Friendship Day Special: दोस्ती के इस ग्लोबल युग में भी खरी है बचपन की दोस्ती

आज जब कोरोना संक्रमण ने दुनियाभर को वनवास में भेज दिया है और इंट्रैक्शन के लिए सोशल मीडिया, मोबाइल, ई-मेल, स्काईप, काॅन्फ्रेंस चैटिंग जैसे अनेक साधनों के चलते एक किस्म से पूरी दुनिया से हम जुड़ गये हैं, तब भी अगर हम अपने बचपन के दोस्तों से वंचित हैं तो यह सब खाली खाली लगता है. कानपुर के अंकित भारद्वाज का जब मुंबई आईआईटी में एडमिशन हुआ तो जहां पूरा घर खुश था, रिश्तेदारों के फोन पर फोन आ रहे थे. हर तरफ से बधाइयों की बौछार हो रही थी, वहीं खुद अंकित एक अजीब सी असहजता से घिरा हुआ था. हालांकि ऊपरी तौरपर वह भी हंस-मुस्कुरा रहा था. बधाई देने वालों को थैंक यू कह रहा था. लेकिन अंदर ही अंदर वह कुछ उदास था. इस उदासी का कारण थे राजीव और लता. दरअसल वे तीनो बचपन से बारहवीं तक एक साथ पढ़े थे. एक ही मोहल्ले में एक दूसरे के इर्द-गिर्द रहने वाले तीनों हमेशा मिलकर होम वर्क करते थे. मिलकर परीक्षाओं में पढ़ाई करते थे. तीनों साथ ही खेलते भी थे. लेकिन अब पहली बार तीनों बचपन के दोस्त एक दूसरे से बिछुड़ रहे थे. राजीव का होटल मैनेजमेंट में एडमिशन हो गया था, वह बंग्लुरू की तैयारी कर रहा था, जबकि लता दिल्ली में साइकोलोजी आनर्स में एडमिशन लेने जा रही थी.

तीनों इस बिछुड़न से परेशान थे. यह बात उनके घर वाले भी जानते थे. इसलिए वे समझा भी रहे थे कि परेशान होने का कोई मतलब नहीं है, तुम सबके जल्द ही नए दोस्त बन जायेंगे. हुआ भी कुछ ऐसा ही. कम से कम अंकित के मामले में तो सौ फीसदी ऐसा ही हुआ. उसकी सॉफ्ट नेचर और पढ़ाई में होनहार होने का नतीजा यह था कि दो महीने के भीतर ही करीब-करीब क्लास का हर लड़का और लड़की उसे अपनी तरफ से बुलाने लगा था. लेकिन अंकित मुंबई से, राजीव बंग्लुरू से और लता दिल्ली से हर समय आपस में कुछ यूं जुड़े रहते, जैसे किसी डिपार्टमेंट के तीन अधिकारी अलग-अलग जगह तैनात रहकर किसी साझे मिशन में जुटे हों. तीनों को हर पल एक दूसरे की खबर रहती है. लता का सेमेस्टर कब पूरा हो रहा है, यह जितना लता को पता होता उतना ही राजीव को और अंकित आजकल क्या पढ़ रहा है, किसके साथ उसने इस हफ्ते मूवी देखी. यह सब लता और राजीव को मिनट दर मिनट के हिसाब से पता होता है. तीनों के घर वालों में से किसी को किसी के बारे में जानना होता है तो वे किसी को भी फोन कर लेते हैं. राजीव की छुट्टियां कब पड़ रही हैं, अंकित होली में कानपुर आयेगा या नहीं, यह जितना अंकित को पता होता है उतना ही राजीव और लता को भी.

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सवाल है बचपन के दोस्त इतने खास क्यों होते हैं कि हम जिंदगी में बहुत आगे निकल जाने के बाद भी उन्हें कभी नहीं भूल पाते ? इस इंटरनेट और मोबाइल के युग में जब हमारे कोई एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों और हजारों की संख्या में वर्चुअल दोस्त होते हैं, यह एक अजूबा ही है. जब इंटरनेट शुरू-शुरू में दोस्ती के एक नए युग का सूत्रपात सोशल मीडिया के जरिये कर रहा था तो तमाम समाज वैज्ञानिकों को आशंका हो रही थी कि शायद अब दोस्तियां स्थाई न रहें. क्योंकि यह पहला ऐसा युग है जब तकनीक ने हमें इंटरैक्शन की अपार सुविधा दी है. आज हम घर बैठे दुनिया के किसी भी कोने में किसी से भी दोस्ती बना सकते हैं. पहले एक शहर के दूसरे मुहल्ले के लोग भी आपस में अपरिचित होते थे और शायद सदेह आज भी हों. लेकिन इंटरनेट ने हमें आज ग्लोबल कनेक्टीविटी और वर्चुअल फ्रेंडशिप के जरिये दुनिया के चप्पे-चप्पे तक पंहुचा दिया है.

आज जब कोरोना संक्रमण ने दुनियाभर को वनवास में भेज दिया है और इंट्रैक्शन के लिए सोशल मीडिया, मोबाइल, ई-मेल, स्काईप, काॅन्फ्रेंस चैटिंग जैसे अनेक साधनों के चलते एक किस्म से पूरी दुनिया से हम जुड़ गये हैं, तब भी अगर हम अपने बचपन के दोस्तों से वंचित हैं तो यह सब खाली खाली लगता है. भले दोस्ती के लिए सारा विश्व एक गांव में तब्दील हो चुका है, तब भी बचपन की दोस्तियां न केवल जिंदा हैं बल्कि पहले से ज्यादा मजबूत और घनिष्ठ हो रही हैं. न्यूजीलैंड में काम कर रहे मथुरा के तमाम इंजीनियरों ने अपने बचपन के तमाम दोस्तों का ग्रुप बनाया हुआ है और उसी के जरिये वे आपस में आज इस तरह से जुड़े हैं, जितनी मजबूती से तो शायद बचपन में भी न जुड़े रहे हों. इंटरनेट ने बचपन की दोस्ती को उम्र भर का अभयदान दे दिया है. वास्तव में दोस्ती संबंधों की भव्य इमारत की बुनियाद है. यह इंसान के एक दूसरे के नजदीक आने की पहली मुकम्मिल भावना है. इसलिए दोस्ती किसी भी रिश्ते से ज्यादा अहम होती है. जिस भी रिश्ते में दोस्ती की बुनियाद होती है, वह हमेशा सबसे मजबूत रिश्ता होता है. दोस्ती सभी रिश्तों का मूल है. यह रिश्तों की बुनियाद ही नहीं इंसान की सकारात्मकता, उसके अंदर मौजूद मानवीयता की भी पहली शर्त है. इंसान की यह पहली भावना है जिसने बाद में रिश्ते गढ़े, परिवार रचा और फिर समाज भी. इसलिए दोस्ती इंसान होने का पहला जरूरी फर्ज है.

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बचपन की दोस्ती आज भी इतनी खरी इसलिए है क्योंकि बचपन की दोस्ती बहुत ही मासूम और ईमानदार होती है न हमें कुछ छिपाने की जरुरत पड़ती है और न ही कुछ बनाने की. बाद की तमाम दोस्तियों में एक किस्म की औपचारिकता होती है लेकिन बचपन की दोस्ती औपचारिकताओं से मुक्त होती है. बचपन की दोस्ती में इतना कुछ साझा होता है कि बाद में हम चाहे जितनी बड़ी उपलब्धियां हासिल कर लें सब बौनी लगती हैं. बचपन के दोस्तों को हम मनचाहे शब्दों में संबोधित कर लेते हैं. इसीलिए दोस्ती के इस ग्लोबल युग में भी बचपन की दोस्ती सबसे खरी है.

जब माता या पिता का हो एक्सट्रा मैरिटल अफेयर

दिल्ली के एक कौलेज में छात्रों को साइकोलौजिकल सपोर्ट देने के उद्देश्य से बनाये गए क्लिनिक में काउंसलरका एक दिन किसी छात्रा द्वारा बताई गयी ऐसी समस्या से सामना हुआ जो पहले कोई और लेकर नहीं आया था. प्रौब्लम लड़की के पिता से जुड़ी थी, लेकिन वह छात्रा अपने अन्य मित्रों के समान पिता के अनुशासनपूर्ण रवैये से परेशान नहीं थी. उसकी समस्या तो यह थी कि उसके पिता अनुशासन में नहीं हैं. लड़की के अनुसार उसके पिता समाज व परिवार के क़ायदे भूलकर अपने औफ़िस की एक महिला मित्र संग अवैध सम्बन्ध बनाये हुए हैं. एक दिन जब वहछात्रा अपनी कुछ सहेलियों के साथ एक कौफ़ी शौप में पहुंची तो पिता उस युवती के साथ सटकर बैठे थे. ग़नीमत यह रही कि सखियों में से कोई भी उसके पिता को नहीं पहचानती थी, वरना छात्रा के अनुसार वह आत्महत्या ही कर लेती.

एक अन्य घटना मध्य प्रदेश की है, जहां अपने पति के मित्र से सम्बन्ध रखने पर एक मां को जान से हाथ धोना पड़ा. 15 वर्षीय बेटे को मां के विवाहेतर सम्बन्ध का पता लगा तो वह आग-बबूला हो उठा और उसने अपनी मां की हत्या कर दी.

विवाहेतर सम्बन्ध या एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर से जुड़े समाचार प्राय सुनने में आ ही जाते हैं. आज जब समाज में ‘मेरा जीवन मेरे नियम’ का चलन ज़ोर पकड़ने लगा है तो इस प्रकार की समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं. युवा हो रहे बच्चों को जब अपने माता या पिता के विवाहेतर सम्बन्ध की जानकारी होती है तो उनके दिल पर क्या गुज़रती होगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. ऐसी परिस्थिति का सामना वे किस प्रकार करें इस पर विचार तभी हो सकता है जब उन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझ लिया जाए.

माता-पिता के एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर का बच्चों पर प्रभाव

– अभिभावक की रुचि कहीं और देखकर वे स्वयं को उपेक्षित समझने लगते हैं और हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं.

– इस प्रकार के सम्बन्धों और उसके कारण माता-पिता के बीच होने वाले विवाद से वे तनाव में आ जाते हैं औरस्वयं कोअकेलामहसूस करने लगते हैं.

– माता-पिता तो एक-दूसरे से लड़ झगड़कर अपनी बात कह सकते हैं लेकिन बच्चे की यह समस्या हो जाती है कि वह क्या करे? न तो पीड़ित अभिभावक का पक्ष ले सकता है और न ही अफ़ेयर में फंसे अभिभावक को खरी-खोटी सुना सकता है.

– माता-पिता के बीच सम्बन्ध टूट जाने का भय उसमें असुरक्षा की भावना को जन्म देता है.

– विवाहेतर सम्बन्ध बनाने वाले अभिभावकों की गतिविधियों पर प्रभावित बच्चे आते-जाते नज़र रखने लगते हैं, जिससे उनके भीतर संदेह की प्रवृत्ति घर करने लगती है.

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– मित्रों को इस बात का पता लग जाएगा तो उनकी प्रतिक्रिया न जाने क्या होगी, इस बात का भय उनको दोस्तों से दूर कर देता है और वे समाज से कटना शुरू कर देते है.

– युवा बच्चों का ध्यान अपना करियर बनाने में रहता है. इस प्रकार के सम्बन्धों के विषय में जानकर उनका मन पढ़ाई या किसी परीक्षा की तैयारी आदि में नहीं लग पाता. इसका प्रभाव उनके सम्पूर्ण जीवन पर पड़ सकता है.

– बच्चे माता-पिता को अपना आदर्श मानते हैं. जब उनके रिश्ते में वे किसी तीसरे का प्रवेश देखते हैं तो उनका अभिभावकों से विश्वास उठने लगता है.

– युवा हो रहे बच्चे पर कभी-कभी इस बात का प्रभाव इतना गहरा पड़ जाता है कि क्रोध के कारण उसकी प्रवृति हिंसात्मक होने लगती है.

क्या करें जब माता या पिता के हों विवाहेतर सम्बन्ध

• यह सच है कि बच्चों को इस प्रकार का आघात सहन करना भारी पड़ता है, लेकिन इसका परिणाम घर से चले जाना या पढ़ाई से दूर हो जानानहीं होना चाहिए. एक ग़लत कदम के लिए कोई दूसरा ग़लत कदम उठा लेना समझदारी नहीं.

• माता या पिता द्वारा यदि एक भूल हो गयी तो इसका यह अर्थ नहीं कि उनका अपनी संतान के प्रति स्नेह भी समाप्त हो गया. इसलिए अपने को उपेक्षित मानकर आत्महत्या करने की बात सोचना बिल्कुल ग़लत होगा.

• इस बात की चिंता कि समाज इस बारे में क्या सोचेगा, माता या पिता को भी होगी. इसलिए अभिभावकों के अवैध सम्बन्धों को लेकर बच्चों को दिन-रात इस चिंता में घुलना कम करना चाहिए कि लोग क्या कहेंगे? अपने मित्रों से मिलना-जुलना उन्हें पूर्ववत जारी रखना चाहिए.

• संयम से काम लेना होगा. आवश्यकता पड़ने पर अभिभावकों को अपनी मनोदशा बताई जा सकती है. यदि साफ़-साफ़ कहने में संकोच हो तो लिखकर विनम्रतापूर्वक अपने दिल की बात बताना सही होगा.

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• मां या पिता के विषय में कुछ भी अप्रिय देखा अथवा सुना गया हो तोअपनी बातजल्दी ही पेरेंट्स तक पहुंचा देनी चाहिए. शुरू-शुरू में बच्चे द्वारा अपनी बात कह देने से एक लाभ तो यह होगा कि उस पीड़ित बच्चे के मन-मस्तिष्क में पनप रहा तनावहिंसात्मक रूप नहीं लेगा और दूसरा सम्बन्ध में लिप्त अभिभावक को संभलने में अधिक समय नहीं लगेगा.

• अपने मन की बात कह देने के बाद बच्चों को चाहिए कि इस विषय में अधिक न सोचें और चिंताग्रस्त होने के स्थान पर पढ़ाई में मन लगाकर अपने सपनों को पूरा करने में जुटे रहें. कोई भी समस्या दूर होने में कुछ समय तो लगता ही है.

यह सच है कि युवा बच्चे अपनी समझदारी दिखाते हुए विवाहेतर सम्बन्धों में रुचि ले रहे अभिभावकों को अपनी दुर्गति से परिचित करवा सकते हैं, लेकिन एक अहम् बात जो समझना आवश्यक है कि माता-पिता पेरेंट्स होने के साथ-साथ एक इंसान भी हैं और भूल तो किसी भी व्यक्ति से हो सकती है.समस्या कोई भी हो उसका समाधान ढूंढा जा सकता है. इसलिए यह याद रखना होगा कि माता या पिता को कहीं सम्बन्ध बढ़ाते देख अपना आपा खोकर कुछ भी अनुचित करने से बचना होगा.

Travel Special: धर्मशाला की ये हसीन वादियां

घूमने या सैरसपाटे की जब भी बात आती है तो शहरी आपाधापी से दूर पहाड़ों की नैसर्गिक सुंदरता सब को अपनी ओर आकर्षित करती है. इन छुट्टियों को अगर आप भी हिमालय की दिलकश, बर्फ से ढकी चोटियों, चारों ओर हरेभरे खेत, हरियाली और कुदरती सुंदरता के बीच गुजारना चाहते हैं तो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा के उत्तरपूर्व में 17 किलोमीटर की दूरी पर स्थित धर्मशाला पर्यटन की दृष्टि से परफैक्ट डैस्टिनेशन हो सकता है. धर्मशाला की पृष्ठभूमि में बर्फ से ढकी छोलाधार पर्वतशृंखला इस स्थान के नैसर्गिक सौंदर्य को बढ़ाने का काम करती है. हाल के दिनों में धर्मशाला अपने सब से ऊंचे और खूबसूरत क्रिकेट मैदान के लिए भी सुर्खियों में बना हुआ है. हिमाचल प्रदेश के दूसरे शहरों से अधिक ऊंचाई पर बसा धर्मशाला प्रकृति की गोद में शांति और सुकून से कुछ दिन बिताने के लिए बेहतरीन जगह है.

धर्मशाला शहर बहुत छोटा है और आप टहलतेघूमते इस की सैर दिन में कई बार करना चाहेंगे. इस के लिए आप धर्मशाला के ब्लोसम्स विलेज रिजौर्ट को अपने ठहरने का ठिकाना बना सकते हैं. पर्यटकों की पसंद में ऊपरी स्थान रखने वाला यह रिजौर्ट आधुनिक सुविधाओं से लैस है जहां सुसज्जित कमरे हैं जो पर्यटकों की जरूरतों को ध्यान में रख कर बनाए गए हैं. बजट के अनुसार सुपीरियर, प्रीमियम और कोटेजेस के औप्शन मौजूद हैं. यहां के सुविधाजनक कमरों की खिड़की से आप धौलाधार की पहाडि़यों के नजारों का लुत्फ उठा सकते हैं. यहां की साजसजावट व सुविधाएं न केवल पर्यटकों को रिलैक्स करती हैं बल्कि आसपास के स्थानों को देखने का अवसर भी प्रदान करती हैं. इस रिजौर्ट से आप आसपास के म्यूजियम, फोर्ट्स, नदियों, झरनों, वाइल्ड लाइफ पर्यटन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद ले सकते हैं.

धर्मशाला चंडीगढ़ से 239 किलोमीटर, मनाली से 252 किलोमीटर, शिमला से 322 किलोमीटर और नई दिल्ली से 514 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इस स्थान को कांगड़ा घाटी का प्रवेशद्वार माना जाता है. ओक और शंकुधारी वृक्षों से भरे जंगलों के बीच बसा यह शहर कांगड़ा घाटी का मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यताप्राप्त धर्मशाला को ‘भारत का छोटा ल्हासा’ उपनाम से भी जाना जाता है. हिमालय की दिलकश, बर्फ से ढकी चोटियां, देवदार के घने जंगल, सेब के बाग, झीलों व नदियों का यह शहर पर्यटकों को प्रकृति की गोद में होने का एहसास देता है.

कांगड़ा कला संग्रहालय: कला और संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए यह संग्रहालय एक बेहतरीन स्थल हो सकता है. धर्मशाला के इस कला संग्रहालय में यहां के कलात्मक और सांस्कृतिक चिह्न मिलते हैं. 5वीं शताब्दी की बहुमूल्य कलाकृतियां और मूर्तियां, पेंटिंग, सिक्के, बरतन, आभूषण, मूर्तियां और शाही वस्त्रों को यहां देखा जा सकता है.

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मैकलौडगंज : अगर आप तिब्बती कला व संस्कृति से रूबरू होना चाहते हैं तो मैकलौडगंज एक बेहतरीन जगह हो सकती है. अगर आप शौपिंग का शौक रखते हैं तो यहां से सुंदर तिब्बती हस्तशिल्प, कपड़े, थांगका (एक प्रकार की सिल्क पेंटिंग) और हस्तशिल्प की वस्तुएं खरीद सकते हैं. यहां से आप हिमाचली पशमीना शाल व कारपेट, जो अपनी विशिष्टता के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित हैं, की खरीदारी कर सकते हैं. समुद्रतल से 1,030 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मैकलौडगंज एक छोटा सा कसबा है. यहां दुकानें, रेस्तरां, होटल और सड़क किनारे लगने वाले बाजार सबकुछ हैं. गरमी के मौसम में भी यहां आप ठंडक का एहसास कर सकते हैं. यहां पर्यटकों की पसंद के ठंडे पानी के झरने व झील आदि सबकुछ हैं. दूरदूर तक फैली हरियाली और पहाडि़यों के बीच बने ऊंचेनीचे घुमावदार रास्ते पर्यटकों को ट्रैकिंग के लिए प्रेरित करते हैं.

कररी : यह एक खूबसूरत पिकनिक स्थल व रैस्टहाउस है. यह झील अल्पाइन घास के मैदानों और पाइन के जंगलों से घिरी हुई है. कररी 1983 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. हनीमून कपल्स के लिए यह बेहतरीन सैरगाह है.

मछरियल और ततवानी : मछरियल में एक खूबसूरत जलप्रपात है जबकि ततवानी गरम पानी का प्राकृतिक सोता है. ये दोनों स्थान पर्यटकों को पिकनिक मनाने का अवसर देते हैं.

कैसे जाएं

धर्मशाला जाने के लिए सड़क मार्ग सब से बेहतर रहता है लेकिन अगर आप चाहें तो वायु या रेलमार्ग से भी जा सकते हैं.

वायुमार्ग : कांगड़ा का गगल हवाई अड्डा धर्मशाला का नजदीकी एअरपोर्ट है. यह धर्मशाला से 15 किलोमीटर दूर है. यहां पहुंच कर बस या टैक्सी से धर्मशाला पहुंचा जा सकता है.

रेलमार्ग : नजदीकी रेलवे स्टेशन पठानकोट यहां से 95 किलोमीटर दूर है. पठानकोट और जोगिंदर नगर के बीच गुजरने वाली नैरोगेज रेल लाइन पर स्थित कांगड़ा स्टेशन से धर्मशाला 17 किलोमीटर दूर है.

सड़क मार्ग : चंडीगढ़, दिल्ली, होशियारपुर, मंडी आदि से हिमाचल रोड परिवहन निगम की बसें धर्मशाला के लिए नियमित रूप से चलती हैं. उत्तर भारत के प्रमुख शहरों से यहां के लिए सीधी बससेवा है. दिल्ली के कश्मीरी गेट और कनाट प्लेस से आप धर्मशाला के लिए बस ले सकते हैं.

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कब जाएं

धर्मशाला में गरमी का मौसम मार्च से जून के बीच रहता है. इस दौरान यहां का तापमान 22 डिगरी सैल्सियस से 38 डिगरी सैल्सियस के बीच रहता है. इस खुशनुमा मौसम में पर्यटक ट्रैकिंग का आनंद भी ले सकते हैं. मानसून के दौरान यहां भारी वर्षा होती है. सर्दी के मौसम में यहां अत्यधिक ठंड होती है और तापमान -4 डिगरी सैल्सियस के भी नीचे चला जाता है जिस के कारण रास्ते बंद हो जाते हैं और विजिबिलिटी कम हो जाती है. इसलिए धर्मशाला में घूमने के लिए जून से सितंबर के महीने उपयुक्त हैं.

गांव की गोरी ‘इमली’ बनी शहर की स्टाइलिश छोरी, फोटोशूट देख हैरान हुए फैंस

स्टार प्लस का सीरियल इमली इन दिनों काफी पौपुलर हो रहा है. वहीं उसकी कास्ट भी फैंस का दिल जीतने में कामयाब हो रही है, जिसके चलते सितारों की फैन फौलोइंग बढ़ती जा रही है. इसी बीच इमली की लीड एक्ट्रेस सुंबुल तौकीर खान की हाल ही में कुछ फोटोज वायरल हो रही हैं, जिसमें उनका लुक सीरियल से हटके नजर आ रहा है. आइए आपको दिखाते हैं इमली के हौट अंदाज की वायरल फोटोज…

फोटोशूट में छाया जादू

 

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इन दिनों सीरियल इमली में लीड रोल अदा कर रहीं सुंबुल तौकीर खान (Sumbul Touqeer Khan) हैं, जिन्होंने हाल ही में एक फोटोशूट करवाया है. वहीं इस फोटोशूट में एक्ट्रेस सुंबुल के लुक ने फैंस को चौंका दिया था.

स्टाइलिश अंदाज में दिखीं इमली

 

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आयुष्मान खुराना की सुपर-डुपर हिट फिल्म आर्टिकल 15 में नजर आ चुकीं एक्ट्रेस सुंबुल तौकीर खान के हाल ही में किए गए फोटोशूट में शौर्ट फ्लावर प्रिंट ड्रैस में नजर आ रही हैं. इसके साथ ब्लेजर में सुंबुल का लुक बेहद स्टाइलिश लग रहा है.

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18 साल की होने वाली हैं सुंबुल

 

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17 साल की सुंबुल तौकीर खान (Sumbul Touqeer Khan) जल्द ही 18वां बर्थडे मनाने वाली हैं, जिसके चलते उनके लुक के नए अंदाज नजर आ रहे हैं. वेस्टर्न लुक में सुंबुल बेहद खूबसूरत लग रही थीं. सुंबुल का हर लुक बेहद खूबसूरत लगता है, जिसे फैंस काफी पसंद करते हैं.

इमली का लुक है अलग

 

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सीरियल इमली में सुंबुल तौकीर खान के लुक की बात करें तो वह सिंपल अंदाज में नजर आती हैं. गांव की लड़की इमली का लुक ही उसे खूबसूरत बना देता है, जिसे आदित्या काफी पसंद करता है.

 

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सीरियल के अपकमिंग ट्रैक की बात करें तो जल्द ही आदित्य को मालिनी की मां किडनैप करने वाली है, जिसके कारण इमली हैरान परेशान नजर आएगी.

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फैमिली को खिलाएं टेस्टी और क्रिस्पी साबूदाना वड़ा

बाहर से कुरकुरी परत वाले साबूदाना के साथ उबले आलू और दरदरी कुटी मूंगफली को मिला कर बने साबूदाना वड़ा गर्मागर्म चटनी के साथ परोसिये. सभी को ये बेहद पसंद आएगा.

हमें चाहिए

मीडियम साइज साबूदाना- 1 कप (150 ग्राम) भीगे हुए

आलू- 5 (300 ग्राम) उबले हुए

मूंगफली के दाने- ½ कप (100 ग्राम) भूने और दरदरी कुटे

हरा धनिया- 2-3 टेबल स्पून (बारीक कटा हुआ)

नमक स्वादानुसार

हरी मिर्च- 2 (बारीक कटी हुई)

अदरक पेस्ट- 1 छोटी चम्मच

काली मिर्च- 8-10 (दरदरी कुटी हुई)

तेल- तलने के लिए

विधि

1 कप साबुदाना को धो कर 2 घंटे के लिये 1 कप पानी में भिगो दीजिए. साबूदाने को भीगोने के बाद अगर अतिरिक्त पानी दिखाई दे तो उसे हटा दीजिए. आलू को छील लीजिए और अच्छी तरह मैश कर लीजिए.

अब मैश किए हुए आलू को साबुदाना में डाल दीजिए साथ ही इसमें नमक, बारीक कटी हुई हरी मिर्च, अदरक का पेस्ट, दरदरी कुटी काली मिर्च, बारीक कटा हरा धनिया और दरदरी कुटी हुई मूंगफली डाल कर अच्छी तरह मिलने तक मिला लीजिए. वड़े बनाने के लिए मिश्रण तैयार है.

कढ़ाई में तेल डाल कर गरम कीजिए. मिश्रण से थोड़ा सा मिश्रण निकाल कर गोल कीजिये और हथेली से दबाकर चपटा करें, तैयार वड़े को प्लेट में रख दीजिए, इसी तरह से सारे मिश्रण से वड़े बना कर तैयार कर लीजिए. वड़े को गरम तेल में डालिये और साबूदाना वड़ों को पलट पलट कर सुनहरा होने तक तल लीजिये.

तले साबूदाना वड़ा किसी प्लेट में बिछे नैपकिन पेपर पर रख लीजिये. इसी तरह सारे वड़े तलकर तैयार कर लीजिए. साबूदाना वड़े तैयार हैं. गरमा गरम साबूदाना वड़े को हरे धनिये की चटनी, मीठी चटनी या टमैटो सॉसे के साथ परोसिये, और खाइये.

आज के युग में समलैंगिक प्रेम

परिवार वालों द्वारा अपनी बेटी की जबरन शादी कराना आज भी नहीं रूक रहा है और प्रेमी के साथ भाग जाने पर औनर कीङ्क्षलग में प्रेमी और लडक़ी दोनों को मार तक डाला जा रहा है. उस में अब नया एंगल आने लगा है जब बेटी का प्रेम किसी लडक़े से न हो कर लडक़ी से हो. यह न केवल जाति और धर्म की चूलें हिला डालता है, परिवार के सारे अरमानों का खून करते हुए उन्हें सामाजिक उपहास के केंद्र बना डालता है.

अलीगढ़ की एक लडक़ी दिल्ली में अपनी प्रेमी के साथ रह रही थी पर उस का परिवार एक लडक़े से उस का जबरन विवाह करना चाह रहा था. वे उसे अलीगढ़ ले गए. प्रेमिका उसे घर से ले जाने के लिए पहुंची तो घरवालों ने उस की जम कर ठुकाई कर दी.

समलैंगिक प्रेम. अब धीरेधीरे खुल कर बाहर आने लगते हैं. लोग इसे स्वीकारने में घबराते नहीं हैं. बड़े शहरों में यह खुल कर संभव है क्योंकि 2 लडक़ों या 2 लड़कियों को आसानी से बिना ज्यादा सवालजवाब किए मकान किराए पर मिल जाते है क्योंकि हजारों लड़कियां रूम मेटों के साथ रूम शेयर कर रही हैं. उन में सैक्स संबंध भी हैं, यह कम को पता चलता है और बात आई गई हो जाती है. परिवार जब एक लडक़ी पर विवाह के लिए दबाव डालता है तो मुसीबत आती है. इस में वही दर्द और विरह की भावना पैदा होती है जो आमतौर पर प्रेमी प्रेमिका के अलगाव पर होती है.

समलैंगिक प्रेम आज के युग में असल में जम कर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इस में कम कठिनाइयां हैं. इसे शादी का सॢटफिकेट मिले या न मिले, साथ रहना और परमानैंटली रहना लडक़ी लडक़े के साथ रहने से कम जोखिम वाले हैं. न बच्चे होने का डर है न तलाक की दुविधा है. आमतौर पर डोमैस्टिक वायलैंस की परेशानी भी नहीं है. जो चाहत किसी साथी की होती है जिस के साथ सोफो, किचन और बैड सब शेयर किए जा सकें, पूरे होते हैं. अब गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट ने उसे गैरकानूनी से कानूनी भी बना दिया ह ैऔर पुलिस दखलअंदाजी भी नहीं है.

विरासत के मामलों में थोड़ी परेशानियां हैं पर विवाह ही कोई गारंटी नहीं कि पत्नी या पति को सब कुछ मिले. कट्टरपंथियों को तो स्वागत करना चाहिए क्योंकि समलैंगिकता पौपुलर होगी तो जनसंख्या नहीं बढ़ेगी न.

Romantic Story In Hindi: हमकदम- भाग 1- अनन्या की तरक्की पर क्या था पति का साथ

अधिक खुशी से रहरह कर अनन्या की आंखें भीग जाती थीं. अब उस ने एक मुकाम पा लिया था. संभावनाओं का विशाल गगन उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पत्रकारों के जाने के बाद अनन्या उठ कर अपने कमरे में आ गई. शरीर थकावट से चूर था पर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. एक पत्रकार के प्रश्न पर पति द्वारा कहे गए शब्द कि इन की जीत का सारा श्रेय इन की मेहनत, लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है, रहरह कर उस के जेहन में कौंध जाते.

कितनी आसानी से चंद्रशेखर ने अपनी जीत का सेहरा उस के सिर बांध दिया. अगर कदमकदम पर उसे उन का साथ और सहयोग नहीं मिला होता तो वह आज विधायक नहीं गांव के एक दकियानूसी जमींदार परिवार की दबीसहमी बहू ही होती.

इस मंजिल तक पहुंचने में दोनों पतिपत्नी ने कितनी मुश्किलों का सामना किया है यह वे ही जानते हैं. जीवन की कठिनाइयों से जूझ कर ही इनसान कुछ पाता है. अपने वजूद के लिए घोर संघर्ष करने वाली अनन्या सिंह इस महत्त्वपूर्ण बात की साक्षी थी.

उस का मन रहरह कर विगत की ओर जा रहा था. तकिए पर टेक लगा कर अधलेटी अनन्या मन को अतीत की उन गलियों में जाने से रोक नहीं पाई जहां कदमकदम पर मुश्किलों के कांटे बिछे पड़े थे.

बचपन से ही अनन्या का स्वभाव भावुक और संवेदनशील था. वह सब के आकर्षण का केंद्र बन कर रहना चाहती थी. दफ्तर से घर आने पर पिता अगर एक गिलास पानी के लिए कहीं उस के छोटे भाई या बहन को आवाज दे देते तो वह मुंह फुला कर बैठ जाती. पूछो तो होंठों पर बस, एक ही जुमला होता, ‘पापा मुझ से प्यार नहीं करते.’

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बातबात पर उसे सब के प्यार का प्रमाण चाहिए था. कभीकभी मां बेटी की हठ देख कर चिंतित हो उठतीं. एक बार उन्होंने अनन्या के पिता से कहा भी था, ‘अनु का स्वभाव जरा अलग ढंग का है. अगर इसे आप इतना सिर पर चढ़ाएंगे तो कल ससुराल में कैसे निबाहेगी? न जाने कैसा घरपरिवार मिलेगा इसे.’

‘तुम चिंता क्यों करती हो, समय सबकुछ सिखा देता है. हम से जिद नहीं करेगी तो किस से करेगी?’ अनु के पिता ने पत्नी को समझाते हुए कहा था.

एक दिन अनन्या के मामा ने उस के लिए चंद्रशेखर का रिश्ता सुझाया तो उस के पिता सोच में पड़ गए.

‘अभी उस की उम्र ही क्या हुई है शिव बाबू, इंटर की परीक्षा ही तो दी है. इस साल आगे पढ़ने का उसे कितना चाव है.’

‘देखिए जीजाजी, इतना अच्छा रिश्ता हाथ से मत निकलने दीजिए, पुराना जमींदार घराना है. उन का वैभव देख कर भानजी के सुख की कामना से ही मैं यह रिश्ता लाया हूं. अनन्या के लिए इस से अच्छा रिश्ता नहीं मिलेगा,’ शिवप्रकाशजी ने समझाया तो अनन्या के पिता राजी हो गए.

पहली मुलाकात में ही चंद्रशेखर और उस का परिवार उन्हें अच्छा लगा था. उन्होंने बेटी को समझाते हुए कहा था, ‘चंद्रशेखर एक नेक लड़का है, तुम्हारी इच्छाओं का वह जरूर आदर करेगा.’

शादी के बाद अनन्या दुलहन बन कर ससुराल चली आई. गांव में बड़ा सा हवेलीनुमा घर, चौड़ा आंगन, लंबेलंबे बरामदे, भरापूरा परिवार, कुल मिला कर उस के मायके से ससुराल का परिवेश बिलकुल अलग था. मायके में कोई रोकटोक नहीं थी पर ससुराल में हर घड़ी लंबा घूंघट निकाले रहना पड़ता था. आएदिन बूढ़ी सास टोक दिया करतीं, ‘बहू, घड़ीघड़ी तुम्हारे सिर से आंचल क्यों सरक जाता है? ढंग से सिर ढंकना सीखो.’

चंद्रशेखर अंतर्मुखी प्रवृत्ति का इनसान था. प्रेम के एकांत पलों में भी वह मादक शब्दों के माध्यम से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और बचपन से ही बातबात पर प्रमाण चाहने वाली अनन्या उसे अपनी अवहेलना समझने लगी थी.

पुराना जमींदार घराना होने के कारण उस की ससुराल वाले बातबात पर खानदान की दुहाई दिया करते थे और उन के गर्व की चक्की में पिस जाती साधारण परिवार से आई अनन्या. सुनसुन कर उस के कान पक गए थे.

एक दिन अनन्या ने दुखी हो कर पति से कहा, ‘आप के जाने के बाद मैं अकेली पड़ी बोर हो जाती हूं. गांव में कहीं आनेजाने और किसी के साथ खुल कर बातें करने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं समय का सदुपयोग करना चाहती हूं. आप तो जानते ही हैं कि मैं ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया है. मैं और आगे पढ़ना चाहती हूं, पर मुझे नहीं लगता यह संभव हो पाएगा. बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी, दादी मां, बाबूजी क्या मुझे आगे पढ़ने देंगे?’

चंद्रशेखर ने पत्नी की ओर गहरी नजर से देखा. पत्नी के चेहरे पर आगे पढ़ने की तीव्र लालसा को महसूस कर उस ने मन ही मन परिवार वालों से इस बारे में सलाह लेने की सोच ली.

उधर पति को चुपचाप देख कर अनन्या सोच में पड़ गई. उस के अंतर्मन की मिट्टी से पहली बार शंका की कोंपल फूटी कि यह मुझ से प्यार नहीं करते तभी तो चुप रह गए. आखिर खानदान की इज्जत का सवाल है न.

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अनन्या 2-3 दिनों तक मुंह फुलाए रही. चंद्रशेखर ने भी कुछ नहीं कहा. एक दिन आवश्यक काम से चंद्रशेखर को पटना जाना पड़ा. लौटा तो चेहरे पर एक अनजानी खुशी थी.

रात का खाना खाने के बाद चंद्रशेखर भी अपने बाबूजी के साथ टहलने चला गया. थोड़ी देर में बाबूजी का तेज स्वर गूंजा, ‘शेखर की मां, देखो, तुम्हारा लाड़ला क्या कह रहा है.’

‘क्या हुआ, क्यों आसमान सिर पर उठा रखा है?’ चंद्रशेखर की मां रसोई से बाहर आती हुई बोलीं.

‘यह कहता है कि बहू आगे पढ़ने कालिज जाएगी. विश्वविद्यालय जा कर एडमिशन फार्म ले भी आया है. कमाता है न, इसलिए मुझ से पूछने की जरूरत भी क्या है?’ ससुरजी फिर भड़क उठे थे.

‘लेकिन बाबूजी, इस में गलत क्या है?’ चंद्रशेखर ने पूछा तो मां बिदक कर बोलीं, ‘तेरा दिमाग चल गया है क्या? हमारे खानदान की बहू पढ़ने कालिज जाएगी. ऐसी कौन सी कमी है महारानी को इस घर में, जो पढ़लिख कर कमाने की सोच रही है?’

‘मां, तुम क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो? यह तुम से किस ने कहा कि यह पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती है? इसे आगे पढ़ने का चाव है तो क्यों न हम इसे बी.ए. में दाखिला दिलवा दें,’ चंद्रशेखर ने कहा तो अपने कमरे में परदे के पीछे सहमी सी खड़ी अनन्या को जैसे एक सहारा मिल गया.

पास ही खड़ी बड़ी भाभी मुंह बना कर बोलीं, ‘देवरजी, हम भी तो रहते हैं इस घर में, बी.ए. करो या एम.ए., आखिरकार चूल्हाचौका ही संभालना है.’

‘छोड़ो बहू, यह नहीं मानने वाला, रोज कमानेखाने वाले परिवार की बेटी ब्याह कर लाया है. छोटे लोग, छोटी सोच,’ अनन्या की सास ने कहा और भीतर चली गईं.

दरवाजे के पास खड़ी अनन्या सन्न रह गई, छोटे लोग छोटी सोच? यह क्या कह गईं मांजी? क्या अपने भविष्य के बारे में चिंतन करना छोटी सोच है? बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी यह क्यों भूल जाती हैं कि अच्छे खानदान की जड़ में अच्छे संस्कार होते हैं और शिक्षित इनसान ही अच्छे संस्कारों को हमेशा जीवित रखने का प्रयास करते हैं.

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‘गोपी बहू’ बनकर लौटी जिया माणेक, आते ही किया ‘कोकिला बेन’ के लैपटॉप का ये हाल!

टीवी सीरियल ‘साथ निभाना साथिया’ (Saath Nibhaana Saathiya) फैंस के दिलों में आज भी राज करता है. वहीं लौकडाउन में सीरियल के रिकास्ट होने के बावजूद फैंस काफी खुश हुए थे. वहीं इसमें गोपी बहू और कोकिला की जोड़ी की एक वीडियो भी वायरल हुई थी, जिसे फैंस ने काफी पसंद किया था. वहीं हाल ही में मेकर्स ने इस सीरियल का प्रीक्वल बनाने की बात कही थी. इसी बीच सीरियल के प्रीक्वल तेरा मेरा साथ रहे का नया प्रोमो रिलीज हो गया है. आइए आपको दिखाते हैं प्रोमो…

फिर लौटी गोपी बहू-कोकिला

 

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टीवी पर ‘साथ निभाना साथिया’ (Saath Nibhaana Saathiya) के प्रीक्वल ‘तेरा मेरा साथ रहे’ (Tera Mera Saath Rahe) का पहला प्रोमो मेकर्स ने फैंस के साथ शेयर कर दिया है, जिसमें कोकिला और गोपी बहू की जोड़ी यानी रूपल पटेल (Rupal Patel) और जिया मानेक (Giaa Manek ) की जोड़ी एक बार फिर नजर आ रही है.

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दिखा पहले वाला अंदाज

 

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मेकर्स द्वारा रिलीज किए गए प्रोमो में, गोपी बहू बनकर जिया मानेक एक बार फिर से अपना सासू मां का लैपटॉप धोती नजर आ रही हैं, जिसे देखकर कोकिला बेन के होश उड़ जाते हैं. हालांकि ये सिर्फ एक ख्याल है. लेकिन फैंस को ये प्रोमो देखकर काफी मजा आ रहा है. वहीं सोशलमीडिया पर ये तेजी से वायरल हो रहा है. दरअसल, शो के पहले सीजन “साथ निभाना साथिया’ में नादान गोपी बहू अपने पति अहम के लैपटॉप को पानी से धो देती है जिससे घर में खूब हंगामा होता है. शो का ये सीन काफी वायरल भी हुआ था. इसलिए नए शो ‘तेरा मेरा साथ रहे’ की शुरूआत में इसी सीन को लेकर प्रोमो बनाया गया है. लेकिन यहां एक ट्विस्ट है कि गोपी बहू लैपटॉप को धोती नहीं है बल्कि उसे साइड में रख देती है. मतलब ये कि अब ये गोपी बहू समझदार हो चुकी हैं. बहरहाल फैंस इस प्रोमो को खूब पसंद कर रहे हैं और इस शो का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.

 

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बता दें, सीरियल साथ निभाना साथिया का दूसरा सीजन इन दिनों फैंस का दिल जीत रहा है, जिसमें गहना और अनंत की जिंदगी में मची उथल-पुछल दर्शकों को देखने पर मजबूर कर रही है. अब देखना है कि गोपी बहू-और कोकिला की ये जोड़ी कितना फैंस का दिल जीतती है.

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REVIEW: दिल को छू लेने वाली कहानी है ईशा देओल की ‘एक दुआ’

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः वेंकीस, भारत तख्तानी,  ईशा देओल तख्तानी और अरित्रा दास

निर्देशकः राम कमल मुखर्जी

लेखकः अविनाश मुखर्जी

कलाकारः ईशा देओल, राजवीर अंकुर सिंह, बॉर्बी शर्मा , निक शर्मा व अन्य

अवधिः लगभग एक घंटा

ओटीटी प्लेटफार्मः वूट सेलेक्ट

पुरूष प्रधान भारतीय समाज में आज भी बेटे व बेटी के बीच भेदभाव किया जाता है. अत्याधुनिक युग में भी भ्रूण हत्या की खबरें आती रहती हैं. सरकार इस दिशा में अपने हिसाब से कदम उठा रही है. पर इसके सार्थक परिणाम नही मिल रहे हैं. इसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर फिल्म सर्जक राम कमल मुखर्जी और कहानीकार अविनाश मुखर्जी एक फिल्म‘‘एक दुआ’’लेकर आए हैं,  जिसका निर्माण ईशा देओल तख्तानी व उनके पति  तख्तानी ने  किया है. जो कि 26 जुलाई से ओटीटी प्लेटफार्म ‘वूट ’’पर स्ट्रीम हो रही है.

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कहानीः

फिल्म की कहानी टैक्सी ड्रायवर सुलेमान(राजवीर अंकुर सिंह)के परिवार के इर्द गिर्द घूमती है. सुलमान के परिवार में उनकी मां, पत्नी आबिदा(ईशा देओल तख्तानी),  बेटा फैज(निक शर्मा ) व बेटी दुआ(बार्बी शर्मा )हंै. बेटी दुआ के जन्म से सुलेमान की मॉं खुश नही है और सुलेमान भी अपनी बेटी से कटा कटा सा रहता है. सुलेमान के आर्थिक हालात अच्छे नही है, मगर वह अपने बेटे को स्कूल ख्ुाद छोड़ने जाता है. बेटे के लिए उपहार भी लाता है. सुलेमान बेटी दुआ को पढ़ाना नहीं चाहता. हर जगह उसकी उपेक्षा करता रहता है. लेकिन आबिदा हमेशा अपनी बेटी दुआ का खास ख्याल रखती है. वह बेटी को स्कूल भी भेजती है और बेटेे के साथ ही बेटी को भी बर्फ के गोले भी खिलाती है. ईद आने से पहले वह चुपचाप अपनी बेटी दुआ के लिए उपहार भी खरीद लाती है. जबकि ईद के दिन सुलेमान पूरे परिवार के साथ मस्जिद व दरगाह पर जाता है. सुलेमान ईद के अवसर पर अपनी मॉं के अलावा पत्नी व बेटे को ईदी यानी कि उपहार देता है. मगर वह बेटी दुआ के लिए कुछ नही लाता. यह देख दुआ की आॅंखों से आंसू बहते हैं, पर वह चुप रहती है. लेकिन आबिदा उसे उसकी पंसदीदा फ्राक ईदी यानी कि उपहार में देकर उसके चेहरे पर मुस्कान ले आती है. इस बीच दुआ की दादी सुलेमान से कहती है कि वह दूसरा बेटा पैदा करे. जबकि घर के बदतर आर्थिक हालात को देखते हुए आबिदा ऐसा नही चाहती. मगर मां की इच्छा के लिए सुलेमान पत्नी आबिदा को धोखा देकर उसे गर्भवती कर देता है. दुआ की दादी गभर्वती आबिदा के पेट की सोनोग्राफी के साथ ही लिंग परीक्षण भी करवा देती है, जिससे पता चलता है कि आबिदा बेटी को ही जन्म देने वाली है. अब दुआ की दादी चाहती हैं कि डाक्टर, आबिदा गर्भपात कर दे. मगर डाक्टर ऐसा करने की बजाय सुलेमान व उनकी मॉं को ही फटकार लगाती है. मगर सुलेमान की मां कहां चुप बैठने वाली. वह एक दूसरी औरत की मदद से ऐसा खेल खेलती है कि दूसरी दुआ नहीं आ पाती.

लेखन व निर्देशनः

अविनाश मुखर्जी ने अपनी कहानी में एक ज्वलंत व अत्यावश्क मुद्दे को उठाया है. लेकिन इसे जिस मनोरंजक तरीके से निर्देशक राम कमल मुखर्जी ने फिल्माया है, उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं. राम कमल मुखर्जी ने इस फिल्म में लंैगिक समानता, भ्रूण हत्या, नारी स्वतंत्रता व नारी सशक्तिकरण के मुद्दों को बिना किसी तरह की भाषण बाजी या उपेदशात्मक जुमलों के मनोरंजन के साथ प्रभावशली ढंग से उकेरा है. इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि कम संवादों के साथ बहुत गहरी बात कही गयी है. इसमें लिंग भेद व ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’की बात इस तरह से कही गयी है कि उन पर यह आरोप नहीं लग सकता कि इसी मुद्दे के लिए फिल्म बनायी गयी. इतना ही राम कमल मुखर्जी ने अपनी पिछली फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी रिश्तों को उकेरा है.  इसमें मां बेटी के बीच के रिश्ते की गहराई को उकेरा गया है. तो वही फिल्मकार ने बदलते युग में किस तरह से ‘ओला’ व ‘उबर’की एसी वाली गाड़ियों के चलते दशकों से काली पीली टैक्सी वालों के सामने दो वक्त की रोटी का संकट पैदा होता जा रहा है, उसे भी बड़ी खूबसूरती से उकेरा है. एक गरीब मुस्लिम परिवार हो या बाजार या स्कूल के सामने का माहौल या दरगाह व उसके अंदर हो रही कव्वाली हो, फिल्मकार ने हर बारीक से बारीक बात को जीवंतता प्रदान करने में कोई कसर नही छोड़ी है. मगर कहीं न कहीं इसे कम बजट में बनाने का दबाव भी नजर आता है. फिल्म की गति थोड़ी धीमी है. फिर भी हर इंसान को सेाचे पर मजबूर करती है.

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गीत संगीत पर थोड़ी सी मेहनत की जाती, तो बेहतर होता.

कैमरामैन मोधुरा पालित बधाई की पात्र हं. उन्होने अपने कैमरे से मंुबई शहर को एक नए किरदार में पेश किया है.

अभिनयः

आबिदा के किरदार में ईशा देओल तख्तानी ने शानदार अभिनय किया है. एक बार फिर उन्होने साबित कर दिखाया कि ग्रहस्थ जीवन या दो बेटियों की मां बनने के बावजूद उनकी अभिनय क्षमता में निखार ही आया है. तो वहीं टैक्सी ड्रायवर सुलेमान के किरदार को जीवंतता प्रदान करने में राजवीर कंुवर सिंह सफल रहे हैं. राजवीर,  मां व पत्नी के बीच पिसते युवक के साथ ही आर्थिक हालात से जूझते इंसान के दर्द को बयां करने में सफल रहे हैं. दुआ के किरदार में बॉर्बी शर्मा बरबस  लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचती हैं. वह बिना संवाद के महज अपने चेहरे के भाव व आंखों से ही दर्द, खुशी सब कुछ जितनी खूबसूरती से बयां करती है, वह बिरले बाल कलाकारों के ही वश की बात है. बेटे फैज के किरदार में निक शर्मा ठीक ठाक हैं.

 

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बच्चे के जीवन में पेरेंट्स की भूमिका को लेकर क्या कहती हैं एक्ट्रेस मेघना मलिक, पढ़ें इंटरव्यू

लड़कियों ने अगर कोई सपना किसी क्षेत्र में जाने के लिए देखा है…. तो उनको सिर्फ एक सहारे की जरुरत होती है….उनके माता-पिता, समाज और उनकी कम्युनिटी आगे बढ़ने में रोड़े न अटकाएं………जो पिता अपने बेटियों को रोकेगा नही….. वे आगे अपना रास्ता अवश्य बना लेंगी….लड़कियों में प्रतिभा है…..उन्होंने जो सोचा है, उसे अवश्य कर लेगी. कहना है अभिनेत्री मेघना मलिक का, जिन्होंने एक लम्बी जर्नी एंटरटेनमेंट की दुनिया में तय किया है और अपने काम से संतुष्ट है.

अभिनेत्री मेघना मलिक हरियाणा के सोनीपत की है. धारावाहिक ‘न आना देस लाडो’ में अम्मा की भूमिका से वह चर्चा में आई. मेघना एक थिएटर आर्टिस्ट है. इंग्लिश लिटरेचर में मास्टर डिग्री लेने के बाद मेघना दिल्ली आई और नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में ग्रेजुएट किया और अभिनय की तरफ मुड़ी. सौम्य और हंसमुख स्वभाव की मेघना हमेशा खुश रहना पसंद करती है. फिल्म साइना में वह साइना की माँ उषा रानी नेहवाल की भूमिका निभाई है, जिनका उद्देश्य बेटी को एक मंजिल तक पहुंचाने की रही और इसके लिए उन्होंने बेटी को भरपूर सहयोग दिया. पेरेंट्स डे के अवसर पर मेघना ने पेरेंट्स की सहयोग का बच्चे की कामयाबी पर असर के बारें में बातचीत की. आइये जाने क्या कहती है, मेघना मलिक अपनी जर्नी और जर्नी के बारें में.

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सवाल-इस फिल्म में माँ की भूमिका निभाना कितना चुनौतीपूर्ण रहा?

जब मैंने निर्देशक अमोल गुप्ते की स्क्रिप्ट पढ़ी और मेरे किरदार को जाना, तो लगा कि यही एक भूमिका जो मुझे हमेशा से करनी थी और मुझे उसे करने को मिल रहा है. कहानी की पृष्ठभूमि हरियाणा की है. असल में भी साइना नेहवाल भी हरियाणा की है. उनकी बैडमिन्टन खेल ने नयी जेनरेशन को पूरी तरह से प्रभावित किया है. उन्हें देखकर बच्चों में इस खेल के प्रति रूचि बढ़ी है. पहले बैडमिन्टन इतना प्रचलित खेल नहीं था, लेकिन सायना की जीत ने सबको प्रेरित किया है. उषा रानी नेहवाल लाइमलाइट में नहीं थी, पर उन्हें अपनी बेटी की प्रतिभा की जानकारी थी. माता-पिता दोनों ने सायना के सपनों को पूरा किया है. इसके अलावा उषा रानी को सभी जानते है, इसलिए उनकी भूमिका को सही तरह से पर्दे पर लाना मेरे लिए बड़ी चुनौती थी. जब उषा रानी फिल्म को देखे,तो उन्हें लगना चाहिए  कि ये अभिनय वे खुद कर रही है, क्योंकि एक माँ जो बेटी की हर अवस्था में साथ थी, उस चरित्र को मुझे क्रिएट करना था. साइना के पेरेंट्स फिल्म देखकर मुझे फ़ोन पर बताया कि मेरी भूमिका में वे खुद को देख पा रही है. मुझे ये कोम्प्लिमेंट्स बहुत पसंद आया.

 

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सवाल-माँ की भूमिका लड़कियों की परवरिश में कितनी होती है?

मेरी फिल्म देखने के बाद एक आर्मी ऑफिसर ने फ़ोन किया और कहा कि मैं लद्दाख में पोस्टेड हूं, लेकिन मेरा परिवार दिल्ली में रहता है. मेरी पत्नी और बेटी फिल्म देखने के बाद फ़ोन कर बताया कि बच्चे की परवरिश में पत्नी भी मेरा साथ देगी. जबकि पहले वह मना कर रही थी. आपकी फिल्म ने सोच को बदला है.

सवाल-आपने अधिकतर माँ की भूमिका निभाई है, क्या आपने कभी हिरोइन बनने का सपना नहीं देखा?

मैं एक अभिनेत्री हूं, फिर चाहे मुझे माँ, चाची या सांस की भूमिका मिले, चरित्र कैसा है उस पर अधिक फोकस्ड रहती हूं. अगर कोई मुझे हिरोइन बना देगा, तो वह भी बन जाउंगी.(हंसती हुई) ये सामने वाले की सोच है, मेरी नहीं.

सवाल-आपने एक लम्बी जर्नी तय की है, कितने खुश है?

बचपन से अभिनय का शौक था, लेकिन वहां थिएटर नहीं था, कोई गाइड करने वाला भी नहीं था. मेरी माँ डॉ. कमलेश मलिक जो एक अध्यापिका थी अब रिटायर्ड हो चुकी है. एक लेखिका और कवयित्री है. वह मेरे लिए मोनो एक्ट लिखती थी और मैं उसे करती थी. फिर उसे मैं स्कूल में करती थी. उन्होंने मेरी प्रतिभा को पहचाना और बहुत सहयोग दिया. मैं केवल 4 साल की अवस्था में मंच तक पहुँच चुकी थी, जिसमें नाटक, मोनोएक्टिंग आदि करने लगी और अभिनय से जुड़ गयी. इसके अलावा स्कूल, कॉलेज में भी मैंने हमेशा मंच पर कुछ न कुछ किया है. जर्नी वही से शुरू किया. मुझे जो स्क्रिप्ट पसंद आती है, उसमें किसी भी चरित्र में मैं काम कर सकती हूं. कई बार चुनौती तो कई बार पैसे के लिए भी काम करना पड़ता है, जो मुंबई में रहने के लिए बहुत जरुरी है.

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सवाल-पेरेंट्स की कौन सी बात जीवन में उतारना चाहती है?

मेरी माँ की स्प्रिट बहुत अच्छी है. क्लब जाना, मेंबर बनना, लिखना आदि सब करती है. इसके अलावा खाना बनाना, हम दोनों बहनों को पढ़ाना, संस्कृत में पी एच डी करना सब साथ-साथ करती रही. मैंने उन्हें कभी थकते हुए नहीं देख. मुझे उनसे ऐसी स्प्रिट और आत्मविश्वास को अपने जीवन में लाना चाहती हूं. मेरे पिता भी हमेशा चाहते थे कि हम दोनों वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर हो. कर्म को ही उन्होंने धर्म बताया है.

सवाल-कुछ पेरेंट्स अपनी इच्छाओं को बच्चों पर थोपते है, उनके लिए आप क्या कहना चाहती है?

बच्चों पर कभी भी पेरेंट्स को अपनी इच्छाओं को थोपना नहीं चाहिए, इससे बच्चे को किसी भी चीज में मन नहीं लगता. केवल डॉक्टर और इंजिनियर बनना ये पुरानी बात हो चुकी है. बच्चे की रूचि के हिसाब से जाने दे, इससे उसकी रूचि के बारें में पता लग सकेगा और उसकी ग्रोथ भी अच्छी होगी. अपने सपने में बच्चों को ढूढने के वजाय, उन्हें सपनों को देखने दें और थोड़ी सहयोग दे. पैरेंट्स की भूमिका इतनी ही होनी चाहिए. इससे बच्चे का भविष्य अच्छा होता है.

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