लेखक- प्रमोद कुमार शर्मा
लगभग 1 साल तक पाल को कहीं नौकरी न मिली. सुषमा ने एक दुकान में काम करना शुरू कर दिया था. पाल को कुछ पैसे ‘स्टेट’ से सहायता के रूप में मिलते थे. सो, उन दोनों के खर्च के लिए काफी थे. परंतु उन पर जो पुराने बिल चढ़े हुए थे, उन का भुगतान बहुत ही मुश्किल था. जब 4 महीने तक पाल ने कार की किस्त न दी तो बैंक ने कार ले ली. पाल बहुत ही निरुत्साहित सा हो गया था. मैं इधर कंपनी के काम से बाहर रहने लगा था. कभी महीने में 1-2 बार ही उस से बातें हो पाती थीं.
पिछली बार जब उस से फोन पर बातें हुईं तो उस ने बताया कि अरुण भी अब उन के पास ही रहने लगा है. खाना वगैरा तो वह बाहर ही खाता है, रात में केवल सोने के लिए आता है. किराए का आधा पैसा देता है. इसलिए कुछ राहत मिली है. उन के पास 2 शयनकक्ष थे, सो परेशानी की कोई बात नहीं थी.
अरुण पढ़ने में बहुत तेज था. उस ने डेढ़ वर्ष में ही एमएस कर ली. यूनिवर्सिटी की तरफ से ही उसे एक कंपनी में जूनियर इंजीनियर की नौकरी मिल गई. अब वह कहीं और जा कर रहने लगा.
एक बार शनिवार को हम खरीदारी करने गए तो हमें सुषमा और अरुण साथसाथ नजर आए. हम ने जब उन्हें पुकारा तो वे ऐसे हड़बड़ाए जैसे कि कोई चोरी करते पकड़े गए हों.
‘‘रेणु, तुम आजकल हमारे घर नहीं आतीं?’’ सुषमा ने बनावटी गुस्से से कहा.
‘‘ये आजकल औफिस के काम से बाहर बहुत जाते हैं. जब शनिवार, रविवार की छुट्टी होती है तो बहुत थक जाते हैं,’’ रेणु ने उत्तर दिया.
हम चूंकि खरीदारी कर चुके थे, इसलिए रेणु ने कहा, ‘‘सुषमा, मैं तुम्हें फोन करूंगी और फिर मिलने का प्रोग्राम बनाएंगे.’’
हम वापस घर आ गए. कोई विशेष काम था नहीं, सो रेणु ने कहा, ‘‘चलो, आज सुषमा के घर बिना सूचना दिए ही चलते हैं.’’
शाम हो चली थी और हम पाल के यहां जा पहुंचे. घंटी बजाई तो पाल ने ही दरवाजा खोला. अंदर कहीं जब सुषमा नजर न आई तो रेणु ने पूछा, ‘‘सुषमा अभी तक नहीं आई?’’
पाल बोला, ‘‘भाभीजी, वह शनिवार व रविवार को देर तक काम करती है.’’ पाल के मुख से यह सुन कर बड़ा अजीब सा लगा. मैं ने रेणु को आंख से कुछ भी न बोलने का इशारा किया.
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पाल ने हमें बैठने को कहा और चाय बनाने चला गया. इतने में ही फोन आया तो पाल ने उठाया. उस के बात करने से पता चला कि वह सुषमा का ही फोन है. उस ने उस से मुश्किल से 1 मिनट बात की होगी. हमें चाय देते हुए बोला, ‘‘सुषमा का ही फोन था. उसे अभी आने में 2 घंटे और लगेंगे.’’ पाल ने हम से बहुत कहा कि हम खाने के लिए रुकें, पर हम ने मना कर दिया.
रास्ते में रेणु ने कहा, ‘‘यह माजरा क्या है?’’
मैं ने कहा, ‘‘दूसरों के मामलों में हमें दखल नहीं देना चाहिए.’’
रेणु इस बार बहुत गुस्से में बोली, ‘‘पाल तुम्हारा गहरा दोस्त है, अपनी आंखों से आज तुम ने सबकुछ देखा है. उस का घर, परिवार बरबाद हुआ जा रहा है और तुम कह रहे हो कि हमें दूसरों के मामलों में दखल नहीं देना चाहिए. कैसे दोस्त हो तुम?’’
रेणु की बात में दम था. मैं ने जब उस से पूछा कि हमें क्या करना चाहिए तो इस का उत्तर उस के पास भी नहीं था. वह बोली, ‘‘जो कुछ भी हो, हमें पाल से बात करनी चाहिए.’’
‘‘हां, पर कैसे?’’
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि पाल से कैसे बात करूं? कोई प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं था कि उस से सुषमा और अरुण के नाजायज संबंध बताऊं. मैं ने रेणु से कहना चाहा कि जो हम ने देखा है, वह गलत भी तो हो सकता है, पर हिम्मत न हुई. रेणु उस समय गुस्से में थी.
लगभग 1 सप्ताह यों ही बीत गया. अगले शनिवार को 10-11 बजे पाल का फोन आया कि हम खरीदारी करने जाएं तो उसे भी साथ लेते जाएं.
मैं ने उस से 3-4 बजे तैयार रहने को कह दिया. हम उसे ले कर सुपर मार्केट गए तथा पूरे सप्ताह का राशन खरीदा. पाल ने भी अपना सामान खरीदा.
‘‘जहां सुषमा काम करती है, वहां चलते हैं. मुझे वहां से कुछ सामान खरीदना है,’’ रेणु ने कहा.
हम वहां गए. जिस काउंटर पर सुषमा काम करती थी, वह वहां नहीं थी. पाल ने उस के बौस से जा कर पूछा तो पता चला कि सुषमा तो पिछले 2 महीने से शनिवार व रविवार को काम करने ही नहीं आ रही है. पाल को यह जान कर बड़ा धक्का लगा. वह बोला, ‘‘यदि वह यहां काम करने नहीं आती है तो फिर कहां अपना मुंह काला करवाने जाती है?’’
मैं ने पाल को धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘हो सकता है, उस ने कहीं और पार्टटाइम नौकरी ढूंढ़ ली हो.’’
‘‘पर मुझे तो बताना चाहिए था.’’
मैं ने उसे समझाया कि उसे घर जा कर सुषमा से प्यार से बात करनी चाहिए. हम ने उसे उस के फ्लैट पर छोड़ा.
वापसी में कार में बैठते ही रेणु मुझ पर बिफर पड़ी, ‘‘कैसे दोस्त हो तुम. सबकुछ पता होते हुए भी चुप क्यों रहे?’’
मैं ने उस से केवल इतना ही कहा, ‘‘आज की रात इन दोनों पर बड़ी भारी पड़ेगी.’’
अगले दिन सुबह 10 बजे के आसपास मैं ने पाल को फोन किया. मैं ने पूछा, ‘‘तुम ने रात सुषमा से बात की?’’
वह बोला, ‘‘हां, वह मुझे छोड़ कर चली गई है.’’
‘‘कहां?’’ मैं ने हैरानी से पूछा तो वह बोला, ‘‘अपने नए खसम के पास और कहां?’’
‘‘पाल, जरा शांत हो कर बताओ,’’ मैं ने कहा तो वह बोला, ‘‘मैं शांति से ही बात कर रहा हूं. उस ने मुझे तलाक देने का फैसला कर लिया है. वह अरुण के साथ नई शादी रचाएगी.’’
‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’
‘‘मैं बिलकुल वही कह रहा हूं जो उस ने रात में मुझ से कहा था,’’ पाल बोलता ही रहा, ‘‘जब रात को 10 बजे वह घर आई और मैं ने उस से पूछा कि यह सब क्या हो रहा है तो उस ने बड़े सहज स्वर में कह दिया कि वह मुझ जैसे बेकार व निकम्मे आदमी के साथ नहीं रह सकती.’’
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पाल बोला, ‘‘मैं ने उसे फोन किया था, पर वह बात करने को ही तैयार नहीं. अरुण ने भी साफ शब्दों में कह दिया कि अब मेरे और सुषमा के बीच में बात करने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा है, और मैं उस के यहां फोन न करूं.’’
पाल बहुत टूटा सा लग रहा था. मुझे उस की हालत पर बहुत दुख हो रहा था, पर मैं कुछ भी नहीं कह पा रहा था.
दोपहर में भोजन के समय मैं ने उसे फोन किया, ‘‘यदि तुम्हें कुछ पैसों की जरूरत हो तो मांगने में संकोच न करना.’’
शाम को मैं उसे फिर अपने घर ले आया तथा एक हजार डौलर का चैक दे दिया.
एक दिन अरुण व सुषमा दोनों पाल की अनुपस्थिति में उस के फ्लैट में आए तथा फर्नीचर वगैरा सब उठवा कर ले गए. पाल के पास अब कुछ नहीं बचा था.
3-4 सप्ताह बाद पाल के पास सुषमा के वकील से तलाक के कागज आए और उस ने बिना किसी शर्त के उन पर हस्ताक्षर कर के भेज दिए. चूंकि तलाक दोनों को स्वीकार था, इसलिए कोर्ट से बिना देरी के उन का तलाक स्वीकार हो गया. यह सब इतना जल्दी घटित हुआ कि विश्वास ही नहीं हुआ.
अभी 1 सप्ताह ही बीता था कि एक दिन पाल का मेरे पास औफिस में फोन आया, ‘‘दिनेश, मुझे कल तुम्हारी कार चाहिए.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरा कल सुबह एक कंपनी में 9 बजे इंटरव्यू है. यदि मैं समय पर नहीं पहुंचा तो नौकरी हाथ से निकल जाएगी.’’
‘‘ठीक है. तुम सुबह मुझे औफिस छोड़ जाना और मेरी कार ले जाना,’’ मैं ने उस से यह कह फोन बंद कर दिया.
अगले दिन वह मुझे औफिस छोड़ कर मेरी कार ले गया तथा शाम को जब आया तो बोला, ‘‘यार, तुम लोगों की मदद से नौकरी मिल गई.’’
मैं ने उसे बहुतबहुत बधाई दी. 1 महीने तक मैं उसे हर सुबह उस के नए औफिस में छोड़ आता. जैसे ही उसे पहली तनख्वाह मिली, उस ने एक कार खरीद ली और धीरेधीरे सामान्य सा होने लगा. वह अब अकसर शाम को हमारे यहां आने लगा. रात 9-10 बजे तक बैठता, खाना खाता और अपने घर लौट जाता.
6 महीने ऐसे ही गुजर गए. पाल की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी. जिस कंपनी में वह काम करता था, उस के मालिक कंपनी की एक शाखा भारत में खोलने की सोच रहे थे. उन्होंने पाल को 1 महीने के लिए दिल्ली जाने को कहा तो वह वहां चला गया.
लगभग 1 महीने बाद जब वह वापस आया तो मुझे फोन किया कि उस ने फिर से शादी कर ली है और उस की पत्नी उस के साथ ही आई है. उस ने अगले शनिवार को हमें घर आने को कहा.
‘‘भाईसाहब, थोड़ी और पकौड़ी लीजिए. आप ने तो कुछ खाया ही नहीं. मैं ने स्वयं बनाई हैं. क्या अच्छी नहीं बनीं?’’ पाल की पत्नी ऊषा ने जब मुझ से यह कहा तो मैं अचानक उस दुखद स्मृति से चौंका, जो पाल की पुरानी विवाहित जिंदगी से जुड़ी थी और मैं उसी में खोया हुआ था.
‘‘नहींनहीं, बहुत अच्छी बनी हैं,’’ मैं ने कहा तो पाल ऊषा से बोला, ‘‘दिनेश को यदि पकौडि़यों के साथ बियर मिल जाती तो यह और भी खाता.’’
‘‘यह सब इस घर में नहीं होगा. यह घर मेरे प्यार का प्रेरणा स्थल है. ऐसे स्थान पर मादक द्रव्य नहीं लाए जाते,’’ ऊषा ने तपाक से कहा तो पाल कुछ न बोला.
थोड़ी देर में फोन की घंटी बजी. पाल ने रिसीवर उठाया, ‘‘हां, मैं धर्मपाल बोल रहा हूं,’’ उस के बाद उस ने फोन पर कुछ बातें कीं. जब हमारे पास आया तो रेणु बोली, ‘‘आप का नाम फिर से धर्मपाल हो गया क्या?’’
‘‘हां, भाभीजी, ऊषा को यही पसंद है.’’
खाना खा कर जब हम घर चले तो कार में बैठते ही रेणु ने कहा, ‘‘अब मुझे तुम्हारे मित्र के बारे में कोई चिंता नहीं है. ऊषा उसे आदमी बना कर ही छोड़ेगी.’’
मैं ने कहा, ‘‘जैसे तुम ने मुझे बना दिया.’’
वह कुछ न बोली तो मैं ने कहा, ‘‘चलो, अब कल देर तक सोएंगे.’’
‘‘तुम कभी नहीं बदलोगे,’’ कहते हुए वह मुसकरा पड़ी.
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