Women’s Day: 75 साल में महिलाओं को धर्म से नहीं मिली आजादी

15 अगस्त को देश की स्वतंत्रता के 75 साल पूरे हो गए हैं. इन 7 दशकों में औरतों के हालात कितने बदले? वे कितनी स्वतंत्र हो पाई हैं? धार्मिक, सामाजिक जंजीरों की जकड़न में वे आज भी बंधी हैं. उन पर पैर की जूती, बदचलन, चरित्रहीन, डायन जैसे विशेषण चस्पा होने बंद नहीं हो रहे. उन की इच्छाओं का कोई मोल नहीं है. कभी कद्र नहीं की गई. आज भेदभाव के विरुद्ध औरतें खड़ी जरूर हैं और वे समाज को चुनौतियां भी दे रही हैं.

7 दशक का समय कोई अधिक नहीं होता. सदियों की बेडि़यां उतार फेंकने में 7 दशक का समय कम ही है. फिर भी इस दौरान स्त्रियां अपनी आजादी के लिए बगावती तेवरों में देखी गईं. सामाजिक रूढिवादी जंजीरों को उतार फेंकने को उद्यत दिखाई दीं और संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए उन का संघर्ष अब भी जारी है. संपूर्ण स्त्री स्वराज के लिए औरतों के अपने घर, परिवार, समाज के विरुद्ध बगावती तेवर रोज देखने को मिल रहे हैं.

एक तरफ औरत की शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारों के बुनियादी सवाल हैं, तो दूसरी ओर स्त्री को दूसरे दर्जे की वस्तु मानने वाले धार्मिक, सामाजिक विधिविधान, प्रथापरंपराएं, रीतिरिवाज और अंधविश्वास जोरशोर से थोपे जा रहे हैं और एक नहीं अनेक प्रवचनों में ये बातें दोहराई जा रही हैं.

स्त्री नर्क का द्वार

धर्मशास्त्रों में स्त्री को नर्क का द्वार, पाप की गठरी कहा गया है. मनु ने स्त्री जाति को पढ़ने और सुनने से वर्जित कर दिया था. उसे पिता, पति, पुत्र और परिवार पर आश्रित रखा. यह विधान हर धर्म द्वारा रचा गया. घर की चारदीवारी के भीतर परिवार की देखभाल और संतान पैदा करना ही उस का धर्म बताया गया. औरतों को क्या करना है, क्या नहीं स्मृतियों में इस का जिक्र है. सती प्रथा से ले कर मंदिरों में देवदासियों तक की अनगिनत गाथाएं हैं. यह सोच आज भी गहराई तक जड़ें जमाए है. इस के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही कहा जाना धर्म है. स्त्री स्वतंत्रता आज खतरे में है.

औरत हमेशा से धर्म के कारण परतंत्र रही है. उसे सदियों से अपने बारे में फैसले खुद करने का हक नहीं था. धर्म ने औरत को बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटों के अधीन रहने का आदेश दिया. शिक्षा, नौकरी, प्रेम, विवाह, सैक्स करना पिता, परिवार, समाज और धर्म के पास यह अधिकार रहा है और 7 दशक बाद यह किस तरह बदला यह दिखता ही नहीं है. कानूनों और अदालती आदेशों में यह हर रोज दिखता है.

अब औरतें अपने फैसले खुद करने के लिए आगे बढ़ रही हैं. कहींकहीं वे परिवार, समाज से विद्रोह पर उतारू दिखती हैं.

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आजादी के बाद औरत को कितनी स्वतंत्रता मिली, उसे मापने का कोई पैमाना नहीं है. लेकिन समाजशास्त्रियों से बातचीत के अनुसार देश में लोग अभी भी घर की औरतों को दहलीज से केवल शिक्षा या नौकरी के अलावा बाहर नहीं निकलने देते. लिबरल, पढे़लिखे परिवार हैं, जिन्हें जबरन लड़कियों के प्रेमविवाह, लिव इन रिलेशन को स्वीकार करना पड़ रहा है. लोग बेटी और बहू को नौकरी, व्यवसाय करने देने पर इसलिए सहमत हैं, क्योंकि उन का पैसा पूरा परिवार को मिलता है. फिर भी इन लोगों को समाज के ताने झेलने पड़ते हैं. देश में घूंघट प्रथा, परदा प्रथा का लगभग अंत हो रहा है पर शरीर को ढक कर रखो के उपदेश चारों ओर सुनने को मिल रहे हैं.

आज औरतें शिक्षा, राजनीति, न्याय, सुरक्षा, तकनीक, खेल, फिल्म, व्यवसाय हर क्षेत्र में सफलता का परचम लहरा रही हैं. यह बराबरी संविधान ने दी है. वे आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो रही हैं. उन में आत्मविश्वास आ रहा है, पर पुरुषों के मुकाबले अभी वे बहुत पीछे हैं.

इन 70 सालों में औरत को बहुत जद्दोजहद के बाद आधीअधूरी आजादी मिली है. इस की भी उसे कीमत चुकानी पड़ रही है. आजादी के लिए वह जान गंवा रही है. आए दिन बलात्कार, हत्या, आत्महत्या, घर त्यागना आम हो गया है. महिलाओं के प्रति ज्यादातर अपराधों में दकियानूसी सोच होती है.

लगभग स्वतंत्रता के समय दिल्ली के जामा मसजिद, चांदनी चौक  इलाके में अमीर मुसलिम घरों की औरतों को बाहर जाना होता था, तो 4 लोग उन के चारों तरफ परदा कर के चलते थे. अब जाकिर हुसैन कालेज, जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में युवतियां बुरके के बजाय जींसटौप में देखी जा सकती हैं. पर ठीक उसी के पास कम्युनिटी सैंटर में खुले रेस्तराओं में हिजाब और बुरके में लिपटी भी दिखेंगी.

बराबरी का हक

जीन और जींस की आजादी यानी पहननेओढ़ने की आजादी, पढ़नेलिखने की आजादी, घूमनेफिरने की आजादी, सैक्स करने की आजादी जैसे नारे आज हर कहीं सुनाई पड़ रहे हैं पर बराबरी का प्राकृतिक हक स्त्री को भारत में अब तक नहीं मिल पाया है.

दुनिया भर में लड़कियों को शिक्षित होने के हरसंभव प्रयास हुए. अफगानिस्तान में हाल  तक बड़ी संख्या में लड़कियों के स्कूलों को मोर्टरों से उड़ा दिया गया. मलाला यूसुफ जई ने कट्टरपंथियों के खिलाफ जब मोरचा खोला, तो उस पर जानलेवा हमला किया गया. कट्टर समाज आज भी स्त्री की स्वतंत्रता पर शोर मचाने लगता है.

दरअसल, औरत को राजनीति या पुरुषों ने नहीं रोका. आजादी के बाद सरकारों ने उन्हें बराबरी का हक दिलाने के लिए कई योजनाएं लागू कीं. पुरुषों ने ही नए कानून बनाए, कानूनों में संशोधन किए. स्वतंत्रता के बाद कानून में स्त्री को हक मिले हैं. उसे शिक्षा, रोजगार, संपत्ति का अधिकार, प्रेमविवाह जैसे मामलों में समानता का कागजों पर हक है. सती प्रथा उन्मूलन, विधवा विवाह, पंचायती राज के 73वें संविधान संशोधन में औरतों को एकतिहाई आरक्षण, पिता की संपत्ति में बराबरी का हक, अंतर्जातीय, अंतधार्मिक विवाह का अधिकार जैसे कई कानूनों के जरीए स्त्री को बराबरी के अधिकार दिए गए. बदलते कानूनों से महिलाओं का सशक्तीकरण हुआ है.

स्वतंत्रता पर अंकुश

औरतों पर बंदिशें धर्म ने थोपीं. समाज के ठेकेदारों की सहायता से उन की स्वतंत्रता पर तरहतरह के अंकुश लगाए. उन के लिए नियमकायदे गढे़. उन की स्वतंत्रता का विरोध किया. उन पर आचारसंहिता लागू की, फतवे जारी किए. अग्निपरीक्षाएं ली गईं.

कहीं लव जेहाद, खाप पंचायतों के फैसले, वैलेंटाइन डे का विरोध, प्रेमविवाह का विरोध, डायन बता कर हमले समाज की देन हैं. औरतें समाज को चुनौती दे रही हैं. सरकारें इन सब बातों से औरतों को बचाने की कोशिश करती हैं.

पर औरत को अपनी अभिव्यक्ति की, अपनी स्वतंत्रता की कीमत चुकानी पड़ रही है. मनमरजी के कपड़े पहनना, रात को घूमना, सैक्स की चाहत रखना, प्रेम करना ये बातें समाज को चुनौती देने वाली हैं इसलिए इन पर हमले किए जाते हैं.

आज स्त्री के लिए अपनी देह की आजादी का सवाल सब से ऊपर है. उस की देह पर पुरुष का अवैध कब्जा है. वह अपने ही शरीर का, अंगों का खुद की मरजी से इस्तेमाल नहीं कर पा रही है. उस पर अधिकार पुरुष का ही है. पुरुष 2-2, 3-3 औरतों के साथ संबंध रख सकता है पर औरत को परपुरुष से दोस्ती रखने की मनाही है. यहां पवित्रता की बात आ जाती है, चरित्र का सवाल उठ जाता है, इज्जत चली जाने, नाक कटने की नौबत उठ खड़ी होती है. आज ज्यादातर अपराधों की जड़ में स्त्री की आजादी का संघर्ष निहित है. भंवरी कांड, निर्भया मामला औरत का स्वतंत्रता की ओर बढ़ते कदम को रोकने का प्रयास था. औरतें आज घर से बाहर निकल रही हैं, तो इस तरह के अपराध उन्हें रोकने के लिए सामने आ रहे हैं. स्त्रियों की स्वतंत्रता से समाज के ठेकेदारों को अपनी सत्ता हिलती दिख रही है.

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आजकल अखबारों में रोज 5-7 विज्ञापन युवा लड़कियों के गायब होने, अपहरण होने के छप रहे हैं. ये वे युवतियां होती हैं, जिन्हें परिवार, समाज से अपने निर्णय खुद करने की स्वतंत्रता हासिल नहीं हो पाती, इसलिए इन्हें प्रेम, शादी, शिक्षा, रोजगार जैसी आजादी पाने के लिए घर से बगावत करनी पड़ रही है.

स्वतंत्रता का असर इतना है कि अब औरत की सिसकियां ही नहीं, दहाड़ें भी सुनाई पड़ती हैं. पिछले 30 सालों में औरतें घर से निकलना शुरू हुई हैं. आज दफ्तरों में औरतों की तादाद पुरुषों के लगभग बराबर नजर आने लगी है. शाम को औफिसों की छुट्टी के बाद सड़कों पर, बसों, टे्रेनों, मैट्रो, कारों में चारों ओर औरतें बड़ी संख्या में दिखाई दे रही हैं.

उन के लिए आज अलग स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय बन गए हैं. उन्हें पुरुषों के साथ भी पढ़नेलिखने की आजादी मिल रही है.

औरतों ने जो स्वतंत्रता पाई है वह संघर्ष से, जिद्द से, बिना किसी की परवाह किए. नौकरीपेशा औरतें औफिसों में पुरुष साथी के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. घर आ कर भी फोन पर कलीग से, बौस से लंबी बातें कर रही हैं. वे अपने पुरुष मित्र के साथ हाथ में हाथ लिए सड़कों, पार्कों, होटलों, रेस्तराओं, पबों, बारों, मौलों, सिनेमाहालों में जा रही हैं. निश्चित तौर पर वे सैक्स भी कर रही हैं.

कई औरतें खुल कर समाज से बगावत पर उतर आई हैं. वे बराबरी का झंडा बुलंद कर रही हैं. समाज को खतरा इन्हीं औरतों से लगता है, इसलिए समाज के ठेकेदार कभी ड्रैस कोड के नियम थोपने की बात करते हैं, तो कभी मंदिरों में प्रवेश से इनकार करते हैं. हालांकि मंदिरों में जाने से औरतों की दशा नहीं सुधर जाएगी. इस से फायदा उलटा धर्म के धंधेबाजों को होगा.

अब औरत प्रेम निवेदन करने की पहल कर रही है, सैक्स रिक्वैस्ट करने में भी उसे कोई हिचक नहीं है. समाज ऐसी औरतों से डरता है, जो उस पर थोपे गए नियमकायदों से हट कर स्वेच्छाचारी बन रही हैं.

पर औरत के पैरों में अभी भी धार्मिक, सामाजिक बेडि़यां पड़ी हैं. इन बेडि़यों को तोड़ने का औरत प्रयास करती दिख रही है. केरल में सबरीमाला, महाराष्ट्र में शनि शिगणापुर और मुंबई में हाजी अली दरगाह में महिलाएं प्रवेश की जद्दोजहद कर रही हैं.

यहां भी औरतों को समाज रोक रहा है, संविधान नहीं. संविधान तो उसे बराबरी का अधिकार देने की वकालत कर रहा है. इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने रोक को गलत बताया है. उन्हें बराबरी का हक है.

लेकिन औरत को जो बराबरी मिल रही है वह प्राकृतिक नहीं है. उसे कोई बड़ा पद दिया जाता है, तो एहसान जताया जाता है. जबप्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाया तो खूब गीत गाए कि देखो हम ने एक महिला को इस बड़े पद पर बैठाया है. महिला को राज्यपाल, राजदूत, जज, पायलट बनाया तो हम ने बहुत एहसान जता कर दुनिया को बताया. इस में बताने की जरूरत क्यों पड़ती है? स्त्री क्या कुछ नहीं बन सकती?

लड़की जब पैदा होती है, तो कुदरती लक्षणों को अपने अंदर ले कर आती है. उसे स्वतंत्रता का प्राकृतिक हक मिला होता है. सांस लेने, हंसने, रोने, चारों तरफ देखने, दूध पीने जैसे प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं. धीरेधीरे वह बड़ी होती जाती है, तो उस से प्राकृतिक अधिकार छीन लिए जाते हैं. उस के प्रकृतिप्रदत्त अधिकारों पर परिवार, समाज का गैरकानूनी अधिग्रहण शुरू हो जाता है. उस पर धार्मिक, सामाजिक बंदिशों की बेडि़यां डाल दी जाती हैं. उसे कृत्रिम आवरण ओढ़ा दिया जाता है.  ऊपरी आडंबर थोप दिए जाते हैं. ऐसे आचारविधान बनाए गए जिन से स्त्री पर पुरुष का एकाधिकार बना रहे और स्वेच्छा से उस की पराधीनता स्वीकार कर लें.

हिंदू धर्म ने स्त्री और दलित को समाज में एक ही श्रेणी में रखा है. दोनों के साथ सदियों से भेदभाव किया गया. दलित रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया गया तो खूब प्रचारित किया गया कि घासफूस की झोपड़ी में रहने वाले दलित को हम ने 360 आलीशान कमरों वाले राष्ट्रपति भवन में पहुंचा दिया, लेकिन आप ने इन्हें क्यों सदियों तक दबा कर रखा? ऊपर नहीं उठने दिया उस की सफाई कोई नही दे रहा.

आज औरत को जो आजादी मिल रही है वह संविधान की वजह से मिल रही है पर धर्म की सड़ीगली मान्यताओं, पीछे की ओर ले जाने वाली परंपराओं और प्रगति में बाधक रीतिरिवाजों को जिंदा रखने वाला समाज औरत की स्वतंत्रता को रोक रहा है. दुख इस बात का है कि औरतें धर्म, संस्कृति की दुहाई दे कर अपनी आजादी को खुद बाधित करने में आगे हैं. अपनी दशा को वे भाग्य, नियति, पूर्व जन्म का दोष मान कर परतंत्रता की कोठरी में कैद रही हैं. आजादी के लिए उन्हें धर्म की बेडि़यों को उतार फेंकना होगा.

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शीतल फुहार: आखिर क्यों चीख पड़ी दिव्या

कहानी- वंदना आर्य

चारों तरफ रोशनी थी. सारा माहौल जगमगा रहा था. वह आलीशान कोठी खुशबू और टिमटिमाते बल्बों से दमक रही थी. विशाल लौन करीने से सजाया गया था. चारों तरफ मेजें सजी थीं. बैरे फुरती से मेहमानों की खातिरदारी में लगे थे. लकदक करते जेवर, कपड़ों से सजी औरतें और मर्द मुसकराते, कहकहे लगाते इधरउधर फिर रहे थे. फूलों से सजे स्टेज पर दूल्हादुलहन भी हंसतेमुसकराते फोटो के लिए पोज दे रहे थे. सब हंसीमजाक में मस्त थे.

आज मिस्टर स्वरूप के बड़े बेटे सतीश की शादी थी. पैसा जम कर बहाया गया था. वे शहर के जानेमाने रईस और रुतबे वाले व्यक्ति थे. उन की पत्नी सरोजिनी इस उम्र में भी काफी फिट और आकर्षक लग रही थीं. आज वे खुद भी दुलहन की तरह सजी थीं.

लौन के एक कोने में एक कुरसी में गुमसुम सी बैठी दिव्या सोच रही थी कि इस माहौल में वह कहां फिट होती है. कितनी ही देर से वह अकेली बैठी है पर किसी को भी उस का खयाल तक नहीं आया. अपनी उपेक्षा से उस का मन भर आया. उस का ग्रामीण परिवेश में पलाबढ़ा मानस इस चकाचौंधभरी दुनिया को देख कर सहम जाता था. अब तो उसे लगने लगा था कि इस परिवार के लोग इस बात को भुला ही चुके हैं कि वह इस परिवार की छोटी बहू बनने वाली है, अनुज की मंगेतर है. 7 महीने पहले ही धूमधाम से उन की सगाई हुई थी. अगर आज मम्मीपापा जीवित होते तो शायद परिस्थिति ही दूसरी होती. मातापिता की स्मृति से उस की आंखें भर आईं.

धुंधलाती आंखों से उस ने अनुज को अपनी तरफ आते देखा. तभी एक आधुनिक सी लड़की अनुज के करीब आ कर हंसहंस कर कुछ कहने लगी. अनुज भी हंसने लगा. फिर दोनों कार पार्किंग एरिया की तरफ चल दिए.

दिव्या ने निशब्द सिसकी ली. आंखें झपकाईं तो 2 बूंदें आंसू की पलकों से टपक पड़ीं. आंसू पोंछ कर वह यों ही इधरउधर देखने लगी. तभी कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर वह चौंक पड़ी.

‘‘भाभी तुम,’’ वह खुशी से चहकी. वे मीरा भाभी थीं, गांव में उस की पड़ोसी और सहेली.

‘‘अकेली क्यों बैठी हो? अनुजजी कहां हैं?’’ मीरा पास बैठते हुए बोलीं.

वह, जो अपनी उपेक्षा से आहत बैठी थी, क्या बताती उन्हें. दादी के कहने पर गांव से उन के साथ आ तो गई थी पर यहां उस से किसी ने सीधेमुंह बात तक न की थी. अनुज से तो अकेले में मुलाकात तक नहीं हुई थी.

एक दुर्घटना में मातापिता को गंवा कर वह वैसे भी दुखी थी. अब इस नए आघात ने तो उसे भीतर तक तोड़ डाला था. उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था.

स्वरूप दिव्या के पिता के बचपन के मित्र थे. गांव में दोनों पड़ोसी थे. स्वरूप की मां दिव्या के पिता को बेटे की तरह प्यार करती थीं. दोनों परिवारों का प्यार अपनेआप में एक मिसाल था.

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स्वरूप पढ़ने में तेज थे. शहर में उच्च शिक्षा ले कर वहीं व्यवसाय शुरू किया और देखतेदेखते उन की गिनती करोड़पतियों में होने लगी. दिव्या के पिता गांव में ही रह गए. पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी तो वही संभालने लगे. एक ही बेटी थी दिव्या. स्वरूप की मां ने बचपन में ही दिव्या को छोटे पोते के लिए मांग लिया था. तब दोनों ही परिवार सहमत हो गए पर समय के साथसाथ जीवन स्तर का अंतर होने लगा था.

अब दादी चाहती थीं कि बड़े पोते सतीश के साथ ही अनुज की शादी भीकर दी जाए. अब न तो अनुज और न ही उस के मांबाप गांव की लड़की ब्याह कर लाना चाहते थे. पर दादी जिद पर अड़ गई थीं. स्वरूप मां को नाराज नहीं करना चाहते थे, सो, पत्नी और बेटे को समझाया गया कि अभी सगाई कर लेते हैं, शादी बाद के लिए टाल देंगे. कम से कम सतीश की शादी तो शांति से हो जाए.

दादी ने धमकी दी थी कि अगर अनुज और दिव्या की शादी न हुई तो वे सतीश की शादी में शामिल नहीं होंगी. अनुज को समझाया कि एक बार दिव्या को देख तो लो. सगाई कर लो. और सगाई का क्या, सगाइयां तो टूटती रहती हैं.

अनुज गांव गया दादी से मिलने. इस बार मकसद दिव्या को देखना था. दिव्या उसे दादी के घर में ही मिल गई. अनुज ने कभी बचपन में उसे देखा था. आज देखा तो नजरें नहीं हटा पाया. गोरा गुलाबी चेहरा बिना किसी मेकअप के दमक रहा था. बड़ीबड़ी आंखें, लंबी पलकों की झालरें, गुलाबी होंठ, कमर के नीचे तक झूलती मोटी सी चोटी, सांचे में ढला बदन. जाने क्यों अनुज का जी चाहा कि उन नाजुक होंठों को छू कर देखे कि वह सचमुच गुलाबी हैं या लिपस्टिक का रंग है. उसी दिलकश रूप को आंखों में बसाए वह वापस आ गया और सगाई के लिए हां कर दी. एक हफ्ते बाद ही सगाई भी हो गई.

सगाई के लगभग एक महीने बाद ही एक ऐक्सिडैंट में दिव्या के मम्मीपापा की मौत हो गई. दिव्या तो दुख से अधमरी ही हो गई पर दादी ने उसे समेट लिया. अनुज और उस के मांबाप भी आए पर कुछ घंटे बाद ही लौट गए.

शहरों की अपेक्षा गांव में अभी भी मानवीय संवेदना बची है. दिव्या को यह एहसास ही नहीं होता कि वह अकेली है, अनाथ है. गांव की औरतें, सहेलियां दिनभर आतीजाती रहतीं. जाड़ों में आंगन में धूप में बैठती तो कितनी औरतें और लड़कियां उस के पास जुट जातीं. कोई चाय बना लाती तो कोई जबरदस्ती खाना खिला देती. रात को अनुज की दादी उस के साथ सोतीं.

धीरेधीरे उसे अकेले जीने की हिम्मत और आदत पड़ने लगी थी. घरबाहर मम्मीपापा की यादें बिखरी थीं, पर अब वह हर वक्त आंसू नहीं बहाती थी. मीरा भाभी के ही सुझाव पर वह गांव के बच्चों को निशुल्क ट्यूशन पढ़ाने लगी थी. पर, एक सवाल था जो अब भी उसे रात को सोने नहीं देता था.

दिव्या के चाचा दूर रहते थे. वे जब गांव आए तो दादी से मिलने गए थे और उन से साफसाफ बात की थी, ‘अब तो भाईसाहब को गए भी 6 महीने से ज्यादा हो गए हैं. एक ही लड़की है. रिश्तेदारी के नाम पर सिर्फ मैं ही हूं. घर से काफी दूर रहता हूं. भाईसाहब की मौत पर आए थे स्वरूप साहब, फिर पलट कर कभी होने वाली बहू की सुध न ली. अकेली लड़की कैसे रह रही है, यह उन की भी तो जिम्मेदारी है. अब तो सुना है बड़े बेटे की शादी है अगले महीने. फिर छोटे की कब करेंगे?

‘विचार बदल गया है तो वह भी साफसाफ बता दें. अब तो गांव वाले भी बातें बनाते हैं कि सगाई टूट गई. बाप मर गया तो क्या, सबकुछ बेटी का ही तो है. अगर शादी न करनी हो तो वह भी बता दें. हमारी लड़की कोई कानीलूली न है. लाखों में एक है. लड़कों की कोई कमी न है.’

‘चिंता न कर गिरधारी, मैं अब की बार जा कर बात करती हूं. दिव्या को भी सुधीर की शादी में ले जा रही हूं. सब ठीक होगा,’ दादी ने कह तो दिया पर गहरी सोच में डूब गईं.

दिव्या का बहुत ठंडा स्वागत हुआ था. मिस्टर स्वरूप और सरोजिनी तो चौंक ही गए थे उसे घर पर आया देख कर. दिव्या ने उन के पैर छुए तो सिर पर हाथ रख कर इधरउधर हो लिए. वह दादी के पीछेपीछे लगी रहती. इतने बड़े घर में रहने वाले तो नहीं दिखते, पर नौकरनौकरानियां जरूर इधरउधर दौड़तेभागते दिखते थे. उसे अनुज कहीं न दिखा. लगा ही नहीं कि शादी का घर है. किसी को न तो दिव्या में दिलचस्पी थी और न समय था किसी के पास. वह दादी के साथ शाम को सीधे इस बंगले में पहुंच गई थी जहां आयोजन था और अब यहां आ कर पछता रही थी.

‘‘कहां खो गई दिव्या?’’ मीरा ने उस का कंधा हिलाया, उस का हाथ थाम कर बोली, ‘‘सुनो, परेशान न हो. शादी के बाद तुम धीरेधीरे इस लाइफस्टाइल में एडजस्ट कर लोगी. चलो, अब उठो, खाना खाते हैं.’’

दिव्या उठी, तभी खयाल आया, ‘‘भाभी, दीपू और मुन्नी कहां हैं? तुम क्या अकेली आई हो गांव से?’’

‘‘अरेअरे, इतने सवाल,’’ मीरा हंस पड़ी. ‘‘शादी का कार्ड मिला तो सोचा हम भी बड़े लोगों की शादी देख आएं. तुम्हारे भैया तो दिल्ली गए हैं. मैं कल बच्चों के साथ बस से आ गई. यहां मायका है न मेरा. मेरा भाई आया है साथ. बच्चे उसी के साथ हैं.’’

‘‘मैडमजी,’’ 2 प्यारे बच्चे आ कर दिव्या से लिपट गए. वे मीरा के बच्चे थे. दिव्या से पढ़ते थे, इसलिए मैडमजी ही कहते थे. दिव्या से प्यार भी बहुत था. हर समय वे उसी के घर रहते थे.

‘‘वाह रे, मतलबी बच्चो. आइसक्रीम खिलाई मामा ने और प्यारदुलार मैडमजी को,’’ हंसता हुआ संदीप आ गया.

‘‘दिव्या, यह संदीप है, मेरा भाई और यह दिव्या है मेरी पड़ोसिन और सहेली,’’ मीरा ने दोनों का परिचय कराया.

दिव्या ने हाथ जोड़ दिए पर संदीप तो शायद अपने होशहवास ही खो बैठा था. उस के यों घूरने पर दिव्या बच्चों को थामे आगे बढ़ गई. मीरा ने संदीप की आंखों के आगे हाथ लहराया. ‘‘भाई, ये जलवे पराए हैं, वह देख रहे हो नीले सूट वाला, उसी की मंगेतर है.’’

हक्काबक्का सा संदीप मन ही मन सोचने लगा, ‘काश, यह मंगनी टूट जाए.’ संदीप ने आसमान की ओर देखा फिर मीरा से पूछा, ‘‘वैसे अगर यह उस की मंगेतर है तो यों अलगथलग क्यों बैठी है और वह अमीरजादा उस मेमसाहब के साथ क्यों चिपक रहा है भला?’’

मीरा ने गहरी सांस ली और दिव्या की कहानी खोल कर सुना दी.

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सुबह दिव्या की आंख देर से खुली. दादी कमरे में नहीं थीं. वह वाशरूम में चली गई. उसे कमरे में कुछ लोगों के बोलने की आवाजें आने लगीं. नल बंद कर के वह सुनने लगी.

‘‘मैं ने कब कहा कि वह अच्छी नहीं है पर मेरे साथ नहीं चल सकती. दादी, मैं ने रिचा को प्रपोज किया है और वह मान गई है. मेरे बाहर जाने से पहले हम शादी कर रहे हैं,’’ अनुज कह रहा था.

‘‘मांजी, आप को पता है कि रिचा के डैड ने अनुज की कितनी हैल्प की है विदेश जाने में. फिर सतीश की वाइफ पूजा कितनी मौडर्न है. दिव्या हमारे सर्कल में कैसे फिट बैठेगी…’’ बहू की बात काट कर दादी तमक कर बोलीं, ‘‘हांहां सरोज, तू तो सीधी लंदन से आई है न. वह दिन भूल गई जब नदी पर कपड़े धोवन जाती थी और गोबर के उपले थापती थी. तुझे देखने गए थे तो कुरसी भी न थी घर में बैठने को, टूटी चारपाई पर बैठे थे. तू थी गंवार, दिव्या एमए पास है, समझी. बड़ी आई मौडर्न वाली.’’ अनुज और मिस्टर स्वरूप हंसने लगे तो सरोजनी ठकठक करते हुए कमरे से निकल गईं.

‘‘मां,’’ मिस्टर स्परूप का गंभीर स्वर गूंजा था, ‘‘कमी दिव्या में नहीं है. वह मेरे दोस्त की निशानी है, मेरी बेटी समान. पर अब यह रिश्ता संभव नहीं है. रिचा के पिता बहुत पहुंच वाले बड़े आदमी हैं. उन से रिश्ता जोड़ कर अनुज का भविष्य अच्छा ही होगा. मैं नहीं चाहता कि दिव्या से शादी कर के यह खुद दुखी रहे और उसे भी दुखी रखे. यह जीवनभर का सवाल है.’’

मिस्टर स्वरूप का आखिरी वाक्य दिव्या के अंतर्मन को छू गया. आंसू पोंछ कर वह बाहर आई. स्वरूप साहब के पैर छू कर उंगली से अंगूठी उतार कर उन को दे दी. हक्कीबक्की दादी कुछ कहतीं, इस से पहले ही उस ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘प्लीज दादी, मुझे घर भिजवा दीजिए.’’

फिर कोई कुछ न बोला. दादी ने ही शायद मीरा को फोन किया था. वह आई और दिव्या का सामान पैक करवाती रही. फिर दादी से विदा ले कर दोनों बाहर आईं.

‘‘दिव्या,’’ किसी ने पुकारा था. दिव्या रुक गई. अनुज ने उसे अंगूठी लौटाई और भी बहुत कुछ कह रहा था, पर वह रुकी नहीं.

अंगूठी मुट्ठी में बंद कर जा कर कार में बैठ गई. सीट पर सिर को टिकाते हुए आंखें बंद कीं तो आंखों से 2 मोती टपक पड़े. बगल में बैठे संदीप ने हैरत से यह नजारा देखा.

‘‘मैडमजी, जरा दरवाजा बंद कर दीजिए.’’ उस ने आंखें खोलीं तो ड्राइविंग सीट पर घूरने वाला वही आदमी बैठा था. दरवाजा बंद कर के वह मुंह फेर कर बाहर देखने लगी. संदीप ने अपने दिल को लताड़ा, ‘बेचारी दुखी है, रो रही है और तू इस की सगाई टूटने पर खुश है.’ पर दिल का क्या करे. जब से दिव्या से मिला था उस का दिल उस के काबू में न था. जी चाहता था कि दिव्या के आंसू अपने हाथ से पोंछ कर उस के सारे गम दूर कर दे. उस के चेहरे से उदासी नोंच फेंके, वह हंसती रहे और वह उस के गालों के भंवर में डूबताउतराता रहे.

दिव्या चुपचाप गांव लौट आई थी. संदीप दिव्या से जबतब मिलने की कोशिश करता लेकिन वह जबजब उस से बात करने की कोशिश करता वह कतरा कर निकल जाती. एक ऐसी ही शाम वह नीम के पेड़ के साए तले पड़े झूले पर बैठी थी. गोद में मुन्नी थी. लंबे घने बाल खुले थे. धीरेधीरे कुछ गुनगुना रही थी.

‘‘यों सरेआम पेड़ के नीचे बाल खोल कर नहीं बैठते, जिन्न आशिक हो जाते हैं,’’ पीछे से आवाज आई तो वह चौंक कर चीख पड़ी. झूले से अचकचा कर उठी तो मुन्नी भी रोने लगी. संदीप तो हवा में लहराते बाल देखता रह गया, जैसे काली घटा ने चांद को घेर रखा हो. मुन्नी को थपकती हुई दिव्या भीतर जाने को मुड़ी. जातेजाते एक नाराजगीभरी नजर संदीप पर डाली तो उसे एहसास हुआ कि वह एकटक उसे घूरे जा रहा था.

‘‘मैडमजी, मैं मुन्नी को लेने आया था,’’ वह उस के पीछे लपका. दिव्या रुक गई. ‘‘मैं कुछ देर में खुद ही उसे छोड़ आऊंगी,’’ और फिर वह अंदर चली गई. संदीप हिलते परदे को देखता रह गया. मन ही मन शर्मिंदा हुआ. वह शरीफ बंदा था पर दिव्या के सामने न जाने क्यों दिल और आंखें बेकाबू हो जाते थे और वह नाराज हो जाती थी.

एक रोज वह सुबह स्कूल के लिए निकल ही रही थी कि कार का हौर्न सुनाई दिया. बाहर निकली तो कार में दीपू और मुन्नी बैठे थे. ‘‘मैडम, आइए न, आज हम कार से जाएंगे.’’ दोनों जिद करने लगे तो उसे बैठना ही पड़ा.

‘‘मैडम आज आप ने रैड साड़ी पहनी है न, तो आप के लिए यह रैड गुलाब.’’ मुन्नी ने उस की ओर एक गुलाब बढ़ाया, फिर दीपू ने भी. आखिर में खामोशी से एक गुलाब ड्राइविंग सीट पर बैठे संदीप ने भी बढ़ाया. कुछ सोच कर उस ने थाम लिया. संदीप ने खुश हो कर गाड़ी स्टार्ट की. दिव्या यह समझी कि उस शाम के लिए सौरी कहने का तरीका है शायद.

स्कूल में साथी टीचर्स उसे देख कर मुसकराईं. ‘‘क्यों भई, इतने गुलाब किस ने दे दिए सुबहसुबह?’’ वह कुछ जवाब देती, इस से पहले ही मोबाइल पर एसएमएस आया, ‘हैप्पी वेलैंटाइन डे, संदीप.’ वह कुढ़ कर रह गई. पर जाने क्यों एक मुसकान भी होंठों पर आ गई. सारे दिन वह अनमनी सी रही. खुद से ही सवाल करती. क्या पुराने जख्म भर गए हैं? क्या वह फिर नए फरेब के लिए तैयार है? क्या वह कठोरता का खोल चढ़ाएचढ़ाए थक चुकी है? इतनी सावधानी के बाद भी क्या कोई झरोखा खुला रह गया है मन का?

इस तरह के सवाल उस के मन में उमड़तेघुमड़ते रहे. शाम को यों ही अनमनी सी छत पर खड़ी थी कि मीरा भाभी वहीं चली आईं. ‘‘दिव्या, तुम तो हमें भूल ही गईं. घर क्यों नहीं आती हो? क्या तबीयत खराब है?’’

‘‘नहीं भाभी, ऐसी बात नहीं है. बस, थोड़ा थक जाती हूं. आप रुकिए न. मैं चाय बना लाती हूं,’’ दिव्या बोली. ‘‘चाय के लिए मैं काकी को कह कर आई हूं. एक खास बात करने आई थी,’’ मीरा ने आगे बढ़ कर उस के दोनों हाथ थाम लिए.

‘‘दिव्या, जो बीत गया उसे भुला कर नई जिंदगी शुरू करो. संदीप तुम्हें बहुत खुश रखेगा. वह बहुत प्यार करता है तुम से, शादी करना चाहता है,’’ मीरा ने कहा. दिव्या ने धीरे से हाथ छुड़ा लिए. जाने क्यों मन भर आया और आवाज गले में फंस गई. बचपन से जिस बंधन में बंधी थी वह कैसे एक पल में टूट गया और कोई दूसरा इंसान कैसे उसे हाथ बढ़ा कर मांग रहा है, सबकुछ जानते हुए भी. वह तो अनाथ है, कौन है जो उस के लिए रिश्ते ढूंढ़ रहा हो. पर जाने कैसी वीरानी सी मन में छा गई है. खुशियों से डर सा लगता है.

‘‘भाभी, मैं शादी नहीं करना चाहती. तुम्हारा भाई तो यों ही मनचला सा है. तुम्हीं ने शादी की बात की होगी. मैं जानती हूं तुम्हें मुझ से प्यार है, हमदर्दी है,’’ कहतेकहते वह पलटी तो मीरा के पीछे खड़े संदीप को देख कर चुप हो गई. मीरा चाय लाने के बहाने नीचे चली गई. वह भी सीढि़यों की तरफ बढ़ी, तभी संदीप ने उस की कलाई थाम ली.

एक सरसराहट सी खून के साथ दिव्या के सारे शरीर में दौड़ गई. ‘‘छोडि़ए मेरा हाथ,’’ उस ने कमजोर सी आवाज में कहा.

‘‘दिव्या, मेरी तरफ देखो. क्या तुम पहली नजर के प्यार पर विश्वास करती हो? मैं पहले नहीं करता था पर जब तुम्हें पहली बार देखा तो यकीन आ गया. दिल ने तुम्हें देखते ही कहा कि तुम मेरी हो. तुम्हारे सामने आ कर खुशी के मारे मेरा दिल बावला हो जाता और मैं हमेशा ही ऐसी हरकत कर बैठता कि तुम नाराज हो जातीं. मुझ पर यकीन करो दिव्या, मैं तुम्हारे सुखदुख सभी के साथ तुम्हें अपनाऊंगा और अब कभी भी तुम्हारी आंखों में आंसू न आएंगे, यह वादा रहा.’’ संदीप ने अब उस का हाथ छोड़ दिया था. अपनी बेतरतीब धड़कनों को समेटती वह तुरंत वहां से चली गई.

रातभर वह करवटें बदलती रही. अनुज ही वह शख्स था जिस के साथ उस ने कभी खुशहाल जीवन के ख्वाब देखे थे. शुरूशुरू में अनुज गांव आता तो उस से मिलने आ जाता था. दिव्या की सुंदरता उसे अपनी तरफ खींचती थी. कभी घूमने को कहता तो दिव्या अकेली साथ न जाती, न ही वह खुल कर हंसतीबोलती, न अकेले में मिलती. एकाध बार अनुज ने उसे अपने निकट करना चाहा तो वह बिदक कर भाग निकलती. हाथ पकड़ता तो शर्म से लाल हो जाती. वह बोलता जाता और वह हांहूं करती.

धीरेधीरे अनुज उस पत्थर की गुडि़या से ऊब गया था, फिर तो गांव आ कर भी उस से नहीं मिलता. वह उस की झलक पाने को तरस जाती. शहर में भी वह उस की उपेक्षा ही झेलती रही थी. अचानक ये संदीप कहां से आ गया. हरदम उस के पीछे, मुग्ध नजरों से उसे निहारता हुआ, उस की झलक पाने को बेताब.

उस की आंखों में झलकते प्यार को एक नारी होने के नाते वह साफ देखती थी. पर अब रिश्तों के छलावे से डर लगता था. क्या करे, ऐसे में मातापिता की याद आती पर क्या कर सकते थे. रोतेरोते सिर भारी हो गया. सवेरे तक बुखार में तप रही थी.

खबर पाते ही मीरा दौड़ी आई. उसे जबरदस्ती चाय और ब्रैड खिलाई. फिर माथे पर ठंडी पट्टियां रखती रही. कुछ ही देर में संदीप डाक्टर को ले कर चला आया. डाक्टर ने बुखार चैक कर के दवा दी. मीरा खाना बनाने किचन में चली गई.

संदीप ने उसे गोली और पानी का गिलास थमाया. ‘‘मैडमजी, आप तो बहुत नाजुक हैं, भई, हाथ पकड़ा तो बुखार आ गया. पता नहीं…’’

दिव्या ने उसे घूर कर देखा तो उस ने दोनों कान पकड़ लिए. दिव्या ने लेट कर आंखें मूंद लीं. संदीप माथे की पट्टियां बदलता रहा.

दूसरे दिन दिव्या का बुखार उतर गया, पर कमजोरी महसूस हो रही थी. वह लौन में धूप में बैठी थी, जब दीपू मुन्नी चले आए. ‘‘मैडमजी, आप ठीक हो गईं.’’ दोनों उस के लिए गुलाब के फूल लाए थे. उस ने फूल थामे तो कुछ याद आया. ‘‘ये फूल तुम्हें किस ने दिए हैं?’’ तभी प्रश्न का उत्तर सशरीर हाजिर हो गया. उस के हाथों में सुर्ख गुलाबों का गुलदस्ता था. ‘‘मैडमजी, आप के स्वस्थ होने पर,’’ उस ने हाथ बढ़ाया. ‘जाने इस आदमी की मुसकराहट इतनी शरारतभरी क्यों हैं?’ दिव्या सोचने लगी.

‘‘थैंक्यू, आप ने मेरा इतना ध्यान रखा,’’ दिव्या बोली.

‘‘मैं ने आप का नहीं, अपनी जान का ध्यान रखा, समझीं मैडमजी.’’ अब तो दिव्या का वहां रुकना मुश्किल हो गया.

गांव में मेला लगा था. बच्चे दिव्या से बड़े झूले (पवन चक्के) में बैठने की जिद कर रहे थे. पर वह ठहरी सदा की डरपोक. आखिर मां के साथ बैठ गए. एक ही सीट खाली थी. दूर खड़ी दिव्या का ध्यान कहीं और था. तभी किसी ने उस का हाथ पकड़ा और ले जा कर झूले पर साथ बैठा लिया. दिव्या पानी में बहते तिनके सी उड़ती चली गई जैसे खुद पर उस का अपना वश न हो.

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घर्रघर्र की कर्कश आवाज के साथ झूला ऊपरनीचे जाना शुरू हुआ तो दिव्या जैसे स्वप्न से जागी. अब उसे भान हुआ कि वह कहां बैठी है. उस ने संदीप का बाजू दोनों हाथों से दबोच लिया और डर के मारे मुंह से एक चीख निकल गई. संदीप ने उसे थपथपाया और उस के कंधे के चारों ओर बाजू डाल उसे करीब किया. दिव्या का सिर उस के कंधे पर था.

‘‘आई लव यू, दिव्या,’’ दिव्या के कानों में जैसे शीतल फुहारें पड़ी हों. ‘‘आई लव यू टू,’’ उस के नाजुक लब हिले. बाकी के स्वर झूले और झूलने वालों के शोरगुल में खो गए.

जड़ों से जुड़ा जीवन: भाग 1- क्यों दूर गई थी मिली

कहानी- वीना टहिल्यानी

मुख्य सड़क से घर की ओर मुड़ते ही मिली सहसा ठिठक गई. दूर से ही देखा कि पोर्च में डैड की गाड़ी खड़ी थी. ‘डैड इस समय घर में,’ यह सोच कर ही मिली का दिल बैठ गया. स्कूल से घर लौटने का सारा उत्साह जाता रहा. दिन के दूसरे पहर में, डैड का घर में होने का मतलब है वह बैठ कर पी रहे होंगे.

शराब पी लेने के बाद डैड और भी अजनबी हो जाते हैं. उन के मन के भाव उन की आंखों में उतर आते हैं. तब मिली को डैड से बहुत डर लगता है. सामने पड़ने में उलझन होती है.

मिली ने धीरे से दरवाजा खोला. दरवाजे की ओर डैड की पीठ थी. हाथ में गिलास थामे वह टेलीविजन देख रहे थे. दबेपांव मिली सीढि़यां चढ़ कर अपने कमरे में पहुंच गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. बैग को कमरे में एक ओर पटका और औंधेमुंह बिस्तर पर जा पड़ी. कितनी देर तक मिली यों ही लस्तपस्त पड़ी रही.

अचानक मिली को हलका सा शोर सुनाई दिया तो वह चौंक कर उठ बैठी. शायद आंख लग गई थी. नीचे वैक्यूम क्लीनर के चलने की धीमी आवाज आ रही थी.

‘अरे हां,’ मिली के मुंह से अपनेआप बोल फूट पड़े, ‘आज तो फ्राइडे है… साप्ताहिक सफाई का दिन.’ उस ने खिड़की से नीचे झांका तो पोर्च  में मिसेज स्मिथ की छोटी कार खड़ी थी. डैड की गाड़ी गायब थी, शायद वह कहीं निकल गए थे.

मिली ने झटपट ब्लेजर हैंगर में टांगा. जूते रैक पर लगाए और गरम पानी के  बाथटब में जा बैठी.

नहाधो कर मिली नीचे पहुंची तो मिसेज स्मिथ डिशवाशर और वाशिंग मशीन लगा कर साफसफाई में लगी थी.

शुक्रवार को मिसेज स्मिथ के आने से मिली डिशवाशिंग से बच जाती है वरना स्कूल से लौट कर लंच के बाद डिशवाशर लगाना, बरतन पोंछना व सुखाना उसी का काम है.

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मिली को बड़े जोर से भूख लग आई तो उस ने फ्रिज खोल कर अपनी प्लेट सजाई और माइक्रोवेव में उसे लगा कर खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गई. सुरमई सांझ बिलकुल बेआवाज थी.

ऐसी खामोशी में मिली का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा और गुजरा समय कितना कुछ आंखों के आगे तिर आया.

बरसों बीत गए. मिली तब यही कोई 5 साल की रही होगी. सब समझते हैं कि मिली सबकुछ भूल चुकी है पर मिली कुछ भी तो नहीं भूल पाई है.

वह देश, वह शहर और उस की गलियां व घर और इन सब के साथ फरीदा अम्मां की यादें जुड़ी हैं. और उस के ढेरों साथी, बालसखा, उस की यादों में आज भी बने हुए हैं.

तब वह मिली नहीं, मृणाल थी. उस के हुड़दंग करने पर फरीदा अम्मां उसे लंबेलंबे बालों से पकड़तीं और उस की पीठ पर धौल जड़ देतीं. बचपन की बातें सोचते ही मिली को पीठ पर दर्द का एहसास होने लगा और अनायास ही उस का हाथ अपने बौबकट बालों पर जा पड़ा. डाइनिंग टेबल पर मुंह में फिश-चिप्स का पहला टुकड़ा रखते ही मिली की जबान को माछेरझोल का स्वाद याद हो आया और याद आ गईं कोलकाता की छोटीछोटी शामें, बाल आश्रम के गलियारों में गुलगपाड़ा मचाते हमजोली, नाराज होती फरीदा अम्मां, नन्हेमुन्नों को पालने में झुलाती, सुलाती वेणु मौसी.

तब लंबेलंबे गलियारों व बरामदों वाला बाल आश्रम ही उस का घर था. पहली बार स्कूल गई तो घर और आश्रम में अंतर का भेद खुला. साथ ही उसे यह भी पता चला कि उस के मातापिता नहीं थे, वह अनाथ थी.

उस दिन स्कूल से लौट कर अबोध मिली ने पहला प्रश्न यही पूछा था, ‘फरीदा अम्मां, मेरी मां कहां हैं?’

फरीदा बरसों से अनाथाश्रम में काम कर रही थीं. एक नहीं अनेक बार वह इस सवाल का पहले भी सामना कर चुकी थीं. मिली के इस प्रश्न से वह एक बार फिर दुखी व बेचैन हो उठीं. उन के उस मौन पर मिली ने अपने सवाल को नए रूप में दोहराया, ‘फरीदा अम्मां, मेरा घर कहां है? मां मुझे यहां क्यों छोड़ गईं?’

नन्हे सुहेल को गोद में थपकी देते हुए फरीदा ने सहजता से उत्तर दिया, ‘रही होगी बेचारी की कोई मजबूरी…’

‘यह मजबूरी क्या होती है, अम्मां?’ उलझन में पड़ी मिली ने एक और प्रश्न किया.

मिली के एक के बाद एक प्रश्नों से फरीदा अम्मां झल्ला पड़ीं. तभी सुहेल जाग कर जोरजोर से रोने लगा था. सहम कर मृणाल ने अपना मुंह फरीदा की गोद में छिपा लिया और सुबकने लगी.

फरीदा ने पहले तो सुहेल को चुप कराया फिर मिली को बहलाया और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘रो मत, बिटिया…मैं जो हूं तेरी मां…चलोचलो, अब हम दोनों मिल कर तुम्हारी किताब का नया पाठ पढ़ेंगे…’

मृणाल को अब खेलतेखाते उठते- बैठते बस एक ही इंतजार रहता कि मां आएगी…उसे दुलार कर गोद में बिठाएगी. स्कूल तक छोड़ने भी चलेगी-सोहम की मां जैसे. विदुला की मम्मी तो उस का बस्ता भी उठा कर लाती हैं…उस की भी मां होतीं तो यही सब करतीं न…पर…पर…वह मुझे छोड़ कर गईं ही क्यों?

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फिर एक दिन लंदन से ब्र्र्राउन दंपती एक बच्चा गोद लेने आए और उन्हें मिली उर्फ मृणाल पसंद आ गई. सारी औपचारिकताएं पूरी होने पर काउंसलर उसे पास बैठा कर सबकुछ स्नेह से समझाती हैं:

‘मिली, तुम्हारे मौमडैड आए हैं. वह तुम्हें अपने साथ ले जाएंगे, खूब प्यार करेंगे. खेलने के लिए तुम्हें ढेरों खिलौने देंगे.’

मिली चौंक कर चुपचाप सबकुछ सुनती रही थी. फरीदा अम्मां भी यही सब दोहराती रहीं पर मिली खुश नहीं हो पाई. बाहर से देख कर लगता, मिली बहल गई है पर भीतर ही भीतर तो वह बहुत भयभीत है.

ऐसा पहले भी हो चुका है, कुछ लोग आ कर अपना मनपसंद बच्चा अपने साथ ले जाते हैं. अभी कुछ महीने पहले ही कुछ लोग नन्ही ईना को ले गए थे. ईना कितनी छोटी थी, बिलकुल जरा सी. वह हंसीखुशी उन की गोद में बैठ कर हाथ हिलाती चली गई थी पर मिली तो बड़ी है. सब समझती है कि उस का सबकुछ छूट रहा था. फरीदा अम्मां, घर, स्कूल संगीसाथी.

मृणाल का रोना फरीदा अम्मां सह नहीं पातीं. आतेजाते अम्मां उसे बांहों में भर कर गले से लगाती हैं, फिर जोर से खिलखिलाती हैं. मिली भी उन का भरपूर साथ देती है, आतेजाते उन की गोद में छिपती है, उन के आंचल से लिपटती है.

जाने का दिन भी आ गया. सारी काररवाई  पूरी हो गई. अब तो बस, नए देश, नए नगर जाना था.

चलने से पहले अंतिम बार फरीदा ने मृणाल को गोद में बैठा कर गले से लगाया तो मिली फुसफुसाते, गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘फरीदा अम्मां, जब मेरी असली वाली मां आएंगी तो तुम उन्हें मेरा पता जरूर दे देना…’ इतना कहतेकहते मिली का गला रुंध गया था.

मिली का इतना कहना था कि फरीदा अम्मां का सब्र का बांध टूट गया और दोनों मांबेटी एकदूसरे से लिपट कर रो पड़ी थीं.

आगे पढें- घर के लाल कालीन पर पैर…

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GHKKPM: सई पर हाथ उठाएगी पाखी, देखें वीडियो

सीरियल गुम हैं किसी के प्यार में (Ghum Hai Kisi Ke Pyaar Mein) की कहानी नया मोड़ लेने वाली है, जिसके चलते विराट (Neil Bhatt) जहां चौह्वाण परिवार के पास वापस जाएगा तो वहीं सई (Aisha Singh) और पाखी (Aishwarya Singh) के बीच जंग होती नजर आएगी. आइए आपको बताते हैं क्या होगा शो में आगे  (Ghum Hai Kisi Ke Pyaar Mein Update)…

परिवार से दूर जाने की कोशिश करेगा विराट

अब तक आपने देखा कि विराट अपने परिवार के पास जाने से मना कर देता है, जिसके चलते विराट की मां अश्विनी काफी इमोशनल नजर आती हैं. हालांकि सई पूरी कोशिश करती है कि वह विराट को मना सके. वहीं पाखी पूरे चौह्वाण परिवार को सई के खिलाफ करने की कोशिश करती हुई नजर आती है.

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घर लौटेगा विराट

 

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अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि सई, विराट की ड्राइवर बनकर उसके साथ नजर आएगी. वहीं विराट अपने दोस्त के घर रहने का फैसला करेगा, जिसके चलते उसकी मां अश्विनी, विराट से मिलने के लिए पहुंचेगी और उसे घर ले जाने की कोशिश करेगी. वहीं मां के इमोशन को देखकर विराट चौह्वाण हाउस जाने का फैसला करेगा. वहीं दूसरी तरफ, विराट के घर वापस आने की खुशी में पूरा परिवार पार्टी की तैयारी करेगा.

सई और पाखी के बीच होगी बहस

 

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इसके अलावा आप देखेंगे कि सीरियल में होलिका दहन सेलिब्रेशन देखने को मिलेगा. जहां पर विराट परिवार के साथ होलिका दहन करेगा. वहीं सोनाली उसे सई समेत सभी पुरानी बुरी यादें जलाने के लिए कहेगी. लेकिन इस दौरान सई आएगी और विराट के साथ होलिका दहन करेगी, जिसके चलते पाखी को गुस्सा आएगा और वह सई को बुरा भला कहेगी और उसे थप्पड़ मारने की कोशिश करेगी. हालांकि सई उसे रोक लेगी और करारा जवाब देगी. हालांकि अब देखना होगा कि सई और विराट की कहानी में कौनसा नया मोड़ आता है.

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Shocking: Divya Aggarwal और Varun Sood का हुआ ब्रेकअप, पढ़ें खबर

रियलिटी शो से लेकर बिग बॉस ओटीटी (Bigg Boss OTT) की विनर रह चुकीं एक्ट्रेस दिव्या अग्रवाल (Divya Agarwal) अपनी लव लाइफ के चलते सुर्खियों में रहती हैं. वहीं हाल ही में एक्ट्रेस ने एक पोस्ट के जरिए ब्रेकअप की खबर से फैंस को चौंका दिया है, जिसके चलते वह चर्चा में आ गई हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

पोस्ट शेयर कर कही ये बात

लॉन्ग टाइम बॉयफ्रेंड वरूण सूद  (Varun Sood) संग अक्सर रोमांटिक फोटोज शेयर करने वाली एक्ट्रेस दिव्या अग्रवाल (Divya Agarwal) ने हाल ही में एक पोस्ट शेयर करते हुए अपने ब्रेकअप का ऐलान किया है. दरअसल, एक्ट्रेस ने एक इमोशनल पोस्ट शेयर करते हुए लिखा, ‘ लाइफ एक ऐसा सर्कस है! हर किसी को खुश रखने की कोशिश करो, कुछ भी सच होने की उम्मीद मत करो. लेकिन क्या होता है जब खुद से प्यार कम होने लगे? नहीं, मेरे साथ जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए मैं किसी को दोष नहीं देती.. मुझे लगता है कि काम हो गया है .. और यह ठीक है .. मैं सांस लेना चाहती हूं और अपने लिए जीना चाहती हूं .. ठीक है! मैं इस पोस्ट के जरिए अन औफिशियल रूप से घोषणा करती हूं कि मैं इस लाइफ में अपने दम पर हूं और मैं अपनी शर्तों पर जीने के लिए समय चाहती हूं! नहीं, निर्णय के लिए हमेशा बड़े बयान, बहाने और कारण होना जरुरी नहीं है. इससे बाहर निकलना सिर्फ मेरी पसंद है. मैं रियलिटी में उसके साथ बिताए सभी खुशी के पलों को महत्व देती हूं और प्यार करती हूं. वह एक अच्छा लड़का है! वह हमेशा मेरा सबसे अच्छा दोस्त रहेगा.  कृपया मेरे फैसले का सम्मान करें.

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वरुण के पिता ने किया सपोर्ट

जहां दिव्या अग्रवाल और वरुण सूद के ब्रेकअप पर फैंस और सेलेब्स सवाल करते नजर आ रहे हैं तो वहीं एक्टर वरुण के पिता ने दिव्या के फैसले को सपोर्ट किया है. वहीं उनका साथ देते हुए नजर आए हैं.

बता दें कि वरुण सूद और दिव्या अग्रवाल 5 साल से रिलेशनशिप में हैं. रियलिटी शो से अपने रिश्ते की शुरुआत करने वाले दिव्या और वरुण की जोड़ी को फैंस बेहद पसंद करते हैं. वहीं इस कपल के ब्रेकअप से फैंस हैरान हैं.

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अजंता: भाग-1- आखिर क्या हुआ पूजा के साथ

लेखक- सुधीर मौर्य

अजंता को इस बात की बिलकुल भी उम्मीद नहीं रही होगी कि शशांक उस के फ्लैट पर आ जाएगा. डोरबैल बजने पर अजंता ने जब दरवाजा खोला तो सामने शशांक खड़ा था. उसे यों वहां आया देख कर अजंता सोच ही रही थी कि वह कैसे रिएक्ट करे तभी शशांक मुसकराते हुए बोला, ‘‘नमस्ते मैम, यहां से गुजर रहा था तो याद आया इस एरिया में आप रहती हैं. बस दिल में खयाल आया कि आप के साथ चाय पी लूं.’’

‘‘बट अभी मैं कल क्लास में देने वाले लैक्चर की तैयारी कर रही हूं, चाय पीने के लिए नहीं आ सकती,’’ अजंता ने शशांक को दरवाजे से लौटा देने की गरज से कहा.

‘‘अरे मैम, इतनी धूप में आप बाहर आ कर चाय पीएं यह तो हम बिलकुल न चाहेंगे. चाय तो हम यहां फ्लैट में बैठ कर पी सकते हैं. चाय मैं बनाऊंगा आप लैक्चर की तैयारी करते रहना और हां एक बात बता दूं हम चाय बहुत अच्छी बनाते हैं,’’ शशांक ने दरवाजे से फ्लैट के अंदर देखने की कोशिश करते हुए कहा मानो वह यह तहकीकात कर रहा हो कि इस वक्त अजंता फ्लैट में अकेली है या कोई और भी वहां है.

शशांक की कही बात का अजंता कोई जवाब न दे सकी. एक पल चुप रहने के बाद वह बिना कुछ कहे फ्लैट के भीतर आ गई. शशांक भी उस के पीछेपीछे अंदर आ गया. शशांक ने दरवाजा बंद किया तो उस की आवाज से अजंता ने पलट कर जब उसे देखा तो शशांक ने झट से पूछा, ‘‘मैम, किचन किधर है?’’

‘‘इट्स ओके,’’ अजंता सोफे की ओर इशारा कर के शशांक से बोली, ‘‘तुम वहां बैठो चाय मैं बना कर लाती हूं.’’

‘‘एज यू विश,’’ शशांक ने मुसकरा कर कहा और फिर सोफे पर यों बैठ गया जैसे वह वहां मेहमान न हो, बल्कि यह फ्लैट उसी का हो.

शशांक को वहां बैठा देख कर अजंता किचन में चली गई. शशांक जाती हुई अजंता की लचकती कमर और रोमहीन पिंडलियां देखता रहा. अजंता नौर्मली जब घर पर होती है ढीलाढाला कुरता और हाफ पाजामा पहनती है. यही उस की स्लीपिंग ड्रैस भी है. इस में वह काफी कंफर्ट महसूस करती है.

‘‘मैम, क्या एक गिलास ठंडा पानी मिल सकता है,’’ गैस जला कर अजंता ने चाय बनाने के लिए पानी चढ़ाया ही था कि अपने बेहद करीब शशांक की आवाज सुन कर चौंक पड़ी. हाथ में पकड़ा चायपत्ती वाला डब्बा हाथ से गिरतेगिरते बचा.

अपनी आवाज से अजंता को यों चौंकते देख कर शशांक ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैम, बाहर बहुत धूप है… प्यास से गला सूख गया है.’’

अजंता ने हाथ में पकड़ा चायपत्ती वाला डब्बा एक ओर रख फ्रिज से पानी की बोतल निकाल शशांक को पकड़ा दी. हाथ में पानी की बोतल लिए शशांक ने खुद गिलास लिया. गिलास लेते समय शशांक का जिस्म अजंता के जिस्म से तनिक छू गया. अजंता ने इस टच पर कोई रिएक्शन नहीं दिया. गिलास में पानी डाल कर पीने के बाद शशांक ने कहा, ‘‘मां कहती हैं कि पानी हमेशा गिलास से पीना चाहिए, सीधे बोतल से कभी नहीं.’’

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तुम्हारी मां यह नहीं कहतीं कि एक अकेली लड़की से मिलने उस के घर नहीं जाना चाहिए, अजंता यह कहने ही वाली थी कि उस से पहले ही शशांक ड्राइंगरूम में चला गया. चाय पीते हुए शशांक ने अजंता से ढेरों बातें करने की कोशिश की, लेकिन अजंता उन के जवाब में सिर्फ हां, हूं, नहीं आदि बोल उसे इग्नोर करने का प्रयास करती रही. चाय खत्म होने के बाद शशांक को टालने की गरज से अजंता ने कुछ पेपर उठा लिए और उन्हें मन ही मन पढ़ने का बहाना करने लगी. अजंता को यों अपनेआप में बिजी देख सोफे पर से उठते हुए शशांक ने कहा, ‘‘तो फिर मैं चलता हूं मैम.’’

‘‘हांहां ठीक है. तुम्हें ऐग्जाम की तैयारी भी करनी होगी,’’ कह वह सोच में पड़ गई कि छुट्टी का दिन है और उस से मिलने के लिए प्रशांत कभी भी आ सकता है. एक लड़के को मेरे फ्लैट में देख कर न जाने वह कौन सा सवाल कर बैठे. अजंता खुद चाहती थी कि शशांक जल्दी से जल्दी वहां से चला जाए. इसीलिए उस ने शशांक से पढ़ने की बात कह कर उसे जाने को कहा था पर उसे क्या पता था कि उस की कही बात उस के गले पड़ जाएगी.

‘‘मैम वह सच तो यह है कि मैं इसीलिए यहां आप के पास आया था कि आप से स्टडी में कुछ हैल्प ले सकूं,’’ सोफे पर वापस बैठते हुए शशांक बोला, ‘‘मैम, आप करेंगी न मेरी मदद?’’

‘‘हांहां ठीक है, पर आज नहीं. अभी तुम जाओ. मुझे अभी अपने लैक्चर की तैयारी करनी है,’’ कहतेकहते अजंता की बात में रिक्वैस्ट का पुट आ गया था.

अजंता को रिक्वैस्ट के अंदाज में बोलते देख शशांक को अच्छा लगा और फिर सोफे से उठ कर एहसान करने वाले अंदाज में बोला, ‘‘ओके मैम, आप कह रही हैं तो हम चले जाते हैं पर आप अपना वादा याद रखना.’’

‘‘कैसा वादा?’’ अजंता ने घबराते हुए पूछा.

‘यही कि आप स्टडी में मेरी हैल्प करेंगी,’ शशांक ने हंस कर कहा और फिर दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.

अजंता दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि शशांक पलट कर बोल पड़ा, ‘‘मैम, आप के पैर बहुत खूबसूरत हैं. जी करता है इन्हें देखता ही रहूं. क्या मेरे लिए आप किसी ओपन लैग्स वाली ड्रैस में आ सकती हैं?’’

शशांक की इस बेहूदा बात पर अजंता चुप रह गई. शशांक ने एक गहरी नजर अजंता की रोमहीन चमकती पिंडलियों पर डाली और फिर मुसकराते हुए चला गया. उस के जाते ही अजंता ने झट से दरवाजा बंद कर के सुकून की सांस ली.

अजंता 23-24 साल की बेहद खूबसूरत युवती थी. इतनी खूबसूरत कि उस के चेहरे को देख कर दुनिया की सब से हसीन लड़की भी शरमा जाए, उस के जिस्म के रंग के आगे सोने का रंग मटमैला लगे. कंधे तक बिखरी जुल्फों का जलवा ऐसा मानो वह जुल्फियां नाम की मुहब्बत की कोई अदीब हो. उस के उन्नत उरोज, पतली कमर, भरेभरे नितंब और मस्तानी चाल यकीनन अजंता की खूबसूरती बेमिसाल थी और आज शशांक के कमैंट ने उसे यह भी बता दिया था कि उस की पिंडलियां भी किसी को आकर्षित कर सकने का दम रखती हैं.

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अजंता न सिर्फ जिस्मानी रूप से बेहद खूबसूरत थी, बल्कि बहुत ही कुशाग्रबुद्धि भी थी. बैंगलुरु के एक मशहूर इंजीनियरिंग कालेज से उस ने मैकैनिकल इंजीनियरिंग में बीटैक की डिग्री ली थी और लखनऊ के एक पौलिटैक्निक कालेज में अस्थाई रूप से जौब कर रही थी. रहने वाली कानुपर की थी. लखनऊ के इंदिरानगर में किराए के फ्लैट में रहती थी.

प्रशांत, अजंता के पापा के दोस्त का लड़का है. उस के पापा राजनीति में हैं, विधायक रह चुके हैं. अब प्रशांत उन का उत्तराधिकार संभाल रहा है. अजंता की उस के साथ इंगेजमैंट हो चुकी है. प्रशांत की मदद से उसे एक अच्छा फ्लैट किराए पर मिल गया था. प्रशांत की फैमिली लखनऊ में रहती थी, इसलिए अजंता के लखनऊ में अकेले रहने से उस की फैमिली उस की तरफ से बेफिक्र थी.

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अजंता: भाग 3- आखिर क्या हुआ पूजा के साथ

लेखक- सुधीर मौर्य

भले ही अजंता के दिल में अब भी प्रशांत के लिए मुहब्बत के जज्बात न जगे हों पर वह उस का होने वाला पति था, इसलिए उस का मुसकरा कर स्वागत करना लाजिम था. भीतर आ कर प्रशांत उसी सोफे पर बैठ गया जहां कुछ देर पहले शशांक बैठा था. प्रशांत के लिए फ्रिज से पानी निकालते हुए अजंता सोच में पड़ गई कि अगर प्रशांत कुछ देर पहले आ जाता और शशांक के बारे में पूछता तो वह क्या जवाब देती.

‘‘बाहर तो काफी धूप है?’’ अजंता ने पानी देते हुए प्रशांत से जानना चाहा.

पानी पीते हुए प्रशांत ने अजंता को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर गिलास उस के हाथ में देते हुए बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें मना किया था न ये शौर्ट कपड़े पहनने के लिए.’’

‘‘ओह हां, बट घर में पहनने को तो मना नहीं किया था,’’ अजंता ने कहा और फिर बात बदलने की गरज से झट से बोली, ‘‘आप चाय लेंगे या कौफी?’’

‘‘चाय,’’ प्रशांत सोफे पर पसर और्डर देने के अंदाज में बोला. अजंता किचन की ओर जाने लगी तो प्रशांत ने कहा, ‘‘अजंता मैं चाहता हूं तुम इस तरह के कपड़े घर पर भी मत पहनो.’’

‘‘अरे, घर में इस ड्रैसिंग में क्या प्रौब्लम है और फिर आजकल यह नौर्मल ड्रैसिंग है. ज्यादातर लड़कियां पहनना पसंद करती हैं,’’ चाय बनाने जा रही अजंता ने रुक कर प्रशांत की बात का जवाब दिया.

‘‘नौर्मल ड्रैसिंग है, लड़कियां पसंद करती हैं इस का मतलब यह नहीं कि तुम भी पहनोगी?’’ प्रशांत के स्वर में थोड़ी सख्ती थी.

‘‘अरे, इस तरह की ड्रैसिंग में मैं कंफर्ट फील करती हूं और मुझे भी पसंद है ये सब पहनना,’’ अजंता ने अपनी बात रखी.

‘‘पर मुझे पसंद नहीं अजंता… तुम नहीं पहनोगी आज के बाद यह ड्रैस, अब जाओ चाय बना कर लाओ,’’ और्डर देने वाले अंदाज में प्रशांत के स्वर में सख्ती और बढ़ गई थी.

‘‘तुम्हारी पसंद… क्या मेरी कोई पसंद नहीं?’’ प्रशांत की सख्त बात सुन कर अजंता की आवाज भी थोड़ी तेज हो गई.

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अजंता की तेज आवाज ने प्रशांत के गुस्से को बढ़ा दिया. वह चिल्लाते हुए बोला, ‘‘मैं ने जो कह दिया वह कह दिया और तुम इतने भी मैनर नहीं जानती कि जब पति बाहर से थक कर आता है तो पत्नी उस के साथ बहस नहीं करती.’’

अजंता स्वभाव से सीधीसादी थी. वह समझती थी पति से तालमेल बैठाने के लिए उसे अपनी कुछ इच्छाएं कुरबान करनी ही पडे़ंगी. मगर आज जो प्रशांत कह रहा था वह उसे बुरा लगा. वह पढ़ीलिखी सैल्फ डिपैंडैंट लड़की थी. अत: प्रशांत की बात का विरोध करते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, यह तो कोई बात नहीं कि मैं आप की बैसिरपैर की बात मानूं… मुझे इस ड्रैसिंग में कोई दिक्कत नजर नहीं आती और हां आप मेरे होने वाले पति हैं, पति नहीं.’’

अजंता की बात सुन प्रशांत का गुस्सा 7वें आसमान पर जा पहुंचा. लगभग दहाड़ते हुए बोला, ‘‘अजंता, मेरे घर में आने के बाद ये सब नहीं चलेगा. तुम्हें मेरे अनुसार खुद को ढालना ही पड़ेगा. वरना…’’ प्रशांत ने अजंता को थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया पर फिर रुक गया.

प्रशांत का यह रूप अंजता के लिए एकदम नया था. कुछ देर वह हैरानी खड़ी रही, फिर बोली, ‘‘वरनावरना क्या करोगे… मुझे पीटोगे?’’

प्रशांत को लगा उस से गलती हो गई है. अत: अपनी आवाज को ठंडा करते हुए बोला, ‘‘सौरी अजंता वह बाहर धूप है शायद उस की वजह से मेरे सिर में पागलपन भर गया था… मैं गुस्से में बोल गया. चलो अब तो अपने नर्मनर्म हाथों से चाय बना कर लाओ डियर.’’

‘‘धूप से घर आने वाले व्यक्ति को क्या इस बात का सर्टिफिकेट मिल जाता है कि वह अपनी पत्नी को डांटे, उसे पीटे?’’ अजंता की बात में भी अब गुस्सा था.

प्रशांत कुछ देर अजंता को देखता रहा. फिर मन ही मन कुछ सोच कर बोला, ‘‘अच्छा ठीक है जो मेरी होने वाली बीवी मेरी थकान उतारने के लिए मुझे अपने कोमल हाथों से बना कर चाय नहीं पिला सकती तो मैं अपनी प्यारी खूबसूरत पत्नी का गुस्सा उतारने के लिए उसे चाय बना कर पिलाता हूं,’’ कह कर प्रशांत किचन की ओर बढ़ गया.

वह भले ही उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की थी पर थी तो फीमेल, नौर्मल फीमेल, अचानक उस के मन में खयाल जागा कि कहीं सही में बाहर की धूप और थकान की वजह से प्रशांत ने गुस्से में तो उस पर हाथ उठाना नहीं चाहा… केवल हाथ ही तो उठाया, मारा तो नहीं… और अब

वह जब गुस्से में है तो उसे मनाने के लिए खुद किचन में चाय बनाने गया है… उस की खुद भी तो गलती है जब प्रशांत ने उस से कहा था वह थक कर आया है उसे 1 कप चाय बना के पिला दो तो वह क्यों उस से बहस करने लगी?

ये सब सोचते हुए अजंता किचन में आ गई. प्रशांत हाथ में लाइटर ले कर गैस जलाने जा रहा था.

‘‘आप चल कर पंखे में बैठिए मैं चाय बना लाती हूं,’’ अजंता प्रशांत से लाइटर लेने की कोशश करते हुए बोली.

‘‘नहीं अब तो मैं ही चाय बनाऊंगा,’’

प्रशांत ने अजंता का हाथ हटा कर गैस जलाने की कोशिश की. अजंता ने फिर लाइटर लेने की कोशिश की. पर प्रशांत ने फिर मना किया. अजंता ने गैस जला रहे प्रशांत का हाथ पकड़ लिया. प्रशांत ने अजंता का हाथ छुड़ाने की कोशिश की. इस छीनाझपटी में अजंता फिसल कर प्रशांत की बांहों में गिर गई. प्रशांत ने उसे बांहों में भर लिया.

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‘‘छोडि़ए चाय बनाने दीजिए,’’ अजंता कसमसाई.

‘‘नहीं अब तो तुम्हारे होंठों को पीने के बाद ही चाय पी जाएगी,’’ कह प्रशांत ने अजंता के होंठों पर होंठ रख दिए. एक लंबे किस ने अजंता को निढाल कर दिया. इतना निढाल कि प्रशांत ने बिना किसी विरोध के उसे ला कर बिस्तर पर लिटा दिया.

कुछ देर बाद जब प्रशांत ने अजंता की कमर से पाजामा खिसकाने की कोशिश की तो अजंता ने विरोध करते हुए कहा, ‘‘नहीं प्रशांत ये सब शादी के बाद.’’

प्रशांत अजंता की बात सुन कर कुछ देर इस अवस्था में रहा जैसे खुद को संयत करने की कोशिश कर रहा हो और फिर अजंता के ऊपर से उठते हुए बोला, ‘‘ओके डियर ऐज यू विश.’’

अजंता ने उठ कर अपने कपड़े सही किए और फिर चाय बनाने के लिए किचन में आ गई.

‘‘जानती हो अजंता तुम्हारी इसी अदा का

तो मैं दीवाना हूं,’’ प्रशांत ने किचन में आ कर कहा.

‘‘कौन सी?’’ अजंता ने बरतन में पानी डाल कर गैस पर चढ़ाते हुए पूछा.

‘‘यही कि ये सब शादी के बाद,’’ प्रशांत ने मुसकरा कर कहा.

प्रशांत की इस बात पर अजंता भी मुसकरा कर रह गई.

‘‘मैं भी यही चाहता हूं कि मैं तुम्हारे

जिस्म को अपनी सुहागरात में पाऊं,’’

प्रशांत ने अजंता के पीछे आ कर उस के गले में बांहें डाल कर कहा.

अजंता कुछ नहीं बोली. उबलते पानी में चायपत्ती और शक्कर डालती रही.

‘‘हर व्यक्ति अपने मन में यह अरमान पालता है,’’ प्रशांत अपनी उंगलियों से अजंता के गालों को धीरेधीरे सहलाते हुए बोला.

‘‘कैसा अरमान?’’ अजंता ने पूछा.

‘‘यही कि उस की बीवी वर्जिन हो और सुहागरात को अपनी वर्जिनिटी अपने पति को तोहफे में दे.’’

कह कर प्रशांत प्लेट से बिस्कुट उठा कर खाने लगा.

प्रशांत की बात सुन कर अजंता को धक्का लगा कि और अगर लड़की ने शादी से पहले अपनी वर्जिनिटी लूज कर दी हो और फिर प्रशांत पर नजरें गड़ा दीं.

‘‘अगर लड़की वर्जिन न हो एक इंसान कैसे उसे प्यार कर सकता है. तुम्हीं बताओ अजंता, कोई व्यक्ति किसी ऐसी लड़की के साथ पूरी जिंदगी कैसे रह पाएगा जिस ने शादी से पहले ही अपनी वर्जिनिटी लूज कर दी हो?

क्या उस का दिल ऐसी लड़की को कभी कबूल कर पाएगा? और सोचो तब क्या होगा जब किसी दिन वह इंसान सामने आ जाए जो उस लड़की का प्रेमी रहा हो. बोलो अजंता उस व्यक्ति पर यह सोच कर क्या गुजरेगी कि यही वह आदमी है जिस की वजह से उस की बीवी ने शादी से पहले ही अपनी वर्जिनिटी खो दी. ऐसी लड़की से शादी के बाद तो जिंदगी नर्क बन जाएगी, नर्क.’’

प्रशांत बोले जा रहा था, अजंता पत्थर की मूर्त बने सुनते जा रही थी. चाय उबल कर नीचे फैलती जा रही थी…

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फिर क्यों: भाग 2- क्या था दीपिका का फैसला

लेखक- राम महेंद्र राय 

जब सास उसे तरहतरह के ताने देने लगी तो दीपिका ने आखिर चुप्पी तोड़ दी. उस ने सभी के सामने सच्चाई बता दी. पर उस का सच किसी ने स्वीकार नहीं किया. सभी ने उस की कहानी मनगढ़ंत बताई.

आखिर अपने सिर बदचलनी का इलजाम ले कर दीपिका मातापिता के साथ मायके आ गई.

वह समझ नहीं पा रही थी कि अब क्या करे. भविष्य अंधकारमय लग रहा था. होने वाले बच्चे की चिंता उसे अधिक सता रही थी.

5 दिन बाद दीपिका जब कुछ सामान्य हुई तो मां ने उसे समझाते हुए गर्भपात करा कर दूसरी शादी करने की सलाह दी.

कुछ सोच कर दीपिका बोली, ‘‘मम्मी, गलती मैं ने की है तो बच्चे को सजा क्यों दूं. मैं ने फैसला कर लिया है कि मैं बच्चे को जन्म दूंगी. उस के बाद ही भविष्य की चिंता करूंगी.’’

दीपिका को ससुराल आए 20 दिन हो चुके थे तो अचानक तुषार आया. वह बोला, ‘‘मुझे विश्वास है कि तुम बदचलन नहीं हो. तुम्हारे पेट में मेरे भाई का ही अंश है.’’

‘‘जब तुम यह बात समझ रहे थे तो उस दिन अपना मुंह क्यों बंद कर लिया था, जब सभी मुझे बदचलन बता रहे थे?’’ दीपिका ने गुस्से में कहा.

‘‘उस दिन मैं तुम्हारे भविष्य को ले कर चिंतित हो गया था. फिर यह फैसला नहीं कर पाया था कि क्या करना चाहिए.’’ तुषार बोला.

दीपिका अपने गुस्से पर काबू करते हुए बोली, ‘‘अब क्या चाहते हो?’’

‘‘तुम से शादी कर के तुम्हारा भविष्य संवारना चाहता हूं. तुम्हारे होने वाले बच्चे को अपना नाम देना चाहता हूं. इस के लिए मैं ने मम्मीपापा को राजी कर लिया है.’’

औफिस और मोहल्ले में वह बुरी तरह बदनाम हो चुकी थी. सभी उसे दुष्चरित्र समझते थे. ऐसी स्थिति में आसानी से किसी दूसरी जगह उस की शादी होने वाली नहीं थी, इसलिए आत्ममंथन के बाद वह उस से शादी के लिए तैयार हो गई.

दीपिका बच्चे की डिलीवरी के बाद शादी करना चाहती थी, लेकिन तुषार ने कहा कि वह डिलीवरी से पहले शादी कर के बच्चे को अपना नाम देना चाहता है. ऐसा ही हुआ. डिलीवरी से पहले उन दोनों की शादी हो गई.

जिस घर से दीपिका बेइज्जत हो कर निकली थी, उसी घर में पूरे सम्मान से तुषार के कारण लौट आई थी. फलस्वरूप दीपिका ने तुषार को दिल में बसा कर प्यार से नहला दिया और पलकों पर बिठा लिया.

तुषार भी उस का पूरा खयाल रखता था. घर का कोई काम उसे नहीं करने देता था. काम के लिए उस ने नौकरी रख दी थी.

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तुषार का भरपूर प्यार पा कर दीपिका इतनी गदगद थी कि उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

डिलीवरी का समय हुआ तो बातोंबातों में तुषार ने दीपिका से कहा, ‘‘तुम अपने बैंक की डिटेल्स दे दो. डिलीवरी के समय अगर मेरे एकाउंट में रुपए कम पड़ जाएंगे तो तुम्हारे एकाउंट से ले लूंगा.’’

दीपिका को उस की बात अच्छी लगी. बैंक की पासबुक, डेबिट कार्ड और ब्लैंक चैक्स पर दस्तखत कर के पूरी की पूरी चैकबुक उसे दे दी.

नौरमल डिलीवरी से बेटा हुआ तो उस का नाम गौरांग रखा गया. 6 महीने बाद तुषार ने हनीमून पर शिमला जाने का प्रोग्राम बनाया तो दीपिका ने मना नहीं किया.

वहां से लौट कर आई तो बहुत खुश थी. तुषार का अथाह प्यार पा कर वह विक्रम को भूल गई थी.

गौरांग एक साल का हो गया था. फिर भी दीपिका ने तुषार से डेबिट कार्ड और दस्तखत किए हुए चैक्स वापस नहीं लिए थे. इस की कभी जरूरत महसूस नहीं की थी. तुषार ने उस के अंधकारमय जीवन को रोशनी से नहला दिया था. ऐसे में भला वह उस पर अविश्वास कैसे कर सकती थी.

जरूरत तब पड़ी, जब एक दिन दीपिका के पिता को बिजनैस में कुछ नुकसान हुआ और उन्होंने उस से 3 लाख रुपए मांगे. तब दीपिका ने पिता का एकाउंट नंबर तुषार को देते हुए कहा, ‘‘तुषार, मेरे एकाउंट से पापा के एकाउंट में 3 लाख रुपए ट्रांसफर कर देना.’’

इतना सुनते ही तुषार ने दीपिका से कहा, ‘‘डार्लिंग, तुम्हारे एकाउंट में रुपए हैं कहां. मुश्किल से 2-4 सौ रुपए होंगे.’’

दीपिका को झटका लगा. क्योंकि उस के एकाउंट में तो 12 लाख रुपए से अधिक थे. आखिर वे पैसे गए कहां.

उस ने तुषार से पूछा, ‘‘मेरे एकाउंट में उस समय 12 लाख रुपए से अधिक थे. इस के अलावा हर महीने 40 हजार रुपए सैलरी के भी आ रहे थे. सारे के सारे पैसे कहां खर्च हो गए?’’

तुषार झुंझलाते हुए बोला, ‘‘कुछ तुम्हारी डिलीवरी में खर्च हुए, कुछ हनीमून पर खर्च हो गए. बाकी रुपए घर की जरूरतों पर खर्च हो गए. तुम्हारे पैसों से ही तो घर चल रहा है. मेरी सैलरी और पापा की पेंशन के पैसे तो शिखा की शादी के लिए जमा हो रहे हैं.’’

तुषार का जवाब सुन कर दीपिका खामोश हो गई. पर उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उस के साथ कहीं कुछ न कुछ गलत हो रहा है.

डिलीवरी के समय उसे छोटे से नर्सिंगहोम में दाखिल किया गया था. उस का बिल मात्र 30 हजार रुपए आया था. हनीमून पर भी अधिक खर्च नहीं हुआ था. जिस होटल में ठहरे थे, वह बिलकुल साधारण सा था. उन का खानापीना भी सामान्य हुआ था.

जो होना था, वह हो चुका था. उस पर बहस करती तो रिश्ते में खटास आ जाती. लिहाजा उस ने भविष्य में सावधान रहने की ठान ली.

तुषार से अपनी बैंक पास बुक, चैकबुक और डेबिट कार्ड ले कर उस ने कह दिया कि वह घर खर्च के लिए महीने में सिर्फ 10 हजार रुपए देगी. सैलरी के बाकी पैसे गौरांग के भविष्य के लिए जमा करेगी और शिखा की शादी में 2 लाख रुपए दे देगी.

दीपिका के निर्णय से तुषार को दुख हुआ, लेकिन वह उस समय कुछ बोला नहीं.

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अगले दिन ही दीपिका ने बैंक से ओवरड्राफ्ट के जरिए पैसे ले कर अपने पिता को दे दिए. पर उन्हें यह नहीं बताया कि तुषार ने उस के सारे रुपए खर्च कर दिए हैं.

कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा. उस के बाद अचानक तुषार ने उस से कहा, ‘‘मैं ने नौकरी छोड़ दी है.’’

‘‘क्यों?’’ दीपिका ने पूछा.

‘‘बिजनैस करना चाहता हूं. इस के लिए तैयारी कर ली है, पर तुम्हारी मदद के बिना नहीं कर सकता.’’

‘‘तुम्हारी मदद हर तरह से करूंगी. बताओ, मुझे क्या करना होगा?’’ दीपिका ने पूछा.

‘‘तुम्हें अपने नाम से 50 लाख रुपए का लोन बैंक से लेना है. उसी रुपए से बिजनैस करूंगा. मेरा कुछ इस तरह का बिजनैस होगा कि लोन 5 साल में चुकता हो जाएगा.’’

‘‘इतने रुपए का लोन मुझे नहीं मिलेगा. अभी नौकरी लगे 5 साल ही तो हुए हैं.’’

‘‘मैं ने पता कर लिया है. होम लोन मिल जाएगा.’’

‘‘होम लोन लोगे तो बिजनैस कैसे करोगे. इस लोन में फ्लैट या कोई मकान लेना ही होगा.’’ दीपिका ने बताया.

‘‘इस की चिंता तुम मत करो. मैं ने सारी व्यवस्था कर ली है. तुम्हें सिर्फ होम लोन के पेपर्स पर दस्तखत कर बैंक में जमा करने हैं.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं, तुम करना क्या चाहते हो. ठीक से बताओ.’’

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उम्र का फासला: भाग 3- क्या हुआ लक्षिता के साथ

दूसरी तरफ मां का हाल अलग ही बुरा था. वह बारबार अस्पताल जाने और पापा को देखने की जिद किए जा रही थी. विशाल अपनी सारी परेशानी लक्षिता को सुना कर हलका हो लिया करता था. लक्षिता भी कभी केवल सुन कर तो कभी सलाह दे कर उस का हौसला बढ़ाती रहती.

अगले 2 दिन विशाल का फोन नहीं आया. ‘व्यस्त होगा,’ सोच कर लक्षिता ने भी उसे डिस्टर्ब नहीं किया. आज रविवार की छुट्टी थी. लक्षिता को विशाल के आने की उम्मीद थी. जब से वह यहां शिफ्ट हुई है, एक छोड़ एक रविवार को विशाल आता है उस से मिलने.

शाम ढलने को थी, लेकिन विशाल नहीं आया. उस के इंतजार में लक्षिता ने लंच भी नहीं किया. सोचा साथ ही करेंगे, लेकिन अब तो वह शाम की चाय भी पी चुकी थी. मां ने जिद की तो चाय के साथ 2 बिस्कुट ले लिए.

‘‘आज विशाल नहीं आया?’’ मां ने पूछा.

लक्षिता सिर्फ ‘‘हम्म’’ कह कर रह गई.

‘‘क्यों?’’ मां ने फिर पूछा तो लक्षिता ने ससुरजी के कोरोना ग्रस्त और विशाल के परेशानी में होने की जानकारी दी. लक्षिता ने महसूस किया कि उस के हर वाक्य के साथ मां की आंखें आश्चर्य से फैलतीं और माथे की लकीरें तनाव से सिकुड़ती जा रही थीं.

‘‘अरे, विशाल तो छोटा है, लेकिन तु?ो भी अकल क्यों नहीं आई. कम से कम ऐसे समय तो सासससुर को बहू से सेवा की आशा रहती ही है. मैं तो कहती हूं कि तुझे कल ही वहां चले जाना चाहिए. तू ऐसा कर, अभी विशाल को फोन कर. उसे हिम्मत बंधा और अपना सामान पैक कर. और सुन, औफिस से कम से कम 15 दिन की छुट्टी ले कर जाना.’’

मां ने लक्षिता को दुनियादारी सिखाई.

लक्षिता को हालांकि मां का उम्र का हवाला देना अखरा, लेकिन उसे अपनी गलती भी महसूस हुई.

‘अकेला लड़का, बेचारा परेशान हो रहा है. न घरबाहर संभल रहा होगा… मुझ से भी तो आने को कह सकता था न,’’ सोचतेविचारते हुए उस ने विशाल को फोन किया.

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‘‘क्या बताता तुम्हें? पापा को संभालतेसंभालते मैं खुद संक्रमित हो गया. तुम्हें बताता तो तुम आने की जिद करती और तुम्हारे लिए मैं कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता. फिलहाल तो लक्षण गंभीर नहीं दिख रहे इसलिए घर पर ही क्वारंटीन हूं, लेकिन मु?ो बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्या होगा,’’ लक्षिता का फोन सुनते ही विशाल छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगा.

इधर लक्षिता के पांवों तले से भी जमीन दरक गई. उसे पति पर दया भी आई और लाड़ भी. अगले दिन सुबह लक्षिता विशाल के घर अपनी सास के पास थी.

घर पहुंचते ही लक्षिता ने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. साफसफाई से ले कर पौष्टिक खाने तक सभी काम वह अपनी निगरानी में ही करवाती. विशाल एक अलग कमरे में क्वारंटीन था. लक्षिता उस की हर जरूरत का खयाल रख रही थी. वह विशाल की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर अपनी नजर बनाए हुए थी. विशाल को अकेलापन न खले इस का भी उसे पूरा खयाल था. लगातार वीडियो कौल पर बातों के साथसाथ कुछ अच्छी पुस्तकों और कई ओटीटी प्लेटफौर्म उसे सब्सक्राइब करवा दिए ताकि उस का मन बहलता रहे.

लक्षिता की सास उस की हर गतिविधि का अवलोकन कर रही थी. हालांकि लक्षिता ऐसा कुछ भी विशेष नहीं कर रही थी जो कोई अन्य नहीं कर सकता, लेकिन उस ने महसूस किया कि लक्षिता के हर क्रियाकलाप में एक गंभीरता है, परिपक्वता है. वह कोई भी काम चाहे किसी डाक्टर से परामर्श लेना हो या कोई घरेलू उपाय, हड़बड़ी या घबराहट में नहीं करती बल्कि पूरी तरह से विचार कर, आगापीछा सोच कर करती है. इस दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आया कि यदि बहू विशाल की हमउम्र होती तो ऐसी परिस्थति में कैसे रिएक्ट करती. शायद मुसीबतों का भी व्यक्ति की उम्र से कुछ लेनादेना नहीं होता.

डाक्टर की दवाओं के साथसाथ लक्षिता एक वैद्य के संपर्क में भी थी.

ऐलोपैथी और आयुर्वेद के साथसाथ लक्षिता की मेहनत भी मिल गई थी. तीनों ने मिल कर उम्मीद से कहीं अधिक अच्छे परिणाम दिए. विशाल अब पहले से काफी बेहतर महसूस कर रहा था. सप्ताह भर बाद उस की कोरोना रिपोर्ट भी नैगेटिव आ गई और इधर विशाल के पापा को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वे भी लक्षिता की समझदारी की तारीफ करते नहीं थक रहे थे.

इन दिनों लक्षिता की सास के चेहरे पर संतुष्टि की चमक उत्तरोत्तर गहराने लगी थी. उस ने यह भी लक्ष्य किया कि लक्षिता के सलीके और सुघड़ता को देख कर उस की और विशाल की उम्र के अंतर को भांप पाना आसान नहीं लगता.

विशाल अब पूरी तरह से स्वस्थ था. पापा की रिकवरी भी बहुत अच्छी हो रही थी. 2 दिन बाद लक्षिता की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. लक्षिता ने घर में साफसफाई और खाने की व्यवस्था करवा दी. कपड़े धोने के लिए औटोमैटिक वाशिंग मशीन भी खरीद लाई. एकबारगी काम चलाने लायक जुगाड़ हो गया था. यह भी तय हुआ कि जब तक पापा पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तब तक लक्षिता हर सप्ताह उन्हें देखने आएगी. यही सब बताने के लिए लक्षिता अपनी सास के कमरे की तरफ जा रही थी कि भीतर से आते संवाद में अपने नाम का जिक्र सुन कर दरवाजे पर ही ठिठक गई.

‘‘लक्षिता, सचमुच बहुत समझदार है. उस के व्यवहार ने मेरी उस धारणा को गलत साबित कर दिया कि अधिक उम्र की लड़की अपने पति को बच्चा समझ कर उस के साथ मां की तरह पेश आती है बल्कि अब तो मु?ो लग रहा है कि विशाल से तो लक्षिता जैसी समझदार पत्नी ही निभा सकती थी. कितना बचपना है विशाल में. एकदम अनाड़ी है दुनियादारी में.’’

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अपने बारे में सास के विचार जान कर लक्षिता चौंक गई.

‘‘यानी तुम इस बात को स्वीकार करती

हो कि विवाहित जोड़े में किसी एक की उम्र

दूसरे से इतनी ही अधिक होनी चाहिए. तुम्हारे हिसाब से उम्र का यह फासला जायज है?’’ यह ससुर की आश्चर्य भरी प्रतिक्रिया थी. लक्षिता

इस प्रतिक्रिया का जवाब सुनने के लिए उतावली हो उठी. उस ने अपने कान सास के जवाब पर टिका दिए.

‘‘हर जोड़े में ऐसा ही हो यह जरूरी नहीं. इस बात में भी दोराय नहीं कि उम्र का

अधिक फासला रिश्तों में पेचीदगी लाता है, लेकिन हां, इस बात को मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूं कि प्रेम उम्र के फासले को पाट सकता है,’’ सास ने कहा तो लक्षिता के चेहरे की मुसकान और भी अधिक गहरी हो गई. वह सास के कमरे में जाने के बजाय रसोई की तरफ मुड़ गई. आज मन कुछ खास बनाने को हो आया.

‘‘लक्षिता, वैसे तो यह फैसला पतिपत्नी का होता है, लेकिन फिर भी मैं सलाह देना चाहूंगी कि तुम दोनों को अपना परिवार बढ़ाने में देर नहीं करनी चाहिए. उम्र बढ़ने पर कोई कौंप्लिकेसी आ सकती है,’’ सास ने रात को खाने की मेज पर सब के सामने कहा तो निवाला मुंह की तरफ बढ़ाते विशाल का हाथ रुक गया. वह कभी अपनी मां तो कभी लक्षिता की तरफ देखने लगा.

सब्जी परोसती लक्षिता के हाथ भी ठिठक गए. आज उसे सास का बड़ी उम्र का ताना देना भी बुरा नहीं लगा. रिश्ते को स्वीकृति देने के इस अनोखे अंदाज को समझते ही लक्षिता की आंखें शर्म से झक गईं.

‘‘मैं तो कहता हूं कि कोशिश कर के तुम अपना ट्रांसफर यहीं करवा लो, कम से कम परिवार एकसाथ तो रहेगा,’’ कहते हुए ससुरजी ने उस की तरफ देखा.

विशाल और लक्षिता एकदूसरे को चोर निगाहों से देखते हुए मंदमंद मुसकरा रहे थे.

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