Social Story: मानस कथा के आयोजन पर आयोजकों ने उभरते हुए संत भवानंद को आमंत्रित करने की सोची. लेकिन कथा प्रारंभ होने से पहले आयोजकों और भवानंद के बीच धर्म के नाम पर जन कल्याण के लिए चढ़ावे की रकम तय हो गई थी. होती भी क्यों न, धर्म के नाम पर चांदी काटने वालों की कमी थोड़े ही है.
कलयुग केवल नाम अधारा, यानी कलयुग में केवल ईश्वर का नाम भर लेने से व्यक्ति भवसागर पार कर जाता है. कितना शार्टकट. मगर कलयुगी इनसान मोहमाया के चक्कर में इस तरह उलझा है कि उसे ईश्वर का नाम लेने की भी फुर्सत नहीं है. लिहाजा, कुछ भले इनसानों ने तय किया कि भई, नाम ले नहीं सकता, तो सुन ही ले.
इसी भले काम के लिए इन लोगों ने जनकल्याण सत्संग समिति बनाई है. समिति हर साल मानसकथा का आयोजन करती है. आयोजन यों ही नहीं हो जाता है, समिति के सारे पदाधिकारी, सदस्यगण रातदिन पसीना बहाते हैं. कामधंधा खोटी करते हैं, तब जा कर आयोजन हो पाता है. भले काम के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ती है. परोपकार के लिए लोगों ने अपने प्राण तक गंवा दिए हैं. धर्मशास्त्र इस का गवाह है.
बहरहाल, इस साल भी मानसकथा का आयोजन करना है और इस के लिए अध्यक्ष ने समिति की मीटिंग बुलाई है. मीटिंग में गंभीर विचारविमर्श चल रहा है.
‘‘इस वर्ष भी मानसजी की कथा करनी है,’’ समिति के अध्यक्ष संजयजी ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘कार्यक्रम पिछले सालों के अनुसार ही रहेंगे, पहले दिन कलश यात्रा और अंतिम दिन शोभा यात्रा. मगर एक बात है…’’
‘‘वह क्या?’’ सचिव मनोहरजी ने पूछा.
‘‘सालभर में महंगाई बहुत बढ़ गई है,’’ अध्यक्ष संजयजी बोले, ‘‘सहयोग करने वाले नए लोग जोड़ने होंगे. वैसे पुराने सभी लोग हैं ही, विधायक माणकजी, तेलमिल वाले अग्रवालजी, दालमिल वाले माहेश्वरीजी, ठेकेदार बत्राजी…अब नया जुड़े तो कौन जुड़े…बोलो?’’
‘‘संजयजी, मेरी मानो तो एक काम करें,’’ वयोवृद्ध सोनीजी बोले, ‘‘मेरी जुआसट्टा किंग मानेजी से अच्छी बातचीत है…आप कहो तो बात करूं…आदमी दरियादिल है…धरम के काम में पीछे नहीं हटता है.’’
‘‘वह तो है…मगर,’’ संजयजी के चेहरे पर उलझन के भाव आए, ‘‘आप जानो…दो नंबर का पैसा…फिर भगवान का काम…’’
‘‘आप भी संजयजी…भली कही,’’ सोनीजी ने मच्छर भगाने की अदा में हाथ हिला कर संजयजी की दुविधा भगाते हुए कहा, ‘‘क्या एक नंबर का…और क्या दो नंबर का. राम के काम में लगाने के लिए आया पैसा राम के दरबार में पाक हो जाता है.’’
‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ संजयजी ने स्वीकृति देते हुए कहा, ‘‘इस साल कथा के लिए किसे बुलाएं…मेरा विचार है कि जमेजमाए को बुलाएंगे तो भाव खाएगा. इन दिनों संत भवानंदजी का नाम उभर रहा है. नएनए हैं, ठीकठाक जम जाएगा. इन के एक आदमी से मेरी थोड़ीबहुत बातचीत भी है.’’
‘‘तो फिर ठीक है, इन्हें ही बुला लो,’’ मनोहरजी ने हामी भरी.
समिति की बैठक संपन्न हुई. संदेशवाहक संदेश ले कर चला गया.
संत भवानंदजी का कमरा. तख्त पर बिछे गद्दे पर बैठे भवानंदजी. लगभग 30-32 वर्षीय दिव्य पुरुष. चेहरा आध्यात्मिक तेज से चमकता हुआ. मस्तक पर त्रिपुंड. भरी हुई दाढ़ीमूंछें. कंधे पर लहराते बाल. भगवा परिधान. गले में अनेक मालाएं. हाथों की उंगलियों में अलगअलग रत्नों की अंगूठियां.
‘‘राधेश्यामजी, जनकल्याण समिति वालों का प्रस्ताव आया है मानसकथा के लिए,’’ भवानंदजी ने अपने सामने बैठे एक सज्जन से कहा.
‘‘कथा कब से है?’’ राधेश्यामजी ने पूछा.
‘‘7 अप्रैल से है. 17 को पूर्णाहुति होगी. उसी दिन शोभायात्रा भी होगी,’’ भवानंदजी ने बताया.
‘‘गुरुजी,’’ कमलेशजी बोले, ‘‘बात पहले साफ करनी होगी. आजकल आयोजकों का ठिकाना नहीं है. कहते क्या हैं, करते क्या हैं. पहले लोग भले हुआ करते थे. अब कथाभागवत में भी धंधेबाज भर गए हैं.’’
‘‘बात तो आप की सही है,’’ भवानंदजी ने सहमति जाहिर करते हुए कहा, ‘‘पहले तो कुछ एडवांस ले लेते हैं. साथ ही दानदक्षिणा, यात्राव्यय, आवास, भोजन, चढ़ावा, साउंड, कलाकारों के पैसे, स्टाल सब नक्कीपक्की कर लेते हैं… अच्छा राधेश्यामजी, ऐसा करो, समिति वालों से परसों मीटिंग तय कर लो.’’
राधेश्यामजी का निवास स्थान. समिति के पदाधिकारियों और भवानंद में चर्चा चल रही है.
‘‘और संजयजी, कैसे हैं आप… कुशलमंगल तो हैं न,’’ भवानंद ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप का प्रस्ताव मुझे मिला. आप तो भई, जनकल्याण में लगे हैं. आजकल धरम के काम करने वाले हैं ही कहां? आप जैसे धार्मिक, समाजसेवी ही तन, मन, धन से लगे हैं.’’
‘‘सब आप का आशीर्वाद है, गुरुजी,’’ संजयजी दोनों हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक कहते हैं, ‘‘हम सब तो निमित्त हैं. करवाने वाले तो रामजी हैं. उन की कृपा से चार जने आप जैसे संतों की अमृतवाणी सुन लेते हैं.’’
‘‘चलो, अच्छा है, जैसी प्रभु इच्छा, सबहि नचावत राम गुसाईं,’’ और दोनों हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘कैसे, क्या तय किया है आप ने?’’
‘‘गुरुजी, कथा के पहले कलश यात्रा निकलेगी. कथा के 9 दिनों में पोथी पूजा आरती में मंत्रीजी, विधायकजी और दूसरे कई वी.आई.पी. आरती करेंगे. आखिरी दिन पूर्णाहुति के बाद शोभा यात्रा निकलेगी.’’
‘‘और बाकी व्यवस्थाएं जैसे प्रचारप्रसार आदि?’’ भवानंद बोले.
‘‘गुरुजी, प्रचारप्रसार तो आप की तरफ से ही होगा,’’ मनोहरजी ने कहा.
‘‘प्रचारप्रसार तो आयोजक ही करते हैं,’’ राधेश्यामजी बोले.
‘‘संजयजी,’’ भवानंद ने कहा, ‘‘हमारे साथ 5 कलाकार होंगे. वैसे तो कलाकार 500 रुपए रोज मांगते हैं. मगर मैं उन्हें 350 रुपए में राजी कर लूंगा. साउंड वाला भी 15 हजार मांगता है, मगर 12 हजार में मान जाएगा. 2 से कम में पंडित नहीं मानेगा. आगे दक्षिणा जो आप चाहो… मैं तो कुछ मांगता ही नहीं, जो श्रद्धा में आप दे दें.’’
‘‘गुरुजी,’’ राधेश्यामजी ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘हम तो समाजसेवा करते हैं. हमारे पास क्या है. हम ने तो पिछले साल हर्षाजी को भी कुछ नहीं दिया था.’’
‘‘चलो, एक काम करना. पूर्णाहुति वाले दिन मंच पर दक्षिणा के नाम पर खाली लिफाफा ही दे देना… हमारा सम्मान हो जाएगा.’’
‘‘नहीं…नहीं…गुरुजी, ऐसी बात नहीं,’’ संजयजी ने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘जो भी बन पड़ेगा, आप के श्रीचरणों में भेंट करेंगे.’’
‘‘अब चढ़ावे की बात कर लें,’’ भवानंद बोले, ‘‘दानपेटी, आरती और पोथी की आवक का कैसा क्या…’’
‘‘वह आवक तो आयोजकों की होती है,’’ संजयजी बोले.
‘‘दानपेटी और पोथी की आवक आप की,’’ संत भवानंद ने कहा, ‘‘मगर आरती के थाल की आवक हमारी होगी, ठीक है?’’
‘‘जी, गुरुजी.’’
‘‘संजयजी,’’ भवानंद ने चर्चा आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पंडाल के बाहर प्रांगण में हमारे कैसेट, सीडी, तसवीरें, किताबों और मालाओं आदि का स्टाल लगेगा, आप को कोई आपत्ति तो नहीं?’’
‘‘नहीं गुरुजी, उस में क्या आपत्ति,’’ संजयजी ने कहा.
‘‘हम 8 लोग आएंगे. यात्रा व्यय, आवास व्यवस्था के अलावा 800 रुपए भोजन खर्चा लगेगा,’’ भवानंद ने कहा.
‘‘गुरुजी,’’ मनोहर ने कहा, ‘‘भोजन सामग्री आप को आवास पर ही मिल जाएगी. एक गाड़ी भी लगा देंगे.’’
‘‘चलो, अच्छा है,’’ भवानंद ने कहा और चर्चा समाप्त हुई.
रामकथा शुरू होने के पहले आयोजकों की फोन पर होने वाली चर्चाओं के अंश कुछ इस प्रकार होते हैं :
‘‘हां, भाई साहब…संजय बोल रहा हूं…अब क्या बताएं…धर्म का काम है, संकल्प लिया है तो करना ही है. पलभर की भी फुर्सत नहीं है. 1 माह हो गया है… दुकान की तरफ तो झांका भी नहीं है.’’
‘‘जी…भाई साहब…खर्चा तो बहुत है, प्रचार, टेंट, अतिथियों का स्वागत, साउंड, कलश यात्रा, शोभा यात्रा सबकुछ जन सहयोग से…हां भाई साहब, जेब से भरना पड़ेगा…आप कुछ सहयोग करें… धन्यवाद. भाई साहब, पुण्य की जड़ पाताल तक…यह धरती आप जैसे दानवीरों, धर्मात्माओं के दम पर ही टिकी हुई है.’’
उधर भवानंद अपनों से इस तरह बात करते हैं, ‘‘अब क्या करें…आयोजकों का प्रबल आग्रह था…स्वीकृति देनी पड़ी…क्या बताएं मलकानीजी, देहली की कथा छोड़नी पड़ी…अब मिलनामिलाना क्या…5-10 हजार अपनी गांठ से ही लगाना है. खैर, कोई बात नहीं है, रामजी का नाम ही लेंगे…’’
‘‘गुरुजी, विजय का फोन है,’’ राधेश्याम चोगा भवानंद को थमाते हैं.
‘‘हां विजय, कथा 7 से है,’’ भवानंद बोलते हैं, ‘‘क्या कहा, 350 रुपए…कलाकारों के इतने भाव कब से हो गए? एक बात 100 रुपए…अच्छा चल, आखिरी बात 150 रुपए…आना हो तो आ…नहीं तो फिर दूसरे से बात करूं… ठीक है… 7 को आ जाना.’’
‘‘राधेश्यामजी, पंडित को फोन लगाना,’’ भवानंद कहते हैं.
राधेश्याम नंबर डायल कर फोन का चोगा थमा देते हैं.
‘‘शास्त्रीजी को प्रणाम,’’ भवानंद पंडितजी से बतियाते हैं, ‘‘हां, 7 तारीख से है. क्या बोले शास्त्रीजी… 200 रुपए… करना क्या है… 4 मंत्र ही तो बोलने हैं. किसी और से बात कर लेते हैं. चलो, 100 रुपए मंजूर है… ठीक है.’’
कथा शुरू होने के पहले आयोजित पत्रकारवार्त्ता. संबोधन के लिए संजय और भवानंद बैठे हैं. सामने बैठे पत्रकारों के बीच प्रिंटेड प्रेसनोट के साथ 5 रुपए वाले बालपेन और 3 रुपए वाले नोटिंगपेड बांटे जाते हैं. संजय की संक्षिप्त भूमिका के बाद पत्रकारवार्त्ता शुरू :
‘‘संजयजी, इस आयोजन के पीछे समिति का उद्देश्य?’’
‘‘जनकल्याण और भगवान राम का नाम जनजन तक पहुंचाना.’’
‘‘स्वामीजी, आप कथा कब से कर रहे हैं?’’
‘‘6 साल की उम्र से,’’ भवानंद ने उत्तर दिया.
‘‘आध्यात्मिक जगत भी भौतिक चकाचौंध के प्रभाव में है, क्या यह ठीक है?’’ एक पत्रकार ने पूछा.
‘‘अनुचित है. संतों को सादगी से रहना चाहिए,’’ भवानंद ने कहा.
‘‘वैसे तो आप ने ब्रह्मचर्य व्रत को आजीवन धारण किया है,’’ एक दुस्साहसी पत्रकार पूछता है, ‘‘मगर सुना है कि आप का भी कोई प्रेम प्रसंग था?’’
‘‘सुनने को तो आप कुछ भी सुन सकते हैं,’’ भवानंद थोड़ा असहज हो कर कहते हैं, ‘‘आप ने जो कुछ सुना है गलत है.’’
‘‘गुरुजी,’’ अगला सवाल, ‘‘आप राजनीति में जाएंगे?’’
‘‘इस का फैसला तो रामजी करेंगे,’’ भवानंद उत्तर देते हैं.
‘‘जनसामान्य के लिए आप का संदेश?’’
‘‘सादगी से रहें. कामनाएं न पालें. छलप्रपंच न करें. मोहमाया से दूर रहें. कथनीकरनी में भेद न हो,’’ भवानंदजी ने ठेठ आध्यात्मिक शैली में कहा, ‘‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए.’’
मानसकथा के 9 दिनों के दौरान, तैरते हुए कुछ वाक्य इस तरह रहे :
भवानंदजी कुछ गुस्साए से कहते हैं, ‘‘राधेश्यामजी, इन कलाकारों को अक्ल कब आएगी. इन से साफसाफ कह दो कि जब मैं मंच पर पहुंचता हूं तो ये मेरे चरण स्पर्श करें. अरे, जब अपने ही लोग मेरा सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरे क्यों करेंगे?’’
‘‘जी, गुरुजी.’’
‘‘और सुनो,’’ भवानंद ने कहा, ‘‘कथा के दौरान झूम कर नाचने वाले स्त्रीपुरुषों का क्या हुआ…उन्हें 20-25 रुपए से ज्यादा नहीं देना.’’
राधेश्याम आयोजकों से संपर्क करते हैं, ‘‘मनोहरजी, भोजन सामग्री समाप्त हो गई है. गुरुजी को खंडेलवालजी के यहां जाना है, गाड़ी पहुंचा दें.’’
उधर से मनोहरजी जवाब देते हैं, ‘‘भोजन सामग्री लाने वाला आज तो कोई नहीं है. गाड़ी इंदौर गई है, कल आएगी.’’
भवानंदजी अपने भाई पर झल्लाते हैं, ‘‘भाई साहब, जरा आरती की थाली पर ध्यान दो. दूसरों को मत थमाओ. खुद ही थाली ले कर पूरे पंडाल में चक्कर लगाओ…आवक कम हो रही है.’’
कथा के अंतिम दिन…भवानंदजी, राधेश्यामजी से कहते हैं, ‘‘राधेश्यामजी, बातें तो बड़ीबड़ी की थीं कि आरती में मंत्रीजी आएंगे, विधायक आएंगे…2 पार्षदों को छोड़ कर कोई नहीं आया. आज आखिरी दिन है…पूछो, आज कौन आएगा और हमारा सम्मान होने वाला था, क्या हुआ?’’
राधेश्यामजी फोन पर संजयजी से बात करते हैं, वह बताते हैं, ‘‘मंत्रीजी तो भोपाल गए हैं. विधायक आरती भी करेंगे और गुरुजी का सम्मान भी.’’
कथा समापन के बाद विदाई की बेला में. भवानंदजी कमरे में दक्षिणा का लिफाफा खोल कर देखने के बाद कहते हैं, ‘‘500 रुपए… इस से तो कचनारिया वालों ने अच्छे दिए थे. 2,100 रुपए. इस समिति का आयोजक संजय तो एक नंबर का काइयां निकला. लगता है मीठामीठा बोल कर सबकुछ दबा कर रख लेना चाहता है. पर मैं ऐसे नहीं चलने दूंगा. राधेश्यामजी, तुम संजय से बात कर लेना कि विदाई में मुझे कम से कम 2,100 रुपए चाहिए ही चाहिए. Social Story
व्यंग्य- रमेश चंद्र शर्मा