आखिरी दांव: भाग 3- क्या हुआ देव के साथ

मेघ जैसे पूरी रात गरजबरस कर शांत हो चुके थे, वैसे ही प्रिया भी आज पूरी तरह से संतुष्ट हो चुकी थी. मगर देव के जीवन में तूफान आ चुका था. सुबह जब देव की नींद खुली और प्रिया को अपने पास निर्वस्त्र पाया, तो उस के होश उड़ गए.

‘‘म… म… मैं यहां कैसे और आ… आप…’’ हकलाते हुए देव की आधी बातें उस के मुंह में ही रह गईं.

आंसू बहाते हुए प्रिया कहने लगी कि रात को देव ने उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की. उस ने बहुत कहा भी कि वह उसे भाई मानती है, पर वह कहने लगा कि मानने से क्या होता है… वह उसे अच्छी लगती है. कितनी कोशिश की, पर देव की मजबूत बांहों से वह खुद को आजाद न कर पाई.

अपनी हरकतों पर देव शर्मिंदा हो गया. उसे लगा कि वह कितना नीच इंसान है, जो बहन समान औरत को अपनी वासना का शिकार बना डाला. उस ने कभी किसी औरत को नजर उठा कर भी नहीं देखा था, तो फिर इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई उससे?

जो भी हो, गलती तो हो ही चुकी थी और इस बात के लिए वह प्रिया से माफी भी मांगना चाहता था, पर उस की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वह प्रिया को फोन करे या उस के सामने जाए. प्रिया ने भी उस के बाद से उसे फोन करना बंद कर दिया था. कहीं प्रिया मेरे ऊपर बलात्कार का केस तो नहीं कर देगी? कर दिया तो क्या होगा? क्या बताएगा वह दुनिया वालों को…अनु को कैसे मुंह दिखाएगा वह? ये सब बातें सोचसोच कर देव की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा जा रहा था. उस की ठंडी पड़ती आवाज सुन कर अनु पूछती भी कि क्या बात है सब ठीक तो है न? पर वह उसे कुछ भी बोल कर शांत कर देता.

मगर एक दिन खुद प्रिया अचानक उस के घर पहुंच गई, जिसे देख देव के पसीने छूट गए. हकलाते हुए किसी तरह उस की आवाज निकल पाई, ‘‘प्रियाजी, मैं… मैं आप से माफी मांगने ही जा…’’

‘‘किस बात की माफी देवजी? जो हुआ उस में न तो आप की गलती थी न ही मेरी. बस एक अनहोनी होनी थी सो हो गई. मिट्टी डालिए अब उस बात पर,’’ सुन कर देव की जान में जान आई. लगा उसे कि कितनी अच्छी औरत है यह.

‘‘मैं यहां किसी और काम से आई हूं देव. वह क्या है कि अचानक मुझे कुछ रुपयों की जरूरत पड़ गई है और अभी मेरे पास उतने पैसे नहीं है. आप मेरी मदद कर दें. मैं जल्द ही लौटा दूंगी,’’ कह उस ने देव की तरफ देखा.

‘‘कितने पैसे?’’ देव ने पूछा.

‘‘50 हजार. पैसे आते ही मैं आप को लौटा दूंगी,’’ देव की आंखों में झांकते हुए वह बोली.

मरता क्या न करता. लौकर में जितने भी पैसे पड़े थे उन्हें प्रिया को ला कर देते हुए बोला, ‘‘प्रियाजी, अभी तो मेरे पास 40 हजार रुपए ही हैं. आप रख लीजिए,’’ प्रिया को पैसे दे कर उसे लगा जैसे उस के मन का बोझ कुछ कम हुआ.

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मगर अब तो वह उस से कभी 10 हजार, कभी 20 हजार, तो कभी 30 हजार मांगने पहुंच जाती और देव को देने ही पड़ते. आखिर देव भी इतने पैसे कहां से लाता भला? अत: एक दिन उस ने पैसे देने से मना कर दिया. मगर यह बात प्रिया को सहन नहीं हुई. बोली, ‘‘तुम्हें क्या लगता है देव, मैं उस बात को भूल गई?’’ तुरंत ही वह आप से तुम पर आ गई.

‘‘तुम्हारी करतूतों का कच्चा चिट्ठा है मेरे पास… देखना है?’’ कह कर उस ने वह वीडियो देव को दिखा दिया जिस में देव और प्रिया एकसाथ वीडियो में साफसाफ दिख रहे थे. देव प्रिया पर सवार है और वह उस से बचने की कोशिश कर रही है. वीडियो देखते ही देव की कंपकंपी छूट गई.

‘‘क्या कहते हो, दे दूं पुलिस को या फिर सोशल मीडिया पर वायरल कर दूं? अनु भी देख लेगी, क्यों?’’

उस की हरकतें देख देव सिहर उठा. लगा, अगर यह वीडियो अनु ने देख लिया, तो अनर्थ हो जाएगा. अत: वह और पैसे देने को तैयार हो गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि वह उस के साथ ऐसा क्यों कर रही है? वह तो उसे अपना भाई समान मानती थी, फिर? यह बात जब देव ने पूछी, तो प्रिया कहने लगी, ‘‘क्योंकि तुम मुझे पसंद आ गए?’’ हंसते हुए वह बोली, ‘‘मजाक कर रही हूं. बात दरअसल यह है कि मुझे एक बड़ा सा घर लेना है और उस के लिए मुझे क्व50 लाख की जरूरत है, तो वे मुझे तुम से चाहिए. ठीक है एक बार में नहीं, थोड़ेथोड़े कर दे दो, पर देने तो पड़ेंगे तुम्हें देव, नहीं तो मैं क्या कर सकती हूं जान चुके हो तुम.’’

समझ गया देव कि ये सब प्रिया की सोचीसमझी चाल थी. जानबूझ कर उस ने उस से दोस्ती की थी ताकि उस से पैसे ऐंठे जा सके. बोला, ‘‘तो तुम ने ये सब जानबूझ कर किया… लेकिन तुम तो मुझे अपना भाई मानती थी न, तो फिर कैसे मेरे साथ संबंध… सिर्फ पैसे के लिए तुम इतनी नीचे गिर गई. ठीक है कर लो जो करना है, पर हारोगी एक दिन तुम कह देता हूं,’’ देव भर्राए गले से बोला.

‘‘जीतहार की किसे पड़ी है देव? मुझे तो सिर्फ पैसे से मतलब है. वह मिलता रहे, फिर मुझे कोई आपत्ति नहीं. वैसे एक बात कहूं? कहीं न कहीं प्यार करने लगी हूं मैं तुम से,’’ इठलाती हुई बोल कर वह देव के गले से लटक गई और उसे चूम लिया.

‘‘ठीक है अब चलती हूं, पर जबजब मेरे हाथों में खुजली हो रही हो, पैसे रख देना जितने मैं कहूं और हां, जब कभी मन हो आ भी जाना. मैं मना नहीं करूंगी,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

आज देव को इस बात का एहसास हो रहा था कि अनु सही कहती थी, किसी इंसान को बिना जांचेपरखे उस पर भरोसा नहीं कर लेना चाहिए. पर उस वक्त वह उस की बातों को मजाक में उड़ा देता था पर आज वह खुद की नजरों में ही मजाक बन कर रह गया था.

एक दिन फिर उस ने देव को अपने घर बुलाया. जबरन उसे संबंध बनाने पर मजबूर किया और फिर 10 लाख की डिमांड कर बैठी.

‘‘अब मैं तुम्हें एक भी पैसा नहीं दूंगा.’’ गलती मेरी थी जो मैं ने तुम्हें पहचानने में भूल की, पर अब नहीं,’’ कह कर देव वहां से निकलने लगा. तभी प्रिया की बातों ने उसे रुकने पर मजबूर कर दिया. ‘‘ठीक है तो फिर मत दो पैसे, मैं भी यह वीडियो वायरल कर रही हूं,’’ कह कर उस ने अपना फोन औन किया ही था कि देव ने उस के हाथ से फोन छीन लिया.

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‘‘क्या चाहती हो तुम?’’ देव ने अपनी आंखें तरेर कर पूछा. मन तो कर रहा था उस का कि प्रिया की जान ही ले ले, लेकिन वह ऐसा भी नहीं कर सकता था.

अपनी लटों को उंगलियों से घुमाते हुए बोली, ‘‘बस यही कि जबजब मैं पैसे मांगू, मुझे मिल जाने चाहिए और इस के लिए कोई बहाना नहीं, नहीं तो अंजाम क्या होगा जान चुके हो तुम.’’

बेचारा देव बुरी तरह से प्रिया के चंगुल में फंस चुका था. इस भंवर से निकलने का अब उसे कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था.

9 महीने पूरे होते ही अनु ने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया और यह सोच कर जल्द ही वापस देव के पास आ गई कि अब वह उसे ज्यादा तकलीफ नहीं दे सकती. लेकिन यहां आ कर देव के बदले व्यवहार से वह अचंभित थी. जहां बच्चे के नाम से ही देव रोमांचित हो उठता था और कहता था कि वह अपने बच्चे के लिए यह करेगा, वह करेगा, उसे कभी अपनी गोद से नीचे नहीं उतारेगा. अब वही देव अंशुल को गोद में लेने से भी कतराता. अंशुल के लिए खिलौनेकपड़े खरीदने की बात पर ही वह भड़क जाता और कहता कि फालतू के खर्चे बंद करो.

‘क्या हो गया है देव को? क्यों छोटीछोटी बातों पर इतना आवेग से भर जाता है? अब तो वह अनु से भी दूर भागने लगा था, क्योंकि जब भी अनु देव के करीब जाती, यह कह कर उस से दूर हट जाता कि आज नहीं, आज मैं बहुत थक गया हूं. लेकिन यह सब रोज की बातें होने लगी थीं.

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आखिरी दांव: भाग 2- क्या हुआ देव के साथ

खाना देख कर देव चौंका. फिर कुछ बोलता कि उस से पहले वह बोल पड़ी, ‘‘मैं समझ गई. आप यही कहना चाह रहे हैं न कि इस की क्या जरूरत थी? लेकिन लगा खुद के लिए बना ही रही हूं जो जरा ज्यादा बना लेती हूं. वैसे सुबह की जली ब्रैड की खुशबू उतनी भी खराब नहीं थी,’’ बोल कर जब व हंसी, तो देव को भी हंसी आ गई.

बातोंबातों में ही उस ने बताया कि वह लखनऊ से है और उस का पति दुबई में अपना व्यापार करता है. वह भी वहीं रह रही थी, पर उसे अपने देश के लोगों के लिए कुछ करना था, इसलिए वह यहां आ कर एक एनजीओ से जुड़ गई.

‘‘आज के लिए बस इतना ही और बरतन की चिंता मत कीजिएगा. सुबह आ कर ले जाऊंगी,’’ कह कर वह चली गई.

देव उसे जाते देखता रह गया. फिर सोचने लगा कि कैसी अजीब औरत है यह?

सुबह भी बरतन लेने के बहाने वह देव के लिए आलूपरांठे और दही ले कर पहुंच गई.

‘‘इस की क्या जरूरत थी प्लीज, आप नाहक परेशान हो रही हैं,’’ देव बोला.

मगर वह कहने लगी, आप में मुझे अपने भाई का अक्स दिखाई देता है जो अब इस दुनिया में नहीं रहा.

‘‘ओह, सौरी, मेरा इरादा आप का दिल दुखाने का नहीं था,’’ अफसोस जताते हुए देव बोला.

अब वह रोज देव के लिए कुछ न कुछ बना कर ले आती और देव उसे मना नहीं

कर पाता.

देव अनु को सब बताना चाहता था, पर डर भी रहा था कि वह फिर उसे डांटेगी और कहेगी कि क्यों वह इतनी जल्दी किसी पर भरोसा कर बैठता है? लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी वह चुप न रह सका और अनु को सब बता दिया.

सुनने के बाद अनु कहने लगी, ‘‘हां… याद आया. मेरे यहां आने के 1 हफ्ता पहले ही वह हमारे ऊपर वाले फ्लैट में शिफ्ट हुई थी. ज्यादा तो नहीं, पर हलकीफुलकी बातें हुई थीं उस से. बता रही थी कि  वह भी लखनऊ से है. चलो कोई नहीं, खाना तो मिल रहा है न तुम्हें घर जैसा… पर सिर्फ खाना ही खाना, कुछ और मत खाने लगना,’’ देव को छेड़ते हुए वह हंस पड़ी.

अब तो यह रोज की बात हो गई. देव के लिए वह अकसर घी, मसालों में सराबोर सब्जियां, चावल, पूरी रायता, दाल, सलाद, मिठाई आदि ले कर पहुंच जाती और जब देव कहता कि क्यों वह उस के लिए इतना परेशान होती है तो वह कहती कि उसे भी इसी तरह का खाना पसंद है, तब देव ने हैरानी से पूछा, ‘‘आप इतनी फिट कैसे हैं?’’

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वह बोली, ‘‘मैं रोज वाक पर तो जाती ही हूं, जिम जाना भी नहीं भूलती.’’

‘‘यह बात है तो फिर कल से मैं भी आप को जौइन करता हूं,’’ देव ने कहा.

प्रिया उछल पड़ी. अब रोज सुबहसवेरे दोनों वाक पर निकल जाते और शाम को जिम जाना भी दोनों के रूटीन में शामिल हो गया.

एक दिन जब देव अपने होने वाले बच्चे का जिक्र करने लगा, तो अचानक प्रिया का

चेहरा उदास हो गया.

कारण पूछने पर वह कहने लगी, ‘‘कुदरत ने उसे मां बनने का मौका ही नहीं दिया. बहुत इलाज करवाया, पर सभी डाक्टरों का यही कहना था कि मैं कभी मां नहीं बन सकती. अब मैं ने और पति ने यह तय किया है कि अनाथ बच्ची को गोद ले लेंगे.’’

देव उसे देखता रह गया. उसे लगा कि कितनी अच्छी औरत है यह जो एक अनाथ बच्ची को गोद लेने की सोच रही है. बोला, ‘‘वाह, कितना उत्तम विचार है आप का. आप को तो बच्चे का सुख मिलेगा ही, उस बच्चे को भी एक घर और मातापिता का सुख मिल जाएगा व उस की जिंदगी संवर जाएगी. अगर आप की तरह ही और लोगों की भी सोच हो जाए न, तो कोई भी बच्चा इस दुनिया में अनाथ नहीं रहेगा,’’ प्रिया के प्रति भावना से भर कर देव कहने लगा.

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‘‘देवजी, कह तो आप सही रहे हैं पर हम किसी को इस बात के लिए फोर्स तो नहीं कर सकते हैं न? फिर वैसे भी बहुत से लोग बच्चे को गोद तो ले लेते हैं, पर वह प्यार और समर्पण नहीं दे पाते, जो उस बच्चे को चाहिए होता है. इस से तो अच्छा है बच्चा गोद ही न लें.’’

‘‘हां, सही कह रही हैं आप. वैसे अब काफी जांचपरख के बाद ही जरूरतमंदों को बच्चा गोद दिया जाता है,’’ देव की बात पर प्रिया ने भी सहमति जताई.

प्रिया का साथ पा कर देव का अकेलापन कुछ हक तक दूर होने लगा था. जब भी वह घर में बोर होने लगता, प्रिया के साथ कहीं घूमने निकल जाता और खाना भी बाहर ही खा कर आता.

प्रिया कहती, ‘‘क्या जरूरत थी बाहर खाना खाने की?’’

‘‘आप अकसर अपने हाथों से बना कर खिलाती हैं, तो क्या मैं आप को कभीकभार बाहर नहीं खिला सकता?’’

‘‘अच्छा, तो बाहर खाना खिला कर आप मेरे खाने का बदला चुकाना चाहते हैं?’’ प्रिया हंसते हुए बोली.

देव झेंपते हुए कहता, ‘‘ऐसी बात नहीं है प्रियाजी, लेकिन हां, जब अनु आएगी तब एक दिन मेरे घर और दूसरे दिन आप के घर पार्टी होगी हमारी, ठीक है न?’’

प्रिया बोली, ‘‘डन.’’ प्रिया और देव की दोस्ती इतनी गहरी हो गई थी कि अब दोनों एकदूसरे पर विश्वास करने लगे थे.

सुबह से ही मौसम का मिजाज बिगड़ा लग रहा था. हवा तो नाम मात्र की भी नहीं चल रही थी. वातावरण इतना शुष्क कि पूछो मत. लेकिन कुछ देर बाद ही पूरे आकाश पर काले बादल मंडराने लगे. लग रहा था धूआंधार बारिश होगी. सच में कुछ पलों में ही बादलों की गड़गड़ाहट के साथ बूंदाबादी और फिर झमाझम बारिश शुरू हो गई जिसे देख देव के चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. वह बालकनी में खड़ा हो गया. सोचने लगा कि काश इस बारिश में पकौड़े मिल जाते, तो मजा आ जाता.

तभी प्रिया का फोन आ गया. बोली, ‘‘मैं गरमगरम पकौड़े बना रही हूं. आप जल्दी आ जाएं.’’

‘‘सच प्रियाजी? अभी आता हूं.’’

‘‘पकौड़े बहुत ही टेस्टी बने हैं, पेट भर गया पर मन नहीं भर रहा है,’’ एक और पकौड़ा उठाते हुए देव बोला.

प्रिया ने और पकौड़े उस की प्लेट में रख दिए और बोली, ‘‘अभी तो पार्टी शुरू हुईर् है.’’

‘‘अरे, सच में प्रियाजी… अब तो पेट फट जाएगा… इतना खिला दिया आप ने,’’ कह देव ने घड़ी पर नजर डाली. 9 बज चुके थे. सोचा अब चला जाए. पर प्रिया ने एक कप चाय और पीने की बोल कर उसे रोक लिया. चाय पीतेपीते देव का सिर घूमने लगा. कुछ ही पलों बाद वह वहीं सोफे पर लुढ़क गया. जब प्रिया को लगा कि वह बेसुध पड़ गया और अब उसे कोई होश नहीं है, तो उसे किसी तरह कमरे में सुला दिया.

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अनायास ही प्रिया के होठों पर मुसकान बिखर आई. बाथरूम में जा कर वह अपने शरीर को मलमल कर नहाते हुए गुनगुनाने लगी, ‘‘सजना है मुझे सजना के लिए… जरा उलझी लटें संवार लूं… हर अंग का रंग निखार लूं कि सजना है मुझे…’’

नहा कर उस ने कपड़े ऐसे पहने कि अंदर सब साफसाफ दिखाई दे रहा था. सजसंवर कर जब उस ने आईने के सामने खड़ी हो अपना अक्स निहारा, तो खुद में ही लजा गई. फिर उस ने पलंग पर सोए देव को निहारा. उस का गठीला बदन देख उस ने अपने होंठ को दांत से ऐसे दबा लिया जैसे अब बात उस की बरदाश्त के बाहर हो गई हो. हौले से देव के पास गईर् और फिर लाइट बंद कर दी.

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आखिरी दांव: भाग 1- क्या हुआ देव के साथ

रोजसुबह उठ कर अपने लिए चायनाश्ता बनाबना कर ऊब चुका था देव. मन ही मन सोचता कि काश, अनु होती, तो वह बैड टी का मजा ले रहा होता. घड़ी पर नजर डाली, तो 9 बज चुके थे. झटपट उठ कर फ्रैश होने के बाद उस ने एक चूल्हे पर चाय रखी और दूसरे पर ब्रैड सेंकने लगा. जब से अनु मायके गई थी देव का रोज सुबह का यही नाश्ता होता था. दोपहर का खाना वह औफिस की कैंटीन में खा लेता और रात के खाने का कुछ पता नहीं होता. कभी बाहर से मंगवा लेता, तो कभी खुद कुछ बना लेता. अनु के बिना 15 दिन में ही उस की हालत खराब हो गई है, तो आगे और दिन कैसे गुजरेंगे, सोच कर ही वह सिहर उठा. तभी अनु का फोन आ गया.

‘‘गुड मौर्निंग जानू,’’ अनु पति देव को प्यार से जानू बुलाती थी, ‘‘कैसे हो? मन लग रहा है मेरे बिना?’’ हमेशा की तरह एक किस के साथ अनु ने पूछा.

‘‘अच्छा हूं पर बहुत ज्यादा नहीं. तुम बताओ क्या कर रही हो?’’ बात करते हुए जब ब्रैड जलने की बदबू आई तो अचानक देव चीख पड़ा.

‘‘क्या हुआ देव?’’ घबरा कर अनु ने पूछा.

‘‘हाथ जल गया यार,’’ देव हाथ झटकते हुए बोला, ‘‘बहुत हंसी आ रही है न? हंस लो हंस लो, अभी तुम्हारे हंसनेखेलने के दिन हैं बेबी…अभी तो तुम वहां महारानी की तरह रह रही होगी. मांभाभियां तरहतरह के व्यंजन बना कर खिला रही होंगी. और मैं यहां खुद हाथ जला रहा हूं.’’

‘‘अच्छा, और पापा कौन बनेगा? पता भी है तुम्हें कि मां बनने में कितनी तकलीफ सहनी पड़ती है औरतों को? देखा है मैं ने भाभी को, जब चिंटू पैदा होने वाला था तब उन्हें कितनी तकलीफ हुई थी. मैं तो सोच कर ही डरी जा रही हूं कि कहीं मुझे भी…’’

‘‘जरूरी तो नहीं कि भाभी की तरह तुम्हें भी तकलीफ हो… आ जाऊंगा न डिलिवरी के कुछ दिन पहले ही, अनु को धैर्य बंधाते हुए देव ने कहा और फिर फोन रख दिया.

चाय के साथ उसी जली ब्रैड को किसी तरह निगल कर औफिस चला गया. अनु थी तब न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता होती थी और न ही नाश्तेचाय की. अब उसे सब समझ में आने लगा कि अनु अपनी जगह कितनी सही थी, आज देव का वजन संतुलित है तो सिर्फ अनु की वजह से, क्योंकि वही उस के पीछे पड़ कर उसे वौक पर ले जाती और जिम भी भेजती थी. हैल्थ को ले कर जरा भी लापरवाही अनु को पसंद नहीं थी.

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उधर फोन रख कर अनु देव को ले कर चिंतित हो उठी. सोचने लगी कि अगर यहां आना जरूरी न होता, तो वह हरगिज न आती. दरअसल, शादी के 5 साल बाद अनु मां बनने जा रही थी. जब वह पहली बार मां बनने वाली थी तब उस की मां ने कहा था कि वह यहां आ जाए, क्योंकि डिलिवरी के वक्त किसी अनुभवी का साथ होना जरूरी है. लेकिन वह नहीं मानी थी और यह बोल कर आने से मना कर दिया था कि देव सब संभाल लेगा.

मगर वही हुआ जिस बात का अनु की मां को डर था. अचानक 1 दिन के लिए औफिस के जरूरी काम से देव को बाहर जाना पड़ गया. देव ने कहा भी कि वह नहीं जाएगा, चाहे कितना भी जरूरी क्यों न हो, पर अनु ने यह कर उसे भेज दिया कि काम में लापरवाही अच्छी नहीं और फिर क्या एक दिन भी वह अपना खयाल नहीं रख सकती? देव के जाने के अगले दिन वह नहाने बाथरूम गई तो उसे ध्यान ही नहीं रहा कि बाथरूम गीला है. वहां थोड़ी फिसलन भी थी. जैसे ही बाथरूम में घुसी, उस का पैर फिसल गया और वह गिर पड़ी. वह तो अच्छा था कि घर का मेन दरवाजा खुला था, तो उस के चीखने की आवाज से पड़ोसी दौड़े आए और उसे जल्दी अस्पताल ले गए. मगर लाख कोशिश के बाद भी डाक्टर अनु के बच्चे को नहीं बचा पाए. उस के बाद कई साल तक अनु मां नहीं बन पाई. डाक्टर का कहना था कि स्वास्थ्य संबंधी कुछ दिक्कते हैं इलाज के बाद ही यह मां बन पाएगी.

खैर, इस बार अनु प्रैगनैंट हो गई. डाक्टर ने अच्छी तरह समझा दिया कि इस बार कोई लापरवाही न बरती जाए. जहां तक हो सके अनु आराम करे. देव और अनु ने भी इस बार कोई रिस्क लेना नहीं चाहा. सोच लिया देव ने कि चाहे उसे कितनी भी तकलीफ क्यों न हो, वह अनु को उस की मां के घर छोड़ आएगा.

शाम को औफिस से आते ही देव सोफे पर लेट गया. थक कर इतना चूर हो गया था कि लेटते ही उसे नींद आ गई. आंखें तब खुलीं जब अनु का फोन आया.

‘‘लगता है बहुत थक गए हो? एक काम करो, बाहर से ही कुछ मंगवा लो,’’ कह अनु ने फोन रख दिया.

देव अपने लिए खाना और्डर करने जा ही रहा था कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.

‘इस वक्त कौन हो सकता है? मन ही मन सोचते हुए देव ने एक नजर दरवाजे पर और दूसरी घड़ी पर डालते हुए दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर, छरहरी, गोरी 30-32 साल की महिला खड़ी मुसकरा रही थी.

अपने घर, वह भी रात के इस वक्त किसी अनजान महिला को देख देव हकला कर बोला, ‘‘आ… आप… आप कौन?’’

‘‘जी मैं प्रिया, आप के ऊपर वाले फ्लोर में रहती हूं,’’ पूरे आत्मविश्वास से उस महिला ने जवाब दिया.

‘‘पर मैं तो आप को…’’

‘‘हां, आप मुझे नहीं जानते, पर मैं आप को जानती हूं,’’ देव की बात को काटते हुए वह महिला बोली, ‘‘अनु के हसबैंड हैं आप और अभी वे अपने मायके गई हुई हैं डिलिवरी के लिए,’’ उस ने कहा. उस की बात सुन देव हैरानी से उसे देखने लगा. फिर सोचने लगा कि इसे इतना सबकुछ कैसे पता है? और वह उसे कैसे नहीं जानता, जबकि दोनों एक ही बिल्डिंग में रह रहे हैं?

‘‘ज्यादा मत सोचिए, क्योंकि अभी 1 महीने पहले ही मैं यहां शिफ्ट हुई हूं और वैसे भी आप सुबह औफिस चले जाते हैं और आते ही माचिस की डब्बी में बंद हो जाते हैं, तो आप को कैसे पता चलेगा कि कौन नया आदमी आया और कौन पुराना आदमी चला गया?’’

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‘‘पुराना आदमी मतलब?’’ देव ने पूछा.

‘‘पुराना आदमी मतलब कि जो पहले आप के ऊपर अमन दंपती रहते थे न, उन्हीं के घर में मैं रहने आई हूं.’’

‘‘अच्छा…’’ देव ने अपनी याददाश्त पर जोर डाला. उसे याद आया कि हां ऊपर पंजाबी दंपती रहते थे.

‘‘मगर यह माचिस की डब्बी… क्या मतलब?’’ देव ने पूछा.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘क्या अपने घर के अंदर नहीं बुलाएंगे? बाहर से ही सरका देने का इरादा है?’’

‘‘अरे, प्लीज आइए न,’’ देव थोड़ा सरक गया ताकि वह घर के अंदर दाखिल हो सके.

‘‘माचिस की डब्बी का मतलब है यह अपार्टमैंट,’’ सोफे पर बैठते हुए वह महिला बोली, ‘‘देख नहीं रहे हैं कितने छोटेछोटे कमरे हैं. कभीकभी तो दम घुटने लगता है मेरा अपने घर में. बड़े शहरों की यही समस्या है. सुविधाएं तो बहुत होती हैं, पर जगह बहुत सीमित और लोग भी यहां के इतने मतलबी की किसी को किसी से लेनादेना नहीं. घर में घुसते ही ऐसे पैक हो जाते हैं जैसे माचिस की डब्बी में तीली.’’

उस की बातों पर देव को हंसी आ गई.

‘‘अरे बातोंबातों में मैं भूल ही गईर् कि मैं आप के लिए खाना ले कर आईर् हूं,’’ कहते हुए प्रिया ने उसे खाना दिया.

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निर्णय: भाग 3- वक्त के दोहराये पर खड़ी सोनू की मां

जिज्जी ने चिढ़ कर दोनों को एक ही थैली के चट्टेबट्टे तक कह दिया था. बचपन की दबंगई गई कहां है सरिता की. बड़ी ही दुखती रग पर हाथ धर दिया था उस ने. सीधे कह दिया, ‘अपना दुख बिसरा चुकी हो जिज्जी?’ जिज्जी सन्न रह गई थीं. रोतीबिसूरती पैर पटकती जा बैठी थीं अपने कमरे में. उस की आंख के आगे अंधेरा छाने लगा था. देखा जाए तो जिज्जी के दुख की विशालता का कहां ओरछोर है. असमय ही पति की मृत्यु के बाद बेटे को अपने पास रख 6 महीने की बेटी सहित जिज्जी को नंगे पांव घर से बाहर कर दिया था उन के ससुराल वालों ने. वह समझती है जिज्जी की मनोदशा. तब की उपजी कड़वाहट ने उन का जीवन ही नहीं, दिलदिमाग तथा जबान तक को जहरीला कर दिया है. कहीं न कहीं यह बात भी थी कि मायके में अपने पांव जमाए रखने के लिए वे पूरे घर की नकेल को कस कर थामे रखना चाहती थीं. जबकि वह है कि फिसलती ही जा रही है उन के हाथों से. उस पर सरिता ने आ कर और गुड़गोबर कर दिया था. दृढ़ प्राचीर की भांति खड़ी हो गई थी सरिता उस के और मां व जिज्जी के बीच. निश्चय तो पहले से ही पक्का था, जब सरिता की बातों ने उस का हौसला और बढ़ा दिया था. दृढ़ता की अनगिनत परतें और चढ़ गई थीं उस के निश्चय पर. नीलाभ डाक्टर है. सोनू की बीमारी उन्होंने पहले भांप ली थी. उस से उखड़ेउखड़े और कटेकटे रहने लगे थे सोनू के लक्षण दूसरे साल ही प्रकट होने लगे थे. बोलता भी था दांत भी निकाल लिए थे. कूल्हों के बल घिसटता था. सहारा दे कर खड़ा करने पर भी पैर नीचे नहीं रखता था.

नीलाभ चपरासी को भेज कर अकसर सोनू को नर्सिंग होम बुलवा लेते थे. उसे पता ही न चलने दिया. पता नहीं कौनकौन से टैस्ट करवाए. दवाएं दी जाने लगीं. विटामिन एवं एनर्जी बूस्टर के नाम पर वह स्वयं न जाने कौनकौन सी दवाएं खुद अपने हाथों से देते रहे थे सोनू को. एक बार तो दिल्ली भी हो आए थे. घूमने के नाम पर. बहाने से नीलाभ सोनू को एम्स ले गए थे. गेस्ट हाउस लौटे तो चेहरा उतरा हुआ था. रोज बच्चों के साथ उसे पर्यटन विभाग की बस में बिठा देते दिल्ली दर्शन के लिए, स्वयं काम का बहाना कर फाइलें ले कर अलगअलग अस्पतालों के चक्कर काटते. शक तो उसे भी था. 3 साल का बच्चा स्वस्थ और सुंदर पर टांगें जैसे सूखी हड्डी मात्र. जान ही नहीं थी टांगों में. इस विषय में नीलाभ से बात करती तो वे खीज जाते या रूखा सा जवाब देते, ‘कुछ नहीं, सब ठीक है, कमजोरी है, ठीक हो जाएगी.’ पता नहीं ऐसा कह कर वे खुद को तसल्ली देते थे या उसे. उस ने चुपचाप कई प्रकार के आयुर्वेदिक तथा प्राकृतिक तेल व लेप मलने शुरू कर दिए थे सोनू की टांगों पर. दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते, इस विषय में चिंतित तथा किसी अनहोनी की आशंका में घुलते रहते.

‘‘मैडम, रामबाग आ गया. अब किधर लूं?’’ टैक्सी वाले ने टोका तो सचेत हो कर उस ने इधरउधर देखा. टैक्सी वाला सोच रहा था कि सफर की थकी  सवारी शायद सो गई है. वह फिर से बोला, ‘‘उठो जी मैडमजी, बताओ कौन सी गली में लूं?’’

‘‘नीलाभ नर्सिंगहोम.’’

‘‘अच्छा जी,’’ कह कर उस ने निर्दिष्ट दिशा की ओर गाड़ी मोड़ दी. घर पहुंच कर उस की इच्छा ही नहीं हुई कि नीलाभ से कुछ पूछे या सवालजवाब करे. जो छिपी बात बाहर निकल ही गई हो उसे पुन: तो नहीं छिपाया जा  सकता. और कुछ हो न हो, पतिपत्नी के मध्य रिश्ता अवश्य ही अनाथ हो गया था. दोनों के बीच का गहन अबोला पूरे घर में सांयसांय करता डोलने लगा था. 2 छोटी बेटियां तो अबोध थीं अभी पर किशोरावस्था की ओर पग बढ़ाती बड़ी बेटी शिप्रा कुछ समझ रही थी, कुछ समझने का प्रयास कर रही थी. सोनू पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणावश हर समय उसी के साथ चिपका रहता. अपनी सारी संचित शक्ति से वह अपने दृढ़ निश्चय, साहस तथा ममता को जागृत रखती कि कहीं किसी कमजोर पल में निष्ठुर पौरुष उसे अपने सामने घुटने टेकने को विवश न कर दे. 3 दिन का छूटा घर समेटने लगी तो उस ने नीलाभ की टेबल पर मैडिकल पत्रिका का एक अंक पड़ा देखा था. जन्मजात एवं वंशानुगत शारीरिक विसंगतियों का विशेषांक.

रात करीब 3 बजे उस की नींद खुली तो देखा नीलाभ लैपटौप पर दत्तचित्त हो कर पता नहीं क्या काम कर रहे थे. सांस रोक कर वह चुपचाप देखती रही थी. थोड़ी देर बाद लैपटौप बंद कर नीलाभ कोहनियों को मेज पर टिकाए दोनों हथेलियों में अपना झुका हुआ सिर थाम देर तक बैठे रहे थे. सुबह नर्सिंग होम नहीं गए वे. पता नहीं किस उधेड़बुन में लगे थे. कभी किसी को फोन करते, कभी कागजपत्तर फैला कर बैठ जाते. अचानक उठे और अटैची निकाल कर सोनू का सामान उस में भरने लगे. उसे लगा वह गश खा कर गिर पड़े. अपना सारा अहं, सारा मानअभिमान भूल कर वह नीलाभ के पैरों पर लोट गई.

‘‘बस करो, और मुश्किलें न बढ़ाओ ये सब कर के मेरे लिए.’’ नीलाभ तड़प कर बोले, ‘‘पत्थर नहीं हूं मैं. कोई इलाज नहीं है इस का यहां. और विदेश में इतना महंगा है कि मैं अपना सबकुछ बेच दूं तो भी पूरा न पड़ेगा, समझीं तुम. उस पर भी गारंटी कुछ नहीं.’’ पता नहीं नीलाभ की खीज, क्रोध और चिल्लाहट का मूल कारण क्या था. एक असहाय, अपाहिज बेटे के प्रति पिता का फर्ज निभा पाने की अक्षमता या एक कमजोर क्षण में एक निराश्रित को अपना मान लेने का निर्णय. शिप्रा आंसुओं में भीगी डरीसहमी दरवाजे के पीछे खड़ी सब देखसुन रही थी. दोनों छोटी बच्चियां भी डर के मारे अपने कमरे में दुबकी थीं. इस से पहले उन्होंने कभी पिता को इतने क्रोध में नहीं देखा था.

तभी डोरबैल बजी. सन्नाटा पसर गया कमरे में. क्षणभर को सब ठिठक गए. वह खुद को संभालती उठी और दरवाजा खोला. प्रजापतिजी थे. नीलाभ के मित्र एवं शिप्रा के लौंग जंप खेल के कोच. घर के असहज वातावरण को भांप कर कुछ अचकचा से गए थे. वह समझ गई थी उन के आने का कारण. अंतर विद्यालय प्रतियोगिता को कुछ ही दिन रह गए हैं पर शिप्रा का ध्यान ही नहीं है आजकल किसी चीज में. ‘‘प्रैक्टिस पर क्यों नहीं आती आजकल बेटा?’’ सीधे शिप्रा से ही पूछ लिया था प्रजापतिजी ने. शिप्रा अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करती है इस खेल में.

‘‘मुझे नहीं खेलना,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘क्यों? क्या मुसीबत आन पड़ी है, पता तो चले? गोल्ड जीत सकती हो. स्टेट लेवल पर जाओगी. दिमाग में भूसा भरा है क्या? चांस रोजरोज नहीं मिलते.’’ नीलाभ ने शिप्रा के ‘सर’ के बैठे होने का भी लिहाज न किया और अपने भीतर दबा कहीं का आक्रोश कहीं निकाला. ‘‘रेखा के पांव की हड्डी टूट गई है जंप लगाते हुए,’’ शिप्रा डर कर बोली.

‘‘तो…?’’ हैरानी से प्रजापतिजी बोले. उन की बात बीच में ही काट कर नीलाभ बिफर पड़े, ‘‘चोट उसे लगी है. तुम्हारी तो सलामत हैं न दोनों टांगें. चोट के डर से क्या घर पर बैठ जाओगी?’’ शिप्रा आंसू रोकने का भरसक प्रयास कर रही थी. आंखें जैसे जल रही थीं उस की. मुंह तमतमा गया था. उस की दृष्टि सोनू के पैरों पर जमी थी. ‘‘लग सकती है मुझे भी. कहीं मेरे पैर भी…तो आप मुझे भी सोनू की तरह…’’ रुलाई में शब्द गड्डमड्ड हो गए थे. पुत्री के टूटेफूटे अस्फुट शब्द और अधूरे वाक्यों ने अपनी पूरी बात संप्रेषित कर दी थी. नीलाभ के पैरों के नीचे की धरती घूम सी गई. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. बेदम हो कर वे पास पड़ी कुरसी पर ढेर हो गए.

कल हमेशा रहेगा: भाग 3- वेदश्री ने किसे चुना

पापा ने भी मम्मी के साथ सहमत होते हुए कहा था, ‘बेटी, डा. साकेत ने हमारे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया, वह आज के जमाने में शायद ही किसी के लिए कोई करे. यदि उन्होंने हमारी मदद न की होती तो क्या हम मानव का इलाज बिना पैसे के करवा सकते थे?

‘यह बात कभी न भूलना बेटी कि हम ने मानव के इलाज के बारे में मदद के लिए कितने लोगों के सामने अपने स्वाभिमान का गला घोंट कर हाथ फैलाए थे, और हर जगह से हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी थी. जब अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब साकेत ने गैर होते हुए भी हमारा दामन थामा था.’

‘अभिजीत अगर तुम्हारा प्यार है तो मानव तुम्हारा फर्ज है. फर्ज निभाने में जिस ने तुम्हारा साथ दिया वही तुम्हारा जीवनसाथी बनने योग्य है, क्योंकि सदियों से चली आ रही प्यार और फर्ज की जंग में जीत हमेशा फर्ज की ही हुई है,’ दिमाग के किसी कोने से वेदश्री को सुनाई पड़ा.

मम्मीपापा के दबाव में आ कर वेदश्री ने डा. साकेत से शादी करने का फैसला ले लिया. वह इस बात से दुखी थी कि अभि को यह बात कैसे समझाएगी. लेकिन बहते हुए आंसुओं को रोक कर उस ने एक निर्णय ले ही लिया कि वह अभि से मिलने आखिरी बार जरूर जाएगी.

वेदश्री की बातें सुनने के बाद अभि तय नहीं कर पा रहा था कि वह किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दर्शाए. वह श्री को दिल से चाहता था और अपनी जिंदगी उस के साथ हंसीखुशी बिताने का मनसूबा बना रहा था. उस का सपना आज हकीकत के कठोर धरातल से टकरा कर चकनाचूर हो गया था और वह कुछ भी करने में असमर्थ था.

उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की अपनी गरीबी और लाचारी उस की जिंदगी से इस कदर खिलवाड़ करेगी. यदि वह अमीर होता तो क्या मानव के इलाज के लिए अपनी तरफ से योगदान नहीं देता? श्री उस के लिए सबकुछ थी तो उस के परिवार का हर सदस्य भी तो उस का सबकुछ था.

अब समय मुट्ठी से रेत की तरह सरक गया था. समय पर अब उस का कोई नियंत्रण नहीं रहा था. अब तो वह सिर्फ श्री और साकेत के सफल सहजीवन के लिए दुआ ही कर सकता था.

अपना हृदय कड़ा कर और आवाज में संतुलन बना कर अभिजीत बोला, ‘‘श्री, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ सकता हूं पर तुम से तो मैं यही कहूंगा कि हमें समझदार प्रेमियों की तरह हंसीखुशी एकदूसरे से अलग होना चाहिए. प्यार कोई ऐसी शै तो है नहीं कि दूरियां पैदा होने पर दम तोड़ दे. प्यार किया है तो उसे निभाने के लिए शादी करना कतई जरूरी नहीं. प्लीज, तुम मेरी चिंता न करना. मैं अपनेआप को संभाल लूंगा पर तुम वचन दो कि आज के बाद मुझे भुला कर सिर्फ साकेत के लिए ही जिओगी.’’

आंखों में आंसू लिए भारी मन से दोनों ने एकदूसरे से विदा ली.

‘‘श्री, आज का दिन यहां खत्म हुआ तो क्या हुआ? याद रखना, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा… और हर आने वाला कल तुम्हारी जिंदगी को और कामयाब बनाए, यही मेरी दुआ है.’’

मंगलसूत्र पहनाते समय साकेत की उंगलियों ने ज्यों ही वेदश्री की गरदन को छुआ, उस के सारे शरीर में सिहरन सी भर गई. सप्तपदी की घोषणा के साथसाथ शहनाई का उभरता संगीत हवा में घुल कर वातावरण को और भी मंगलमय बनाता गया. एकएक फेरे की समाप्ति के साथ उसे लगता गया कि वह अपने अभिजीत से एकएक कदम दूर होती जा रही है. आज से अभि उस से इस एक जन्म के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले सात जन्मों के लिए दूर हो गया है. अब उस का आज और कल साकेत के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया है.

फेरों के खत्म होते ही मंडप में मौजूद लोगों ने अपनेअपने हाथों के सारे फूल एक ही साथ नवदंपती पर निछावर कर दिए. तब वेदश्री ने अपने दिल में उमड़ते हुए भावनाओं के तूफान को एक दृढ़ निश्चय से दबा दिया और सप्तपदी के एकएक शब्द को, उस से गर्भित हर अर्थ हर सीख को अपने पल्लू में बांध लिया. उस ने मन ही मन संकल्प किया कि वह अपने विवाहित जीवन को आदर्श बनाने का हरसंभव प्रयास करेगी क्योंकि वह इस सच को जानती थी कि औरत की सार्थकता कार्येषु दासी, कर्मेषु मंत्री, भोज्येशु माता और शयनेशु रंभा के 4 सूत्रों के साथ जुड़े हर कर्तव्यबोध में समाई हुई है.

सुहाग सेज पर सिकुड़ी बैठी वेदश्री के पास बैठ कर साकेत ने कोमलता से उस का चेहरा ऊपर की ओर इस तरह उठाया कि साकेत का चेहरा उस की आंखों के बिलकुल सामने था. वह धड़कते हृदय से अपने पति को देखती रही, लेकिन उसे साकेत के चेहरे पर अभि का चेहरा क्यों नजर आ रहा है? उसे लगा जैसे अभि कह रहा हो, ‘श्री, आखिर दिखा दिया न अपना स्त्रीचरित्र. धोखेबाज, मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करूंगा.’ और घबराहट के मारे वेदश्री ने अपनी पलकें भींच कर बंद कर लीं.

‘‘क्या हुआ, श्री. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ साकेत उस की हालत देख कर घबरा गया.

‘‘नहींनहीं…बिलकुल ठीक हूं…आप चिंता न करें…पहली बार आज आप ने मुझे इस तरह छुआ न इसलिए पलकें स्वत: शरमा कर झुक गईं,’’ कह कर वह अपनी घबराहट पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगी.

मन में एक निश्चय के साथ श्री ने अपनी आंखें खोल दीं और चेहरा उठा कर साकेत को देखने लगी.

‘‘अब मैं ठीक हूं, साकेत. पर आप से कुछ कहना चाहती हूं…प्लीज, मुझे एक मौका दीजिए. मैं अपने मन और दिल पर एक बोझ महसूस कर रही हूं, जो आप को हकीकत से वाकिफ कराने के बाद ही हलका हो सकता है.’’

‘‘किस बोझ की बात कर रही हो तुम? देखो, तुम अपनेआप को संभालो, और जो कुछ भी कहना चाहती हो, खुल कर कहो. आज से हम नया जीवन शुरू करने जा रहे हैं और ऐसे में यदि तुम किसी भी बात को मन में रख कर दुखी होती रहोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘साकेत, मैं ने आप से अपनी जिंदगी से जुड़ा एक गहरा राज छिपा कर रखा है और यह छल नहीं तो और क्या है?’’ फिर वह अभिजीत और अपने रिश्ते से जुड़ी हर बात साकेत को बताती चली गई.

‘‘साकेत, मैं आप को वचन देती हूं कि मैं अपनी ओर से आप को शिकायत का कोई भी मौका नहीं दूंगी,’’ अपनी बात खत्म करने के बाद भी वह रो रही थी.

‘‘गलत बात है श्री, आज का यह विशेष अवसर और उस का हर पल, हमारी जिंदगी में पहली और आखिरी बार आया है. क्या इन अद्भुत पलों का स्वागत आंसुओं से करोगी?’’ साकेत ने प्यार से उस का चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘रही बात तुम्हारे और अभिजीत के प्रेम की तो वह तुम्हारा अतीत था और अतीत की धूल को उड़ा कर अपने वर्तमान को मैला करने में मैं विश्वास नहीं रखता…भूल जाओ सबकुछ…’’वह रात उन की जिंदगी में अपने साथ ढेर सारा प्यार और खुशियां लिए आई. साकेत ने उसे इतना प्यार दिया कि उस का सारा डर, घबराहट, कमजोर पड़ता हुआ आत्मविश्वास…उस प्यार की बाढ़ में तिनकातिनका बन कर बह गया.

वसंत पंचमी का शुभ मुहूर्त वेदश्री के जीवन में एक कभी न खत्म होने वाली वसंत को साथ ले आया जिस ने उस के जीवन को भी फूलों की तरह रंगीन बना दिया क्योंकि साकेत एक अच्छे पति होने के साथ ही एक आदर्श जीवनसाथी भी साबित हुए.

पहले दिन से ही श्री ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा घर के सभी सदस्यों को अपना बना लिया. समय के पंखों पर सवार दिन महीनों में और महीने सालों में तबदील होते गए. 5 साल यों गुजर गए मानो 5 दिन हुए हों. इन 5 सालों में वेदश्री ने जुड़वां बेटियां ऋचा एवं तान्या तथा उस के बाद रोहन को जन्म दिया. ऋचा व तान्या 4 वर्ष की हो चली थीं और रोहन अभी 3 महीने का ही था. साकेत का प्यार, 3 बच्चों का स्नेह और परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठा, यही उस के जीवन की सार्थकता के प्रतीक थे.

साकेत की दादी दुर्गा मां सुबह जल्दी उठ जातीं. उन के स्नान से ले कर पूजाघर में जाने तक सभी तैयारियों में श्री का सुबह का वक्त कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता. उस के बाद मांबाबूजी, साकेत तथा भैयाभाभी बारीबारी उठ कर तैयार होते. फिर अनिकेत और आस्था की बारी आती. सभी के नहाधो कर अपनेअपने कामों में लग जाने के बाद श्री अपना भी काम पूरा कर के दुर्गा मां की सेवा में लग जाती.

अनिकेत एवं आस्था तो भाभी के दीवाने थे. हर पल उस के आगेपीछे घूमते रहते. उन की हर जरूरत का खयाल रखने में श्री को बेहद सुख मिलता. श्री एवं अनिकेत दोनों की उम्र में बहुत फर्क नहीं था. अनिकेत ने एम.बी.ए. की डिगरी प्राप्त की थी. अब वह अपने पिता एवं बड़े भाई के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था लेकिन अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए श्री पर ही निर्भर रहता. वह उस से मजाक में कहती भी थी, ‘अनिकेत भैया, अब आप की भाभी में आप की देखभाल करने की शक्ति नहीं रही. जल्दी ही हाथ बंटाने वाली ले आइए वरना मैं अपने हाथ ऊपर कर लूंगी.’

आगे पढ़ें- वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक…

कल हमेशा रहेगा: भाग 2- वेदश्री ने किसे चुना

सर्जरी के तुरंत बाद डा. साकेत ने उसे बताया कि मानव की सर्जरी सफल तो रही लेकिन उस आंख का विजन पूर्णतया वापस लौटने में कम से कम 6 महीने का वक्त और लगेगा. यह सुन कर उसे तकलीफ तो हुई थी लेकिन साथसाथ यह तसल्ली भी थी कि उस का भाई फिर इस दुनिया को अपनी स्वस्थ आंखों से देख सकेगा.

‘‘श्री…जी, मैं ने आप से वादा किया था कि आप को कभी नाउम्मीद नहीं होने दूंगा…’’ साकेत ने उस की गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को दिया अपना वादा पूरा किया.’’

वेदश्री ने संकोच से अपनी पलकें झुका दीं.

‘‘फिर मिलेंगे…’’ कुछ निराश भाव से डा. साकेत ने कहा और फिर मुड़ कर चले गए.

उस दिन एक लंबे अरसे के बाद वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद खुश मन से अभिजीत से मिली. उसे तनावरहित और खुशहाल देख कर अभि को भी बेहद खुशी हुई.

‘‘अभि, कितने लंबे अरसे के बाद आज हम फिर मिल रहे हैं. क्या तुम खुश नहीं?’’ श्री ने उस का हाथ अपने हाथ में थाम कर ऊष्मा से दबाते हुए पूछा.

‘‘ऐसी बात नहीं, मैं तुम्हें अपने इतने नजदीक पा कर बेहद खुश हूं…खैर, मेरी बात जाने दो, मुझे यह बताओ, अब मानव कैसा है?’’

‘‘वह ठीक है. उसे एक नेक डोनेटर मिल गया, जिस की बदौलत वह अपनी नन्हीनन्ही आंखों से अब सबकुछ देख सकता है. आज मुझे लगता है जैसे उसे नहीं, मुझे आंखों की रोशनी वापस मिली हो. सच, उस की तकलीफ से परे, मैं कुछ भी साफसाफ नहीं देख पा रही थी. हर पल यही डर लगा रहता था कि यदि उस की आंखों की रोशनी वापस नहीं मिली तो उस के गम में कहीं मम्मी या पापा को कुछ न हो जाए. उस दाता का और डा. साकेत का एहसान हम उम्र भर नहीं भुला सकेंगे.’’

‘‘अच्छा, तुम बताओ, तुम्हारा भांजा प्रदीप किस तरह दुर्घटना का शिकार हुआ? मैं ने सुना था तो बेहद दुख हुआ. कितना हंसमुख और जिंदादिल था वह. उस की गहरी भूरी आंखों में हर पल जिंदगी के प्रति कितना उत्साह छलकता रहता…’’

अभि अपलक उसे देखता रहा. क्या वह कभी उसे बता भी सकेगा कि प्रदीप की ही आंख से उस का भाई इस दुनिया को देख रहा है? वह मरा नहीं, मानव की एक आंख के रूप में उस की जिंदगी के रहने तक जिंदा रहेगा.

वह बोझिल स्वर में वेदश्री को बताने लगा.

‘‘प्रदीप अपने दोस्त के साथ ‘कल हो न हो’ फिल्म देखने जा रहा था. हाई वे पर उन की मोटरसाइकिल फिसल कर बस से टकरा गई. उस का मित्र जो मोटरसाइकिल चला रहा था, वह हेलमेट की वजह से बच गया और प्रदीप ने सिर के पिछले हिस्से में आई चोट की वजह से गिरते ही वहीं उसी पल दम तोड़ दिया.

‘‘कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर वह मेरी बहन का बेटा था, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही हुआ…पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर ने रिपोर्ट में दर्शाया था कि अगर वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता…’’

‘‘इतना सबकुछ हो गया और तुम ने मुझे कुछ भी बताने योग्य नहीं समझा?’’ अभिजीत की बात बीच में काट कर श्री बोली.

‘‘श्री, तुम वैसे भी मानव को ले कर इतनी परेशान रहती थीं, तुम्हें यह सब बता कर मैं तुम्हारा दुख और बढ़ाना नहीं चाहता था.’’

कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन का साम्राज्य छाया रहा. दिल ही दिल में एकदूसरे के लिए दुआएं लिए दोनों जुदा हुए. अभि से मिल कर वेदश्री घर लौटी तो डा. साकेत को एक अजनबी युगल के साथ पा कर वह आश्चर्य में पड़ गई.

‘‘नमस्ते, डाक्टर साहब,’’ श्री ने साकेत का अभिवादन किया.

प्रत्युत्तर में अभिवादन कर डा. साकेत ने अपने साथ आए युगल का परिचय करवाया.

‘‘श्रीजी, यह मेरे बडे़ भैया आकाश एवं भाभी विश्वा हैं और आप सब से मिलने आए हैं. भाभी, ये श्रीजी हैं.’’

विश्वा भाभी उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आओ श्री, हमारे पास बैठो,’’ उन्हें भी श्री पहली ही नजर में पसंद आ गई.

‘‘अंकलजी, हम अपने देवर

डा. साकेत की ओर से आप की बेटी वेदश्री का हाथ मांगने आए हैं,’’ भाभी ने आने का मकसद स्पष्ट किया.

यह सुन कर श्री को लगा जैसे किसी ने उसे ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे खाई में धकेल दिया हो. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो वह सुन रही है वह सच है या फिर एक अवांछनीय सपना?

भाभी का प्रस्ताव सुनते ही श्री के मातापिता की आंखोंमें एक चमक आ गई. उन्होंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के लिए इतने बड़े घराने से रिश्ता आएगा.

‘‘क्या हुआ श्री, तुम हमारे प्रस्ताव से खुश नहीं?’’ श्री के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर भाभी ने पूछ लिया.

साकेत और आकाश दोनों ही उसे देखने लगे. साकेत का दिल यह सोच कर तेजी से धड़कने लगा कि कहीं श्री ने इस रिश्ते से मना कर दिया तो?

‘‘नहीं, भाभीजी, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, आप का प्रस्ताव मेरे लिए अप्रत्याशित है. इसीलिए कुछ पलों के लिए मैं उलझन में पड़ गई थी पर अब मैं ठीक हूं,’’ जबरन मुसकराते हुए वेदश्री ने कहा, ‘‘मैं ने तो साकेत को सिर्फ एक डाक्टर के नजरिए से देखा था.’’

‘‘सच तो यह है श्री कि जिस दिन तुम पहली बार मेरे अस्पताल में अपने भाई को ले कर आई थीं उसी दिन तुम्हें देख कर मेरे मन ने मुझ से कहा था कि तुम्हारे योग्य जीवनसाथी की तलाश आज खत्म हो गई. और आज मैं परिवार के सामने अपने मन की बात रख कर तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अब फैसला तुम्हारे ऊपर है.’’

‘‘साकेत, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त दीजिए, प्लीज. मैं ने आप को आज तक उस नजरिए से कभी देखा नहीं न, इसलिए उलझन में हूं कि मुझे क्या फैसला लेना चाहिए…क्या आप मुझे कुछ दिन का वक्त दे सकते हैं?’’ वेदश्री ने उन की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘जरूर,’’ आकाश जो अब तक चुप बैठा था, बोल उठा, ‘‘शादी जैसे अहम मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेना उचित नहीं होगा. तुम इत्मीनान से सोच कर जवाब देना. हम साकेत को भलीभांति जानते हैं. वह तुम पर अपनी मर्जी थोपना कभी भी पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘हम भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडें़गे, क्यों साकेत?’’ भाभी ने साकेत की ओर देखा.

‘‘जी, भाभी,’’ साकेत ने हंसते हुए कहा, ‘‘शतप्रतिशत, आप ने बड़े पते की बात कही है.’’

जलपान के बाद सब ने फिर एकदूसरे का अभिवादन किया और अलग हो गए.

आज की रात वेदश्री के लिए कयामत की रात बन गई थी. साकेत के प्रस्ताव को सुन वह बौखला सी गई थी. ये प्रश्न बारबार उस के मन में कौंधते रहे:

‘क्या मुझे साकेत का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? यदि मैं ने ऐसा किया तो अभि का क्या होगा? हमारे उन सपनों का क्या होगा जो हम दोनों ने मिल कर संजोए थे? क्या अभि मेरे बिना जी पाएगा और उस से वादाखिलाफी कर क्या मैं जी पाऊंगी? नहीं…नहीं…मैं अपने प्यार का दामन नहीं छोड़ सकती. मैं साकेत से साफ शब्दों में मना कर दूंगी. नए रिश्तों को बनाने के लिए पुराने रिश्तों से मुंह मोड़ लेना कहां की रीति है?’

सोचतेसोचते वेदश्री को साकेत याद आ गया. उस ने खुद को टोका कि श्री तुम

डा. साकेत के बारे में क्यों नहीं सोच रहीं? तुम से प्यार कर के उन्होंने भी तो कोेई गलती नहीं की. कितना चाहते हैं वह तुम्हें? तभी तो एक इतना बड़ा डाक्टर दिल के हाथों मजबूर हो कर तुम्हारे पास चला आया. कितने नेकदिल इनसान हैं. भूल गईं क्या, जो उन्होंने मानव के लिए किया? यदि उन का सहारा न होता तो क्या तुम्हारा मानव दुनिया को दोनों आंखों से फिर से देख पाता? खबरदार श्री, तुम गलती से भी अपने दिमाग में इस गलतफहमी को न पाल बैठना कि साकेत ने तुम्हें पाने के इरादे से मानव के लिए इतना सबकुछ किया. आखिर तुम दुनिया की अंतिम खूबसूरत लड़की तो हो ही नहीं सकतीं न…दिल ने उसे उलाहना दिया.

साकेत के जाने के बाद पापामम्मी से हुई बातचीत का एकएक शब्द उसे याद आने लगा.

मां ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, ऐसे मौके जीवन में बारबार नहीं आते. समझदार इनसान वही है जो हाथ आए मौके को हाथ से न जाने दे, उस का सही इस्तेमाल करे. बेटी, हो सकता है ऐसा मौका तुम्हारी जिंदगी के दरवाजे पर दोबारा दस्तक न दे…साकेत बहुत ही नेक लड़का है, लाखों में एक है. सुंदर है, नम्र है, सुशील है और सब से अहम बात कि वह तुम्हें दिल से चाहता है.’

आगे पढें- अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब…

बीजी यहीं है: भाग 3- क्या सही था बापूजी का फैसला

तीजत्योहार, ब्याहशादियों में बीजी बहुत याद आती. अपनी पीढ़ी के हर तीजत्योहार, पर्व के लोकगीतों का संग्रह थी वह. ऊपर से आवाज ऐसी कि जो एक बार बीजी के मुंह से कोई लोकगीत सुन ले तो सुनता ही रह जाए.

बीजी के जाने के बाद जब भी मौका मिलता बाबूजी बीजी की बातें ले

बैठते. बीजी के साथ के मेरे होने से पहले के किस्से तब मुझ से सांझ करने से नहीं हिचकते. कई बार तो बाबूजी के नकारने के बाद भी साफ लगता कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी बीजी के और नजदीक हो गए हों जैसे. पता नहीं ऐसा क्यों होता होगा कि किसी के जाने के बाद ही हम उस के पहले से और नजदीक हो आते हैं.

बाबूजी को अपने साथ यों खुलतेघुलते देख मैं हैरान था कि कहां वह बाबूजी का मेरे साथ रिजर्व से भी रिजर्व रहना और कहां आज इतना घुलमिल जाना कि… बाबूजी कभी देवानंद, कभी सुनील दत्त तो कभी किशोर कुमार भी रहे थे, धीरेधीरे वे जब खुश होते तो मेरे पूछे बिना ही अपनी परतें यों खोलते जाते ज्यों अब मैं उन का बेटा न हो कर उन का दोस्त होऊं.

बीजी के जाने के बाद मैं ने ही नहीं, राजी ने भी बाबूजी के चश्मे का नंबर 4 महीने में 4 बार बदलते देखा. हर 20 दिन बाद बाबूजी की शिकायत, मेरी आंखें कुछ देख नहीं पा रहीं. तब राजी ने मन से बाबूजी से कहा भी था कि वे हमारे साथ ही पूरी तरह से रहें. पहले तो बाबूजी माने नहीं, पर बाद में एक शर्त बीच में डाल मान गए. अवसर देख उन्होंने शर्त रखी, ‘‘तो शाम का भोजन सब के लिए नीचे की रसोई में ही बना करेगा. और…’’

‘‘और क्या बाबूजी?’’ उस वक्त ऐसा लगा था जैसे मेरे से अधिक राजी बाबूजी के करीब जा पहुंची हो.

‘‘और रात को मैं नीचे ही

सोया करूंगा.’’

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‘‘यह कैसे संभव है बाबूजी?’’ राजी ने मुझ से पहले आपत्ति जताई तो वे बोले, ‘‘देखो राजी बेटाख् वहां मेरा अतीत है, मेरा वर्तमान है. आदमी हर चीज से कट सकता है पर अपने अतीत, वर्तमान से नहीं. इसलिए… क्या तुम चाहोगी कि मैं अपने अतीत, अपने वर्तमान से कट अपनेआप से कट जाऊं, तुम सब से कट जाऊं? कभीकभी तो आदमी को अपनी शर्तों पर जी लेना चाहिए या कि आदमी को उस की शर्तों पर जी लेने देना चाहिए. इस से संबंधों में गरमाहट बनी रहती है राजी,’’ बाबूजी बाबूजी से दार्शनिक हुए तो मैं अवाक. क्या ये वही बाबूजी हैं जो पहले कभीकभी तो बाबूजी भी नहीं होते थे?

‘‘ठीक है बाबूजी. जैसे आप चाहें,’’ मैं ने और राजी ने उन के आगे ज्यादा जिद्द नहीं की यह सोच कर कि जब 2 दिन बाद ही अकेले वहां ऊब जाएंगे तो फिर जाएंगे कहां?

उस रोज मैं हाफ टाइम के बाद ही औफिस से घर आया तो बाबूजी को धूप में न बैठे देख अजीब सा लगा क्योंकि अब उन को औफिस को जाते, औफिस से आते देखना मुझे पहले से भी जरूरी सा लगने लगा था. अचानक मन में यों ही बेतुका सा सवाल पैदा हुआ कि कहीं बाबूजी से राजी की कोई… पर अब राजी और बाबूजी के रिश्ते को देख कर कहीं ऐसा लगता नहीं था जो… सो इस बेतुके सवाल को परे करते मैं ने राजी से पूछा, ‘‘आज बाबूजी धूप में नहीं आए क्या?’’

‘‘क्यों? आए तो थे. पर तुम?’’

‘‘तबीयत ढीली सी लग रही थी सो सोचा कि घर आ कर आराम कर लूं. शायद तबीयत ठीक हो जाए. कहां गए हैं बाबूजी.’’

‘‘कह गए थे जरा नीचे जा रहा हूं. कुछ देर बाद आ जाऊंगा. चाय बनाऊं क्या?’’

‘‘हां, बना दो सब के लिए. तब तक मैं बाबूजी को देख आता हूं. देखूं तो सही वे…’’ और मैं तुरंत नीचे उतर गया.

बाबूजी जब बाहर नहीं दिखे तो यों ही खिड़की से भीतर झंका यह देखने के लिए कि भीतर बाबूजी क्या कर रहे होंगे? भीतर देखा तो बाबूजी ने पहले सोफोें के कवर ठीक किए, फिर सामने बीजी की टंगी तसवीर की धूल साफ  की अपने कुरते से. उस के बाद बीजी की तरह ही टेबल साफ  करने लगे. टेबल साफ  कर हटे तो बीजी की तरह ही किचन के दरवाजे के पीछे पीछे रखे झड़ू से साफ करने लगे. यह देख बड़ा अचंभा हुआ. जिन चीजों से बाबूजी का अभी दूरदूर तक का कोई वास्ता न होता था, इस वक्त वे चीजें बाबूजी के लिए इतनी अहम हो जाएंगी, मैं ने सपने में भी न सोचा था. मैं ने तो सोचा था कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी और भी बेपरवाह हो जाएंगे.

बड़ी देर तक मैं यह सब फटी आंखों से देखता रहा. अचानक मेरी आंखों के गीलेपन के साथ मेरी सिसकी निकली तो सुन बाबूजी चौंके, ‘‘कौन? कौन?’’

‘‘मैं बाबूजी संकु.’’

‘‘तू कब आया?’’ बाबूजी ने अपने को छिपाते सामान्य हो पूछा तो मैं ने भी अपने को छिपा सामान्य होते कहा, ‘‘आज तबीयत ठीक नहीं थी, सो सोचा घर जा कर कुछ आराम कर लूं तो शायद… पर आप यहां… राजी को कह देते, नहीं तो मैं कर देता ये सब…’’

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‘‘नहीं. अपने हिस्से के कई काम कई बार खुद कर के मन को बहुत चैन मिलता है संकु. तुम्हारी बीजी के जाने के इतने महीनों बाद भी जबजब यहां आता हूं तो लगता है कि तुम्हारी बीजी यहीं कहीं है. हम सब के साथ. वह शरीर से ही हम से जुदा हुई है. तुझे ऐसा फील नहीं होता क्या?’’ बाबूजी ने मुझ से पूछा और मुंह दूसरी ओर फेर लिया.

पक्का था उन की आंखें भर आई थीं. सच पूछो तो उस वक्त मैं ने भी बाबूजी के साथ बीजी का होना महसूस किया था पूरे घर में. सोफों पर, टीवी के पास, किचन में हर जगह क्योंकि मैं जानता हूं कि जहां बीजी न हो, वहां बाबूजी एक पल भी नहीं टिकते. एक पल भी नहीं रुकते. कोई उन्हें रोकने की चाहे लाख कोशिशें क्यों न कर ले, वे अपनेआप ऐसी जगह रुकने की हजार कोशिशें क्यों न कर लें. बाबूजी आज भी कुछ मामलों में बड़े स्वार्थी हैं. ऐसे में इस वक्त जो बीजी उन के साथ न होती तो भला वे जब धूप भी धूप तापने को धूप की तलाश में दरदर भटक रही हो, उसे छोड़ बीजी के बिना यहां होते भला?

बीजी यहीं है: भाग 2- क्या सही था बापूजी का फैसला

बीजी की बात जब मौन रह कर भी नकार दी गई या राजी द्वारा ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि कुछ दिन तक तो राजी पहले नीचे सब को खाना बनाती पर बाद में बीचबीच में ऊपर की रसोई में बच्चों के लिए स्कूल का भी लंच बना लेती. फिर धीरेधीरे बच्चों के स्कूल से आने के बाद का भोजन भी ऊपर ही बनने लगा और एक दिन जब मैं और राजी नीचे बीजी वाले घर में गए थे कि बीजी ने खुद ही राजी से वह सब कह दिया जो राजी बीजी के मुंह से बहुत पहले सुनना चाहती थी. पर कम से कम बीजी से तो मुझे वह सब कहने की उम्मीद न थी क्योंकि मैं ने बीजी को 40 साल से बहुत करीब से देखा था. इतना करीब से जितना बाबूजी ने भी बीजी को न देखा हो.

बीजी ने उस दिन बिना किसी भूमिका के राजी से कहा था, ‘‘राजी, तू ऊपरनीचे दौड़ती थक जाती है. ऐसा कर, ऊपर की किचन में ही खाना बना लिया कर. मैं नीचे कर लिया करूंगी.’’

‘‘पर बीजी आप?’’

‘‘हमारा क्या? सारा दिन मैं करती भी क्या हूं? इन के और अपने लिए मैं यहीं खाना बना लिया करूंगी. जिस दिन खाना न बने उस दिन को तू तो है ही,’’ पता नहीं कैसे क्या सोच कर बीजी ने हंसते हुए राजी का स्पेस को और स्पेस दी तो मैं हत्प्रभ. आखिर बीजी भी समझौते करना सीख ही गई.

उस वक्त तब मैं ने साफ महसूस किया था कि कल तक जो बीजी उम्र की ढलान

पर बाबूजी से अधिक अपने को फिसलने से बचाए रखे थी, आज वही बीजी उम्र की ढलान से अधिक जज्बाती ढलान पर फिसली जा रही थी. जब आदमी सम?ौता करता हो तो ढलानों पर ऐसे ही फिसलता होगा शायद अपने को पूरी तरह फिसलाव के हवाले कर.

इस निर्णय के बाद से बीजी के  चेहरे पर से धीरेधीरे मुसकराहट गायब रहने लगी. यह बात दूसरी थी कि मैं और दोनों बच्चे सुबहशाम बीजी के पास जा आते. बच्चे तो कई बार वहीं से डिनर कर के आते तो राजी तुनकती भी. पर मुझे अधिक देर तक बीजी, बाबूजी के साथ बच्चों का रहना अच्छा लगता. उस वक्त कई बार तो मुझे ऐसा लगता काश मैं भी चीनू होता. काश मैं भी किट्टी होती.

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जिस बीजी के हाथों के बने खाने से रोगी भी ठीक हो जाते थे, धीरेधीरे वही बीजी अपने ही हाथों बने खाने से बीमार होने लगी.

अब मैं जब भी बीजी को अस्पताल ले जाने को कहता तो वह हंसते हुए टाल जाती, ‘‘अभी तेरे बाबूजी हैं न. वैसे भी अभी कौन सी मरी जा रही हूं. बूढ़ा शरीर है. कब तक इसे उठाए अस्पताल भागता रहेगा. जब लगेगा कि मुझे तेरे साथ अस्पताल जाना चाहिए, तुझे कह दूंगी.’’

और बीजी बिस्तर पर पड़ीपड़ी पता नहीं बड़ी देर तक किस ओर देखती रहती. मुझ से पूरी तरह बेखबर हो. जैसे में उस के पास होने के बाद भी उस के पास बिलकुल भी न होऊं. बीजी को टूटते देख तब टूट तो मैं भी रहा होता पर बीजी से कम तेजी से. कई बार हम केवल अपने को असहाय हो टूटता देखते भर हैं. अपने टूटने को रोकना न उस वक्त अपने हाथ में होता है न किसी और के हाथों में. कई बार टूटना हमारी नियति होती है और उसे चुपचाप भोगने के सिवा हमारे पास दूसरा कोई और विकल्प होता ही नहीं. फिर हम चाहे कितने ही विकल्प खोजने के लिए सैकड़ों सूरजों की रोशनी में कितने ही हाथपांवों को इधरउधर मारते रहें.

दिसंबर का महीना था. आखिर वही हुआ. बीजी ने जम कर चारपाई पकड़ ली. बीजी को जो एक बार बुखार आया तो उसे साथ ले कर

ही गया.

शायद सोमवार ही था उस दिन. सामने पेड़ के पत्ते पीले तो आसमान में सूरज पीला. एक ओर बीजी का चेहरा पीला तो दूसरी ओर बीजी को तापती धूप. बीजी ने चारपाई पर लेटेलेटे पूछा, ‘‘राजी कहां है?’’

‘‘बीजी ऊपर है, कोई गैस्ट आया है. उसे देख रही होगी. कुछ करना है क्या?’’

‘‘नहीं. तू जो पास है तो लगता है मेरे पास मेरी पूरी दुनिया है,’’ बीजी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते कहा.

बाबूजी साफ मुकर गए थे, ‘‘तेरी बीजी ने मेरा बहुत खयाल रखा है सारी उम्र, मेरे बदले खुद मरती रही. अब मैं भी चाहता हूं कि…’’

‘‘टाइम क्या हो गया?’’ बीजी ने पूछा तो मैं ने मोबाइल में टाइम देख कर कहा, ‘‘बीजी, 5 बजे रहे हैं.’’

‘‘बड़ी देर नहीं कर दी आज इन्होंने बजने में?’’ बीजी ने अपना दर्द अपने में छिपाते पूछा.

‘‘बीजी, रोज तो इसी वक्त 5 बजते हैं. हमारी जल्दी से तो समय नहीं चलेगा न?’’ मैं ने बीजी के अजीब से सवाल पर कहा तो वह बोली, ‘‘देख न, रोज 5 बजते हैं और एक दिन हम ही नहीं होते, पर 5 फिर भी बजते हैं. हमारे जाने के बाद भी सब वैसा ही तो रहता है संकु. बस कोई एक नहीं रहता. एक समय के बाद उसे क्या, किसी को भी नहीं रहना चाहिए,’’ कह बीजी ने पता नहीं क्यों दूसरी ओर मुंह फेर लिया था तब.

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और बीजी चली गई. 15 दिन तक उस के जाने के अनुष्ठान होते रहे. बाबूजी ने

मुझ से बीजी का मेरा काम भी न करने दिया. जब भी मैं कुछ कहता, वे मुझे बस चुप भर रहने का इशारा कर के रोक देते. तब पहली बार पता चला था कि बाबूजी बीजी को कितना चाहते थे? बीजी को कितनी गंभीरता से लेते थे? नहीं तो मैं ने तो आज तक यही सोचा था कि बाबूजी ने बीजी को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं. बीजी ही बाबूजी की चिंता करती रही उम्रभर और मरने के बाद भी करती रहेगी.

बीजी अपने रास्ते चली गई तो हम सब की जिंदगी बीचबीच में बीजी को याद करते अपने रास्ते चलने लगी. मैं महसूस करता कि बाबूजी को अब बीजी पहले से अधिक याद आ रही हो जैसे. जब कभी परेशान होता तो बाबूजी को कम बीजी को अपने कंधे पर हाथ रखे अधिक महसूस करता.

आगे पढ़ें- बीजी के जाने के बाद जब…

बीजी यहीं है: भाग 1- क्या सही था बापूजी का फैसला

बीजी के जाने से पहले हम 6 सदस्य थे इस घर के- मैं, मेरी पत्नी, बाबूजी, बीजी और 2 बच्चे किट्टी और चीनू. यह घर बाबूजी ने 35 साल तक क्लर्की करने के बाद बड़ी मुश्किल से बनवाया था. डेढ़ साल पहले मैं ने बीजी के पहले खुल कर, फिर चुप विरोध के बाद भी घर की छत पर 4 कमरों का सैट बना ही दिया. राजी के कहने पर मैं अपने बच्चों के साथ अब इसी से में रह रहा हूं.

मुझे तब बाबूजी, बीजी को नीचे वाले घर में अकेले छोड़ते हुए बुरा भी लगा था, पर राजी के सामने हथियार डालने पड़े थे. शायद इस के पीछे यह भी हो सकता है कि हर मर्द को चाहे अपने घर की तलाश हो या न हो, पर हर औरत को जरूरत होती है. हर मर्द कहीं अपने लिए स्पेस ढूंढ़े या न ढूंढ़े पर हर औरत को अपने लिए एक स्पेस चाहिए, जो केवल और केवल उसी की हो.

बाबूजी तब माहौल ताड़ गए थे जब मैं ने उन से छत पर सैट बनाने के बारे में बताया था, पर बीजी साफ मुकर गई थी यह कहते हुए, ‘‘क्या जरूरत है छत पर एक और घर बनाने की? इसी में जब सब ठीक चल रहा है तो और बेकार का खर्चा क्यों? जिस को तंगी हो रही हो वह बता दे. मैं बाहर के कमरे में सो जाया करूंगी. संकेत, क्या तुझे अच्छा नहीं लगता कि सारा परिवार एक छत के नीचे रहे? एक चूल्हे पर बना सब एकसाथ खाएं?’’ कह बीजी को जैसे आभास हो गया था कि छत के ऊपर सैट बन जाने का सीधा सा मतलब है कि…

बीजी के बाल धूप में सफेद न हुए थे, इस बात का पता मुझे बीच में लगता रहा था.

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‘‘सो तो ठीक है बीजी पर अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं और ऊपर से…’’  राजी एकदम बोल पड़ी तो मैं चौक उठा. घर में कहीं अपने लिए स्पेस तलाशने निकली राजी कुछ और न कह जाए, इसलिए उसे संभालने को मैं ने खुद को एकदम तैयार कर लिया, पर आगे कुछ कहने के बदले वह चुप हो गई. पर चुप होने के बाद भी वह कहना चाहती थी कि वह कह चुकी थी मेरे हिसाब से. उस के यह खुल कर कहने के बाद मैं कहीं से टूटा जरूर था. पर जब बाबूजी ने मेरी ओर शांत हो देखा था तो मुझे लगा था कि मैं इतनी जल्दी टूटने वाला नहीं. कोई साथ अभी भी है, बरगद की तरह. राजी को पता था कि अभी जो चुप रहा गया तो फिर बात कहना और आगे चला जाएगा और वह नहीं चाहती थी कि उस की स्वतंत्रता कुछ और आगे सरक जाए.

ऐसा नहीं कि बीजी ने कभी भी उसे कुछ करने से रोकाटोका हो बल्कि बीजी उसे

अपने से भी अधिक मानती थी. जब देखो, पड़ोस में राजी की तारीफ करते नहीं थकती. मेरी राजी. वाह क्या कहने मेरी राजी के. मौका मिलते ही बीजी हर कहीं बखान करने लग जाती, बहू हो तो राजी जैसी. घर में मुझे कभी कुछ करने ही नहीं देती.

सच कहूं जब से राजी घर में आई है, मैं तो रसोई में जाना ही भूल गई हूं. सब को राजी जैसी बहू मिले. राजी को ले कर बीजी इतनी संजीदा कि उतनी तो राजी अपने को ले कर भी कभी क्या ही रही होगी.

राजी के आगे मैं विवश था, पता नहीं क्यों? मेरी विवशता को बाबूजी मुझ से अधिक जान गए थे. इसलिए जब उन्होंने जैसेतैसे बीजी को समझया तो बीजी ने छत पर सैट बनाने का न तो विरोध किया और न ही हामी भरी. वह बस मन ही मन मसोसती न्यूट्रल हो गई.

और मैं ने लोन ले कर छत पर सैट बनाने का काम शुरू कर दिया. छत पर बन रहे सैट की दीवारें ज्योंत्यों ऊपर उठ रही थीं, बीजी को लगा ज्यों आपस में हम हर पल ईंट एकदूसरे से ओझल होते जा रहे हैं पर राजी खुश थी. अंदर से या बाहर से या फिर अंदरबाहर दोनों ही जगह से, वही जाने.

मगर इतना सब होने के बाद भी बीजी सारा दिन बाबूजी के साथ काम कर रहे मजदूरों की निगरानी करती. मजदूरों के काम करते रहने के बाद भी वजहबेवजह टोकती रहती कि पहले यह करो, वह करो.

4 महीने में सैट बन कर तैयार हो गया तो राजी ने संकेत में वह सब कह डाला जिस का मुझे महीनों पहले यकीन था, ‘‘संकेत, कैसा रहेगा जो हम यहां किचन में कुछकुछ किचन का सामान रख कुछ बनाना भी शुरू कर दें?’’

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‘‘पर नीचे भी तो किचन है. बीजी है, बाबूजी हैं. राजी एक ही किचन में सब एकसाथ मिलबैठ कर खाएं तो तुम्हें नहीं लगता कि खाने का स्वाद कुछ और ही हो जाता है?’’ मैं ने पता नहीं तब कहां से कैसे यह हिम्मत जुटा कर राजी से कहा था. पर मुझे पता था कि मेरी यह हिम्मत अधिक दिन टिकने वाली नहीं और हफ्ते बाद ही वह पस्त भी हो गई. ऊपर वाले सैट में व्हाइटवाश हो चुका था. फर्नीचर भी खरीदा जा चुका था.

राजी ये सब देख बहुत खुश थी तो बीजी उदास. बाबूजी न खुश थे, न उदास.

शायद उन्हें सब पता था कि अब आगे क्या होने वाला है. घर के हर मौसम को वे बड़ी बारीकी से पढ़ने में सिद्धहस्त जो थे.

नई किचन में सब के लिए खुशीखुशी खाना बना. फिर हम सब खाना खाने बैठे. तब बीजी ने मेरी थाली में दाल डालते हुए मेरे भीतर झंकते पूछा, ‘‘संकेत, ऊपर वाला सैट बन गया सो तो ठीक, पर साफ कह देती हूं, चूल्हा जलेगा तो बस एक ही जगह.’’

मैं चुप. मेरे हाथ का ग्रास हाथ में तो मुंह का मुंह में. बाबूजी सब जानते थे. इसलिए वे चुपचाप खाना खाते रहे. उस वक्त वे बीजी के इस फैसले के न तो पक्ष में बोले न विपक्ष में. वैसे, पता नहीं उस वक्त क्यों मुझे ही कुछ ऐसा लगा था जैसे वे कुछ कहने की हिम्मत कर रहे हों. पर ऐन मौके पर चुप हो गए थे. दोनों बच्चे नए लाए सोफोें पर पलटियां खा रहे थे. हमें खाना देती बीजी उन्हें कनखियों से घूरने लग गई थी. पर मैं ने उस वक्त खाना खाते हुए साफ महसूस किया था जैसे आज बीजी के हाथ उदास हैं. उस के हाथों से खाना बनाने की वह मास्टरी कहीं दूर चली गई है.

आगे पढ़ें- कल तक जो बीजी उम्र की ढलान पर बाबूजी से…

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Kangana Ranaut के शो में Nisha Rawal का खुलासा, पति Karan Mehra के बारे में कही ये बात

बौलीवुड एक्ट्रेस कंगना रनौत (Kangana Ranaut) का रिएलिटी शो ‘लॉकअप’ (Lock Upp) इन दिनों सुर्खियों में हैं. जहां शो के कंटेस्टेट के चलते हाई वोल्टेज ड्रामा दर्शकों को देखने को मिल रहा है तो वहीं इस शो में कई नए खुलासे भी देखने को मिल रहे हैं. इसी बीच ये रिश्ता क्या कहलाता है फेम एक्टर करण मेहरा (Karan Mehra) और उनकी एक्स वाइफ निशा रावल (Nisha Rawal) की जिंदगी के कुछ राज भी खुलते हुए देखने को मिले हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

करणवीर बोहरा के सामने खोले राज

 

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शो के लेटेस्ट एपिसोड में करणवीर बोहरा (Karanvir Bohra) और निशा रावल की आपस में बातचीत के दौरान निशा ने अपनी शादीशुदा जिंदगी की परेशानियों और बेटे काविश का जिक्र किया है. दरअसल, निशा रावल ने बताया कि जब घरेलू हिंसा की घटना हुई तो उनका बेटा काविश (Kavish) 4 साल का भी नहीं था. वहीं पिता के बारे में बेटे को बताने को लेकर निशा कहती हैं कि ‘वो बहुत कम ही उनके बारे में पूछता है, क्योंकि उनके पिता हमेशा दूसरे शहर में एक शो की शूटिंग के लिए बाहर रहते थे. वे रोज कॉन्टैक्ट में नहीं रहते थे. उनका बॉन्ड ऐसा नहीं था कि वो हर दिन कॉल पर एक-दूसरे से बात करें.’


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पिता-बेटे के रिश्ते को लेकर ये कहती हैं निशा  

 

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पिता और बेटे के रिश्ते के सवाल पर निशा कहती हैं, ‘जो भी मोमेंट्स थे, वो ज्यादातर मेरे द्वारा बनाए गए थे. मैं उससे पास बैठने के लिए कहती थी. उससे बात करती थी. उससे फोन साइड में रखने के लिए बोलती थी कि तुम चले जाओगे. वहीं अब जब काविश मुझसे पूछता है कि वो कहां हैं और वो क्यों नहीं बुला रहे हैं, मैं इंतजार कर रहा हूं तो मैं उससे कहती हूं कि आई एम सॉरी, लेकिन तुम्हारी मां हमेशा तुम्हारे साथ है. मैं ही तुम्हारी मां और पापा हूं.’ हालांकि निशा कहती हैं कि उनका बेटा काविश अभी सच नहीं जानता और वह एक डौक्टर के जरिए सलाह के साथ उसे धीरे-धीरे बताएंगी ताकि उसपर कोई बुरा असर ना पड़े.

बता दें, निशा रावल ने साल 2021 में करण मेहरा के खिलाफ घरेलू हिंसा और एकस्ट्रा मेरिटल अफेयर का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज की थी, जिसके चलते मीडिया में कपल काफी सुर्खियों में रहा था. हालांकि करण मेहरा ने निशा रावल के आरोपों को गलत बताया था.

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