रस्मे विदाई: भाग 1- क्यों विदाई के दिन नहीं रोई मिट्ठी

‘‘यह क्या है मिट्ठी? 2 दिन रह गए हैं तुम्हारी विदाई को और तुम यहां बैठी खीखी कर रही हो, नाक कटवाओगी क्या? तुम लड़कियों को कुछ काम नहीं है क्या? अरे, शादी का घर है, सैंकड़ों काम पड़े हैं, थोड़े हाथपैर चलाओगी तो छोटी नहीं हो जाओगी,’’ नीरा ने अपनी बेटी मिट्ठी और उस की सहेलियों को इस तरह लताड़ा कि सब सकते में आ गईं. सहेलियां उठ कर कमरे से बाहर निकल गईं और इधरउधर कार्य करने का दिखावा करने लगीं. मिट्ठी वहीं बैठी रही और अपनी मां को अपलक देखती रही.

‘‘अब हम क्या करें, मां, कुछ काम भी तो करने नहीं देती हैं आप? हमारे हंसनेबोलने से आप की नाक कटने का खतरा कैसे पैदा हो गया, यह भी हमारी समझ में नहीं आया.’’

‘‘हांहां, तुम्हारी समझ में क्यों आने लगा. अकेले में तुम्हें समझा सकूं, इसीलिए उन लड़कियों को यहां से भगा दिया. हमारे जमाने में तो विवाह से

10-12 दिनों पहले से ही लड़कियां धीरेधीरे स्वर में रोने लगती थीं. आनेजाने वाले भी लड़की से गले मिल कर दो आंसू बहा लेते थे कि लड़की अब पराई होने जा रही है. माना, अब नया जमाना है पर 2 दिन पहले तो धीरेधीरे रो ही सकती हो. नहीं तो लोग क्या कहेंगे कि लड़की को शादी की बड़ी खुशी है.’’

‘‘वाह मां, किस युग की बातें कर रही हैं आप, आजकल विदाई के समय कोई नहीं रोता. हमारी बात तो आप जाने दीजिए, पर आजकल की अधिकतर लड़कियां पढ़ीलिखी हैं, अपने पैरों पर खड़ी हैं. वे इन पुराने ढकोसलों में विश्वास नहीं करतीं.’’

‘‘बदल गया होगा जमाना, पर इस महल्ले में तो सब जैसे का तैसा है, यहां लोग अभी भी पुरानी परंपराओं का पालन करते हैं. हर विवाह के बाद वर्षों यह चर्चा चलती रहती है कि लड़की विदाई के समय कितना रोई. उसी से तो मायके के प्रति लगाव का पता चलता है. अच्छा, मैं चलती हूं, ढेरों काम पड़े हैं, पर अब ठहाके सुनाई न दें, इस का ध्यान रखना,’’ कहती हुई नीरा चली गई थीं.

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उन के जाते ही मिट्ठी का मन हुआ कि वह इतना जोर से खिलखिला कर हंसे कि सारा घर कांप जाए. विदाई के समय रोने की प्रथा को इतनी गंभीरता से तो शायद ही कभी किसी ने लिया हो. 40 वर्ष की उम्र के करीब पहुंच रही है मिट्ठी, अब क्या रोना और क्या हंसना. लेकिन मां नहीं समझेंगी.

आज भी वह दिन मिट्ठी की यादों में उतना ही ताजा है, जब पहली बार उसे वर पक्ष के लोग देखने आए थे. उन दिनों तो उस का अपना अलग ही स्वप्निल संसार था और वास्तविकता से उस का दूरदूर कोई वास्ता नहीं था. घूमनाफिरना, सिनेमा देखना और उत्सवों व विवाहों में भाग लेना, यही उस की दिनचर्या थी. कालेज जाना भी इस में शामिल था पर उस में पढ़ाई से अधिक महत्त्व सहेलियों, फिल्मों और गपशप का था. कालेज जाना तो विवाह होने तक के समय का सदुपयोग मात्र था.

भावी वर को देख कर तो उस की आंखें चौंधिया गई थीं. वैसा सुदर्शन युवक आज तक उस की नजरों के सामने से नहीं गुजरा. साथ ही ऊंची नौकरी, संपन्न परिवार, उस की तो मानो रातोंरात काया ही पलट गईर् थी.

पर जब एक सप्ताह बीतने पर भी उधर से कोई जवाब नहीं मिला था तो सब का माथा ठनका था. शीघ्र ही देवदत्त बाबू से, जो मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे, संपर्क किया गया तो वे स्वयं ही चले आए और आते ही मिट्ठी के पिता को ऐसी खरीखोटी सुनाई थी कि बेचारे के मुख से आवाज नहीं निकली थी.

‘इतने ऊंचे स्तर का घरवर और आप ने उन्हें अच्छे दहेज तक का प्रलोभन नहीं दिया? पूरी बिरादरी में कहीं देखा है ऐसा सजीला युवक?’ देवदत्त बाबू बोले थे.

‘लेकिन देवदत्त बाबू, देखनेसुनने में तो अपनी मिट्ठी भी किसी से कम नहीं है,’ उस के पिता सर्वेश्वर बाबू बोले.

‘हां जी, आप की मिट्ठी तो परी है परी. कल कोई राजकुमार आएगा और फोकट में उसे ब्याह कर ले जाएगा.’ देवदत्त बाबू के स्वर ने अंदर अपने कमरे में बैठी मिट्ठी को पूरी तरह से लहूलुहान कर दिया था और पता नहीं सर्वेश्वर बाबू पर क्या बीती थी.

‘मैं ने तो फोकट में विवाह करने की बात कभी की नहीं, मैं ने आप से पहले ही कहा था कि हम 3 लाख रुपए तक खर्च करने को तैयार हैं,’ सर्वेश्वर बाबू दबे स्वर में बोले थे.

‘सच कहूं? 3 लाख रुपए की बात सुन कर देर तक हंसते रहे थे लड़के के घर वाले. लड़के की मां ने तो सुना ही दिया कि 3 लाख रुपए में कहीं शादी होती है. अरे, इतने में तो ठीक से बरात की खातिरदारी भी नहीं हो सकेगी,’ देवदत्त बाबू ने एक और वार किया था.

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‘इस से अधिक तो मेरे लिए संभव नहीं हो सकेगा. आप तो जानते हैं कि मिट्ठी से छोटे 4 और भाईबहन हैं. बहुत कोशिश करने पर 3 का साढ़े 3 लाख रुपए हो जाएगा.’

‘फिर तो आप उसी स्तर का वर ढूंढ़ लीजिए अपनी मिट्ठी के लिए. आप तो जानते ही हैं कि जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा. वैसे भी उस लड़के का संबंध तय हो गया और 15 लाख रुपए पर बात पक्की हुईर् है. 5-6 लाख रुपए का तो केवल तिलक आएगा,’ कहते हुए देवदत्त बाबू उठ खड़े हुए थे.

मिट्ठी ने बीए पास कर एमए में दाखिला ले लिया था. उधर सर्वेश्वर बाबू ने वर खोजो अभियान तेज कर दिया था. हर माह 2-3 भावी वर और उस के मातापिता उसे देखने आते. पर कुछ न कुछ ऐसा हो जाता था कि बात बनतेबनते रह जाती. सर्वेश्वर बाबू ने अब यह कहना भी बंद कर दिया था कि वे दहेज प्रथा में विश्वास नहीं करते और प्रस्तावित दहेज की रकम बढ़ा कर 4 लाख रुपए कर दी थी. पर जब सभी प्रयत्नों के बाद भी वह बेटी के लिए एक अदद वर नहीं ढूंढ़ पाए तो सब का क्रोध मिट्ठी पर उतरने लगा था. उस की दादीमां ने तो एक दिन खुलेआम ऐलान भी कर दिया था कि घर में कन्या पैदा होने से बड़ा अभिशाप कोई और नहीं है.

अगले भाग में पढ़ें- पुष्पी ने तो मुग्ध हो कर मिट्ठी की उंगलियां ही चूम ली थीं.

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वक्त की अदालत में: भाग 6- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

नया परिवेश, नए लोग, नए मौसम के बीच तालमेल बैठाने की पुरजोर कोशिश में लगी हुई थी. एक दिन प्राचार्य ने स्कूल के बाद मिलने के लिए कहा. अतीत के नुकीले पत्थर पर पड़ कर फिर से कहीं पैर लहुलूहान न हो जाए, अटकलों, ऊहापोहों ने इंटरवल के बाद के 4 पीरियड में पेट में हौल पैदा कर दी. समय की काली छाया मेरा पीछा करते इस नितांत अनजान टापू में तो नहीं घुस आई. ‘यह किसी अब्दुल मुकीम का लैटर मेरे नाम आया है. आप के कैरेक्टर के बारे में बड़ी एब्यूज लैंग्वेज और बैड इन्फौर्मेशन लिखी है. डू यू नो हिम?’

‘यस सर, ही इज माई हसबैंड,’ मैं ने सिर  झुका लिया.

‘ओह, आय सी. तभी तो आप को 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ मीलों का सफर अकेले तय कर के नए माहौल में आने की वजह ढूंढ़ता रहा मैं.’

दुखती नस पर किसी ने हाथ रख दिया. दर्द से बिलबिला गई. आंखों में सावन की  झड़ी लग गई.

‘डोंट वरी, आई विल टैकल दिस मैटर. यू जस्ट कन्सैन्ट्रेट अपौन योर ड्यूटी ऐंड योर चिल्ड्रन.’

‘सर, प्लीज स्टाफ में किसी से…’ मेरे होंठ थरथराए.

‘नो मैडम, कीप फेथ औन मी. आई विल सेव योर रिस्पैक्ट ऐंड औनर.’

घसीटते कदमों ने घर तो पहुंचा दिया मगर कमरे की निस्तब्धता ने कस कर बाहों में बांध लिया. तेज रुलाई फूटी. देर तक निढाल फर्श पर बैठी रही.

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पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे. गरमी की छुट्टियों में बच्चों के साथ कभी समुद्री जहाज से, कभी फ्लाईट से अब्बूअम्मी के पास आती रही. केसों की हियरिंग पर अपनी बरबादी की, मूकदर्शक बनी सड़कों की खाक छानना मेरी मजबूरी बन गई. सहेलियों, रिश्तेदारों से मुकीम की नईनई खबरें मिलती रहीं. मेरे घर से निकलने के 6 महीने बाद ही उस की मां मर गईं. शराब की लत और शक्की स्वभाव ने कोर्ट में मिली औरत को जल्द ही उकता दिया और वह एक रात उस की पूरी तनख्वाह ले कर घर से भाग गई.

16 महीने मुकीम ने नई जोड़ीदार की पुरजोर तलाश की. मुसलिम समाज में मर्द कपड़ों की तरह औरत बदलता है तो बेवा और तलाकशुदा औरतें 2 रोटी और एक छत के लिए किसी भी कमाऊ के साथ निकाह करने के लिए मजबूर हो जाती हैं. समाज का यह लिजलिजा विकृत रूप उस की खोखली व्यवस्था की चूलें हिला कर रख देता है. बीमार मानसिकता, आघातप्रतिघात, दोषारोपण की खरपतवार आने वाली फसल को कमजोर बनाती जा रही है. अशिक्षित मुसलिम समाज भारत की प्रगति में कंधे से कंधे मिलाना तो दूर, मजहबी संकीर्णता की खोह में लिपटा कुलबुलाकुलबुला कर ही दम तोड़ देता है.

एक साल के बाद ही मुकीम ने एक बच्चे की बेवा मां का सिरमौर बनने का फख्र हासिल कर लिया.  उस ने एक साल बाद मुकीम को एक लड़की का पिता बना दिया. मुकीम सीना ताने घूमता, ‘अभी और 10 बच्चे पैदा करने की ताकत रखता हूं. औरतें मेरे लिए नहीं, मैं औरतों का उद्धार करने के लिए पैदा हुआ हूं, वरना 200 रुपयों में तो कितनी औरतें बिछबिछ जाएं.’

पुलिस केस से बचने के लिए उस ने सरकारी वकील को खरीद लिया. मेरा स्लम एरिया का मकान मात्र 17 हजार रुपए में बेच दिया. 10 साल के बेटे ने जज के सामने बाप की दरिंदगी का एकएक सफा खोल कर रख दिया. केस का फैसला मेरे हक में हो गया.

मुकीम की म झले भाई के साथ घर के मेंटिनैंस और बिजलीपानी के खर्च को ले कर होने वाली तकरारों ने म झले को रेलवे क्वार्टर लेने के लिए मजबूर कर दिया. पूरे घर पर अब मुकीम का एकछत्र अधिकार. लेकिन जीने की लकड़ी की सीढि़यां बुरी तरह हिलने लगी थीं. छत की दीवारों का रंग और प्लास्टर उधड़ने लगा. शराब, जुए की लत उसे घुन की तरह चाट कर कंगाल बनाने लगी. कर्जदारों की फेहरिस्त बढ़ने लगी.

मेरे दोनों बच्चों ने 10वीं, 12वीं के बोर्ड इम्तिहान में आशातीत सफलता हासिल कर के स्पोर्ट्स में भी अच्छी जगह बना ली. बेहतरीन इंग्लिश, हिंदी, मिश्रित उर्दू के कारण वे आकाशवाणी के बालजगत कार्यक्रम की एंकरिंग करने लगे. स्वस्थ मानसिकता, तरक्की और कामयाबी की बुनियाद बन गई.

बाद मैं ख्वाबों के खूनी शहर पहुंची तो मालूम हुआ कि मुकीम अपनी तीसरी बीवी के सौतले बेटे की फूटती मूंछों के नीचे से निकली अपने प्रति भर्त्सना बरदाश्त नहीं कर पाया. ‘निकालो साले को यहां से वरना जान से मार डालूंगा. मेरा ही खा कर मु झ पर ही गुर्राता है.’

उस की आएदिन की चिंघाड़ और रौद्र रूप को बेटे के प्रति आसक्त मां बरदाश्त नहीं कर पाई. 6 साल की बेटी को सामान लाने के बहाने बाहर भेज कर मिट्टी तेल छिड़क लिया. धूधू कर के एक बार फिर वही घर जला जिस की बुनियाद केवल देह के सुख और नितांत पुरुषस्वार्थ पर रखी गई थी. 90 प्रतिशत जली तीसरी बीवी ने अपनी मासूम, अबोध के गले पर मुकीम का निरंतर कसता पंजा देख कर सारा दोष खुद पर ले लिया. एक बार फिर अमानुष के गले में फांसी का फंदा पड़ने से पहले ही कमजोर और शिथिल पड़ गया. अदालत को तो चश्मदीद गवाह और ठोस सुबूत चाहिए न.

8 माह बाद कमसिन बच्ची की परवरिश का हवाला दे कर मुकीम की बहन फिर उस के लिए एक अदद हड्डी गोश्त का जिंदा लोथड़ा ढूंढ़ने लगी. 65 वर्ष की तलाकशुदा औरत ने मुकीम से निकाह मंजूर कर लिया जो पिछले 10 सालों से भाभी के घर के सभी सदस्यों की आंखों में कांटे की तरह चुभती रही थी. निकाह के वक्त मुकीम रिटायर हो चुका था. मेरे दोनों बच्चे कौंपिटीटिव एग्जाम में अच्छी रैंक हासिल कर के नेवी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में व्यस्त हो गए. खुद मैं अपनी काबिलीयत और मेहनत के बल पर 2 प्रमोशन हासिल कर के सीनियर टीचर बन गई. मेरा शांत स्वभाव कभी भी मु झे बहुसंख्यकों के बीच अपना विरोधी पैदा करने नहीं देता.

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दर्दीले अतीत की भयावहता से खुद को बचाने के लिए बचपन के 2 अधूरे शौकों को पूरा करने का प्रयास करने लगी. गले का माधुर्य मु झे संगीत के करीब ले जाना चाहता रहा, लेकिन इसलाम में संगीत हराम माना जाता है.  दकियानूसी और अपरिपक्व सोच ने 55 साल की उम्र में गले को साधने की कोशिश को एक बार फिर नाकाम कर दिया. पूरी तवज्जुह सिलाई और मशीन की कशीदाकारी के फन पर आ कर सिमट गई.

बेहतरीन सूट, चादरें, मैक्सी के लुभावने आकर्षक धागे और डिजाइन मेरे कलाकार मन को दिनभर खिलाखिला रखते. वर्तमान शिक्षा पद्धति के साथ खुद को भी अपडेट करने के शगल ने मेरे छोटे बेटे से मु झे कंप्यूटर सिखला दिया. गुनाहों और बदकारियों से दामन बचाने वाली मैं प्रकृति का शुक्रिया अदा करती रहती हूं. बच्चे अपने अब्बू के जल्लादी, जाहिल वजूद की यादों को अपने जेहन से खुरचखुरच कर फेंक चुके थे.

आज नवीन भैया की दी गई खबर ने ठहरे समंदर में तूफान उठा दिया. कई दिनों तक खुद को संतुलित नहीं कर पाई. हार कर नवीन भैया का नंबर डायल कर ही दिया.

‘‘हैलो दीदी, आप ठीक हैं न?’’

‘‘मैं ठीक हूं भैया, लेकिन आप से एक गुजारिश है.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं, दीदी. आप के ही स्नेह से मेरे घर में दोदो बेटियों ने जन्म लिया है, वरना हम तो उम्मीद ही छोड़ बैठे थे. आप ने प्रोत्साहित किया, बहू को अपने घर रख कर इलाज करवाया. आप का एहसान…’’ गला भर गया उन का, ‘‘आप तो बस हुक्म कीजिए.’’

‘‘भैया, जिस दिन अब्दुल मुकीम की बेटी के केस की तारीख हो, मैं उस दिन सैशन कोर्ट में केस की कार्रवाई सुनना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, दीदी.’’ मेरे अंतस में उठते हाहाकर की गर्जन साफ सुनाई दे रही थी तजरबेकार कोर्ट सुपरिटैंडैंट को. ‘‘मगर दीदी, अपने किए की सजा तो इस कलियुग में जीतेजी ही भुगतनी पड़ती है. आप क्यों अपने जख्म हरे करना चाहती हैं. भुगतने दो उस को. दूसरे की बेटी की जिंदगी बरबाद की, तो उस की बेटी के साथ.’’

‘‘भैया, जुर्म की सजा कानून भले ही नहीं देता लेकिन वक्त गिनगिन कर सजा देता है. निलोफर के बलात्कारी को कानून तो सजा देगा लेकिन असली कुसूरवार तो मुकीम है जो बारबार मांबाप की लाड़ली बेटियों को अपनी क्रूरता का शिकार बना कर अपनी चालाकी, धूर्तता से कानून की गिरफ्त में आने से खुद  को बचाता रहा. अब जब अपनी बेटी पर जुल्म हुआ तब क्या वह चुप रहेगा? खुद को कचोटेगा, पछताएगा.

‘‘मैं सिर्फ एक बार उस के चेहरे पर दर्दोमलाल की सिलवटें देखना चाहती हूं. उस की आंखों में पस्तहाल शबनम की बूंदें देखना चाहती हूं. उस का मर्दाना दंभ, उस का अभिमानी सिर असमर्थता और बेबसीलाचारी के हथौड़े से कुचलते हुए देखना चाहती हूं. उस की आंखों में दहशत के बवंडर और माथे पर पश्चात्ताप की शिकन देखना चाहती हूं. गुस्से से उबलती उस की मक्कार आंखों में लोहे से पिघलते आंसू देखना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी थी.

‘‘दीदी, अगले महीने की 14 तारीख को केस की सुनवाई है. मैं जज से स्पैशली आप के बैठने की इजाजत ले लूंगा. दीदी, अब सो जाओ, बहुत रात हो गई है. कल बात करूंगा. गुड नाइट,’’ कह कर नवीन भैया ने फोन काट दिया. मेरी आंखों में 20-22 वर्षीया लड़की का अक्स उतर आया. निलोफर का आंसुओंभरा चेहरा, पुलिस मर्द की वासना का शिकार, कौन करेगा भोग्या का उद्धार. नहीं, उसे तो उम्रभर की वस्तु सम झ कर मर्द समाज की दूसरी पौध इस्तेमाल करने के जाने कौनकौन से घिनौने मंसूबे बनाएगी. उस के मासूम सपने, घर, पतिबच्चे, प्यारखुशियां, सम्मान, सबकुछ सामाजिक अपमान, तिरस्कार, घृणा की बलिवेदी पर चढ़ गया. कैसे वह अपने भीतर आत्मविश्वास और जीवित रहने की अदम्य इच्छा की दीपशिखा को प्रज्वलित रख पाएगी.

एक अकेले मुकीम ने अपने निर्दयी व्यवहार के कारण 7 लोगों को अर्थहीन, दिशाहीन और पीड़ायुक्त जीवन जीने के लिए मजबूर किया. चिंदीचिंदी कर के रख दिया उन के ख्वाबों, खुशियों और संकल्पों को. हाड़मांस की औरतों के सम्मान, अधिकारों को अपनी मर्दाना ताकत की ज्वाला में नेस्तनाबूद करने वाला शख्स अपनी एक अदद बेटी की अस्मत की सुरक्षा नहीं कर पाया. छि, धिक्कार है ऐसे मर्द पर. लेकिन रहती दुनिया तक ऐसे लाखों हिंदुस्तानी मर्द सिर ऊंचा कर के अपनी पूरी अकड़ और ऐंठ के साथ जिंदा रहेंगे.

मुकीम अपनी तमाम वहशियाना फितरत, मक्कारियों, चालबाजियों के साथ शरीर के हड्डी का ढांचा होने तक, आंखों के फूट जाने तक, अपने गरूर के साथ जिंदा रहेगा. लेकिन जब उस का थरथराता, कंपकंपाता शरीर मौत मांगेगा, रहम की भीख मांगेगा, तब दुनिया उस की फटी छाती की चीत्कार सुन कर भी अनसुना कर देगी. घसीटघसीट कर बुरी मौत मरेगा वह. यही उस वक्त की अदालत का फैसला होगा.

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परिवर्तन: भाग 1- राहुल और कवि की कहानी

लेखक- खुशीराम पेटवाल

‘‘पर कवि, भगवान तो है ही न.’’

‘‘मैं तुम्हें पहले भी कई बार कह चुकी हूं कि अपना भगवान अपने पास रखो,’’ कवि झुंझला कर बोली, ‘‘वह तुम्हारा है, सिर्फ तुम्हारा. तुम्हारी पत्नी होने के नाते वह मेरा भी है, यह तुम्हारी धारणा गलत है. मैं तुम से कई बार कह चुकी हूं कि तुम्हारा भगवान मंदिरों में ही ठीक लगता है जहां वह मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर इनसानों की दया पर निर्भर है. तुम्हें शायद याद नहीं, यही गुजरात है जहां के सोमनाथ मंदिर को महमूद गजनवी ने लूटा था. वह भी एक इनसान था और उस के हाथों पिटा तुम्हारा भगवान. सर्वशक्तिमान हो कर भी कुछ न कर सका. लुटवा दी सारी संपदा, तुड़वा दी अपनी मूरत.’’

‘‘कवि, तुम बातों को सहज रूप में नहीं लेती हो. तुम्हें तो जो तर्क की कसौटी पर सही लगता है उसे ही तुम सही मानती हो. तुम ईश्वर का अस्तित्व वैज्ञानिक धरातल पर तलाशती हो. पर इतना जरूर कहूंगा कि कोई ऐसी एक ताकत जरूर है जो इस संसार को गतिमान कर रही है.’’

‘‘यह तो प्रकृति है जो यहां पहले से ही मौजूद है. ये सब अनादि काल से ऐसा ही चल रहा है.’’

‘‘ठीक है, तो इन में जीवन का संचार कौन कर रहा है?’’

‘‘कौन से क्या मतलब? जीवन का संचार सूर्य से है. सूर्य से ही ऊर्जा मिलती है. गहरे अर्थों में जाओ तो हाइड्रोजन हीलियम में बदलती है और बदलाव से ऊर्जा मिलती है जो सूर्य के अंदर मौजूद है और ऊर्जा से ही यह सारा संसार चलता है.’’

‘‘पर तुम्हारा सूर्य भी तो किसी ने बनाया होगा?’’

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‘‘तुम प्रश्न तो गढ़ते हो पर यह क्यों नहीं मानते कि ये चीजें पहले से ही यहां मौजूद हैं जो निरंतर विकास की अवस्था से गुजरते हुए, अनादि काल से बिना किसी भगवान के सहारे यहां तक पहुंची हैं और आगे भी इसी तरह कुदरती बदलावों के साथ चलती रहेंगी.

‘‘भगवान न कभी था, न है और न होगा. बस, उस के नाम पर धंधा करने वाले लोग एक ढोल बजा कर, भगवान है…भगवान है का शोर इसलिए मचा रहे हैं ताकि वे अपनी गलतियों को ढक सकें. कुछ गलत हो गया तो ‘भगवान की ऐसी ही इच्छा थी.’ जो नहीं जानते उस के लिए ‘भगवान ही जानें.’ कुछ बस में नहीं हुआ तो ‘भगवान’ को आगे कर दिया. कमजोर प्राणी ही भगवान की शरण ढूंढ़ता है.

‘‘हेमंत, तुम भगवान के प्रति इतनी आस्था मत रखा करो. तुम्हें खुद पर विश्वास नहीं है इसलिए तुम अपने टेस्टों में फेल होते हो. मेहनत नहीं कर पाते तो दोष भगवान के माथे मढ़ते हो.’’

‘‘रहने दो कवि, मैं मानता हूं कि मुझ में कहीं कोई कमी है. मैं तुम्हारे आगे हथियार डालता हूं. वैसे इस समय मैं सोने के मूड में हूं क्योंकि सारी रात राहुल ने सोने नहीं दिया है. कान दर्द बताता रहा.’’

‘‘यह कान दर्द भी तुम्हारे भगवान ने दिया होगा. यह क्यों नहीं कहते कि रात को स्टार मूवीज की गरमागरम फिल्म देख रहे थे और बहाना राहुल का बना रहे हो. इस में भी तुम्हारा कोई दोष नहीं क्योंकि भगवान के प्रति आस्था रखने वाले झूठ का सहारा तो लेते ही हैं.’’

‘‘कवि, राहुल उठ गया है उसे ले लो तो मैं थोड़ी देर तक दिल्ली में चल रही गणतंत्रदिवस परेड देख लूं.’’

राहुल को पालने में लिटा कर कवि उस के लिए दूध बनाने रसोईघर में घुसी. दूध बनाने के बाद बोतल से राहुल को दूध पिलाने लगी. घड़ी की टनटन की आवाज के साथ उस ने देखा तो  साढ़े 8 बज गए थे. वह सोचने लगी कि आया भी अभी तक नहीं आई. जाने कब आएगी. आती तो मुझे फुरसत मिलती इस राहुल से.

राहुल की आंखों में कवि की गोद में आने का आग्रह था, पर वह इस लालच में कभी पड़ी ही नहीं. उसे डर था कि यदि बच्चे को मां की गोद में रहने की आदत पड़ गई तो उस के लिए बड़ी दिक्कत हो जाएगी. राहुल हाथपैर हिलाहिला कर दूध पीता रहा.

कवि हेमंत के लिए चाय बना कर उसे प्याले में उड़ेलने लगी. यह क्या, चाय बाहर क्यों गिर रही है? मुझे किस ने धक्का दिया? कहीं मुझे चक्कर तो नहीं आ रहा है? राहुल पालने में जोरजोर से क्यों झूल रहा है? उसे कौन झुला रहा है और ये बरतन हिलते हुए दूसरी तरफ क्यों जा रहे हैं? ओह नो, भूकंप…

कवि घबराई हुई राहुल पर झपटी. उसे गोद में ले कर बेडरूम में भागी, हेमंत उठो, ‘‘भूकंप. गिरजा को लो.’’

शायद हेमंत भी स्थिति को समझ गया था. वह तेजी से गिरजा को गोदी में ले कर भागा. दोनों अपनीअपनी गोद में बच्चों को ले कर सीढि़यों की तरफ भागे. कवि ने देखा कि हेमंत 5-6 सीढि़यां ही उतर पाया था कि अचानक वह सीढि़यों के साथ नीचे गिरता चला गया. कवि के मुंह से चीख निकली, ‘‘हेमंत, बचो,’’ पर यह क्या मैं भी…और मेरे ऊपर भी दीवार भयानक ढंग से नीचे आ रही थी. कवि को बस, उस समय यही लगा था कि सारी बिल्ंिडग नीचे धंस रही है.

अचानक कवि जागी उसे लगा कि सिर और पैर में तेज दर्द है. सिर पर हाथ फिरा कर देखा तो कुछ चिपचिपा सा लगा. पैर में भी चोट आई थी. ‘मैं कहां हूं,’ कवि ने खुद से पूछा तो उसे याद आया कि वह तो राहुल को ले कर नीचे की ओर भागी थी…राहुल, वह कहां है?

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अपने अगलबगल टटोला तो उस से थोड़ी ही दूरी पर राहुल पड़ा था. वह शायद सो रहा था. कवि ने उसे उठाया. सिर से पैर तक उस के अंगों को टटोल कर देखा. अचानक उस के मुंह से निकला, मेरे बच्चे, ‘तुम ठीक तो हो.’ और इस के बाद कवि उसे बेतहाशा चूमने लगी. यह बच्चे के जीवित रहने की खुशी थी जो प्यार बन कर उस के समूचे बदन को चूम रही थी. उस ने टटोल कर देखा तो बच्चे का अंगप्रत्यंग सलामत था. उस के बदन पर कहीं खरोंच तक न थी. मां के शरीर का स्पर्श पा कर राहुल जाग गया और उस के मुंह से निकला, ‘मां…’

कवि ने उसे अपने सीने से चिपका लिया. उस की आंखों से आंसू टपकने लगे. अचानक उसे गिरजा का खयाल आया और किसी अनहोनी की आशंका से वह सिहर गई. ‘गिरजा…’ वह तो हेमंत के हाथों में थी. हेमंत सीढि़यों सहित नीचे जा गिरा था. वह कहां है, जिंदा भी है या…

और एक अज्ञात भय से

कवि कांप गई. जोर  से चिल्लाई, ‘‘हेमंत…हे…मं…त… गिरजा… गि… र… जा…हे…मं….त…’’

आगे पढ़ें- राहुल रो रहा था. उसे शायद…

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शहीद: भाग 1- क्या था शाहदीप का दीपक के लिए फैसला

ऊबड़खाबड़ पथरीले रास्तों पर दौड़ती जीप तेजी से छावनी की ओर बढ़ रही थी. इस समय आसपास के नैसर्गिक सौंदर्य को देखने की फुरसत नहीं थी. मैं जल्द से जल्द अपनी छावनी तक पहुंच जाना चाहता था.

आज ही मैं सेना के अधिकारियों की एक बैठक में भाग लेने के लिए श्रीनगर आया था. कश्मीर रेंज में तैनात ब्रिगेडियर और उस से ऊपर के रैंक के सभी सैनिक अधिकारियों की इस बैठक में अत्यंत गोपनीय एवं संवेदनशील विषयों पर चर्चा होनी थी अत: किसी भी मातहत अधिकारी को बैठक कक्ष के भीतर आने की इजाजत नहीं थी.

बैठक 2 बजे समाप्त हुई. मैं बैठक कक्ष से बाहर निकला ही था कि सार्जेंट रामसिंह ने बताया, ‘‘सर, छावनी से कैप्टन बोस का 2 बार फोन आ चुका है. वह आप से बात करना चाहते हैं.’’

मैं ने रामसिंह को छावनी का नंबर मिलाने के लिए कहा. कैप्टन बोस की आवाज आते ही रामसिंह ने फोन मेरी तरफ बढ़ा दिया.

‘‘हैलो कैप्टन, वहां सब ठीक तो है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां सर, सब ठीक है,’’ कैप्टन बोस बोले, ‘‘लेकिन अपनी छावनी के भीतर भारतीय सैनिक की वेशभूषा में घूमता हुआ पाकिस्तानी सेना का एक लेफ्टिनेंट पकड़ा गया है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है? वह छावनी के भीतर कैसे घुस आया? उस के साथ और कितने आदमी हैं? उस ने छावनी में किसी को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाया?’’ मैं ने एक ही सांस में प्रश्नों की बौछार कर दी.

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‘‘सर, आप परेशान न हों. यहां सब ठीकठाक है. वह अकेला ही है. उस से बरामद पहचानपत्र से पता चला कि वह पाकिस्तानी सेना का लेफ्टिनेंट है,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

‘‘मैं फौरन यहां से निकल रहा हूं तब तक तुम उस से पूछताछ करो लेकिन ध्यान रखना कि वह मरने न पाए,’’ इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया.

श्रीनगर से 85 किलोमीटर दूर छावनी तक पहुंचने में 4 घंटे का समय इसलिए लगता है क्योंकि पहाड़ी रास्तों पर जीप की रफ्तार कम होती है. मैं अंधेरा होने से पहले छावनी पहुंच जाना चाहता था.

मेरे छावनी पहुंचने की खबर पा कर कैप्टन बोस फौरन मेरे कमरे में आए.

‘‘कुछ बताया उस ने?’’ मैं ने कैप्टन बोस को देखते ही पूछा.

‘‘नहीं, सर,’’ कैप्टन बोस दांत भींचते हुए बोले, ‘‘पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ है. हम लोग टार्चर करकर के हार गए लेकिन वह मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं है.’’

‘‘परेशान न हो. मुझे अच्छेअच्छों का मुंह खुलवाना आता है,’’ मैं ने अपने कैप्टन को सांत्वना दी फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है उस पाकिस्तानी का?’’

‘‘शाहदीप खान,’’ कैप्टन बोस ने बताया.

इन 2 शब्दों ने मुझे झकझोर कर रख दिया था.

मैं ने अपने मन को सांत्वना दी कि इस दुनिया में एक नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं किंतु क्या ‘शाहदीप’ जैसे अनोखे नाम के भी 2 व्यक्ति हो सकते हैं? मेरे अंदर के संदेह ने फिर अपना फन उठाया.

‘‘सर, क्या सोचने लगे,’’ कैप्टन बोस ने टोका.

‘‘वह पाकिस्तानी यहां क्यों आया था, यह हर हालत में पता लगाना जरूरी है,’’ मैं ने सख्त स्वर में कहा और अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ.

कैप्टन बोस मुझे बैरक नंबर 4 में ले आए. उस पाकिस्तानी के हाथ इस समय बंधे हुए थे. नीचे से ऊपर तक वह खून से लथपथ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस से काफी कड़ाई से पूछताछ की गई थी. मुझे देख उस की बड़ीबड़ी आंखें पल भर

के लिए कुछ सिकुड़ीं फिर उन में एक अजीब बेचैनी सी समा गई.

मुझे वे आंखें कुछ जानीपहचानी सी लगीं किंतु उस का पूरा चेहरा खून से भीगा हुआ था इसलिए चाह कर भी मैं उसे पहचान नहीं पाया. मुझे अपनी ओर घूरता देख उस ने कोशिश कर के पंजों के बल ऊपर उठ कर अपने चेहरे को कमीज की बांह से पोंछ लिया.

खून साफ हो जाने के कारण उस का आधा चेहरा दिखाई पड़ने लगा था. वह शाहदीप ही था. मेरे और शाहीन के प्यार की निशानी. हूबहू मेरी जवानी का प्रतिरूप.

मेरा अपना ही खून आज दुश्मन के रूप में मेरे सामने खड़ा था और उस के घावों पर मरहम लगाने के बजाय उसे और कुरेदना मेरी मजबूरी थी. अपनी इस बेबसी पर मेरी आंखें भर आईं. मेरा पूरा शरीर कांपने लगा. एक अजीब सी कमजोरी मुझे जकड़ती जा रही थी. ऐसा लग रहा था कि कोई सहारा न मिला तो मैं गिर पड़ ूंगा.

‘‘लगता है कि हिंदुस्तानी कैप्टन ने पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट से हार मान ली, तभी अपने ब्रिगेडियर को बुला कर लाया है,’’ शाहदीप ने यह कह कर एक जोरदार कहकहा लगाया.

यह सुन मेरे विचारों को झटका सा लगा. इस समय मैं हिंदुस्तानी सेना के ब्रिगेडियर की हैसियत से वहीं खड़ा था और सामने दुश्मन की सेना का लेफ्टिनेंट खड़ा था. उस के साथ कोई रिआयत बरतना अपने देश के साथ गद्दारी होगी.

मेरे जबड़े भिंच गए. मैं ने सख्त स्वर में कहा, ‘‘लेफ्टिनेंट, तुम्हारी भलाई इसी में है कि सबकुछ सचसच बता दो कि यहां क्यों आए थे वरना मैं तुम्हारी ऐसी हालत करूंगा कि तुम्हारी सात पुश्तें भी तुम्हें नहीं पहचान पाएंगी.’’

‘‘आजकल एक पुश्त दूसरी पुश्त को नहीं पहचान पाती है और आप सात पुश्तों की बात कर रहे हैं,’’ यह कह कर शाहदीप हंस पड़ा. उस के चेहरे पर भय का कोई निशान नहीं था.

मैं ने लपक कर उस की गरदन पकड़ ली और पूरी ताकत से दबाने लगा. देशभक्ति साबित करने के जनून में मैं बेरहमी पर उतर आया था. शाहदीप की आंखें बाहर निकलने लगी थीं. वह बुरी तरह से छटपटाने लगा. बहुत मुश्किल से उस के मुंह से अटकते हुए स्वर निकले, ‘‘छोड़…दो मुझे…मैं…सबकुछ…. बताने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘बताओ?’’ मैं उसे धक्का देते हुए चीखा.

‘‘मेरे हाथ खोलो,’’ शाहदीप कराहा.

कैप्टन बोस ने अपनी रिवाल्वर शाहदीप के ऊपर तान दी. उन के इशारे पर पीछे खड़े सैनिकों में से एक ने शाहदीप के हाथ खोल दिए.

हाथ खुलते ही शाहदीप मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘क्या पानी मिल सकता है?’’

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मेरे इशारे पर एक सैनिक पानी का जग ले आया. शाहदीप ने मुंह लगा कर 3-4 घूंट पानी पिया फिर पूरा जग अपने सिर के ऊपर उड़ेल लिया. शायद इस से उस के दर्द को कुछ राहत मिली तो उस ने एक गहरी सांस भरी और बोला, ‘‘हमारी ब्रिगेड को खबर मिली थी कि कारगिल युद्ध के बाद हिंदुस्तानी फौज ने सीमा के पास एक अंडरग्राउंड आयुध कारखाना बनाया है. वहां खतरनाक हथियार बना कर जमा किए जा रहे हैं ताकि युद्ध की दशा में फौज को तत्काल हथियारों की सप्लाई हो सके. उस कारखाने का रास्ता इस छावनी से हो कर जाता है. मैं उस की वीडियो फिल्म बनाने यहां आया था.’’

इस रहस्योद्घाटन से मेरे साथसाथ कैप्टन बोस भी चौंक पड़े. भारतीय फौज की यह बहुत गुप्त परियोजना थी. इस के बारे में पाकिस्तानियों को पता चल जाना खतरनाक था.

‘‘मगर तुम्हारा कैमरा कहां है जिस से तुम वीडियोग्राफी कर रहे थे,’’ कैप्टन बोस ने डपटा.

शाहदीप ने कैप्टन बोस की तरफ देखा, इस के बाद वह मेरी ओर मुड़ते हुए बोला, ‘‘आज के समय में फिल्म बनाने के लिए कंधे पर कैमरा लाद कर घूमना जरूरी नहीं है. मेरे गले के लाकेट में एक संवेदनशील कैमरा फिट है जिस की सहायता से मैं ने छावनी की वीडियोग्राफी की है.’’

इतना कह कर उस ने अपने गले में पड़ा लाकेट निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. वास्तव में वह लाकेट न हो कर एक छोटा सा कैमरा था जिसे लाकेट की शक्ल में बनाया गया था. मैं ने उसे कैप्टन बोस की ओर बढ़ा दिया.

उस ने लाकेट को उलटपुलट कर देखा फिर प्रसंशात्मक स्वर में बोला, ‘‘सर, भारतीय सेना के हौसले आप जैसे काबिल अफसरों के कारण ही इतने बुलंद हैं.’’

‘काबिल’ यह एक शब्द किसी हथौड़े की भांति मेरे अंतर्मन पर पड़ा था. मैं खुद नहीं समझ पा रहा था कि यह मेरी काबिलीयत थी या कोई और कारण जिस की खातिर शाहदीप इतनी जल्दी टूट गया था. मेरे सामने मेरा खून इस तरह टूटने के बजाय अगर देश के लिए अपनी जान दे देता तो शायद मुझे ज्यादा खुशी होती.

‘‘सर, अब इस लेफ्टिनेंट का क्या किया जाए?’’ कैप्टन बोस ने यह पूछ कर मेरी तंद्रा भंग की.

‘‘इसे आज रात इसी बैरक में रहने दो. कल सुबह इसे श्रीनगर भेज देंगे,’’ मैं ने किसी पराजित योद्धा की भांति सांस भरी.

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विद्रोह: भाग 1- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

वैसे तो रवि आएदिन मां को मारता रहता है लेकिन उस रात पता नहीं उसे क्या हो गया कि इतनी जोर का घूंसा मारा कि दांत तक टूट गया. बीच में आई पत्नी को भी खूब मारा. पड़ोसी लोग घबरा गए, उन्हें लगा कि कहीं विस्फोट हुआ और उस की किरचें जमीन को भेद रही हैं. खिड़कियां खोल कर वे बाहर झांकने लगे. लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि रवि के घर का दरवाजा खटखटा कर शोर मचने का कारण पूछ ले. मार तो क्या एक थप्पड़ तक कुसुम के पति ने उस की रेशमी देह पर नहीं मारा था, बेटा तो एकदम कसाई हो गया है. हर वक्त सजीधजी रहने वाली, हीरोइन सी लगने वाली कुसुम अब तो अर्धविक्षिप्त सी हो गई है. फटेगंदे कपड़े, सूखामुरझाया चेहरा, गहरी, हजारों अनसुलझे प्रश्नों की भीड़ वाली आंखें, कुछ कहने को लालायित सूखे होंठ, सबकुछ उस की दयनीय जिंदगी को व्यक्त करने लगे.

उस रात कुसुम बरामदे में ही पड़ी एक कंबल में ठिठुरती रही. टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची कि वह अपने छोटे से कमरे में, जो पहले स्टोर था, चली जाए. केवल एक ही वाक्य कहा था कुसुम ने अपनी बहू से : ‘पल्लवी, तुम ने यह साड़ी मुझ से बिना पूछे क्यों पहन ली, यह तो मेरी शादी की सिल्वर जुबली की थी.’

बस, बेटा मां को रुई की तरह धुनने लगा और बकने लगा, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि मेरी बीवी से साड़ी के लिए पूछती है.’’

कुसुम बेचारी चुप हो गई, जैसे उसे सांप सूंघ गया, फिर भी बेटे ने मारा. पहले थप्पड़ों से, फिर घूंसों से.

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ठंडी हवा का तेज झोंका उस की घायल देह से छू रहा था. उस का अंगअंग दर्द करने लगा था. वह कराह उठी थी. आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. चलचित्र की तरह घटनाएं, बीते दिन सूनी आंखों के आगे घूमने लगे.

‘इस साड़ी में कुसुम तू बहुत सुंदर लगती है और आज तो गजब ही ढा रही है. आज रात को…’ पति पराग ने कहा था.

‘धत्’ कह कर कुसुम शरमा गई थी नई दुलहन सी, फिर रात को उस के साथ उस के पति एक स्वर एक ताल एक लय हुए थे. खिड़की से झांकता हुआ चांद भी उन दोनों को देख कर शरमा गया था. वह पल याद कर के उस का दिल पानी से बाहर निकली मछली सा तड़पने लगा. जब भी खाने की किसी चीज की कुसुम फरमाइश करती थी तुरंत उस के पति ला कर दे देते थे. बातबात पर कुसुम से कहते थे, ‘तू चिंता मत कर. मैं ने तो यह घर तेरे नाम ही लिया है और बैंक में 5 लाख रुपए फिक्स्ड डिपौजिट भी तेरे नाम से कर दिया है. अगर मुझे कुछ हो भी जाएगा तब भी तू ठाट से रहेगी.’

हंस देती थी कुसुम. बहुत खुश थी कि उसे इतना अच्छा पति और लायक बेटी, बेटा दिए हैं. अपने इसी बेटे को उस ने बेटी से सौ गुना ज्यादा प्यार दिया, लेकिन यह क्या हो गया…एकदम से उस की चलती नाव में कैसे छेद हो गया. पानी भरने लगा और नाव डूबने लगी. सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी कगार पर पड़ी चट्टान सी हो जाएगी कि पता नहीं कब उस चट्टान को समुद्र निगल ले.

वह बीते पलों को याद कर पिंजड़े में कैद पंछी सी फड़फड़ाने लगी. उस रात वह सो नहीं पाई.

सुबह उठते ही धीरेधीरे मरियल चूहे सी चल कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, अपने लिए एक कप चाय बना कर, अपनी कोठरी में ले आई और पड़ोसिन के दिए हुए बिस्कुट के पैकेट में से बिस्कुट ले कर खाने लगी. बिस्कुट खाते हुए दिमाग में विचार आकाश में उड़ती पतंग से उड़ने लगे.

‘इस कू्रर, निर्दयी बेटेबहू से तो पड़ोसिनें ही अच्छी हैं जो गाहेबगाहे खानेपीने की चीजें चोरी से दे जाती हैं. तो क्यों न उन की सहायता ले कर अपनी इस मुसीबत से छुटकारा पा लूं.’ एक बार एक और विचार बिजली सा कौंधा.

‘क्यों न अपनी बेटी को सबकुछ बता दूं और वह मेरी मदद करे, लेकिन वह लालची दामाद कभी भी बेटी को मेरी मदद नहीं करने देगा. बेटी को तो फोन भी नहीं कर सकती, हमेशा लौक रहता है. घर से भाग भी नहीं सकती, दोनों पतिपत्नी ताला लगा कर नौकरी पर जाते हैं.’

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बस, इन्हीं सब विचारों की पगडंडी पर चलते हुए ही कुसुम ने कराहते हुए स्नान कर लिया और दर्द से तड़पते हुए हाथों से ही उलटीसीधी चोटी गूंथ ली. बेटेबहू की हंसीमजाक, ठिठोली की आवाजें गरम पिघलते शीशे सी कानों में पड़ रही थीं. कहां वह सजेसजाए, साफसुथरे, कालीन बिछे बैडरूम में सोती थी और कहां अब बदबूदार स्टोर में फोल्ंिडग चारपाई पर? छि:छि: इतना सफेद हो जाएगा रवि का खून, उस ने कभी सोचा न था. महंगे से महंगा कपड़ा पहनाया उसे, बढि़या से बढि़या खाने की चीजें खिलाईं. हर जिद, हर चाहत रवि की कुसुम और पराग ने पूरी की. शहर के महंगे इंगलिश कौन्वेंट स्कूल से, फिर विश्वविद्यालय से रवि ने शिक्षा ग्रहण की.

कितनी मेहनत से, कितनी लगन से पराग ने इसे बैंक की नौकरी की परीक्षाएं दिलवाईं. जब यह पास हो गया तो दोनों खुशी के मारे फूले नहीं समाए, खोजबीन कर के जानपहचान निकाली तब जा कर इस की नौकरी लगी.

और पराग के मरने के बाद यह सबकुछ भूल गया. काश, यह जन्म ही न लेता. मैं निपूती ही सुखी थी. इस के जन्म लेने के बाद मेरे मना करने पर भी 150 लोगों की पार्टी पराग ने खूब धूमधाम से की थी. बड़ा शरीफ, सीधासादा और संस्कारों वाला लड़का था यह. लेकिन पता नहीं इस ने क्या खा लिया, इस की बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जो राक्षसों जैसा बरताव करता है. अब तो इस के पंख निकल आए हैं. प्यार, त्याग, दया, मान, सम्मान की भावनाएं तो इस के दिल से गायब ही हो गई हैं, जैसे अंधेरे में से परछाईं.

रसोई से आ रही मीठीमीठी सुगंध से कुसुम बच्ची सी मनचली हो गई. हिम्मत की सीढ़ी चढ़ कर धीरेधीरे बहू के पास आई, ‘‘बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है, बेटी क्या बनाया है?’’ पता नहीं कैसे दुनिया का नया आश्चर्य लगा कुसुम को बहू के उत्तर देने के ढंग से, ‘‘मांजी, गाजर का हलवा बनाया है. खाएंगी? आइए, बैठिए.’’

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विद्रोह: भाग 2- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

हक्कीबक्की बावली सी कुसुम डायनिंग चेयर पर बैठ गई. एक प्लेट में हलवा रखा था, दूसरी प्लेट में गोभी के गरम परांठे. नाश्ता देते समय शहद सी मीठी बोली में बहू बोली, ‘‘पहले इन कागजों पर साइन कर दीजिए. फिर नाश्ता कर लीजिएगा.’’

‘‘न…न, मैं नहीं करूंगी साइन.’’

‘अच्छा, तो यह आदर, यह प्यार इस लालच में किया जा रहा था. छि:छि:, तुम दोनों ने तो रिश्तों को नीलाम कर दिया है. मैं चाहे मर जाऊं, चाहे मुझे कुछ भी हो जाए, मैं साइन नहीं करूंगी,’ कुसुम बड़बड़ाती रही.

‘‘जाइएजाइए, लीजिए सूखी ब्रैड और चाय, मत करिए साइन. और जब ये आ जाएं तब खाइएगा इन की मार.’’

बहू के शब्द तीरों से भी ज्यादा घायल कर गए कुसुम को. वह बाहर से अंदर तक लहूलुहान हो गई.

मरती क्या न करती. भूखी थी सूखी ब्रैड चाय में डुबो कर खाई, रोती रही. सोचती रही, ‘लानत है ऐसी जिंदगी पर. गाजर का हलवा, भरवां परांठे खा कर क्या मैं तेरी गुलाम बन जाऊं. न…न, मैं अपाहिज नहीं बनना चाहती. मैं अपना सबकुछ तुझे दे दूं और मैं अपाहिज बन जाऊं, यह नहीं हो सकता,’ बुदबुदाती हुई कुसुम, ब्रैड और चाय से ही संतुष्ट हो गई. मन ने कहा, ‘जाए भाड़ में तेरा हलवा और परांठे. मैं अपने जमाने में बचा हुआ हलवा, परांठेऔर पूरी मेहरी तक को खाने के लिए देती थी.’

कुसुम बहू की क्रियाएं आंखें फाड़फाड़ कर देख रही थी. सास की पीड़ा, दुख, व्यथा से बहू अनजान सी अपने कामों में व्यस्त थी. चायनाश्ता कर के उस ने अपना लंच बौक्स तैयार किया, फिर गुनगुनाती हुई पिं्रटैड सिल्क की साड़ी और उसी रंग की मैच करती माला पहन कर कालेज चली गई. बाहर से घर में ताला लगा दिया.

बाहर ताला बंद कर वह हर रोज ही कालेज जाती रही. और तो और टैलीफोन भी लौक कर दिया जाता था. लेकिन उस दिन वह टैलीफोन लौक करना भूल गई. कुसुम ने हर रोज की तरह पूरा घर देखा. हर चीज लौक थी. यहां तक कि फ्रिज में भी ताला लगा हुआ था.

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हां, बहू कुसुम के लिए डायनिंग टेबल पर 4 सूखी रोटी और अरहर की दाल बना कर रख गई थी. अनलौक टैलीफोन देख कर कुसुम के दिल में खुशी का खेत लहराने लगा. अब तो पड़ोसिन को फोन कर दूंगी. वह मुझे बाहर भागने में सहायता कर देगी.

उस समय कुसुम में हजार हाथियों की ताकत ने जन्म ले लिया. देह का दर्द भी कपूर सा उड़ गया. आंखों में हीरे सी चमक उत्पन्न हो गई. सब से पहले तो उस ने पड़ोसिन को फोन किया, ‘‘हैलो, कौन बोल रहा है?’’

‘‘मैं बोल रही हूं आंटी, रीता, लेकिन आप फोन कैसे कर रही हैं? क्या आज आप का फोन लौक नहीं है?’’

मुक्ति की खुशी में झूमती हुई कुसुम बोली, ‘‘हांहां बेटी, लौक नहीं है. सुनो, तुम इस समय बाहर का ताला तोड़ कर आ जाओ. तब तक मैं तैयारी करती हूं.’’

‘‘कैसी तैयारी, आंटी?’’ सुन कर रीता को आश्चर्य हुआ.

‘‘बेटी, तुम्हीं ने तो उस दिन कहा था कि आप यहां से भाग जाओ आंटी, किसी और शहर या बेटी के पास.’’

‘‘हांहां, कहा तो था. लेकिन आंटी, आप कहां जाएंगी?’’

‘‘मैं कानपुर अपने भाई के पास जाऊंगी. वह बस स्टेशन पर लेने आ जाएगा, फिर सब ठीक हो जाएगा. बेटी, अगर मैं नहीं गई तो यह मुझ से जबरदस्ती मारपीट कर, नशा पिला कर साइन करवा लेगा और…और…’’ कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

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‘‘और क्या आंटी… बताओ न…’’

‘‘और फिर मुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर फेंक देगा,’’ बोलते हुए कुसुम की आवाज कांप रही थी. पूरी की पूरी देह ही कंपकंपाने लगी थी. उस की देह जवाब दे रही थी. लेकिन फोन रख कर उस की हिम्मत सांस लेने लगी. आशा जीवित होने लगी.

जल्दीजल्दी अलमारी खोल कर अपने कपड़े, रुपए और वसीयत के कागज निकाले, पर्स लिया. ढंग से सिल्क की साड़ी पहन कर दरवाजे के पास अटैची ले कर खड़ी हो गई.

पत्थर से ताला नहीं टूटा तो रीता ने हथौड़ी से ताला तोड़ा. कुसुम दरवाजे के पास ही खड़ी थी.

एक ओर जेल से छूटे कैदी सी खुशी कुसुम के दिल में थी तो दूसरी ओर अपना घर, अपना घोंसला छोड़ने का दुख उसे खाए जा रहा था. वह घर, जिस में उस ने रानी सा जीवन व्यतीत किया, जहां उस ने सोने से दिन और चांदी सी रातें काटीं, जहां उस के आंगन में किलकारियां गूंजती थीं, प्यार का सूरज सदा उगता था, जहां उस के पति ने उसे संपूर्ण ब्रह्मांड का सुख दिया था, जहां वह घंटों पति के साथ प्रेम क्रीड़ाएं करती थी, जो घर खुशियों के फूलों से महकता था, वक्त ने ऐसी करवट बदली कि कुसुम आज उसे छोड़ कर जाने पर विवश हो गई. क्या करती वह? कोई अन्य उपाय नहीं था.

रीता ने अपनी कार में कुसुम को बिठा लिया, उस का सूटकेस उठाते समय रीता भी रोने लगी आंटी के बिछोह पर. रोंआसी रीता ने आंटी से उन के भाई का फोन नंबर ले लिया. और बस पर चढ़ाते समय यह वादा कर लिया कि वह हफ्ते में 2 बार फोन पर उन का हालचाल पता लगाती रहेगी.

जितना दुख कुसुम को अपना घर छोड़ने का था उस से कुछ ही कम दुख रीता से बिछुड़ने का था. ज्यादा देर वह रीता को बस के पास रोकना नहीं चाह रही थी. वह सरहद पर तैनात सिपाही सी सतर्क थी, सावधान थी कि कहीं खोजते हुए उस की बहू या बेटा न आ जाएं. वह उस घर में वापस जाना नहीं चाहती थी, जहां तालाब में मगरमच्छ सा उस का बेटा रहता था, जहां उस की जिंदगी मुहताज हो गई थी.

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बस चल पड़ी. वह खिड़की से बाहर आंसूभरी आंखों से रीता को तब तक देखती रही जब तक उस की आकृति ने बिंदु का रूप नहीं ले लिया.

ज्योंज्यों बस आगे बढ़ रही थी उस का अपना शहर दूर होता जा रहा था, वह शहर जहां वह सोलहशृंगार कर के अपने सुहाग के साथ आई थी. उसे लगा उस की जिंदगी एक नदी है जिस ने अपना रास्ता बदल लिया है और वह एक गांव है जो पीछे छूट गया है. बस जितना आगे बढ़ रही थी उस का दिल उतनी ही जोरों से धड़क रहा था. काफी देर बाद उस ने स्वयं को सामान्य स्थिति में पाया.

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झूठ से सुकून: भाग 3- शशिकांतजी ने कौनसा झूठ बोला था

लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र

पर कुलदीपा कहां मानने वाली? वह मुंह फुला कर बड़बड़ाती हुई कोपभवन में चली गई. ‘शराब के धंधे में कुछ गड़बड़झाला होगा तो उमाकांतजी ही भुगतेंगे,’ वह बच्चों की तरह बड़बड़ा रही थी. मैं समझ गया कि अब मुझे उमाकांतजी का काम कराना ही पड़ेगा, नहीं तो, जिद्दी बीवी दानापानी तक के लिए हम सब को परेशान कर देगी.

अपार्टमैंट में आए हुए कोई 3 महीने गुजर गए थे. इस दौरान, मेरी ख्याति अपनी वैलफेयर सोसायटी के एक सफल कार्यकर्ता के रूप में चतुर्दिक फैल गई थी. मेरी मेहनत की बदौलत, बिल्डर निरंजन ने घुटने टेक दिए थे और नगरनिगम के अधिकारी

हमारे अपार्टमैंट में दूसरी कालोनियों की अपेक्षा बेहतर सुविधाएं देने लगे थे. मैं ने अपार्टमैंट के लोगों के कई प्राइवेट काम भी कराए जिस से मैं उन का सब से बड़ा खैरख्वाह बन गया. लोगबाग मेरा फेवर पाने के लिए तरहतरह के तिकड़म अपनाने लगे. कभी चाय पर बुला लेते तो कभी डिनर पर. शाम को औफिस से लौटने के बाद, मैं जैसे ही घर में दस्तक देता, अपार्टमैंट वालों का हुजूम बारीबारी से उमड़ पड़ता. अब तो कुलदीपा भी एकदम से ऊबने लगी थी क्योंकि उसे हर आगंतुक के लिए चायपान जो तैयार करना पड़ता था, उन की बेवक्त खातिरदारी जो करनी पड़ती थी. पर वह भी मजबूर थी, उन के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलती क्योंकि उस ने ही तो मुझे महज कालोनी में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति साबित करने के लिए उन की खिदमत में उन के सामने पेश किया था जिस से वे ढीठ बनते गए. ऐसे में जब मैं उमाकांत, नीलेश, लाल और भीमसेन आदि की नुक्ताचीनी करता तो वह खामोश रहती या अपराधबोध के कारण अंदर रसोई में चली जाती.

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चुनांचे, मेरे साथ सब से बुरी बात यह हुई कि मैं औफिस के काम में कोताही बरतने के कारण एक ऐसे बिगड़े हुए अधिकारी के रूप में जाना जाने लगा जो औफिस में काम को गंभीरता से नहीं लेता है, अपने अधीनस्थों को दबा कर रखता है और अनियमितताएं करने में संकोच नहीं करता. इस का खमियाजा भी मुझे ही भुगतना पड़ा. वर्ष के अंत में, वार्षिक रिपोर्ट में मेरी जो उपलब्धियां दर्शाई गईं, वे अत्यंत निराशाजनक थीं, उस कारण मेरे उच्चाधिकारी मुझ से नाराज रहने लगे और कार्यप्रणाली में बारबार कमियां निकालने लगे, रुकावटें डालने लगे. तनाव इतना बढ़ता गया कि इस बाबत मैं ने कुलदीपा को भी बतलाने की बारबार कोशिश की. पर वह हर बार मुंह बिचका कर कोई जवाब नहीं देती.

एक दिन, एक अजीबोगरीब घटना ने हमें जैसे नींद से जगा दिया. हमारे किशोर बेटे सुमित्र की आलमारी से शराब की बोतल बरामद हुई जो आधी खाली थी. कुलदीपा तो आपे से बाहर हो गई. जब सुमित्र की पिटाई हुई तो उस ने स्वीकार किया कि यह बोतल खुद उमाकांत अंकल ने उसे बुला कर यह कहते हुए दी कि इस के सेवन से कद बढ़ता है और छाती चौड़ी होती है. मैं आवेश में उमाकांत के पास जाने वाला ही था कि कुलदीपा ने मेरा हाथ पकड़ लिया, ‘‘अब झगड़ाफसाद करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. मैं जानती हूं कि वह शरीफ आदमी नहीं है. आप कुछ कहेंगे तो वह लड़ने पर उतारू हो जाएगा. क्या आप को मालूम नहीं है कि वह अपार्टमैंट में सब को कैसे दबा कर रखता है? कुछ दिनों से वह आप की गैरहाजिरी में मेरे फ्लैट में किसी न किसी बहाने से आने की ताक में रहने लगा है. मुझे उस का इरादा नेक नहीं लगता है.’’

कुलदीपा के शब्द सुन कर मेरे पैर के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी. मैं तो यह पहले ही भांप गया था कि उमाकांत गिरा हुआ इंसान है, पर इस बात का बिलकुल अंदाजा नहीं था कि उस की गंदी नजर मेरे ही घर पर है. लिहाजा, उस दिन शाम को जब मैं थकामांदा औफिस से घर लौटा तो मैं ने बेटे सुमित्र को बता दिया कि यदि सोसायटी का कोई आदमी किसी काम से आए तो कह देना कि पापा की तबीयत ठीक नहीं है और वे सो रहे हैं. अभी मैं ने मुश्किल से आंखें झपकाई ही थीं कि बाहर उठे अचानक शोर से मैं बेचैन हो उठा. कुछ लोगों के बीच लड़ाई के अंदाज में जोरजोर से बातचीत हो रही थी जिस में नीलेश की आवाज ज्यादा ऊंची थी. मैं हड़बड़ा कर बाहर निकला तो यह देख कर दंग रह गया कि नीलेश ने उमाकांत की गरदन जोर से दबोच रखी है. जब मैं उन के पास पहुंचा तो नीलेश, उमाकांत को अपनी पकड़ से मुक्त करते हुए बोल उठा, ‘‘देखिए शशिकांत साहब, उमाकांतजी मेरे साथ धोखाधड़ी कर रहे हैं. कोई 6 महीने पहले मैं ने इन्हें शराब का ठेका खोलने के लिए 4 लाख रुपए दिए थे, पर अब तो ये साफ कह रहे हैं कि मैं ने इन्हें एक धेला भी नहीं दिया है. दोस्ती के नाम पर मैं ने किसी कागज पर इन से कुछ भी नहीं लिखवाया. मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मेरा इतने बड़े दगाबाज आदमी से पाला पड़ेगा.’’

उमाकांतजी ने भी बारबार कहा कि नीलेश दोस्ती का वास्ता दे कर मुझ से झूठमूठ के रुपए ऐंठना चाहता है. मुझे तो दोनों बेहद बेईमान लग रहे थे. पर उस घटना में मैं आखिर तक खामोश रहा. दोनों थाने गए तो भी मैं उन के साथ नहीं गया. दोनों अलगअलग मुझ से पैरवी करने के लिए गिड़गिड़ाए, पर मैं टस से मस नहीं हुआ. आखिर मैं किस का साथ देता? इसी बीच, कुलदीपा ने आ कर इशारे से बुला लिया.

नीलेश और उमाकांत के साथ क्या हुआ, यह जानने की जहमत मैं ने नहीं उठाई. लेकिन उस रात मैं बिलकुल सो नहीं सका. अपार्टमैंट का माहौल बेहद खराब था. बच्चे भी बिगड़ रहे थे. 12 साल की बेटी तनु भी मुझ से कई बार शिकायत कर चुकी थी कि अपार्टमैंट के बच्चे उसे कमीजसलवार में देख कर ‘बहनजी, आंटीजी’ कह कर छेड़ते हैं क्योंकि मैं ने ही उसे सख्त हिदायत दे रखी थी कि उसे सलीके के कपड़े पहनने चाहिए. कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि नीलेश और उमाकांत के बीच किसी न किसी तरह सुलह हो चुकी है और दोनों फिर से साथसाथ रहने लगे हैं. इस दरम्यान, मैं वैलफेयर सोसायटी से बारबार कन्नी काट कर कभी किसी मेहमान के यहां चला जाता तो कभी औफिस से काफी देर बाद लौटता. सोसायटी वालों को मुझ से मुलाकात करने का मौका ही न मिलता.

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रविवार का दिन था. कुलदीपा मुझे देख, कुछकुछ अचंभित थी क्योंकि कई दिनों के बाद मैं शाम को घर जल्दी आया था. उस ने आते ही कहा, ‘‘आज दिन में सोसायटी की जनरल बौडी की मीटिंग थी जिस में आप की गैरहाजिरी में आप की सहमति के बिना आप को सोसायटी का प्रैसिडैंट चुना गया है. उमाकांतजी का बेटा राहुल कई बार आप को बुलाने आ चुका है.’’ मैं मुसकरा उठा, ‘‘अब जल्दीजल्दी सारे सामानअसबाब की पैकिंग कर लो, मैं ने यह फ्लैट बेच कर कविनगर में एक नया विला खरीद लिया है. अब मुझे यहां एक पल के लिए भी रहना बरदाश्त नहीं हो रहा है. अभी चंद मिनट में कुछ मजदूर बाहर खड़े ट्रक में हमारा सामान लादने के लिए आ रहे हैं.’’ जब तक कि मजदूर घर में घुस नहीं आए, तनु और सुमित्र सोच रहे थे कि मैं कोई पहेली बुझा रहा हूं. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हम इस गंदे अपार्टमैंट को छोड़ किसी विला में जा रहे हैं और आखिर पापा ने इतना कुछ इतने चुपके से किया.

दरअसल, मैं ने उन्हें कुछ कहनेसुनने का मौका ही नहीं दिया क्योंकि तब तक मजदूर आ कर घर का सामान उठाउठा कर ट्रक में रखने लगे थे और कुलदीपा भी उन्हें सामानों को हिफाजत से रखने की हिदायतें देने लगी थी. आधे घंटे में घर खाली हो गया. तब तक अपार्टमैंट के पड़ोसी मूकदर्शक बने ये सब कुछ देख रहे थे. कुछ लोग फुसफुसा रहे थे कि शशिकांतजी साहब ने तो यह फ्लैट पिछले साल ही खरीदा था, फिर क्या वे इस फ्लैट को किराए पर उठाने जा रहे हैं. तभी नीलेश और उमाकांत आते दिखे. उमाकांतजी मुझे कुछ पल चुपचाप देखते रहे, फिर मैं ने उन की चुप्पी तोड़ी, ‘‘उमाकांतजी, कल इस फ्लैट में एक दूसरे साहब आ रहे हैं. पर वे न तो कोई सरकारी अफसर हैं, न ही कोई कानूनदां. हां, वे बिल्डर निरंजन के साढ़ू भाई हैं. अगर हो सके तो आप लोग उन्हें ही सोसायटी का प्रैसिडैंट चुन लेना.’’

उमाकांतजी हकला उठे, ‘‘पर, शशिकांत साहब, आप हमें छोड़ कर जा कहां रहे हैं? अपना पताठिकाना तो देते जाइए. अभी तो आप के जरिए मुझे ढेरों काम करवाने हैं. आप से अब मिलना कहां होगा? मैं आप से संपर्क में कैसे बना रहूंगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘उमाकांतजी, मेरा तबादला तो विदेश में हो गया है. अगर आप वहां आ सकें तो मैं अभी आप को अपना पताठिकाना नोट कराए देता हूं.’’ मैं अपनी जिंदगी का वह पहला झूठ बोल कर इसी शहर के महल्ले में सुकून से रह रहा हूं. कभीकभार उमाकांतजी, भीमसेनजी या नीलेशजी रास्ते में टकरा जाते हैं तो मैं उन से बड़ी सफाई से कतरा कर तेजी से कहीं और निकल जाता हूं और अगर मजबूरन उन से बात करनी भी पड़ जाती है तो मैं एक दूसरा झूठ दाग देता हूं कि अरे भई, किसी जरूरी सरकारी काम से इंडिया आया था. कल सुबह की ही फ्लाइट से वापस जा रहा हूं.

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एक मौका और : भाग 1- हमेशा होती है अच्छाई की जीत

लेखिका- मरियम के. खान

कमाल खान के पिता स्क्रैप कारोबारी थे. कमाल अपने मांबाप की एकलौती संतान था इसलिए लाड़प्यार में वह पढ़ नहीं सका तो पिता ने उसे अपने धंधे में ही लगा लिया. कमाल ने जल्द ही अपने पिता के धंधे को संभाल लिया.

अपनी मेहनत और होशियारी से उस ने अपने पिता से ज्यादा तरक्की की. जल्दी ही वह लाखोंकरोड़ों में खेलने लगा. उस ने अपनी काफी बड़ी फैक्ट्री भी खड़ी कर ली. यह देख पिता ने उस की जल्द ही शादी भी कर दी. कमाल जिस तरह पैसा कमाता था, उसी तरह अय्याशी और अपने दूसरे शौकों पर लुटाता भी था. पिता ने उसे बहुत समझाया पर उस ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. इसी वजह से पत्नी से भी उस की नहीं बनती थी, जिस से वह बहुत तनाव में रहने लगी थी.

इस का नतीजा यह हुआ कि 10-12 साल बाद ही बीवी दुनिया ही छोड़ गई. कमाल के पिता दिल के मरीज थे, पर कमाल ने साधनसंपन्न होने के बावजूद न तो उन का किसी अच्छे अस्पताल में इलाज कराया और न ही उन की देखभाल की, जिस से उन की भी मौत हो गई.

पिता की मृत्यु के बाद कमाल पूरी तरह से आजाद हो गया था. अब वह अपनी जिंदगी मनमाने तरीके से गुजारने लगा. एक बार उसे ईमान ट्रस्ट के स्कूल में चीफ गेस्ट के तौर पर बुलाया गया था. वहां उस की नजर नूर नाम की छात्रा पर पड़ी जो सिर्फ 15 साल की थी और वहां 11वीं कक्षा में पढ़ती थी.

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कमाल खान उस पर जीजान से फिदा हो गया. उस ने फैसला कर लिया कि वह नूर से शादी करेगा. जल्द ही उस ने पता लगाया तो जानकारी मिली कि वह रहमत की बेटी है. रहमत चाटपकौड़ी का ठेला लगाता था. इस काम से उस के परिवार का गुजारा बड़ी मुश्किल से होता था.

इसी बीच अचानक एक दिन रात को उस के ठेले को किसी ने आग लगा दी. वही ठेला उस की रोजीरोटी का सहारा था. रहमत बहुत परेशान हुआ. उस के परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई. ऐसे वक्त पर कमाल खान एक फरिश्ते की तरह उस के पास पहुंचा. उस ने रहमत की खूब आर्थिक मदद की. इतना ही नहीं, उस ने उसे एक पक्की दुकान दिला कर उस का कारोबार भी जमवा दिया.

रहमत हैरान था कि इतना बड़ा सेठ उस पर इतना मेहरबान क्यों है. लेकिन रहमत की अनपढ़ बीवी समझ गई थी कि कमाल खान की नजर उस की बेटी नूर पर है.

जल्दी ही कमाल खान ने नूर का रिश्ता मांग लिया. रहमत इतनी बड़ी उम्र के व्यक्ति के साथ बेटी की शादी नहीं करना चाहता था, पर उस की बीवी ने कहा, ‘‘मर्द की उम्र नहीं, उस की हैसियत और दौलत देखी जाती है. हमारी बेटी वहां ऐश करेगी. फौरन हां कर दो.’’

रहमत ने पत्नी की बात मान कर हां कर के शादी की तारीख भी तय कर दी. नूर तो वेसे ही खूबसूरत थी, पर उस दिन लाल जोड़े में उस की खूबसूरती और ज्यादा बढ़ गई थी. मांबाप ने ढेरों आशीर्वाद दे कर नूर को घर से विदा किया.

कमाल खान उसे पा कर खुश था. अब नूर की किस्मत भी एकदम पलट गई थी. अभावों भरी जिंदगी से निकल कर वह ऐसी जगह आ गई थी, जहां रुपएपैसे की कोई कमी नहीं थी. नूर से निकाह करने के बाद कमाल खान में भी सुधार आ गया था.

उस ने अब बाहरी औरतों से मिलना बंद कर दिया. वह नूर को दिलोजान से प्यार करने लगा. उस के अंदर यह बदलाव नूर की मोहब्बत और खिदमत से आया था. कमाल ने सारी बुरी आदतें छोड़ दीं.

जिंदगी खुशी से बसर होने लगी. देखतेदेखते 5 साल कब गुजर गए, उन्हें पता ही नहीं चला. उन के यहां 2 बेटे और एक बेटी पैदा हो गई. कमाल खान ने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश की. इसी दौरान कमाल अपने आप को कमजोर सा महसूस करने लगा. पता नहीं उसे क्यों लग रहा था कि वह अब ज्यादा नहीं जिएगा. एक दिन उस ने नूर से कहा, ‘‘नूर, तुम अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर दो.’’

पति की यह बात सुन कर नूर चौंकते हुए बोली, ‘‘यह आप क्या कह रहे हैं. मैं अब इस उम्र में पढ़ाई करूंगी? यह तो बेटे के स्कूल जाने का वक्त है.’’

‘‘देखो नूर, मेरे बाद तुम्हें ही अपना सारा बिजनैस संभालना है. तुम बच्चों पर कभी भरोसा मत करना. मुझे उम्मीद है कि मेरे बच्चे भी मेरी तरह ही खुदगर्ज निकलेंगे.’’ कमाल खान ने पत्नी को समझाया.

नूर को शौहर की बात माननी पड़ी और उस ने पढ़ाई शुरू कर दी. 4 साल में उस ने ग्रैजुएशन पूरा कर लिया. अब उस की बेटी भी स्कूल जाने लगी थी. नूर अपने बच्चों से बहुत प्यार करती थी. कालेज के बाद वह अपना सारा वक्त उन्हीं के साथ गुजारती थी. बच्चों की पढ़ाई भी महंगे स्कूलों में हो रही थी.

कमाल खान ने नूर के मायके वालों को भी इतना कुछ दे दिया था कि वे सभी ऐश की जिंदगी गुजार रहे थे. नूर के सभी भाईबहनों की शादियां हो गई थीं. नूर के ग्रैजुएशन के बाद कमाल खान ने उस का एडमिशन एमबीए की ईवनिंग क्लास में करा दिया था.

सुबह वह उसे अपने साथ नई फैक्ट्री ले जाता, जहां वह उसे कारोबार की बारीकियां बताता. नूर काफी जहीन थी. जल्दी ही वह कारोबार की सारी बारीकियां समझ गई.

उस का एमबीए पूरा होते ही कमाल ने उसे बोर्ड औफ डायरेक्टर्स का मेंबर बना दिया और कंपनी के एकतिहाई शेयर उस के नाम कर दिए. नूर समझ नहीं पा रही थी कि पति उसे फैक्ट्री के कामों में इतनी जल्दी एक्सपर्ट क्यों बनाना चाहते हैं.

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इस के पीछे कमाल खान का अपना डर और अंदेशा था कि जिस तरह वह स्वार्थ और खुदगर्जी की वजह से अपने पिता की देखभाल नहीं कर पाया तो उस के बच्चे उस की सेवा नहीं करेंगे, क्योंकि स्वार्थ व लालच के कीटाणु उस के बच्चों के अंदर भी आ गए होंगे. इसलिए वह नूर को पूरी तरह से परफेक्ट बनाना चाहता था.

नूर ने फैक्ट्री का सारा काम बखूबी संभाल लिया था. एक दिन अचानक ही उस के शौहर की तबीयत खराब हो गई. उसे बड़े से बड़े डाक्टरों को दिखाया गया. पता चला कि उसे फेफड़ों का कैंसर है. पत्नी इलाज के लिए उसे सिंगापुर ले गई. वहां उस का औपरेशन हुआ. उसे सांस की नकली नली लगा दी गई.

औपरेशन कामयाब रहा. ठीक हो कर वह घर लौट आया. वह फिर से तंदुरुस्त हो कर अपना कामकाज देखने लगा. हालांकि वह पूरी तरह स्वस्थ था, इस के बावजूद भी उसे चैन नहीं था. उस ने धीरेधीरे कंपनी के सारे अधिकार और शेयर्स पत्नी नूर के नाम कर दिए. अपनी सारी प्रौपर्टी और बंगला भी नूर के नाम कर दिया.

इस के 2 साल बाद कैंसर उस के पूरे जिस्म में फैल गया. लाख इलाज के बावजूद भी वह बच नहीं सका. उस के मरते ही उस के रिश्तेदारों ने नूर के आसपास चक्कर काटने शुरू कर दिए. पर नूर ने किसी को भी भाव नहीं दिया, क्योंकि पति के जीते जी उन में से कोई भी रिश्तेदार उन के यहां नहीं आता था.

वैसे भी कमाल खान जीते जी पहले ही प्रौपर्टी का सारा काम इतना पक्का कर के गया था कि किसी बाहरी व्यक्ति के दखलंदाजी करने की कोई गुंजाइश नहीं थी. उस का मैनेजर भी मेहनती और वफादार था. इसलिए बिना किसी परेशानी के नूर ने सारा कारोबार खुद संभाल लिया.

नूर के बच्चे भी अब बड़े हो चुके थे. एक बार की बात है. कारोबार की बातों को ले कर नूर की अपने तीनों बच्चों से तीखी नोंकझोंक हो गई. उसी दौरान नूर की बेटी हुमा एक गिलास में जूस ले आई.

नूर ने जैसे ही जूस पिया तो उस का सिर चकराने लगा और आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह बिस्तर पर ही लुढ़क गई. जब होश आया तो उस ने खुद को एक अस्पताल में पाया.

नूर ने पास खड़ी नर्स से पूछा कि उसे यहां क्यों लाया गया है तो उस ने बताया कि आप पागलों की तरह हरकतें कर रही थीं, इसलिए आप का यहां इलाज किया जाएगा.

नूर आश्चर्यचकित रह गई क्योंकि वह पूरे होशोहवास में थी. तभी अचानक उसे लगा कि यह सब उस के बच्चों ने किया होगा. नूर ने नर्स को काफी समझाने की कोशिश की कि वह स्वस्थ है, लेकिन नर्स ने उस की एक नहीं सुनी. वह उसे एक इंजेक्शन लगा कर चली गई. इस के बाद नूर फिर से सो गई.

जब नूर की आंखें खुलीं तो उसे सामने वाले कमरे में एक आदमी दिखा, जिस की उम्र करीब 45 साल थी पर उस के बाल सफेद थे. बाद में पता लगा कि उस का नाम सोहेल है. उस ने सफेद कुरतापायजामा पहन रखा था. वह बेहद खूबसूरत और स्मार्ट था. सामने खड़ा फोटोग्राफर उस के फोटो खींच रहा था.

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Anupama को अनुज कपाड़िया के साथ देख वनराज को लगा झटका, याद आई ये बात

स्टार प्लस के सीरियल ‘अनुपमा’ (Anupama) में इस हफ्ते अनुज कपाड़िया की एंट्री होने वाली है, जिसके साथ ही अनुपमा और शाह परिवार की जिंदगी में एक के बाद एक नए ट्विस्ट सामने आने वाले हैं. इसी बीच शो का नया प्रोमो रिलीज हो गया है, जिसमें अनुपमा का सामना उसके पुराने दोस्त से होने वाला है. आइए आपको बताते हैं क्या होगा शो में आगे…

तैयार हुई अनुपमा

अब तक आपने देखा कि अनुपमा की दोस्त देविका उसे रियूनियन पार्टी में ले जाने की जिद करती है, जिसके लिए वह उसे खूबसूरती से तैयार करती है. क्योंकि वेदिका जानती है कि वहां अनुपमा का पुराना दोस्त आने वाला है, जो उसे काफी पसंद करता है. इसी बीच वनराज और काव्या भी इस पार्टी में नजर आने वाले हैं.

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अनुपमा-अनुज को साथ देखेगा वनराज

 

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अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि अनुपमा पार्टी में मस्ती करते हुए डांस करेगी. इस दौरान अनुज कपाडिया की एंट्री हो जाएगी . लेकिन अनुपमा उसे पहचान नही पाएगी. लेकिन अनुज उसे याद दिलाता नजर आएगा. इस बीच काव्या और वनराज की भी पार्टी में एंट्री होगी, जो अनुपमा और अनुज को साथ देखकर हैरान रह जाएंगे. वहीं दोनों को साथ देख वनराज को याद आएगा कि अनुज, अनुपमा का वही दोस्त है, जो उसे काफी पसंद करता था. ये बात याद करके वनराज दुखी हो जाएगा.

बता दें, अनुज कपाड़िया जहां अनुपमा को अपनी जिंदगी में लाने की कोशिश करेगा तो वहीं वनराज-काव्या को अनुपमा को परेशान करने के लिए सजा देता नजर आएगा. हालांकि समर और नंदिनी , अनुज को अनुपमा के करीब लाने की कोशिश करते नजर आएंगे.

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Imlie में होगी आदित्य की मौत! गश्मीर महाजनी ने शेयर किया सेट का आखिरी वीडियो

सीरियल इमली में इन दिनों इमोशनल ड्रामा देखने को मिल रहा है. जहां एक तरफ आदित्य को सत्यकाम ने गोली मार दी है. तो वहीं मालिनी समेत पूरा परिवार इमली को इस बात का जिम्मेदार ठहराकर घर से बाहर कर देंगे. इसी बीच आदित्या के रोल में नजर आने वाले गश्मीर महाजन की एक वीडियो से फैंस को झटका लग गया है. आइए आपको दिखाते हैं वायरल वीडियो…

आदित्य का आखिरी वीडियो

आदित्य (Gashmeer Mahajani) को गोली लगने के बाद फैंस उनके वापस आने का इंतजार कर रहे हैं. इस बीच आदित्य का रोल प्ले करने वाले गश्मीर महाजनी ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो शेयर करके फैंस को चौंका दिया है. दरअसल, आदित्य का एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें वो कहते नजर आर रहे हैं कि इमली (Imlie) के सेट पर उनका आखिरी दिन है और वो काफी इमोशनल हो रहे हैं. इसी के साथ वह इमली यानी एक्ट्रेस सुंबुल तौकीर खान (Sumbul Touqeer Khan) को गले लगाते हुए शो की टीम को अलविदा कहते दिख रहे हैं. हालांकि खबरे हैं कि गश्मीर शो में आदित्य के किरदार में नहीं बल्कि किसी दूसरे किरदार में एंट्री लेंगे.

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सीरियल की कहानी में आएगा नया ट्विस्ट

 

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इमली के अपकमिंग एपिसोड (Imlie Upcoming Episode) में आदित्य की मां टूट इमली के गले लगेगी और वो काफी इमोशनल हो जाएगी लेकिन वह गुस्से में इमली को खुद से दूर करेगी. इस बीच इमली की डेड बौड़ी नही मिलेगी, जिसके बाद इमली आदित्य की मां से वादा करेगी कि वो उनके बेटे को सही-सलामत वापस लाएगी.

मालिनी ने रची चाल

दूसरी तरफ खबरे हैं कि सत्यकाम को आदित्य को गोली मारने के लिए मालिनी ने कहा था, जिसका सच अपकमिंग एपिसोड में इमली सामने लाएगी. अब देखना होगा कि क्या होगा इमली की कहानी में आने वाला ट्विस्ट.

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