सुवीरा: भाग 1- घर परिवार को छोड़ना गलत है या सही

विनोद औफिस से चहकता हुआ आया तो सुवीरा ने पूछा, ‘‘कुछ खास बात है क्या?’’

‘‘हां, कितने दिनों से इच्छा थी आस्ट्रेलिया जाने की, कंपनी अब भेज रही है.’’

सुवीरा मुसकराई, ‘‘अच्छा, वाह, कब तक जाना है?’’

‘‘पेपर्स तो मेरे तैयार ही हैं, बस, जल्दी ही समझ लो.’’

‘‘लेकिन मेरा तो पासपोर्ट भी नहीं बना है, इतनी जल्दी बन जाएगा?’’

‘‘अभी मैं अकेला ही जा रहा हूं.’’

‘‘और मैं?’’ सुवीरा को धक्का लगा.

‘‘अभी फैमिली नहीं ले जा सकते, तुम्हारा बाद में देखेंगे.’’

‘‘मैं कैसे रहूंगी अकेले? फिर तुम्हें क्यों इतनी खुशी हो रही है?’’

‘‘यह मौका बड़ी मुश्किल से मिला है, मैं इसे नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘तो ठीक है, पर मुझे भी तो ले जाओ.’’

‘‘नहीं, अभी तो यह असंभव है.’’

‘‘शादी के 6 महीने बाद ही मुझे अकेला छोड़ कर जाओगे और वह भी तब जब मुझे तुम्हारी सब से ज्यादा जरूरत है.’’

‘‘सुवीरा अभी तुम प्रैग्नैंट हो, 5 महीने बाद डिलीवरी है, मैं तब तक आ ही जाऊंगा और आनाजाना तो लगा ही रहेगा.’’

‘‘डिलीवरी के बाद ले कर जाओगे?’’

‘‘हां, अभी बहुत टाइम है, अभी तो तुम मेरे साथ खुशी मनाओ.’’ सुवीरा आंखों में आए आंसू छिपाते हुए विनोद की फैली बांहों में समा गई. विनोद भविष्य के प्रति बहुत उत्साहित था. लेकिन सुवीरा का मूड ठीक होने को नहीं आ रहा था. सुवीरा ने कई बार अपने आंसू पोंछते हुए डिनर तैयार किया और विनोद के साथ बैठ कर बहुत बेमन से खाया. विनोद तो आराम से सो गया लेकिन सुवीरा को चैन नहीं आ रहा था. पूरी रात करवटें ही बदलती रही वह.

और देखते ही देखते तेजी से दिन बीतते गए. विनोद डिलीवरी के समय वापस आने का वादा कर आस्ट्रेलिया चला गया. सुवीरा की मम्मी बीना आ चुकी थीं. हमेशा लखनऊ में ही रही बीना का मन मुंबई में नहीं लग रहा था. वे कहतीं, ‘‘यहां तो न आसपड़ोस है न कोई जानपहचान, कैसे कटेगा टाइम. मांबेटी दोनों की तबीयत ढीली रहने लगी थी. विनोद से वैबकैम के माध्यम से बात तो हो जाती लेकिन सुवीरा की बेचैनी और बढ़ जाती. 2-2 मेड होने से सुवीरा को आराम तो था लेकिन एक तो गर्भावस्था, उस पर इतना अकेलापन. एक दिन मां ने कहा, ‘‘सुवीरा, मैं यहां नहीं रह पाऊंगी ज्यादा दिन, मन बिलकुल नहीं लगता यहां, कोई कितना टीवी देखे, कितना आराम करे. ऐसा कर, तू ही लखनऊ चल.’’

‘‘नहीं मां, विनोद चाहते हैं कि मैं यहीं रहूं. डिलीवरी के बाद आप चली जाना.’’ डिलीवरी की डेट से एक हफ्ता पहले आ गया विनोद. सुवीरा खिल उठी. सुवीरा के ऐडमिट होने की सारी तैयारी शुरू हो गई. सुवीरा ने एक सुंदर, स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया. विनोद ने बेटी का नाम सिद्धि रखा. सब खुश थे. एक महीना हो चुका था. विनोद ने कोई बात नहीं छेड़ी तो एक दिन सुवीरा ने ही कहा, ‘‘अब तो ले चलोगे न हमें?’’

‘‘सिद्धि अभी छोटी है. वहां नई जगह इसे संभालने में तुम्हें दिक्कत होगी. बाद में देखते हैं.’’ मां ने पतिपत्नी की बात में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा. बस, इतना ही कहा, ‘‘मैं तो अब जाने की सोच रही हूं.’’

‘‘हां मां, आप अब चली जाओ,’’ सुवीरा ने अपने दिल पर पत्थर रखते हुए कहा. मां ने कहा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी? मेरे साथ ही चलो.’’

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‘‘नहीं मां, मैं रह लूंगी, मेड और मेरी सहेली सीमा है. वह आतीजाती रहती है. मैं मैनेज कर लूंगी.’’ बीना बेटी को बहुत सारी हिदायतें दे कर चिंतित मन से चली गईं. कुछ दिनों बाद जल्दी आने का वादा कर विनोद भी चला गया. सुवीरा ने अपनेआप को सिद्धि में रमा दिया. सीमा ने एक बहुत शरीफ और मेहनती महिला नैना को सुवीरा और सिद्धि की देखरेख के लिए ढूंढ़ लिया. नैना के दोनों बच्चे गांव में उस की मां के पास रहते थे. वह तलाकशुदा थी. उस ने बहुत उत्साह से नन्ही सिद्धि की देखभाल में सुवीरा का साथ दिया. सुवीरा विनोद के साथ रहने की आस में दिन गिनती रही. 1 साल बाद विनोद आया. आते ही उस ने सुवीरा और सिद्धि पर महंगे उपहारों की बरसात कर दी. विनोद को देख खुशी के मारे सुवीरा अकेले बिताया पूरा साल भूल सी गई. एक दिन विनोद ने कहा, ‘‘मैं वापस आने की कोशिश कर रहा हूं. बौस से बात की है. वे भी कुछ तैयार से लग रहे हैं. रहूंगा यहीं लेकिन विदेश के दौरे चलते रहेंगे. पोस्ट बढ़ी है तो काम भी बढ़ेगा ही और इस बार तो 6 महीने में ही आ जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है विनोद, इस बार आ ही जाओ तो ठीक है. अकेले रहा नहीं जाता.’’ विनोद 6 महीने में आने के लिए कह कर फिर से चला गया. उस के चैक लगातार समय पर आते रहे. नैना ने सुवीरा को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. नैना, सिद्धि, सीमा, अंजना और बाकी सहेलियों के साथ सुवीरा अपना दिन तो बिता देती लेकिन रात को जब बिस्तर पर लेटती तो विनोद की अनुपस्थिति उस का कलेजा होम कर देती. दिन में सब के सामने वह एक हिम्मती लड़की थी लेकिन उस का दिल किस अकेलेपन से भरा था, यह वही जानती थी. विनोद 6 महीने बाद सचमुच आ गया है. सुवीरा की खुशी का ठिकाना नहीं था. अब सब ठीक हो गया था. बस, बीचबीच में विनोद को टूर पर जाना था. सिद्धि 4 साल की हुई तो सुवीरा ने एक और बेटी को जन्म दिया जिस का नाम विनोद ने समृद्धि रखा. दोनों बेटियों को  सुवीरा ने कलेजे से लगा लिया. उसे इस समय अपनी मां की बहुत याद आई जिन की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी. उस के पिता लखनऊ में अकेले ही रह रहे थे.

अब वह रातदिन बेटियों की परवरिश में व्यस्त थी. विनोद को अपने काम की जिम्मेदारियों से फुरसत नहीं थी. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. सिद्धि, समृद्धि बड़ी हो रही थीं पर कहीं कुछ ऐसा था जो सुवीरा को उदास कर देता था. वह जो चाहती थी, उसे मिल नहीं पा रहा था. वह चाहती थी विनोद उसे और समय दे, बैठ कर बातें करे, कुछ अपनी कहे व कुछ उस की सुने. लेकिन विनोद के पास किसी भी भावना में बहने का समय नहीं था अब. वह हर समय व्यस्त दिखता. सुवीरा उस का मुंह देखती रह जाती. वह बिलकुल प्रैक्टिकल, मशीनी इंसान हो गया था. सुवीरा दिन पर दिन अकेली होती जा रही थी. सुवीरा ने एक दिन  कहा भी, ‘‘विनोद, थोड़ा तो टाइम निकालो कभी मेरे लिए.’’

‘‘सुवीरा, यही टाइम है बढि़या लाइफस्टाइल के लिए खूब भागदौड़ करने का. कितनों के पास है मुंबई में ऐसा शानदार घर. सब सुखसुविधाएं तो हैं घर में. तुम, बस आराम से ऐश करो. फोन, इंटरनैट, कार, क्या नहीं है तुम्हारे पास.’’ सुवीरा क्या कहती, मन मार कर रह गई. वह विनोद के मशीनी जीवन से उकता चुकी थी. या तो बाहर, या घर पर फोन, लैपटौप पर व्यस्त रहना. रात को अंतरंग पलों में भी उस का रोबोटिक ढंग सुवीरा को आहत कर जाता.

एक दिन विनोद बाहर से आया तो उस के साथ में उस की हमउम्र का एक पुरुष था. विनोद ने परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘सुवीरा, यह महेश है. एक साथ ही पढ़े हैं. यह सीए है.’’ महेश और सुवीरा ने एकदूसरे का अभिवादन किया. महेश बहुत सादा सा इंसान लगा सुवीरा को. महेश ने विनोद के घर की खुलेदिल से तारीफ की. सुवीरा महेश के लिए कुछ लाने रसोई में गई तो विनोद भी वहीं पहुंच गया, बोला, ‘‘मेरे अच्छे दोस्तों में से एक रहा है यह. बहुत अच्छा स्वभाव है लेकिन कमाई में मुझ से बहुत पीछे रह गया. आज अचानक एक होटल के बाहर मिल गया. इस का अपना औफिस है मुलुंड में. एक कोचिंग सैंटर में अकाउंटैंसी की क्लासेज लेता है. बहुत इंटैलिजैंट है. मैं ने सोचा है, इसे यहीं ऊपर के रूम में रहने के लिए कह दूं. बच्चों की पढ़ाई भी देख लेगा, इस पर एहसान भी हो जाएगा और बच्चों को ट्यूशन के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा.’’

‘‘इस का परिवार?’’

‘‘शादी नहीं की इस ने, किसी लड़की को चाहता तो था लेकिन घरपरिवार की जिम्मेदारी, अपनी 2 बहनों की शादी निबटातेनिबटाते खुद को भूल गया. उस लड़की ने कहीं और शादी कर ली थी किसी अमीर लड़के से. बस, दूसरों के बारे में ही सोच कर जीता रहा बेवकूफ.’’ सुवीरा को दिल ही दिल में विनोद की आखिरी कही गई बात पर तेज गुस्सा आया, लेकिन इतना ही बोली, ‘‘जैसे तुम ठीक समझो.’’ विनोद ने दिल ही दिल में पूरा हिसाबकिताब लगा कर महेश से कहा, ‘‘देख, घर होते हुए तू कहीं और नहीं रहेगा.’’

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‘‘नहीं यार, मैं आराम से एक लड़के के साथ शेयर कर के एक फ्लैट में रह रहा हूं. कोई प्रौब्लम नहीं है. सुबह अपनी क्लास ले कर औफिस चला जाता हूं.  औफिस पास ही है.’’

‘‘नहीं, मैं तेरी एक नहीं सुनूंगा. अभी ड्राइवर के साथ जा और अपना सामान ले कर आ,’’ विनोद ने उसे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया और ड्राइवर को बुला कर आदेश भी दे दिया  दोनों की बातचीत में सुवीरा ने कोई हिस्सा नहीं लिया था. महेश के जाने के बाद विनोद ने सिद्धि, समृद्धि से कहा, ‘‘लो भई, तुम्हारे लिए टीचर का इंतजाम घर में ही कर दिया, अब जितना चाहो, जब चाहो इस से पढ़ लेना.’’ दोनों ‘‘थैंक्यू पापा,’’ कह कर हंसते हुए पिता से लिपट गईं. सुवीरा को चुप देख कर विनोद ने पूछा, ‘‘तुम क्यों सीरियस हो? तुम पर इस का कोई काम नहीं बढ़ेगा. अरे, इसे रखना नुकसानदायक नहीं होगा.’’ सुवीरा मन ही मन विनोद के हिसाबकिताब पर झुंझला गई. कैसा है विनोद, हर बात में हिसाबकिताब, दिल में किसी के लिए कोई कोमल भावनाएं नहीं, दोस्ती में भी स्वार्थ, क्या सोच है.

महेश अपना सामान ले कर आ गया. सामान क्या, एक बौक्स में किताबें ही किताबें थीं. कपड़े कम, किताबें ज्यादा थीं. सुवीरा से झिझकते हुए कहने लगा, ‘‘मेरे आने से आप को प्रौब्लम तो होगी?’’

‘‘नहीं, प्रौब्लम कैसी. आप आराम से रहें. किसी चीज की भी जरूरत हो तो जरूर कह दें.’’ डिनर के समय विनोद ने सुवीरा से कहा, ‘‘ऐसा करते हैं, आज पहला दिन है, इसे नीचे बुला लेते हैं. कल से महेश का नाश्ता और डिनर ऊपर ही भिजवा देना. लंच टाइम में तो यह रहेगा नहीं.’’ सुवीरा ने हां में सिर हिला दिया. महेश नीचे आ गया. उस की बातों ने, आकर्षक हंसी ने सब को प्रभावित किया. सिद्धि, समृद्धि तो खाना खत्म होने तक उस से फ्री हो चुकी थीं. विनोद अपनी कंपनी टूर के बारे में बताता रहा. डिनर के बाद महेश सब को ‘गुडनाइट’ और ‘थैंक्स’ बोल कर ऊपर चला गया. थोड़ी देर बाद विनोद और सुवीरा अपने बैडरूम में आए. सुवीरा कपड़े बदल कर लेट गई. विनोद ने पूछा, ‘‘इसे रख कर ठीक किया न?’’

‘‘अभी क्या कह सकते हैं? अभी तो एक दिन भी नहीं हुआ.’’

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सही वसीयत: भाग 2- हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

हरीश बाबू के समझानेबुझाने पर वह मान गया. समय सरकता रहा. एक दिन सुमंत इंजीनियर बन गया. जब उस का कैंपस चयन हुआ तो सभी खुश थे. हरीश बाबू ने इस अवसर पर सभी का मुंह मीठा कराया. खुशी के साथ उन्हें यह जान कर तकलीफ भी थी कि सुमंत अब बेंगलुरु में रहेगा. पहली बार वह अकेला गया.

हरीश बाबू बूढ़े हो चले थे. उन की देखभाल सुनीता और सुधीर के लिए समस्या थी. समय पर दवा और भोजन न मिलता तो वे चिढ़ जाते. कभी सुनीता, तो कभी सुधीर से उलझ जाते. दोनों उन की हरकतों से आजिज थे. सिर्फ मौके की तलाश में थे.

जैसे ही सुमंत ने उन्हें बेंगलुरु बुलाया, दोनों ने एक पल में हरीश बाबू के एहसानों को धो डाला. जिस हरीश बाबू ने सुमंत को कलेजे से लगा कर पालापोसा, सुधीर, सुनीता का खर्चा भी उठाया, सुमंत की इंजीनियरिंग की फीस भरी, अपनी पत्नी के सारे जेवरात सुनीता को दे दिए, बची उन की असल संपति, फिक्स डिपौजिट के रुपए, वे सभी सुमंत को ही मिलते, को छोड़ कर सुधीर व सुनीता ने बेंगलुरु में बसने का फैसला लिया तो उन्हें गहरा आघात लगा.

वे नितांत अकेला महसूस करने लगे. पत्नी के गुजर जाने पर उन्हें उतना नहीं खला, जितना आज. कैसे कटेगा वक्त उन चेहरों के बगैर जिन्हें रोज देखने के वे आदी थे. कल्पनामात्र से ही उन के दिल में हूक उठती. वे अपने दुखों का बयान किस से करें. घर के आंगन में एक रोज वे रोने लगे. ‘वे अपनेआप को कोसने लगे. मैं ने ऐसा कौन सा अपराध किया था जो प्रकृति ने बुढ़ापे का एक सहारा देना भी मुनासिब नहीं समझा. लोग गंदे काम कर के भी आनंद का जीवन गुजारते हैं, मुझे तो याद भी नहीं आता कि मैं ने किसी का दिल दुखाया है. फिर अकेलेपन की पीड़ा मुझे ही क्यों?’ तभी सुनीता की आवाज ने उन की तंद्रा तोड़ी. जल्दीजल्दी उन्होंने आंसू पोंछे.

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‘‘गाड़ी का वक्त हो रहा है,’’ वह बोली. दोनों ने हरीश बाबू के पैर छू कर रस्मअदायगी की. दोनों अंदर ही अंदर खुश थे कि चलो, मुक्ति मिली इस बूढ़े की सेवा करने से. अकेले रहेगा तो दिमाग ठिकाने पर आ जाएगा. बेंगलुरु आने का न्योता सुधीर ने सिर्फ औपचारिकतावश दिया. पर उन्होंने इनकार कर दिया. ‘‘इस बुढ़ापे में परदेस में बसने की क्या तुक? यहां तो लोग मुझे जानते हैं, वहां कौन पहचानेगा?’’ हरीश बाबू के कथन पर दोनों की जान छूटी. अब यह कहने को तो नहीं रह जाएगा कि हम ने साथ रहने को नहीं कहा.

सुधीर और सुनीता अच्छी तरह जानते थे कि हरीश बाबू गोदनामा बदलेंगे नहीं. इस उम्र में दूसरा कदम उठाने से हर आदमी डरता है. वैसे भी, हरीश बाबू को अपने मकान का कोई मोह नहीं था. उम्र के इस पड़ाव पर वे सिर्फ यही चाहते थे कि कोई उन्हें समय पर खाना व बीमारी में दवा का प्रबंध कर दे. सुधीर के संस्कारों का ही असर था कि सुमंत भी सुधीर और अपनी मां की तरह सोचने लगा. सिर्फ कहने के लिए वह हरीश बाबू का दत्तक पुत्र था. जब तक अबोध था तभी तक उस के दिल में हरीश बाबू के प्रति लगाव था. जैसे ही उस में दुनियादारी की समझ आई, अपने मांबाप का हो कर रह गया.

सुमंत के चले जाने के बाद हरीश बाबू को अपने फैसले पर पछतावा होने लगा. वे सोचने लगे, इस से अच्छा होता कि वे किसी को गोद ही न लेते. मरने के बाद संपत्ति जो चाहे लेता. क्या फर्क पड़ता? गोद ले कर एक तरह से सभी से बैर ले लिया.

एक सुबह, हरीश बाबू टहल कर आए. आते ही उन्हें चाय की तलब हुई. दिक्कत इस बात की थी कि कौन बनाए? नौकरानी 3 दिनों से छुट्टी पर थी. वे चाय बनाने ही जा रहे थे कि फाटक पर किसी की दस्तक हुई. चल कर आए. देखा, सामने नटवर सपत्नी खड़ा था. दोनों ने हरीश बाबू के चरण स्पर्श किए.

‘‘बैठो, मैं तुम लोगों के लिए चाय ले कर आता हूं,’’ वे किचन की तरफ जाने लगे.

‘‘आप क्यों चाय बनाओगे, सुधीर नहीं है क्या?’’ नटवर बोला.

‘‘वह सपरिवार बेंगलुरु में बस गया.’’

‘‘आप को खाना बना कर कौन देता होगा?’’

‘‘नौकरानी है. वही सुबहशाम खाना बनाती है.’’

नटवर को अपने रिश्ते की अहमियत दिखाने का अच्छा मौका मिला. तुरंत अपनी पत्नी को चायनाश्ता बनाने का आदेश दिया. हरीश बाबू मना करते रहे मगर नटवर ने रिश्ते की दुहाई दे कर उन्हें कुछ नहीं करने दिया. इस बीच उन के कान भरता रहा.

‘‘सुमंत को गोद लेने से क्या फायदा जब बुढ़ापे में अपने ही हाथ से खाना बनाना है,’’ नटवर बोला.

‘‘ऐसी बात नहीं है, वह मुझे भी ले जाना चाहता था,’’ हरीश बाबू ने सफाई दी.

‘‘सिर्फ कहने को. वह जानता है कि आप अपना घरशहर छोड़ कर जाने वाले नहीं. सुमंत तक तो ठीक था, सुधीर क्यों चला गया?’’

‘‘सुमंत को खानेपीने की तकलीफ थी.’’

‘‘शादी कर देते और खुद आप के पास रहते,’’ नटवर को लगा कि तीर निशाने पर लगा है तो आगे बोला, ‘‘आप की करोड़ों की अचल संपत्ति का मालिक सुधीर का बेटा ही तो है. क्या उस का लाभ सुधीर को नहीं मिलेगा? ऐसे में क्या सुधीर और सुनीता का फर्ज नहीं बनता कि मृत्युपर्यंत आप की सेवा करें?’’ नटवर की बात ठीक थी. कल तक जिस नटवर से उन्हें चिढ़ थी, आज अचानक उस की कही बातें उन्हें तर्कसंगत लगने लगीं.

उस रोज नटवर दिनभर वहीं रहा. नटवर ने भरसक सुमंत के खिलाफ हरीश बाबू को भड़काया. हरीश बाबू सुनते रहे. उन के दिल में सुमंत को ले कर कोई मलाल नहीं था. तो भी, क्या सुधीर का कोई फर्ज नहीं बनता?

इस बीच, नटवर की पत्नी ने घर की साफसफाई की. हरीश बाबू के गंदे कपड़े धोए. घर में जिन चीजों की कमी थी उन्हें नटवर ने अपने रुपयों से खरीद कर घर में रख दिया. रोजाना के लिए कुछ नाश्ते का सामान बना कर रख दिया ताकि सुबहसुबह उन्हें खाली पेट देर तक न रहना पड़े. जातेजाते रात का खाना भी बना दिया. एक तरह से नटवर और उस की पत्नी ने हरीश बाबू को खून का लगाव दिखाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी. जातेजाते नटवर ने अकसर आने का हरीश बाबू को आश्वासन दिया.

सुधीर को हरीश बाबू का पूछना नागवार लगा.

ऐंठ कर बोला, ‘‘बचता तो आप को नहीं दे देता.’’

‘‘नहीं देते, इसलिए पूछ रहा हूं,’’ हरीश बाबू बोले. सुनीता के कानों में दोनों के संवाद पड़ रहे थे. उसे भी हरीश बाबू का तहकीकात करना बुरा लग रहा था. जानने को वह अपने पति की हर आदत जानती थी.

‘‘यानी मैं बचे पैसे उड़ा देता हूं,’’ सुधीर अकड़ा.

‘‘पैसे बचते हैं.’’

‘‘आप सठिया गए हैं. बेसिरपैर की बातें करते हैं. सुनीता से अनापशनाप खानेपीने की फरमाइश करते हैं. न देने पर मुंह फुला लेते हैं और मुझे चोर समझते हैं.’’

‘‘मैं तुम्हें चोर समझ रहा हूं?’’ हरीश बाबू भड़के.

‘‘और नहीं तो क्या? आप के साथ जब से रह रहा हूं सिवा जलालत के कुछ नहीं मिला. कभीकभी तो जी करता है कि घर छोड़ कर चला जाऊं.’’

‘‘चले जाओ, मैं ने कब रोका है.’’

‘‘चला जाऊंगा, आज ही चला जाऊंगा,’’ पैर पटक कर वह बाहर चला गया.

उस रात उस ने सुनीता से सलाह कर ससुराल में रहने का निश्चय किया, हालांकि यह व्यावहारिक नहीं था. भले ही तैश में आ कर उस ने कहा हो, पर वह अपनी औकात जानता था. वहां जा कर खाएगा क्या? सुमंत भी किसी लायक नहीं था. उस पर यहां से चला गया तो हो सकता है हरीश बाबू वसीयत ही बदल दें. फिर तो वह न घर का रहेगा, न घाट का. अचल संपत्ति तो थी ही, सावित्री के जेवरात, बैंक में फिक्स रुपए इन सब से उसे हाथ धोना पड़ता.

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सुनीता भी कम शातिर नहीं थी. थोड़ा अपमान सह कर रहने में उसे हर्ज नहीं नजर आता था. एक कहावत है, ‘दुधारी गाय की लात भी भली.’ सुधीर को उस ने अच्छे से समझाया. सुधीर इतना बेवकूफ नहीं था जितना सुनीता समझती थी. उस ने तो सिर्फ गीदड़ धमकी दी थी हरीश बाबू को. वह हरीश बाबू की कमजोरी जानता था. सुमंत के बगैर वे एक पल नहीं रह सकते थे. दिखाने के लिए वह अपना सामान पैक करने लगा.

‘‘कहां की तैयारी है?’’ हरीश बाबू का गुस्सा शांत हो चुका था.

‘‘मैं आप के साथ नहीं रह सकता.’’

‘‘मैं तुम्हारा जीजा हूं. उम्र में तुम से बड़ा हूं. क्या इतना भी पूछने का हक नहीं है मुझे?’’

‘‘सलीके से पूछा कीजिए. क्या मेरी कोई इज्जत नहीं. मेरा बेटा बड़ा हो रहा है, क्या सोचेगा वह मेरे बारे में.’’ सुधीर के कथन में सचाई थी, इसलिए वे भी मानमनौवल पर आ गए.

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बदले की आग: भाग 3- क्या इकबाल बेटी और पत्नी को बचा पाया

लेखक- जावेद राही

असलम ने माफी भी मांगी, लेकिन सुरैया नरम नहीं पड़ी. असलम चला गया. सुरैया अक्को कुली को कुछ न कुछ देती रहती थी, क्योंकि उसी की वजह से वह इस कोठे पर बैठी थी. पूरे शहर में शाहिदा और असलम के चरचे थे.

मां बेटी बनठन कर रोज शाम को तांगे में बैठ कर निकलतीं तो लोग उन्हें देखते रह जाते. तांगे पर उन का इस तरह निकलना कारोबारी होता था, इस से वे रोज कोई न कोई नया पंछी फांस लेती थीं.

एक दिन शावेज अपनी बहन शाहिदा और मां से उलझ गया. बात हाथापाई तक पहुंच गई. उस ने शाहिदा के मुंह पर इतनी जोरों से थप्पड़ मारा कि उस के गाल पर निशान पड़ गया. सुरैया को गुस्सा आया तो उस ने उसे डांटडपट कर घर से निकाल दिया.

शावेज गालियां देता हुआ घर से निकल गया और एक हकीम की दुकान पर जा बैठा. वहां वह अकसर बैठा करता था. उस की मां को वहां बैठने पर आपत्ति थी, क्योंकि उसे लगता था कि वही हकीम उसे उन के खिलाफ भड़काता है. शावेज ने असलम और एक दो ग्राहकों से भी अभद्र व्यवहार किया था.

वेश्या बाजार के वातावरण ने शावेज को नशे का आदी बना दिया था, वह जुआ भी खेलने लगा था. उस के खरचे बढ़ रहे थे, लेकिन उस की मां उसे खरचे भर के ही पैसे देती थी. वह जानबूझ कर लोगों से लड़ाईझगड़ा मोल लेता था. इसी चक्कर में वह कई बार थाने की यात्रा भी कर आया था, जिस की वजह से उस के मन से पुलिस का डर निकल गया था.

रात गए तक शावेज हकीम की दुकान के आगे बैठा रहा. जब बाजार बंद हुआ तो सुरैया को शावेज की चिंता हुई. मांबेटी उसे देखने आईं तो वह हकीम की दुकान पर बैठा मिला. दोनों उसे मना कर कोठे पर ले गई.

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उधर इकबाल को पता चला कि उस की बीवी और बेटी हुस्न के बाजार में बैठ कर उस की इज्जत का जनाजा निकाल रही हैं तो अपनी इज्जत बचाने के लिए वह परेशान हो उठा.

उस ने अपनी पत्नी सुरैया और बच्चों के घर से जाने की खबर पुलिस को नहीं दी थी. 8 सालों बाद एक दिन उस के एक जानने वाले ने सुरैया और उस की बेटी को कोठे पर बैठे देखा तो यह बात उसे बताई थी.

इकबाल चाहता तो पुलिस को सूचना दे कर उन्हें अपने साथ ले जा सकता था. लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया. हुस्न का बाजार जनरल बसस्टैंड के पास था. इकबाल ने वहां पास के एक होटल में कमरा लिया और शाम होने का इंतजार करने लगा.

शाम होते ही वेश्या बाजार सज गया. इकबाल ने कमरा लौक किया और रेडलाइट एरिया में आ गया. उसे सुरैया बेगम का कोठा ढूंढने में कोई परेशानी नहीं हुई.

मां बेटी दोनों सजसंवर कर ग्राहकों के इंतजार में बैठी थीं. इकबाल को देख कर दोनों पत्थर की मूर्ति बन गईं. दोनों उठीं और इकबाल को कमरे के अंदर आने के लिए इशारा किया.

इकबाल उन के पीछे कमरे में अंदर गया तो देखा शावेज टीवी देख रहा था. पिता को देख कर वह खड़ा हो गया. चारों एकदूसरे को देख रहे थे.

इकबाल ने कहा, ‘‘सुरैया, तुम ने इतनी छोटी गलती के लिए मुझे इतनी बड़ी सजा दी. तुम्हारे घर से निकलने के बाद मैं ने तुम्हारे लिए अपनी दूसरी पत्नी को भी छोड़ दिया. कहांकहां नहीं ढूंढा तुम्हें. शायद मैं यह दिन देखने के लिए जिंदा था. काश, मैं पहले ही मर गया होता.’’

इकबाल की आंखों से आंसू निकलने लगे. सुरैया के मन में पति का प्रेम उमड़ पड़ा. वह उस के आंसू पोंछने पास गई और गुजरी स्थितियों के बारे में बताने लगी. दोनों बच्चे भी अपने पिता से लिपट कर रो पड़े. उन सब को रोता देख चौधरी दारा अंदर आया तो इकबाल को देख कर ठिठक गया. सुरैया ने बताया कि यह उस के पति हैं.

जब सब रो चुके तो इकबाल ने सुरैया से घर चलने को कहा. लेकिन उस ने यह कह कर मना कर दिया कि अब वे शरीफ लोगों में नहीं जा सकते. हां, अगर शावेज जाना चाहे तो इसे ले जा सकते हो.

इकबाल अपनी बेटी शाहिदा से चलने को कहा तो उस ने मां के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘अब्बू, अम्मी ठीक कह रही हैं, मैं आप के साथ नहीं जा सकती.’’

जबकि शावेज ने अपने पिता से कहा, ‘‘अब्बू चलिए, मैं आप के साथ चलूंगा.’’

दोनों कमरे से निकल कर चले गए और होटल के कमरे पर आ गए. शावेज अपने पिता के साथ अपने आप को बहुत सुरक्षित महसूस कर रहा था. बाप बेटे अपनीअपनी कहानी सुनाते सुनाते सो गए. सुबह नाश्ता करने के बाद शावेज अपने पिता से इजाजत ले कर अपनी मां और बहन को समझा कर लाने के लिए चला गया. सुरैया ने शावेज को देख कर कहा, ‘‘एक रात भी नहीं काट सका अपने बाप के साथ?’’

इस पर शावेज बोला, ‘‘नहीं मां, यह बात नहीं है. तुम्हें इस सच्चाई का पता है कि यह सब तुम्हारा ही कियाधरा है. तुम ने ही हमें शराफत की दुनिया से निकाल कर इस गंदगी के ढेर पर ला पटका है.’’

शाहिदा ने गुस्से से फुफकारते हुए कहा, ‘‘यह भाषण देना बंद कर. अगर यहां रहना है तो शराफत से रह, नहीं तो अपना बोरियाबिस्तर उठा और जा यहां से.’’

‘‘तू अपनी बकवास बंद कर, मैं अम्मा से बात कर रहा हूं.’’

‘‘यह ठीक कह रही है शावेज, अगर तुझे यहां रहना है तो रह, नहीं तो मेरी भी सलाह यही है कि यहां से चला जा,’’ सुरैया ने कहा.

‘‘मां इतनी पत्थर दिल न बनो, अब्बू अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदा हैं. अब वह भी तुम्हें ले जाने के लिए तैयार हैं. इस गंदगी से निकलो और मेरे साथ चलो.’’

इस पर शाहिदा बिफर पड़ी और चिल्ला कर उसे वहां से बाहर निकल जाने को कहा.

शावेज उस के इस व्यवहार से इतना दुखी हुआ कि वह तेजी से ऊपर वाले कमरे की ओर दौड़ा. वह वापस लौटा तो हाथ में चमकीली कटार लिए हुए था. सुरैया कुछ बोलती, इस से पहले ही उस ने कटार शाहिदा के पेट में भोंक दी. मां बचाने आई तो उस ने दूसरा वार मां पर कर दिया.

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दोनों फर्श पर गिर कर तड़पने लगीं, वह तब तक वहां खड़ा रहा, जब तक वे ठंडी नहीं हो गईं. जब उसे यकीन हो गया कि दोनों जीवन की बाजी हार चुकी हैं तो कटार हाथ में लिए वह बाहर निकल गया. उस पर जिस की भी नजर पड़ी, वह इधरउधर छिप गया.

बाहर आ कर शावेज ने तांगा रोका और उस में बैठ कर सीधा थाने पहुंचा. वहां इंसपेक्टर मौजूद था. शावेज ने खूनसनी कटार इंसपेक्टर की मेज पर रख कर अपनी मां और बहन की हत्या के बारे में बता कर अपना अपराध स्वीकार कर लिया.

पोस्टमार्टम के बाद इकबाल मां बेटी की लाशों को अपने घर ले गया और अपने बेटे के खिलाफ थाने में हत्या की तहरीर लिख कर दे दी. इस तरह एक व्यक्ति की गलती की वजह से हंसता खेलता पूरा परिवार बरबाद हो गया.

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बदले की आग: भाग 2- क्या इकबाल बेटी और पत्नी को बचा पाया

लेखक- जावेद राही

‘‘कालबैल बजाने के थोड़ी देर बाद एक लड़की ने दरवाजा खोला. मैं ने अनुमान लगा लिया कि यही वह लड़की है, जिस ने मेरे जीवन में जहर घोला है. वह भी समझ गई कि मैं इकबाल की पत्नी हूं. उस ने मुझे अंदर आने को कहा. मैं अंदर गई, कमरे में सामने इकबाल की बड़ी सी फोटो लगी थी, उसे देखते ही मेरे शरीर में आग सी लग गई.

‘आपी, मैं ने उन से कई बार कहा कि वह अपने बच्चों के पास जा कर रहें, लेकिन वह मुझे डांट कर चुप करा देते हैं.’ उस ने कहा. इस के बाद उस ने मुझे पीने के लिए कोक दी.

‘‘मैं ने उस के पहनावे पर ध्यान दिया, वह काफी महंगा सूट पहने थी और सोने से लदी थी. इस से मैं ने अनुमान लगाया कि इकबाल उस पर दिल खोल कर खर्च कर रहे हैं. जबकि हमें केवल गुजारे के लिए ही पैसे देते हैं. उस ने अपना नाम नाहिदा बताया.

मैं ने कहा, ‘देखो नाहिदा, तुम इकबाल को समझाओ कि वह तुम्हें ले कर घर में आ कर रहें. हम सब साथसाथ रहेंगे. बच्चों को उन की बहुत जरूरत है. उस ने कहा, ‘आपी, मैं उन्हें समझाऊंगी.’

‘‘उस से बात कर के मैं घर आ गई. जो आंसू मैं ने रोक रखे थे, वह घर आ कर बहने लगे. शाम को इकबाल का फोन आया. उन्होंने मुझे बहुत गालियां दीं, साथ ही कहा कि मेरी हिम्मत कैसे हुई उन का पीछा करने की. मैं ने 2-3 बार उन्हें फोन किया, उन्होंने केवल इतना ही कहा कि उन्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं है. बच्चों के बारे में उन्होंने कहा कि उन्हें शक है कि ये उन के बच्चे नहीं हैं. फिर मैं ने सोच लिया कि अब मुझे उन के साथ नहीं रहना. वह पत्थर हो चुके हैं.’’

इतना कह कर सुरैया सिसकियां भरभर कर रो पड़ी. अक्को और उस की मां ने कहा, ‘‘आप रोएं नहीं, जब तक आप का दिल चाहे, आप यहां रहें, आप को किसी चीज की कमी नहीं रहेगी.’’

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जिस आबादी में अक्को कुली का घर था, उस के आखिरी छोर पर नई आबादी थी. वह रेडलाइट एरिया था. गरमियों के दिन थे, छत पर चारपाइयां लगा दी जातीं. सब लोग छत पर ही सोते थे. शाम होते ही नई आबादी में रोशनी हो जाती, संगीत और घुंघरुओं की आवाज पर सुरैया बुरी तरह चौंकी.

अक्को ने बताया कि ये रेडलाइट एरिया है, यहां शाम होते ही नाचगाना शुरू हो जाता है. मोहल्ले वालों ने बहुत कोशिश की कि रेडलाइट एरिया यहां से खत्म हो जाए, लेकिन किसी की नहीं सुनी गई. अब हमारे कान तो इस के आदी हो गए हैं.

ऊपर छत पर खड़ेखड़े बाजार में बैठी वेश्याएं और आतेजाते लोग दिखाई देते थे. शाहिदा ने वहां का नजारा देख कर एक दिन अपने भाई शावेज से पूछा, ‘‘भाई, इन दरवाजों के बाहर कुरसी पर जो औरतें बैठी हैं, वे क्या करती हैं? कभी दरवाजा बंद कर लेती हैं तो थोड़ी देर बाद खोल देती हैं. फिर किसी दूसरे के साथ अंदर जाती हैं और फिर दरवाजा बंद कर लेती हैं.’’

शावेज ने जवाब दिया, ‘‘मुझे क्या पता, होगा कोई उन के घर का मामला.’’

उस समय शावेज भी खुलते बंद होते दरवाजों को देख रहा था. सुरैया भी यह सब रोजाना देखती थी, कुछ इस नजरिए से मानो कोई फैसला करना चाहती हो. जो पैसे वह अपने साथ लाई थी, धीरेधीरे वे खत्म हो रहे थे. बस कुछ जेवरात बाकी थे, जिन में से एक लौकेट और चेन बिक चुकी थी.

एक दिन अक्को कुली और सुरैया छत पर बैठे दीवार के दूसरी ओर उन दरवाजों को खुलता और बंद होते देख रहे थे. तभी सुरैया ने पूछा, ‘‘अक्को, धंधा करने वाली इन औरतों को पुलिस नहीं पकड़ती?’’

अक्को ने बताया कि उन्हें सरकार की ओर से धंधा करने का लाइसेंस दिया गया है. उन्हें लाइसेंस की शर्तों पर ही काम करना होता है.

सुरैया ने पूछा, ‘‘अक्को, क्या तुम कभी उधर गए हो?’’

‘‘एकआध बार अनजाने में उधर चला गया था, लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रही हो?’’ अक्को ने आश्चर्य से पूछा.

सुरैया कहने लगी, ‘‘मेरे अंतरमन में एक अजीब सी लड़ाई चल रही है. मैं इकबाल को यह बताना चाहती हूं कि औरत जब बदला लेने पर आ जाए तो सभी सीमाएं लांघ सकती है.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’ अक्को चौंका.

‘‘मैं इस बाजार की शोभा बनना चाहती हूं.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है?’’ अक्को ने साधिकार उसे डांटते हुए कहा.

‘‘अक्को तुम मेरे जीवन के उतारचढ़ाव को नहीं जानते. मैं ने इकबाल के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया. उस की खूब सेवा भी की और इज्जत भी बना कर रखी. लेकिन उस ने मुझे क्या दिया?’’ सुरैया की आवाज भर्रा गई.

अक्को ने उसे सांत्वना दे कर पूछा, ‘‘तुम अपनी सोच बताओ, फिर मैं तुम्हें कोई सलाह दूंगा.’’

वह कुछ सोच कर बोली, ‘‘मैं शाहिदा को नाचनागाना सिखाना चाहती हूं.’’

अक्को कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘अच्छा, मैं इस बाजार के चौधरी दारा से बात करूंगा.’’

अगले दिन उस ने दारा से बात कर के सुरैया को उस से मिलवा दिया. शाहिदा के भोलेपन, सुंदरता और सुरैया की भरपूर जवानी ने दारा के दिल पर भरपूर वार किया. उस ने चालाकी से अपना घर उन के लिए पेश कर दिया और थाने जा कर सुरैया और शाहिदा का वेश्या बनने का प्रार्थना पत्र जमा कर दिया.

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कुछ ही दिनों में मां बेटी ने उस इलाके के जानेमाने उस्तादों से नाचनेगाने की ट्रेनिंग ले ली. पहली बार मां बेटी सजधज कर कोठे पर बैठीं तो लोगों की भीड़ लग गई. शाहिदा की आवाज में जादू था, फिर पूरे बाजार में यह बात मशहूर हो गई कि यह किसी बड़े घर की शरीफ लड़की है, जिस ने अपनी इच्छा से वेश्या बनना पंसद किया है. दारा चूंकि शाहिदा को अपनी बेटी बना कर कोठे पर लाया था, इसलिए दोनों की इज्जत थी.

पूरे शहर में शाहिदा के हुस्न के चर्चे थे. देखतेदेखते बड़ेबड़े रईसजादे उस की जुल्फों में गिरफ्तार हो गए. जब शाहिदा अपनी आवाज का जादू चला तो नोटों के ढेर लग जाते. उस के एक ठुमके पर नोट उछलउछल कर दीवारों से टकरा कर गिरने लगते.

शाहिदा के भाई शावेज के खून में बेइज्जती तो आ गई थी, लेकिन जब कभी उस के शरीर में खानदानी खून जोश मारने लगता तो वह अपनी मांबहन से झगड़ने लगता. लेकिन वे दोनों उस की एक भी नहीं चलने देती थीं.

शाहिदा की नथ उतराई की रस्म शहर के बहुत बड़े रईस असलम के हाथों हुई, जिस के एवज में लाखों की रकम हाथ लगी. असलम जब आता, ढेरों सामान ले कर आता. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. असलम शहर का बदमाश भी था. बातबात पर वह रिवौल्वर निकाल लेता था, लेकिन वही असलम शाहिदा के पैरों की मिट्टी चाटने लगता था.

एक दिन दबी जुबान से असलम ने उस की मां से शाहिदा को कोठे पर मुजरा न करने के लिए कहा तो उस की मां ने कहा, ‘‘उतर जाओ इस कोठे से, तुम से बढ़ कर सैकड़ों धनवान है मेरी शाहिदा के चाहने वाले. अब कभी इस कोठे पर आने की हिम्मत भी न करना.’’

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बदले की आग: भाग 1- क्या इकबाल बेटी और पत्नी को बचा पाया

लेखक- जावेद राही

पूरा प्लेटफार्म रोशनी में नहाया हुआ था. कराची एक्सप्रेस अभी अभी आई थी, जो यात्रियों को उतार कर आगे बढ़ गई थी. प्लेटफार्म पर कुछ यात्रियों और स्टेशन स्टाफ के अलावा काली चादर में लिपटी अपनी 10 वर्षीया बेटी और 8 वर्षीय बेटे के साथ एक जवान औरत भी थी. ऐसा लगता था, जैसे वह किसी की प्रतीक्षा कर रही हो. अक्की अकबर उर्फ अक्को कुली उस के पास से दूसरी बार उन्हें देखते हुए उधर से गुजरा तो उस महिला ने उसे इशारा कर के अपने पास बुलाया.

अक्को मुड़ा और उस के पास जा कर मीठे स्वर में पूछा, ‘‘जी, आप को कौन सी गाड़ी से जाना है?’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना, मैं ने तो केवल यह पूछने के लिए बुलाया है कि यहां चाय और खाने के लिए कुछ मिल जाएगा?’’

‘‘जी, बिलकुल मिल जाएगा, केक, रस, बिस्किट वगैरह सब कुछ मिल जाएगा.’’ अक्को ने उस महिला की ओर ध्यान से देखते हुए कहा.

गोरेचिट्टे रंग और मोटीमोटी आंखों वाली वह महिला ढेर सारे गहने और अच्छे कपड़े पहने थी. वह किसी अच्छे घर की लग रही थी. दोनों उस से लिपटे हुए थे. महिला के हाथ से सौ रुपए का नोट ले कर वह बाहर की ओर चला गया. कुछ देर में वह चाय और खानेपीने का सामान ले कर आ गया. चाय पी कर महिला बोली, ‘‘यहां ठहरने के लिए कोई सुरक्षित मकान मिल जाएगा?’’

महिला की जुबान से ये शब्द सुन कर अक्को को लगा, जैसे किसी ने उछाल कर उसे रेल की पटरी पर डाल दिया हो. उस ने घबरा कर पूछा, ‘‘जी, मैं कुछ समझा नहीं?’’

‘‘मैं अपने घर से दोनों बच्चों को ले कर हमेशा के लिए यहां आ गई हूं.’’ उस ने दोनों बच्चों को खुद से सटाते हुए कहा.

‘‘आप को यहां ऐसा कोई ठिकाना नहीं मिल सकता. हां, अगर आप चाहें तो मेरा घर है, वहां आप को वह सब कुछ मिल जाएगा, जो एक गरीब के घर में होता है.’’ अक्को ने कुछ सोचते हुए अपने घर का औफर दिया.

महिला कुछ देर सोचती रही, फिर अचानक उस ने चलने के लिए कह दिया. अक्को ने उस की अटैची तथा दोनों बैग उठाए और उन लोगों को अपने पीछे आने को कह कर चल दिया.

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मालगोदाम वाला गेट टिकिट घर के पीछे था, जहां लोगों का कम ही आनाजाना होता था. महिला को उधर ले जाते हुए उसे कोई नहीं देख सकता था. अक्को ने वही रास्ता पकड़ा. बाहर आ कर उस ने एक औटो में सामान रखा और महिला के बेटे को अपनी गोद में ले कर अगली सीट पर बैठ गया.

औटो चल पड़ा. रेलवे फाटक पार कर के अक्को ने औटो वाले से टैक्सी वाली गली में चलने को कहा. उस गली में कुछ दूर चल कर रास्ता खराब था, जिस की वजह से औटो वाले ने हाथ खड़े कर दिए. अक्को सामान उठा कर पैदल ही उन सब को अपने घर ले गया. दरवाजे पर पहुंच कर उस ने आवाज लगाई, ‘‘अम्मा.’’

अंदर से कमजोर सी आवाज आई, ‘‘आई बेटा.’’

मां ने दरवाजा खोला. पहले उस ने अपने बेटे को देखा, उस के बाद हैरानी भरी निगाह उन तीनों पर जम गई. अक्को सामान ले कर अंदर चला गया. वह एक छोटा सा 2 कमरों का पुराने ढंग का मकान था. इस घर में मां बेटे ही रह रहे थे. बहन की शादी हो चुकी थी, पिता गुजर गए थे.

बाप कुली था, इसलिए बाप के मरने के बाद बेटे ने लाल पगड़ी पहन ली थी और स्टेशन पर कुलीगिरी करने लगा था. मां ने महिला और उस के दोनों बच्चों के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और अक्को की ओर देखने लगी.

अक्को ने कहा, ‘‘मां, ये लोग कुछ दिन हमारे घर मेहमान बन कर रहेंगे.’’

मां उन लोगों की ओर देख कर बोली, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, मेहमानों के आने से तो घर में रौनक आ जाती है.’’

सुबह हो चुकी थी, अक्को ने मां से कहा, ‘‘अम्मा, तुम चाय बनाओ, मैं नाश्ते का सामान ले आता हूं.’’

कुछ देर में वह सामान ले आया. मां, बेटे और बेटी ने नाश्ता किया. अक्को ने अपना कमरा मेहमानों को दे दिया और खुद अम्मा के कमरे में चला गया. नाश्ते के बाद तीनों सो गए.

मां ने अक्को को अलग ले जा कर पूछा, ‘‘बेटा, ये लोग कौन हैं, इन का नाम क्या है?’’

उस ने जवाब दिया, ‘‘मां, मुझे खुद इन का नाम नहीं मालूम. ये लोग कौन हैं, यह भी पता नहीं. ये स्टेशन पर परेशान बैठे थे. छोटे बच्चों के साथ अकेली औरत कहीं किसी मुसीबत में न फंस जाए, इसलिए मैं इन्हें घर ले आया. अम्मा तुम्हें तो स्टेशन का पता ही है, कैसेकैसे लोग आते हैं. किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता.’’

‘‘बेटे, तुम ने यह बहुत अच्छा किया, जो इन्हें यहां ले आए. खाने के बाद इन से पूछेंगे.’’

दोपहर ढलने के बाद वे जागे. कमरे की छत पर बाथरूम था, तीनों बारीबारी से नहाए और कपड़े बदल कर नीचे आ गए. मां ने खाना लगा दिया. आज काफी दिनों बाद उन के घर में रौनक आई थी. सब ने मिल कर खाना खाया.

खाने के बाद महिला ने मां से कहा, ‘‘मेरा नाम सुरैया है, बेटे का नाम शावेज और बेटी का शाहिदा. हम बहावलपुर के रहने वाले हैं. मेरे पति का नाम मोहम्मद इकबाल है. वह सरकारी दफ्तर में अफसर हैं.’’ कह कर सुरैया मां के साथ बरतन साफ करने लगी. इस के बाद उस ने खुद ही चाय बनाई और चाय पीते हुए बोली, ‘‘आप की बड़ी मेहरबानी, जो हमें रहने का ठिकाना दे दिया.’’

मां ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं बेटी, जिस ने पैदा किया है, वह रहने का भी इंतजाम करता है और खाने का भी. लेकिन यह बताओ बेटी कि इतना बड़ा कदम तुम ने उठाया किस लिए?’’

‘‘मां जी, मेरे साथ जो भी हुआ, वह वक्त का फेर था. मेरे साथसाथ बच्चे भी घर से बेघर हो गए. मेरे पति और मैं ने शादी अपनी मरजी से की थी. मेरे मां बाप मेरी मरजी के आगे कुछ नहीं बोल सके. शादी के कुछ सालों तक तो सब ठीक रहा, लेकिन धीरेधीरे पति का रवैया बदलता गया.’’

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थोड़ा रुक कर वह आगे बोली, ‘‘शाहिदा के बाद शावेज पैदा हुआ. इस के जन्म के कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि इकबाल ने दूसरी शादी कर ली है. मैं ने एक दिन उन से कहा, ‘तुम ने दूसरी शादी कर ली है तो उसे घर ले आओ. हम दोनों बहनें बन कर रह लेंगे. तुम 2-2 दिन घर नहीं आते तो बच्चे पूछते हैं, मैं इन्हें क्या जवाब दूं?’

‘‘उस ने कुछ कहने के बजाए मेरे मुंह पर थप्पड़ मारने शुरू कर दिए. उस के बाद बोला, ‘मैं ने तुम्हें इतनी इजाजत नहीं दी है कि तुम मेरी निजी जिंदगी में दखल दो. और हां, कान खोल कर सुन लो, तुम अपने आप को अपने बच्चों तक सीमित रखो, नहीं तो अपने बच्चों को साथ लो और मायके चली जाओ.’

‘‘इस के बाद इकबाल अपना सामान ले कर चला गया और कई दिनों तक नहीं आया. फोन भी नहीं उठाता था. एकदो बार औफिस का चपरासी आ कर कुछ पैसे दे गया. काफी छानबीन के बाद मैं ने पता लगा लिया कि उन की दूसरी बीवी कहां रहती है. बच्चों को स्कूल भेज कर मैं उस के फ्लैट पर पहुंच गई.

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कारवां: भाग 3- क्यों परिवार की ईष्या झेल रही थी सौंदर्या

‘‘‘शुरुआत में सभी ऐसा करने की सोचते हैं. देखती नहीं, कमरे में एसी लगा हुआ है, पंखा नहीं है. बहुत जल्द कैमरा भी लग जाएगा. वैसे, कैमरा नहीं है तो क्या? नम्रता मैडम की आंखें उस से कम हैं क्या?’ वह लड़की बोली तो मैं ने कहा, ‘बेटा, तुम यहां कब…’ मेरा वाक्य खत्म होने से पहले वह बोल पड़ी,‘चुप कर, खबरदार, जो मुझे बेटा कहा. इस शब्द से छली गई हूं मैं. तू राधा मैडम बोलेगी मुझे, समझी.’

‘‘‘क्या?’ मैं हैरान रह गई.

‘‘मुझे डांटती हुई सी वह आगे बोली, ‘सीनियर की रिस्पैक्ट करना नहीं सीखा क्या? उम्र में भले ही तू मुझ से बड़ी होगी, पर इस लाइन में मैं तेरी सीनियर हूं. पढ़ीलिखी नहीं है क्या तू? सीनियर का मतलब तो पता होगा?’

‘‘ऐसे समय में भी अपनी हंसी नहीं रोक पाई थी मैं. ‘आप काफी पढ़ीलिखी लगती हैं, राधा मैडम?’ अपनी हंसी दबाते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘‘किताब नहीं मैडम, मैं ने जिंदगी पढ़ी है. तुम्हें भी तैयार कर दूंगी,’ वह बोली.

‘‘‘यहां, यह सब. मेरा मतलब है…’ मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोली, ‘यहां जितनी साध्वियां दिख रहीं, वे सब…’ उस ने अपनी बात जारी रखी, ‘तेरे साथ एक नई लड़की भी आई है. नम्रता दीदी उसे ले कर आती होंगी. देखा तो है उसे तूने. क्या नाम है उस का? हां, गुडि़या, यही है उस का नाम.’

‘‘‘पर वह तो बहुत छोटी है,’ मैं ने चिंता प्रकट की.

‘‘‘छोटी, इस काम में क्या छोटी, क्या बड़ी? अब खुद को ही देख लें,’  राधा बोली थी.

‘‘‘सिर्फ 7 साल की है वह,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘मैं 10 साल की थी जब इस लाइन में आई थी,’ राधा के शब्द थे.

‘‘सचमुच, उम्र में बड़ी होते हुए भी मैं उस के सामने कितनी छोटी थी, मैं सोच रही थी.

‘‘‘देख, तेरा नाम क्या है?’ राधा ने पूछा तो मैं ने कहा, सौंदर्या.

‘‘‘अरे वाह, मांबाप ने नाम बड़ा चुन कर रखा,’ राधा ने अपनी सोच प्रकट की.

‘‘मैं कुछ न बोली.’’

‘‘‘देखो, ऐसा है, कुछ लोगों को तेरी जैसी अनुभवी औरतें पसंद आती हैं तो कुछ को हमारे जैसी. वहीं, कुछ लोगों को गुडि़या की उम्र की लड़कियां चाहिए होती हैं. डिमांड और सप्लाई का खेल है.’ उस ने बताया.

‘‘‘ढोंगी हैं ये सारे?’ मैं ने घृणा भरे लहजे में कहा.

‘‘‘सही कहा. चल सो जा, वरना नम्रता दीदी आ जाएंगी,’ राधा बोली थी.

‘‘‘वे कौन हैं?’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘‘इन सब से भी बढ़ कर,’ राधा ने कह कर ठहाका लगाया.’

‘‘राधा चली गई थी. वह मेरी बगल में सो रही थी. पता नहीं, कब मेरे आंसू बहने लगे. क्या हुआ मौसी? कहीं चोट लगी है? दर्द हो रहा है?’

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‘‘अब क्या बताऊं उस मासूम को? कैसे दिखाऊं उसे अपनी चोट? खुद ही रिश्ता जोड़ लिया था उस ने. मौसी, …मां सी… मेरा अपना बचपन कौंध गया था मेरे सामने. ‘नहीं, गुडि़या को मैं एक और सौंदर्या या राधा नहीं बनने दूंगी.’ मेरे लक्ष्यविहीन जीवन को एक लक्ष्य मिल गया था.

‘‘अपने अंदर आए इस बदलाव से मैं खुद ही आश्चर्यचकित थी. अगले दिन मैं खुद उस पाखंडी के पास गई थी.

‘‘‘जयजय गुरुजी.’

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, आइए,आइए. जयजय.’

‘तो क्या सोचा आप ने?’

‘‘‘कुछ सोचने लायक कहां छोड़ा आप ने?’

‘‘जी?’

‘‘‘गुरुजी, आज तक मैं अपने सौंदर्य को अपना शत्रु मानती थी. परंतु आप की कृपा से मैं यह जान पाई हूं कि इस का इस्तेमाल कर के मैं कितना कुछ प्राप्त कर सकती हूं. इसी की माया है कि आप जैसा पुरुष भी मेरा दास बनने को तैयार है. कहिए गुरुजी, कुछ गलत कहा मैं ने.’

‘‘‘बिलकुल भी नहीं.’

‘‘‘मैं इस कार्य के लिए सहमत हूं, परंतु आप से एक विनती है?’

‘‘‘तुम तो हुक्म करो.’

‘‘‘मुझे आप अभी अपनी सेवा में ही रहने दें.’

‘‘‘देखो, वैसे तो भगत तुम्हें बहुत पसंद करता है परंतु…अच्छा, परसों समागम का आयोजन किया गया है. उस के बाद बात करते हैं.’

‘‘‘ठीक है.’

‘‘उस ढोंगी से अनुमति मिल चुकी थी. अब मुझे सिर्फ एक काम करना था, वह भी उस के चाटुकारों की फौज से छिप कर. इस काम में मेरी मदद की सुषमा ने. सुषमा एक इलैक्ट्रौनिक इंजीनियर थी. अंधविश्वास और अंधश्रद्घा एक मनुष्य का कितना पतन कर सकती है, इस का वह जीताजागता उदाहरण थी. एक बड़ी कंपनी में काम करने वाली सुषमा आज इस कामी के पिंजरे में बंद थी.

‘‘समागम का जम कर प्रचार हुआ था. वैसे भी इस देश में धर्र्म के नाम पर तो पैसे लुटाने के लिए लोग तत्पर रहते ही हैं. परंतु एक गरीब को उस के हक का पैसा भी देने में लोग सौ तरह के बहाने करते हैं. पंक्तियों के हिसाब से बैठने का रेट निर्धारित था. प्रथम पंक्ति वीआईपी लोगों की थी. जिस देश में भगवान के दर्शन में भी मुद्रा की माया चलती है, उस देश में भगवान के इन तथाकथित मैनेजरों के दर्शन आप मुफ्त में कैसे पा सकते हैं. ईश्वर से संवाद तो आखिर यही बेचारे करते हैं.

‘‘प्रथम पंक्ति में कुछ खास लोगों तथा पत्रकारों को मुफ्त पास दिए गए थे. बाकी जो लोग उस पंक्ति में बैठना चाहते थे उन्हें 15 हजार रुपए देने पड़े थे. इसी प्रकार हर पंक्ति का अपना रेट फिक्स था. जो बेचारे मूल्य चुका नहीं सकते थे, परंतु गुरुजी को सुनने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे, वे आसपास के पेड़ों पर टंगे हुए थे.

‘‘नियत समय पर लोगों का आना शुरू हो गया. सुधाकर और नम्रता उन लोगों को समझा रहे थे जिन्हें गुरुजी भीड़ में से बीचबीच में उठाने वाले थे. उन्हें बस यही कहना था कि गुरुजी के उन के जीवन में आने से उन की जिंदगी में कितना सुधार हुआ है. किसी को नौकरी मिल गई थी, किसी के बच्चे की बीमारी ठीक हो गई थी. आखिर प्रोडक्ट का प्रचार भी तो करना होता है.

‘‘गुरुजी का समागम में आने का समय 12 बजे का था, उस के पहले उन्होंने राधा को बुलाया था. वह ढोंगी एक टोटके को मानता था. उस का मानना था कि समागम  के पहले अगर वह किसी लड़की के साथ संबंध बनाएगा तो उस का वह आयोजन काफी सफल होगा.

‘‘‘गुरुजी’ राधा पहुंच गई थी.

‘‘‘आ गई. चल, कपड़े उतार और लेट जा. क्या हुआ, खड़ी क्यों है,’ गुरुजी बोले.

‘‘‘गुरुजी वह…मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मेरा महीना…’ राधा बनावटीपन में कह रही थी.

‘‘‘क्या आज पहली बार कर रहा हूं, चल.’’

‘‘दर्द हो…’’

‘‘नाटक कर रही है. उतार साड़ी…’

‘‘‘नहीं उतारूंगी,’ राधा अब दहाड़ी थी.’

‘‘‘तेरी इतनी हिम्मत, भूल गई, पहली बार तेरा क्या हाल किया था. 10 दिनों तक उठ नहीं पाई थी.’

‘‘‘याद है भेडि़ए, सब याद है. पर अब तेरा खेल खत्म. अब किसी और लड़की को तू छू भी नहीं पाएगा?’

‘‘राधा ने यह कहा तो गुरुजी के भेष में वह घिनौना अपराधी जवाब में बोला, ‘‘‘अच्छा, कैसे भला, कौन बचाएगा उन्हें?’

‘‘‘मैं, दरवाजे पर मुझे देख कर वह ढोंगी चौंक गया.’

‘‘‘तू, वह मक्कारी का ठहाका लगा रहा था.’’

‘‘‘हां, मैं और ये सब लोग…’

‘‘उस कमीने और चाटुकारों की उस की फौज को पता ही नहीं चला था. एक रात पहले सुषमा ने समागम के लिए आए कैमरों में से 2 कैमरे गुरुजी के कमरे में लगा दिए थे. और अंदर का सारा नाटक, बाहर बैठे उस के भक्तगण देख चुके थे. और फिर उस भीड़ ने वही किया जिस की उम्मीद थी.

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‘‘गुरुजी के प्राणपखेरु भीड़ की पिटाई से उड़ गए थे. सभी चाटुकारों तथा गुरुजी के सभी ग्राहकों के खिलाफ आश्रम की हर स्त्री ने गवाही दी थी.

‘‘जिंदगी ने मुझे सिखा दिया है, मेरी सुंदरता कभी भी मेरी दुश्मन नहीं थी. अगर कोई मुझे गलत नजर से देखता था, तो दोष उस की नजर का था. खुद से प्रेम करना हम सभी सीख गए हैं.

‘‘अब हम से कोई भी साध्वी नहीं है. सब अपनी इच्छानुसार चुने हुए क्षेत्रों में कार्यरत हैं. हमारा कोई आश्रम नहीं है. एक कारवां है हम सब पथिकों का जो एक ही राह के राही हैं. मेरी इस पुस्तक में इन सभी पथिकों के संघर्ष की कहानियां हैं.

‘‘मेरा और मेरी सखियों का सफर अभी समाप्त नहीं हुआ है, न कभी होगा. कई नए साथी आएंगे, कई पुराने हंसते हुए हम से विदा हो जाएंगे परंतु यह कारवां बढ़ता ही जाएगा, चलता ही जाएगा.

‘‘अपनी और अपने कारवां की सखियों की सभी कहानियों का निचोड़ इन पंक्तियों द्वारा व्यक्त कर रही हूं-

‘‘चले थे इस पथ पर खुशियों को खोजते

मगर इस तलाश में खुद को ही खो दिया

स्वयं को खो कर, ढूंढ़ना था मुश्किल

चल पड़े हैं यारो, शायद रस्ते में मिल जाएं.’?’

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कारवां: भाग 2- क्यों परिवार की ईष्या झेल रही थी सौंदर्या

‘‘‘चलचल, बाकी बात कल कर लेंगे. पत्नी है न, तो पत्नी का फर्ज पूरा कर.’

‘‘मेरे सारे स्वप्न सुहाग सेज पर जल कर राख हो गए. मेरा कहीं भी अकेले आनाजाना बंद था, फोन उठाना भी मना था. औफिस की पार्टियों में भी वे अकेले ही जाते. मेरा मेकअप करना भी अजय को पसंद नहीं था. कपड़े भी मुझे उन से पूछ कर पहनने पड़ते थे. एक बार दुकान में उन के एक सहकर्मी मिल गए थे.

‘‘‘अरे अजय, क्या हाल हैं, अच्छा, भाभीजी भी साथ हैं, नमस्ते, भाभीजी.’

‘‘‘जी नमस्ते,’ मैं ने नमस्ते का जवाब दिया.

‘‘‘आज पता चला, भाभीजी, अजय आप को छिपा कर क्यों रखता है. कई बार कहा मिलाओ भाभी से. पर यह तो…’

‘‘‘अच्छा भाई रमेश, कल औफिस में मिलते हैं, आज थोड़ा जल्दी है,’ कहते हुए पति ने अपने साथी से पीछा छुड़ाया.

‘‘फिर घर आ कर अजय ने मुझ पर पहली बार हाथ उठाया था. परंतु वह आखिरी बार नहीं था. उस के बाद तो यह उन की आदत में शुमार हो गया. अब सोचती हूं तो लगता है कि मुझे मार कर, मेरे चेहरे पर निशान बना कर अजय अपने अहं को संतुष्ट करते थे. अजय का साधारण नैननक्श का होना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. परंतु उन्हें कौन समझाता?

‘‘जब मेरे दोनों बच्चों नमन और रजनी का जन्म हुआ, मेरी जिंदगी बदल सी गई. मुझे लगा ये दोनों मेरा दर्द समझेंगे. परंतु जैसेजैसे बच्चे बड़े होते गए, उन का व्यवहार मेरे प्रति बदलता चला गया. उन्होंने अपने पिता का रूपरंग ही नहीं उन की सोच तथा उन का व्यवहार भी ले लिया था. दोनों की जिंदगी में दखल सिर्फ उन के पिता का था. रजनी और नमन के 15वें जन्मदिन पर तो कुछ ऐसा हुआ जिस ने मुझे मानसिक रूप से तोड़ दिया.

‘‘नमन तो अपना जन्मदिन किसी होटल में मनाने चला गया था परंतु रजनी का प्लान कुछ और था. उस दिन रजनी की कुछ सहेलियां घर आई थीं. उन सब को मेरा बनाया खाना बड़ा पसंद आया था. एक सहेली बोल पड़ी,‘रजनी, आंटी तो ग्रेट हैं. जितनी सुंदर हैं, खाना तो उस से भी स्वादिष्ठ बनाती हैं. लगता ही नहीं, इन के इतने बड़े बच्चे होंगे और तू तो आंटी की बेटी लगती ही नहीं.’

‘‘‘ऐसा नहीं है बेटा, सुमन,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘मम्मी, आप अंदर जाइए,’ रजनी ने मुझे निर्देश दिया.

‘‘बाद में  क्या होने वाला था, उस का कुछकुछ एहसास मुझे हो गया था. अपने पापा और भाई के आने पर रजनी ने कुहराम मचा दिया था.

‘‘‘पापा, इन से कह दीजिए, अपनी सुंदरता की नुमाइश करने के लिए कोई और जगह ढूंढ़ लें. हमेशा मुझे नीचा दिखाने के तरीके ढूंढ़ती रहती हैं.’

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‘‘‘रजनी, मां हूं मैं तुम्हारी,’ मैं बोली थी.

‘‘‘तो मां बन कर रहो, अक्ल तो ढेले बराबर कि नहीं है. मेरे बच्चों की जिंदगी से दूर रहो समझी या दूसरी तरह समझाऊं?’ इतना कह कर पति अजय बेटी रजनी को ले कर उस के कमरे में चले गए.

‘‘बेटा नमन जो अब तक चुपचाप सब तमाशा देख रहा था, मेरे पास आया और बोला, ‘चुपचाप रह नहीं सकतीं, पिटने की आदत हो गई है क्या?’

‘‘अजय के रोजरोज के अपमान ने मेरे बच्चों को भी मुझे अपमानित करने का हक दे दिया था. हर पल मैं यही सोचती कि काश, ऐसा हो कि मेरी सुंदरता नष्ट हो जाए. मैं ने अपनेआप को अपने अंदर ही कैद कर लिया था. मानसिक व्यथा को दूर करने के लिए मैं ने अपनेआप को दूसरे कामों में लगा लिया. इसी दौरान मेरी मुलाकात स्वामीजी से हुई.

‘‘जीवन में पहली बार मैं ने इतनी बात किसी से की थी. हमेशा श्रोता रही थी मैं. अपनी पड़ोसिन गीता के घर में उन से पहली बार मेरी मुलाकात हुई थी. उस के बाद तो मैं गुरुजी की परमभक्त हो गई. दर्द से भरे हुए मेरे हृदयरूपी रेगिस्तान

में गुरुजी ठंडी फुहार के रूप में बरसने लगे थे. लगातार उन के आश्रम में मेरा आनाजाना होने लगा. धीरेधीरे मुझे यकीन होने लगा था कि मेरा जन्म ही गुरुजी की सेवा के लिए हुआ है.

‘‘मैं ने संन्यास लेने का निर्णय ले लिया. अजय गुस्से से पागल हो गए थे. बच्चे मजाक बना रहे थे. अपनेअपने तरीके से सब ने समझाने की कोशिश की, परंतु मैं रुकती भी तो किस के लिए, अजय और बच्चों के जीवन में तो मेरा अस्तित्व घर में रखे हुए फर्नीचर से ज्यादा कभी रहा नहीं था. गुरुजी में ही मुझे अपना वर्तमान तथा भविष्य दोनों नजर आ रहे थे.

‘‘आरंभ में सबकुछ अच्छा लग रहा था. लगभग एक महीने के बाद एक रात गुरुजी ने कुछ व्यक्तिगत मसलों पर चर्चा करने के लिए मुझे बुलाया था.

उस रात का मेरे इस जीवन पर सब से ज्यादा प्रभाव पड़ा था, सबकुछ बदल

गया था.

‘‘वहां जब मैं पहुंची, 2 सज्जन पहले से मौजूद थे. शायद गुरुजी के भक्त होंगे, सोच कर मैं अंदर आ गई थी. परंतु उन की नजरों में छिपी हुई भावना को मैं चाह कर भी नजरअंदाज नहीं कर पाई. इस नजर से मेरा सामना कई बार मेरे जीवन में हुआ था.

‘‘‘जैसा कि आप ने कहा था गुरुदेव, साध्वीजी तो उस से भी ज्यादा…’ उन में से एक बोला.

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, क्या हुआ? डरें नहीं, अपने ही लोग हैं,’ गुरुजी ने प्यार से कहा.

‘‘जहां सब से ज्यादा विश्वास होता है, विश्वासघात भी वहीं होता है. विश्वास करना सही है, परंतु अंधविश्वास पतन की ओर ले जाता है.

‘‘गुरुजी की बात सुन कर मैं बैठ गई.

‘‘गुरुजी बोले, ‘साध्वीजी, आश्रम में दुखियारी स्त्रियों के लिए जो भवन बनने वाला था, उस के बारे में तो आप को बताया था.’

‘‘‘देखो, आप के कदम हमारे आश्रम के लिए कितने लाभकारी हैं. ये

2 परोपकारी मनुष्य सहयोग करने को तैयार हैं.’

‘‘‘अरे वाह, गुरुदेव,’ मैं ने खुशी जाहिर की.

‘‘‘अब, आप लोग आपस में बात कर लो. क्योंकि इस प्रोजैक्ट की पूरी जिम्मेदारी मैं आप को देना चाहता हूं, साध्वीजी,’ गुरुजी ने गेंद मेरे पाले में डाल दी.

‘‘‘क्या बात कह रहे हैं आप गुरुजी? मुझ में कहां इतनी काबिलीयत है?’ मैं ने दिल की सचाई को बयान कर दिया.

‘‘‘आप तो कमाल की हैं. हम से पूछिए अपनी काबिलीयत दूसरा आदमी बोला.’

‘‘‘आप चुप रहें, लालजी, हम बात कर रहे हैं न,’ गुरुजी ने उसे चुप कराया.

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, यह तो एक शुरुआत है. बहुत जल्द पूरे आश्रम की जिम्मेदारी मैं आप को देना चाहता हूं.’

‘‘मैं तो भावविभोर हो गई, ‘गुरुजी, शब्द नहीं हैं मेरे पास आप का आभार व्यक्त करने के लिए, मेरे जीवन को एक दिशा देने के लिए.’

‘‘‘परंतु उस के लिए आप को…’ उन दो में से एक व्यक्ति बोला तो गुरुजी ने ‘चुप रह रामदास’ कह कर उसे चुप करा दिया, फिर मेरी तरफ मुखातिब हुए, ‘साध्वीजी को पता है सामाजिक उत्थान के लिए यदि थोड़ा व्यक्तिगत नुकसान भी उठाना पड़े तो उस में कोई बुराई नहीं है.’

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‘‘‘जी, मैं मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटती.’ मैं उत्साहित हो गई थी.

‘‘‘अरेअरे, आप को मेहनत कौन करने देगा? मेहनत तो हम कर लेंगे. आप तो बस…’ एक व्यक्ति बोला तो गुरुजी ने कहा, ‘चुप रह भगत, मैं बात कर रहा हूं न.’

‘‘मेरे अंदर संशय का नाग फन उठा चुका था, परंतु मेरी अंधश्रद्घा ने उसे कुचल दिया.

‘‘‘आप को कुछ नहीं करना, साध्वीजी. बस, जगत कल्याण का कार्य करना है,’ गुरुजी के शब्द थे.

‘‘‘जी,’ मैं ने धीरे से कहा, तो फिर उन्होंने इशारा किया, ‘आप को तो पता ही है, पुराने समय में देवदासी होती थीं. वे होती तो भगवान की ब्याहता थीं, परंतु जगतकल्याण के लिए ईश्वर के सभी भक्तों को सुख प्रदान करती थीं.’

‘‘‘जी, क्या?’ मैं कांप गई थी.

‘‘‘जी, बस, वही सुख आप को मुझे तथा परमपिता के भक्तों को प्रदान करना है.’

‘‘‘आप पागल हो गए हो क्या?’ क्रोधित हो कर मैं बोली.

‘‘गुरुजी थोड़ा नाराजगी के साथ बोले, ‘आप शब्दों का चुनाव सोचसमझ कर करें तो सही रहेगा. और वैसे भी, दुखीजनों के कल्याण से पुण्य ही मिलेगा. और आप की भी दबी हुई कामनाओं को…आखिर उम्र ही क्या है आप की?’

‘‘‘केवल 38 साल’ एक भक्त बोला.

‘‘‘गुरुजी, नहीं…नहीं,’ मैं सिसकते हुए बोली.

‘‘भक्त जब अपने भगवान का घिनौना रूप देख ले तो उस के जीने की रहीसही इच्छा भी दम तोड़ देती है. कई बार छली गई थी मैं, परंतु आज मैं टूट गई थी. मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. रोती हुई मैं आगे बोली, ‘मैं तो आप की पूजा करती थी, गुरुजी.’

‘‘‘मेरा प्रेम तो आप के साथ रहेगा ही, उस प्रेम को भी तो पूर्णरूप देना अभी बाकी है.’

‘‘आप जाइए, सोच लीजिए. आप के पास 2 दिनों का समय है,’ गुरुजी के शब्द थे.

‘‘मुझे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था. भाग कर जाती भी तो कहां, कोई दरवाजा मेरे लिए नहीं खुला था. किसी को मेरा इंतजार नहीं था. उस समय ही मैं ने आत्महत्या के विकल्प के बारे में सोचा. जहर खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. नस काटने के लिए चाकू लाना होगा. साड़ी से फंदा लगा कर मरना ही मुझे सही लग रहा था. साड़ी तो मैं ने पहनी हुई थी, बस, उस का फंदा लगाना था. चादर का भी इस्तेमाल कर सकती थी. फंदा लगाने के लिए मैं ऊपर कील ढूंढ़ने लगी थी. परंतु तभी एक आवाज ने मेरे विचारों की शृंखला को तोड़ दिया.

‘‘‘कोई कील नहीं है इस कमरे में, पंखा भी नहीं है.’

‘‘मेरे सामने एक 15-16 साल की सुंदर लड़की थी. ऐसा लगा जैसे रजनी खड़ी हो. मां का दिल ऐसा ही होता है, चाह कर भी अपनी संतान से नफरत नहीं कर पाती. मैं ने उस से पूछा, ‘तुम, तुम्हें कैसे पता…?’

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कारवां: भाग 1- क्यों परिवार की ईष्या झेल रही थी सौंदर्या

कौन से भगवान को पूजें, सोचते हैं हम मंदिर में बैठा या दरगाह में सोया है शायद बिजी है वो, तभी उसे पता न चला कि तू रोया है, बहुत रोया है.

‘‘मौसीमौसी गाड़ी आ गई.’’ गुडि़या की आवाज ने मेरी कलम की रफ्तार को रोक दिया था.

‘‘थोड़ी देर से चले जाएंगे तो…’’

‘‘राधा… उन का फोन आया तो.’’

राधा ने इस आयोजन के लिए बहुत मेहनत की थी. इन 10 सालों में कितनी बदल गई थी राधा.

‘‘मौसी, फिर खो गईं आप, माना कि आप लेखकों को कल्पनालोक की यात्रा कुछ ज्यादा ही पसंद है किंतु यथार्थ में रहना उतना भी बुरा नहीं है, क्यों?’’

‘‘चलो.’’ कलम नीचे रख कर सौंदर्या चल पड़ी. आज उस की पुस्तक ‘कारवां’ के लिए उसे सम्मानित किया जाना था.

पूरा हौल खचाखच भरा था. कार्यक्रम संचालक तथा बाकी साथी लेखक उस की किताब व उस के बारे में मधुर बातें बोल रहे थे. जब सौंदर्या से दो शब्द बोलने को कहा गया तो वह बहुत पीछे चली गई थी, अपनी स्मृतियों के साथ. उस ने बोलना शुरू किया-

‘‘मध्य प्रदेश का एक छोटा सा शहर ‘सागर’, जहां मेरा बचपन बीता था. सागर का वास्तविक नाम सौगोर हुआ करता था. ‘सौ’ यानी एक सौ, ‘गोर’ यानी किला, असंख्य किलों का शहर सागर. परंतु कालांतर में लोगों ने सौगोर का सागर कर दिया.

‘‘मेरे पिता एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और माता एक गृहिणी. 3 भाईबहनों की सूची में, मैं आखिरी नंबर में आती थी. भैया व दीदी दोनों की लाड़ली हुआ करती थी मैं. परंतु धीरेधीरे यह प्यार ईर्ष्या में बदलने लगा. इस का प्रमुख कारण था मेरा सुंदर होना. साधारण रूपरंग वाले परिवार में मैं न जाने कहां से आ गई थी.

‘‘दीदी को मेरी सुंदरता से ईर्ष्या थी, तो भैया को मेरी बुद्घि से. जहां भैया इंटरमीडिएट से ज्यादा नहीं पढ़ पाए वहीं मैं हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आती थी.

‘‘‘यह लड़की तो डायन लगती है मुझे, सारे मंतर जानती है. इसी ने कुछ कर के मेरे बेटे से विद्या चुराई होगी. वरना औरत जात में इतनी बुद्घि कहां होती है,’ मां कहा करती थीं.

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‘‘एक दिन स्कूल से लौटने पर पता चला, दीदी को लड़के वाले देखने आ रहे हैं. पड़ोस की रमा काकी रिश्ता लाई थीं. दीदी 18 वर्ष की होने वाली थीं, मां को उन की शादी की जल्दी थी.

‘‘‘सोनू की मां, इस राजकुमारी को छिपा कर रखना. पता चला कि देखने बड़ी को आए हैं और पसंद छोटी को कर लिया. बाद में न कहना कि रमा ने बताया नहीं.’

‘‘‘क्या काकी, मैं क्यों छिपूं,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘चुप कर छोटी, अंदर जा.’ मां ने मुझे डांट कर अंदर भेज दिया था. ‘अरे बहन, यही तो रोना है. इतना रूप ले कर मुझ गरीब के घर में आ गई है. इस खुले खजाने को देख कर लूटने वाले भी तो पीछे आते हैं.’

‘‘फिर उस रात मां, पापाजी तथा भैया में मंत्रणा हुई और उस की परिणति मेरी कैद से हुई. अगला पूरा दिन मैं कमरे में बंद रही. कहीं अपनी बालसुलभ जिज्ञासा के वशीभूत हो कर मैं बाहर न निकल जाऊं, इस के लिए कमरे के बाहर ताला लगा दिया गया था. दीदी की शादी तय हो गई थी.

‘‘शादी से 3-4 दिनों पहले से ही रिश्तेदारों का आना शुरू हो गया था. एक दिन जब मैं दीदी की साड़ी में गोटे लगाने का काम कर रही थी तो मौसी को कहते सुना, ‘जीजी, छोटी भी तो 13 वर्ष की हो गई होगी?’

‘‘‘हां, और क्या, 14 वर्ष की हो जाएगी इस साल तो. पिछले महीने तो महीना भी शुरू हो गया इस का,’ मां ने कहा था.

‘‘मुझे बड़ी शर्म आ रही थी मां के इस तरह से यह बात कहने पर. ऐसा लग रहा था जैसे मैं ने कोई गलती कर दी हो.

‘‘‘अच्छा, तभी इस का रूप और निखर आया है’ मौसी ने अपनी सोच जाहिर की थी.

‘‘‘उसी का तो रोना है. बड़ी की दिखाई में बंद कर के रखा था इसे,’ मां बोली थीं.

‘‘‘जीजी, शादी के दिन क्या करोगी? मर्द जात है, शादी के दिन मना कर दिया तो क्या करोगी? मेरी बात मानो, शादी तक इसे कहीं भेज दो,’ मौसी ने कहा तो मैं बोल पड़ी थी, ‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी. मैं सुंदर हूं इस में मेरा क्या गलती है?’

‘‘‘नहीं, हमारी है? चुप कर. बात तो सही है. मेरा बस चले तो इस का चेहरा गरम राख से जला दूं,’ मां ने कहा तो मैं बोली, ‘तो जला क्यों नहीं देतीं. मैं भी हमेशा की…’

‘‘फिर मां ने मेरा मुंह हमेशा की तरह थप्पड़ से बंद कर दिया. निरपराध रोतीबिलखती मुझे नानी के घर भेज दिया गया. विवाह में बनने वाले पकवान, नए कपड़ों का लोभ मैं विस्मरण नहीं कर पा रही थी. परंतु वहां मेरी कौन सुनने वाला था?

‘‘जब मैं दीदी की शादी के बाद घर आई, सारे मेहमान जा चुके थे. दीदी अपने पगफेरों के लिए घर आई हुई थीं. मैं ने पहली बार उस आदमी को देखा जिस से छिपाने के लिए मुझे सजा दी गई थी. मेरे जीजाजी की नजर जब एक बार मुझ पर पड़ी, फिर वह हटी ही नहीं. आंखों ही आंखों में वे मुझे जैसे उलाहना दे रहे थे कि कहां थी अब तक…

‘‘‘कौन है यह, आभा?’ वह पूछ तो दीदी से रहे थे परंतु उन की नजर मुझ पर ही थी.

‘‘‘मैं, आप की इकलौती साली, जीजाजी,’ मैं ने कहा तो वे बोले ‘कहां थी अब तक?’

‘‘‘आप से बचाने के लिए मुझे यहां से दूर भेजा गया था. आप क्या इतने बुरे हो? लगते तो नहीं हो,’ मैं ने कह दिया.

‘‘‘कुछ अज्ञानता और कुछ नाराजगी में मैं और न जाने क्याक्या बोल जाती, अगर दीदी मुझे वहां से खींच कर मां के पास न ले जातीं.’

‘‘‘मां, इस छोटी को संभाल लो वरना अपनी बड़ी बहन की सौतन बनने में देर न लगाएगी,’ दीदी ने शंका जाहिर की.

‘‘‘यह सौतन क्या होता है?’ मैं ने जिज्ञासावश कहा था.

‘‘‘क्या हो गया?’ मां बोली थीं.

‘‘‘कुछ कांड कर देगी तब समझोगी क्या?’ दीदी ने कहा.

‘‘‘अब मैं ने क्या किया? अपने दूल्हे को देखो. कैसे घूर रहा था मुझे. मां, वह अच्छा आदमी नहीं है,’ मैं ने स्पष्ट कह दिया.

‘‘चटाक… मां के थप्पड़ ने बता दिया कि गलती मेरी ही थी. फिर जब तक दीदी व जीजाजी चले नहीं गए, मुझे कमरे में नजरबंद कर दिया गया.

‘‘स्कूल तथा कालेज के रास्ते में भी मैं ने इन नारीलोलुप नजरों का सामना कई बार किया था. कुछ नजरों में हवस होती थी, कुछ में जलन तथा कुछ में कामना. इस पुरुषदंभी समाज का सामना कई लड़कियों ने किया था. शिक्षा पाने की यह कीमत मान ली हो जैसे उन्होंने. उस रास्ते से जाने वाली किसी नारी ने कभी भी मुड़ कर उन पुरुषों का प्रतिवाद नहीं किया था. परंतु यह गलती एक दिन मुझ से हो गई थी.

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‘‘मेरे कालेज का पहला दिन था. रोज की तरह मैं पैदल ही घर आ रही थी. उस दिन वह रास्ता खाली था. मैं खुश थी, तभी पीछे से मोटरसाइकिल की आवाज सुनाई दी. मैं तो किनारे पर चल रही थी, इसलिए मैं ने ध्यान नहीं दिया. वह मोटरसाइकिल मेरे पास आ कर थोड़ी धीमी हो गई. एक हाथ आगे बढ़ कर मेरे वक्षों को इतनी जोर से खींचा कि मैं गिर पड़ी. दर्द और शर्मिंदगी के ज्वार ने मुझे घेर लिया. अपने सीने पर हाथ रख कर मैं कई घंटे बैठी रही थी.

‘‘जब मैं घर पहुंची, दीदी भी आई हुई थीं. मुझे रोता देख कर दीदी व मां दोनों मेरे पास चली आईं. मां को मुझे गले लगाना चाहिए था, परंतु… ‘अरी, रो क्यों रही है? कुछ करवा कर आ रही है क्या?’ कह कर मुझ पर आरोप लगाने की कोशिश की.

‘‘मैं ने रोतेरोते मां को सब बताया, ‘मां, मैं ने मोटरसाइकिल का नंबर देखा था, चलो पुलिस के पास. मैं उसे नहीं छोड़ूंगी.’

‘‘‘लो, अब यही दिन रह गए थे. सुन, तूने ही कुछ किया होगा,’ मां ने मेरे स्पष्टीकरण को नजरअंदाज किया तो दीदी भी मुझे ही दोषी ठहराने लगीं.

‘‘‘और नहीं तो क्या मां, हमारे साथ तो ऐसा कभी न हुआ. पहले मर्दों को ऐसे कपड़े पहन कर भड़काओ, फिर वे कुछ कर दें तो उन का क्या दोष?’

‘‘‘दीदी, सूट ही तो पहना है,’  मैं ने साफ कहा तो उन्होंने कहा, ‘सीना नहीं ढका होगा.’

‘‘‘चुप करो तुम दोनों. और सुन छोटी, यह बात यहीं भूल जा. तेरे भाई को पता चला तो तुझे काट कर रख देगा. तुझे ही ध्यान रखना चाहिए था,’ मां बोलीं.

‘‘‘और पढ़ाओ इसे, मां. अभी तो शुरुआत है,’ दीदी ने ताना सा मारा.

‘‘औरत की इज्जत औरत के पास ही सब से कम है. वह नहीं जानती कि इसी वजह से घरघर में उस की उपेक्षा होती है. दीदी और मां भी इस के इतर नहीं थीं. इस घटना का नतीजा यह हुआ कि मेरी पढ़ाई छुड़ा दी गई और मेरे लिए लड़का ढूंढ़ा जाने लगा, जैसे कि विवाह हर समस्या का समाधान हो. वैसे भी, बोझ जितना जल्दी उतर जाए उतना अच्छा, यह समाज का नियम है. और इस नियम को बनाने वाले भी पुरुष ही होंगे. जब तक हम किसी क्रांति को पैदा करने में असमर्थ हैं, तब तक समाज के विधान को सिर झुका कर स्वीकार करना ही होगा. यही मैं ने भी किया.

‘‘अजय एक सरकारी बैंक में कार्यरत थे, शादी कर के मैं भोपाल आ गई. गहन अंधकार में ही प्रकाश की किरणें घुली रहती हैं, यह सोच कर मैं ने अपने नवजीवन में प्रवेश किया. परंतु शादी की पहली रात मैं अजय के व्यवहार से दुखी हो गई.

‘‘‘सुनो, अपनी सुंदरता का घमंड मुझे मत दिखाना. मेरी पत्नी हो, अपनी औकात कभी मत भूलना. और हां, ज्यादा ताकझांक करने की जरूरत नहीं है. मेरी नजर रहेगी तुम पर. समझ गईं,’ पति महोदय ऐसा बोले तो मैं बोली, ‘यह क्या कह रहे हैं आप? मैं आप की पत्नी हूं.’

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बहुत देर कर दी: भाग 4- हानिया की दीवानी कोन थी

रात को गजाला हानिया के पास आई और उस ने साफसाफ कह दिया कि वह अली को पसंद करती है. उस से उस की अच्छी अंडरस्टैंडिंग है, इसलिए अली के रिश्ते को मंजूरी दे दी जाए. अब हानिया की समझ में आया, इसी वजह से उस ने अमान को ‘नहीं’ कह दिया था. रूमी उस की दोस्त है. उस की अली से मुलाकात हुई होगी. दोनों एकदूसरे को पसंद करते होंगे. पर यह बात वह सलमान को बता कर बेटी को नीचा नहीं दिखाना चाहती थी. उस ने और जीशान ने अली के खानदान, उस के रखरखाव की इतनी तारीफ की कि आधेअधूरे मन से सलमान को अली के रिश्ते के लिए हां कहना पड़ा.

शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. सलमान खूब धूमधाम से शादी करना चाहता था. हानिया ने भी कपड़ेजेवर सभीकुछ बहुत कीमती व अच्छा चुना. ताकि अब उस पर कोई इलजाम न आए. सलमान सब देख कर खुश तो बहुत हुआ पर मुंह से तारीफ न की. लेकिन इतना जरूर कहा, ‘‘मैं तो अमान को बेटी देना चाहता था, खूब रईस खानदान था. मेरी बेटी ऐश करती. सब से बड़ी बात इकलौता बेटा था. सबकुछ गजाला का ही होता. पर अपनीअपनी सोच है. ठीक है अली डाक्टर है, इसलिए उसे बेटी दे दी. आज भी तुम उसे अपनी बेटी न समझ सकीं. इतने दौलतमंद घराने को छोड़ कर डाक्टर के यहां बेटी ब्याह दी.’’

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हानिया को लगा, उसे किसी ने शोलों में धकेल दिया हो. सारी उम्र की मेहनत व कुरबानी सब बेकार गई. उस ने बेबस आंखों से सलमान को देखा और सिर झुका लिया, कुछ कह कर वह बात बढ़ाना नहीं चाहती थी. जीशान भी वहीं था. वह गुस्से से होंठ काटने लगा. पर मां का खयाल कर के चुप रहा. आज तक हानिया अनुशा की जगह न ले सकी थी. मौत के 17-18 साल बाद भी अनुशा उस के दिल पर राज कर रही थी. शादी खूब अच्छे से हो गई. सभी रिश्तेदारों, मेहमानों ने खूब तारीफ की. हर किसी की जबान पर एक ही बात थी, ‘मां हो तो हानिया जैसी.’ इतनी तारीफें भी हानिया के होंठों पर हंसी न ला सकीं. एक रोबोट की तरह वह सारे काम निबटाती रही, मुसकरा कर लोगों से मिलती रही. विदाई से पहले उसे गजाला के पास बैठने का वक्त मिला. जैसे ही वह मां के गले लगी, बिलखबिलख कर रो पड़ी और दोनों हाथ जोड़ कर गजाला कहने लगी, ‘‘अम्मी, मुझे माफ कर दीजिए, आप ने मेरे लिए जो किया वह सगी मां भी नहीं कर सकती. आप ने मेरे लिए कितने उलाहने, कितने ताने, कितनी बातें सहीं. मेरी वजह से आप की जिंदगी एक अजाब बन गई. सिर्फ मेरी वजह से आप ने जीशान को होस्टल भेज दिया, अपनी ममता का गला घोंट दिया. अम्मी, मैं किसकिस बात के लिए आप से माफी मांगूं? मेरी अली से शादी पर भी कैसेकैसे इलजाम पापा ने आप पर लगाए. आप तो पापा की मरजी के अनुसार अमान से ही मेरी शादी पर राजी थीं. पर मेरे कहने पर मेरी पसंद पर आप को अपनी राय बदलनी पड़ी. और मेरा दिल रखने के लिए आप ने अली का नाम लिया. पापा आप से नाराज भी हुए पर मेरी खातिर आप अपनी बात पर अड़ी रहीं. अम्मी, मैं कैसे इतने एहसान उतार पाऊंगी? आप ने सगी मां से बढ़ कर मेरे लिए किया है.’’ एक बार फिर वह सिसक उठी. हानिया उसे चुप कराने लगी.

सलमान जो बेटी से मिलने कमरे में आ रहा था, बेटी की आवाज, ‘‘अम्मी, मुझे माफ कर दो…’’ सुन कर बाहर ही रुक गया. बेटी के मुंह से हकीकत और मां की तारीफ सुन कर जैसे वह शर्म से पानीपानी हो रहा था. उस ने हानिया के साथ क्याक्या न जुल्म किए, कितना अपमान किया, कैसेकैसे इलजाम न लगाए पर वह खामोश, सब सुनती रही, सहती रही. सलमान बेटी के मुंह से अली के बारे में सुन कर बहुत शर्मिंदा हुआ. इस के लिए भी उस ने हानिया को दोष दिया था. सच में हानिया ने सलमान और गजाला के लिए अपनी परवा न की. घर का माहौल न बिगड़े, उस ने मासूम बच्चे को होस्टल भेज दिया. कैसी अंधी मुहब्बत थी सलमान की अनुशा और गजाला के लिए कि वह जीतीजागती चाहने वाली बीवी की मुहब्बत पैरों तले रौंदता रहा और मरी हुई बीवी का दम भरता रहा. आज उसे एहसास हो रहा था, हानिया उस के लिए कितनी जरूरी है. कितनी अच्छी तरह उस ने उस की गृहस्थी चलाई. दिल में हानिया की मुहब्बत तो सिर उभार रही थी, चाहत तो कब से पनप रही थी पर वह मानने को राजी न था. अपनी गलती, अपने जुल्म, अपनी लापरवाही पर उसे बड़ी शर्मिंदगी हो रही थी. उस ने इरादा कर लिया कि वह जल्द ही हानिया से अपनी गलतियों की माफी मांग लेगा. उसे उस का सही मुकाम व इज्जत देगा. जो तकलीफें उस ने उठाई हैं उतने ही सुख उसे देगा.

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हानिया उसी वक्त गजाला को समझाती हुई दरवाजे से बाहर ला रही थी. सलमान ने आगे बढ़ कर बेटी को गले लगाया. गजाला बाप से मिल कर फूटफूट कर रोई. सलमान भी रो पड़े, दिल भारी हो गया. विदाई के बाद घर में बेहद सन्नाटा हो गया. एक अजीब सी उदासी पसर गई. मंजूर और फैमिली दूसरे दिन जाने वाले थे. हानिया घर समेट रही थी, पता नहीं कब सोई. दूसरे दिन सुबह सलमान की आंख देर से खुली. नाश्ते की टेबल पर सब उन का इंतजार कर रहे थे. नाश्ता कर के सब बातें करते रहे. मंजूर वगैरा अपनी तैयारी करने के लिए उठ गए. सलमान उठ कर अपने कमरे में आया. कमरा हमेशा की तरह साफसुथरा महकता हुआ मिला. उस का दिल खुश हो गया. उसे याद आया, ‘हानिया कितनी ही थकी हुई हो, कितनी ही देर से सोई हो पर सवेरे कमरा इसी तरह चमकतादमकता मिलता था.’ उस ने सोचा कि आज वह हानिया का खूब शुक्रिया अदा करेगा. तारीफ कर के उस का जी खुश कर देगा.

हानिया उसी वक्त सूटकेस खींचती स्टोर से बाहर निकली और सलमान के सामने खड़ी हो गई. उस की आंखों में निश्चय की चमक और विश्वास था. उस ने धीरेधीरे बात कहना शुरू किया, ‘‘सलमान, आज आप से मुझे जरूरी बात करनी है. आप ने शादी की पहली रात ही मुझे बता दिया था कि आप सिर्फ गजाला के लिए मुझे ब्याह कर लाए हैं. उस के बाद भी कभी आप ने मुझे गजाला की मां नहीं समझा. शक और वहम आप को भरमाते रहे. आप ने कभी भी मुझे बीवी की इज्जत और मुहब्बत नहीं दी. ‘‘अब आप की बेटी इस घर से विदा हो गई है. मेरी जिम्मेदारी खत्म हो गई. अब आप को और आप के घर को मेरी जरूरत नहीं है. मैं अपनी अम्मी के साथ जा रही हूं. इतने अरसे तक मैं ने अपने बेटे को खुद से दूर रखा. उसे मां की मुहब्बत से वंचित रखा. अब मैं उस के पास रह कर उस का पूरा हक अदा करूंगी. मेरा उस के प्रति भी कोई फर्ज है जो मैं पूरा करना चाहती हूं. उस के हिस्से की मुहब्बत उसे दूंगी. आप अब मुझे इजाजत दीजिए.’’ सलमान को लगा जैसे किसी ने उस के पांवों के नीचे से जमीन खींच ली हो. वह अब हानिया के बिना जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता था. वह जल्दी से बोल उठा, ‘‘हानिया, मेरी बात सुनो, मैं अपनी गलतियों पर शर्मिंदा हूं. मैं मानता हूं मैं ने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की है. पर मुझे इस तरह छोड़ कर न जाओ. मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है.’’

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हानिया ने अटल लहजे में जवाब दिया, ‘‘जब मुझे आप की जरूरत थी तब आप ने साथ न दिया. अब मुझे आदत हो चुकी है. मैं ने फैसला कर लिया है, मैं जीशान के पास रहूंगी. मैं जा रही हूं. अब मुझे आप की कोई दलील रोक नहीं सकेगी.’’ यह कह कर, सूटकेस ले कर वह कमरे से बाहर निकल गई. बाहर मंजूर, जीशान सभी तैयार खड़े थे. वह उन लोगों के साथ गाड़ी में बैठ गई. सलमान देखता रह गया.

बहुत देर कर दी: भाग 3- हानिया की दीवानी कोन थी

वह मंजूर के साथ बैठ कर बातें कर रही थी. साढ़े 7 बजे के करीब सलमान औफिस से आ गया. चाय वगैरा पी कर उस ने गजाला के बारे में पूछा. जैसे ही उसे पता चला, गजाला अपनी दोस्त के पेरैंट्स के साथ फंक्शन में गई है और अब तक नहीं आई है, उस का पारा चढ़ गया. ‘‘हानिया, तुम्हें गजाला की जरा भी फिक्र नहीं है. साल में 1-2 बार ही उस के स्कूल जाना पड़ता है. तुम वह भी नहीं करतीं. आखिर, तुम्हें जाने में क्या तकलीफ थी?’’ हानिया ने उसे जीशान की तबीयत के बारे में बताया कि उसे ऐडमिट करना पड़ा था.’’ जवाब मिला, ‘‘उसे अम्मा देख लेतीं. तुम्हें उसे अकेले नहीं भेजना था. 8 बज रहे हैं, अभी तक पता नहीं है उन सब का?’’

उसी वक्त कार रुकने की आवाज आई. दोनों लपक कर गेट पर पहुंचे. गजाला गाड़ी से उतर रही थी. उस के हाथ पर पट्टी बंधी थी. अंकलआंटी को भी थोड़ी चोट लगी थी. उन लोगों ने बताया कि वे लोग फंक्शन के बाद स्कूल से लौट रहे थे. ट्रैफिक बहुत था. इसी बीच किसी जीप ने उन की गाड़ी को टक्कर मारी और तेजी से निकल गई. वह तो गनीमत रही कि किसी को ज्यादा चोट नहीं आई. गजाला के हाथ पर चोट लगी, हलका सा हेयरलाइन फ्रैक्चर है. वे लोग डाक्टर को दिखा कर आए थे. वे लोग चले गए. हानिया ने गजाला को दूध और दवा दे कर सुला दिया. सलमान का गुस्सा किसी तरह कम नहीं हो रहा था. एक हंगामा खड़ा कर दिया. हानिया की इतने सालों की मुहब्बत, मेहनत सब भुला दी.

‘‘मुझे मालूम था मेरी बच्ची इतनी तकलीफ में सिर्फ तुम्हारी वजह से है. तुम्हें अपने बेटे की पड़ी थी. दिखा दिया न तुम ने सौतेलापन? उस का खयाल होता तो तुम कभी उसे अकेली न भेजतीं.’’

इतनी शिकायतें, इतनी बदगुमानियां जैसे किसी ने उसे आसमान से जमीन पर पटक दिया हो. ताई ने सलमान को रोकासमझाया. मंजूर ने कहा, ‘‘भाईजान, ये सब तो होता रहता है. बच्चे गिरपड़ कर ही बड़े होते हैं.’’ जब तक गजाला के हाथ में पट्टी रही, सलमान का मूड औफ ही रहा. यह तो अच्छा हुआ कि हाथ जल्दी ठीक हो गया और कोई नुक्स न रहा.

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दिनरात का पहिया घूमता रहा. हानिया हद से ज्यादा गजाला का खयाल रखती. इस चक्कर में जीशान उपेक्षित भी हो जाता पर वह भी शायद बाप का मिजाज और मां की मजबूरी समझ गया था. कभी कोई शिकायत न करता. जीशान भी स्कूल जाता. दोनों के स्कूल अलगअलग थे पर टाइम एक ही था. सुबह के वक्त दोनों को तैयार करना, लंचबौक्स साथ देना, एक हड़बड़ी सी मच जाती. उस दिन भी वह इन्हीं कामों में लगी थी कि मंजूर उस से मिलने आया. वह वापस पुणे जा रहा था. वह कई दिनों से अम्मा के पास भी न जा सकी थी. बच्चों को नाश्ता दे कर वह वहीं बैठ कर बातें करने लगी. उसी वक्त जीशान दूध का गिलास उठा रहा था कि वह उस के हाथ से फिसल गया. गजाला के हाथ पर कुछ छींटे पड़े हालांकि दूध ज्यादा गरम न था पर सलमान फिर शुरू हो गए. गजाला कहती रही कि कुछ खास नहीं जला पर वह उस पर जरा सी ज्यादती बरदाश्त नहीं कर पाता था. एक लंबे भाषण और इलजाम के बाद हंगामा शांत हुआ.

सलमान के जाने के बाद मंजूर ने बहन को समझाया, ‘‘सलमान भाई को लगता है गजाला उन की महबूबा अनुशा की निशानी है. तुम उस से जरा भी ज्यादती न करो. तुम तो उसे बहुत प्यार करती हो पर उन्हें लगता है तुम्हारा ध्यान जीशान में है. इसलिए ऐसी घटनाएं घटती हैं. मुझे लगता है कि समस्या जीशान की वजह से ही उठती है. मेरी जौब पुणे में है. वहां बहुत अच्छेअच्छे स्कूल हैं. मैं नए सैशन में उस का ऐडमिशन करा देता हूं. पढ़ाई भी अच्छी होगी. जीशान यहां एक कौंपलैक्स में जी रहा है. अगर यह कौंपलैक्स बढ़ गया तो वह बाप व बहन से नफरत करने लग जाएगा. बेहतर है आप उसे पुणे भेज दो. मैं उस की पूरी देखरेख करूंगा और औरंगाबाद से पुणे ज्यादा दूर भी नहीं है.’’

हानिया को उस की बात समझ में आ गई. उस ने रजामंदी दे दी. वह धीरेधीरे जीशान को दिमागीतौर पर तैयार करने लगी. उस ने यह बात सलमान और ताई से कही. ताई तुरंत विरोध करने लगीं. सलमान ने कहा, ‘‘जैसा ठीक समझो, वह करो. मुझे कोई एतराज नहीं है.’’ उस ने समझाबुझा कर ताई व गजाला को भी राजी कर लिया. नए सैशन में जीशान मंजूर के साथ पुणे चला गया. घर में जैसे सन्नाटा छा गया. हानिया के दिल का एक कोना एकदम वीरान हो गया. 8 साल का मासूम बच्चा मां से जुदा हो गया. यह एक मां की कड़ी परीक्षा थी. शादी को खुशहाल बनाने की उसे यह कीमत चुकानी पड़ी. हालात पहले से बेहतर हो गए. सलमान का बेवजह का गुस्सा खत्म हो गया. अब हानिया पूरी तरह से गजाला की परवरिश में लग गई. गजाला बड़ी हो रही थी. उस पर ज्यादा ध्यान देना भी जरूरी था. जीशान छुट्टियों में आता रहता. उस का दिल होस्टल में लग गया था. पर मां की, घर की कमी तो महसूस होती ही थी. जिंदगी गुजरती रही. ताई कुछ दिन बीमार रहीं, फिर चल बसीं. हानिया को लगा, उस के सिर से मुहब्बत का साया हट गया. उन्होंने उसे हमेशा मां से बढ़ कर प्यार दिया था. वे उस के दुख को खूब समझती थीं.

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मंजूर की शादी थी. वह हफ्तेभर के लिए मायके गई. खूब अच्छी लड़की मिली, शादी भी अच्छे से हो गई. शादी के बाद हानिया के मम्मीपापा भी पुणे चले गए. गजाला बीए फाइनल में आ गई. जीशान ने 12वीं मैरिट में पास किया. उस का पुणे मैडिकल कालेज में ऐडमिशन हो गया. जीशान नानानानी के पास रह कर मैडिकल की पढ़ाई करने लगा. उस दिन सलमान बहुत खुशीखुशी घर आया और बताया कि उन का दोस्त जो अमेरिका में था, अब यहां आ कर सैट हो गया है. हमीर ने अपना बिजनैस शुरू किया है. उस का बेटा अमान एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब कर रहा है. उन का घर मुंबई में है, वहीं सब साथ रह रहे हैं. अमान बहुत स्मार्ट और समझदार है. हमीर ने उस का रिश्ता गजाला के लिए दिया है. यह फोटो भी भेजा है. तुम फोटो दिखा कर गजाला से उस की मरजी मालूम कर लो ताकि बात तय की जा सके.

हानिया ने गजाला को फोटो दिखाया और उस की मरजी पूछी तो वह एकदम चुप हो गई, फिर बोली, ‘‘अम्मी, आप पापा को बोल दो कि मैं इतनी जल्दी शादी नहीं करना चाहती.’’ सलमान ने सुना तो गुस्से में आ गया, कहने लगा, ‘‘इतना अच्छा रिश्ता है, बिजनैस क्लास फैमिली है, गजाला वहां राज करेगी. पता नहीं क्यों आजकल की लड़कियां बस अपनी मरजी चलाना चाहती हैं. मैं खुद बात करूंगा.’’

सलमान की गजाला से बात करने की नौबत ही नहीं आई, उस के पहले गजाला की सहेली रूमी के मम्मीपापा अपने डाक्टर बेटे का रिश्ता ले कर आ गए. रूमी के पापा शहर के माने हुए सर्जन थे. उन का खुद का अस्पताल था. उन का बेटा अली भी उन्हीं के साथ था. काफी अच्छा खानदान था. दूसरा बेटा भी मैडिकल में था. एक बेटी रूमी थी जो गजाला के साथ थी. अली देखने में काफी स्मार्ट और मिलनसार था. सभी को खूब पसंद आया. जीशान तो अली के ही पक्ष में था क्योंकि वह खुद भी मैडिकल में था. सलमान खामोश हो गया. दोनों रिश्ते अच्छे थे पर सलामन का इरादा अपने दोस्त के बेटे अमान के लिए था. हानिया ने सोच कर जवाब देने को कह दिया.

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