Kahaniyan : चोर बाजार – मिर्जा साहब क्यों कर रहे थे दहेज की वकालत

Kahaniyan :  मिर्जा साहब किसी सरकारी दफ्तर में नौकर थे. 800 रुपए तनख्वाह और इतनी ही ऊपर की आमदनी. खातेपीते आदमी थे. पत्नी थी, लड़का हाईस्कूल में पढ़ रहा था और लड़की जवान हो चुकी थी. बस, यही था उन का परिवार. बेटी की शादी की चिंता में घुले जाते थे. हमारे देश में मनुष्य के जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण काम बेटी का विवाह ही होता है. बेटी का जन्म होते ही दुख और चिंता का सिलसिला शुरू हो जाता है. बेटी का जन्म मातापिता के लिए एक कड़ी सजा ही तो होता है.

बेटे के जन्म पर बधाइयां मिलती हैं, जश्न मनाया जाता है और बेटी के जन्म पर केवल रस्मी बधाइयां, ठंडी आहें और फीकी मुसकराहटें, जैसे जबरदस्ती कोई मुसीबत गले में आ पड़े. फिर भी हम छाती ठोंक कर शोर मचाते हैं कि हमारे समाज में स्त्री को आदर और सम्मान मिलता है.

बेटी के विवाह के लिए पिता रिश्वत लेता है, दूसरों का गला काटता है और लूटमार का यह धन कोई और लुटेरा बाजे बजाता हुआ आ कर ले जाता है. दिन दहाड़े सड़कों पर, बाजारों में चोरीडकैती का व्यापार जारी है. सब लुट रहे हैं और सब लूट रहे हैं. सब चलता है.

जो लुटने से इनकार कर दे उस की बेटी बिन ब्याही बूढ़ी हो जाती है. रिश्वत इसी कारण ली जाती है क्योंकि बेटी का विवाह करना है और विवाह मामूली तनख्वाह से नहीं हो सकता.

एक दिन मिर्जा साहब ने बताया कि उन की बेटी के विवाह की बातचीत चल रही है. लड़का जूनियर इंजीनियर था.

तनख्वाह तो 700 रुपए है परंतु ऊपर की आमदनी 2,000 रुपए महीने से कम नहीं. उन्होंने खुश हो कर बताया, ‘‘और आजकल तनख्वाह को कौन पूछता है? असल चीज तो ऊपर की आमदनी है.’’

अगले दिन लड़के वाले बातचीत के लिए आ गए. मैं भी मौजूद था. लड़के के बाप हबीब बेग जूते का काम करते थे और जूतों के तलों में चमड़े के स्थान पर तरबूज का छिलका भर कर अच्छा पैसा कमाया था.

चायपानी के बाद हबीब बेग बोले, ‘‘हां तो, मिर्जा साहब, अब कुछ लेनदेन की बात हो जाए.’’

‘‘जो भी मुझ से बन पड़ेगा, करूंगा,’’ मिर्जा साहब ने दबी जबान से कहा.

‘‘बात साफ अच्छी होती है,’’ हबीब बेग कहने लगे, ‘‘लड़के को पढ़ानेलिखाने पर जो भी खर्च हुआ वह तो हुआ ही, नौकरी के लिए 20 हजार रुपए गिन कर दिए हैं. बिना पैसा दिए नौकरी नहीं मिलती. देखिए जनाब, स्कूटर, टेलीविजन और फ्रिज के साथसाथ 50 हजार रुपए  नकद लूंगा.’’

मिर्जा साहब को पसीना आ गया. बोले, ‘‘मैं जैसे भी बन पड़ेगा, करूंगा.’’

जब लड़के वाले चले गए तो मिर्जा साहब फूट पड़े, ‘‘कयामत करीब है. शादीब्याह व्यापार बन गया है. लड़कों का मोलतोल हो रहा है. इनसानियत और शराफत केवल किताबी शब्द बन चुके हैं. बेटी की शादी भी बिना रिश्वत के नहीं होती. ईमानदारी से केवल दो वक्त की दालरोटी ही चल सकती है. यह लाखों का दहेज कहां से आए? दहेज के खिलाफ कानून बने, परंतु कौन सुनता है?

‘‘मुफ्त के धन को हड़पने वाले ये कठोर लुटेरे पल भर के लिए भी नहीं सोचते कि बेटी वाला इतना धन लाएगा कहां से? इन के दिलों में दया का नाम नहीं. ये सब भेडि़ए हैं. अब कोई उन से पूछे कि बेटी वाला तो अपनी बेटी दे  रहा है इन्हें, उस के गले पर छुरी क्यों रखते हैं?

‘‘क्या संसार में और कहीं लड़के बेचे जाते हैं? क्या लड़के को इसीलिए पाला और पढ़ायालिखाया था कि इस की कीमत लड़की वालों से वसूल करो? अगर लड़की वाला भी अपनी बेटी को पालने, पढ़ानेलिखाने का खर्च लड़के से मांगे तो कैसा लगे?

‘‘अब देखो न, दहेज ऐसी बुराई है जो अनेक बुराइयों को जन्म देती है. आखिर लोग रिश्वत क्यों लेते हैं? मिलावट क्यों करते हैं? नकली वस्तुएं क्यों बनाते हैं? इस का कारण यही है कि दहेज में देने के लिए लाखों चाहिए? ईमानदारी से कितना कमाया जा सकता है? एक आदमी को बेटी ब्याहनी है और उस का दहेज वह दूसरों की जेब पर डाके डाल कर एकत्र करता है.

‘‘सब को दहेज देना है, इसलिए सब ही अपनेअपने स्थान पर डाके डाल रहे हैं. सब चुप हैं. किसी को दहेज लेते हुए शरम नहीं आती. बड़ेबड़े धर्मात्मा हों, साधू या शैतान हों, दहेज सब को हजम कर जाता है. बनाती रहे सरकार कानून, कौन मानता है? हमारे नेता और मंत्री सब धड़ल्ले से दहेज लेते हैं. कोई रोकने वाला नहीं है.’’

मिर्जा साहब बहुत बिगड़े हुए थे.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या यह संभव नहीं कि आप कोई ऐसा लड़का ढूंढ़ें जो बिना दहेज के शादी कर ले?’’

‘‘ऐसा कोई लड़का नहीं मिलता,’’ उन्होंने कहा, ‘‘जाहिलों की बात छोड़ो. कालिजों और विश्वविद्यालयों सेडिगरियां ले कर निकलने वालों का हाल तो और भी बुरा है. इन के पेट और भी बढ़े होते हैं. इन्हें लाखों चाहिए क्योंकि नौकरी बिना रिश्वत दिए नहीं मिलती और अगर मिल भी जाए तो ऊपर की आमदनी वाली नहीं होती.

‘‘हमारे युवक कालिजों से यही आदर्श सीख कर निकलते हैं कि अपने आने वाले दिनों के लिए ताजमहल लड़की वाले की हड्डियों पर बनाओ. दहेज रिश्वत के लिए और रिश्वत दहेज के लिए. क्या तमाशा है, कैसा अंधेर है, दुख तो इस बात का है कि समाज इन बुराइयों को बुरा नहीं समझता. हमारा समाज समाज नहीं, एक चोर बाजार है जहां चोरी का माल खरीदा और बेचा जाता है. बेचने वाले और खरीदने वाले सब चोर हैं.’’

‘‘चोर बाजार,’’ मैं धीरे से बड़-बड़ाया.

मिर्जा साहब कहते ही रहे, ‘‘मेरा भी क्या बिगड़ता है? अधिक से अधिक यही होगा कि मैं ऊपर की आमदनी बढ़ा लूंगा. उफ, ये लड़के वाले, ये धन के कुत्ते और दहेज के गुलाम नहीं जानते कि ये कितने बड़े अपराधी हैं और इन की दहेज की भूख समाज में कितने भयंकर अपराधों को जन्म दे रही है.’’

मिर्जा साहब की बेटी की शादी धूमधाम से हो गई. स्कूटर, टेलीविजन, फ्रिज और 50 हजार रुपए नकद. जूनियर इंजीनियर साहब की अपनी बेटी भी रिश्वत की हराम की कमाई पर पलेगी, बढ़ेगी, रिश्वत की ही कमाई से उस का दहेज दिया जाएगा. इस प्रकार यह बीमारी चलती ही रहेगी. इस का कोई अंत नहीं है.

कई वर्ष बीत गए. मैं देश से बाहर चला गया था.

इतने सालों बाद जब मैं उन के घर पहुंचा तो पता चला कि बेटे की शादी की बात पक्की करने कहीं गए हैं. अब उन के बेटे की नौकरी लग गई थी और नौकरी भी ऐसी कि ऊपर की कमाई इतनी थी कि वारेन्यारे थे.

मैं उन के घर थोड़ी देर बैठा रहा. इतने में मिर्जा साहब आ गए लड़की वाले के घर से. मुझे देख कर वह बड़े खुश हुए.

‘‘कहिए,’’ मैं ने पूछा, ‘‘शादी पक्की कर आए न?’’

वह भरे बैठे थे. एकदम फट पड़े, ‘‘हद हो गई शराफत की. जानते हो लड़की वाले कौन हैं? अरे भई, वही हाजी फजल बेग. हर वर्ष हज को जाते हैं और लाखों का हेरफेर करते हैं. पिछले वर्ष 3 लाख का केवल सोना ही लाए थे. कमाई के और भी साधन हैं, नंबर दो के. इतना कुछ होते हुए भी बेटी को डेढ़ लाख का दहेज देते हुए दम निकल रहा है.

‘‘कोई मजाक है लड़के को पालना, पढ़ानालिखाना, नौकरी दिलाना? मैं ने साफ कह दिया है, 1 लाख नकद और 50 हजार का सामान दो तो बात करो. मेरा बेटा कोई भिखारी नहीं है. जिस घर चला जाऊंगा, इतनी रकम तो हाथोंहाथ मिलेगी.

‘‘इतनी सी बात लोगों को समझ में नहीं आती कि जितना गुड़ डालेंगे, उतना ही मीठा होगा. जितना दहेज दोगे, उतना ही अच्छा वर मिलेगा. बिना लिएदिए भले लोगों में कहीं शादियां होती हैं? भई, पास में धन है तो बेटी को दो दिल खोल कर. अपनी ही बेटी को दोगे. न जाने कैसा जमाना आ गया है? यह दुनिया क्या बनती जा रही है?’’

मैं आश्चर्य से आंखें फाड़े मिर्जा साहब का भाषण सुन रहा था चुपचाप, परंतु उन का आखिरी प्रश्न सुन

कर मेरे मुंह से निकल ही गया,

‘‘चोर बाजार.’’

Family Drama : एक और अध्याय – आखिर क्या थी दादी मां की कहानी

Family Drama :  वृद्धाश्रम के गेट से सटी पक्की सड़क है, भीड़भाड़ ज्यादा नहीं है. मैं ने निकट से देखा, दादीमां सफेद पट्टेदार धोती पहने हुए वृद्धाश्रम के गेट का सहारा लिए खड़ी हैं. चेहरे पर  झुर्रियां और सिर के बाल सफेद हो गए हैं. आंखों में बेसब्री और बेबसी है. अंगप्रत्यंग ढीले हो चुके हैं किंतु तृष्णा उन की धड़कनों को कायम रखे हुए है.

तभी दूसरी तरफ से एक लड़का दौड़ता हुआ आया. कागज में लिपटी टौफियां दादीमां के कांपते हाथों में थमा कर चला गया. दादीमां टौफियों को पल्लू के छोर में बांधने लगीं. जैसे ही कोई औटोरिकशा पास से गुजरता, दादीमां उत्साह से गेट के सहारे कमर सीधी करने की चेष्टा करतीं, उस के जाते ही पहले की तरह हो जातीं.

मैं ने औटोरिकशा गेट के सामने रोक दिया. दादीमां के चेहरे से खुशी छलक पड़ी. वे गेट से हाथ हटा कर लाठी टेकती हुई आगे बढ़ चलीं.

‘‘दादीमां, दादीमां,’’ औटोरिकशा से सिर बाहर निकालते हुए बच्चे चिल्लाए.

‘‘आती हूं मेरे बच्चो,’’ दादीमां उत्साह से भर कर बोलीं, औटोरिकशा में उन के पोतापोती हैं, यही समय होता है जब दादीमां उन से मिलती हैं. दादीमां बच्चों से बारीबारी लिपटीं, सिर सहलाया और माथा चूमने लगीं. अब वे तृप्त थीं. मैं इस अनोखे मिलन को देखता रहता. बच्चों की स्कूल से छुट्टी होती और मैं औटोरिकशा लिए इसी मार्ग से ही निकलता. दादीमां इन अमूल्य पलों को खोना नहीं चाहतीं. उन की खुशी मेरी खुशी से कहीं अधिक थी और यही मुझे संतुष्टि दे जाती. दादीमां मुझे देखे बिना पूछ बैठीं, ‘‘तू ने कभी अपना नाम नहीं बताया?’’

‘‘मेरा नाम रमेश है, दादी मां,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब तुझे नाम से पुकारूंगी मैं,’’ बिना मेरी तरफ देखे ही दादीमां ने कहा.

स्कूल जिस दिन बंद रहता, दादीमां के लिए एकएक पल कठिन हो जाता. कभीकभी तो वे गेट तक आ जातीं छुट्टी के दिन. तब गेटकीपर उन्हें समझ बुझा कर वापस भेज देता. दादीमां ने धोती की गांठ खोली. याददाश्त कमजोर हो चली थी, लेकिन रोज 10 रुपए की टौफियां खरीदना नहीं भूलतीं. जब वे गेट के पास होतीं, पास की दुकान वाला टौफियां लड़के से भेज देता और तब तक मुझे रुकना पड़ता.

‘‘आपस में बांट लेना बच्चो…आज कपड़े बहुत गंदे कर दिए हैं तुम ने. घर जा कर धुलवा लेना,’’ दादीमां के पोपले मुंह से आवाज निकली और तरलता से आंखें भीग गईं.

मैं मुसकराया, ‘‘अब चलूं, दादी मां, बच्चों को छोड़ना है.’’

‘‘हां बेटा, शायद पिछले जनम में कोईर् नेक काम किया होगा मैं ने, तभी तू इतना ध्यान रखता है,’’ कहते हुए दादीमां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर दिया था.

‘‘कौन सा पिछला जनम, दादी मां? सबकुछ तो यहीं है,’’ मैं मुसकराया.

दादीमां की आंखों में घुमड़ते आंसू कोरों तक आ गए. उन्होंने पल्लू से आंखें पोंछ डालीं. रास्तेभर मैं सोचता रहा कि इन बेचारी के जीवन में कौन सा तूफान आया होगा जिस ने इन्हें यहां ला दिया.

एक दिन फुरसत के पलों में मैं दादीमां के हृदय को टटोलने की चेष्टा करने लगा. मैं था, दादीमां थीं और वृद्धाश्रम. दादीमां मुझे ले कर लाठी टेकतेटेकते वृद्धाश्रम के अपने कमरे में प्रवेश कर गईं. भीतर एक लकड़ी का तख्त था जिस में मोटा सा गद्दा फैला था. ऊपर हलके रंग की भूरी चादर और एक तह किया हुआ कंबल. दूसरी तरफ बक्से के ऊपर तांबे का लोटा और कुछ पुस्तकें. पोतापोती की क्षणिक नजदीकी से तृप्त थीं दादीमां. सांसें तेजतेज चल रही थीं. और वे गहरी सांसें छोड़े जा रही थीं.

लाठी को एक ओर रख कर दादीमां बिस्तर पर बैठ गईं और मुझे भी वहीं बैठने का इशारा किया. देखते ही देखते वे अतीत की परछाइयों के साथसाथ चलने लगीं. पीड़ा की धार सी बह निकली और वे कहती चली गईं.

‘‘कभी मैं घर की बहू थी, मां बनी, फिर दादीमां. भरेपूरे, संपन्न घर की महिला थी. पति के जाते ही सभी चुकने लगा…मान, सम्मान और अतीत. बहू घर में लाई, पढ़ीलिखी और अच्छे घर की. मुझे लगा जैसे जीवन में कोई सुख का पौधा पनप गया है. पासपड़ोसी बहू को देखने आते. मैं खुश हो कर मिलाती. मैं कहती, चांदनी नाम है इस का. चांद सी बहू ढूंढ़ कर लाई हूं, बहन.

‘‘फिर एकाएक परिस्थितियां बदलीं. सोया ज्वालामुखी फटने लगा. बेटा छोटी सी बात पर ? झिड़क देता. छाती फट सी जाती. मन में उद्वेग कभी घटता तो कभी बढ़ने लगता. खुद को टटोला तो कहीं खोट नहीं मिला अपने में.

‘‘इंसान बूढ़ा हो जाता है, लेकिन लालसा बूढ़ी नहीं होती. घर की मुखिया की हैसियत से मैं चाहती थी कि सभी मेरी बातों पर अमल करें. यह किसी को मंजूर न हुआ. न ही मैं अपना अधिकार छोड़ पा रही थी. सब विरोध करते, तो लगता मेरी उपेक्षा की जा रही है. कभीकभी मुझे लगता कि इस की जड़ चांदनी है, कोई और नहीं.

‘‘एक दिन मुझे खुद पर क्रोध आया क्योंकि मैं बच्चों के बीच पड़ गई थी. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था. हर्ष बरामदे में खड़ा चांदनी की राह देख रहा था. झुंझलाहट और बेचैनी से वह बारबार ? झल्ला रहा था. रात गहराई और घड़ी की सुइयां 11 के अंक को छूने लगीं. तभी एक कार घर के सामने आ कर रुकी. चांदनी जब बाहर निकली तब सांस में सांस आई.

‘‘‘ओह, कितनी देर कर दी. मुझे तो टैंशन हो गई थी,’ हर्ष सिर झटकते हुए बोला था. चांदनी बता रही थी देर से आने का कारण जिसे मैं समझ नहीं पाई थी.

‘‘‘यह ठीक है, लेकिन फोन कर देतीं. तुम्हारा फोन स्विचऔफ आ रहा था,’ हर्ष फीके स्वर में बोला था.

‘‘‘इतने लोगों के बीच कैसे फोन करती, अब आ गई हूं न,’ कह कर चांदनी भीतर जाने लगी थी.

‘‘मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने इतना ही कहा कि इतनी रात बाहर रहना भले घर की बहुओं को शोभा नहीं देता और न ही मुझे पसंद है. देखतेदेखते तूफान खड़ा हो गया. चांदनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई. हर्र्ष भी उस पर बड़बड़ाता रहा और दोनों ने कुछ नहीं खाया.

‘‘मुझे दुख हुआ, मुझे इस तरह चांदनी को नहीं डांटना चाहिए था. ? झिड़कने के बजाय समझना चाहिए था. लेकिन बहू घर की इज्जत थी, उसे इस तरह सड़क पर नहीं आने देना चाहती थी. एक मुट्ठीभर उपलब्धि के लिए अपने दायित्वों को भूलना क्या ठीक है? नारी को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए हमेशा ही जूझना पड़ा है.

‘‘हर्ष मेरे व्यवहार से कई दिनों तक उखड़ाउखड़ा सा रहा. लेकिन मैं ने बेटे की परवा नहीं की. हर्ष हर बात पर चांदनी का पक्ष लेता. मां थी मैं उस की, क्या कोई मां अपने बच्चों का बुरा चाहेगी? कई बार मुझे लगता कि बेटा मेरे हाथ से निकला जा रहा है. मैं हर्ष को खोना नहीं चाहती थी.

‘‘यह मेरी कमजोरी थी. मैं हर्ष को समझने की कोशिश करती तो वह अजीब से तर्क देने लग जाता. वह नहीं चाहता कि चांदनी घर में चौकाचूल्हा करे. घर के लिए बाई रखना चाहता था वह, जो मुझे नापसंद था. मैं साफसफाई पसंद थी जबकि सभी अस्तव्यस्त रहने के आदी थे. मूर्ख ही थी मैं कि बच्चों के आगे जो जी में आता, बक देती थी. कभी धैर्य से मैं ने नहीं सोचा कि सामंजस्य किसे कहते हैं.

‘‘चांदनी भी कई दिनों तक गुमसुम रही. बहूबेटा मेरे विरोध में खड़े दिखाई देने लगे थे. एक दिन चांदनी खाना रख कर मेरे सामने बैठ गई. खाना उठाते ही मेरे मुंह से न चाह कर भी अनायास छूट गया, ‘तुम्हारे मायके वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं. भूख ही मर जाती है खाना देख कर.’

‘‘चांदनी का मुंह उतर गया, लेकिन कुछ न बोली. आज सोचती हूं कि मैं ने क्यों बहू का दिल दुखाया हर बार. क्यों मेरे मुंह से ऐसे कड़वे बोल निकल जाते थे. अब उस का दंड भुगत रही हूं. आज पश्चात्ताप में जल रही हूं, बहुत पीड़ा होती है, बेटा.’’ दादीमां रोंआसी हो गईं.

‘‘जो हुआ, सो हुआ, दादी मां. इंसान हैं सभी. कुछ गलतियां हो जाती हैं जीवन में,’’ मैं ने अपना नजरिया पेश किया.

दादी आगे कहने लगीं, ‘‘हर्ष को भी न जाने क्या हुआ कि वह मुझ से दूरदूर होता रहा. न जाने मुझ से क्या चूक हो रही थी, वह मैं तब न समझ सकी थी. एक स्त्री होने की वेदना, उस पर वैधव्य. विकट परिस्थिति थी मेरे लिए. लगता था कि मैं दुनिया में अकेली हूं और सभी से बहुत दूर हो चुकी हूं.

‘‘कुछ सालों बाद चांदनी की गोद भर गई. बड़ा संतोष हुआ कि शायद बचीखुची जिंदगी में खुशी आई है. कुछ माह और बीते, चांदनी का समय क्लीनिकों में व्यतीत होता या फिर अपने कमरे में. चांदनी की छोटी बहन नीना आ गई थी. नीना सारा दिन कमरे में ही गुजार देती. देर तक सोना, देर रात तक बतियाते रहना. घर का काफी काम बाई के जिम्मे सौंप दिया गया था.

‘‘एक दिन हर्ष औफिस से जल्दी आया और सीधे रसोई में जा कर डिनर बनाने लगा. इतने में नीना रसोई में आ गई, ‘अरे…अरे जीजू, यह क्या हो रहा है? मुझ से कह दिया होता.’

‘‘मुझ से रहा नहीं गया, सो, बोल पड़ी कि इंसान में समझ हो तो बोलना जरूरी नहीं होता. हर्ष का पारा चढ़ गया और देर तक मुझ पर चीखताचिल्लाता रहा.

‘‘खाना पकाना, कपड़े धोना और छोटेमोटे काम बाई के जिम्मे सौंप कर सभी निश्ंचित थे. मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता? बाई व्यवहार की अच्छी थी. मेरा भी खयाल रखने लगी. न जाने क्यों मैं सारी भड़ास बाई पर ही निकाल देती. तंग आ कर एक दिन बाई ने काम ही छोड़ दिया. मेरे पास संयम नाम की चीज ही नहीं थी और चांदनी व हर्ष के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. यह अब समझ रही हूं.

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’

मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.

‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा. बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’

तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.

3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’

‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.

‘‘क्या? बच्चों को मु?ा से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.

‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’

‘‘कौन सा?ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.

दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’

‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.

‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’

‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.

‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’

‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कौन सा नेग?’’

‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.

तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर ?ांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.

‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर ?ाकाए बोल रहा था.

घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.

‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.

दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’

‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.

‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.

‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’

दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.

  लेखक: यदु जोशी ‘गढ़देशी’

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 Stories : आशीष के जाते ही डिंपल दरवाजा बंद कर रसोईघर की ओर भागी. जल्दी से टिफिन अपने बैग में रख शृंगार मेज के समक्ष तैयार होते हुए वह बड़बड़ाती जा रही थी, ‘आज फिर औफिस के लिए देर होगी. एक तो घर का काम, फिर नौकरी और सब से ऊपर वही बहस का मुद्दा…’ 5 वर्ष के गृहस्थ जीवन में पतिपत्नी के बीच पहली बार इतनी गंभीरता से मनमुटाव हुआ था. हर बार कोई न कोई पक्ष हथियार डाल देता था, पर इस बार बात ही कुछ ऐसी थी जिसे यों ही छोड़ना संभव न था.

‘उफ, आशीष, तुम फिर वही बात ले बैठे. मेरा निर्णय तो तुम जानते ही हो, मैं यह नहीं कर पाऊंगी,’ डिंपल आपे से बाहर हो, हाथ मेज पर पटकते हुए बोली थी. ‘अच्छाअच्छा, ठीक है, मैं तो यों ही कह रहा था,’ आखिर आशीष ने आत्मसमर्पण कर ही दिया. फिर कंधे उचकाते हुए बोला, ‘प्रिया मेरी बहन थी और बच्चे भी उसी के हैं, तो क्या उन्हें…’

बीच में ही बात काटती डिंपल बोल पड़ी, ‘मैं यह मानती हूं, पर हमें बच्चे चाहिए ही नहीं. मैं यह झंझट पालना ही नहीं चाहती. हमारी दिनचर्या में बच्चों के लिए वक्त ही कहां है? क्या तुम अपना वादा भूल गए कि मेरे कैरियर के लिए हमेशा साथ दोगे, बच्चे जरूरी नहीं?’ आखिरी शब्दों पर उस की आवाज धीमी पड़ गई थी. डिंपल जानती थी कि आशीष को बच्चों से बहुत लगाव है. जब वह कोई संतान न दे सकी तो उन दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का निश्चय भी किया था, पर…

‘ठीक है डिंपी?’ आशीष ने उस की विचारशृंखला भंग करते हुए अखबार को अपने ब्रीफकेस में रख कर कहा, ‘मैं और मां कुछ न कुछ कर लेंगे. तुम इस की चिंता न करना. फिलहाल तो बच्चे पड़ोसी के यहां हैं, कुछ प्रबंध तो करना ही होगा.’ ‘क्या मांजी बच्चों को अपने साथ नहीं रख सकतीं?’ जूठे प्याले उठाते हुए डिंपल ने पूछा.

‘तुम जानती तो हो कि वे कितनी कमजोर हो गई हैं. उन्हें ही सेवा की आवश्यकता है. यहां वे रहना नहीं चाहतीं, उन को अपना गांव ही भाता है. फिर 2 छोटे बच्चे पालना…खैर, मैं चलता हूं. औफिस से फोन कर तुम्हें अपना प्रोग्राम बता दूंगा.’ तैयार होते हुए डिंपल की आंखें भर आईं, ‘ओह प्रिया और रवि, यह क्या हो गया…बेचारे बच्चे…पर मैं भी अब क्या करूं, उन्हें भूल भी नहीं पाती,’ बहते आंसुओं को पोंछ, मेकअप कर वह साड़ी पहनने लगी.

2 दिनों पहले ही कार दुर्घटना में प्रिया तो घटनास्थल पर ही चल बसी थी, जबकि रवि गंभीर हालत में अस्पताल में था. दोनों बच्चे अपने मातापिता की प्रतीक्षा करते डिंपल के विचारों में घूम रहे थे. हालांकि एक लंबे अरसे से उस ने उन्हें देखा नहीं था. 3 वर्ष पूर्व जब वह उन से मिली थी, तब वे बहुत छोटे थे.

वह घर, वह माहौल याद कर डिंपल को कुछ होने लगता. हर जगह अजीब सी गंध, दूध की बोतलें, तारों पर लटकती छोटीछोटी गद्दियां, जिन से अजीब सी गंध आ रही थी. पर वे दोनों तो अपनी उसी दुनिया में डूबे थे. रवि को तो चांद सा बेटा और फूल जैसी बिटिया पा कर और किसी चीज की चाह ही नहीं थी. प्रिया हर समय, बस, उन दोनों को बांहों में लिए मगन रहती. परंतु घर के उस बिखरे वातावरण ने दोनों को हिला दिया. तभी डिंपल बच्चा गोद लेने के विचार मात्र से ही डरती थी और उन्होंने एक निर्णय ले लिया था. ‘तुम ठीक कहती हो डिंपी, मेरे लिए भी यह हड़बड़ी और उलझन असहाय होगी. फिर तुम्हारा कैरियर…’ आशीष ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था.

दोनों अपने इस निर्णय पर प्रसन्न थे, जबकि वह जानती थी कि बच्चे पालने का अर्थ घर का बिखरापन ही हो, ऐसी बात नहीं है. यह तो व्यक्तिगत प्रक्रिया है. पर वह अपना भविष्य दांव पर लगाने के पक्ष में कतई न थी. वह अच्छी तरह समझती थी कि यह निर्णय आशीष ने उसे प्रसन्न रखने के लिए ही लिया है. लेकिन इस के विपरीत डिंपल बच्चों के नाम से ही कतराती थी. डिंपल ने भाग कर आटो पकड़ा

और दफ्तर पहुंची. आधे घंटे बाद ही फोन की घंटी घनघना उठी, ‘‘मैं अभी मुरादाबाद जा रहा हूं. मां को भी रास्ते से गांव लेता जाऊंगा,’’ उधर से आशीष की आवाज आई.

‘‘क्या वाकई, मेरा साथ चलना जरूरी न होगा?’’ ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मांजी तो जाएंगी ही. और कुछ दिनों पहले ही बच्चे नानी से मिले थे. उन्हें वे पहचानते भी हैं. तुम्हें तो वे पहचानेंगे ही नहीं. वैसे तो मैं ही उन से कहां मिला हूं. खैर, तुम चिंता न करना. अच्छा, फोन रखता हूं…’’

2 दिनों बाद थकाटूटा आशीष वहां से लौटा और बोला, ‘‘रवि अभी भी बेहोश है, दोनों बच्चे पड़ोसी के यहां हैं. वे उन्हें बहुत चाहते हैं. पर वे वहां कब तक रहेंगे? बच्चे बारबार मातापिता के बारे में पूछते हैं,’’ अपना मुंह हाथों से ढकते हुए आशीष ने बताया. उस का गला भर आया था. ‘‘मां बच्चों को संभालने गई थीं, पर वे तो रवि की हालत देख अस्पताल में ही गिर पड़ीं,’’ आशीष ने एक लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मैं ने आज किशोर साहब से बात की थी, वे एक हफ्ते के अंदर ही डबलबैड भिजवा देंगे.’’ ‘‘एक और डबलबैड क्यों?’’ आशीष की नजरों में अचरजभरे भाव तैर गए.

‘‘उन दोनों के लिए एक और डबलबैड तो चाहिए न. हम उन्हें ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकते, उन्हें देखभाल की बहुत आवश्यकता होगी. वे पेड़ से गिरे पत्ते नहीं, जिन्हें वक्त की आंधी में उड़ने के लिए छोड़ दिया जाए,’’ डिंपल की आंखों में पहली बार ममता छलकी थी. उस की इस बात पर आशीष का रोमरोम पुलकित हो उठा और वह कूद कर उस के पास जा पहुंचा, ‘‘सच, डिंपी, क्या तुम उन्हें रखने को तैयार हो? अरे, डिंपी, तुम ने मुझे कितने बड़े मानसिक तनाव से उबारा है, शायद तुम नहीं समझोगी. मैं आजीवन तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहूंगा.’’ पत्नी के कंधों पर हाथ रख उस ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की.

डिंपल चुपचाप आशीष को देख रही थी. वह स्वयं भी नहीं जानती थी कि भावावेश में लिया गया यह निर्णय कहां तक निभ पाएगा.

डिंपल सारी तैयारी कर बच्चों के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. 10 बजे घंटी बजी. दरवाजे पर आशीष खड़ा था और नीचे सामान रखा था. उस की एक उंगली एक ने तो दूसरी दूसरे बच्चे ने पकड़ रखी थी. उन्हें सामने देख डिंपल खामोश सी हो गई. बच्चों के बारे में उसे कुछ भी तो ज्ञान और अनुभव नहीं था. एक तरफ अपना कैरियर, दूसरी तरफ बच्चे, वह कुछ असमंजस में थी. आशीष और बच्चे उस के बोलने का इंतजार कर रहे थे. ऊपरी हंसी और सूखे मुंह से डिंपल ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘हैलो, कैसा रहा सफर?’’

‘‘बहुत अच्छा, बच्चों ने तंग भी नहीं किया. यह है प्रार्थना और यह प्रांजल. बच्चो, ये हैं, तुम्हारी मामी,’’ आशीष ने हंसते हुए कहा. परंतु चारों आंखें नए वातावरण को चुपचाप निहारती रहीं, कोई कुछ भी

न बोला. डिंपल ने बच्चों का कमरा अपनी पसंद से सजाया था. अलमारी में प्यारा सा कार्टून पिं्रट का कागज बिछा बिस्कुट और टाफियों के डब्बे सजा दिए थे. बिस्तर पर नए खिलौने रखे थे.

प्रांजल खिलौनों से खेलने में मशगूल हो, वातावरण में ढल गया, किंतु प्रार्थना बिस्तर पर तकिए को गोद में रख, मुंह में अंगूठा ले कर गुमसुम बैठी हुई थी. वह मासूम अपनी खोईखोई आंखों में इस नए माहौल को बसा नहीं पा रही थी. पहले 4-5 दिन तो इतनी कठिनाई नहीं हुई क्योंकि आशीष ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी. दोनों बच्चे आपस में खेलते और खाना खा कर चुपचाप सो जाते. फिर भी डिंपल डरती रहती कि कहीं वे उखड़ न जाएं. शाम को आशीष उन्हें पार्क में घुमाने ले जाता. वहां दोनों झूले झूलते, आइसक्रीम खाते और कभीकभी अपने मामा से कहानियां भी सुनते.

आशीष, बच्चों से स्वाभाविकरूप से घुलमिल गया था और बच्चे भी सारी हिचकिचाहट व संकोच छोड़ चुके थे, जिसे वे डिंपल के समक्ष त्याग न पाते थे. शायद यह डिंपल के अपने स्वभाव की प्रतिक्रिया थी. एक हफ्ते बाद डिंपल ने औफिस से छुट्टी ले ली थी ताकि वह भी बच्चों से घुलमिल सके. यह एक परीक्षा थी, जिस में आशीष उत्तीर्ण हो चुका था. अब डिंपल को अपनी योग्यता दर्शानी थी. हमेशा की भांति आशीष तैयार हो कर 9 बजे दफ्तर चल दिया. दोनों बच्चों ने नाश्ता किया. डिंपल ने उन की पसंद का नाश्ता बनाया था.

‘‘अच्छा बच्चो, तुम जा कर खेलो, मैं कुछ साफसफाई करती हूं,’’ नाश्ते के बाद बच्चों से कहते समय हमेशा की भांति वह अपनी आवाज में प्यार न उड़ेल पाई, बल्कि उस की आवाज में सख्ती और आदेश के भाव उभर आए थे. थालियों को सिंक में रखते समय डिंपल उन मासूम चेहरों को नजरअंदाज कर गई, जो वहां खड़े उसे ही देख रहे थे. ‘‘जाओ, अपने खिलौनों से खेलो. अभी मुझे बहुत काम करना है,’’ और वह दोनों को वहीं छोड़ अपने कमरे की ओर बढ़ गई.

कमरा ठीक कर, किताबों और फाइलों के ढेर में से उस ने कुछ फाइलें निकालीं और उन में डूब गई. कुछ देर बाद उसे महसूस हुआ, जैसे कमरे में कोई आया है. बिना पीछे मुड़े ही वह बोल पड़ी, ‘‘हां, क्या बात है?’’

परंतु कोई उत्तर न पा, पीछे देखा कि प्रार्थना और प्रांजल खड़े हैं. प्रांजल धीरे से बोला, ‘‘प्रार्थना को गाना सुनना है.’’

डिंपल ने एक ठंडी सांस भर कमरे के कोने में रखे स्टीरियो को देखा, फिर अपनी फाइलों को. उसे एक हफ्ते बाद ही नए प्रोजैक्ट की फाइलें तैयार कर के देनी थीं. सोचतेसोचते उस के मुंह से शब्द फिसला, ‘‘नहीं,’’ फिर स्वयं को संभाल उन्हें समझाते हुए बोली, ‘‘अभी मुझे बहुत काम है, कुछ देर बाद सुन लेना.’’ दोनों बच्चे एकदूसरे का मुंह देखने लगे. वे सोचने लगे कि मां तो कभी मना नहीं करती थीं. किंतु यह बात वे कह न पाए और चुपचाप अपने कमरे में चले गए.

डिंपल फिर फाइल में डूब गई. बारबार पढ़ने पर भी जैसे मस्तिष्क में कुछ घुस ही न रहा था. पैन पटक कर डिंपल खड़ी हो गई. बच्चों के कमरे में झांका, वहां एकदम शांति थी. प्रार्थना तकिया गोद में लिए, मुंह में अंगूठा दबाए बैठी थी. प्रांजल अपने सूटकेस में खिलौने जमाने में व्यस्त था. ‘‘यह क्या हो रहा है?’’

‘‘अब हम यहां नहीं रहेंगे,’’ प्रांजल ने फैसला सुना दिया. उस रात डिंपल दुखी स्वर में पति से बोली, ‘‘मैं और क्या कर सकती हूं, आशीष? ये मुझे गहरी आंखों से टुकुरटुकुर देखा करते हैं. मुझ से वह दृष्टि सहन नहीं होती. मैं उन्हें प्रसन्न देखना चाहती हूं, उन्हें समझाया कि अब यही उन का घर है, पर वे नहीं मानते,’’ डिंपल का सारा गुबार आंखों से फूट कर बह गया.

प्रांजल और प्रार्थना के मौन ने उसे हिला दिया था, जिसे वह स्वयं की अस्वीकृति समझ रही थी. उस ने उन्हें अपनाना तो चाहा लेकिन उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया. ‘‘मैं जानता हूं, यह कठिन कार्य है, पर असंभव तो नहीं. मांजी ने भी उन्हें समझाया था कि उन की मां बहुत दूर चली गई है, अब वापस नहीं आएगी और पिता भी बहुत बीमार हैं. पर उन का नन्हा मस्तिष्क यह बात स्वीकार नहीं पाता. लेकिन धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘शायद उन्हें यहां नहीं लाना चाहिए था. कहीं अच्छाई के बदले कुछ बुरा न हो जाए.’’ ‘‘नहीं, डिंपी, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए. इस समय उन्हें भरपूर लाड़प्यार और ध्यान की आवश्यकता है. हम जितना स्नेह उन्हें देंगे, वे उतने ही समीप आएंगे. वे प्यार दें या न दें, हमें उन्हें प्यार देते रहना होगा.’’

‘‘मेरे लिए शायद ऐसा कर पाना कठिन होगा. मैं उन्हें अपनाना चाहती हूं, पर फिर भी अजीब सा एहसास, अजीब सी दूरी महसूस करती हूं. इन बच्चों के कारण मैं अपना औफिस का कार्य भी नहीं कर पाती जब वे

पास होते हैं तब भी और जब दूर होते हैं तब भी. मेरा मन बड़ी दुविधा में फंसा है.’’ ‘‘मैं ने तो इतना सोचा ही नहीं. अगर तुम को इतनी परेशानी है तो कहीं होस्टल की सोचूंगा. बच्चे अभी तुम से घुलेमिले भी नहीं हैं,’’ आशीष ने डिंपल को आश्वासन देते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं उन्हें वापस नहीं भेजना चाहती, स्वीकारना चाहती हूं, सच. मेरी इच्छा है कि वे हमारे बन जाएं, हमें उन्हें जीतना होगा, आशू, मैं फिर प्रयत्न करूंगी.’’ अगले दिन सुबह से ही डिंपल ने गाने लगा दिए थे. रसोई में काम करते हुए बच्चों को भी आवाज दी, ‘‘मेरी थोड़ी मदद करोगे, बच्चो?’’

प्रांजल उत्साह से भर मामी को सामान उठाउठा कर देने लगा, किंतु प्रार्थना, बस, जमीन पर बैठी चम्मच मारती रही. उस के भोले और उदास चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं था आंखों के नीचे कालापन छाया था जैसे रातभर सोई न हो. पर डिंपल ने जब भी उन के कमरे में झांका था, वे सोऐ ही नजर आए थे. ‘‘अच्छा, तो प्रार्थना, तुम यह अंडा फेंटो, तब तक प्रांजल ब्रैड के कोने काटेगा और फिर हम बनाएंगे फ्रैंच टोस्ट,’’ डिंपल ने कनखियों से उसे देखा. पहली बार प्रार्थना के चेहरे पर बिजली सी चमकी थी. दोनों तत्परता से अपनेअपने काम में लग गए थे.

उस रात जब डिंपल उन्हें कमरे में देखने गई तो भाईबहन शांत चेहरे लिए एकदूसरे से लिपटे सो रहे थे. एक मिनट चुपचाप उन्हें निहार, वह दबेपांव अपने कमरे में लौट आई थी.

अगला दिन वाकई बहुत अच्छा बीता. दोनों बच्चों को डिंपल ने एकसाथ नहलाया. बाथटब में वे पानी से खूब खेले. फिर सब ने साथ ही नाश्ता किया. खरीदारी के लिए वह उन्हें बाजार साथ ले गई और फिर उन की पसंद से नूडल्स का पैकेट ले कर आई. हालांकि डिंपल को नूडल्स कतई पसंद न थे लेकिन उस दोपहर उस ने नूडल्स ही बनाए. आशीष टूर पर गया हुआ था. बच्चों को बिस्तर पर सुलाने से पूर्व वह उन्हें गले लगा, प्यार करना चाहती थी, पर सोचने लगी, ‘मैं ऐसा क्यों नहीं कर पाती? कौन है जो मुझे पीछे धकेलता है? मैं उन्हें प्यार करूंगी, जरूर करूंगी,’ और जल्दी से एक झटके में दोनों के गालों पर प्यार कर बिस्तर पर लिटा आई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर देख डिंपल का मन किया कि अब चुपचाप सो जाए, पर अभी तो फाइल पूरी करनी थी. मुश्किल से खड़ी हो, पैरों को घसीटती हुई, मेज तक पहुंच वह फाइल के पन्नों में उलझ गई. बाहर वातावरण एकदम शांत था, सिर्फ चौकीदार की सीटी और उस के डंडे की ठकठक गूंज रही थी. डिंपल ने सोचा, कौफी पी जाए. लेकिन जैसे ही मुड़ी तो देखा कि दरवाजे पर एक छोटी सी काया खड़ी है.

‘‘अरे, प्रार्थना तुम? क्या बात है बेटे, सोई नहीं?’’ डिंपल ने पैन मेज पर रखते हुए पूछा. पर प्रार्थना मौन उसे देखती रही. उस की आंखों में कुछ ऐसा था कि डिंपल स्वयं को रोक न सकी और घुटनों के बल जमीन पर बैठ प्रार्थना को गले से लिपटा लिया. बच्ची ने भी स्वयं को उस की गोद में गिरा दिया और फूटफूट कर रोने लगी. डिंपल वहीं बैठ गई और प्रार्थना को सीने से लगा, प्यार करने लगी.

काफी देर तक डिंपल प्रार्थना को यों ही सीने से लगाए बैठी रही और उस के बालों में हाथ फेरती रही. प्रार्थना ने उस के कंधे से सिर लगा दिया, ‘‘क्या सचमुच मां अब नहीं आएंगी?’’ अब डिंपल की बारी थी. अत्यंत कठिनाई से अपने आंसू रोक भारी आवाज में बोली, ‘‘नहीं, बेटा, अब वे कभी नहीं आएंगी. तभी तो हम लोगों को तुम दोनों की देखभाल करने के लिए कहा गया है.

‘‘चलो, अब ऐसा करते हैं कि कुछ खाते हैं. मुझे तो भई भूख लग आई है और तुम्हें भी लग रही होगी. चलो, नूडल्स बना लें. हां, एक बात और, यह मजेदार बात हम किसी को बताएंगे नहीं, मामा को भी नहीं,’’ प्रार्थना के सिर पर हाथ फेरते हुए डिंपल बोली. ‘‘मामी, प्रांजल को भी नहीं बताना,’’ प्रार्थना ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ठीक है, प्रांजल को भी नहीं. तुम और हम जाग रहे हैं, तो हम ही खाएंगे मजेदार नूडल्स,’’ डिंपल के उत्तर ने प्रार्थना को संतुष्ट कर दिया.

डिंपल नूडल्स खाती प्रार्थना के चेहरे को निहारे जा रही थी. अब उसे स्वीकृति मिल गई थी. उस ने इन नन्हे दिलों पर विजय पा ली थी. इतने दिनों उपरांत प्रार्थना ने उस का प्यार स्वीकार कर उस के नारीत्व को शांति दे दी थी. अब न डिंपल को थकान महसूस हो रही थी और न नींद ही आ रही थी. अचानक उस का ध्यान अपनी फाइलों की ओर गया कि अगर ये अधूरी रहीं तो उस के स्वप्न भी…परंतु डिंपल ने एक ही झटके से इस विचार को अपने दिमाग से बाहर निकाल फेंका. उसे बच्ची का लिपटना, रोना तथा प्यारभरा स्पर्श याद हो आया. वह सोचने लगी, ‘हर वस्तु का अपना स्थान होता है, अपनी आवश्यकता होती है. इस समय फाइलें इतनी आवश्यक नहीं हैं, वे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर सकती हैं, पर बच्चे…’

डिंपल ने प्रार्थना को प्यारभरी दृष्टि से निहारते देखा तो वह पूछ बैठी, ‘‘अच्छा, यह बताओ, अब कल की रात क्या करेंगे?’’ ‘‘मामी, फिर नूडल्स खाएंगे,’’ प्रार्थना ने नींद से बोझिल आंखें झपकाते हुए कहा.

‘‘मामी नहीं बेटे, मां कहो, मां,’’ कहते हुए डिंपल ने उसे गोद में उठा लिया.

Hindi Kahani : 2 प्रोफाइल के फायदे

Hindi Kahani : 2 ही क्यों, आप चाहें तो कितनी भी प्रोफाइल बना सकते हैं, पर 2 तो जरूरी हैं. यह क्या बात हुई, बस शराफत से फेसबुक पर सीधीसादी एक प्रोफाइल बना कर बैठे हैं. इतनी शराफत का तो जमाना नहीं है भाई, थोड़ी तो बंदा ताकझांक करने की आदत रखे. अब वह जमाना तो है नहीं कि गांव में चौपाल पर बैठ कर ऐब्सैंट लोगों की थोड़ी बुराई कर ली, कुछ जानकारी ले ली, कुछ कच्चा चिट्ठा पता कर लिया. अब तो न पनघट पर कानों की ऐक्सरसाइज होती है, न कोरोना ने किसी को इतना सोशल छोड़ा कि बैठ कर आपस में कुछ निंदा रस का मजा ले ले इंसान.

अब अगर किसी को दूसरे के फटे में टांग अड़ाने की आदत हो तो बंदा क्या करेगा? जमाने के साथ चलता हुआ फेसबुक पर दूसरी फेक प्रोफाइल ही बनाएगा न. किस काम की जिंदगी जब किसी की लाइफ में ताकाझांकी ही न हो. अपनी लाइफ में तो सब मस्त हैं पर मजा तो तभी है न जब किसी और की लाइफ में सेंधमारी की जाए और वह भी किसी दुश्मन की हर हरकत पर नजर रखनी हो तो. वैसे, दूसरे नाम से प्रोफाइल बनाने के अनगिनत फायदे हैं. दुश्मन को पता भी नहीं चलता कि उन पर आप की पैनी नजर है और वे सोचते हैं कि उन्होंने आप को ब्लौक कर के अपने सब राज छिपा लिए.

मूर्ख दुश्मन, आप ब्लौक करने के बाद भी हमारे राडार में हो. नहीं यकीन हो रहा न तो बताती हूं आप को, अंजलि और आरती का किस्सा. किसी बात पर इन दोनों पुरानी सहेलियों का आपस में झगड़ा हो गया. बचपन की सहेलियां थीं पर जब बात अपने बच्चों के आपस में कंपीटिशन पर आई तो दोस्ती गई तेल लेने. दोनों के बच्चे एक ही स्कूल, एक ही क्लास में थे, आतेजाते भी साथ थे. दोनों ‘यारां नाल बहारां…’ गाया करती थीं पर हर बार आरती के बच्चे को नंबर ज्यादा मिलें तो यह तो ज्यादा दिन तक सहने वाली बात नहीं थी. मन ही मन कलपती रहती कि कुछ तो सैटिंग कर ली शायद अंजलि ने. ऐसा कैसे हो सकता है कि जब दोनों बच्चे एकसाथ खेलते हों, एकसाथ टाइम खराब करते हों, तो यह अंजलि का बच्चा कैसे हर बार आगे रह सकता है?

और उस ने एक दिन भोलेपन से पूछ ही लिया, ”क्यों अंजलि, मैडम से कुछ सैटिंग कर ली क्या? यह हर बार तुम्हारा बबलू ही ज्यादा मार्क्स ला रहा है…’’

बात अंजलि को लग गई. पक्की सहेली पूछ रही थी पर लग गई तो लग गई. हम इंडियन मांएं अपने बच्चों के बारे में एक शब्द भी हजम नहीं कर सकतीं. हम अपने बच्चों के नंबर बहुत सीरियसली लेती हैं. बात इतनी छोटी थोड़े ही है जितना आप समझ रहे हैं. यह तो चिनगारी थी, यह बहुत बड़ी बात थी. धीरेधीरे सहेलियों में दूरियां बढ़ने लगीं. सब से पहले बबलू और मोनू पर ही लगाम कसी गई, बेचारे पूछते रह गए कि हुआ क्या है? अब कौन सी मां बताती कि हुआ क्या है… सब से पहले बच्चों का आपस में खेलना बंद हुआ, धीरेधीरे स्कूल बस ही बदल दी गई. दोनों सहेलियों की बातचीत भी बंद हो गई. होनी भी चाहिए थी. यह क्या बात हुई कि हर बार बबलू के ही नंबर ज्यादा आएं?

बस जी, वही हुआ जो आजकल के रिश्तों का फैशन है. सब से पहले दोनों ने एकदूसरे की पोस्ट पर लाइक, कमैंट्स करना छोड़ा. आप को यह छोटी बात लग रही है? यह बहुत बड़ी बात है. आजकल तो यह एक मैसेज देने का तरीका है कि जाओ, हमें नहीं पसंद तुम. नहीं करेंगे तुम्हारी पोस्ट लाइक, न कमैंट करेंगे. जब 1 लाइक और कमैंट कम होगा न तब समझ आएगी तुम्हें हमारी वैल्यू. वह तो हम ही थे जो तुम्हारी हर बकवास पोस्ट को लाइक कर देते थे. हम ही बैस्ट दोस्ती निभा रहे थे, तुम्हारी पोस्ट पर तारीफ भरा सब से लंबा कमैंट कर के. अब देखते हैं कि कौन करता है इतना लंबा कमैंट…

चिनगारी धीरेधीरे ऐसी भड़की कि आरती ने अंजलि को ब्लौक कर दिया. उसे लगा कि अंजलि जानबूझ कर बबलू के अचीवमैंट्स फेसबुक पर और ज्यादा पोस्ट करने लगी है. नहीं जानना है उसे बबलू क्या कर रहा है या अंजलि क्या कर रही है? अब उस की दोस्ती का चैप्टर खत्म कर रही हूं. बस, ब्लौक करने के बाद कुछ पता ही नहीं चलेगा कि उन की लाइफ में क्या हो रहा है… चैन से रहूंगी अपने मोनू के साथ.

पर अजी कहां, इस में कैसे चैन आ सकता है कि दुश्मन के बारे में कोई खबर ही न पता चले. ऐसी दुश्मनी किस काम की… बस, अंजलि को दिखाना ही तो था कि ‘आई डोंट केयर’ पर सच थोड़े ही था यह. आरती के मन में हूक सी उठती कि और क्या पोस्ट कर रही होगी अंजलि आजकल? यह बबलू का बच्चा कहां झंडे उखाड़ रहा होगा इन दिनों? कैसे पता चले… एक और प्रोफाइल बना कर देखा जाए. अब टेक्नोलौजी का इस से बड़ा फायदा और क्या हो सकता है कि आप अपने दुश्मनों पर पूरी नजर रखें और उन्हें पता भी न चलें.

बस, कुछ मिनट ही लगे आरती को. लो, यह भी अच्छा है कि मैडम ने अपनी प्रोफाइल लौक्ड नहीं की है. यह देखो, बबलू स्विमिंग सीख रहा है. अरे, मोटू कराटे भी सीखने लगा? और यह अंजलि ने हेयर कट कहां से करवाया है? बड़ा सूट कर रहा है इस पर तो. थोड़ी स्लिम भी लग रही है. ओह, जौगिंग कर रही है आजकल. यह फोटो तो बराबर वाले पार्क की है. पिछले दिनों की अंजलि की सारी गतिविधियों पर नजर डाल कर आज आरती को चैन आया है.

फायदे देखे आप ने 2 प्रोफाइल बनाने के? दुश्मन तो आप के भी जरूर होंगे. किसी न किसी ने तो आप को ब्लौक किया ही होगा. तो देर किस बात की है, दूसरी प्रोफाइल बनाइए और उन पर नजर रखिए. बस, उन की प्रोफाइल लौक्ड न हो. वरना सारी मेहनत बेकार जाएगी. आप को फिर दुश्मन के बारे में पता भी नहीं चलेगा. यही सब से अच्छा तरीका है आजकल.

Best Hindi Story : लव ऐट ट्रैफिक सिगनल

Best Hindi Story : आज फिर वही लड़की साइबर टावर के ट्रैफिक सिगनल पर मुझे मिली. हैदराबाद में माधापुर के पास फ्लाईओवर से दाहिने मुड़ने के ठीक पहले यह सिगनल पड़ता है. एक तरफ मशहूर शिल्पा रामम कलाभवन है. इधर लगातार 3 दिनों से सुबह साढ़े 9 बजे मेरी खटारा कार सिगनल पर रुकती, ठीक उसी समय उस की चमचमाती हुई नई कार बगल में रुकती है.

मेरी कार में तो एसी नहीं है, इसलिए खिड़की खुली रखता हूं. पर उस की कार में एसी है. फिर भी रेड सिगनल पर मेरे रुकते ही बगल में उस की कार रुकती है, और वह शीशा गिरा देती है. वह अपना रंगीन चश्मा आंखों से ऊपर उठा कर अपने बालों के बीच सिर पर ले जाती है, फिर मुसकरा कर मेरी तरफ देखती है. उस के डीवीडी प्लेयर से एब्बा का फेमस गीत ‘आई हैव अ ड्रीम…’ की सुरीली आवाज सुननेको मिलती है.

सिगनल ग्रीन होते ही वह शीशा चढ़ा कर भीड़ में किधर गुम हो जाती है, मैं ने भी जानने की कोशिश नहीं की. पता नहीं इस लड़की की घड़ी, मेरी घड़ी और मेरी खटारा और उस की नई कार सभी में इतना तालमेल कैसे है कि ठीक एक ही समय पर हम दोनों यहां होते हैं.

खैर, मुझे उस लड़की की इतनी परवा नहीं है जितनी समय पर अपने दफ्तर पहुंचने की. आजकल हैदराबाद में भी ट्रैफिक जाम होने लगा है. गनीमत यही है कि इस सिगनल से दाहिने मुड़ने के बाद दफ्तर के रास्ते में कोई खास बाधा नहीं है. मैं 10 बजे के पहले अपनी आईटी कंपनी में होता हूं. अपने क्लाइंट्स से मीटिंग्स और कौल्स ज्यादातर उसी समय होते हैं.

मेरी कंपनी का अधिकतर बिजनैस दुबई, शारजाह, कुवैत, आबूधाबी, ओमान आदि मध्यपूर्व देशों से है. कंपनी नई है. स्टार्टअप शुरू किया था 2 साल पहले. सिर्फ 2 दोस्तों ने इस स्टार्टअप की शुरुआत अपनी कार के गैराज से की थी जो अब देखतेदेखते काफी अच्छी स्थिति में है. 50 से ज्यादा सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं इस कंपनी में. बीचबीच में मुझे दुबई का टूर भी मिल जाता है.

वैसे तो आमतौर पर शाम 6 बजे तक मैं वापस अपने फ्लैट में होता हूं. इधर

2-4 दिनों से काम ज्यादा होने से लौटने में देर हो रही थी, पर सुबह जाने का टाइम वही है. आज वह लड़की मुझे सिगनल पर नहीं मिली है.

न जाने क्यों मेरा मन पूछ रहा है कि आज वह क्यों नहीं मिली. मैं ने एकदो बार बाएंदाएं देखा, फिर कार के रियर व्यू मिरर में भी देख कर तसल्ली कर ली थी कि मेरे  पीछे भी नहीं है. खैर, सिगनल ग्रीन हुआ तो फिर मैं आगे बढ़ गया. जब तक काम में व्यस्त था, मुझे उस लड़की के बारे में कुछ सोचने की फुरसत न थी, पर लंचब्रैक में उस की याद आ ही गई.

शाम को लौटते समय मैं केएफसी रैस्टोरैंट में रुका था अपना और्डर पिक करने, और्डर मैं ने औफिस से निकलने के पहले ही फोन पर दे दिया था. वहां वह लड़की मुझे फिर मिल गई. वह भी अपना और्डर पिक करने आई थी. वह अपना पैकेट ले कर जैसे ही मुड़ी, मैं उस के पीछे ही खड़ा था. वह मुसकरा कर ‘हाय’ बोली और कहा, ‘‘आप भी यहां. एक खूबसूरत संयोग. आज सिगनल पर नहीं मिली क्योंकि मुझे आज औफिस जल्दी पहुंचना था. मुंबई से डायरैक्टर आए हैं, तो थोड़ी तैयारी करनी थी.’’

वह मेरे पैकेट मिलने तक बगल में ही खड़ी रही थी. मेरी समझ में नहीं आया कि यह सब मुझे क्यों बता रही है क्योंकि मैं तो उसे ढंग से जानता भी नहीं हूं, यहां तक कि उस का नाम तक नहीं मालूम.

‘‘मैं शोभना हूं’’, बोल कर उस ने अपना नाम तो बता दिया. दरअसल, हम दोनों कार पार्किंग तक साथसाथ चल रहे थे. मैं ने  अपना नाम अमित बताया. फिर दोनों अपनीअपनी कार में गुडनाइट कह कर बैठ गए. परंतु वह चलतेचलते ‘सी यू सून’ बोल गई है. जहां एक ओर मुझे खुशी भी हो रही है तो दूसरी ओर सोच रहा था कि यह मुझे से क्यों मिलना चाहती है.

अगले 3-4 दिनों तक फिर शोभना उस सिगनल पर नहीं मिली. एक दिन शाम को मैं शिल्पा रामम में लगी एक प्रदर्शनी में गया तो मेरी नजर शोभना पर पड़ी. गेहुंआ रंग, अच्छे नैननक्श वाली शोभना स्ट्रेचेबल स्किनफिट जींस और टौप में थी. इस बार मैं ही उस के पास गया और बोला, ‘‘हाय शोभना, तुम यहां?’’

उस ने भी मुड़ कर मुझे देखा और उसी परिचित मुसकान के साथ ‘हाय’ कहा. फिर उस ने 4 फोल्ंिडग कुरसियां खरीदीं. मैं ने उस से 2 कुरसियां ले कर कार तक पहुंचा दी थी. कार के पास ही खड़खड़े बातें करने लगे थे हम दोनों. शोभना ने कहा, ‘‘मैं कोंडापुर के शिल्पा पार्क एरिया में रघु रेजीडैंसी में नई आई हूं. 2 रूम का फ्लैट एक और लड़की के साथ शेयर करती हूं और आप अमित?’’

‘‘अरे, मैं भी आप के सामने वाले शिल्पा प्राइड में एक रूम के फ्लैट में रहता हूं. वैसे तुम मुझे तुम बोलोगी तो ज्यादा अपनापन लगेगा. तुम में मैं ज्यादा कंफर्टेबल रहूंगा.’’

शोभना हंसते हुए बोली, ‘‘मुझे पता है. मैं ने अपनी खिड़की से कभीकभी तुम को देखा है. बल्कि मेरे साथ वाली लड़की तो आईने से सूर्य की किरणों को तुम्हारे चेहरे पर चमकाती थी.’’

मैं ने कहा ‘‘मैं कैसे मान लूं कि इस शरारत में तुम शामिल नहीं थीं?’’

‘‘तुम्हारी मरजी, मानो न मानो.’’

दोनों हंस पड़े और ‘बाय’ कह कर विदा हुए.

अगले दिन उसी सिगनल पर फिर हम दोनों मिले, पर सिगनल ग्रीन होने के पहले तय हुआ कि शाम को कौफी शौप में मिलते हैं. शाम को कौफी शौप में मैं ने शोभना से कहा कि एक ब्रेकिंग न्यूज है.

शोभना के पूछने पर मैं ने कहा, ‘‘कल सुबह की फ्लाइट से मैं दुबई जा रहा हूं. कंपनी ने दुबई में एक इंटरनैशनल सैमिनार रखा है. उस में कई देशों के प्रतिनिधि आ रहे हैं. उन के सामने प्रैजेंटेशन देना है.’’

‘‘ग्रेट न्यूज, कितने दिनों का प्रोग्राम है?’’ शोभना ने पूछा. मैं ने उसे बता दिया कि प्रोग्राम तो 2 दिनों का है, पर अगले दिन शाम की फ्लाइट से हैदराबाद लौटना है. तब तक कौफी खत्म कर मैं चलने लगा तो उस ने उठ कर हाथ मिलाया और ‘बाय’ कह कर चली गई.

कंपनी ने दुबई के खूबसूरत जुमेरह बीच पर स्थित पांचसितारा होटल ‘मुवेन पिक’ में प्रोग्राम रखा था. उसी होटल में 2 बैड के एक कमरे में मुझे और मेरे इवैंट मैनेजर के ठहरने का इंतजाम था. होटल तो मैं दोपहर में ही पहुंच गया था, पर शाम को मैं रिसैप्शन पर प्रोग्राम के लिए होने वाली तैयारी की जानकारी लेने आया तो देखा रिसैप्शन पर एक लड़की बहस कर रही है. निकट पहुंचा तो देखा यह शोभना थी.

मैं ने पूछा कि वह दुबई में क्या कर रही है तो उस ने कहा, ‘‘मुझे कंपनी ने भेजा है और कहा कि मेरा कमरा यहां बुक्ड है. पर यह बोल रहा है कि कोई रूम नहीं है. बोल रहा कि कंपनी ने शेयर्ड रूम की बुकिंग की है.’’

मेरे रिसैप्शन से पूछने पर उस ने यही कहा कि शेयर्ड बुकिंग है इन की. मैं ने रूम पूछा तो उस ने चैक कर जो नंबर बताया, वह मेरा था. शोभना भी यह सुन कर चौंक गई थी. मैं ने उसे चैकइन कर मेरे रूम में चलने को कहा और बोला, ‘‘तुम रूम में चलो, मैं थोड़ी देर में इन की तैयारी देख कर आता हूं.’’

थोड़ी देर में जब वापस अपने रूम के दरवाजे पर नौक किया तो आवाज आई, ‘‘खुला है, कम इन.’’ मैं ने सोफे पर बैठते हुए पूछा, ‘‘तुम अचानक दुबई कैसे आई? कल शाम तो तुम साथ में थीं. तुम ने कुछ बताया नहीं था.’’

शोभना बोली, ‘‘तब मुझे पता ही कहां था? मैं हैदराबाद के इवैंट मैनेजमैंट कंपनी में काम करती हूं. मेरी कंपनी को इस इवैंट का कौन्ट्रैक्ट मिला है. मेरा मैनेजर आने वाला था. पर अचानक उस की पत्नी का ऐक्सिडैंट हो गया तो कंपनी ने मुझे भेज दिया. वह तो संयोग से मेरा यूएई का वीजा अभी वैलिड था तो आननफानन कंपनी ने मुझे भेज दिया.’’

तब मेरी समझ में सारी बात आई और मैं ने उस से कहा, ‘‘यह कमरा मुझे तुम्हारे मैनेजर के साथ शेयर करना था. अब उस की जगह तुम आई हो, तो एडजस्ट करना ही है. वैसे, मैं कोशिश करूंगा पास के किसी होटल में रूम लेने को, अगर नहीं मिला तो मैं यहीं सोफे पर सो जाऊंगा.’’

शोभना बोली, ‘‘नहीं, नहीं. सोफे पर क्यों सोना है? दोनों बैड काफी अलगअलग हैं. काम चल जाएगा.’’

खैर, अगले दिन हमारा प्रोग्राम शुरू हुआ. सबकुछ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अच्छे से चल रहा था. मेरी कंपनी के प्रौडक्ट की सभी डैलीगेट्स ने प्रशंसा की थी. शोभना भी दिनभर काफी मेहनत कर रही थी. वह काले रंग के बिजनैस सूट में काफी स्मार्ट लग रही थी. सभी विदेशी डैलीगेट्स से एकएक कर मिली और पूछा कि वे संतुष्ट हैं या नहीं. दिनभर एक पैर पर खड़ी रही थी सभी मेहमानों का खयाल रखने के लिए.

पहले दिन का प्रोग्राम खत्म कर हम दोनों अपने रूम में आ गए और डिनर रूम में ही मंगवा लिया था. थोड़ी देर तक दूसरे दिन के प्रोग्राम पर कुछ बातें हुईं और हम अपनेअपने बैड पर जो गिरे तो सुबह ही आंखें खुलीं. जल्दीजल्दी तैयार हो दोनों नीचे हौल में गए जहां यह कार्यक्रम चल रहा था. डैलीगेट्स के आने से पहले पहुंचना था हमें.

इस दिन का प्रोग्राम भी संतोषजनक और उत्साहवर्धक रहा था. हमें कुछ स्पौट और्डर भी मिले, तो कुछ ने अपने देश लौट कर और्डर देने का आश्वासन दिया. शोभना आज गहरे नीले रंग के सूट में और निखर रही थी. वह सभी डैलीगेट्स को एकएक कर कंपनी की ओर से गिफ्ट पैकेट दे कर विदा कर रही थी.

प्रोग्राम समाप्त हुआ तो दोनों अपने रूम में आ गए थे. मैं ने पूछा कि विश्वविख्यात दुबई मौल घूमने का इरादा है तो वह बोली, ‘‘मुझे अकसर ज्यादा देर तक खड़े रहने से दोनों पैरों में घुटनों के नीचे भयंकर दर्द हो जाता है. मैं तो डर रही थी कि कहीं बीच में ही प्रोग्राम छोड़ कर न आना पड़े. अमित, आज का दर्द बरदाश्त नहीं हो रहा. जल्दी में दवा भी लाना भूल गई हूं. और सिर भी दर्द से फटा जा रहा है. प्लीज, मुझे यहीं आराम करने दो, तुम घूम आओ.’’

हालांकि थका तो मैं भी था, अंदर से मेरी भी इच्छा बस आराम करने की थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं बाहर जा रहा हूं. दरवाजा बंद कर ‘डौंट डिस्टर्ब’ बोर्ड लगा दूंगा. तब तक तुम थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं थोड़ी ही देर में होटल लौट आया था. थोड़ी दूर पर एक दवा दुकान से पेनकिलर, स्प्रे और सिरदर्द वाला बाम खरीद लाया था. धीरे से दरवाजा खोल कर अंदर गया. शोभना नींद में भी दर्द से कराह रही थी. मैं ने धीरे से उस के दोनों पैर सीधे किए. तब तक उस की नींद खुल गई थी. उस ने कहा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

मैं ने थोड़ा हंसते हुए कहा, ‘‘अभी तो कुछ किया ही नहीं, करने जा रहा हूं?’’

तभी उस ने सिरहाने पड़े टेबल से फोन उठा कर कहा, ‘‘मैं होटल मैनेजर को बुलाने जा रही हूं.’’

मैं ने पौकेट से दोनों दवाइयां निकाल कर उसे दिखाते हुए कहा, ‘‘पागल मत बनो. 2 रातों से तुम्हारे बगल के बैड पर सो रहा हूं. मेरे बारे में तुम्हारी यही धारणा है. लाओ अपने पैर दो. स्प्रे कर देता हूं, तुरंत आराम मिलेगा.’’

मैं ने उस के दोनों पैरों पर स्प्रे किया और एक टैबलेट भी खाने को दी.

स्प्रे से कुछ मिनटों में उसे राहत

मिली होगी, सोच कर पूछा, ‘‘कुछ आराम मिला?’’

उस के चेहरे पर कुछ शर्मिंदगी झलक रही थी. वह बोली, ‘‘सौरी अमित. मैं नींद में थी और तुम ने अचानक मेरी टांगें खींचीं तो मैं डर गई. माफ कर दो. पैरों का दर्द तो कम हो रहा है पर सिर अभी भी फटा जा रहा है.’’

मैं सिरदर्द वाला बाम ले कर उस के ललाट पर लगाने जा रहा था तो उस ने मेरे हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहा, ‘‘अब और शर्मिंदा नहीं करो. मुझे दो, मैं खुद लगा लूंगी.’’

मैं ने लगभग आदेश देने वाले लहजे में चुपचाप लेटे रहने को कहा और बाम लगाने लगा. वह मेरी ओर विचित्र नजरों से देख रही थी और पता नहीं उसे क्या सूझा, मुझे खींच कर सीने से लगा लिया. हम कुछ पल ऐसे ही रहे थे, फिर मैं ने उस के गाल पर एक चुंबन जड़ दिया. इस पर वह मुझे दूर हटाते हुए बोली, ‘‘मैं ने इस की अनुमति नहीं दी थी.’’

मैं भी बोला ‘‘मैं ने भी तुम्हें सीने से लगने की इजाजत नहीं दी थी.’’

इस बार हम दोनों ही एकसाथ हंस पड़े थे. अगले दिन हम दुबई मौल, अटलांटिस और बुर्ज खलीफा घूमने गए. ये सभी अत्यंत सुंदर व बेमिसाल लगे थे. इसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों हैदराबाद लौट आए हैं. फ्लाइट में उस ने बताया कि पिछले 3 दिन उस की जिंदगी के सब से हसीं दिन रहे हैं. मेरी मां आने वाली हैं, हो सकता है मुझे कोई ब्रेकिंग न्यूज सुनाएं.

इधर 2 दिनों से शोभना नहीं दिखी पर फोन पर बातें हो रही थीं. मन बेचैन हो रहा है उस से मिलने को. शायद उस से प्यार करने लगा था. मैं ने उसे फोन कर मिलने को कहा तो वह बोली कि उस की मां आई हुई हैं. उन्होंने मुझे शाम को घर पर बुलाया है. इस के पहले हम कभी एकदूसरे के घर नहीं गए थे. शाम को शोभना के घर गया तो पहले तो मां से परिचय कराया और उन से मेरी तारीफ करने लगी.

वह चाय और स्नैक्स ले कर आई तो तीनों साथ बैठे थे. मां ने मेरा पूरा नाम और परिवार के बारे में पूछा तो मैं ने कहा कि मेरा नाम अमित रजक है और मेरे मातापिता नहीं हैं. उन्होंने अपना नाम मनोरमा पांडे बताया और कहा कि शोभना के पिता तो बचपन में ही गुजर गए थे. उन्होंने अकेले ही बेटी का पालनपोषण किया है. फिर अचानक पूछ बैठीं, ‘‘तुम्हारे पूर्वज क्या धोबी का काम करते थे?’’

उन का यह प्रश्न तो मुझे बेतुका लगा ही था, मैं ने शोभना की ओर देखा तो वह भी नाराज दिखी थी. खैर, मैं ने कहा, ‘‘आंटी, जहां तक मुझे याद है मेरे दादा तक ने तो ऐसा काम नहीं किया है. दादाजी और पिताजी दोनों ही सरकारी दफ्तर में चपरासी थे और मेरे लिए इस में शर्म की कोई बात नहीं है. और आंटी…’’

शोभना ने मेरी बात बीच में काटते हुए मां से कहा, ‘‘हम ब्राह्मण हैं तो हमारे भी दादापरदादा जजमानों के यहां सत्यानारायण पूजा बांचते होंगे न, मां?  और मैं तो ब्राह्मण हो कर भी मांसाहारी हूं?’’

मैं मां को नमस्कार कर वहां से चल पड़ा. शोभना नीचे तक छोड़ने आई थी. उस ने मुझ से मां के व्यवहार के लिए माफी मांगी. मैं अपने फ्लैट में वापस आ गया था.

दूसरे दिन शोभना ने फोन कर शाम को हुसैन सागर लेक पर मिलने को कहा. हुसैन सागर हैदराबाद की आनबानशान है. वहां शाम को अच्छी रौनक और चहलपहल रहती है. एक तरफ एक लाइन से खेलकूद, बोटिंग का इंतजाम है तो दूसरी ओर खानेपीने के स्टौल्स. और इस बड़ी लेक के बीच में गौतम बुद्घ की विशाल मूर्ति खड़ी है.

शोभना इस बार भी पहले पहुंच गई थी. हम दोनों भीड़ से थोड़ा अलग लेक के किनारे जा बैठे थे. शोभना ने कहा कि उसे मां से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी.

मैं ने जब पूछा कि मां को जातपात की बात क्यों सूझी, तो उस ने कहा, ‘‘अमित, सच कहूं तो मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं. मैं ने मां को बता दिया है कि मैं तुम से शादी करना चाहती हूं. पर दुख की बात यह है कि सिर्फ जातपात के अंधविश्वास के चलते उन्हें यह स्वीकार नहीं है. मैं तो तुम्हारा पूरा नाम तुम्हारे गले में लटके आईडी पर बारबार पढ़ चुकी हूं.’’

इतना कह उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोते हुए कहा, ‘‘मैं दोराहे पर खड़ी हूं, तुम्हें चुनूं या मां को. मां ने साफ कहा है कि किसी एक को चुनो. बचपन में ही पिताजी की मौत के बाद मां ने अकेले दम पर मुझे पालपोस कर बड़ा किया, पढ़ायालिखाया. अब बुढ़ापे में उन्हें अकेले भी नहीं छोड़ सकती. तुम ही कुछ सुझाव दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘शोभना, प्यार तो मैं भी तुम से करता हूं, यह अलग बात है कि मैं पहल नहीं कर सका. तुम्हें मां का साथ देना चाहिए. हर प्यार की मंजिल शादी पर आ कर खत्म हो, यह जरूरी नहीं. जिंदगी में प्यार से भी जरूरी कई काम हैं. तुम निसंकोच मां के साथ रहो. तुम भरोसा करो मुझ पर, मुझे इस बात का कोई दुख न होगा.’’

‘‘जितना प्यार और सुकून थोड़ी देर के लिए ही सही, दुबई में मुझे तुम से मिला है उस की बराबरी आजीवन कोई न कर सकेगा.’’

इतना कह वह मेरे सीने से लग कर रोने लगी और बोली, ‘‘बस, आखिरी बार सीने से लगा रही हूं अपने पहले प्यार को.’’

मैं ने उसे समझाया और अलग करते

हुए कहा, ‘‘बस, इतना समझ लेना हमारा प्यार उसी रैड सिगनल पर रुका रहा. उसे ग्रीन सिगनल नहीं मिला.’’ और दोनों जुदा हो गए.

Hindi Story : मेरी डोर कोई खींचे

Hindi Story :  ट्रक से सामान उतरवातेउतरवाते रचना थक कर चूर हो गई थी. यों तो यह पैकर्स वालों की जिम्मेदारी थी, फिर भी अपने जीवनभर की बसीबसाई गृहस्थी को यों एक ट्रक में समाते देखना और फिर भागते हुए ट्रक में उस का हिचकोले लेना, यह सब झेलना भी कोईर् कम धैर्य का काम नहीं था. उस का मन तब तक ट्रक में ही अटका रहा था जब तक वह सहीसलामत अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच गया था. खैर, रचना के लिए यह कोई नया तजरबा नहीं था. तबादले का दंश तो वह अपने पिता के साथ बचपन से ही झेलती आ रही थी. हां, इसे दंश कहना ही उचित होगा क्योंकि इस की तकलीफ तो वही जानता है जो इसे भुगतता है. रचना को यह बिलकुल पसंद नहीं था क्योंकि स्थानांतरण से होने वाले दुष्परिणामों से वह भलीभांति परिचित थी.

बाकी सब बातों की परवा न कर के जिस बात से रचना सब से ज्यादा विचलित रहती थी वह यही थी कि पुराने साथी एकाएक छूट जाते हैं, सभी दोस्त, साथी गलीमहल्लों के रिश्ते पलक झपकते ही पराए हो जाते हैं और हम खानाबदोशों की तरह अपना तंबू दूसरे शहर में तानने को मजबूर हो जाते हैं. अजनबी शहर, उस के तौरतरीके अपनाने में काफी दिक्कत आती है. नए शहर में कोई परिचित चेहरा नजर नहीं आता. वह दुखसुख की बात करे तो किस से? घर जाए तो किस के और अपने घर बुलाए तो भी किसे? नया शहर, नया घर उसे काटने को दौड़ता था.

सौरभ यानी रचना के पति को इस से विशेष फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि उन को तो आते ही ड्यूटी जौइन करनी होती थी और वे व्यस्त हो जाते थे. यही हाल बेटे पर्व और बेटी पूजा का था. वे भी अपने नए स्कूल व नई कौपीकिताबों में खो जाते थे. रह जाती थी तो रचना घर में बिलकुल अकेली, अपने अकेलेपन से जूझती.

यह तो भला हो नई तकनीक का, जिस ने अकेलेपन को दूर करने के कई साधन निकाल रखे हैं. रचना उठतेबैठते फेसबुक व व्हाट्सऐप के जन्मदाताओं का आभार व्यक्त करना नहीं भूलती थी. उस की नजर में लोगों से जुड़ने के ये साधन अकेलापन तो काटते ही हैं, साथसाथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी प्रदान करते हैं, खासकर स्त्रियों को. घर की चारदीवारी में रह कर भी वह अपने मन की बात इन के जरिए कर सकती है.

दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद रोज की तरह रचना अपना स्मार्टफोन ले कर बैठ गई. उस में एक फ्रैंडरिक्वैस्ट थी, नाम पढ़ते ही वह चौंक गई-नीरज सक्सेना. उस ने बड़ी उत्सुकता से उस की प्रोफाइल खोली तो खुशी व आश्चर्य से झूम उठी. ‘अरे, यह तो वही नीरज है जो मेरे साथ पढ़ता था,’ उस के मुंह से निकला. पापा का अचानक से ट्रांसफर हो जाने के कारण वह किसी को अपना पता नहीं दे पाई थी और नतीजा यह था कि फेयरवैल पार्टी के बाद आज तक किसी पुराने सहपाठी से नहीं मिल पाई थी.

उस के अंतर्मन का एक कोना अभी भी खाली था जिस में वह सिर्फ और सिर्फ अपनी पुरानी यादों को समेट कर रखना चाहती थी और आज नीरज की ओर से भेजी गई फ्रैंडरिक्वैस्ट दिल के उसी कोने में उतर गई थी. उस ने फ्रैंडरिक्वैस्ट स्वीकार कर ली.

फिर तो बातों का सिलसिला चल निकला और जब भी मौका मिलता, दोनों पुराने दिनों की बातों में डूब जाया करते थे. बातों ही बातों में उसे पता चला कि नीरज भी इसी शहर में रहता है और यहीं आसपास रहता है.

रचना ने सौरभ को भी यह बात बताई तो सौरभ ने कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है, तुम सदा शिकायत करती थी कि आप के तो इतने पुराने दोस्त हैं, मेरा कोई नहीं, अब तो खुश हो न? किसी दिन घर बुलाओ उन्हें.’’

एक दिन रचना ने नीरज को घर आने का न्योता दिया. इस के बाद बातों के साथसाथ मिलनेजुलने का सिलसिला भी शुरू हो गया. नीरज को जब भी फुरसत मिलती, वह रचना से बात कर लेता और घर भी आ जाता था.

नीरज अकसर अकेला ही आता था, तो एक दिन सौरभ बोले, ‘‘भई, क्या बात है, आप एक बार भी भाभीजी व बच्चों को नहीं लाए. उन को भी लाया कीजिए.’’

यह सुन कर नीरज बोला, ‘‘अवश्य लाता, यदि वे होते तो?’’

क्या मतलब, तुम ने अभी तक शादी नहीं की, सौरभ ने चुटकी काटी जबकि  रचना सौरभ को बता चुकी थी कि वह शादीशुदा है और एक बेटे का बाप भी है.

सौरभ की बात सुन कर नीरज झेंप कर बोला, ‘‘मेरा कहने का मतलब था- यदि वे यहां होते. प्रिय व संदीप अभी यहां शिफ्ट नहीं हुए हैं, स्कूल में ऐडमिशन की दिक्कत की वजह से ऐसा करना पड़ा.’’

‘‘ठीक कह रहे हो तुम, बड़े शहरों में किसी अच्छे स्कूल में ऐडमिशन करवाना भी कम टेढ़ी खीर नहीं है. हम ने भी बहुत पापड़ बेले हैं बच्चों के ऐडमिशन के लिए.’’

अब सौरभ और नीरज में भी दोस्ती हो गई थी और स्थिति यह थी कि कई बार नीरज बिना न्योते के भी खाने के समय आ जाता था. नीरज के घर में आने से रचना बहुत खुश रहती थी और बहुत ही मानमनुहार से उस की खातिरदारी भी करती थी.

एक बार खाने के समय जब नीरज के बारबार मना करने पर भी रचना ने एक चपाती परोस दी तो सौरभ से रहा नहीं गया और वे बोले, ‘‘खा लो भैया, इतनी खुशामद तो ये मेरी भी नहीं करती.’’

बात साधारण थी पर रचना को यह चेतावनी सी प्रतीत हुई. पतिपत्नी के नाजुक रिश्ते में कभीकभी ऐसी छोटीछोटी बातें भी नासूर बन जाती हैं, इस का एहसास था उसे. उस दिन के बाद से वह हर वक्त यह खयाल भी रखती कि उस के किसी भी व्यवहार के लिए सौरभ को टोकना न पड़े क्योंकि रिश्तों में पड़ी गांठ सुलझाने में हम अकसर खुद ही उलझ जाते हैं.

एक शाम जब सौरभ औफिस से आए तो बोले, ‘‘आई एम सौरी, रचना, मुझे कंपनी की ओर से 15 दिनों के टूर पर अमेरिका जाना पड़ेगा. मेरा मन तो नहीं है कि मैं तुम्हें इस नए शहर में इस तरह अकेले छोड़ कर जाऊं पर क्या करूं, बहुत जरूरी है, जाना ही पड़ेगा.’’

यह सुन कर रचना को उदासी व चिंता की परछाइयों ने घेर लिया. वह धम्म से पलंग पर बैठ गई और रोंआसा हो कर बोली, ‘‘अभी तो मैं यहां ठीक तरह से सैटल भी नहीं हुई हूं. आप तो जानते ही हैं कि आसपड़ोस वाले सब अपने हाल में मस्त रहते हैं. किसी को किसी की परवा नहीं है यहां. ऐसे में 15 दिन अकेली कैसे रह पाऊंगी.’’

‘‘ओह, डोंट वरी, आई नो यू विल मैनेज इट. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.’’

और फिर दूसरे दिन ही सौरभ अमेरिका चले गए और रचना अकेली रह गई. यों तो रचना घर में रोज अकेली ही रहती थी पर इस उम्मीद के साथ कि शाम को सौरभ आएंगे. आज वह उम्मीद नहीं थी, इसलिए घर में उस सूनेपन का एहसास अधिक हो रहा था.

खैर, वक्त तो काटना ही था. बच्चों के साथ व्यस्त रह कर, कुछ घरेलू कामकाज निबटा कर रचना अपना जी लगाए रखती. पर बच्चे भी पापा के बिना बड़े अनमने हो रहे थे. नन्हीं पूजा ने तो शायद इसे दिल से ही लगा लिया था. सौरभ के जाने के बाद उस का खानापीना काफी कम हो गया था. वह रोज पूछती, ‘पापा कब आएंगे?’ और रचना चाह कर भी उसे खुश नहीं रख पाती थी.

एक शाम पूजा को बुखार आ गया. बुखार मामूली था, इसलिए रचना ने घर पर रखी बुखार की दवा दे दी. फिर समझाबुझा कर कुछ खिला कर सुला दिया. आधी रात को पूजा के कसमसाने से रचना की नींद खुली तो उस ने देखा, पूजा का बदन बुखार से तप रहा था. रचना झट से थर्मामीटर ले आई. बुखार 104 डिगरी था. रचना के होशोहवास उड़ गए. इतना तेज बुखार, वह रोने लगी पर फिर हौसला कर के उस ने सौरभ को फोन मिलाया.

संयोग से सौरभ ने फोन तुरंत रिसीव किया. रचना ने रोतेरोते सौरभ को सारी बात बताई.

सौरभ ने कहा, ‘‘घबराओ मत, पूजा को तुरंत डाक्टर के पास ले कर जाओ.’’

रचना ने कहा, ‘‘आप जानते हैं न, यहां रात के 12 बज रहे हैं. गाड़ी खराब है. एकमात्र पड़ोसी बाहर गए हैं. मैं और किसी को जानती भी तो नहीं इस शहर में.’’

‘‘नीरज, हां, नीरज है न, उसे कौल करो. वह तुम्हारी जरूर मदद करेगा.’’

‘‘पर सौरभ, इतनी रात, मैं अकेली, क्या नीरज को बुलाना ठीक रहेगा?’’

‘‘इस में ठीकगलत क्या है? पूजा बीमार है. उसे डाक्टर को दिखाना जरूरी है. बस, इस समय यही सोचना जरूरी है.’’

‘‘पर फिर भी…’’

‘‘तुम किस असमंजस में पड़ गईं? अरे, नीरज अच्छा इंसान है. 2-4 मुलाकातों में ही मैं उसे जान गया हूं. तुम उसे कौल करो, मुझे किसी की परवा नहीं. तुम इसे मेरी सलाह मानो या आदेश.’’

‘‘ठीक है, मैं कौल करती हूं.’’ रचना ने कह तो दिया पर सोच में पड़ गई. रात को 12 बजे नीरज को कौल कर के बुलाना उसे बड़ा अटपटा लग रहा था. वह सोचती रही, और कुछ देर यों ही बुत बन कर बैठी रही.

पर कौल करना जरूरी था, वह यह भी जानती थी. सो, उस ने फोन हाथ में लिया और नंबर डायल किया. घंटी गई और किसी ने उसे काट दिया. आवाज आई, ‘यह नंबर अभी व्यस्त है…’ उस ने फिर डायल किया. फिर वही आवाज आई.

अब क्या करूं, वह तो फोन ही रिसीव नहीं कर रहा. चलो, एक बार और कोशिश करती हूं, यह सोच कर वह रिडायल कर ही रही थी कि कौलबैल बजी.

इतनी रात, कौन हो सकता है? रचना यह सोच कर घबरा गई, ‘तभी उस के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी. उस ने डरतेडरते फोन रिसीव किया.

‘‘हैलो रचना, मैं नीरज, दरवाजा खोलो, मैं बाहर खड़ा हूं.’’

रचना को बड़ा आश्चर्य हुआ. नीरज ने तो मेरा फोन रिसीव ही नहीं किया. फिर यह यहां कैसे आया. पर उस ने दरवाजा खोल दिया.

‘‘कहां है पूजा?’’ नीरज ने अंदर आते ही पूछा. स्तंभित सी रचना ने पूजा के कमरे की ओर इशारा कर दिया.

नीरज ने पूजा को गोद में उठाया और बोला, ‘‘घर को लौक करो. हम पूजा को डाक्टर के पास ले चलते हैं. ज्यादा देर करना ठीक नहीं है.’’

गाड़ी चलातेचलाते नीरज ने कहा, ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि आज मैं ने सौरभजी का कौल रिसीव कर लिया वरना रात को तो मैं घोड़े बेच कर सोता हूं और कई बार तो फोन भी स्विच औफ कर देता हूं.’’

अब रहस्य पर से परदा उठ चुका था यानी कि उस के कौल से पहले ही सौरभ का कौल पहुंच चुका था नीरज के पास.

पूजा को डाक्टर को दिखा कर, आवश्यक दवाइयां ले कर रचना ने नीरज को धन्यवाद कह कर विदा कर दिया और फिर सौरभ को फोन लगाया.

इस से पहले कि सौरभ कुछ बोलता, रचना बोली, ‘‘धन्यवाद, हमारा इतना ध्यान रखने के लिए और मुझ पर इतना विश्वास करने के लिए. इतना विश्वास तो शायद मुझे भी खुद पर नहीं है, तभी तो मुझे नीरज को फोन करने के लिए इतना सोचना पड़ा.’’

सौरभ बोले, ‘‘मुझे धन्यवाद कैसा? यह तो आदानप्रदान है. तुम भी तो मुझे परदेश में इसी विश्वास के साथ आने देती हो कि मैं लौट कर तुम्हारे पास अवश्य आऊंगा. तो क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता. यह विश्वास नहीं, प्यार है.’’

Halwa Recipe : बची रोटियों से बनाएं स्वादिष्ट हल्वा और फ्रेंच फ्राइज

Halwa Recipe :  हमारे देश में सैकड़ों लोग भोजन के लिए तरसते हैं इसलिए जहां तक हो सके हमें घर में होने वाली अन्न की बर्बादी हर हाल में रोकनी चाहिए. हमारे घरों में प्रतिदिन बनने वाले भोजन में रोटियां बनती ही हैं और अक्सर ये बच ही जातीं हैं. यदि आप रोटी को उसके मूलरूप में नहीं प्रयोग कर पा रहीं हैं तो उसे कचरे में फेकने के स्थान पर किसी न किसी रूप में प्रयोग करने का प्रयास  अवश्य किया जाना चाहिए. आज हम आपको बची रोटियों से दो डिशेज बनाना बता रहे हैं जिन्हें आप बनाकर घर के सदस्यों को खिलाएंगी तो वे जान भी नहीं पाएंगे कि इन्हें आपने बासी रोटियों से बनाया है. ये डिशेज आप बची पूरियों और परांठों के साथ भी बना सकतीं हैं तो आइए देखते हैं कि इन्हें कैसे बनाते हैं-

-टेस्टी हल्वा

कितने लोंगों के लिए              4

बनने में लगने वाला समय       30 मिनट

मील टाइप                            वेज

सामग्री

बासी रोटियां                         4

फुल क्रीम दूध                      1 लीटर

शकर                                  1 टेबलस्पून

इलायची पाउडर                   1/4 टीस्पून

बारीक कटी मेवा                  1 टेबलस्पून

जायफल पाउडर                   1/4 टीस्पून

घी                                       1 टेबलस्पून

विधि

रोटी को मिक्सी में दरदरा पीस लें. गर्म घी में मेवा को भूनकर अलग प्लेट में निकाल लें. बचे घी में इलायची और जायफल पाउडर डालकर पिसी रोटियां डालकर धीमी आंच पर हल्का भूरा होने तक भूनें. एक अलग पतीले में दूध को उबाले और इसमें भुनी रोटी डालकर गाढ़ा होने तक पकाएं. जब मिश्रण गाढ़ा सा होने लगे तो मेवा और शकर डालकर 5 मिनट तक पकाकर गैस बंद कर दें. ताजे गर्मागर्म हल्वे को गर्म या ठंडा परोसें.

-क्रिस्पी फ्रेंच फ्राइज

कितने लोगों के लिए              6

बनने में लगने वाला समय       20 मिनट

मील टाइप                            वेज

सामग्री

बची रोटियां                         4

तलने के लिए तेल या घी      पर्याप्त मात्रा में

चाट मसाला                        1/4 टीस्पून

काला नमक                        1/4टीस्पून

भुना जीरा पाउडर                1/4 टीस्पून

सूखा पोदीना पाउडर            1/4 टीस्पून

लाल मिर्च पाउडर                1/4 टीस्पून

कॉर्नफ्लोर                           1 टेबलस्पून

विधि

रोटियों को 4-4 इंच की लंबी स्ट्रिप में काट लें. कॉर्नफ्लोर को 1 चम्मच पानी में घोल लें. कटी स्ट्रिप्स को कॉर्नफ्लोर में डुबोकर गरम तेल में मंदी आंच पर सुनहरा होने तक तलकर टिश्यू पेपर पर निकाल लें. अब एक कटोरी में सभी मसालों को एक साथ मिला लें और तले फ्राइज पर डालकर अच्छी तरह मिलाएं. इन्हें एयरटाइट जार में भरकर रखें. चाय या काफी के साथ सर्व करें.

Fashion Tips : पार्टी वियर हो या कैजुअल, हर लुक में जान डाल देगी हसली

Fashion Tips :  पुराने वक्त में राजस्थान के रजवाड़े हों या पंजाब और हरियाणा की महिलाएं, ज्वैलरी में सब की पहली पसंद हसली ही हुआ करती थी. सोने से गढ़ी हुई हसली जहां राजसी शान का प्रतीक थी, तो वहीं चांदी और औक्सीडाइज्ड मैटल से बनी हसली भी लोग अपनी सहुलियत के हिसाब से पहनते थे. आजकल लोग अपने लुक के साथ खूब ऐक्सपेरिमैंट कर रहें हैं और यही वजह है कि मार्केट में हसली ने फिर से खोई पहचान वापस पा ली है.

अब न सिर्फ बुजुर्गों के मुंह पर हसली का नाम सुनने को मिलेगा, बल्कि सैलिब्रिटीज भी विभिन्न पार्टी के मौकों पर हसली पहने नजर आ रही हैं.

अब आप सोच रहे होंगे की हसली को खरीद तो लें लेकिन उस को स्टाइल कैसे करेंगे? आप की इस मुश्किल को हम हल किए देते हैं. और आप यहां यह भी जान पाएंगे कि कितनी तरह की हसली मार्केट में मौजूद हैं.

प्लेन हसली विद पैंडेंट

इस में आप को पूरा कड़ा स्टाइल भी मिल जाएगा जो आप की पूरी गरदन में कड़े की तरह पहना जाएगा और हाफ कड़ा स्टाइल भी, जिस में पीछे की हसली में चैन लगी होती है. साथ ही इस में आप को ढेरों छोटेबड़े या स्टेटमैंट पैंडेट औप्शन भी मिलेंगे जिस से आप की प्लेन आउटफिट भी सैंटर औफ अट्रैक्शन बन जाएगी.

आप अगर अपनी शादी के लहंगे को दोबारा इस्तेमाल का सोच रही हों तो बस उस के साथ एक साटिन की शर्ट पेयर कीजिए और साथ में पहनिए स्टेटमैंट पैंडेट वाली हस्ली, फिर देखिए कैसे लोग आप की तारीफ किए बिना नहीं रह पाएंगे.

आप हलके पैंडेंट वाली या गोल्ड, सिल्वर या औक्सीडाइज्ड मैटल की बनी प्लेन राउंड हसली को आसानी से वैस्टर्न ड्रैस या औफिस वियर के साथ भी पेयर कर सकती हैं.

मीनाकारी हसली

अगर आप रौयल लुक कैरी करना चाहती हैं या फिर अपनी किसी पुरानी ड्रैस को नए तरीके से स्टाइल करना चाहती हैं तो यह आप के लिए बैस्ट है. यह बहुत से रंग और डिजाइन में मार्केट में उपलब्ध हैं. यह देखने में भले आप को बहुत भारी लगें लेकिन हसली असल में अंदर से खोखली होती है इसलिए इस में ज्यादा वजन नहीं होता, जिस से आप लंबे समय तक पार्टी फंक्शन में इसे आसानी से कैरी कर सकती हैं. और अगर वजन ज्यादा हो भी खूबसूरती के लिए इतना कंप्रोमाइज तो बनता है.

जडाऊ हसली

पुराने समय में शाही परिवारों में इस तरह की हसली काफी लोकप्रिय हुआ करती थी जोकि गोल्ड या सिल्वर में बनी होती थी. लेकिन अब आप को हसली की ब्यूटी ऐंजौय करने के लिए अपना बजट बिगाड़ने की जरूरत नहीं है. मार्केट में जड़ाऊ हसली मौजूद है जिसे आप तीजत्यौहार में आसानी से ड्रैस के साथ पेयर कर सकती हैं. यह दिखने में काफी खूबसूरत होती है और आप की आउटफिट को खूबसूरती का तड़का भी लगाती है.

कुंदल हसली

कुंदल से सजी हसली भी हर उम्र की महिलाओं की पहली पसंद बनी हुई है. यह पहन कर आप मौर्डन और स्टाइलिश लुक आसानी से पा सकती हैं. इस में ड्रौप स्टाइल में कुंदन का काम होता है जिस में आप को अलगअलग रंगों के औप्शन भी मिल जाएंगे. आप चाहे साड़ी, लहंगे या सूट के साथ इसे पेयर करें या फिर इंडोवैस्टर्न पर कैरी करें, इस का इस्तेमाल आप को स्टाइलिश ही दिखाएगा.

ट्रैडिशनल स्टाइल हसली

नाम पर न जाएं, तो ट्रैडिशनल हसली अब भी लोगों की पहली पसंद है क्योंकि आप इसे इंडियन आउटफिट के साथ कैरी करें या वैस्टर्न, यह हर लुक में जबरदस्त लगती है. आप चाहें तो सौलिड प्लेन हसली भी ले सकती हैं या फिर गोदना स्टाइल में बनी हसली भी पसंद कर सकती हैं. अगर बजट साथ दे तो आप चांदी या सोने से बनी हसली भी खरीद सकती हैं क्योंकि बदलते दौर में किसी ज्वैलरी का फैशन भले जाए लेकिन यह हमेशा फैशन में इन ही रहेगी तो आप बिना सोचे इन पर इनवैस्ट कर सकती हैं.

अमेरिकन डाइमंड से सजी हसली

अगर आप मार्केट में मिलने वाली अमेरिकन डाइमंड ज्वैलरी से बोर हो चुकी हैं तो आप इन से सजी हसली ट्राई जरूर करें. छोटेछोटे डाइमंड जैसे स्टोंस से सजी हसली हर आउटफिट पर खूब जंचती है. अगर आप किसी रिसैप्शन या कौकटेल पार्टी में जा रही हैं और इंडोवैस्टर्न गाउन पहनने की शौकीन हैं तो यह आप के लिए बैस्ट है. आप चाहें तो प्लेन साड़ी की ब्यूटी बढ़ाने के लिए भी इसे पहन सकती हैं.

Freak Matching : पार्टनर ढूंढ़ना कोई फन गेम नहीं

Freak Matching : आजकल सोशल मीडिया पर अपनी फ्रीक मैचिंग ढूंढ़ने की एक होड़ सी लगी है. अब हम पहले आप को बता दे कि आखिर यह फ्रीक मैचिंग है क्या?

सिंगर टीनाशे का गाना ‘नेस्टी’ इस गाने की एक लाइन ‘क्या कोई मेरी फ्रीक से मेल खाने वाला है…’ ने सोशल मीडिया पर खूब तहलका मचाया था। बता दें, अभी हाल ही में रिलीज हुआ यह गाना 37 मिलियन से ज्यादा बार देखा जा चुका है. इतना ही नहीं, टीनाशे ने खुद भी इस ट्रैंड को बढ़ावा देने का काम किया है.

दरअसल, फ्रीक पार्टनर की तलाश करना अब आम हो गया है. लोग डेटिंग कर रहें हैं और अपनी फ्रीक से मैच करता हुआ पार्टनर मैच कर रहे हैं. जिन के शौक, आदतें, विचार, पैशन सब कुछ मैच करता हो यानि कि यहां लोग अपनी कार्बन कौपी तलाश करते हैं. जैसेकि अगर मुझे घूमना पसंद है तो मेरे पार्टनर को भी हो. अगर मुझे छुट्टी वाले दिन सोना पसंद है तोई मेरे पार्टनर को भी वही पसंद हो, उसे भी मेरी तरह गेम खेलने का शौक हो, ऐसा पार्टनर जो मेरी हर इच्छा समझ सके. मेरी जरूरतों और आदतों को मैच कर सके.

लेकिन सवाल यह है कि ऐसा पार्टनर आखिर मिलता कहां है? इस की तलाश में कहीं आप बूढ़े न हो जाना?

क्या आप के भाईबहनों से आप की सारी आदतें मिलती हैं, नहीं न? क्या आप के दोस्तों से आप के सारे पैशन मैच करते हैं, नहीं न? तो फिर आप ने एक गाना सुन कर ऐसा कैसे समझ लिया कि आप को अपनी सो कौल्ड फ्रीक से मैच करता हुआ पार्टनर मिल जाएगा? और अगर नहीं मिला तब क्या करेंगे?
कितना इंतजार करेंगे ऐसे पार्टनर के लिए, कुछ सोचा है?

अगर नहीं सोचा है, तो सोचें? लाइफ पार्टनर फ्रीक से मैच करता हुआ नहीं बल्कि आप के हर सुखदुख में साथ निभाने वाला होना चाहिए। वह नहीं जिस की आदतें आप से मैच करें बल्कि वह हो जो आप की अच्छीबुरी सभी आदतों के साथ निभा सके.

वह आप के सुखदुख में आप के साथ हरदम खड़े होने का जज्बा रखता हो. सोशल मीडिया पर फोटो तो हर कोई खिंचवा लेता है लेकिन मुसीबत के समय साथ खड़े रहना हर किसी के बस का नहीं.

इसलिए पार्टनर ढूंढ़ना कोई फन गेम नहीं है बल्कि इस पर आप की पूरी लाइफ टिकी है. इसलिए सोचसमझ कर ही किसी को चुनें.

कैसा हो लाइफ पार्टनर

जीवनसाथी का स्टेटस नहीं, कैसा इंसान है यह देखें। आप के साथी के पास कितना पैसा है, वह कितने अमीर खानदान से है, यह सब चीजें एक वक्त पर जा कर बेमानी हो जाती हैं. मान लें उस के पास पैसा है लेकिन वह इंसान ही अच्छा नहीं है तब आप क्या करेंगे? पैसा तो जीवन में फिर भी कमाया जा सकता है लेकिन अगर एक बार इंसान का चुनाव गलत हो गया तो पूरी जिंदगी नर्क बन जाएगी. अच्छा इंसान वह है जो विनम्र हो और किसी भी परिस्थिति का सामना करने के तैयार रहे.

हर किसी की रिस्पैक्ट करता हो

कुछ लोगों की आदत होती है वे किसी को, कहीं भी नीचे दिखाने की आदत से बाज नहीं आते हैं. इन्हें खुद पर इतना घमंड होता है कि ये सब को अपने पैर की जूती समझते हैं और वैसा ही व्यवहार ये अपने जीवनसाथी से भी करते हैं. इसलिए जीवनसाथी उसे बनाएं जो आप की दिल से इज्जत करता हो.

निभाने आता हो

जीवनसाथी वही सही होता है जो हर जगह पूरी शिद्दत से साथ निभाता हो. अब आप खुद ही सोचिए कि जब वह अपने कर्तव्य को ले कर इतना सजग है तो वह आप का साथ किस तरह से निभाएगा.

स्वभाव का अच्छा और खुशमिजाज हो

जिन लोगों का दिल बड़ा होता है, वे छोटीछोटी बातों में नाराज नहीं होते. अकसर कूल रहते हैं और अपने आसपास वालों का दिल भी लगाए रहते हैं। ऐसे लोग जहां भी होते हैं, वहां हंसीखुशी का माहौल बना रहता है. अगर आप का साथी भी ऐसा ही है, जिस की कंपनी हर किसी को पंसद आती है, जो मिलनसार है और पूरी तरह से खुशमिजाज है तो आप को वह हमेशा खुश रखेगा। अगर आप किसी बात से दुखी भी होंगी तो उस के साथ होने पर बहुत जल्दी नौर्मल हो जाएंगी और खुद को हर पल ऐंजौय करते हुए पाएंगी.

तेरी सूरत पर नहीं, हम तो तेरी सादगी पर मरते हैं

जीवनसाथी का चुनाव करते समय उस के लुक पर न जाएं बल्कि उस में और कितने गुण हैं उस पर ध्यान दें. अगर वह मन का साफ, दयालु, हर किसी की मदद करने वाला, मेहनती इंसान है लेकिन देखने में नौर्मल है तो कोई बात नहीं, जीवन बिताने के लिए उस के लुक नहीं बाकी के गुण काम आएंगे.

Kitchen Tips : किचन स्लैब को बनाएं हैल्दी प्लेटफौर्म

Kitchen Tips : किचन हमारे घर का एक ऐसा कमरा है जिस में महिलाओं का सब से अधिक वक्त गुजरता है. प्रेम और उत्साह के साथ बना खाना स्वादिष्ठ व स्वास्थ्यवर्धक होता है साथ ही घर में खुशहाली लाता है इसीलिए घर के बने भोजन को सेहत का खजाना माना जाता है.

लेकिन इस के साथसाथ हमें किचन की स्लैब पर खाने के लिए हैल्दी चीजें रखने से नहीं चूकना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से न केवल आप अपने परिवार की बल्कि खुद की भी सेहत का ध्यान रख सकती हैं.

कई बार काम में आप इतना व्यस्त रहती हैं कि अपने नाश्ते तक को स्किप कर देती हैं और वहीं यदि आप आराम कर रही हैं या किसी और कार्य में व्यस्त हैं तो आप के बच्चे भी अपनेआप अपनी छोटी भूख को शांत भी कर सकते हैं और साथ ही उन्हें स्वस्थ व ताजा खाने की आदत भी डाली जा सकती है.

यहां कुछ विकल्प दिए गए हैं जिन के जरीए आप किचन की स्लैब को हैल्दी प्लेटफौर्म की तरह रख सकती हैं :

क्या रखें

● फलों की टोकरी रखें, जिस में पसंदीदा फल अच्छे से धो कर नेट से ढक दें. जिस से आप कभी भी उठा कर खा सकें.

● छोटे जार में थोड़े ड्राई फ्रूट्स रखें.जो न सिर्फ छोटी भूख को शांत करेंगे, बल्कि इस से आप भरपूर मात्रा में प्रोटीन का सेवन भी कर सकेंगी.

● कुछ ऐसे स्नैक्स रखें जो इंस्टैंट तैयार हो सके जैसे घर के बने आलू चिप्स, कचरी, ऐनर्जी बौल्स इत्यादि.

क्या न करें

● तेज धार वाली चीजों को स्लैब पर नहीं रखना चाहिए, जैसे चाकू, कैंची, फोर्क क्योंकि बच्चे इन से खुद को नुकसान पहुंचा सकते हैं.

● गरम बर्तन और पैन स्लैब पर रख कर मत छोड़ें.

● कांच के बर्तन स्लैब पर न रखें.

● औटोमेटिक गैस स्टोव या बिजली उपकरणों को हमेशा मैन स्विच से बंद कर के रखें.

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