Youth Mental Health: युवाओं में क्यों बढ़ रहा डिप्रैशन

Youth Mental Health: 20 से 22 साल की आयु जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव होता है. इस दौरान शिक्षा, कैरियर और रिश्तों में कई बड़े बदलाव आते हैं. इस उम्र में खुशी, रोमांच और उत्साह आदि सबकुछ साथसाथ होता है, साथ ही अनिश्चितताओं और स्ट्रैस की वजह से बहुत अधिक तनाव भी होता है.

नवी मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हौस्पिटल के मनोचिकित्सक डा. पार्थ नागडा कहते हैं कि कम उम्र में कोई भी समस्या युवाओं के लिए तनाव का कारण बन जाती है क्योंकि वे छोटीछोटी चीजों से घबरा जाते हैं. इस का असर उन के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है, इसलिए उन पर नियंत्रण रखना, सही समय पर उपचार कराना जरूरी है.

तनाव से पनपती गंभीर बिमारियां

डाक्टर कहते हैं कि इतनी कम उम्र में लंबे समय तक तनाव में रहने से मानसिक स्वास्थ्य की बड़ी समस्याएं हो सकती हैं. इस दौरान शिक्षा में आगे बढ़ने, एक स्थिर कैरियर हासिल करने और एक अच्छी रिलेशनशिप को बनाए रखने का दबाव, हमारे नैचुरल कोपिंग मैकेनिज्म को प्रभावित कर सकता है, जिस से चिंता या निराशा जैसे डिसऔर्डर दिखाई पड़ सकते हैं. मसलन, घर से दूर रहना, नए रिश्ते बनाना, वित्तीय निर्णय लेना आदि कई वजहों से तनाव बढ़ता है.

‘जर्नल औफ क्लीनिकल मैडिसिन’ में प्रकाशित 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि जीवन के बदलावों से होने वाला तनाव इस आयुवर्ग में मनोवैज्ञानिक संकट को दर्शाता है, जिस का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है.

इस के अलावा लगातार तनाव से युवाओं में कई गंभीर शारीरिक बीमारियां भी हो सकती हैं, जिन में हृदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, अवसाद और चिंता शामिल है. इन्हें समय रहते पहचान लेना जरूरी होता है.

– ऐसा देखा गया है कि अत्यधिक तनाव से हृदय गति और रक्तचाप बढ़ सकता है, जिस से हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है.

– तनाव इंसुलिन प्रतिरोध को बढ़ा सकता है, जिस से मधुमेह का खतरा बढ़ सकता है.

– तनाव से रक्तचाप बढ़ सकता है, जिस से उच्च रक्तचाप और हृदय रोग का खतरा बढ़ सकता है.

– अधिक स्ट्रैस से डिप्रैशन बढ़ सकता है खासकर जब इसे ठीक से मैनेज न किया जाए.

– लगातार स्ट्रैस में रहने पर चिंता और घबराहट हो सकती है जो कई प्रकार के डिसऔर्डर को जन्म देती है.

– अधिक तनाव की वजह से पाचन संबंधी समस्याएं भी आज के यूथ में कौमन हो चुकी हैं.

– अधिक तनाव से इम्यूनिटी कमजोर हो सकती है, जिस से अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है. हालांकि तनाव से ग्रस्त हर युवा को मानसिक बीमारी हो यह जरूरी नहीं, लेकिन जिन में कुछ कमजोरियां पहले से मौजूद हों मसलन परिवार में पहले किसी को मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं होना, आघात या सामाजिक समर्थन की कमी उन के लिए रिस्क हो सकती है.

ऐसे में बीमारी का जल्दी पता लग जाने से उसे इलाज कर ठीक किया जा सकता है. कुछ लक्षण निम्न हैं:

– लगातार चिंता, चिड़चिड़ापन, उदासी या निराशा, रोज के काम करने में असमर्थता, भविष्य के बारे में बहुत अधिक सोचना.

– ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, याददाश्त की समस्याएं.

– थकान, सिरदर्द, नींद की समस्याएं, भूख में बदलाव या बिना किसी कारण के दर्द और पीड़ा का होना.

– खुद को लोगों से अलग कर लेना, अकेले

रहना, नशे का होना, खुद को नुकसान पहुंचाना या लापरवाह ड्राइविंग जैसे जोखिम भरे काम करना.

– आत्महत्या के विचार या खुद को नुकसान पहुंचाने वाले व्यवहार का होना आदि.

पेरैंट्स दें ध्यान

डाक्टर आगे कहते हैं कि पेरैंट्स को यूथ के अलग व्यवहारों को नोटिस करना जरूरी होता है ताकि समय रहते उन का इलाज किया जा सकें. कुछ सुझाव इस प्रकार है:

– यूथ से पेरैंट्स खुली बातचीत करें, एक सुरक्षित और नौनजजमैंटल माहौल बनाएं, जहां यूथ अपनी चिंताओं को व्यक्त कर सकें. तुरंत समाधान सुझाने के बजाय उन की बातों को पूरी और ध्यान से सुनें.

– किसी भी स्थिति, समस्या का सामना स्वस्थ तरीके से करने को प्रोत्साहित करें, जिस में संतुलित दिनचर्या, नियमित व्यायाम, पर्याप्त नींद को बढ़ावा देने से तनाव कम होता जाता है.

– उन की भावनाओं को समझें. उन्हें पूरी फ्रीडम दें, मार्गदर्शन करें, उन्हें उन के निर्णय लेने में सहायता करें. अपनी अपेक्षाओं को उन पर न थोपें. अगर संभव हो तो उन्हें कैरियर या शिक्षा के विकल्प तलाशने में मदद करें.

इलाज जरूरी

कुछ मातापिता ऐसे में पूजापाठ, हवन का सहारा लेते है, जो उन्हें अधिक कमजोर बनाता है. तनावग्रस्त व्यक्ति को निरंतर प्रयास और धैर्य बनाए रखने की जरूरत होती है. अगर ऐसा करना संभव नहीं हो पा रहा है तो डाक्टर की सलाह अवश्य लें. शुरुआती दौर में कुछ थेरैपी से तनाव कम हो जाता है, जबकि अधिक समस्या होने पर दवा की जरूरत पड़ती है.

अधिक प्रतियोगी होना

डाक्टर पर्थ कहते हैं कि आज के युवाओं में तनाव और अवसाद अधिक मात्रा में बढ़ने की वजह का हर मोड़ पर कंपीटिशन का सामना करना है. 23 वर्षीय एक महिला यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए अचानक हुए ब्रेकअप से परेशान थी. उस का मन पढ़ाई में बिलकुल नहीं लग पा रहा था. उसे नींद न आना, चिंता और लोगों से अलग, अकेले रहने जैसे लक्षण विकसित हो चुके थे, जिस से वह बहुत परेशान रहती थी और कुछ भी आगे सोचने में समर्थ नहीं थी. मैं ने मैडिसिन, जीवनशैली में बदलाव, आरईबीटी थेरैपी और परिवार की मदद से उस स्थिति का मुकाबला स्वस्थ तरीके से करने के बारे में सिखाया और आत्मविश्वास हासिल किया.

22 वर्षीय एक युवा ग्रैजुएशन करने के बाद कैरियर की अनिश्चितता से जूझ रहा था, जिस से उसे नशे की लत लग गई. ऐंटीक्रेविंग दवाओं, स्ट्रैस मैनेजमैंट तकनीकों और कैरियर परामर्श ने उस के तनाव को दूर करने और शराब पीने की आदतों को कम करने में मदद की.

लड़कियों में तनाव अधिक

ऐसा देखा गया है कि 20 से 22 वर्ष की युवा लड़कियों में लड़कों की तुलना में चिंता और अवसाद अधिक होता है. इस की वजह अकसर रिश्तों और शैक्षणिक सफलता से जुड़े सामाजिक दबाव का होना है, जिस में एक लड़की को उतनी आजादी नहीं मिलती, जितनी एक लड़के को मिलती है. 36% लड़कियों को जो वे करना चाहती हैं वह करने की आजादी उन्हें नहीं मिलती, इसलिए वे खुदखुशी, खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करती हैं, जबकि 25% लड़के किसी नशे का आदी बन कर घर से बाहर जा कर तनावमुक्त होने की कोशिश करते हैं.

क्या कहते हैं आंकड़े

वैश्विक स्तर पर 7 में से 1 किशोर में मानसिक विकार होता है. इस आयुवर्ग में चिंता और अवसाद के 40% मामले पाए जाते हैं, जबकि 66% छात्रों में खराब ग्रेड की वजह से तनाव होता है, 55% छात्र तैयारी के बावजूद परीक्षाओं को ले कर चिंता में रहते हैं. लड़कों की तुलना में लड़कियां शिक्षा को ले कर अधिक तनाव में रहती हैं. इस के अलावा सोशल मीडिया और साइबर बुलिंग भी तनाव का कारण बनती है. ऐसे में परिवार और दोस्तों का मजबूत समर्थन और समय पर एक्सपर्ट से इलाज बहुत जरूरी है.   Youth Mental Health

Perfume Guide: जानिए परफ्यूम के प्रकार और लगाने का सही तरीका

Perfume Guide: परफ्यूम कोई साधारण चीज नहीं होती. यह आप की मौजूदगी को यादगार बना सकता है. जब कोई आप के पास से गुजरता है और एक हलकी सी खुशबू उस के जेहन में रह जाती है तो समझिए आप ने अपने व्यक्तित्व की एक छाप छोड़ दी है. लेकिन इस असर के लिए सिर्फ अच्छी खुशबू होना काफी नहीं, उसे सही तरीके से लगाना भी आना चाहिए.

परफ्यूम लगाने का सब से अच्छा तरीका यह है कि उसे सीधा त्वचा पर लगाया जाए न कि सिर्फ कपड़ों पर. शरीर के जिन हिस्सों में नब्ज चलती है जैसे कलाई, गरदन, कान के पीछे या कुहनियों के अंदरूनी हिस्से वहां परफ्यूम लगाना ज्यादा असरदार होता है क्योंकि वहां की गरमी खुशबू को धीरेधीरे फैलने में मदद करती है.

परफ्यूम नहाने के बाद लगाना सब से अच्छा होता है लेकिन त्वचा पूरी तरह सूखी होनी चाहिए. बहुत सी महिलाएं परफ्यूम लगाने के बाद कलाई रगड़ती हैं जो एक आम गलती है. इस से खुशबू के ऊपरी नोट्स उड़ जाते हैं और उस का असर कम हो जाता है. बस स्प्रे कीजिए और उसे अपनेआप सूखने दीजिए.

मात्रा का भी ध्यान रखना जरूरी

2 से 4 स्प्रे पर्याप्त होते हैं. बहुत ज्यादा परफ्यूम लोगों को असहज कर सकता है जबकि हलकी और संतुलित खुशबू लंबे समय तक आकर्षित करती है.

अब बात करते हैं कि परफ्यूम के कौनकौन से प्रकार होते हैं और उन्हें कब और क्यों चुनना चाहिए.

सब से पहले आता है लिक्विड स्प्रे परफ्यूम, जिस में Eau de Parfum(EDP)  और Eau de toilette (EDT) शामिल हैं. EDP में खुशबू का तेल अधिक होता है इसलिए यह ज्यादा देर तक टिकता है और खास मौकों के लिए उपयुक्त होता है. वहीं EDT में खुशबू हलकी होती है जो दिनभर के लिए खासकर औफिस या बाहर के काम के लिए आदर्श है.

आजकल सौलिड परफ्यूम का चलन भी बढ़ गया है. यह छोटे डब्बों में मिलता है और बाम जैसा होता है. इसे उंगली से ले कर कलाई, गरदन या कान के पीछे लगाया जा सकता है. यह लीक नहीं करता और यात्रा के लिए बहुत सुविधाजनक होता है. यदि आप सादा, साफ और निजी खुशबू पसंद करती हैं तो यह आप के लिए उपयुक्त है.

रोल औन परफ्यूम भी एक सरल विकल्प है, जिस में एक छोटा बौल होता है, जिस से परफ्यूम सीधे त्वचा पर लगाया जाता है, इस में वेस्टेज कम होती है और खुशबू देर तक बनी रहती है. यह अकसर अल्कोहल फ्री होता है इसलिए संवेदनशील त्वचा वालों के लिए अच्छा विकल्प माना जाता है.

बौडी मिस्ट हलकी और तरोताजा खुशबू देता है. इसे पूरे शरीर पर लगाया जा सकता है खासकर नहाने के बाद. गरमियों में या जब दिनभर बाहर रहना हो तब इस का इस्तेमाल राहत देता है. हां इसे दिन में 2-3 बार दोहराना पड़ता है क्योंकि इस की टिकाऊ क्षमता कम होती है.

इत्र परंपरा से जुड़ी वह खुशबू है जिसे लोग पीढि़यों से इस्तेमाल करते आ रहे हैं. यह एक तरह का शुद्ध परफ्यूम औयल होता है जिस में अल्कोहल नहीं होता. इस की सिर्फ 1 बूंद ही काफी होती है और यह दिनभर टिका रहता है. यह खासतौर पर पारंपरिक अवसरों या उत्सवों में इस्तेमाल किया जाता है.

ये खास सुझाव भी ध्यान में रखें

– बालों पर हलका परफ्यूम स्प्रे किया जा सकता है लेकिन सीधे स्कैल्प पर नहीं लगाना चाहिए.

– परफ्यूम को कभी सीधी धूप या गरमी में न रखें क्योंकि इस से उस की गुणवत्ता खराब हो जाती है.

– एकसाथ 2 अलगअलग परफ्यूम मिला कर न लगाएं क्योंकि इस से खुशबू टकरा सकती है और मनचाहा प्रभाव नहीं पड़ता.

खुशबू सिर्फ एक सुंदर एहसास नहीं बल्कि आप की पहचान भी है. आप क्या पहनते हैं, लोग एक बार देखेंगे लेकिन आप कैसी खुशबू छोड़ते हैं वह उन्हें लंबे समय तक याद रहती है. इसलिए अगली बार परफ्यूम लगाते समय सिर्फ उस की महक के बारे में न सोचें, सोचिए वह आप के बारे में क्या कहेगी. Perfume Guide

Beauty Tips: मार्केट में मिलने वाली फेयरनैस क्रीम सच में रंग गोरा करती है?

Beauty Tips

क्या मार्केट में मिलने वाली फेयरनैस क्रीम सच में रंग गोरा कर देती है?

ज्यादातर फेयरनैस क्रीम इंस्टैंट ब्राइटनैस देती हैं लेकिन असली गोरा रंग देने का दावा सही नहीं होता. ये क्रीम्स अकसर स्किन को टंपरेरली ब्लीच करती हैं या उस में लाइट रिफ्लैक्टिंग पार्टीकल्स मिलाए जाते हैं जिस से चेहरा थोड़ा साफ दिखता है. लेकिन लंबे समय में इन का ज्यादा इस्तेमाल स्किन को डल और ड्राई बना सकता है और कई बार तो पिगमैंटेशन भी बढ़ सकते हैं. इस के बजाय अपनी स्किन को हैल्दी बनाने पर ध्यान दें जैसेकि सन प्रोटैक्शन, हाइड्रेशन, ऐक्सफौलिएशन और सही डाइट ताकि आप के नैचुरल कौंप्लैक्सन में ग्लो आ सके. गोरा होना जरूरी नहीं, साफ और निखरी स्किन ज्यादा जरूरी है.

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क्या ऐलोवेरा हर स्किन टाइप पर सूट करता है?

ऐलोवेरा एक बेहद गुणकारी पौधा है जो ज्यादातर स्किन टाइप्स पर अच्छा असर करता है लेकिन कुछ महिलाओं की स्किन बहुत सैंसिटिव होती है और उन्हें इस से इरिटेशन या लालिमा हो सकती है. पहली बार इस्तेमाल करने से पहले थोड़ा सा ऐलोवेरा जैल हाथ पर लगा कर पैच टैस्ट करना सही रहता है. अगर कोई जलन या खुजली न हो तो आप इसे चेहरे पर इस्तेमाल कर सकती हैं. अगर फ्रैश ऐलोवेरा लगा रही हैं तो उस के पत्ते को हलका सा कट कर कुछ देर उलटा कर के रख दें. उस में से एक ऐलो लिक्विड निकल जाएगा फिर इसे धो कर इस्तेमाल कर सकती हैं. ऐलोवेरा औयली स्किन पर भी अच्छा काम करता है क्योंकि यह हलका होता है और त्वचा को हाइड्रेट करता है बिना चिपचिपेपन के. ड्राई स्किन वालों के लिए इसे क्रीम या औयल के साथ मिला कर इस्तेमाल करना बेहतर रहता है.

बालों में हर दिन तेल लगाना जरूरी है क्या?

हर दिन तेल लगाना जरूरी नहीं होता बल्कि हफ्ते में 1 या 2 बार अच्छा तेल लगाना ज्यादा फायदेमंद रहता है. जरूरी तो मसाज है. रोज बालों में तेल लगाने से धूल और गंदगी ज्यादा चिपक सकती है, जिस से स्कैल्प ब्लौक हो जाती है और बाल झड़ने भी लगते हैं. तेल लगाते समय हलके हाथों से मसाज करें और कम से कम 1 घंटे बाद बाल धो लें. कुछ महिलाएं रातभर तेल लगा कर सोना पसंद करती हैं लेकिन अगर स्कैल्प सैंसिटिव है तो इस से दाने या खुजली भी हो सकती है. इसलिए अपनी स्कैल्प की जरूरत के हिसाब से तेल लगाना ज्यादा बेहतर है. अगर आराम और मसाज के लिए तेल लगा रही हैं और आप के बाल औयली हैं तो तेल के बदले हेयर टौनि

लगा कर भी मसाज कर सकती हैं.

Hindi Love Story: बेइंतहा मोहब्बत की कहानी

Hindi Love Story: दिसंबर का पहला पखवाड़ा चल रहा था. शीतऋतु दस्तक दे चुकी थी. सूरज भी धीरेधीरे अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहा था और उस की किरणें आसमान में लालिमा फैलाए हुए थीं. ऐसा लग रहा था मानो ठंड के कारण सभी घर जा कर रजाई में घुस कर सोना चाहते हों. पार्क लगभग खाली हो चुका था, लेकिन हम दोनों अभी तक उसी बैंच पर बैठे बातें कर रहे थे. हम एकदूसरे की बातों में इतने खो गए थे कि हमें रात्रि की आहट का भी पता नहीं चला. मैं तो बस, एकाग्रचित्त हो अखिलेश की दीवानगी भरी बातें सुन रही थी.

‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं रीमा, मुझे कभी तनहा मत छोड़ना. मैं तुम्हारे बगैर बिलकुल नहीं जी पाऊंगा,’’ अखिलेश ने मेरी उंगलियों को सहलाते हुए कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो अखिलेश, मैं तो हमेशा तुम्हारी बांहों में ही रहूंगी, जिऊंगी भी तुम्हारी बांहों में और मरूंगी भी तुम्हारी ही गोद में सिर रख कर.’’

मेरी बातें सुनते ही अखिलेश बौखला गया, ‘‘यह कैसा प्यार है रीमा, एक तरफ तो तुम मेरे साथ जीने की कसमें खाती हो और अब मेरी गोद में सिर रख कर मरना चाहती हो? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं तुम्हारे बिना जी कर क्या करूंगा? बोलो रीमा, बोलो न.’’ अखिलेश बच्चों की तरह बिलखने लगा.

‘‘और तुम… क्या तुम उस दूसरी दुनिया में मेरे बगैर रह पाओगी? जानती हो रीमा, अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो क्या कहता,’’ अखिलेश ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘यदि तुम इस दुनिया से पहले चली जाओगी तो मैं तुम्हारे पास आने में बिलकुल भी देर नहीं करूंगा और यदि मैं पहले चला गया तो फिर तुम्हें अपने पास बुलाने में देर नहीं करूंगा, क्योंकि मैं तुम्हारे बिना कहीं भी नहीं रह सकता.’’

अखिलेश का यह रूप देख कर पहले तो मैं सहम गई, लेकिन अपने प्रति अखिलेश का यह पागलपन मुझे अच्छा लगा. हमारे प्यार की कलियां अब खिलने लगी थीं. किसी को भी हमारे प्यार से कोई एतराज नहीं था. दोनों ही घरों में हमारे रिश्ते की बातें होने लगी थीं. मारे खुशी के मेरे कदम जमीन पर ही नहीं पड़ते थे, लेकिन अखिलेश को न जाने आजकल क्या हो गया था. हर वक्त वह खोयाखोया सा रहता था. उस का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था. शरीर भी काफी कमजोर हो गया था.

मैं ने कई बार उस से पूछा, लेकिन हर बार वह टाल जाता था. मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता था, जैसे वह मुझ से कुछ छिपा रहा है. इधर कुछ दिनों से वह जल्दी शादी करने की जिद कर रहा था. उस की जिद में छिपे प्यार को मैं तो समझ रही थी, मगर मेरे पापा मेरी शादी अगले साल करना चाहते थे ताकि मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर लूं. इसलिए चाह कर भी मैं अखिलेश की जिद न मान सकी.

अखिलेश मुझे दीवानों की तरह प्यार करता था और मुझे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. यह बात मुझे उस दिन समझ में आ गई जब शाम को अखिलेश ने फोन कर के मुझे अपने घर बुलाया. जब मैं वहां पहुंची तो घर में कोई भी नहीं था. अखिलेश अकेला था. उस के मम्मीपापा कहीं गए हुए थे. अखिलेश ने मुझे बताया कि उसे घबराहट हो रही थी और उस की तबीयत भी ठीक नहीं थी इसलिए उस ने मुझे बुलाया है.

थोड़ी देर बाद जब मैं उस के लिए कौफी बनाने रसोई में गई, तभी अखिलेश ने पीछे से आ कर मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया, मैं ने घबरा कर पीछे हटना चाहा, लेकिन उस की बांहों की जंजीर न तोड़ सकी. वह बेतहाशा मुझे चूमने लगा, ‘‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता रीमा, जीना तो दूर तुम्हारे बिना तो मैं मर भी नहीं पाऊंगा. आज मुझे मत रोको रीमा, मैं अकेला नहीं रह पाऊंगा.’’

मेरे मुंह से तो आवाज तक नहीं निकल सकी और एक बेजान लता की तरह मैं उस से लिपटती चली गई. उस की आंखों में बिछुड़ने का भय साफ झलक रहा था और मैं उन आंखों में समा कर इस भय को समाप्त कर देना चाहती थी तभी तो बंद पलकों से मैं ने अपनी सहमति जाहिर कर दी. फिर हम दोनों प्यार के उफनते सागर में डूबते चले गए और जब हमें होश आया तब तक सारी सीमाएं टूट चुकी थीं. मैं अखिलेश से नजरें भी नहीं मिला पा रही थी और उस के लाख रोकने के बावजूद बिना कुछ कहे वापस आ गई.

इन 15 दिन में न जाने कितनी बार वह फोन और एसएमएस कर चुका था. मगर न तो मैं ने उस के एसएमएस का कोई जवाब दिया और न ही उस का फोन रिसीव किया. 16वें दिन अखिलेश की मम्मी ने ही फोन कर के मुझे बताया कि अखिलेश पिछले 15 दिन से अस्पताल में भरती है और उस की अंतिम सांसें चल रही हैं. अखिलेश ने उसे बताने से मना किया था, इसलिए वे अब तक उसे नहीं बता पा रही थीं.

इतना सुनते ही मैं एकपल भी न रुक सकी. अस्पताल पहुंचने पर मुझे पता चला कि अब उस की जिंदगी के बस कुछ ही क्षण बाकी हैं. परिवार के सभी लोग आंसुओं के सैलाब को रोके हुए थे. मैं बदहवास सी दौड़ती हुई अखिलेश के पास चली गई. आहट पा कर उस ने अपनी आंखें खोलीं. उस की आंखों में खुशी की चमक आ गई थी. मैं दौड़ कर उस के कृशकाय शरीर से लिपट गई.

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं अखिलेश, सिर्फ ‘कौल मी’ लिख कर सैकड़ों बार मैसेज करते थे. क्या एक बार भी तुम अपनी बीमारी के बारे में मुझे नहीं बता सकते थे? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा गम बांट सकूं?‘‘

‘‘मैं हर दिन तुम्हें फोन करता था रीमा, पर तुम ने एक बार भी क्या मुझ से बात की?’’

‘‘नहीं अखिलेश, ऐसी कोई बात नहीं थी, लेकिन उस दिन की घटना की वजह से मैं तुम से नजरें नहीं मिला पा रही थी.’’

‘‘लेकिन गलती तो मेरी भी थी न रीमा, फिर तुम क्यों नजरें चुरा रही थीं. वह तो मेरा प्यार था रीमा ताकि तुम जब तक जीवित रहोगी मेरे प्यार को याद रख सकोगी.’’

‘‘नहीं अखिलेश, हम ने साथ जीनेमरने का वादा किया था. आज तुम मुझे मंझधार में अकेला छोड़ कर नहीं जा सकते,’’ उस के मौत के एहसास से मैं कांप उठी.

‘‘अभी नहीं रीमा, अभी तो मैं अकेला ही जा रहा हूं, मगर तुम मेरे पास जरूर आओगी रीमा, तुम्हें आना ही पड़ेगा. बोलो रीमा, आओगी न अपने अखिलेश के पास’’,

अभी अखिलेश और कुछ कहता कि उस की सांसें उखड़ने लगीं और डाक्टर ने मुझे बाहर जाने के लिए कह दिया.

डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद अखिलेश को नहीं बचाया जा सका. मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई थी. मेरा तो सुहागन बनने का रंगीन ख्वाब ही चकनाचूर हो गया. सब से बड़ा धक्का तो मुझे उस समय लगा जब पापा ने एक भयानक सच उजागर किया. यह कालेज के दिनों की कुछ गलतियों का नतीजा था, जो पिछले एक साल से वह एड्स जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहा था. उस ने यह बात अपने परिवार में किसी से नहीं बताई थी. यहां तक कि डाक्टर से भी किसी को न बताने की गुजारिश की थी.

मेरे कदमों तले जमीन खिसक गई. मुझे अपने पागलपन की वह रात याद आ गई जब मैं ने अपना सर्वस्व अखिलेश को समर्पित कर दिया था.

आज उस की 5वीं बरसी है और मैं मौत के कगार पर खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही हूं. मुझे अखिलेश से कोई शिकायत नहीं है और न ही अपने मरने का कोई गम है, क्योंकि मैं जानती हूं कि जिंदगी के उस पार मौत नहीं, बल्कि अखिलेश मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहा होगा.

मैं ने अखिलेश का साथ देने का वादा किया था, इसलिए मेरा जाना तो निश्चित है परंतु आज तक मैं यह नहीं समझ पाई कि मैं ने और अखिलेश ने जो किया वह सही था या गलत?

अखिलेश का वादा पक्का था, मेरे समर्पण में प्यार था या हम दोनों को प्यार की मंजिल के रूप में मौत मिली, यह प्यार था. क्या यही प्यार है? क्या पता मेरी डायरी में लिखा यह वाक्य मेरा अंतिम वाक्य हो. कल का सूरज मैं देख भी पाऊंगी या नहीं, मुझे पता नहीं. Hindi Love Story

Social Story : घर और घाट – पति की मौत के बाद क्या हुआ रीता के साथ

Social Story : मेरे पति आकाश का देहांत हो गया था. उम्र 35 की भी नहीं हुई थी. उन्हें कोई लंबी बीमारी नहीं थी. बस, अचानक दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. अभी तक तो मित्रगण आते रहे थे, लेकिन पति के देहांत के बाद कोई नहीं आया. इस में उन का भी दोष नहीं. वहां की जिंदगी थी ही इतनी व्यस्त.

पहली 3 रातें मेरे साथ किरण सोई थी. अब से रातें अकेले ही गुजारनी थीं. शायद हफ्ता गुजरने तक दिन भी अकेले बिताने होंगे. क्या करूंगी, कहां रहूंगी, कुछ सोचा नहीं था.

यों तो कहने को मेरी ननद भी अमेरिका में ही रहती थीं लेकिन वह ऐसे मौके पर भी नहीं आई थीं. साल भर पहले कुछ देर के लिए आई थीं. तब मुझ से कह गई थीं, ‘रीता, आकाश बचपन से बड़ा विनोदप्रिय किस्म का है. तुम्हें दोष नहीं देती, लेकिन आकाश को कुछ हो गया तो भुगतोगी तुम ही. तुम लोगों की शादी को 10 बरस हो गए. देखती हूं पहले आकाश की हंसी जाती रही. फिर माथे पर अकसर बल पड़े रहने लगे. साथ ही वह चुप भी रहने लगा. 5 बरस से सिगरेट और शराब का सहारा भी लेने लगा है. रक्तचाप से शुरुआत हुई तनाव की. उस का कोलेस्ट्राल का स्तर ज्यादा है…’

मुझे तो लगता है उन को और कुछ नहीं था, बस, दीदी ही की टोकाटाकी खा गई थी. उन से मेरा सुख नहीं देखा गया था.

रहरह कर अतीत मेरे दिमाग में घूमने लगा. मैं ने दशकों से बहुओं के ऊपर होते हुए अत्याचारों को देखतेसुनते मन में ठान ली थी कि मैं कभी अपने ऊपर किसी की ज्यादती नहीं होने दूंगी. अगर आप जुल्म न सहें तो कोई कर ही कैसे सकता है. इस तरह समस्या जड़ से ही उखड़ जाएगी.

लेकिन मैं जैसी शरीर की बेडौल हूं वैसी अक्ल की भी मोटी हूं. मेरी लंबाई कम और चौड़ाई ज्यादा है. जहां तक खूबसूरती का सवाल है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ होगी ही वरना क्यों आकाश जैसा खूबसूरत नौजवान, वह भी अमेरिका में बसा हुआ सफल इंजीनियर, मुझ 18 बरस की अल्हड़ को एक ही बार देख पसंद कर लिया था. ऊपर से उन्होंने न तो दहेज की मांग की थी, न ही खर्च की नोकझोंक हुई थी.

मेरे मांबाप भी होशियार निकले थे. उन्होंने एक बार की ‘हां’ के बाद आकाश और उस के कितने रिश्तेदारों के कहने पर भी उन्हें एक और झलक न मिलने दी थी. मां ने कह दिया था, ‘शादी के बाद सुबहशाम अपनी दुलहन को बैठा कर निहारना.’

डर तो था ही कि कहीं लेने के देने न पड़ जाएं. मां ने शादी के वक्त भी अपारदर्शी साड़ी में मुझ को नख से शिख तक छिपाए रखा था. क्या मालूम बरात ही न लौट जाए. खैर, जैसेतैसे शादी हो गई और मैं सजीधजी ससुराल पहुंच गई.

अभी तक तो घूंघट में कट गई. मरफी का सिद्धांत है कि यदि कुछ गलत होने की गुंजाइश है तो अवश्य हो कर रहेगा. मैं कमरे में आ कर बैठी ही थी कि ननद ने पीछे से आ कर घूंघट सरका दिया. मैं बुराभला सब सुनने को तैयार थी. मगर किसी ने कुछ कहा ही नहीं. मुंह दिखाई के नाम पर कुछ चीजें और रुपए मिलने अवश्य शुरू हो गए. दीदी तो अमेरिका से आई थीं. उन्होंने वहीं का बना खूबसूरत सैट मुझे मुंह दिखाई में दिया. बाकी रिश्तेदार और अड़ोसीपड़ोसी भी आते रहे.

इतने में ददिया सास आईं. दीदी झट बोलीं, ‘लता, जरा आगे बढ़ कर दादीजी के पैर छू लो.’

मैं ने वहीं बैठेबैठे जवाब दे दिया, ‘पैर छुआने का इतना ही शौक था तो ले आतीं गांव की गंवार. मैं तो बी.ए. पास शहरी लड़की हूं.’

दीदी को ऐसा चुप किया कि वह उलटे पांव लौट गईं. कुछ देर बाद एक कमरे के पास से गुजर रही थी तो खुसरफुसर सुनाई पड़ी, ‘इस को इतना गुमान है बी.ए. करने का. एक आकाश की मां एम.ए. पास आई थी, जिस के मुंह से आज तक भी कोई ऐसीवैसी बात नहीं सुनी.’

अब आप ही बताइए, सास के एम.ए. करने का मेरे पैर छूने से क्या सरोकार था? खैर, मुझे क्या पड़ी थी जो उन लोगों के मुंह लगती. मुझे कल मायके चले जाना था, उस के 4 दिन बाद आकाश के संग अमेरिका. वहां दीदी जरूर मेरी जान की मुसीबत बन कर 4 घंटे की दूरी (200 किलोमीटर) पर रहेंगी. मैं पहले दिन से ही संभल कर रहूंगी तो वह मेरा क्या बिगाड़ लेंगी. अनचाहे ही मुझे किसी कवि की लिखी पंक्ति याद आ गई, ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात.’

लेकिन देखूंगी, दीदी की क्षमा कब तक चलेगी मेरे उत्पात के सामने. बड़ी आई थीं मेरे से दादीजी के पैर छुआने. डाक्टर होंगी तो अपने लिए, मेरे लिए तो बस, एक सठियाई हुई रूढि़वादी ननद थीं.

सच पूछिए तो पिछले 4 दिन में मैं एक बार भी उन को याद नहीं आई थी. मैं पिछले दिनों अपनी एक सहेली के यहां गई थी. पूरा 1 महीना उस की देवरानी उस के घर रह कर गई थी. एक मेरी ननद थीं, जिन के चेहरे पर जवान भाई के मरने पर शिकन तक नहीं आई थी.

जब मैं 10 बरस पहले आकाश के साथ इस घर में घुसी थी तो गुलाब के फूलों का गुलदस्ता हमारे लिए पहले से इंतजार कर रहा था. उसे ननद ने भेजा था. आकाश ने मुझ को घर की चाबी थमा दी थी, लेकिन मुझे ताला खोलते हुए लगा था जैसे ननद वहां पहले से ही विराजमान हों.

घर क्या था, जैसे किसी राजकुमार की स्वप्न नगरी थी. मुझ को तो सबकुछ विरासत में ही मिला था. भले ही वह सब आकाश की 4 साल की कड़ी मेहनत का इनाम था. मैं इतनी खुश थी कि मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मेरे सब संबंधियों में इतना अच्छा घरबार उन के खयाल से भी दूर की चीज थी.

मैं ने गुलाब के फूल बैठक में सजा लिए. मगर दीदी का शुक्रिया तो क्या अदा करती, उन की रसीद तक नहीं पहुंचाई. दोचार दिन बाद उन का फोन आया तो कह दिया, ‘हां, मिल तो गए थे.’

एक बार दीदी शुरू में सपरिवार आई थीं. वह रात को 9 बजे पहुंचने वाली थीं. भला इतनी रात गए तक कौन उन लोगों के लिए इंतजार करता. मैं ने 8 बजे ही खाना लगा दिया था. आकाश कुछ बोलते, इस से पहले ही मैं ने सुना कर कह दिया, ‘9 बजे आने के लिए कहा है. फिर भी क्या भरोसा, कब तक आएं? आप खाना खा लो.’

वह न चाहते हुए भी खाने बैठ गए थे. अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं बोली, ‘अब खाना खाते हुए तो मत उठो. पहले खाना खत्म कर लो फिर दरवाजा खोलना.’

खाना खा कर आकाश दरवाजा खोलने गए. मैं बरतन मांजने लगी. उधर न पहुंची तो 15 मिनट बाद ही दीदी रसोई में आ गईं और नमस्ते कर के लौट गईं. मैं ने उन सब का खाना लगा दिया.

दीदी ने हम से भी खाने को पूछा. फिर बोलीं, ‘इस देश में खाने की कमी नहीं है. हर चौराहे पर मिलता है. साथ न खाना था तो कह देते, हम खा कर आते.’

तो क्या मैं ने कहा था कि यहां आ कर खाएं या उन को किसी डाक्टर ने सलाह दी थी? मैं ने सिरदर्द का बहाना बनाया और ऊपर शयनकक्ष में चली गई. खुद ही निबटें अपने भाईजान से.

सुबह उठी तो दीदी चाय बना रही थीं, ‘क्या खालाजी का घर समझ रखा है, जो पूछने की भी जरूरत न समझी?’ मैं ने दीदी को लताड़ा, ‘आप ने क्या समझा था कि मैं आप को उठ कर चाय भी नहीं दूंगी.’

मेरी रसोई को अपनी रसोई समझा था. उस के बाद कभी दीदी को मेरी रसोई में घुसने की हिम्मत न हुई.

मैं ने दीदी को नहानेधोने के लिए 2 तौलिए दिए तो वह 2 बच्चों के लिए और मांग बैठीं. अपने घर में 4 तौलिए इस्तेमाल करें या 8, यहां एक दिन 2 तौलियों से काम नहीं चला सकती थीं? मैं ने एक पुराना सा तौलिया और दे दिया. आखिर मेरा घर है, जो चाहूंगी करूंगी.

उस के बावजूद कुछ ही दिनों बाद दीदी अचानक दोनों बच्चों के साथ मेरे यहां आ धमकीं. रात को देर तक आकाश से बातें करती रही थीं. वह पति महोदय से खटपट कर के आई थीं. मैं पूछ बैठी, ‘आप ने तो अपनी इच्छा से प्रेम विवाह किया था. फिर अब किस बात का रोना?’ दीदी से कुछ जवाब देते न बना.

मैं तो घबरा गई. कहीं दीदी जिंदगी भर मेरे घर डेरा न डाल लें. अगली सुबह आकाश दफ्तर गए और मैं सोती दीदी के पास ही पहुंच गई, ‘दीदी, वापस लौटने के बारे में क्या सोचा है?’

समझदार को इशारा काफी है. उन्होंने हमारे घर रह पति महोदय से बिलकुल बात न बढ़ाई. उसी दिन जीजाजी को फोन किया और शाम को वापस अपने घर लौट गईं. बस, समझ लीजिए तभी से उन का हमारे यहां आनाजाना कुछ खास नहीं रहा. हम ही उन के यहां साल में 2-3 दिन के लिए चले जाते थे. जाते भी क्यों न, वह बड़े आग्रह से बुलाती जो थीं. बुलातीं भी क्यों न, आखिर उन की पति से कम ही पटती थी. हम से भी नाता तोड़ लेतीं तो आड़े वक्त में कहां जातीं? कौन काम आता?

और फिर उन पर क्या जोर पड़ता था हमें बुलाने में. उन्होंने खाना बनाने को एक विधवा फुफेरी सास को साथ रखा हुआ था. घर की सफाई करने वाली अलग आती थी.

एक बार दीदी भारत गईं तो मेरे लिए मां ने उन के साथ कुछ सामान भेजा. जब मुझे सामान मिला तो उस में से एक कटहल के अचार का डब्बा गायब था, ‘दीदी, अचार चाहिए था तो आप कह देतीं, मैं आप के लिए भी मंगा देती. चोरी करना तो बहुत बुरी बात है.’

बाद में मां ने बताया कि अचार का डब्बा भेजने से रह गया था. बात आईगई हो चुकी थी, तो मैं ने फिर दीदी से कुछ कहने की जरूरत न समझी.

अभी पिछले दिनों दीदी फिर भारत गई थीं. उन्होंने लौट कर फोन किया, ‘लता, तुम्हारे मांबाबूजी से मिल कर आ रही हूं. सब मजे में हैं. मगर तुम्हारे लिए कुछ नहीं भेजा है.’

‘हां, मैं ने ही मां को मना कर दिया था कि हर ऐरेगैरे के हाथ कुछ न भेजा करें. फिर भी मां किसी न किसी के हाथों सामान भेजती रहती हैं. एक पार्सल तो पिछले 8 बरस से आ रहा है. एक 6 महीने बाद मिला था.’

खैर, जो हुआ सो हुआ. मैं अतीत को भूल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. मुझ को अकेले नींद नहीं आ रही थी. रात के 2 बज गए थे. एक तरफ आंसू नहीं थम रहे थे और दूसरी तरफ डर भी लग रहा था इतने बड़े घर में. भूख लग रही थी मगर…मैं अकेली थी…बिलकुल अकेली. शरीर टूट सा रहा था.

मैं मां को भारत ट्रंककाल करने लगी, ‘‘मां, आप कुछ दिनों के लिए अमेरिका आ जाइए. मैं आप का टिकट भेज देती हूं.’’

मां अपनी मजबूरी सुनाने लगीं. विरासत में मिला सुख कुछ भी तो काम नहीं आ रहा था. पति के मरते ही कुछ भी अपना न रहा था. 10 बरस बाद भी उस घर में न तो कोई अपनापन था, न ही देश में.

आकाश 1 लाख डालर छोड़ कर मरे थे. मैं एअर इंडिया को फोन करने लगी, ‘‘मैं वापस भारत जाना चाहती हूं. अपने घर.’’

भारत लौट कर पीहर पहुंची तो वहां कुछ और ही नजारा पाया. भाई की शादी हो चुकी थी, सो एक कमरा भाईभाभी का और दूसरे में मेरे मांबाबूजी. मेरा बैठक में सोने का प्रबंध कर दिया था. मेरा सामान मां के साथ. सुबह बिस्तर समेटते ऐसा लगता था, जैसे उस घर में मैं फालतू थी. मैं ने सोचा, ‘सहना शुरू किया तो जिंदगी भर सहती ही रहूंगी. ऐसी कोई गईगुजरी स्थिति मेरी भी नहीं है. आखिर 10 लाख रुपए ले कर लौटी हूं. चाहूं तो इन चारों को खरीद लूं.’

एक दिन भाभीजान फरमाने लगीं, ‘‘दीदी, पूरी तलवाने में मदद कर दो न, मैं बेलती जाती हूं.’’

आखिर भाभी ने मुझे समझ क्या रखा था…मैं नौकरानी बन कर आई थी क्या वहां? इतना पैसा था मेरे पास कि 10 नौकर रख देती. लेकिन बात बढ़ाने से क्या फायदा था. मैं कुछ भी नहीं बोली थी. मदद नहीं करनी थी, सो नहीं की.

खाना खाने के वक्त भाभी ने अपना खाना परोसा और खाने लगीं. मैं ने भी ले तो लिया, मगर वह बात मेरे मन को चुभ गई. जब मांबाबूजी ही सब बातों में चुपी लगाए थे तो भाभी तो मेरी छाती पर मूंग दलेंगी ही.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे आने का तुम लोगों को इतना कष्ट हो रहा है तो मैं वापस चली जाती हूं. मेरे पास जितना पैसा है, मैं उतने में जिंदगी भर मजे से रहूंगी. न किसी से कहना, न सुनना.’’

कोई कुछ भी न बोला. मैं सन्नाटे में रह गई. मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरे मांबाबूजी ही इतने बेगाने हो जाएंगे. फिर ससुराल से ही क्या आशा करती.

घर छोड़ते हुए मेरे आंसू टपक पड़े. मैं फिर अकेली हो गई थी. बिलकुल अकेली. बिलकुल धोबी का कुत्ता बन कर रह गई, न घर की न घाट की.

Parivarik Kahani: कितना झूठा सच- वीरेन नें मां के लिए क्या कहा था

Parivarik Kahani: ‘बेचारी, जीवन भर दुख ही उठाती रही. अब ऊपर से वैधव्य…’

दुख और संवेदना प्रकट करती सब महिलाएं उठ कर चली गईं. रेवा जड़ सी बैठी रही.

‘‘आप चल कर जरा लेटिए. मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ नीना ने आ कर उसे संभाला. बेजान गुडि़या सी रेवा पलंग पर आ कर लेट गई.

कितना झूठा सत्य? जो जीवन भर सर्पदंश सा उस के एकएक क्षण को विषाक्त करता रहा वही आज समुद्र मंथन से निकले गरल घट सा सहस्र धाराओं में बंट कर उसे व्याकुल कर रहा था, पर वह तो शिव नहीं थी जो इसे पी कर भी जीवित रहती. और वह अब जीना चाहती थी. किस के लिए मरे? किन मधुर क्षणों की थाती सहेजे? सोलह शृंगार कर सामाजिक मर्यादा की चिता पर चढ़ कर सती हो जाए? जीवन भर तो जल ही चुकी थी.

इंद्रधनुषी सपनों के रंग अभी सूखने भी न पाए थे कि वीरेन ने उपेक्षा की स्याही फेंक कर उन्हें बदरंग कर दिया था. फिर भी उस ने सजानेसंवारने का कितना प्रयत्न किया था. आंखकान पर  जबरदस्ती भ्रम की मनों रुई का भार डाल कर अंधीबहरी बन जाना चाहा था, परंतु यह भी क्या सहज था?

पागल सी हो कर मरीचिका के पीछे भागती वह सपनों के रंग समेटती, उन्हें क्रम से लगाती, पर वे बारबार उसे छलावा दे जाते, खंडखंड हो कर बिखर जाते और क्षितिज उतना ही दूर दिखता जितना प्रारंभ में था. भागतेभागते वह हांफ गई थी. शाम के ढलते सूरज की तरह घिसटघिसट कर पहुंचे भी तो कुछ हाथ आने वाला नहीं था. वहां बाकी था केवल एक स्याह अंधेरा.

जीवन की संध्या पर गुल्लू की तोतली बातों, पिंकी की हंसी और नन्हे की शरारतों का सलोना सिंदूरी रंग बिखरा हुआ था. यही एक थाती बच रही थी और आज रिश्तेनाते तथा आसपड़ोस की औरतें समझाने आ धमकी थीं कि इस सिंदूरी आभा पर वह वैधव्य की राख उड़ा कर, सामाजिक नियमों का पालन कर उसे गंदला कर ले.

पिछले महीने तार आया था कि वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है. बेजान कागज का टुकड़ा लिए वह दीवान पर बैठी रह गई थी. नीना ने आ कर पढ़ा.

‘‘फोन कर के इन को बुलवा लूं क्या?’’

वह समझ नहीं पाई कि सास से और क्या कहे.

पत्थर सी बैठी रेवा जैसे नींद से जागी, ‘‘क्यों? क्या जरूरत है? उसे कुछ कामधाम नहीं है क्या?’’

कहतेकहते तार को तोड़मरोड़ कर एक कोने में फेंक दिया. रसोई में जा कर सांभर को छौंक लगाने लगी. अभी पिंकी स्कूल से आ कर चावलसांभर मांगेगी. सवेरे कह गई थी कि मेरे आने तक बना कर रखना.

‘‘नीना, सांभर पाउडर कहां रखा है?’’

सफेद टाइलों के ऊपर लगी लाल सनमाइका के पटों वाली अलमारी में वह मैटल बाक्स के मसालों वाले डब्बे इधरउधर करने लगी.

नीना ने फिर तार के विषय में कुछ नहीं कहा. बिना कहे ही एक स्त्री दूसरी स्त्री के अंतर की व्यथा जान गई थी. कहनेसुनने को कुछ नहीं रहा.

दोपहर को खाना परोसते समय रेवा रोज की तरह गुल्लू को चावल बिखराने को मना कर रही थी. नन्हे कामिक खोले खाना खा रहा था. हाथ के निवाले में चावल, रोटी कुछ है भी या नहीं, यह देखने की उसे फुरसत नहीं थी. रोज की तरह रेवा ने कामिक छीन कर मेज पर फेंका, ‘‘खाते समय पढ़ने की आदत कब छूटेगी? जब मेदा खराब हो जाएगा?’’

आग्रह कर पिंकी की प्लेट में दोबारा चावलसांभर डालने लगी थी रेवा. घर की दिनचर्या में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया था. दोपहर में दादी की बगल में सिमटते गुल्लू ने आग्रह किया था, ‘‘दादीमां, हीरामन तोते की कहानी सुनाओ न.’’

‘‘दोपहर को कहानी नहीं सुनते. रात को सुनाऊंगी. अब घड़ी भर लेटने दे.’’

शाम को जय आया तो घर का वातावरण रोज की तरह सहज था. बच्चे खेलने गए थे. नीना किसी पत्रिका के पन्ने उलट रही थी. मां रसोई में रात के खाने की तैयारी में व्यस्त थी. किसी अनहोनी के घटने का कहीं चिह्न न था.

रात के खाने के बाद ही रेवा ने बात छेड़ी, ‘‘आज कानपुर से तार आया था.’’ बासी अखबार पलटते जय के हाथ रुक गए. उस का सर्वांग जल उठा. बोला कुछ नहीं. केवल आंखों से प्रश्न छलक उठा.

‘‘वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है,’’ बिना किसी भावना के ठंडे बरफीले स्वर में रेवा कह गई.

जय चुप था. वह क्या कहे? यह ऐसे व्यक्ति की बीमारी का समाचार था जिस ने उस का व छोटे भाईबहन का बचपन निर्ममता से अभावों की अंधी गलियों में धकेल दिया था. तिरस्कृत मां का असहाय यौवन, दुनिया भर का उपहास और पिता के होते हुए भी पितृविहीन होने का शूल सा चुभता एहसास. सब कुछ उस की आंखों के आगे आ गया.

प्रारंभ में जब बात ढकीछिपी थी तब भी कोईकोई रिश्तेदार या स्कूल का साथी व्यंग्य की पैनी छुरी चुभो देता था, ‘क्यों जय, तुम्हारे पिता ने 2 बीवियां रखी हुई हैं क्या? एक घुमानेफिराने के लिए, दूसरी घर में खाना बनाने के लिए?’

और फिर घिनौने रंग में रंगी तीखी हंसी का फव्वारा. जी में तो आता कि मुंह तोड़ दे कहने वाले का, पर बात सच थी. गुस्सा पी जाना पड़ता. घर आ कर देखता कि मां हर वक्त मूक दीपशिखा सी जलती रहती हैं. पिता घर आने की औपचारिकता सी निभाते थे. स्कूल की फीस, कपडे़, किताबों और पढ़ाई का हालचाल पूछते थे. फीस के लिए चेक काट कर अलमारी में रख देते थे.

पितृत्व यहीं तक सिमट कर रह गया था. घर के खर्चे के लिए मां को महीने का बंधा रुपया देते थे. बस, सब उत्तरदायित्व पूरे हो गए. ये रुपए, चेक जय को अपमान का प्याला लगते

जिसे फिलहाल उतारने के सिवा कोई रास्ता नहीं था. छोटा था तो क्या, सब समझता था.

फिर कैसे उन का व्यवहार एकदम बदल गया. मां को शायद लगा कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है. पुरानी कड़वाहट भूल कर फिर बौराई गौरैया सी तिनके समेटने लगी थीं, परंतु यह केवल एक छलावा निकला. प्यार के बोलों से युगों से पुरुष स्त्री को भरमाता आया है. भारतीय स्त्री जानबूझ कर इस गर्त में जा गिरती है. मां कहां का अपवाद थीं. जायदाद के कागज कह कर, मां से दूसरे विवाह के लिए स्वीकृति के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए. बिना पढे़ मां ने हस्ताक्षर कर दिए थे. अंधे विश्वास की दोधारी तलवार तले कट मरीं. अब तो खर्चा, रुपयापैसा भी नहीं मांग सकती थीं.

फिर वह चले गए नए घर में आधुनिका नई पत्नी के साथ, जो उन के साथ पार्टियों में आजा सकती थी. जाते समय दया कर गए कि मकान मां के नाम करवा गए. साल भर का किराया पेशगी भर गए. बाद में दोनों मामा आए. हाथ पटकपटक कर मां पर झुंझलाते रहे, ‘तुम इतनी भोली कैसे बन गईं कि बिना पढे़ हस्ताक्षर कर दिए?’

मां का रोष अपनी मौत स्वयं मर गया था. वहां अंकुरित हो रहा था एक निराला स्वाभिमान.

‘अब जाने भी दो, भैया.’

‘जाने कैसे दूं? हाईकोर्ट तक छीछालेदर करवा देंगे बच्चू की. याद करेंगे.’

‘नहीं. अब यह बात यहीं खत्म करो. कुछ लाभ नहीं,’ मां का स्वर सर्द था.

‘पर बच्चों का खर्चा तो उसे देना ही पडे़गा. उस का परिवार है.’

‘भैया…’ मां चीख पड़ी थीं, ‘बच्चे केवल मेरे हैं अब. किसी की दानदया की भीख पर नहीं पलेंगे. कहीं ऐसा न हो कि दूसरों के सहारे जीना सीख जाएं.’

‘पर रेवा…’ मामा ने समझाना चाहा.

‘जो मेरा था ही नहीं उस के लिए अब कैसी छीनाझपटी?’

मामा के सामने तो मां स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति बनी रही थीं पर जय जानता था कि कितनी रातों को वह नदी के कच्चे कगार सी टुकड़ाटुकड़ा ढहती रही हैं. कन्या पाठशाला की नौकरी के बाद शाम को ट्यूशन. शनिवार तथा रविवार को मां आसपड़ोस का सिलाई का काम ले आती थीं. फिर एक स्वेटर बुनने की मशीन भी रख ली. परित्यक्ता स्त्री और तिरस्कृत होने न मायके गईं न ससुराल. तिलतिल कर जलती हुई बच्चों को अपने कमजोर डैनों में समेटे रही थीं. जय साक्षी रहा है इस पूरी अग्निपरीक्षा का. सीता तो धरती की गोद में समा कर त्राण पा गई थीं पर मां जीवन भर उस अग्नि में तपती कुंदन होती रहीं. मशीन पर झुकी मां को देख कर जय का शैशव इस दलदल से उन्हें बाहर खींचने को कसमें खाता था. इसी इच्छाशक्ति के कारण वह हर कक्षा में अव्वल आता था. महेश को भी वह पढ़ाता था. शोभा की कापियां खोल कर स्वयं जांचने बैठ जाता था.

मां व बच्चों में एक मूक सा समझौता हो गया था जिस की शर्तें सभी एकएक कर पूरी कर रहे थे. इंटरमीडिएट की परीक्षा में जय ने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया. अखबारों में उस के फोटो छपे, टेलीविजन पर उस का साक्षात्कार हुआ.

उस दिन विद्यालय के बाहर नीली फिएट से पिता उतरे. साथ में ‘वह’ भी थीं हाथों में बड़ा सा उपहार का डब्बा लिए.

‘मुझे तुम पर गर्व है, बेटे.’ भारतीय पिता एक योग्य बेटे का बाप होने की सार्वजनिक घोषणा करने का अवसर हाथ से कैसे जाने देता? जय निर्विकार सा उन्हें देखता रहा, जैसे वह कोई अजनबी हों.

इतने वर्षों में अजनबी तो बन ही गए थे. उपहार वाला हाथ हवा में ही लटका रह गया. जय आगे बढ़ गया. चेहरे पर संतुष्टि की मुसकान थी. आज मां के अपमान का दुख कुछ कम हुआ.

शाम को वह घर भी आ धमके. सब के लिए कपडे़, मिठाई, फलों के टोकरे, क्या कुछ नहीं लाए थे. मशीन पर बैठी मैली धोती पहने मां सकुचा सी गईं. जय ने उन्हें आंखों से आश्वासन दिया. बेटा जब बाप के बराबर कद का हो जाए तो मां को कितना आसरा हो जाता है.

‘कैसे आए?’ जय आज घर में मर्द था. बिना बुलाए इस मेहमान की शक्ल देखना भी उसे सहन नहीं हो रहा था. पराए घर में शानदार सूट पहने, अधेड़ अफसर पिता कितना बौना हो उठा था.

‘तुम्हें बधाई देने.’

‘मिल गई.’

‘अब आगे क्या करने का विचार है?’

जय झल्ला उठा, ‘अभी सोचा नहीं है कुछ.’

‘आई.आई.टी. में कोशिश करो.’

‘देखूंगा.’

शोभा उन्हें पहचानती थी. नमस्ते कर अंदर चली गई. साधारण मेहमान समझ कर हमेशा की तरह चाय बना कर ले आई. साथ में मठरी भी थी. जय ने जलती आंखों से उसे घूरा तो सकपका गई. कहां गलती हो गई.

बिना किसी के कहे ही उन्होंने चाय उठा ली. साथ में मठरी कुतरने लगे, ‘तुम ने बनाई है?’

‘बेटी’ कहतेकहते शायद झिझक गए. तभी लट्टू घुमाता महेश आ पहुंचा. उस से स्कूल और पढ़ाई के विषय में पूछने लगे, ‘तुम मेरे पास रहोगे, बेटा?’ चाय पीतेपीते पूछ बैठे.

‘कोई कहीं नहीं जाएगा. सब यहीं रहेंगे जहां आप उन्हें छोड़ गए थे.’

मां का स्वाभिमान दपदप कर जल रहा था. वह घबरा कर उठ खडे़ हुए. कैसे बूढे़ से लगने लगे. चुपचाप आ कर कार में बैठ गए. ड्राइवर ने कार स्टार्ट की. उन का सारा सामान जय ने खुली खिड़की से कार में रख दिया. फिर हाथ झाड़ने लगा. जैसे कूड़ा- करकट झाड़ रहा हो.

‘अब फिर कष्ट न कीजिएगा.’

यहीं सारे संबंध समाप्त कर जय ने हाथ झाड़ लिए. फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा.

बी.ए. पास करने के बाद उस ने बैंक से ऋण ले कर स्वतंत्र व्यवसाय शुरू किया और अब शहर के सफल व्यापारियों में गिना जाता था. कोठी, कार क्या कमी थी अब. शोभा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में आ गई थी. महेश पत्रकारिता में जाने का विचार रखता है. अखबारों व पत्रिकाओं में उस के लेख छपने लगे थे.

और मां? घर में 2 नौकरानियां रखी हुई थीं. कभी उन्हें आदेश देतीं, काम करवातीं, कभी स्वयं गेहूं चुनने बैठ जाती थीं.

शोभा की शादी में नानी ने कितना कहा था, ‘अरे पिता को तो बुलवा लो.’ जय भन्ना उठा था, ‘इतने वर्षों तक उन के बिना काम चलाते आए हैं, आज भी चला लेंगे.’

‘पर कन्यादान कौन करेगा?’

‘मां जो हैं.’

बात यहीं समाप्त हो गई थी.

फिर जय की शादी भी हो गई. पिछली बातें याद कर लोग हंसते, पर धनी व्यवसायी को लड़कियों की क्या कमी थी?

पहली ही रात जय ने नीना को पूरी कहानी सुना दी. साथ ही चेतावनी भी दे दी, ‘कभी इस घर में अलगाव की बात मत करना, हमें मां के दुखों को कम करना है बढ़ाना नहीं.’

गुल्लू, पिंकी और नन्हे के साथ हसंखेल कर मां के पुराने दिनों के घाव भर रहे थे. वीरेन की बदली होती रही थी. आजकल कानपुर में थे. सेवानिवृत्त हो कर वहीं रहने लगे थे.

आज वर्षों के अनछुए विषय की किरणें बिखेरता यह तार आ पहुंचा था, ‘‘दिल का दौरा पड़ा है वीरेन को. हालत गंभीर है.’’

मां बेटे ने एकदूसरे को देखा. जीवन भर दुखों की डोर में बंधे रहे थे. शब्द बेमानी हो उठे. फिर किसी ने न जाने की बात की, न हालचाल पता करने की इच्छा प्रकट की.

रेवा अब विगत की परतों को कुरेदती भी तो सिवा तिरस्कार के कोई स्मृति हाथ न लगती.

आज एक महीने बाद दूसरा तार आ गया. वीरेन की मृत्यु हो गई थी. उसी का समाचार पा कर औरतें रोनेपीटने, सांत्वना देने आई थीं पर नीना ने उन्हें बाहर खदेड़ कर दरवाजा बंद कर दिया.

अब एक बार कानपुर जाना जरूरी हो गया था. बच्चों को शोभा के पास छोड़ कर सभी कार से निकल गए.

वहां कुहराम मचा हुआ था. रेवा शांत थी. जय, नीना व महेश गंभीर थे. वीरेन की दूसरी पत्नी का चीत्कार गूंज रहा था, ‘‘मुझे किस के सहारे छोड़ गए?’’

रोतीबिलखती स्त्री, अस्तव्यस्त कपडे़. यही प्रौढ़ा क्या उन के अभावग्रस्त पितृविहीन शैशव का कारण थी?

उस दिन स्कूल के बाहर भी तो देखा था. आज जैसे सोने का सारा झूठा पानी उतरा हुआ था. बाकी रह गई थी वैधव्य की कालिख और ढलती आयु के अकेलेपन का कुहरा.

‘‘चलिए, बेटा तो आ गया मुखाग्नि देने को,’’ दरअसल, किसी ने जय को देख कर कहा था.

दूसरी शादी से वीरेन को कोई संतान नहीं हुई थी.

‘‘हम केवल अफसोस जाहिर करने आए थे, अब वापस जाएंगे,’’ कह कर जय उठ खड़ा हुआ. रेवा, नीना और महेश भी बाहर आ गए. औपचारिकता पूरी हो चुकी थी.

भरी सभा में जैसे किसी ने बम फेंक दिया. सब सकते में आ गए.

‘‘कलियुग है… घोर कलियुग. धरती रसातल को जाएगी. बेटा, बेटा होने से मुकर गया,’’ बड़ीबूढि़यां जय की मलामत कर रही थीं.

‘‘और मां को तो देखो. नीली साड़ी, चूडि़यां, बिछुए. कौन कहेगा कि यह विधवा है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

‘‘खबरदार, जो मेरी मां को विधवा कहा. इतने वर्षों तक वह किसी की पत्नी नहीं थी. वह आज भी विधवा नहीं है, वह मां है, केवल हमारी मां.’’

खुले आंगन में जैसे कांसे का थाल गिरा और छनाका देर तक गूंजता रहा. Parivarik Kahani

लेखक- आदर्श मलगूरिया

Sad Hindi Story: बलात्कार- क्या हुआ कर्नल साहब की वाइफ के साथ

Sad Hindi Story: मैं जब पीटी के लिए ग्राउंड पर पहुंचा तो वहां पीटी न हो कर सभी जवान और अधिकारी एक स्थान पर इकट्ठे खड़े थे. मैं ने सोचा, पीटी के लिए अभी समय है, इसलिए ऐसा है. मैं अपना स्कूटर पार्क कर के हटा ही था कि स्टोरकीपर प्लाटून का प्लाटून हवलदार, सतनाम सिंह मेरे पास भागाभागा आया और बोला, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

मैं स्टोरकीपर प्लाटून का प्लाटून कमांडर था, इसलिए उस का इस तरह भाग कर आना मुझे आश्चर्यजनक नहीं लगा. किसी नई घटना की मुझे सूचना देना उस की ड्यूटी में था. मैं ने उस की बात को बड़े हलके से लिया और पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘सर, जो नया सिपाही रमेश पोस्ंिटग पर आया है न, उस की रात को अफसर मैस में ड्यूटी थी, उस ने कर्नल साहब की वाइफ का बलात्कार कर दिया.’’

‘‘क्या…क्या बकते हो? वह ऐसा कैसे कर सकता है? इस समय वह कहां है?’’ मैं एकाएक सतनाम सिंह की बात पर विश्वास नहीं कर पाया, इसलिए उस पर प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘सर, वह क्वार्टरगार्ड (फौजी जेल) में बंद है. प्रशासनिक अफसर, कंपनी कमांडर और दूसरे अधिकारी वहीं पर हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम यहीं रुको, मैं देखता हूं,’’ मैं ने सतनाम सिंह से कहा और सीधा क्वार्टरगार्ड की ओर बढ़ा. मुझे अपनी ओर आते देख कर कंपनी कमांडर साहब मेरी ओर बढ़े. ‘‘साहब, आप की प्लाटून के सिपाही रमेश ने तो गजब कर दिया. कर्नल साहब की वाइफ का रेप कर दिया.’’

‘‘सर, वह ऐसा कैसे कर सकता है. उस की यह हिम्मत? सर, आप ने उस से बात की?’’

‘‘बात करने की कोशिश की थी लेकिन वह कुछ नहीं बता रहा. केवल रोए जा रहा है.’’

‘‘ठीक है, सर. यह किस ने बताया कि उस ने रेप किया है? और कर्नल साहब उस समय कहां थे?’’

‘‘कर्नल साहब की वाइफ ने फोन कर के खुद बताया. ड्यूटी पर खड़े दूसरे गार्ड ने उसे ऐसा करते देखा. कर्नल साहब तो पीटी के लिए आ गए थे.’’

‘‘हूं, ठीक है, सर मैं देखता हूं, वह क्या कहता है.’’ मैं क्वार्टरगार्ड के पास पहुंचा तो कर्नल साहब दिखाई दिए. उन्होंने मेरी ओर निराशा से देखा, परंतु कहा कुछ नहीं. वे सकते में थे. ऐसी स्थिति में कोई कह भी क्या सकता है.

क्वार्टरगार्ड के जिस कमरे में रमेश बंद था, उस के बाहर प्रशासनिक अफसर, सूबेदार, मेजर और हवलदारमेजर खड़े थे. मुझे देखते ही मेरी ओर लपके. सभी ने एकसाथ कहा, ‘‘देखा साहब, इस लड़के ने क्या किया? ऊपर से रोए जा रहा है. कुछ बता भी नहीं रहा.’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं देखता हूं. आप कृपया जरा बाहर चलें. मैं उस से अकेले में बात करना चाहता हूं. मैं समझता हूं, वह इस समय घबराया हुआ है और दबाव में है इसलिए रोए जा रहा है. मैं उस से प्यार से बात करूंगा तो वह अवश्य बताएगा कि वास्तव में हुआ क्या था.’’

‘‘ठीक है साहब, आप देख लें और जो कुछ बताए, हमें बताएं, तब तक मैं कंपनी कमांडर से बोल कर कोर्ट औफ इन्क्वायरी का और्डर करता हूं,’’ यह कह कर प्रशासनिक अफसर बाहर चले गए. उन के पीछे दूसरे अधिकारी भी चले गए. केवल क्वार्टरगार्ड का गार्ड कमांडर खड़ा रहा. मैं ने उसे घूरा, तो वह भी खिसक लिया.

मैं सिपाही रमेश के पास गया. वहां रखे जग में से एक गिलास पानी ले कर उसे दिया, ‘‘लो, पानी पियो.’’ उस ने मेरे हाथ से पानी ले कर थोड़ा पिया और थोड़े से अपना मुंह धो लिया. मुंह पोंछने के लिए मैं ने उसे अपना रूमाल दिया. उस ने मेरी ओर देखा. मैं ने अनुभव किया, वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ लग रहा था. यही समय है उस से बात करने का. मैं ने कहा, ‘‘देखो रमेश, मैं तुम्हारा प्लाटून कमांडर हूं. तुम मुझे पहचानते हो न?’’ मेरे स्वर में बड़ी आत्मीयता थी. उस ने हां में सिर हिलाया. ‘‘गुड, देखो, जो हुआ सो हुआ. अगर तुम मुझे सच बता दोगे तो मैं वचन देता हूं कि मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा.’’

रमेश की आंखें छलछला आई थीं, ‘‘सर, मैं गरीब आदमी हूं. मेरे वेतन पर पूरे घर का खर्चा चलता है. मुझ से गलती हुई. मुझे बचा लीजिएगा. मेरा पूरा कैरियर बरबाद हो जाएगा, सर. प्लीज, सर.’’ वह फिर रोने लगा.

‘‘तुम चिंता मत करो. तुम मुझे सचसच बताओगे, तभी मैं तुम्हारी मदद कर पाऊंगा.’’

‘‘सर, मुझ से गलती हुई पर मेरा ऐसा करने का कोईर् इरादा नहीं था. कर्नल साहब पीटी के लिए निकले तो मैं रूटीन में उन के क्वार्टर का चक्कर लगाने गया. कमरे की खिड़की खुली हुई थी. अचानक अंदर नजर गईर् तो मेमसाहब को अर्धनग्न अवस्था में देखा. गोरीगोरी सुंदर टांगें आकर्षित करने लगीं. जैसे न्योता दे रही हों कि आ जाओ. और सच मानें, सर मैं रह नहीं पाया. मेमसाहब ने भी कुछ नहीं कहा. उन्होंने भी शोर तब मचाया जब दूसरे गार्ड ने उन्हें ऐसा करते देख लिया. बस इतना ही, साहब.’’ वह फिर सुबकने लगा.

मेरे मन के भीतर एकाएक विचार आया, कहीं मेमसाहब भी तो ऐसा नहीं चाहती थीं, तभी उन्होंने शोर नहीं मचाया. उन्होंने शोर तब मचाया जब दूसरे गार्ड ने उन्हें देख लिया. मुझे किसी भी सम्माननीय नारी के प्रति ऐसा सोचने का अधिकार नहीं था. मेमसाहब के प्रति तो बिलकुल नहीं. वे सब के प्रति स्नेहशील थीं.

‘‘रमेश, तुम्हें इतना भी खयाल नहीं रहा कि मेमसाहब कमांडैंट साहब की वाइफ हैं. सब के लिए सम्मानीय. वे जवानों से कितना स्नेह और प्यार करती हैं. तुम्हें उन के साथ ऐसा कृत करते हुए शर्म नहीं आई. तुम्हारा तो कोर्टमार्शल होना चाहिए. डिसमिस फ्रौम सर्विस.’’

वह कुछ नहीं बोला. सिर्फ पहले की तरह रोता रहा. मैं फिर विचारों में खोने लगा. मानव मतिष्क में कब शैतान घुस आए, कोई भरोसा नहीं. इस में उम्र की कोई सीमा नहीं होती. यह तो युवा और कुंआरा है. ऐसी स्थिति में किसी का मन भी भटक सकता था. इस का भटकना आश्चर्य का विषय नहीं है, चाहे, यह सरासर गलत था. गलत है.

मैं ने कुछ क्षण सोचा, फिर फैसला कर लिया, ‘‘तुम जानते हो रमेश, कोर्ट औफ इन्क्वायरी चलेगी. तरहतरह के प्रश्न पूछे जाएंगे. अलगअलग ढंग से तुम्हें लताड़ा जाएगा. तुम पर बहुत दबाव होगा. सब से अधिक दबाव मैं डालूंगा. परंतु तुम्हें मेरी बात पर कायम रहना होगा चाहे मैं तुम्हें बाहर ले जा कर थप्पड़ भी मारूं. अब मैं जो कह रहा हूं, उस से तुम मुकरना नहीं.

‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो, कहना, कर्नल साहब पीटी पर गए तो मेमसाहब ने मुझे बुलाया और ऐसा करने को कहा. कोई जितना मरजी दबाव डाले, तुम्हें यही कहना है. कोई अधिक जोर दे तो केवल यह जोड़ना है कि मेरी क्या हिम्मत कि मैं एक  कर्नल साहब की वाइफ के साथ ऐसा करूं. बस, इतना ही. एक शब्द भी इधरउधर नहीं. तुम्हें कुछ नहीं होगा.’’

मैं उसे उसी स्थिति में छोड़ कर क्वार्टरगार्ड से बाहर आ गया. मुझे देखते ही प्रशासनिक अफसर और कंपनी कमांडर साहब मेरी ओर आए. दोनों ने एकसाथ पूछा, ‘‘कुछ बताया, साहब?’’

‘‘जी साहब, वह तो उलटापुलटा कह रहा है. कह रहा है, कर्नल साहब के जाने के बाद मेमसाहब ने उसे बुलाया और ऐसा करने को कहा.’’

‘‘क्या? बदमाश है, बकवास करता है. कर्नल साहब की वाइफ ऐसा कैसे कह सकती हैं? क्यों कहेंगी?’’ प्रशासनिक अफसर ने कहा.

‘‘हां सर, झूठ बोल रहा है. कर्नल साहब की वाइफ ऐसा कह ही नहीं सकतीं. उन को मैं ही नहीं, पूरी यूनिट अच्छी तरह जानती है,’’ कंपनी कमांडर ने कहा.

‘‘मैं ने भी उस से यही कहा था. मैं तो उसे थप्पड़ मारने को भी हुआ परंतु वह बारबार यही कहता रहा, भला, उस की क्या हिम्मत कर्नल साहब की वाइफ के साथ ऐसा करे या ऐसा करता.’’

‘‘हूं, कोर्ट औफ इन्क्वायरी में सब पता चल जाएगा,’’ प्रशासनिक अफसर ने कहा और चलने लगे.

‘‘सर, सिपाही रमेश और कर्नल साहब की वाइफ का मैडिकल करवाना आवश्यक है,’’ कंपनी कमांडर ने कहा.

‘‘कर्नल साहब से बात कर के मैं इस का प्रबंध करता हूं,’’ कह कर प्रशासनिक अफसर चले गए. उन के पीछेपीछे कंपनी कमांडर साहब भी. मैं भी वहां से लौट आया.

पिछले एक सप्ताह से सिपाही रमेश के विरुद्ध कोर्ट औफ इन्क्वायरी चल रही है. इस से पहले उस का और कर्नल साहब की वाइफ का मैडिकल हुआ था जिस में बलात्कार साबित हो गया था. इन्क्वायरी के अध्यक्ष मेजर विमल थे. कैप्टन सविता और सूबेदारमेजर विजय सिंह मैंबर थे. प्लाटून कमांडर होने के नाते आज मेरी स्टेटमैंट रिकौर्ड होनी थी. मैं मन ही मन इस के लिए खुद को तैयार करने लगा. मुझे इस बात की सूचना मिल गई थी कि सिपाही रमेश ने वही स्टेटमैंट दी थी जैसा मैं ने कहा था. अधिक जोर देने पर भी उस ने वही बात कही थी जिस के लिए मैं ने उसे हिदायत दी थी. मेरी स्टेटमैंट पर भी बहुतकुछ निर्भर था.

मैं जब कोर्ट औफ इन्क्वायरी के समक्ष पहुंचा तो सभी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. सुबह के 10 बज चुके थे. मेरे लिए इसी समय पहुंचने का आदेश था. मैं ने मेजर साहब को सैल्यूट किया और निश्चित कुरसी पर बैठ गया. कुछ समय चुप्पी छाई रही. फिर मेजर साहब ने प्रश्न करने शुरू किए.

‘‘आप कब से स्टोरकीपर प्लाटून के प्लाटून कमांडर हैं?’’

‘‘सर, पिछले वर्ष जनवरी से.’’

‘‘आप सिपाही रमेश को कब से जानते हैं?’’

‘‘एक सप्ताह पहले से, जब से वह पोस्ंिटग पर आया है.’’

‘‘आप को पता है, वह कहां से पोस्ंिटग पर आया है?’’

‘‘जी, मैटीरियल मैनजमैंट कालेज, जबलपुर से.’’

‘‘यानी, बिलकुल नया है. स्टोरकीपर की ट्रेनिंग के बाद वह सीधे यहीं आया है?’’

‘‘जी, सर.’’

‘‘आप जवानों के बीच से अफसर बने हैं. आप उन की मानसिकता को बड़ी अच्छी तरह समझते हैं, जानते हैं. क्या आप को लगता है, सिपाही रमेश बलात्कार जैसा अपराध कर सकता है?’’

‘‘मैं जानता हूं, सर सिपाही रमेश मेरे लिए नया है. मैं उसे अधिक नहीं जानता परंतु मैं यह अवश्य जानता हूं कि ट्रेनिंग सैंटरों से आए जवान अधिक अनुशासनप्रिय होते हैं, वे ऐसे अपराध कर ही नहीं सकते.’’

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं, रमेश आप की प्लाटून का जवान है, ऐसा कह कर आप उसे बचाना चाहते हैं?’’

‘‘नहीं, सर ऐसा नहीं है. मैं जवान से अफसर बना हूं. मैं 10 वर्षों तक उन के बीच रहा हूं. मैं उन की सोच, उन की मानसिकता को बड़े करीब से जानता हूं. वे बहुत ही गरीब परिवारों से आते हैं. जिन की दालरोटी उन के वेतनों से चलती है. वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? उन के लिए तो एक सीनियर सिपाही और लांस नायक एक बहुत बड़ा अफसर है. उन के समक्ष वे सावधान हो कर बात करते हैं. वे ऐसे जवानों के प्रति कोई अपराध की बात नहीं सोचते तो कर्नल साहब के प्रति सोचना तो बहुत दूर की बात है.’’

‘‘अपराध तो हुआ है. मैडिकल रिपोर्ट में बलात्कार साबित हो चुका है. क्या आप को लगता है, इस में कर्नल साहब की वाइफ भी कहीं दोषी हैं? सिपाही रमेश ने भी अपने बयान में कहा है कि उन्होंने उसे बुलाया और ऐसा करने को कहा. आप के ऊपर दिए बयान से भी कहीं न कहीं यह झलकता है कि इस में कर्नल साहब की वाइफ भी दोषी हैं?’’

प्रश्न का उत्तर देना बड़ा कठिन था. किसी को भी भ्रमित कर सकता था. मेजर साहब कहीं न कहीं मेरे मुख से इस के प्रति सुनना चाहते थे, परंतु मैं जानता था, मुझे क्या कहना है. मेरी थोड़ी सी गलती सिपाही रमेश का कोर्टमार्शल करवा सकती थी. मैं ने मन में ठान ली कि मुझे गोलमोल उत्तर देना है.

‘‘सर, मैं ने यह नहीं कहा कि कर्नल साहब की वाइफ दोषी हैं. मुझे नहीं पता, वास्तव में वहां हुआ क्या था. मैं ने तो आप के प्रश्न के उत्तर में जवानों की गरीबी, अनुशासनप्रियता और उन की मानसिकता को आप के समक्ष रखा है और यह कहने की कोशिश की है कि विकट परिस्थितियों में भी ऐसे अपराधों से जवान खुद को दूर रखने का प्रयत्न करते हैं. जम्मूकश्मीर में भी ऐसे कई केसेस आए जिन में जवान बेगुनाह साबित हुए. जहां तक कर्नल साहब की वाइफ का प्रश्न है, वे बहुत ही सम्मानीय नारी हैं. मैं उन को कलंकित होते नहीं देख सकता.’’

पर कहीं न कहीं मेरे मन के भीतर यह प्रश्न भी अपने विकराल रूप में रेंग रहा था कि कर्नल साहब खुद एक चरित्रहीन व्यक्ति हैं, कहीं उन के चरित्र से प्रभावित हो कर मेमसाहब ने ऐसा तो नहीं किया?

विडंबना देखिए, सेना में जहां औरतें पहले उपलब्ध नहीं हुआ करती थीं, अधिकारी अपने जूनियर या सीनियर अधिकारियों की पत्नियों से संबंध बनाने की कोशिश किया करते थे. खुद कई पत्नियां भी इस में पीछे नहीं रहती थीं, परंतु यह सब छिपछिप कर होता था. सेना में अब महिला अफसर आने से यह छिपाव खत्म हो गया है.

महिला अफसर सदा अपने सीनियर अफसरों के प्रभाव में रहती हैं और वे अधिकारी इस का पूरा फायदा उठाते हैं. मैं समझता हूं, शायद कर्नल साहब की चरित्रहीनता ने मेमसाहब को ऐसा करने को प्रेरित किया हो कि वे ऐसा कर सकते हैं तो वह क्यों नहीं. निश्चिय ही इसी का प्रभाव रहा होगा, परंतु मैं अपनी इस सोच को शाब्दिक प्रस्तुत नहीं कर पाया.

मैं चुप हो गया था. मेजर साहब भी सोच में डूब गए. उन को महत्त्वपूर्ण निर्णय करना था. एक तरफ जहां नारी का सम्मान दांव पर था, वहीं एक जवान का भविष्य भी जुड़ा था. थोड़ी सी गलती रमेश का कैरियर बरबाद कर सकती थी.

वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे. फिर उन्होंने अपनी गरदन को झटका दिया, जैसे किसी निर्णय पर पहुंच गए हों, स्पष्ट कहा, ‘‘पिछले एक सप्ताह से, जब से कोर्ट औफ इनक्वायरी चली है, मैं इसी पर सोचता आ रहा हूं. अपराध तो हुआ है, मैं मानता हूं. मैं यह भी जानता हूं किसी नारी के चरित्र पर बिना देखे लांछन लगाना, उस से बड़ा अपराध है. मैं जवानों की मानसिकता को भी बड़े करीब से जानता हूं. चाहे मैं ने सेना में सीधे कमीशन लिया है. मैं ने दूसरे अफसरों से भी बात की है. वे भी यही कहते हैं. मैं नहीं समझता इस में सिपाही रमेश अधिक दोषी है. यह सहमति सैक्स का मामला बनता है. बनता ही नहीं, बल्कि है.’’

मेजर साहब ने कोर्ट औफ इन्क्वायरी के दूसरे सदस्यों की ओर गहरी नजरों से देखा. वे चुप थे, जिस का मतलब यह भी था कि वे उन की बात से सहमत हैं.

कोर्ट औफ इन्क्वायरी का कंक्ल्यूजन लिख लिया गया जो सिपाही रमेश के फेवर में था. कर्नल साहब को इस का आभास हो गया था कि इन्क्वायरी का कंक्ल्यूजन उन के फेवर में नहीं है.

एक सप्ताह के भीतर ही उन्होंने अपना ट्रांसफर करवा लिया और चले गए. वे बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे. अगर आगे बढ़ाते तो जहां उन की बदनामी होती वहीं इंक्वायरी का कंक्ल्यूजन आड़े आता. मुझे सिपाही रमेश को बचा पाने की खुशी थी, वहीं कर्नल साहब की वाइफ के लिए हमदर्दी थी. मैं मन की गहराइयों से इस बात का फैसला नहीं कर पाया कि यह गलत हुआ या सही. Sad Hindi Story

लेखक- राघवेंद्र सैनी

Love Story in Hindi: खुली छत- कैसे पतिपत्नी को करीब ले आई घर की छत

Love Story in Hindi: रमेश का घर ऐसे इलाके में था जहां हमेशा ही बिजली रहती थी. इसी इलाके में राजनीति से जुड़े बड़ेबड़े नेताओं के घर जो थे. पिछले 20 सालों से रमेश अपने इसी फ्लैट में रह रहा है. 15 वर्ष मातापिता साथ थे और अब 5 वर्षों से वह अपनी पत्नी नीना के साथ था. उन का फ्लैट बड़ा था और साथ ही 1 हजार फुट का खुला क्षेत्र भी उन के पास था.

7वीं मंजिल पर उन के पास इतनी खुली जगह थी कि लोग ईर्ष्या कर उठते थे कि उन के पास इतनी ज्यादा जगह है.

रमेश के पिता का बचपन गांव में बीता था और उन्हें खुली जगह बहुत अच्छी लगती थी. रिटायर होने से पहले उन्होंने इसी फ्लैट को चुना था, क्योंकि इस में उन के हिस्से इतना बड़ा खुला क्षेत्र भी था. दोस्तों और रिश्तेदारों ने उन्हें समझाया था कि इस उम्र में 7वीं मंजिल पर घर लेना ठीक नहीं है. यदि कहीं लिफ्ट खराब हो गई तो बुढ़ापे में क्या करोगे पर उन्होंने किसी की भी नहीं सुनी थी और 1 लाख रुपए अधिक दे कर यह फ्लैट खरीद लिया था.

पत्नी ने भी शिकायत की थी कि अब बुढ़ापे में इतनी बड़ी जगह की सफाई करना उन के बस की बात नहीं है. नौकरानियां तो उस जगह को देख कर ही सीधेसीधे 100 रुपए पगार बढ़ा देतीं. पर गोपाल प्रसाद बहुत प्रसन्न रहते. उन की सुबह और शामें उसी खुली छत पर बीततीं. सुबह का सूर्योदय, शाम का पहला तारा, पूर्णिमा का पूरा चांद, अमावस्या की घनेरी रात और बरसात की रिमझिम फुहारें उन्हें रोमांचित कर जातीं.

उस छत पर उन्होंने एक छोटा सा बगीचा भी बना लिया था. उन के पास 50 के करीब गमले थे, जिस में  तुलसी, पुदीना, हरी मिर्च, टमाटर, रजनीगंधा, बेला, गुलाब और गेंदा आदि सभी तरह के पौधे लगा रखे थे. हर पेड़पौधे से उन की दोस्ती थी. जब वह उन को पानी देते तो उन से मन ही मन बातें भी करते जाते थे. यदि किसी पौधे को मुरझाया हुआ देखते तो बड़े प्यार से उसे सहलाते और दूसरे दिन ही वह पौधा लहलहा उठता था. वह जानते थे कि प्यार की भाषा को सब जानते हैं.

मातापिता के गुजर जाने के बाद से घर की वह छत उपेक्षित हो गई थी. रमेश और नीना दोनों ही नौकरी करते थे. सुबह घर से निकलते तो रात को ही घर लौटते. ऐसे में उन के पास समय की इतनी कमी थी कि उन्होंने कभी छत वाला दरवाजा भी नहीं खोला. गमलों के पेड़पौधे सभी समाप्त हो चुके थे. साल में एक बार ही छत की ठीक से सफाई होती. उन का जीवन तो ड्राइंगरूम तक ही सिमट चुका था. छुट्टी वाले दिन यदि यारदोस्त आते तो बस, ड्राइंगरूम तक ही सीमित रहते. छत वाले दरवाजे पर भी इतना मोटा परदा लटका दिया था कि किसी को भी पता नहीं चलता कि इस परदे के पीछे कितनी खुली जगह है.

नीना भी पूरी तरह से शहरी माहौल में पली थी, इसलिए उसे कभी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि उस के ससुर उन के लिए कितना अमूल्य खजाना छोड़ गए हैं. काम की व्यस्तता में दोनों ने परिवार को बढ़ाने की बात भी नहीं सोची थी पर अब जब रमेश को 40वां साल लगा और उसे अपने बालों में सफेदी झलकती दिखाई देने लगी तो उस ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया. अब नीना भी उस से सहमत थी, पर अब वक्त उन का साथ नहीं दे रहा था. नीना को गर्भ ठहर ही नहीं रहा था. डाक्टरों के भी दोनों ने बहुत चक्कर लगा लिए. काफी दवाएं खाईं. डी.एम.सी. कराई. स्पर्म काउंट कराया. काम के टेंशन के साथ अब एक नया टेंशन और जुड़ गया था. दोनों की मेडिकल रिपोर्ट ठीक थी फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी. अब उन के डाक्टरों की एक ही सलाह थी कि आप दोनों तनाव में रहना छोड़ दें. आप दोनों के दिमाग में बच्चे की बात को ले कर जो तनाव चल रहा है वह भी एक मुख्य कारण हो सकता है आप की इच्छा पूरी न होने का.

इस मानसिक तनाव को दूर कैसे किया जाए? इस सवाल पर सब ओर से सलाह आती कि मशीनी जिंदगी से बाहर निकल कर प्रकृति की ओर जाओ. अपनी रोजमर्रा की पाबंदियों से निकल कर मुक्त सांस लेना सीखो. कुछ व्यायाम करो, प्रकृति के नजदीक जाओ आदि. लोगों की सलाह सुन कर भी उन दोनों की समझ में नहीं आता था कि इन पर अमल कैसे किया जाए.

इसी तरह की तनाव भरी जिंदगी में वह रात उन के लिए एक नया संदेश ले कर आई. हुआ यों कि रात को 1 बजे अचानक ही बिजली चली गई. ऐसा पहली बार हुआ था. ऐसी स्थिति से निबटने के लिए वे दोनों पतिपत्नी तैयार नहीं थे, अब बिना ए.सी. और पंखे के बंद कमरे में दोनों का दम घुटने लगा. रमेश उठा और अपने मोबाइल फोन की रोशनी के सहारे छत के दरवाजे के ताले की चाबी ढूंढ़ी और दरवाजा खोला. छत पर आते ही जैसे सबकुछ बदल गया.

खुली छत पर मंदमंद हवा के बीच चांदनी छिटकी हुई थी. आधा चंद्रमा आकाश के बीचोंबीच मुसकरा रहा था. रमेश अपनी दरी बिछा कर सो गया. उस ने अपनी खुली आंखों से आकाश को, चांद को और तारों को निहारा. आज 20-25 वर्षों बाद वह ऐसे खुले आकाश के नीचे लेटा था. वह तो यह भी भूल चुका था कि छिटकी हुई चांदनी में आकाश और धरती कैसे नजर आते हैं.

बिजली जाने के कारण ए.सी. और पंखों की आवाज भी बंद थी. चारों ओर खामोशी छाई हुई थी. उसे अपनी सांस भी सुनाई देने लगी थी. अपनी सांस की आवाज सुननेके लिए ही वह आतुर हो उठा. रमेश को लगा, जिन सांसों के कारण वह जीवित है उन्हीं सांसों से वह कितना अपरिचित है. इन्हीं विचारों में भटकतेभटकते उसे लगा कि शायद इसे ही ध्यान लगाना कहते हैं.

उस के अंदर आनंद का इतना विस्तार हो उठा कि उस ने नीना को पुकारा. नीना अनमने मन से बाहर आई और रमेश के साथ उसी दरी पर लेट गई. रमेश ने उस का ध्यान प्रकृति की इस सुंदरता की ओर खींचा. नीना तो आज तक खुले आकाश के नीचे लेटी ही नहीं थी. वह तो यह भी नहीं जानती थी कि चांदनी इतनी धवल भी होती है और आकाश इतना विशाल. अपने फ्लैट की खिड़की से जितना आकाश उसे नजर आता था बस, उसी परिधि से वह परिचित थी.

रात के सन्नाटे में नीना ने भी अपनी सांसों की आवाज को सुना, अपने दिल की धड़कन को सुना, बरसती शबनम को महसूस किया और रमेश के शांत चित्त वाले बदन को महसूस किया. उस ने महसूस किया कि तनाव वाले शरीर का स्पर्श कैसा अजीब होता है और शांत चित्त वाले शरीर का स्पंदन कैसा कोमल होता है. दोनों को मानो अनायास ही तनाव से छुटकारा पाने का मंत्र हाथ लग गया.

वह रात दोनों ने आंखों ही आंखों में बिताई. रमेश ने मन ही मन अपने पिता को इस अनमोल खजाने के लिए धन्यवाद दिया. आज पिता के साथ गुजारी वे सारी रातें उसे याद हो आईं जब वह गांव में अपने पिता के साथ लेट कर सुंदरता का आनंद लेता था. पिता और दादा उसे तारों की भी जानकारी देते जाते थे कि उत्तर में वह ध्रुवतारा है और वे सप्तऋषि हैं और  यह तारा जब चांद के पास होता है तो सुबह के 3 बजते हैं और भोर का तारा 4 बजे नजर आता है. आज उस ने फिर से वर्षों बाद न केवल खुद भोर का तारा देखा बल्कि पत्नी नीना को भी दिखाया.

प्रकृति का आनंद लेतेलेते कब उन की आंख लगी वे नहीं जान पाए पर सुबह सूर्यदेव की लालिमा ने उन्हें जगा दिया था. 1 घंटे की नींद ले कर ही वे ऐसे तरोताजा हो कर उठे मानो उन में नए प्राण आ गए हों.

अब तो तनावमुक्त होने की कुंजी उन के हाथ लग गई. उसी दिन उन्होंने छत को धोपोंछ कर नया जैसा बना दिया. गमलों को फिर से ठीक किया और उन में नएनए पौधे रोप दिए. बेला का एक बड़ा सा पौधा लगा दिया. रमेश तो अपने अतीत से ऐसा जुड़ा कि आफिस से 15 दिन की छुट्टी ले बैठा. अब उन की हर रात छत पर बीतने लगी. जब अमावस्या आई और रात का अंधेरा गहरा गया, उस रात को असंख्य टिमटिमाते तारों के प्रकाश में उस का मनमयूर नाच उठा.

धीरेधीरे नीना भी प्रकृति की इस छटा से परिचित हो चुकी थी और वह भी उन का आनंद उठाने लगी थी. उस ने  भी आफिस से छुट्टी ले ली थी. दोनों पतिपत्नी मानो एक नया जीवन पा गए थे. बिना एक भी शब्द बोले दोनों प्रकृति के आनंद में डूबे रहते. आफिस से छुट्टी लेने के कारण अब समय की भी कोई पाबंदी उन पर नहीं थी.

सुबह साढ़े 4 बजे ही पक्षियों का कलरव सुन कर उन की नींद खुल जाती. भोर के टिमटिमाते तारों को वे खुली आंखों से विदा करते और सूर्य की अरुण लालिमा का स्वागत करते. भोर के मदमस्त आलम में व्यायाम करते. उन के जीवन में एक नई चेतना भर गई थी.

छत के पक्के फर्श पर सोने से दोनों की पीठ का दर्द भी गायब हो चुका था अन्यथा दिन भर कंप्यूटर पर बैठ कर और रात को मुलायम गद्दों पर सोने से दोनों की पीठ में दर्द की शिकायत रहने लगी थी. अनायास ही शरीर को स्वस्थ रखने का गुर भी वे सीख गए थे.

ऐसी ही एक चांदनी रात की दूधिया चांदनी में जब उन के द्वारा रोपे गए बेला के फूल अपनी मादक गंध बिखेर रहे थे, उन दोनों के शरीर के जलतत्त्व ने ऊंची छलांग मारी और एक अनोखी मस्ती के बाद उन के शरीरों का उफान शांत हो गया तो दोनों नींद के गहरे आगोश में खो गए थे. सुबह जब वे उठे तो एक अजीब सा नशा दोनों पर छाया हुआ था. उस आनंद को वे केवल अनुभव कर सकते थे, शब्दों में उस का वर्णन हो ही नहीं सकता था.

अब उन की छुट्टियां खत्म हो गई थीं और उन्होंने अपनेअपने आफिस जाना शुरू कर दिया था. फिर से वही दिनचर्या शुरू हो गई थी पर अब आफिस से आने के बाद वे खुली छत पर टहलने जरूर जाते थे. दिन हफ्तों के बाद महीनों में बीते तो नीना ने उबकाइयां लेनी शुरू कर दीं. रमेश पत्नी को ले कर फौरन डाक्टर के पास दौड़े. परीक्षण हुआ. परिणाम जान कर वे पुलकित हो उठे थे. घर जा कर उसी खुली छत पर बैठ कर दोनों ने मन ही मन अपने पिता को धन्यवाद दिया था.

पिता की दी हुई छत ने उन्हें आज वह प्रसाद दिया था जिसे पाने के लिए वह वर्षों से तड़प रहे थे. यही छत उन्हें प्रकृति के निकट ले आई थी. इसी छत ने उन्हें तनावमुक्त होना सिखाया था. इसी छत ने उन्हें स्वयं से, अपनी सांसों से परिचित करवाया था. वह छत जैसे उन की कर्मस्थली बन गई थी. रमेश ने मन ही मन सोचा कि यदि बेटी होगी तो वह उस का नाम बेला रखेगा और नीना ने मन ही मन सोचा कि अगर बेटा हुआ तो उस का नाम अंबर रखेगी, क्योंकि खुली छत पर अंबर के नीचे उसे यह उपहार मिला था. Love Story in Hindi

Romantic Story: एक रिक्त कोना- क्या सुशांत का अकेलापन दूर हो पाया

Romantic Story: सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे: ‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?

‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे.

आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरी-चोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज  चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं.

5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता. जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी. Romantic Story

Social Media: रिश्ते बिगाड़ रहा सोशल मीडिया

Social Media: आज का समय डिजिटल तकनीक और सोशल मीडिया का है. हमारे जीवन का प्रत्येक पहलू अब डिजिटल हो चला है. चाहे वह पढ़ाई हो, कामकाज हो या फिर व्यक्तिगत संबंध इन में से सब से प्रमुख और व्यापक रूप से उपयोग में आने वाला माध्यम है व्हाट्सऐप. किसी समय में यह साधन अपनों से जुड़ने का, आपसी संवाद को आसान और त्वरित बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता था. व्हाट्सऐप और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफौर्म अब हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं.

हम इन्हें अपने दोस्तों, परिवार और काम के सहयोगियों के साथ जुड़े रहने के लिए उपयोग करते हैं. हालांकि, इन सारे प्लेटफौर्म पर अधिक समय बिताना और वास्तविक जीवन में अपने रिश्तों के लिए कम समय देना आपसी रिश्तों में नुकसान पहुंचा रहा है. परंतु समय के साथ यही माध्यम अब आपसी रिश्तों में दूरी, भावनात्मक रिक्तता और गलतफहमियों का कारण बनने लगा है.

व्हाट्सऐप बेहद लोकप्रिय मैसेजिंग प्लेटफौर्म है. यह लोगों के लिए व्यावसायिक एवं व्यक्तिगत संवाद का महत्त्वपूर्ण साधन बन चुका है. हालांकि यह भी कुछ लोगों के लिए एक चिंता का भी कारण बनता जा रहा है क्योंकि कुछ लोगों का कहना है कि यह आपसी रिश्तों में तनाव और दूरी पैदा कर रहा है. व्हाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बातचीत करने की आदत आपसी रिश्तों को खराब कर सकती है.

ऐसा इसलिए क्योंकि ये प्लेटफौर्म व्यक्ति को वास्तविक समय में बातचीत करने और भावनात्मक रूप से जुड़ने से दूर कर देते हैं. वे संचार के तरीके को बदल देते हैं, जिस से रिश्तों में अंतरंगता, समझ और विश्वास कम हो जाता है. बातचीत का विकल्प नहीं कुछ लोगों का मानना है कि व्हाट्सऐप का अत्यधिक उपयोग लोगों को एकदूसरे के साथ वास्तविक बातचीत और शारीरिक संपर्क से दूर कर देता है. व्हाट्ऐप पर एकदूसरे को संदेश भेजना आपसी बातचीत का विकल्प कभी भी नहीं हो सकता है. व्हाट्सऐप पर संदेशों को गलत समझ जा सकता है, जिस से आपसी रिश्तों में गलतफहमी और विवाद हो सकते हैं.

व्हाट्सऐप पर किसी के स्टेटस को चैक करना विश्वास की कमी का संकेत हो सकता है, जिस से रिश्ते में तनाव हो बढ़ सकता है. व्हाट्सऐप की बात करते हुए रश्मि कहने लगीं कि कुछ दिन पहले वे पारिवारिक समारोह में गईं तो वहां बहुत समय बाद रिश्तेदारों से मुलाकात हुई और सब से जुड़े रहने के लिए एक व्हाट्सऐप गु्रप बनाया गया कि अब सब एकदूसरे से जुड़े रहेंगे. एक खुशनुमा अनुभव और माहौल से वे अपने घर लौटी थीं. जब अगले दिन वे अपना मोबाइल उठा कर मैसेज देखने लगीं तो हैरान रह गईं. गुड मौर्निंग और भगवान की फोटो वाले लगभग 20 मैसेज.

वे समझ नहीं पा रहीं थीं कि क्या उन्हें यह ग्रुप बनाने की सजा दी जा रही है. वे परेशान हुईं लेकिन फिर शांत रह कर चुप बनी रहीं. अब व्हाट्सऐप पर गुडमौर्निंग का मैसेज उन्हें सिरदर्द देता सा लगता है. संवाद की गहराई में कमी: व्हाट्सऐप जैसे प्लेटफौर्म पर अकसर संक्षिप्त और सतही बातचीत होती है जो व्यक्तिगत संवाद और आपसी बातचीत की गहराई को कम कर देती है.

व्यक्तिगत बातचीत में कमी आ जाती है. व्हाट्सऐप पर जब कोई मैसेज करता है तो वह आप से उम्मीद करता है कि आप उस के मैसेज का तुरंत उत्तर देंगे और यह चैटिंग वास्तविक बातचीत की जगह ले लेती है. व्हाट्सऐप के मैसेज को गलत भी समझ जा सकता है क्योंकि वे शारीरिक भाषा या लहजे के बिना होते हैं, जिस से गलतफहमी और झगड़े बढ़ सकते हैं. कई बार मैसेज देखने की फुरसत नहीं रहती या उत्तर लिखने का समय नहीं रहता तो मैसेज करने वाला सोचने लगता है कि वह उन्हें जानबूझ कर इग्नोर कर रहा है. इस वजह से आपस में बिना किसी कारण गलतफहमी पैदा हो जाती है और रिश्ते में दरार पड़ने लगती है.

पहले जब लोग एकदूसरे से मिलते थे तो आंखों में आंखें डाल कर बातें किया करते थे. एकदूसरे के चेहरे के हावभाव, स्वर का उतारचढ़ाव, आपसी स्पर्श, सबकुछ संवाद का हिस्सा होता था. आज व्हाट्सऐप के माध्यम से ये सब इमोजी और टाइपिंग में बदल गया है. टैक्स्ट मैसेज में न तो कोई भावनाएं स्पष्ट होती हैं और न ही आत्मिक और भावनात्मक जुड़ाव. 45 वर्षीय नीरज की पत्नी औफिस की मीटिंग के लिए 3 दिनों के लिए मुंबई गई हुई थी. नीरज को वायरल फीवर हो गया, मेड ने भी छुट्टी ले ली तो वह 1 कप चाय के लिए भी परेशान हो गए थे. उन्होंने अपने फैमिली गु्रप में मैसेज किया कि सफरिंग फ्रौम वायरल.

लेकिन कुछ पलों में उन का फोन गैट वैल सून के मैसेज से भर गया, जबकि वे पूरा दिन अकेले यों ही बेहोश से पड़े रहे, जब उन्होंने स्वस्थ होने के बाद किसी समय लोगों से यह बात बताई तो झट से उन लोगों ने कहा कि फोन कर देते तो हम आ जाते. आदिआदि संबंधों में तनाव: व्हाट्सऐप पर होने वाली बातचीत कई बार आपस में तनाव या विवाद पैदा कर देती है जो व्यक्तिगत संबंधों में और भी तनाव पैदा कर सकता है.

जब व्हाट्सऐप पर कोई लिखता है कि ठीक हूं तो यह कहना कि वह ठीक ही है, यह समझ पाना मुश्किल रहता है कि वह सच में ठीक है या फिर टाल रहा है या यह भी संभव है कि अपनी समस्या बताना नहीं चाह रहा है.

प्रतिक्रियाओं का बोझ और अपेक्षाएं: व्हाट्सऐप पर रीड और ब्लू टिक जैसी सुविधाएं संबंधों में अनावश्यक अपेक्षाएं और तनाव पैदा करती हैं. जब किसी ने मैसेज पढ़ लिया परंतु उस ने जवाब नहीं दिया तो मैसेज करने वाला स्वयं को अनदेखा और अपमानित अनुभव करने लगता है. यह छोटी सी बात अकसर मनमुटाव, अविश्वास और लड़ाई का कारण बन जाती है.

ग्रुप्स और दिखावे की संस्कृति: व्हाट्सऐप ग्रुप्स अब संवाद से ज्यादा आपसी प्रतिस्पर्धा और तुलना का केंद्र बन गए हैं. कौन क्या शेयर कर रहा है, किस का स्टेटस कैसा है, किस ने किस को विश किया या नहीं किया, ये बातें अब आपसी संबंधों की बुनियाद तय करने लगी हैं. असली भावनाओं, संवेदनाओं, सहानुभूति, खुशी की जगह अब वर्चुअल दिखावे ने ले ली है. नीला ने मर्सिडीज कार ली तो उस ने खुशी साझ करते हुए अपनी कार की पूजा करते हुए फोटो ग्रुप में डाल दिया. दिखावे के लिए तो लोगों ने बधाई लिख कर स्माइली डाल दी लेकिन ईशा को बरदाश्त नहीं हो सका. उस ने तुरंत मेघा को फोन लगा कर उलटीसीधी बातें कर डालीं कि जानती हो नीला के पति बहुत घूस लेते हैं.

ऐसे थोड़े ही मर्सिडीज उन के दरवाजे पर आ गई है. यद्यपि मेघा को ईशा की बात अच्छी नहीं लग रही थी लेकिन वह उस से कुछ कह नहीं सकती थी. इसी तरह से वीरा केरल घूम कर आई तो उस ने थोड़े से फोटो अपने गु्रप में शेयर कर दिए. उस के बाद वह काफी देर तक लाइक्स और कमैंट्स के लिए अनावश्यक रूप से तनाव में रही कि किस ने क्या लिखा आदिआदि. उस की फ्रैंड गीता ने बताया कि रिया कह रही थी कि वीरा केरल क्या घूम आई जैसे पैरिस घूम कर आई हो. ऐसे फोटो डाल कर शो कर रही है. वीरा को खुशी मिलने की जगह आपसी रिश्तों में दरार पड़ गई. कारण कुछ भी हो लेकिन आपस में दूरी तो आ ही जाती सतही संवाद.

व्हाट्सऐप पर बातें तो बहुत होती हैं जैसे जीएम, एचबीडी, एलओएल, ओके जैसे मैसेज आते रहते हैं जिन में न ही किसी तरह की आत्मीयता होती है न ही कोई भावना. आजकल हम सभी दिनभर औनलाइन रहते हैं लेकिन अपने दिल की बात हम किसी से भी साझ नहीं कर सकते. आजकल सभी दिखावे की जिंदगी जी रहे हैं.

बातचीत में कमी: व्हाट्सऐप पर बातचीत अकसर संक्षिप्त और अनौपचारिक होती है, जिस की वजह से आपसी रिश्तों में गहराई और आपसी जुड़ाव की कमी होती है.

दूर: मैसेज के टैक्स्ट में भावनाओं और संदर्भों को व्यक्त करना मुश्किल होता है, जिस के कारण आपसी रिश्तों में दूरी बढ़ सकती है. नीरा ने अपने फ्रैंड को मैसेज किया कि औफिस के बाद 5 बजे मैं इंतजार करूंगी. वैभव ने अपनी गाड़ी निकाली और घर चला गया. वह समझ ही नहीं पाया था कि वह कहां इंतजार करेगी. उस ने जब मैसेज देखा तो उस ने नीरा को फोन कर के सौरी बोला. व्हाट्सऐप पर सौरी लिखा लेकिन आपसी संबंधों में दूरी आ गई.

व्हाट्सऐप पर लगातार नोटिफिकेशन और संदेश रिश्तों पर ध्यान केंद्रित की क्षमता कम कर देते हैं. लगातार फौरवर्डेड मैसेज देख कर लोगों के मन में भेजने वाले के प्रति गुस्सा और ऊब की भावना पैदा करता है. Social Media

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