Relationship और डेटिंग की दुनिया में DADT ट्रेंड मौर्डन कपल्स को आ रहा है पसंद

Relationship : बदलते समय के साथ इस डिजिटल युग में प्यार और मोहब्बत के मायने बदल गए हैं. क्योंकि आज कल रिश्ते विश्वास से ज्यादा ट्रेंड पर टिके हुए हैं. रिलेशनशिप और डेटिंग की दुनिया में एक नया वर्ड DADT ट्रेंड कर रहा हैं. जो मौर्डन कपल्स को खूब पसंद आ रहा है. DADT क्या है लोग इसको इतना क्यों पसंद कर रहे हैं आइए जानें.

DADT का अर्थ

आजकल रिलेशनशिप में DADT वर्ड की खूब चर्चा हो रही है जिसका फुल फौर्म है Don’t Ask, Don’t Tell. इसका मतलब है कि ‘न पूछो न बताओ’ इसे एक तरह का कोम्प्रोमाईज भी कहा जा सकता है. इस रिलेशन में कुछ चीजें ऐसी होती हैं. जिनके बारे में बात नहीं करना चाहते हैं. प्राइवेसी बनाए रखते हुए पार्टनर पर भरोसा करना चाहते हैं. DADT के जरिए तय किया जाता है कि किन चीजों के बारे में बात करेंगे और किन चीजों के बारे में नहीं. इससे रिलेशन को स्ट्रांग बनाना इजी होता है. एकदूसरे से बिना मन-मुटाओ के ज्यादा झगड़ा ना करते हुए खुश रह सकते हैं.

मौर्डन जनरेशन को पसंद ये ट्रेंड्स

आज के समय की मौर्डन जनरेशन को DADT ट्रेंड्स बहुत पसंद आ रहें हैं और वह इस तरह के ट्रेंड्स को बहुत जल्दी अपनाना चाहती हैं. क्योंकि इसका कनेक्शन कोम्प्रोमाईज और प्राइवेसी से है. जिसकी जरूरत आज के समय में रिलेशनशिप में सबसे ज्यादा पड़ती है. इस कोम्प्रोमाईज के अंदर कपल्स डिसाइड करते हैं कि एक- दूसरे की पर्सनल लाइफ के कुछ पार्ट्स के बारे में बात नहीं करेंगे. वे एक-दूसरे से ये नही पूछेंगे की किसके साथ अपना टाइम स्पेंड कर रहें हैं और किसके साथ रोमांटिक रिश्ते में हैं. उन्हें अपने रिलेशन में पर्सनल स्पेस भी चाहिए. DADT में कोम्प्रोमाईज करके एकदूसरे की प्राइवेसी की इज्जत करते हैं और ओपन रिलेशनशिप बनाए रखते हैं.

ना कुछ पूछो ना कुछ बताओ

कुछ कपल ऐसे भी होते हैं जो अपने रिलेशन में कुछ भी क्लियर नहीं रखना चाहते हैं. वो एक दूसरे की पर्सनल लाइफ में दखल नहीं देते हैं. ना कुछ पूछना, ना ही कुछ बताना, इसी को ‘डोंट आस्क, डोंट टेल’ कहते हैं. इस तरह के कपल्स का मानना हैं कि ऐसा करके एक-दूसरे की फ्रीडम और रिलेशन को भी बचा सकते हैं और ऐसा करके वो ट्रांसपेरेंसी से ज्यादा प्राइवेसी और रिलेशन की खुशी को इम्पोर्टेन्स देते हैं. ताकि उनके बीच इसको लेकर झगड़ा ना हो. रिश्ते में शांति बने रहे. इसलिए एक दूसरे पर किसी तरह का दबाव नहीं डालते हैं. तभी वो एक दूसरे से खुलकर बात कर पाते हैं.

सोच एक जैसी होना जरुरी

हालांकि हर किसी को यह ट्रेंड पसंद नहीं आता है. इस ट्रेंड को फौलो करने के लिए पार्टनर की सोच एक जैसी होनी चाहिए. आमतौर पर माना जाता है कि अगर कपल की आदतें एकदूसरे से मिलती जुलती है, तो उनका रिलेशन ज्यादा स्ट्रांग होता है. क्योंकि समान इंट्रेस्ट होने के कारण झगड़े होने के चांस कम होते हैं. हालांकि, सेम पर्सनैलिटी होना रिलेशनशिप को सफल बनाए इसकी कोई गैरंटी नहीं है. एक अच्‍छा लाइफ पार्टनर अपने पार्टनर की सोच, विचार, पर्सनल स्‍पेस, करियर, सपने आदि की इज्‍जत करता है. वे ओपन माइंडेड होते हैं और उन्‍हें दुनिया से अधिक अपने पार्टनर की फिक्र होती है. वे अपने पार्टनर को लेकर जजमेंटल नहीं होते.

A. R. Rahman की तबीयत बिगड़ने के बाद पत्नी सायरा ने एक्स वाइफ ना कहने की लगाई गुहार…

A. R. Rahman : ए आर रहमान जो कि एक प्रसिद्ध सिंगर म्यूजिक डायरेक्टर और औस्कर विजेता, कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित प्रसिद्ध हस्ती हैं. ऐसे में जब उनकी तलाक की खबर आई तो सोशल मीडिया पर बवाल मच गया और तरहतरह की खबरें आने लगी इसके बाद ए आर रहमान ने इस तरह की बेवजह खबरों पर कड़ा एक्शन लेने की बात कही तो उनकी पर्सनल लाइफ के बारे में चर्चा होनी कम हो गई.

लेकिन ए आर रहमान की वाइफ को एक्स वाइफ कहने का सिलसिला खत्म नहीं हुआ.इसी बीच रहमान के सीने में दर्द के चलते उनको चेन्नई के अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां पर कुछ टेस्ट के बाद उन्हें डिस्चार्ज भी कर दिया गया . लेकिन इसी बीच ए आर रहमान की वाइफ सायरा बानो ने एक न्यूज चैनल को चौंकाने वाला बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि प्लीज मुझे एक्स वाइफ ना कहे.

मेरा रहमान से तलाक नहीं हुआ है हम अभी भी पतिपत्नी हैं. पिछले 2 सालों से मेरी तबियत खराब होने की वजह से हम अलग हुए हैं , क्योंकि मैं उनको अपनी बीमारी की वजह से स्ट्रेस नहीं देना चाहती. रहमान अब पहले से ठीक है. मैं उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करती हूं. हम भले ही अलग हुए हैं, लेकिन रहमान को लेकर चिंता लगी रहती है ओर मैं हमेशा उनके लिए दुआ करती रहती हूँ. आज भले ही हम अलग है लेकिन हमारे बीच प्यार भरा रिश्ता आज भी बरकरार है . इसलिए प्लीज आप लोग मुझे उनकी एक्स वाइफ न बोले .ये आप लोगों से मेरी गुजारिश है.

Couple Goals : मैंने अपने एक दोस्त को प्रपोज किया, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया…

Couple Goals :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मेरी उम्र 20 साल है. कुछ महीनों पहले ही मुझे एहसास हुआ कि मैं लगातार अपने एक दोस्त के लिए कुछ फील करने लगी हूं. मैं उस से बात करने के बहाने ढूंढ़ने लगी, उस के मैसेजेस का इंतजार करने लगी और न चाहते हुए भी उसे चाहने लगी. मुझ से अपनी फीलिंग्स ज्यादा दिन छिपाई नहीं गई तो मैं ने उस से सबकुछ कह दिया. उस ने ज्यादा कुछ तो नहीं कहा लेकिन यह कह दिया कि उस के मन में भी मेरे लिए कुछ है. अगले दिन जब हम मिले तो उस ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की तो मैं ने भी कुछ नहीं कहा. उस के अगले दिन भी हम ने बात की, लेकिन एक दूसरे के प्रति फीलिंग्स की नहीं. इस बात को 2 हफ्तों से ज्यादा हो गए हैं. अब मेरे लिए इंतजार करना मुश्किल हो रहा है. उस के इतना पास हो कर भी मैं इतनी दूर हूं. मैं क्या करूं, समझ नहीं आता?

जवाब-

लड़कों का स्वभाव चाहे कैसा भी हो लेकिन जब वे किसी लड़की को पसंद करते हैं तो उस से अपनी फीलिंग्स का इजहार करने से खुद को नहीं रोक पाते. आप के इजहार करने के इतने दिनों बाद भी अगर वह आप से इस विषय पर बात नहीं कर रहा तो इस का मतलब साफ है कि वह बात करना नहीं चाहता. आप की कुलबुलाहट जायज है लेकिन वह लड़का आप में इंटरैस्टेड नहीं है, यह भी झुठलाया नहीं जा सकता.

आजकल वैसे भी मैसेजेस पर लोग जो कहते हैं, जरूरी नहीं कि वह सच ही हो. हां, आप एक बार हिम्मत कर के उस से इस बारे में बात कर के देख लीजिए. बाद में पछताने से बेहतर है कि एक बार में मसला सुलझा लिया जाए. यदि वह सचमुच इंटरैस्टेड न हो तो आप भी अपनी फीलिंग्स को कंट्रोल करने की कोशिश कीजिए, नहीं तो आप को केवल दुख ही पहुंचेगा.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें-

submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Famous Hindi Stories : लुकाछिपी

Famous Hindi Stories : एकतरफ दाल का तड़का तैयार करते और दूसरी तरफ भिंडी की सब्जी चलाते हुए मेरा ध्यान बारबार घड़ी की तरफ जा रहा था. मन ही मन सोच रही थी कि जल्दी से रोटियां सेंक लेती हूं. याद है मुझे जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मैं रोटियां सेंक कर रख लेती थी फिर हम मांबेटे साथ में लंच करते. जिस दिन घर में भिंडी बनती वह खुशी से नाचता फिरता.

एक दिन तो बालकनी में खड़ा हो चिल्लाचिल्ला कर अपने दोस्तों को बताने लगा, ‘‘आज मेरी मां ने भिंडी बनाई है.’’

आतेजाते लोग भी उस की बात पर हंस रहे थे और मेरा बच्चा बिना किसी की परवाह किए खुश था कि घर में भिंडी बनी है. यह हाल तब था जब मैं हफ्ते में 3 बार भिंडी बनाती थी. खुश होने के लिए बड़ी वजह की जरूरत नहीं होती, यह बात मैं ने जतिन से सीखी.

अब साल में एक ही बार आ पाता है और वह भी हफ्तेभर के लिए. इतने समय में न आंखें भरती हैं उसे देख कर और न ही कलेजा. कितना कहता है कि मेरे साथ चलो. मैं तो चली भी जाऊं लेकिन नरेंद्र तैयार नहीं होते. कहते हैं कि अपने घर में जो सुकून है वह और कहीं नहीं, कोई पूछे इन से बेटे का घर अपना घर नहीं होता क्या. किसी तरह के बदलाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते.

खाना बन गया, खुशबू अच्छी आ रही थी. शिप्रा को मेरी बनाई दाल बहुत पसंद है इसलिए जब बच्चे आते हैं तो मैं दोनों की पसंद का खयाल रखते हुए खाना बनाती हूं. उम्र के साथ शरीर साथ नहीं देता मगर बच्चों के लिए काम करते हुए थकान महसूस ही नहीं होती. सारा काम निबटा डाइनिंगटेबल पर जा बैठी और शाम के लिए मटर छीलने लगी. नरेंद्र बाहर बरामदे में उस अखबार को फिर से पढ़ रहे थे जिसे वे सुबह से कम से कम 4 बार पढ़ चुके थे. सच तो यह है कि यह अखबार सिर्फ बहाना है वे बरामदे में बैठ कर बच्चों का इंतजार कर रहे थे. पिता हैं न, खुल कर अपनी भावना जता नहीं सकते.

जब जतिन छोटा था तो एक खास आदत थी मेरी, जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मेन डोर खोल कर घर के किसी कोने में छिप जाती.

‘‘मां. कहां हो मां?’’ कहता हुआ जतिन घर में दाखिल होता. बैग एक तरफ रख मुझे खोजता और मैं… मैं बेटे की आवाज सुन तृप्त हो जाती… एक सुकून मिलता कि मेरे बच्चे को घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आती है.

जतिन मुझे देखता और गले लग जाता, ‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे.’’

उस एक पल में हम मांबेटे एकदूसरे के प्यार को कहीं गहराई में महसूस करते. यह हमारा रूटीन था. जब से जतिन ने स्कूल जाना शुरू किया तब से कालेज में आने तक. बहुत बार नरेंद्र, मांबेटे को इस खेल के लिए चिढ़ाते, ‘‘अब भी तुम मांबेटे वही बचकाना खेल खेलते हो… पागल हो दोनों.’’

उन की बात पर मैं बस मुसकरा कर रह जाती और जतिन प्यार से मेरे गले में लग जाता. यह सिर्फ खेल नहीं हम दोनों का एकदूसरे के लिए प्यार जताने का तरीका था.

जतिन बचपन से ही दूसरे बच्चों से अलग था. पढ़ने में तेज, सम?ादार और उम्र से ज्यादा जिम्मेदार. उस ने कभी न तो दूसरे बच्चों की तरह जिद की और न ही कभी परेशान किया. मांबेटे की कुछ अलग ही बौंडिंग थी, बिना कहे एकदूसरे की बात समझ जाते. पढ़ीलिखी होने के बावजूद मैं ने जतिन को अच्छी परवरिश देने के लिए नौकरी न करने का फैसला लिया था और अपना सौ प्रतिशत दिया भी.

जतिन के स्कूल से लौटने के बाद मेरा सारा वक्त उसी के लिए था. साथ खाना और खाते हुए स्कूल की 1-1 बात जब तक नहीं बता लेता जतिन को चैन नहीं मिलता.

अपनी टीनऐज में भी दोस्तों के साथ होने वाली बातें मुझसे साझा करता और मैं बिना टोके सुनती. बाद में उन्हीं बातों में क्या सही है और क्या गलत, उसे बता देती. वह मेरी हर बात मानता भी था.

‘‘बात हुई क्या जतिनशिप्रा से?’’ नरेंद्र की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी.

‘‘हां, शिप्रा से बात हुई थी 3 बज जाएंगे उन्हें आतेआते. आप खाना खा लो.’’

‘‘नहीं, बच्चों के साथ ही खाऊंगा. अच्छा सुनो. तुम ने अपने छिपने की जगह तो सोच ली होगी न. आज भी तुम्हारा लाड़ला तुम्हें ढूंढ़ेगा?’’

नरेंद्र की बात में एक तरह का तंज था जिस का जवाब मेरे पास नहीं था. क्या हम मांबेटे का प्यार इस उम्र में प्रमाण मांगता है? पता नहीं मैं खुद को तर्क दे रही थी या सचाई से मुंह मोड़ रही थी. जानती हूं कि वह उस का बचपन था, अब वह एक जिम्मेदार पति और पिता बन चुका है.

शिप्रा, जतिन के साथ कालेज में पढ़ती थी. कालेज के आखिरी ऐग्जाम के बाद जतिन ने अपने खास दोस्तों को लंच पर बुलाया. शिप्रा भी आई थी. इस से पहले मैं ने जतिन से बाकी दोस्तों की तरह ही शिप्रा का जिक्र सुना था.

जब बाकी सब मस्ती कर रहे थे, शिप्रा मेरे पास किचन में आ गई, ‘‘आंटी, कुछ हैल्प करूं?’’

उस की आवाज में अनजाना सा अपनापन लगा.

‘‘नहीं बेटा, सब हो गया तुम चलो सब के साथ ऐंजौय करो.’’

मगर वो मेरे साथ रुकी रही.

खापी कर, मस्ती कर के सब चले गए. मैं रसोई समेट रही थी. जतिन मेरे साथ कांच के बरतन पोंछने लगा.

‘‘हां बोल.’’

‘‘मां वह…’’

‘‘करती हूं पापा से बात, वैसे मुझे पसंद

है शिप्रा.’’

‘‘मां… आप कैसे समझाऊं?’’

‘‘मां हूं, तेरी आंखों में देख तेरे मन का हाल जान लेती हूं. कल ही जान गई थी कि किसी खास दोस्त को बुलाया है तूने मुझ से मिलवाने के लिए.’’

‘‘मां तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो… मुझे सब से ज्यादा जानती और समझती हो,’’ जतिन की बात सुन पहली बार मुझे कुछ खटका.

‘‘सब से ज्यादा प्यार मैं करती हूं,’’ यह बात शिप्रा को कैसी लगेगी? वैसे भी आजकल की लड़कियों को सिर्फ पति चाहिए होता है मम्माज बौय बिलकुल नहीं. मेरा जतिन तो सच में मम्माज बौय था.

अचानक कुछ दिन पहले बड़ी बहन की कही बात याद आ गई, ‘‘देख सुधा, जतिन तुझे बेहद प्यार करता है, ऐसे में जब उस की शादी होगी तब वह अपनी पत्नी को हर वक्त या तो तुझ से कंपेयर करेगा या तुझे तवज्जो ज्यादा देगा. दोनों ही हालात में उस की गृहस्थी खराब होगी. ध्यान रखना, तेरा प्यार उस की गृहस्थी न बरबाद कर दे.’’

बहन के कहे शब्द मेरे कलेजे में फांस की तरह चुभ गए. कहीं सच में मैं अपने बच्चे की गृहस्थी में दरार का कारण न बन जाऊं.

कालेज पूरा हो चुका था और जल्द ही जतिन को अच्छी नौकरी मिल गई. सैकड़ों मील दूर बैंगलुरु में. वहां से जतिन जब आता तो मैं दरवाजा खुद खोलती जिस से वह न मझे पुकार पाता और न ही खोजने की जरूरत पड़ती. इस तरह मैं ने खुद ही लुकाछिपी का खेल बंद कर दिया था.

शिप्रा के साथ जतिन की शादी हो गई. शिप्रा की समझदारी और रिश्तों के लिए सम्मान देख मेरे मन का संशय जाता रहा. मेरी कोई बेटी नहीं थी शायद इसलिए मैं जतिन से ज्यादा शिप्रा को महत्त्व देने लगी.

मेरे मन में एक बात और बैठी हुई थी कि जतिन तो मेरा अपना बेटा है ही, शिप्रा के साथ मु?ो रिश्ता मजबूत करना है. मैं कब शिप्रा को पहले और जतिन को बाद में रखने लगी, पता ही नहीं चला.

सब ठीक चल रहा है. बच्चे अपनी जिंदगी में खुश हैं, तरक्की कर रहे हैं. हमारा पूरा ध्यान रखते हैं. कहीं, किसी भी तरह की शिकायत की गुंजाइश नहीं है फिर भी मन का कोई कोना खाली है.

घड़ी पर नजर गई. 2 बज गए थे. एक बार शिप्रा को फिर फोन करती हूं.

‘‘हैलो मां, आप को ही कौल करने वाली थी, अभी 1 घंटा लग जाएगा हमें. आप दोनों खाना खा लो. मैडिसिन भी लेनी होती है न.’’

उस की आवाज में बेटी जैसा प्यार और मां जैसा अधिकार था.

‘‘अच्छा ठीक है.’’

‘‘दादी… दादी, मुझे पास्ता खाना है.’’

3 साल की वृंदा पीछे से बोली.

‘‘ नो वृंदा… दादी ने दालराइस और भिंडी बनाई है, हम वही खाएंगे,’’ जतिन की बात सुन मैं चौंक गई.

‘‘तुझे कैसे पता चला?’’

‘‘मां, बेटा हूं तुम्हारा. यह बात अलग है कि अब तुम मुझ से ज्यादा शिप्रा और वृंदा को प्यार करती हो और…’’ कहता हुआ जतिन चुप हो गया.

‘‘और क्या?’’

‘‘कुछ नहीं मां, तुम और पापा खाना खा लो.’’

बच्चों के बिना खाना खाने का जरा मन नहीं था लेकिन दवाई लेनी थी तो 2 बिस्कुट खा कर ले ली. मैसेज डाल दिया कि दवा ले ली है पर खाना साथ ही खाएंगे.

मन था कि एक जगह रुकता ही नहीं था, कभी जतिन कभी शिप्रा तो कभी वृंदा तक पहुंच रहा था. कहते हैं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है बस ऐसे ही मुझे मेरी वृंदा प्यारी है. कोई दिन नहीं जाता जब वह मु?ा से वीडियो कौल पर बात नहीं करती. अब तो साफ बोलने लगी है, जब तुतलाती थी और टूटे शब्दों में अपनी बात सम?ाती थी तब भी हम दादीपोती देर तक बातें करते थे.

शिप्रा हंसा करती कि ‘‘कैसे आप इस की बात झट से समझ लेती हो, हम दोनों तो समझ ही नहीं पाते.’’

वृंदा के जन्म के वक्त हम बच्चों के पास ही चले गए थे. 4 महीने की थी वृंदा जब मैं उसे छोड़ कर वापस आई थी. एअरपोर्ट तक रोती चली आई थी. जतिन ने बहुत जिद की थी रुकने के लिए लेकिन नरेंद्र नहीं माने.

दरवाजे की घंटी से ध्यान टूटा. लगता है बच्चे आ गए. तेज चलने की कोशिश में पैर मुड़ गया और मैं लड़खड़ा कर वहीं की वहीं बैठ गई. नरेंद्र के दरवाजा खोलते ही वृंदा उन की गोद में चढ़ न जाने क्याक्या बताने लगी. सफेद रंग के टौप और छोटी सी लाल स्कर्ट में बिलकुल गुडि़या लग रही थी.

‘‘पड़ोस वाले अंकल मिल गए. जतिन उन से बात कर रहे हैं.’’  शिप्रा ने आगे बढ़ पैर छूए.

‘‘शिप्रा देखना जरा अपनी मां को… पैर में ज्यादा तो नहीं लगी, दरवाजा खोलने आते हुए पैर मुड़ गया.’’

पैर हिलाया भी नहीं जा रहा था.

‘‘अरे मां, आप के पैर पर स्वैलिंग आने लगी है. चलो, अंदर बैडरूम में पैर फैला कर बैठो. मैं स्प्रे कर देती हूं. फिर भी आराम नहीं मिला तो डाक्टर के पास चलेंगे.’’

मैं अंदर नहीं जाना चाहती थी, जतिन नहीं आया था न अब तक और मैं उस की एक झलक के लिए उतावली थी. लेकिन शिप्रा के सामने मेरी एक नहीं चली.

शिप्रा ने जैसे ही मुझे बैड पर बैठा स्प्रे किया, तभी बाहर से जतिन की आवाज आई…

‘‘मां… कहां हो मां.’’

एक पल के लिए वक्त रुक गया. मेरा जतिन मुझे पुकार रहा था. वही मेरा छोटा सा बेटा. आज भी उसे घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आई थी. मेरा मातृत्व तृप्त हो गया. बिना जवाब दिए चुपचाप बैठी रही. शिप्रा सम?ा गई, उस ने भी जवाब नहीं दिया.

‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे,’’ मैं ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं और जतिन मुझ से लिपट गया.

‘‘मेरा बच्चा. तू कितना भी बड़ा हो जाए, मेरे लिए वही स्कूल से लौटता मेरा बेटा रहेगा हमेशा.’’

‘‘फिर तुम ने मेरे साथ लुकाछिपी खेलना क्यों बंद कर दिया? जानती हो मैं कितना मिस करता हूं. ऐसा लगता है कि मेरी मां मुझे भूल गई, अब बस शिप्रा की मां और वृंदा की दादी बन कर रह गई हो. मां मैं कितना भी बड़ा हो जाऊं तुम्हारी ममता का पहला हकदार मैं ही रहूंगा. जानती हो न यह लुकाछिपी सिर्फ खेल नहीं था.’’

‘‘बेटा मैं डरने लगी थी कि कहीं मेरी जरूरत से ज्यादा ममता तेरे और शिप्रा के रिश्ते के बीच न आ जाए लेकिन यह नहीं सोचा कि मेरे बच्चे को कैसा लगेगा.’’

‘‘किसी रिश्ते का दूसरे रिश्ते से कोई कंपेरिजन नहीं है. मां तो तुम ही हो न मेरी. तुम ने अच्छी सास और दादी बनने के लिए अपने बेटे को इग्नोर कर दिया. कितने साल तरसा हूं मैं… ऐसा लगता था सच में मेरी मां कहीं खो गई है. प्रौमिस करो आज के बाद हमारा लुकाछिपी का खेल कभी बंद नहीं होगा,’’ जतिन ने मेरी तरफ अपनी हथेली बढ़ा दी और मैं ने अपना हाथ उस के हाथ पर रख दिया.

राइटर-  संयुक्ता त्यागी

Hindi Folk Tales : रैगिंग का रगड़ा – कैसे खत्म हुई शहरी बनाम होस्टल की लड़ाई

Hindi Folk Tales :  बात 70 के दशक की है. उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तकनीकी और गैरतकनीकी संस्थानों में बिहारी छात्रों की संख्या बहुत अधिक होती थी. उन के बीच आपस में एकता और गुटबंदी भी थी. शहर में उन की तूती बोलती थी. इसलिए उन से कोई पंगा लेने का साहस भी नहीं करता था. यहां तक कि नए बिहारी छात्रों की रैगिंग भी दूसरे प्रदेशों के सीनियर छात्र नहीं ले पाते थे. अगर बिहारी छात्रों की रैगिंग होती भी थी तो बिहार के ही सीनियर छात्र करते थे.

इत्तफाक से शहर के कुछ डौन भी भोजपुर से आए थे और विश्वविद्यालय के छात्र संगठन में बिहारियों की अच्छी भागीदारी थी. उन्हीं दिनों मैं ने भी एक तकनीकी संस्थान में नामांकन कराया था और शहर के एक होटल में कमरा ले कर रहता था. तब इलाहाबाद में कई होटल ऐसे थे जिन में मासिक किराए पर खाने और रहने की व्यवस्था थी. मैं जिस होटल में रहता था उस में 150 रुपए में पंखायुक्त कमरा, सुबह की चाय और दोनों वक्त का भोजन शामिल था. नाश्ता बाहर करना होता था.

मैं मोतीहारी के एक कालेज से आया था. जहां से कई छात्र इलाहाबाद आए थे. उन में से अधिकांश होस्टल में रहते थे. नैनी स्थित एग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट में भी बिहार के काफी छात्र थे. सब आपस में मिलतेजुलते रहते थे. उन दिनों पौकेट में चाकू रखने का बड़ा फैशन था. हम भी रखते थे.

एक दिन जब मैं अपने कालेज के होस्टल में मोतीहारी के मित्रों से मिलने गया हुआ था तो पता चला कि होस्टल के एक दादा ने रैगिंग के नाम पर एक नए लड़के की बहन की तसवीर छीन ली है और उस के बारे में अश्लील टिप्पणियां करता रहता है. लड़का पूरी बात बतातेबताते रोने लगा. हमें गुस्सा आया. रैगिंग का यह क्या तरीका है.

हम 4-5 लोग कथित दादा के कमरे में गए. चाकू निकाल कर उस की गरदन पर सटा दिया और उस लड़के की बहन की तसवीर तुरंत वापस लौटाने को कहा. उस ने तसवीर लौटा दी और बाद में देख लेने की धमकी दी. हम ने कहा बाद में क्यों, अभी देख लो और उस की जम कर पिटाई कर वहां से चल दिए. थोड़ी दूर जाने के बाद अरुण सिंह नाम के एक साथी ने कहा कि फिर होस्टल चलते हैं. मैं ने उसे समझाया कि कोई कांड करने के बाद घटनास्थल पर भूल कर भी नहीं जाना चाहिए, लेकिन वह ताव में आ गया. उस की जिद के कारण हम दोबारा होस्टल पहुंचे. तब तक माहौल काफी गरम हो चुका था. होस्टल के लड़के उत्तेजित थे. हमें देखते ही वे हम पर टूट पड़े. हमारी पिटाई हो गई और हमें कालेज के प्रिंसिपल के पास ले जाया गया. प्रिंसिपल के चैंबर के बाहर हम खड़े थे. लड़के इधरउधर खड़े थे, तभी इलाहाबाद के कुछ स्थानीय लड़के मेरे पास आए और बोले, ‘बौस, हमारे घेरे में धीरेधीरे चारदीवारी की ओर चलो और फांद कर निकल जाओ. पुलिस आने वाली है.’ तरकीब काम आ गई. मैं धीरे से चारदीवारी फांद कर सरक गया. अपने ठिकाने पर जाना खतरे से खाली नहीं था इसलिए गलीगली होता हुआ लोकनाथ पहुंचा जहां मेरे एक मित्र मंटूलाल रहते थे. उन के घर पहुंचा तो बिहार के कई छात्र चिंतित अवस्था में बैठे थे. उन्हें घटना की जानकारी मिल चुकी थी.

अब परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति तैयार की गई. अजीत लाल ने यह सुझाव दिया कि होस्टल के युवा लड़के शहर में जहां भी दिखें उन की पिटाई की जाए और अपना आवागमन गलियों के जरिए किया जाए. इस बीच शहरी इलाके के कई युवक वहां पहुंचे और उन्होंने इस लड़ाई में हर तरह से साथ देने का वादा किया. मेरे होटल में लौटने पर रोक लग गई. हम पास के एक बिहारी लौज में रहने लगे. उस दिन हम लोकनाथ के इलाके से निकले ही थे कि एक शहरी लड़के ने सूचना दी कि होस्टल के 2 लड़के पास के सिनेमाहौल में टिकट लेने के लिए लाइन में खड़े हैं.

हम तुरंत सिनेमाहौल पहुंचे. उन्हें खींच कर बाहर ले आए. इलाहाबाद की सड़क पर मारपीट करना आसान नहीं था. हम ने एक तरकीब लगाई. उसे पीटते हुए कहा, ‘साले, छोकरीबाजी करता है.’

तभी हमारे ग्रुप के दूसरे लड़के भी वहां आ गए और शुरू हो गए देदनादन उसे बजाने में. इस बीच भीड़ इकट्ठी हो गई. लोगों को पता चला कि कुछ मजनुओं की पिटाई हो रही है तो उन्होंने भी उन्हें पीटना शुरू किया. वे अपनी सफाई देते रहे और पिटते रहे. हम धीरे से खिसक लिए और उन की पिटाई चलती रही. इस बीच शहरी लड़कों की सूचना पर हम ने उस शाम 8-10 लड़कों की इसी तर्ज पर पिटाई कर दी. अब लड़ाई शहरी बनाम होस्टल में तबदील हो चुकी थी. हम लोगों की चारों तरफ तलाश हो रही थी, लेकिन हम छापामार तरीके से हमला कर फिर गायब हो जा रहे थे.

अगले दिन से होस्टल के लड़कों का शहर में निकलना बंद हो गया. वे होस्टल में नजरबंद हो गए. इलाहाबाद के शहरी क्षेत्र के लड़कों ने होस्टल पर नजर रखी थी और हमें वहां की तमाम गतिविधियों की सूचना मिल रही थी. होस्टल के दादाओं में एक ऐसा था जो हमारे ग्रुप के एक वरिष्ठ साथी मलय दा का भानजा था. मलय दा पूरी तरह हमारे साथ थे और उसे किसी तरह की रियायत देने के खिलाफ थे, लेकिन हम ने तय किया था कि उसे बख्श देंगे. उसे भी पता था कि जब तक वह हमला नहीं करेगा हम उस पर हाथ नहीं उठाएंगे. वह किसी तरह हिम्मत कर के होस्टल से निकला और शहर के एक खुंख्वार डौन से संपर्क कर उसे अपने पक्ष में कर लिया.

हमें जानकारी मिली तो हम भी डौन लोगों से संपर्क करने लगे. शहरी खेमे का होने के कारण अधिकांश गैंगस्टर हमारे पक्ष में आ गए. सिर्फ एक डौन होस्टल वालों के पक्ष में था. मेरे होटल के सामने एक लौज में हमारे गु्रप के कई लड़के रहते थे. वही हमारा केंद्र बना हुआ था.

दोपहर में कुछ शहरी लड़कों ने सूचित किया कि होस्टल में कथित डौन के साथ सैकड़ों लड़कों की मीटिंग चल रही है. वे हमारे अड्डे पर हमला करने की तैयारी में हैं. प्रशांत और अजीत लाल ने पूछा, ‘‘तुम कितने लोग हो.’’

उस ने बताया, ‘‘हम 5-6 लोग हैं.’’

’’ठीक है, ऐसा करो कि 2 लोग मीटिंग में घुस जाओ और अफवाह फैलाओ कि हम लोग छत पर बंदूकराइफल और बम ले कर बैठे हैं. आज भयंकर कांड होने वाला है. 2 लोग होस्टल से यहां तक बीच में खड़े रहना और इसी बात को दोहराना.’’

तरकीब काम कर गई. सभास्थल पर ही इस अफवाह ने इतना असर दिखाया कि 70 फीसदी छात्र किसी न किसी बहाने खिसक गए. दूसरे गुट ने जब तेजी से आ कर यही बात दोहराई तो फिर भगदड़ मच गई. शेष बचे सिर्फ डौन और मलय चाचा के रिश्तेदार. वे भी हमारे केंद्र से 100 गज की दूरी पर तीसरे प्रोपेगंडा एजेंट के आगे घिघियाते हुए बोले, ‘‘उन लोगों को जा कर कहो कि हम लोग समझौता करना चाहते हैं.’’

उस ने आ कर बताया कि उन की हालत खराब है. इस बीच शहर के सब से बड़े डौन हमारी सुरक्षा में हमारे अड्डे से थोड़ी दूरी पर जीप लगा कर हथियारों के साथ मौजूद थे. कुछ बड़े डौन हमारे बीच आ कर बैठे थे. यूनिवर्सिटी के कुछ बड़े छात्रनेता भी हमारे बीच थे. कहा गया कि उन्हें बुला लाओ. उन के पक्ष के डौन तो अपने बड़ों की उस इलाके में चहलकदमी देख कर खिसक लिए. मलय चाचा के भानजे अकेले लौज में आए. हम ने समझौते की कई शर्तें रखीं. पहली, मुकदमा बिना शर्त वापस हो. दूसरी, होस्टल के वे लड़के जो हमारे साथ थे, उन्हें सम्मान के साथ वापस बुलाया जाए. उन पर कालेज प्रबंधन किसी तरह की दंडात्मक कार्यवाही न करे.

बौस लोगों ने भी अपनी तरफ से शहर में शांति बनाए रखने के लिए एक शर्त रखी कि दोनों पक्ष इलाहाबाद शहर के अंदर आपस में टकराव नहीं करेंगे. होस्टल के दादा लड़ाई हार चुके थे इसलिए हर शर्त मानने के अलावा उन के पास कोई चारा नहीं था. इस घटना का नतीजा यह हुआ कि पहले दिन होस्टल की घटना के बाद मोतीहारी के जो लड़के होस्टल छोड़ कर भाग गए थे. वे वापस लौटने के बाद होस्टल के बौस बन गए. पुराने बौस लोगों की हवा निकल गई. इस घटना के बाद शहर के अन्य संस्थानों में भी रैगिंग की परंपरा में कमी आई.

इधर किसी ने मेरे घर तक इस घटना की खबर पहुंचा दी और मुझे तुरंत इलाहाबाद छोड़ कर वापस लौट आने का फरमान सुना दिया गया. इलाहाबाद में लंबे समय तक यह लड़ाई चर्चा का विषय बनी रही.

Romantic Hindi Stories : क्योंकि वह अमृत है…:

Romantic Hindi Stories : सरला ने क्लर्क के पद पर कार्यभार ग्रहण किया और स्टाफ ने उस का भव्य स्वागत किया. स्वभाव व सुंदरता में कमी न रखने वाली युवती को देख कर लगा कि बनाने वाले ने उस की देह व उम्र के हिसाब से उसे अक्ल कम दी है.

यह तब पता चला जब मैं ने मिस सरला से कहा, ‘‘रमेश को गोली मारो और जाओ, चूहों द्वारा क्षतिग्रस्त की गई सभी फाइलों का ब्योरा तैयार करो,’’ इतना कह कर मैं कार्यालय से बाहर चला गया था.

दरअसल, 3 बच्चों के विधुर पिता रमेश वरिष्ठ क्लर्क होने के नाते कर्मचारियों के अच्छे सलाहकार हैं, सो सरला को भी गाइड करने लगे. इसीलिए वह उस के बहुत करीब थे.

अपने परिवार का इकलौता बेटा मैं सरकार के इस दफ्तर में यहां का प्रशासनिक अधिकारी हूं. रमेश बाबू का खूब आदर करता हूं, क्योंकि वह कर्मठ, समझदार, अनुशासित व ईमानदार व्यक्ति हैं. अकसर रमेश बाबू सरला के सामने बैठ कर गाइड करते या कभीकभी सरला को अपने पास बुला लेते और फाइलें उलटपलट कर देखा दिखाया करते.

उन की इस हरकत पर लोग मजाक करने लगे, ‘‘मिस सरला, अपने को बदल डालो. जमाना बहुत ही खराब है. ऐसा- वैसा कुछ घट गया तो यह दफ्तर बदनाम हो जाएगा.’’

असल में जब भी मैं सरला से कोई फाइल मांगता, उस का उत्तर रमेशजी से ही शुरू होता. उस दिन भी मैं ने चूहों द्वारा कुतरी गई फाइलों का ब्योरा मांगा तो वह सहजता से बोली, ‘‘रमेशजी से अभी तैयार करवा लूंगी.’’

हर काम के लिए रमेशजी हैं तो फिर सरला किसलिए है और मैं गुस्से में कह गया, ‘रमेश को गोली मारो.’ पता नहीं वह मेरे बारे में क्याक्या ऊलजलूल सोच रही होगी. मैं अगली सुबह कार्यालय पहुंचा तो सरला ने मुझ से मिलने में देर नहीं की.

‘‘सर, मैं कल से परेशान हूं.’’

‘‘क्यों?’’ मुसकराते हुए मैं ने उसे खुश करने के लिए कहा, ‘‘फाइलों का ब्योरा तैयार नहीं हुआ? कोई बात नहीं, रमेशजी की मदद ले लो. सरला, अब तुम स्वतंत्र रूप से हर काम करने की कोशिश करो.’’

वह मुझे एक फाइल सौंपते हुए बोली, ‘‘सर, यह लीजिए, चूहों द्वारा कुतरी गई फाइलों का ब्योरा, पर मेरी परेशानी कुछ और है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘कल आप ने कहा था कि रमेशजी को गोली मारो. सर, मैं रातभर सोचती रही कि रमेशजी में क्या खराबी हो सकती है जिस की वजह से मैं उन को गोली मारूं. पहेलीनुमा सलाह या अधूरे प्रश्न से मैं बहुत बेचैन होती हूं सर,’’ वह गंभीरतापूर्वक कहती गई.

तभी मेरी मां की उम्र की एक महिला मुझ से मिलने आईं. परिचय से मैं चौंक गया. वह सरला की मां हैं. जरूर सरला से संबंधित कोई शिकायत होगी. यह सोच कर मैं ने उन्हें सादर बिठाया. उन्होंने मेरे सामने वाली कुरसी पर बैठने से पहले अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेर कर उस से जाने को कहा तो वह केबिन से निकल गई.

‘‘सर, मैं एक प्रार्थना ले कर आप को परेशान करने आ गई,’’ सरला की मां बोलीं.

‘‘हां, मांजी, आप एक नहीं हजार प्रार्थनाएं कर सकती हैं,’’ मैं ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘बताइए, मांजी.’’

वह बोलीं, ‘‘सर, मेरी सरला कुछ असामान्य हरकतें करती है. उस के सामने कोई बात अधूरी मत छोड़ा कीजिए. कल घर जा कर उस ने धरतीआसमान उठा कर जैसे सिर पर रख लिया हो. देर रात तक समझानेबुझाने के बाद वह सो पाई. बेचैनी में बहुत ही अजीबोगरीब हरकतें करती है. दरअसल, मैं उसे बहुत चाहती हूं, वह मेरी जिंदगी है. मैं ने सोचा कि यह बात आप को बता दूं ताकि कार्यालय में वह ऐसावैसा न करे.’’

मैं ने आश्चर्य व धैर्यता से कहा, ‘‘मांजी, आप की बेटी का स्वभाव बहुत कुछ मेरी समझ में आ गया है. पिछले सप्ताह से मैं उसे बराबर रीड कर रहा हूं. असहनीय बेचैनी के वक्त वह अपना सिर पटकती होगी, अपने बालों को भींच कर झकझोरती होगी, चीखतीचिल्लाती होगी. बाद में उस के हाथ में जो वस्तु होती है, उसे फेंकती होगी.’’

‘‘हां, सर,’’ मांजी ने गोलगोल आंखें ऊपर करते हुए कहा, ‘‘सबकुछ ऐसा ही करती है. इसीलिए मैं बताने आई हूं कि उसे सामान्य बनाए रखने के लिए सलाहमशविरा यहीं खत्म कर लिया करें अन्यथा वह रात को न सोएगी न सोने देगी. भय है कि कहीं कार्यालय में किसी को कुछ फेंक कर न मार दे.’’

‘‘जी, मांजी, आप की सलाह पर ध्यान दिया जाएगा. पर एक प्रार्थना है कि मैं आप को मांजी कहता हूं इसलिए आप मुझे रजनीश कहिए या बेटा, मुझे बहुत अच्छा लगेगा.’’

उठते हुए मांजी बोलीं, ‘‘ठीक है बेटा, एक जिज्ञासा हुई कि सरला के लक्षणों को तुम कैसे समझ पाए हो? क्या पिछले दिनों भी कार्यालय में उस ने ऐसा कुछ…’’

‘‘नहीं, अब तक तो नहीं, पर मैं कुछ मनोभावों के संवेदनों और आप द्वारा बताए जाने से यह सब समझ पाया हूं. मेरा प्रयास रहेगा कि सरला जल्दी ही सामान्य हो जाए,’’ मैं ने मांजी को उत्तर दिया तो वह धन्यवाद दे कर केबिन से बाहर निकली और फिर सरला का माथा चूम कर बाहर चली गईं.

मैं ने अपना प्रभाव जमाने के लिए उन्हें आश्वस्त किया था. संभव है कि हालात मेरे पक्ष में हों और सरला को सामान्य करने का मेरा प्रयास सफल रहे. सरला की शादी के बाद किसी एक पुरुष की जिंदगी तो बिगड़ेगी ही, क्यों न मेरी ही बिगड़े. हालांकि उसे सामान्य करने के लिए शादी ही उपचार नहीं है पर प्रथम शोधप्रयास विवाहोपचार ही सही. वैसे मेरे हाथ के तोते तो उड़ चुके थे फिर भी साहस बटोर कर सरला को बुला कर मैं बोला, ‘‘मिस सरला, मैं एक सलाह दूं, तुम उस पर विचार कर के मुझे बताना.’’

‘‘जी, सर, सलाह बताइए, मैं रमेशजी से समझ लूंगी. रही बात विचार की, सो मैं विचार के अलावा कुछ करती भी तो नहीं, सर,’’ प्रसन्नतापूर्वक सरला ने आंखें मटकाते हुए कहा.

चंचलता उस की आंखों में झलक आई थी. तथास्तु करती परियों जैसी मुसकराहट उस के होंठों पर खिल उठी.

मैं ने सरला को ही शादी की सलाह दे कर उकसाना चाहा ताकि उसे भी कुछकुछ होने लगे और जब तक उस की शादी नहीं हो जाएगी, वह बेचैन रहेगी. घर जा कर अपने मातापिता को तंग करेगी और तब शादी की बात पर गंभीरता से विचारविमर्श होगा.

मैं तो आपादमस्तक सरला के चरित्र से जुड़ गया था और मैं ने उसे सहजता से कह दिया, ‘‘देखो, सरला, अब तुम्हें अपनी शादी कर लेनी चाहिए. अपने मातापिता से तुम यह बात कहो. मैं समझता हूं कि तुम्हारे मातापिता की सभी चिंताएं दूर हो जाएंगी. उन की चिंता दूर करने का तुम्हारा फर्ज बनता है, सरला.’’

‘‘ठीक है, सर, मैं रमेशजी से पूछ लेती हूं,’’ सरला ने बुद्धुओं जैसी बात कह दी, जैसे उसे पता नहीं कि उसे क्या सलाह दी गई. उस के मन में तो रमेशजी गणेशजी की तरह ऐसे आसन ले कर बैठे थे कि आउट होने का नाम ही नहीं लेते.

मैं ने अपना माथा ठोंका और संयत हो कर बोला, ‘‘सरला, तुम 22 साल की हो और तुम्हारे अच्छे रमेशजी डबल विधुर, पूरे 45 साल के यानी तुम्हारे चाचा हैं. तुम उन्हें चाचा कहा करो.’’

मैं ने सोचा कि रमेश से ही नहीं अगलबगल में भी सब का पत्ता साफ हो जाए, ‘‘और सुनो, बगल में जो रसमोहन बैठता है उसे भैयाजी और उस के भी बगल में अनुराग को मामाजी कहा करो. ये लोग ऐसे रिश्ते के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं.’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर सरला वापस गई और रमेश के पास बैठ कर बोली, ‘‘चाचाजी, आज मैं अपने मम्मीपापा से अपनी शादी की बात करूंगी. क्या ठीक रहेगा, चाचाजी?’’

यह सुन कर रमेशजी तो जैसे दस- मंजिली इमारत से गिर कर बेहोश होती आवाज में बोले, ‘‘ठीक ही रहेगा.’’

5 बजे थे. सरला ने अपना बैग कंधे पर टांगा और रसमोहन से ‘भैयाजी नमस्ते’, अनुराग से ‘मामाजी नमस्ते’ कहते हुए चलती बनी. सभी अपनीअपनी त्योरियां चढ़ा रहे थे और मेरी ओर उंगली उठा कर संकेत कर रहे थे कि यह षड्यंत्र रजनीश सर का ही रचा है.

मैं जानता हूं कि मेरे विभाग के सभी पुरुषकर्मी असल में जानेमाने डोरीलाल हैं. किसी पर भी डोरे डाल सकते हैं. लेकिन शर्मदार होंगे तो इस रिश्ते को निभाएंगे और तब कहीं सरला खुले दिमाग से अपना आगापीछा सोच सकेगी. उस के मातापिता भी अपनी सुकोमल, बचकानी सी बेटी के लिए दामाद का कद, शिक्षा, पद स्तर आदि देखेंगे जिस के लिए पति के रूप में मैं बिलकुल फिट हूं.

अगली सुबह बिना बुलाए सरला मेरे कमरे में आई. मुझे उस से सुन कर बेहद खुशी हुई, ‘‘सर, मैं ने कल चाचाजी, भैयाजी, मामाजी कहा तो ये सब ऐसे देख रहे थे जैसे मैं पागल हूं. आप बताइए, क्या मैं पागल लगती हूं, सर?’’

इस मानसिक रूप से कमजोर लड़की को मैं क्या कहता, सो मैं ने उस के दिमाग के आधार पर समझाया, ‘‘देखो, सरला…चाचा, भैया, मामा लोग लड़कियों को लाड़प्यार में पागल ही कहा करते हैं. तुम्हारे मम्मीपापा भी कई बार तुम्हें ‘पगली कहीं की’ कह देते होंगे.’’

उस की ‘यस सर’ सुनतेसुनते मैं उस के पास आ गया. वह भी अब तक खड़ी हो चुकी थी. अपने को अनियंत्रित होते मैं ने उसे अपने सीने से लगा लिया और वह भी मुझ से चिपक गई, जैसे हम 2 प्रेमी एक लंबे अरसे के बाद मिले हों. हरकत आगे बढ़ी तो मैं ने उस के कंधे भींच कर उस के दोनों गालों पर एक के बाद एक चुंबन की छाप छोड़ दी.

मैं ने उसे जाने को कहा. वह चली गई तो मैं जैसे बेदिल सा हो गया. दिल गया और दर्द रह गया. पहली बार मेरा रोमरोम सिहर उठा, क्योंकि प्रथम बार स्त्रीदेह के स्पर्श की चुभन को अनुभव किया था. जन्मजन्मांतर तक याद रखने लायक प्यार के चुंबनों की छाप से जैसे सारा जहां हिल गया हो. सारे जहां का हिलना मैं ने सरला की देह में होती सिहरन की तरंगों में अनुभव किया.

प्रथम बार मैं ने किसी युवती के लिए अपने दिल में प्रेमज्योति की गरमाहट अनुभव की. काश, यह ज्योति सदा के लिए जल उठे. शायद ऐसी भावनाओं को ही प्यार कहते होंगे? यदि यह सत्य है तो मैं ने इस अद्भुत प्यार को पा लिया है उन पलों में. पहली बार लगा कि मैं अब तक मुर्दा देह था और सरला ने गरम सांसें फूंक कर मुझ में जान डाल दी है.

सरला ने दफ्तर से जाने के पहले मेरी विचारतंद्रा भंग की, ‘‘सर, आज मैं खुश भी हूं और परेशान भी. वह दोपहर पूर्व की घटना मुझ से बारबार कहती है कि मैं आप के 2 चुंबनों का उधार चुका दूं वरना मैं रातभर सो नहीं सकती.’’

मैं मन ही मन बेहद खुश था. यही तो प्यार है, पर इस पगली को कौन समझाए. इसे तो चुंबनों का कर्ज चुकता करना है, नहीं तो वह सो नहीं पाएगी. बस…प्यार हमेशा उधार रखने पर ही मजा देता है पर यह नादान लड़की. बदला चुकाना प्यार नहीं हो सकता. यदि ऐसा हुआ तो मेरी बेचैनी बढ़ेगी और वह निश्ंिचत हो जाएगी अर्थात सिर्फ मेरा प्यार जीवित रहे, यह मुझे गंवारा नहीं है और न ही हालात को.

मैं सरला को निराश नहीं कर सकता था, अत: पूछा, ‘‘सरला, क्या तुम्हें मेरी जरूरत है या एक पुरुष की?’’ और उस के चेहरे पर झलकती मासूमियत को मैं ने बिना उस का उत्तर सुने परखना चाहा. उसे अपने सीने से लगा कर कस कर भींच लिया, ‘‘सरला, इस रजनीश के लिए तुम अपनेआप को समर्पित कर दो. यही प्यार की सनक है. 2 जिंदा देहों के स्पर्श की सनक.’’

और वह भिंचती गई. चुंबनों का कौन कितना कर्जदार रहा, किस ने कितने उधार किए, कुछ होश नहीं था. शायद कुछ हिसाबकिताब न रख पाना ही प्यार होता है. हां, यही सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.

मैं ने उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘सरला, हम प्यार की झील में कूद पड़े हैं,’’ मैं ने फिर 2 चुंबन ले कर कहा, ‘‘देखो, अब इन चुंबनों को उधार रहने दो, चुकाने की मत सोचना, आज उधार, कल अदायगी. इसे मेरी ओर से, रजनीश की ओर से उपहार समझना और इसे स्वस्थ व जीवंत रखना.’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर वह चली गई. मुझे इस बात की बेहद खुशी हुई, अब की बार उस ने ‘रमेशजी’ का नाम नहीं लिया. उस के मुड़ते ही मैं धम्म से कुरसी पर बैठ गया. लगा मेरी देह मुर्दा हो गई. सोचा, चलो अच्छा ही हुआ, तभी तो कल जिंदादेह हो सकूंगा उस से मिल कर, उस से आत्मसात हो कर, अपने चुंबनों को चुकता पा कर. मैं वादा करता हूं कि अब मैं सरला की सनक के लिए फिर दोबारा मरूंगा, क्योंकि वह अमृत है.

घर से दफ्तर के लिए निकला तो मन पर कल के नशे का सुरूर बना हुआ था. मैं कब कार्यालय पहुंचा, पता ही नहीं चला. हो सकता है कि 2 देहों के आत्मसात होने में स्वभावस्वरूप पृथक हों, परंतु नतीजा तो सिर्फ ‘प्यार’ ही होता है.

आज कार्यालय में सरला नहीं आई. उस की मम्मी आईं. गंभीर समस्या का एहसास कर के मैं सहम ही नहीं गया, अंतर्मन से विक्षिप्त भी हो गया था क्योंकि इस मुर्दादेह को जिंदा करने वाली तो आई ही नहीं. पर उन की बातों से लगा कि यह दूसरा सुख था जो मेरे रोमरोम में प्रवेश कर रहा था जिसे आत्मसंतुष्टि का नाम दिया जा सके तो मैं धन्य हो जाऊं.

‘‘मेरी बेटी आज रात खूब सोई. सुबह उस में जो फुर्ती देखी है उसे देख कर मुझ से रहा नहीं गया. मुझे विवश हो कर तुम्हारे पास आना पड़ा, बेटा. आखिर कैसे-क्या हुआ? दोचार दिनों में ही उस का परिणाम दिखा. काश, वह ऐसी ही रहे, स्थायी रूप से,’’ मांजी स्थिति बता कर चुप हुईं.

‘‘हां, मांजी,’’ मैं प्रसन्नतापूर्वक बोला, ‘‘असल में मैं ने कल दुनियादारी के बारे में खुश व सामान्य रहने के गुर सरला को सिखाए और मैं चाहता हूं कि आप सरला की शादी कर दें.’’

फिर मैं ने अपने पक्ष में उन्हें सबकुछ बताया और वह खुश हुईं.

मैं ने उन की राय जाननी चाही कि वह मुझे अपने दामाद के रूप में किस तरह स्वीकारती हैं. वह हंसते हुए बोलीं, ‘‘मैं जातिवाद से दूर हूं इसलिए मुझे कोई एतराज नहीं है, बेटा. इतना जरूर है कि आप के परिवार में खासतौर से मातापिता राजी हों तो हमें कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘ठीक है, मांजी, सभी राजी होंगे तभी हम आगे बात बढ़ाएंगे,’’ मैं ने अपनी सहमति दी.

‘‘अच्छा बेटा, मन में एक बात उपजी है कि सरला दिमाग से असामान्य है, यह जान कर भी तुम उस से शादी क्यों करना चाहते हो?’’ मांजी ने अपनी दुविधा को मिटाना चाहा.

‘‘मांजी, इस का कारण तो मैं खुद भी नहीं जानता पर इतना जरूर है कि वह मुझे बेहद पसंद है. अब सवाल यह है कि शादी के बारे में वह मुझे कितना पसंद करती है.’’

चलते वक्त मुझे व मेरे मातापिता को अगले दिन छुट्टी पर घर बुलाया. मैं जानता हूं कि मेरे मातापिता मेरी पसंद पर आपत्ति नहीं कर सकते. सो आननफानन में शादी तय हुई.

शादी के ठीक 1 सप्ताह पहले मैं और सरला अवकाश पर गए तथा निमंत्रणपत्र भी कार्यालय में सभी को बांट दिए. सब के चेहरे आश्चर्य से भरे थे. सभी खुश भी थे.

विवाह हुआ और 1 माह बाद हम ने साथसाथ कार्यभार ग्रहण किया. हमारा साथसाथ आना व जाना होने से हमें सभी आशीर्वाद देने की नजर से ही देखते.

लेखक- राजेंद्रप्रसाद शंखवार

बैलेंस और लीडरशिप क्वालिटी महिलाओं को सक्सैसफुल बिजनैस वूमन बनाती है : भावना भटनागर

 भावना भटनागर

संस्थापक, कासा एक्सोटिक

पुरस्कार और उपलब्धियां

टाइम्स विजनरी लीडर्स 2022.

आउटलुक बिजनैस वूमन ऐंटरप्रेन्योर औफ द ईयर 2022.

टाइंस 40 अंडर 40 नौर्थ 2022 लीडर्स.

हाउस औफ कौमन्स, लंदन, यूके द्वारा एशिया की इंटीरियर डिजाइनर औफ द ईयर 2022.

बिजनैस आउटलुक द्वारा वूमन ऐंटरप्रेन्योर औफ द ईयर 2022.

फौर्च्यून इंडिया द्वारा मोस्ट इनसाइटफुल आइकोन्स 2022.

ईटी इंस्पायरिंग वूमन लीडर्स 2023.

टाइम्स ऐग्जैंपलरी लीडर्स 2023.

सीईओ मैगजीन द्वारा 2023 में देखने योग्य सब से रचनात्मक इंटीरियर डिजाइनरों में से एक.

ऐसोचैम द्वारा इंटीरियर डिजाइन के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित.

वूमन ऐंटरप्रेन्योर इंडिया द्वारा 2023 की टौप 10 महिला स्टार्टअप लीडर्स में शामिल.

भावना भटनागर न केवल अपने जीवन को उमंग और उल्लास से जीती हैं बल्कि अपने इंटीरियर डिजाइन के जनून से दूसरों के जीवन में भी सौंदर्य और ऊर्जा का संचार करती हैं. कासा एक्सोटिक की संस्थापक और प्रसिद्ध इंटीरियर स्टाइलिस्ट के रूप में भी उन्होंने अपने ब्रैंड को एक वैश्विक पहचान दी है.

भारतीय विदेश व्यापार संस्थान (आईआईएफटी) की पूर्व छात्रा भावना भटनागर ने इंटीरियर डिजाइन उद्योग में नए मानदंड स्थापित किए हैं. उन का सक्सैस मंत्र ग्राहकों की अपेक्षाओं से परे जा कर उन्हें एक विशिष्ट अनुभव देना है. जब ग्राहक दुर्लभ और अनूठी वस्तुओं की मांग करते हैं तो वे स्पेन, इटली, इंडोनेशिया, तुर्की, मोरक्को और चीन जैसे डिजाइन हब मेंऐक्सक्लूसिव दौरों की व्यवस्था कर के उन की इच्छाओं को साकार करती हैं.

एक कुशल पियानो वादक और अपने कालेज के दिनों में अवार्ड विनिंग ऐक्ट्रैस भावना ने ओडिपस रेक्स और ओथेलो जैसी नाट्य प्रस्तुतियों में मुख्य भूमिकाएं निभाईं, जहां उन के शानदार अभिनय को सराहा गया.

भावना का मानना है कि डिजाइन सिर्फ एक आर्ट फौर्म नहीं है बल्कि एक भावनात्मक अनुभव है जो कलर्स, टैक्स्चर और फौर्म के माध्यम से व्यक्त होता है. भावना की रचनात्मकता उन की डिजाइन परियोजनाओं में झलकती है जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई है. ऐसोचैम  द्वारा इंटीरियर डिजाइन में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित भावना भटनागर अपने प्रतिभाशाली आर्किटैक्ट्स, ग्राफिक आर्टिस्ट्स और प्रोजैक्ट मैनेजर्स की टीम के साथ ग्राहकों की कल्पनाओं को साकार करने में जुटी रहती हैं. उन के नेतृत्व में कासा एक्सोटिक ने अपनी स्थापना के बाद से उल्लेखनीय सफलता हासिल की है.

पेश हैं, उन से की गई बातचीत के मुख्य अंश:

आप ने इस फील्ड में आने की कब और कैसे सोची?

डिजाइन के प्रति मेरा झुकाव हमेशा से था लेकिन इस का असली एहसास मुझे राजस्थान की एक यात्रा के दौरान हुआ. वहां के महलों और ऐतिहासिक इमारतों की भव्यता ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि कैसे पारंपरिक कला और आधुनिक डिजाइन को एकसाथ जोड़ा जा सकता है. यही वह पल था जब मैं ने ठान लिया कि मैं एक ऐसा डिजाइन हाउस बनाऊंगी जो लग्जरी, कारीगरी और आधुनिकता का परफैक्ट संतुलन हो.

घर और काम एकसाथ मैनेज करने में आप को किस की सपोर्ट सब से ज्यादा मिली?

मेरे परिवार ने हमेशा मेरा साथ दिया लेकिन सब से ज्यादा सपोर्ट मुझे मेरी खुद की दृढ़ता और संकल्प से मिली. एक महिला उद्यमी के रूप में कई चुनौतियां आईं लेकिन मैं ने हर मुश्किल को एक अवसर की तरह देखा और आगे बढ़ती गई.

आप की जिंदगी की कोई घटना जिस ने आप की सोच बदल दी हो या आप की जिंदगी?

जब मैं ने पहली बार एक लग्जरी प्रोजैक्ट में काम किया जहां हर चीज के लिए परफैक्शन की डिमांड थी तब मैं ने जाना कि सिर्फ डिजाइन ही नहीं बल्कि डिटेलिंग, क्वालिटी और ऐक्सपीरियंस भी बहुत माने रखता है. इस घटना ने मुझे यह सिखाया कि लग्जरी सिर्फ एक लुक नहीं बल्कि एक एहसास है.

आप की जिंदगी का कोई इमोशनल पल जब आप बहुत भावुक हो गई हों?

जब मेरे डिजाइन किए गए एक लग्जरी पेंट हाउस के क्लाइंट ने कहा कि यह घर नहीं यह हमारी पहचान है. आप ने हमारे सपनों को साकार कर दिया वह पल मेरे लिए बेहद खास था क्योंकि मैं ने महसूस किया कि डिजाइन सिर्फ जगह को सुंदर बनाने का काम नहीं करता बल्कि यह लोगों के जीवन को भी संवारता है.

आप के अनुसार महिलाओं के अंदर सब से बड़ी शक्ति क्या होती है?

महिलाओं की सब से बड़ी शक्ति संवेदनशीलता और उन की सहनशक्ति होती है. एक महिला में सृजन, संतुलन और नेतृत्व तीनों गुण होते हैं और यही उसे एक बेहतरीन बिजनैस लीडर भी बनाते हैं.

किसी महिला के लिए सफल बिजनैस वूमन बनने के लिए क्या जरूरी है?

दृढ़ निश्चय: अपने विजन पर विश्वास करना.

नैटवर्किंग: सही लोगों से जुड़ना.

लर्निंग ऐटिट्यूड: हमेशा सीखते रहना.

मैनेजमैंट स्किल्स: बिजनैस को सही तरीके से औपरेट करना.

आप किस तरह से दूसरों से अलग सोचती हैं?

मैं डिजाइन को सिर्फ ऐस्थैटिक्स का खेल नहीं मानती बल्कि इसे एक इमोशनल और ऐक्सपीरिएंशल जर्नी मानती हूं. मैं हर प्रोजैक्ट को एक कहानी की तरह देखती हूं जहां डिजाइन का हर ऐलिमैंट किसी भावना या याद को दर्शाता है.

भविष्य में आप और क्या करना चाहती हैं?

मेरा सपना है कि कासा एक्सोटिक एक ग्लोबल ब्रैंड बने जहां भारतीय कला और शिल्प को दुनिया के सब से लग्जरी डिजाइन स्पेसेस में शामिल किया जाए. मैं डिजाइन के क्षेत्र में सस्टेनेबिलिटी और इनोवेशन को बढ़ावा देना चाहती हूं.

आप अपने बिजनैस के बारे में विस्तार से बताएं?

कासा एक्सोटिक लग्जरी इंटीरियर डिजाइन स्टूडियो है जो हाई ऐंड रैजिडैंशियल, कौरपोरेट और हौस्पिटैलिटी स्पेसेस के लिए कस्टमाइज्ड डिजाइन सौल्यूशंस प्रदान करता है. हमारा फोकस क्राफ्ट्समैनशिप, सस्टेनेबिलिटी और ऐक्सक्लूसिविटी पर है.

आप की सफलता का सीक्रेट क्या है?

परफैक्शन के लिए पैशन.

डिटेल्स पर गहरा ध्यान.

क्लाइंट की जरूरतों को समझना और उन्हें ऐक्सपीरियंस में बदलना.

हर प्रोजैक्ट में कुछ नया और यूनीक देने की कोशिश.

आज के समय में महिलाओं को किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है?

ऐक्सेप्टैंस: बिजनैस में महिलाओं को अभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता.

वर्कलाइफ बैलेंस: परिवार और कैरियर के बीच संतुलन बनाना.

फंडिंग और इन्वैस्टमैंट: स्टार्टअप शुरू करने में कठिनाई.

Latest Hindi Stories : चटोरी जीभ का रहस्य

Latest Hindi Stories :  मां की मृत्यु के बाद पिता जी बिल्कुल अकेले पड़ गये थे. कमरे में बैठे घर के एक कोने में बने मंदिर की ओर निहारते रहते थे. हालांकि पूरे जीवन नास्तिक रहे. कभी मंदिर नहीं गये. कभी कोई व्रत-त्योहार नहीं किया. मगर मां के जाने के बाद अपने पलंग पर बैठे मंदिर को ही निहारते रहते थे. अब पता नहीं मंदिर को निहारते थे या उसके सामने रोज सुबह घंटा भर बैठ कर पूजा करने वाली मां की छवि तलाशते थे.

पिता जी और मां के बीच कई बातें बिल्कुल जुदा थीं. मां जहां पूरी तरह आस्तिक थी, पिता जी बिल्कुल नास्तिक. मां जहां नहाए-धोए बगैर पानी भी मुंह में नहीं डालती थीं, वहीं पिता जी को बासी मुंह ही चाय चाहिए होती थी. लेकिन फिर भी दोनों में बड़ा दोस्ताना सा रिश्ता रहा. कभी झगड़ा, कभी प्यार. वे मां के साथ ही बोलते-बतियाते और कभी-कभी उन्हें गरियाने भी लगते थे कि बुढ़िया अब तुझसे कुछ नहीं होता. मां समझ जातीं कि बुड्ढे का फिर कुछ चटपटा खाने का मन हो आया है. अब जब तक कुछ न मिलेगा ऐसे ही भूखे शेर की तरह आंगन में चक्कर काटते रहेंगे और किसी न किसी बात पर गाली-गलौच करते रहेंगे. सीधे बोलना तो आता ही नहीं इन्हें. भुनभुनाती हुई मां छड़ी उठा कर धीरे-धीरे किचेन की ओर चल पड़तीं थीं. मां को किचेन की ओर जाता देख पिताजी की बेचैनी और बढ़ जाती. उनकी हरकतों को देखकर तब मैं सोचता था कि शायद उनको यह अच्छा नहीं लगता था कि इस बुढ़ापे में वो मां को इतना कष्ट दें, मगर चटोरी जीभ का क्या करें? मानती ही न थी. इसीलिए इतना तमाशा करते थे.

थोड़ी देर में मां थाली में पकौड़े तल के ले आती, या भुने हुए लइया-चना में प्याज, टमाटर, मिर्ची, नींबू डाल कर बढ़िया चटपटी चाट तैयार कर लातीं. लाकर धर देतीं सामने. पिता जी कुछ देर देखते फिर धीरे से हाथ बढ़ा कर प्लेट उठा लेते और देखते ही देखते पूरी प्लेट चट कर लंबी तान कर लेट जाते. मां बड़बड़ाती, ‘बच्चों की तरह हो गये हैं बिल्कुल. पेट न भरे तो जुबान गज भर लंबी निकलने लगती है. अब देखो कैसे खर्राटे बज रहे हैं. बताया तक नहीं कि कैसा बना था.’

फिर उठ कर प्लेट किचेन में रखतीं और अपने लिए चाय बना कर आंगन में खाट पर आ बैठती थीं.

मैं कभी कहता कि बाहर रेहड़ी वाले से चाट-पकौड़े ले आऊं तो पिता जी फट मना कर देते थे. मां भी मुझे रोक देती थीं. कहतीं अरे, बाहर कहां जाएगा लेने, मैं अभी झट से बना देती हूं. इनकी फरमाइशें तो दिन भर चलती रहती हैं.

मैं उन दिनों बनारस में पोस्टेड था. हमारा कस्बा ज्यादा दूर नहीं था. शनिवार और इतवार मैं घर पर मां पिताजी के साथ ही रहता था. तब यह सारा तमाशा देखता था. मां काफी बूढ़ी हो गयी थीं. आंखों से भी अब कम दिखने लगा था. काम अब ज्यादा नहीं होता था. जल्दी ही थक जाती थीं. इसलिए मैं चाहता था कि मेरी जल्दी शादी हो जाए तो आने वाली लड़की मां पिताजी का भोजन पानी और सेवा टहल कर लिया करेगी. फिर एक जगह बात पक्की हो गयी और मेरी शादी मीनाक्षी से हो गयी. मीनाक्षी ने आते ही घर संभाल लिया. मां को भी आराम हो गया. मैं नोटिस करता था कि पिता जी मीनाक्षी से खाने की कोई फरमाइश नहीं करते थे. मां ही कुछ-कुछ बना कर उन्हें परोसती रहती थीं. मीनाक्षी कहती भी, कि मुझे बोल दिया करें, मगर मां हंस कर उसकी बात टाल जाती थी.

मेरी शादी को अभी तीन महीने ही हुए थे कि एक दिन अचानक हार्ट अटैक से मां चल बसी. शायद इसी इंतजार में बैठी थी कि घर को संभालने के लिए कोई औरत आ जाए तो मैं चलूं. मां का इस तरह अचानक चले जाने का बड़ा धक्का पिता जी को लगा. वे बड़े गुमसुम से हो गये हैं. मीनाक्षी यूं तो पिता जी के खाने पीने का पूरा ख्याल रखती थी, मगर मैं देख रहा हूं कि अब पिता जी की चटपटी चीजों की ख्वाहिश बिल्कुल खत्म हो चुकी है. न तो वो कभी पकौड़ियों की फरमाइश करते हैं न चाट या दही बड़े की. बेहद सादा खाना खाने लगे हैं. कभी-कभी तो सिर्फ खिचड़ी या दूध ब्रेड ही खाकर ही सो रहते हैं. मीनाक्षी को बताऊं तो शायद यकीन न करे कि इनकी जुबान कितनी चटोरी थी. अभी दिन ही कितने हुए हैं उसे इस घर में आये. उसने उनका वह रूप नहीं देखा था, जब वह गाली-गलौच करते पूरे आंगन में शेर की तरह तब तक चहल-कदमी करते थे जब तक मां उनके लिए किचेन से कुछ चटपटी चीज बना कर नहीं ले आती थीं. मगर उनकी लंबी जुबान भी मां के साथ ही चली गयी शायद. उनके जाने के बाद मैंने पिताजी को जोर से बात करते भी नहीं सुना. चुपचाप बैठे रहते हैं और मंदिर की ओर निहारते रहते हैं. बिल्कुल शांत.

पहले मैं नहीं समझा था इस खामोशी का राज, मगर अब सबकुछ समझ में आ रहा है. दरअसल पिता जी चटोरे नहीं थे, उनका हर वक्त कुछ न कुछ खाने को मांगना मां के प्रति उनका प्यार था. मां के हाथों की बनी चीजों में ही उनको स्वाद आता था. फिर चाहे वे कुछ भी बना कर उनके सामने धर दें. मां को खाली बैठा देख उनको उलझन होती थी. वह चाहते थे कि मां उनके सामने चलती फिरती ही नजर आएं. उन्हें चलता फिरता देख उनके स्वस्थ होने को प्रमाणित करता था इसलिए. जब मां जिंदा थीं और पिताजी उनको बात-बात पर परेशान करते थे तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी, मगर आज पिता जी का मां के प्रति प्यार देखकर आंखें छलक आती हैं. पिता जी के गुस्से और गाली गलौच के पीछे छिपे इस प्यार को मां महसूस तो करती ही होंगी, तभी तो फटाफट छड़ी उठा कर किचेन की ओर चल पड़ती थीं कि कुछ चटपटा बना दूं इस बुड्ढे के लिए, वरना चुप ही नहीं होगा….

Best Hindi Stories : देवकन्या – राधिका मैडम का क्या था प्लान

Best Hindi Stories : राधिका मैडम ने उबाकई ली, फिर इधरउधर नजर दौड़ाई. बस में आज उन के रास्ते का स्टाफ कम था. कहीं छुट्टी तो नहीं है? कोई नेता अचानक मर गया होगा. उन्होंने पिता को फोन किया. कोई नेता नहीं मरा था, छुट्टी भी नहीं थी. बस चलने लगी. उन्होंने बैग से ‘हनुमान चालीसा’ निकाली और पढ़ने लगीं.

थोड़ी देर में बस स्टैंड आ गया. वे धीरेधीरे नीचे उतरीं. घड़ी देखी. 8 बजे थे. आधा घंटा देर हो गई थी. वे आराम से चलते हुए स्कूल पहुंचीं. 3-4 छात्र आए थे. एक नौजवान भी खड़ा था.

राधिका मैडम ताला खोल कर अंदर गईं और कुरसी पर पसर गईं. उस नौजवान ने कमरे में आ कर नमस्ते कहते हुए एक कागज उन की तरफ बढ़ा दिया.

राधिका ने देखा कि वह जौइनिंग लैटर था. नाम पढ़ा. श्यामलाल आदिवासी. उन्होंने मुंह बनाया और श्यामलाल को कुरसी पर बैठने को कहा. फिर पूछा, ‘‘क्या आईपीएससी से चयनित हो? कितने नंबर आए थे?’’

जवाब का इंतजार न करते हुए वे फिर बोलीं, ‘‘इस गांव में सभी आदिवासी हैं. बच्चों को पढ़ाने नहीं भेजते. मैं तो थक गई. अब तुम कोशिश करो. यहां गांव में वनवासी संगठन का एकल स्कूल चलता है. बहुत से बच्चे वहीं पढ़ने जाते हैं.’’ श्यामलाल बोल पड़ा ‘‘हम पढ़ाएंगे, तो हमारे यहां भी आने लगेंगे.’’

यह सुन कर राधिका मैडम का पारा चढ़ गया. उन्हें लगा कि यह नयानया मास्टर बना भील उन्हें निकम्मा कह रहा है. उन्होंने दबाव बनाने के लिए कहा, ‘‘तुम मेरे पति को तो जानते ही होगे. सुगम भारती नाम है उन का. धर्म प्रसार का काम करते हैं. राष्ट्रवादी सोच है. बहुत दबदबा है उन का…’’

अचानक राधिका मैडम को लगा कि श्यामलाल का ध्यान उन की देह पर है. उन्होंने ब्लाउज से बाहर झांकती ब्रा की लाल स्ट्रिप को ब्लाउज में दबाने की कोशिश की. श्यामलाल के चेहरे पर उलझन थी. वह उठ गया और पढ़ने आए 4-5 छात्रों से बातें करने लगा.

मिड डे मील बन कर आ गया. दाल में पानी ही पानी था. रोटियां कच्ची व कम थीं. राधिका मैडम ने 55 छात्रों की हाजिरी भरी थी. श्यामलाल कुछ कहना चाहता था कि राधिका बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारा जौइनिंग लैटर नोडल सैंटर में देने जा रही हूं. यह लो स्कूल की चाबी.’’

उन के जाने के बाद श्यामलाल ने गांव का चक्कर लगाया. घरघर जा कर बच्चों को पढ़ने के लिए भेजने को कहा. मांबाप के मुंह से राधिका मैडम की बुराई सुन कर उसे लगा कि बहुत मेहनत कर के ही स्कूल जमाया जा सकता है.

दूसरे दिन राधिका मैडम रोजाना की तुलना में और देर से स्कूल पहुंचीं. साढ़े 8 हो गए थे. स्कूल खुला था. तकरीबन 30 बच्चे क्लास में बैठे थे. श्यामलाल कविताएं बुलवा रहा था.

राधिका मैडम दूसरे कमरे में जा कर ‘धम्म’ से कुरसी पर बैठ गईं. उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था. श्यामलाल को बुला कर वे बोलीं, ‘‘तुम यह क्या कर रहे हो? क्यों पढ़ा रहे हो? इन सभी के लिए मिड डे मील बनाना होगा. काफी खर्चा होगा बेकार में.’’

श्यामलाल ने कहा, ‘‘मैडम, सरकार दे रही है न गेहूंचावल पकाने का खर्च.’’

राधिका का गुस्सा बढ़ गया. उन्होंने साड़ी के अंदर हाथ डाला और ब्लाउज के बटन से खेलने लगीं. श्यामलाल का ध्यान भी उसी तरफ चला गया. हलके सफेद रंग के ब्लाउज में से काले रंग की ब्रा दिख रही थी.

राधिका मैडम के बड़ेबड़े उभार… श्यामलाल के होंठों पर जीभ घूम गई. राधिका ने पल्लू पीठ पीछे से घुमा कर छाती को ढक दिया. श्यामलाल घबरा कर दूसरे कमरे में चला गया और बच्चों को पढ़ाने लगा.

अगले दिन ही श्यामलाल की मेहनत रंग लाने लगी. 50 छात्र पढ़ने आए थे. कुछ ने नई कमीज पहनी थी, कुछ के पास नई स्लेट थी. राधिका मैडम आज और देर से आईं. मिड डे मील की सब्जीमसाले ले कर पति के साथ मोटरसाइकिल पर आई थीं. श्यामलाल का परिचय हुआ. बातचीत का सिलसिला चला.

सुगम भारती बोले, ‘‘तुम ने अच्छा किया. स्कूल जमा दिया. अब इन बच्चों को श्लोक, मंत्र, सरस्वती की प्रार्थना, राष्ट्रगीत सुनाओ. पर ध्यान रखना भाई, गांव में चल रहे अपने एकल स्कूल पर असर न हो. वे भी हमारी संस्कृति का जागरण कर रहे हैं, वरना ईसाई मशीनरी…’’

श्यामलाल ने टोक दिया, ‘‘ईसाई और हिंदू की खींचतान में हमारी आदिवासी संस्कृति उलझ गई है, खत्म होने लगा है हमारा आदि धर्म…’’

सुगम भारती ने टोका, ‘‘भाई श्यामलाल, हमतुम अलग नहीं हैं. हमारे पूर्वज एक ही हैं.’’

बहस हद पर थी. श्यामलाल बोला, ‘‘आर्य हैं आप. हम मूल निवासी, राक्षस, असुर, दैत्य…’’

सुगम भारती ने उसे बीच में ही टोक दिया, ‘‘तुम ईसाई तो नहीं हो? कौन सी किताबें, पत्रिकाएं पढ़ते हो जो ऐसी गैरों सी बातें करते हो? अभी तो मुझे कुछ काम है, फिर कभी बात करेंगे,’’ कह कर वे चल दिए.

श्यामलाल क्लास में गया. वहां वह पढ़ाता रहा. वक्त कहां निकल गया, पता ही नहीं चला. राधिका मैडम समय से ही घर के लिए निकल गईं.

श्यामलाल बस में बैठ गया. उस का विचार मंथन चल रहा था, ‘डाक्टर अंबेडकर ने संविधान का प्रारूप बनाया, इसीलिए देश में समानता की धारा चल रही है, वरना ये लोग तो ‘मनुस्मृति’ ही लागू करते. हमारी अशिक्षा, पिछड़ेपन, गरीबी की वजह पूर्व जन्म के कर्म बताते हैं. हमारा अन्न नहीं लेते, पर रुपया लपक लेते हैं. हम पर अपने कर्मकांड लाद रहे हैं. हम इन के यजमान हैं. गौतम बुद्ध ने सही कहा है कि पहले अनुभव, फिर विश्वास, आस्था व श्रद्धा. जानो, न कि मानो.

‘ईश्वर है तो पहले पता तो लगे कि कहां है? स्वर्गनरक कहां है? ये कहते हैं कि पहले मानो, फिर जानो. पहले आस्था, श्रद्धा, फिर अनुभव. क्यों भाई, क्यों? ईसाई मशीनरी ने शिक्षा, स्वास्थ्य के माध्यम से लोगों का दिल जीता, धर्म बदला. तभी तो ये लोग हमें पढ़ाने आए हैं. एकल स्कूल चला रहे हैं, वरना इन्हें कहां फुरसत थी हमारे शोषण से.’

श्यामलाल घर पहुंच गया. खाट पर डाक पड़ी थी. डाकिया महीने में 1-2 बार ही आता था. वह सारी डाक एकसाथ दे जाता था.

अगले दिन श्यामलाल स्कूल पहुंचा. स्कूल खुला देख कर वह हैरान हुआ. राधिका मैडम स्कूल में आ गई थीं. श्यामलाल ने नमस्ते कहा और वह क्लास में चला गया. राधिका का देर से स्कूल आना, जल्दी चले जाना, कभीकभी नहीं आ कर दूसरे दिन दस्तखत करना चलता रहा. श्यामलाल पढ़ाता रहता, अपना काम करता रहता. कभीकभी दोनों एकसाथ बैठते तो बातें चलतीं, मजाक होता, उंगलियों का छूना भी हो जाता.

एक दिन श्यामलाल मोटरसाइकिल ले कर स्कूल आया. उसे शहर जाना था, पर छुट्टी के बाद राधिका मैडम उस की मोटरसाइकिल पर बैठ गईं. श्यामलाल को मजबूरन उन के घर जाना पड़ा. सुगम भारती घर पर ही थे. बातचीत चली, तो बहस में बदल गई.

‘‘हमारे आध्यात्मिक मूल्य एक हैं. यह भूभाग पवित्र है, इसीलिए हम एक राष्ट्र हैं. हमारा धर्म हमें आपस में जोड़ता है. हमें अपनी भारत माता की तनमनधन से सेवा करनी चाहिए,’’ सुगम भारती लगातार बोलते रहे.

श्यामलाल बहस नहीं करना चाहता था. बहस कटुता बढ़ाती है. मतभेद को मनभेद में बदल देती है, फिर भी जब हद हो गई, तो वह बोल ही गया, ‘‘आप के शास्त्र में यह क्यों लिखा है कि पूजिए विप्र शील गुण हीना, शुद्र न गुनगान, ज्ञान प्रवीणा?’’

इतने में सुगम भारती के दफ्तर का चपरासी रजिस्टर ले कर आ गया. उन्होंने 15-20 दिनों के दस्तखत एकसाथ किए. श्यामलाल की आंखों में उठे सवाल को जान कर वे बोले, ‘‘क्या करूं? राष्ट्र सेवा में लगा रहता हूं, दफ्तर जाने का वक्त ही नहीं मिलता. देश पहले है, दफ्तर तो चलता रहेगा.’’

राधिका चाय ले कर आ गईं. बहस रुक गई. घरपरिवार की बातें चल पड़ीं. एक दिन स्कूल में हाथ की रेखाएं देखते हुए राधिका ने अपना ज्योतिष ज्ञान बताया, ‘‘तुम्हारे अनेक लड़कियों से संबंध रहेंगे.’’

श्यामलाल मुसकरा दिया. राधिका ने कहा, ‘‘भारतीजी बाहर गए हैं…’’ और वे भी मुसकरा दीं.

लेखक- भारत दोसी

Hindi Kahaniyan : चोट

Hindi Kahaniyan : आखिर कब तक सहन करती? कब तक बेइज्जती, जोरजुल्म सहती? इस आदमी ने, जब से मैं इस घर में शादी कर के आई हूं, डांटफटकार, उलाहनों तानों के अलावा कुछ नहीं दिया.

शादी के शुरुआती कुछ दिन… कुछ महीने… ज्यादा हुआ, तो एक साल तक प्यार से बात की. घुमानेफिराने ले जाते. सिनेमा दिखाते, मेला, प्रदर्शनी ले जाते. मीठीमीठी प्यारभरी बातें करते. यहां तक कि अपनी मां से भी बहस कर लेते.

अगर मेरी सास मुझे छोटीछोटी बातों पर टोकतीं, तो पतिदेव अपनी मां से कह देते, ‘‘क्यों छोटीछोटी बातों पर घर की शांति भंग कर रही हो? आप की लड़की के साथ ससुराल में यही सब हो तो क्या बीतेगी आप पर? यह इस घर की बहू है, नौकरानी नहीं.

‘‘यह तो कुछ नहीं कहती, लेकिन मैं ही इसे घुमाने ले जाता हूं. पढ़ीलिखी औरत है. बदलते समय के साथ आप नहीं बदल सकतीं, तो छोटीछोटी बातों पर टोकाटाकी कर के घर में अशांति तो न फैलाएं.’’

सास को लगता होगा कि जोरू का गुलाम है बेटा. वे गुस्से में कुछ दिन तक बात न करतीं. बात करतीं तो भी इस तरह, जैसे धीरेधीरे बातों से अपना गुस्सा निकाल रही हों.

‘‘मुझे क्या करना है? तुम खूब घूमोफिरो, लेकिन हद में. आसपड़ोस के घर में भी बहुएं हैं. यह क्या बात हुई कि जब जी आया मुंह उठा कर चल दिए.

न किसी से कुछ पूछना, न बता कर जाना. आखिर घर में बड़ेबुजुर्ग भी हैं. उन के मानसम्मान का भी ध्यान रखो.’’

एक साल बाद ही पति के बरताव में बदलाव आने लगा. शायद शादी की  खुमारी अब तक उतर चुकी थी. पहले ये बहुत ही कम टोकाटाकी करते, बाद में बातबात पर टोकने लगे. मेरी कोई बात इन्हें अच्छी ही नहीं लगती. हर बात में अपनी मां की तरफदारी करते. चाहे वह बात गलत हो या सही, मैं सुनती रही.

इस बीच 2 बच्चे भी हो गए. कहने को घरगृहस्थी तो ठीकठाक चल रही थी, लेकिन जिन पति से मैं प्यार करती थी, उन के बातबात पर डांटनेटोकने से मन उदास रहने लगा.

मैं अपनी तरफ से पति का, सास का, बच्चों का, घर का पूरा खयाल रखती, फिर भी इन की बातबात पर टोकने, डांटने की आदत नहीं जाती.

एक बार मैं ने गुस्से में जरा जोर से कहा भी था, ‘‘आखिर बात क्या है? आप मुझे इस तरह से बेइज्जत क्यों करते रहते हैं?’’

इन्होंने भी झुंझला कर जवाब दिया, ‘‘मैं मर्द हूं. घर का मुखिया हूं. गलत बात पर टोकूंगा नहीं, तो क्या लाड़ करूंगा? तुम 2 बच्चों की मां बन गई हो. तुम्हें घर की जिम्मेदारी समझनी चाहिए. गलती पर डांटता हूं, तो गलती को सुधारना चाहिए. इस में बुरा मानने वाली क्या बात है?’’

‘‘मैं ऐसी कौन सी गलती करती हूं? क्या मन भर गया है मुझ से?’’

‘‘मुझे तो सब को साथ ले कर चलना है. तुम्हारा भी अब तक मन भर जाना चाहिए. प्यारमुहब्बत की उम्र बीत चुकी. अब अपने फर्ज पर ध्यान दो.’’

‘‘आखिर मैं ने फर्ज निभाने में कौन सी कमी रखी है?’’

‘‘तुम फिर बहस करने लगीं. मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘आप को मेरी कौन सी बात अच्छी लगती है आजकल?’’

‘‘औरत हो, औरत की तरह रहना सीखो. घर के कामकाज देखो. अम्मां की तबीयत ठीक नहीं रहती आजकल. उन की देखभाल करो.’’

‘‘करती तो हूं.’’

‘‘करती, तो अम्मां शिकायत नहीं करतीं.’’

‘‘अम्मां की तो आदत है मेरी शिकायत करने की. एक की चार लगा कर भड़काती हैं.’’

‘‘खबरदार, जो मेरी अम्मां के बारे में कुछ कहा,’’ इन्होंने इतनी जोर से डांटा कि मैं गुस्से में अपने कमरे में आ कर रोने लगी.

बैडरूम में तो ये बड़े प्यार से बात करते हैं. हालांकि अब यह होता है कि बैडरूम में मेरे आने तक ये सो जाते हैं. मुझे घर के काम निबटातेनिबटाते ही रात के 11-12 बज जाते हैं.

अब हमारे बीच संबंध बनने में भी काफी समय होने लगा था. मसरूफियत, जिम्मेदारी, बढ़ती उम्र के साथ ऐसा होता है. इस की कोई शिकायत नहीं. लेकिन आदमी दो बातें प्यार से कर ले, तो क्या बिगड़ जाएगा? लेकिन पता नहीं क्यों आजकल मुझे देख कर इन का पारा चढ़ जाता है, खासकर दूसरों के सामने.

ये दूसरों से तो अच्छी तरह बात करेंगे. अपनी अम्मां से, बच्चों से, पासपड़ोस के लोगों से, घर आए रिश्तेदारों से. दोस्तों से तो इस कदर प्यार से बातें करेंगे कि जैसे इन्हें गुस्सा आता ही न हो, मानो जबान पर चाशनी चिपक जाती हो.

लेकिन सुबह मैं थोड़ी देर से उठूं, तो चिल्लाते हैं, ‘‘तुम जल्दी नहीं उठ सकतीं. यह कोई समय है उठने का? अभी तक चाय नहीं बनी. चाय में चीनी कम है. कभी ज्यादा है. खाने में नमक नहीं है. यह सब्जी क्यों बनाई है? वही काम करती हो, जो मुझे पसंद नहीं आता. न घर में साफसफाई है, न बच्चों की तरफ ढंग से ध्यान देती हो.

‘‘अम्मां अब कितने दिनों की मेहमान हैं. कम से कम उन की देखभाल ही ठीक से कर लिया करो. तुम्हें कपड़े पहनने का सलीका नहीं आता है. तुम्हें मेहमानों से बात करने का ढंग नहीं है. तुम यह नहीं करती, तुम वह नहीं करती. तुम ऐसी हो, तुम वैसी हो. तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता.’’

मैं ने तो अब बहस करना, इन की बातों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया. जो कहना है, कहते रहो. मेरा काम सुनना है, सुनती रहती हूं. लेकिन आखिर कब तक? अकेले में कह दें तो सुन भी लूं. चार लोगों के बीच टोकना, डांटना घोर बेइज्जती है मेरी. मेरे औरत होने की. पत्नी हूं, नौकरानी नहीं.

एक दिन इन के 2-3 दोस्त खाने पर आए. इन के कहे मुताबिक ही खाना बनाया. मैं ने अच्छे से परोसा. लेकिन दोस्तों के सामने ही इन का चिल्लाना शुरू हो गया, ‘‘जरा अपने हाथपैर तेजी से चलाओ. यह जैट युग है, बैलगाड़ी की तरह काम मत करो…’’

फिर इन्होंने चीख कर कहा, ‘‘दही कहां है?’’

‘‘अभी लाई,’’ मैं ने अपनी रुलाई रोकते हुए कहा.

इन के एक दोस्त ने कहा, ‘‘क्या दबदबा बना कर रखा है यार? मैं अगर अपनी पत्नी से इतना कह दूं, तो घर में मुसीबत खड़ी हो जाए.’’

दूसरे दोस्त ने इन की हिम्मत बढ़ाते हुए कहा, ‘‘वाकई सही माने में तुम हो असली मर्द. औरतों को ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए.’’

मैं अंदर रसोई में से सब सुन रही थी. जी तो चाहता था कि सारा सामान उठा कर फेंक दूं. इन्हें और इन के दोस्तों को जम कर लताड़ लगाऊं, लेकिन चुप ही रही. पर मैं ने भी मन ही मन तय कर लिया था कि अपनी बेइज्जती का बदला तो ले कर रहूंगी. लेकिन बहस से, चीखचिल्ला कर घर का माहौल बिगाड़ कर नहीं. इन्हें बताऊंगी कि औरत कैसे शर्मिंदा कर सकती है. कैसे हरा सकती है. कैसे तुम्हारे मर्द होने का अहंकार तोड़ सकती है.

खाना खा रहे दोस्तों के बीच मैं दही रखने गई, तभी दोनों बच्चे वहां आ गए खेलते हुए.

‘‘बाहर निकालो इन्हें कमरे से. तुम बच्चों का ध्यान नहीं रख सकतीं…’’ वे जोर से चिल्लाए.

मैं दोनों बच्चों को जबरदस्ती घसीटते हुए कमरे से बाहर ले गई.

इन के किसी दोस्त की आवाज कानों में आई, ‘‘खाना तो लजीज बना है.’’

इन्होंने मुंह बिचकाते हुए जवाब दिया, ‘‘खाना तो सुमन बनाती थी. पहले मेरी उसी से शादी होने वाली थी. सगाई तक हो गई थी उस से. कई बार मैं सुमन के घर भी गया. ऐसा स्वादिष्ठ खाना मुझे आज तक नसीब नहीं हुआ.’’

इन की सगाई टूटने की बात मुझे पता थी, लेकिन सुमन के खाने की तारीफ और मेरे खाने को सुमन के मुकाबले कमतर बताना मुझे अखर गया.

ये मर्द थे, तो मैं औरत थी. इन्हें अपने मर्द होने का घमंड था, तो मुझे क्यों न हो अपने औरत होने पर गर्व? अब इन्हें बताना जरूरी था कि औरत क्या होती है.

मर्द की सौ सुनार की और औरत की एक लुहार की कहावत को सच साबित करने का समय आ गया था. इन का यह जुमला कि मर्द बने रहने के लिए औरत को दुत्कारते रहना जरूरी है, तभी घर भी घर बना रहता है. तभी सब ठीक रहते हैं.

अम्मांजी ने इन से एक बार कहा भी था, ‘‘बेटा, मर्द को मर्द की तरह रहना चाहिए. औरत को हमेशा सिर पर चढ़ा कर नहीं रखना चाहिए. उसे डांटडपट, फटकार लगाना जरूरी है.’’

इन्होंने अम्मांजी की बातों को इस तरह स्वीकार किया कि मेरा पूरा वजूद ही बिखरने लगा.

दोनों बच्चे अकसर दादी के पास ही सोया करते थे. वे आज भी वहीं सो रहे थे. ये भी बिस्तर पर लेटेलेटे किताब पढ़ रहे थे.

आज मैं जरा जल्दी ही कमरे में पहुंच गई थी. मैं गाउन पहन कर सोती थी और कपड़े बाथरूम में ही बदलती थी. लेकिन आज मैं ने कमरे में जा कर साड़ी उतारी.

मैं ने तिरछी नजरों से इन की तरफ देखा. साड़ी बदलते ही इन का ध्यान मेरी तरफ गया. नहीं… नहीं, मेरे बदन की तरफ. पहले तो इन्होंने आदत के मुताबिक मुझे टोका, ‘‘यह जगह है क्या कपड़े बदलने की?’’

मैं ने भी कह दिया, ‘‘यहां पर आप के अलावा और कौन हैं? आप से कैसी परदादारी?’’

ये कुछ कहते, इस से पहले ही मैं ने अपने बाकी कपड़े भी उतार दिए. अब मैं छोटे कपड़ों में थी, टूपीस भी कह सकते हैं.

मैं ने पहनने के लिए गाउन उठाया. लेकिन इन के सब्र का पैमाना छलक चुका था. इन्होंने प्यार से मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘बहुत दिन हो गए तुम्हें प्यार किए हुए. आज इस रूप में देख कर सब्र नहीं होता.’’

इस के बाद कमरे में हम दोनों एक हो गए. अलग होते ही मैं मुंह बिचका कर एक तरफ मुंह फेर कर लेट गई.

मैं ने कहा, ‘‘किसी वैद्यहकीम को दिखाओ. इतने सारे तो इश्तिहार आते हैं, कोई गोली ले लिया करो.’’

ये दुम दबाते पालतू कुत्ते की तरह आ कर कूंकूं की आवाज में बोले, ‘‘क्यों, खुश नहीं हुईं क्या तुम? कुछ कमी रह गई क्या?’’

इन की हालत देख कर बड़ी मुश्किल से मैं ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, कोई ऐसी बात नहीं है. कभीकभी होता है ऐसा.’’

इन का उदास, हताश, हारा हुआ चेहरा देख कर मुझे अपनी जीत का एहसास हुआ. एक ही वार से इन के अंदर की मर्दानगी और बाहर का मर्द दोनों मुरदा पड़े हुए थे, जैसे दुनिया के सब से तुच्छ, कमजोर इनसान हों.

उस के बाद इन की टोकाटाकी, डांटफटकार तो बंद हुई ही, साथ ही साथ मेरी तरफ जब भी ये देखते, तो ऐसा लगता कि इन के देखने में डर और शर्मिंदा का भाव हो. अकसर चोरीछिपे जिस्मानी ताकत बढ़ाने के इश्तिहार पढ़ते भी नजर आते.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें