Hindi Story: दुलहन का घूंघट

Hindi Story: ‘‘एकबार, बस एक बार हां कर दो प्राची. कुछ ही घंटों की तो बात है. फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा. मैं वादा करती हूं कि यह सब करने से तुम्हें कोई मानसिक या शारीरिक क्षति नहीं पहुंचेगी.’’

शुभ की बातें प्राची के कानों तक तो पहुंच रही थीं परंतु शायद दिल तक नहीं पहुंच पा रही थीं या वह उन्हें अपने दिल से लगाना ही नहीं चाह रही थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि उस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपनी जिंदगी के नाटक का इतना अहम किरदार निभा सके.

‘‘नहीं शुभ, यह सब मुझ से नहीं होगा. सौरी, मैं तुम्हें निराश नहीं करना चाहती थी परंतु मैं मजबूर हूं.’’

‘‘एक बार, बस एक बार, जरा दिव्य की हालत के बारे में तो सोचो. तुम्हारा यह कदम उस के थोड़े बचे जीवन में कुछ खुशियां ले आएगा.’’

प्राची ने शुभ की बात को सुनीअनसुनी करने का दिखावा तो किया पर उस का मन दिव्य के बारे में ही सोच रहा था. उस ने सोचा, रातदिन दिव्य की हालत के बारे में ही तो सोचती रहती हूं. भला उस को मैं कैसे भूल सकती हूं? पर यह सब मुझ से नहीं होगा.

मैं अपनी भावनाओं से अब और खिलवाड़ नहीं कर सकती. प्राची को चुप देख कर शुभ निराश मन से वहां से चली गई और प्राची फिर से यादों की गहरी धुंध में खो गई.

वह दिव्य से पहली बार एक मौल में मिली थी जब वे दोनों एक लिफ्ट में अकेले थे और लिफ्ट अटक गई थी. प्राची को छोटी व बंद जगह में फसने से घबराहट होने की प्रौब्लम थी और वह लिफ्ट के रुकते ही जोरजोर से चीखने लगी थी. तब दिव्य उस की यह हालत देख कर घबरा गया था और उसे संभालने में लग गया था.

खैर लिफ्ट ने तो कुछ देर बाद काम करना शुरू कर दिया था परंतु इस घटना ने दिव्य और प्राची को प्यार के बंधन में बांध दिया था. इस मुलाकात के बाद बातचीत और मिलनेजुलने का सिलसिला चल निकला और कुछ ही दिनों बाद दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. प्राची अकसर दिव्य के घर भी आतीजाती रहती थी और दिव्य के मातापिता और उस की बहन शुभ से भी उस की अच्छी पटती थी.

इसी बीच मौका पा कर एक दिन दिव्य ने अपने मन की बात सब को कह दी, ‘‘मैं प्राची के साथ शादी करना चाहता हूं,’’ किसी ने भी दिव्य की इस बात का विरोध नहीं किया था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक उन की खुशियों को ग्रहण लग गया.

‘‘मां, आज भी मेरे पेट में भयंकर दर्द हो रहा है. लगता है अब डाक्टर के पास जाना ही पड़ेगा.’’ दिव्य ने कहा और वह डाक्टर के पास जाने के लिए निकल पड़ा.

काफी इलाज के बाद भी जब पेट दर्द का यह सिलसिला एकदो महीने तक लगातार चलता रहा तो कुछ लक्षणों और फिर जांचपड़ताल के आधार पर एक दिन डाक्टर ने कह ही दिया, ‘‘आई एम सौरी. इन्हें आमाशय का कैंसर है और वह भी अंतिम स्टेज का. अब इन के पास बहुत कम वक्त बचा है. ज्यादा से ज्यादा 6 महीने,’’ डाक्टर के इस ऐलान के साथ ही प्राची और दिव्य के प्रेम का अंकुर फलनेफूलने से पहले ही बिखरता दिखाई देने लगा.

आंसुओं की अविरल धारा और खामोशी, जब भी दोनों मिलते तो यही मंजर होता.

‘‘सब खत्म हो गया प्राची, अब तुम्हें मुझ से मिलने नहीं आना चाहिए.’’ एक दिन दिव्य ने प्राची को कह दिया.

‘‘नहीं दिव्य, यदि वह आना चाहती है, तो उसे आने दो,’’ शुभ ने उसे टोकते हुए कहा. ‘‘जितना जीवन बचा है, उसे तो जी लो वरना जीते जी मर जाओगे तुम. मैं चाहती हूं इन 6 महीनों में तुम वह सब करो जो तुम करना चाहते थे. जानते हो ऐसा करने से तुम्हें हर पल मौत का डर नहीं सताएगा.’’

‘‘हो सके तो इस दुख की घड़ी में भी तुम स्वयं को इतना खुशमिजाज और व्यस्त कर लो कि मौत भी तुम तक आने से पहले एक बार धोखा खा जाए कि मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गई. जब तक जिंदगी है भरपूर जी लो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. हम वादा करते हैं कि हम सब भी तुम्हें तुम्हारी बीमारी की गंभीरता का एहसास तक नहीं होने देंगे.’’

बहन के इस ऐलान के बाद उन के घर का वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदल

गया. मातम का स्थान खुशी ने ले लिया था. वे सब मिल कर छोटी से छोटी खुशी को भी शानदार तरीके से मनाते थे, वह चाहे किसी का जन्मदिन हो, शादी की सालगिरह हो या फिर कोई त्योहार. घर में सदा धूमधाम रहती थी.

एक दिन शुभ ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आप की इच्छा थी कि आप दिव्य की शादी धूमधाम से करो. दिव्य आप का इकलौता बेटा है. मुझे लगता है कि आप को अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए.’’

मां उसे बीच में ही रोकते हुए बोलीं, ‘‘देख शुभ बाकी सब जो तू कर रही है, वह तो ठीक है पर शादी? नहीं, ऐसी अवस्था में दिव्य की शादी करना असंभव तो है ही, अनुचित भी है. फिर ऐसी अवस्था में कौन करेगा उस से शादी? दिव्य भी ऐसा नहीं करना चाहेगा. फिर धूमधाम से शादी करने के लिए पैसों की भी जरूरत होगी. कहां से आएंगे इतने पैसे? सारा पैसा तो दिव्य के इलाज में ही खर्च हो गया.’’

‘‘मां, मैं ने कईर् बार दिव्य और प्राची को शादी के सपने संजोते देखा है. मैं नहीं चाहती भाई यह तमन्ना लिए ही दुनिया से चला जाए. मैं उसे शादी के लिए मना लूंगी. फिर यह शादी कौन सी असली शादी होगी, यह तो सिर्फ खुशियां मनाने का बहाना मात्र है. बस आप इस के लिए तैयार हो जाइए.

‘‘मैं कल ही प्राची के घर जाती हूं. मुझे लगता है वह भी मान जाएगी. हमारे पास ज्यादा समय नहीं है. अंतिम क्षण कभी भी आ सकता है. रही पैसों की बात, उन का इंतजाम भी हो जाएगा. मैं सभी रिश्तेदारों और मित्रों की मदद से पैसा जुटा लूंगी,’’ कह कर शुभ ने प्राची को फोन किया कि वह उस से मिलना चाहती है.

और आज जब प्राची ने शुभ के सामने यह प्रस्ताव रखा तो प्राची के जवाब ने शुभ को निराश ही किया था परंतु शुभ ने निराश होना नहीं सीखा था.

‘‘मैं दिव्य की शादी धूमधाम से करवाऊंगी और वह सारी खुशियां मनाऊंगी जो एक बहन अपने भाई की शादी में मनाती है. इस के लिए मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े.’’ शुभ अपने इरादे पर अडिग थी.

घर आते ही दिव्य ने शुभ से पूछा, ‘‘क्या हुआ, प्राची मान गई क्या?’’

‘‘हां मान गई. क्यों नहीं मानेगी? वह तुम से प्रेम करती है,’’ शुभ की बात सुन कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी चमक आ गई जो शुभ के इरादे को और मजबूत कर गई.

शुभ ने दिव्य की शादी के आयोजन की इच्छा और इस के लिए आर्थिक मदद की जरूरत की सूचना सभी सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दी और इस पोस्ट का यह असर हुआ कि जल्द ही उस के पास शादी की तैयारियों के लिए पैसा जमा हो गया.

घर में शादी की तैयारियां धूमधाम से शुरू हो गईं. दुलहन के लिए कपड़ों और गहनों का

चुनाव, मेहमानों की खानेपीने की व्यवस्था, घर की साजसजावट सब ठीक उसी प्रकार होने लगा जैसा शादी वाले घर में होना चाहिए.

शादी का दिन नजदीक आ रहा था. घर में सभी खुश थे, बस एक शुभ ही चिंता में डूबी हुई थी कि दुलहन कहां से आएगी? उस ने सब से झूठ ही कह दिया था कि प्राची और उस के घर वाले इस नाटकीय विवाह के लिए राजी हैं पर अब क्या होगा यह सोचसोच कर शुभ बहुत परेशान थी.

‘‘मैं एक बार फिर प्राची से रिक्वैस्ट करती हूं. शायद वह मान जाए.’’ सोच कर शुभ फिर प्राची के घर पहुंची.

‘‘बेटी हम तुम्हारे मनोभावों को बहुत अच्छी तरह समझते हैं और हम तुम्हें पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं पर प्राची को मनाना हमारे बस की बात नहीं. हमें लगता है कि दिव्य के अंतिम क्षणों में, उसे मौत के मुंह में जाते हुए पर मुसकराते हुए वह नहीं देख पाएगी, शायद इसीलिए वह तैयार नहीं है. वह बहुत संवेदनशील है,’’ प्राची की मां ने शुभ को समझाते हुए कहा.

‘‘पर दिव्य? उस का क्या दोष है, जो प्रकृति ने उसे इतनी बड़ी सजा दी है? यदि वह इतना सहन कर सकता है तो क्या प्राची थोड़ा भी नहीं?’’ शुभ बिफर पड़ी.

‘‘नहीं, तुम गलत सोच रही हो. प्राची का दर्द भी दिव्य से कम नहीं है. वह भी बहुत सहन कर रही है. दिव्य तो यह संसार छोड़ कर चला जाएगा और उस के साथसाथ उस के दुख भी. परंतु प्राची को तो इस दुख के साथ सारी उम्र जीना है. उस की हालत तो दिव्य से भी ज्यादा दयनीय है. ऐसी स्थिति में हम उस पर ज्यादा दबाव नहीं डाल सकते.

‘‘फिर हमें समाज का भी खयाल रखना है. शादी और उस के तुरंत बाद ही दिव्य की मृत्यु. वैधव्य की छाप भी तो लग जाएगी प्राची पर. किसकिस को समझाएंगे कि यह एक नाटक था. यह इतना आसान नहीं है जितना तुम समझ रही हो?’’ प्राची की मां ने शुभ को समझाने की कोशिश की.

उस दिन पहली बार शुभ को दिव्य से भी ज्यादा प्राची पर तरस आया लेकिन यह उस की समस्या का समाधान नहीं था. तभी उस के तेज दिमाग ने एक हल निकाल ही लिया.

वह बोली, ‘‘आंटी जी, बीमारी की वजह से इन दिनों दिव्य को कम दिखाई देने लगा है. ऐसे में हम प्राची की जगह उस से मिलतीजुलती किसी अन्य लड़की को भी दुलहन बना सकते हैं. दिव्य को यह एहसास भी नहीं होगा कि दुलहन प्राची नहीं, बल्कि कोई और है. यदि आप की नजर में ऐसी कोई लड़की हो तो बताइए.’’

‘‘हां है, प्राची की एक सहेली ईशा बिलकुल प्राची जैसी दिखती है. वह अकसर नाटकों में भी भाग लेती रहती है. पैसों की खातिर वह इस काम के लिए तैयार भी हो जाएगी. पर ध्यान रहे शादी की रस्में पूरी नहीं अदा की जानी चाहिए वरना उसे भी आपत्ति हो सकती है.’’

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी जी, सब वैसा ही होगा जैसा फिल्मों में होता है, केवल दिखावा. क्योंकि हम भी नहीं चाहते हैं कि ऐसा हो और दिव्य भी ऐसी हालत में नहीं है कि वह सभी रस्में निभाने के लिए अधिक समय तक पंडाल में बैठ भी सके.’’

शादी का दिन आ पहुंचा. विवाह की सभी रस्में घर के पास ही एक गार्डन में होनी थीं. दिव्य दूल्हा बन कर तैयार था और अपनी दुलहन का इंतजार कर रहा था कि अचानक एक गाड़ी वहां आ कर रुकी. गाड़ी में से प्राची का परिवार और दुलहन का वेश धारण किए गए लड़की उतरी.

हंसीखुशी शादी की सारी रस्में निभाई जाने लगीं. दिव्य बहुत खुश नजर आ रहा था. उसे देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कुछ ही दिनों का मेहमान है. यही तो शुभ चाहती थी.

‘‘अब दूल्हादुलहन फेरे लेंगे और फिर दूल्हा दुलहन की मांग भरेगा.’’ जब पंडित ने कहा तो शुभ और प्राची के मातापिता चौकन्ने हो गए. वे समझ गए कि अब वह समय आ गया है जब लड़की को यहां से ले जाना चाहिए वरना अनर्थ हो सकता है और वे बोले, ‘‘पंडित जी, दुलहन का जी घबरा रहा है. पहले वह थोड़ी देर आराम कर ले फिर रस्में निभा ली जाएं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’’ कह कर उन्होंने दुलहन जोकि छोटा सा घूंघट ओढ़े हुए थी, को अंदर चलने का इशारा किया.

‘‘नहीं पंडित जी, मेरी तबीयत इतनी भी खराब नहीं कि रस्में न निभाई जा सकें.’’ दुलहन ने घूंघट उठाते हुए कहा तो शुभ के साथसाथ प्राची के मातापिता भी चौक उठे क्योंकि दुलहन कोई और नहीं प्राची ही थी.

शायद जब ईशा को प्राची की जगह दुलहन बनाने का फैसला पता चला होगा तभी प्राची ने उस की जगह स्वयं दुलहन बनने का निर्णय लिया होगा, क्योंकि चाहे नाटक में ही, दिव्य की दुलहन बनने का अधिकार वह किसी और को दे, उस के दिल को मंजूर नहीं होगा.

आज उस की आंखों में आंसू नहीं, बल्कि उस के होंठों पर मुसकान थी. अपना सारा दर्द समेट कर वह दिव्य की क्षणिक खुशियों की भागीदारिणी बन गई थी. उसे देख कर शुभ की आंखों से खुशी और दुख के मिश्रित आंसू बह निकले. उस ने आगे बढ़ कर प्राची को गले से लगा लिया.

यह देख कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी मुसकान आ गई. ऐसी मुसकान पहले किसी ने उस के चेहरे पर नहीं देखी थी. परंतु शायद वह उस की आखिरी मुसकान थी, क्योंकि उस का कमजोर शरीर इतना श्रम और खुशी नहीं झेल पाया और वह वहीं मंडप में ही बेहोश हो गया.

दिव्य को तुरंत हौस्पिटल ले जाना पड़ा जहां उसे तुरंत आईसीयू में भेज दिया गया. कुछ ही दिनों बाद दिव्य नहीं रहा परंतु जाते समय उस के होंठों पर मुसकान थी.

प्राची का यह अप्रत्याशित निर्णय दिव्य और उस के परिवार वालों के लिए वरदान से कम नहीं  था. वे शायद जिंदगी भर उस के इस एहसान को चुका न पाएं. प्राची के भावी जीवन को संवारना अब उन की भी जिम्मेदारी थी. Hindi Story

Family Story in Hindi: मेरे हिस्से की कोशिश

Family Story in Hindi: ट्रेन अभी लुधियाना पहुंची नहीं थी और मेरा मन पहले ही घबराने लगा था. वहां मेरा घर है, वही घर जहां जाने को मेरा मन सदा मचलता रहता था. मेरा वह घर जहां मेरा अधिकार आज भी सुरक्षित है, किसी ने मेरा बुरा नहीं किया. जो भी हुआ है मेरी ही इच्छा से हुआ है. जहां सब मुझे बांहें पसारे प्यार से स्वीकार करना चाहते हैं और अब उसी घर में मैं जाने से घबराता हूं. ऐसा लगता है हर तरफ से हंसी की आवाज आती है. शर्म आने लगती है मुझे. ऐसा लगता है मां की नजरें हर तरफ से मुझे घूर रही हैं. मन में उमड़घुमड़ रहे झंझावातों में उलझा मैं अतीत में विचरण करने लगता हूं.

‘वाह बेटा, वाह, तेरे पापा को तो नई पत्नी मिल ही गई, वे मुझे भूल गए, पर क्या तुझे भी मां याद नहीं रही. कितनी आसानी से किसी अजनबी को मां कहने लगा है तू.’

‘ऐसा नहीं है मुन्ना कि तू मेरे पास आता है तो मुझे किसी तरह की तकलीफ होती है. बच्चे, मैं तेरी बूआ हूं. मेरा खून है तू. मेरे भैयाभाभी की निशानी है तू. तू घर नहीं जाएगा तो अपने पिता से और दूर हो जाएगा. बेटा, अपने पापा के बारे में तो सोच. उन के दिल पर क्या बीतती होगी जब तू लुधियाना आ कर भी अपने घर नहीं जाता. दादी की सोच, जो हर पल द्वार ही निहारती रहती हैं कि कब उन का पोता आएगा और…’

‘ये दादी न होतीं तो कितना अच्छा होता न… इतनी लंबी उम्र भी किस काम की. न इंसान मर सकता है और न ही पूरी तरह जी पाता है… हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया बूआ?’

बूआ की गोद में छिप कर मैं जारजार रो पड़ा था. बुरा लगा होगा न बूआ को, उन की मां को कोस रहा था मैं. पिछले 10 साल से दादी अधरंग से ग्रस्त बिस्तर पर पड़ी हैं और मेरी मां चलतीफिरती, हंसतीखेलती दादी की दिनरात सेवा करतीं. एक दिन सोईं तो फिर उठी ही नहीं. हैरान रह गए थे हम सब. ऐसा कैसे हो सकता है, अभी तो सोई थीं और अभी…

‘अरे, यमराज रास्ता भूल गया. मुझे ले जाना था इसे क्यों ले गया… मेरा कफन चुरा लिया तू ने बेटी. बड़ी ईमानदार थी, फिर मेरे ही साथ बेईमानी कर दी.’

विलाप करकर के दादी थक गई थीं. मांगने से मौत मिल जाती तो दादी कब की इस संसार से जा चुकी होतीं. बस, यही तो नहीं होता न. अपने चाहे से मरा नहीं न जाता. मरने वाला छूट जाता है और जो पीछे रह जाते हैं वे तिलतिल कर मरते हैं क्योंकि अपनी इच्छा से मर तो पाते नहीं और मरने वाले के बिना जीना उन्हें आता ही नहीं.

‘इस होली पर जब आओ तो अपने ही घर जाना अनुज. भैया, मुझ से नाराज हो रहे थे कि मैं ही तुम्हें समझाती नहीं हूं. बेटे, अपने पापा का तो सोच. भाभी गईं, अब तू भी घर न जाएगा तो उन का क्या होगा?’

‘पिताजी का क्या? नई पत्नी और एक पलीपलाई बेटी मिल गई है न उन्हें.’

‘चुप रह, अनुज,’ बूआ बोलीं, ‘ज्यादा बकबक की तो एक दूंगी तेरे मुंह पर. क्या तू ने भैया को इस शादी के लिए नहीं मनाया था? हम सब तो तेरी शादी कर के बहू लाने की सोच रहे थे. तब तू ने ही समझाया था न कि मेरी शादी कर के समस्या हल नहीं होगी. कम उम्र की लड़की कैसे इतनी समस्याओं से जूझ पाएगी, हर पल की मरीज दादी का खानापीना और…’

‘हां, मुझे याद है बूआ, मैं नहीं कहता कि जो हुआ मेरी मरजी से नहीं हुआ. मैं ने ही पापा को मनाया था कि वे मेरी जगह अपनी शादी कर लें. विभा आंटी से भी मैं ने ही बात की थी. लेकिन अब बदले हालात में मैं यह सब सहन नहीं कर पा रहा हूं. घर जाता हूं तो हर कोने में मां की मौजूदगी का एहसास होने से बहुत तकलीफ होती है. जिस घर में मैं इकलौती संतान था अब एक 18-20 साल की लड़की जो मेरी कानूनी बहन है, वही अधिकारसंपन्न दिखाई देती है. दादी को नई बहू मिल गई, पापा को नई पत्नी और उस लड़की को पिता.’

‘यह तो सोचने की बात है न मुन्ना. तुझे भी तो एक बहन मिली है न. विभा को तू मां न कह लेकिन कोई रिश्ता तो उस से बांध ले. जितनी मुश्किल तेरे लिए है इस रिश्ते को स्वीकारने की उतनी ही मुश्किल उन के लिए भी है. वे भी कोशिश कर रहे हैं, तू भी तो कर. उस बच्ची के सिर पर हाथ रखेगा तभी तुझे  बड़प्पन का एहसास होगा. तू क्या समझता है उन दोनों के लिए आसान है एक टूटे घर में आ कर उस की किरचें समेटना, जहां कणकण में सिर्फ तेरी मां बसी हैं. तेरा घर तो वहीं है. उन मांबेटी के बारे में जरा सोच.

‘तुम चैन से दिल्ली में रह कर अगर अपनी नौकरी कर रहे हो तो इसीलिए कि विभा घर संभाल रही है. तुम्हारे पिता का खानापीना देखती है, दादी को संभालती है. क्या वह तुम्हारे घर की नौकरानी है, जिस का मानसम्मान करना तुम्हें भारी लग रहा है.

‘6 महीने हो गए हैं भाभी को मरे और इन 6 महीनों में क्या विभा ने कोई प्रयास नहीं किया तुम्हारे समीप आने का? वह फोन पर बात करना चाहती है तो तुम चुप रहते हो. घर आने को कहती है तो तुम घर नहीं जाते. अब क्या करे वह? उस का दोष क्या है. बोलो?’ बहुत नाराज थीं बूआ. किसी का भी कोई दोष नहीं है. मैं दोष किसे दूं. दोष तो समय का है, जिस ने मेरी मां को छीन लिया.

मैं निश्ंिचत हूं कि मेरे पिता का घर उजड़ कर फिर बस गया है और उस के लिए समूल प्रयास भी मेरा ही था. सब व्यवस्थित हैं. मेरे दोस्त विनय की विधवा चाची हैं विभा आंटी. हम दोनों के ही प्रयास से यह संभव हो पाया है.

मां तो एक ही होती है न, उन्हें मैं मां नहीं मान पा रहा हूं. और वह लड़की अणिमा, जो कल तक मेरे मित्र की चचेरी बहन थी अब मेरी भी बहन है. उम्र भर बहन के लिए मां से झगड़ा करता रहा, बहन का जन्म मां की मौत के बाद होगा, कब सोचा था मैं ने.

लुधियाना आ गया. ऐसा लग रहा था मानो गाड़ी का समूल भार पटरी पर नहीं मेरे मन पर है. एक अपराधबोध का बोझ. क्या सचमुच मैं ने अपनी मां के साथ अन्याय किया है? घर आ गया मैं. कांपते हाथ से मैं ने दरवाजे की घंटी बजा दी. मां की जगह कोई और होगी, इसी भाव से समूल चेतना सुन्न होने लगी.

‘‘आ गया मुन्ना…बेटा, आ जा.’’

दादी का स्वर कानों में पड़ा. दरवाजा खुला था. पापा भी नहीं थे घर पर. दादी अकेली थीं. दादी ने पास बिठा कर प्यार किया और देर तक रोते रहे हम.

‘‘बड़ा निर्मोही है रे मुन्ना. घर की याद नहीं आती.’’

अब क्या उत्तर दूं मैं. चारों तरफ नजर घुमा कर देखा.

‘‘दादी, कहां गए हैं सब. पापा कहां हैं?’’

‘‘अणिमा कहीं चली गई है. विभा और तेरा बाप उसे ढूंढ़ने गए हैं.’’

‘‘कहीं चली गई. क्या मतलब?’’

‘‘इस घर में उस का मन नहीं लगता,’’ दादी बोलीं, ‘‘तू भी तो आता नहीं. यह घर उजड़ गया है मुन्ना. खुशी तो सारी की सारी तेरी मां अपने साथ ले गई. मुझे भी तो मौत नहीं न आती. सभी घुटेघुटे जी रहे हैं. कोई भी तो खुश नहीं है न. इस तरह नहीं जिया जाता मुन्ना.’’

चारों तरफ एक उदासी सी नजर आई मुझे. उठ कर सारा घर देख आया. मेरा कमरा वैसा का वैसा ही था जैसा पहले था. जाहिर था कि इस कमरे में कोई नहीं रहता. पापा को फोन किया.

‘‘पापा, कहां हैं आप? मैं घर आया और आप कहां चले गए?’’

‘‘अणिमा अपने घर चली आई है मुन्ना. वह वापस आना ही नहीं चाहती. विनय भी यहीं है.’’

‘‘पापा, आप घर आइए. मैं वहां पहुंचता हूं. मैं बात करता हूं उस से.’’

घटनाक्रम इतनी जल्दी बदल जाएगा किस ने सोचा था. मैं जो खुद अपने घर आना नहीं चाहता अब अपने से 8 साल छोटी लड़की से पूछने जा रहा हूं कि वह घर क्यों नहीं आती? कैसी विडंबना है न, जिस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है उसी सवाल का जवाब उस से पूछने जा रहा हूं.  जब मैं विनय और अणिमा के पास पहुंचा तब तक पापा घर के लिए निकल चुके थे. विभा आंटी भी पापा के साथ लौट चुकी थीं. अणिमा वहां विनय के साथ थी.

‘‘वह घर मेरा नहीं है विनय भैया. देखा न मेरी मां उस आदमी के साथ चली भी गईं. मेरी चिंता नहीं है उन्हें. अनुज की मां तो उसे मर कर छोड़ गईं, मेरी मां तो मुझे जिंदा ही छोड़ गईं. अब मां मुझे प्यार नहीं करतीं. अनुज घर नहीं आता तो क्या मेरा दोष है? उस के कमरे में मत जाओ, उस की चीजों को मत छेड़ो, मेरा घर कहां है, विनय भैया. घर तो मेरी मां को मिला है न, मुझे नहीं. मेरे अपने पिता का घर है न यह. मैं यहीं रहूंगी अपने घर में. नहीं जाऊंगी वहां.’’

दरवाजे की ओट में बस खड़ा का खड़ा रह गया मैं. इस की पीड़ा मेरी ही तो पीड़ा है न. काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. किस शब्दकोष का सहारा ले कर इस लड़की को समझाऊं. गलत तो कहीं नहीं है न यह लड़की. सब को अपनी ही पीड़ा बड़ी लगती है. मैं सोच रहा था मेरा घर कहीं नहीं रहा और यह लड़की अणिमा भी तो सही कह रही है न.

‘‘आसान नहीं है पराए घर में जा कर रहना. वह उन का घर है, मेरा नहीं. मैं यहां रहूं तो अनुज के पापा को क्या समस्या है?’’

‘‘तुम अकेली कैसे रह सकती हो यहां?’’

‘‘क्यों नहीं रह सकती. यह मेरा कमरा है. यह मेरा सामान है.’’

‘‘वह घर भी तुम्हारा ही है, अणिमा.’’

विनय अपनी चचेरी बहन अणिमा को समझा रहा था और वह समझना नहीं चाह रही थी. जैसे किसी और में मां को देखना मेरे लिए मुश्किल है उसी तरह मेरे पिता को अपना पिता बना लेना इस के लिए भी आसान नहीं हो सकता. भारी कदमों से सामने चला आया मैं. कुछ कहतीकहती रुक गई अणिमा. कितनी बदलीबदली सी लग रही है वह. चेहरे की मासूमियत अब कहीं है ही नहीं. हालात इंसान को समय से पहले ही बड़ा बना देते हैं न. उस की सूजीसूजी आंखें बता रही हैं कि वह बहुत देर से रो रही है. मैं घर नहीं आता हूं तो क्या उस का गुस्सा पापा और दादी इस बच्ची पर उतारते हैं? ठीक ही तो किया इस ने जो घर ही छोड़ कर आ गई. इस की जगह मैं होता तो मैं भी यही करता. ‘‘ओह, आ गए तुम भी.’’

दांत पीस कर कहा अणिमा ने. मेरे लिए उस के मन में उमड़ताघुमड़ता जहर जबान पर न आ जाए तो क्या करे.

इस रिश्ते में तो कुछ भी सामान्य नहीं है. इस रिश्ते को बचाने के लिए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. अणिमा मेरी बहन नहीं थी लेकिन इसे अपनी बहन मानना पड़ेगा मुझे. स्नेह दे कर अपना बनाना होगा मुझे. यही मेरी न हो पाई तो विभा आंटी भी मेरी मां कभी नहीं बन सकेंगी. कब तक वे भी इस घर और उस घर में सेतु का काम कर पाएंगी. पास आ कर अणिमा के सिर पर हाथ रखा मैं ने. झरझर बह चली उस की आंखें जैसे पूछ रही हों मुझ से, ‘अब और क्या करूं मैं?’

‘‘मैं राखी पर नहीं आया, वह मेरी भूल थी. अब आया हूं तो क्या तुम यहां छिपी रहोगी. तिलक नहीं लगाओगी मुझे?’’

विनय भीगी आंखों से मुझे देख रहा था, मानो कह रहा हो जहां तक उसे करना था उस ने किया, इस से आगे तो जो करना है मुझे ही करना है.  अणिमा को अपनी छाती से लगा लिया तो नन्ही सी बालिका की तरह जारजार रो पड़ी वह. उस की भावभंगिमा समझ पा रहा था मैं. अपने हिस्से की कोशिश तो वह कर चुकी है. अब बाकी तो मेरे हिस्से की कोशिश है.

‘‘अपने घर चलो, अणिमा. यह घर भी तुम्हारा है, पगली. लेकिन उस घर में हमें तुम्हारी ज्यादा जरूरत है. मैं तुम सब से दूर रहा वह मेरी गलती थी. अब आया हूं तो तुम तो दूर मत रहो.  ‘‘मां से सदा बहन मांगा करता था. कुछ खो कर कुछ पाना ही शायद मेरे हिस्से में लिखा था इस तरह. तो इसी तरह ही सही, अणिमा के आंसू पोंछ मैं ने उस का मस्तक चूम लिया. जिस ममत्व से वह मेरे गले लगी थी उस से यह आभास पूर्ण रूप से हो रहा था मुझे कि देर हुई है तो मेरी ही तरफ से हुई है. अणिमा तो शायद पहले ही दिन से मुझे अपना मान चुकी थी. Family Story in Hindi

Social Story: चालाक कठपुतली

Social Story: ‘‘क्या हुआ? कुछ पता चला क्या?’’ अपने पुत्र सोमेश और पति वीरेंद्र को देखते ही बिलख उठी थीं दामिनी. सोमेश ने मां की दशा देख कर अपनी डबडबा आई आंखों को छिपाने के लिए मुंह फेर लिया था.

‘‘लता अब नहीं आएगी,’’ आराम- कुरसी पर पसरते हुए दामिनी से बोल कर शून्य में टकटकी लगा दी थी वीरेंद्र बाबू ने.

‘‘क्या कह रहे हो जी? क्यों नहीं आएगी लता? मैं अपनी बेटी को बहुत भली प्रकार से जानती हूं. वह अधिक दिनों तक अपनी मां से दूर नहीं रह सकती,’’ दामिनी अवरुद्ध कंठ से बोलीं.

‘‘मैं सब जानतासमझता हूं पर यह समझ में नहीं आता कि तुम्हारी लाड़ली को कहां से ले आऊं. पता नहीं लता को आसमान खा गया या जमीन निगल गई. मैं दसियों चक्कर तो थाने के लगा चुका. पर हर बार एक ही उत्तर, ‘प्रयत्न कर रहे हैं, हम पुलिस वाले भी इनसान ही हैं. जान की बाजी लगा दी है हम ने, पर हम लता को नहीं ढूंढ़ पाए. पुलिस के पास क्या कोई जादू की छड़ी है कि पलक झपकते ही आप की बेटी को प्रस्तुत कर दे?’ पुलिस को वैसे भी छोटेबड़े सैकड़ों काम होते हैं,’’ वीरेंद्र बाबू धाराप्रवाह बोल कर चुप हो गए थे.

घर में शांति थी. सदा चहकती रहने वाली उन की छोटी बेटी रेनू देर तक सुबकती रही थी.  ‘‘बंद करो यह रोनाधोना, तुम सब को जरूरत से अधिक छूट देने का ही यह फल है जो हमें आज यह दिन देखना पड़ रहा है. मैं तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा,’’ वीरेंद्र बाबू स्वयं पर नियंत्रण खो बैठे थे. रेनू का रुदन कुछ और ऊंचा हो गया था.

‘‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे,’’ दौड़ती हुई दामिनी पति के पास आईं और बोलीं, ‘‘जहां क्रोध दिखाना चाहिए वहां से तो दुम दबा कर चले आते हो. सारा क्रोध बस घर वालों के लिए है.’’

‘‘क्या करूं? तुम ही कहो न. वैसे भी तुम तो खुद भी बहुत कुछ कर सकती हो. तुम जैसी तेजतर्रार महिला के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है. जाओ, जा कर दुनिया फूंक डालो या किसी का खून कर दो,’’ वीरेंद्र बाबू इतनी जोर से चीखे थे कि दामिनी भी घबरा कर चुप हो गई थीं.  फिर अचानक मानो बांध टूट गया हो. वीरेंद्र बाबू फूटफूट कर रो पड़े थे.

रेनू दौड़ कर आई थी और पिता को सांत्वना देने लगी.  ‘‘ऐसे दिल छोटा नहीं करते जी, सब ठीक हो जाएगा. हमारी लता को कुछ नहीं होगा,’’ दामिनी बोलीं.

रेनू लपक कर चाय बना लाई थी. मानमनुहार कर के मातापिता को चाय थमा दी थी. तभी प्रभात ने वहां प्रवेश किया था.

‘‘रेनू, मुझे भी एक कप चाय मिल जाती तो…आज सुबह से कुछ नहीं खाया है,’’ प्रभात इतने निरीह स्वर में बोला था कि रेनू ने अपने लिए बनाई चाय उसे थमा कर बिस्कुट की प्लेट आगे बढ़ा दी थी.

‘‘मां, स्वयं को संभालो. 4 दिन से घर में चूल्हा नहीं जला है. कब तक मित्रों, संबंधियों द्वारा भेजा खाना खाते रहेंगे? अगले सप्ताह से मेरी और रेनू दोनों की परीक्षाएं प्रारंभ हो रही हैं. दिन भर घर में रोनाधोना चलता रहा तो सबकुछ चौपट हो जाएगा,’’ प्रभात ने अपनी मां दामिनी को समझाना चाहा था.

‘‘चौपट होने में अब बचा ही क्या है. 4 दिन से मेरी बेटी का पता नहीं है और तुम मुझे स्वयं को संभालने की सलाह दे रहे हो? कोई और भाई होता तो बहन को ढूंढ़ने के लिए दिनरात एक कर देता.’’

‘‘क्या चाहती हैं आप. लतालता चिल्लाता हुआ सड़कों पर चीखूं, चिल्लाऊं? या मैं भी घर छोड़ कर चला जाऊं? सच कहूं तो जो हुआ उस सब के लिए आप और पापा दोनों ही दोषी हैं. जिस राह पर लता चल रही थी उस पर चलने का अंजाम और क्या होना था?’’

‘‘शर्म नहीं आती, भाई हो कर बहन पर दोषारोपण करते हुए? वह क्या सबकुछ अपने लिए कर रही थी. कितने सपने थे उस के, अपने और अपने परिवार को ऊपर उठाने के. सदा एक ही बात कहती थी… परिवार को ऊपर उठाने के लिए संपर्कों की आवश्यकता होती है. उस का उठनाबैठना बड़े लोगों के बीच था.’’

‘‘तो जाइए न उन बड़े लोगों के पास लता को ढूंढ़ने में सहायता की भीख मांगने. जो संपर्क कठिन समय में भी काम न आएं वे भला किस काम के?’’ तीखे स्वर में बोल पैर पटकता हुआ प्रभात अपने कक्ष में चला गया था.

उस के पीछे सोमेश भी गया था. वह किसी प्रकार प्रभात और रेनू को समझाबुझा कर उन का ध्यान पढ़ाई की ओर लगाना चाहता था.

मेज पर सिर रखे सुबकते प्रभात के सिर को सहलाते हुए उस ने सांत्वना देनी चाही थी. स्नेहिल स्पर्श पाते ही उस ने सिर उठाया था.  ‘‘स्वयं को संभालो मेरे भाई. वास्त- विकता को स्वीकार कर लेने से आधी समस्या हल हो जाती है,’’ सोमेश ने सामने पड़ी कुरसी पर बैठते हुए कहा था.

‘‘कैसी वास्तविकता, भैया?’’ प्रभात ने पूछा.

‘‘यही कि लता के लौटने की आशा नहीं के बराबर है. वह अवश्य ही किसी हादसे की शिकार हो गई है. नहीं तो 4-5 दिन तक लता घर न लौटे ऐसा क्या संभव है? मांपापा भी इस बात को समझते हैं, पर स्वीकार नहीं कर पा रहे.’’

‘‘अब क्या होगा, भैया?’’

‘‘जो भी होगा मैं और पापा संभाल लेंगे. पर मैं नहीं चाहता कि तुम या रेनू अपनी पढ़ाई छोड़ कर 1 वर्ष बरबाद कर दो.’’

‘‘आप ही बताइए, मैं क्या करूं… किताब खोलते ही लता दीदी का चेहरा सामने घूमने लगता है.’’

‘‘मन तो लगाना ही पड़ेगा. मैं तो खास कुछ कर नहीं सका. पढ़ाईलिखाई में कभी मन ही नहीं लगा. पर तुम तो मेधावी छात्र हो. मेरी तो छोटी सी नौकरी है…चाह कर भी किसी की खास सहायता नहीं कर पाता. अब मैं चलता हूं. तुम भी अपनी किताबें आदि संभाल लो और कल से कालेज जाना प्रारंभ करो.’’  धीरज रखने का पाठ पढ़ा कर सोमेश चला गया था. मन न होने पर भी प्रभात ने किताब खोल ली थी. पर हर पृष्ठ पर लता का ही छायाचित्र नजर आ रहा था.

किसी तरह प्रथम श्रेणी में एम.ए. करते ही लता को स्थानीय कालेज में व्याख्याता के पद पर अस्थायी नियुक्ति मिल गई थी. पर उस को इतने से ही संतोष कहां था. हर कार्य में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना या यों कहें हर स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में उसे महारत हासिल थी. कोल्हू के बैल की तरह काम करने में उस का विश्वास नहीं था. काम दूसरे करें और प्रस्तुतीकरण वह, लता तो इसी शैली की कायल थी, जिस से सब की नजरों में बनी रहे.

कालेज के स्थापना दिवस समारोह में जब उसी क्षेत्र के विधायक और राज्य सरकार के मंत्री नवीन राय पधारे तो प्रधानाचार्य महोदय ने उन के स्वागत- सत्कार का जिम्मा लता के कंधों पर डाल दिया था.  लता तो कल्पना लोक की सैर पर निकल पड़ी थी. अब उस के पांव धरती पर टिकते ही नहीं थे.  उस ने अपने स्वागतसत्कार से नवीन राय पर ऐसी छाप छोड़ी थी कि शहर में 2 दिन के लिए आए मंत्री महोदय 10 दिन तक वहीं टिके रहे थे.

हर रोज जब लालबत्ती वाली मंत्री की गाड़ी लता को घर छोड़ने आती तो दामिनी गर्व से फूल उठतीं. वे आ कर बेटी के स्वागत के लिए द्वार पर खड़ी हो जातीं. पर साथ ही आसपड़ोस की सब खिड़कियां खुल जातीं और विस्फारित नेत्र टकटकी लगा कर पूरे दृश्य को आत्मसात करने लगते थे. ‘‘मां, कैसे संकीर्ण विचारों वाले लोग रहते हैं इस महल्ले में. मेरे आते ही खिड़की या बालकनी में खड़े हो कर ऐसे घूरने लगते हैं जैसे लाल बत्ती वाली गाड़ी कभी किसी ने देखी नहीं,’’ एक दिन घर पहुंचते ही बिफर उठी थी लता.

‘‘गोली मारो इन सब को. सब के सब जलते हैं हम से. चलो, खाना खा लो,’’ दामिनी ने समझाया था.

‘‘खाना तो मैं खा कर आई हूं मां पर अब इस संकीर्ण विचारों वाले महल्ले में मेरा दम घुटने लगा है,’’ लता सामने पड़ी आरामकुरसी पर ही पसर गई थी.

‘‘चलो, लता तो खा कर आई है. आजकल इसे घर का खाना अच्छा कहां लगता है,’’ सोमेश ने व्यंग्य किया था.

‘‘तो आज सोमेश भैया आए हुए हैं. क्यों, क्या बात है, आज भाभी ने खाना नहीं बनाया क्या?’’ लता ने नजरें घुमाई थीं.

‘‘मैं खाना खाने नहीं, तुम से मिलने आया हूं. आजकल शहर में बड़ी चर्चा है तुम्हारी. मैं ने सोचा आज स्वयं चल कर देख लूं,’’ सोमेश रूखे स्वर में बोला था.

‘‘तो देख लिया न भैया, पड़ोसी और मित्र तो तरहतरह की बातें कर ही रहे हैं…आप भी अपनी इच्छा पूरी कर लो,’’ लता ने उत्तर दिया था.  ‘‘लता, मुझ में और पड़ोसियों में कुछ तो अंतर किया होता. मैं तुम्हारा बुरा चाहूंगा, ऐसा कहते हुए तुम्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ?’’ सोमेश भीगे स्वर में बोला था.

‘‘तुम ने तो विवाह होते ही अलग घर बसा लिया. लता बेचारी अपने बल पर आगे बढ़ना चाहती है तो तुम्हें उस पर भी आपत्ति है,’’ उत्तर लता ने नहीं दामिनी ने दिया था.

‘‘मां, अलग घर बसाने का आदेश भी आप का ही था. मैं ने मीनू से विवाह आप की इच्छा से ही किया था फिर भी यथा- शक्ति आप सब की मदद करता हूं मैं.’’  ‘‘क्या करती बेटे. दिनरात की कलह से त्रस्त आ कर ही मैं ने तुम से अलग होने को कहा था. पर अब अच्छा यही होगा कि व्यर्थ ही दूसरों के मामले में टांग अड़ाना बंद करो,’’ दामिनी तीखे स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, लता मेरी बहन है और उसे विनाश की राह पर जाने से रोकना मेरा कर्तव्य है. मैं इस समय लता से बात कर रहा हूं. आप बीच में न बोलें.’’

‘‘भैया ठीक कह रहे हैं. मेरे मित्र कटाक्ष करते हैं, ताने मारते हैं. आज मेरा मित्र अरुण उपहास करते हुए कह रहा था कि अब तो तुम्हारी बहन मंत्रीजी के साथ घूमती है. करोड़पति बनते देर नहीं लगेगी,’’ प्रभात ने सोमेश की हां में हां मिलाई थी.

‘‘सोमेश भैया और प्रभात, तुम्हें अपनी बहन पर विश्वास हो न हो, मुझे खुद पर विश्वास है. मैं आप को आश्वासन देती हूं कि कभी गलत राह पर पैर न रखूंगी,’’ लता ने सोमेश और प्रभात को समझाया था. पर बात सोमेश के गले नहीं उतरी थी. वह भीतरी कक्ष में टेलीविजन के चैनल बदलने में व्यस्त वीरेंद्र बाबू के पास पहुंचा था  ‘‘पापा, आप सदा समस्या को सामने खड़ा देख कर शुतुरमुर्ग की तरह मुंह क्यों छिपा लेते हैं…किंतु इस समय यदि आप चुप रह गए तो सर्वनाश हो जाएगा,’’ सोमेश ने अनुनय की थी. पर वीरेंद्र बाबू ने कुछ नहीं कहा.  हार कर सोमेश चला गया था. प्रभात और रेनू अपनी पढ़ाई में मन लगाने का प्रयत्न करने लगे थे.  ‘‘पता नहीं भैया को क्या हो गया है? मंत्री महोदय तो बड़े ही सज्जन व्यक्ति हैं. सभी उन का सम्मान करते हैं. आज ही कह रहे थे कि कब तक इस अस्थायी पद पर कार्य करती रहोगी. दिल्ली चली आओ. अच्छे से अच्छे कालेज में नियुक्ति हो जाएगी वहां. साथ ही राजनीति के गुर भी सीख लेना. फिर देखना मैं तुम्हें कहां से कहां पहुंचाता हूं,’’ लता ने बड़ी प्रसन्नता से बताया था.

‘‘तू चिंता मत कर बेटी. मैं तेरे साथ हूं. पर एक बात कहे देती हूं, राजधानी जाना पड़ा तो मैं तेरे साथ चलूंगी. अकेले नहीं जाने दूंगी तुझे,’’ दामिनी बड़े लाड़ से बोली थीं.

‘‘अरे मां, तुम तो व्यर्थ ही परेशान होती हो. कहने और करने में बहुत अंतर होता है. नेता लोग बहुत से आश्वासन देते रहते हैं पर सभी पूरे थोड़े ही होते हैं,’’ लता लापरवाही से बोली थी और सोने चली गई थी. पर दामिनी देर तक स्वप्नलोक में डूबी रही थीं. उन्हें लता के रूप में सुनहरा भविष्य बांहें पसारे सामने खड़ा प्रतीत हो रहा था.  पर लता की आशा के विपरीत मंत्री महोदय ने राजधानी पहुंचते ही एक कन्या महाविद्यालय में उस की स्थायी नियुक्ति करवा कर नियुक्तिपत्र भेज दिया था.  कई दिनों तक घर में उत्सव का सा वातावरण रहा था. बधाई देने वालों का तांता लगा रहा था. सोमेश को भी लगा कि लता को अच्छा अवसर मिला है और उस का जीवन व्यवस्थित हो जाएगा.

शीघ्र ही मांबेटी ने अपना बिस्तर बांध लिया था. राजधानी पहुंचते ही लता ने अपना नया पद ग्रहण कर लिया था. उधर दामिनी को अपना घर छोड़ कर लता के साथ रहना भारी पड़ने लगा था. यों भी नवीन राय के साथ लता का घूमनाफिरना उन्हें रास नहीं आ रहा था.  दामिनी ने कई बार लता को समझाया कि अब तो स्थायी नियुक्ति मिल गई है. नवीन राय से किनारा करने में ही भलाई है. पर वह मां की सलाह सुनते ही बिफर उठती थी. दामिनी बेटी के आगे असहाय सी हो गई थीं. कुछ करने की स्थिति में नहीं थीं.

रेनू और प्रभात की परीक्षा निकट आई तो वे अपने शहर लौट गईं. कुछ दिनों तक लता के फोन आते रहे थे. फिर फोन वार्त्तालाप के बीच की दूरियां बढ़ने लगी थीं. दामिनी फोन करतीं तो वह व्यस्तता का बहाना बना देती थी.

फिर अचानक एक दिन लता सबकुछ छोड़ कर वापस लौट आई थी. दामिनी के पैरों तले से जमी  निकल गई थी. उस को देखते ही वे सबकुछ भांप गई थीं.

‘‘घर से निकलने की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारे पापा और भाइयों को इस की भनक भी नहीं लगनी चाहिए. मैं सब संभाल लूंगी. हो जाती हैं ऐसी गलतियां कभीकभी. उस के लिए कोई अपना जीवन तो बरबाद नहीं कर देता,’’ उन्होंने लता को चुपचाप समझा दिया था.  उन्होंने एक नर्सिंग होम में सारा प्रबंध भी कर दिया था. पर कुछ हो पाता उस से पहले ही लता रहस्यमय तरीके से गायब हो गई थी. लता को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया गया पर कोई फल नहीं निकला था. कई माह तक रोनेकलपने के बाद परिवार के सभी सदस्यों ने मन को समझा लिया था कि लता अब इस संसार में नहीं है.  दामिनी लता के लौटने की आशा पूरी तरह त्याग चुकी थीं पर एक दिन लता अचानक लौट आई.

कुछ क्षणों तक तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उन्हें लगा जैसे कि वे कोई सपना देख रही हों. शीघ्र ही वे उसे अंदर के कमरे में ले गईं.

‘‘कहां मर गई थीं तुम? और अब अचानक कहां से प्रकट हो गईं? किसी ने देखा तो नहीं तुम्हें? तुम जानती भी हो कि तुम ने क्या किया है? हम तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. जितने मुंह उतनी ही बातें,’’ दामिनी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी.

‘‘मां, आप अवसर दो तो मैं सब विस्तार से बता दूं,’’ लता ने उन के प्रश्नों की गति पर विराम लगा दिया था.  लता ने जब सारा घटनाक्रम समझाया तो दामिनी की समझ में नहीं आया कि रोएं या हंसें.

‘‘मां, मंत्री महोदय निसंतान थे. अपनी संतान को उन्होंने अपना लिया. वे मुझ से विवाह करने को तैयार नहीं थे. अत: मैं उन्हें छोड़ आई.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रही हूं. तुम तो उन के हाथ की कठपुतली बन गईं. यह भी नहीं सोचा कि हम सब पर क्या बीतेगी?’’ दामिनी बिलख उठी थीं.

‘‘मां, संभालो स्वयं को. यह समय भावुक होने का नहीं है. मैं ने मंत्री महोदय से इतना धन ऐंठ लिया है जितना तुम ने देखा भी नहीं होगा. हम शीघ्र ही यह शहर छोड़ कहीं और जा बसेंगे. अपना जीवन नए सिरे से प्रारंभ करने के लिए.’’

दामिनी ने आंसू पोंछ डाले थे. लता के लिए चायनाश्ता बनाते समय वे एक नई कहानी गढ़ रही थीं जिस से लता के गायब होने और पुन: अवतरित होने की अभूतपूर्व घटना को तर्कसंगत बनाया जा सके. Social Story

Family Story: पिछली जिंदगी की यादें

Family Story: ‘‘रश्मि आंटी ई…ई…ई…’’ यह पुकार सुन कर लगा जैसे यह मेरा सात समंदर पार वैंकूवर में किसी अपने की मिठास भरी पुकार का भ्रम मात्र है. परदेस में भला मुझे कौन पहचानता है?  पीछे मुड़ कर देखा तो एक 30-35 वर्षीय सौम्य सी युवती मुझे पुकार रही थी. चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा. हां अरे, यह तो लिपि है. मेरे चेहरे पर आई मुसकान को देख कर वह अपनी वही पुरानी मुसकान ले कर बांहें फैला कर मेरी ओर बढ़ी.

इतने बरसों बाद मिलने की चाह में मेरे कदम भी तेजी से उस की ओर बढ़ गए. वह दौड़ कर मेरी बांहों में सिमट गई. हम दोनों की बांहों की कसावट यह जता रही थी कि आज के इस मिलन की खुशी जैसे सदियों की बेताबी का परिणाम हो.

मेरी बहू मिताली पास ही हैरान सी खड़ी थी. ‘‘बेटी, कहां चली गई थीं तुम अचानक? कितना सोचती थी मैं तुम्हारे बारे में? जाने कैसी होगी? कहां होगी मेरी लिपि? कुछ भी तो पता नहीं चला था तुम्हारा?’’ मेरे हजार सवाल थे और लिपि की बस गरम आंसुओं की बूंदें मेरे कंधे पर गिरती हुई जैसे सारे जवाब बन कर बरस रही थीं.

मैं ने लिपि को बांहों से दूर कर सामने किया, देखना चाहती थी कि वक्त के अंतराल ने उसे कितना कुछ बदलाव दिया.

‘‘आंटी, मेरा भी एक पल नहीं बीता होगा आप को बिना याद किए. दुख के पलों में आप मेरा सहारा बनीं. मैं इन खुशियों में भी आप को शामिल करना चाहती थी. मगर कहां ढूंढ़ती? बस, सोचती रहती थी कि कभी तो आंटी से मिल सकूं,’’ भरे गले से लिपि बोली.

‘‘लिपि, यह मेरी बहू मिताली है. इस की जिद पर ही मैं कनाडा आई हूं वरना तुम से मिलने के लिए मुझे एक और जन्म लेना पड़ता,’’ मैं ने मुसकरा कर माहौल को सामान्य करना चाहा.

‘‘मां के चेहरे की खुशी देख कर मैं समझ सकती हूं कि आप दोनों एकदूसरे से मिलने के लिए कितनी बेताब रही हैं. आप अपना एड्रैस और फोन नंबर दे दीजिए. मैं मां को आप के घर ले आऊंगी. फिर आप दोनों जी भर कर गुजरे दिनों को याद कीजिएगा,’’ मिताली ने नोटपैड निकालते हुए कहा.

‘‘भाभी, मैं हाउसवाइफ हूं. मेरा घर इस ‘प्रेस्टीज मौल’ से अधिक दूरी पर नहीं है. आंटी को जल्दी ही मेरे घर लाइएगा. मुझे आंटी से ढेर सारी बातें करनी हैं,’’ मुझे जल्दी घर बुलाने के लिए उतावली होते हुए उस ने एड्रैस और फोन नंबर लिखते हुए मिताली से कहा.

‘‘मां, लगता है आप के साथ बहुत लंबा समय गुजारा है लिपि ने. बहुत खुश नजर आ रही थी आप से मिल कर,’’ रास्ते में कार में मिताली ने जिक्र छेड़ा.

‘‘हां, लिपि का परिवार ग्वालियर में हमारा पड़ोसी था. ग्वालियर में रिटायरमैंट तक हम 5 साल रहे. ग्वालियर की यादों के साथ लिपि का भोला मासूम चेहरा हमेशा याद आता है. बेहद शालीन लिपि अपनी सौम्य, सरल मुसकान और आदर के साथ बातचीत कर पहली मुलाकात में ही प्रभावित कर लेती थी.

‘‘जब हम स्थानांतरण के बाद ग्वालियर शासकीय आवास में पहुंचे तो पास ही 2 घर छोड़ कर तीसरे क्वार्टर में चौधरी साहब, उन की पत्नी और लिपि रहते थे. चौधरी साहब का अविवाहित बेटा लखनऊ में सर्विस कर रहा था और बड़ी बेटी शादी के बाद झांसी में रह रही थी,’’ बहुत कुछ कह कर भी मैं बहुत कुछ छिपा गई लिपि के बारे में.

रात को एकांत में लिपि फिर याद आ ग. उन दिनों लिपि का अधिकांश समय अपनी बीमार मां की सेवा में ही गुजरता था. फिर भी शाम को मुझ से मिलने का समय वह निकाल ही लेती थी. मैं भी चौधरी साहब की पत्नी शीलाजी का हालचाल लेने जबतब उन के घर चली जाती थी.

शीलाजी की बीमारी की गंभीरता ने उन्हें असमय ही जीवन से मुक्त कर दिया. 10 वर्षों से रक्त कैंसर से जूझ रही शीलाजी का जब निधन हुआ था तब लिपि एमए फाइनल में थी. असमय मां का बिछुड़ना और सारे दिन के एकांत ने उसे गुमसुम कर दिया था. हमेशा सूजी, पथराई आंखों में नमी समेटे वह अब शाम को भी बाहर आने से कतराने लगी थी. चौधरी साहब ने औफिस जाना आरंभ कर दिया था. उन के लिए घर तो रात्रिभोजन और रैनबसेरे का ठिकाना मात्र ही रह गया था.

लिपि को देख कर लगता था कि वह इस गम से उबरने की जगह दुख के समंदर में और भी डूबती जा रही है. सहमी, पीली पड़ती लिपि दुखी ही नहीं, भयभीत भी लगती थी. आतेजाते दी जा रही दिलासा उसे जरा भी गम से उबार नहीं पा रही थी. दुखते जख्मों को कुरेदने और सहलाने के लिए उस का मौन इजाजत ही नहीं दे रहा था.

मुझे लिपि में अपनी दूर ब्याही बेटी  अर्पिता की छवि दिखाई देती थी.  फिर भला उस की मायूसी मुझ से कैसे बर्दाश्त होती? मैं ने उस की दीर्घ चुप्पी के बावजूद उसे अधिक समय देना शुरू कर दिया था. ‘बेटी लिपि, अब तुम अपने पापा की ओर ध्यान दो. तुम्हारे दुखी रहने से उन का दुख भी बढ़ जाता है. जीवनसाथी खोने का गम तो है ही, तुम्हें दुखी देख कर वे भी सामान्य नहीं हो पा रहे हैं. अपने लिए नहीं तो पापा के लिए तो सामान्य होने की कोशिश करो,’ मैं ने प्यार से लिपि को सहलाते हुए कहा था.

पापा का नाम सुनते ही उस की आंखों में घृणा का जो सैलाब उठा उसे मैं ने साफसाफ महसूस किया. कुछ न कह पाने की घुटन में उस ने मुझे अपलक देखा और फिर फूटफूट कर रोने लगी. मेरे बहुत समझाने पर हिचकियां लेते हुए वह अपने अंदर छिपी सारी दास्तान कह गई, ‘आंटी, मैं मम्मी के दुनिया से जाते ही बिलकुल अकेली हो गई हूं. भैया और दीदी तेरहवीं के बाद ही अपनेअपने शहर चले गए थे. मां की लंबी बीमारी के कारण घर की व्यवस्थाएं नौकरों के भरोसे बेतरतीब ही थीं. मैं ने जब से होश संभाला, पापा को मम्मी की सेवा और दवाओं का खयाल रखते देखा और कभीकभी खीज कर अपनी बदकिस्मती पर चिल्लाते भी.

‘मेरे बड़े होते ही मम्मी का खयाल स्वत: ही मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया. पापा के झुंझलाने से आहत मम्मी मुझ से बस यही कहती थीं कि बेटी, मैं बस तुम्हें ससुराल विदा करने के लिए ही अपनी सांसें थामे हूं. वरना अब मेरा जीने का बिलकुल भी जी नहीं करता. लेकिन मम्मी मुझे बिना विदा किए ही दुनिया से विदा हो गईं.

‘पापा को मैं ने पहले कभी घर पर शराब पीते नहीं देखा था लेकिन अब पापा घर पर ही शराब की बोतल ले कर बैठ जाते हैं. जैसेजैसे नशा चढ़ता है, पापा का बड़बड़ाना भी बढ़ जाता है. इतने सालों से दबाई अतृप्त कामनाएं, शराब के नशे में बहक कर बड़बड़ाने में और हावभावों से बाहर आने लगती हैं. पापा कहते हैं कि उन्होंने अपनी सारी जवानी एक जिंदा लाश को ढोने में बरबाद कर दी. अब वे भरपूर जीवन जीना चाहते हैं. रिश्तों की गरिमा और पवित्रता को भुला कर वासना और शराब के नशे में डूबे हुए पापा मुझे बेटी के कर्तव्यों के निर्वहन का पाठ पढ़ाते हैं.

‘मेरे आसपास अश्लील माहौल बना कर मुझे अपनी तृप्ति का साधन बनाना चाहते हैं. वे कामुक बन मुझे पाने का प्रयास करते हैं और मैं खुद को इस बड़े घर में बचातीछिपाती भागती हूं. नशे में डूबे पापा हमारे पवित्र रिश्ते को भूल कर खुद को मात्र नर और मुझे नारी के रूप में ही देखते हैं.

‘अब तो उन के हाथों में बोतल देख कर मैं खुद को एक कमरे में बंद कर लेती हूं. वे बाहर बैठे मुझे धिक्कारते और उकसाते रहते हैं और कुछ देर बाद नींद और नशे में निढाल हो कर सो जाते हैं. सुबह उठ कर नशे में बोली गई आधीअधूरी याद, बदतमीजी के लिए मेरे पैरों पर गिर कर रोरो कर माफी मांग लेते हैं और जल्दी ही घर से बाहर चले जाते हैं.

‘ऊंचे सुरक्षित परकोटे के घर में मैं सब से सुरक्षित रिश्ते से ही असुरक्षित रह कर किस तरह दिन काट रही हूं, यह मैं ही जानती हूं. इस समस्या का समाधान मुझे दूरदूर तक नजर नहीं आ रहा है,’ कह कर सिर झुकाए बैठ गई थी लिपि. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी थी.

मैं सुन कर आश्चर्यचकित थी कि चौधरी साहब इतना भी गिर सकते हैं. लिपि अपने अविवाहित भाई रौनक के पास भी नहीं जा सकती थी और झांसी में उस की दीदी अभी संयुक्त परिवार में अपनी जगह बनाने में ही संघर्षरत थी. वहां लिपि का कुछ दिन भी रह पाना मुश्किल था.  घबरा कर लिपि आत्महत्या जैसे कायरतापूर्ण अंजाम का मन बनाने लगी थी. लेकिन आत्महत्या अपने पीछे बहुत से अनुत्तरित सवाल छोड़ जाती है, यह समझदार लिपि जानती थी. मैं ने उसे चौधरी साहब और रौनक के साथ गंभीरतापूर्वक बात कर उस के विवाह के बाद एक खुशहाल जिंदगी का ख्वाब दिखा कर उसे दिलासा दी. अब मैं उसे अधिक से अधिक समय अपने साथ रखने लगी थी.  मुझे अपनी बेटी की निश्चित डेट पर हो रही औपरेशन द्वारा डिलीवरी के लिए बेंगलुरु जाना था. मैं चिंतित थी कि मेरे यहां से जाने के बाद लिपि अपना मन कैसे बहलाएगी?

यह एक संयोग ही था कि मेरे बेंगलुरु जाने से एक दिन पहले रौनक लखनऊ से घर आया. मेरे पास अधिक समय नहीं था इसलिए मैं उसे निसंकोच अपने घर बुला लाई. एक अविवाहित बेटे के पिता की विचलित मानसिकता और उन की छत्रछाया में पिता से असुरक्षित बहन का दर्द कहना जरा मुश्किल ही था, लेकिन लिपि के भविष्य को देखते हुए रौनक को सबकुछ थोड़े में समझाना जरूरी था.  सारी बात सुन कर उस का मन पिता के प्रति आक्रोश से?भर उठा. मैं ने उसे समझाया कि वह क्रोध और जोश में नहीं बल्कि ठंडे दिमाग से ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचे जो लिपि के लिए सुरक्षित और बेहतर हो.

अगली सुबह मैं अकेली बेंगलुरु के लिए रवाना हो गई थी और जा कर अर्पिता की डिलीवरी से पूर्व की तैयारी में व्यस्त हो गई थी कि तीसरे दिन मेरे पति ने फोन पर बताया कि तुम्हारे जाने के बाद अगली शाम रौनक लिपि को झांसी भेजने के लिए स्टेशन गया था कि पीछे घर पर अकेले बैठे चौधरी साहब की हार्टअटैक से मृत्यु हो गई.

रौनक को अंदर से बंद घर में पापा टेबल से टिके हुए कुरसी पर बैठे मिले. बेचारे चौधरी साहब का कुछ पढ़ते हुए ही हार्ट फेल हो गया. लिपि और उस की बहन भी आ गई हैं. चौधरी साहब का अंतिम संस्कार हो गया है और मैं कल 1 माह के टूर पर पटना जा रहा हूं.’

चौधरी साहब के निधन को लिपि के लिए सुखद मोड़ कहूं या दुखद, यह तय नहीं कर पा रही थी मैं. तब फोन भी हर घर में कहां होते थे. मैं कैसे दिलासा देती लिपि को? बेचारी लिपि कैसे…कहां… रहेगी अब? उत्तर को वक्त के हाथों में सौंप कर मैं अर्पिता और उस के नवजात बेटे में व्यस्त हो गई थी.

3माह बाद ग्वालियर आई तो चौधरी साहब के उजड़े घर को देख कर मन में एक टीस पैदा हुई. पति ने बताया कि रौनक चौधरी साहब की तेरहवीं के बाद घर के अधिकांश सामान को बेच कर लिपि को अपने साथ ले गया है. मैं उस वक्त टूर पर था, इसलिए जाते वक्त मुलाकात नहीं हो सकी और उन का लखनऊ का एड्रैस भी नहीं ले सका.

लिपि मेरे दिलोदिमाग पर छाई रही लेकिन उस से मिलने की अधूरी हसरत इतने सालों बाद वैंकूवर में पूरी हो सकी.  सोमवार को नूनशिफ्ट जौइन करने के लिए तैयार होते समय मिताली ने कहा, ‘‘मां, मेरी लिपि से फोन पर बात हो गई है. मैं आप को उस के यहां छोड़ देती हूं. आप तैयार हो जाइए. वह आप को वापस यहां छोड़ते समय घर भी देख लेगी.’’

लिपि अपने अपार्टमैंट के गेट पर ही हमारा इंतजार करती मिली. मिताली के औफिस रवाना होते ही लिपि ने कहा, ‘‘आंटी, आप से ढेर सारी बातें करनी हैं. आइए, पहले इस पार्क में धूप में बैठते हैं. मैं जानती हूं कि आप तब से आज तक न जाने कितनी बार मेरे बारे में सोच कर परेशान हुई होंगी.’’

‘‘हां लिपि, चौधरी साहब के गुजरने के बाद तुम ग्वालियर से लखनऊ चली गई थीं, फिर तुम्हारे बारे में कुछ पता ही नहीं चला. चौधरी साहब की अचानक मृत्यु ने तो हमें अचंभित ही कर दिया था. प्रकृति की लीला बड़ी विचित्र है,’’ मैं ने अफसोस के साथ कहा.

‘‘आंटी जो कुछ बताया जाता है वह हमेशा सच नहीं होता. रौनक भैया उस दिन आप के यहां से आ कर चुप, पर बहुत आक्रोशित थे. पापा ने रात को शराब पी कर भैया से कहा कि अब तुम लिपि को समझाओ कि यह मां के गम में रोनाधोना भूल कर मेरा ध्यान रखे और अपनी पढ़ाई में मन लगाए.

‘‘सुन कर भैया भड़क गए थे. पापा के मेरे साथ ओछे व्यवहार पर उन्होंने पापा को बहुत खरीखोटी सुनाईं और कलियुगी पिता के रूप में उन्हें बेहद धिक्कारा. बेटे से लांछित पापा अपनी करतूतों से शर्मिंदा बैठे रह गए. उन्हें लगा कि ये सारी बातें मैं ने ही भैया को बताई हैं.

‘‘भैया की छुट्टियां बाकी थीं लेकिन वे मुझे झांसी दीदी के पास कुछ दिन भेज कर किसी अन्य शहर में मेरी शिक्षा और होस्टल का इंतजाम करना चाहते थे. वे मुझे झांसी के लिए स्टेशन पर ट्रेन में बिठा कर वापस घर पहुंचे तो दरवाजा अंदर से बंद था.

‘‘बारबार घंटी बजाने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो भैया पीछे आंगन की दीवार फांद कर अंदर पहुंचे तो पापा कुरसी पर बैठे सामने मेज पर सिर के बल टिके हुए मिले. उन के सीधे हाथ में कलम था और बाएं हाथ की कलाई से खून बह रहा था. भैया ने उन्हें बिस्तर पर लिटाया. तब तक उन के प्राणपखेरू उड़ चुके थे. भैया ने डाक्टर अंकल और झांसी में दीदी को फोन कर दिया था. पापा ने शर्मिंदा हो कर आत्महत्या करने के लिए अपने बाएं हाथ की कलाई की नस काट ली थी और फिर मेरे और भैया के नाम एक खत लिखना शुरू किया था. ‘‘होश में रहने तक वे खत लिखते रहे, जिस में वे केवल हम से माफी मांगते रहे. उन्हें अपने किए व्यवहार का बहुत पछतावा था. वे अपनी गलतियों के साथ और जीना नहीं चाहते थे. पत्र में उन्होंने आत्महत्या को हृदयाघात से स्वाभाविक मौत के रूप में प्रचारित करने की विनती की थी.

‘‘भैया ने डाक्टर अंकल से भी आत्महत्या का राज उन तक ही सीमित रखने की प्रार्थना की और छिपा कर रखे उन के सुसाइड नोट को एक बार मुझे पढ़वा कर नष्ट कर दिया था.

‘‘हम दोनों अनाथ भाईबहन शीघ्र ही लखनऊ चले गए थे. मैं अवसादग्रस्त हो गई थी इसलिए आप से भी कोई संपर्क नहीं कर पाई. भैया ने मुझे बहुत हिम्मत दी और मनोचिकित्सक से परामर्श किया. लखनऊ में हम युवा भाईबहन को भी लोग शक की दृष्टि से देखते थे लेकिन तभी अंधेरे में आशा की किरण जागी. भैया के दोस्त केतन ने भैया से मेरा हाथ मांगा. सच कहूं, तो आंटी केतन का हाथ थामते ही मेरे जीवन में खुशियों का प्रवेश हो गया. केतन बहुत सुलझे हुए व्यक्ति हैं. मेरे दुख और एकाकीपन से उबरने में उन्होंने मुझे बहुत धैर्य से प्रेरित किया. मेरे दुख का स्वाभाविक कारण वे मम्मीपापा की असामयिक मृत्यु ही मानते हैं.

‘‘मैं ने अपनी शादी का कार्ड आप के पते पर भेजा था. लेकिन बाद में पता चला कि अंकल के रिटायरमैंट के बाद आप लोग वहां से चले गए थे. मैं और केतन 2 वर्ष पहले ही कनाडा आए हैं. अब मैं अपनी पिछली जिंदगी की सारी कड़ुवाहटें भूल कर केतन के साथ बहुत खुश हूं. बस, एक ख्वाहिश थी, आप से मिल कर अपनी खुशियां बांटने की. वह आज पूरी हो गई. आप के कंधे पर सिर रख कर रोई हूं आंटी. खुशी से गलबहियां डाल कर आप को भी आनंदित करने की चाह आज पूरी हो गई.’’

लिपि यह कह कर गले में बांहें डाल कर मुग्ध हो गई थी. मैं ने उस की बांहों को खींच लिया, उस की खुशियों को और करीब से महसूस करने के लिए.

‘‘आंटी, मैं पिछली जिंदगी की ये कसैली यादें अपने घर की दरोदीवार में गूंजने से दूर रखना चाहती हूं, इसलिए आप को यहां पार्क में ले आई थी. आइए, आंटी, अब चलते हैं. मेरे प्यारे घर में केतन भी आज जल्दी आते होंगे, आप से मिलने के लिए,’’ लिपि ने उत्साह से कहा और मैं उठ कर मंत्रमुग्ध सी उस के पीछेपीछे चल दी उस की बगिया में महकते खुशियों के फूल चुनने के लिए family story

Family Drama Story: मैं खुद पर इतराई थी

Family Drama Story: मुकम्मल जहां तो आज तक किसी  को भी नहीं मिला, कहीं कुछ  कमी रह गई तो कहीं कुछ. तुम चाहो तो सारी उम्र गुजार लो, जितनी चाहो कोशिश कर लो…कभी यह दावा नहीं कर सकते कि सब पा लिया है तुम ने.

शुभा का नाम आते ही कितनी यादें मन में घुमड़ने लगीं. मुझे याद है कालेज के दिनों में मन में कितना जोश हुआ करता था. हर चीज के लिए मेरा लपक कर आगे बढ़ना शुभा को अच्छा नहीं लगता था. ठहराव था शुभा में. वह कहती भी थी :

‘जो हमारा है वह हमें मिलेगा जरूर. उसे कोई भी नहीं छीन सकता…और जो हमारा है ही नहीं…अगर नहीं मिल पाया तो कैसा गिलाशिकवा और क्यों रोनाधोना? जो मिला है उस का संतोष मनाना सीखो सीमा. जो खो गया उसे भूल जाओ. वे भी लोग हैं जो जूतों के लिए रोते हैं…उन का क्या जिन के पैर ही नहीं होते.’

बड़ी हैरानी होती थी मुझे कि इतनी बड़ीबड़ी बातें वह कहां से सीखती थी. सीखती थी और उन पर अमल भी करती थी. सीखने को तो मैं भी सीखती थी परंतु अमल करना कभी नहीं सीखा.

‘अपनी खुशी को ऐसी गाड़ी मत बनाओ जो किसी दूसरी गाड़ी के पीछे लगी हो. जबजब सामने वाली गाड़ी अपनी रफ्तार बढ़ाए आप को भी बढ़ानी पड़े. जबजब वह ब्रेक लगाए आप को भी लगाना पड़े, नहीं तो टकरा जाने का खतरा. अपना ही रास्ता स्वयं क्यों नहीं बना लेते कि अपनी मरजी चलाई जा सके. आप की खुशियां किसी दूसरे के हावभाव और किसी अन्य की हरकतों पर निर्भर क्यों हों? आप के किसी रिश्तेदार या मित्र ने आप से प्यार से बात नहीं की तो आप दुखी हो गए. उस का ध्यान कहीं और होगा, हो सकता है उस ने आप को देखा ही न हो. आप ऐसा सोचो ही क्यों, कि उस ने आप को अनदेखा कर दिया है. क्या अपने आप को इतना बड़ा इंसान समझते हो कि हर आनेजाने वाला सलाम ठोकता ही जाए. अपने को इतना ज्यादा महत्त्व देते ही क्यों हो?’

‘आत्मसम्मान नाम की कोई चीज होती है न…क्या नहीं होती?’ मैं पूछती.

‘आत्मसम्मान तब तक आत्मसम्मान है जब तक वह अपनी सीमारेखा के अंदर है, जब वह सामने वाले को दबाने लगे, उस के आत्मसम्मान पर प्रहार करने लगे, तब वह अहम बन जाता है… व्यर्थ की अकड़ बन जाती है और जब दोनों पक्ष दुखी हो जाएं तब समझो आप ने अपनी सीमा पार कर ली. अपने मानसम्मान को अपने तक रखो, किसी दूसरे के गले का फंदा मत बनाओ, समझी न.’

‘कैसे भला?’

‘वह इस तरह कि मैं यह उम्मीद ही क्यों करूं कि तुम मेरी सारी बातें मान ही लो. जरूरी तो नहीं है न कि तुम वही करो जो मैं कहूं. मेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी इच्छा है. ऐसा तो नहीं है न, कि मेरा ही कहा माना जाए. तुम मेरा कहा न मानो तो मेरा आत्मसम्मान ही ठेस खा जाए. तुम्हारा भी तो आत्मसम्मान है. तुम्हें सुनना पसंद है, मुझे नहीं. जरूरी तो नहीं कि तुम मेरी खुशी के लिए गजल सुनने लगो ‘हर इंसान का अपना शौक है. अपना स्वाद है. कुदरत ने सब को अलगअलग सांचे में ढाल कर उन का निर्माण किया है. कोई गोरा है, कोई काला है. कोई मोटा है कोई पतला. किसी पर सफेद रंग जंचता है किसी पर काला रंग. अपनीअपनी जगह सब उचित हैं, सब सुंदर हैं. सब का मानसम्मान आदरणीय है, सभी इंसान उचित व्यवहार के हकदार हैं.

‘हम कौन हैं जो किसी को नकार दें या उसे अपने से कम या ज्यादा समझें? अपना सम्मान करो लेकिन दूसरे का सम्मान भी कम मत होने दो. अपनी मरजी चलाओ, लेकिन यह भी ध्यान रखो कि किसी और की मरजी में तो आप का दखल नहीं हो रहा है. सोचो जरा.’

‘आप की दोस्त थी न शुभा,’ मेरे देवर मुझ से पूछ रहे थे.

‘हमारे नए मैनेजर की पत्नी हैं. कल ही हम उन से मिले थे. बातों में बात निकली तो मेरे मुंह से निकल गया कि मेरी भाभी भी जम्मू की हैं. आप का नाम लिया तो इतनी खुश हो गईं कि मेरी बांह ही पकड़ ली. वे तो यह भी भूल गईं कि उन के पति मेरे अफसर हैं. आप को बहुत याद कर रही थीं. बड़ी सीधी सी महिला हैं…बड़ी ही सरल…मेरा पता ले लिया है. कह रही थीं कि जरा घर संभल जाए तो वे आप से मिलने आ जाएंगी.’

सोम शुभा के बारे में बता कर चले गए और मैं सोचने लगी कि क्या सचमुच शुभा मुझ से मिलने आएगी? जब मेरी शादी हुई तब उस के पिताजी का तबादला हो चुका था. मेरी शादी में वह आ नहीं पाई थी और जब उस की शादी हुई थी तो मैं अपने ससुराल में व्यस्त थी. कभीकभार उस की कोई खबर मिल जाती थी. मेरे पति सफल बिजनैसमैन हैं. नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं. यह अलग बात है कि मेज के उस पार बैठने वाले की जरूरत उन्हें कदमकदम पर पड़ती है. मेरे देवर का बैंक में नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया था. चाहते थे वे भी उन के साथ ही हाथ बंटाएं लेकिन देवर की स्पष्टवादिता भी कहीं न कहीं सही थी.

‘नहीं भाई साहब, वेतनभोगी इंसान को अपनी चादर का पता होता है. मैं अपनी चादर का छोटाबड़ा होना पसंद नहीं कर पाऊंगा.’

चादर से याद आया कि शुभा भी कुछ ऐसा ही कहा करती थी. चादर से बाहर पैर पसारना उसे भी पसंद नहीं आता था. मेरे देवर से उस की सोच मिलतीजुलती है. शायद इसीलिए उन्हें भी शुभा अच्छी लगी थी. मेरे पिताजी को भी शुभा बहुत पसंद थी. एक बार तो उन की इच्छा इतनी प्रबल हो गई थी कि उन्होंने शुभा को अपनी बहू बनाने का भी विचार किया था. मेरे भैया अमेरिका से आए थे शादी करने. हमारा घर शुभा के घर से बीस ही था. उन्नीस होते हुए भी शुभा ने मना कर दिया था.

‘अपने देश की मिट्टी छोड़ कर मैं अमेरिका क्यों जाऊं. क्या यहां रोटी नहीं है खाने को?’

‘जिंदगी एक बार मिलती है शुभा, उसे ऐशोआराम से काटना नहीं चाहोगी?’

‘यहां मुझे कोई कमी है क्या? मैं तो बहुत सुखी हूं. प्रकृति ने मेरे हिस्से में जो था, मुझे दे रखा है और वक्त आने पर कल भी मुझे वह सब मिलेगा जिस की मैं हकदार हूं. मैं कुदरत के विरुद्ध नहीं जाना चाहती. उस ने इस मिट्टी में भेजा है तो क्यों कहीं और जाऊं?’ शुभा का साफसाफ इनकार कर देना मुझे चुभ गया था. मेरा आत्म सम्मान, हमारे परिवार का आत्मसम्मान ही मानो छिन्नभिन्न हो गया था. भला, लड़की की क्या औकात जो मना कर दे. मुझे लगा था कि उस ने मेरा अपमान किया है, मेरे भाई का तिरस्कार किया है.

‘रिश्ता विचार मिला कर करना चाहिए, सीमा. समान विचारों वाले इंसान ही साथ रहें तो अच्छा है. सुखी तभी होंगे जब सोच एक जैसी होगी. विपरीत स्वभाव मात्र तनाव और अलगाव पैदा करता है. क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारा भाई दुखी रहे? मैं वैसी नहीं हूं जैसा तुम्हारा भाई है. न मैं चैन से रह पाऊंगी न वही अपना जीवन चैन से बिता पाएगा.’

‘तुम हमारा अपमान कर रही हो, शुभा.’

‘इसे मान व अपमान का प्रश्न न बनाओ सीमा. तुम्हारा मान बचाने के लिए अपने जीवन की गाड़ी मैं तुम्हारी इच्छा के पीछे तो नहीं लगा सकती न. तुम्हारी खुशी के लिए क्या मैं अपने विचार बदल लूं.’

शुभा का समझाना सब व्यर्थ गया था. 15 साल हो गए उस बात को. उस प्रसंग के बाद जल्दी ही उस के पिता का तबादला हो गया था. अपनी शादी में मैं ने अनमने भाव से ही निमंत्रण भेज दिया था मगर वह आ नहीं पाई थी. उस के भी किसी नजदीकी रिश्तेदार की शादी थी. वह किस्सा जो तब समाप्त सा हो गया था, आज पुन: शुरू हो पाएगा या नहीं, मुझे नहीं पता…और अगर शुरू हो भी जाता है तो किस दिशा में जाएगा, कहा नहीं जा सकता.

वैचारिक मतभेद जो इतने साल पहले था वह और भी चौड़ा हो कर खाई का रूप ले चुका  होगा या वक्त की मार से शून्य में विलीन हो चुका होगा, पहले से ही अंदाजा लगाना आसान नहीं था.

शुभा के बारे में हर पल मैं सोचती थी. अपनी हार को मैं भूल नहीं पाई थी जबकि शुभा भी गलत कहां थी. उस का अपना दृष्टिकोण था जिसे मैं ने ही मान- अपमान का प्रश्न बना लिया था. अपना पूरा जीवन, अपनी पसंद, मात्र मेरी खुशी के लिए वह दांव पर क्यों लगा देती. मैं तो किसी की पसंद का लाया रूमाल तक पसंद नहीं करती. अपने पति से बहुत प्यार है मुझे, लेकिन उन की लाई एक साड़ी मैं आज तक पहन नहीं पाई क्योंकि वह मुझे पसंद नहीं है.

सच कहती थी शुभा. एक सीमा के बाद हर इंसान की सिर्फ अपनी सीमा शुरू हो जाती है जिस का सम्मान सब को करना चाहिए, किसी को बदलने का हमें क्या अधिकार जब हम किसी के लिए जरा सा भी बदल नहीं सकते. हमारा स्वाभिमान अगर हमें बड़ा प्यारा है तो क्या किसी दूसरे का स्वाभिमान उसे प्यारा नहीं होगा. किसी ने अपनी इच्छा जाहिर कर दी तो हमें ऐसा क्यों लगा कि उस ने हमारे स्वाभिमान को ठोकर लगा दी.

‘‘भाभी, शुभाजी आप से मिलना चाहती हैं. फोन पर हैं. आप से बात करना चाहती हैं,’’ कुछ दिन बाद एक शाम मेरे देवर ने आवाज दी मुझे. महीना भर हो चुका था शुभा को मेरे शहर में आए. मेरे मन में उस से मिलने की इच्छा तो थी पर एक अकड़ ने रोक रखा था. चाहती थी वही पहल करे. नाराजगी तो मुझे थी न, मैं क्यों पहल करूं.

एक दंभ भी था कि मैं उस से कहीं ज्यादा अमीर हूं. मेरे पति उस से कहीं ज्यादा कमाते हैं. रुपयापैसा और अन्य नेमतों से मेरा घर भरा पड़ा है. पहले वही आए मेरे घर पर और मेरा वैभव देखे. वह मेरे भाई के बारे में जाने. उसे भी तो पता चले कि उस ने क्याक्या खो दिया है. बारबार पुकारा मेरे देवर ने. मैं ने हाथ के इशारे से संकेत कर दिया.

‘‘अभी व्यस्त हूं, बाद में बात करने को कह दो.’’

अवाक् था मेरा देवर. उस के अफसर की पत्नी का फोन था. क्या कहता वह. इस से पहले कि वह कोई उत्तर देता, शुभा ने ही फोन काट दिया. बुरा लगा होगा न शुभा को. उसे पीड़ा का आभास दिला कर अच्छा लगा था मुझे.

कुछ दिन और बीत गए. संयोग से एक शादी समारोह में जाना हुआ. गहनों से लदी मैं पति के साथ पहुंची. काफी लोग थे वहां. हम जैसों की अच्छीखासी भीड़ थी जिस में ‘उस की साड़ी मेरी साड़ी से सुंदर क्यों’ की तर्ज पर खासी जलन और नुमाइश थी. कहीं किसी की साड़ी ऐसी तो नहीं जो दूसरी बार पहनी गई हो. पोशाक को दोहरा कर पहनना गरीबी का संकेत होता है न हमारी सोसायटी में.

‘‘कैसी हो, सीमा? पहचाना मुझे?’’

किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा. चौंक कर मैं ने देखा तो सामने शुभा खड़ी थी. गुलाबी रेशमी साड़ी जिस की किनारी सुनहरी थी. गले में हलकी सी मटरमाला और हाथों में सोने की 4 चूडि़यां.

‘‘कैसी हो, सीमा? पहचाना नहीं क्या?’’

28 हजार की मेरी साड़ी थी और लाखों के थे मेरे शरीर पर जगमगाते हीरे. इन की चमक में मुझे अपनी गरीब सी दिखने वाली सहेली भला कहां नजर आती. थोड़ी सी मोटी भी हो गई थी शुभा. दर्प से अकड़ गई थी मेरी गर्दन.

‘‘आइए मैडम, मेरे साथ…’’

तभी श्रीमान ग्रोवर हमारे पास चले आए. शहर के करोड़पति आसामी हैं. उन का झुक कर शुभा का अभिवादन करना बड़ा अजीब सा लगा मुझे.

‘‘आइए, नवविवाहित जोड़े से मिलाऊं. आप शहर में नएनए आए हैं. जरा सी जानपहचान हो जाए.’’

‘‘पहले पुरानी पहचान से तो पहचान हो जाए. मेरी कालेज के जमाने की मित्र है. पहचान ही नहीं पा रही मुझे.’’

वही अंदाज था शुभा का. मैं जैसे उसे न पहचानने ही का उपक्रम कर रही थी.

‘‘जल्दी चलो शुभा, देर हो रही है. जल्दी से दूल्हादुलहन को शगुन दो. रात के 12 बज रहे हैं. घर पर बच्चे अकेले हैं.’’

एक बहुत ही सौम्य व्यक्ति ने पुकारा शुभा को. आत्मविश्वास से भरा था दोनों का ही स्वरूप. दोनों ठिठक कर मुझे निहारने लगे. अच्छा लग रहा था मुझे. मेरा उसे न पहचानना कितनी तकलीफ दे रहा होगा न शुभा को. इतने लोगों की भीड़ में कितना बुरा लग रहा होगा शुभा को. बड़ी गहरी नजरें थीं शुभा की. सब समझ गई होगी शायद. शायद मेरा हाथ पकड़ कर मुझे याद दिलाएगी और कहेगी :

‘सीमा, याद करो न, मैं शुभा हूं. जम्मू में हम साथसाथ थे न. मैं ने तुम्हारा मन दुखाया था…तुम्हारा कहा नहीं माना था. कैसे हैं तुम्हारे भैया. अभी भी अमेरिका में ही हैं या कहीं और चले गए?’

‘‘बरसों पहले खो दिया था मैं ने अपनी प्यारी सखी को…आज भी बहुत याद आती है. पता चला था इसी शहर में है. आप को देख कर उस का धोखा हो गया, सो बुला लिया. आप वह नहीं हैं… क्षमा कीजिएगा.’’

मुसकरा दी शुभा. एक रहस्यमयी मुसकान. हाथ जोड़ कर उस ने माफी मांगी और दोनों पतिपत्नी चले गए. स्तब्ध रह गई मैं. शुभा ने नजर भर कर न मुझे देखा, न मेरे गहनों को. सादी सी शुभा की नजरों में गहनोंकपड़ों की कीमत कल भी शून्य थी और आज भी. कल भी वह संतोष से भरी थी और आज भी उस का चेहरा संतोष से दमक रहा था. सोचा था, मैं उसे पीड़ा पहुंचा रही हूं, नहीं जानती थी कि वही मुझे नकार कर इस तरह चली जाएगी कि मैं ही पीडि़ता हो कर रह जाऊंगी. Family Drama Story

Kyunki Saas Bhi Kabhi… स्मृति ईरानी को तुलसी के रूप में फिर देखेंगे फैन्स

Kyunki Saas Bhi Kabhi… एकता कपूर के पॉपुलर शो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ ने 25 साल पहले सभी के दिलों में अपनी खास जगह बनाई थी, और अब इसका नया प्रोमो फैंस के एक्साइटमेंट को और बढ़ा रहा है. क्योंकि स्मृति ईरानी एक बार फिर तुलसी विरानी के रूप में वापसी कर रही हैं.

करोड़ों भारतीय घरों के दिलों में खास जगह बनाई

आप सब जानते ही हैं ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ शो इंडियन टेलीविजन की सबसे बड़ी विरासतों में से एक रहा है. साल 2000 में शुरू हुआ, यह शो सिर्फ प्राइम टाइम पर नहीं छाया, बल्कि करोड़ों भारतीय घरों के दिलों में अपनी खास जगह बनाई. यह सिर्फ एक डेली सोप नहीं था, बल्कि एक ऐसा जज़्बा था जिससे पीढ़ियाँ जुड़ीं, इस शो ने एक संयुक्त परिवार के रोज़मर्रा के संघर्ष, खुशियाँ और भावनात्मक टकराव को बख़ूबी दर्शाया. 25 साल बाद भी यह शो करोड़ों दिलों में अपनी खास जगह बनाए हुए है. अब एक बार फिर वही पुरानी यादें ताज़ा करने के लिए शो लौट रहा है और इसका पहला प्रोमो सामने आ चुका हैं.

प्रोमो में तुलसी का इमोशनल स्टाइल

प्रोमो में दिखाया गया हैं की एक फैमिली खाने की टेबल पर बैठकर तुलसी विरानी की वापसी पर चर्चा कर रहे है. इसके बाद स्मृति ईरानी पारंपरिक लुक में तुलसी के पौधे की पूजा करती दिखती हैं. मेज पर बैठकर तुलसी भावुक अंदाज में कहती हैं, ‘मैं जरूर आऊंगी क्योंकि हमारा 25 साल का रिश्ता है. तुमसे फिर मिलने का समय आ गया है.’
प्रोमो के कैप्शन में लिखा गया, ’25 साल बाद तुलसी विरानी लौट रही हैं, एक नई कहानी के साथ! देखिए क्योंकि सास भी कभी बहू थी, 29 जुलाई से रात 10:30 बजे, सिर्फ स्टार प्लस पर और कभी भी जियो हॉटस्टार पर.’

सुनहरी यादों को एक बार फिर से जीने का मौका

यह शों पुराने दर्शकों के लिए उन सुनहरी यादों को फिर से जीने का मौका, और नई पीढ़ी के दर्शकों के लिए एक ऐसा शो देखने का अनुभव, जिसने कभी रिकॉर्ड तोड़ टीआरपी बटोरी थी और हजारों एपिसोड तक चला था.

नए दौर की नई कहानी

रिपोर्ट्स के मुताबिक, क्योंकि सास भी कभी बहू थी 2 में कहानी को नए दौर के हिसाब से दिखाई जाएगी. इस बार स्मृति ईरानी ‘बा’ का किरदार निभाएंगी, जिसे पहले सीजन में सुधा शिवपुरी ने निभाया था. वही नई लीड ‘परी’ का किरदार शगुन शर्मा निभाएंगी, जो विरानी परिवार की कहानी को आगे ले जाएंगी.

तो फिर तैयार हो जाइए इस पॉपुलर शो से एक बार और जुड़ने के लिए, क्योंकि कुछ कहानियां कभी खत्म नहीं होती.

Anorexia: वजन घटाने का जूनून, कहीं एनोरेक्सिया तो नहीं है?

Anorexia: अगर आपके घर में भी कोई ऐसा है जिसे लगातार पतला होने का जूनून सवार हो गया है और लाख समझने पर भी वह नहीं समझ रहा, तो भी उसे उसके हाल पर ना छोड़े  क्यूंकि हो सकता है वह जिद्दी ना हो बल्कि एनोरेक्सिया नामक बीमारी से पीड़ित हो इसलिए ऐसे समय में उसे आपकी मदद की जरूरत है. इसलिए उसका इलाज कराएं और पेशेंस बनाएं रखें और उसके साथ खड़े रहें.

क्या है एनोरेक्सिया?

एनोरेक्सिया अपने वजन को लेकर ओवर कॉन्शस होने को कहते हैं. इसके चलते व्यक्ति अपनी बॉडी इमेज को लेकर बहुत ज्यादा लेकर परेशान रहते हैं. यह एक गंभीर मनोवैज्ञानिक स्थिति है. एनोरेक्सिया से पीड़ित लोग खुद को भूखा रखते हैं और वजन बढ़ने या मोटे होने के डर (फोबिया) से पीड़ित होते हैं. ये लोग अपने वजन और शरीर के आकार को नियंत्रित करने के लिए अत्यधिक प्रयास करते हैं, मन होने और भूख लगने पर भी ये कुछ नहीं खाते.

इससे इन्हें कमजोरी और कई समस्याएं होने लगती हैं लेकिन फिर भी वजन बढ़ने का डर इन पर इस तरह हावी होता है कि ये उससे बाहर आ ही नहीं पाते. यह पागलपन इस हद तक बढ़ जाता है कि कई लोग खाने के बाद उल्टी करके, मूत्रवर्धक या एनीमा के माध्यम से भी कैलोरी को नियंत्रित करते हुए भी देखे गए हैं. कई रोगी अत्यधिक व्यायाम भी करने लग जाते हैं जिससे वजन न बढ़े.

जैसे के अभी हाल ही में केरल के कन्नूर की 18 वर्षीय लड़की श्री नंदा की 12 दिन वेंटिलेटर पर रहने के बाद मौत हो गए क्यूंकि वह खाना छोड़कर सिर्फ गर्म पानी पी रही थी और कई घंटे कसरत कर रही थी, और भोजन से परहेज कर रही थी. उसका वजन मात्र 24 किलो रह गया. डॉक्टर्स को शक है कि श्री नंदा एनोरेक्सिया नाम की बीमारी से पीड़ित थी इसमें व्यक्ति खुद को मोटा समझता है भले ही वह बेहद कम वजन का हो.

कैसे बढ़ता ही जाता है ये जूनून-

एनोरोक्सिया कोई बीमारी नहीं है बल्कि एक मैंटल प्रॉब्लम है. लड़कों के मुकाबले लड़कियों में यह डिसऑर्डर ज़्यादा होता है. 13 से 30 साल की महिलाओं में इसके चांसेस ज़्यादा होते हैं. यह समस्या पुरुषों को भी हो सकती है, लेकिन इससे लगभग 95 प्रतिशत महिलाएं प्रभावित रहती हैं.

कुछ लोग हर चीज में एक्सट्रीम कर देते हैं. जो लोग जिम में जाते हैं. वो वहां पर वेट बहुत ज्यादा उठाना शुरू कर देते हैं. अपनी कपैसिटी से ज्यादा लड़के भी वेट उठाना शुरू कर देते हैं जो घातक है. किसी ने कहा मैं मैराथन में 20 किलोमीटर जाऊँगा लेकिन 10 किलोमीटर बाद उसकी हिम्मत टूट रही है. लेकिन फिर भी वो चलता चला जायेगा जब तक वो गिर कर ,मर नहीं जायेगा. उस समय आप पागल हो चुके होते हो. उस समय तक आपकी एनालसिस की पावर ख़तम हो चुकी होती है.

किसी को पहाड़ पर चढ़ने का फितूर हो जाता है. चढ़ने में चोट लग जाये या हड्डी टूट जाए तो 2-3 महीना आराम से बैठेंगे और फिर चल पड़ेंगे. इन लोगों को आप ठीक नहीं कर सकते. कम या ना खाने के चलते बॉडी में कई जरूरी न्यूट्रिशन की कमी होती जाती है जिससे एक के बाद एक कई तरह के हेल्थ इश्यू होने लगते हैं. महिलाओं के लिए ये स्थिति ज्यादा गंभीर हो सकती है.

कैसे बिहेव करते हैं एनोरेक्सिया से पीड़ित लोग-

ऐसे लोग कितने भी पतले क्यूँ ना हो जाएँ वे हमेशा यही देखते हैं कि हम तो बहुत मोटे हैं. वे खाना खाते तो नहीं हैं लेकिन हर वक्त उसके बारे में सोचते हैं. साथ ही वहां से धयान हटाने की असफल कोशिश में लगे रहते हैं. ऐसे लोग बाकी लोगों के जितना ही खाने का दावा करते हैं लेकिन खाते नहीं है उतना.

एनोरेक्सिया से पीड़ित कुछ लोगों में ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर यानी ओसीडी की समस्या भी देखी गई है, जो भूखे होने के बावजूद भोजन न करने पर बाध्य कर सकती है.

कुछ लोगों में एनोरेक्सिया के साथ स्ट्रेस-एंग्जाइटी की समस्या भी हो सकती है.

बहुत ज्यादा जिम और एक्सरसाइज करते हैं.

एक दिन में जाने कितनी बार अपना वेट चेक करते हैं.

लोगों की नज़रों से बचकर अपने खाने को फेंक देते हैं.

भोजन से छुटकारा पाने के लिए हर्बल उत्पादों या एनीमा का उपयोग करना.

अपने आसपास के लोगों से दूरी बना लेते हैं.

भूख लगने पर भी खाना ना खाना.

नींद ना आना.

बेचैनी

हाथ पैरों में सूजन

पीरियड्स नियमित ना होना.

चिड़चिड़ापन

हर वक्त उदास रहना.

थकन और कमजोरी

स्किन डल होने लगती है,

बाल झड़ने लगते हैं,

डाइजेशन बिगड़ जाता है

अगर किसी को एनोरोक्सिया है तो घरवाले या केयरटेकर उसे कैसे हैंडल करें-

अगर घर में कोई खाना पीना छोड़ दें तो पहले तो लोग उसे समझते हैं लेकिन बात ना मैंने पर उसे उसके हाल पर छोड़ देते हैं. यानी कि कुछ टाइम बाद घर वाले थक कर उस पर छोड़ देते हैं की अब तू जा, जो तेरा मन हो कर, हम तो थक गए, अब तुझे मरना है तो मर, मैं अपनी जिंदगी जीऊं या तेरी सम्भालों. कोई किसी के लिए ये कितने दिन तक करेगा. लेकिन हमारा फर्ज है कि हम कहे की नहीं हमे इसे ठीक करना ही है. कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें सँभालने में 6 -8 महीने तक लग जाते हैं.

आपको पेशेंस रखनी पड़ेगी. एक तो केयर टेकर को ऐसा करने पर मन की शांति मिलेगी कि मैं अपने के लिए कुछ कर पाया. दूसरा इसका फायदा यह होगा कि जब आपको केयर की जरुरत होगी तो आपको भी उस बन्दे से केयर मिलेगी. चाहे वे आपके बच्चे हो, पार्टनर हो, पड़ौसी हो या फिर दोस्त हो. अगर आज आप दूसरों का भला करोगे तो लोगों को भी महसूस होगा कि ये आदमी अच्छा है इस पर भरोसा किया जा सकता है. इसके लिए हमे भी कुछ करना चाहिए.

उसे कहना शुरू करो कि तुमने अब वजन काफी कम कर लिया है और ना करो. घर में जानबूजकर खाने में घी दाल दिया, मीठा बनाना शुरू कर दिया, उसे बोलै सब साथ बैठकर खाएंगे भले ही तुम ना खाना पर उसे साथ जरूर बैठाये. वो कितने दिन इग्नोर करेगा एक दिन खा ही लेगा.

रेस्टोरेंट में उसे जबरदस्ती ले जाएँ. उसे बोले अच्छा सबके साथ चलों, तो भले ही कुछ मत खाना, हम लोगों से बाते ही कर लेना. उसे खींच के ले जाना शुरू करों. इससे एक उम्मीद बांध जाती है कि वो खाने लगेगा.

आप उसे बार बार डॉक्टर के पास ले जाओ. चाहे जबरदस्ती ले जाना पड़े.

उस पर  प्रेशर बनाओं उसे सोशल इवेंट में ले जाओं. अपने मिलने जुलने वालों से मिलवाओं उसे सोशल बनाओं, उसके दोस्तों से मिलवाएं. उसे जिंदगी की तरफ वापस लौटने में मदद करें.  मूवी लेकर जाओ, घूमने के लिए कहीं बहार हिल स्टेशन पर ले जाएँ.

इलाज कैसे करवाएं-

यदि डॉक्टर को लगता है कि आपको एनोरेक्सिया की समस्या है तो इसके उपचार के लिए मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और आहार विशेषज्ञ दोनों से इलाज की आवश्यकता हो सकती है. कुछ प्रकार के थेरपी, वजन को सामान्य करने वाली दवाओं की मदद से इसका इलाज होता है. हालांकि इसके लिए सबसे जरूरी है कि आप या घरवाले इन लक्षणों को नोटिस करें और समय पर इलाज कराएं.

मरीज से पहले तो ज्यादातर लोग या घरवाले यह समझ ही नहीं पाते हैं कि भोजन छोड़ना या वजन के प्रति इतना जुनूनी होना कोई मैंटल प्रॉब्लम हो सकती है. जिसमें इलाज की आवश्यकता होती है. जितना जल्दी हो सके आप यह बात समझ लें. आप समझेंगे तभी मरीज को यह बात समझा पाएंगे.

अगर आपको लगता है कि आपके बच्चे या परिवार के किसी अन्य सदस्य में एनोरेक्सिया के लक्षण दिख रहे हैं, जैसे कि आत्मविश्वास में कमी, खाने की अवास्तविक आदतें, हमेशा परफेक्ट दिखने की चाहत और अपने रूप-रंग से असंतुष्ट होना, तो उनसे बात करें. उन्हें सही खाने के महत्व को समझने में मदद करें. चाहे महिला हो पुरुष उन्हें यह बताना जरुरी होता है कि हमारे शरीर के लिए खाने की कितनी अहमियत है.

मरीज को यह बात समझाएं कि मोटापा, वजन तब बढ़ता है जब हम ठूंस-ठूंस कर और हर वक्त खाते रहते हैं. सही मात्रा में और सही समय पर खाने वालों के साथ ही ये सारी दिक्कतें आती हैं. जंक फूड, फ्राइड फूड ऐसी चीज़ों से दूर रहें. फ्रूट और वेजिटेबल्स किसी भी तरह से हानिकारक नहीं.

इसके इलाज में मेडिकल ट्रीटमेंट के बाद न्यूट्रिशनल बैलेंस को मॉनिटर किया जाता है  और फिर मरीज की लाइफस्टाइल पर भी नजर जाती है , ताकि वह धीरे-धीरे हेल्दी वेट गेन कर सके.

एनोरेक्सिया नर्वोसा के ट्रीटमेंट के दौरान, मरीज को काउंसलिंग करते हैं. इसके बाद, उसे थेरेपी और मेडिसिन भी दी जाती है. Anorexia

Anxiety Solution: जौब जाने से मैं मैंटल स्ट्रैस में हूं, क्या करूं?

Anxiety Solution:  सवाल-

मैं 30 साल की हूं. 1 साल से लीविंग रिलेशनशिप में थी. कुछ वक्त पहले मुझे पता चला कि वह लड़का किसी और से शादी कर रहा है. यह जानने के बाद मैं मैंटली ब्रेकडाउन हो गई हूं. मेरी जौब भी चली गई है. मैं मैंटल स्ट्रैस में हूं. कृपया बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

ब्रेकअप इमोशनली या मैंटली डिस्टर्ब कर देता है. हमें अकसर ऐसे खयाल आते हैं जैसे सब खत्म हो गया हो. मगर आप यह जानें कि यह बस बिगनिंग है, थोड़ी सी गाइडैंस से आप अपनेआप को संभाल सकती हैं. अपने पास्ट के बारे में सोच कर दुखी न हों. अपने फ्यूचर पर फोकस करें. उस की औनलाइन या औफलाइन ऐक्टिविटीज का ट्रैक नहीं रखें. इस से आप को ही तकलीफ होगी या आप आगे बढ़ पाएंगी. अपनी फीलिंग्स शेयर करें. सब से जरूरी यह है कि आप अपनेआप को थोड़ा वक्त दें.

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खराब लाइफस्टाइल और खराब खानपान का नतीजा है लोगों में बढ़ते डिप्रेशन का कारण. डिप्रेशन से बचने के लिए लोग तरह तरह की दवाइयों का सेवन करते हैं. पर इस खबर में हम आपको डिप्रेशन से बचने के लिए एक बेहद आसान तरीका बताने वाले हैं. अगर आप रोज 15 मिनट रोज जौगिंक करती हैं या कोई व्यायाम करती हैं तो डिप्रेशन का खतरा काफी कम हो सकता है.

हाल ही में हुई एक स्टडी की माने तो अगर हम हर रोज सिर्फ 15 मिनट जौगिंक करते हैं तो डिप्रेशन की खतरा काफी कम हो सकता है. अगर आप जौगिंग नहीं करना चाहती तो इसकी जगह पर आप कोई भी शारीरिक व्यायाम कर सकती हैं.

बहुत से एक्सपर्ट्स का मानना है कि जो लोग डिप्रेशन के शिकार हैं अगर वो रोज सुबह जैगिंग करते हैं तो उनके लिए ये बेहद कारगर होगा. ऐसा करने से हार्ड 50 प्रतिशत और तेजी से पंप करने लगता है. आपको बता दें कि इस स्टडी में 6 लाख से अधिक लोग शामिल थे. इन लोगों में से कुछ को एक्सेलेरोमीटर पहनाए गए थे, वहीं कुछ ने अपने फिजिकल वर्क की सेल्फ रिपोर्टिंग  की थी. इस एक्सपेरिमेंट से ये समझ में आया कि जिन लोगों ने एक्सेलेरोमीटर पहने थे और एक्सरसाइज भी की थी, उनमे डिप्रेशन का खतरा कम था उन लोगों के तुलना में जिन्होंने एक्सेलेरोमीटर नहीं पहने थे. स्टडी से ये भी साफ हो गया है कि आपके डीनए (DNA)का डिप्रेशन से कोई लेना देना नहीं है. Anxiety Solution

Monsoon special: दलिया से बनाइए ये हैल्दी रेसिपीज

Monsoon special: दलिया जिसे अंग्रेजी में ब्रोकन व्हीट कहा जाता है मूलतः गेहूं से बनाया जाता है. गेहूं को आटे जैसा महीन करने के स्थान पर दरदरा पीसकर जब छान दिया जाता है तो उसे दलिया कहा जाता है. आजकल बाजार में न केवल गेहूं बल्कि कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा और मक्का जैसे मोटे अनाजों का दलिया भी उपलब्ध है. महीन पीसे गये आटे की अपेक्षा दलिया अधिक स्वास्थ्यवर्धक और पौष्टिक होता है क्योंकि महीन या बारीक खाद्य पदार्थों को ग्रहण करके पचाने के लिए हमारे पाचनतंत्र को बहुत परिश्रम करना पड़ता है जब कि मोटे खाद्य पदार्थ बड़ी ही आसानी से पच जाते हैं.

सभी अनाजों के दलिए में फायबर भरपूर मात्रा में पाया जाता है जो हमारी सेहत और पाचनतन्त्र के लिए अत्यंत लाभकारी होता है इसलिए सेहतमंद रहने के लिए दलिए को किसी न किसी रूप में अपनीं डाइट में अवश्य शामिल करना चाहिए. आज हम आपको दलिए से बननी वाली कुछ रेसिपीज बनाना बता रहे हैं जिन्हें आप घर पर उपलब्ध सामग्री से ही बड़ी आसानी से बना सकतीं हैं तो आइये देखते हैं कि इन्हें कैसे बनाया जाता है.

1.दलिए की डोडा बर्फी

  • कितने लोगों के लिए   –  6
  • बनने में लगने वाला समय –  30 मिनट
  • मील टाइप  –  वेज

सामग्री

  1. 1/2 कप गेहूं का दलिया  
  2. 1 लीटर फुल क्रीम दूध   
  3. 4 टीस्पून घी 
  4. 100 ग्राम शकर                   
  5. 1 कटोरी बारीक कटे मेवा                 
  6. 1/4  टीस्पून इलायची पाउडर                 
  7.  1/4 टीस्पून   कॉफ़ी पाउडर                   
  8. 1 टेबलस्पून नारियल बुरादा                 
  9.  1 टीस्पून पिस्ता कतरन           

विधि-

दलिए को किसी भारी तले की कड़ाही में धीमी आंच पर भूरा होने तक भूनकर एक प्लेट में निकाल लें. अब उसी कड़ाही में दूध डालकर दलिया डाल दें. दूध और दलिया जब उबलकर आधे रह जायें तो कॉफ़ी और कोको पाउडर डालकर धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए पकाएं. 20-25 मिनट बाद जब मिश्रण गाढ़ा होकर पैन के किनारे छोड़ने लगे तो 2 टेबलस्पून घी डालकर अच्छी तरह भूनें. अंत में 1 टीस्पून घी और कटी मेवा को भी डालें और जब मिश्रण पैन के बीच में इकट्ठा सा होने लगे तो गैस बंद कर दें और चिकनाई लगी ट्रे में जमायें. पिस्ता कतरन से सजाकर मनचाहे आकार में पीस काटकर सर्व करें.

2. दलिया का बेक्ड उपमा

कितने लोगों के लिए –   6

बनने में लगने वाला समय  –   20 मिनट

मील टाइप  –      वेज

सामग्री

  1.     1 कटोरी गेहूं का दलिया                  
  2. 2 कटोरी पानी                               
  3.     1 बारीक कटा प्याज                
  4.    1 बारीक कटी गाजर                   
  5. 1 टेबलस्पून मटर के दाने     
  6. 1 टेबलस्पून मूंगफली दाना                         
  7. 1/4 टीस्पून राई के दाने                         
  8. नमक  स्वादानुसार   
  9. 1/4 टी स्पून हल्दी                               
  10.  4 बारीक कटी हरी मिर्च                 
  11. 1 टीस्पून आम के अचार का मसाला             
  12.    2 चीज क्यूब्स                       
  13. 1/4 टीस्पून  चिली फ्लेक्स                         
  14. 8 पत्तियां करी पत्ता                             
  15. 1 टेबलस्पून घी                                 
  16.  1 टेबलस्पून कटा हरा धनिया

विधि-

दलिए को बिना घी के भून लें. अब इसमें पानी और नमक डालकर ढककर धीमी आंच 30 मिनट अथवा दलिए के गलने तक पकाएं. ध्यान रहे कि दलिया हमें खिला खिला ही बनाना है इसलिए बहुत अधिक पानी न डालें. अब एक पैन में तेल गरम करके प्याज को सुनहरा होने तक भूनें. हल्दी जीरा और हरी मिर्च डालकर टमाटर तथा अन्य सब्जियां डाल दें. इन्हें ढककर गलने तक पकाएं. अब इसमें उबला दलिया, मूंगफली दाना, अचार का मसाला व अन्य सभी  मसाले डालकर भली भांति चलायें. अब इस तैयार उपमा को किसी माइक्रोवेब की ट्रे में डालकर चीज ग्रेट करें और ऊपर से हरा धनिया और चिली फ्लेक्स डालकर 5 मिनट माइक्रोवेब करके सर्व करें.

3. पेरी पेरी दलिया कॉर्न इडली

सामग्री-

  1.    1 कप गेहूं का दलिया                     
  2.     1/2 कप रवा                         
  3. 2 कप दही                               
  4. नमक स्वादानुसार                                
  5.    1 टीस्पून अदरक, हरी मिर्च पेस्ट             
  6.  1/2 कप कॉर्न के दाने                        
  7. 1/2 टीस्पून चाट मसाला                          
  8.  1 टीस्पून घी                                 
  9. 1 कप पानी         

बघार के लिए

  1.   1 टीस्पून तेल               
  2. 1/4 टीस्पून राई के दाने                           
  3. 1/2 टीस्पून कुटी लाल मिर्च                         
  4.   10 करी पत्ता                             
  5.  1 लच्छी बारीक कटी हरी धनिया     

विधि-

दलिए को धीमी आंच पर घी में हल्का भूरा होने तक भून लें. ठंडा होने पर दही, पानी, और सूजी के साथ मिलाकर 1 घंटे के लिए ढककर रख दें ताकि सूजी और दलिया फूल जाये. 1 घंटे बाद इसमें कॉर्न के दाने, नमक, चाट मसाला और ईनो फ्रूट साल्ट मिलाएं. तैयार मिश्रण को इडली के सांचे में डालकर भाप में लगभग 10 मिनट तक पकाएं. मनचाहे टुकड़ों में काटकर सर्विंग डिश में डालें. गर्म तेल में बघार की समस्त सामग्री डालें और तैयार इडली के उपर डालकर सर्व करें. Monsoon special

Maniesh Paul: गजनी लुक ने मचाई हलचल, एक्टर को देख फैंस हुए शौक्ड

Maniesh Paul: फनी स्टाइल से सबको हंसाने वाले चार्मिंग टीवी होस्ट, मॉडल, सिंगर और एक्टर मनीष पॉल अपने अलग अंदाज के लिए जाने जाते हैं. लेकिन इस बार उन्होंने ऐसा लुक शेयर किया है.जो बिल्कुल अलग और चौंकाने वाला है. नए लुक में वो डेंजरस नजर आ रहे है.

हाल में ही मनीष ने अपनी डेंजरस लुक वाली कुछ फोटोज को इंस्टाग्राम शेयर किया है. जिसकी सोशल मीडिया पर खूब चर्चा हैं.पहली बार उनके डिफरेंट स्टाइल की फोटोज देख कर फैंस सरप्राइज्ड हो गए हैं.

डेंजरस और डिफरेंट स्टाइल-

नए लुक वाली फोटोज में मनीष पॉल का साईको स्टाइल देख फैंस सरप्राइज्ड तो हैं ही साथ ही एक्साइटेड भी हैं. लेटेस्ट फोटोज में मनीष बाल्ड हेड, डार्क शेड्स, हाथों में टैंटू, सन ग्लास लगा कर डेंजरस स्माइल के साथ इंटेंस एक्सप्रेशन वाला

पोज देते नजर आ रहे हैं. उन्होंने कैजुअल कपड़े पहने हुए हैं. वो काफी डैशिंग और एक्सपेरिमेंटल नजर आ रहे हैं. मनीष के इस लुक को देख हर किसी को आमिर खान के लुक ‘गजनी’ की याद आ रही हैं.

इंस्टाग्राम पोस्ट-

अपने इंस्टाग्राम पोस्ट में मनीष ने लिखा,”किसी ने मुझे किया कॉन, बालों को किया गॉन, क्या होगा मेरा कर्मा, डिसाइड करेगा धर्मा.”

इस लाइन से यह क्लियर हो गया कि मनीष का ये लुक उनके अपकमिंग प्रोजेक्ट का हिस्सा है और इसका ताल्लुक करण जौहर की धर्मा प्रोडक्शन से है. हालांकि अभी इस प्रोजेक्ट को लेकर किसी भी तरह का ऐलान नहीं किया गया है. मनीष पॉल उन कलाकारों में हैं. जो हर बार कुछ नया और अनोखा करने की हिम्मत दिखाते हैं. उनका ये नया अवतार यही इशारा कर रहा है कि अगली बार वो किसी ऐसे किरदार में नज़र आ सकते हैं, जो अब तक उन्होंने कभी नहीं निभाया.

सलेब्स कमैंट्स-

मनीष की पोस्ट पर करण जौहर ने तुरंत रिप्लाई किया,“जो आने वाला है, उसके लिए एक्साइटेड हूं मनीष… लुक तो कमाल का है.”

वहीं एक्टर वरुण धवन ने कमेंट किया,“एक्साइटेड हूं इसके लिए, मैं नहीं बताऊंगा.”

इन कमेंट्स से फैंस अंदाजा लगा रहे हैं की मनीष किसी नए प्रोजेक्ट के लिए रेडी हो रहे है. जिसमें वो एक डार्क या विलेन जैसा किरदार निभाने जा रहे हैं.

फैंस कमैंट्स-

मनीष का नया लुक देखने के बाद फैंस ने कमेंट्स की बाढ़ ला दी. किसी ने लिखा, “गजनी 2 कर रहे हो क्या?” तो एक दूसरे यूजर ने सवाल किया, “ये फिल्म है या कोई वेब सीरीज?”

तो वहीं कई फैंस तो मनीष को पहचान ही नहीं पाए. एक यूजर ने कमेंट किया, “पहचाना ही नहीं, ये मनीष है क्या?” मनीष के इस एक्सपेरिमेंटल लुक ने सभी का ध्यान खींचा हैं. क्या उनका ये लुक किसी फिल्म का हिस्सा है, कोई वेब सीरीज़ है, या कुछ और? फिलहाल तो मनीष ने सस्पेंस बनाए रखा है और फैंस बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं.

फिल्मी सफर-

हाल ही में उन्होंने वेब सीरीज़ ‘रफूचक्कर’ में पांच अलग-अलग किरदार निभा कर अपना एक्टिंग स्किल दिखाया था. इसके अलावा फिल्म ‘जुगजुग जियो’ में भी उनकी शानदार कॉमिक टाइमिंग और इमोशनल परफॉर्मेंस थी. अब मनीष ने हाल ही में धर्मा प्रोडक्शन की ‘सनी सांकरी की तुलसी कुमारी’ की शूटिंग पूरी की है और जल्द ही वो डेविड धवन की अगली कॉमेडी फिल्म में वरुण धवन के साथ नज़र आएंगे. Maniesh Paul

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