मुखौटा: ऐसा क्या हुआ था ट्रक ड्राइवर नईम के साथ

आज का दिन बहुत अच्छा था. सुबहसुबह जल्दी तैयार हो कर दोस्तों के साथ पाल के रास्ते पर हम निकल पड़े थे. इस सफर के लिए आरक्षित मिनी बस तो ठीक 5 बजे आ गई थी लेकिन सफर पर जाने वाले साथी 6 बजे तक ही आ पाए थे. सुबह के समय सब लोग प्रसन्न थे और बातचीत करते हुए हम सफर पर निकल पड़े थे.

रास्ते में एक ऐतिहासिक मंदिर की वास्तुकला देख कर हम सब वहां से आगे पाल जाने के लिए चल पड़े. हम पाल पहुंचे तो शाम के 5 बज रहे थे. हमारी योजना जल्दी घर लौट कर रात का खाना घर पर ही खाने की थी. बस का ड्राइवर जल्दी मचा रहा था क्योंकि उस के घर पर कुछ मेहमान आए हुए थे, अत: उसे घर जा कर उन्हीं के साथ भोजन करना था. मैं ने भी अपने घर बता दिया था कि रात तक अमलनेर पहुंच जाऊंगा.

पाल में हम सब ने काफी मौजमस्ती की. वहां के पार्क में हिरणों के साथ फोटो भी खिंचवाए. एक लैक्चरर साथी ने अलगअलग तरह की वनस्पतियों की जानकारी दी. वहां के फूलों का नजारा देखने के बाद जल्दी से घर लौटने के लिए सब लोग बस में बैठ गए.

ड्राइवर को भी घर पहुंचने की जल्दी थी. अत: उस ने पूरी तेजी के साथ बस दौड़ाई. करीब साढ़े 6 बजे हम सावदा पहुंचे. हमारे कुछ साथी वहां चाय पीना चाहते थे. उन्होंने इस के लिए ड्राइवर से आधे घंटे का समय मांगा. कुछ लोग चाय पीने के लिए निकल पड़े. हम भी ड्राइवर को ले कर चाय पीने लगे.

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चाय पीते 1 घंटा बीत चुका था. घड़ी की ओर देखते हुए ड्राइवर मुझ से बोला, ‘‘मैं ने पहले ही कहा थाकि खानेपीने के शौकीन लोग एक बार बैठ गए तो फिर हिलने का नाम नहीं लेंगे. उन्हें दूसरों के समय की फिक्र ही नहीं है.’’

ड्राइवर बेचैन हो रहा था. हमारी ट्रिप शानदार रही थी, लेकिन खानेपीने वालों की वजह से अब 2 घंटे की देरी हो गई थी.

रात के 9 बजे हम यावल पहुंचे. सब को घर जाने की जल्दी थी अत: वे खामोश बैठे थे.  उसी समय बस के इंजन से काफी मात्रा में धुआं निकलने लगा. ड्राइवर ने बस रोक दी. सब लोग बस से नीचे उतर पड़े.

‘‘क्या हुआ?’’ सब की जबान पर एक ही सवाल था.

‘‘इंजन में कुछ खराबी है,’’ ड्राइवर गुस्से से बोला.

ड्राइवर की बात सुन कर दूसरी गाड़ी ढूंढ़ने के लिए मैं ने बस में से अपना सामान निकाल लिया और दूसरी गाड़ी ढूंढ़ने लगा. मुझे देख कर कुछ साथी हंसीमजाक करने लगे तो कुछ लोग मैकेनिक ढूंढ़ने में ड्राइवर की सहायता करने लगे.

रास्ते पर काफी आवाजाही थी. मुझे अमलनेर पहुंचना था, इसलिए हर जाने वाली गाड़ी को हाथ दिखा कर रोकने का प्रयास कर रहा था. केलों से लदा एक ट्रक कुछ आगे जा कर रुक गया. मैं बड़ी आशा के साथ उस तरफ बढ़ गया. उस ट्रक में पहले से 15-20 मजदूर बैठे थे. उन में से 2 लोग वहां उतर गए. ड्राइवर ने मेरी ओर देख कर पूछा, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘अमलनेर,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक है, गाड़ी अमलनेर हो कर अहमदाबाद जाएगी. इधर कैसे फंस गए?’’

‘‘भाई साहब, हमारी गाड़ी का इंजन फेल हो गया है. उस में हमारे कुछ और साथी भी थे,’’ मैं अपनी बात पूरी कर ड्राइवर के कैबिन में घुस गया.

पलभर में ही ट्रक पूरी तेजी के साथ सड़क पर दौड़ने लगा. मुझे इस उम्मीद से खुशी हुई कि 11 बजे तक अमलनेर अपने घर पहुंच जाऊंगा. मेरे नजदीक सब मजदूर एकदूसरे से चिपक कर बैठे थे. ड्राइवर ने टेप रिकौर्डर शुरू कर दिया.

ड्राइवर ने अभी बातचीत शुरू की ही थी कि सामने टौर्च का उजाला आया. ड्राइवर ने ट्रक की रफ्तार धीमी कर दी.

‘‘इसे भी अभी ही आना था. किसी के पास 5 रुपए हैं क्या?’’ ड्राइवर ने कैबिन में बैठे यात्रियों से पूछा.

मैं ने अपनी जेब से 5 का नोट निकाल कर उसे दे दिया. ड्राइवर ने अपने बगल की खिड़की से हाथ निकाल कर 5 का नोट हवलदार के हाथ में दिया और ट्रक की स्पीड बढ़ा दी.

‘‘अब देखो साहब, अगले पौइंट पर मैं सिर्फ 2 रुपए का सिक्का दूंगा. ये सब भिखारी लोग हैं. खाकी वरदी वाले डाकू हैं. साहब, असली डाकू तो यही हैं. चोरडाकू तो कभीकभी डाका डालते हैं, लेकिन ये लोग तो हर दिन जनता को लूटते हैं.’’

ड्राइवर मेरी ओर देख कर बोल रहा था. ट्रक में लगे टेप रिकौर्डर पर गाना चालू था. तभी सामने 2 हवलदार खड़े दिखाई दिए. ट्रक एक तरफ रोक कर ड्राइवर नीचे उतरा और एक पुलिस वाले के सामने जा कर खड़ा हो गया.

‘‘क्या साहब, हमारा रोज का आनाजाना है.’’

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‘‘तो दादा, हम कहां ज्यादा मांगते हैं,’’ पुलिस वालों का स्वर धीमा और लाचारी से भरा था.

ड्राइवर ने धीरे से जेब से 2 रुपए का सिक्का निकाल कर उस के हाथ में टिकाया और पल भर में ट्रक चला दिया.

आगे चौक पर ट्रक रुका तो कई मजदूर फटाफट छलांग लगा कर उतर गए.

‘‘उस्मान, सब से भाड़ा बराबर लेना. आगे भी पुलिस वालों की जेबें गरम करनी पड़ेंगी,’’ ड्राइवर ने हिदायत दी, ‘‘और उस्मान, ट्रक का अगलापिछला टायर ठीक से देख लेना.’’

ट्रक स्टार्ट कर ड्राइवर ने स्टेयरिंग   व्हील पर हाथ रखते हुए पूछा,  ‘‘साहब, आप अमलनेर में नौकरी करते हो क्या?’’

‘‘मैं टैलीफोन विभाग में हूं. क्या आप अमलनेर आते रहते हैं?’’

‘‘मैं बचपन में अमलनेर में रहता था. वहां स्कूल में पढ़ता था. नईम नाम है मेरा. क्या आप वहां के कालू मिस्त्री को पहचानते हैं?’’

‘‘हां, वे अच्छे कारीगर हैं और कसाली में रहते हैं,’’ मैं ने बताया.

‘‘अरे, आप तो हमारी पहचान के निकले.’’

हम दोनों की बातचीत का सिलसिला चल पड़ा.

‘‘साहब, 20 साल से मैं ड्राइविंग कर रहा हूं. मुंबई, अहमदाबाद हर रोज केले ले जाने का ट्रिप लगता है. 20 साल से एक ही मालिक के पास काम कर रहा हूं. वे मुझे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.’’

‘‘ईमानदारी से काम करने वाले को कोई आदमी कैसे छोड़ेगा?’’

‘‘अरे साहब, आप ईमानदारी की बात कर रहे हैं… मैं ने 20 साल में पैसा नहीं कमाया लेकिन नाम कमाया है, इज्जत कमाई है. इस रास्ते पर हवलदार भी मुझे सलाम करते हैं.’’

तब तक क्लीनर ने ट्रक पर सवार हो कर कहा, ‘‘चलो, नईम चाचा.’’

ट्रक चल पड़ा. रास्ते में हम दोनों की बातचीत फिर शुरू हो गई.

‘‘आप को क्या बताऊं साहब, अगर सामने से इलाके का विधायक भी आ जाए तो वह गाड़ी खड़ी कर के मुझ से 2 मिनट बात जरूर करेगा. हम ने इतनी इज्जत कमाई है.’’

‘‘हम अमलनेर कितनी देर में पहुंचेंगे?’’

‘‘1 घंटे में.’’

उसी समय एक जीप ने पूरी तेजी से हमारे ट्रक को ओवरटेक किया. सामने से एक मोटरसाइकिल आ गई. जीप का ड्राइवर कंट्रोल खो बैठा और उस ने मोटरसाइकिल सवार को टक्कर मार दी.

ट्रक का ड्राइवर रफ्तार कम करते हुए चिल्ला पड़ा, ‘‘अरे, मारा गया बेचारा.’’

क्लीनर भी आंखें फाड़ कर देखने लगा. टक्कर की तेज आवाज सुन कर मेरी छाती भी धड़कने लगी. मोटर- साइकिल रास्ते के समीप के गड्ढे में जा गिरी. ट्रक कुछ आगे जा कर रुका. जीप वाले को गाली देते हुए नईम ट्रक से उतरा. मैं भी उस के पीछे उतरा. मोटरसाइकिल पर सवार दोनों व्यक्ति काफी दूर जा कर गिरे थे. चालक के सिर पर काफी चोट लगी थी और उस में से खून बह रहा था. उस के पीछे बैठा व्यक्ति दर्द से बिलख रहा था.

‘‘उस्मान, पानी की बोतल ला,’’ नईम चिल्लाया. उस्मान ने पानी की बोतल ला कर दी तो उस ने पानी की धार जख्मी व्यक्ति के मुंह में डाली. तभी एक दूध वाले की मोटरसाइकिल आ कर खड़ी हुई.

‘‘कौन तात्याभाई?’’ वह चिल्लाया.

‘‘किस ने ठोकर मार दी?’’ दूध वाले ने पूछा. पास आ कर उस दूध वाले ने उस जख्मी व्यक्ति को पहचाना. वह उसी के गांव का रहने वाला था. वह ट्रक और ड्राइवर की ओर देख कर चिल्लाया, ‘‘तुम ने टक्कर मारी इस मोटरसाइकिल को?’’

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‘‘अरे भाई, इस को जीप वाले ने ठोकर मारी है. मैं तो इंसानियत के नाते इसे पानी पिला रहा हूं. वरना इस सुनसान रास्ते पर इसे कौन देखेगा? चाहो तो तुम पूछ लो इस जख्मी से.’’

नईम ने अपनी सफाई पेश की. मैं ने भी नईम की बात का समर्थन किया.

उसी समय जख्मी व्यक्ति चिल्लाने लगा, ‘‘उस जीप वाले को पकड़ो, उसी ने टक्कर मारी है.’’

‘‘अब तो आप को यकीन हुआ?’’ नईम ने उस दूध वाले से पूछा.

इसी बीच उस रास्ते पर 2-3 और मोटरसाइकिल वाले भी आ गए. सब अपनीअपनी हांक रहे थे. जख्मी को तुरंत अस्पताल पहुंचाना जरूरी था. पुलिस को खबर करने की जरूरत थी. वहां आया दूध वाला जख्मी मोटरसाइकिल चालक के घर खबर देने चला गया.

‘‘ऐसा करते हैं कि जख्मी को हम ट्रक में डाल कर चोपड़ा ले जाते हैं और वहां सरकारी अस्पताल में भरती करा देते हैं.’’

नईम के इस प्रस्ताव को सब ने मान लिया. जख्मी को उठा कर ट्रक में डाल कर नईम ने तेजी के साथ ट्रक भगाया. 2 लोग हमारे साथ आए और बाकी वहीं रुक गए.

‘बेचारे की जान बचनी चाहिए,’ नईम बड़बड़ाने लगा.

10-15 मिनट में ट्रक सरकारी अस्पताल पहुंच गया. जख्मी को अस्पताल में भरती करवाया गया. तब तक पुलिस भी वहां पहुंच गई. इस चक्कर में मुझे देर होती जा रही थी. नईम को भी जल्दी पहुंचना था क्योंकि उस के ट्रक में केले लदे थे. इस दुर्घटना के चलते अब घंटे भर की और देरी हो गई थी.

ड्राइवर नईम को लग रहा था कि जख्मी को भरती कराने के बाद उसे छुट्टी मिल जाएगी, लेकिन पुलिस ने उसे ट्रक रोकने के लिए कहा.

‘‘ट्रक भगाने की कोशिश मत करो,’’ एक हवलदार ने उसे डांट दिया.

‘‘हम ने इंसानियत के नाते इसे यहां पहुंचाया है,’’ नईम ने हाथ जोड़ कर पुलिस से अपनी सफाई पेश की.

‘‘इसे किसी जीप वाले ने ठोकर मारी है यह हम कैसे मान लें?’’

पुलिस वाले के तर्क के सामने नईम कुछ बोल नहीं पाया, फिर भी अपनी सफाई पेश करने की कोशिश की.

‘‘साहब, हम ने कौन सा बुरा काम किया है?’’

‘‘झूठ मत बोलो, इसे तुम्हारे ट्रक ने ही ठोकर मारी है.’’

एक पुलिस वाला उसे डांटने लगा. मैं खामोशी से उन की बातचीत सुन रहा था.

‘‘साहब, आप चाहें तो इन से पूछ लो, ये हमारे पैसेंजर हैं,’’ नईम गिड़गिड़ाया.

‘‘वह मैं कुछ नहीं जानता. ट्रक में माल भरा जाता है या पैसेंजर. इस मामले की पूरी छानबीन होने तक हम तुम्हें जाने नहीं देंगे. तुम ट्रक को पुलिस थाने में छोड़ दो.’’

हवलदार की बात से नईम घबरा गया. बोला, ‘‘मेरा केले का ट्रक है, जाने दीजिए. और मैं ने कोई बुरा काम नहीं किया है.’’

‘‘अपनी बात तू साहब को बताना, मैं कुछ नहीं जानता. ट्रक को तो पुलिस स्टेशन में ही जमा करवाना पड़ेगा.’’

हवलदार की बात से नईम की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे लगा फिर वह क्यों इस झमेले में फंसा. होश आने पर जख्मी मोटरसाइकिल वाला जब तक बयान नहीं देता तब तक उसे छुटकारा मिलने की कोई गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि पुलिस की नजर में नईम ही गुनाहगार था.

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‘‘अगर उस ने होश में आ कर बयान दिया कि जीप वाले ने ही उसे टक्कर मारी है तब तुम जा सकोगे,’’ उसे डांट कर हवलदार डाक्टर के कैबिन में चला गया. नईम और मैं बाहर ही खड़े रहे.

‘‘देखो साहब, मैं ने कौन सा बुरा काम किया है?’’

तब तक दूसरे जख्मी को ऐंबुलैंस में डाल कर अस्पताल में लाया गया. डाक्टर ने उस की जांच कर के उसे ‘ब्राट डैड’ घोषित कर दिया और पोस्टमार्टम के लिए रवाना कर दिया. तब तक रात के 12 बज चुके थे. अस्पताल में रोने और चीखनेचिल्लाने की आवाजें बढ़ने लगीं. डाक्टर और नर्सों की दौड़धूप जारी थी. नईम बेचैनी के साथ इधरउधर चक्कर काट रहा था. जख्मी के रिश्तेदारों ने उस के ट्रक का घेराव कर लिया था. इस से नईम और भी घबरा गया.

‘‘साहब, मैं अपने सेठ को फोन कर के आता हूं,’’ कह कर वह फोन के बूथ की ओर बढ़ा तो मैं उस के पीछेपीछे चल दिया. क्लीनर गाड़ी छोड़ कर पहले ही भाग चुका था.

‘‘हैलो, बाबू सेठ. मैं नईम बोल रहा हूं. मैं अभी चोपड़ा में हूं.’’

‘‘अभी तक तू चोपड़ा में क्या कर रहा है? कब अहमदाबाद पहुंचेगा?’’

‘‘नहीं, बाबू सेठ, यहां रास्ते में एक ऐक्सीडैंट हो गया है.’’

‘‘अपनी गाड़ी का?’’

‘‘अपनी गाड़ी का नहीं. एक जीप वाले ने मोटरसाइकिल सवार को टक्कर मार दी…मैं जख्मी मोटरसाइकिल वाले को अस्पताल में ले आया था इसलिए देर हो रही है.’’

नईम ने अपने मालिक बाबू सेठ को समझाने की कोशिश की लेकिन सेठ को नईम पर बहुत गुस्सा आया.

रात के 2 बजे तक भी उस जख्मी को होश नहीं आया. मैं ने भी घर फोन कर के बता दिया कि मैं देरी से घर लौटूंगा. घर पर सभी चिंतित हो गए.

नईम ने एक पुलिस वाले को 50 रुपए का नोट दे कर ट्रक के सामने की भीड़ कम करने के लिए कहा. पुलिस हवलदार ने नोट जेब में डाल कर हाथ की लाठी पटक कर ट्रक के सामने जमा भीड़ को कम कर दिया.

नईम मेरी ओर देख कर कहने लगा, ‘‘साहब, आप मेरा साथ नहीं छोड़ना, आप तो मेरे गवाह हो. मैं ने कोई बुरा काम नहीं किया है और एक आदमी की जान बचाने से कोई बड़ा काम नहीं हो सकता,’’ फिर वह अपने हाथ में मेरा हाथ ले कर बोला, ‘‘पुलिस का कोई भरोसा नहीं. वे यह आरोप मुझ पर डाल देंगे.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होगा,’’ मैं ने नईम को धीरज बंधाने की कोशिश की.

मैं उस का हाथ पकड़ कर जख्मी के बिस्तर की ओर बढ़ गया. जख्मी व्यक्ति की सांस ठीक चल रही थी.

उसी समय 5-7 औरतें चीखती- चिल्लाती आईं. एक औरत अपना सिर पीटपीट कर रो रही थी और दूसरी 2 औरतें उसे धीरज बंधाने की कोशिश कर रही थीं. कोलाहल बढ़ने लगा तो एक नर्स ने आ कर उन सब को वहां से हटा दिया.

नईम और मैं मुरझाए चेहरे से वहीं खड़े थे. अब 4 बजने वाले थे. हम अस्पताल के मुख्यद्वार की ओर बढ़े तो हवलदार ने हमें वापस बुला लिया. हार कर हम मरीजों के वार्ड में जा कर बैठ गए.

थोड़ी ही देर में घायल मरीज को होश आ गया. नईम के चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ कर दिलासा देने का प्रयास किया. पलभर में हवलदार आ गया और मरीज के रिश्तेदार भी पलंग के चारों ओर जमा हो गए.

‘‘तुम्हारी मोटरसाइकिल को किस ने टक्कर मारी?’’ हवलदार ने पूछा.

घायल मरीज ने बड़ी मुश्किल से अपना मुंह खोला और बताया, ‘‘यावल से आने वाली जीप ने हमें टक्कर मार दी,’’ उस के चेहरे से असहनीय वेदना झलक रही थी.

इधर नईम का चेहरा खिल गया क्योंकि एक बड़ी मुसीबत से उस का छुटकारा होने वाला था.

‘‘देखा साहब, अब तो आप को यकीन आ गया होगा,’’ नईम ने धीरे से अपनी बात हवलदार से कही.

पहली बार हवलदार ने उस की तरफ नरमी से देखा. वह घायल मरीज का बयान ले कर पंचनामा करने लगा.

‘‘देखो साहब, अब हमें बहुत देरी हो गई है. ट्रक में केला भरा है, अब हमें जाने दो,’’ नईम ने दूसरे हवलदार से अपनी बात कही.

‘‘ऐसे कैसे जाने दूं? बड़े साहब आएंगे, उन से पूछ कर फिर जाना.’’

‘‘हवलदार साहब, अब काहे को लफड़े में डाल रहे हो. कहो तो आप के चायपानी का इंतजाम कर दूं.’’

‘‘पूरी रात जागता रहा तो किसी ने हमें चायपानी के लिए नहीं पूछा,’’ हवलदार ने नरमी से मेरी ओर देखा.

नईम ने जेब से 50 रुपए का नोट निकाल उस के हाथ में पकड़ाया.

‘‘तू क्या हम को भीख दे रहा है?’’ हवलदार ने गुस्से का नाटक किया.

‘‘नईम दादा, जाने दो. हिसाब से दे दो. हम यहां कब तक पड़े रहेेंगे?’’

मेरी बात पर हवलदार मुसकराया. नईम ने जेब में हाथ डाल कर 50 रुपए का एक और नोट हवलदार की हथेली पर रखा.

हवलदार ने जरा नाराज हो कर सिर हिला दिया और नोट जेब में ठूंस लिए. मैं ट्रक की ओर बढ़ने लगा. नईम ने उस्मान को आवाज दे कर अपने पास बुलाया तो वह दीवार के पीछे से निकल कर वापस आ गया.

‘‘चल, बैठ गाड़ी में.’’

जब हम सभी ट्रक पर सवार हो कर चलने लगे तब सुबह के 5 बज चुके थे. सड़क पर आवाजाही शुरू हो गई थी. ‘‘साहब, 2 मिनट रुको, मैं अपने बाबू सेठ को फोन कर के आता हूं,’’ कह कर वह फोन बूथ पर गया और जल्दी में नंबर घुमाया.  फोन पर सेठ बिना रुके उसे डांटे जा रहा था. नईम अपने सेठ की बात बड़ी शांति से सुनता रहा. उस की बात खत्म होने के बाद शुरू हुई हमारी बाकी बची यात्रा.

ट्रक पूरी तेजी के साथ अमलनेर की ओर बढ़ा. सुबह की ठंडक में भी नईम का चेहरा पसीने से तरबतर था. वह सावधान हो कर तेजी से ट्रक दौड़ाने लगा. मैं ने घबराते हुए नईम की ओर देखा. ट्रक चलाते हुए बकबक करने वाला ट्रक ड्राइवर अब बड़ी शांति से ट्रक चला रहा था. ट्रक की स्पीड इतनी ज्यादा थी कि पीछे कौन सा गांव जा रहा है इस का भी पता नहीं चल रहा था. सावरखेड़ा का पुल तो कब का पीछे छूट चुका था. आखिर मैं ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘क्या दादा, तुम्हारे सेठ ने क्या बोला?’’

‘‘सेठ बहुत नाराज हो गया है. यार, वह कह रहा था कि आइंदा कभी ऐसा ऐक्सीडैंट हो जाए और मरने वाला प्यास के मारे तड़पता हो तो उस तड़पते आदमी की तरफ देखना भी नहीं.’’

हमारा ट्रक अब रेल फाटक पार कर के आगे बढ़ रहा था. रास्ता खुला था. थोड़ी देर में हम एस.टी. स्टैंड पर पहुंच गए. मैं ने उतरने की तैयारी की.

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‘‘नईम दादा, अब तो हमें वैसे ही काफी देर हो गई है. चलो, थोड़ीथोड़ी चाय पी ली जाए.’’

उस ने एक छोटे से ढाबे पर गाड़ी रोकी. साढ़े 5 बज चुके थे. हम होटल में गए. वहां मैं ने चाय का और्डर दिया. चाय वाले ने हमारे सामने 2 कप चाय ला कर रखी. चाय का कप उठा कर नईम बोला, ‘‘जाने दो साहब, हम ने कोई बुरा काम नहीं किया. एक इंसान मर रहा था, उस को बचाना हमारा फर्ज था. इसी को इंसानियत कहते हैं.’’

‘‘हां भाई, यही नेकी तुम्हारे बालबच्चों के काम आएगी,’’ मैं सिर्फ इतना ही बोल पाया.

चाय पी कर मैं अपने घर की ओर जाने लगा तो वह भी ट्रक की ओर चल दिया. कल की पूरी रात मैं ने जाग कर बिताई थी. इस एक रात में इंसानी स्वभाव के अलगअलग पहलू देखने के अवसर मिले थे.

नईम की इस इंसानियत की कहानी किसी इतिहास में नहीं लिखी जाएगी, लेकिन टिमटिमाते दीए की तरह इंसानियत अब भी जिंदा है यह सोच कर ही मैं उत्साहित था.

ऑफ-शोल्डर लहंगा पहनकर निया शर्मा ने दिखाया जलवा, PHOTOS VIRAL

सीरियल जमाई राजा से लेकर नागिन जैसे सीरियल्स से फैंस का दिल जीत चुकीं एक्ट्रेस निया शर्मा अक्सर सोशलमीडिया पर छाई रहती हैं. अपनी हौट फोटोज से जहां निया शर्मा फैंस को हैरान करती हैं तो वहीं अपने फैशन स्टेटमेंट से दूसरी एक्ट्रेसेस को कड़ी टक्कर देती हुई नजर आती हैं. इसी बीच निया शर्मा ने अपनी लहंगे में कुछ फोटोज शेयर की हैं, जिसे देखकर फैंस उनकी तारीफें करते नही थक रहे हैं. आइए आपको दिखाते हैं निया शर्मा का हौट इंडियन फैशन…

लहंगे में नजर आई Nia Sharma

एक्ट्रेस निया शर्मा ने ब्लू रंग के ऑफ-शोल्डर लहंगे में फोटोशूट कराया है, जिसमें निया बेहद खूबसूरत लग रही हैं. इसी के साथ निया शर्मा का स्वैग फैंस को बेहद पसंद आ रहा है. सिंपल ज्वैलरी के साथ हैवी एम्ब्रौयडरी वाला लहंगा निया शर्मा के लुक को हौट के साथ-साथ स्टाइलिश लुक दे रहा है.

 

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2. क्रीम कलर के लहंगे में आ चुकी हैं नजर

 

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निया शर्मा के लहंगे कलेक्शन की बात करें तो निया शर्मा क्रीम कलर के लहंगे में नजर आ चुकी हैं, जिसमें हैवी एम्ब्रायडरी की गई थी. इस लुक में निया बेहद खूबसूरत और हौट लग रही थीं.

3. ब्लैक साड़ी के साथ दें हौट लुक

 

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अगर आप अपनी सिंपल साड़ी को हौट लुक देना चाहती हैं तो निया शर्मा का ये हौट ब्लाउट ट्राय करें. ये आपके लुक को हौट बनाने में मदद करेगा.

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4. शरारा है खास

 

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अगर आप निया शर्मा के और भी इंडियन कलेक्शन ट्राय करना चाहती हैं तो आसमानी रंग का ये शरारा आपके लिए परफेक्ट औप्शन है. ये ट्रैंडी औप्शंस में से एक है, जिसे आप किसी भी पार्टी में ट्राय कर सकती हैं.

5. वाइट लहंगा है खास

 

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अगर आप कलरफुल की जगह सिंपल और वाइट लहंगा ट्राय करना चाहती हैं तो निया शर्मा का ये लहंगा परफेक्ट औप्शन है.

वतनपरस्ती: समीक्षा और हफीजा की दोस्ती की कहानी

‘‘नया देश, नए लोग दिल नहीं लगता… जी करता है इंडिया लौट जाऊं,’’ समीक्षा ने रोज का राग अलापा. ‘‘यह आस्ट्रेलिया है. सब से अच्छे विकसित देशों में से एक. यहां आ कर बसने के लिए लोग जमीनआसमान एक कर देते हैं और तुम यहां से वापस जाने की बात करती हो. अब इसे मैं तुम्हारा बचपना न कहूं तो और क्या कहूं?’’

‘‘तो क्या करूं? तुम्हारे पास तो तुम्हारे काम की वजह से अपना सोशल सर्कल है, दोनों बच्चों के पास भी उन के स्कूल के फ्रैंड्स हैं. बस एक मैं ही बचती हूं जिसे दिन भर चारदीवारी में अर्थहीन वक्त गुजारना पड़ता है. अकेले रहरह कर तंग आ गई हूं मैं.’’ ‘‘हां, लंबे समय तक चुप रहने के कारण तुम्हारे मुंह से बदबू भी तो आने लगती होगी,’’ प्रतीक चुटकी लेते हुए बोला.

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है, मगर मैं वास्तव में गंभीर हूं अपनी समस्या को ले कर… मेरी हालत तो कुएं के मेढक जैसी होती जा रही है. शादी से पहले जो पढ़ाईलिखाई की थी उसे भी घरगृहस्थी में फंस कर भूल चुकी हूं अब तक.’’ ‘‘कौन कहता है कि तुम कुएं का मेढक बन कर जियो… मैं तो चाहता हूं कि तुम आसमान की ऊंचाइयां छुओ.’’

‘‘इस चारदीवारी को पार कर के घर के 3 प्राणियों के सिवा किसी चौथे की सूरत देखने तक को तो नसीब नहीं होती… आसमान की ऊंचाइयों तक क्या खाक पहुंचुंगी मैं?’’ ‘‘जिंदगी की दिशा में अमूलचूल परिवर्तन जिंदगी को देखने के नजरिए और जैसेजैसे जिंदगी मिले उस से सर्वोत्तम पल निचोड़ कर जीवन अमृत ग्रहण करने में है,’’ प्रतीक समीक्षा के हाथ से चाय का प्याला ले कर उसे अपने पास बैठाते हुए किसी फिलौसफर के से अंदाज से बोला.

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‘‘मुझे तो इस जीवनअमृत के प्याले को पाने की कोई युक्ति नहीं समझ आती. तुम ही कुछ समाधान ढूंढ़ो मेरे लिए.’’ ‘‘मैं खुद भी कुछ समय से तुम्हारी परेशानी महसूस कर रहा था. जैसेजैसे बच्चे बड़े होते जाएंगे उन की दुनिया हम से अलग होती जाएगी… तब बच्चे अपनी जिंदगी में और भी व्यस्त हो जाएंगे और तुम्हारा एकाकीपन बद से बदतर होता चला जाएगा. अच्छा होगा कि तुम खुद को उस वक्त से मुकाबला करने के लिए अभी से तैयार करना शुरू कर दो और कुछ पढ़लिख लो.’’

‘‘पढ़नालिखना और इस उम्र में… चलो तुम्हारी बात मान कर मैं कोई कोर्स कर भी लूं तो उस से होगा भी क्या? 1-2 साल में कोर्स पूरा हो जाएगा और मैं जहां से चलूंगी वहीं वापस आ कर खड़ी हो जाऊंगी… इस उम्र में मुझे कोई काम तो मिलने से रहा… वह भी यहां आस्ट्रेलिया में.’’ ‘‘नौकरी मिलने का आयु से संबंध जितना इंडिया में होता है उतना यहां आस्ट्रेलिया में नहीं. यहां तो एक तरह का चलन है कि बच्चों के थोड़ा बड़ा हो जाने के बाद मांएं खुद को रिबिल्ट करती हैं और जो भी कोर्सेज तत्कालीन इंडस्ट्री की जरूरत में होते हैं उन्हें कर के फिर से वर्कफोर्स में लौट आती हैं.’’

‘‘हां, अब तुम्हारा आशय कुछकुछ समझ में आ रहा है मुझे. मैं कल दोपहर में आराम से सभी यूनिवर्सिटीज की वैबसाइट पर जा कर देखूंगी कि मेरे लिए क्या ठीक रहेगा.’’

कई दिनों तक विभिन्न शिक्षण संस्थानों की वैबसाइट्स पर घंटों व्यतीत करने के बाद आखिर समीक्षा को एक कोर्स पसंद आ गया. ‘इवेंट मैनेजमैंट’ का. 15 साल बाद फिर से पढ़ाई शुरू करने की घबराहट मिश्रित उमंग के साथ वह टेफ इंस्टिट्यूट पहुंच गई.

यहीं पर उस की मुलाकात हफीजा से हुई. उस ने भी इवेंट मैनेजमैंट कोर्स में प्रवेश लिया था और अपने अंगरेजी के अल्प ज्ञान के कारण कुछ घबराई, सकुचाई अपनेआप में सिमटी सी रहती थी. हफीजा के हालात पर समीक्षा को बड़ी सहानुभूति होती. उसे लगता कि उसे हफीजा को सीमित दायरे से निकालने में उस की थोड़ी मदद करनी चाहिए. वह बचपन से सुनती आई थी कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है. व्यावहारिक जीवन में इस की सत्यता को परखने की दृष्टि से समीक्षा ने हफीजा की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. अब वह जब भी मौका मिलता हफीजा को अपने साथ अंगरेजी बोलने का अभ्यास कराने लगती.

समीक्षा जैसी बुद्धिजीवी दोस्त पा कर हफीजा भी बेहद प्रफुल्लित जान पड़ती थी. कृतज्ञता से सिर से पांव तक डूबी हुई वह मौकेबेमौके समीक्षा के परिवार को अपने घर बुला कर इराकी खाने की लजीज दावतें देती. समीक्षा भी अपने भारतीय पाककौशल का प्रदर्शन करने में पीछे न रहती और इंस्टिट्यूट जाने के लिए 2 लंच पैक तैयार कर के ले जाती. एक स्वयं के लिए और दूसरा अपनी हफीजा के लिए. वे दोनों क्लासरूम में पासपास बैठतीं, साथसाथ असाइनमैंट्स करतीं. दोनों के बीच की घनिष्ठता दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी. पंजाबी समीक्षा का गोरा रंग, तीखे नैननक्श, इराकी हफीजा से मिलतेजुलते से होने के कारण सभी उन्हें बहनें समझते. उन के बीच का अंतराल तब दृष्टव्य होता जब कोई उन से बात करता. समीक्षा धाराप्रवाह अंगरेजी बोलती तो हफीजा टूटीफूटी और वह भी पक्के इराकी लहजे में.

‘‘तुम्हारी इंग्लिश इतनी अच्छी कैसे है?’’ अपनी टूटीफूटी इंग्लिश से मायूस हफीजा से एक दिन रहा न गया तो उस ने समीक्षा से पूछ

ही लिया. ‘‘इंग्लिश एक तरह से हमारे देश की दूसरी भाषा है. हमारे यहां अच्छे से अच्छे इंग्लिश माध्यम के स्कूल हैं. उच्च शिक्षा का माध्यम ज्यादातर इंग्लिश ही है. इंग्लिश में अनगिनत पत्रपत्रिकाओं का भी प्रकाशन होता है,’’ समीक्षा ने गर्व के साथ कुछ इस अंदाज में ‘इंडिया का हाल ए अंगरेजी’ बयां किया जैसेकि द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने वाला कोई सैनिक किसी को अपने जीते हुए पदकों की गिनती करा रहा हो.

थोड़ी देर हफीजा किंकर्तव्यविमूढ सी समीक्षा की बात सुनती रही, फिर बोली, ‘‘जिंदगी आसान रहती है तुम जैसों के लिए तो इंग्लिश भाषी देशों में आ कर. हमारे जैसों को यहां आ कर सब से पहले तो यहां की जबान सीखने की जंग लड़नी पड़ती है… बाकी चीजें तो बाद की हैं.’’ ‘‘हां हफीजा वह तो ठीक है, लेकिन मैं कई बार सोचती हूं कि ऐसे हालात में तुम यहां आ कैसे गईं, क्योंकि लोकल भाषा का ज्ञान वीजा मिलने की एक जरूरी शर्त है.’’

‘‘मैं… मैं वह क्या है मैं दूसरे तरीके से यहां आई थी,’’ हफीजा उस वक्त तो होशियारी के साथ बात टालने में कामयाब हो गई.

बहरहाल वक्त के साथ धीरेधीरे समीक्षा को पता चल गया कि हफीजा एक विधवा है. उस के पति की मृत्यु उस के बेटे के जन्म के 3-4 महीने पहले ही हो गई थी. अपने कुछ रिश्तेदारों की मदद से वह आस्ट्रेलिया चली आई थी एक रिफ्यूजी बन कर. वे सब रिश्तेदार भी कई साल पहले इसी तरीके से यहां आ कर अब तक आस्ट्रेलियन नागरिक बन चुके थे. पढ़ाई के साथसाथ वह एक रेस्तरां में कुछ घंटे वेटर का काम किया करती थी.

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हफीजा का लाइफस्टाइल देख कर समीक्षा हैरान रहती थी. हफीजा का पहनावा किसी रईस से कम नहीं था. वह अच्छे इलाके में अच्छा घर किराए पर ले कर रहती थी और उस का बेटा भी उस क्षेत्र के सब से अच्छे स्कूल में पढ़ता था. ‘‘मुश्किल होती होगी तुम्हें अकेले संभालने में… कैसे संभव हो पाता है ये सब? कुछ घंटे वेटर का काम कर के तो किसी का भी गुजारा नहीं हो सकता यहां?’’ एक दिन घुमावदार तरीके से समीक्षा ने हफीजा के लाइफस्टाइल का राज जानने की उत्सुकता में पूछा. ‘‘मैं एक सिंगल मौम हूं, इसलिए मुझे ‘सोशल सिक्युरिटी अलाउंस’ मिलता है

सरकार से.’’ हफीजा के सत्य वचन समीक्षा को और भी जिज्ञासु बना गए. सो उस ने तहकीकात जारी रखी, ‘‘और तुम ने बताया था कि तुम जब आस्ट्रेलिया आई थी तो तुम्हें इंग्लिश का एक शब्द भी नहीं आता था, पर अब टूटीफूटी ही सही, मगर तुम्हें कामचलाऊ इंग्लिश आती ही है. कैसे सीखा ये सब तुम ने अपने दम पर?’’

‘‘मुझे यहां आ कर ‘एडल्ट माइग्रेंट इंग्लिश प्रोग्राम’ के तहत सरकार की तरफ से 510 घंटे की मुफ्त ट्यूशन मिली थी… अंगरेजी सीखने के लिए.’’

‘‘अच्छा तभी मैं सोचूं कि तुम्हारे इतने ठाट कैसे हैं… अब पता चला कि तुम्हारे देश से इतने सारे लोग रोजरोज बोट में बैठबैठ कर यहां क्यों चले आते हैं… क्यों कुछ खास देशों से आने वाले शरणार्थियों को ले कर नैशनल न्यूज में इतना होहल्ला होता है,’’ जल्दबाजी में समीक्षा के मुंह से सच्चे, मगर कड़वे शब्द बाहर फिसल गए. ‘‘हम से ज्यादा तो इंडियंस यहां आते हैं,’’ हफीजा ने अपना बचाव करते हुए कहा.

‘‘हां आते तो हैं पर आने का तरीका तुम लोगों वाला नहीं है. हमारे जैसे उच्चशिक्षित लोग स्किल माइग्रेशन वीजा पर आते हैं या फिर स्टूडैंट वीजा पर. दोनों ही स्थितियों में हम इन देशों की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में अपना योगदान देते हैं…’’ हफीजा ने तत्काल समीक्षा की बात बीच में काटी, ‘‘और हां वह क्या फरमाया तुम ने कि नैशनल न्यूज में हम जैसों को ले कर होहल्ला होता रहता है… क्या तुम ने कभी ‘एसबीएस’ टीवी देखा है… कैसीकैसी डौक्यूमैंटरीज आती हैं उस पर तुम्हारे इंडिया के बारे में… उफ वह खुले हुए बदबूदार गटर, गंदी झुग्गीझोंपडि़यां,’’ हफीजा ने नाक सिकोड़ कर हिकारत से कहा, ‘‘कुछ साल पहले एक औस्कर अवार्ड विनर मूवी भी तो बनी थी तुम्हारे देश के बारे में. उस में भी तो ये सब गंद ही दिखाया गया था… क्या नाम था उस का… हां याद आ गया ‘स्लमडौग मिलियनेयर…’ ओएओए हाल तेरे देश का बदहाल है, फिर भी तेरा दिमाग आसमां पर है,’’ हफीजा समीक्षा की बेइज्जती करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी. ‘‘हम स्वाभिमानी लोग हैं… कम से कम तुम्हारी तरह मुफ्त की चीजों के लिए इधरउधर नहीं भागते फिरते. हमारा इंडिया, इंडिया है और तुम्हारा इराक, इराक… है कोई मुकाबला क्या… न ही हो सकता. इन विकसित देशों को हमारे जैसे प्रतिभासंपन्न लोगों की बहुत जरूरत होती है, इसलिए बड़ी कंपनियां हमारे वीजा स्पौंसर कर के हमें यहां बुलाती हैं. दुनिया भर की इनफौरमेशन टैक्नोलौजी हम इंडियंस के बलबूते पर ही चल

रही है. हम, हम हैं… हम बिना जरूरत के शरणार्थी बन कर विकसित देशों का आर्थिक विदोहन करने के लिए नहीं आते,’’ अब तक समीक्षा भी इंडोनेशिया में असमय फटने वाले ज्वालामुखी में तबदील हो चुकी थी. ‘‘बड़े ही फेंकू होते हो तुम लोग… ऐसे ही विद्वान हो तो अपने ही देश में सदियों तक गुलाम क्यों बने रहे… क्यों लुटतेपिटते रहे अपनी ही जमीं पर विदेशियों के हाथों?’’

‘‘लुटेरे तो वहीं आते हैं न जहां धनदौलत के अंबार लगे होते हैं. इतिहास गवाह है कि हमारा इंडिया प्राचीनकाल से ही अकूत संपदा और ज्ञान का केंद्र रहा है. जिसे देखो वही दुनिया भर से हमारा धन और ज्ञान लूटने चला आता था. जब ब्रिटिश लोग आए थे तो हमारी जीडीपी पूरे विश्व की 25% थी… यह हाल तो हमारे देश का तब था जबकि ब्रिटिश लोगों के आने के पहले भी अनगिनत आक्रमणकारी टनों संपदा लूट कर ले जा चुके थे. जगत गुरु है हमारा इंडिया समझीं तुम…?’’ समीक्षा के दिलदिमाग एक हो कर उसे आपे से बाहर कर चुके थे. ‘‘ऐसी ही चाहत है दुनिया को तुम लोगों की तो मेलबौर्न में इंडियन स्टूडैंट्स को ले कर इतने फसाने क्यों हुए थे?’’ जाने कहांकहां से हफीजा भी इंडियंस के बारे में खोदखोद कर नएपुराने तथ्य निकाल रही थी.

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‘‘कुछ एक पागल लोग तो सब जगह होते हैं… थोड़ीबहुत ऊंचनीच तो सब जग हो जाती है… मगर तुम लोग, तुम तो जहां रहते हो वहीं दंगा करते हो. पूरी दुनिया सच जान चुकी है तुम्हारा… शांति से रहना तो तुम लोगों ने सीखा ही नहीं है. सुविधाओं का फायदा उठाने पहुंच जाते हो अच्छे देशों में, मगर सगे किसी के नहीं होते तुम लोग.’’

जवाब में हफीजा ने समीक्षा को खा जाने वाली निगाहों से घूरा. समीक्षा ने बदले में एक विदूप मुसकराहट उस की ओर फेंकी और अपनी किताबें समेटने लगी. हफीजा कुरसी को लात मारते हुए क्लासरूम से बाहर निकल गई. शुक्र है यह नजारा देखने के लिए उस वक्त वहां कोई नहीं था. वे दोनों फुरसत के क्षणों में एक खाली क्लासरूम में अंगरेजी का अभ्यास करने के लिए आई थीं. मगर यह हसीन गुफ्तगू अचानक बेहद संगीन मोड़ ले गई. उस दिन के बाद दोनों पक्की सहेलियां क्लासरूम के ओरछोर पर बैठने लगीं. एकदूसरे को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए. फिर कभी उन्होंने आपस में आंखें नहीं मिलाईं. यह आपसी दुश्मनी थी या फिर अपनीअपनी वतनपरस्ती, कहना मुश्किल है.

जब लेना हो कार लोन

लेखक- पारुल

हर किसी का सपना होता है कि उस की अपनी कार हो. आज के दौर में यह न सिर्फ स्टेटस सिंबल बन गई है, बल्कि सुविधा के लिहाज से भी अहम है. सुबह औफिस जाने के लिए घंटों बस के इंतजार में खड़े रहना भला किसे पसंद होता है. फिर अपना वाहन हो तो वीकैंड पर कहीं भी घूमने का प्रोग्राम भी झट बन जाता है. ऐसे में इस सुविधा को कौन नहीं अपना बनाना चाहेगा और आज इसे अपना बनाना भी काफी आसान हो गया है. एचडीएफसी बैंक में औटो लोन के क्षेत्र में कार्यरत मुसकान मेवाती से बात हुई, जिन्होंने इस संबंध में विस्तार से बताया:

1. छोटी किस्त में हो रहे हैं सपने पूरे

पहले जब हम गाड़ी खरीदने के बारे में सोचते थे तो यह हमारे लिए बहुत ही मुश्किल टास्क होता था, क्योंकि हमें पूरा पैसा अपनी जेब से भरना पड़ता था. मगर अब बैंकों से ईजी ईएमआई पर लोन मिलने की सुविधा के कारण गाड़ी का सपना पूरा करना बहुत आसान हो गया है. ईएमआई का मतलब इक्वैटेड मंथली इंस्टौलमैंट, जिस के द्वारा ग्राहक लोन की राशि चुकाता है. छोटी किस्त होने के कारण इसे चुकाना आसान होता है.

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2. लोन के लिए डौक्यूमैंटेशन

बैंक व नौनबैंकिंग फाइनैंस कंपनियां आसानी से घर बैठे लोन की सुविधा दे रही हैं. बस इस के लिए आप को कुछ जरूरी दस्तावेज जमा करवाने होंगे, क्योंकि इन के बिना आगे की कार्यवाही नहीं की जाती है. जैसे आधार कार्ड, पैन कार्ड, 2-3 फोटोग्राफ, 6 महीने की बैंक स्टेटमैंट, जौब करते हैं या बिजनैस. अगर जौब करते हैं तो 3 महीने की सैलरी स्लिप, बिजली या पानी का बिल.

इस बात का भी खास ध्यान रखा जाता है कि अगर बिजली या पानी का बिल फादर या मदर में से किसी के नाम है तो उन का आधार, पैन कार्ड व फोटो लगाना अनिवार्य होता है.

अगर लोन लेने वाला व्यक्ति किराए पर रहता है तो रैंट ऐग्रीमैंट की कौपी के साथ बिजली के बिल की भी कौपी लगानी होती है. यदि लोन लेने वाला व्यक्ति बिजनैस करता है तो उसे 2 साल का आईटीआर लगाना जरूरी होता है. उसी के आधार पर उस का लोन पास किया जाता है.

3. लोन की दरें

नई कार पर 9.25% के इंटरैस्ट रेट पर लोन मिलता है, जबकि पुरानी कार पर 13% के हिसाब से. ब्याज दर खरीदने वाले के व्यवसाय, ऋण राशि व ऋण की अवधि पर निर्भर करती है. हर बैंक की अपनीअपनी दर होती है.

4. कम से कम कितनी सैलरी होनी जरूरी है

अगर आप की मासिक आय ₹20-21 हजार महीना है तो आप को आसानी से औटो लोन मिल जाएगा. कैसे मिलता है लोन? अगर नई कार की कीमत ₹9 लाख है तो आप को इस हिसाब से लोन मिलेगा:

₹9 लाख × 85% = ₹7,65,000 यानी आप को इतनी रकम लोन के रूप में मिलेगी और जो रकम बची है उसे आप को डाउन पेमैंट के रूप में देना पड़ेगा.

इसी तरह अगर पुरानी कार है और उस कार की कीमत ₹5 लाख है तो जो इंश्योरैंस पेपर में जो वैल्यू होगी उसी के हिसाब से लोन मिलेगा.

जैसे ₹5 लाख × 150% = ₹7 लाख 50 हजार लोन मिलेगा. इस स्थिति में लोन की लिमिट कम या इतनी ही होगी, बढ़ेगी नहीं.

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5. माने रखता है सिबिल स्कोर

अगर आप किसी भी बैंक से लोन लेते हैं तो आप का सिबिल स्कोर बहुत महत्त्व रखता है, जिस में आप का क्रैडिट कार्ड का पेमैंट रिकौर्ड वगैरह चैक किया जाता है. लोन के लिए 700 स्कोर जरूरी है. वैसे सिबिल एक थोपा हुआ नियम है, जिसे बैंकों ने आवश्यक नियम बना दिया है.

6. कितनी अवधि के लिए मिलता है लोन

लोन मिलने की अवधि अलगअलग कारणों पर निर्भर करती है. जैसे अगर लोन लेने वाले की उम्र ज्यादा है तो उसे कम अवधि में ज्यादा लोन की रकम अदा करनी होती है. वैसे अधिकतर बैंकों में औटो लोन 1 से ले कर 7-8 सालों के लिए दिया जाता है. यह अवधि हर बैंक की अलगअलग होती है.

7. कब होती है गारंटर की जरूरत

अगर आप नई कार खरीदते हैं तो आप को ₹4-5 हजार फाइल चार्ज के रूप में देने होते हैं, साथ ही आरसी ट्रांसफर के लिए भी ₹6-7 हजार का भुगतान करना होता है, जिस में आरसी पर एचपी चढ़ाते हैं जो यह बताती है कि इस गाड़ी पर लोन चढ़ा है. यानी कुल ₹10-12 हजार का खर्च, जो लोन अमाउंट से ही कटता है. साथ ही अगर आप पुरानी कार लेते हैं तो वैल्यूएशन चार्ज के रूप में आप को ₹1000 तक का भुगतान करना होता है.

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नया क्षितिज: वसुधा और नागेश के साथ क्या हुआ

Serial Story: नया क्षितिज – भाग 3

प्रतिपल नागेश एक परछाईं की भांति उस के साथ रहता था. जब भी वह नागेश के विषय में सोचती, उस की अंतरात्मा उसे धिक्कारती, ‘वसु, तू अपने पति से विश्वासघात कर रही है. नहीं, नहीं, मैं उन्हें धोखा नहीं दे रही हूं. मेरे तन और मन पर मेरे पति मृगेंद्र का ही अधिकार है. लेकिन यदि अतीत की स्मृतियां हृदय में फांस बन कर चुभी हुई हैं तो यादों की टीस तो उठेगी ही न.’

स्मृतियों के झीने आवरण से अकसर ही उसे नागेश का चेहरा दिखता था और वह बेचैन हो जाती थी. किंतु जब से मृगेंद्र उस के जीवन से चले गए, वह हर पल, हर सांस मृगेंद्र के लिए ही जीती थी. यह सत्य था कि नागेश की स्मृतियां उसे झकझोर देती थीं लेकिन मृगेंद्र की शांत आंखें उस के आसपास होने का एहसास दिलाती थीं. हर पल उसे कानों में मृगेंद्र की आवाज सुनाई देती थी. उसे लगता, मृगेंद्र पूछ रहे हैं, ‘क्या हुआ, वसु, क्यों इतनी उद्विग्न हो रही हो? मैं तो सदा ही तुम्हारे पास हूं न, तुम्हारे व्यक्तित्व में घुलामिला.’

यह सत्य है कि मृगेंद्र का साया उस के अस्तित्व से लिपटा रहता था. फिर भी, वह क्यों नागेश से मिलना चाहती है. जिस ने, किसी मजबूरी से ही सही, उस से नाता तोड़ा और अब 35 वर्षों बाद उस को अपनी सफाई देना चाहता है. क्या वह पहले नहीं ढूंढ़ सकता था.

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मृगेंद्र के जाने के बाद वह अकसर ही एक गीत गुनगुनाती थी- ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में तनहा हो गए…’ किस के लिए था यह गीत? नागेश के लिए? मृगेंद्र के लिए? दोनों ही तो खो गए थे और हां, वह इस भीड़भरी दुनिया में तनहाई का ही जीवन व्यतीत कर रही थी.

यादों का सैलाब उमड़घुमड़ रहा था. 15 वर्षों के क्षणिक जीवन में भी मृगेंद्र ने उसे इतना प्यार दिया कि वह सराबोर हो उठी थी. लेकिन, कहीं न कहीं आसपास नागेश के होने का एहसास होता था. हालांकि हर बार वह उस एहसास को झटक देती थी यह सोच कर कि यह मृगेंद्र के प्रति विश्वासघात होगा.

मृगेंद्र ने जब अपनी आंखें बंद कीं तब वह निराश हो उठी. उस के मन में एक आक्रोश जागा, यदि नागेश ने धोखा न दिया होता तो वह असमय वैरागिनी न बनी होती और उस की चाहत नागेश के लिए, नफरत में बदल गई. उसे सामने पा कर वह नफरत ज्वालीमुखी बन गई. नहीं, मुझे उस से नहीं मिलना है, किसी भी दशा में नहीं मिलना है. वह निर्मोही पाषाण हृदय, नफरत का ही हकदार है. यदि वह आएगा भी, तो उस से नहीं मिलेगी, मन ही मन में सोच रही थी.

लेकिन फिर, विरोधी विचार मन में पनपने लगे. आखिर एक बार तो मिलना ही होगा, देखें, क्या मजबूरी बताता है और इस प्रकार आशानिराशा के बीच झूलते हुए रात्रि कब बीत गई, पता ही नहीं चला.

खिड़की का परदा थोड़ा खिसका हुआ था. धूप की तीव्र किरण उस के मुख पर आ कर ठहर गई थी. धूप की तीव्रता से वह जाग गई, देखा, दिन के 11 बजे थे. ओहो, कितनी देर हो गई. नित्यक्रिया का समय बीत जाएगा.

जल्दी से नहाधो कर उस ने मृगेंद्र की तसवीर के आगे दीया जला कर, हाथ जोड़ कर उन को प्रणाम करते हुए बोली, मानो उन का आह्वान कर रही हो, ‘‘बताइए, मैं क्या करूं, क्या नागेश से मिलना उचित होगा? मैं हांना के दोराहे पर खड़ी हूं. एक मन आता है कि मिलना चाहिए, तुरंत ही विरोधी विचार मन में पनपने लगते हैं, नहीं, अब और क्या मिलनामिलाना, विगत पर जो चादर पड़ गई है समय की, उस को न हटाना ही ठीक होगा. मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं.’’

अचानक उसे ऐसा लगा जैसे मृगेंद्र ने उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा, ‘क्या हुआ, वसु, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. तुम कुछ भी गलत नहीं करोगी. और फिर मैं तुम्हें कोई भी कदम उठाने से रोकूंगा नहीं. तुम एक बार नागेश से मिल लो. शायद, तुम्हारी जीवननौका को एक साहिल मिल ही जाए.’ हां, यही ठीक होगा, उस ने मन में सोचा.

दूसरे दिन सायंकाल वह जल्दी से तैयार हुई अपनी मनपसंद रंग की साड़ी, मैंचिंग ब्लाउज पहना, बालों का ढीलाढाला जूड़ा बनाया, अनजाने में ही उस ने नागेश के पसंददीदा रंग के वस्त्र पहन लिए थे. आईने में वह खुद को देख कर चौंक उठी, ‘‘क्यों? यह क्या किया मैं ने, क्यों उसी रंग की साड़ी पहनी जो नागेश को पसंद थी. क्या इस प्रकार वह अपने सुप्त प्यार का इजहार कर बैठी? नहीं, नहीं, यह तो इत्तफाक है, उस ने खुद को आश्वस्त किया.

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जब वह पार्क में पहुंची तो नागेश कहीं नजर नहीं आया. वह चारों ओर देख रही थी लेकिन बेकार. क्या उस ने गलती की है यहां आ कर? क्या वह नागेश को अपनी कमजोरी का एहसास कराना चाहती थी. नहीं, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं. वह तो नागेश के इसरार करने पर ही यहां आई थी. आखिर उन की बात भी तो सुननी ही चाहिए न.

नागेश को पार्क में न देख कर वह लौट पड़ी. तभी ‘‘वसु,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया. वह ठिठक गई, शरीर में एक सिहरन सी हुई. कैसे सामना करे वह उस का. कल तो झिड़क दिया था और आज मिलने आ पहुंची. भला वह क्या सोचेगा. पर वह अचल खड़ी ही रही.

नागेश सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘मिलने आई हो न? मैं जानता था कि तुम आओगी अवश्य ही,’’ नागेश ने संयत स्वर में कहा, ‘‘चलो बैंच पर बैठते हैं.’’ और वह निशब्द नागेश के साथ बैंच पर जा कर बैठ गई. मन में तरहतरह के विचार आ रहे थे. कल और आज में कितना अंतर था. कल वह एक चोट खाई नागिन सी बल खा रही थी और आज नागेश के सम्मोहन में बंधी बैठी थी.

दोनों के बीच कुछ पलों का मौन पसरा रहा. फिर, नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘वसु, मैं अपनी सफाई में कुछ नहीं कहना चाहता, बस, यही चाहता हूं कि तुम्हारे मन में अपने लिए बसी नफरत को यदि किसी प्रकार दूर कर सकूं तो शायद चैन मिल जाए. 35 वर्ष बीत चुके हैं पर चैन नहीं है. तुम्हें तलाशता रहा कि शायद जीवन के किसी मोड़ पर तुम्हारा साथ मिल जाए पर असफलता ही हाथ लगी.’’

अब वसुधा चुप नहीं रह सकी, ‘‘क्यों आप ने विवाह किया होगा, आप के भी बालबच्चे होंगे, तो फिर चैन क्यों नहीं? और उस दिन आप ने यह क्यों कहा था कि मैं अकेला रह गया हूं. आप का परिवार तो होगा ही.’’

नागेश ने कातर दृष्टि से उसे देखा, ‘‘नहीं वसु, विवाह नहीं किया. मेरे जीवन में तुम्हारे सिवा किसी के लिए कोई भी स्थान नहीं था.’’

‘‘फिर क्यों आप ने धोखा दिया,’’ वसु ने भरे गले से पूछा.

‘‘धोखा, हां, तुम सही कह रही हो. तुम्हारी नजर में ही नहीं, तुम्हारे परिवार की नजरों में भी मैं धोखेबाज ही हूं पर यदि तुम विश्वास कर सको तो मैं तुम्हें बता दूं कि मैं ने तुम्हें धोखा नहीं दिया.’’

‘‘धोखा और क्या होता है, नागेश. तुम्हारा पत्र नहीं आया. तुम्हारे पिता ने एकतरफा फैसला सुना दिया बिना किसी कारण के. यदि विवाह करना ही नहीं था तो सगाई का ढोंग क्यों किया?’’ वसुधा ने तड़प कर कहा.

‘‘हां, तुम सही कह रही हो. कुछ तो अपराध मेरा भी था. मुझे ही तुम्हें पहले बता देना चाहिए था. इस के पूर्व कि मेरे पिता का इनकार में पत्र आता. न जाने क्यों मैं कमजोर पड़ गया और पिता की हां में हां मिला बैठा. दरअसल, उन के पास पैसा नहीं था और उन्हें दहेज की आशा थी जो तुम्हारे घर से पूरी नहीं हो सकती थी.

‘‘उसी समय दिल्ली के एक धनवान परिवार ने जोर लगाया और पिताजी को मनमाना दहेज देने का आश्वासन दिया. पिताजी झुक गए. मैं भी उन की हां में हां मिला बैठा. लेकिन जब विवाह की तिथि निश्चित हुई और ऐसा लगा कि मेरेतुम्हारे बीच में विछोह का गहरा सागर आ गया है, हम कभी भी मिल नहीं सकेंगे, तो मैं तड़प उठा और तत्काल ही विवाह के लिए मना कर दिया. भला जो स्थान तुम्हारा था वह मैं किसी और को कैसे दे सकता था? तभी मुझे फ्रंट पर जाने का पैगाम आया और मैं सीमा पर चला गया.

‘‘मुझे इस बात का एहसास भी नहीं था कि तुम्हारी शादी हो जाएगी. जब मैं लौटा तब तुम्हारे ही किसी परिचित से पता चला कि तुम्हारा विवाह हो चुका है. मैं खामोश हो गया. और उसी दिन यह प्रतिज्ञा ली कि अब यह जीवन तुम्हारे ही नाम है. मैं विवाह नहीं करूंगा. समय का इतना लंबा अंतराल बीत चला कि सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने कभी तुम्हारे वैवाहिक जीवन में दखल न देने की सोच ली थी, इसलिए एकाकी जीवन बिताता रहा.

‘‘समय की आंधी में हम दोनों 2 तिनकों की तरह उड़ चले. मुझे तो तुम्हारे मिलने की कोई भी आशा नहीं थी. कर्नल की पोस्ट से रिटायर हुआ हूं और यहां एक फ्लैट ले कर रहने आ गया. जीवन का इतना लंबा समय बीत चला कि अब जो कुछ पल बचे हैं उन्हें शांतिपूर्वक बिताना चाहता था कि समय देखो, अचानक तुम से मुलाकात हो गई.’’ नागेश चुप हो गया था.

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वसुधा के नेत्रों से अविरल आंसू बह रहे थे, दिल में फंसा हुआ जख्मों का गुबार आंखों की राह बाहर निकलना चाहता था और वह उन्हें रोकने का कोई प्रयास भी नहीं कर रही थी.

रात्रि गहरा रही थी. ‘‘चलो वसु, अब घर चलें,’’ नागेश ने उठते हुए कहा. वसुधा चौंक कर उठी. अक्तूबर का महीना था. हलकीहलकी ठंड थी जो सिहरन पैदा कर रही थी. दोनों उठ खड़े हुए और अपनेअपने रास्ते हो लिए. घर आ कर वसुधा ने एक सैंडविच बनाया और एक कप चाय के साथ खा कर बैड पर लेटने का उपक्रम करने लगी. आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं.

क्रमश:

Serial Story: नया क्षितिज – भाग 4

पिछले अंक में आप ने पढ़ा :

बरसों बाद वसुधा का सामना अपने पूर्व प्रेमी नागेश से होता है. वसुधा नागेश की यादों को दफना चुकी थी और बरसों पहले मृगेंद्र से विवाह कर 2 बच्चों की मां बन चुकी थी.

फिलहाल अब मृगेंद्र की मृत्यु हो चुकी थी और बच्चे अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त थे. वसुधा अकेली ही शांत जीवन जी रही थी. नागेश के आने से एक बार फिर उस के अंतर्मन में उथलपुथल मच गई.

अब आगे पढ़िए…

 चारों ओर अथाह जलराशि फैली थी, कहीं किनारा नजर नहीं आ रहा था. वसुधा पानी में घिरी हुई थी. क्या डूब जाएगी? आखिर उसे तैरना भी तो नहीं आता था. वह पानी में हाथपांव मार रही थी, ‘बचाओ…’ वह चिल्लाना चाह रही थी किंतु उस की आवाज गले में फंसीफंसी सी लग रही थी. शायद, गले में ही घुट कर रह जा रही थी. पर कोई नहीं आया बचाने और अब उस ने अपनेआप को लहरों के भरोसे छोड़ दिया. जिधर लहरें ले जाएंगी उधर ही चली जाएगी. और वह तिनके की तरह बह चली. उस ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं, देखें समय का क्या फैसला होता है.

तभी अचानक उसे ऐसा लगा जैसे एक अदृश्य साया सा सामने खड़ा है और अपना हाथ बढ़ा रहा था. वह उस हाथ को पकड़ने की कोशिश करती है, पर सब बेकार.

ट्रिनट्रिन फोन की घंटी बजी और वह चौंक कर उठ गई. कहां गई वह अथाह जलराशि, वह तो डूब रही थी. फिर क्या हुआ. वह तो बैड पर लेटी है. तो क्या यह स्वप्न था? यह कैसा स्वप्न था? लैंडलाइन का फोन लगातार बज रहा था. उस ने फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’ ‘‘हैलो, मां, मैं बोल रहा हूं कुणाल. आप कैसी हैं?’’

‘‘मैं ठीक हूं बेटा, तुम बताओ कैसे हो? तृषा का क्या हाल है? डिलीवरी कब तक होनी है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘वह ठीक है, इस माह की 25 तारीख तक उम्मीद है. पर आप परेशान मत होना. सासूमां प्रसव के समय आ जाएंगी. और हां, मेरा प्रोजैक्ट 2 वर्षों के लिए और बढ़ गया है. ओके, मां, बाय, सी यू.’’

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कुछ क्षणों तक रिसीवर हाथ में लिए वह खड़ी रही. मन में विचार उठ रहा था, ‘बहू का प्रथम प्रसव है, मैं भी तो आ सकती थी, बेटा.’ उस ने कहना चाहा पर वाणी अवरुद्ध हो गई और वह कुछ भी न बोल सकी.

शायद बहुओं को अपनी सास पर उतना भरोसा नहीं रह गया है, तभी तो अभी भी मां का आंचल ही पकड़े रहना चाहती हैं.

मृगेंद्र की मृत्यु के बाद किस प्रकार उस ने अपने तीनों बच्चों की परवरिश की, यह तो वह ही जानती है. विवाह के तत्काल बाद ही कुणाल तृषा को ले कर जरमनी चला गया था. वसुधा की हसरत ही रही कि घर में बहू के पायल की छनछन गूंजे. सुबह की दिनचर्या निबटा कर उस ने कौफी बनाई कि अकस्मात उस को उलझन सी होने लगी.

यह क्या, इस मौसम में पसीना तो आता नहीं. फिर क्या हुआ, उस ने कौफी का एक घूंट भरा, 2 बिस्कुट के साथ कौफी खत्म की. थोड़ा सा आराम मिला, किंतु फिर वही स्थिति हो गई. ऐसा लगा कि उस के सीने में हलकाहलका दर्द हो रहा है. पता नहीं क्या हो गया है, ऐसा तो कभी नहीं हुआ, तब भी नहीं जब मृगेंद्र की मृत्यु हुई थी. तो फिर यह क्या है? क्या हार्ट प्रौब्लम हो रही है, वह थोड़ा सशंकित हो रही थी. क्या डाक्टर को दिखाना होगा? हां, उसे डाक्टर की सलाह तो लेनी ही पड़ेगी. पर अकेले कैसे जाए, हो सकता है कि रास्ते में तबीयत और खराब हो जाए. ऐसे में क्या करे, किसी को बुलाए? क्या नागेश को फोन करे? हां, यही ठीक होगा.

उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.

‘‘मैं बोल रही हूं,’’ उस ने इतना ही कहा कि नागेश बोल उठा, ‘‘वसु, क्या बात है? ठीक तो हो न?’’

‘‘नहीं, कुछ तबीयत खराब लग रही है. डाक्टर को दिखाना पड़ेगा,’’ उस ने थोड़ा झिझक से कहा. ‘‘कोई बात नहीं, मैं अभी आता हूं.’’ और फोन कट गया.

वसुधा ने अपने कपड़े बदले और नागेश की प्रतीक्षा करने लगी. अभी भी उस के सीने में बायीं ओर हलकाहलका दर्द हो रहा था. गाड़ी का हौर्न बजा, नागेश आ गया था.

डाक्टर कोठारी अपने नर्सिंग होम में ही थे. बड़े ही मशहूर हार्ट सर्जन थे. जब नागेश वसुधा को ले कर वहां पहुंचा तो डाक्टर कोठारी ने कहा, ‘‘आइए, कर्नल सिंह, मैं आप की ही प्रतीक्षा कर रहा था.’’ वसुधा ने कृतज्ञता से नागेश की ओर देखा, कितनी चिंता है इन्हें, मन ही मन सोच रही थी.

डाक्टर कोठारी ने वसुधा का चैकअप किया और चैंबर से बाहर आए, ‘‘कर्नल सिंह, 30 प्रतिशत ब्लौकेज है, एंजियोग्राफी करनी होगी. कल आप इन्हें हौस्पिटलाइज कर दीजिए.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर,’’ कह कर नागेश वसुधा को ले कर बाहर आ गया.

‘‘क्या तुम डाक्टर कोठारी को पहले से जानते हो?’’ वसुधा ने जिज्ञासा से पूछा. ‘‘हां, आर्मी में हम लोग साथ में ही थे और रिटायरमैंट के बाद इन्होंने जौब जौइन कर लिया. हम लोगों की अच्छी मित्रता थी,’’ नागेश ने कहा.

घर आ कर वसुधा चिंतित हो रही थी कि वह तो अकेली है, कैसे संभालेगी खुद को, कौन देखभाल करेगा उस की?

‘‘क्या सोच रही हो, वसु, कोई समस्या है? नागेश ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘हां, नागेश, समस्या तो है ही. मैं अकेली हूं, कौन उठाएगा इतनी बड़ी जिम्मेदारी. कुणाल आ नहीं सकेगा, सोचती हूं बेटियों को ही खबर कर दूं.’’ वसुधा का चिंतित होना स्वाभाविक था.

‘‘तुम चाहो तो मैं फोन कर देता हूं. वैसे तो मैं हूं न. अभी तो तुम मेरी ही जिम्मेदारी हो,’’ नागेश ने आश्वस्त करते हुए कहा.

वसुधा संकोच के बोझ से दबी जा रही थी, तत्काल ही बोल उठी, ‘‘नहीं, नहीं, मैं ही फोन कर लेती हूं. आप का फोन करना उचित नहीं होगा. न जाने वे क्या सोचें.’’

नागेश ने आहत नजरों से उसे देखा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो वही करो. वैसे, मैं सदैव ही तुम्हारे लिए तत्पर रहूंगा. बस, एक फोन कर देना, हिचकना नहीं. मैं वही नागेश हूं.’’ और नागेश चला गया. वसुधा थोड़ी शर्मिंदा हो गई. वह तो मेरा इतना खयाल रख रहा है. और मैं, अभी भी उसे पराएपन का बोध करा रही हूं.

वसुधा ने वान्याको फोन मिलाया. बड़ी देर तक टूंटूं की आवाज आती रही. फिर उस ने बड़े दामाद रोहित को फोन किया. फोन लग गया. ‘‘हैलो’’ आवाज आई.

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‘‘हां बेटा, रोहित, मैं बोल रही हूं, वसुधा. वान्या का फोन नहीं लग रहा है, क्या बात हो सकती है?’’

‘‘मम्मीजी, मैं तो इस समय मीटिंग में हूं. आप वान्या को दोबारा फोन मिला लीजिए.’’ और फोन कट गया.

अब वसुधा ने मान्या को फोन मिलाया ‘‘हां, मां, कैसी हो? पता है मां, मैं और दीदी अपने परिवार के साथ यूरोप जा रहे हैं पूरे एक माह के लिए. छुट्टियां वहीं बिताएंगे. बात दरअसल यह है मां कि रोहित जीजा और मेरे पति मृणाल अपनेअपने व्यवसाय में काम करते हुए थक गए हैं, कुछ दिन आराम करना चाहते हैं. सोचा था एक सप्ताह के लिए आप के पास आएंगे लेकिन थोड़ा चेंज भी तो जरूरी है. हां, आप बताएं कोई खास बात है जो इस समय फोन किया.’’

‘क्यों बेटा, क्या तुम से बात करने के लिए अपौइंटमैंट लेना पड़ेगा.’ उस ने कहना चाहा पर प्रकट में बोली, ‘‘बेटा, मैं बहुत बीमार हूं, हार्ट की प्रौब्लम हो गई है. डाक्टर ने एंजियोग्राफी करने के लिए कल ऐडमिट होने को कहा है. मैं तो अकेली हूं, कैसे मैनेज करूंगी.’’

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Serial Story: नया क्षितिज – भाग 5

एक पल को मान्या चुप रही, फिर बोली, ‘‘मां, डाक्टर से कहो कि किसी प्रकार दवाओं से एक माह कट जाए तो ठीक होगा तब तक हम लोग लौट आएंगे. बड़ी मुश्किल से यह प्रोग्राम बना है, कैंसिल करना मुश्किल है. मृणाल तथा रोहित जीजा बड़े ही ऐक्साइटेड हैं. आप समझ रही हैं न.’’

‘‘हां बेटा, मैं सब समझ रही हूं. तुम लोग अपना प्रोग्राम खराब न करो’’ वसुधा ने आहत स्वर में कहा.  अब? अब क्या करें, क्या नागेश से ही मदद लेनी होगी. शायद यही ठीक होगा और उस ने नागेश को फोन मिला दिया.

हौस्पिटल में ऐडमिट होने के तत्काल बाद ही उस का इलाज शुरू हो गया. 4 घंटे की लंबी प्रक्रिया के बाद उसे औब्जर्वेशन में रखा गया. दूसरे दिन उसे रूम में शिफ्ट कर दिया गया. उसे कुछ पता भी नहीं चला कि सबकुछ कैसे हुआ. जब होश आया तब उस ने नागेश को अपने बैड के पास आरामकुरसी पर आंखें बंद किए हुए अधलेटे देखा. बड़ा ही मासूम लग रहा था, थकान तथा चिंता की लकीरें चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं. उस का एक हाथ उस के हाथ पर था. उस ने धीरे से नागेश के हाथ पर अपना दूसरा हाथ रख दिया. नागेश चौंक कर उठ गया. ‘‘क्या हुआ वसु, तबीयत अब कैसी लग रही है?’’ बेचैनी थी उस के स्वर में. यह वसुधा ने भी महसूस किया.

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वसुधा यह सोचसोच कर अभीभूत हो रही थी कि नागेश न होते तो क्या होता. संतानों ने तो अपनाअपना ही देखा. मां का क्या होगा, इस से किसी को मतलब नहीं. वह कृतज्ञता से दबी जा रही थी. 3 दिन वह हौस्पिटल में रही और इन 3 दिनों में नागेश ने उस की सेवा में दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा. चौथे दिन वह नागेश के सहारे ही वापस आई. बेहद कमजोरी आ गई थी. नागेश ने हर तरह से उस की सेवा की. इलाज के दौरान जो भी व्यय होता रहा, नागेश ने खुशीखुशी उसे वहन किया. ऐसा प्रतीत होता था मानो वह प्रायश्चित्त कर रहा हो. जब वसुधा पूरी तरह स्वस्थ हो गई तब नागेश ने उस की देखभाल के लिए एक नर्स का इंतजाम कर दिया और उस से विदा मांगी.

वसुधा का मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. उस के जी में आता था कि दौड़ कर नागेश को रोक ले. उस ने बैड से उठने का उपक्रम किया किंतु तब तक नागेश जा चुका था. वह चुपचाप बैठी, सोचने लगी, कहीं वह नागेश को दोबारा खो तो नहीं रही है? नहीं, इतने वर्षों के विछोह के बाद, इतनी मुश्किलों के बाद नागेश उसे मिला है, अब वह उसे दूर नहीं जाने देगी. लेकिन वह उसे किस अधिकार से रोक सकती है.

नागेश की आंखों में उस के लिए चाहत साफसाफ दिखती थी. पर प्रकट में उस ने कुछ भी नहीं कहा. तो क्या हुआ, तेरी इतनी सेवा उस ने की, क्या यह उस का प्यार नहीं था? हां, प्यार तो था, पर मुझे अपनाएंगे ही, इस का क्या भरोसा, और फिर हमारी शादी वाली उम्र भी तो नहीं है, वह खुद ही बोल उठी.

सायंकाल नागेश फलों का जूस ले कर आया, उस का हालचाल पूछा और अपने हाथों से उसे जूस पिलाया. तभी वसुधा ने उस का हाथ थाम लिया, ‘‘क्यों इतनी सेवा कर रहे हो? छोड़ दो न मुझे अकेले. यह तो मेरा प्रारब्ध है, कोई क्या कर सकता है?’’

नागेश के होंठों पर हलकी सी स्मित आई, तत्काल ही बोल उठा, ‘‘कौन कहता है कि तुम अकेली हो? जब तक मैं हूं, तुम अकेली नहीं होगी, वसु. अगर तुम्हें एतराज न हो तो हम अपने रिश्ते को एक नाम दे दें.’’ थोड़े विराम के बाद वह धीमे से बोला, ‘‘वसु, क्या मुझ से विवाह करोगी?’’

वसुधा चौंक उठी, ‘‘विवाह, इस उम्र में? नहीं, नहीं, नागेश, समाज हमें जीने नहीं देगा. लोगों को बातें बनाने का अवसर मिल जाएगा. मैं भी लोगों की नजरों में गिर जाऊंगी और फिर स्वयं मेरे बच्चे भी मेरा ही नाम धरेंगे.’’

‘‘क्या तुम समाज की इतनी परवा करती हो? क्या दिया है समाज ने तुम को? अकेलापन, अवसाद, त्रासदी. क्या एक स्त्री को जीने के लिए ये तीनों सहारे हैं? क्या तुम्हें हंसने का, खुश रहने का अधिकार नहीं है? और शादी केवल शारीरिक सुख के लिए नहीं की जाती है, एक उम्र आती है जब हर व्यक्ति को एक साथी की जरूरत होती है. और इस समय मुझे तुम्हारी और तुम्हें मेरी जरूरत है. यदि हां कर दो तो शायद हम बीते हुए पलों को नए रूप में जी सकेंगे. यह सच है कि 35 वर्षों पूर्व का बीता हुआ समय लौट कर नहीं आ सकेगा, पर आगे जो भी समय है, हम उसे भरपूर जिएंगे.

‘‘तुम कहती हो, बच्चे तुम्हारा ही नाम धरेंगे, तो जरा सोचो, तुम ने अपने बच्चों के लिए क्या नहीं किया, क्याक्या तकलीफें नहीं उठाईं और जब तुम्हारा समय आया तब सब ने मुंह फेर लिया. अब उन्हें अपनाअपना परिवार ही दिख रहा है. उन की दृष्टि में तुम्हारा कोई भी अस्तित्व नहीं है. तुम उन को व्यवस्थित करने का एक साधन मात्र थीं.

मैं तुम्हें बच्चों के खिलाफ नहीं कर रहा हूं, बल्कि जीवन की वास्तविकता दिखा रहा हूं. यह समाज ऐसा ही है और तुम्हारे बच्चे भी इस से परे नहीं हैं. उन की निगाहों में तुम एक आदर्श मां हो जिस ने जीवन की सारी समस्याओं का अब तक अकेले सामना कर के अपने बच्चों का पालनपोषण किया जोकि तुम्हारा कर्तव्य भी था. किंतु उन्हें यह याद नहीं कि उन का भी कुछ कर्तव्य है. उन्होंने तुम को ग्रांटेड समझ लिया. तुम्हारी अपनी क्या इच्छाएं हैं, कामनाएं हैं तथा उन से तुम्हारी क्या अपेक्षाएं हैं, उन्हें किसी भी चीज से सरोकार नहीं. हो सकता है कि वे लोग तुम्हें मां का दरजा दे रहे हों परंतु इस से क्या तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारी कामनाएं दमित हो जानी चाहिए?

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बच्चे भी इसी समाज का अंग हैं. समाज से परे वे कुछ भी नहीं सोच सकते हैं. वैसे, तुम चाहो तो अपने बच्चों से सलाह कर लो. देखो, वे लोग क्या राय देते हैं?’’ कह कर नागेश थोड़ा दुखी हो कर चला गया.

वसुधा ने कुणाल को फोन मिलाया. उस का फोन टूंटूं कर रहा था. उस ने कई बार फोन मिलाया. बड़ी देर बाद फोन लग ही गया. ‘‘हैलो,’’ कुणाल का स्वर थोड़ा खीझा हुआ था, ‘‘क्या हुआ, मां, इस समय क्यों फोन किया?’’ स्वर से स्पष्ट था कि उसे इस समय वसुधा का फोन करना पसंद नहीं आया था.

‘‘बेटा, बात यह है कि मुझे हार्ट प्रौब्लम हो गई है, एंजियोग्राफी हुई है. एक सप्ताह बीत गया है. अब ऐसा लग रहा है कि अकेले रहना मुश्किल है. किसी न किसी को तो मेरे पास होना ही चाहिए. वह तो एक परिचित थे, जिन्होंने बहुत मदद की और अभी भी एक नर्स इंगेज कर रखी है.’’

‘‘ठीक किया. देखो मां, किसी के पास इतनी फुरसत नहीं है और अब अपना ध्यान स्वयं रखना होता है. वान्या दीदी तथा मान्या भी अपने परिवार के साथ यूरोप टूर पर जा रही हैं. वे दोनों भी नहीं आ पाएंगी. अपना खयाल रखना और हां, उन सज्जन को मेरा हार्दिक धन्यवाद कहना जिन्होंने तुम्हारी इतनी सहायता की,’’ फोन कट गया.

वसुधा स्तब्ध थी. ये मेरी संतानें हैं जिन के लिए मैं ने अपने किसी सुख की परवा नहीं की. मृगेंद्र की मृत्यु के समय वह एकदम ही युवा थी. बहुतों ने उस से विवाह करने के लिए कोशिश की पर वह अपने बच्चों को छोड़ कर नहीं रह सकती थी और 3-3 बच्चों के साथ उसे कोई स्वीकार भी नहीं करता. सो, वह अपने बच्चों के लिए ही जीती रही. किंतु क्या मिला उसे? आज बच्चों को इतनी फुरसत नहीं है कि वे मां का खयाल रख सकें.

वसुधा को ऐसा लगता है कि उस का वह स्वप्न, जिस में वह अथाह जलराशि में तिनके की तरह बह रही थी, और अदृश्य साया उस को थामने के लिए हाथ बढ़ा रहा था, क्या उसे आज की परिस्थितियों की ओर ही इंगित कर रहा था? और वह हाथ, जो किसी अदृश्य साए का था, शायद वह नागेश का ही था. हां, अवश्य ही, वह नागेश ही रहा होगा.

अब वह निर्णय लेने की स्थिति में आ गई थी. सब ने उसे मूर्ख समझा, ठीक है. लेकिन अब वह और मूर्ख नहीं बनना चाहती. उस का भी अपना जीवन है, उस की भी अपनी हसरतें हैं जिन्हें अब वह पूरा करेगी. यदि बच्चों को उस की आवश्यकता होगी तो वे स्वयं उस के पास आएंगे और उस ने उसी क्षण एक निर्णय ले लिया. उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.

दरवाजे की घंटी बजी, नर्स ने द्वार खोला, नागेश ही था. ‘‘क्या हुआ वसु, क्या तबीयत खराब लग रही है? डाक्टर को बुलाएं?’’ चिंता उस के हर शब्द में भरी हुई थी.

‘‘नागेश, कोर्ट कब चलना होगा? अब रुकने से कोई लाभ नहीं. मुझे भी तुम्हारा साथ चाहिए, बस. और कुछ नहीं,’’ वसुधा का स्वर भराभरा था. ‘‘और बच्चे?’’ नागेश ने कहा. ‘‘उन्हें बाद में सूचित कर देंगे,’’ वसुधा ने दृढ़ता से कहा.

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‘‘ओह वसु, भावातिरेक में नागेश ने उस का हाथ पकड़ लिया. मेरी तपस्या सफल हुई. अब हम अपना शेष जीवन भरपूर जिएंगे,’’ कह कर नागेश ने वसुधा का झुका हुआ चेहरा ठुड्डी पकड़ कर उठाया. दोनों की आंखें आंसुओं से लबरेज थीं और नागेश की आंखों से टपक कर आंसू की 2 बूंदें वसुधा की आंखों में बसे आंसुओं से मिल कर एकाकार हो रही थीं. और वसुधा, नागेश की अमरलता बन कर उस से लिपटी हुई थी. अब, उन के सामने एक नया क्षितिज बांहें पसारे खड़ा था.

Serial Story: नया क्षितिज – भाग 2

एक ओर संशयरूपी नाग फन काढ़े हुए था और दूसरी ओर आशा वसुधा को आश्वस्त कर रही थी. इन दोनों के बीच में डूबतेउतराते हुए एक सप्ताह बीत गया कि अकस्मात वज्रपात हुआ. उस के पापा के पास नागेश के पिता का पत्र आया जिस में उन्होंने विवाह करने में असमर्थता बताई थी बिना किसी कारण के.

वह हतप्रभ थी, यह क्या हुआ. वह तो नागेश के पत्र की प्रतीक्षा कर रही थी. पत्र तो नहीं आया लेकिन उस की मौत का फरमान जरूर आया था. उस का दम घुट रहा था. ऐसा प्रतीत होता था मानो उसे जीवित ही दीवार में चुनवा दिया गया हो. चारों ओर से निगाहें उस की ओर उठती थीं, कभी व्यंग्यात्मक और कभी करुणाभरी. वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

एक दिन उसे अपने पीछे से किसी की आवाज सुनाई दी. ‘ताजिए ठंडे हो गए? अब तो जमीन पर आ जाओ.’ उस ने पलट कर देखा, उस की सब से गहरी मित्र रिया हंस रही थी. वह तिलमिला उठी थी लेकिन कुछ न कह कर वह क्लास में चली गई. वहां भी कई सवालिया नजरें उसे देख रही थीं.

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धीरेधीरे ये बातें पुरानी हो रही थीं. अब उस से कोई भी कुछ नहीं पूछता था. एक रोज रिया ने हमदर्दी से कहा, ‘वसुधा, सौरी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मुझे तो अंदाजा भी नहीं था कि तेरे साथ इतना बड़ा धोखा हुआ है.’ और वह वसुधा से लिपट गई.

6 महीनों बाद ही पापा ने उस का विवाह मृगेंद्र से सुनिश्चित कर दिया और वह विदा हो कर अपने पति के घर की शोभा बन गई. विवाह की पहली रात वह सुहागसेज पर सकुचाई सी बैठी थी. कमरे की दीवारें हलके नीले रंग की थीं. नीले परदे पड़े हुए थे. नीले बल्ब की धीमी रोशनी बड़ा ही रूमानी समा बांध रही थी. वह चुपचाप बैठी कमरे का मुआयना कर रही थी कि तभी एक आवाज आई, ‘वसु, जरा घड़ी उधर रख देना.’

मृगेंद्र का स्वर सुन कर वह धक से रह गई. खड़ी हो कर उस ने मृगेंद्र की घड़ी ले ली और साइड टेबल पर रख दी. अब क्या होगा. मृगेंद्र मेरे अतीत को जानने का प्रयास करेंगे. मैं क्या कहूंगी. मौसी ने कहा था, ‘बेटी, पिछले जीवन की कोई भी बात पति को न बताना. पुरुष शक्की होते हैं. भले ही उन का अतीत कुछ भी रहा हो लेकिन पत्नी के अतीत में किसी और से नजदीकियां रखना उन्हें स्वीकार्य नहीं होता है.’

लेकिन मृगेंद्र ने कुछ भी तो नहीं पूछा. बस, उस के दोनों कंधों से उसे पकड़ कर बैड पर बैठा दिया और स्वयं ही कहने लगे, ‘वसु, मैं यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान का प्रोफैसर हूं. इतना वेतन मिल जाता है कि अपने लोगों का गुजारा हो जाए. मेरे पास एक पुराने मौडल की मारुति कार है जो मुझे बहुत ही प्रिय है. मुझे नहीं पता कि तुम्हारी मुझ से क्या अपेक्षाएं हैं परंतु कोशिश करूंगा कि तुम्हें सुखी रख सकूं. मैं थोड़े में ही संतुष्ट रहता हूं और तुम से भी यही आशा करता हूं.’

वसु हतप्रभ रह गई. यह कैसी सुहागरात है. कोई प्यार की बात नहीं, कोई मानमनौवल नहीं. बस, एक छोटी सी आरजू जो मृगेंद्र ने उसे कितने शांत भाव से साफसाफ कह दी, मानो जीवन का सारा सार ही निचोड़ कर रख दिया हो. उसे गर्व हो रहा था. वह डर रही थी कि कहीं अतीत का साया उस के वर्तमान पर काली परछाईं न बन जाए लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और वह सबकुछ बिसार कर मृगेंद्र की बांहों में समा गई.

उस ने अपनेआप से एक वादा किया कि अब वह मृगेंद्र की है और संपूर्ण निष्ठा से मृगेंद्र को सुखी रखने का प्रयास करेगी. अब उन दोनों के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का अस्तित्व वह सहन नहीं करेगी. पेशे से मृगेंद्र एक मनोवैज्ञानिक थे, शायद, इसीलिए उन्होंने उस के मनोभावों को समझ कर उस के अतीत को जानने का कोई प्रयास नहीं किया.

2 वर्षों बाद उस ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया जो हूबहू मृगेंद्र की ही परछाईं थी. जब उन्होंने उसे अपनी गोद में लिया तो उन की आंखें छलक आईं, गदगद हो कर बोले, ‘वसु, तुम ने बड़ा ही प्यारा तोहफा दिया है. मैं प्यारी सी बेटी ही चाहता था और तुम ने मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’ और उन्होंने वसुधा के माथे पर आभार का एक चुंबन अंकित कर दिया. उस का नाम रखा वान्या.

वान्या के 3 वर्ष की होने के बाद उस ने एक बेटे को जन्म दिया. बड़े प्यार से मृगेंद्र ने उस का नाम रखा कुणाल. अब वह बहुत ही खुश था कि उस का जीवन धन्य हो गया. वह एक सुखी और संपन्न जीवन व्यतीत कर रही थी कि उस के जीवन में फिर एक बेटी का आगमन हुआ, मान्या. कुणाल बहुत खुश रहता था क्योंकि उसे एक छोटी बहन चाहिए थी जो उसे मिल गई थी.

हंसतेखेलते विवाह के 15 वर्ष बीत गए थे कि एक दिन मृगेंद्र के सीने में अचानक दर्द उठा. वह उन्हें ले कर अस्पताल भागी जहां पहुंचने के कुछ ही क्षणों बाद डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित करते हुए कहा, ‘मैसिव हार्ट अटैक था.’

अब वह तीनों बच्चों के साथ अकेली रह गई थी. यूनिवर्सिटी के औफिस में ही उसे जौब मिल गई और जीवन फिर धीमी गति से एक लीक पर आ गया.

वान्या और मान्या ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली थी. कुणाल इंजीनियर बन गया था. उस ने तीनों बच्चों का विवाह उन की ही पसंद से कर दिया. तीनों ही खुश थे. वान्या और मान्या दोनों ही मुंबई में थीं और कुणाल अपनी कंपनी के किसी प्रोजैक्ट के लिए जरमनी चला गया था. बच्चों के जाने से घर में चारों ओर एक नीरवता छा गई थी. तीनों बच्चे चाहते थे कि वह उन के साथ रहे लेकिन पता नहीं क्यों उसे अब अकेले रहना अच्छा लग रहा था, जैसे जीवन की भागदौड़ से थक गई हो.

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उस की सेवानिवृत्ति के 3 वर्ष बचे थे. उस ने वीआरएस ले लिया था क्योंकि अब वह नौकरी भी नहीं करना चाहती थी. जो कुछ पूंजी उस के पास थी, उस ने साउथ सिटी में 2 कमरों का एक छोटा सा फ्लैट ले लिया और अकेले रह कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी.

अचानक आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट की आवाज हुई. वह यादों के भंवर से बाहर आ गई.

वह बहुत परेशान थी. शायद हृदय में अभी भी नागेश के लिए कुछ भावनाएं व्याप्त थीं. तभी तो न चाहते हुए भी उस के विषय में सोच रही थी. ‘क्या यह सच है कि पहला प्यार भुलाए नहीं भूलता,’ उस ने अपनी अंतरात्मा से प्रश्न किया? ‘हां’ उत्तर मिला. तो वह क्या करे, क्या नागेश से दोबारा मिलना उचित होगा? कहीं वह कमजोर न पड़ जाए. नहीं, नहीं, वह बड़बड़ा उठी. वह क्यों कमजोर पड़ेगी? जिस ने उस के जीवन के माने ही बदल दिए थे, उस धोखेबाज से वह क्यों मिलना चाहेगी? उस का और मेरा अब नाता ही क्या है? वसु मन ही मन सोच रही थी.

उस के मन में फिर विचार आया. एक बार बस, एक बार वह उस से मिल कर अपना अपराध तो पूछ लेती. ‘क्या उस ने सच में धोखा दिया था या कोई और मजबूरी थी. हुंह, उस की कुछ भी मजबूरी रही हो, मेरा जीवन तो उस ने बरबाद कर दिया था. फिर कैसा मिलना.’

वसु के मन में विरोधी विचारधाराएं चल रही थीं. लेकिन फिर उस का हृदय नागेश से मिलने के लिए प्रेरित करने लगा, हां, उस से एक बार अवश्य ही मिलना होगा. वह अपनी मजबूरी बताना भी चाह रहा था लेकिन उस ने सुनने की कोशिश ही नहीं की. अब उस ने सोच लिया कि कल सायंकाल पार्क में जाएगी जहां शायद उस का सामना नागेश से हो जाए.

बैड पर लेट कर उस ने आंखें बंद कर लीं क्योंकि रात्रि के 2 प्रहर बीत चुके थे. लेकिन नींद अब भी कोसों दूर थी. मन बेलगाम घोड़े की भांति अतीत की ओर भाग रहा था-नागेश जिस ने उस की कुंआरी रातों में चाहत के अनगिनत सपने जगाए थे, नागेश जिस के कदमों की आहट उस के दिल की धड़कनें बढ़ा देती थीं, नागेश जिस की आंखें सदैव उसे ढूंढ़ती थीं.

उसे याद आता है कि एक बार दोपहर में वह सो गई थी कि अचानक ही नागेश आ गया था. मां ने उसे झकझोर कर उठाया तो वह अचकचा कर दिग्भ्रमित सी इधरउधर देखने लगी. डूबते सूर्य की रश्मियां उस के मुख पर अठखेलियां कर रही थीं. नागेश उसे अपलक देखते हुए बोल उठा, ‘इतना सुंदर सूर्यास्त तो मैं ने अब तक के जीवन में कभी नहीं देखा. और उस का चेहरा अबीरी हो उठा था. नागेश, जिस ने पहली बार जब उसे अपनी बांहों में ले कर उस के होंठों पर अपने प्यार की मुहर लगाई थी, उस चुंबन को वह अभी तक न भूल सकी थी.

जब भी वह मृगेंद्र के साथ अंतरंग पलों में होती थी, तो उसे मृगेंद्र की हर सांस, हर स्पर्श में नागेश का आभास होता था. वह मन ही मन में बोल उठती थी, ‘काश, इस समय मैं नागेश की बांहों में होती.’ एक प्रकार से वह दोहरे व्यक्तित्व को जी रही थी.

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Serial Story: नया क्षितिज – भाग 1

‘वसु,’ पीछे से आवाज आई, वसुधा के पांव ठिठक गए, कौन हो सकता है मुझे इस नाम से पुकारने वाला, वह सोचने लगी. ‘वसु,’ फिर आवाज आई, ‘‘क्या तुम मेरी आवाज नहीं पहचान रही हो? मैं ही तो तुम्हें वसु कहता था.’’ पुकारने वाला निकट आता सा प्रतीत हो रहा था. अब वसु ने पलट कर देखा, शाम के धुंधलके में वह पहचान नहीं पा रही थी. कौन हो सकता है? वह सोचने लगी. वैसे भी, उस की नजर में अब वह तेजी नहीं रह गई थी. 55 वर्ष की उम्र हो चली थी. बालों में चांदी के तार झिलमिलाने लगे थे. शरीर की गठन यौवनावस्था जैसी तो नहीं रह गई थी. लेकिन ज्यादा कुछ अंतर भी नहीं आया था, बस, हलकी सी ढलान आई थी जो बताती थी कि उम्र बढ़ चली है.

लंबा छरहरा बदन तकरीबन अभी भी उसी प्रकार का था. बस, चेहरे पर हलकीहलकी धारियां आ गई थीं जो निकट आते वार्धक्य की परिचायक थीं. कमर तक लटकती चोटी का स्थान ग्रीवा पर लटकने वाले ढीले जूड़े ने ले लिया था.

अभी भी वह बिना बांहों का ब्लाउज व तांत की साड़ी पहनती थी जोकि उस के व्यक्तित्व का परिचायक था. कुल मिला कर देखा जाए तो समय का उस पर वह प्रभाव नहीं पड़ा था जो अकसर इस उम्र की महिलाओं में पाया जाता है.

‘वसु’ पुकारने वाला निकट आता सा प्रतीत हो रहा था. कौन हो सकता है? इस नाम से तो उसे केवल 2 ही व्यक्तियों ने पुकारा था, पहला नागेश, जिस ने जीवन की राह में हाथ पकड़ कर चलने का वादा किया था लेकिन आधी राह में ही छोड़ कर चला गया और दूसरे उस के पति मृगेंद्र जिन्हें विवाह के 15 वर्षों बाद ही नियति छीन कर ले गई थी. दोनों ही अतीत बन चुके थे तो यह फिर कौन हो सकता था. क्या ये नागेश है जो आवाज दे रहा है, क्या आज 35 वर्षों बाद भी उस ने उसे पीछे से पहचान लिया था?

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आवाज देने वाला एकदम ही निकट आ गया था और अब वह पहचान में भी आ रहा था. नागेश ही था. कुछ भी ज्यादा अंतर नहीं था, पहले में और बाद में भी. शरीर उसी प्रकार सुगठित था. मुख पर पहले जैसी मुसकान थी. बाल अवश्य ही थोड़े सफेद हो चले थे. मूंछें पहले पतली हुआ करती थीं, अब घनी हो गई थीं और उन में सफेदी भी आ गई थी.

‘तुम यहां?  इतने वर्षों बाद और वह भी इस शाम को अचानक ही कैसे आ गए,’ वसुधा ने कहना चाहा किंतु वाणी अवरुद्ध हो चली थी.

वह क्यों रुक गई? कौन था वो, उसे वसु कह कर पुकारने वाला. यह अधिकार तो उस ने वर्षों पहले ही खो दिया था. बिना कुछ भी कहे, बिना कुछ भी बताए जो उस के जीवन से विलुप्त हो गया था. आज अचानक इतने वर्षों बाद इस शाम के धुंधलके में उस ने पीछे से देख कर पहचान लिया और अपना वही अधिकार लादने की कोशिश कर रहा था. फिर इस नाम से पुकारने वाला जब तक रहा, पूरी निष्ठा से रिश्ते निभाता रहा.

आवाज देने वाला अब और निकट आ गया था. वसुधा ने अपने कदम तेजी से आगे बढ़ाए. अब वह रुकना नहीं चाहती थी. तीव्र गति से चलती हुई वह अपने घर के गेट पर आ गई थी. कदमों की आहट भी और करीब आ गई थी. उस ने जल्दी से गेट खोला. उस की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं. वह सीधे ड्राइंगरूम में जा कर धड़ाम से सोफे पर गिर पड़ी.

दिल की धड़कनें तेजतेज चल रही थीं. किसी प्रकार उस ने उन पर नियंत्रण किया. प्यास से गला सूख रहा था. फ्रिज खोल कर ठंडी बोतल निकाली. गटगट कर उस ने पानी पी लिया. तभी डोरबैल बज उठी.

उस के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. कहीं वही तो नहीं है, उस ने सोचते हुए धड़कते हृदय से द्वार खोला. उस का अनुमान सही था. सामने नागेश ही खड़ा था. क्या करूं, क्या न करूं, इतनी तेजी से इसलिए भागी थी कि कहीं फिर उस का सामना न हो जाए लेकिन वह तो पीछा करते हुए यहां तक आ गया. अब कोई उपाय नहीं था सिवा इस के कि उसे अंदर आने को कहा जाए. ‘‘आइए’’ कह कर पीछे खिसक कर उस ने अंदर आने का रास्ता दे दिया. अंदर आ कर नागेश सोफे पर बैठ गया.

वसुधा चुपचाप खड़ी रही. नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘बैठोगी नहीं वसु?’’ वसु शब्द सुन कर उस के कान दग्ध हो उठे. ‘‘यह तुम मुझे वसुवसु क्यों कह रहे हो? मैं हूं मिसेज वसुधा रैना. कहो, यहां क्यों आए हो?’’ वसुधा बिफर उठी.

‘‘सुनो, वसु, सुनो, नाराज न हो. मुझे भी तो बोलने दो,’’ नागेश ने शांत स्वर में कहा.

‘‘पहले तुम यह बताओ, यहां क्यों आए हो? मेरा पता तुम को कैसे मिला?’’ वसुधा क्रोध से फुंफकार उठी.

‘‘किसी से नहीं मिला, यह तो इत्तफाक है कि मैं ने तुम्हें पार्क में देखा. अभी 4 दिनों पहले ही तो मैं यहां आया हूं और पास में ही फ्लैट ले कर रह रहा हूं. अकेला हूं. शाम को टहलने निकला तो तुम्हें देख लिया. पहले तो पहचान नहीं पाया, फिर यकीन हो गया कि ये मेरी वसु ही है,’’ नागेश ने विनम्रता से कहा.

‘‘मेरी वसु, हूं, यह तुम ने मेरी वसु की क्या रट लगा रखी है? मैं केवल अपने पति मृगेंद्र की ही वसु हूं, समझे तुम. और अब तुम यहां से जाओ, मेरी संध्याकालीन क्रिया का समय हो गया है और उस में मैं किसी प्रकार का विघ्न बरदाश्त नहीं कर सकती हूं,’’ वसुधा ने विरक्त होते हुए कहा.

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‘‘ठीक है मैं आज जाता हूं पर एक दिन अवश्य आऊंगा तुम से अपने मन की बात कहने और तुम्हारे मन में बसी नफरत को खत्म करने,’’ कहता हुआ नागेश चला गया.

वसुधा अपनी तैयारी में लग गई किंतु ध्यान भटक रहा था. ‘‘ऐसा क्यों हो रहा है? अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. फिर आज यह भटकन क्यों? क्यों मन अतीत की ओर भाग रहा है? अतीत जहां केवल वह थी और था नागेश. अतीत वर्तमान बन कर उस के सामने रहरह कर अठखेलियां कर रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म को रिवाइंड कर के देखा जा रहा है, उस के हृदय में मंथन हो रहा था. उस के वर्तमान को मुंह चिढ़ाते अतीत से पीछा छुड़ाना उस के लिए मुश्किल हो रहा था. अतीत ने उसे सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए थे. उसे याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार नागेश से मिली थी.

दिसंबर का महीना था. वह अपनी मित्र रिया के घर गई थी. वहां उस की 2 और भी सहेलियां आई थीं, शीबा और रेशू. रिया उन सब को ले कर ड्राइंगरूम में आ गई जहां पहले से ही उस के भाई के 2 और मित्र बैठे थे. दोनों ही आर्मी औफिसर थे. रिया के भाई डाक्टर थे, डा. रोहित. उन्होंने सब से मिलवाया. फिर सब ने एकसाथ चाय पी. वहीं उस ने नागेश को देखा. रिया ने ही बताया, ‘‘ये नागेश भाईसाहब हैं, कैप्टन हैं और यह उन के मित्र कैप्टन विनोद हैं. उन सब ने हायहैलो की, औपचारिकताएं निभाईं और वहां से विदा हो गए.

वसुधा पहली बार में ही नागेश की ओर आकर्षित हो गई थी. नागेश का गोरा चेहरा, पतलीपतली मूंछें, होंठों पर मंद मुसकान, आंखों में किसी को भी जीत लेने की चमक, टीशर्ट की आस्तीनों से झांकती, बगुले के पंख सी, सफेद पुष्ट बांहों को देख कर वसुधा गिरगिर पड़ रही थी. घर आ कर वह कुछ अनमनी सी हो गई थी. सब ने इस बात को गौर किया पर कुछ समझ न सके.

दिन गुजरते रहे और कुछ ऐसा संयोग बना कि कहीं न कहीं नागेश उसे मिल ही जाता था. फिर यह मिलना दोस्ती में बदल गया. यह दोस्ती कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला. घंटों दोनों दरिया किनारे घूमने चले जाते थे, बातें करते थे जोकि खत्म होने को ही नहीं आती थीं. दोनों भविष्य के सुंदर सपने संजोते थे.

दोनों के ही परिवार इस प्यार के विषय में जान गए थे और उन्हें कोई एतराज नहीं था. दोनों ने विवाह करने का फैसला कर लिया. जब उन्होंने अपना मंतव्य बताया तो दोनों परिवारों ने इस संबंध को खुशीखुशी स्वीकार कर लिया और एक छोटे से समारोह में उन की सगाई हो गई.

अब तो वसुधा के पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे. इधर नागेश भी बराबर ही उस के घर आने लगा था. सब ने उसे घर का ही सदस्य मान लिया था. विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी. केवल 10 दिन ही शेष थे कि अकस्मात नागेश को किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में झांसी जाना पड़ गया.

एकदो माह की ट्रेनिंग के बाद विवाह की तिथि आगे टल गई. दोबारा तिथि निश्चित हुई तो नागेश के ताऊ का निधन हो गया. एक वर्ष तक शोक मनाने के कारण विवाह की तिथि फिर आगे बढ़ा दी गई. इस प्रकार किसी न किसी अड़चन से विवाह टलता गया और 2 वर्ष का अंतराल बीत गया.

वसुधा की बेसब्री बढ़ती जा रही थी. यूनिवर्सिटी में उस की सहेलियां पूछतीं, ‘क्या हुआ, वसुधा, कब शादी करेगी? यार, इतनी भी देरी ठीक नहीं है. कहीं कोई और ले उड़ा तेरे प्यार को तो हाथ मलती रह जाएगी.’

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‘नहीं वह मेरा है, मुझे धोखा नहीं दे सकता. और जब मेरा प्यार सच्चा है तो मुझे मिलेगा ही,’ वसुधा स्वयं को आश्वस्त करती.

नागेश 15 दिनों की छुट्टी ले कर घर जा रहा था. उस ने आश्वासन दिया था कि इस बार विवाह की तिथि निश्चित कर के ही रहेगा. वसुधा उस से आखिरी बार मिली. उसे नहीं पता था, यह मिलना वास्तव में आखिरी है. अचानक उसे आभास हुआ कि शायद अब वह नागेश को कभी नहीं देख पाएगी, दिल धक से हो गया. लेकिन फिर आशा दिलासा देने लगी, ‘नहीं, वह तेरा है, तुझे अवश्य मिलेगा.’

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