बकरा: भाग 3- क्या हुआ था डिंपल और कांता के साथ

लेखक- कृष्ण चंद्र महादेविया

सब से पहले गुर ने पिंडी की पूजा की, फिर दूसरे खास लोगों को पूजा करने को कहा गया. चेला और मौहता व दूसरे कारदार जोरजोर से जयकारा लगाते थे. ढोलनगाड़ातुरही बजने लगे थे. गुर खालटू कनखियों से चारों ओर भी देख लेता था और गंभीर चेहरा बनाए खास दिखने की पूरी कोशिश करता था. माधो डिंपल के साथ मंदिर से थोड़ी दूर अपराधी की तरह खड़ा था. कांता भी अपनी दादी के साथ एक पेड़ के नीचे खड़ी थी. माधो के बकरे को पिंडी के पास लाया गया था. उस की पीठ पर गुर ने पानी डाला, तो बकरे ने जोर से पीठ हिलाई. चारों ओर से लटूरी देवता की जयजयकार गूंज गई.

छांगू चेले ने सींगों से बकरे को पकड़ा था. एक मोटे गांव वाले ने दराट तेज कर पालकी के पास रखा था. उसे बकरा काटने के लिए गुर के आदेश का इंतजार था. अचानक कांता जोरजोर से चीखने. गरदन हिलाते हुए उछलने भी लगी. उस के बाल बिखर गए. दुपट्टा गिर गया था. सभी लोग उस की ओर हैरानी से देखने लगे थे. कांता की दादी बड़े जोर से बोली, ‘‘लड़की में कोई देवी या फिर कोई देवता आ गया है. अरे, कोई पूछो तो सही कि कौन लड़की में प्रवेश कर गया है?’’ गुर, चेला और दूसरे कारदार बड़ी हैरानी और कुछ डरे से कांता की ओर देखने लग गए. गुर पूजापाठ भूल गया था.

एक बूढ़े ने डरतेडरते पूछा, ‘‘आप कौन हैं जो इस लड़की में आ गए हैं? कहिए महाराज…’’

‘‘मैं काली हूं. कलकत्ते वाली. लटूरी देवता से बड़ी. सारे मेरी बात ध्यान से सुनो. आदमी के चलने से रास्ते कभी अपवित्र नहीं होते, न कोई देवता नाराज होता है. मैं काली हूं काली. आज में झूठों को दंड दूंगी. माधो और उस की बेटी पर झूठा इलजाम लगाया गया है. सुनो, लटूरी देवता कोई बलि नहीं ले सकता. अभी मेरी बहन महाकाली भी आने वाली है. आज सब के सामने सच और झूठ का फैसला होगा,’’ कांता उछलतीकूदती चीखतीचिल्लाती पिंडी के पास पहुंच गई.

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अचानक तभी डिंपल भी जोर से चीखने और हंसने लगी. उस के बाल खुल कर बिखर गए. अब तो गांव वाले और हैरानपरेशान हो गए. इस गांव के ही नहीं, बल्कि आसपास के बीसियों गांवों में कभी ऐसा नहीं हुआ था कि किसी औरत में देवी आई हो. डिंपल की आवाज में फर्क आ गया था. एक बुढि़या ने डरतेडरते पूछा, ‘‘आप कौन हैं, जो इस सीधीसादी लड़की में प्रवेश कर गए हो? हे महाराज, आप देव हैं या देवी?’’ डिंपल भी चीखतीउछलती लटूरी देवता की पिंडी के पास पहुंच गई थी. वह जोर से बोली, ‘‘मैं महाकाली हूं. आज मैं पाखंडियों को सजा दूंगी. अब काली और महाकाली आ गई हैं, अब दुष्टों को दंड जरूर मिलेगा,’’ कह कर उस ने पिंडी के पास से दराट उठाया और बकरे का सींग पकड़े छांगू के हाथ पर दे मारा.

छांगू चेले की उंगलियों की 2 पोरें कट कर नीचे गिर गईं. वह दर्द के मारे चिल्लाने और तड़पने लगा. ‘‘बकरे, जा अपने घर, तुझे कोई नहीं काट सकता. जा, घर जा,’’ डिंपल ने उछलतेकूदते कहा.

बकरा भी माधो के घर की तरफ दौड़ गया. यह सब देख कर लोग जयकार करने लगे. अब तक तो सभी ने हाथ भी जोड़ लिए थे. बच्चे तो अपने मांओं से चिपक गए थे.

डिंपल ने दराट लहराया फिर चीखते और उछलते बोली, ‘‘बहन काली, गुर और उस के झूठे साथियों से पूछ सच क्या है, वरना इन्हें काट कर मैं इन का खून पीऊंगी.’’ ‘‘जो आज्ञा. खालटू गुर, जो पूछूंगी सच कहना. अगर झूठ कहा, तो खाल खींच लूंगी. आज सारे गांव के सामने सच बोल.’’

डिंपल ने एक जोर की लात खालटू को दे मारी. दूसरी लात कांता ने मारी, तो वह गिरतेगिरते बचा. गलत आदमी भीतर से डराडरा ही रहता है. डर के चलते ही खालटू ने सीधीसादी लड़कियों में काली और महाकाली का प्रवेश मान लिया था. छांगू की कटी उंगलियों से बहते खून ने उसे और ज्यादा डरा दिया था, जबकि वह खुद में तो झूठमूठ का देवता ला देता था. लातें खा कर मारे डर के वह उन के पैर पड़ गया और गिड़गिड़ाया ‘‘मुझे माफ कर दीजिए माता कालीमहाकाली, मुझे माफ कर दीजिए.’’

दर्द से तड़पते छांगू चेले ने अपनी उंगलियों पर रुमाल कस कर बांध लिया था. गुर को लंबा पड़ देख कर डर और दर्द के मारे वह भी रोते हुए उन के पैर पड़ गया, ‘‘मुझे भी माफी दे दो माता.’’ डिंपल ने गुर की पीठ पर कस कर लात मारी, ‘‘मैं महाकाली खप्पर वाली हूं. सच बता रे खालटू या तेरी गरदन काट कर तेरा सारा खून पी जाऊं,’’ डिंपल ने हाथ में पकड़ा दराट लहराया, तो वह डर के मारे कांप गया.

‘‘बताता हूं माता, सच बताता हूं. गांव वालो, माधो का बकरा खाने के लिए हम ने झूठमूठ की अफवाहें फैला कर माधो और डिंपल पर झूठा आरोप लगाया था. मुझ में कोई देवता नहीं आता है. मैं, चेला छांगू, मौहता भागू, कारदार सब से ठग कर माल ऐंठते थे. हम सारे दूसरों की औरतों पर बुरी नजर रखते थे. मुझे माफ कर दीजिए. आज के बाद मैं कभी बुरे काम नहीं करूंगा. मुझे माफ कर दीजिए.’’

डिंपल और कांता की 2-4 लातें और खाने से वह रो पड़ा. अब तो कारदार भी उन दोनों के पैरों में लौटने लगे थे.

‘‘तू सच बता ओ छांगू चेले, नहीं तो तेरा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा,’’ कांता ने जोर की ठोकर मारी तो वह नीचे गिर पड़ा, फिर उठ कर उस के पैर पकड़ लिए.

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‘‘गांव के भाईबहनो, मैं तो चेला बन कर तुम सब को ठगता था. कई लड़कियों और औरतों को अंधविश्वास में डाल कर मैं ने उन से कुकर्म किया, उन से रुपएपैसे ऐंठे. मुझे माफ कर दीजिए माता महाकाली. आज के बाद मैं कभी बुरे काम नहीं करूंगा.’’

गुर, चेले, मौहता और कारदारों ने सब के सामने सच उगल दिया. डिंपल और कांता ने उछलतेचीखते उन्हें लातें मारमार कर वहां से भागने पर मजबूर कर दिया.

एक नौजवान ने पेड़ से एक टहनी तोड़ कर कारदार और मौहता भागू को पीट दिया. डिंपल और जोर से चीखी, ‘‘जाओ दुष्टो, भाग जाओ, अब कभी गांव मत आना.’’ वे सिर पर पैर रख कर भाग गए और 2 मील नीचे लंबा डग नदी के तट पर जीभ निकाले लंबे पड़ गए. उन की पूरे गांव के सामने पोल खुल गई थी. वे एकदूसरे से भी नजरें नहीं मिला पा रहे थे.

कांता ने उछलतेचीखते जोर की किलकारी मारते हुए गुस्से से कहा, ‘‘गांव वालो, ध्यान से सुनो. खशलोहार के नाम पर रास्ते मत बांटो, वरना मैं अभी तुम सब को शाप दे दूंगी.’’ ‘माफी काली माता, शांत हो जाइए. आप की जय हो. हम रास्ते नहीं बांटेंगे. माफीमाफी,’ सैकड़ों मर्दऔरत एक आवाज में बोल उठे. बच्चे तो पहले ही डर के मारे रोने लगे थे.

काली और महाकाली के डर से अब खशखश न थे और लोहार लोहार न थे, लेकिन वे सारे गुर खालटू, चेले, मौहता व कारदारों से ठगे जाने पर दुखी थे. ‘माफी दे दो महाकाली माता. आप दोनों देवियां शांत हो जाइए. हमारे मन का मैल खत्म हो गया है. शांत हो जाइए माता,’ कई औरतें हाथ जोड़े एकसाथ बोलीं.

‘‘क्या माफ कर दें बहन काली?’’

‘‘हां बहन, इन्हें माफ कर दो. पर ये सारे भविष्य में झूठे और पाखंडी लोगों से सावधान रहें.’’

‘हम सावधान रहेंगे.’ कई आवाजें एकसाथ गूंजी. कुछ देर उछलनीचीखने और दराट लहराने के बाद डिंपल ने कहा, ‘‘काली बहन, अब लौट चलें अपने धाम. हमारा काम खत्म.’’

‘‘हां दीदी, अब लौट चलें.’’

डिंपल और कांता कुछ देर उछलींचीखीं, फिर ‘धड़ाम’ से धरती पर गिर पड़ीं. काफी देर तक चारों ओर सन्नाटा छाया रहा. सब की जैसे बोलती बंद हो गई थी.

जब काफी देर डिंपल और कांता बिना हिलेडुले पड़ी रहीं, तो कांता की दादी ने मंदिर के पास से पानी भरा लोटा उठाया और उन के चेहरे पर पानी के छींटे मारे. वे दोनों धीरेधीरे आंखें मलती उठ बैठीं. वे हैरानी से चारों ओर देखने लगी थीं. फिर कांता ने बड़ी मासूमियत से अपनी दादी से पूछा, ‘‘दादी, मुझे क्या हुआ था?’’ ‘‘और मुझे दादी?’’ भोलेपन से डिंपल ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं. आज सच और झूठ का पता चल गया है. लूट और पाखंड का पता लग गया है. जाओ भाइयो, सब अपनेअपने घर जाओ.’’

धीरेधीरे लोग अपने घरों को लौटने लगे. दादी कांता का हाथ पकड़ कर बच्ची की तरह उसे घर ले गईं. डिंपल को उस की मां और बापू घर ले आए. शाम गहराने लगी थी और हवा खुशबू लिए सरसर बहने लगी थी. एक बार फिर डिंपल और कांता सुनसान मंदिर के पास बैठ कर ठहाके लगने लगी थीं.

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‘‘बहन महाकाली.’’

‘‘बोलो बहन काली.’’

‘‘आज कैसा रहा सब?’’

‘‘बहुत अच्छा. बस, अब कदम रुकेंगे नहीं. पहली कामयाबी की तुम्हें बधाई हो कांता.’’

‘‘तुम्हें भी.’’

दोनों ने ताली मारी, फिर वे अपने गांव और आसपास के इलाकों को खुशहाल बनाने के लिए योजनाएं बनाने लगीं. आकाश में चांद आज कुछ ज्यादा ही चांदनी बिखेरने लगा था.

प्यार का विसर्जन : भाग 3- क्यों दीपक से रिश्ता तोड़ना चाहती थी स्वाति

मैं पागलों सी सड़क पर जा पहुंची. चारों तरफ जगमगाते ढेर सारे मौल्स और दुकानें थीं. आते समय ये सब कितने अच्छे लग रहे थे, लेकिन अब लग रहा था कि ये सब जहरीले सांपबिच्छू बन कर काटने को दौड़ रहे हों. पागलों की तरह भागती हुई घर वापस आ गई और दरवाजा बंद कर के बहुत देर तक रोती रही. तो यह था फोन न आने का कारण.

मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि दीपक ने इतना बड़ा धोखा दिया. मैं भी एक होनहार स्टूडैंट थी. मगर दीपक के लिए अपना कैरियर अधूरा ही छोड़ दिया. मैं ने अपनेआप को संभाला. दूसरे दिन दीपक के जाने के बाद मैं ने उस बिल्ंिडग और कालेज में खोजबीन शुरू की. इतना तो मैं तुरंत समझ गई कि ये दोनों साथ में रहते हैं. इन की शादी हो गई या रिलेशनशिप में हैं, यह पता लगाना था. कालेज में जा कर पता चला कि यह लड़की दीपक की पेंटिंग्स में काफी हैल्प करती है और इसी की वजह से दीपक की पेंटिंग्स इंटरनैशनल लैवल में सलैक्ट हुई हैं. दीपक की प्रदर्शनी अगले महीने फ्रांस में है. उस के पहले ये दोनों शादी कर लेंगे क्योंकि बिना शादी के यह लड़की उस के साथ फ्रांस नहीं जा सकती.

तभी एक प्यारी सी आवाज आई, लगा जैसे हजारों सितार एकसाथ बज उठे हों. मेरी तंद्रा भंग हुई तो देखा, एक लड़की सामने खड़ी थी.

‘‘आप को कई दिनों से यहां भटकते हुए देख रही हूं. क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूं.’’  मैं ने सिर उठा कर देखा तो उस की मीठी आवाज के सामने मेरी सुंदरता फीकी थी. मैं ने देखा सांवली, मोटी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी. पता नहीं दीपक को इस में क्या अच्छा लगा. जरूर दीपक इस से अपना काम ही निकलवा रहा होगा.

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‘‘नो थैंक्स,’’ मैं ने बड़ी शालीनता से कहा.

मगर वह तो पीछे ही पड़ गई, ‘‘चलो, चाय पीते हैं. सामने ही कैंटीन है.’’ उस ने प्यार से कहा तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं चुपचाप उस के पीछेपीछे चल दी. उस ने अपना नाम नीलम बताया. मु?ो बड़ी भली लगी. इस थोड़ी देर की मुलाकात में उस ने अपने बारे में सबकुछ बता दिया और अपने होने वाले पति का फोटो भी दिखाया. पर उस समय मेरे दिल का क्या हाल था, कोई नहीं समझ सकता था. मानो जिस्म में खून की एक बूंद भी न बची हो. पासपास घर होने की वजह से हम अकसर मिल जाते. वह पता नहीं क्यों मुझ से दोस्ती करने पर तुली हुई थी. शायद, यहां विदेश में मुझ जैसे इंडियंस में अपनापन पा कर वह सारी खुशियां समेटना चाहती थी.

एक दिन मैं दोपहर को अपने कमरे में आराम कर रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला. सामने वह लड़की दीपक के साथ खड़ी थी. ‘‘स्वाति, मैं अपने होने वाले पति से आप को मिलाने लाई हूं. मैं ने आप की इतनी बातें और तारीफ की तो इन्होंने कहा कि अब तो मु?ो तुम्हारी इस फ्रैंड से मिलना ही पड़ेगा. हम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन शादी करने जा रहे हैं. आप को इनवाइट करने भी आए हैं. आप को हमारी शादी में जरूर आना है.’’

दीपक ने जैसे ही मुझे देखा, छिटक कर पीछे हट गया. मानो पांव जल से गए हों. मगर मैं वैसे ही शांत और निश्च्छल खड़ी रही. फिर हाथ का इशारा कर बोली, ‘‘अच्छा, ये मिस्टर दीपक हैं.’’ जैसे वह मेरे लिए अपरिचित हो. मैं ने दीपक को इतनी इंटैलिजैंट और सुंदर बीवी पाने की बधाई दी.

दीपक के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. लज्जा और ग्लानि से उस के चेहरे पर कईर् रंग आजा रहे थे. यह बात वह जानता था कि एक दिन सारी बातें स्वाति को बतानी पड़ेंगी. मगर वह इस तरह अचानक मिल जाएगी, उस का उसे सपने में भी गुमान न था. उस ने सब सोच रखा था कि स्वाति से कैसेकैसे बात करनी है. आरोपों का उत्तर भी सोच रखा था. पर सारी तैयारी धरी की धरी रह गईर्.

नीलम ने बड़ी शालीनता से मेरा परिचय दीपक से कराया, बोली, ‘‘दीपक, ये हैं स्वाति. इन का पति इन्हें छोड़ कर कहीं चला गया है. बेचारी उसी को ढूंढ़ती हुई यहां आ पहुंची. दीपक, मैं तुम्हें इसलिए भी यहां लाई हूं ताकि तुम इन की कुछ मदद कर सको.’’ दीपक तो वहां ज्यादा देर रुक न पाया और वापस घर चला गया. मगर नींद तो उस से कोसों दूर थी. उधर, नीलम कपड़े चेंज कर के सोने चली गई. दीपक को बहुत बेचैनी हो रही थी. उसे लगा था कि स्वाति अपने प्यार की दुहाई देगी, उसे मनाएगी, अपने बिगड़ते हुए रिश्ते को बनाने की कोशिश करेगी. मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. मगर क्यों…?

स्वाति इतनी समझदार कब से हो गई. उसे बारबार उस का शांत चेहरा याद आ रहा था. जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. आज उसे स्वाति पर बहुत प्यार आ रहा था. और अपने किए पर पछता रहा था. उस ने पास सो रही नीलम को देखा, फिर सोचने लगा कि क्यों मैं बेकार प्यारमोहब्बत के जज्बातों में बह रहा हूं. जिस मुकाम पर मु?ो नीलम पहुंचा सकती है वहां स्वाति कहां. फिर तेजी से उठा और एक चादर ले कर ड्राइंगरूम में जा कर लेट गया.

दिन में 12 बजे के आसपास नीलम ने उसे जगाया. ‘‘क्या बात है दीपक, तबीयत तो ठीक है? तुम कभी इतनी देर तक सोते नहीं हो.’’ दीपक ने उठते ही घड़ी की तरफ देखा. घड़ी 12 बजा रही थी. वह तुरंत उठा और जूते पहन कर बाहर निकल पड़ा. नीलम बोली, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो?’’

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‘‘प्रोफैसर साहब का रात में फोन आया था. उन्हीं से मिलने जा रहा हूं.’’

दीपक सारे दिन बेचैन रहा. स्वाति उस की आंखों के आगे घूमती रही. उस की बातें कानों में गूंजती रहीं. उसी के प्यार में वह यहां आई थी. स्वाति ने यहां पर कितनी तकलीफें ?ोली होंगी. मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए उस ने अपने आने तक का मैसेज भी नहीं दिया. क्या वह मु?ो कभी माफ कर पाएगी.

मन में उठते सवालों के साथ दीपक स्वाति के घर पहुंचा. मगर दरवाजा आंटी ने खोला. दीपक ने डरते हुए पूछा, ‘‘स्वाति कहां है?’’

आंटी बोलीं, ‘‘वह तो कल रात 8 बजे की फ्लाइट से इंडिया वापस चली गई. तुम कौन हो?’’

‘‘मैं दीपक हूं, नीलम का होने वाला पति.’’

‘‘स्वाति नीलम के लिए एक पैकेट छोड़ गई है. कह रही थी कि जब भी नीलम आए, उसे दे देना.’’

दीपक ने कहा, ‘‘वह पैकेट मुझे दे दीजिए, मैं नीलम को जरूर दे दूंगा.’’

दीपक ने वह पैकेट लिया और सामने बने पार्क में बैठ कर कांपते हाथों से पैकेट खोला. उस में उस के और स्वाति के प्यार की निशानियां थीं. उन दोनों की शादी की तसवीरें. वह फोन जिस ने उन दोनों को मिलाया था. सिंदूर की डब्बी और एक पीली साड़ी थी. उस में एक छोटा सा पत्र भी था, जिस में लिखा था कि 2 दिनों बाद वैलेंटाइन डे है. ये मेरे प्यार की निशानियां हैं जिन के अब मेरे लिए कोई माने नहीं हैं. तुम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन ही थेम्स नदी में जा कर मेरे प्यार का विसर्जन कर देना…स्वाति.

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वक्त की अदालत में: भाग 4- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

मेहर ने क्या चाहा था. बस, शादी के बाद एक सुकूनभरी जिंदगी. वह भी न मिल सकी उसे. पति ऐसा मिला जिस ने उसे पैर की जूती से ज्यादा कुछ न समझा. लेकिन वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

एक लंबी जद्दोजेहद के बावजूद कामांध मुकीम बारबार मुंह से  फुंफकार निकालते हुए सहर को अपनी तरफ खींचने के लिए जोर लगा रहा था. तभी मैं ने एक जोरदार लात उस के कूल्हे पर दे मारी. वह पलट कर चित हो गया. गुस्से से बिफर कर मैं ने दूसरी लात उस के ऊपर दे मारी. दर्द से चीखने लगा. मारे दहशत के मैं ने जल्दी से सहर का हाथ खींच कर उठाया और तेजी से उसे कमरे से बाहर खींच कर दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी. और धड़धड़ करती सीढि़यां उतर कर संकरे आंगन के दूध मोगरे के पेड़ के साए तले धम्म से बैठ कर बुरी तरह हांफने लगी.

रात का तीसरा पहर, साफ खुले आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे. नीचे के कमरों में देवरदेवरानी और सास के खर्राटों की आवाजें गूंज रही थीं. दोनों बहनें दम साधे चौथे पहर तक एकदूसरे से लिपटी, गीली जमीन पर बैठी अपनी बेकसी पर रोती रहीं. ऊपर के कमरे में पूरी तरह खामोशी पसरी पड़ी थी. नशे में धुत मुकीम शायद सुधबुध खो कर सो गया था.

अलसुबह मैं छोटी बहन को उंगली के इशारे से यों ही चुप बैठे रहने को कह कर दबे कदमों से ऊपर पहुंची. बिना आवाज किए कुंडी खोली. हलके धुंधलके में मुकीम का नंगा शरीर देखते ही मुंह में कड़वाहट भर गई. थूक दिया उस के गुप्तांग पर. वह कसमसाया, लेकिन उठ नहीं सका. मैं ने पर्स में पैसे ठूंसे और दोनों नींद से बो िझल बच्चों को बारीबारी कर के नीचे ले आई और दबेपांव सीढि़यां उतर गई. दोनों बहनें मेनगेट खोल कर पुलिस थाने की तरफ जाने वाली सड़क की ओर दौड़ने लगीं.

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दिन का उजाला शहर के चेहरे पर खींची सड़कों पर फैलने लगा था. ठंडी हवा के  झोंके राहत देने लगे थे. चलते हुए हांफने लगी थीं हम दोनों बहनें. पुलिस थाने से पहले एक पुलिया पर बैठ धौंकती सांसों पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगीं. सड़क पर मौर्निंग वाक करते इक्कादुक्का लोग दिखाई देने लगे थे. बच्चों की आंखें भी खुल गई थीं. मम्मी और खाला को सड़क के किनारे बैठा देख कर वे हैरानी से पूछने लगे, ‘क्या हुआ मम्मी, आप रो क्यों रही हैं?’ ‘कुछ नहीं बेटे’, कह कर मैं ने रुलाई दबाते हुए दोनों बच्चों को सीने से चिपका लिया.

इस घटना ने मेरे दिलोदिमाग को  झक झोर दिया. क्या गजब कर रही हो मेहर? कुंआरी बहन को पुलिस थाने में खड़ा कर के अपने शौहर की करतूतों का बखान करते हुए क्या बदनामी के छीटों से उस के सुनहरे भविष्य पर कालिमा पोत दोगी. तुम्हारी कमजोरी के कारण पहले ही वह मर्द तुम पर इतना हावी है, और अब भी उस का क्या बिगाड़ लोगी. वह मर्द है, सुबूतों के अभाव में बेदाग बरी हो जाएगा. लेकिन तुम्हारी बहन के साथ बलात्कार की तोहमत लगते ही वह कानून और समाज दोनों के हाथों बुरी तरह रुसवा कर दी जाएगी. तुम्हारा सदमा क्या कम है अम्मीअब्बू के लिए जो अब अपने पति के अक्षम्य अपराध की खातिर उन की जिंदगी को नारकीय बनाने जा रही हो. तुम्हारी अबोध बहन जिंदगीभर मीठे खवाबों की लाश ढोतेढोते खुद एक जिंदा लाश बन जाएगी. क्यों बरबाद कर रही हो बहन की जिंदगी? यह तुम्हारी जंग है, तुम लड़ो और जीतो. मैं जैसे डरावने खवाब से जागी.

नहीं, नहीं, मैं अपनी चरमराती जिंदगी की काली छाया अपनी छोटी बहन के उजले भविष्य पर कतई नहीं पड़ने दूंगी. धीरेधीरे मेरा चेहरा कठोर होने लगा. एक ठोस फैसला लिया, ‘सहर, तुम अभी इसी वक्त स्टेशन के लिए रवाना हो जाओ. एन्क्वायरी से पूछ कर रायपुर जाने वाली पहली ट्रेन की जनरल बोगी में बैठ जाना. सामने से गुजरते रिकशे को रोक लिया मैं ने. सहर रात के हादसे से बेहद डर गई थी. दिल से बहन को उस गिद्ध के नुकीले पंजों के बीच अकेले छोड़ना नहीं चाह रही थी लेकिन मेरे बारबार इसरार करने पर रिकशे पर बैठ गई.

सूरज अपनी सुनहरी किरणों के कंधों पर सवार धीरेधीरे  आसमान पर चढ़ने लगा था. पूरा शहर, गलीकूचे, घर उजाले से दमकने लगे थे, लेकिन मेरी ब्याहता जिंदगी का सूरज आज हमेशाहमेशा के लिए डूबने वाला है, यह जानते हुए भी मैं दोनों बच्चों की उंगली पकड़े पुलिस थाने के मुख्यद्वार तक पहुंच गई.

रात की ड्यूटी वाले पुलिसकर्मी खाकी पैंट पर सिर्फ सफेद बनियान पहने दोनों हाथ ऊपर कर के अंगड़ाइयां ले कर मुंह से लंबीलंबी उबासियां लेते हुए रात की खुमारी उतार रहे थे.

‘मु झे रिपोर्ट लिखवानी है,’ मेरा चेहरा सख्त और आवाज में पुख्तगी थी. 2 बच्चों के साथ मैक्सी पहने सामने खड़ी महिला को देख कर भांपते देर नहीं लगी. वे समझ गए कि नारी उत्पीड़न और घरेलू मारपीट का मामला लगता है.

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सिपाही ने बीड़ी सुलगाते हुए पूछा, ‘क्या हुआ?’

मैं ने बहन के साथ बलात्कार की कोशिश वाली घटना को छिपा कर बाकी सारी दास्तान आंसूभरी आंखों और लरजती आवाज से सुना दी.

‘पढ़ीलिखी लगती है’, सिपाही दूसरे की तरफ देख कर फुसफुसाया. फिर बोला, ‘रिपोर्ट तो हम लिख लेंगे मैडम, मगर यहां आएदिन ही औरतमर्द का  झगड़ा भांगड़ का तमाशा देखते हैं हम.’

‘मु झ पर जुल्म हो रहा है. मैं अपनी सुरक्षा के लिए आप के पास रिपोर्ट लिखवाने आई हूं. और आप इसे तमाशा कह रहे हैं?’

‘अरे मैडम, हम तो रोेजिच ये भांगड़ देखते हैं न. औरत बड़े गुस्से में आ कर रिपोर्ट लिखवाती है अपने मरद और ससुराल वालों के खिलाफ. फिर पता  नहीं कहां से उस के भीतर हिंदुस्तानी औरत का मोरल सिर उठाने लगता है और वह पति को ले कर कंप्रोमाइज करने आ जाती है. ऐसे में हमारी पोजिशन बड़ी खराब हो जाती है. न तो हम कोई ऐक्शन ले सकते हैं, न ही थाने का मजाक बनते देख सकते हैं. आप बुरा नहीं मानने का,’ होंठ टेढ़े कर के बीड़ी के आखिरी सिरे की आग को टेबल पर रगड़ता हुआ बोला सिपाही.

‘नहीं, मैं रिपोर्ट वापस नहीं लूंगी. थक गई हूं मैं 12 सालों से रोजरोज गालियां सुनते और मार खाते हुए’, कह कर मैं ने गले पर लिपटा दुपट्टा नीचे खिसका दिया. गले और कंधे पर जमे खून के धब्बे और नीले निशान देख कर थाना इंचार्ज ने सारी स्थिति सम झ कर रिपोर्ट लिख दी. महाराष्ट्र पुलिस हमेशा से अपनी मुस्तैदी के कारण शाबाशी की हकदार रही है. तुरंत हरकत में आ गई. मु झे लेडी पुलिस के साथ मेओ अस्पताल मैडिकल के लिए भेजा और दूसरी तरफ नंगे पड़े मुकीम को थाने ले आई.

दूसरे दिन लोकल अखबारों में मर्दाना वहशत को महिला समाज में दशहत बना कर सुर्खियों में खबर छपी, ‘सरकारी शिक्षिका घरेलू हिंसा की शिकार, पति पुलिस कस्टडी में.’ पुलिस ने मु झे बच्चों के साथ घर पहुंचा दिया और वायरलैस से खबर दे कर अब्बू को नागपुर बुलवा लिया. तीसरे दिन शाम को ट्रक में भर कर बेटी का सामान स्कूल क्वार्टर में पहुंचा दिया. अब्बू एक हफ्ते तक साथ रहे. मेरे सिर पर हाथ रख कर सम झाते रहे, ‘सब्र करो, बेटा. सब ठीक हो जाएगा.’

घर के टूटने के मानसिक आघात से उबरने में लंबा वक्त लगा मु झे. अब्बू वापस चले गए. मैं बच्चों के साथ करोड़ों की आबादी वाले देश में तनहा रह गई.

स्कूल में सहकर्मियों के साथसाथ विद्यार्थियों से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी. बचपन से ही मैं अंतर्मुखी, अल्पभाषी, कभी भी किसी से अपना दुखदर्द बांटने के लिए शब्द नहीं बटोर पाती थी. रात की भयावहता मेरे अंदर के सुलगते ज्वालामुखी के लावे को आंखों के रास्ते निकालने में मदद करती. होंठों पर गहरी खामोशी और आंखों के नीचे काले दायरे मेरी बेबसी की कहानी के लफ्ज बन जाते. हर रात आंसुओं से तकिया भीगता. मेरा खंडित परिवार मिलिट्री एरिया के स्कूल में महफूज तो था लेकिन डाक टिकट के परों पर बैठ कर कागजी यमदूतों को मु झ तक पहुंचने से रोकने के लिए कोई कानून नहीं बना था.

2 महीने बाद ही कोर्ट का नोटिस मिला, ‘घर से चोरी कर के चुपचाप भागने का इलजाम…’ चीजों की लिस्ट में आधुनिक घरेलू चीजों के अलावा इतने जेवरात और रुपयों का जिक्र था जिन्हें मुकीम ने कभी देखा भी नहीं होगा. एक हफ्ते बाद फिर दूसरा नोटिस मिला, ‘बच्चों पर पिता का मालिकाना हक जताने का दावा.’

वकील ने तसल्ली दी थी, ‘दुहानी गाय हाथ से निकल गई. बस, इस की तिलमिलाहट है. जो शख्स अच्छा शौहर नहीं बन सका वह अच्छा बाप कैसे बन सकता है.’

प्राथमिक शिक्षिका की सीमित तनख्वाह, उस पर सरकारी क्वार्टर का किराया, फैस्टिवल एडवांस की कटौती, बच्चों की किताबों और घर का खर्च. महीने के आखिरी हफ्ते में एक वक्त की रोटी से ही गुजर करनी पड़ती.

तीसरे महीने प्राचार्य ने मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट मंगवाए तो मुकीम की बिजबिजाती बदलेभरी सोच का एक और घिनौना सुबूत सामने आया, ‘जाली सर्टिफिकेट से हासिल नौकरी की एन्क्वायरी.’ 12 साल साथ रह कर भी मेरी एक भी खूबी मुकीम का दिल नहीं जीत सकी. बेरहम को अपने बच्चों पर भी रहम नहीं आया.

आधी रात को घर की खटकती कुंडी की कर्कश आवाज ने मु झे नींद से जगा दिया. दरवाजा खोला तो 3 कलीग, एक महिला 2 पुरुष, मुझे निर्विकार और उपेक्षित भाव से घूर रहे थे. ‘सर, इस वक्त?’ शब्द गले में अटकने लगे मेरे.

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सौरी मैडम, फौर डिस्टर्बिंग यू इन दिस औड टाइम. मिसेस ने बतलाया कि आप की तबीयत खराब है, इसलिए खबर लेने आए हैं. अंदर आने के लिए नहीं कहेंगी? सहज बनने का अभिनय करते हुए दरवाजे से मेरे थोड़ा हटते ही तीनों घर में घुस आए. मेरे माथे पर हथौड़े पड़ने लगे. मेरी बीमारी की  झूठी खबर किस दुश्मन ने उड़ाई होगी. और मेरी खैरियत जानने के लिए आधी रात का ही वक्त चुनने की गरज क्यों आन पड़ी मेरे कलीग्स को? लेकिन प्रत्यक्ष में ठहरी हुई  झील की तरह मैं शांत रही.

‘आप ने बरसात में छत के टपकने की कंपलेंट की थी न. कौन सा कमरा है?’ कहते हुए रस्तोगीजी घड़घड़ाते हुए बैडरूम में पहुंच गए, ‘एक्चुअली बिल्ंिडग मेंटिनैंस का चार्ज पिछले हफ्ते ही दिया गया है न मु झे.’

‘बच्चे सो गए क्या?’ महिला सहकर्मी ने बनावटी हमदर्दी दिखलाई और आंखें घुमाघुमा कर खूंटी पर टंगे कपड़ों और रैक पर रखे जूतों के साइज नापने लगी.

‘मैडम, क्या मैं आप का टौयलेट यूज कर सकता हूं?’ निगमजी ने औपचारिकता निभाई.

‘ओह, श्योर सर.’

तीनों अध्यापक घर के किचन, बैडरूम और बाथरूम का निरीक्षण करने लगे. मैं हैरानपरेशान, बस, चुपचाप उन्हें अपने ही घर में बेहिचक चहलकदमी करते देखती रही. दूसरे दिन दहकता शोला अंतरंग कलीग ने सीने में डाल दिया. ‘मुकीम ने हायर अथौरिटी से कंपलेंट की है कि यू आर लिविंग विद समबडी एल्स.’ सुन कर मेरे बरदाश्त का बांध तिलमिलाहट के तूफानी वेग में बुरी तरह से टूट गया.

मर्द समाज के पास औरत को बदनाम करने के लिए सब से सिद्धहस्त बाण, उस के चरित्र को  झूठमूठ ही आरोपित करना है, बस. औरत अपनी सचाई का सुबूत किसे बनाएगी? कौन कोयले की दलाली में हाथ काले करेगा? कोई सुबूत नहीं. चश्मदीद गवाह नहीं. अपराध और मढ़े गए ग्लानिबोध से टूटी, अपनेआप ही केंचुए की तरह अपने दामन के व्यास को समेट लेगी. सदियों से बड़ी ही कामयाबी से इस नुस्खे को आजमा कर मर्द समाज अपनी मर्दाना कामयाबी पर ठहाके लगाते हुए जश्म मना रहा है.

3 केसों की तारीखें पड़ने लगीं. कोर्ट के नोटिस आने लगे. वकील साहब ने मेरी नौकरी की मजबूरी को देख कर पेशी पर अपना मुंशी खड़ा करने का वादा किया. ‘मैडम, मेरी फीस कम कर दीजिए मगर मुंशी तो छोटी तनख्वाह वाला बालबच्चेदार आदमी है.’

अगले भाग में पढ़ें- ‘उन्होंने क्या दूसरा निकाह कर लिया है?

अंधेरी रात का जुगनू: भाग 3- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

पलभर के लिए रेशमा का आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा था. कहीं किसी ग्राहक को जल्दबाजी में ज्यादा पैसे तो नहीं दे दिए मैं ने, कहीं किसी से कम पैसे तो नहीं लिए? लेकिन दूसरे ही पल उस ने खुद को धिक्कारा. अपनी सतर्कता और हिसाब पर पूरा यकीन था उसे. तभी सेठ की आवाज का चाबुक उस की कोमल और ईमानदार भावना पर पड़ा, ‘रेशमा, अगर तुम मेरे दोस्त की बेटी न होतीं तो अभी, इसी समय पुलिस को फोन कर देता. शर्म नहीं आती चोरी करते हुए. पैसों की जरूरत थी तो मुझ से कहतीं. मैं तनख्वाह बढ़ा देता. लेकिन तुम ने तो ईमानदार बाप का नाम ही मिट्टी में मिला दिया.’

सुन कर तिलमिला गई रेशमा. क्या सफाई देती उन्हें जो उस की विवशता को उस का गुनाह समझ रहे हैं. मेहनत और वफादारी के बदले में मिला उसे जलालत का तोहफा. तभी खुद्दारी सिर उठा कर खड़ी हो गई और 28 दिन की तनख्वाह का हिसाब मांगे बगैर वह दुकान से बाहर निकल गई. अंदर का आक्रोश उफनउफन कर बाहर आने के लिए जोर मार रहा था. मगर रेशमा ने पूरी शिद्दत के साथ उसे भीतर ही दबाए रखा. असमय घर पहुंचती तो अम्मी को सच बतलाना पड़ता. रेशमा पर चोरी का इलजाम लगने और नौकरी हाथ से चले जाने का सदमा अम्मी बरदाश्त नहीं कर पाएंगी. अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे दोनों भाइयों और घर को संभाल पाएगी, यह सोचते हुए रेशमा के कदम अनायास ही मजार की तरफ बढ़ गए.

मजार के अहाते का पुरसुकून, इत्र और फूलों की मनमोहक खुशबू भी उस के रिसते जख्म पर मरहम न लगा सकी. घुटनों पर सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. रात 10 बजे मजार का गेट बंद करने आए खादिम ने आवाज लगाई, ‘घर नहीं जाना है क्या, बेटी?’ सुन कर जैसे नींद से जागी. धीमेधीमे मायूस कदम उठाते हुए घर पहुंची. अम्मी का चिंतित चेहरा दोनों भाइयों की छटपटाहट देख कर उसे यकीन हो गया कि मेरे घर के लोग मुझे कभी गलत नहीं समझेंगे.

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‘कहां चली गई थीं?’

‘दुकान में ज्यादा काम था आज,’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर पानी के साथ रोटी का निवाला गटकते हुए बिना कोई सफाई दिए बिस्तर पर पहुंचते ही मुंह में कपड़ा ठूंस कर बिलखबिलख कर रो पड़ी. उस रात अब्बू बहुत याद आए थे. कमसिन कंधों पर उन की भरीपूरी गृहस्थी का बोझ तो उठा लिया रेशमा ने, मगर उन के नाम को कलंकित करने का झूठा इल्जाम वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

दूसरे दिन रोज की तरह लंच बाक्स ले कर रेशमा के कदम अनजाने में अब्बू की दुकान की तरफ मुड़ गए. बरसों बाद जंग लगे ताले को खुलता देख अगलबगल वाले दुकानदार हैरान रह गए.

धूल से अटे कमरे में अब्बू का बनाया हुआ मार्बल का लैंपस्टैंड, सूखा एक्वेरियम और कभी तैरती, मचलती खूबसूरत मछलियों के स्केलटन. दुकान के कोने में बना प्लास्टर औफ पेरिस का फाउंटेन, सबकुछ जैसा का तैसा पड़ा था. अगर कुछ नहीं था तो अब्बू का वजूद. बस, उन की आवाज की प्रतिध्वनि रेशमा के कानों में गूंजने लगी, ‘बेटा, खूब दिल लगा कर पढ़ना. आप को चार्टर्ड अकाउंटैंट और दोनों बेटों को डाक्टर, इंजीनियर बनाऊंगा,’ ऐसे ही गुमसुम बैठे हुए सुबह से शाम गुजर गई.

भरा हुआ टिफिन वापस बैग में डाल कर घर वापस जाने के लिए उठ ही रही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘रेशमा, आई एम सौरी. मुझे माफ करना बेटा. मैं गुस्से में तुम को पता नहीं क्याक्या कह गया,’ दूसरी ओर से सेठ की आवाज गूंजी, ‘सुन रही हो न, रेशमा. दरअसल, 8 हजार रुपए मेरे बेटे ने गल्ले से निकाले थे. कल शाम को ही वह जुआ खेलता हुआ पकड़ा गया तो पता चला.’

सुन कर रेशमा स्थिर खड़ी अब्बू की धूल जमी तसवीर को एकटक देखती रही.

‘बेटे, अपने अब्बू के दोस्त को माफ कर दो तो कुछ कहूं.’

इधर से कोई प्रतिउत्तर नहीं.

‘कोई बात नहीं, तुम अगर दुकान पर काम नहीं करना चाहती हो तो कोई बात नहीं, तुम मेरा बुटीक सैंटर संभाल लो. तुम्हारी जैसी मेहनती और ईमानदार इंसान की ही जरूरत है मेरे बुटीक सेंटर को.’

रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया. अपमान और तिरस्कार का आघात,

सेठ की आत्मविवेचना व पछतावे पर भारी रहा.

रास्ते भर ‘बुटीक…बुटीक…बुटीक’ शब्द मखमली दूब की तरह कानों में उगते रहे. स्कूल के दिनों में शौकिया तौर पर एंब्रायडरी सीखी थी रेशमा ने. कुरतों, सलवारों, चादरों, नाइटीज पर खूबसूरत रेशमी धागों से बनी डिजाइनों ने उसे अब्बू और रिश्तेदारों की शाबाशियां भी दिलवाई थीं. थोड़ाबहुत कटे हुए कपड़े भी सिलना सीख गई थी. अनजाने में ही सेठ ने रेशमा की अमावस की अंधेरी रात को पूर्णिमा का उजाला दिखला दिया, स्वाभिमान और आत्मविश्वास से जीने का रास्ता बतला दिया.

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पापा की दुकान और रेशमा का शौकिया हुनर, अपना निजी और स्वतंत्र कारोबार, जहां अपना आधिपत्य होगा जहां उसे कोई चोर कह कर जलील नहीं करेगा. जहां वह अपने परिवार के साथसाथ हुनरमंद कारीगरों और उन के परिवारों का पेट पालने का जरिया बन सकेगी. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलती रही रेशमा. उस दिन आसमां पर चांद की रफ्तार धीमी लगने लगी उसे.

पौ फटते ही रेशमा दोनों भाइयों के साथ पापा की दुकान में खड़ी अनुपयोगी वस्तुओं को ठेले पर लदवा रही थी. लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत बैंक से लोन लेने के लिए आवेदन दे दिया. 1 महीने बाद दुकान के सामने बोर्ड लग गया, ‘जास्मीन बुटीक सैंटर’. दूसरे ही दिन दुकान के शुभारंभ का दावतनामा ले कर बांटने के लिए निकल पड़ी रेशमा. कार्ड देख कर किसी ने हौसला बढ़ाया, तो किसी ने नाउम्मीद और नाकामयाबी के डर से डराया. लेकिन रेशमा कान और मुंह बंद किए हुए पूरे हौसले के साथ जिस रास्ते पर चल पड़ी उस से पलट कर पीछे नहीं देखा.

रेशमा के भीतर का कलाकार धीरेधीरे उभरने लगा, वह कपड़ों की डिजाइन केटलौग्स के अलावा कंप्यूटर स्क्रीन पर ग्राहकों को दिखलाने लगी. धीरेधीरे आकर्षक डिजाइनों व काम की नियमितता देख कर महिला ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी. शादीब्याह, तीजत्योहारों के मौकों पर तो रेशमा को दम लेने की फुरसत नहीं होती.

कड़ी मेहनत, समझदारी से मृदुभाषी रेशमा के बैंक के बचत खाते में बढ़ोतरी होने लगी. 1 साल के बाद 30×60 स्क्वैर फुट का प्लौट खरीदते समय खालेदा बेगम ने अपने बचेखुचे जेवर भी रेशमा को थमा दिए.

हाउस लोन ले कर रेशमा ने तनहा ही धूप, बरसात, ठंड के थपेड़े सह कर नींव खुदवाने से ले कर मकान बनने तक दिनरात एक कर दिए. दोनों छोटे भाइयों और अम्मी के संबल ने रेशमा का हौसला मजबूत किया. अब कतराने वाले रिश्तेदार, अब्बू के करीबी दोस्त, मकान की मुबारकबाद देने बुटीक सैंटर पर ही आने लगे.

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चौक पर लगी घड़ी ने रात के 4 बजाए. रेशमा की अम्मी दर्द की चादर ओढ़े नींद के आगोश में समा गईं लेकिन रेशमा छत की ग्रिल से टिक कर खड़ी, एकटक कोने पर लगी ग्रिल की तरफ देख रही थी. लगा, अब्बू सफेद कुरतापाजामा पहने दीवार से टिक कर खड़े हैं. ‘रेशमा, मेरी बच्ची, मेरा ख्वाब पूरा कर दिया. शाबाश बेटा. मैं जानता हूं तुम दोनों भाइयों को इसी तरह जुगनू बन कर राह दिखलाती रहोगी.’ धीरेधीरे पापा की परछाईं अंधेरे में कहीं खो गई और रेशमा बिस्तर पर आ कर लेट गई. दूर कहीं भोर होने की घंटी बजी. पूर्व दिशा में आसमान का रंग लाल हो चला था.

अंधेरी रात का जुगनू:भाग 2- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

‘बेटी, इकबाल साहब की मौत, मिट्टी का इंतजाम…’ महल्ले के बुजुर्ग अनीस साहब ने डूबते जहाज का मस्तूल पकड़ा दिया रेशमा के कमजोर हाथों में. सुन कर भीतर तक दहल गई रेशमा.

भारी कदमों को घसीटते हुए अलमारी खोल कर, अपनी शादी के लिए अम्मी द्वारा जमा की गई लाल पोटली में बंधी पूंजी अनीस साहब को थमाते हुए रेशमा के हाथ पत्थर के हो गए थे.

अब्बू की मौतमिट्टी, चेहल्लुम, अम्मी की इद्दत के पूरे होने तक रेशमा का खिलंदड़ापन जाने कहां दफन हो गया. शौहर की मौत के सदमे से बुत बनी अम्मी को देख कर, दोनों छोटे भाइयों को अब्बू की याद कर रोते देखती तो उन्हें समझाने के लिए पुचकारते हुए रेशमा कब बड़ी हो गई, उसे खुद भी पता नहीं चला. रेशमा ने अब्बू के अकाउंट्स चेक किए तो बमुश्किल 8-10 हजार रुपए का बैलेंस था.

रेशमा की पढ़ाई छूट गई, दिनचर्या ही बदल गई. रेशमा के उन्मुक्त ठहाकों को आर्थिक अभाव का विकराल अजगर निगलता चला गया. बहुत ढूंढ़ने पर होमलोन देने वाले प्राइवेट बैंक की नौकरी 4 जनों की रोटी का जुगाड़ बनी. घर के खाली कनस्तरों में थोड़ाथोड़ा राशन भरने लगा.

जिंदगी कड़वे तजरबों के चुभते ऊबड़खाबड़ रास्ते से गुजर कर अभी समतल मैदान पर आ भी नहीं पाई थी कि मकान मालिक ने मकान खाली करवाने की जिम्मेदारी पेशेवर गुंडे गोलू जहरीला को सौंप दी.

‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए,’ आएदिन दरवाजे पर दस्तक देती उस की डरावनी शक्ल दिखलाई पड़ती.

एक दिन हिम्मत कर के रेशमा ने ज्यों ही दरवाजा खोला तो शराब का भभका उस के नथुनों में घुस गया. गोलू जहरीला ने उसे देखते ही अपना वाक्य दोहरा दिया, ‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए नहीं तो…’

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‘नहीं तो… क्या कर लेंगे आप?’ भीतर के आक्रोश को दबातेदबाते भी रेशमा की आंखें चिंगारी उगलने लगी थीं.

‘कुछ नहीं. बस, तुम को उठवा लेंगे,’ पान रचे होंठों को तिरछा कर के व्यंग्य से हंसते हुए गोलू जहरीला ने चेतावनी दी तो रेशमा के कानों में जैसे अंगारे सुलगने लगे.

‘बंद कीजिए बकवास. दफा हो जाइए यहां से,’ रेशमा का आक्रोश बरदाश्त का पुल उखाड़ने लगा.

बाहर आवाजों का हंगामा सुन कर भीतर से दौड़ी आई रेशमा की अम्मी. रेशमा को दरवाजे के पीछे ढकेल कर, खुद दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो कर बोलीं, ‘देखिए, आप जब मरजी हो तब कमर पर बंदूक लटका कर हमारे दरवाजे पर न आया कीजिए. जैसे ही हालात ठीक होंगे, हम आप को घर खाली करने की सूचना दे देंगे.’

सुन कर गोलू चला तो गया लेकिन अपने पीछे छोड़ गया दहशत, डर और मजबूरियों का अंधड़.

उस के जाते ही रेशमा की अम्मी रो पड़ीं. रेशमा के पैर गुस्से से कांपने लगे और दांत किटकिटाने लगे लेकिन विवशता की नदी मुहाने तक आतेआते अपनी रफ्तार खो चुकी थी. दोनों भाइयों को सीने से चिपकाए वह खुद भी रो पड़ी. उस रात न उन के घर में चूल्हा जला न किसी के हलक से पानी का घूंट ही उतरा. सब अपनीअपनी मजबूरियों के शिकंजे में कसे छटपटाते रहे.

वक्त की आंधियों ने कसम खा ली थी रेशमा को तसल्ली देने वाले हर चिराग को बुझा देने की.

3 महीने बाद प्राइवेट बैंक भी बंद हो गया. घर की जरूरतों ने रेशमा को कपड़ों के थोक विक्रेता की दुकान पर कैशियर की नौकरी के लिए ला कर खड़ा कर दिया. छोटी सी तनख्वाह घर की बड़ीबड़ी जरूरतों के सामने मुंह छिपाने लगी और ऊंट के मुंह में जीरे की तरह चिपक गई. बस, जिंदा रहने के लायक तक की चीजें ही खरीद पाते रेशमा के पसीने से भीगी बंद मुट्ठी के नोट. रिश्तेदार, जो अपना काम करवाने के लिए इकबाल साहब से मधुमक्खी की तरह चिपके रहते थे, अब जंगल की नागफनी की तरह हो गए थे. महफिलों, मजलिसों में अब मिलनेजुलने वाले उस के परिवार को देख कर कन्नी काट लेते, जैसे कांटों की बाड़ को छू गए हों.

उस दिन रात का खाना खाते हुए गुमसुम बैठे छोटे भाई से रेशमा ने पूछ ही लिया, ‘क्या हुआ आफाक तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ कुछ देर तक साहस बटोरने के बाद भाई के द्वारा बोले गए शब्दों ने रेशमा को कांच के ढेर पर खड़ा कर दिया. ‘बाजी, छोटे मामूजान कह रहे थे कि तुम दोनों भाइयों को रेशमा अब तुम्हारे अम्मीअब्बू के पास भेज देगी, क्योंकि उस की छोटी सी तनख्वाह अब 4 लोगों का पेट नहीं पाल सकेगी. फाके की नौबत आने वाली है. ऐसे में तुम दोनों भाई उस पर बोझ…’ ठहरी हुई झील में मामू ने पत्थर मार दिया था. तिलमिलाहट के ढेर सारे दायरे बनने लगे. रेशमा ने तुरंत मामू को फोन मिलाया और चीख पड़ी, ‘मेरे घर में कंगाली आ जाए या फाकाकशी हो, मैं अपने चचाजात भाइयों को कभी भी अपने से अलग नहीं करूंगी. अगर घर में एक रोटी भी बनेगी न, तो हम चारों एकएक टुकड़ा खा कर सो जाएंगे, मगर किसी के दरवाजे पर हाथ पसारने नहीं जाएंगे. कान खोल कर सुन लीजिए, आज के बाद कभी मेरे मासूम भाइयों को बरगलाने की कोशिश की तो मैं भूल जाऊंगी आप इन के सगे मामू हैं.’

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रेशमा का गुस्सा देख कर दोनों भाई तो सहम गए लेकिन खालेदा को यकीन हो गया कि रेशमा की खुद्दारी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. अगर रेशमा की जगह उन का अपना बेटा होता तो वह अभावों का हवाला दे कर किसी भी सूरत में चचाजान भाइयों की जिम्मेदारी न उठाता. सचमुच अभाव इंसानों को जुदा नहीं करते, जुदा करती हैं उन की स्वार्थी भावनाएं.

घर का खर्च, भाइयों के स्कूल का खर्च, मकान का किराया, सब पूरा करने के बाद रेशमा के पास मुश्किल से आटो का किराया ही बच पाता.

अपनी पसंद का काम न होते हुए भी रेशमा दुकान के काम में दिल लगाने लगी थी. तभी एक दिन सेठ की कर्कश आवाज ने चौंका दिया, ‘रेशमा, तुम ने कल जो हिसाब दिया था उस में 8 हजार रुपए कम हैं.’

‘लेकिन मैं ने तो पूरे पैसे गिन कर गल्ले में रखे थे,’ रेशमा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सेठ ने जैसे अंगारा छू लिया.

‘मैं ने 10 बार हिसाब मिला लिया है, पैसे कम हैं इसलिए बोल रहा हूं. कहां गए पैसे अगर तुम ने रखे थे तो?’

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अंधेरी रात का जुगनू: भाग 1- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

शाम होते ही नया बना मकान रंगीन रोशनी से जगमगा उठा. मुख्यद्वार पर आने वाले मेहमानों का तांता लगा था. पूरा घर अगरबत्ती, इत्र और लोबान की खुशबू से महक रहा था. कव्वाली की मधुर स्वरलहरी शाम की रंगीनियों में चार चांद लगा रही थी. पंडाल से उठती मसालेदार खाने की खुशबू ने वातावरण को दिलकश बना दिया था.

तभी बाहर जीप रुकने की आवाज सुन कर एक 20-22 वर्ष की लड़की दरवाजे पर आ खड़ी हुई और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘नमस्ते, चाचाजी.’’

‘‘जीती रहो, रेशमा बिटिया,’’ कहते हुए 2 अंगरक्षकों के साथ इलाके के विधायक रमेशजी ने मकान में प्रवेश किया.

पोर्च में खड़े हो कर मकान के चारों तरफ नजर डालते रमेशजी के चेहरे पर मुसकराहट खिलने लगी, ‘‘बिटिया, आज तुम ने अपने अब्बाजान का सपना पूरा कर के दिखला दिया. तुम्हारी हिम्मत और हौसले को देख कर लोग अब से बेटे नहीं बेटियां चाहेंगे.’’

रमेशजी की इस बात से रेशमा की आंखें नम हो गईं. खुद को संभालते हुए संयत स्वर में बोल उठी रेशमा, ‘‘चाचाजी, आप ने ही तो अब्बू की तरह हमेशा मेरा संबल बढ़ाया. मकान बनाते हुए आने वाली तमाम परेशानियों को सुलझाने में हमेशा मेरी मदद की.’’

‘‘बिटिया, तुम्हारे अब्बू इकबाल मेरा लंगोटिया यार था. उस की असमय मृत्यु के बाद उस के परिवार का खयाल रखना मेरा फर्ज था. मैं ने उसे निभाने की बस कोशिश की है. बाकी सबकुछ तुम्हारे साहस और धैर्य के सहारे ही संभव हो सका है.’’

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‘‘चाचाजी, चलिए, खाना टेबल पर लग गया है,’’ रेशमा के चाचा का बेटा आफताब बड़े आदरपूर्वक रमेशजी को खाने की मेज की तरफ ले गया.

रेशमा की अम्मी खालेदा इकबाल ओढ़नी से सिर को ढके परदे के पीछे से चाचाभीतीजी का वात्सल्यमयी वार्तालाप सुन रही थीं और रेशमा को घर के इस कोने से उस कोने तक आतेजाते, मेहमानों का स्वागत करते हुए गृहप्रवेश की मुबारकबाद स्वीकारते हुए भीगी आंखों से मंत्रमुग्ध हो कर देख रही थीं. तभी मेहमानों की भीड़ से उठते कहकहों ने उन्हें चौंकाया और वे दुपट्टे के छोर से उमड़ते आंसुओं को पोंछ कर, अतीत की यादों के चुभते नश्तर से बचने के लिए मेहमानों की गहमागहमी में खो जाने का असफल प्रयास करने लगीं.

देर रात तक मेहमानों को विदा कर के बिखरे सामान को समेट और मेनगेट पर ताला लगा कर ज्योंही वे भीतर जाने लगीं, ऐसा लगा जैसे इकबाल साहब ने आवाज दी हो, ‘फिक्र न करना बेगम, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आज सिर पर छत का साया मिला है, कल रेशमा की शादी, फिर बेटों की गृहस्थी…’

वे चौंक कर पीछे पलटीं तो दूर तक रात की नीरवता के अलावा कुछ भी न था. कहां हैं इकबाल साहब? यहां तो नहीं हैं? कैसे नहीं हैं यहां? यही सोतेजागते, उठतेबैठते हर वक्त लगता है कि वे मेरे करीब ही बैठे हैं. बातें कर रहे हैं. विश्वास ही नहीं हो रहा है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं. बिस्तर पर पहुंचने तक बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाई थीं रेशमा की अम्मी. दिनभर का रुका हुआ अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. बहुत कोशिशें कीं बीते हुए तल्ख दिनों को भूल जाने की लेकिन कहां भूल पाईं वे.

इकबाल साहब की मौत के बाद हर दिन का सूरज नईनई परेशानियों की तीखी किरणें ले कर उगता और उन की हर रात समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने में आंखों ही आंखों में कट जाती. दर्द की लकीरें आंसुओं की लडि़यां बन कर आंखों में तैरती रहतीं.

8 भाईबहनों में 5वें नंबर के इकबाल की शिक्षा माध्यमिक कक्षा से आगे संभव न हो सकी थी. लेकिन कलाकार मस्तिष्क ने 14 साल की उम्र में ही टायरट्यूब खोल कर पंचर बनाने और गाडि़यां सुधारने का काम सीख लिया था. भूरी मूछों की रेखाओं के काली होने तक पाईपाई बचा कर जोड़ी गई रकम से शहर की मेन मार्केट में टायरों के खरीदनेबेचने की दुकान खरीद ली. शाम होते ही दुकान पर दोस्तों का मजमा जमता, ठहाके लगते. शेरोशायरी की महफिल जमती. सालों तक दोस्तों के साथ इकबाल साहब के व्यवहार का झरना अबाध गति से बहता रहा. उन की 2 बेटियां और छोटे भाई के 2 बेटों के बीच गहरा प्यार और अपनापन देख कर रिश्तेदारों और महल्ले वालों के लिए फर्क करना मुश्किल हो जाता कि कौन से बच्चे इकबाल साहब के हैं और कौन से उन के भाई के. खुशियां हमेशा उन के किलकते परिवार के इर्दगिर्द रहतीं.

अकसर एकांत के क्षणों में इकबाल साहब खालेदा का हाथ अपने हाथ में ले कर कहते, ‘बेगम, मेरा कारोबार और ट्यूबलैस टायर बनाने की टेकनिक टायर कंपनी को पसंद आ गई तो मैं खुद डिजाइन बना कर एक आलीशान और खूबसूरत सा घर बनाऊंगा जिस के आंगन में गुलाबों का बगीचा होगा. सब के लिए अलगअलग कमरे होंगे और छत को, आखिरी सिरे तक छूने वाले फूलों की बेल से सजाऊंगा.’

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रेशमा अकसर अपनी ड्राइंगकौपी में घर की तसवीर बना कर पापा को दिखाते हुए कहती, ‘पापा, मेरी गुडि़या और डौगी के लिए भी अलग कमरे बनवाइएगा.’

सुन कर इकबाल साहब हंस कर मासूम बेटी को गले लगा कर बोलते, ‘जरूर बनाएंगे बेटे, अगर लंबी जिंदगी रही तो आप की हर ख्वाहिश पूरी करेंगे.’

‘तौबातौबा, कैसी मनहूस बातें मुंह से निकाल रहे हैं आप. आप को हमारी उम्र भी लग जाए,’ रेशमा की अम्मी ने प्यार से झिड़का था शौहर को.

ठंडी सांस भर कर सोचने लगीं, शायद उन्हें आने वाली दुर्घटनाओं का पूर्वाभास हो चुका था. तभी तो तीसरे ही दिन हट्टेकट्टे इकबाल साहब सीने के दर्द को हथेलियों से दबाए धड़ाम से गिर पड़े थे फर्श पर. देखते ही गगनभेदी चीख निकल गई थी रेशमा की अम्मी के मुंह से.

‘पापा की तबीयत खराब है,’ सुन कर तीर की तरह भागी थी रेशमा कालेज से.

घर के दालान में लोगों का जमघट और कमरे में पसरा पड़ा जानलेवा सन्नाटा. बेहोश अम्मी को होश में लाने की कोशिशें करती पड़ोसिन, हालात की संजीदगी से बेखबर सहमे से कोने में खड़े दोनों चचाजान, भाई और फर्श पर पड़ा अब्बू का निर्जीव शरीर. घर का दर्दनाक दृश्य देख कर रेशमा की निस्तेज आंखें पलकें झपकाना ही भूल गईं और पैर बर्फ की सिल्ली की तरह जम गए.

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दिल से दिल तक: भाग 3- शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

राहुल ने हर्ष में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. बोला, ‘‘टैक्सी से आने की क्या जरूरत थी? टे्रन से भी आ सकती थी,’’ टैक्सी वाले को किराया चुकाना राहुल को अच्छा नहीं लग रहा था.

‘‘आप रहने दीजिए… किराया मैं दे दूंगा…वापस भी जाना है न…’’ हर्ष ने उसे इस स्थिति से उबार लिया. आभा को जोधपुर छोड़ कर उसी टैक्सी से हर्ष लौट गया.

आभा 6 सप्ताह की बैड रैस्ट पर थी. दिन भर बिस्तर पर पड़ेपड़े उसे हर्ष से बातें करने के अलावा और कोई काम ही नहीं सू झता था. कभी जब हर्ष अपने प्रोजैक्ट में बिजी होता तो उस से बात नहीं कर पाता था. यह बात आभा को अखर जाती थी. वह फोन या व्हाट्सऐप पर मैसेज कर के अपनी नाराजगी जताती थी. फिर हर्ष उसे मनुहार कर के मनाता था.

आभा को उस का यों मनाना बहुत सुहाता था. वह मन ही मन प्रार्थना करती कि उन के रिश्ते को किसी की नजर न लग जाए.

ऐसे ही एक दिन वह अपने बैड पर लेटीलेटी हर्ष से बातें कर रही थी. उस ने अपनी  आंखें बंद कर रखी थीं. उसे पता ही नहीं चला कि राहुल कब से वहां खड़ा उस की बातें सुन रहा है.

‘‘बाय… लव यू…’’ कहते हुए फोन रखने के साथ ही जब राहुल पर उस की नजर पड़ी तो वह सकपका गई. राहुल की आंखों का गुस्सा उसे अंदर तक हिला गया. उसे लगा मानो आज उस की जिंदगी से खुशियों की विदाई हो गई.

‘‘किस से कहा जा रहा था ये सब?’’

‘‘जो उस दिन मु झे जयपुर से छोड़ने आया था यानी हर्ष,’’ आभा अब राहुल के सवालों के जवाब देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी.

‘‘तो तुम इसलिए बारबार जयपुर जाया करती थी?’’ राहुल अपने काबू में नहीं था.

आभा ने कोई जवाब नहीं दिया.

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‘‘अपनी नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का ही खयाल कर लेती… समाज में बात खुलेगी तो क्या होगा? कभी सोचा है तुम ने?’’ राहुल ने उस के चरित्र को निशाना बनाते हुए चोट की.

‘‘तुम्हारी इज्जत का खयाल था, इसीलिए तो बाहर मिली उस से वरना यहां… इस शहर में भी मिल सकती थी और समाज, किस समाज की बात करते हो तुम? किसे इतनी फुरसत है कि इतनी आपाधापी में मेरे बारे में कोई सोचे… मैं कितना सोचती हूं किसी और के बारे में और यदि कोई सोचता भी है तो 2 दिन सोच कर भूल जाएगा… वैसे भी लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है,’’ आभा ने बहुत ही संयत स्वर में कहा.

‘‘बच्चे क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में? उन का तो कुछ खयाल करो…’’ राहुल ने इस बार इमोशनल वार किया.

‘‘2-4 सालों में बच्चे भी अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएंगे, फिर शायद वे वापस मुड़ कर भी इधर न आएं. राहुल. मैं ने सारी उम्र अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं… बिना तुम से कोईर् सवाल किए अपना हर फर्ज निभाया है, फिर चाहे वह पत्नी का हो अथवा मां का… अब मैं कुछ समय अपने लिए जीना चाहती हूं… क्या मु झे इतना भी अधिकार नहीं? आभा की आवाज लगभग भर्रा गई थी.

‘‘तुम पत्नी हो मेरी… मैं कैसे तुम्हें किसी और की बांहों में देख सकता हूं?’’ राहुल ने उसे  झक झोरते हुए कहा.’’

‘‘हां, पत्नी हूं तुम्हारी… मेरे शरीर पर तुम्हारा अधिकार है… मगर कभी सोचा है तुम ने कि मेरा मन आज तक तुम्हारा क्यों नहीं हुआ? तुम्हारे प्यार के छींटों से मेरे मन का आंगन क्यों नहीं भीगा? तुम चाहो तो अपने अधिकार का प्रयोग कर के मेरे शरीर को बंदी बना सकते हो… एक जिंदा लाश पर अपने स्वामित्व का हक जता कर अपने अहम को संतुष्ट कर सकते हो, मगर मेरे मन को तुम सीमाओं में नहीं बांध सकते… हर्ष के बारे में सोचने से नहीं रोक सकते…’’ आभा ने शून्य में ताकते हुए कहा.

‘‘अच्छा? क्या वह हर्ष भी तुम्हारे लिए इतना ही दीवाना है? क्या वह भी तुम्हारे लिए अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार है?’’ राहुल ने व्यंग्य से कहा.

‘‘दीवानगी का कोई पैमाना नहीं होता… वह मेरे लिए किस हद तक जा सकता है यह मैं नहीं जानती, मगर मैं उस के लिए किसी भी हक तक जा सकती हूं,’’ आशा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘अगर तुम ने इस व्यक्ति से अपना रिश्ता खत्म नहीं किया तो मैं उस के घर जा कर उस की सारी हकीकत बता दूंगा,’’ कहते हुए राहुल ने गुस्से में आ कर आभा के हाथ से मोबाइल छीन कर उसे जमीन पर पटक दिया. मोबाइल बिखर कर आभा के दिल की तरह टुकड़ेटुकड़े हो गया.

राहुल की आखिरी धमकी ने आभा को सचमुच ही डरा दिया था. वह नहीं  चाहती थी कि उस के कारण हर्ष की जिंदगी में कोई तूफान आए. वह अपनी खुशियों की इतनी बड़ी कीमत नहीं चुका सकती थी. उस ने मोबाइल के सारे पार्ट्स फिर से जोड़े और देखा तो पाया कि वह अभी भी चालू स्थिति में है.

‘‘शायद मेरे हिस्से नियति ने खुशी लिखी ही नहीं… मगर मैं तुम्हारी खुशियां नहीं निगलने दूंगी… तुम ने जो खूबसूरत यादें मु झे दी हैं उन के लिए तुम्हारा शुक्रिया…’’ एक आखिरी मैसेज उस ने हर्ष को लिखा और मोबाइल से सिम निकाल कर टुकड़ेटुकड़े कर दी.

उधर हर्ष को कुछ भी सम झ नहीं आया कि यह अचानक क्या हो गया. उस ने आभा को फोन लगाया, मगर फोन ‘स्विच्डऔफ’ था. फिर उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ा, मगर वह भी अनसीन ही रह गया. अगले कई दिन हर्ष उसे फोन ट्राई करता रहा, मगर हर बार ‘स्विच्डऔफ’ का मैसेज पा कर निराश हो उठता. उस ने आभा को फेस बुक पर भी कौंटैक्ट करने की कोशिश की, लेकिन शायद आभा ने फेस बुक का अपना अकाउंट ही डिलीट कर दिया था. उस के किसी भी मेल का जवाब भी आभा की तरफ से नहीं आया.

एक बार तो हर्र्ष ने जोधपुर जा कर उस से मिलने का मन भी बनाया, मगर फिर यह सोच कर कि कहीं उस की वजह से स्थिति ज्यादा खरब न हो जाए… उस ने सबकुछ वक्त पर छोड़ कर अपने दिल पर पत्थर रख लिया और आभा को तलाश करना बंद कर दिया.

इस वाकेआ के बाद आभा ने अब मोबाइल रखना ही बंद कर दिया. राहुल के बहुत जिद करने पर भी उस ने नई सिम नहीं ली. बस कालेज से घर और घर से कालेज तक ही उस ने खुद को सीमित कर लिया. कालेज से भी जब मन उचटने लगा तो उस ने छुट्टियां लेनी शुरू कर दीं, मगर छुट्टियों की भी एक सीमा होती है. साल भर होने को आया. अब आभा अकसर ही विदआउट पे रहने लगी. धीरेधीरे वह गहरे अवसाद में चली गई. राहुल ने बहुत इलाज करवाया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ.

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अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था. एक तो आभा की बीमारी ऊपर से उस की सैलरी भी नहीं आ रही थी. राहुल को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही थी जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था. पतिपत्नी जैसा भी कोई रिश्ता अब उन के बीच नहीं रहा था. यहां तक कि आजकल तो खाना भी अक्सर या तो राहुल को खुद बनाना पड़ता था या फिर बाहर से आता.

‘‘मरीज ने शायद खुद को खत्म करने की ठान ली है… जब तक यह खुद जीना नहीं चाहेंगी, कोई भी दवा या इलाज का तरीका इन पर कारगर नहीं हो सकता,’’ सारे उपाय करने के बाद अंत में डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए.

‘‘देखो, अब बहुत हो चुका… मैं अब तुम्हारे नाटक और नहीं सहन कर सकता… आज तुम्हारी प्रिंसिपल का फोन आया था. कह रहे थे कि तुम्हारे कालेज की तरफ से जयपुर में 5 दिन का एक ट्रेनिंग कैंप लग रहा है. अगर तुम ने उस में भाग नहीं लिया तो तुम्हारा इन्क्रीमैंट रुक सकता है. हो सकता है कि यह नौकरी ही हाथ से चली जाए. मेरी सम झ में नहीं आता कि तुम क्यों अच्छीभली नौकरी को लात मारने पर तुली हो… मैं ने तुम्हारी प्रिंसिपल से कह कर कैंप के लिए तुम्हारा नाम जुड़वा दिया है. 2 दिन बाद तुम्हें जयपुर जाना है,’’ एक शाम राहुल ने आभा से तलखी से कहा.

आभा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

आभा के न चाहते हुए भी राहुल ने उसे ट्रेनिंग कैंप में भेज दिया.

‘‘यह लो अपना मोबाइल… इस में नई सिम डाल दी है. अपनी प्रिसिपल को फोन कर के कैंप जौइन करने की सूचना दे देना ताकि उसे तसल्ली हो जाए,’’ टे्रन में बैठाते समय राहुल ने कहा.

आभा ने एक नजर अपने पुराने टूटे मोबाइल पर डाली और फिर उसे पर्स में धकेलते हुए टे्रन की तरफ बढ़ गई. सुबह जैसे ही आभा की ट्रेन जयपुर स्टेशन पर पहुंची, वह यंत्रचलित सी नीचे उतरी और धीरेधीरे उस बैंच की तरफ बढ़ चली जहां हर्ष उसे बैठा मिला करता था. अचानक ही कुछ याद कर के आभा के आंसुओं का बांध टूट गया. वह उस बैंच पर बैठ कर फफक पड़ी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उसी होटल की तरफ चल दी जहां वह हर्ष के साथ रुका करती थी. उसे दोपहर बाद 3 बजे कैंप में रिपोर्ट करनी थी.

संयोग से आभा आज भी उसी कमरे में ठहरी थी जहां उस ने पिछली दोनों बार हर्ष के साथ यादगार लमहे बिताए थे. वह कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी. उस ने रूम का दरवाजा तक बंद नहीं किया था.

तभी अचानक उस के पर्र्स में रखे मोबाइल में रिमाइंडर मैसेज बज उठा, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष’ देख कर आभा एक बार फिर सिसक उठी, ‘‘उफ्फ, आज 4 मार्च है.’’

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अचानक 2 मजबूत हाथ पीछे से आ कर उस के गले के इर्दगिर्द लिपट गए. आभा ने अपना भीगा चेहरा ऊपर उठाया तो सामने हर्ष को देख कर उसे यकीन ही नहीं हुआ. वह उस से कस कर लिपट गई. हर्ष ने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘हैप्पी ऐनिवर्सरी.’

आभा का सारा अवसाद आंखों के रास्ते बहता हुआ हर्ष की शर्ट को भिगोने लगा. वह सबकुछ भूल कर उस के चौड़े सीने में सिमट गई.

येलो और्किड: भाग 4- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

कुछ सोचविचार करने के बाद उस ने उन्हें फोन कर के अगली शाम को घर पर डिनर के लिए आमंत्रित कर लिया और साथ ही, बता दिया कि वह उन्हें अपने बच्चों से मिलाना चाहती है. उस का इरादा यही था कि बच्चे एक बार सुरेंदर से मिल लें, फिर मधु विकास और सुरभि को विवाह के प्रस्ताव के बारे में बताएगी. यह सोच कर ही उस के मन में लाजभरी हंसी फूट गई. उस के बच्चे जैसे उस के अभिभावक बन गए हों और वह कोई कमउम्र लड़की थी जैसे.

दूसरे दिन सुबह उस ने बच्चों की पसंद का नाश्ता बना कर खिलाया. विकास और सुरभि के बच्चे हमउम्र थे. एक नई फिल्म लगी थी, सब ने मिल कर देखने का मन बनाया. मधु ने सब को यह कह कर भेज दिया कि तुम लोग जाओ, मुझे शाम के खाने की तैयारी करनी है.

‘‘कौन आ रहा है मां, शाम को डिनर पर?’’ सुरभि ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘है कोई, एक बहुत अच्छे दोस्त समझ लो, शाम को खुद ही मिल लेना,’’ मधु ज्यादा नहीं बताना चाहती थी.

विकास, मोनिका और सुरभि ने एकदूसरे को देख कर कंधे उचकाए. आखिर यह नया दोस्त कौन बन गया था मां का.

शाम को डिनर टेबल पर ठहाकों पे ठहाके लग रहे थे. सुरेंदर के चटपटे किस्सों में सब को मजा आ रहा था, उस पर उन का शालीन स्वभाव. सब का मन मोह लिया था उन्होंने. मधु संतोषभाव से सब की प्लेटों में खाना परोसती जा रही थी.

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सुरेंदर के जाने के बाद सब लिविंगरूम में बैठ गए. मोनिका सब के लिए कौफी बना लाई. यही उचित मौका था बात करने का. सब सुरेंदर से भी मिल लिए थे, तो बात करना आसान हो गया था मधु के लिए.

उस ने धीरेधीरे सारी बात सब के सामने रखी, सुरेंदर के विवाह प्रस्ताव के बारे में भी बताया.

उस ने बेटे की तरफ देखा प्रतिक्रिया के लिए, कुछ देर पहले के खुशमिजाज चेहरे पर संजीदगी के भाव थे. उस के माथे पर पड़ी त्योरियां देख मधु का मन बुझ गया. उस ने सुरभि की तरफ देखा, वह भी भाई के पक्ष में लग रही थी.

‘‘मां, इस उम्र में आप को यह सब क्या सूझी, इस उम्र में कोई शादी करता है भला? हमें तो लगा था, आप दोनों अच्छे दोस्त हैं, बस,’’ तल्ख स्वर में सुरभि बोली.

‘‘हम अच्छे दोस्त हैं, यही सोच कर तो इस बारे में सोचा. हमारे विचार मिलते हैं, एकदूसरे के साथ समय बिताना अच्छा लगता है, और इसी उम्र में तो किसी के साथ और अपनेपन की जरूरत महसूस होती है.’’

‘‘आप, बस, अपने बारे में सोच रही हैं, मां, लोग क्या कहेंगे कभी सोचा है? इतना बड़ा फैसला लेने से हमारी जिंदगी में क्या असर पड़ेगा. निधि और विधि अब बड़ी हो रही हैं. उन्हें कितनी शर्मिंदगी होगी इस बात से कि उन की दादी इस उम्र में शादी कर रही हैं,’’ आवेश में विकास की आवाज ऊंची हो गई.

मोनिका ने उसे शांत कराया और मधु से बोली, ‘‘मां, आप अकेले बोर हो जाती हैं, तो कोई हौबी क्लास या क्लब जौइन कर लीजिए. हमारे पास आ कर रहिए या फिर दीदी के पास. और वैसे भी, इस उम्र में आप को पूजापाठ में मन लगाना चाहिए. इस तरह गैरमर्द के साथ घूमनाफिरना आप को शोभा नहीं देता.’’

कितना कुछ कह रहे थे सब मिल कर और मधु अवाक सुनती जा रही थी. उस का मन कसैला हो आया. ऐसा लगा मानो ये उस के अपने बच्चे नहीं, बल्कि समाज की सड़ीगली सोच बोल रही है. अपने ही घर में अपराधिन सा महसूस होने लगा उसे. खिसियाई सी टूटे हुए मन से वह उठी और सब को शुभरात्रि बोल कर अपने कमरे में चली आई.

जिस बेटे को पढ़ालिखा कर विदेश भेजा, वह विदेशी परिवेश में इतने वर्ष रहने के बाद भी दकियानूसी सोच से बाहर नहीं निकल पाया था. और सुरभि, कम से कम उस को तो मधु का साथ देना चाहिए था बेटी होने के नाते. जब सुरभि ने अपने लिए विजातीय लड़का पसंद किया तो सारे रिश्तेनाते वालों न जम कर विरोध किया था, विकास भी खिलाफ हो गया था. एक मधु ही थी जिस ने सुरभि के फैसले का न सिर्फ समर्थन किया, बल्कि अपने बलबूते पर धूमधाम से सुरभि की शादी भी कराई.

एक मां के सारे फर्ज मधु बखूबी निभाती आईर् थी. कोई कमी नहीं रखी परवरिश में कभी. लेकिन, मां होने के साथ वह एक औरत भी तो थी. क्या उस की अस्मिता, खुशी कोई माने नहीं रखती थी? क्या उसे अपने बारे में सोचने का कोई अधिकार नहीं था? अकेलेपन का दर्र्द उस से बेहतर कौन समझ सकता था. कितनी ही बार घबरा कर वह रातों को चौंक कर उठ जाती थी. कभी बीमार पड़ती, तो कोई पानी पिलाने वाला न होता.

एक दुख और आक्रोश उस के भीतर उबलने लगा. अपनों का स्वार्थ उस ने देख लिया था. बड़ी देर तक उसे नींद नहीं आई. बात जितनी सरल लग रही थी, उतनी थी नहीं. मधु अपनी जिम्मेदारियों से फारिग हो चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ालिखा कर उस ने पैरों पर खड़ा कर दिया था. दोनों बच्चों के सामने कभी उस ने हाथ नहीं फैलाया था. आखिर ऐसा क्या मांग लिया था उस ने जो अपने बच्चे ही खिलाफ हो गए. सोचतेसोचते कब सुबह हुई, पता नहीं चला उसे.

कुछ भी हो, उसे सब का सामना करना ही था. बच्चे कुछ दिनों के लिए आए थे, उन्हें वह नाराज नहीं देखना चाहती थी. आखिरकार, मां की ममता औरत पर भारी पड़ गई. नहाधो कर मधु रसोई में आई, तो देखा बहू मोनिका टोस्ट तैयार कर रही थी नाश्ते के लिए.

‘‘अरे, तुम रहने देतीं, मैं छोलेपूरी बना देती हूं जल्दी से, विकास को बहुत पसंद है न.’’

‘‘विकास नाश्ता हलका खाते हैं आजकल, सो, आप रहने दीजिए,’’ मोनिका रुखाई से बोली.

सब के तेवर बदले नजर आ रहे थे. मधु भरसक सामान्य बनने की चेष्टा करती रही. 2 दिनों बाद ही सुरभि वापस जाने लगी, तो विकास ने भी सामान बांध लिया.

‘‘तू तो महीनाभर रहने वाला था न?’’ मधु ने उस से पूछा.

‘‘सोचा तो यही था, मगर…’’

‘‘मगर क्या? साफ बोल न,’’ बोलते मधु का गला भर आया.

सुरभि ने मधु का तमतमाया चेहरा देखा, तो बचाव के लिए बीच में आ गई.

‘‘मां, निधि और विधि कुछ दिन मुंबई घूमना चाहते हैं, तो मैं ने सोचा, सब साथ ही चलें. कुछ दिन रह कर लौट आएंगे.’’

मधु की भी छुट्टियां अभी बची थीं. लेकिन किसी ने उसे साथ चलने को नहीं कहा. सब मुंबई चले गए. तो मधु ने काम पर जाना शुरू कर दिया. अकेली घर पर करती भी तो क्या.

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जो कुछ उस के दिल में था, उस ने उड़ेल कर सुरेंदर के सामने रख दिया. आंखों में आंसू लिए भर्राए स्वर में वह बोली, ‘‘कभी सोचा नहीं था बच्चों की नजरों में यों गिर जाऊंगी, नाराज हो कर सब चले गए. गलती उन की नहीं, मेरी है जो स्वार्थी हो गई थी मैं,’’ यह कह कर मधु सिसक पड़ी.

उसे ऐसी हालत में देख कर सुरेंदर को खुद पर ग्लानि हुई. मधु के परिवार में उन की वजह से ही यह तूफान आया था.

उन्होंने मधु को सब ठीक हो जाने का दिलासा दिया. पर दिल ही दिल में वे खुद को इस सारे फसाद की जड़ मान रहे थे.

2 दिन बीत चुके थे. सुरभि और विकास का कोईर् फोन नहीं आया था. मधु अंदर से बेचैन थी. रातभर उसे नींद नहीं आती थी. दोनों उस से इतने खफा थे कि एक फोन तक नहीं किया. वह बेमन से एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी फोन की घंटी बजी.

सुरभि की आवाज कानों

में पड़ी, ‘‘मां, सौरी,

आप को अपने पहुंचने की सूचना भी नहीं दे पाए. यहां आते ही भैया बीमार हो गए थे. डाक्टर ने टाइफाइड बताया है. भैया अस्पताल में ऐडमिट हैं. वे आप को बहुत याद कर रहे हैं. मां, हो सके तो आप जल्द से जल्द मुंबई पहुंच जाएं.’’

मधु रिसीवर कान से लगाए गुमसुम सुनती जा रही थी. पहले भी 2 बार विकास को टाइफाइड हो चुका था. जब भी वह बीमार पड़ता था, मां को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ता था. मां की ममता बेटे की बीमारी की खबर सुन बेचैन हो गई.

‘‘मां, आप सुन रही हो न. मां, कुछ तो बोलो,’’ दूसरी तरफ से सुरभि की परेशान आवाज सुनाई दी. मां का कोई जवाब न पा कर उसे फिक्र होने लगी.

‘‘मैं सुन रही हूं. मैं आज ही आ रही हूं. तू चिंता मत कर. बस, विकास का ध्यान रखना. मैं पहुंच रही हूं वहां,’’ मधु ने जल्दी से फोन रखा. अपने पहचान के ट्रैवल एजेंट को फोन कर के पहला उपलब्ध टिकट बुक करा लिया. फ्लाइट जाने में अभी वक्त था, उस ने कुछ जोड़ी कपड़े और जरूरी सामान एक बैग में डाला. दरवाजे की घंटी बजी तो मधु झल्ला गई. इस वक्त उसे किसी से नहीं मिलना था.

उस ने उठ कर दरवाजा खोला. एक आदमी गुलदस्ता थामे खड़ा था. मधु ने उसे पहचान लिया. वह सुरेंदर के यहां काम करता था.

‘‘साहब ने भेजा है,’’ उस ने गुलदस्ता मधु को पकड़ा दिया और चला गया.

येलो और्किड के ताजे फूल, साथ में एक लिफाफा भी था. मधु ने लिफाफा खोल कर चिट्ठी निकाली –

‘‘प्रिय मधु,

‘‘ये फूल हमारी उस दोस्ती के नाम जो किसी रिश्ते या बंधन की मुहताज नहीं है. मैं ने तुम्हें एक कशमकश में डाला था जिस ने तुम्हारी जिंदगी की शांति और खुशी छीन ली और आज मैं ही तुम्हें इस कशमकश से आजाद करना चाहता हूं. दोस्ती की जगह कोई दूसरा रिश्ता नहीं ले सकता क्योंकि यही एक रिश्ता है जहां कोई स्वार्थ नहीं होता.

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‘‘एक मां को उस के बच्चों का प्यार और सम्मान हमेशा मिलता रहे, यही कामना करता हूं.

‘‘सदा तुम्हारा शुभचिंतक.’’

उस ने खत को पहले वाले खत के साथ सहेज कर रख दिया. मन का भारीपन हट चुका था. दोस्ती की अनमोल सौगात की निशानी येलो और्किड उसे देख कर, जैसे मुसकरा रहे थे.  येलो और्किड : भाग 2

आगामी अतीत: भाग 3- आशीश को मिली माफी

पिछले 5 साल तक उन्होंने कितनी बार कोशिश की ज्योत्स्ना के पास वापस लौटने की. वह ज्योत्स्ना के बारे में सबकुछ पता करते रहते थे. ज्योत्स्ना के जीवन में आतेजाते उतारचढ़ाव से वह अनभिज्ञ नहीं थे. कई बार दिल करता कि भाग कर जाएं ज्योत्स्ना के आंसू पोंछने… उन की बेटी डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, जब वह मेडिकल में निकली थी तब उन्हें हार्दिक खुशी हुई थी…गर्व हो आया था बेटी पर…दामिनी ने तो कभी मां बनना चाहा ही नहीं था.

बेटी जब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर के आ गई तब न जाने कितनी बार उस अस्पताल के गेट पर खड़े रहे थे पागलों की तरह, बेटी की एक झलक पाने के लिए, लेकिन कारों व लोगों की भीड़ में वह कभी भावना को देख नहीं पाए.

तभी उन के जीवन में यह दुखद मोड़ आया. आफिस में ही उन्हें पक्षाघात का अटैक पड़ा. उन के आफिस के दोस्त जब उन्हें अस्पताल ले जाने लगे तब वह बहुत मुश्किल से उन्हें उस अस्पताल का नाम समझा पाए, जहां उन की बेटी काम करती थी, इस उम्मीद में कि शायद उन की अपनी बेटी से अंतिम समय में मुलाकात हो जाए…और ऐसा हुआ भी पर भावना ने उन्हें पहचाना नहीं या फिर पहचानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

वह तो भावना को चिट्ठी लिख कर भी भूल गए थे, लेकिन आज भावना को अपने सामने देख कर उन का अपने परिवार के पास लौटने का सपना अंगड़ाई लेने लगा था. उन की सुप्त भावनाएं फिर जोर पकड़ने लगीं, लेकिन पता नहीं ज्योत्स्ना उन्हें माफ कर पाएगी या नहीं…

तभी बाहर सड़क पर किसी गाड़ी के हार्न की तेज आवाज सुन कर वह अपने अतीत से बाहर निकल आए. न जाने वह कब से ऐसे ही बैठे थे. उन्होंने कार्ड उठा कर उसे उलटापलटा और मन में निश्चय किया कि बेटी की शादी में अवश्य जाएंगे. परिणाम चाहे कुछ भी हो. ज्योत्स्ना उन का अपमान भी कर देगी तब भी वह उस दुख से कम ही होगा जो उन्होंने उसे दिया है और जो उन्हें अपने परिवार से अलग रह कर मिल रहा है. सोच कर उन का हृदय शांत हो गया.

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उधर घर आ कर भावना अपने हृदय को शांत नहीं कर पा रही थी. पता नहीं उस ने अच्छा किया या बुरा…मम्मी पर इस की क्या प्रतिक्रिया होगी…मम्मी से कुछ भी कहने की उस की हिम्मत नहीं थी…अब तो जो भी होगा देखा जाएगा, यह सोच कर उस ने अपने दिलोदिमाग को शांत कर लिया.

आखिर विवाह का दिन आ पहुंचा. दुलहन बनी भावना खुद को शीशे में निहार रही थी. मम्मी पसीने से लस्तपस्त इधरउधर सब संभालने में लगी हुई थीं. बरात आने वाली थी. उस के डाक्टर मित्र मम्मी की थोड़ीबहुत मदद कर रहे थे, तभी बैंडबाजे की आवाज आने लगी. ‘बरात आ गई… बरात आ गई’ कहते सब बाहर भाग गए. वह कमरे में अकेली खड़ी रह गई.

पापा अभी तक नहीं आए…पता नहीं आएंगे भी या नहीं…काश, उस की कोशिश कामयाब हो जाती. तभी मम्मी उस को लेने कमरे में आ पहुंचीं.

‘‘चल, भावना…जयमाला के लिए चल,’’ तो वह मम्मी के साथ मंच की तरफ चल दी. जयमाला हुई, खाना खत्म हुआ, फेरे शुरू हो गए…खत्म भी हो गए, उस की निगाहें गेट की तरफ लगी रहीं. उस को ऐसा खोया देख कर मम्मी ने एकदो बार टोका भी पर उस के दिमाग में क्या ऊहापोह चल रही है, उन्हें क्या पता था.

फेरे के बाद उस के डाक्टर मित्र, रिश्तेदार सब अपनेअपने घर चले गए. सुबह विदाई के वक्त कुछ बहुत नजदीकी रिश्तेदार ही रह गए. उस की विदाई की तैयारियां हो रही थीं पर उस का हृदय उदास था. पापा ने यह अवसर खो दिया. इस खुशी के मौके व अकेलेपन के मोड़ पर मम्मी, पापा को माफ कर देतीं.

तभी डा. आर्या अंदर आ कर बोली, ‘‘भावना, तुम्हें कोई पूछ रहा है.’’

‘‘मुझे…’’

‘‘हां, कोई आशीश शर्मा हैं…’’

‘‘आशीश शर्मा…’’ वह खुशी के अतिरेक में डा. आर्या का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मेरा एक काम कर दो डाक्टर… उन्हें यहां ले आओ, मेरे कमरे में.’’

‘‘यहां…’’ डा. आर्या आश्चर्य से बोली, ‘‘कौन हैं वह.’’

‘‘सवाल मत करो. बस, उन्हें यहां ले आओ…’’

थोड़ी देर बाद डा. आर्या, आशीश शर्मा को ले कर कमरे में आ गई.

‘‘आप कल शादी में क्यों नहीं आए, पापा,’’ वह उलाहने भरे स्वर में बोली. उस के स्वर के अधिकार से बरसों की दूरी पल भर में छिटक गई. आशीश शर्मा ठगे से खडे़ रह गए. मन किया बेटी को गले लगा लें पर अपने किए अपराध ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. बाप का अधिकार उन के वजूद से छिटक कर अलग खड़ा हो गया.

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‘‘बेटी, मैं ने सोचा, तुम्हारी मम्मी की न जाने क्या प्रतिक्रिया हो…तुम्हारी शादी है…उन का मूड मुझे देख कर खराब न हो जाए…मैं जश्न में विघ्न नहीं डालना चाहता था.’’

‘‘मम्मी कहां हैं डा. आर्या…’’ वह आश्चर्यचकित खड़ी डा. आर्या से बोली.

‘‘शायद अंदर वाले कमरे में विदाई की तैयारी कर रही हैं.’’

‘‘चलिए, पापा,’’ वह आशीश शर्मा का हाथ पकड़ कर अंदर जा कर मम्मी के सामने खड़ी हो गई. अचानक इतने वर्षों बाद अपने सामने आशीश शर्मा को यों लाठी के सहारे खड़ा देख कर ज्योत्स्ना संज्ञाशून्य सी देखती रह गईं.

‘‘तुम…’’

‘‘मम्मी, पापा आप से कुछ कहना चाहते हैं…बोलिए न पापा, जो कुछ आप ने पत्र में लिखा था.’’

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…जिस के लिए तुम्हें इतने दुख दिए वह तो वर्षों पहले मुझे छोड़ कर चली गई. मैं जानता हूं कि मेरा अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, इसी कारण मैं इतने सालों तक वापस आने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाया…मैं ने कोशिश तो बहुत की…मैं ही जानता हूं, कितना तड़पा हूं तुम दोनों के लिए… भावना की एक झलक पाने के लिए अस्पताल के गेट पर पागलों की तरह खड़ा रहता था…तुम्हें देखने के लिए स्कूल के चक्कर काटा करता था. कभी तुम दिख भी जातीं तो अपनेआप में मगन… फिर सोचता, कितने दुख दिए हैं तुम्हें… बहुत मुश्किल से संभली हो…कहीं मेरे कारण तुम्हारी मुश्किल से संभली जिंदगी फिर से बिखर न जाए…

‘‘यही सब सोच कर मेरी कोशिश कमजोर पड़ जाती. अपनी बीमारी में भी उसी अस्पताल में इसीलिए भरती हुआ कि जिंदगी के आखिरी दिनों में बेटी को जी भर कर देख लूंगा.

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…आज भी अगर भावना जोर नहीं देती तो मैं तुम से माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता,’’ लाठी को बगल के सहारे टिका कर आशीश शर्मा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

ज्योत्स्ना का मन किया कि वह फूटफूट कर रो पडे़. बेटी की विदाई, आशीश का यों माफी मांगना, इतने वर्षों का संघर्ष…उन की रुलाई गले में आ कर मचलने लगी. आंखें बरसने से पहले उन्होंने बापबेटी की तरफ अपनी पीठ फेर दी, लेकिन हिलती पीठ से भावना समझ गई कि मम्मी रो रही हैं.

मम्मी के दोनों कंधों को पकड़ कर भावना बोली, ‘‘पापा को माफ कर दीजिए…गलती उन से हुई है पर उस की सजा भी उन को मिल चुकी है… अकेलापन उन्होंने भी झेला है, भले ही अपनी गलती से…प्लीज मम्मी…मेरी खातिर…’’ उस ने मम्मी का चेहरा धीरे से अपनी तरफ किया.

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‘‘बहुत बड़ी हो गई है तू यह सब करने के लिए…’’ मम्मी रुंधी आवाज में बोलीं पर उन की आवाज में गुस्सा नहीं बल्कि हार कर जीत जाने का एहसास था.

‘‘मम्मी, मैं इस घर को, अपने परिवार को पूर्ण देखना चाहती हूं,’’ कहते हुए भावना ने पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें पास खींच लिया. ज्योत्स्ना ने भरी नजरों से आशीश की तरफ देखा, जैसे कह रही हों, तुम मेरी जगह होते तो क्या माफ कर देते, जो मैं करूं. लेकिन आशीश शर्मा ने हिम्मत कर के ज्योत्स्ना के कंधों के चारों तरफ अपनी बांहें फैला दीं. रोती हुई वह पति आशीश के कंधे से लग गईं. दोनों को अपनी बांहों के घेरे से बांध कर भावना भी रो रही थी.

विदाई की बेला पर कार में बैठते हुए भावना आंसू भरी नजरों से गेट पर एकसाथ खडे़ मम्मीपापा की छवि को जैसे अपनी आंखों में समा लेना चाहती थी.

वक्त की अदालत में: भाग 3- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

पलट कर देखा, तो मुकीम अंगारे उगलती आंखों और विद्रूप चेहरे पर व्यंग्यभरी मुसकान से बोला, ‘इतना सजधज कर स्कूल जा रही है, या कहीं मुजरा करने जा रही है.’ सुन कर मैं अपमान और लांछन के दर्द से तिलमिला गई, ‘हां तवायफ हूं न, मुजरा करने जा रही हूं. और तुम क्या हो, तवायफ की कमाई पर ऐश करने वाले.’

‘आज तो तु झे जान से मार डालूंगा मैं…ले, ले,’ कहते हुए मुकीम मेरे कमर से नीचे तक के लंबे घने खुले बालों को खींच कर घर के मुख्य दरवाजे पर ही पटक कर लातोंघूसों से मारने लगा. नई साड़ी तारतार हो गई. कुहनी, घुटना और ठुड्डी से खून बहने लगा. सड़क से आतेजाते लोग औरत की बदकिस्मती और मर्द की सरपस्ती का भयानक व हृदयविदारक दृश्य देखने लगे. ‘बड़ा जाहिल आदमी है, पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा औरत के साथ कैसा जानवरों सा सुलूक कर रहा है,’कहते हुए औरतें रुक जातीं. जबकि मर्द देख कर भी अनदेखा करते हुए तटस्थभाव से आगे बढ़ जाते.

‘मियांबीवी का मामला है, अभी  झगड़ रहे हैं 2 घंटे बाद एक हो जाएंगे. बीच में बोलने वाले बुरे बन जाएंगे. छोड़ो न, हमें क्या करना है,’ कहते और सोचते हुए पड़ोसी खिड़कियां बंद करने लगे और राहगीर अपनी राह पकड़ कर आगे बढ़ गए.

भूख, तंगदस्ती, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न अपनी पराकाष्ठा पार करने लगा था. फिर भी मैं अपने और बच्चों की लावारिसी की खौफनाक कल्पना से डर कर 12 सालों तक चुप्पी साध कर मुकीम के घर में ही रहने के लिए विवश थी. लेकिन मुकीम ने अस्मिता पर चोट  की तो मैं बिलबिला कर शेरनी की तरह बिफर गई, ‘लो मारो. और मारो मुझे. लो, बच्चों को भी मार डालो. अपनी तमाम खामियां और कमजोरियां मर्दाना ताकत से दबा कर सिर्फ मजबूर औरत पर जुल्म कर सकते हो न, बड़ा घमंड है अपने मर्द होने पर. जानती हूं मेरे बाद कई औरतों से कई बच्चे पैदा करने की ताकत है तुम में, लेकिन सच यह है कि इस के अलावा और कोई खूबी भी तो नहीं तुम में. इसलिए तो मेरे वकार, मेरी ईमानदारी को लहुलूहान कर के खुश होने का भ्रम पाल रखा है तुम ने.’

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‘साली, सजधज कर बाहर के मर्दों को रि झाने जाती है. कुछ कहने पर मुंहजोरी करती है. आज तो मैं तु झे सबक सिखा कर रहूंगा. दो पैसे कमाने का इतना घमंड दिखलाती है. ले, अब चला मुंह,’ कहते हुए मुकीम वहशी की तरह दौड़ा और पास पड़े 3 फुट लंबे चमड़े के पाइप को उठा कर पूरी ताकत से बरसाने लगा मेरे तांबे से जिस्म पर, सटाक, सटाक. आसमान देख रहा था चुपचाप, धरती देख रही थी चुपचाप, महल्ला देख रहा था चुपचाप, हवा बह रही थी चुपचाप. कोई एक कदम आगे न बढ़ा मुकीम की कलाई मरोड़ने के लिए. न ही मेरे जख्मों पर मरहम लगाने के लिए. पड़ोसिन सिद्दीकी आंटी मुंह पर पल्लू रख कर धीरे से बुदबुदाई थीं, ‘इसलिए तो औरत के बेबाक बाहर जाने पर पाबंदी लगाई जाती है. औरत को बाहर की हवा लगते ही वह मुंहफट और दीदेफटी हो जाती है.’

2 बच्चों की मां, कमाई करने वाली औरत, घर में नौकरानी की तरह खटने वाली औरत मैं 12 वर्षों तक अपने हक की रक्षा न कर सकी. खुदगर्ज मर्द के साथ बराबरी का सम्मान हासिल न कर पाईर्. 21वीं सदी की मुसलिम महिला की इस से बड़ी त्रासदी व विडंबना और क्या हो सकती है.

3 दशकों पहले राजीखुशी के समाचार खतों के जरिए ही मालूम होते थे. मैं ने कई बार सोचा, अम्मी व अब्बू को तब के मौजूदा हालात से वाकिफ करवा दूं, मगर हर बार उन की बुजुर्गी का सवाल कैक्टस की तरह चुभने लगता. मैं अपने भीतर की तपिश को ज्यादा दिन बरदाश्त नहीं कर पाई. जिस्मोदिल चूरचूर हो गए थे. बुरी तरह से बीमार पड़ गई. स्कूल से लंबी छुट्टी. सूखा, टूटता, बिखरता शरीर. भूख से तड़पते दोनों मासूम बच्चों की सिसकियां. मुकीम को पछतावा तो दूर उन की फिक्र करने की भी चिंता न थी.

उस की कमीनगी ने एक और रूप से परिचित करवा दिया. ‘मेहर सीरियस, कम सून.’ पोस्टमैन के हाथ से तार लेते हुए अब्बू थरथराने लगे थे. ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. जल्दी से पानी ला,’ अम्मी की बदहवास चीखों ने घर की दीवारों को थर्रा दिया. तबीयत संभली तो तीसरे दिन अब्बू सहर के साथ मुकीम की ड्योढ़ी पर खड़े थे. लाचार, बेबस बाप, मेरे चेहरे के नीचे स्याह धब्बों को लाचारगी से देखते हुए सीने से लगा कर फफक कर रो पड़े. नाजों में पली फूल सी बच्ची पर इतनी बर्बरता के निशान, उफ, बेटी पैदा करने की यह सजा. इतनी क्रूरता, ऐसा पाशिविक बरताव, मालूम होता तो पैदा होते ही नमक चटा देते, गला घोंट देते.

पढ़ेलिखे दामाद ने कितने लोगों की जिंदगी को अबाब बना कर रख दिया. न कानून सख्त है, न समाज में हौसला है एक औरत को शारीरिक, मानसिक यंत्रणा देने वाले मर्द को सजा देने का. ये उन के दिए गए संस्कार ही थे जिस की बदौलत बेटी ने ससुराल की ड्योढ़ी से बाहर कदम नहीं निकाला.

अब्बू की कोशिश यही रही कि बात को संभाला जाए. बेबाप के बच्चे, बेशौहर की औरत समाज में नासूर की तरह ही पलते हैं. यह सोच कर अपने आक्रोश का जहर पी कर पत्थर की तरह वे चुप रहे. सहर ने किचन संभाल लिया. अब्बू सौदासलूक के साथ मेरे रिसते जख्मों के लिए मरहम और दवाइयां ले आए. शरीर के घाव तो भर जाएंगे लेकिन मनमस्तिष्क के गहरे घावों को भरने में शायद पूरी उम्र भी कम पड़ जाए. मुकीम परिवार से कटाकटा ही रहा. अब्बू भी उस के मुंह लग कर अपनी इज्जत खोना नहीं चाहते थे. मुसलिम मध्यवर्गीय परिवार का सब से विवश और निरीह प्राणी बेटियों का बाप होता है.

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हफ्तेभर बाद मेरे सिर पर सहानुभूति का हाथ रख कर बोले थे अब्बू, ‘बेटा, आप की अम्मी शुगर और ब्लडप्रैशर की मरीज हैं, आप के लिए बहुत फिक्रमंद हो रही होंगी. मैं शाम की गाड़ी से घर वापस जाने की इजाजत चाहता हूं.’

‘नहीं अब्बू, हमें अकेला छोड़ कर मत जाइए. ये दरिंदे तो हमें…’ मैं ने कस कर अब्बू के दोनों हाथ पकड़ लिए थे. ‘न, न… बेटा, मरे आप के दुश्मन. हौसला रखिए. अभी आप को दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना है, छोटी बहनों को विदा करना है, छोटे भाइयों को बड़ा होते देखना है, और पिं्रसिपल भी तो बनना है.’

‘नहीं, नहीं अब्बू, आप के साथ होने से बड़ी तसल्ली मिलती है. आप के अलावा इस शेर की मांद में हमारी हिफाजत कौन करेगा. आप मत जाइए, अब्बू.’

असमंजस की स्थिति में गिरफ्तार अब्बू काफी देर बाद बोल सके, ‘अच्छा, मैं सहर को कुछ दिनों के लिए आप के पास छोड़ जाता हूं. तसल्ली रहेगी आप को. तबीयत ठीक होते ही खत लिख देना. मैं आ कर ले जाऊंगा.’ डूबते को तिनके का सहारा. मेरा कोई तो अपना मेरे साथ होगा इन लोगों के बीच.

मुकीम अपने रूखे, नीरस और निष्ठुर स्वभाव के कारण बीवीबच्चों के साथ संवेदनशीलता से स्पंदनरहित था. यों तो घर का माहौल शांत था, फिर भी तूफानी हवाओं की सांयसांय अकसर कनपटी गरम कर जाती.

सहर खाली वक्त में बचपन की बातें याद दिला कर हंसाने की पुरजोर कोशिश करती, मगर मेरे चेहरे पर फीकी हंसी की एक लकीर लाने में भी कामयाब न हो पाती.

मैं ने पपड़ाए जख्मों के साथ ही स्कूल जौइन किया. स्टाफरूम की हर निगाह सवाली, मेरे गुलाबी, फड़फड़ाते होंठों से वहशीयत की कहानी सुनने के लिए. मगर सिले होंठों की सिवन कभी न उधेड़ने की प्रतिज्ञा करने पर मेरे खाते में सिर्फ हमदर्दी की शबनम ही आती रही.

उस दिन रोज ही की तरह सहर दोनों बच्चों को अगलबगल लिए दूसरे कमरे में सोई थी. दरवाजे का परदा गिरा था. मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. पानी पीने के लिए उठना ही चाहती थी कि सीढि़यों पर चढ़ती पदचाप सुन कर आंखें मूंदे करवट बदल कर लेटी रही. दवाइयों का असर और शरीर की टूटन ने धीरेधीरे नींद की आगोश में भर दिया. अकसर मुकीम पलंग की दूसरी तरफ चुपचाप आ कर लेट जाता था.

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तीसरे पहर सहर की जोरदार चीख सुन कर मैं कच्ची नींद से उठ कर दूसरे कमरे की तरफ भागी. नींद से बो िझल आंखों को कुछ भी नजर नहीं आया, तो दीवार पर टटोल कर बिजली का बटन दबा दिया. दूधिया रोशनी में सामने का दृश्य देख कर पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. शराब के नशे में धुत मुकीम कमर के नीचे से एकदम नंगा, चित लेटी सहर के ऊपर लेटा एक हाथ से उस के मुंह को दबाए, दूसरे हाथ से उस की छातियां मसल रहा था. दिल हिला देने वाला पाशविक दृश्य किसी भी सामान्य इंसान के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी था. मैं ने अपनी पूरी ताकत सहर को मुकीम की गिरफ्त से छुड़ाने में लगा दी.

अगले भाग में पढ़ें- वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

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