Interesting Hindi Stories : दिल के पुल – क्यों समीक्षा की शादी के खिलाफ था उसका परिवार?

Interesting Hindi Stories : आज अल्लसुबह इतना कुहरा न था जितना अब दिन चढ़ते छाया जा रहा था. मौसम को भी अनुमान हो चला था कि आज साफगोई की आवश्यकता नहीं है. दिल की उदासी मौसम पर छाई थी और मौसम की उदासी दिल पर. समीक्षा खामोशी से तैयार होती जा रही थी. न मन में कोई उमंग, न कोईर् स्वप्न. आज फिर उसे नुमाइश करनी थी, अपनी. 33 श्रावण पार कर चुकी समीक्षा अब थक चुकी थी इस परेड से. पर क्या करे, न चाहते हुए भी परिवार वालों की जागती उम्मीद हेतु वह हर बार तैयार हो जाती. शुरूशुरू में अच्छी नौकरी के कारण उस ने कई रिश्ते टाले, फिर स्वयं उच्च पदासीन होने के कारण कई रिश्ते निम्न श्रेणी कह कर ठुकराए. 30 पार करतेकरते रिश्ते आने कम होने लगे. अब हर 6 माह बीतने बाद रिश्तों के परिमाण के साथ उन की गुणवत्ता में भी भारी कमी दिखने लगी थी.

समीक्षा ने प्रोफैशनल जगत में बहुत नाम कमाया. आज वह अपनी कंपनी की वाइस प्रैसीडैंट है. बड़ा कैबिन है, कई मातहत हैं, विदेश आनाजाना लगा रहता है. सभी वरिष्ठ अधिकारियों की चहेती है. पर यह कैसी विडंबना है कि जहां एक तरफ उस की कैरियर संबंधी उपलब्धी को इतनी छोटी आयु की श्रेणी में रख सराहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ शादी के लिए उस की उम्र निकल चुकी है. यही विडंबना है लड़कियों की. कैरियर में आगे बढ़ना चाहती हैं तो शादी पीछे रखनी पड़ती है और यदि समय रहते शादी कर लें तो पति, गृहस्थी, बालबच्चों के चक्कर में अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए कैरियर होम करना पड़ता है. क्या हर वह स्त्री जो नौकरी में आगे बढ़ना चाहती है और गृहस्थी का स्वप्न भी संजोती है, उसे सुपर वूमन बनना होगा?

‘‘समीक्षा तैयार हो गई? लड़के वाले आते होंगे,’’ मां की पुरजोर पुकार से उस के विचारों की तंद्रा भंग हुई. वर्तमान में लौट कर वह पुन: आईने में स्वयं को देख कमरे से बाहर चली गई.

‘‘हमारी बेटी ने बहुत जल्दी बहुत ऊंचा पद हासिल किया है जनाब,’’ महेशजी ने कहा.

यह सुनते ही लड़के की मां ने बिना देर किए प्रश्न दागा, ‘‘घर के कामकाज भी आते हैं या सिर्फ दफ्तरी आती है?’’

‘हम सोच कर बताएंगे,’ वही पुराना राग अलाप कर लड़के वाले चले गए. समय बीतने के साथ रिश्ता पाने की लालसा में समीक्षा के घर वाले उस से कम तनख्वाह वाले लड़कों को भी हामी भर रहे थे. लेकिन अब बात उलट चुकी थी. अकसर सुनने में आता कि लड़के वाले इतनी ऊंची पदासीन लड़की का रिश्ता लेने में सहज नहीं हैं. कहते हैं घर में भी मैनेजरी करेगी.

शाम ढलने तक बिचौलिए के द्वारा पता चल गया कि अन्य रिश्तों की भांति यह रिश्ता भी आगे नहीं बढ़ पाएगा. एक और कुठाराघात. कड़ाके की ठंड में भी उस के माथे पर पसीना उग गया. सोफे पर बैठेबैठे ही उस के पैर कंपकंपा उठे तो उस ने शाल से ढक लिए. ऐसा लग रहा था कि उस के मन की कमजोरी उस के तन पर भी उतर आई है. पता नहीं उठ कर चल पाएगी या नहीं. उस का मन काफी कुछ ठंडा हो चला था, किंतु आंखों का रोष अब भी बरकरार था.

‘‘पापा, प्लीज अब रहने दीजिए न,’’ पता नहीं समीक्षा की आवाज में कंपन मौसम के कारण था या मनोस्थिति के कारण. इस बेवजह के तिरस्कार से वह थक चुकी थी, ‘‘जो भी आता है मेरी खूबियों को कसौटी पर कसने की फिराक में नजर आता है. हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकाए जाने की पीड़ा असहनीय लगने लगी है मुझे,’’ उस ने भावुक बातों से पिता को सोच में डाल दिया.

समय का चक्र चलता रहा. समीक्षा के जिद करने पर उस के भाई की शादी करवा दी गई. उस ने शादी का विचार त्याग दिया था. सब कुछ समय पर छोड़ नौकरी के साथसाथ सामाजिक कार्य करती संस्था से भी जुड़ गई. मजदूर वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने में उसे सच्चे संतोष की प्राप्ति होती. वहीं उस की मुलाकात दीपक से हुई. दीपक भी अपने दफ्तर के बाद सामाजिक कार्य करने हेतु इस संस्था से जुड़ा था. उस की उम्र करीब 45 साल होगी. ऐसा बालों में सफेदी और बातचीत में परिपक्वता से प्रतीत होता था. दोनों की उम्र में इतना फासला होने के कारण समीक्षा बेझिझक उस से घुलनेमिलने लगी. उस की बातों, अनुभव से वह कुछ न कुछ सीखती रहती.

एक दिन दोनों काम के बाद कौफी पी रहे थे. तभी अचानक दीपक ने पूछा, ‘‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? अभी तक शादी क्यों नहीं की समीक्षा?’’

‘‘रिश्ते तो आते रहे, किंतु कोई मुझे पसंद नहीं आया तो किसी को मैं. अब मैं ने यह फैसला समय पर छोड़ दिया है. मैं ने सुना है आप ने शादी की थी, लेकिन आप की पत्नी…’’ कहते हुए समीक्षा बीच में ही रुक गई.

‘‘उफ, तो कहानी सुन चुकी हो तुम? सब के हिस्से यह नहीं होता कि उन का जीवनसाथी आजीवन उन का साथ निभाए,’’ फिर कुछ पल की खामोशी के बाद दीपक बोले, ‘‘मैं ने सब से झूठ कह रखा है कि मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई. दरअसल, वह मुझे छोड़ कर चली गई. उसे जिन सुखसुविधाओं की तलाश थी, वे मैं उसे 30 वर्ष की आयु में नहीं दे सकता था…

‘‘एक दिन मैं दूसरी कंपनी में प्रैजेंटेशन दे कर जल्दी फ्री हो गया और सीधा अपने घर आ गया. अचानक घर लौटने पर मैं अपने एहाते में अपने बौस की कार को खड़ा पाया. मैं अचरज में आ गया कि बौस मेरे घर क्यों आए होंगे. फटाफट घंटी बजा कर मैं पत्नी की प्रतीक्षा करने लगा. दरवाजा खोलने में उसे काफी समय लगा. 3 बार घंटी बजाने पर वह आई. मुझे देखते ही वह अचकचा गई और उलटे पांव कमरे में दौड़ी. इस अप्रत्याशित व्यवहार के कारण मैं भी उस के पीछेपीछे कमरे में गया तो पाया कि मेरा बौस मेरे बिस्तर पर शर्ट पहने…’’

दीपक का गला भर्रा गया. कुछ क्षण वह चुप नीचे सिर किए बैठा रहा. फिर आगे बोला, ‘‘पिछले 4 महीनों से मेरी पत्नी और मेरे बौस का अफेयर चल रहा था… मुझ से तलाक लेने के बाद उस ने मेरे बौस से शादी  कर ली.’’

समीक्षा ने दीपक के कंधे पर हाथ रख सांत्वना दी, ‘‘एक बात पूछूं? आप ने मुझे ये सब बातें क्यों बताईं?’’

कुछ न बोल दीपक चुपचाप समीक्षा को देखता रहा. आज उस की नजरों में एक अजीब सा आकर्षण था, एक खिंचाव था जिस ने समीक्षा को अपनी नजरें झुकाने पर विवश कर दिया. फिर बात को सहज बनाने हेतु वह बोली, ‘‘दीपकजी, इतने सालों में आप ने पुन: विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘तुम्हारे जैसी कोई मिली ही नहीं.’’

यह सुनते ही समीक्षा अचकचा कर खड़ी हो गई. ऐसा नहीं था कि उसे दीपक के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. ऐसी बात शायद उस का मन दीपक से सुनना भी चाहता था पर यों अचानक दीपक के मुंह से ऐसी बात सुनने की अपेक्षा नहीं थी. खैर, मन की बात कब तक छिप सकती है भला. दोनों की नजरों ने एकदूसरे को न्योता दे  दिया था.

समीक्षा की रजामंदी मिलने के बाद दीपक ने कहा, ‘‘समीक्षा, मुझे तुम से कुछ कहना है, जो मेरे लिए इतना मूल्यवान नहीं है, लेकिन हो सकता है कि तुम्हारे लिए वह महत्त्वपूर्ण हो. मैं धर्म से ईसाई हूं. किंतु मेरे लिए धर्म बाद में आता है और कर्म पहले. हम इस जीवन में क्या करते हैं, किसे अपनाते हैं, किस से सीखते हैं, इन सब बातों में धर्म का कोई स्थान नहीं है. हमारे गुरु, हमारे मित्र, हमारे अनुभव, हमारे सहकर्मी जब सभी अलगअलग धर्म का पालन करने वाले हो सकते हैं, तो हमारा जीवनसाथी क्यों नहीं? मैं तुम्हारे गुण, व्यक्तित्व के कारण आकर्षित हुआ हूं और धर्म के कारण मैं एक अच्छी संगिनी को खोना नहीं चाहता. आगे तुम्हारी इच्छा.’’

हालांकि समीक्षा भी दीपक के व्यक्तित्व, उस के आचारविचार से बहुत प्रभावित थी, किंतु धर्म एक बड़ा प्रश्न था. वह दीपक को खोना नहीं चाहती थी, खासकर यह जानने के बाद कि वह भी उसे पसंद करता है मगर इतना अहम फैसला वह अकेली नहीं ले सकती थी. लड़कियों को शुरू से ही ऐसे संस्कार दिए जाते हैं, जो उन की शक्ति कम और बेडि़यां अधिक बनते हैं. आत्मनिर्भर सोच रखने वाली लड़की भी कठोर कदम उठाने से पहले परिवार तथा समाज की प्रतिक्रिया सोचने पर विवश हो उठती है. एक ओर जहां पुरुष पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय देता है, पूरी बेबाकी से आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत रखता है, वहीं दूसरी ओर एक स्त्री छोटे से छोटे कार्य से पहले भी अपने परिवार की मंजूरी चाहती है, क्योंकि इसी का समाज संस्कार का नाम देता है. आज रात खाने में क्या बनाऊं से ले कर नौकरी करूं या गृहस्थी संभालू तक मानो संस्कारों को जीवित रखने का सारा बोझ स्त्री के कंधों पर ही है.

समीक्षा ने यह बात अपनी मां के साथ बांटी, ‘‘आप क्या सोचती हैं इस विषय पर मां?’’

मां ने प्रतिउत्तर प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम दीपक से प्यार करती हो?’’

समीक्षा की चुप्पी ने मां को उत्तर दे दिया. वे बोलीं, ‘‘देखो समीक्षा, तुम्हारी उम्र मुझे भी पता है और तुम्हें भी. मैं चाहती हूं कि तुम्हारा घर बसे, तुम्हारा जीवन प्रेम से सराबोर हो, तुम भी अपनी गृहस्थी का सुख भोगो. मगर अब तुम्हें यह सोचना है कि क्या तुम दूसरे धर्म के परिवार में तालमेल बैठा पाओगी… यह निर्णय तुम्हें ही लेना है.’’

समीक्षा की मां से हामी मिलने पर दीपक उसे अपने घर अपने परिवार वालों से मिलाने ले गया. दीपक  के पिता का देहांत हो चुका था. घर में मां व छोटा भाई थे. समीक्षा को दीपक की मां पसंद आई. मां की परिभाषा पर सटीक उतरतीं सीधी, सरल औरत.

‘‘विवाहोपरांत कौन क्या करेगा, अभी इस का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. दीपक की पहली शादी हम ने अपनी बिरादरी में की थी, लेकिन… अब इतने वर्षों के बाद यह किसी को पसंद कर रहा है तो जरूर उस में कुछ खास होगा,’’ मां खुश थीं.

लेकिन समीक्षा हिंदू है यह जान कर दीपक के भाई का मुंह बन गया.  कुछ ही देर में दीपक की बड़ी विवाहित बहन आ पहुंची. उसे दीपक के छोटे भाई ने फोन कर बुलाया था. बहन ने आ कर काफी हंगामा किया, ‘‘तेरे को शादी करनी है तो मुझ से बोल. मैं लाऊंगी तेरे लिए एक से एक बढि़या लड़की… यह तो सोच कि एक हिंदू लड़की, एक तलाकशुदा ईसाई लड़के से, जो उस से उम्र में भी बड़ी है, शादी क्यों करना चाहती है. तूने अपना पास्ट इसे बता दिया, पर कभी सोचा कि जरूर इस का भी कोई लफड़ा रहा होगा? इस ने तुझे कुछ बताया? क्या तू हम से छिपा रहा है?’’

लेकिन दीपक अडिग था. उस ने सोच लिया था कि जब दिल ने पुल बना लिया है तो वह उस पर चल कर अपने प्यार की मंजिल तक पहुंचेगा.  समीक्षा प्रसन्न थी कि दीपक व उस की मां को यह रिश्ता मंजूर है, साथ ही थोड़ी खिन्नता भी मन में थी कि उस के भाई व बहन को इस रिश्ते पर ऐतराज है. अब समीक्षा ने अपने घर में पिता और भाई को इस रिश्ते के बारे में बताने का निश्चय किया और फिर वही हुआ जिस की आशा भी थी और आशंका भी.

‘‘डायन भी 7 घर छोड़ देती है पर तुम ने अपने ही घर वालों को नहीं बख्शा, शर्म नहीं आई अपनी ही शादी की बात करते और वह भी एक अधर्मी से?’’ उस का छोटा भाई गरज रहा था. वह भाई जिस की शादी की चिंता समीक्षा ने अपनी शादी से पहले की थी.

‘‘मैं क्या मुंह दिखाऊंगी अपने समाज में? मेरे मायके में मेरी छोटी बहन कुंआरी है अभी, उस की शादी कैसे होगी यह बात खुलने पर?’’ उस की पत्नी भी कहां पीछे थी.

‘‘सौ बात की एक बात समीक्षा, यह शादी होगी तो मेरी लाश के ऊपर से होगी.  अब तेरी इच्छा है अपनी डोली चाहती है या अपनी मां की मांग का सिंदूर,’’ पिता की दोटूक बात पर समीक्षा सिर झुकाए, रोती रही.  वह रात बहुत भारी बीती. बेटी की इस स्थिति पर मां अपने बिस्तर पर रो रही थीं और समीक्षा अपने बिस्तर पर. आगे क्या होगा, इस से दोनों अनजान डर पाले थीं.

अगले दिन पिता ने बूआ का बुला लिया. समीक्षा अपनी बूआ से हिलीमिली थी. अत: पिता ने बूआ को मुहरा बनाया उसे समझा कर शादी से हटाने हेतु. बूआ ने हर तरह के तर्कवितर्क दिए, उसे इमोशनल ब्लैकमेल किया.

उन की बातें जब पूरी हो गईं तो समीक्षा ने बस एक ही वाक्य कहा, ‘‘बूआ, मैं बस इतना कहूंगी कि यदि मैं दीपक से शादी नहीं करूंगी तो किसी से भी नहीं करूंगी.’’

किंतु अपेक्षा के विपरीत समीक्षा का शादी न करने का निर्णय उस के पिता व भाई को स्वीकार्य था. लेकिन दूसरे धर्म के नेक, प्यार करने वाले लड़के से शादी नहीं.  अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर पिता बोले, ‘‘समीक्षा की शादी के लिए मैं ने एक लड़का देखा है. हमारे गोपीजी का भतीजा. देखाभाला परिवार है. उन्हें भी शादी की जल्दी और हमें भी,’’ उन्होंने घृणाभरी दृष्टि समीक्षा पर डाली.

समीक्षा का मन हुआ कि वह इसी क्षण वहां से कहीं लुप्त हो जाए. उसी शाम से हिंदुत्व प्रचारक सोना के प्रमुख गोपीजी के भतीजे के गुंडे समीक्षा के पीछे लग गए. उस के दफ्तर के बाहर खड़े रहते. रास्ते भर उस का पीछा करते ताकि वह दीपक से न मिल सके. 3 दिनों की लुकाछिपी से समीक्षा काफी परेशान हो गई.  क्या हम इसीलिए अपनी बेटियों को शिक्षित करते हैं, उन्हें आगे बढ़ने, प्रगति करने की प्रेरणा देते हैं कि यदि उन के एक फैसले से हम असहमत हों तो उन का जीना दूभर कर दें? यह संकुचित सोच उस की मां को कुंठित कर गई. उन के मन में फांस सी उठी. क्या लड़की समाज के लिए अपनी खुशियों का, अपने जीवन का बलिदान दे दे तो महान तथा संस्कारी और यदि अपनी खुशी के लिए अपने ही परिवार से कुछ मांगे तो निर्लज्ज… परिवार का अर्थ ही क्या रह गया यदि वह अपने बच्चों की तकलीफ, उन का भला न देख सके…

रात के भोजन पर समीक्षा के मन पर छाए चिंताओं के बादल से या तो वह स्वयं परिचित थी या उस की मां. अन्य सदस्य बेखबर थे. वे तो समस्या का हल खोज लेने पर भोजन का रोज की भांति स्वाद उठा रहे थे, हंसीमजाक से माहौल हलका बनाए हुए थे.

अचानक मां ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘समीक्षा, तुम मन में कोई  चिंता न रख. तुम आज तक बहुत अच्छी बेटी, बहुत अच्छी बहन बन कर रहो. अब हमारी बारी है. आज यदि तुम्हें कोई ऐसा मिला है जिस से तुम्हारा मन मिला है तो हम तुम्हारी खुशी में रोड़े नहीं अटकाएंगे.’’  इस से पहले कि पिता टोकते वे उन्हें रोकती हुई आगे बोलीं, ‘‘कर्तव्य केवल बेटियों के  नहीं होते, परिवारों के भी होते हैं. दीपक के परिवार से मैं मिलूंगी और शादी की बात  आगे बढ़ाऊंगी.’’

मां के अडिगअटल निर्णय के आगे सब  चुप थे. शादी के दौरान भी तनाव कुछ कम नहीं हुआ. दोनों परिवारों में शादी को ले कर न तो रौनक थी और न ही उल्लास. समीक्षा के पिता और भाई ने शादी का कार्ड इसलिए नहीं अपनाया था, क्योंकि उस पर बाइबिल की पंक्तियां लिखी जाती थीं. और दीपक के रिश्तेदारों को उस पर गणेश की तसवीर से आपत्ति थी. केवल दोनों की मांओं ने ही आगे बढ़चढ़ कर शादी की तैयारी की थी. बेचारे दूल्हादुलहन दोनों डरे थे कि शादी में कोई विघ्न न आ जाए.

शादी हो गई तब भी समीक्षा थोड़ी दुखी थी. बोली, ‘‘कितना अच्छा होता यदि हमारे परिवार वाले भी सहर्ष हमें आशीर्वाद देते.’’  मगर दीपक की बात ने उस की सारी

शंका दूर कर दी. बोलीं, ‘‘कई बार हमें चुनना होता है कि हम किसे प्यार करते हैं. हम दोनों ने जिसे प्यार किया, उसे चुन लिया. यदि वे हम से प्यार करते होंगे, हमारी खुशी में खुश होंगे तो हमें चुन लेंगे.’’  अब मन में बिना कोई दुविधा लिए दोनों की आंखों में सुनहरे भविष्य के उज्जवल सपने थे.

Hindi Moral Tales : जीवन चलने का नाम

Hindi Moral Tales : ‘‘ मम्मी, चाय,’’ सरिता ने विभा को चाय देते हुए ट्रे उन के पास रखी तो उन्होंने पूछा, ‘‘विनय आ गया?’’

‘‘हां, अभी आए हैं, फ्रेश हो रहे हैं. आप को और कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं बेटा, कुछ नहीं चाहिए,’’ विभा ने कहा तो सरिता ड्राइंगरूम में आ कर विनय के साथ बैठ कर चाय पीने लगी.

विनय ने सरिता को बताया, ‘‘परसों अखिला आंटी आ रही हैं, उन का फोन आया था, जा कर मम्मी को बताता हूं, वे खुश हो जाएंगी.’’

सरिता जानती थी कि अखिला आंटी और मम्मी का साथ बहुत पुराना है. दोनों मेरठ में एक ही स्कूल में वर्षों अध्यापिका रही हैं. विभा तो 1 साल पहले रिटायर हो गई थीं, अखिला आंटी के रिटायरमैंट में अभी 2 साल शेष हैं. सरिता अखिला से मेरठ में कई बार मिली है. विभा रिटायरमैंट के बाद बहूबेटे के साथ लखनऊ में ही रहने लगी हैं.

विनय के साथसाथ सरिता भी विभा के कमरे में आ गई. विनय ने मां को बताया, ‘‘मम्मी, अखिला आंटी किसी काम से लखनऊ आ रही हैं, हमारे यहां भी 2-3 दिन रह कर जाएंगी.’’

विभा यह जान कर बहुत खुश हो गईं, बोलीं, ‘‘कई महीनों से मेरठ चक्कर नहीं लगा. चलो, अब अखिला आ रही है तो मिलना हो जाएगा. मेरठ तो समझो अब छूट ही गया.’’

विनय ने कहा, ‘‘क्यों मां, यहां खुश नहीं हो क्या?’’ फिर पत्नी की तरफ देख कर उसे चिढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी बहू तुम्हारी सेवा ठीक से नहीं कर रही है क्या?’’

विभा ने तुरंत कहा, ‘‘नहींनहीं, मैं तो पूरा दिन आराम रतेकरते थक जाती हूं. सरिता तो मुझे कुछ करने ही नहीं देती.’’

थोड़ी देर इधरउधर की बातें कर के दोनों अपने रूम में आ गए. उन के दोनों बच्चे यश और समृद्धि भी स्कूल से आ चुके थे. सरिता ने उन्हें भी बताया, ‘‘दादी की बैस्ट फ्रैंड आ रही हैं. वे बहुत खुश हैं.’’

अखिला आईं. उन से मिल कर सब  बहुत खुश हुए. सब को उन से हमेशा अपनत्व और स्नेह मिला है. मेरठ में तो घर की एक सदस्या की तरह ही थीं वे. एक ही गली में अखिला और विभा के घर थे. सगी बहनों की तरह प्यार है दोनों में.

चायनाश्ते के दौरान अखिला ही ज्यादा बातें करती रहीं, अपने और अपने परिवार के बारे में बताती रहीं. मेरठ में वे अपने बहूबेटे के साथ रहती हैं. उन के पति रिटायर हो चुके हैं लेकिन किसी औफिस में अकाउंट्स का काम देखते हैं. विभा कम ही बोल रही थीं, अखिला ने उन्हें टोका, ‘‘विभा, तुझे क्या हुआ है? एकदम मुरझा गई है. कहां गई वह चुस्तीफुरती, थकीथकी सी लग रही है. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे ऐसे ही लग रहा है,’’ विभा ने कहा.

‘‘मैं क्या तुझे जानती नहीं?’’ दोनों बातें करने लगीं तो सरिता डिनर की तैयारी में व्यस्त हो गई. वह भी सोचने लगी कि मम्मी जब से लखनऊ आई हैं, बहुत बुझीबुझी सी क्यों रहने लगी हैं. उन के आराम का इतना तो ध्यान रखती हूं मैं. हमेशा मां की तरह प्यार और सम्मान दिया है उन्हें और वे भी मुझे बहुत प्यार करती हैं. हमारा रिश्ता बहुत मधुर है. देखने वालों को तो अंदाजा ही नहीं होता कि हम मांबेटी हैं या सासबहू. फिर मम्मी इतनी बोझिल सी क्यों रहती हैं? यही सब सोचतेसोचते वह डिनर तैयार करती रही.

डिनर के बाद अखिला ने विभा से कहा, ‘‘चल, थोड़ा टहल लेते हैं.’’

‘‘टहलने का मन नहीं. चल, मेरे रूम में, वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ विभा ने कहा.

‘‘विभा, तुझे क्या हो गया है? तुझे तो आदत थी न खाना खा कर इधरउधर टहलने की.’’

‘‘आंटी, अब तो मम्मी ने घूमनाटहलना सब छोड़ दिया है. बस, डिनर के बाद टीवी देखती हैं,’’ सरिता ने अखिला को बताया तो विभा मुसकरा भर दीं.

‘‘मैं यह क्या सुन रही हूं विभा?’’

‘‘अखिला, मेरा मन नहीं करता?’’

‘‘भई, मैं तुम्हारे साथ रूम में घुस कर बैठने नहीं आई हूं, चुपचाप टहलने चल और कल मुझे लखनऊ घुमा देना. थोड़ी शौपिंग करनी है, बहू ने चिकन के सूट मंगाए हैं.’’

सरिता ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चलना आंटी. मम्मी के पैरों में दर्द रहता है. वे आराम कर लेंगी.’’

अगले दिन अखिला विभा को जबरदस्ती ले कर बाजार गई. दोनों लौटीं तो खूब खुश थीं. विभा भी सरिता के लिए एक सूट ले कर आई थीं.

डिनर के बाद भी अखिला विभा को घर के पास बने गार्डन में टहलने ले गई. विभा बहुत फ्रैश थीं. सरिता को अच्छा लगा, विभा का बहुत अच्छा समय बीता था.

विभा को ले कर अखिला बहुत चिंतित  थीं. वे चाहती थीं कि विभा पहले की तरह ही चुस्तदुरुस्त हो जाए. पर यह इतना आसान न था. जिस दिन अखिला को वापस जाना था वे सरिता से बोलीं, ‘‘बेटा, कुछ जरूरी बातें करनी हैं तुम से.’’

‘‘कहिए न, आंटी.’’

‘‘मेरे साथ गार्डन में चलो, वहां अकेले में बैठ कर बातें करेंगे.’’

दोनों घर के सामने बने गार्डन में जा कर एक बैंच पर बैठ गईं.

‘‘सरिता, विभा बहुत बदल गई है. उस का यह बदलाव मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘हां आंटी, मम्मी बहुत डल हो गई हैं यहां आ कर जबकि मैं उन का बहुत ध्यान रखती हूं, उन्हें कोई काम नहीं करने देती, कोई जिम्मेदारी नहीं है उन पर, फिर भी पता नहीं क्यों दिन पर दिन शिथिल सी होती जा रही हैं.’’

‘‘यही तो गलती कर दी तुम ने बेटा, तुम ने उसे सारे कामों से छुट्टी दे कर उस के जीवन के  उद्देश्य और उपयोगिता को ही खत्म कर दिया. अब वह अपनेआप को अनुपयोगी मान कर अनमनी सी हो गई है. उसे लगता है कि उस का जीवन उद्देश्यहीन है. मुझे पता है तुम तो उस के आराम के लिए ही सोचती हो लेकिन हर इंसान की जरूरतें, इच्छाएं अलग होती हैं. किसी को जीवन की भागदौड़ के बाद आराम करना अच्छा लगता है तो किसी को कुछ काम करते रहना अच्छा लगता है. विभा तो हमेशा से ही बहुत कर्मठ रही है. मेरठ से रिटायर होने के बाद भी वह हमेशा किसी न किसी काम में व्यस्त रहती थी. वह जिम्मेदारियां निभाना पसंद करती है. ज्यादा टीवी देखते रहना तो उसे कभी पसंद नहीं था. कहती थी, सारा दिन टीवी वही बड़ेबुजुर्ग देख सकते हैं जिन्हें कोई काम नहीं होता. मेरे पास तो बहुत काम हैं और मैं तो अभी पूरी तरह से स्वस्थ हूं.

‘‘जीवन से भरपूर, अपनेआप को किसी न किसी काम में व्यस्त रखने वाली अब अपने कमरे में चुपचाप टीवी देखती रहती है.

‘‘विनय जब 10 साल का था, उस के पिताजी की मृत्यु हो गई थी. विभा ने हमेशा घरबाहर की हर जिम्मेदारी संभाली है. वह अभी तक स्वस्थ रही है. मुझे तो लगता है किसी न किसी काम में व्यस्त रहने की आदत ने उसे हमेशा स्वस्थ रखा है. तुम धीरेधीरे उस पर फिर से थोड़ेबहुत काम की जिम्मेदारी डालो जिस से उसे लगे कि तुम्हें उस के साथ की, उस की मदद की जरूरत है.

सरिता, इंसान तन से नहीं, मन से बूढ़ा होता है. जब तक उस के मन में काम करने की उमंग है उसे कुछ न कुछ करते रहने दो. तुम ने ‘आप आराम कीजिए, मैं कर लूंगी’ कह कर उसे एक कमरे में बिठा दिया है. जबकि विभा के अनुसार तो जीवन लगातार चलते रहने का नाम है. उसे अब अपना जीवन ठहरा हुआ, गतिहीन लगता है. तुम ने मेरठ में उस की दिनचर्या देखी थी न, हर समय कुछ न कुछ काम, इधर से उधर जाना, टहलना, घूमना, कितनी चुस्ती थी उस में, मैं ठीक कह रही हूं न बेटा?’’

‘‘हां आंटी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, मैं आप की बात समझ गई हूं. अब आप देखना, अगली बार मिलने पर मम्मी आप को कितनी चुस्तदुरुस्त दिखेंगी.’’

अखिला मेरठ वापस चली गईं. सरिता विभा के कमरे में जा कर उन्हीं के बैड पर लेट गई. विभा टीवी देख रही थीं. वे चौंक गईं, ‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘मम्मी, बहुत थक गई हूं, कमर में भी दर्द है.’’

‘‘दबा दूं, बेटा?’’

‘‘नहीं मम्मी, अभी तो बाजार से घर का कुछ जरूरी सामान भी लाना है.’’

विभा ने पलभर सरिता को देख कर कुछ सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं ला दूं?’’

‘‘आप को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’’ सरिता धीमे से बोली.

‘‘अरे नहीं, परेशानी किस बात की, तुम लिस्ट बना दो, मैं अभी कपड़े बदल कर बाजार से सारा सामान ले आती हूं,’’ कह कर विभा ने फटाफट टीवी बंद किया, अपने कपड़े बदले, सरिता से लिस्ट ली और पर्स संभाल कर उत्साह और जोश के साथ बाहर निकल गईं.

विनय आया तो सरिता ने उसे अखिला आंटी से हुई बातचीत के बारे में बताया. उसे भी अखिला आंटी की बात समझ में आ गई. उस ने भी अपनी मम्मी को हमेशा चुस्तदुरुस्त देखा था, वह भी उन के जीवन में आई नीरसता को ले कर चिंतित था.

एक घंटे बाद विभा लौटीं, उन के चेहरे पर ताजगी थी, थकान का कहीं नामोनिशान नहीं था. मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘आज बहुत दिनों बाद खरीदा है, देख लो, कहीं कुछ रह तो नहीं गया.’’

सरिता सामान संभालने लगी तो विभा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दर्द कैसा है?’’

‘‘थोड़ा ठीक है.’’

इतने में विनय ने कहा, ‘‘सरिता, आज खाने में क्या बनाओगी?’’

‘‘अभी सोचा नहीं?’’

विनय ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप अपने हाथ की रसेदार आलू की सब्जी खिलाओ न, बहुत दिन हो गए.’’

विभा चहक उठीं, ‘‘अरे, अभी बनाती हूं, पहले क्यों नहीं कहा?’’

‘‘मम्मी, आप अभी बाजार से आई हैं, पहले थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर बना दीजिएगा,’’ सरिता ने कहा तो विभा ने किचन की तरफ जाते हुए कहा, ‘‘अरे, आराम कैसा, मैं ने किया ही क्या है?’’

विनय ने सरिता की तरफ देखा. विभा को पहले की तरह उत्साह से भरे देख कर दोनों का मन हलका हो गया था. वे हैरान भी थे और खुश भी कि सुस्त रहने वाली मां कितने उत्साह से किचन की तरफ जा रही थीं. सरिता सोच रही थी कि आंटी ने ठीक कहा था जब तक मम्मी स्वयं को थका हुआ महसूस न करें तब तक उन्हें बेकार ही इस बात का एहसास करा कर कुछ काम करने से नहीं रोकना चाहिए था, जबरदस्ती आराम नहीं करवाना चाहिए था. अच्छा तो यही है कि मम्मी अपनी रुचि का काम कर के अपनेआप को व्यस्त और खुश रखें और जीवन को उत्साह से जिएं. उन का व्यक्तित्व हमारे लिए आज भी महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है यह एहसास उन्हें करवाना ही है.

सरिता ने अपने विचारों में खोए हुए किचन में जा कर देखा, पिछले 6 महीने से कभी कमर, कभी पैर दर्द बताने वाली मां के हाथ बड़ी तेजी से चल रहे थे.  वह चुपचाप किचन से मुसकराती हुई बाहर आ गई.

Best Hindi Story : एक रात का सफर- क्या हुआ अक्षरा के साथ?

Best Hindi Story :  बस के हौर्न देते ही सभी यात्री जल्दीजल्दी अपनीअपनी सीटों पर बैठने लगे. अक्षरा ने बंद खिड़की से ही हाथ हिला कर चाचाचाची को बाय किया. उधर से चाचाजी भी हाथ हिलाते हुए जोर से बोले, ‘‘मैं ने कंडक्टर को कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और पहुंचते ही फोन कर देना.’’

बस चल दी. अक्षरा खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश करने लगी ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, मगर शीशा टस से मस नहीं हुआ तो उस ने कंडक्टर से शीशा खोल देने को कहा. कंडक्टर ने पूरा शीशा खोल दिया.

अक्षरा की बगल वाली सीट अभी भी खाली थी. उधर कंडक्टर एक दंपती से कह रहा था, ‘‘भाई साहब, प्लीज आप आगे वाली सीट पर बैठ जाएं तो आप की मैडम के साथ एक लड़की को बैठा दूं, देखिए न रातभर का सफर है, कैसे बेचारी पुरुष के साथ बैठेगी?’’

अक्षरा ने मुड़ कर देखा, कंडक्टर पीछे वाली सीट पर बैठे युवा जोड़े से कह रहा था. आदमी तो आगे आने के लिए मान गया पर औरत की खीज को भांप अक्षरा बोली, ‘‘मुझे उलटी होती है, उन से कहिए न मुझे खिड़की की तरफ वाली सीट दे दें.’’

‘‘वह सब आप खुद देख लीजिए,’’ कंडक्टर ने दो टूक लहजे में कहा तो अक्षरा झल्ला कर बोली, ‘‘तो फिर मुझे नहीं जाना, मैं अपनी सीट पर ही ठीक हूं.’’

कंडक्टर भी अव्वल दर्जे का जिद्दी था. वह तुनक कर बोला, ‘‘अब आप की बगल में कोई पुरुष आ कर बैठेगा तो मुझे कुछ मत बोलिएगा, आप के पेरैंट्स ने कहा था इसलिए मैं ने आप के लिए महिला के साथ की सीट अरेंज की.’’

तभी झटके से बस रुकी और एक दादानुमा लड़का बस में चढ़ा और लपक कर ड्राइवर का कौलर पकड़ कर बोला, ‘‘क्यों बे, मुझे छोड़ कर भागा जा रहा था, मेरे पहुंचे बिना बस कैसे चला दी तू ने?’’

ड्राइवर डर गया. मौका   देख कर कंडक्टर ने हाथ जोड़ते हुए बात खत्म करनी चाही, ‘‘आइए बैठिए, देखिए न बारिश का मौसम है इसीलिए, नहीं तो आप के बगैर….’’ उस ने लड़के को अक्षरा की बगल वाली सीट पर ही बैठा दिया.

अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर बात न मानने का बदला ले रहा था. उस ने खिड़की की तरफ मुंह कर लिया.

बारिश शुरू हो चुकी थी और बस अपनी रफ्तार पकड़ने लगी थी. टेढ़ेमेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती बस के शीशों से बारिश का पानी रिसरिस कर अंदर आने लगा. सभी अपनीअपनी खिड़कियां बंद किए हुए थे. अक्षरा ने भी अपनी खिड़की बंद करनी चाही, लेकिन शीशा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ. उस ने इधरउधर देखा, कंडक्टर आगे जा कर बैठ गया था. पानी रिसते हुए अक्षरा को भिगा रहा था.

तभी बगल वाले लड़के ने पूछा, ‘‘खिड़की बंद करनी है तो मैं कर देता हूं.’’

अक्षरा ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर भी उस ने उठ कर पूरी ताकत लगा कर खिड़की बंद कर दी. पानी का रिसना बंद हो गया, बाहर बारिश भी तेज हो गई थी.

अक्षरा खिड़की बंद होते ही अकुलाने लगी. उमस और बस के धुएं की गंध से उस का जी मिचलाने लगा था. बाहर बारिश काफी तेज थी लेकिन उस की परवाह न करते हुए उस ने शीशे को सरकाना चाहा तो लड़के ने उठ कर फुरती से खिड़की खोल दी.

अक्षरा उलटी करने लगी. थोड़ी देर तक उलटी करने के बाद वह शांत हुई मगर तब तक उस के बाल और कपड़े काफी भीग चुके थे.

बगल में बैठे लड़के ने आत्मीयता से पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है, मैं पानी दूं, कुल्ला कर लीजिए.’’

अक्षरा अनमने भाव से बोली, ‘‘मेरे पास पानी है.’’

वह फिर बोला, ‘‘आप अकेली ही जा रही हैं, आप के साथ और कोई नहीं है?’’

अक्षरा इस सवाल से असहज हो

उठी, ‘‘क्यों मेरे अकेले जाने से आप को क्या लेना?’’

‘‘जी, मैं तो यों ही पूछ रहा था,’’ लड़के को भी लगा कि शायद वह गलत सवाल पूछ बैठा है, लिहाजा वह दूसरी तरफ देखने लगा.

थोड़ी देर तक बस में शांति छाई रही. बस के अंदर की बत्ती भी बंद हो चुकी थी. तभी ड्राइवर ने टेपरिकौर्डर चला दिया. कोई अंगरेजी गाना था, बोल तो स्पष्ट नहीं थे पर कानफोड़ू संगीत गूंज उठा.

तभी पीछे से कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, ओ ड्राइवरजी, बंद कीजिए इसे. अंगरेजी समझ में नहीं आती हमें. कुछ हिंदी में बजाइए.’’

कुछ देर बाद एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा.

रात काफी बीत चुकी थी, बारिश कभी कम तो कभी तेज हो रही थी. बस पहाड़ी रास्ते की सर्पीली ढलान पर आगे बढ़ रही थी. सड़क के दोनों तरफ उगी जंगली झाडि़यां अंधेरे में तरहतरह की आकृतियों का आभास करवा रही थीं. बारिश फिर तेज हो उठी. अक्षरा ने बगल वाले लड़के को देखा, वह शायद सो चुका था. वह चुपचाप बैठी रही.

पानी का तेज झोंका जब अक्षरा को भिगोते हुए आगे बढ़ कर लड़के को भी गिरफ्त में लेने लगा तो वह जाग गया, ‘‘अरे, इतनी तेज बारिश है आप ने उठाया भी नहीं,‘‘ कहते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी.

थोड़ी देर बाद बारिश थमी तो खुद ही उठ कर खिड़की खोल भी दी और बोला, ‘‘फिर बंद करनी हो तो बोलिएगा,’’ और आंखें बंद कर लीं.

अक्षरा ने घड़ी पर नजर डाली, सुबह के 3 बज रहे थे, नींद से उस की आंखें बोझिल हो रही थीं. उस ने खिड़की पर सिर टेक कर सोना चाहा, तभी उसे लगा कि लड़के का पैर उस के सामने की जगह पर फैला हुआ है. उस ने डांटने के लिए जैसे ही लड़के की तरफ सिर घुमाया तो देखा कि उस ने अपना सिर दूसरी तरफ झुका रखा था और नींद की वजह से तिरछा हो गया था और उस का पैर अपनी सीट के बजाय अक्षरा की सीट के सामने फैल गया था. अक्षरा उस की शराफत पर पहली बार मुसकराई.

सुबह के 6 बजे बस गंतव्य पर पहुंची. वह लड़का उठा और धड़धड़ाते हुए कंडक्टर के पास पहुंचा, ‘‘उस लड़की का सामान उतार दे और जिधर जाना हो उधर के आटो पर बैठा देना. एक बात और सुन ले जानबूझ कर तू ने मुझे वहां बैठाया था, आगे से किसी भी लड़की के साथ मेरे जैसों को बैठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. फिर वह उतर कर तेज कदमों से चला गया.’’

अक्षरा के मस्तिष्क में कई सवाल एकसाथ कौंध गए. उसे जहां उस लड़के की सहायता के बदले धन्यवाद न कहने का मलाल था, वहीं इस जमाने में भी इंसानियत और भलाई की मौजूदगी का एहसास.

लेखिका- सोनी किशोर सिंह

Story In Hindi : बहकते कदम – क्या अनीश के चगुंल से निकल सकी प्रिया

Story In Hindi : ‘देख प्रिया, तू ऐसावैसा कुछ करने की सोचना भी मत, अनीश अच्छा लड़का नहीं है, अभी भी समय है संभल जा.’ प्रज्ञा दीदी के शब्द मानो पटरी पर दौड़ती रेलगाड़ी का पीछा कर रहे थे. भय, आशंका, उत्तेजना के बीच हिचकोले लेता मन अतीत को कभी आगे तो कभी पीछे धकेल देता था. कुछ देर पहले रोमांचकारी सपनीले भविष्य में खोया मन जाने क्यों अज्ञात भय से घिर गया था. मम्मीपापा की लाडली बेटी और प्रज्ञा दीदी की चहेती बहन घर से भाग गई है, यह सब को धीरेधीरे पता चल ही जाएगा.

अलसुबह आंख खुलते ही मम्मी चाय का प्याला ले कर जगाने आ जाएगी, क्या पता रात को ही सब जान गए हों? कितना समझाया था प्रज्ञा दीदी ने कि इस उम्र में लिया गया एक भी गलत फैसला हमारे जीवन को बिखेर सकता है. जितना दीदी समझाने का प्रयास करतीं उतनी ही दृढ़ता से बिंदास प्रिया दो कदम अनीश की ओर बढ़ा देती.

‘‘प्रिया, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे, ये प्यारव्यार के चक्कर में पड़ कर अपने भविष्य से मत खेल.’’

‘‘दीदी, अब तो अनीश ही मेरी जिंदगी है. मैं ने उसे दिल से चाहा है, वह जीवनभर मेरा साथ निभाएगा,’’ प्रिया के ये फिल्मी संवाद सुन प्रज्ञा अपना सिर पकड़ लेती.

‘‘क्या हम तुझे नहीं चाहते और अगर तुझे अपने प्यार पर इतना ही भरोसा है तो एक बार पापा से बात कर उसे सब से मिलवा तो सही.’’

एक अनजाने अविश्वास के तहत जाने क्यों प्रिया पापा से बात करने की हिम्मत न जुटा पाई. उस वक्त अनीश द्वारा घर से भाग कर शादी करने का रास्ता उसे रोमांच भरा दिखाई दिया.

अनीश के केयरिंग स्वभाव पर वह उस दिन फिदा हो गई, जब प्रज्ञा दीदी के जोर डालने पर उस ने अनीश को मम्मीपापा से मिलने को कहा, तो उस ने भावावेश में प्रिया को गले लगा लिया और कहा वह अपने प्यार को खोने का रिस्क नहीं उठा सकता है, बस, उसी रात गली के उस पार इंतजार करते अनीश के साथ वह आ गई, घर छोड़ कर आते समय प्रिया का मनोबल चरम पर था. रास्ते में अनीश ने बताया कि वे लोग बेंगलुरु जा रहे हैं, जहां वे कुछ दिन उस के एक दोस्त के घर पर ठहरेंगे और 7 महीने बाद प्रिया के बालिग होने पर शादी करेंगे.

रास्ते भर वह प्रिया को समझाता रहा कि इस दौरान उसे किसी से संपर्क नहीं रखना है, इस मामले में यहां का कानून बेहद सख्त है. विचारों में डूबतीउतराती प्रिया कब नींद के आगोश में चली गई उसे पता ही नहीं चला. अचानक एक स्टेशन पर गहमागहमी के बीच उस की नींद खुली, उस ने देखा तो अनीश अपनी सीट पर नहीं था. बिंदास और मजबूत इरादों वाली प्रिया का हलक सूख गया था. आवेग से उस की आंखें भर आईं, माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं, अकेलेपन के एहसास ने उसे घेर लिया, तभी वह अपना मोबाइल खोजने लगी, पूरा पर्स खंगाल डाला पर कहीं मोबाइल नहीं दिखा.

‘‘आप मोबाइल तो नहीं ढूंढ़ रही हैं?’’ एक आवाज ने उसे चौंका दिया. सामने देखा तो एक युवती बैठी किताब पढ़ रही थी, ‘‘आप ने मुझ से कुछ कहा क्या?’’

‘‘मुझे लगा आप अपना मोबाइल ढूंढ़ रही हैं.’’

‘‘हां, आप ने देखा क्या?’’

प्रिया ने पूछा तो वह बोली, ‘‘तुम्हारे साथ जो लड़का है वह तुम्हारा भाई है क्या ?’’

उस का प्रश्न प्रिया को रुचिकर नहीं लगा. तभी उस युवती ने आगे खुलासा किया, ‘‘तुम्हारा मोबाइल तुम्हारे साथ जो लड़का था वह ले गया है.’’

कातर दृष्टि से इधरउधर देखती प्रिया को उस ने बताया कि वह दूसरे कंपार्टमेंट में बैठा ताश खेल रहा है. प्रिया यह सुन शर्म से गड़ गई. उसे अनीश पर बहुत गुस्सा आया.

‘‘कृपया आप मेरा सामान देखिएगा, मैं वाशरूम जा रही हूं,’’ प्रिया तेजी से निकली. तभी अंधेरे में किसी की आवाज पर उस के पांव वहीं ठिठक गए, दरवाजे के पास खड़ा अनीश मोबाइल पर किसी से कह रहा था, ‘‘बस, ऐसी ही बेवकूफ लड़कियों से तो रोजीरोटी चल रही है हमारी, उस का मोबाइल ले लिया है, 15-20 हजार का तो होगा ही. डर भी था कहीं घर वालों से संपर्क न कर बैठे, मैं बिना बात की मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता. अभी पूछा तो नहीं है, पर घर से कुछ न कुछ तो ले कर जरूर आई होगी, घर जो बसाना है मेरे साथ,’’ उस के ये शब्द ठहाकों के साथ हवा में तैर गए.

‘‘और हां सुन, तू सारा इंतजाम रखना, मेरी जिम्मेदारी केवल वहां तक छोड़ने की है आगे तू संभालना, बस, फिल्म मस्त बननी चाहिए.’’

इस वार्त्ता को सुन कर प्रिया का खून बर्फ की तरह जम चुका था, उस के पांव स्थिर न रह पाए. वह गिरने वाली थी कि किसी ने उसे संभाला, वह कैसे अपनी सीट तक आई उसे पता ही नहीं चला, दो घूंट पानी पीने के कुछ क्षण बाद उस ने आंखें खोलीं तो अपने कंपार्टमैंट में बैठी युवती का चिरपरिचित चेहरा दिखा.

‘‘तुम ठीक तो हो न?’’ उस ने जैसे ही पूछा प्रिया की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी, उस युवती ने अपने साथ आए शख्स को बाहर भेज दिया और कूपे को अंदर से बंद कर दिया.

‘‘क्या हुआ? साथ आया लड़का बौयफ्रैंड है न तुम्हारा?’’ उस युवती की बात सुन प्रिया फफक पड़ी.

‘‘देखो, वह लड़का ठीक नहीं है. यह शायद तुम्हें भी पता चल गया होगा. मैं जानती हूं कि तुम दोनों घर से भाग कर आए हो.’’

प्रिया ने आश्चर्य और शंकित नजरों से उसे देखा तो वह बोली, ‘‘मेरा नाम सरन्या है. तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो. वैसे तुम्हारे पास और कोई चारा भी नहीं है.’’ युवती की बातों में सचाई थी. वैसे भी अनीश का जो बीभत्स चेहरा वह अभीअभी देख कर आई थी, उसे देख कर तो उस की रूह कांप उठी थी.

‘‘देखो, जो गलत कदम तुम ने उठाया है, जिन कांटों में तुम उलझी हो उस से निकलने के लिए तुम्हें साहस जुटाना पड़ेगा.’’ सरन्या की बातों का प्रभाव प्रिया पर पड़ा. कुछ देर में ही वह संभल गई.

‘‘प्रिया नाम है न तुम्हारा? अपने पापा का नंबर दो मुझे.’’ उस ने अधिकार से कहा तो प्रिया ने पापा का नंबर बता दिया. वह युवती बात करने के लिए बाहर चली गई.

अब तक प्रिया स्थिति का सामना करने को तैयार हो गई थी. कुछ देर में वह वापस आई और बोली, ‘‘मैं ने तुम्हारे पापा से बात कर ली है, वह अगली फ्लाइट से बेंगलुरु पहुंच रहे हैं. अब तुम्हें क्या करना है यह ध्यान से सुनो.’’ वह प्रिया को कुछ बताते हुए अपने साथ आए युवक से बोली, ‘‘मैडम के साथ जो व्यक्ति आया है उसे बताओ कि ये उसे बुला रही हैं और हां, अर्जुन कुछ देर तुम बाहर ही रहना.’’

कुछ देर बाद ही अनीश आ गया तो प्रिया उस से शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तुम कहां चले गए थे, अनीश? मैं कितना डर गई थी मालूम है तुम्हें.’’

अनीश उस की बात सुन कर तुरंत बोला, ‘‘मैं तुम्हें छोड़ कर भले कहां जाऊंगा.’’ प्रिया ने कूपे की लाइट जला दी. उसे कुछ देर पहले जिस अनीश की आंखों में प्यार का समुद्र नजर आ रहा था अब उन में मक्कारी दिखाई दे रही थी. अब वह अपनी खुली आंखों से देख रही थी कि किस तरह सतर्कतापूर्वक अनीश इधरउधर देख रहा था. तभी प्यार से प्रिया ने उस से कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक खुशखबरी देना चाहती हूं.’’

‘‘क्या?’’ भौचक्का सा वह बोला तो प्रिया ने कहा, ‘‘जानते हो पापा हमारी शादी के लिए राजी हो गए हैं और वे भी बेंगलुरु पहुंच रहे हैं.’’ प्रिया के इस खुलासे से अनीश का तो रंग ही उड़ गया, वह अचानक बिफर गया, ‘‘बेवकूफ लड़की, मैं ने मना किया था कि कहीं फोन मत करना.’’

तभी मानो उसे कुछ याद आया हो, न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकला, ‘‘तुम्हारा मोबाइल तो…’’ ‘‘मैं जानती हूं वह तो तुम्हारे पास है.’’ इस से पहले कि अनीश कुछ और पूछता प्रिया अपना आपा खो चुकी थी. उस का हाथ पूरे वेग से लहराया और अनीश के गाल पर तेज आवाज के साथ झन्नाटेदार चांटा पड़ा. क्रोध और अपमान से उस का बदन कांप रहा था. अनीश का सारा खून निचुड़ गया था. शोरशराबे की आवाज बाहर तक चली गई थी. लोगों ने अंदर झांकना शुरू कर दिया था. उतनी देर में टीटीई भी आ गया. उस ने पूछा कि क्या माजरा है? तो बड़े इत्मीनान से वह युवती उठ कर आई और बोली, ‘‘ये मेरी रिश्तेदार हैं, दरअसल यह हमारे साथ बैठा एक यात्री है. हमें लगता है कि इस ने हमारा मोबाइल चुराया है. आप पुलिस बुलाइए.’’ अनीश के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी थीं.

’’देखिए मैडम, यह फर्स्ट क्लास का डब्बा है, आप इस में बैठे यात्री पर इस तरह का इलजाम नहीं लगा सकतीं.’’ टीटीई के बोलने पर अर्जुन बोला, ‘‘मैं भी इन को यही समझा रहा हूं कि पुलिस के झंझट में पड़ने से पहले खुद तसल्ली कर लो,’’ इतना कहते ही उस ने अनीश की जेबें खंगालते हुए प्रिया का मोबाइल निकाल लिया. अनीश सकते में था, पासा यों पलट जाएगा, उस ने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था. तुरतफुरत रेलवे के 2 पुलिस कांस्टेबल आए तो उस युवती ने अपना पहचानपत्र दिखाया. ‘एसीपी सरन्या’ पढ़ कर दोनों ने उसे एक करारा सेल्यूट बजाया तो टीटीई सहित प्रिया भी अचंभे में पड़ गई. टीटीई हंस कर बोला, ‘‘क्या बेटा, चोरी भी की तो पुलिस वालों की?’’

एसीपी सरन्या ने अर्जुन से कहा, ‘‘इंस्पेक्टर अर्जुन, आप इस के साथ अगले स्टेशन पर उतर जाइए, मैं बताती हूं आप को आगे क्या करना है और हां, जरा इसे समझाना और खुद भी ध्यान रखना कि इस लड़की का नाम बीच में न आए, ’’ हंगामे के बीच अनीश को अगले स्टेशन पर उतार लिया गया.

ट्रेन में सवार यात्री इस पर अपनीअपनी टिप्पणी देने में मशगूल थे. प्रिया अपमान और शर्मिंदगी से भरी देर तक रोती रही. तभी सरन्या ने सांत्वनाभरा हाथ उस की पीठ पर फेरा, तो वह सरन्या के गले लग गई और बोली, ‘‘आप ने मुझे बचा लिया, आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी.’’

उस की बात पर सरन्या हंस पड़ी और बोली, ‘‘कैसे नहीं बचाती तुम्हें, यह तो वही बात हुई कि एक डाक्टर के सामने किसी ने खुदकुशी करने की कोशिश की. जान तो उस की बचनी ही थी, यह मेरी पहली नियुक्ति है आईपीएस औफिसर के रूप में, तुम ने तो मुझे शुरू में ही इतना बड़ा केस दिला दिया है. मैं तो तुम्हें देख कर ही समझ गई थी कि तुम घर से भाग कर आई हो. ट्रेन में चढ़ते वक्त तो तुम किसी दूसरी ही दुनिया में थीं. किसी और का तुम्हें होश ही कहां था, अलबत्ता वह लड़का जरूरत से ज्यादा सतर्क था.’’

‘‘दूसरों को औब्जर्व करना मेरी हौबी है, उसे देख कर ही मैं समझ गई थी कि वह लड़का ठीक नहीं है. जब मैं ने चुपके से उसे तुम्हारे पर्स से मोबाइल निकालते और पैसे चेक करते देखा तो मुझे बड़ा अजीब लगा. जब वह बाहर गया तो मैं ने अर्जुन से बात कर के उस  पर नजर रखने को कहा, इसीलिए जब तुम वाशरूम गईर् तो तुम्हारे पीछेपीछे मैं भी आई थी. मुझे पता था कि कहीं कुछ गड़बड़ है, पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि तुम्हारे जैसी पढ़ीलिखी लड़की आज के जमाने में ऐसी मूर्खता कैसे कर सकती है.

‘‘जरा सोचो, अगर वह अपनी योजना में कामयाब हो जाता तो क्या होता. तुम ठीक समय पर संभल गई अन्यथा उस दलदल में फंसने के बाद जिंदगी दूभर हो जाती.

प्रिया सब सोच कर एकबारगी फिर से सिहर उठी. ‘‘मैं अब घर जा कर सब से नजरें कैसे मिलाऊंगी,’’ कुछ खोई हुई सी वह बोली.

‘‘देखो प्रिया, सवाल यह नहीं है कि तुम सब से कैसे नजरें मिलाओगी, यह सोचो कि तुम अपने वजूद से कैसे नजरें मिलाओगी जिसे तुम ने इतने बड़े जोखिम में यों ही डाल दिया, खुद से नजरें मिलाने के लिए तो तुम्हें अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ेगा, तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी अग्नि परीक्षा होगी. अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम किस तरह से खुद को और अपने भविष्य को संवार कर अपने परिवार के सदस्यों को यह खुशी दो जिस से तुम्हारा यह सफर न तुम्हें और न कभी तुम्हारे परिवार को याद आए.’’

सरन्या की बातों का असर प्रिया की चुप्पी में दिखा, मन ही मन वह आत्ममंथन करती रही. मानसिक रूप से थकी प्रिया कब सो गई पता ही नहीं चला, किसी के स्नेह भरे स्पर्श से आंखें खुलीं, सामने पापा को देख वह छोटी बच्ची की तरह उन से लिपटी, साथ आई प्रज्ञा भी रो पड़ी.

‘‘आप का यह एहसान हम कैसे चुका पाएंगे,’’ पापा सरन्या से बोल रहे थे.

‘‘पापा, आप मुझे कभी माफ कर पाएंगे क्या?’’

उन दोनों की बात सुन कर सरन्या ने प्रिया के पापा से कहा, ‘‘अगर आप वाकई एहसान उतारना चाहते हैं तो मुझ से वादा कीजिए कि आप अपनी बेटी पर भरोसा कायम रखते हुए इस की उड़ान को पंख देंगे, इस सफर को भूलते हुए, आगे की जिंदगी में इस का साथ देंगे, न कि इस सफर का बारबार उल्लेख कर इस की आगे की जिंदगी को दूभर बनाएंगे.’’

‘‘मैं वादा करता हूं कि प्रिया की आज की भूल का जिक्र कर के हम इस के मनोबल को नहीं गिरने देंगे, आज के बाद हम में से कोई भी प्रिया से इस बारे में कोई बात नहीं करेगा.’’

‘‘पापा, आप की बेटी आप का सिर कभी झुकने नहीं देगी, मैं भी सरन्या दीदी जैसा बन कर दिखाऊंगी.’’ सरन्या के व्यक्त्तित्व के प्रभाव से प्रभावित प्रिया पापा का साथ पा कर पूरे आत्मविश्वास से बोली, तो पापा और प्रज्ञा ने उसे प्यार से थाम लिया. सरन्या समझ गई कि अब सही माने में प्रिया भंवर से बाहर निकल चुकी है. उस के होंठों पर तसल्ली भरी स्मितरेखा थी.

Hindi Story : एक नीली चिट

Hindi Story : दोनों ने सबेरे का ढेर सारा काम निबटाया, समीर और शांता ने औफिस के टिफिन लगाए और दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के बाद शांता का कुछ देर आराम से पलंग पर लेटने का मन हुआ. उस की मैट्रो थोड़ी देर से थी. समीर का औफिस दूर था. वह जल्दी वाली पकड़ता था.

सुबह काम भी इतना होता है कि नाम में दम आ जाता है. सुबह 5 बजे उठ कर दोनों चाय, दूध, नाश्ता, खाना बनाते खिला 8 बज ही जाते हैं. फिर जब सब के खाने के डब्बे तैयार होते तब कहीं जा कर शांता आराम कर पाती. वह भी मुश्किल से 10 मिनट.

उस के बाद भी शांता हर जगह बिखरे जूते, मोजे, चप्पलें, गंदी बनियानें, जांघिए, पजामेकुरते और तौलिए समेट वाशिंग मशीन में डालती.

घर को सुव्यवस्थित करने का काम, झाड़ूपोंछा, बरतनों की सफाई और कपड़ों की धुलाई पार्टटाइम मेड ही करती थी. जैसा भी करती थी दोनों को मंजूर ही था. शाम को बच्चों को क्रेच से ले कर आती और फिर शुरू हो जाता है अंतहीन काम… बच्चों को खाना दो, कपड़े बदलवाओ, उन के झगड़े निबटाओ और फिर उन का होमवर्क कराओ.

देखते ही रात आ जाती. बच्चों को खाना खिला कर दोनों सोफे पर टीवी के सामने बैठ कर कुछ बतियाते. फिर चाय और खाना बनाने का काम.

मगर कमाल यह है कि इतना अधिक घर और औफिस का काम करने के बावजूद शांता बच्चों के जन्म के बाद काफी मोटी हो गई. थोड़ा काम निबटाने के बाद शांता का मन चाहता कि वह 15 मिनट के लिए लेट जाए. उसे सीढि़यां चढ़ने पर तकलीफ होने लगी थी. उस से कोई व्यायाम नहीं होता.

लाख बार चाहा कि डाइटिंग की जाए पर जब कभी भी खाना छोड़ कर केवल फल, दूध और सलाद खाने का निश्चय करती है तो बजट असंतुलित हो जाता है और उस फिर अपने टिफिन के दालचावल और रोटी पर उतर आती है. शांता की दलील है कि इतना काम भी करो और भरपेट खाना भी न खाओ.

अपने रोज के काम के बासी कार्यक्रम से शांता कभीकभी खीज उठती है. दफ्तर में उस की डैस्क भी बड़ी उबाऊ, एक सा काम लगता. सामने रखे कंप्यूटर में डाटा फीड करते रहो. कभी लंबीचौड़ी किसी से बात नहीं. कब से चाहती है कि कुछ दिनों के लिए कहीं हो आए या फिर समीर ही उसे औफिस से ले कर शाम को कहीं घुमा लाया करे. मगर एक तो कमर तोड़ महंगाई फिर 2-2 बच्चों को कहां लाद कर ले जाए? छुट्टी वाले दिन ही जब मौल या लोकल बाजार जाते ही इन की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, जिन से बचने का एक ही रास्ता है कि शाम भी घर पर गुजारी जाए और छुट्टी भी. शांता वही करती है. सोचती है बच्चे पल गए तो सम?ो जीवन संवर गया. बढ़ते बच्चों के खर्चें कितने होते हैं, इस का एहसास शांता और समीर दोनों को होने लगा था.

मगर कभीकभी शांता को समीर के उदास होने या चुपचाप औफिस से लौट कर मोबाइल, टीवी या लैपटौप में खो जाने पर अथवा अपने मोटे होते शरीर की चिंता सताती है तो वह पूछ बैठती है, ‘‘सच कहना समीर अब मैं पहले जैसी नहीं रही? काफी मोटी हो गई हूं? तुम्हारे दिल में कहीं फर्क तो नहीं आया? गजब हो जाएगा यदि तुम ने कभी ऐसा किया. मैं तुम से बेहद प्यार करती हूं. कभी मु?ा से मुंह मत मोड़ना नहीं तो मैं मर जाऊंगी. आजकल तो औफिस में भी कहीं कोई फ्लर्टिंग नहीं करता. पता नहीं इसलिए कि मैं मोटी हो गई हूं या केस न कर दूं.’’

समीर का उत्तर होता, ‘‘पागल हो? शादी के इतने साल हो गए क्या मैं पहले जैसा रहा हूं? मेरे भी तो बाल उड़ गए हैं और बीचबीच में कितने सफेद भी हो गए हैं… फिर अब बच्चे बड़े हो रहे हैं. उन के इश्क फरमाने के दिन आ रहे हैं. हम तो बुड्ढे हो गए. फुजूल के सवाल न किया करो. तुम हमेशा मेरी रहोगी, चाहे जैसी भी हो..’’

और शांता खुश हो कर मन ही मन समीर के बड़े दिल की दाद देती हुई नए जोश से गृहस्थी की गाड़ी सुव्यवस्थित रूप से चलाने में जुट जाती.

मगर आज शांता ने सोचा कि रोज थोड़ी देर लेटने से उस के काम में देर हो जाती है इसलिए जल्दी से काम निबटाने की सोच उस ने गंदे कपड़े समेट कर सर्फ में भिगो दिए. धोने के लिए बैठते ही उसे याद आया कि समीर के कपड़े तो बैड पर ही पड़े रह गए.

शांता समीर के कपड़े लेने कमरे में आई तो आदतन उस ने जेबें टटोल लीं. पिछली जेब में एक 10 रुपए का सिक्का तथा एक मुड़ी हुई नीली सी चिट पड़ी थी.

उस नीले कागज से आ रही सुगंध से शांता को हैरानी हुई. उस ने सिक्का निकाल कर एक ओर रख दिया और चिट पढ़ने लगी. लिखा था, माई ड्रीम गर्ल अनु… जब से तुम हमारे औफिस में आई हो, मैं अपने दिल का चैन खो बैठा हूं. न घर में चैन पड़ता है और न बाहर. जी चाहता है बस तुम्हें ही देखता रहूं. इतनी कोमलांगी को देखने भर से थकान दूर हो जाती है. मैं जानता हूं शायद इस से मेरे घर की शांति भंग हो जाए, पर मैं मजबूर हूं.

‘शांता में अब वह बात नहीं. कामकाज में उलझ कर वह बिलकुल बहनजी बन गई है. इसलिए मैं उस के साथ कहीं आताजाता भी नहीं.

‘मैं चाहता हूं कि तुम कुछ दिनों तक रोज शाम को कुछ समय मेरे साथ गुजार कर ब्रिंग जौय इन माई लाइफ. देखो, मना मत करना. मैं तुम से और कुछ नहीं चाहता. केवल अपने जीवन के बासीपन को दूर कर के ताजगी चाहता हूं. आई विल वेट फौर रिप्लाई. मैं यह मैसेज व्हाट्सऐप पर नहीं भेज रहा कि कहीं कोई न देख ले.

‘-तुम्हारा प्रेमी.’

चिट पढ़ कर शांता की हिम्मत जाती रही. कौन हो सकती है यह अनु? शायद

औफिस में पास ही बैठती हो? न जाने कितने दिनों से यह नाटक चल रहा है? अब मैं क्या करूं? कैसी मीठीमीठी बातें बनाते थे? अब तो बच्चों के इश्क करने का समय है. हम तो बुड्ढे हो गए हैं और स्वयं ही उलझ गए? जीवन में ताजगी लाना चाहते हैं. आने दो आज… अच्छी खबर लूंगी. पर शांता का यह गुस्सा मिनटों में ही काफूर हो गया.

शांता निढाल हो कर पलंग पर जा लेटी. औफिस फोन कर दिया कि आज शांता नहीं आ पाएगी. शादी के 15 साल बाद यह कैसी समस्या आ खड़ी हुई है? अब तो बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. क्या समीर को अपनी उम्र और हैसियत का जरा भी ध्यान न आया?

शांता ने वह पत्र उलटपलट कर कईर् बार देखा और पढ़ा. कहीं गलतफहमी की शिकायत नहीं थी. उस लड़की का पता भी नहीं लिखा था. ख्वाबों में बसी है. न जाने कैसी है? घर का पता लिखा होता तो उस से मिल कर अपनी बसीबसाई गृहस्थी को न उजाड़ने की भीख मांगती. पर अब क्या करे?

शांता को लगा कि वह इतने बड़े संसार में आज अकेली रह गई है अंधेरे से घिरी हुई मानो किसी ने किश्ती में बैठा कर अंधेरे में ही समुद्र के बीच छोड़ दिया है और वह दिशाहीन भटक रही है. समीर ने उस के ट्रस्ट को आज तोड़ दिया था.

शांता का दिल चीखचीख कर रोने को कर रहा था. वह कटी शाख की तरह पलंग पर बिखर कर रोने लगी. आहिस्ता से, जोर से रो भी न सकी.

रोतेरोते शांता को 3-4 दिन पहले की बात अचानक  याद हो आई. उस रात शायद समीर को नींद नहीं आ रही थी. सब काम निबटा कर, बच्चों को सुला कर शांता कमरे में आई तो देखा समीर सिर पर हाथ रखे न जाने क्या सोच रहे थे.

सिर पर हाथ रख कर पूछा तो बोले, ‘‘सिर में दर्द है, पर तुम्हें क्या, रात के 11 बजे मेरी सुध आती है? जाओ अपने बच्चों के कमरे में जा कर सो जाओ.’’

समीर की बात सुन कर शांता को गुस्सा आ गया, ‘‘11 बजे न आऊं तो क्या करूं? सुबह से काम में लगती हूं औफिस जाती हूं, लौट कर किचन संभालती हूं. तब कहीं जा कर धीरेधीरे इस वक्त तक काम निबट पाता है और फिर एक मेड ही तो है वह होमवर्क तो नहीं करा सकती. यह सब भी तो मेरा ही सिरदर्द है. बच्चों के स्कूल के जूते, मोजे, टाई, कपड़े सब तैयार कर के रखने होते हैं. न तैयार करूं तो सुबह आफत हो जाए. मैं पत्नी न हो गई मशीन हो गई. उधर काम भी करूं और व्यंग्य भी सुनूं… हुंह.’’

और भर्राए गले पर काबू पा कर शांता दूसरी तरफ पलंग पर लेट गई. शायद वह सो भी जाती, पर कुछ देर बाद समीर बोला, ‘‘और कुछ नया काम नहीं है… तुम भी वही हो और काम भी वही है पर तुम से अपना भार ही नहीं ढोया जाता तो काम तो देर से होगा ही…’’

सुन कर शांता को बहुत चोट लगी. इस करारे व्यंग्य के लिए वह तैयार न थी. आखिर मन की बात जबान पर आ ही गई है.

छिटक कर बगैर बोले चादर बिछा कर शांता जमीन पर लेट गई और चुपचाप आंसू बहाते हुए न जाने कब सो गई.

दूसरे दिन से फिर वही क्रम चला. आंच जला कर चाय बनाई और फिर समीरको चाय का कप दे कर उठाया. चाय की चुसकियों के साथ मोबाइल पर गुडमौर्निंग कर रहे समीर को दे कर आई. शांता ने दालसब्जी तैयार कर ली थी. टिफिन बौक्स के लिए परांठे सेंके थे. बच्चों को तैयार किया था. उन्हें भेज कर समीर के जाने की भी सारी तैयारी की थी, पर न समीर ही शांता से कुछ बोला और न शांता समीर से. समीर के जिम्मे थोड़े से काम थे. वह फुरती से उन्हें कर देता और फिर मोबाइल पर लग जाता. कभीकभार कोई मैगजीन या पुस्तक भी पढ़ लेता.

दोपहर को 2 बजे तक शांता का गुस्सा शांत हो गया था. उस ने समीर से 2-3 बार मोबाइल चैट भी की. छोटीछोटी सिर्फ काम की. शाम को जब उस ने समीर हंस कर चाय दी तो बात आईगई हो गई. शांता ने सोचा कि समीर ने यों ही बात मजाक में कही है और उसे भी

मजाक की तरह ही लेनी चाहिए. फिर वह पहले से काफी मोटी तो हो ही गई है. पर वह भी क्या करे?

न जाने कब सुबह होती, कब शाम रात में बदल जाती. भारी शरीर से दिनभर घिसटघिसट कर काम करती. बच्चों पर भी ?ाल्लाती, पर काम निबटते ही न थे. बच्चे बड़े हुए, वे स्कूल जाने लगे तो उन को पढ़ाने का काम और बढ़ गया. दोनों बच्चों में से एक का भी जिम्मा समीर ने न लिया था पर वह आराम से उन्हें पढ़ा दिया करता था. रोज दिन की परेशानियों से शांता काफी झल्ला जाया करती थी, पर फिर भी जैसेतैसे गृहस्थी की गाड़ी खींचती जा रही थी. वह भूल गई कि बच्चों को पालने के अलावा उस के जीवन का और भी कोई उद्देश्य है.

मगर आज यह मुई नीली चिट… अच्छा हुआ समीर की असलियत सामने गई. शादी के शुरू के दिनों में दोनों में कितना प्यार था. रोज शाम को घूमने जाते थे, पर बच्चों के बाद न उसे ही वक्त मिल पाता था कि वह सजसंवर कर बच्चों को अच्छे कपड़े पहना कर बाहर घूमने ले जाए और कभी चली भी जाती तो लौटने पर उस का मन ठीक न रहता था.

एक तो थक कर लौटने पर बढ़ गए काम उसे ही समेटने पड़ते थे, दूसरे बच्चों की फरमाइशें कि खास रेस्तरां का ही खाना मंगाया जाए. शांता की सीमित बजट होने के कारण कभी पार्लर जाने की हिम्मत नहीं होती. साल 2 साल में किसी शादी से पहले ही वह जा पाती थी. पर शांता को इस कुरबानी से क्या मिला? चिड़चिड़ा स्वभाव, घर पर अनसंवरे बाल, बेडौल शरीर और प्यार के बजाय नफरत? किसी और लड़की में उल?ा कर समीर भी दूर हो गया. कईकई हफ्ते तो वह बाल डाई भी नहीं करती थी क्योंकि वीकैंड पर ढेरों काम पड़े दिखते थे.

आखिर मन का क्रोध आंखों की राह बह निकला. फूटफूट कर रोने के बाद मन कुछ हलका हुआ तो शांता उठी. किसी तरह सब कपड़े समेटे. नीली चिट को पैंट की उसी जेब में रख कर पैंट बैड पर रख दी और नहा कर बिस्तर पर आ लेटी. किसी काम में मन लग ही न रहा था. कल के धुले कपड़ों में प्रैस करनी थी, कुछ उधड़े कपड़ों को सीने को भेजना था, टूटे बटन लगाने थे, पर मन न जाने कैसा हो रहा था.

शांता एक बार फिर उठी. उस मुई नीली

चिट ने उसे विक्षिप्त सा कर दिया था. सोचा

शायद कहीं किसी कोने में कुछ और न लिखा

हो. उस ने पत्र पढ़ा, दोबारा, तिबारा, चौथी और 5वीं बार.

दोपहर के 2 बज रहे थे. औफिस के रूटीन से हट कर शांता ने अकेले शायद ही कभी टाइम घर पर बिताया हो यानी कोईर् मेहमान आता तो छुट्टी लेती या कोई बीमार पड़ता तब शांता ने सुबह से कुछ खाया न था और अभी भी उसे बिलकुल भूख न थी. पलभर में ही शांता का जीवन उलटपुलट गया था.

शाम को समय से बच्चे स्कूल से आए तो शांता उठी. बच्चों को खाना खिलाया

और उन का होमवर्क कराया. यह सब न जाने कब और कैसे हुआ शांता को कुछ पता न चला. उस का दिमाग तो न जाने कहांकहां जा रहा था. शादी के 15 साल बाद सफर के इस मोड पर आ कर किस से सलाह लेती, फिर लेती भी तो लोग उसी पर हंसते. कोई ऐसा जादू न था जो एक फूंक के मंत्र से पहले जैसी पतली, सुकोमल बना देता? शांता मन ही मन घुटती रही.

पहले शांता ने सोचा आने दो आज समीर को, खूब आड़े हाथों लूंगी. पर मन के किसी

कोने में दबी भावनाओं ने यह सब करने के

लिए मना कर दिया. शायद उसे लगा इस से

उड़ते हुए समीर को बांधना असंभव हो जाएगा. फिर सोचा, समीर के किसी दोस्त से ही विस्तारपूर्वक सब पूछ लेगी, पर यह भी उसे अपना अपमान लगा.

सोचने लगी क्या वह अपने बीते हुए सुखद दिन फिर न लौटा सकेगी? वह तो समीर को बेहद प्यार करती है. उस के बगैर अपने जीवन की कल्पना भी कितनी भयावक है. फिर शांता ने तो अपनी हर सांस में प्यार की सुगंध घोलनी चाही थी. समीर ने भी इस के प्रतिवाद में सिर्फ उसी के रहने के वादे किए थे पर सब चकनाचूर हो गया. एक लंबी आह भर कर आंखों के गीलेपन को समेट कर शांता उठी.

बच्चे अपने कमरों में खुद बिजी हो गए थे. उस ने कपड़े बदले और समीर का इंतजार करने लगी. समीर जब आया तो बगैर कुछ कहे शांता ने चाय बनाई और दोनों ने मिल कर पी. लाख चाहने पर भी आज शांता के मुंह से बोल न फूट रहे थे.

चाय पीने के बाद शांता रात के खाने में जुट गई और खाना खिलाने तथा काम निबटाने के बाद स्वयं अपने कमरे में आ गई. इतनी जल्दी शांता को काम निबटा कर आता देख समीर हैरान हुआ, फिर एक नजर उस पर डाल कर पढ़ने में व्यस्त हो गया और कुछ देर बाद बिना कोई बात किए सो गया.

मगर शांता की आंखों में नींद कहां? थकान के बावजूद अपनी फटती आंखों पर अनचाहा बो?ा समेटे सोने का यत्न करती रही. पर उन आंखों में तो उसे केवल अनिश्चित भविष्य दिखाई दे रहा था. नींद का प्रश्न ही नहीं था. शांता को लगा कि वह ऐसे कगार पर आ खड़ी हुई है, जहां शायद आत्महत्या के सिवा कोई और चारा नहीं है.

मन की आग ने शांता को पूरी तरह जला डाला था. लेटीलेटी वह समीर के साथ बिताए अच्छे और बुरे क्षणों के बारे में सोचती रही. जब उस की आंख लगी तो रात लगभग बीत चुकी थी.

दिन चढ़ आया था. बच्चों की खटरपटर ने उसे जगा दिया. भागदौड़ कर जैसेतैसे सब काम निबटाए. सब के जाने पर वह टूटी हुई सी एक प्याला चाय पी कर औफिस जाने की मैट्रो पकड़ने रास्ता भर आंखें बंद कर के न जाने क्याक्या सोचती रही.

उस शाम आई तो पैंट वहीं एक कुरसी पर पड़ी. बेतरतीब, धुलने का इंतजार करती हुई सोच कर समीर की पैंट फिर टटोलने पहुंच गई कि देखे वह चिट अभी पड़ी है या नहीं? परंतु वह चिट वहां नहीं थी. तो क्या समीर ने निकाल ली? यानी अपने सपनों की रानी तक पहुंचा दी.

सोचसोच कर शांता का मन इतना व्यथित हुआ कि वह फूटफूट कर रोने लगी. बच्चों के आने का समय हो गया तो उस ने जल्दी से खाना बनाना शुरू कर दिया और बच्चों को वही खिलापिला कर कमरों में भेज दिया.

मां को इतना चुप बच्चों ने कभी न देखा था. उल?ो बालों, पपड़ाए होंठों और बेचैन आंखों को देख कर मुकेश बोला, ‘‘मां, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? आज कैसी हो रही हो?’’

शांता का दिल किया कि इस सहानुभूति पर रो दे, पर मन पक्का कर के बोली, ‘‘ऐसे ही कुछ सिर में दर्द है. मेरा खाने को भी मन नहीं है. तुम लोग अपनेअपने कमरे में जाओ.’’

बच्चे चले गए तो शांता कुछ सोच कर शीशे के आगे जा खड़ी हुई. अपनी सूरत देख

कर वह स्वयं ही चौंक गई. उसे लगा वह वास्तव में बुढ़ा गई है. आंखों के नीचे काले गड्ढे, खिचड़ी बाल, थुलथुल बदन, कैसी निश्चिंत थी वह अब तक.

अचानक शांता उठी. रसोई में से एक नीबू काट कर अपने सारे मुंह, हाथों और बांहों को रगड़ा. फिर बेसन और दही से मुंह धोया और उबलते पानी से मुंह पर भाप दे कर फेस पैक लगा कर खाने की तैयारी में जुट गई. एक औनलाइन डिलिवरी वाले से 300-400 रुपए की क्रीम, सैंट, सीरम, फेस पैक मंगाया और लगाया.

आधे घंटे के बाद नहाई, अच्छी तरह मुंह साफ कर के क्रीम मली, बिंदी लगाई, अच्छे ढंग से बाल संवारे और प्रैस की हुई सलवारकमीज पहन कर वह समीर का इंतजार करने लगी जो अब देर से ही आ रहा था.

उस शाम भी समीर देर से आया. शांता का दिल इतना समय छलनी होता रहा. इस का अर्थ था कि वह कलमुंही शाम के समय समीर को ताजगी देने के लिए सहमत हो गई है. अजीब बेचैनी में शांता ने 2 घंटे गुजारे.

शांता की भूख को न जाने क्या हो गया था. जब से उस ने वह नीली चिट पढ़ी थी, सिर्फ 2 कप कौपी ही पी थी. एक भी दाना अन्न का वह नहीं खा पाईर् थी.

शाम को 7 बजे समीर लौटा. बिलकुल ताजा दम, थकावट रहित. शांता देख कर कुढ़ गई, पर सिर्फ यही बोली, ‘‘आज बड़ी देर कर दी?’’

समीर कुछ देर उसे मुसकरा कर देखता रहा, फिर बोला, ‘‘औफिस में इन दिनों काम कुछ ज्यादा है. रोज 1-2 घंटे अधिक लगेंगे, पर हमें चायनाश्ता वहीं से मिल जाया करेगा. आज भी मिला. तभी ज्यादा काम के बावजूद थकावट महसूस नहीं हो रही. एकदम तरोताजा हूं…’’ और वह बैठ कर गुनगुनाते हुए जूतों के फीते खोलने लगा. ?ाकने पर समीर की पीछे की जेब से बालों की छोटी कंघी दिखाईर् पड़ी तो शांता का दिल न जाने कैसा हो गया.

शुरू में शादी के बाद समीर वक्तबेवक्त कंघी करने के लिए जेब में कंघी जरूर रखता था. शांता तब हंस कर कहा करती, ‘‘इतने सजेधजे न रहा करो. कहीं किसी ने तुम पर डोरे डाल दिए तो मैं कहां जाऊंगी?’’

और तब समीर हंसता हुआ कहता, ‘‘नहीं भई, इस जीवन में तो मेरे पर डोरे डालने वाली आ गई. अब और गुंजाइश नहीं. हां, तुम्हें मेरे कंघी रखने से चिढ़ है तो लो आज से मैं जेब में कंघी नहीं रखूंगा,’’ और समीर ने जेब में कंघी रखना बंद कर दिया था. पर अब फिर…

शांता का मन किया कि अभी सारी पोल खोल दे कि वह इतनी भोली नहीं. वह उस के तरोताजा होने का राज जानती है, पर अपना सारा गुस्सा दबा कर बोली, ‘‘चाय लाऊं?’’

समीर गुनगुनाना बंद कर बोला, ‘‘चाय तो मैं पी कर आया हूं. तुम इंतजार न किया करो. अब तो सीधे खाना ही खाऊंगा,’’ कह समीर गुसलखाने में घुस गया.

शांता के मन में आया कि वह समीर को गुसलखाने से बाहर खींच लाए और कहे कि उन के संबंधों के धागे इतने कच्चे नहीं कि इतनी आसानी से टूट जाएं या फिर रोरो कर कहे कि तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी का कोई अर्थ नहीं है और मु?ो तुम्हारे नाम के साथ जुड़े रहने का पूरा हक है. पर वह ऐसा कुछ कह न सकी और आंखो में आए आंसुओं को बांह से पोंछ कर रसोई में चली गई. वह जानती भी थी कि न तो वह मानसिक रूप से समीर से अलग रह सकती है, न आर्थिक या सामाजिक रूप से.

रात का खाना निबटा कर स्वयं बगैर खाए शांता बिस्तर पर पड़ कर करवटें बदलती रही. फिर सुबह हुई फिर शाम, सुबह और शाम. अपना क्रम बदलते रहे और शांता घुटती रही. पलपल मरती रही पर समीर से कुछ कह न सकी.

हर शाम समीर ने 2 घंटे देर से आने का नियम सा बना लिया और उन 2 घंटों के 1-1 मिनट में शांता शारीरिक और मानसिक रूप से घुलती रही. इस घुटन में उस की भूखप्यास ही मर गई. दिन में औफिस में वह और ज्यादा उदास रहती जबकि पहले से ज्यादा स्मार्ट दिखने लगी थी, उस का वजन घटने लगा था.

शांता ने निश्चय कर लिया था कि  वह अपने शरीर का खूब ध्यान रखेगी. शायद समीर की उस पर नजर पड़े और शायद वह उसे कुछ ताजगी देने में समर्थ हो सके. इसलिए खाली होते ही वह अपने हाथ, पैर, मुंह, गरदन और पैरों की क्रीमों से देखभाल में व्यस्त हो जाती.

सुबह उठते ही गरम पानी में एक नीबू निचोड़ कर पीती और सब से पहले व्यायाम करती. अन्य काम निबटाने के बाद 1 प्याला चाय पी कर हाथ, पैरों और मुंह की मालिश में व्यस्त हो जाती. नीबू, क्रीम, फेसपैक, सीरम, ग्लिसरीन से हाथपैर काफी सुंदर हो गए थे. मुंह पर भी पुराना सलोनापन लौटने लगा था.

शांता को अब भूख तो लगती ही न थी. कभी बेचैनी होती तो वह नीबू पानी ही लेती. शाम को केवल 1 कप दूध ही पीती. अपना टिफिन आधा ही खाया जाता.

इसी तरह 10 दिन बीत गए. इस बीच शांता समीर से बहुत कम बोली थी. उस दिन हिम्मत जुटा कर बोली, ‘‘रोज दिन के एकजैसे ढर्रे से ऊब होने लगती है. आजकल बच्चों के ऐग्जाम तो हैं नहीं, अपने दोस्तों के घर कभी हमें ले चलो या उन्हें ही घर पर डिनर को इनवाइट कर लो. जब कहोगे मैं घर पर ही पूरी तैयारी कर दूंगी. इस तरह मिलतेजुलते रहने से जीवन में ताजगी बनी रहती है.’’

शांता ने सोचा कि  इसी बहाने वह किसी एक मित्र से अनु के बारे में सारी जानकारी ले लेगी. मगर समीर बोला, ‘‘क्यों फालतू में पैसे खराब करती हो? हमारे घर में ऐसी कोई खास बात तो है नहीं जो सब को निमंत्रण देता फिरूं. न बाबा… इस फुजूलखर्ची से तो बेहर है कि तुम्हें एक साड़ी ही ला दूं.’’

सुन कर शांता को खीज भी हुई और खुशी भी. खीज इसलिए कि समीर की पोल न खुल जाए. इसलिए वह दोस्तों के नियंत्रणको टाल

गया और खुशी इसलिए कि अभी भी वह उसे प्यार तो करता ही है. कम से कम पैसे बरबाद करने के स्थान पर उस के लिए साड़ी होने को तैयार हो गया.

8वें दिन शाम को समीर आशा के अनुरूप 8 बजे की जगह ठीक 7 बजे घर पहुंच गया तो शांता कभी उसे देखती कभी स्वयं के चेंज पर लग जाती. औफिस में भी उस के चारों और मंडराने वाले बढ़ने लगे थे.

पर तभी समीर उसे देख कर हैरान होता हुआ बोला, ‘‘भई, कमाल हो गया. आजकल देख रहा हूं दिनबदिन जवान होती जा रही हो. क्या चक्कर है? आज तो तुम गजब ढा रही हो. चलो, आज इसी खुशी में रात का खाना कहीं बाहर खाएंगे.’’

शांता खुश तो हुई, पर उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. बोली, ‘‘अरे तुम्हारा तो पेट भरा होगा औफिस के चाय नाश्ते से और तुम्हें तो लैपटौप पर काम भी करना होगा, उस का क्या?’’

समीर ठठा कर बोला, ‘‘आज से बंद… अब कल से ठीक इसी समय पर आया करूंगा और तुम्हारी आंखों के आगे बैठ कर अपने पुराने दिन दोहराया करूंगा.’’

शांता को यह ठिठोली अच्छी न लगी. चिढ़ कर बोली, ‘‘रहने दो. तुम्हारी सारी पोल मैं जानती हूं. अब मैं किस काबिल हूं. तुम तो बाहर साथी ढूंढ़ने लगे. न जाने किस कलमुंही अनु को खत…’’ और आगे कुछ न कह सकी. शांता के आंसू बहने लगे. समीर हंसतेहंसते लोटपोट हो गया.

फिर बोला, ‘‘सच शांता, क्या कहूं तुम्हें? मैं तो इन 8 दिनों में बोर हो गया. 2 घंटे रोज मोहन के घर गुजारता था यह बहाना कर कि तुम मायके गई हुई हो.

‘‘तुम अपने मोटे होते शरीर को देखते हुए भी कुछ करती न थी. सोचा एक ?ाटका हूं,

शायद तुम इधर ध्यान दो. सो यह सब करना पड़ा. वह नीली चिट इसी कारण रखी थी. जब तुम ने जेब से 10 रुपए का सिक्का निकाल लिया और चिट वहीं रख दी तो मैं सम?ा गया कि तुम ने चिट पढ़ ली है. बस मैं ने यह चिट गायब कर दी और रोज ?ाक मार कर मोहन के यहां चाय पी कर आता रहा.

‘‘पर लौट कर तुम्हारा उदास चेहरा देखता तो जी होता कि सब ?ाठ उगल कर तुम्हें बांहों में भर लूं और तुम्हारा सारा तनाव दूर कर दूं.

‘जब एक रात मेरे मुंह से निकल गया कि तुम से तुम्हारा भार ही नहीं ढोया

जाता और तुम जमीन पर रोतेरोते सो गई तो मुझे बहुत दुख हुआ. मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.

‘‘उसी रात तुम्हें झटका देने का विचार मेरे मन में आया था. चूंकि तुम मुझे बहुत प्यार करती हो इसलिए मुझे कहीं और उलझ समझ कर तुम झटका खा जाओगी, इसीलिए वह नीली चिट लिख कर रखनी पड़ी. जरा शीशे में जा कर तो देखो कितनी बढि़या फिगर निकल आई है.

शायद इन 8 दिनों में 10 किलोग्राम वजन तो कम हो ही गया होगा. और फिर तुम्हारी सजधज…वाह क्या कहने…’’

समीर ने आगे बढ़ कर शांता को बांहों में भरना चाहा तो वह बोली, ‘‘यदि तुम सच बोल रहे हो तो वह चिट तुम्हारे पास होगी.’’

‘‘यह लो,’’ कह कर समीर ने पर्स से वह नीली चिट निकाल कर शांता के हाथ में थमा दी. शांता भी इस योजना पर हंसे बगैर न रह सकी.

अपने काले बालों को संवारती हुई उठी और समीर के कंधे से झुल गई. भारहीन, तनावरहित और खुश होती हुई बोली, ‘‘इसी खुशी में जरा मेरा वजन ले लेना पहले,’’ और फिर हंसती हुई तैयार होने चल दी. आज उसे लग रहा था कि इस संसार में उस जैसा खुश कोई नहीं.

Latest Hindi Stories : नागदंश – आखिर क्यों उसे अपनी जिंदगी बोझ लगती थी?

Latest Hindi Stories : पता नहीं कि तुम ही नए आए थे उस लाल तिकोनिया बंगले में या मुझे ही हर पुरानी चीज के नए अर्थ तभी समझ में आने शुरू हुए थे. पिछले 12 सालों से नित्य नियम से सुबहशाम मेरी वैन उसी रास्ते से, उन्हीं पेड़ों के झुरमुट के बीच से होती हुई तुम्हारे तिकोनिया बंगले के सामने से स्कूल जाती थी. मगर तब मुझे वह कभी महज किसी सड़क, दुकान या बेरौनक वीरान मकानों से ज्यादा कुछ नहीं लगा था. उस घुसी हुई वैन में मैं हमेशा

उस तरफ बैठती थी जहां से तिवोनिया बाग दिखता था. कुछ वक्त से मुझे वह लाल रंग का छिली ईंटों वाला बंगला व उस के तीनों ओर आम, अमरूद व बेरिया के हरे झाड़ कुछ ज्यादा ही खुशगवार लगने लगे थे. वहां आड़ू के पेड़ पर उस की नंगी शाखाओं पर हजारों नन्हे मोतियों से जुड़े बैगनी रंगत के गुलाबी फूलों पर आंखें अटक कर रह जाती थीं. मेरे लिए हर चीज का अर्थ बदलता जा रहा था? यह हैरानी मेरी छोटी उम्र

में बड़ीबड़ी आंखों में छोटी उम्र में जैसे समाती नहीं थी.

फिर एक दिन मेहंदी की महीन झाड़ के पीछे परशियन गुलाब की छतनार शाखाओं के साए में सफेद टीशर्ट और शौर्ट्स में मेज पर लैपटौप खोले किताबों के गट्ठर के बीच सिर झुकाए तुम भी मेरे उस फोटो फ्रेम में शामिल हो गए थे.

अभी मैं ने तुम्हारा चेहरामुहरा कुछ नहीं देखा था. पर तुम… तुम… ही थे जिस का वहां बैठे दिखना मुझे जरूरी सा लगने लगा था. जिस दिन तुम नहीं दिखते थे, हर वक्त एक खाली बेचारगी सी मेरे दिमाग में घूमती रहती थी. तुम ने मुझे व हमारी वैन को शैतान स्कूली लड़कियों की कही निकलती टोलियों में से एक समझ कर कभी देखने या झांकने की जरूरत नहीं समझ थी. वैसे भी वैन को गुजरने में लगते ही कितने सैकंड्स थे पर आमतौर पर तुम्हारे घर के सामने जाम रहता या और वैन खड़ी रहती थी. हां, तुम्हारी चाची जरूर फाटक पर खड़े हो अकसर हम लोगों की वैन को आतेजाते देखा करती थीं. घर में शायद और कोई नहीं था. बच्चे के नाम पर एक तुम ही थे जो संजीदगी में बुजुर्गों से भी बढ़ कर रहे होगे.

ऐक्सरसाइज करने के लिए दिन तुम आम के पेड़ पर चढ़े हुए थे. एक तुम्हारे लड़कियों जैसे सुडौल लंबे पंजे व फिर धूप से तपा चेहरा पहली बार दिखाई दिया था. क्या था उस में जो मेरे दिल और दिमाग में नक्ष हो कर रह गया था. मैं मूर्त्त सी चोर निगाहों से कभी तुम्हें और कभी तुम्हारी चाची को देख रही थी.

उस दिन के बाद तुम कतई दिखना बंद हो गए थे. तुम्हारे पासपड़ोस की मेरी सहेलियां

हंसती थीं, ‘‘राजा बेटा आईआईटी में इंजीनियर बनने गए हैं.’’

तुम्हारा घर हमारे घर से कुछ ही दूरी पर था इसलिए उड़तीउड़ती खबरें मिल ही जाती थीं.

कुछ बनने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है और फिर खोना ही तो पाने की पहली शर्त है. मैं क्यों अपने को सम?ासम?ा कर परेशान हो रही थी. अपने एक पागलपन पर परेशान हो रही थी. अपने एक पागलपन पर अकेले ही हंस पड़ती थी. मेरी उम्र वह हो चुकी थी जब मन के किसी जानेअनजाने कोने में कोई बैठ जाता है. कई बार मैं बाजार जाने के बहाने तुम्हारे घर के सामने से पैदल भी जाती थी. वहां लगे सफेद गुलाबी गुच्छों में जैसे हर जगह मुझे तुम्हारी छुअन का रेशमी सा एहसास सहला जाता था. सच तो यह था कि मेरी उम्र का वह गुलाबी टुकड़ा एहसासों में ही जी रहा था.

कई साल बीत गए तुम कभी दिखते कभी नहीं. मैं नौकरी करने लगी थी. एक दिन दफ्तर से लौटी तो मेरी पढ़ने की मेज पर तुम्हारा छोटा सा फोटो रखा था. कैसे एकदम से पहचान गई थी मैं, ‘‘अरे, यह तो तिकोनिया बंगले वाले…’’

सोनाली चहकने लगी, ‘‘हाय जीजी, तू इन्हें जानती है क्या? यही तो हैं जिन से तेरी शादी की बात चल रही है.’’

मेरे सिर से पैर तक लाज के लाल गुलमोहर दहक उठे थे.

‘‘जीजी, उन की चाची ने तुम्हें कई बार घर के सामने से गुजरते देखा है और तुम पसंद आ गई हो. बगल वाली सुशीला आंटी से उन की जानपहचान है इसलिए यह फोटो आया है.

बाकी तुम फेसबुक पर देख लो. अगर प्रोफाइल खुला है तो.’’

‘‘धत्,’’ मैं ने सोनाली को एक धौल जमाई.

सोनाली उम्र में मुझ से सालभर छोटी थी. पर अकल में शायद सौ साल सयानी. कहने लगी, ‘‘दीदी, ठाट करेगी तू अब उस बंगले में. इंजीनियर साहब हैं ये जनाब. चाची ने गोद ले रखा है. अकेले ही हैं. कोई ननददेवरों को झमेला नहीं है. मुझे भी आराम रहेगा भरभर झेली आड़ू, अमिया और झरबेरी खाने को मिला करेंगे.’’

मेरे लाख छिपाने पर भी खुशी जैसे रोमरोम से फूट पड़ रही थी. क्या कभी इतनी आसानी से किसी के सपने पूरे हो जाते हैं? अभी तो खुमार से पलकें ही ?ापी थीं. अभी तो मैं ने सपने देखने भी शुरू नहीं किए थे कि यह सुनहरा संसार मुझ तक स्वयं ही चल कर आ गया था. दफ्तर में मुझे अभी तक कोई मनचाहा नहीं मिल था. शायद इसलिए कि मन के किसी कोने में तुम्हारी तसवीर बैठी थी.

अब तो हालत यह थी कि खुली आंखों में ही मुझे  सपने आने लगे थे. कभी बंगले की मखमली दूब पर चांदनी रात में हौलेहौले आंखों ही आंखों में बतियाते हमतुम, फूलों से लदी

डाली झलाते तुम और उस के नीचे फूलों के अंबार में लालगुलाबी होती मैं. कभी आम

तोड़ते तुम और कुहनी तक भरी चूडि़यों से खनकते हाथों से टोकरी में आम उलटती मैं. कभी टै्रक पैंट में क्यारी गुड़ाती मैं और अंजली भर मेहंदी की महीन पत्तियां मुझ पर उड़ेल कर खिलखिलाते तुम.

बंगले के अंदर का भी एक मनभावना नक्शा मेरे मन में बन कर तैयार हो गया था. कभी गुलाबी, कभी प्याजी परदे बदलती, अबीरी सलवारकमीज से सिर से पांव तक ढकी, बड़ी सी लाल बिंदी और डायमंड के इयररिंग्स, हाई हील्स में मैं अपनी ही खींची छवि के पीछे पागल हो उठती थी.

प्रतीक्षा के इस लंबे लगते अंतराल के बाद सोनाली ने मुजे पाजेबों सी खनकती खबर दी थी, ‘‘अगले सोमवार को तेरी सास और ये मोशाय तुझे देखने और बात करने के लिए आ रहे हैं.’’

सारे घर में हबड़दबड़ मच गई थी. मांबाबूजी को इतना अच्छा रिश्ता पाने की उम्मीद नहीं थी. फिर तुम्हारे चाचाचाची ने एक पैसे का भी लेनदेन नहीं ठहराया था. इसी से मांबाबूजी भी खातिरदारी में कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहते थे. सो बड़े धूमधड़ाके से तैयारियां शुरू हो गई थीं.

यह देखनादिखाना तो औपचारिक ही था. बातों में पता चला, ‘‘मिताली, मैं तो तुम्हें अरसे से देख रहा था. तुम ऐसे ही घर के सामने से कहीं गुजरती थीं. छमछम करती तुम्हारी सहेली की आवाज मुझे भी यह देखने को मजबूर कर देती थीं.’’

कुछ मिनटों में सब तय हो गया. इंगेजमैंट की डेट भी पक्की हो गई.

बिजनौर से छोटी मामी और नानी भी इतवार को आ गई थीं. गत रात तक मां और नानी ने दहीबड़े, सौंठ और भरभर छबड़े मिठाई तैयार की थी. कैटरर का भी इंतजाम कर लिया गया. मामी मेरी सजावट को ले कर परेशान हो रही थीं. कभी लाल साड़ी खोलतीं, कभी धानी. कौन सी साड़ी फबेगी? ब्लाउज किस रंग का हो? कौन सी लिपस्टिक लगेगी? मसकारे के बिना तो कुछ अच्छा ही नहीं लगेगा. सुबह से मैं 2 बार पार्लर हो आई थी. मामी सुबह से मुझे सजानेसंवारने में जुट  गई थीं. मामी ने जब सच्चे मोतियों का नाजुक सा हीरों का हार व झुमके पहनाए तो मैं सच कहीं की रानी लगने लगी थी.

हारसिंगार के बाद अपने को शीशे में देख मैं खुद ठगी सी रह गई थी. कालेज की सीधीसादी सफेद पोशाक और दफ्तर की फौर्मल ड्रैस में इतना रूप कहां कैसे छिपा हुआ, मैं अवाक थी.

‘‘मिताली, तेरी ये भोली, हैरानी भरी आंखें बहुत आकर्षक हैं. इन का पूरा इस्तेमाल करना,’’ मामी खिलखिला कर बोलीं तो अपनी बड़ीबड़ी आंखों में तुम्हारी छवि समेटे मैं लाजवंती सी लरज उठी.

तुम्हारी ताइयां, भाभियां, दादी और नानी आईर् हुई थीं. कुछ लड़केलड़कियां दोस्त भी थे. पर मेरे रूप की यह दपदप दहकती ज्योति देखने तुम आए और कुछ मिनट देखते रह गए. इतने रूप की तुम ने कल्पना नहीं की थी. पर जल्द ही गोदभराई की रस्म के बीच अपनी शहदीली चितवनों, लाल, कटावदार होंठों, दूधिया गुलाबी रंग और सलोनी मूर्त की तरह गढ़े जिस्म के बारे में मीठीमीठी बातें सुन कर एक अजनबी से

लगते अछूते नशे से मैं सिर से पांव तक सराबोर हो उठी थी.

सब से अंत में तुम्हारी दादी व चाची मां ने बड़े चाव से मेरी गोद में नारियल, मेवा, मिठाई रखी फिर सहसा मांग में रोली लगाते हुए दादी चौंक गईं, ‘‘अरी बेटी, जरा देख तो नजदीक से,’’ उन्होंने बड़ी बेदर्दी से मेरा आंचल हटा कर मांग पर हाथ फिराया, ‘‘यह… यह तो मांग में नागिन है.’’

चाची सन्न सी खड़ी रह गईं. मेरे सारे जिस्म का खून खिंच कर जैसे आंखों में भर आया था. आवाक, हैरान आंखें फाड़े देख रही थी मैं. क्या हुआ? फौरन दादी व चाची रोली का थाल जमीन पर रख उठ गईं. मेरी सांस रुकने सी लगी. दिमाग फटने सा लगा जैसे किसी ने सिर के बीचोंबीच आरी चला दी हो.

मां बारबार कह रही थीं, ‘‘ये सब पुरानी बातें हैं… बहनजी अब इन्हें कौन मानता है? कोई सचाई नहीं है इन में.’’

पर चाची पर्स उठा कर खड़ी हो गईं, ‘‘बहनजी, कोई माने या न माने, हम तो मानते हैं. हमारे दोचार तो हैं नहीं, यही एक इकलौता लड़का है. जानतेबूझते कैसे गला फंसा दें? मांग की नागिन तो सुहाग का साक्षात काल है.’’

तुम चुपचाप खड़े अपनी चाची की बेबकूफी को सहते रहे. फिर चाची के साथ हट गए. मैं दहशत से जड़ बनी बैठी थी. मामी ने हलके से मुझे उठाया था. बिजली का ?ाटका खाए से तन से चलती मैं कैसे ऊपर कमरे तक आई थी, मालूम नहीं. बहस फिरकब नीचे की थमी, कब मेरी जगह तुम ने सोनाली को अपना लिया

और पन्ने का हारझुमका पहना कर वे सब कब चले गए, मुझे कुछ पता नहीं चला.

यह ऐसा झटका था जिस ने फिर से मेरी जिंदगी में हर चीज के अर्थ बदल दिए थे.

2025 में भी कोई इतना अंधविश्वासी हो सकता है दिल नहीं मान रहा था. पता चला कि उन के यहां तो पूजापाठ, पंडितों का रेला लगा रहता है. चाची घोर दकियानूसी थीं. मैं हिल कर रह गईर् थी. इस से संभलना मेरे लिए दुश्वार था. हर पल गिलहरी सी उछलतीकूदती सोनाली अलग अनजाने अपराध के भार से पाला पड़े बिरवे सी मुर?ा गई थी. मैं उस से और वह मु?ा से आंख चुरा रही थी. मां भी अच्छा लड़का हाथ से न निकलने देने के लालच में जो निर्णय जल्दी में कर बैठी थीं, वह खुद उन्हें खाए जा रहा था.

सुलग रहा था मेरा सारा संसार. उस से उठते धुएं में मेरा दम घुट रहा था. मैं उस जहरीली आग में जिंदा जल रही थी, पर तुम? तुम तो बिलकुल बेखबर थे. काश, तुम ने मुझ बेगुनाह पर ढाए गए इस कहर के खिलाफ कुछ कहा होता. एक शब्द भी तो सांत्वना का तुम नहीं दे सके थे मेरे बुझाते हुए दिल को. कैसे पढ़ेलिखे थे तुम? दकियानूस, कायर, दब्बू. नफरत होने लगी थी मुझे तुम से और सच कहूं

तो धीरेधीरे सोनाली से भी. क्या वह नहीं जानती थी कि मेरे मनमंडप में तुम ही तुम थे. बस

केवल तुम. क्या यों ही सगी बहन से ही छिन जाने के लिए. पर उस का भी क्या दोष था? था ही क्या मेरी प्रेम कथा में कहने को? मेरा गूंगा प्रेम तो मेरे सामने भी अभी पूरा मुंह नहीं खोल पाया था, फिर तुम या सोनाली क्या समझते?

तुम तो दादीचाची के कदमों पर चलने वाले कठपुतली निकले. बहुत सोचने के बाद मैं ने दूसरे शहरों में नौकरी के लिए आवेदन भेजने शुरू कर दिए थे. किसी भी हालत में सनोली की शादी की रात को मैं उस घर में नहीं रहना चाहती थी, जहां गाजेबाजे के साथ मेरा प्राप्य मुझ से छीन मेरी ही सगी बहन की ?ोली में डाला जाना था. मेरी यह इच्छा पूरी हो गई थी और कंटीली यादों का बोझ समेटे बहेलिए के जाल से छूटी आकुल हिरनी सी मैं अपने और तुम्हारे शहर से बहुत दूर निकल आई थी.

तुम सोनाली की मांग में सिंदूर भर कर उसे डोली में बैठा कर अपनी छिली ईंटों के लाल बंगले में ले गए थे और मैं अपने अपमान के

डंक को कलेजे से निकालने के प्रयत्न में लहूलुहान होती रही थी. 2 साल तक गरमी की छुट्टियों में भी जानबू?ा कर मैं घर नहीं आई थी. टूर पर जाती लड़कियों के साथ निकल जाती थी. पर तुम ने जैसे मेरे लहू रिसते जख्मों को सूखने न देने का प्रण कर रखा था. तुम्हारे घर में साल बीतते संगम जन्मा था और अगले बरस तबादले के बाद तुम वहीं आ गए थे जहां मैं अपने बनाए बंधनों में अपने जख्मी वजूद को कसे किस तरह जी रही थी, मैं ही जानती थी. तुम्हें वहीं नौकरी मिल गई थी.

तुम्हारा सामान तुम्हारे घर में उतर रहा था और तुम एक पुराने रिवाज और जर्जर रिश्ते को निभाने के लिए सोनाली और गोलमटोल संगम को संभाले मेरे यहां लंच पर आए थे. आखिर चाह कर भी मैं छोटी बहन और भतीजे को देखने का मोह नहीं छोड़ सकी. तब तुम ने एक भरपूर निगाह मुझ पर डाली थी. उस में कितना अपराधबोध था और कितना एक रहस्य से जुड़ी कमजोर शख्सियत को देख कर उपजी करुणा मिश्रित प्रशंसा का भाव, मैं आंक भी न पाई थी कि तुम फिर तुरंत ही संभल कर फिर सोनाली और संगम की ओर देखने लगे थे. सोनाली से पता चला था कि चाचाजी नहीं रहे और तुम्हारी चाची साथ ही हैं पर वह सामान लगवा रही थीं, इसलिए नहीं आईं.

मैं इस बेबात के बहाने पर खिसियाई सी मुसकराई थी. मकान में बिजली, पानी का प्रबंध होने में कुछ समय लगा था और सोनाली की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. अत: सोनाली और संगम मेरे ही पास रुके थे. तुम उन्हें लेने आखिरी दिन आए थे. इन 4 दिनों में ही संगम मुझ से बेहद हिल गया था. जाते समय वह बहुत हिलकहिलक कर रोया था. मैं ने दफ्तर में 4 दिन की छुट्टी ली थी. मेरा भी रहरह कर संगम को प्यार करने और तुम्हारी सजीसंवरी दुनिया देखने का मन होता था. पर हिम्मत नहीं जुटा पाईर् थी. इतना बड़ा कलेजा मैं कहां से लाती?

रास्ते में, बाजार में, रिश्तेदारी में कभीकभी तुम और सोनाली मिल जाते थे. बातों के बीच वह अपनत्व व बेबाकी कभी नहीं आ पाई जो ऐसे रिश्ते में रहती है. हम तीनों ही जरूरत से ज्यादा सावधान रहते थे कि कहीं मुंह से कोई बेजरूरत अमर्यादित बात न निकल जाए. तब बहुत शिद्दत से यह सचाई महसूस हुई थी कि दर्द का हद से गुजर जाना है दबा हो जाना. अब मेरे अंदर एक हिमानी संयम सा भर गया था. तुम्हारे लिए नफरत और प्यार दोनों बराबर हो कर शायद खुद ही एकदूसरे के वार से खत्म हो अब सुलहसफाई कर चुके थे. सोनाली, मां और मेरे सहकर्मियों ने सहमतेसहमते हुए कई बार कहा, पर मुझे शादी के नाम से नफरत हो गईर् थी.

मैं अडिग, अविचल तापसी सी अपने अंधेरों और वीरानों में संतुष्ट थी. पर एक चाह चोर सी जरूर मेरे दिल के किसी कोने में हर वक्त बैठी रही थी कि काश, कभी, कहीं, कैसे ही तुम मु?ा से कहते, शिद्दत से अपना अपराध महसूसते हुए कि मीताली, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मैं कमजोर था. मजबूर था. इतना बड़ा दंड तुम निर्दोष को ?ोलना पड़ा मेरी कमजोरी की वजह से… पर कितने कंजूस निकलते तुम… कितने मायावी. मेरी यह चाह चाह ही रह गई.

कितनी बार अवसर आया जब तुम मुझ से यह कह सकते थे, पर तुम वीतरागी ही बने रहे जैसे तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं था. मेरा सोने का संसार तुम्हारे पांवों तले जल कर खाक हो गया और तुम्हें सेंक भी नहीं पहुंचा, यह कैसे संभव था? मेरा मन हाहाकार कर उठता था. कितना चाहती थी कि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से काट कर सोचूं पर सोचने की कोशिश में तुम्हारे बारे में उलटा कुछ ज्यादा ही सोच जाती थी. ऊपर की शांत सतह के नीचे एक अजीब चूहादौड़ सी मची रहती थी मेरे मन में. सोनाली से कुछ छीन लेने की न तो इच्छा थी न हिम्मत. असल पूछो तो अंदर तुम्हारे खिलाफ नफरत का समंदर भी लहरा रहा था.

सिर उस दिन भी बहुत भारी हो रहा था. काफी देर ठंडे पानी के फुहारे के नीचे खड़ी हो कर नहाई. बाल शैंपू कर हलकी सी मूंगिया कोटा की प्याजी साड़ी पहनी तो कुछ हलकापन महसूस हुआ. शाम की चाय रंभा से लौन में ही लगवा कर 1-1 चुसकी ले रही थी कि  तुम्हारी जीप की धड़धड़ाहट मेरे कानों में पड़ी.

रंभा टिकोजी हटाते हुए बोली, ‘‘शायद आप की छोटी बहन और बहनोई आए हैं.’’ ‘‘हां, दो प्याले और ले आ. चाय भी और चढ़ा देना. क्रिड से नाश्ता भी ले आना.’’

मगर आश्चर्य, जीप से तुम नहीं तुम्हारे कोई साथी उतरे थे. उन की गोद में संगम को देख कर मैं चौंक गई. सोनाली हमेशा उसे खूब सजासंवार कर रखती थी, पर आज मैली कमीज और चेहरे पर रोतेरोते खिंचीं आंसू और मैलकी लकीरें कुछ और ही कह रही थीं. तब उन्होंने ही वह विस्फोटक खबर दी तुम्हारे व सोनाली के एक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो जाने की.

संगम को कलेजे से चिपटाए मैं कांपते कदमों से वैसे ही गीले बालों में उन के साथ अस्पताल पहुंची थी. तुम विशेष देखभाल वाले कक्ष में थे और सोनाली औपरेशन थिएटर में. तुम्हारे सिर में गंभीर चोट आई थी. तुम बेहोश थे और सोनाली के पेडू से पैर तक का सारा भाग कुचल गया था. हुआ वही जिस का हर पल मु?ो डर था. सोनाली को सारे डाक्टर एकजुट चौबीस घंटे लगे रह कर भी नहीं बचा पाए. रात तक बेहाल मांबाबूजी के साथ तुम्हारी चाची भी आ गई थीं. अगले दिन सोनाली का दाहसंस्कार चुपचाप कर दिया गया था.

सब ने अपने होंठ सी रखे थे क्योंकि तुम अभी तक बेहोश थे. एक अनकहा आतंक हम सब पर छाया हुआ था. 3 दिन के जानलेवा अंतराल के बाद तुम ने आंखें खोली थीं. आंख खोलते ही जो सब से पहला लड़खड़ाता वाक्य तुम्हारे होंठों पर आया था वह था, ‘‘सोनाली और संगम कहां हैं?’’

पूरे संयम के बावजूद यह कहते हुए मेरा वजूद कांप गया था, ‘‘सोनाली लेडीज वार्ड में है और संगम यह रहा.’’

तुम्हारे घबराए चेहरे पर ढेर सा सुकून उभर आया था. तुम पूरे 7 दिन अस्पताल में रहे थे.

पर फिर मैं साहस नहीं जुटा पाई थी, दोबारा उस ?ाठ को सच ठहराने का. चाची, अम्मां व बाबूजी ने ही साधा था तुम्हें 7 दिन. 8वें दिन तुम्हारे घर जाने पर संगम को ले कर मैं आईर् थी. तुम बिल्ली को देख सहमे किसी परिंदे की तरह खामोश आंखों में खून के आंसू रोते पड़े थे. संगम को चिपटा कर तुम जोरजोर से रो उठे थे. मेरा भी सब्र का बांध टूट गया था. घुटनों में सिर दे मैं वहीं बिलख पड़ी थी. संगम घबरा कर तुम से अपने को छुड़ा कर मेरी साड़ी खींचने लगा था, ‘‘अपने घर चलो. अपने घर चलो.’’ यह रट लगाने लगा था. चाची, अम्मां और तुम कितना बहलाते रहे, ललचाते रहे, पर वह नन्ही सी जान मु?ा से ही चिपका रहा.

आखिरकार मां के कहने से 15 दिन की छुट्टी ले कर मैं तुम्हारे ही घर पर रही थी. कैसे संगम को संभालने के साथसाथ तुम्हारी दवा, पानी, पथ्य की भी पूरी व्यवस्था मैं ने संभाल ली है, देख कर चाची कुछ आश्वस्त सी लगी थीं.

इन 15 दिनों में तुम्हारी सुबह की नीबू चाय,

फिर उबले अंडे, परांठे का विचित्र नाश्ता, लंच में 2 बेसनी पराठों के साथ ढेर सी हरी सब्जी और साथ में जीरा पड़ा मट्ठा, शाम को गरम मलाईदार कौफी और रात को दही, दालभात, सलाद, चटनी से भरपूर पक्का हिंदुस्तानी भोजन. खाने के बाद कुछ मीठा, नहीं तो चम्मच भर चीनीमिश्री ही. मु?ो 1-1 चीज रट गईर् थी. जिस दिन से तुम ने दफ्तर जाना शुरू किया था, उस के तीसरे ही दिन मैं भी अपने घर लौट आई थी.

कमरतोड़ व्यस्तता के बाद थकान से मेरा अंगअंग टूट रहा था. पर साथ ही सुबह से रात तक खत्म न होने वाले हजारों छोटेमोटे कामों के बिना बड़ा विकट सूनापन भी भास रहा था. एक प्याला कौफी पी कर मैं सो गई थी. बहुत गहरी नींद में थी. कोशिश करने पर भी आंखें खुल नहीं पा रही थीं. अखनक संगम के छोटेछोटे हाथों की छुअन मु?ो अपने माथे पर लगी. मैं लगभग उछलते हुए उठ कर बैठ गई, ‘‘हाय मेरा सोनू…’’ उसे कस कर अंक में भरने के बाद ही मैं देख पाई कि तुम भी वहीं खड़े थे.

कुछ सकुचा कर उठ खड़ी हुई मैं.

‘‘यह तो आप के जाने के बाद से न सोया है, न दूध पी रहा है. बस यहां आने की रट लगाए हुए है,’’ तुम ?झिझक कर बोले.

‘‘इसे अब कुछ दिन यहीं रहने दीजिए. सहम गया है,’’ कहने को तो मैं कह गई थी पर ऐसे कब तक चलेगा? फिर तो बिलकुल ही भूल जाएगा इन सब को. मैं ने घबरा कर सोचा था. तुम भी उसी भूलभुलैया में भटक रहे थे. मैं ने एक कुछ टाइम मेड रख ली थी. संगम का अबोध मन समझ चुका था कि कुछ हुआ है कि मां साथ नहीं है. उस ने मेड को सहज स्वीकार कर लिया.

पूरे 6 महीने इसी भटकन में गुजर गए. संगम बारबार आता, मुझे लगा था कि तुम भी संगम जितने ही नन्हे थे. न अपने कपड़े, न चप्पल, न दवा कुछ भी तुम खुद नहीं ले सकते थे. इतने लापरवाह और बेखबर कि फटे, बिना बटन की कमीज में ही तुम अपने से छोटे अधिकारियों के साथ मीटिंग करते थे. संगम अब अपने घर जा कर रहने लगा था. चाची देखभाल कर रही थीं और हर दिन में 4 बार मुझ से पूछतीं कि क्या करना है. अब उन्हें मेरे में नागिन नहीं दिखती थी.

एक दिन जब घर पर संगम से मिलने आए तो मुझे टोकना ही पड़ गया, तुम 3 दिनों से मैले कपड़े पहन कर दफ्तर जा रहे थे आज ये धुलेंगे. आज दूसरे कपड़े पहन कर दफ्तर जाइए.

तुम्हारे घर से कपड़े ले आई थी. पलंग पर कर रख दिए हैं.’’

तुम ने जिस भोले विस्मय से मुझे और कपड़ों को देखा था उस से मैं शर्म से गड़ सी गई थी. मैं ने अपनी जीभ काट ली थी. यह आज्ञा जैसा आग्रह किस अधिकार से कर बैठी थी मैं?

मगर बावजूद सावधान रहने के अनजाने में ही मैं ये अनाधिकार चेष्टाएं अकसर करने लगी थी. जवाब में तुम एक भोली पर बेधने वाली निगाह से देखते रह जाते थे. तब मुझे अपनी सीमा रेखा के अतिक्रमण का एहसास होता था.

उस दिन औफिस में एक विशेष कार्यक्रम था. 2-3 दिन पहले से बहुत काम था. इधर चाची को मियादी बुखार हो गया था. संगम की शायद दाढ़ें निकल रही थीं, इसलिए वह बहुत चिड़चिड़ा हो गया था. ऊपर से तुम्हें अचानक दौरे पर जाना पड़ा. मैं सब तरह की जिम्मेदारी संभालतेसंभालते परेशान सी हो गई थी. कार्यक्रम वाले दिन मैं चाची को नौकर के हवाले कर संगम को औफिस साथ ही ले गई थी. मेड ने 4 दिन की छुट्टी ले रखी थी.

शाम को हाल में संगम को साथ लिए मैं काम संभाल रही थी कि तुम सीधे दौरे से दूल भरे कपड़ों में थकान से निस्तेज चेहरों के साथ आ खड़े हुए. संगम को लेने हाथ आगे बढ़ाते समय तुम्हारी भीगी लाल आंखें तुम्हारे बिना होंठ खोले ही सबकुछ कह गई थीं.

अगली सुबह तुम मेरे उठने से पहले ही आ गए थे. पता नहीं कि सारी रात तुम सो भी पाए थे या नहीं. मैं ने तुम्हारी मनपसंद नीबू चाय बनाई तो मुरझाई मुसकान होंठों पर खींचते हुए तुम ने बहुत दर्द के साथ कहा, ‘‘संगम और मेरी वजह से आप को बहुत तकलीफ उठानी पड़ रही है. दरअसल, मेरी कहने की हिम्मत तो नहीं हो रही, पर…’’

मैं ने आंखों में प्रश्नचिह्न भर कर तुम्हें देखा. तुम ने बड़े जोर से मु?ो देखते हुए रुकरुक कर कहा, ‘‘मैं… मैं तुम्हें हमेशा के लिए ले जाने आया हूं.’’

‘‘मनु,’’ मेरे होंठ कांप रहे थे.

‘‘हां, मिताली, मैं तुम से शादी करना

चाहता हूं.’’

‘‘पर तुम्हारी चाची…’’ लरजते कंठ से फंसेफंसे शब्द निकले थे.

तुम मुसकराए, ‘‘नहीं, वे मेरा दिल नहीं तोड़ेंगी.’’

‘‘पर पहले भी तो…’’ मैं ने जान कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया था.

‘‘तब मजबूरी थी. चाची का पहला हठ था,’’ तुम गड़बड़ा गए थे.

‘‘अब भी वे फिर यही हठ कर सकती हैं,’’ गहरे दरिया में डूबतीतिरती मैं अचानक सतर्क हो कर सिर उठा कर बोली.

‘‘नहीं, अब संगम की वजह से वे मजबूर हैं. तुम्हारे सिवा उसे संभालने वाला कोई और…’’

मेरे कानों के पास बजते शहनाई के मीठे स्वर सहसा गरम औंटते लावे की तरह सारे जिस्म के खून में मिल कर सुलग उठे थे. मेरा सर्वस्व कांप उठा था जैसे किसी ने सरेआम मेरी खुली पीठ पर चाबुक मार दिया हो. तड़प कर दोनों हथेलियों से मुंह ढांपे मैं फफक उठी, ‘‘पहले तुम चाची की वजह से मजबूर थे मु?ो त्यागने के लिए और आज… आज तुम संगम की वजह से मजबूर हो मुझे अपनाने को. मेरे अपने वजूद से तुम्हें कोई मतलब नहीं, कोई रिश्ता नहीं?’’

एक लंबी सिसकी से कांप उठी थी मैं, ‘‘ऐसी किसी मजबूरी को किसी पवित्र रिश्ते का ऊंचा नाम देना गलत है, ?ाठ है… सैनियशनेस है.’’

एक ?ाटके में तमाम अरमानों के बंदनवार तोड़ विक्षिप्त सी मैं अंदर दौड़ी चली गई अपना मुंह अंधेरे और वीरान में छिपाने के लिए, जहां कहीं दूर से आते भटकेभटके स्वर रो रहे थे.

उस दुख भरे उन्माद के उतरने से पहले ही मैं ने निर्णय ले लिया था- अपनी घुटघुट कर मरती जिंदगी को एक मुक्म्मल जहान देने का, उमेश को अपना जीवनसाथी बनाने का, मेरा

बौस उमेश जिस तरह मेरे पीछे पागल था, उसे मैं कम और दफ्तर के लोग ज्यादा जानते थे. मेरी ‘हां’ सुन कर वह खुशी से हत्प्रभ हो उठा था.

और आज मेरे सफल वैवाहिक जीवन की 12वीं वर्षगांठ है. सिर से पांव तक सितारों जड़ी अबीरी साड़ी में लिपटी बड़ी सी लाल बिंदी और चांदी के घुंघरू जड़े रुपहले बिछुए पहने, बड़ा सा चांदी का ?ाब्बेदार गुच्छा झलाती मैं अपने आंगन में सरसराती फिर रही हूं.

प्याजी परदों की आड़ में मेरे राजा बेटे मनु तथा विभु लुकाछिपी खेल रहे हैं और पुराने सड़ेगले अंधविश्वास को जड़ से उखाड़ अरमानों के सतरंगे बंदनवारों की सरसराहट मेरे मनप्राणों में भर देने वाला मेरा प्रियतम उमेश मेरी ओर चाहतभरी नजरों से देख रहा है. उस ने मुझे चाहा है, केवल मुझे, मेरे अपने वजूद को… किसी मजबूरी को नहीं.

विचित्र संयोग है कि 12 साल बाद तुम्हारे बंगले की बगल में ही मुझे यह छोटा सा बंगला मिला है. अपनी सर्पिला मांग को संवराती मैं अयाचित एक नए निर्णय से रोमांचित हो उमेश को बुलाने दौड़ पड़ी.

आज तुम्हारी चाची को घर पर आमंत्रित करूंगी. उन की आंखों में पड़े अंधविश्वास के काले जाले को हटा कर प्रेम की शांत, शीतल ज्योति दिखाने को ताकि आगे किसी की कच्ची उम्र की मिठास को यह सर्पिला नागदंश असमय ही न निगल सके.

Harbhajan Singh इस एक्टर को अपनी बायोपिक में देखने की रखते हैं ख्वाहिश

Harbhajan Singh : पूर्व क्रिकेटर और राज्यसभा सांसद हरभजन सिंह अपनी पत्नी गीता बसरा के साथ हाल ही में मीडिया के साथ रूबरू हुए जिसका मकसद हरभजन सिंह का पत्नी गीता बसरा के साथ आने वाला टॉक शो है जिसका नाम हूं इज द बॉस है. इस शो को होस्ट कर रहे हैं हरभजन सिंह और गीता बसरा. इस शो में क्रिकेटर और उनकी पत्नियों को लेकर चर्चाएं होंगी.

इसी शो की प्रेस कॉफ्रेंस के दौरान जब हरभजन सिंह से उनकी बायोपिक को लेकर सवाल किया गया और उनकी बायोपिक में कौन सा हीरो होना चाहिए इस बारे में पूछा गया. तो हरभजन सिंह और उनकी पत्नी दोनों ने ही आपसी सहमति के साथ एक स्टार का नाम लिया जो आज कल अपने अभिनय के चलते काफी चर्चा में है, जिनकी फिल्म ने हाल ही में 800 करोड़ का बिजनेस किया . यह एक्टर रणबीर कपूर क्या कार्तिक आर्यन नहीं बल्कि हाल ही में फिल्म छावा में अपनी दमदार परफौर्मेंस दिखाने वाले एक्टर विक्की कौशल है.

हरभजन सिंह के अनुसार एक्टर विक्की कौशल ही एक ऐसे एक्टर हैं जो हरभजन सिंह की बायोपिक में हरभजन सिंह का किरदार पूरी शिद्दत से निभा सकते हैं. हरभजन सिंह ने विक्की कौशल की तारीफ करते हुए कहा कोई शानदार है, पंजाबी है, बोलचाल में एकदम मेरी तरह है हरभजन सिंह ने साथ में यह भी कहा कि उनकी बायोपिक जरूर बनेगी लेकिन फिलहाल उसके बारे में कोई जानकारी नहीं दे पाएंगे. लेकिन जब भी हरभजन सिंह की बायोपिक बनेगी तो वह अपने किरदार में विकी कौशल को देखना चाहेंगे. इस दौरान हरभजन सिंह की पत्नी गीता बसरा ने भी हरभजन सिंह की पसंद को सही कहा . इससे पहले भी कपिल देव, मोहम्मद अजहरूद्दीन, और एमएस धोनी की बायोपिक पर फिल्में बन चुकी है. खबरों के अनुसार अब हरभजन सिंह पर फिल्म बनने की तैयारी चल रही है.

‘गृहशोभिका एंपॉवर हर’ इवेंट ठाणे

एक बार फिर झीलों के शहर ठाणे में 31 मई को क्रांति विसारिया हॉल, ठाणे में ‘गृहशोभिका एंपॉवर हर’ कार्यक्रम बड़े उत्साह और महिलाओं की मौजूदगी में आयोजित किया गया.

इस कार्यक्रम के लिए पहले से पंजीकरण कराना ज़रूरी था और कई महिलाओं ने दिए गए नंबर पर पंजीकरण करके अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कराई.

कार्यक्रम के दिन सुबह 9 बजे से ही महिलाएं मौजूद थीं. नाश्ते के बाद कार्यक्रम की शुरुआत प्रस्तुतकर्ता रूपाली सकपाल के धमाकेदार सूत्र संचलन से हुई. उन्होंने कार्यक्रम में मौजूद सभी सुपरवुमन का स्वागत किया. उन्होंने यह भी बताया कि ‘गृहशोभिका एंपॉवर हर’ जैसे कार्यक्रम मुंबई के साथ-साथ बैंगलुरू, नोएडा, अहमदाबाद, लखनऊ, भोपाल और चंडीगढ़ में भी आयोजित किए जा रहे हैं.

कार्यक्रम की शुरुआत में कार्यक्रम के प्रायोजक – फाइनैंशियल एजुकेशन पार्टनर : एचडीएफसी म्यूचुअल फंड * एसोसिएट स्पांसर : हायर * एसोसिएट स्पांसर स्वा * ब्यूटी पार्टनर : ब्रिहंस नैचुरल प्रोडक्ट्स द्वारा ग्रीन लीफ ऐलोवेरा जेल और * दिल्ली प्रेस के एवी प्रस्तुत किए गए.

विशेष अनाऊसंमेन्ट

‘गृहशोभिका एंपॉवर हर’ कार्यक्रम में भाग लेने वाली महिलाओं से अपील की गई कि वे ‘गृहशोभिका’ के इंस्टाग्राम पेज और फेसबुक पर कार्यक्रम का आनंद कैसे लिया और अपनी सेल्फी, फोटोज और कहानियाँ टैग करें. यह भी घोषणा की गई कि टॉप फाइव्ह धमाकेदार प्रविष्टियों को ‘गृहशोभिका’ द्वारा उपहार हैंपर दिए जाएंगे.

कार्यक्रम की शुरुआत मंच पर मौजूद 5 महिलाओं को आमंत्रित करके बॉलीवुड डांस से हुई. मौजूद मेहमानों के साथ-साथ सभी महिलाओं ने इस डांस का आनंद लिया.

इस नृत्यकी थीम थी – हाथ से कपड़े धोते हुए दिखाकर नृत्य करना.

एसोसिएट स्पॉन्सर : हायर का एक एवी दिखाया गया. इस दौरान एआई संचालित डीबीटी सीरीज वॉशिंग मशीन दिखाई गई, जो सफाई में रिवॉल्यूशन है. इस स्मार्ट तकनीक की एक झलक दिखाई गई और विशेष छूट की भी घोषणा की गई.

महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण

कार्यक्रम की शुरुआत ‘महिलाओं कामानसिक स्वास्थ्य और कल्याण’ विषय पर एक सत्र से हुई.

इस सत्र में कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल के सलाहकार और नवी मुंबई स्थित मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के सलाहकार डॉ. पार्थ नागदाने महिलाओं को मानसिक स्वास्थ्य, स्ट्रेस मॅनेजमेंट और इसके उपायों के बारे में बताया.

डॉ. पार्थ द्वारा बताए गए सुझावों से सभी महिलाओं ने बहुत कुछ सीखा. दिल्ली प्रेस के नेशनल सेल्स हेड दीपक सरकारजी ने डॉ. पार्थ को उपहार देकर सम्मानित किया.

इसके बाद एसोसिएट स्पॉन्सर स्वा वूमन की एवी को एक बार फिर दिखाया गया और उससे जुड़ा एक अच्छा सा गेम खेला गया. इस क्विज में स्वा के शेपवियर, उसके स्ट्रेचेबल मॉइश्चर विकिंग फैब्रिक, स्टाइल, सॉफ्टनेस से जुड़े सवाल पूछे गए.

इस खेल में जीतने वाली महिलाओं को (स्वा)द्वारा आकर्षक डिस्काउंट कूपन दिए गए.

फाइनैंशियल प्लॅनिंग सेशन

वित्त में 16 वर्षों से अधिक के अनुभव रखने वाली मुनीरा चुनिया (एसआईपी सहेली) ने वित्तीय नियोजन सत्र में एसआईपी और म्यूचुअल फंड के बारे में जानकारी दी. उन्होंने बचत और निवेश के बीच का अंतर भी उदाहरण देकर समझाया.

लंबे समय के लिए म्यूचुअल फंड में निवेश करने से आप को काफी फायदा मिलता है. म्यूचुअल फंड के फायदे और इसकी कितनी कैटेगरी है, इसकी जानकारी दी गई. म्यूचुअल फंड में आपका पैसा एक कंपनी मैनेज करती है और उसके एक्सपर्ट आपके बाद आपके पैसे को मैनेज करते हैं और आपको उससे जो भी फायदा होता है, वो देते हैं. आप म्यूचुअल फंड में 250 रुपये से भी निवेश शुरू कर सकते हैं. सबसे खास बात ये है कि आपको इस पर एक दिन में ही रिटर्न मिल जाता है. बच्चों की पढ़ाई, शादी, परिवार, रेगुलर इनकम के लिए आप म्यूचुअल फंड में पैसा लगा सकते हैं. अगर आप एसआईपी में निवेश करना चाहते हैं तो आपको कैसे शुरुआत करनी चाहिए. साथ ही अगर आप बिना जल्दबाजी के धैर्य रखते हैं तो लंबे समय में आपको अच्छा फायदा मिल सकता है. ये सारी जानकारी महिलाओं को सरल, आसान शब्दों में बताई गई.

दिल्ली प्रेस के नेशनल सेल्स हेड दीपक सरकार ने मुनीरा चुनिया को उपहार देकर सम्मानित किया.

इसके बाद एक बार फिर क्विज खेलना और ढेर सारे पुरस्कार जीतना शुरू हुआ.

खेलों और पुरस्कारों को ब्रिहांस नैचुरल प्रोडक्ट्स द्वारा ग्रीन लीफ एलो वेरा जेल द्वारा प्रायोजित किया गया था.

ग्रीन लीफ एलोवेरा जेल से संबंधित उत्पादों, त्वचा और बालों के लिए इसके लाभों के बारे में जानकारी प्रदान की गई.

सौंदर्य और त्वचा की देखभाल के टिप्स

कल्याण की प्रसिद्ध कॉस्मेटोलॉजिस्ट और स्किन शाइन स्किन क्लिनिक की ट्राइकोलॉजिस्ट डॉ. प्रीति माहिरे ने उपस्थित महिलाओं को सौंदर्य और त्वचा की देखभाल के टिप्स, दैनिक देखभाल, ग्लो हैक्स और स्वस्थ त्वचा के बारे में जानकारी दी.

दिल्ली प्रेस के पवन माथुर जी ने डॉ. प्रीति माहिरे को उपहार देकर धन्यवाद दिया.

कार्यक्रम के अंतिम सत्र में प्रसिद्ध पत्रकार, एंकर और इनफ्लूएंझार ऐश्वर्या पेवाल-नेमाड़े जी ने महिलाओं को यूट्यूब वीडियो के माध्यम से अपने ग्राहकों की संख्या बढ़ाने और अपने उत्पादों को बेचने के तरीके बताए. साथ ही उन्होंने महिलाओं के साथ अपनी यात्रा की यादें भी साझ कीं. मौजूद कुछ महिलाओं ने उनसे कुछ बेहतरीन सवाल पूछकर अपनी शंकाओं का समाधान किया.

दिल्ली प्रेस के प्रशांत जी ने ऐश्वर्या पेवाल-नेमाड़े को उपहार भेंट कर उनका आभार व्यक्त किया.कार्यक्रम के अंत में उपस्थित महिलाओं ने भोजन का आनंद लिया तथा महिलाओं को उपहार बैग दिए गए.

Kusha Kapila ने शेयर किया वजन घटाने के जुनून का दर्दनाक अनुभव

Kusha Kapila : एक्ट्रेस और सोशल मीडिया में पौपुलर कुशा कपिला अक्सर सोशल मीडिया पर अपने बोल्ड अंदाज और अतरंगी वीडियोज को लेकर चर्चा में बनी रहती है. हाल ही में उनके वेट लॉस ट्रांसफॉरमेशन ने सभी को हैरान कर दिया लेकिन उन्होंने अपने वीडियो में अपने गलत ढंग से वजन कम करने की दर्दनाक जर्नी को लेकर कुछ खुलासे किए जिसने सबको चौका दिया.जो ऐसे लोगों के लिए सबक है जिन्हें लगता है कि भूखे रहकर ज्यादा से ज्यादा वजन कम किया जा सकता है. लेकिन उसके साइड इफेक्ट क्या हो सकते हैं, उसका बुरा अनुभव कपिला ने सबके सामने शेयर किया है.

कपिला के अनुसार मैं शुरू से ही अपने वजन को लेकर सचेत रहती थी इसलिए मैंने जबरदस्त डाइटिंग करके दसवीं क्लास में अपना 20 किलो वजन कम कर लिया था , उस वक्त मेरे ऊपर अच्छे से अच्छा दिखने का जुनून सवार था. लिहाजा जब मैं पतली हुई तो सब ने मेरी बहुत तारीफ की लेकिन खाने पीने में लापरवाही करते ही मैं फिर से मोटी होने लगी, इसके बाद मैंने दोबारा और कड़क डाइटिंग की जिसमें मैं पूरा-पूरा दिन कुछ भी नहीं खाती थी और ज्यादा से ज्यादा डाइट में 800 से 900 कैलोरी तक का ही खाना लेती थी.

इसका नतीजा यह हुआ की धीरे-धीरे मेरी इम्यूनिटी कमजोर होने लगी , पेट में ट्यूमर की समस्या हो गई. यहां तक की बहुत ज्यादा कमजोरी होने की वजह से मुझे टीबी की बीमारी ने भी घेर लिया. इसके बाद मुझे काफी लंबे समय तक बीमारी से गुजरना पड़ा. लेकिन मैंने बाद में सही इलाज करके अपने आप को मौत के मुंह में जाने से बचा लिया. अब 33 की उम्र में मैंने फिर से एक बार वजन कम करने की प्रक्रिया शुरू की है लेकिन भूखे रहकर नहीं, बल्कि सही डाइट और सही फिटनेस ट्रेनिंग लेकर जिसका मुझे बहुत अच्छा रिजल्ट मिल रहा है. और कमजोरी का एहसास भी नहीं हो रहा. मैं अपनी दर्दनाक वेटलॉस जर्नी के जरिए यही कहना चाहती हूं कि वेटलॉस करना बुरा नहीं है अगर उसका तरीका सही हो ,जो मुझे बाद में समझ आया.

Tips For Handbag : ऐसे करें ब्रैंडेड हैंड बैग की साफसफाई

Tips For Handbag :  हैंड बैग का फैशन सालों से स्त्रियों में रहा है। किसी भी अवसर पर पोशाक से मैच करते हुए बैग कैरी करना एक स्टाइल स्टैट्मेंट हुआ करता है. आज ये केवल ऐक्सैसरीज ही नहीं, बल्कि पर्सनैलिटी को निखरने में भी अहम भूमिका निभाते हैं. इस में भी आजकल ब्रैंडेड बैग्स लेने का प्रचलन बढ़ा है। पहली नौकरी मिलते ही आज के यूथ एक अच्छी सी बैग खरीद लेते हैं, क्योंकि नियमित प्रयोग में लाई जाने वाली चीजों में खूबसूरत हैंगबैग या पर्स जरूरी बन चुका है, जिस में वे हर छोटीबड़ी चीजों को रखना पसंद करते हैं.

मगर कुछ दिनों बाद ये मैले हो कर गंदे दिखने लगते हैं. कई बार तो इन में बैक्टीरिया पनपने का भी डर बना रहता है.

इन स्टाइलिश बैग्स का दाम हजार से लाखों में होते हैं, जिसे बारबार खरीदना संभव नहीं होता. इसलिए सही रखरखाव करने पर सालों तक आप इस का प्रयोग कर सकते हैं.

अगर आप के पास लग्जरी बैग्स का अच्छाखासा कलैक्शन है, जिन्हें आप लंबे समय तक प्रयोग करना चाहते हैं और ये गंदे हो गए हैं, तो उन्हें साफ करने के कुछ खास टिप्स निम्न हैं :

फालतू कागज को हटाएं

समयसमय पर बैग्स की सफाई करना बहुत जरूरी होता है। सब से पहले बैग में रखे फालतू कागज के टुकङों को हटा दें। ये बैग को अंदर से काफी गंदा करते हैं, इतना ही नहीं इन की वजह से बैग में सामान रखने की जगह की भी कमी होती है.

समयसमय पर करें सफाई

कोशिश करें कि हफ्ता या 15 दिन में एक बार अपने हैंगबैग या पर्स की सफाई जरूर करें. इस के लिए एक बाउल में हलका गरम पानी लें और उस में 1 चम्मच माइल्ड सोप मिक्स कर दें. दोनों चीजों को अच्छी तरह मिक्स करने के बाद उस पानी में एक कपड़ा डालें और उसे अच्छी तरह निचोड़ लें.

अब इस कपड़े से पर्स के बाहरी हिस्से की अच्छी तरह सफाई करें. ध्यान रखें कि इस दौरान बैग को अधिक गीला नहीं करना है. लक्जरी बैग्स को वाशिंग मशीन में डाल कर साफ कभी न करें, इस से बैग की मैटेरियल खराब हो सकते हैं.

औयल के दाग को करें साफ

कई बार बैग में खानेपीने की चीजों को रख देते हैं जिस की वजह से बैग अंदर से औयली हो जाता है। इसे हटाने के लिए बैग में पेपर या फिर ब्लोटिंग पेपर का इस्तेमाल कर धीरेधीरे औयल को सोख लें, बाद में दागधब्बों को दूर करने के लिए टेलकम पाउडर छिड़क दें. 10 मिनट बाद उसे किसी साफ कपड़े से पोंछ दें. इस से तेल का निशान धीरेधीरे खत्म हो जाएगा.

सौफ्ट कपड़े का करें प्रयोग

बैग को समयसमय पर ड्राईक्लीन करते रहना चाहिए, इस से बैग क्लीन रहता है। ड्राईक्लीन आप खुद घर पर ही कर सकते हैं। इस के लिए बैग से सारा सामान निकाल लें, फिर सौफ्ट सूती कपड़े से इस की सफाई कर लें.

हार्ड ब्रश को करें अवौइड

हार्ड कैमिकल वाले डिटर्जेंट या साबुन का प्रयोग कभी न करें। माइल्ड साबुन या शैंपू से इसे साफ करना अच्छा होता है, क्योंकि हार्ड कैमिकल से बैग की सतह को नुकसान पहुंच सकता है. ब्रैंडेड बैग्स की सफाई करते समय हार्ड ब्रश का इस्तेमाल कभी न करें.

न रखें धूप में

हैंगबैग या फिर पर्स को पानी से धोने की गलती न करें. कई बार लड़कियां इसे धोने के बाद धूप में रख देती हैं, इस की वजह से कलर फेड हो जाता है. इसलिए अपने हैंडबैग को धूप से बचा कर रखें. इस के अलावा नमी वाले स्थानों से भी इसे बचा कर रखें ताकि फंगस और फफूंदी न लगें.

नौर्मल टैंपरेचर में रखना जरूरी

ब्रैंडेड बैग्स लंबे समय तक चलें, इस के लिए रखरखाव का खास ध्यान देने की जरूरत है. कई बार सही से इसे नहीं रखने से मौसम के बदलाव के साथसाथ, दागधब्बे लग जाते हैं. इसलिए बैग को हमेशा साफ और नौर्मल टैंपरेचर में रखें.

हैंड बैग के अंदर कपड़ा होता है, जिसे पानी और डिटर्जेंट से साफ किया जा सकता है, लेकिन सही तरीके से इसे न साफ करने पर पानी बैग के दूसरे भाग में जाने की संभावना रहती है. दागधब्बे को हटाने के लिए हेयर स्प्रे करें और उसे अच्छी तरह से रब कर तुरंत साफ कर दें। दागधब्बे अधिक पुराने होने पर उन्हें निकालना मुश्किल होता है.

बदबू का करें निवारण

अगर आप के पर्स से गंधी बदबू आ रही है, तो इस के लिए बेकिंग सोडा का इस्तेमाल कर सकते हैं. इस के लिए एक पैकेट में बेकिंग सोडा भर कर उसे हैंड बैग में रख दें और फिर 24 घंटे के लिए छोड़ दें. इस से बदबू चली जाएगी. इस के अलावा आप चाहें तो हैंड बैग के अंदर हलका परफ्यूम स्प्रे कर सकते हैं. ऐसा करने से हैंड बैग से अच्छी खुशबू भी आती रहेगी.

इस प्रकार इन सभी टिप्स को अपना कर आप अपने महंगे ब्रैंडेड हैंड बैग को काफी समय तक अपने पास सुरक्षित तरीके से रख सकते हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें