तर हो, वह किसी की नहीं होती.’’

‘‘और जो मर्द अपनी औरत को छोड़ दूसरी औरतों के साथ गुलछर्रे उड़ाए, वह किस का होता है?’’

‘‘दो कौड़ी की औरत… जबान लड़ाती है… गार्ड, बाहर निकालो इसे.’’

इस से पहले कि गार्ड चंद्रवती को बाहर निकालता, चंद्रवती ने पैर में से चप्पल निकाली और भूरेलाल के सिर पर दे मारी.

भूरेलाल के गाल पर इतनी चप्पलें पड़ीं कि उस का चेहरा लाल हो गया. उस का कान और होंठ फट गया. नाक से भी खून बहने लगा. जब तक गार्ड और दूसरे लोग चंद्रवती को रोकते, भूरेलाल की काफी फजीहत हो चुकी थी.

भूरेलाल ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ऐयाशी का नतीजा इतना खतरनाक होगा. मामले को दबाए रखने के लिए पुलिस को कोई सूचना नहीं दी गई.

कुछ दिन बाद खबर आई कि चंद्रवती की उस के घर पर ही मौत हो गई. पोस्टमार्टम के लिए लाश भेजी गई, लेकिन उस की मौत में नींद की दवाओं का ज्यादा सेवन करना बताया गया.

जब चंद्रवती का दाह संस्कार किया जा रहा था, तब लल्लू को उस की लाश से अरमानों का धुआं उड़ता नजर आ रहा था. Hindi Fiction Story

Relationship Tips: कहीं आप भी तो नहीं बन जाते इमोशनल फूल

Relationship Tips: स्वभाव में कोमलता, करुणा, दूसरों के लिए निस्स्वार्थ प्रेम अच्छे गुण हैं पर कभीकभी गलत जगह अपने इमोशंस इन्वैस्ट करने से अपना ही दिल दुखी होने लगे तो संभल जाना चाहिए. जब ये गुण खुद पर ही भारी पड़ने लगें तो सोचसम  झ कर रिश्ते बनाने चाहिए वरना इंसान इमोशनल फूल बन कर रह जाता है.

कोईकोई इंसान इतना भावुक होता है कि जरा सा किसी ने उस से प्यार से बोला नहीं कि वह अपना दिल बिछा कर खड़ा हो जाता है. सामने वाला आराम से अपनी सहूलियत से इस भावुकता का फायदा उठा कर निकल लेता है.

जब आप बारबार छले जा रहे हों तो अपने स्वभाव, व्यवहार का पुनरावलोकन करें. ध्यान दें कि आप से कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही. सामने वाले के साथ अपनापन बढ़ाते हुए एक बारीक लाइन जरूर खींच कर रखें. उस लाइन को कभी क्रौस न करें, भले ही कोई कितना भी अपनापन दिखाए.

आजकल मिलावट का जमाना है, लोगों को पहचानना काफी मुश्किल है. किसी को अपना समझ कर उस से इतना भावुक हो कर भी न मिलें कि जब वह कल को बदल जाए तो आप इमोशनली हर्ट हो कर बैठे रह जाएं. पेश हैं, इस विषय पर कुछ लोगों के जीवन के वास्तविक उदाहरण-

रंग बदलते लोग

मुंबई की सीमा अपना एक अनुभव शेयर करते हुए बताती हैं, ‘‘मैं 10 सालों से मुंबई में रह रही हूं और टीचर हूं. पिछले साल हमारी सोसाइटी में नीरा अपने परिवार के साथ रहने के लिए नईनई आई और जब मु  झ से उस का मिलना हुआ तो मैं ने उसे नयानया जान कर उस की बहुत हैल्प की. मैं स्कूल से आ कर उस के साथ उस के काम से चली भी जाती. उस की इच्छा देखते हुए उसे अपने स्कूल में जौब भी दिला दी.

वह फिर मेरे साथ ही आतीजाती, मेरे घर रुक कर मेरे साथ लंच करती, उस के हस्बैंड टूर पर होते तो बचा हुआ खाना रात के लिए ले जाती. उस के बच्चे स्कूल से आते तो सीधे मेरे घर ही आ जाते और तीनों अच्छी तरह खापी कर, ले कर ही जाते.

‘‘1 साल यही चला. वह मु  झे अपनी छोटी बहन सी लगती. जाने लगती तो अपने भरे हुए हाथ देख कर कहती कि आप के घर से जाती हूं तो लगता है मम्मी के घर से जा रही हूं. 1 साल हर तरह के मतलब निकाल लिए, अच्छी तरह हर तरह से सैट हो गई तो ऐसे रंग बदला कि पूछो मत. मेरे घरपरिवार की भी सारी जानकारी खोदखोद कर निकाल ली. फिर अचानक कट गई. ऐसी हो गई जैसे जानती भी न हो.

आनाजाना, फोन, सबकुछ अचानक बंद. मैं ने कई बार पूछा कि क्या बात है तो कुछ नहीं कह कर बात टाल देती.  फिर कोई दूसरा घर पकड़ लिया उस ने. अब कोई और इमोशनल फूल बन रहा होगा. मैं आज उस से इतने घुलनेमिलने के लिए बहुत पछताती हूं कि मैं भावनाओं में इतना कैसे बह गई.’’

रुड़की निवासी महेश और नीला बहुत खुश थे कि अब महेश के बचपन के दोस्त निलिन का भी ट्रांसफर लखनऊ से रुड़की ही हो गया है. महेश और नीला की शादी भी निलिन की शादी के 1 साल बाद ही हुई थी और नीला इस समय  प्रैगनैंट थी. महेश ने निलिन को रहने के लिए अपने ऊपर वाला फ्लैट ही दिला दिया कि दोनों परिवार आसपास ही रहेंगे. दोनों लखनऊ के रहने वाले थे, एकसाथ ही बचपन बीता था.

जब दोस्ती दुश्मनी में बदल जाए

निलिन की पत्नी उषा 1 महीने बाद रहने के लिए आने वाली थी. नीला को इस समय 9वां महीना चल रहा था फिर भी वह निलिन का बहुत ध्यान रखती, उस ने निलिन को कह दिया था कि भैया, जब तक उषा भाभी नहीं आती, आप का खानापीना हमारे साथ ही होगा. नीला इस समय भी अपनी तकलीफें भूल कर निलिन के नाश्ते से ले कर उसे लंच का टिफिन देती और डिनर भी अपने साथ ही कराती. महेश और नीला दोनों ने निलिन का खूब खयाल रखा. कहीं बाहर भी गए तो निलिन को ले कर गए, दोनों बहुत खुश थे कि दोस्त है, साथ रहेंगे.

1 महीने बाद उषा आई तो उस ने पहले दिन से इन दोनों से एक दूरी रखी, पहले तो दोनों ने सोचा कि नई जगह में परेशान हो रही होगी. अभी तक नीला और उषा ने कभी एकसाथ समय बिताया भी नहीं था. इसे दोनों ने कुछ अनजानापन सम  झा पर धीरेधीरे सम  झ आया कि उषा का स्वभाव तो कुछ रूखा है. जब तक उषा ने घरगृहस्थी संभाली, नीला ही उस का हाथ बंटाती रही.

एक ठंडी सांस ले कर नीला बताती हैं, ‘‘उषा दूसरे पड़ोसियों से तो थोड़ाबहुत बोल भी लेती पर हमारे साथ खिंची सी रहती. धीरेधीरे दोनों दोस्तों में दूरियां कुछ ज्यादा बढ़ने लगीं तो महेश ने निलिन से साफसाफ बात की तो निलिन का जवाब था कि तो क्या हो गया अगर उषा तुम लोगों से मिक्स नहीं होती? उस की मरजी. तुम दोनों ने मु  झे जो इतने दिन खिलाया है, उस का पैसा ले लो. इस बात से महेश को इतना धक्का लगा कि वे फिर कुछ नहीं बोले. चुपचाप आ गए.

मैं ने 9वें महीने में भी निलिन का ध्यान घर के सदस्य की तरह रखा पर उस ने उस अपनेपन का यह जवाब दिया. महेश तो कई दिन बहुत उदास रहे. मगर अब सोच लिया कि अब किसी के लिए इमोशनल फूल नहीं बनेंगे.’’

प्रमिला हरिद्वार में रहती हैं. कहानियां लिखती हैं. कई सालों से लिख रही हैं. अच्छा नाम है उन का. नई लेखिकाओं की हैल्प करने के लिए हर समय तैयार रहती हैं. एक दिन किसी नई लेखिका रुचि ने उन्हें फेसबुक पर मैसेज किया कि वह उन के शहर आई है और उन से मिलना चाहती है. फेसबुक फ्रैंड्स बन गए, फोन हुए, बातें हुईं. प्रमिला ने बहुत खुश हो कर रुचि, उस के पति और दोनों बच्चों को डिनर पर बुला लिया. रुचि परिवार के साथ आई.

प्रमिला ने दिल खोल कर उन का स्वागत किया. उन के पति विजय और प्रमिला ही घर पर रहते हैं. उन के दोनों बेटे विदेश में रहते हैं. रुचि का परिवार उन के घर करीब 4 घंटे रहा. खानापीना सब अच्छे माहौल में हुआ. लिखने से संबंधित बहुत सी जानकारी रुचि लेती रही. वह पूछती रही, प्रमिला बताती रही. सुंदर गिफ्ट दे कर प्रमिला ने सब को विदा किया.

बातों का मजाक

अगले दिन रुचि की फेसबुक पर पोस्ट थी जिस में प्रमिला का नाम लिए बिना उन के घर का, उन की बातों का मजाक उड़ाया गया था.्र

प्रमिला कहती हैं, ‘‘मैं अपने इस स्वभाव पर सिर पकड़ कर बैठ गई कि मैं ऐसी क्यों हूं क्या कमी है मेरे घरपरिवार में जो इस बेशर्म महिला ने   झूठ ही सब लिख डाला है. उस दिन से कोई भी मेरे घर आने के लिए कहता है, मैं माफी मांग लेती हूं और उस से बाहर ही जा कर मिल आती हूं. ऐसा सबक मिला कि याद रह गया. इस महिला ने हमारी सादगी का बहुत मजाक उड़ाया. सच, लोग कितने चालाक होते हैं, मु  झ से

क्याक्या पूछ गई. अब किसी को भी घर बुलाते हुए डर लगता है कि पता नहीं कोई जा कर क्या बात बनाए.’’

कभी भी कोई आप के लिए निस्स्वार्थ भाव से कुछ भी कर रहा हो, उस के साथ ऐसा व्यवहार कभी न करें कि समाज से यह गुण दूर होने लगे, लोग किसी के काम आने से बचें. किसी की भावनाओं का अपमान न करें. Relationship Tips

Personality Tips: जरूरी है तारीफ का तोहफा

Personality Tips: आज रीमा औफिस से घर वापस आई तो कुछ उदास सी थी. हमेशा की तरह चहक नहीं रही थी तो बेटी ने पूछा कि क्या हुआ मम्मी आज औफिस में कुछ हुआ क्या? तब रीमा धीरे से बोली कि नहीं कुछ नहीं हुआ. तब बेटी ने पूछा कि फिर आप खुश क्यों नहीं हो?

तब मम्मी ने बताया कि दरअसल बात यह है कि आज औफिस में मेरी मीटिंग थी. उस में मु  झे बाहर के एक क्लाइंट को प्रेजैंटेशन देना था. मैं ने उस के लिए बहुत अच्छे से तैयारी की थी, हर बार की तरह आज भी मेरा प्रेजैंटेशन बहुत अच्छा हुआ, क्लाइंट ने प्रेजैंटेशन की बहुत तारीफ भी की लेकिन औफिस में किसी ने मेरी तारीफ नहीं की. तुम बताओ क्या औफिस के साथियों को मेरी तारीफ नहीं करनी थी क्या? क्या मेरा प्रेजैंटेशन अच्छा नहीं हुआ था क्या? अब मैं कभी भी प्रेजैंटेशन नहीं दूंगी,

रीमा गुस्से में बड़ाबड़ा रही थी. शायद उस का मन बहुत उदास था क्योंकि उसे हर बार औफिस में अच्छे काम के लिए तारीफ सुनने को मिलती थी लेकिन इस बार नहीं मिली तो वह दुखी थी. क्या आप के साथ भी ऐसा होता है? तारीफ न मिलने पर दुखी, उदास या निराश हो जाते हैं. तब ऐसे में क्या करें जाने इस लेख में…

यहां सवाल केवल अच्छे प्रेजैंटेशन के लिए तारीफ का नहीं बल्कि किसी काम या चीज को भी ले सकते हैं. जैसे आप ने अच्छा खाना बनाया लेकिन मेहमानों ने तारीफ नहीं की, आप पार्टी के लिए अच्छे से तैयार हुए किसी ने भी तारीफ नहीं की, औफिस में अच्छा काम किया बौस ने तारीफ नहीं की या नए कपडे़ पहनने पर तारीफ नहीं मिली आदि.

यदि हमेशा आप को आप के काम के लिए या किसी और चीज के लिए तारीफ मिलती हो और किसी दिन न मिले तो आप भी ऐसा यानी उदास महसूस कर सकते हैं क्योंकि हमें हर काम को अच्छा करने की आदत हो जाती है और जब वह अच्छा नहीं होता या अच्छा होने पर तारीफ न मिले तब भी तनाव हो जाता है जिस का असर हमारी मैंटल हैल्थ यानी मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है.

जैसे जब आप किसी शादी या पार्टी या किसी विशेष समारोह में जाते हैं और कोई कहता है कि आप अच्छे दिख रहे हैं तो आप भी. कहना सही रहता है क्योंकि ज्यादातर लोग ऐसे आयोजनों में सब से अच्छा दिखने के लिए सचेत प्रयास करते हैं क्योंकि यदि आप भी. ऐसा नहीं कहते या औफिस में किसी ने अच्छा काम किया और उसे तारीफ सुनने को न मिले तब यह उसे दुखी कर सकता है क्योंकि किसी भी व्यक्ति से प्राप्त तारीफ हमें खुश करती है जिस से हमारा आत्मविश्वास बढ़ने के साथसाथ हमेशा अच्छा काम करने के लिए प्रोत्साहन भी मिलता है.

वहीं दूसरी ओर यदि तारीफ न मिले तो भी हम दुखी या उदास हो जाते हैं इसलिए लाइफ में खुश रहने के लिए तारीफ का होना जरूरी है. यह हमारी मैंटल हैल्थ को दुरुस्त रखने में जादू की तरह काम करती है इसलिए जब भी मौका मिले समयसमय पर एकदूसरे की तारीफ करना न भूलें.

तारीफ न मिलने पर निराशा

कभीकभी लोग हमारी प्रशंसा सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि वे हम से कुछ चाहते हैं या वे अपने बारे में बेहतर महसूस करना चाहते हैं लेकिन याद रहे बारबार ज्यादा तारीफ या प्रशंशा मिलने से हम उस के आदी हो जाते हैं और धीरेधीरे घमंड से भी घिर जाते हैं और साथ ही तारीफ न मिलने पर निराशा से भी भर जाते हैं यानी जितनी ज्यादा हमारी प्रशंसा की जाती है, उतना ही कई बार हम दबाव भी महसूस करते हैं.

हर बार अच्छा करना जैसे अच्छे से तैयार होना है, अच्छे कपड़े पहनने हैं, मु  झे अच्छा ही दिखना है चाहे कुछ भी हो जाए, यह काम अच्छे से करना है, अच्छे से स्पीच बोलनी है आदि यानी जो भी काम कर रहे हों उसे अच्छा करने का तनाव हमारे ऊपर हावी हो जाता है ताकि तारीफ मिल सके और तारीफ न मिलने पर निराशा भी हावी हो जाती है यानी दोनों ही स्थितियों में हमारी मैंटल हैल्थ प्रभावित होती है. एक तरफ अच्छा करने का दबाव और दूसरी तरफ अच्छा न होने का तनाव.

तो क्या करें

दूसरों से तुलना करना बंद करें: दूसरों की सफलता से प्रेरणा लें, आखिर वे शिखर तक कैसे पहुंचे यह जानें ताकि अपने आत्मविश्वास को बढ़ा सकें.

अपनी अपेक्षाएं कम करें: यदि आप अपेक्षा से अच्छा नहीं कर पाए तो निराशा को हावी न होने दें. अगली बार खुद को फिर से अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करें, जब आप खुद को नकारात्मक महसूस करें, तब अपने लिए पौजिटिव बातें बोलना खुद को प्रोत्साहित कर सकता है. Personality Tips

Parenting Tips: ऐसे तय करें प्यार में पैंपरिंग की लिमिट

Parenting Tips: 90 वीं सदी में जब हर घर में अमूमन 3-4 बच्चे होते थे या उस से पहले 80वीं सदी में हर घर में 10-12 बच्चे होना आम बात थी. तब बच्चों की परवरिश पर उतना ही ध्यान दिया जाता था जितना उन को जरूरत होती, जिस का नतीजा यह होता था कि हर बच्चा 2 साल की उम्र तक इंडिपैंडैंट बन जाता था. उन को भूख लगी है या खाना खिलाना है या उन को खेलने के लिए महंगे खिलौनों की जरूरत है जिस से उन का कौग्निटिव विकास हो सके, ये सब चोंचलेबाजी पहले वक्त में नहीं थी.

बच्चे पुराने पड़े टायर आदि से अपने लिए खुद खिलौने, गाडि़यां बनाते थे. कागज के पन्नों पर चोरसिपाही खेलते थे. भागतेदौड़ते अपने लिए खुद खेल बनाते थे. ऐसा नहीं है कि वे बच्चे कैरियर या जीवन में सफल नहीं हुए.

1 या 2 बच्चों के कल्चर ने इन दिनों पेरैंट्स को इतना कौंशस कर दिया है कि वे चाहते हैं उन का बच्चा किसी दूसरे से किसी मामले में कम न हो. सोशल मीडिया का इस में बहुत बड़ा हाथ है. अगर पड़ोस का बच्चा डांस, स्वीमिंग और फुटबाल खेल रहा है तो हम अपने बच्चे को इन के साथ पेंटिंग और म्यूजिक की क्लास भी कराते हैं. सोशल मीडिया पर रोज बच्चों के टिफिन में क्या नया दें इस के दर्जन भर पेज पेरैंट्स फौलो कर के रखते हैं और फिर पेरैंट्स ही कंपीटिशन में लग जाते हैं बेहतर टिफिन देने के.

हालात ये हैं कि घर में क्या खाना बनेगा, दीवारों पर कौन कलर होगा, यह भी छोटे से 5 साल के बच्चे से पूछा जाता है कि कौन सा कलर कराएं और कौन सा नहीं. अब आप जरा खुले दिमाग से सोच कर बताएं कि इस में क्या समझदारी की बात है? हमारा बच्चा तो घीया, तोरई नहीं खाता या मार्केट जाते ही उसे कोई नया खिलौना चाहिए. इस बात पर इतरा कर बड़े ही प्राउड के साथ पेरैंट्स एकदूसरे को बताते हैं.

दूसरे बच्चे के बाद पहले की चिंता और सोशल मीडिया की गाइडलाइन

आजकल सोशल मीडिया पर बाकायदा गाइड होती है कि दूसरे बच्चे के बाद भी पहले को कैसे ‘फील स्पैशल’ कराया जाए. पूरे परिवार की अटैंशन में पला पहला बच्चा दूसरे बच्चे के बाद कम होती अटैंशन से मैंटल स्ट्रैस में न आ जाए. अब ऐसे में आप को समझना होगा कि जो बच्चा 2 महीने का है वह अपनी हर जरूरत के लिए आप पर निर्भर है, वह अपनी जरूरत को ले कर बता भी नहीं सकता है. जबकि बड़े बच्चे ऐसा कर सकते हैं. तो जरूरी है उन्हें समय रहते सैल्फ डिपैंडैंट होने दें. अब 5-6 साल के बच्चे को भी आप हर बार वाशरूम ले कर जाएं तो यह बचकाना लगता है या उसे अपने हाथों से खाना खिला रहे हैं या फिर मार्केट में जाने के बाद जबरन उस के लिए कुछ न कुछ खरीद कर ला रहे हैं भले ही उस के बाद खिलौनों का अंबार लगा हो जिन्हें उस ने छुआ भी नहीं.

प्यार और बेवकूफी में फर्क

अगर आप ने फैसला किया है कि आप 2 बच्चों या 1 बच्चे के पेरैंट बनेंगे तो पहले खुद का मैच्योर होना जरूरी है. बच्चे को उतना ही पैंपर करें जितनी जरूरत है. प्यार और बेवकूफी में फर्क है यह पेरैंट्स को सम  झना होगा. कई घरों में बच्चे पेरैंट्स पर हाथ उठाते हैं चीखतेचिल्लाते हैं या फिर मार्केट या रैस्टोरैंट में ले जाने पर उन की पसंद का खिलौना न खरीदने पर या महंगी आइसक्रीम न खरीदने पर टैंट्रम थ्रो करते हैं. सोशल दबाव में आ कर पेरैंट्स उन की जिद पूरी भी कर देते हैं कि बाकी लोग क्या कहेंगे. अब हमें सम  झना होगा कि ये बाकी लोग कोई नहीं है.

मौल में धूम रही ग्रीन ड्रैस की औरत आप के बारे में क्या सोच रही है या ये जो अंकल आप को देख रहे हैं वे आप के बारे में क्या सोचेंगे यह सोचना आप बंद करें. अगर बच्चों को घुमाने बाहर ले जा रहे हैं तो पहले से बाउंड्री तय कर के जाएं, बच्चे को भी समझाएं कि नाजायज जिद पूरी नहीं की जाएगी. आप के एक बार   झुकने पर बच्चा हर बार वही रोनेधोने, चिल्लाने की ट्रिक अपनाएगा और उसी को आदत बना लेगा जो लौंग टर्म में आप के लिए बेहद नुकसानदायक साबित होगी.

बजट और जरूरत के अनुसार खिलौने दें, ट्रैंड के नहीं

आप इन दिनों किसी 1 साल के बच्चे के घर जाइए. आप को ऐसेऐसे खिलौने देखने को मिलेंगे जिन से बच्चे खेलते नहीं बस कमरे में भीड़ जरूर लगी रहती है. अब आप ही बताइए 1 साल के बच्चे को क्या रिमोट कंट्रोल कार से खेलना आएगा? नहीं न? अरे उस बच्चे को तो आप 1 चम्मच और कटोरी दे दें वह उन्हीं से खेल कर पूरा दिन निकाल देगा. अगर यकीन न हो आजमा कर देखें.

कई घरों में तो स्पैशल टौयरूम बना दिए जाते हैं, जिस में 99त्न ऐसे महंगे खिलौने होंगे जिन से खेलना बच्चे को आता ही नहीं. अगर आप का बजट आप को परमिशन देता है तो जरूर आप खुले दिल से खर्च करें, लेकिन फलां के घर में बच्चों के इतने खिलौने हैं. इस रेस में शामिल होने के लिए अगर आप ऐसा कर रही हैं तो इस आदत को तुरंत त्याग दें.

फुजूल जिद को करें इग्नोर

मार्वल कैरेट्स का क्रेज बच्चों में खूब देखने को मिलता है. नतीजा यह है कि हर दुकान पर मार्वल कैरेक्टर देखने को मिल जाएंगे. मैक्सिमम घरों में यह देखने को मिलता है कि अगर बच्चे को ले कर आप मार्केट जाएंगे तो वह जरूर एक नया खिलौनों का सैट खरीद कर लाएगा भले घर में उस के पास सेम खिलौने हों. अब आप ही बताइए यह फुजूल खर्च नहीं तो क्या है? ऐसी जिद आप को इग्नोर करनी आनी चाहिए भले ही आप का बच्चा सड़क पर क्यों न लेट जाए.

आप ही बताइए, 500 के खिलौने जिसे घर आते ही कोई वैल्यू नहीं मिलनी क्योंकि वैसा सैट घर में मौजूद है उस के लिए आप का बच्चा बाजार में रोए तो क्या आप उसे दिला देंगी? आप को बच्चे से पहले खुद स्ट्रौंग होना होगा और न कहना सीखना होगा. बच्चे का टैंट्रम 5-10 मिनट का होगा और जिद पूरी करने में आप को अपनी पूरे दिन की मेहनत का पैसा लुटाना होगा. अत: समझदारी से काम लें.

मार्बल हो या मिनियन, हर बार नया खिलौना खरीदना बच्चे के लिए नहीं, आप के पैसे और पेरैंटिंग की हार है, न कहना सीखें और बच्चे को भी सिखाएं कि हर मांग पूरी नहीं होगी.

बच्चे के लिए रोल मौडल बनें, आया नहीं

जब से पेरैंट्स के हाथ में फोन आया है तो उन पर बेहतरीन पेरैंटिंग का दबाव और बढ़ गया है. कैसे बच्चों के इमोशन का ध्यान रखें, जैंटल पेरैंटिंग बच्चों का बेहतरीन विकास, 2 साल के बच्चों को पढ़ना कैसे सिखाएं और बच्चों को बचपने से कैसे सुपरस्टार बनाएं, इन की रीलें देख कर पेरैंट्स इन दिनों खुद ही गिल्ट में जा रहे हैं. उन्हें लग रहा है जैसे ये सब ट्रैंड फौलो नहीं किया तो वे अच्छे पेरैंट नहीं बन पाएंगे.

कई सोशल मीडिया प्लेटफौर्म तो ऐसे हैं जो मांबाप को बच्चों की जिद के सामने कैसे   झुकें और कैसे अपने दिन का हर मिनट बच्चे के लिए ऐक्टिविटी प्लान करने में गुजारें, उस की बाकायदा पैसे ले कर ट्रेनिंग भी देते हैं.

अब के मिलेनियम पेरैंट्स को सम  झना होगा कि बच्चों को नेचर ने स्ट्रौंग बनाया है, वे देख कर सीखते हैं. तो उन को सिखाने के लिए ज्यादा एफर्ट्स मत लगाएं. जो आप की दिनचर्या है उस के हिसाब से जीवन बिताएं न कि बच्चे के हिसाब से खुद को ढालें. कुछ वक्त में बच्चा अपने ऐन्वायरन्मैंट को समझ कर खुद आप के हिसाब से एडजस्ट हो जाएगा. इस के लिए आप को ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है. इसलिए जरूरी है कि आप पर्सनैलिटी, दिनचर्या, रूटीन और लाइफस्टाइल पर ज्यादा फोकस कर के बच्चे के लिए रोल मौडल बनें, आया नहीं.

बच्चे को एडल्ट की तरह ट्रीट करें

प्यार दें, पर सीमाएं भी तय करें. बच्चों को बचपन से ही एडल्ट की तरह ट्रीट करना जरूरी है. लेकिन ऐसा एडल्ट जिसे प्यार भरपूर मिलेगा लेकिन प्यार के नाम पर उस की नाजायाज जिद पूरी नहीं की जाएगी. बच्चों से पूछना कौन से कलर की साइकिल, दीवारों पर कौन सा कलर, डिनर में क्या बनाएं, घूमने कहां जाएं ये सब बंद करें. बच्चों को सम  झाएं कि उन की बात सुनी जाएगी लेकिन किया वही जाएगा जो सही, व्यावहारिक और उन की पौकेट के हिसाब से होगा. उन के फैसले तभी माने रखेंगे जब वे फैसले लेने के लायक होगें. यस, ओपिनियन मैटर्स की बात को सम  झा जाएगा. उन की बात सुनी जरूर जाएगी लेकिन उस पर अमल ये जरुरी नहीं.

गिरेंगे नहीं तो संभलना कैसे सीखेंगे

यहां पेरैंट्स की भी गलती है. वे बच्चों को ले कर कुछ ज्यादा ही परेशान रहते हैं. पार्क भी जाएंगे तो बच्चे को खुला छोड़ने की बजाय उस के पीछेपीछे चलेंगे कि कहीं गिर न जाए, कोई बच्चा ही उस पर हाथ न उठा दे. अब बताइए विदाउट रिस्क क्या कभी कुछ हुआ है? बच्चे गिरेंगे नहीं तो संभलना कैसे सीखेंगे? इसलिए अपने शेयर की गलतियां बच्चों को खुद करने दें. स्लाइड से गिर जाओगे मत चढ़ो, यहां मत जाओ गिर जाओगे, अकसर यही आप को पार्क में सुनने को मिलेगा. अरे, उन्हें खुला छोड़ दें. गिरेंगे तभी तो संभलेंगे. ऐसा तो नहीं कि आप का जीवन परफैक्ट रहा हो और आप ने कोई गलती नहीं की. इसलिए बच्चों को भी खुद सीखनेखेलने दें और खुद भी चैन की सांस लें.

मातापिता को सम  झना होगा कि जीवन इतना आसान नहीं है जितना उन्होंने अपने बच्चे के लिए चारदीवारी के अंदर बना दिया है. बाहर बेहद संघर्ष है और उस के लिए बच्चे को स्ट्रौंग घर से ही बनना होगा. अगर घर पर आप बच्चे की हर पसंदनापसंद पर ध्यान देंगे तो क्या बाहर भी उसे ऐसा ही माहौल मिलेगा? नहीं न. इसलिए बच्चे को बचपन से एडजस्ट करने और न सुनने की आदत होनी चाहिए. बचपन से बच्चों में अपने काम करने की स्किल्स डैवलप होनी चाहिए.

इस के लिए आप को बच्चे को आजादी देनी होगी न कि ऐक्सट्रा पैंपरिंग. उसे सिखाएं खुद बाथरूम कैसे जाएं, कैसे खाने के बाद न सिर्फ अपने बरतन सिंक में रखें बल्कि उन्हें धोएं भी. हो सकता हो वह शुरू में प्लेट में गंदगी छोड़ दे, लेकिन आप की ड्यूटी है कि उसे अपने काम करने के लिए खुद प्रोत्साहित करें.

तो पेरैंट्स स्टैप बैक ऐंड रिलैक्स. बच्चों को उन की जरूरतों के हिसाब से पालिए न कि सोशल मीडिया के ट्रैंड्स के मुताबिक.

Saloni Anand: कौरपोरेट जौब छोड़ कैसे शुरू किया स्टार्टअप

Saloni Anand: आईटी और इंजीनियरिंग में भविष्य खोजने वाले इस जमाने में इंजीनियर से बिजनैस वूमन बनीं सलोनी ने भारत को पहला ऐसा हैल्थ टेक ब्रैंड दिया है जो मैडिकल ऐक्सपर्ट्स द्वारा जांचेपरखे, मल्टीसाइंस हेयर लौस सौल्यूशंस की सुविधा देता है. इस की शुरुआत उन्होंने अपने हस्बैंड के प्रीमैच्योर हेयर लौस का इलाज ढूंढ़ने की चुनौती से की.

सलोनी ने एक ऐसा अनोखा ट्रीटमैंट ईजाद किया जिस में आयुर्वेद, डर्मैटोलौजी  और न्यूट्रिशन की पावर को रिसर्च के ठोस नतीजों और मैडिकल ऐक्सपर्ट्स से मिली मान्यता के साथ मिलाया और त्राया हैल्थ की बुनियाद रखी जिसे आज की तारीख में भारत के सब से फास्टैस्ट ग्रोइंग और मोस्ट ट्रस्टेड DwC हैल्थ ब्रैंड्स में गिना जाता है.

2019 में सलोनी की लीडरशिप में शुरू हुई यह कंपनी 2023 में यानी 5 साल से भी कम समय में एक ऐसा प्रौफिट देने वाला और रिसर्चड्रिवन ऐंटरप्राइज बन गया है जिस का सालाना कारोबार 400 करोड़ रुपए का है. यह ब्रैंड अब तक 10 लाख से ज्यादा कस्टमर्स को सर्विस दे चुका है और देशभर में 800 से ज्यादा लोगों की टीम को रोजगार दे रहा है. कंपनी में बोर्ड की सदस्य होने के अलावा सलोनी 2 बच्चों की सुपरमौम भी हैं, सफर करने की दीवानी हैं और 17 स्टार्टअप्स में ऐंजेल इनवैस्टर भी हैं.

हाल ही में सलोनी को हुरुन इंडिया द्वारा सम्मानित किया गया और उन को प्रतिष्ठित अंडर 35 ऐंटरप्रन्योर लिस्ट में स्थान मिला जो डाइरैक्ट टू कंज्यूमर क्षेत्र में एक महिला संस्थापक के रूप में उन के योगदान को मान्यता देता है. उन्हें ई कौमर्स श्रेणी में ‘शी द पीपल डिजिटल वूमन अवार्ड 2024’ से भी सम्मानित किया गया है. ‘योर स्टोरी’ की 100 उभरती महिला नेताओं में नामित किया गया है और ‘हील फाउंडेशन’ द्वारा ‘अंडर 45 हैल्थकेयर चेंजमेकर्स अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है.

इस के अतिरिक्त उन्हें ‘कैंपेन इंडिया वूमन लीडिंग चेंज अवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया. त्राया को मिले अवार्ड्स में ‘एफैक्स डिजीज अवार्ड्स 2025’ यूट्यूब का सर्वश्रेष्ठ उपयोग, इंक42 के 30 स्टार्टअप्स टू वाच आउट फौर और इंडिया डी2सी समिट ऐंड अवार्ड्स में मान्यता आदि शामिल हैं.

सलोनी में ऐसा क्या है जो उन्हें दूसरों से अलग बनाता है

सलोनी सिर्फ बोर्ड रूम में बैठ कर फैसले नहीं लेतीं. वे जानती हैं कि भारत जैसी मुश्किल मार्केट में जमीन से उठा कर एक बिजनैस को करोड़ों के रेवैन्यू तक कैसे पहुंचाया जाता है. वे जमीनी स्तर के कारोबारियों से कनैक्ट करती हैं और उन्हें आगे के भविष्य की ओर सोचने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें कंज्यूमर की गहरी सम  झ है खासकर हैल्थ जैसे संवेदनशील या कम भरोसे वाले सेगमैंट में.

सलोनी युवा, बेबाक और महत्त्वाकांक्षी फाउंडर हैं, जिस से आज की पीढ़ी खुद को जोड़ पाती है खासकर वे महिलाएं जो स्टार्टअप की दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहती हैं. वे प्रोडक्ट फौर्मुलेशन से ले कर परफौर्मैंस मार्केटिंग और सप्लाई चेन तक हर मोरचे पर अपनी छाप छोड़ती रही हैं. तभी तो सलोनी ने जीरो से एक मुनाफेदार मल्टी मिलियन डौलर हैल्थ ब्रैंड खड़ा किया है.

पति के झड़ते बालों का ढूंढ़ा सौल्यूशन और शुरू किया स्टार्टअप

सलोनी एक अच्छीखासी जौब कर रही थीं और उन के पति अल्ताफ (सह संस्थापक, त्राया) ने अपना नया स्टार्टअप शुरू किया था जिस को ले कर वे बेहद उत्साहित थे. लेकिन जैसेजैसे उन के स्टार्टअप ने गति पकड़ी तो उन के ऊपर काम का भार बढ़ने लगा. वे रोज लंबे समय तक काम में लगे रहते जिस के कारण उन के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा. न वे संतुलित भोजन कर पाते थे और न ही पूरी नींद ले पाते थे जिस के कारण उन की सेहत में गिरावट आने लगी. उन्हें थायराइड और यूरिक ऐसिड जैसी समस्याएं पैदा हुईं. उन का वजन बढ़ गया और बाल   झड़ने की समस्या भी पैदा हो गई. सलोनी के लिए यह बहुत परेशान करने वाली बात थी.

सलोनी ने पति का आयुर्वेदिक इलाज कराया, डर्मैटोलौजिकल ट्रीटमैंट और यहां तक कि कैमिकल ट्रीटमैंट भी ट्राई किया लेकिन कुछ भी काम नहीं आया. कुल मिला कर सलोनी और अल्ताफ को भारतीय बाजार में   झड़ते बालों के प्रभावी उपचार की बेहद कमी महसूस हुई. उन्होंने मार्केट में उस कमी को दूर करने और   झड़ते बालों के समाधान के लिए कुछ नया करने की जरूरत को सम  झा.

सलोनी बताती हैं, ‘‘अपने इस अनुभव ने मु  झे रिसर्च करने को प्रेरित किया और मैं ने एक खास ट्रीटमैंट की खोज की जिस में

3 विज्ञानों की शक्ति शामिल थी- आयुर्वेद, न्यूट्रिशन और डर्मैटोलौजी. इसी आधार पर त्राया का आरंभ हुआ. एक ऐसा ब्रैंड जो मैडिकली जांचापरखा गया है, रिसर्च बेस्ड है और बाल   झड़ने की समस्या का पूरा समाधान करता है. त्राया का उद्देश्य ही है बालों के   झड़ने के मूल कारण को सम  झ कर उस का प्रभावी रूप से और प्राकृतिक तरीके से इलाज करना. आज त्राया सिर्फ एक ब्रैंड नहीं है. यह लगभग 93त्न प्रभावी है. यह एक भरोसा है जो प्रामाणिक तौर पर विज्ञान पर आधारित उपचार देता है.’’

कैसे शुरू हुआ और आगे बढ़ा त्राया का सफर

त्राया का पूरा सैटअप तैयार करने में सलोनी और अल्ताफ को लगभग 1 साल का समय लगा. इस दौरान उन्होंने गहराई से रिसर्च की, प्रोडक्ट फौर्मुलेशन पर काम किया और एक सही टीम बनाई. आज उन के साथ करीब 800 लोग काम करते हैं. वे अलगअलग पृष्ठभूमि, अनुभव और नजरिए वाले लोगों को एकसाथ लाते हैं जिस से इनोवेशन, क्रिएटिविटी और बेहतर प्रौब्लम सौल्विंग को बढ़ावा मिलता है. त्राया टीम में महिलाओं और पुरुषों की संख्या लगभग बराबर है.

त्राया के 15 से ज्यादा ऐसे प्रोडक्ट्स हैं जो जड़ से समस्या को ठीक करने के लिए डिजाइन किए गए हैं जैसे त्राया स्कैल्प औयल, आयुर्वेदिक सप्लिमैंट्स जैसे हेयर रैस और त्राया ऐंटी डैंड्रफ लोशन. हर ट्रीटमैंट किट व्यक्ति के हैल्थ असैसमैंट और बाल   झड़ने के कारणों के आधार पर कस्टमाइज की जाती है. वूमन सैंटर्ड सेगमैंट में भी विस्तार किया गया है और संतुलन रेंज लौंच की है जिस में त्राया आयरन संतुलन, त्राया मेनो संतुलन, त्राया मौम संतुलन और त्राया पीसीओएस संतुलन जैसे प्रोडक्ट्स शामिल हैं.

यह रेंज पीसीओएस, मेनोपौज, पोस्टपार्टम जैसी विशेष समस्याओं को ध्यान में रख कर तैयार की गई है.

भारत में त्राया महाराष्ट्र, उत्तर भारत, दक्षिण भारत, यूपी, दिल्ली और गुरुग्राम जैसे प्रमुख शहरों में काफी ऐक्टिव है. इस के अतिरिक्त देशभर में त्राया के 10 औफलाइन स्टोर भी स्थापित हो चुके हैं जो कंस्यूमर्स को प्रत्यक्ष एवं व्यक्तिगत सेवा प्रदान करने में समर्थ हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर त्राया ने संयुक्त अरब अमीरात में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है.

त्राया की स्थापना सलोनी और अल्ताफ ने मात्र 15 लाख रुपए की व्यक्तिगत बचत से की थी. आज त्राया एक सुदृढ़ एवं प्रतिष्ठित ब्रैंड के रूप में स्थापित हुआ है और वित्तीय वर्ष 2024-25 के अंत तक क्व300 से क्व400 करोड़ के वार्षिक कारोबार की आशा है.

ऐक्सीडैंटल ऐंटरप्रन्योर

सलोनी एक साधारण सर्विस क्लास परिवार से आती हैं जहां जिंदगी का रास्ता बहुत साफसुथरा और सीधा सरल होता है यानी अच्छी पढ़ाई करो और एक अच्छी नौकरी पाओ. सलोनी के पापा ने अपनी पूरी जिंदगी में एक ही फार्मा कंपनी में काम किया और मां एक डाक्टर हैं जो सालों तक अपना क्लीनिक चलाती रही थीं.

सलोनी ने बचपन साउथ गुजरात के एक छोटे से शहर वापी में बिताया जहां उन के जैसे परिवारों के बच्चों के लिए 2 ही कैरियर औप्शन माने जाते थे- डाक्टर बनो या इंजीनियर. बहन ज्यादा होशियार थी तो वह डाक्टर बन गई. सलोनी थोड़ी कम पढ़ाकू थी इसलिए इंजीनियर बनना तय हुआ. कोई ज्यादा सोचने या ऐक्सप्लोर करने का मौका नहीं था. बस वही रास्ता अपनाया जो दिया गया.

सलोनी बताती हैं, ‘‘मेरा जन्म गुजरात के छोटे से शहर वापी में डाक्टर्स के परिवार में हुआ था. मैं ने ‘कमिंस कालेज औफ इंजीनियरिंग’ से बीटैक और ‘आईबीएस हैदराबाद’ से एमबीए किया. प्रोडक्ट मार्केटिंग और ईआईआर में काम करने के बाद मुझे हमेशा अलग तरह की व्यावसायिक समस्याओं को हल करना पसंद रहा है. चूंकि मैं स्वभाव से अंतर्मुखी हूं इसलिए व्यवसाय के क्षेत्र में जाना मेरे लिए स्वाभाविक रास्ता नहीं था. वास्तव में अगर मुझे आकस्मिक व्यवसायी यानी ऐक्सीडैंटल ऐंटरप्रन्योर कहा जाए तो ज्यादा सही होगा. मेरी प्रोफैशनल जर्नी काफी उतारचढ़ाव और ऊर्जा से भरपूर रही है.  Saloni Anand

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