Famous Hindi Stories : जाएं तो जाएं कहां

Famous Hindi Stories : हमारे एक बुजुर्ग थे. वे अकसर हमें समझाया करते थे कि जीवन में किसी न किसी नियम का पालन इंसान को अवश्य करना चाहिए. कोई भी नियम, कोई भी उसूल, जैसे कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं हर किसी से हिलमिल नहीं सकता या मैं हर किसी से हिलमिल जाता हूं, हर चीज का हिसाबकिताब रखना चाहिए या हर चीज का हिसाबकिताब नहीं रखना चाहिए.

नियम का अर्थ कि कोई ऐसा काम जिसे आप अवश्य करना चाहें, जिसे किए बिना आप को लगे कुछ कमी रह गई है. मैं अकसर आसपास देखता हूं और कभीकभार महसूस भी होता है कि पक्का नियम जिसे हम जीतेमरते निभाते हैं वह हमें बड़ी मुसीबत से बचा भी लेता है. हमारे एक मित्र हैं जिन की पत्नी पिछले 10 साल से सुबह सैर करने जाती थीं. 2-3 पड़ोसिनें भी कभी साथ होती थीं और कभी नहीं भी होती थीं.

‘‘देखा न कुसुम, भाभी रोज सुबह सैर करने जाती हैं तुम भी साथ जाया करो. जरा तो अपनी सेहत का खयाल रखो.’’

‘‘सुबह सैर करने जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. सफाई कर्मचारी सफाई करते हैं तो सड़क की सारी मिट्टी गले में लगती है. जगहजगह कूड़े के ढेरों को आग लगाते हैं…गली में सभी सीवर भर जाते हैं. सुबह ही सुबह कितनी बदबू होती है.’’  बात शुरू कर के मैं तो पत्नी का मुंह ही देखता रह गया. सुबह की सैर के लाभ तो बचपन से सुनता आया था पर नुकसान पहली बार समझा रही थी पत्नी.

‘‘ताजी हवा तब शुरू होती है जब आबादी खत्म हो जाती है और वहां तक पहुंचतेपहुंचते सन्नाटा शुरू हो जाता है. खेतों की तरफ निकल जाओ तो न आदमी न आदमजात. इतने अंधेरे में अकेले डर नहीं लगता क्या कुसुम भाभी को.’’

‘‘इस में डरना क्या है. 6 बजे तक वापस आतेआते दिन निकल आता है. अपना ही इलाका है, डर कैसा.’’

‘‘नहीं, शाम की सैर ठीक रहती है. न बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता और न ही अंधेरे का डर. भई, अपनेअपने नियम हैं,’’ पत्नी ने अपना नियम मुझे बताया और वह क्यों सही है उसे प्रमाणित करने के कारण भी मुझे समझा दिए. सोचा जाए तो अपनेअपने स्थान पर हर इंसान सही है. पुरानी पीढ़ी के पास नई पीढ़ी को कोसने के हजार तर्क हैं और नई पीढ़ी के पास पुरानी को नकारने के लाख बहाने. इसी मतभेद को दिल से लगा कर अकसर हम अपने अच्छे से अच्छे रिश्ते से हाथ धो लेते हैं.

मेरी बड़ी बहन, जो आगरा में रहती हैं, का एक नियम बड़ा सख्त है. कभी किसी का गहना या कपड़ा मांग कर नहीं पहनना चाहिए. कपड़ा तो कभी मजबूरी में पहनना भी पड़ सकता है क्योंकि तन ढकना तो जरूरत है, लेकिन गहनों के बिना प्राण तो नहीं निकल जाएंगे.

हम किसी शादी में जाने वाले थे. दीदी भी उन दिनों हमारे पास आई हुई थीं. जाहिर है, भारी गहने साथ ले कर नहीं आई थीं. मेरी पत्नी ने अनुरोध किया कि वे उस के गहने ले लें, तो दीदी ने साफ मना कर दिया. मेरी पत्नी को बुरा लगा.

‘‘दीदी ने ऐसा क्यों कहा कि वे कभी किसी के गहने नहीं पहनतीं. मैं कोई पराई हूं क्या? कह रही हैं अपनेअपने उसूल हैं, ऐसे भी क्या उसूल…’’

दीदी शादी में गईं पर उन्हीं हल्केफुल्के गहनों में जिन्हें पहन कर वे आगरा से आई थीं. घर आ कर भी मेरी पत्नी अनमनी सी रही जिसे दीदी भांप गई थीं.

‘‘बुरा मत मानना भाभी और तुम भी अपने जीवन में यह नियम अवश्य बना लो. यदि तुम्हारे पास गहना नहीं है तो मात्र दिखावे के लिए कभी किसी का गहना मांग कर मत पहनो. अगर तुम से वह गहना खो जाए तो पूरी उम्र एक कलंक माथे पर लगा रहता है कि फलां ने मेरा हजारों का नुकसान कर दिया था. जिस की चीज खो जाती है वह भूल तो नहीं पाता न.’’

‘‘अगर मुझ से ही खो जाए तो?’’

‘‘तुम चाहे अपने हाथ से जितना बड़ा नुकसान कर लो…चीज भी तुम्हारी, गंवाई भी तुम ने, अपना किया बड़े से बड़ा नुकसान इंसान भूल जाता है पर दूसरे द्वारा किया सदा याद रहता है.

‘‘मुझे याद है 10वीं कक्षा में हमारी अंगरेजी की किताब में एक कहानी थी ‘द नैकलेस’ जिस में नायिका मैगी मात्र अपनी एक अमीर सखी के घर पार्टी पर जाने के लिए दूसरी अमीर सखी का हीरों का हार उधार मांग कर ले जाती है. हार खो जाता है. पतिपत्नी नया हार खरीदते हैं और लौटा देते हैं. और फिर पूरी उम्र उस कर्ज को उतारते रहते हैं जो उन्होंने लाखों का हार चुकाने को लिया था.

‘‘लगभग 15 साल बाद बहुत गरीबी में दिन गुजार चुकी मैगी को वही सखी बाजार में मिल जाती है. दोनों एकदूसरे का हालचाल पूछती हैं और अमीर सखी उस की गिरी सेहत और बुरी हालत का कारण पूछती है. नायिका सच बताती है और अमीर सखी अपना सिर पीट लेती है, क्योंकि उस ने जो हार उधार दिया था वह तो नकली था.

‘‘नकली ले कर असली चुकाया और पूरा जीवन तबाह कर लिया. क्या पाया उस ने भाभी? इसी कहानी की वजह से मैं कई दिन रोती रही थी.’’

दीदी ने प्रश्न किया तो मुझे भी वह कहानी याद आई. सच है, दीदी अकसर किस्सेकहानियों को बड़ी गंभीरता से लेती थीं. यही एक कहानी गहरी उतर गई होगी मन में.

‘‘दोस्ती हमेशा अपने बराबर वालों से करो, जिन के साथ उठबैठ कर आप स्वयं को मखमल में टाट की तरह न महसूस करो. क्या जरूरत है जेब फाड़ कर तमाशा दिखाने की. अपनी औकात के अनुसार ही जिओ तो जीवन आसान रहता है. मेरा नियम है भाभी कि जब तक जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, सगे भाईबहन से भी कुछ मत मांगो.’’

चुप रहे हम पतिपत्नी. क्या उत्तर देते, अपनेअपने नियम हैं. उन्हें कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए. अप्रत्यक्ष में दीदी ने हमें भी समझा दिया था कि हम भी इसी नियम पर चलें. ऐसे नियमों से जीवन आसान हो जाता है, यह सच है क्योंकि हम पूरा का पूरा वजन अपने उस नियम पर डाल देते हैं जिसे सामने वाला चाहेअनचाहे मान भी लेता है. भई, क्या करें नियम जो है.

‘‘रवि साहब, किसी का जूठा नहीं खाते, क्या करें भई, नियम है न इन का. वैसे एक घूंट मेरे गिलास से पी लेते तो हमारा मन रह जाता.’’

‘‘अब कोई इन से पूछे कि जूठा पानी अगर रवि साहब पी लेते तो इन का मन क्यों रह जाता. इन का मन हर किसी के नियम तोड़ने को बेचैन भी क्यों है. इन का जूठा अमृत है क्या, जिसे रविजी जरूर पिएं. संभव है इन्हें खांसी हो, जुकाम हो या कोई मुंह का संक्रमण. रविजी इन का मन रखने के लिए मौत के मुंह में क्यों जाएं? सत्य है, रविजी का नियम उन्हें बीमार होने से तो बचा ही गया न.’’

मेरे एक अन्य मित्र हैं. एक दिन हम ने साथसाथ कुछ खर्च किया. उन्होंने झट से 20 रुपए लौटा दिए.

‘‘20 रुपए हों या 20 लाख रुपए मेरे लिए दोनों की कीमत एक ही है. सिर पर कर्ज नहीं रखता मैं और दोस्ती में तो बिलकुल भी नहीं. दोस्त के साथ रिश्ते साफसुथरे रहें, उस के लिए जब हिसाब करो तो पैसेपैसे का करो. अपना नियम है भई, उपहार चाहे हजारों का दो और लो, कर्ज एक पैसे का भी नहीं. यही पैसा दोस्ती में जहर घोलता है.’’

चुप रहा मैं क्योंकि उन का यह पक्का नियम मुझे भी तोड़ना नहीं चाहिए. सत्य भी यही है कि अपनी जेब से बिना वजह लुटाना भी कौन चाहता है. हमारी एक मौसी बड़ी हिसाब- किताब वाली थीं. वे रोज शाम को खर्च की डायरी लिखती थीं. बच्चे अकसर हंसने लगते. वे भी हंस देती थीं. घर में एक ही तनख्वाह आती थी. कंजूसी भी नहीं करती थीं और फुजूल- खर्ची भी नहीं. रिश्तेदारी में भी अच्छा लेनदेन करतीं. कभी बात चलती तो वे यही कहती थीं :

‘‘अपनी चादर में रहो तो क्या मजाल कि मुश्किल आए. रोना तभी पड़ता है जब इंसान नियम से न चले. जीवन में नियम का होना बहुत आवश्यक है.’’

हमारे एक बहनोई हैं. हम से दूर रहते हैं इसलिए कभीकभार ही मिलना होता है. एक बार शादी में मिले, गपशप में दीदी ने उलाहना सा दे दिया.

‘‘सब से मिलना इन्हें अच्छा ही नहीं लगता,’’ दीदी बोलीं, ‘‘गिनेचुने लोगों से ही मिलते हैं. कहते हैं कि हर कोई इस लायक नहीं जिस से मेलजोल बढ़ाया जाए.’’

‘‘ठीक ही तो कहता हूं सोम भाई, अब आप ही बताइए, बिना किसी को जांचेपरखे दोस्त बनाओगे तो वही हाल होगा न जो संजय दत्त का हुआ. दोस्तीयारी में फंस गया बेचारा. अब किसी के माथे पर लिखा है क्या कि वह चोरउचक्का है या आतंकवादी.

‘‘अपना तो नियम है भाई, हाथ सब से मिलाते चलो लेकिन दिल मिलाने से पहले हजार बार सोचो.’’

आज शाम मैं घर आया तो विचित्र ही खबर मिली. ‘‘आप ने सुना नहीं, आज सुबह कुसुम भाभी को किसी ने सराय के बाहर जख्मी कर दिया. उन के साथ 2 पड़ोसिनें और थीं. कानों के टौप्स खींच कर धक्का दे दिया. सिर फट गए. तीनों अस्पताल मेें पड़ी हैं. मैं ने कहा था न कि इतनी सुबह सैर को नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्या सच?’’ अवाक् रह गया मैं.

‘‘और नहीं तो क्या. सोना ही दुश्मन बन गया. नशेड़ी होंगे कोई. गंड़ासा दिखाया और अंगूठियां उतरवा लीं. तीनों से टौप्स उतारने को कहा. तभी दूर से कोई गाड़ी आती देखी तो कानों से खींच कर ही ले गए…आप कहते थे न, अपना ही इलाका है, तुम भी जाया करो.’’

निरुत्तर हो गया मैं. मेरी नजर पत्नी के कानों पर पड़ी. सुंदर नग चमक रहे थे. उंगली में अंगूठी भी 10 हजार की तो होगी ही. अगर इस ने अपना नियम तोड़ कर मेरा कहा मान लिया होता तो इस वक्त शायद यह भी कुसुम भाभी के साथ अस्पताल में होती.

आज के परिवेश में क्या गलत और क्या सही. सुबह की सैर का नियम जहां कुसुम भाभी को मार गया, वहीं शाम की सैर का नियम मेरी पत्नी को बचा भी गया. सोना इतना महंगा हो गया है कि जानलेवा होने लगा है. सोच रहा हूं कि एक नियम मैं भी बना लूं. चाहे जो भी हो जाए पत्नी को गहने पहन कर घर से बाहर नहीं जाने दूंगा. परेशान हो गई थी पत्नी.

‘‘नकली गहने पहने तो कौन सा जान बच गई. कुसुम भाभी के टौप्स तो नकली थे. अंगूठी भी सोने की नहीं थी. उन्होंने कहा भी कि भैया, सोना नहीं पहना है.’’

‘‘तो क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘बोले, यह देखने का हमारा काम है. ज्यादा नानुकर मत करो.’’

क्या जवाब दूं मैं. आज हम जिस हाल में जी रहे हैं उस हाल में जीना वास्तव में बहुत तंग हो गया है. खुल कर सांस कहां ले पा रहे हैं हम. जी पाएं, उस के लिए इतने नियमों का निर्माण करना पड़ेगा कि हम कहीं के रहेंगे ही नहीं. सिर्फ नियम ही होंगे जो हमें चलाएंगे, उठाएंगे और बिठाएंगे.

रात में हम दोनों पतिपत्नी अस्पताल गए. कुसुम भाभी के सिर की चोट गहरी थी. दोनों कान कटे पड़े थे. होश नहीं आया था. उन के पति परेशान थे, सीधासादा जीवन जीतेजीते यह कैसी परेशानी चली आई थी.

‘‘यह बेचारी तो सोना पहनती ही नहीं थी. पीतल भी पहनना भारी पड़ गया. अब इन हालात में इंसान जिए तो कैसे जिए, सोम भाई. कभी किसी का बुरा नहीं किया इस ने. इसी के साथ ऐसा क्यों?’’

वे मेरे गले से लग कर रोने लगे थे. मैं उन का कंधा थपथपा रहा था. उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है. कैसे जिएं हम. जाएं तो जाएं कहां. कितना भी संभल कर चलो, कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि सब धरा का धरा रह जाता है.

Hindi Story Collection : खुद की तलाश

लेखिका- नमिता दुबे

Hindi Story Collection :अपनेअंदर की घुटन को मन में दबा कर मानसी छत पर चली आई. बाहर की ताजा हवा में सब से दूर, वह फिर से सामान्य रूप से सांस ले पा रही थी. उस ने मन ही मन प्रार्थना की कि उस के व्यवहार की विचित्रता पर किसी का ध्यान न जाए. यह लगभग रोज का नाटक हो गया था, विभा आती और सारा परिवार उस के इर्दगिर्द इकट्ठा हो जाता. इस दौरान मानसी बेहद मानसिक यातना से गुजरती थी. ऐसा नहीं कि उसे अपनी छोटी बहन से प्यार नहीं था. बहुत प्यार था उसे विभा से पर परिस्थिति ही कुछ ऐसी हो गई थी कि अपनी बहन को देखते ही उस का मन खिन्न हो उठता. ‘यह फैसला भी तो तुम्हारा ही था. अब उस पर पछताने से क्या होगा?’’ उस के मन ने उसे दुत्कारा और उस की आंखों के सामने वह शाम पुन: सजीव हो उठी, जो इन घटनाओं की गवाह थीं.

एमए के प्रथम वर्ष की परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करने के उपरांत बड़ी उमंगों के साथ घर आई थी छुट्टियां मनाने. सिविल सर्विस या लैक्चररशिप के बीच जू झ रही थी. यों तो उस का मन बचपन से ही सिविल सर्विस में जाने का था, पर जैसेजैसे उस की निकटता साहित्य से बढ़ी और बीए के बाद एक अस्थायी शिक्षक के रूप में उस ने जिस सुख का अनुभव किया था, उस के परिणामस्वरूप उस का  झुकाव लैक्चररशिप की ओर अधिक होता गया. बच्चों को किसी सुंदर पंक्ति से परिचित कराने के साथसाथ उन में किसी जीवनमूल्य को निविष्ट करना उसे एक अनूठे रोमांच से भर देता था. घर आई थी तो सोचा था परिवार वालों का परामर्श लेगी पर उसे आए एक दिन भी कहां बीता था कि उस के सामने विभोर के रिश्ते का प्रस्ताव रख दिया गया. प्रस्ताव क्या था, आदेश ही तो था. मम्मी खुश होहो कर तसवीरें दिखा रही थीं और दादी जन्मपत्री के मिलान की व्याख्या कर रही थीं.

इस अचानक हुए वज्रपात पर उस का संपूर्ण अंतर्मन आतंकित हो उठा था. लगा जैसे सांस लेना ही मुश्किल हो जाएगा. कितनी कठिनाई से मुंह से निकला था ‘न.’ उस के इस एक धीमे से निकले शब्दों ने घर को सन्नाटे में डुबो दिया था.

पापा ने बात संभालने की कोशिश की थी, ‘‘मेरे बचपन का दोस्त है अशोक. उस का लड़का है विभोर.’’

उसे पता था कि हाल ही में उस के पापा ने फेसबुक के माध्यम से अपने पुराने दोस्तों से पुन: संपर्क स्थापित किया था. स्वयं उस ने ही तो इतने उत्साह से उन की सहायता की थी. उसे क्या पता था कि स्वयं अपने लिए ही गड्ढा खोद रही है. अभी तो उसे आगे पढ़ना है, विदेश से फैलोशिप करनी है… इतना कुछ है करने को. ऐसे में वह अपने सपनों की बलि चढ़ा अपना जीवन घरगृहस्थी में कैसे निछावर कर सकती है?

वह ‘नहींनहीं’ की माला जपने लगी. विभा ने ही तो उसे  झक झोर कर उस की तंद्रा भंग की थी.

शाम को खाना खाते हुए इस बारे में सिर्फ विभा ने इतना भर कहा था, ‘‘शादी ही तो है? इतनी कौन सी बड़ी आफत आन पड़ी है तुम पर? लड़का भी तो कितना अच्छा है. पापा भी वादा कर आए हैं. तुम न होती बीच में तो मैं ही शादी कर लेती.’’

दादी ने उसे डपट कर चुप तो करा दिया पर मानसी ने गौर किया कि मां ने पापा को गहरी निगाहों से ताका.

अगले दिन शांत माहौल में सुबहसुबह मां ने फिर वही बात छेड़ी थी. मानसी ने एक ठंडी सांस ली. कल रात उस ने उन्हें अपनी योजनाओं से अवगत कराया था. अभी उसे आगे पढ़ना है, अपना कैरियर बनाना है. शादी के बाद ये सब कैसे संभव होगा? उस के मम्मीपापा ने हमेशा उस का उत्साहवर्धन किया. उसे परिस्थितियां दीं कि वह अपने हिसाब से जी सके, फिर आज जब उस के जीवन के इतने महत्त्वपूर्ण फैसले पर बात आई तो वे अपना निर्णय उस पर थोपना चाहते हैं, यह कैसा न्याय हुआ?

‘‘बेटा, तेरी पढ़ाईलिखाई से किसी को कोई दिक्कत थोड़े ही है,’’ मां ने बड़े प्यार से उसे सम झाना चाहा पर उस ने बीच में उन की बात काट दी, ‘‘होनी भी नहीं चाहिए. पर बात यह नहीं है मां. तुम ने शादी के बाद पढ़ाई करी है, मैं जानती हूं लेकिन मैं तुम जैसी नहीं हूं मां, जो घर में, पति में, बच्चों में ही अपने संसार को पा ले… मैं न तो पढ़ाई में मन लगा पाऊंगी न ही घर में. यह तो सभी के साथ अन्याय होगा न?’’

मां कुछ वक्त शांत रहीं. उन्होंने कहा कुछ नहीं, लेकिन उन के भावों से ऐसा भी नहीं लगा कि वे मायूस या दुखी हैं. उन्हें पता है कि मानसी अत्यंत महत्त्वाकांक्षी लड़की है. उस का सपना अपने पैरों पर खड़े होना है और वे उस की दृढ़ता की और निष्ठा की कायल भी हैं. बचपन से ही उन की बड़ी बेटी का मन न कभी बननेसंवरने में लगा, न ही उस की कोई खास दोस्ती रही है. सारा ध्यान उस ने अपने व्यक्तित्व को निखारने में ही लगाया है.

एक अंतराल के बाद बगीचे के बीचोंबीच लगे आम के पेड़ पर निगाह टिकाए

उन्होंने उसे बताया, ‘‘विभा ने बीए के बाद आगे पढ़ने से मना कर दिया है.’’

मानसी चौंकी. उसे लगा मां उसे फिर से मनाने का प्रयास करेंगी. फिर उस ने मां के कहे शब्दों पर गौर किया. आगे नहीं पढ़ेगी? फिर क्या करेगी? नौकरी करेगी? कोई और कोर्स जौइन करेगी?

मां ने उस के चेहरे पर तैरते प्रश्नों को हमेशा की तरह सही ताड़ा, ‘‘तुम तो जानती हो कि उस का मन नौकरी करने का कभी नहीं था.’’

सच ही तो कह रही हैं मां. विभा उस के एकदम विपरीत रही है. पढ़ाई तो जैसेतैसे कर ली पर नौकरी वह नहीं  करेगी. कहती है कि अपनी लाइफ सोशलाइजिंग में स्पैंड करेगी और फिर थोड़ाबहुत सोशल वर्क भी कर लेगी. यु नो फौर गुडविल.’ मानसी ने हंसते हुए अपना सिर हिलाया. उस की बहन में कभी परिपक्वता आएगी भी या नहीं?

‘‘विभा शादी के लिए तैयार है. सोचा था तेरी शादी के बाद उस की शादी तुरंत कर देंगे,’’ मां ने सीधेसीधे बोल दिया.

मानसी को  झटका लगा. अभी उम्र ही क्या है विभा की. बच्ची है वह. पर इस से पहले कि वह अपना मंतव्य व्यक्त करती, मां ने बात आगे बढ़ा दी, ‘‘विभोर की अभीअभी सरकारी नौकरी पक्की हुई है. अशोकजी, तुम्हारे पापा के पुराने दोस्त हैं, इस खातिर रिश्तों की बाढ़ पर ध्यान नहीं दे रहे हैं. विभोर सैटल होना चाहता है.’’

मां ने बात जारी रखी, ‘‘विभा की दिलचस्पी पढ़ाई और कैरियर में नहीं है. जबरदस्ती उसे आगे पढ़ने भी नहीं भेज सकते. घर में वह पुस्तकें पढ़ने में, पेंटिंग आदि करने में मग्न है, लेकिन कितने दिन चलेगा? उस की सहेलियों को तो तुम जानती ही हो. कहीं कुछ उलटासीधा न कर बैठे.’’

मानसी को याद हो आए विभा के कालेज के प्रसंग. आए दिन कोई न कोई उसे कुछ न कुछ थमा देता. वैलेंटाइन डे के आसपास तो सारा घर टौफीचौकलेट और अन्य गिफ्टों से भर जाता. कुछ पत्र भी तो थे जो उस ने मानसी को गोपनीयता में दिखाए थे. उन मतवाले आशिकों की ऊटपटांग कविताओं की दोनों बहनों ने मिल कर खाल उधेड़ी थी.

‘‘मैं सम झ रही हूं मां पर इस का यह तो मतलब नहीं कि आप लोग मेरी जिंदगी से खिलवाड़ कर लें,’’ उस ने अपनी बात रखी.

‘‘तू नहीं सम झी रे मानू,’’ मां ने प्यार से फटकारा, ‘‘अगर तु झे वाकई शादी नहीं करनी तो हम विभा की बात चलाएं?’’

मानसी स्तब्ध रह गई.

‘‘अब वह पहले जैसा जमाना तो रहा नहीं कि बड़ीछोटी की शादी सीक्वैंस में ही हो,’’ मां ने चुप्पी तोड़ी. फिर शरारत भरी निगाहों से मानसी को देखते हुए उन्होंने कहा,‘‘वैसे भी मेरी मानसी पूर्णत: आत्मनिर्भर है,’’

‘जिस लड़की ने अपने हरेक परिधान तक का चुनाव भी स्वयं किया हो, अपने विषयों का चुनाव खुद किया, अपने जीवन का हर चुनाव अपनी मरजी से किया हो उस से उसे यह अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है कि वह अपने जीवनसाथी का चुनाव किसी और को करने देगी.’ मां की बातों के निहितार्थ को सम झने में तीव्रबुद्धि मानसी को देर नहीं लगी. उस के जीवन में ऐसा कोई नहीं था. फिर शायद मां की ठिठोली का ही नतीजा था कि वह गुलाबी हो गई. अंतत: उस ने विभोर के रिश्ते को अस्वीकार कर के विभाविभोर के रिश्ते को मौन स्वीकृति दे दी.

अभी कुछ माह ही हुए थे शादी को संपन्न पर जैसे ही विभा अपने हनीमून के रगीन किस्से उसे सुनाने लगती, मानसी को लगता कि इतना लंबा अरसा बीतने के बाद भी विभा इतना रस ले कर कैसे सब सुना सकती है. बाली गए थे वे दोनों हनीमून पर. हालांकि मानसी ने भारत के बाहर कदम भी नहीं रखा पर फिर भी उसे ऐसा लगता था मानो उस ने बाली की संपूर्ण यात्रा कर ली हो. यह नहीं तो सब के साथ बैठ कर कभी किसी पार्टी की व्याख्या करना, कभी किसी गैटटुगैदर की. इतना समय आखिर मिलता कैसे है किसी को?

जब उस के नौकरी जौइन करने का समय आया तो उस ने चैन की सांस ली. अपने घर से इतनी दूर आ कर उसे शुरू में तो बहुत अच्छा लगा. आज तक कभी साउथ इंडिया नहीं देखा था. बैंगलुरु जैसे शहर में रहना उसे खूब आनंददायक लगा. न ज्यादा गरमी, न ज्यादा सर्दी. उस के शहर पटना से तो काफी बेहतर था. पर धीरेधीरे नए माहौल, नए पकवान का रंग फीका होने लगा और घर की याद सताने लगी. हालांकि पढ़ाई के लिए वह दिल्ली में रहती थी पर जब मौका लगा घर निकल गई. यहां नई भाषा, नई संस्कृति के बीच उसे पराएपन का एहसास होने लगा. सिर्फ यह संतोष था कि काम में मन लग गया था.

कुछ बातों को ले कर उस की अपने हैड से अनबन होने लगी है. उसे कभीकभी लगता है कि उस के एचओडी उस के औरत होने के कारण उस पर ऐसी कई जिम्मेदारियां लाद देते हैं, जो उन के अनुसार औरतों को शोभा देती हैं. मसलन, कालेज की ऐनुअल फेस्ट आयोजित करना. ऐसा नहीं है कि उसे इस से कोई परेशानी है पर जब विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय साहित्यक सम्मेलन व्यवस्थित करने का उस ने अनुरोध किया था तब उसे संकेतात्मक ढंग से सम झा दिया गया था कि देश के साहित्यकारों को एकत्रित करने का भार उस से वहन नहीं होगा.

मन बहलाने के लिए विभा को फोन लगाया तो मनोदशा और बिगड़ गई. मुहतरमा अपनी ननद के साथ किसी पार्टी में जाने की तैयारी में व्यस्त थीं, ‘‘अरे दीदी, इतनी सुंदर साड़ी भेंट दी है जीजी ने मुझे दीवाली पर, मैं क्या बताऊं.’’

उस का खून जल उठा. एक विभा है जो दिनरात मौजमस्ती में लगी रहती है और एक वह है जो यहां घर से इतनी दूर सड़ रही है. उस की बचपन से ही अपने में मग्न रहने की आदत के कारण उस की किसी से इतनी मित्रता नहीं हुई थी कि उसे दीवाली के लिए निमंत्रण मिलते. वैसे भी यहां लोग दीवालीहोली कम ही मनाते हैं. मां ने बुलाया था घर, पर क्या करती छुट्टी ही नहीं थी इतनी.

रहरह कर उस का ध्यान विभा पर चला जाता कि वह यहां नितांत अकेली है और विभा ने उस का रिप्लेसमैंट भी खोज लिया. घर बसाना यही उस का सपना था.

‘मैं तो उस से बिलकुल अलग किस्म की जीव हूं. फिर आजकल उस के बनसंवर कर नित पार्टी में सब के आकर्षण का केंद्र बनने से, उस के घरपरिवार में मानसम्मान पाने से मु झे बुरा क्यों लग रहा है? आखिर क्यों?’

‘हां मैं स्वीकारती हूं कि मैं मानसी, अपनी छोटी बहन से ईर्ष्या कर रही हूं,’ उस का मन बोल उठा.

‘पर क्यों? ये सब तो मेरा ही चुनाव है,’ मस्तिष्क ने जवाब दिया.

सारी रात दिल और दिमाग के वादविवाद में गुजर गई. उसे स्मरण हो आया कि कैसे उस ने जब घर में बताया था कि वह बैंगलुरु में नौकरी का प्रस्ताव स्वीकार चुकी है तब दादी ने कितना बवाल मचाया था. अपने कपड़े पैक कर वह मम्मीपापा और दादी के सामने दृढ़तापूर्वक उन के सवालों के जवाब दे रही थी. उस के मम्मीपापा ने उस की इच्छा का सम्मान किया. उस के साहस और उस की महत्त्वकांक्षा को सलाम किया. जब वे संतुष्ट हो गए कि वह इतनी दूर, अकेले सुरक्षित रह सकेगी तो उन्होंने शुभकामनाओं और आशीर्वाद के साथ उसे विदा किया. अब क्या हो गया उस के उस साहस को?

बैंगलुरु में रह कर विभा के सुखद जीवन की कल्पना मात्र से उसे इतनी तकलीफ होती थी और अब यहां आ कर अपनी आंखों से ये सब देखना उस के लिए असहनीय हो गया. मन शांत होने पर उसे एहसास हुआ कि वह विभा के सुख के कारण दुखी नहीं थी, अपितु अपने जीवन से दुखी है. उस ने संकल्प किया कि वह जल्द ही वापस जाएगी और अपने कैरियर पर ध्यान केंद्रित करेगी. उस का कार्य ही एक ऐसी वास्तु थी और साहित्य एक मात्र वह साधन था, जो उसे प्रसन्नता प्रदान करते थे.

देखते ही देखते वक्त पंख लगा कर उड़ गया. इधर उस के कैरियर ने रफ्तार पकड़ी और उधर विभा की जिंदगी ने भी. इन 5 वर्षों में क्या कुछ नहीं बदल गया. इंसान की सभी योजनाएं क्रियान्वित हों, जरूरी नहीं है. वक्त के साथ विभा दो बच्चों की मां बन गई और मानसी ने यूएस से फैलोशिप के पश्चात पीएचडी कर ली. वहीं प्रोफैसर बन जिंदगी का लुत्फ उठाने लगी.

एक अच्छी शिक्षिका होने के नाते उस की ख्याति दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. विद्यार्थी ही नहीं शिक्षक भी उस की बुद्धि का लोहा मानते थे. इस के साथसाथ दुनियाभर की साहित्यिक गोष्ठियों में भी वह सम्मिलित होने लगी थी. उस की रचनाओं के चर्चे होने लगे थे. उस का अपना सर्कल बन गया, पार्टियों में जाना भी शुरू कर दिया. बहुत लोगों से मुलाकात होती रहती.

कुछ वक्त बाद वह भारत लौट आई. विदेश की भूमि पर स्वतंत्रतापूर्वक जो जीवन व्यतीत कर आई थी, वह विचार भी अपने साथ ले आई. अपनी यात्राओं पर उस का कई भारतीयों से परिचय हुआ था, जिन से उस का मानसिक जुड़ाव हुआ था और फिर कितनी कौन्फ्रैंस में उस ने भारत आ कर भी भाग लिया था. हर बार मम्मीपापा से मिलने आती और विभाविभोर के लिए तोहफे लाती. जब उन की जिंदगी में अभय और मित्रा ने दस्तक दी, तब बड़ी खुशी के साथ वह उन के लिए भी तोहफे लाने लगी.

अब जब हमेशा के लिए लौट आई है, तो पटना जाने में पहले वाली आतुरता नहीं रही. मन किया कि सब काम निबटा कर, कई दिन आराम से वहां बिताएगी. पिछली बार तब गई थी जब दादी ने संसार से सदा के लिए विदा ले ली थी. यह भी एक वजह थी कि वह जाने में हिचकिचा रही थी.

फुरसत पा कर जब घर आई और विभा को वहां देखा तो प्रथम तो उस की

खुशी का ठिकाना नहीं रहा पर जब उसे ज्ञात हुआ कि बच्चों को ले कर विभा माहभर पहले घर आ गई थी तो उस का माथा ठनका.

जब मां से पूछना चाहा तो उन्होंने बगीचे के बीच पेड़ को गहरी, दुखी निगाहों से देखते हुए बस इतना ही कहा था कि, विभा से पूछो तो बेहतर है. रात को खाने के बाद जब दोनों बहनें छत पर गईं और काफी देर मौन बैठी रहीं, तब अचानक मानसी को एहसास हुआ कि विभा कितनी बड़ी हो गई है. ऐसा लगा मानो अभी से अधेड़ हो गई हो.

‘‘क्या बात है विभा?’’ उस ने कोमल स्वर में पूछा.

‘‘तुम कितनी खुशहाल हो दीदी,’’ विभा के मुंह से सहसा बोल फूट पड़े, ‘‘तुम्हारी जिंदगी, तुम्हारी है.’’

इस का क्या जवाब दे, मानसी को सू झा नहीं.

विभा ने ही कहना जारी रखा, ‘‘मेरी जिंदगी तो दीदी मेरी रही ही नहीं.’’

मानसी ने हलके से विभा के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो विभा?’’

पर विभा मानो अपनेआप से ही बतिया रही थी, ‘‘तुम्हारे आगेपीछे दिनभर असिस्टैंट घूमते रहते हैं, तुम्हारे घर के कामकाज के लिए मेड है, कुक है. इतने अवार्ड मिलते रहते हैं, पेपर में तसवीरें छपती रहती हैं,’’ उस ने अचंभित निगाहों से मानसी को देखा. उस की आंखों में मानसी कई भाव तैरते नजर आए. विस्मय, गर्व, ईर्ष्या,भय सभी का सम्मिश्रण था उस की निगाहों में, ‘‘तुम्हारी अपनी जिंदगी है दीदी. तुम्हारा अपना वजूद है.’’

विभा, विभा, विभा, उस का हृदय तड़प उठा. उस की बहन इतनी बड़ी हो कर भी, कितनी मासूम, कितनी भोली है. उसे बचपन की याद हो आई जब वह अपनी बहन की रक्षक हुआ करती थी. आज भी उस ने अपनी छोटी बहन को बांहों में भर लिया, मानो सारी दुनिया से उस को बचा लेगी. ‘‘तुम विभा हो. दादी की परी विभा. मांपापा की विभा. मेरी विभा. विभोर की विभा. अभय और मित्रा की मां विभा.’’

इस पर विभा के आंसू निकल आए, ‘‘पर मेरी अपनी क्या पहचान है दीदी?’’

‘‘क्यों नहीं है री पगली?’’ मानसी ने अश्रुसिक्त मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘तुम विभा हो, जिस के कारण दादी इस संसार से खुशीखुशी विदा हुईं. तुम विभा हो, जिस के नाम से आज शहरभर के लोग मम्मापापा को जानते हैं.’’

भले ही मानसी की अपनी पहचान थी, लेकिन शहर के सोशल सर्किल में मांपापा विभा के अभिभावक के रूप में मशहूर थे.

‘‘जानती हो विभा, जब मैं अकेले बैंगलुरु में रहती थी तब मु झे तुम से काफी ईर्ष्या होती थी. मैं तुम्हें देखदेख के कुंठित हो उठती थी.’’

‘‘क्या? मु झ से ईर्ष्या? मैं ने ऐसा क्या किया है दीदी जीवन में?’’ विभा ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘तुम ने जिंदगी में रिश्ते बनाए हैं विभा… यह हर किसी के बस की बात नहीं होती है. तुम में साहस है कि तुम अपनी परवाह किए बिना अपनेआप को पूर्णत: समर्पित कर दो. हां, मेरी आज अपनी एक पहचान है विभा, मैं ने यही पहचान सर्वथा चाही थी. तुम स्वयं से पूछो, क्या तुम्हें जीवन से वही चाहिए जो मु झे?’’

काफी देर शांत रहने के बाद विभा ने सिर ‘न’ में हिलाया, ‘‘फिर तुम मु झ से क्यों जलती थीं दीदी?’’ उस ने कुतुहल से पूछा.

‘‘बस तुम्हारी बातें सुनसुन कर… नित घूमनाफिरना, मिलनाजुलना. हालांकि ये सब सम झ में ज्यादा नहीं आता पर फिर भी तुम्हें देख ईर्ष्या होती थी.’’

‘‘मैं तो बिलकुल बच्ची थी, दीदी,’’ विभा ने एक दुखी मुसकान के साथ कहा.

‘‘मैं बहुत बाद में सम झी विभा,’’ मानसी ने विभा का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘मु झे ईर्ष्या तुम से नहीं थी. मु झे ईर्ष्या तुम्हारे जीवन से थी , इस बात से थी कि तुम ने जो जीवन से चाहा वह तुम्हें मिल गया पर जो मैं चाहती थी वह मु झ से काफी दूर था. इसलिए मैं ने मन कड़ा कर अपना सबकुछ अपने कैरियर को बनाने में दे दिया.’’

दोनों कुछ देर शांत रहीं. चांद आसमान में काफी ऊपर तक चढ़ गया था.

‘‘पर मु झे कहां कुछ मिला दीदी?’’ विभा ने थके स्वर में बोला.

‘‘हुआ क्या है विभा? किस बात ने इतना दुखी कर दिया है तुम्हें?’’ यह कह मानसी ने उसे गले लगा लिया.

बस इतने भर से उस के मन का बांध फूट पड़ा और वह 1-1 कर सब बताती चली गई…

कैसे अभय के होने के कुछ वक्त बाद उस के ससुर, अशोकजी की तबीयत खराब होने लग गई. विभोर का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. छोटे बच्चे और पिता की बिगड़ती हालत के कारण उस ने अकेले ही वहां रहना उचित सम झा. विभा और उस की ननद शीला ने खूब सेवा की पर उन्हें बचाया नहीं जा सका.

इस दौरान काफी जोरआजमाइश के बाद विभोर का स्थानांतरण वापस पटना हुआ पर आर्थिक स्थिति बिगड़ गई. जब विभा प्रैगनैंट हुई तो विभोर ने अबौर्शन की सलाह दी. तब शीला ने सम झाबु झा कर विभोर को मनाया था. कुछ वक्त सब ठीक रहा, लेकिन जब शीला ने ससुराल से ज्यादा मायके रहना शुरू कर दिया तो सभी को आश्चर्य हुआ. विभा को ज्ञात था कि शीला जीजी और जीजाजी के संबंध बहुत मधुर नहीं हैं. उसे डर लगा कि मायके में ज्यादा समय देने के कारण कहीं वह जीजी से रुष्ट न हो जाएं. फिर आखिरकार एक दिन टूट कर शीला ने बता ही दिया कि वह वापस नहीं जाएगी. कोर्टकचहरी में पैसा बहा सो अलग. मां की तबीयत फिर खराब होने लगी. रोजरोज के तनाव, पैसों को ले कर  झगड़े से तंग आ कर आखिर विभा बच्चों को ले कर घर आ गई.

एक लंबे वक्त तक दोनों बहनें एकदूसरे से लिपटी रहीं, ‘‘तुम ने पहले कुछ क्यों

नहीं बताया विभा?’’

‘‘परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी,’’ उस ने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘और क्या बताती दीदी?’’ एक रूखी हंसी हंसते हुए उस ने कहना जारी रखा, ‘‘तुम कह रही थीं कि मैं रिश्ते निभाती हूं. अब देखो न दीदी आज जब मेरे परिवार को मेरी सब से ज्यादा जरूरत थी, मैं परिस्थितियों से घबरा कर भाग आई.’’

‘‘विभा, विषम परिस्थितियों से जू झते हुए हर किसी के लिए आवश्यक हो जाता है कि कभीकभी थोड़ी दूरी बना ली जाए. तुम वहां रहती तो बच्चों पर भी गलत प्रभाव पड़ता.’’

‘‘हमारी कई दिन से बात नहीं हुई है दीदी.’’ उस ने घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘अगर मेरे साथ भी शीला जीजी जैसा हुआ तो…’’

‘‘बेकार की बातें मत सोचो विभा. वह तुम्हें याद कर रहा होगा पर नहीं चाहता कि तुम कोई दबाव महसूस करो. तुम ने उसे बताया कि वापस कब जा रही हो?’’ तभी अचानक कुछ सोचते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम वापस तो जा रही हो न?’’

‘‘हां, दीदी,’’ उस ने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया. ‘‘वह मेरा घर है.’’

कुछ दिन बाद जब विभा वापस अपने घर लौटी तब मानसी भी उस के साथ गई.

‘‘भाभी,बड़ी देर लगा दी. अब संभालो अपनी गृहस्थी. एक चीज नहीं मिलती थी मु झे, विभोर ने पागल कर दिया,’’ शीला रोते हुए विभा के गले लग गई थी.

काफी देर तक ननदभाभी ऐसे ही खड़ी रहीं. विभोर गाड़ी से सामान निकालने में व्यस्त था और बच्चे दादी के कमरे की ओर दौड़ गए थे. मानसी भी उन के पीछे हो ली. उस ने वह मौन संवाद देखा था, जब विभोर उन्हें घर से लेने आया था. बिन कुछ कहे ही विभाविभोर ने एकदूसरे से माफी मांग ली थी. बच्चे पापा क गले लग गए थे. थोड़ेबहुत शिष्टाचार के बाद वे लोग निकल पड़े थे.

मानसी यों तो विभा को संबल देने आई थी पर उस के आने का एक कारण और था. उसे बस सही मौके की तलाश थी. शाम को खाना शीला ने ही बनाया था, ‘‘तुम थक गई होंगी, भाभी’’ कह कर उस ने विभा को कुछ नहीं करने दिया.

उन सब के आपसी प्रेम को देख कर मानसी को बड़ी खुशी हुई. रात को जब सब सोने चले गए, मानसी बगीचे में टहलने निकल गई. अब उस के पास कुछ ही दिन थे, फिर उसे वापस जाना होगा. वह विचारों में मग्न थी कि तभी किसी के वहां होने का एहसास हुआ. उस ने पलट कर देखा तो शीला खड़ी थी. दोनों में शुरू में इधरउधर की बातें होती रहीं…

‘‘जब पापा…’’ कहतेकहते रुक गई थी शीला, ‘‘तब उन के पास विभा ही थी.’’

मानसी ने उस की आंखों में वेदना को देखा.

‘‘फिर विभोर का इतना दूर होना, वापस आने पर…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.

मगर मानसी सम झ गई कि वह क्या कहना चाहती है.

‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गईं. लंबे अरसे बाद मैं ने विभा का यह रूप देखा है.’’

शीला के इस कथन पर मानसी के अधरों पर स्वत: ही मुसकान खेल गई.

उसी रात मानसी और शीला ने निकट भविष्य के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय

ले लिए.

1 वर्ष बाद मानसी, मम्मीपापा के पास जा रही है. इस बार उस की यात्रा एकांत में नहीं है. कुछ माह में ही शीला ने देश की सर्वोच्च साहित्यिक संस्थान में अपनी जगह बना ली. अब वह देशभर में लिटरेरी इवेंट्स करवाती है. संभवत: शीघ्र ही वह इंटरनैशनल कम्युनिटी में भी इवेंट्स और्गेनाइज करे. गत वर्ष की घटनाएं मानसी के मन में उभरने लगी.

उस ने कितना सही फैसला लिया था शीला को और्गेनाइजर बनाने का. उस निर्णय का इतना प्रभावपूर्ण परिणाम निकलेगा इस की कल्पना तो उस ने भी नहीं की थी. जब विभा ने उसे सबकुछ बताया था तभी उस ने सोच लिया था कि वह शीला की जितनह बन पड़ेगी उतनी मदद करेगी. उस रात जब शीला उस से बात करने आई, उसे ऐसी अनुभूति हुई मानो यदि स्वयं मानसी ने कभी दबाव में आ कर आननफानन में विवाह कर लिया होता तो वह भी यों ही बिखर गई होती. तभी उस ने निश्चय कर लिया था कि वह शीला की हरसंभव सहायता करेगी. इसी उद्देश्य से वह उसे अपने साथ दिल्ली ले आई.

विभा और विभोर की गृहस्थी वापस पटरी पर आ गई. शीला को काम संभाले कुछ ही सप्ताह हुए थे कि अशोकजी ने जग को अलविदा बोल दिया. जाने से पहले उन्होंने बड़ी सहृदयता से मानसी का धन्यवाद किया था. उन को प्रसन्न करने में मानसी का भी योगदान था, इतना भर उस के लिए बहुत था.

आज जब वह पटना जा रहे हैं, इस के पीछे सिर्फ परिवार से मिलना ही इकलौता

उद्देश्य नहीं है. एक तो उन की एक गोष्ठी है, जिसे शीला संभाल रही है और जिस में मानसी अपनी रचना पढ़ने वाली है. दूसरी और अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस गोष्ठी से एकत्रित राशि एक संस्था जिस से कि हाल ही में विभा जुड़ी है, उस के द्वारा एक सेहतगाह को जाएगी. इस सैनेटोरियम में उन बुजुर्गों की देखभाल होती है, जिन का कोई नहीं है या जिन की देखभाल का जिम्मा उन का परिवार उठा नहीं सकता या उठाना नहीं चाहता.

‘यदि हमें पता हो कि जिंदगी में क्या चाहिए तो उसे पा लेने की यात्रा तनिक सरल हो जाती है,’ मानसी के मन में खयाल आया. वह ट्रेन के बाहर फैली सुंदर धूप को निहार रही थी. ‘यदि नहीं भी पता हो, तो कदाचित यात्रा आरंभ होने पर उस का एहसास हो जाता है. यह यात्रा होती तो सब की एकांत में ही है पर कभीकभी 2 लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो अपना एकांत आपस में बांट सकते हैं. वह रिश्ता सिर्फ एक ही हो ऐसा तो आवश्यक नहीं. कभी हमें जीवन में सहारा एक दोस्त से मिलता है, कभी परिवार से, कभी किसी अजनबी से भी. हरकोई अपना जीवन सिर्फ किसी एक रिश्ते के पीछे भागने में लगा दें, यह तो बुद्धिमत्ता नहीं होगी.’

मानसी को पता है बहुत से लोग आज भी अपने जीवन का आधार किसी अन्य को बनाना ही जीवन का महत्त्व सम झते हैं. हो सकता है ऐसा करना आसान होता हो या हो सकता यह दुष्कर हो, परंतु जीवन में सभी का एक ही मार्ग हो, यह तो संभव नहीं. उसे उम्मीद है कि लोग यह धीरेधीरे सम झने लगेंगे और फिर शीलाओं को यों टूट, बिखर कर पुन: खुद को तलाशने की जरूरत नहीं होगी.

‘‘एक अच्छी शिक्षिका होने के नाते उस की

ख्याति दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. विद्यार्थी ही नहीं

शिक्षक भी उस की बुद्धि का लोहा मानते थे….’’

Interesting Hindi Stories : देवरानी के आने के बाद बदल गई राधिका की जिंदगी?

लेखिका- मीना गुप्ता

Interesting Hindi Stories : ‘‘कहींदूर जब दिन ढल जाए सांझ की दुलहन बदन चुराए…’’ गाना गुनगुनाते हुए राज बाथरूम से निकला और फिर बोला, ‘‘भाभीजी, मेरा नाश्ता… आज मुझे जल्दी जाना है.’’

‘‘क्या बात है देवरजी बड़े खुश नजर आ रहे हैं? रोज सांझ की दुलहन को याद करते हैं?’’

‘‘कुछ नहीं भाभी रेडियो पर बज रहा था न, तो यों ही दिल किया गुनगुनाने का.’’

‘‘जब कोई गीत गुनगुनाने का दिल करे तो इस का क्या मतलब होता है जानते हैं?’’

‘‘नहीं जानता,’’ राजन ने लापरवाही से कहा.

‘‘मतलब इस गीत के लफ्ज अंदर कहीं जगह बना रहे हैं. वह हर गीत जो हमारी जबान पर बारबार आता है कहीं न कहीं हमारे जज्बातों से जुड़ कर आता है.’’

‘‘ओह भाभी, आप भी… कोई नहीं है… आप यों ही…’’

‘‘कोई औफिस में देख ली क्या? मुझे धीरे से बता दीजिए. मैं आप के भैया से कह कर सब बात तय कर लूंगी.’’

‘‘नहीं है भाभी. अगर होती तो जरूर बताता.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां भाभी, बिलकुल,’’ कह राजन ने राधिका को थोड़ा मुसकरा कर देखा और फट से बोला, ‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए.’’

‘‘मुझे तो सांझ की दुलहन ही चाहिए.’’

‘‘देवरजी वह कैसी होती है. हम ने तो ऐसी कोई दुलहन सुनी ही नहीं.’’

‘‘बस बहुत सुंदर… ढलती शाम की तरह शांत, अपने आगोश में सारे उजाले को समेटे हुए… 2 पर्वतों के बीच डूबते सुरमई सूरज की तरह… पेड़ों की शाखाओं से झांकती किरणों की तरह, शाम को घर लौटते परिंदों की तरह और तारों भरे झिलमिल करते अंबर की तरह, जागती आंखों में सपनों की तरह, बहुत सुंदर.’’

‘‘तो आप यह क्यों नहीं कहते कि आप को किसी कविता से शादी करनी है?’’

‘‘कविता नहीं भाभी हकीकत होगी वह, हकीकत… वैसी ही हकीकत जैसे शाम अपनेआप में स्वप्निल हो कर भी एक हकीकत है. मुझे और कुछ नहीं चाहिए. कोई दहेज नहीं… कोई डिमांड नहीं.’’

‘‘तो मैं ये समझूं कि आप तलाश में हैं?’’

‘‘अभी तक ऐसी कोई नहीं.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘अभी तो सिर्फ बंद आंखों में झांकती है.’’

राधिका ने मजाक किया, ‘‘तो क्या कहती है? मैं भी तो सुनूं.’’

‘‘कुछ नहीं बस आती है और चली जाती है… कल शाम को आने का वादा कर के.’’

‘‘देवरजी ने सपने देखने शुरू कर दिए हैं… शुभ संकेत… बाबूजी को दे देती हूं,’’ नाश्ते की प्लेट पकड़ाते हुए राधिका मुसकराई.

राजन राधिका का देवर, बेहद भावुक और सहृदय. मन गंगा की तरह पवित्र…

सागर की गहराई भी उसे न छू सके. सब के साथ सब का हो कर रहना उस की खास पहचान. सारी कालोनी राजन भैया कह कर बुलाती और आतेजाते सभी से अनजाने ही पहचान हो जाती. कब, किस से कैसे पहचान बनी पूछने पर पता चलता कि यों ही चलते चलते.

रास्ते में कोई मिला अपनी परेशानी सुनाई और राजन भैया ने बिना जानेपहचाने कर दी मदद.

कौन था पूछने पर कहता कि जरूरतमंद था… मदद कर दी.

‘‘कब मिला था पहली बार वह तुम्हें?’’

‘‘बस यों ही चलतेचलते.’’

भाभी मजाक कर उठती, ‘‘देवरजी यों ही चलतेचलते वह नहीं मिलती?’’

‘‘वह ऐसे नहीं मिलेगी.’’

‘‘तो फिर कैसे मिलेगी?’’

‘‘उस के लिए तो आप को कोशिश करनी होगी. चलतेचलते तो बहुत मिलती हैं, लेकिन भाभी वह… वह नहीं होती.’’

राधिका और बाबूजी दोनों परेशान कि कब हां करेगा? कहता था कि शादी ही नहीं करूंगा.

बहुत दिनों बाद उस दिन उसे खुश देख कर राधिका ने यह सवाल किया कि कोई पसंद कर ली क्या?

राजन औफिस चला गया तो राधिका सोचने लगी कि कितना भोला है यह लड़का. आज के जमाने में इतना पवित्र सौंदर्य कहां मिलेगा? कैसे ढूंढें? आज शिब्बू से बात करती हूं.’’

‘‘क्या सोच रही हो?’’ अपने कमरे से बाहर आते हुए शिब्बू ने पूछा.

‘‘सोच रही हूं इतनी सुंदर कहां से लाएंगे?’’

‘‘क्या लेने जा रही हो तुम.’’

‘‘देवरजी के लिए सांझ की दुलहन.’’

‘‘क्या मजाक करती रहती हो?’’

‘‘हां अभीअभी कह कर निकले कि मुझे तो सांझ जैसी दुलहन चाहिए… वह स्वप्निल सांझ की तरह सुंदर हो… आज तुम्हारे भाई साहब भी पूरे शायर नजर आ रहे थे.’’

‘‘तो देवर किस का है?’’ शिब्बू ने राधिका की ओर तिरछी मुसकान डाल कर कहा, ‘‘चलो, कुछ बोला तो.’’

‘‘कुछ नहीं बहुत कुछ बोले.’’

‘‘तो ढूंढ़ दो न बहुत कुछ.’’

‘‘कहां से लाऊंगी ऐसी परी? नखरे भी तो उठाने पड़ेंगे उस के?’’

‘‘तो भाभी और देवर दोनों मिल कर उठाना… क्या उस ने कोई ढूंढ़ रखी है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘कल्पना में तलाश रहे हैं. कहते हैं, हकीकत होगी… और आप उसे सच करेंगी.’’

‘‘तो फिर जाओ किसी शायर के पास… कोई अच्छी सी गजल लिखवा लाओ और फिर कहना यह लो आ गई तुम्हारी दुलहन… पगला है.’’

‘‘वह तो है, मगर उन्होंने बड़ी मुश्किल से हां की है, तो कोशिश करनी ही होगी.’’

‘‘हां तो करो कोशिश. तुम जाओ सांझ की दुलहन लेने और मैं चला अपने काम पर,’’ यह शिब्बू भी निकल गया अपनी अनवरत यात्रा पर. रुकने का नाम ही नहीं लेता. जब भी बात करता ऊंचे आसमान में उड़ने की. धरती पर कदम रखना छोड़ दिया था उस ने. उड़ना है… उड़ते ही जाना है. किसी ने रोका नहीं, किसी ने टोका नहीं और शिब्बू ने अपना काम इतना फैला लिया कि अब उस के पास खुद को समेटने के लिए भी वक्त नहीं.

राधिका आसमान में उड़ते पंछी को देखती रही जो शाम को घर वापस आ जाएगा. मगर कुछ परिंदे ऐसे भी होते हैं, जो रात ढले ही लौटते हैं. शायद यह परिंदा भी रात ढले ही आएगा और अपने नीड़ में चुपचाप बिना आहट के ही सो जाएगा. राधिका दूर तक उसे जाती देखती रही.

तभी बाहर से आवाज आई, ‘‘बहू दूध आ गया है.’’

‘‘हां बाबूजी… बाबूजी आप का नाश्ता भी तैयार है.’’

नाश्ता देते राधिका ने कहा, ‘‘बाबूजी, आप से कुछ कहना है.’’

‘‘कहो बहू?’’

‘‘राजन भैया ने शादी के लिए हां कर दी है.’’

‘‘अरे वाह, कब बोला और कैसी चाहिए उसे?’’

‘‘कहता है कि लड़की सुंदर होनी चाहिए.’’

‘‘तो उस में क्या है? हमारी रिश्तेदारी में अनेक सुंदर लड़कियां हैं. वह जिसे पसंद करेगा उस से रिश्ता तय समझो. बहू तुम उधर संभालो मैं इधर संभालता हूं,’’ बाबूजी ने खनकती आवाज में कहा…

‘‘कब से इस उम्मीद में था कि दूसरी बहू आएगी और…’’

‘‘और क्या बाबूजी?’’

‘‘कुछ नहीं बहू…’’ बाबूजी बात अधूरी छोड़ कर बोले.

मगर राधिका इस ओर से भलीभांति परिचित हो चुकी थी. उस के विवाह को 5 साल हो गए थे और बाबूजी तरस रहे थे अपने आंगन के खिलौने के लिए.

‘‘अरे विश्रुतजी, लड़की को आप देखते ही रह जाएंगे… न करने का तो सवाल ही नहीं उठेगा. बस एक नजर की ही बात रहेगी,’’ दूर के एक रिश्तेदार ने कहा.

शाम को राधिका ने ससुरजी की पूरी बात सुनी. परिवार के हर सदस्य की खुशी की परवाह में जीती राधिका का मन न जाने क्यों आशंकित हो उठा कि राजन बहुत भोला है और वह लड़की होस्टल में पढ़ने वाली.

फिर रात को शिब्बू के घर आते ही राधिका ने अपनी आशंका जाहिर की.

‘‘अरे, यह जरूरी तो नहीं कि होस्टल में पढ़ने वाली हर लड़की तेज हो…, हां स्मार्ट तो होगी ही. वहां का परिवेश ही ऐसा होता है. तुम अभी से क्यों परेशान हो.’’ शिब्बू ने कहा.

राजन को कुछ बताए बिना ही बाबूजी ने आदेश दिया, ‘‘आज एक मित्र के यहां जाना है. सभी के साथ तुम्हें भी चलना होगा.’’

राजन ने बिना कुछ पूछे ही हां कह दी. राधिका मन ही मन मुसकराई कि कितना भोला है… यह भी नहीं पूछा कि जाना कहां है?

लड़की आई. सच में बेहद खूबसूरत.

राधिका ने तो देखते ही कह दिया, ‘‘देवरजी  सांझ की दुलहन यही तो थी.’’

‘‘क्या यही है वह,’’ राजन ने धीरे से पूछा और फिर मुसकरा कर अपनी सहमति दे दी.

और किसी औपचारिकता की जरूरत नहीं थी. बाबूजी ने कहा, ‘‘हमें और कुछ नहीं चाहिए… पर एक बात बहुत साफ कहना चाहूंगा कि हमारे घर में एक और बहू है… बहुत संस्कारी है… नई बहू घर की खुशी बरकरार रखे हमें बस इतना ही चाहिए. ’’

राधिका सोच रही थी कि कभी उस ने अपने हाथों से गिलास भी नहीं उठाया होगा… कमरे में उस ने खुले पैर ही प्रवेश किया. नाजुक सी एडि़यां चुपचुप झांक पड़ी… चेहरे की लालिमा उन में आ गई थी. शरीर का हर अंग जैसे नापतोल कर बनाया गया था… कहीं भी कुछ अधिक या कम नहीं. जो था अपनी जगह सही और सटीक. शायद फुरसत में नहीं एकांत में बनाई गई थी वह रचना. अंगों का बांकपन और सौंदर्य की वह पराकाष्ठा…

राधिका ने एक बार पुन: अपनी शंका सब के सामने रखनी चाही, ‘‘इतनी सुंदर… इसे हम लोग संभाल पाएंगे? घर का कामकाज कर सकेगी?’’

‘‘नहीं करेगी तो क्या हुआ हम कर लेंगे,’’ राजन ने कहा.

‘‘इस के नाजनखरे भी उठाने पड़े तो?’’

‘‘हम उठा लेंगे,’’ राजन ने कहा.

‘‘वाह यह हुई न बात… तुम क्यों एक ही बात के पीछे पड़ी हो,’’ शिब्बू ने कहा.

बाबूजी ने भी कहा, ‘‘बहू वह राजन का काम है. इस की मरजी यह जैसा चाहेगा करेगा.’’

सारे दिन की थकान से चूर राधिका ने बिस्तर थामा था. फिर भी आंखों में नींद नहीं थी. एक बात अब भी घूम रही थी कि राजन बहुत सीधा है.

शादी की तैयारी में व्यस्त राधिका को पता ही नहीं रहता कहां है और किस जगह

नहीं है? हर जगह उस का होना जरूरी. घर में आने वाले मेहमानों के इंतजाम से ले कर दूल्हेदुलहन का जोड़ा भी उसे ही तैयार करना था. उस पर क्या अच्छा लगेगा यह राजन से ही पूछा जाता. राजन सुंदरी से पूछता.

‘‘मौडर्न जमाना है,’’ बाबूजी कहते.

दुलहन का जोड़ा पसंद होने के बाद राजन ने कहा, ‘‘भाभीजी आप के लिए पसंद कर दूं या भैया से करवाएंगी?’’

‘‘आप के भाई साहब ने इस के पहले कभी पसंद किया है जो अब करेंगे?’’ कह कर राधिका मन ही मन सोचने लगी कि शिब्बू तो कभी यह भी नहीं कहता कि तुम साड़ी में अच्छी लगती हो या इस रंग में तुम खिला जाती हो… उस से कहा भी था कि बहू के कपड़े पसंद करने तुम भी चलो तो उस ने कह दिया था कि तुम ही चली जाओ. मैं नहीं जा सकता… यह मेरा काम नहीं है… अपने देवर को ले जाओ, वह पसंद कर देगा. उस की आंखें क्यों नम हो आईं. कहीं राजन भैया का उत्साह तो इस पीड़ा का कारण नहीं?

‘‘अरे भाभी, क्या सोच रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ राधिका ने चुपके से अपनी नम कोरों को पोछते हुए कहा.

‘‘अच्छा… चलिए अब आप के लिए पसंद करते हैं… आप पर यह जरी बौर्डर वाली काली साड़ी बहुत खिलेगी.’’

‘‘नहीं देवरजी काला रंग शुभ नहीं होता.’’

‘‘ऐसा किस ने कह दिया? यह रंग तो फैशन में है,’’ और फिर राजन ने राधिका पर किसी अनुभवी की तरह साड़ी डालते हुए कहा, ‘‘अब देखिए आप कैसी लग रही हैं?’’

राधिका के गोरे बदन पर वह साड़ी खिल उठी.

दुकानदार ने कहा, ‘‘वाह क्या पसंद है?’’

राजन चिढ़ गया. उसे मालूम था कि वह अपनी चीज की प्रशंसा कर रहा है, राधिका की नहीं.

राजन ने राधिका के आंसू देख लिए थे, इसलिए बोला, ‘‘भाभी, मैं उसे बहुत प्यार दूंगा उस की आंखों से गिरा हर आंसू मेरी ही आंख में पनाह लेगा.’’

‘‘राधिका के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई, ‘‘देवरजी, आप सच में बहुत अच्छे हैं.’’

राजन ने शौपिंग का सारा खर्च उठाते हुए कहा, ‘‘भाभी आने दो उसे वह आप की दोस्त बन कर रहेगी.’’

राधिका को उस संध्या सुंदरी से जलन हो रही थी. फिर भी वह खुश थी. घर में सारे मेहमान आ चुके थे और वह स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही थी. आखिर देवर के लिए रानी जो ला रही है. बाबूजी का हुक्म था जब तक शादी पूरी न हो जाए शहनाई बजती रहनी चाहिए. शहनाई की धुनों में ही बहू ने घर में कदम रखा. कलश पर पैर से ठोकर दे नववधू को चावल गिराने थे और राजन को समेटने थे. उस ने चावल इतनी दूर फैला दिए कि राजन बेचारा समेटता रह गया.

राधिका ने देखा तो कहा, ‘‘देवरानीजी धीरे मारिए, देवरजी को तकलीफ होगी समेटने में. ’’

कुछ ही दिनों बाद राधिका की आशंका सही साबित होने लगी. वह तो सच में रानी थी. 10 बजे सो कर उठती तो बाबूजी से छिप कर राजन उसे चाय बना कर देता.

जब बाबूजी ने उस से कहा कि बहू राधिका की मदद

किया करो तो वह असमर्थता सी जताते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं आता, कैसे करूं? बिगड़ गया तो?’’

‘‘वह तो सो कर ही 10 बजे उठती है बाबूजी… रहने दीजिए,’’ राधिका ने कहा.

उस की खूबसूरती में कहीं दाग न लग जाए यह सोच कर रसोई और अन्य कामों से दूर ही रखा गया. सारे नाज भी उठाए गए.

उस के  आने के बाद राधिका ने खुद को अकेला महसूस किया था. अब राजन रसोई में खड़ा हो कर उस से बातें नहीं करता. समय नहीं था. घर के बदले माहौल को राधिका ही संभाल कर रखती. सुंदरी की गलतियों को वह सब से छिपा जाती. यह बात सुंदरी ने समझ ली थी. वह राधिका की आड़ में खेल करती, जिसे राधिका जान कर भी अनजान बन जाती ताकि घर की सुखशांति बनी रहे. धीरेधीरे समझ जाएगी. मगर सुंदरी ने हर दिन परिवार के उसूलों को तोड़ने की कोशिश की. हर दिन राजन से एक फरमाइश. आए दिन पार्टी… आए दिन सिनेमा.

बाबूजी ने एक दिन ऐतराज किया.

‘‘तो इस में बुराई क्या है… अपनी सहेलियों के साथ ही तो हूं,’’  तीखे स्वर में उस ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है तुम राजन से पूछ लो.’’

राजन ने हां कह दी.

घर से बाहर रहने का समय बढ़ता रहा. तब बाबूजी ने कहा, ‘‘राजन, देखो इतनी छूट सही नहीं. आखिर वह घर की बहू है. घर में एक बहू और भी तो है. उस ने तो कभी ऐसा नहीं किया?’’

‘‘क्या हुआ बाबूजी? सहेलियों के साथ ही तो है… आप परेशान न होइए. मैं हूं न.’’

‘‘मगर उस के होस्टल के लड़के भी तो गए हैं,’’ बाबूजी ने कड़क आवाज में कहा.

राजन ने पहली बार बाबूजी से तर्क किया, ‘‘होस्टल में पढ़ी है… खुले विचारों की है. कैसे मना करूं? धीरेधीरे समझ जाएगी.’’

राधिका ने भी बाबूजी को समझाया, ‘‘बाबूजी, एक संतान के आते ही बंध जाएगी. बस देर आने की है.’’

घर की नववधू ने रात 9 बजे घर में कदम रखा. साथ में कौन है, बाबूजी ने खिड़की से झांक कर देखना चाहा. सुंदरी उस लड़के के हाथ में हाथ डाले थी. वहीं 2 हाथ खिलखिलाहट के साथ हवा में लहरा गए और खिलखिलाहट की आवाज माहौल में गूंज उठी.

बाबूजी का तनमन कांप उठा. उन्हें अपनी सालों की कमाई दौलत, मानमर्यादा सरेआम बिकती दिखी. झांक कर देखा कितने घरों की खिड़कियां उस दृश्य की साक्षी बनीं. खिड़कियां ही नहीं उन में रहने वाले लोग भी आवाक थे.

दूसरे दिन भी वही घटना दोहराई गई. सुंदरी को छोड़ जब वह जाने लगा तब बाबूजी ने बुला कर कहा, ‘‘बेटा क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘अनुभव?’’

‘‘लगते तो भले घर के हो, अनुभव तुम सुंदरी को कब से जानते हो?’’

‘‘मैं इस के साथ पढ़ा हूं,’’ कह कर वह जाने लगा तो बाबूजी ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘शायद तुम्हें हमारे घर की मर्यादा नहीं मालूम. तुम्हारा रिश्ता अब सिर्फ सुंदरी से ही नहीं वरन उस के परिवार से भी है. वह तुम्हारी क्लासमेट ही नहीं है, वह किसी की पत्नी भी है और किसी घर की बहू बन चुकी है. इस तरह उस के साथ तुम्हारा आनाजाना ठीक नहीं है.’’

वह बिना कुछ बोले चला गया. सुंदरी अंदर कमरे में आ कर बिफर पड़ी, ‘‘बाबूजी को क्या हो गया है? क्यों बेवजह शोर मचा दिया… कुल की मर्यादा… कुल की मर्यादा… क्या करूं मैं कुल की मर्यादा का… सारा दिन घर में रह कर उसे पालूं? मुझ से नहीं होगा… क्या हुआ जो मेरा दोस्त मुझे घर छोड़ने आ गया?’’

राजन ने समझाया, ‘‘बात दोस्त की नहीं संस्कारों की है… मर्यादा की है. उस ने आ कर किसी से कोई परिचय नहीं करना चाहा… तुम्हें बाय कह कर जाने लगा.’’

‘‘तो क्या हुआ? राजन तुम भी…’’

धीरेधीरे उस का इस तरह आनाजाना साधारण सी बात हो गई, जिस की चर्चा भी नहीं की जाती.

हद तो तब हुई जब उस सांझ की दुलहन ने सच में रात ढले ही घर में कदम रखने शुरू किए. राजन ने सोचा कब तक बाबूजी की मर्यादा को यों सरेआम कुचलता देखूं. उस ने अलग घर ले लिया.

राजन सारा दिन औफिस में रहता और सुंदरी अपने दोस्तों के साथ. शाम को कभीकभी दोनों एकसाथ ही घर में प्रवेश करते. राजन जान चुका था कि कुछ कहना बेकार है. ऐसा नहीं कि उस ने उस की गलतियों को नजरअंदाज किया. वह जान कर भी अनजान बन जाता था, शायद खुद समझ जाए… उस की हर गलती पर खुद परदा डाल उसे सुधरने का मौका देता.

एक बार तो उस की आंखों के सामने ही सारा खेल हुआ. वह देखता रहा. बस इतना कह सका, ‘‘तुम्हें इस से क्या मिलता है?’’

‘‘वही जो तुम से नहीं मिलता… वह मेरा प्यार है… पहला प्यार…’’

‘‘मुझ से क्या नहीं मिला? तुम जिसे मिलना समझती हो वह मेरे परिवार की मर्यादाओं के खिलाफ है… अगर वह तुम्हारा प्यार है तो तुम ने मुझ से शादी क्यों की?’’

‘‘पापा ने कहा, शादी कर लो… हमारे घर से चली जाओ… फिर जैसी मरजी हो करना.’’

‘‘और तुम अपनी मरजी के कोड़े मुझ पर बरसा रही हो,’’ पहली बार चीखा राजन.

‘‘हां, क्योंकि तुम से मुझे बांधा गया है.’’

‘‘और तुम बंध नहीं सकीं… यही न?’’

‘‘तो अब तक तुम ने हमें धोखे में रखा था… क्या कमी रखी मैं ने तुम्हें खुश रखने में? सपनों की मलिका बना कर लाया था तुम्हें… सब से अलग भी कर लाया… किनारा कर लिया अपने घर से, अपने परिवार से. फिर भी तुम्हें नहीं जीत सका, शायद कमी मेरी ही थी कि मैं ने तुम्हें बहुत चाहा और यह नहीं जानना चाहा कि तुम्हें मेरी कितनी जरूरत है.’’

‘‘हां, मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं… मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी नहीं अपनी मरजी और शर्तों पर रह सकती हूं… तुम से पहले मेरे लिए अनुभव… मैं उस के बिना अपने एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती,’’ वह जोरजोर से चिल्ला रही थी.

राजन फिर भी नहीं हारा था. कई बार घर नहीं जाता. राधिका के पास चला जाता.

मगर सुंदरी यह भी जानने की कोशिश नहीं करती कि वह कहां है? उस दिन भी वह औफिस से सीधा राधिका के पास गया और फफक पड़ा.

‘‘क्या हुआ देवरजी?’’

‘‘उस ने सारी बात बता दी फिर बोला, भाभी अब आप ही कोई रास्ता निकालो.’’

‘‘क्या रास्ता निकालें देवरजी? मरजी आप की थी… हम लोग तो सिर्फ माध्यम बने थे आप की इच्छाओं के चलते… और मेरी आशंकाओं पर सभी ने आपत्ति जताई थी कि राजन सब संभाल लेगा.’’

‘‘हां भाभी, गलती मेरी थी. मेरी कल्पना सुंदर थी तो कोमल भी थी… इसलिए जल्दी टूट गई… वह तो बहुत कठोर है… जिस कल्पना सुंदरी को मैं हकीकत बना कर ला रहा हूं वह ऐसी होगी कि मेरी कल्पनाओं को ही निगल जाएगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था. अगर कल्पना करना गुनाह था तो मेरा जुर्म सच में बहुत बड़ा है और मुझे उस की सजा मिल रही है. मेरी आंखों के सामने ही सब कुछ हो रहा है और मैं तमाशबीन बना हुआ हूं. उस के हर गुनाह का मैं एक ऐसा चश्मदीद गवाह हूं जिसे किसी भी अदालत में जा कर यह कहने की हिम्मत नहीं है कि मेरे घर में गुनाह पल रहा है. अब तो स्थिति यह है कि वे दोनों मेरे कमरे से लगी दीवार के पीछे होते हैं… मैं दीवारों के पार के दृश्य की कल्पना से कांप जाता हूं.’’

‘‘तो क्या आप यों ही देखते रहेंगे?’’

‘‘नहीं भाभी. मगर मैं करूं भी तो क्या?’’

‘‘बाहर करो देवरजी… जब घर की इज्जत खुद ही बाजार में बैठ जाए तो फिर उसे घर में रखना ठीक नहीं… उसे बिकना मंजूर है… आप क्या कर सकते हैं? मर्यादा की खातिर ही आप घर छोड़ कर गए थे कि लोगों की नजरों से दूर रहने पर बिगड़ी बात बन जाएगी, लेकिन…. मेरा कहा मानो तलाक ले लो.’’

‘‘लेकिन भाभी…’’

‘‘कोई लेकिनवेकिन नहीं… जब जिंदगी तुम से इतनी कुरबानियों के बाद भी खुश नहीं तो बेहतर है ऐसी जिंदगी से किनारा कर लो… आज तुम्हारे पास एक अच्छी नौकरी है, बंगला है, गाड़ी है सब कुछ है, तो फिर क्यों उस अप्सरा के पीछे भाग रहे हो? वह तुम्हारी नहीं… फिर उस ने खुद ही कह दिया है… खुद को कमजोर मत साबित करो देवरजी. रास्ते अनेक हैं, जिस मोड़ पर तुम खड़े हो उस से अनेक रास्ते जा रहे हैं और वह रास्ता भी जिस से तुम चले थे. अब एक ऐसी राह लो जहां से बीती गलियां नजर ही न आएं… छोड़ दो देवरजी उसे… छोड़ दो… अप्सरा किसी की नहीं होती… सब की हो कर भी किसी की नहीं हो पाती.’’

राजन फूटफूट कर रो पड़ा था. राधिका रो तो न सकी, मगर उस के लिए रास्ते की तलाश में जरूर निकल पड़ी.

आज वह निर्णय कर के रहेगा. इस हिम्मत के साथ वह घर में घुसा और जोर से दरवाजा पीटने लगा. दरवाजा सुंदरी ने खोला, ‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से दरवाजा क्यों पीट रहे हो?’’

‘‘अब यह यहां नहीं होगा… मेरे घर में यह खेल अब नहीं होगा…’’

‘‘कौन सा नया पाठ पढ़ कर आए हो? यह कौन सी नई बात है?’’

सुंदरी को किनारे धकेलते हुए वह अंदर घुसा और अनुभव की कौलर पकड़ कर उसे घर से बाहर कर दिया.

सुंदरी पागलों की तरह चीखती रही. आज वह जान चुकी थी कि उसे अब किसी एक को थामना होगा. शाम को जब राजन घर आया तो वह जा चुकी थी. अपने प्रेमी अनुभव के साथ. घर में अब सिर्फ वह था और उस की रोतीसिसकती कामनाएं. कल्पनाएं, जिन्हें वह शाम तक बटोरता रहा.

तलाक के वक्त कोर्ट में इतना ही कह सका था, ‘‘मैं इस के लायक नहीं. यह जिसे चाहती है उस के साथ इसे रहने और जीने का पूरा हक है… यह हक इस के मांबाप नहीं दे सके, मगर मैं देता हूं… यह आजाद है.’’

तलाक हुए काफी अरसा हो गया था. राधिका ने कई बार देवर का मन टटोला, जानना चाहा कि वहां अब क्या चल रहा है. राजन कभीकभी कह भी देता, ‘‘भाभी अब नहीं…’’

कल्पना का कटुसत्य जिंदगी में जो कड़वाहट पैदा कर गया था उसे वह भूल नहीं पा रहा था. उस दर्द को भुलाने का एक ही रास्ता था, जो राधिका ने बताया.

‘‘देवरजी दूसरी शादी करिए और अपनी गृहस्थी बसाइए… वह तो अपनी जिंदगी मजे से जी रही है. फिर आप ने ऐसी जिंदगी क्यों अपना ली?’’

‘‘जिंदगी को मैं ने नहीं जिंदगी ने मुझे कुबूल किया है… उसे मैं इसी रूप में अच्छा लगता हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं… आप जिसे जिंदगी कह रहे हैं वह ओढ़ी हुई जिंदगी है और यह आप ने सुंदरी के जाने के बाद ओढ़ी है. इसे उतार फेंकने की कोशिश ही नहीं की आप ने… जिस लाश को आप ढो रहे हैं उस से बदबू पैदा हो रही है… उतार फेंको उसे वरना उस की गंध आसपास फैल कर आप को सब से दूर कर देगी… अभी मौका है नई जिंदगी की शुरुआत करने का.’’

राधिका भाभी के लफ्ज उस के जेहन में रात भर गूंजते रहे. राजन सुंदरी को मन से निकाल नहीं पाया था. दूसरी का खयाल कैसे करे? वह सोच में पड़ गया कि क्या भाभी की बात मान कर दूसरी शादी कर ले… नहीं, नहीं, कहीं वह भी. वह भी ऐसी ही निकली तो? लेकिन भाभी ने जो कहा क्या वह सच है? वह सब से दूर जा रहा है? कितनी कातर दृष्टि से भाभी ने मुझे निहारा था और कहा था कि आप की खुशियों की खातिर हम ने सारे समझौते किए थे, लेकिन अब इस बार हमारी मरजी से फैसला लें… ऐसी लाएं जो समझदार हो, शालीन हो. क्या भाभी की तरह कोई मिल सकती है?

राजन ने अलसाई आंखों में ही सवेरा देखा और फिर अपने उजड़े घर पर ताला डाल कर घर पहुंच गया.

राधिका भाभी उस समय बाबूजी को सुबह की चाय दे रही थी. राजन को इतनी सुबह आता देख शंका से भर उठीं, ‘‘क्या हुआ देवरजी… आज इतनी सुबह?’’

‘‘हां भाभी, बहुत दिनों से सुबह की चाय आप के साथ नहीं पी न, इसलिए चला आया. छुट्टी है आज… सोचा थोड़ी देर बाबूजी से भी बातें हो जाएंगी.’’

राधिका ने राजन को बहुत दिनों बाद बदला पाया. पहले जब भी आता परेशान सा रहता. चाय का एक कप उसे पकड़ाया और खुद भी पास रखी कुरसी को और पास ला कर बैठ गईं. बोलीं, ‘‘चलिए अच्छा है… मैं आप को कई दिनों से याद कर रही थी.’’

बाबूजी ने भी कहा, ‘‘चलो अच्छा है… वैसे भी अब तुम उस घर में अकेले रह कर क्या करोगे. आ जाओ यहीं शिब्बू भी अकसर बाहर ही रहता है… राधिका अकेली बोर होती है.’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं उस सुंदरी के कारण आप को बहुत चोट पहुंचा चुका हूं… मुझे सजा मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘नहीं देवरजी, आप अपनी मरजी से नहीं गए थे… आप को उस की मरजी की खातिर जाना पड़ा था, जिसे आप बेहद प्यार करते थे और बेहतर भी यही था… लेकिन इस घर के दरवाजे आप के लिए खुले हैं… बाबूजी हमेशा रोते और कहते हैं कि मेरा राजन अपनी खातिर नहीं, अपनी मरजी से नहीं उस चुड़ैल की खातिर गया है… वह मेरे बेटे को खा जाएगी बहू. उसे बचा लो,’’ कहते हुए राधिका की आंखें भर आईं.

राजन प्रायश्चित की मुद्रा में जड़ हो चुका था. लड़खड़ाती जबान से यही कह सका, ‘‘भाभी, आप और बाबूजी जैसा चाहें मुझे मंजूर है.’’

राजन के इस निर्णय से राधिका और बाबूजी दोनों खुश हुए. बाबूजी ने सारे

रिश्तेदारों में खबर पहुंचा दी कि राजन ने दूसरी शादी के लिए हां कर दी है.

कई रिश्ते आए. राधिका और बाबूजी ने इस बार किसी भी धोखे की गुंजाइश नहीं रखनी चाही. लड़़की की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए जाते और घर आ कर बाबूजी और राधिका घंटों चर्चा करते कि नहीं यह भी समझ में नहीं आ रही. होस्टल वाली तो बिलकुल नहीं चलेगी. घरेलू हो, कुलीन हो… कम पढ़ीलिखी भी चलेगी, लेकिन सलीके वाली हो.

काफी कोशिश के बाद जिस लड़की से रिश्ता तय हुआ वह बेहद पिछड़े इलाके से और गरीब घर की थी और 10वीं कक्षा पास. देखने में साधारण. बात तय कर के आ गए. राजन की हां भर चाहिए थी जो उस ने दे दी.

शादी की तारीख तय हुई. राधिका ने राजन से मजाक किया, ‘‘चलिए, अपनी दुलहन का जोड़ा पसंद कर लीजिए.’’

राजन उदास स्वर में बोला, ‘‘भाभी, आप  ही पसंद कर लीजिए… जोड़ी भी आप ही बना रही हैं… पहनावा भी आप ही तय कर लीजिए.’’

इस बार 24 घंटे वाली शहनाई नहीं बजी. बहू ने घर की चौखट पर कदम रखे. चावल का कलश फिर तैयार था. राजन की आंखें भर आईं, सुंदरी की याद में. नई बहू का पैर कलश पर था. उस ने बहुत समझदारी से चावल गिराए. राजन ने समेटे फिर फैलाए फिर समेटे. भाभी मुसकरा रही थीं.

नई बहू ने बहुत दिनों तक सब का दिल जीतना चाहा. समय पर उठ कर घर के काम में राधिका का हाथ भी बंटाती. बाबूजी का भी खयाल रखती.

राजन तो अपने सारे काम खुद कर लेता. इस बार वह बेहद सतर्क था, ‘‘जो भी पूछना हो भाभी से पूछो अनु. वे ही बता सकती हैं.’’

नई बहू की समझदारी थी या पुरानी वाली की कटु यादें बाबूजी और घर के बाकी लोग सभी अनु से खुश थे. उस ने घर में अपनी जगह बना ली थी. राजन पर भी उस ने धीरेधीरे अधिकार कर लिया.

घर की कुछ जिम्मेदारियों को राधिका ने अनु को सौंपने की सोची. फिर एक दिन तिजोरी खोलते हुए कहा, ‘‘राधिका, यह सब तुम्हारा है… इसे संभालो.’’

‘‘अभी बहू नई है. इतनी समझदार नहीं है… कुछ समय दो,’’ बाबूजी ने झिझकते हुए कहा ताकि कहीं राजन को बुरा न लगे.

‘‘जिम्मेदारी ही तो समझदार बनाएगी. फिर मैं भी तो जब इस घर में आई थी तो नई ही थी और अकेली भी… सब संभाला था,’’ यह सुन कर बाबूजी खुश हो उठे.

अपनी भाभी राधिका से, जिन की राजन बहुत इज्जत करता था, एक दिन अपने मन की बात कहते हुए स्वप्न सुंदरी से शादी करने की बात कह दी. भाभी राधिका परेशान थीं कि कहां और कैसे देवर राजन की शादी इतनी खूबसूरत लड़की से कराई जाए.

तब दूर की एक रिश्तेदारी में जिस स्वप्न सुंदरी की तलाश थी वह मिल गई. मगर जब शादी हो कर वह घर आई तो घर का अच्छाभला माहौल बिगड़ने लगा, जबकि राजन इस ओर से अनजान था. सुंदरी काफी खुले विचारों वाली थी.

कुछ दिनों बाद सुंदरी ने बताया कि उस की शादी राजन से जबरदस्ती उस के घर वालों ने करा दी, लेकिन वह शुरू से ही किसी और को चाहती है.

अब वह यदाकदा अपने प्रेमी को घर पर भी बुलाने लगी. अंतत: आपसी रजामंदी से दोनों ने तलाक ले लिया.

राजन अब दोबारा शादी नहीं करना चाहता था. पर भाभी और अन्य लोगों के दबाव के आगे उसे झुकना पड़ा और उस ने शादी करने की रजामंदी दे दी. राजन की शादी बेहद साधारण और कम पढ़ीलिखी लड़की के साथ हुई. नई बहू ने राजन का घर भी जल्द संभाल लिया. घर के लोग भी उस से खुश थे.

राजन दूसरी शादी से बहुत खुश था. पहली बार उस ने अनु को उस नजर से देखा था जिस नजर से सुंदरी को देखा करता था. आज वह उसे वह प्यार दे सकेगा, जो सुंदरी को देने चला था. मगर उस ने उस की कीमत नहीं समझी थी.

रात राजन और अनु की थी. राधिका तो माध्यम बनी थी, जो इस वक्त दोनों की हंसी से गूंज रहे माहौल में खुद को हलका महसूस कर रही थी.

सुबह उठ कर राधिका ने ही चाय बनाई और दरवाजे पर रख कर बोली, ‘‘आप लोगों की चाय आप को बुला रही है.’’

अनु ने चाय सर्व करते हुए कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे थोड़ी शौपिंग करनी है. तुम चलोगे?’’

‘‘हां, क्यों नही?’’

अनु तैयार हो कर राधिका से कह कर शौपिंग के लिए निकल गई. राधिका खुश थी.

जब अनु और राजन घर लौटे राधिका रात के खाने पर दोनों का इंतजार कर रही थी. खाना खा कर दोनों अपने कमरे में, बाबूजी अपने कमरे में, राधिका अपने कमरे में. राधिका जाग रही थी. शिब्बू बिजनैस के सिलसिले में बाहर था. उसे नींद नहीं आ रही थी.

8 साल हो गए थे शादी को. उसे कोईर् संतान नहीं थी. वह इस अकेलेपन को अकसर जाग कर काट लिया करती थी. डाक्टर ने कहा था कोई संभावना नहीं है. फिलहाल बहू में कोई कमी नहीं. राधिका उस की भरपाई में शिब्बू और बाबूजी को खुश करने में लगी रहती. शिब्बू को इस बात का अफसोस नहीं था. मगर वह इस अफसोस में अकसर खिलौनों और गुड्डों से बातें करती रहती और इस प्रकार अपने मातृत्व की पूर्ति करती. तभी किचने से आवाज आई. राधिका ने देखना चाहा क्या हुआ. शायद बिल्ली होगी. लेकिन घर में बिल्ली के आने का कोई रास्ता नहीं था. बाहर आ कर देखा राजन के कमरे से लगी छत का दरवाजा खुला था.

‘तो क्या देवरजी दरवाजा खोल कर सो गए?’ सोच राधिका ने टौर्च की रोशनी से देखना चाहा.

छत पर उसे बात करने की आवाज सुनाई दी. सोचने लगी इतनी रात गए कौन हो सकता है. लगता है दोनों अभी तक जाग रहे हैं. फिर मन ही मन मुसकराई और तसल्ली के लिए पूछा, ‘‘छत पर कौन है?’’

‘‘मैं हूं भाभीजी अनु… लाइट चली गई थी न, तो गरमी के कारण छत पर आ गई.’’

‘‘ठीक है. मगर दरवाजा बंद कर के सोया करो… किचन में बिल्ली आ गई थी.’’

‘‘ठीक है भाभीजी, आप सो जाइए मैं देख लेती हूं किचन में कौन है… चूहा भी हो सकता है… आप सोई नहीं अभी तक?

‘‘नहीं. नींद नहीं आ रही है.’’

‘‘जाइए, अब सो जाइए.’’

राधिका ने बेचैनी से टहलते हुए बाबूजी के कमरे में झांक कर देखा. वे सो रहे थे.

सभी इतमीनान में हैं, फिर वह क्यों परेशान है? इस बेचैनी का कारण क्या है? शिब्बू का न होना या उस का निस्संतान होना या फिर कुछ और?

देर रात तक जागने पर भी भोर में ही राधिका की नींद खुल गई. देखा राजन का कमरा खुला था. लगता है राजन आज जल्दी उठ गया. अनु को आवाज देती हूं, बाबूजी को चाय दे देगी. आज तबीयत भारी हो रही है. रात भर नींद नहीं आई.

नीचे से ही आवाज दी, ‘‘अनु, नीचे आ जाओ. बाबूजी को चाय दे दो.’’

राजन बाहर आते हुए बोला, ‘‘भाभी, अनु यहां नहीं है. नीचे चली गई है.’’

राधिका ने फिर आवाज दी, ‘‘अनु कहां हो?’’ मगर उस के कहीं भी होने की आहट सुनाई नहीं दी. शायद बाथरूम में होगी. लेकिन वहां तो बाबूजी हैं. फिर कहां होगी? किचन में जा कर देखा वहां भी नहीं. शायद बाहर बगीचे में होगी. वहां भी नहीं. आखिर इतनी सुबह कहां जाएगी?

राधिका ने आवाज दी, ‘‘देवरजी देवरानी को नीचे भेज दो, मजाक मत करो.’’

‘‘भाभीजी मैं मजाक नहीं कर रहा. सच में अनु यहां नहीं है.’’

‘‘नहीं है?’’

बाबूजी बाथरूम से निकले तो बोले,

‘‘अरे बहू, आज तुम घर का दरवाजा बंद करना भूल गईं?’’

‘‘क्या घर का दरवाजा… छत का दरवाजा… अनु घर में नहीं है बाबूजी… यह सब क्या है? देवरजी, अनु घर पर नहीं है.’’

‘‘क्या तुम दोनों के बीच रात में कोई झगड़ा हुआ है?’’

‘‘नहीं.’’

कमरे में जा कर देखा तो अनु का सामान भी नहीं था. घर की तिजोरी भी खुली और खाली थी.

बहू घर छोड़ कर जा चुकी थी… ज्यादा ही समझदार निकली.

राधिका को रात की बिल्ली… छत का खुला दरवाजा… अनु का आश्वासन… सब कुछ बिजली की तरह कौंध गया. वह चकरा गई. बोली, ‘‘देवरजी, यह तो बहुत समझदार निकली.’’

राजन जो अब तक सब समझ चुका था, सिर थामे बैठा था.

देर तक घर में फैली खामोशी को कौन तोड़ता? किस में हिम्मत थी? भाभी में जिस ने राजन को दूसरी शादी के लिए प्रेरित किया था या बाबूजी में, जिन्होंने उस की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए थे या फिर राजन जिस ने दोनों के निर्णय पर बंद आंखों से अपनी सहमति का अंगूठा लगा दिया था? कौन था समझदार? राधिका जिस ने राजन की गृहस्थी फिर से बसानी चाही, बाबूजी जो अपने आंगन में खेलताकूदता छोटा राजन चाहते थे या फिर राजन जिस के स्वभाव की सरलता ने अनु की बढ़ी समझदारी का कारण नहीं समझना चाहा. शायद इन तीनों से ज्यादा समझदार वह थी जिस ने तीनों की समझदारी पर पानी फेर दिया… सब कुछ ले गई… कुछ नहीं बचा.

रात में फोन आया, ‘‘मैं दूसरा विवाह करने जा रही हूं. उस दमघोंटू माहौल में मैं नहीं रह सकती थी और नई जिंदगी की शुरुआत के लिए पैसा तो चाहिए था सो मैं ले आई. मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत कीजिएगा. आखिर मैं आप के घर की बहू थी.

बाबूजी को काटो तो खून नहीं. राधिका भी जड़वत कि यह सब क्या हुआ? हमारे साथ इतना बड़ा धोखा? यह नजरों का धोखा था या फिर हमारी समझदारी का?

राजन दोनों के बीच मूकदर्शक था. भाभी क्या कहती हैं या बाबूजी क्या कहते हैं उस ने नहीं सुना. उसे लगा उस ने गलत सपना फिर देख लिया. हर बार रो कर चुप होना और फिर रोना. पहले सुंदरी के सौंदर्य ने धोखा दिया. इस बार समझदारी के बड़े भ्रम ने धोखा दिया. धोखा… धोखा… धोखा… कब तक? वह टूट चुका था. घर आने में भी उसे हिचक होती. उसे देखते ही राधिका हिचक जाती. सब एकदूसरे से नजर यों चुराते जैसे वे एकदूसरे के गुनहगार हैं और जिन की सजा यही है कि खुद को एकदूसरे से अलग कर लें. कहीं गुनाह का परदाफाश न हो जाए और ठीकरा किसी एक के सिर फोड़ दिया जाए.

इस बार बाबूजी का चोटिल सम्मान रहरह कर चटक उठता. समाज में उठनेबैठने और तन कर चल सकने की सारी हिम्मत जाती रही. रिश्तेदारी में जहां जाओ एक ही चर्चा. बहू क्यों चली गई? जरूर इस परिवार में ही कोई कमी है, जो दूसरी भी छोड़ कर चली गई. अनेक इलजाम जमाने ने लगाए. खुद को इतना छोटा महसूस करते कि जिस टोपी को उन्होंने कभी नहीं भुलाया था उसे लगाना भी उन्हें याद नहीं रहता. वे बिना टोपी के ही निकल जाते. राधिका याद दिलाती, ‘‘बाबूजी, टोपी…’’

विश्रुतिजी निरुत्साहित से उसे पकड़ते, मगर टोपी लगा कर खुद को निहारने का दुस्साहस अब नहीं करते.

इधर समय की कमी ने शिब्बू और राधिका के बीच जो रिक्तता पैदा की थी उस

जगह अब एक लंबी दीवार खड़ी हो रही थी. अकसर वह बिजनैस के सिलसिले में देर रात तक बाहर होता और जब आता थकान से चूर होता. उस थकान के बीच राधिका उस की जिंदगी में अगर कुछ भरना चाहती तो वह यह कह कर सो जाता, ‘‘राधिका, मैं थक गया हूं, तुम से कल बात करता हूं.’’ और कल थकान बेहिसाब बढ़ी होती. राधिका पास जाने की हिम्मत भी न जुटा पाती.

वह उस टूटी नाव की पतवार थामे चल रही थी, जिस पर अनजाने, अनचाहे अनेक गड्ढे बन चुके थे, जिन्हें पाटते उस की उम्र बीत रही थी.

बाबूजी अपने आहत सम्मान और दम तोड़ती इच्छाओं के बीच खुद को अकेला पाते और सब से अलग रहने के प्रयास में अपने कमरे से बाहर नहीं आते.

राजन अपनी खिड़की में ढलती शाम से ले कर ढलती रात तक न जाने किस का इंतजार करता. उसे घर में क्या चल रहा है, पता भी नहीं रहता. राधिका घर में फैली इस खामोशी में कभी खुद को ढूंढ़ती तो कभी खुद को भुला देती तो कभी राजन और बाबूजी की खामोशी को तोड़ने की हिम्मत करती. कभीकभी उन 4 आंखों में तलाश करती कि वह कहां है?

क्या बाबूजी की इस हिदायत में कि बहू तुम मेरी नहीं इस घर की बहू हो और इस घर को जो तुम दोगी वही पाओगी या फिर शिब्बू की उन हिदायतों में जब वह राधिका के हाथों में रुपयों से भरा बैग थमाते हुए कहता, ‘‘यह घर तुम्हारा है जैसा चाहो चलाओ. मैं कभी नहीं पूछूंगा. मगर इस की खुशियों की परवाह तुम्हें ही करनी होगी.’’

कागज के टुकड़ों को देख सोचती, ‘काश, मैं इन से इस घर की सारी खुशियां, बाबूजी का खोया सम्मान, उन के कुल के दीपक राजन भैया की उजड़ी गृहस्थी सब खरीद सकती. शिब्बू जिसे खुशी कहता है क्या उसी खुशी की तलाश है सभी को? शायद नहीं. मैं कब तक इन कागज के टुकड़ों को संभालती रहूंगी? ये मुझे चिढ़ाते से नजर आते हैं.

उस ने जब भी कुछ मांगा अपने बाबूजी और भाईर् की खुशी. कभी उस ने पूछा कि राधिका इन पैसों से तुम्हारी खुशी मिल सकेगी? रात का अकेलापन और जिंदगी का सूनापन अकसर उसे डसने लगता. शिब्बू तो बस आगे बढ़ने की धुन में बढ़ता जा रहा है. इस बढ़ने में उस के अपने पीछे छूट रहे हैं, उस ने भूल से भी यह नहीं सोचा. मुड़ कर ही नहीं देखना चाहा. कोई आवाज दे भी तो कैसे? वह तो ऐसी मंजिल को थामे चल रहा था, जिस के छूट जाने से वह बिखर जाता. महत्त्वाकांक्षा में वह भूल गया कि वह एक बेटा भी है, भाई भी है और एक पति भी है.

राजन भी अपनी तनख्वाह भाभी को देते हुए कहता, ‘‘भाभी, अब आप संभालो इसे भी. मैं नहीं संभाल सकता… क्या करूंगा मैं इस का?’’

‘‘और कितनी जिम्मेदारियों के बोझ तले मुझे दबना पड़ेगा? क्या इन कागज के टुकड़ों से घर की रौनक और खुशियां मैं ला सकूंगी? फिर मैं इन का क्या करूं? इन कागज के टुकड़ों में दबी कामनाएं दम तोड़ रही हैं देवरजी. मैं इन से बेजार सी हो रही हूं… अब और नहीं.’’

राधिका बोले जा रही थी और राजन सुनता जा रहा है. आज भाभी को उस ने पहली बार ऊबता महसूस किया था. उन की बातों में सदियों की तलखी थी. यह तलखी शायद हम से थी? नहीं तो फिर जिंदगी से? कब तक झेलेंगी? कौन है जिस से वे अपनी बात कहतीं? सोचता हुआ राजन राधिका के कमरे के सामने से गुजरा तो उसे सिसकने की आवाजें आईं. उस ने बाहर से ही आवाज दी, ‘‘भाभी…’’

‘‘हां, आती हूं,’’ कहते हुए बाहर आने का प्रयास किया मगर राजन उस से पहले ही अंदर पहुंच चुका था. पहली बार इस कमरे में आया था वह. भाभी का कमरा अपनी व्यवस्था से अव्यवस्थित सा लग रहा था. कांच का एक बड़ा सा शोकेस तरहतरह की गुडि़यों और गुड्डों से भरा था. बगल की ड्रैसिंगटेबल पर एक खूबसूरत परदा जो शायद ही कभी उठाया जाता होगा.

बिस्तर की चादर ठीक करते हुए राधिका बोली, ‘‘आइए देवरजी, आज कैसे इधर भटक गए?’’

‘‘यों ही भाभी… दिल किया आ गया.’’ तभी बिस्तर के सिरहाने रखी जापानी गुडि़या बोल पड़ी कि मम्मा, आई लव यू. राधिका ने उसे चुप कराया.

राजन ने कहा, ‘‘बोलने दीजिए अच्छा लग रहा है… भाभी एक बात पूछूं?’’

‘‘हां क्या पूछेंगे पूछिए. वैसे आप जो जानना चाहते हैं वह मुझे मालूम है. देवरजी, इस घर से खुशियों ने हमेशा के लिए मुंह फेर लिया है…

घर अब घर नहीं एक सरायखाना लगता है, जिस में सभी रह तो रहे हैं, मगर अजनबियों की तरह… कौन कब रोया, कब हंसा, किसे मालूम? किस की रात आंसुओं से भीगती रही या किस की शाम आंखों को धुंधला कर गई, किस ने जानना चाहा?’’

‘‘तो शिब्बू भैया…?’’ बेचैनी ने उसे वहां रुकने न दिया.

देर तक भाभी के आंसुओं में भीगे लफ्ज उस के जेहन में गूंजते रहे… मैं भी हूं इस घर

में. यह किसे पता है… सब अपने में गुम… मैं ने क्या पाया… कौन है मेरा… किसे फुरसत है मेरी खातिर?

शाम ढल रही थी, फिर भी राजन ने आज खिड़की नहीं खोली, न ही शाम ने खिड़की से दस्तक दी. बारबार राधिका का कुम्हलाया चेहरा याद आ रहा था कि उम्र में मुझ से सिर्फ 2 माह ही बड़ी हैं, मगर जिम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें समय से पहले ही बहुत बड़ा कर दिया. बड़प्पन के एहसास तले उन्होंने खुद को भुला दिया और घर के 3-3 बड़े बच्चों को संभालती रहीं.

बाबूजी कमरे से बाहर नहीं आए थे. अब अकसर वे शाम के धुंधलके में ही घर से निकलते थे. राधिका ने शाम की रसोई शुरू कर दी.

बाबूजी घूम कर आए. बोले, ‘‘बहू खाना दे दो. जल्दी सो जाऊंगा,’’ और फिर खाना खा कर अपने कमरे में चले गए.

राधिका ने रसोई समेटी. किचन का दरवाजा बंद किया. जैसे ही अपने कमरे में जाना चाहा देखा राजन छत पर है. आवाज दी, ‘‘देवरजी.’’

कोई जवाब नहीं मिला… खुद जा कर देखना चाहा. राजन अपनी ही परछाईं के साथ आंखमिचौली कर रहा था. छत में फैली चांदनी सारी चीजों को स्पष्ट कर रही थी. फिर भी न जाने क्यों राजन कुछ ढूंढ़ता सा नजर आ रहा था.

‘‘क्या खो गया?’’ राधिका ने आज बहुत दिनों बाद छत पर कदम रखे थे. कभीकभी अनु के साथ आया करती थी.

अचानक भाभी को छत पर आया देख राजन बोला, ‘‘अरे भाभी आप? कुछ नहीं यों ही मेरी अंगूठी कहीं गिर गई है.’’

‘‘यहीं कहीं होगी,’’ कह राधिका ने छत से घर के अंदर जा रही सीढि़यों की तरफ झांकने का प्रयास किया. 2-3 सीढि़यां नीचे उतर कर देखा तो अंगूठी दिखाई दे गई. बोलीं, ‘‘देखिए देवरजी मिल गई.’’

‘‘अरे मैं कब से खोज रहा था. मिल ही नहीं रही थी.’’

‘‘पकडि़ए,’’ राधिका ने वहीं से देनी चाही. मगर उस का पैर डगमगा गया. चांदनी रात का उजाला सीढि़यों के अंधेरे को मिटा न सका था और राधिका उस अंधेरे से भिड़ने की कोशिश में डगमगा गई.

राजन भी तो राधिका को सीधे हाथ नहीं थाम सका उलटा हाथ पकड़ाया. संभल नहीं सका… लड़खड़ा गया. दूधिया चांदनी में राधिका के उजले चेहरे पर खुदी उदासी की गहरी रेखाएं भर आईं… सूखे और बिखरे बालों के बीच से झांकती आंखों का सूनापन महक उठा… बदन में वर्षों की सोई लचक जाग गई…

राजन ने देखा क्या ये वही राधिका भाभी हैं जिन्हें वर्षों से सिर्फ औरों के लिए खुश रहते देखा. आज पहली बार उन महकी आंखों में उन की ही खुशी तैरती दिखाई दी… इतना आवेग और इतना आकर्षण राधिका के सान्निध्य में? वह संभाल न सका था उस रूप को. राधिका के उस लड़खड़ा कर गिरने में सारा समर्पण समा गया और सारे आकाश ने उस समर्पण को अपनी बांहों में भर लिया कभी न छोड़ने के लिए और बोल पड़ा, ‘‘इन आंखों की खुशी मैं कभी सूखने नहीं दूंगा. परिवार की सारी खुशियां इन में भर दूंगा… यह मेरा वादा है… आखिर भैया को भी परिवार की खुशियां ही तो अजीज हैं.’’

तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘भाभी,’’

‘‘अरे, यह तो सुंदरी की आवाज लग रही है.’’

‘‘मैं सुंदरी हूं. दरवाजा खोलिए,’’ फिर आवाज आई.

‘‘यह क्या, आज तो राजन ने खिड़की भी नहीं खोली फिर कौन सी सुंदरी आ गई…’’ सुंदरी यानी? राजन की पहली… नहींनहीं… अब नहीं.

बाबूजी ने कह दिया कि अब किसी सुंदरी की जगह हमारे यहां नहीं है.

दरवाजे पर हुई दस्तक को राजन ने भी सुना था और राधिका ने भी, लेकिन धोखा समझ कर कहा, ‘‘सुंदरी के लिए अब कोई दरवाजा नहीं… सांझ की दुलहन रात ढले घर नहीं आती… मेरी सांझ की दुलहन मुझे मिल गई है.’’

तभी दूर रेडियो पर गाना बज उठा, ‘कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आए जन्मों के नाते, घनी थी उलझन बैरी अपना मन अपना ही हो कर सहे दर्द पराए, कहीं दूर जब दिन ढल जाए.’

Hindi Fiction Stories : एकदूसरे की पूरक थी मानसी और अनुजा

Hindi Fiction Stories : मानसी और अनुजा बचपन से ही अच्छी सहेलियां थीं. हमेशा से मनु और अनु की जोड़ी उन की पूरी मित्रमंडली में मशहूर थी. नर्सरी से एक ही स्कूल में गईं और जब कालेज चुनने की बात आई तो दोनों ने कालेज भी एक ही चुना. कालेज घर से दूर होने के कारण दोनों पास ही एक रूम ले कर उस में एकसाथ रहने लगीं.

बचपन से साथ खेलने और पढ़ने के बावजूद दोनों के स्वभाव में काफी अंतर था. एक ओर अनुजा सीधीसादी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी, तो दूसरी ओर मानसी बेहद स्मार्ट और आकर्षक. अनुजा को पढ़ाई में रुचि थी तो मानसी को खेलकूद में. मानसी तो बस पास होने के लिए पढ़ाई करती जबकि अनुजा पढ़ाई में इस कदर खो जाती कि उसे अपने आसपास की दीनदुनिया की खबर ही नहीं रहती. दोनों एकदूसरे की पूरक बन अपनी मित्रता निभाती आई थीं.

कालेज के दिनों में दोनों से टकराया विपुल, जोकि एक छैलछबीले लड़के के रूप में सामने आया. ऊंची कदकाठी, ऐथलैटिक बौडी, पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने वाला. बौस्केटबौल चैंपियन को पूरे कालेज का दिल मोह लेने में अधिक समय नहीं लगा.

सब से पहले विपुल पर मानसी की नजर पड़ी. गरमी के दिनों पसीने से तरबतर विपुल बौस्केटबौल कोर्ट में प्रैक्टिस किया करता, क्योंकि मानसी को स्वयं भी बौस्केटबौल में रुचि थी. उस ने विपुल से दोस्ती करने में अधिक देर न लगाई. कुछ ही हफ्तों में वह विपुल से बौस्केटबौल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. अनुजा अकसर दोनों का खेल देखा करती.

महीना बीततेबीतते विपुल उन के रूम पर आने लगा जो उन्होंने कालेज के पास ले रखा था. जब वह रूम पर आता तो मानसी उस से पढ़ाई से संबंधित नोट्स शेयर करती, नएनए गुर सीखती. विपुल उसे पूरे मन से सिखाता.

“न जाने कब इस पढ़ाई से पीछा छूटेगा. एक बार कालेज खत्म हो जाए तो मैं इन किताबों को हाथ भी नहीं लगाऊंगी. इन को तो क्या मैं किसी भी किताब को हाथ नहीं लगाऊंगी”, मानसी बोली.

“कैसी बातें करती हो तुम? किताबों के अलावा दुनिया के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती”, उस की बात सुन कर अनुजा से चुप न रहा गया.

“तुम्हें भी पढ़ने में रुचि है? मुझे भी. बिना पढ़े तो मुझे 1 दिन भी नींद नहीं आती”, विपुल ने कहा.

*उस* दिन के बाद से विपुल की दोस्ती अनुजा से भी हो गई. अब तीनों केवल कालेज में ही नहीं बल्कि उन के रूम पर भी बतियाया करते. मानसी विपुल के लुक्स और अदाओं की दीवानी थी तो विपुल अनुजा के सामान्य ज्ञान और पढ़ने के प्रति रुचि का. कुछ ही हफ्तों में वे एक तिगड़ी के रूप में पहचाने जाने लगे. तीनों अच्छे दोस्त बन गए थे. साथ पढ़ते, साथ घूमने जाते और समय व्यतीत करते.

“विपुल आता ही होगा”, फटाफट तैयार हो लिपस्टिक को फ्रैश करती मानसी ने कहा.

“ओहो, तो यह सारी तैयारी विपुलजी के लिए हो रही है?”अनुजा ने उस की टांग खींची.

“हां यार, क्या करूं, दिल है कि मानता नहीं…”, अचानक ही मानसी गुनगुनाने लगी और दोनों सहेलियां हंसने लगीं.

आज फिर पढ़ते समय मानसी धीरेधीरे अपने मन में उठ रहे विचारों की पर्चियां बना कर विपुल की ओर पास करने लगी. विपुल ने पर्चियां खोलकर पढ़ीं. पहली पर्ची में लिखा था, ‘कितना सुहाना मौसम है.’

दूसरी पर्ची में लिखा था,’आज तो लौंग ड्राइव पर जाना बनता है.’

तभी मानसी ने तीसरी पर्ची उस की ओर सरकाई तो वह कुछ चिढ़ गया, “तुम्हारा मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता, मानसी?” विपुल ने कहा तो मानसी बस खिसिया कर हंस पड़ी.

“अरे, यह तो बचपन से ऐसी ही है. पर्चियों से इस का नजदीकी रिश्ता है. आखिर, उन्हीं के बल पर पास होती आई है”, अनुजा ने राज खोला.

“अच्छा, तो पर्चियों से पुराना नाता है. देखो न, अभी भी पढ़ते समय न जाने क्या कुछ पर्चियों पर लिख कर मेरी ओर सरकाती रहती है”, विपुल की बात पर तीनों हंस पड़े.

“और यह मैडम न जाने क्या कुछ पढ़ने में मगन रहती हैं”, कहते हुए मानसी से अनुजा के हाथ से किताब छीनी.

“अरे, मुझे तो पढ़ने दो. बहुत अच्छा आलेख प्रकाशित हुआ है इस पत्रिका में. जानते हो, हम सब की आदर्श कार मर्सिडीज का नाम कैसे पड़ा? जरमनी के एक उद्योगपति ऐमिल येलेनेक कारों को बेचने का व्यापार करते थे. उन्होंने डाइमर मोटर्स की कई गाड़ियां खरीदीं और बेचीं. गाड़ियों की इस कंपनी को लिखे कई खतों में उन्होंने यह शर्त रखी कि अपनी स्पोर्ट्स कार का नाम ऐमिल की बड़ी बेटी मर्सिडीज येलेनैक के नाम पर रखा जाए, क्योंकि उन के साथ व्यापार करने से कंपनी को काफी लाभ होता था. कंपनी ने उन की शर्त मान ली. उस वक्त मर्सिडीज केवल 11 वर्ष की थीं जब दुनिया इस दौर को ‘मर्सिडीज इरा’ पुकारने लगी.

बड़ी होने पर मर्सिडीज की 2 शादियां हुईं मगर एक भी सफल नहीं रही. अपने 2 बच्चों को पालने के लिए उन्हें लोगों के आगे हाथ पसारने पड़े. फिर उन्हें कैंसर हो गया और केवल 39 वर्ष की आयु में उन की मृत्यु हो गई. सोचो जरा, जिस कार का नाम समृद्धि और सफलता का पर्याय बन गया है, वह जिस व्यक्ति के नाम पर रखी गई उस का अपना जीवन कितना संघर्ष में बीता. है न यह कितनी बड़ी विडंबना.”

“तुम भी न जाने क्या कुछ ढूंढ़ कर पढ़ती रहती हो”, अनुजा की बात पूरी होने पर मानसी बोली.

“मेरी बकेट लिस्ट में दुनिया घूमना शामिल है”, विपुल बोला, “ऐसी रोचक जानकारियों को जानने के बाद मेरी इन जगहों को देखने की इच्छा और प्रबल हो जाती है. अब मर्सिडीज कार को देखने का मेरा नजरिया बदल जाएगा. तुम ने इतनी अच्छी जानकारी दी, उस के लिए धन्यवाद, अनुजा”, विपुल अनुजा के पढ़ने के शौक से प्रभावित हुआ. उसे भी अनुजा की तरह इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान में बेहद रूचि थी.

*शाम* को तीनों बाहर रेस्तरां में खाना खाने गए. तीनों ने अपनीअपनी पसंद का भोजन और्डर किया.

“कमाल है, तुम दोनों के खाने की पसंद भी कितनी मिलती है”, अनुजा और विपुल के साउथ इंडियन खाना और्डर करने पर मानसी ने कहा, “मैं तो मुगलई खाना मंगवाऊंगी.”

कालेज की अन्य सहेलियां मानसी की नजरों में विपुल के प्रति उठ रहे जज्बातों को पढ़ने में सक्षम होने लगी थीं. वे अकसर मानसी को विपुल के नाम से छेड़तीं. कुछ लड़कियां विपुल को मानसी का बौयफ्रेंड तक बुलाने लगी थीं. ऐसी संभावना की कल्पना मात्र से ही मानसी का मन तितली बन उड़ने लगता. चाहती तो वह भी यही थी मगर कहने में शरमाती थीं. सहेलियों को धमका कर चुप करा देती. बस चोरीछिपे मन ही मन फूट रहे लड्डुओं का स्वाद ले लिया करती.

“कल मूवी का कार्यक्रम कैसा रहेगा?”, मानसी के प्रश्न उछालने पर अनुजा इधरउधर झांकने लगी.

विपुल बोला, “कौन सी मूवी चलेंगे? मुझे बहुत ज्यादा शौक नहीं है फिल्म  देखने का.”

“लगता है तुम दोनों पिछले जन्म के भाईबहन हो. अनुजा को भी मूवी का शौक नहीं. उसे तो बस कोई किताबें दे दो, तुम्हारी तरह. लेकिन कभीकभी दोस्तों की खुशी के लिए भी कुछ करना पड़ता है तो इसलिए इस शनिवार हम तीनों फिल्म देखने जाएंगे, मेरी खुशी के लिए”, इठलाते हुए मानसी ने अपनी बात पूरी की.

विपुल के चले जाने के बाद अनुजा, मानसी से बोली, “तुम दोनों ही चले जाना फिल्म देखने. तुम्हारे साथ होती हूं तो लगता है जैसे कबाब में हड्डी बन रही हूं.”

“कैसी बातें करती हो? ऐसी कोई बात नहीं है. हम दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त हैं,” मानसी ने उसे हंस कर टाल दिया.

जब तक विपुल के मन की टोह न ले ले, मानसी अपने मन की भावनाएं जाहिर करने के लिए तैयार नहीं थी.

“जो कह रही हूं, कुछ सोचसमझ कर कह रही हूं. तेरी आंखों में विपुल के प्रति आकर्षण साफ झलकता है. पता नहीं उसे कैसे नहीं दिखा अभी तक”, अनुजा की इस बात सुन कर मानसी के अंदर प्यार का वह अंकुर जो अब तक संकोचवश उस के दिल की तहों के अंदर दब कर धड़क रहा था, बाहर आने को मचलने लगा.

विपुल को देख कर उसे कुछ कुछ होता था, पर यह बात वह विपुल को कैसे कहे, इसी उधेड़बुन में उस का मन भटकता रहता.

‘अजीब पगला है विपुल. इतने हिंट्स देती हूं उसे पर वह फिर भी कुछ समझ नहीं पाता. क्या मुझे ही शुरुआत करनी पड़ेगी…’, मानसी अकसर सोचा करती.

*आजकल* मानसी का मन प्रेम हिलोरे खाने लगा था. विपुल को देखते ही उस के गालों पर लालिमा छा जाती. अब तो उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल भी न लगता. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ प्यारभरी मीठी बातें करे. जब भी वह विपुल से मिलती, चहक उठती. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ ही रहे, छोड़ कर न जाए. आजकल वह प्रेमभरे गीत सुनने लगी थी और अपने कमजोर शब्दकोश की सहायता से प्यार में डूबी कविताएं भी लिखने लगी थी. लेकिन यह सारे राज उस ने अपनी निजी डायरी में कैद कर रखे थे. विपुल तो क्या, अनुजा भी इन गतिविधियों से अनजान थी.

*उस* शाम जब अनुजा किसी काम से बाहर गई हुई थी तो विपुल रूम पर आया. मानसी तभी सिर धो कर आई थी और उस के गीले बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे. मानसी अकसर अपने बालों को बांध कर रखा करती थी मगर आज उस के सुंदर केश बेहद आकर्षक लग रहे थे.

“आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो. अपने बालों को खोल कर क्यों नहीं रखतीं?” विपुल ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मेरे बाल अच्छे लगते हैं, मैं नहीं?”, मानसी ने खुल कर सवाल पूछे तो उत्तर में विपुल शरमा कर हंस पड़ा.

दोनों नोट्स पूरे करने बैठ गए.

“ओह, कितनी सर्दी हो रही है आजकल. यहां बैठना असहज हो रहा है. चलो, अंदर हीटर चला कर बैठते हैं”, कहते हुए मानसी विपुल को बैडरूम में चलने का न्योता देने लगी.

“आर यू श्योर?”, विपुल इस से पहले कभी अंदर नहीं गया था. जब भी आया बस लिविंगरूम में ही बैठा.

“हां.. हां…. चलो अंदर आराम से बैठ कर पढ़ेंगे. फिर मैं तुम्हें गरमगरम कौफी पिलाऊंगी.”

विपुल और मानसी दोनों बिस्तर पर बैठ कर पढ़ने लगे. मानसी ने तह कर रखी रजाई पैरों पर खींच लीं. दोनों सट कर बैठे पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली कड़कने लगी. हलकी सी एक चीख के साथ मानसी विपुल से चिपक गई, “मुझे बिजली से बहुत डर लगता है. जब तक अनुजा वापस नहीं आ जाती प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाना.”

“ठीक है, नहीं जाऊंगा. डरती क्यों हो? मैं हूं न”, विपुल उस की पीठ सहलाते हुए बोला.

फिर एक बात से दूसरी बात होती चली गई. बिना सोचे ही विपुल और मानसी एकदूसरे की आगोश में समाते चले गए. कुछ ही देर में उन्होंने सारी लक्ष्मणरेखाएं लांघ दीं. बेखुदी में दोनों जो कदम उठा चुके थे उस का होश उन्हें कुछ समय बाद आया.

बाहर छिटपुट रोशनी रह गई थी. सूरज ढल चुका था. कमरे में अंधेरा घिर आया. मानसी धीरे से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. विपुल भी चुपचाप बाहर आया और कुरसी खींच कर बैठ गया. दोनों एकदूसरे से कुछ कह पाते इस से पहले अनुजा वापस आ गई. उस के आते ही विपुल “देर हो रही है,” कह कर अपने घर चला गया. जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ था मगर फिर भी मानसी आज बेहद खुश थी. उसे अपने प्यार का सानिध्य प्राप्त हो गया था. आगे आने वाले जीवन के सुनहरे स्वप्न उस की आंखों में नाचने लगे. आज देर रात तक उस की आंखों में नींद नहीं झांकी, केवल होंठों पर मुस्कराहट  तैरती रही.

“क्या बात है, आज बहुत खुश लग रही हो?” अनुजा ने पूछा तो मानसी ने अच्छे मौसम की ओट ले ली.

*अगले* दिन विपुल मानसी के रूम पर उसे पढ़ाने नहीं आया बल्कि कालेज में भी कुछ दूरदूर ही रहा. करीब 4 दिनों के बाद मानसी कालेज कैंटीन में बैठी चाय पी रही थी कि अचानक विपुल आ कर सामने बैठ गया. उसे देखते ही मानसी का चेहरा खिल उठा.

“हाय, कैसे हो?”, मानसी ने धीरे से पूछा.

पर विपुल को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह पतला हो गया हो.

‘तो क्या विपुल बीमार था, इस वजह से दिखाई नहीं दिया’, मानसी सोचने लगी, ‘और मैं ने इस का हालतक नहीं पूछा. मन ही मन मान लिया कि उस दिन की घटना के कारण शायद विपुल सामना करने में असहज हो रहा हो.’

“मानसी, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं. उस शाम हमारे बीच जो कुछ हुआ वह… मैं ने ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था. बस यों ही अकस्मात हालात ऐसे बनते चले गए. प्लीज, हो सके तो मुझे माफ कर दो और इस बात को यहीं भूल जाओ. मैं भी उस शाम को अपनी याददाश्त से मिटा दूंगा.”

‘तो इस कारण विपुल पिछले कुछ दिनों से रूम पर नहीं आया.’ मानसी का शक सही निकला. उस दिन की घटना के कारण ही विपुल मिलने नहीं आ रहा था.

उस शाम मानसी को विपुल का साथ अच्छा लगा था. वह पहले से ही विपुल की ओर आकर्षित थी. अब यदि उस का और विपुल का रिश्ता आगे बढ़ता है तो मानसी को और क्या चाहिए. वह खुश थी मगर आज विपुल की इस बात पर उस ने ऊपर से केवल यही कहा, “मैं ने बुरा नहीं माना, विपुल. मैं तो उस बात को एक दुर्घटना समझ कर भुला भी चुकी हूं. तुम भी अपने मन पर कोई बोझ मत रखो.”

मानसी चाहती थी कि अब उसका और विपुल का प्यार आगे बढ़े, पहली सोपान चढ़े और धीरेधीरे गहराता जाए. इसलिए विपुल को किसी भी तनाव में रख कर इस रिश्ते के बारे में सोचा नहीं जा सकता, यह बात वह अच्छी तरह समझ चुकी थी. प्यार की क्यारी को पनपने के लिए जो कोमल मिट्टी मन के आंगन में चाहिए उसे अब वह अपनी सहज बातों और मीठे व्यवहार की खुरपी से रोपना चाहती थी.

इस घटना का जिक्र मानसी ने केवल अपनी डायरी में किया. अनुजा को उस शाम के बारे में कुछ नहीं पता था.

तीनों एक बार फिर पुराने दोस्तों की तरह मिलनेजुलने लगे. विपुल फिर सै रूम पर आने लगा. तीनों घूमनेफिरने जाने लगे. अब तक विपुल और अनुजा की भी अच्छी निभने लगी. एक तरफ विपुल के लिए मानसी की चाहत तो दूसरी तरफ विपुल से अनुजा की बढ़ती मित्रता, इस तिगड़ी में सभी बेहद प्रसन्न रहने लगे.

*एक* शाम जब अनुजा रूम पर आई तो मानसी ने हड़बड़ा कर अपनी डायरी जिस में वह कुछ लिख रही थी, बंद कर किताबों के पीछे छिपा दी.

“मुझे सब पता है क्या लिखती रहती हो तुम इस डायरी में”, अनुजा ने चुटकी ली.

“ऐसा कुछ नहीं है. तुम न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…” मानसी हंसी और कमरे से बाहर निकल गई. अनुजा उस के पीछेपीछे आई और कहने लगी, “मानसी, अगर विपुल आगे नहीं बढ़ पा रहा तो तुम्हें शुरुआत करनी चाहिए. मुझे लगता है अब समय आ गया है. हम तीनों की दोस्ती को 1 साल होने को आया है. हम एकदूसरे को अच्छी तरह समझने लगे हैं. अब ज्यादा सोचविचार में और समय मत गंवाओ. विपुल जैसा अच्छा लड़का सब को नहीं मिलता…आगे बढ़ो और अपने मन की बात विपुल से कह डालो.”

अनुजा ने मानसी को समझाया तो वह विपुल से अपने दिल की बात करने को राजी हो गई. अनुजा ने सुझाव दिया कि निकट आते वैलेंटाइन डे पर मानसी विपुल से अपने दिल की बात कह दे, मगर  वैलेंटाइन डे से पहले रोज डे पर विपुल ने अनुजा को लाल गुलाब दे कर अचानक प्रपोज कर दिया. ऐसे किसी कदम की उसे उम्मीद न थी. अनुजा हक्कीबक्की रह गई. कुछ कहते न बना. बस खामोशी से गुलाब हाथ में लिए वह रूम पर लौट आई. जब मानसी को इस घटना के बारे में पता लगा तो उसे अनुजा से भी ज्यादा ठेस लगी. वह तो विपुल को अपना बनाने की ख्वाब संजो रही थी लेकिन विपुल ने तो बाजी ही पलट दी.

अनुजा जानती थी कि मानसी के मन में विपुल को ले कर आकर्षण पनप रहा है. वह तो स्वयं ही मानसी को विपुल की ओर धकेल रही थी. मगर विपुल ने आज जो किया उस के बाद अनुजा मानसी से नजरें मिलाने में भी सकुचाने लगी.

‘न जाने मेरी सहेली मेरे बारे में क्या सोचेगी?’ अनुजा मन ही मन परेशान होने लगी. उस की बेचैनी उस के चेहरे पर साफ झलकने लगी.

मानसी ने अनुजा के अंदर उठ रहे तूफान को पढ़ लिया. आखिर दोनों बचपन से एकदूसरे का साथ निभाती आई थीं. भावनाएं बांटती आई थीं. अनुजा के चेहरे पर उठ रहे व्यग्रता के भावों को देख मानसी ने अपने चेहरे पर जरा भी व्याकुलता नहीं आने दी. एक सच्ची सहेली की तरह उस ने अनुजा के सामने स्वयं को उस की खुशी में प्रसन्न दर्शाया. उस ने अनुजा को यह कह कर समझाया कि जो कुछ वह सोच रही थी, ऐसा कुछ नहीं था. वे तीनों अच्छे मित्र हैं और मानसी के मन की भावनाएं केवल अनुजा की कल्पना मात्र हैं. विपुल की तरफ से कभी भी इस प्रकार का न तो कोई संदेश आया, न ही इशारा. वह दोनों केवल अच्छे दोस्त रहे.

“तुम्हें गलतफहमी हो गई थी, मेरी जान. विपुल मुझे नहीं तुम्हें पसंद करता है और इस का साक्षी है उस का दिया यह गुलाब का फूल. अब खुशी से फूल को अपनाओ और विपुल के साथ एक सुखी जीवन बिताओ. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं”, मानसी ने कहा तब जा कर अनुजा को थोड़ी शांति मिली.

मानसी ने यह सब केवल अनुजा को शांत करने के लिए कहा, मगर उस के अंदर जो ज्वालामुखी फट रहे थे उस का सामना करना उस के लिए कठिन हो रहा था. विपुल ने उसे धोखा दिया है. वह उस के साथ ऐसा कैसे कर सकता है? क्या मानसी की आंखों में विपुल ने कभी कुछ नहीं पढ़ा? और उस शाम का क्या जो उन दोनों ने एकदूसरे की बांहों में गुजारीं? मानसी को इन सभी सवालों के दैत्य घेरने लगे. वह भीतर ही भीतर सुलगने लगी. अपनी सब से प्यारी सहेली की खुशी में वह बाधा नहीं बनना चाहती पर दिल का क्या करे.

अगला पूरा हफ्ता इसी उहापोह में बीता. अनुजा के समक्ष ऊपर से शांत और प्रसन्न दिखने वाली मानसी अंदर ही अंदर घुल रही थी.

आखिर दिल पर दिमाग हावी हो ही गया. इतने दिनों से चल रही मगजमारी में मानसी का शैतानी मन उस के शांत मन से जीत गया. उस ने ठान लिया कि वह विपुल को सबक सिखा कर रहेगी और उस की सचाई अनुजा के सामने खोल देगी. इसी आशय से उस ने सुबूत के तौर पर अपनी डायरी उठाई और तैयार हो कर कालेज चली गई. आज वह इस डायरी में बंद हर राज को अनुजा के समक्ष रख देगी.

*कालेज* में हर जगह लाल रंग की लाली छाई हुई थी. आज वैलेंटाइन डे था. हर ओर लाल गुब्बारे, दिल की शेप के कटआउट, लाल रिबन, लड़कियां भी लाललाल पोशाकों में सजी हुईं अपने अपने बौयफ्रैंड के साथ इठलाती घूम रही थीं. कहां आज ही के दिन मानसी ने विपुल से अपने दिल की बात कहने की सोची थी और कहां आज वह विपुल और अनुजा के बनते हुए रिश्ते को तोड़ने जा रही है.

मानसी ने कैफेटेरिया में विपुल और अनुजा को एकसाथ बैठे देख लिया. उस की तरफ उन दोनों की पीठ थी. सधे हुए तेज कदमों से बढ़ती हुई वह उन की तरफ लपकी. इस से पहले कि वह उन्हें आड़े हाथों लेती उस के कानों में उनका वार्तालाप सरक गया.

“अनुजा, तुम मुझे पहले ही दिन से पसंद आ गई थीं. तुम्हारा मितभाषी स्वभाव मेरे अपने अंतर्मुखी स्वभाव से मेल खाता है”, विपुल बोला.

“हां, और देखो न हमारे स्वाद, हमारी इच्छाएं और आकांक्षाएं भी कितनी मिलतीजुलती हैं. सच कहूं तो मैं ने तुम्हें कभी उस नजर से देखा नहीं था”, अनुजा कह रही थी, “बल्कि मैं तो कुछ और ही समझती रही थी अब तक,” संभवतया अनुजा का इशारा मानसी की ओर था.

“समझने में मुझे भी कुछ समय जरूर लगा. कभीकभी मन में कुछ संशय भाव भी उभरे. पर यह निर्णय मैं ने बहुत सोचसमझ कर किया है. जीवन में गलती सभी से हो जाती है मगर समझदार वही व्यक्ति है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़ता है”, विपुल ने अपनी बात पूरी की.

पीछे खड़ी मानसी सब सुन रही थी. ‘सच ही तो कह रहे हैं दोनों. एकदूसरे के लिए यही बने हैं. दोनों के स्वभाव एकदूसरे के अनुकूल हैं. क्या एक बार सोने से प्यार हो जाता है? नहीं न… विपुल और उस के बीच जो हुआ वह प्यार का नहीं जवानी के आकर्षण व जोश का परिणाम था, जो शायद किसी के भी साथ हो सकता है. एक बार हुई ऐसी घटना के बलबूते पूरे जीवन के निर्णय नहीं लिए जा सकते और न ही लेने चाहिए. विपुल ने सही निर्णय लिया जो सोचसमझ कर अपने अनुरूप साथी का चयन किया. दोनों साथ में कितने खुश हैं. मेरे दोस्त हैं. क्या इन की खुशी पर वज्रपात कर के मैं खुश रह पाऊंगी? क्या ऐसा करने के बाद मैं स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? निर्णय वही लेना चाहिए जिस से जीवन सुखी हो. आज भावेश में आ कर मैं यह क्या करने जा रही थी…’, मानसी ने अपने कदम रोक लिए. अपनी डायरी को उस ने वापस अपने बैग में छिपा दिया. अब इसकी जरूरत कभी नहीं पड़ेगी.

नभ में छाई घटाएं खुलने लगीं. बसंत के मध्यम सूरज की सुहानी किरणें हर ओर उजाले की बौछारें करने लगीं. मानसी के मन के अंदर भी यह उजाला उतरने लगा. उस के चेहरे पर मुसकराहट आने लगी.

“अच्छा बच्चू, मुझ से गुपचुप यहां अकेले पार्टी करने का प्रोग्राम है. तुम दोनों भले ही एक कपल बन गए हो पर मैं कबाब में हड्डी बनने से संकोच नहीं करूंगी. मुझे भी तुम्हारे साथ पार्टी करनी है”, कहते हुए मानसी ने अपनी दोनों बांहें पसार दीं.

अनुजा और विपुल ने भी हंसते हुए उसे अपनी बांहों में ले लिया. तीनों ने कौफी और केक का और्डर दिया. अनगिनत बातों का पिटारा फिर खुलने लगा.

Funny Indian Stories : मजेदार जिंदगी

व्यंग्य- डा. सुरेश मोहन प्रसाद

Funny Indian Stories : जापान के ओकिनावा में ओगिमी नामक विलेज है. इस के लोगों की औसत उम्र पूरे विश्व में सब से अधिक है. सभी शतकीय प्लस पारी खेलते हैं. इस विलेज के लोग कभी रिटायरमैंट की बात नहीं करते. हमेशा काम में व्यस्त रहते हैं. व्यस्त रहने से स्वास्थ्य ठीक रहता है. ओगिमी के लोग अपनी पसंद का जायकेदार भोजन करते हैं, लेकिन भरपेट भोजन से परहेज करते हैं यानी 80% पेट ही भरते हैं. भोजन में 20% की कमी ही उन की लंबी उम्र का राज है.

मेरी उम्र हुई तो मेरे पेरैंट्स ने ‘स्कोर्पियन’ से मेरी बेमेल जोड़ी बनाई. वैसे मेरी वाइफ खतरनाक स्कोर्पियन नहीं है. बिच्छू की तरह उस के पास जहरीला डंक बिलकुल नहीं है. उस ने अपनी बौडी पर स्कोर्पियन का टैटू बनवाया है.

‘‘मेरा जोडियक स्कोर्पियो है, इसलिए यह टैटू बनवाया है… आजकल टैटू का क्रेज है… मेरे सभी फ्रैंड्स ने टैटू बनवाए हैं…’’ स्कोर्पियन ने मुझे बताया.

‘‘हम ने तेरे लिए ब्यूटी क्वीन दुलहन पसंद की है… गोरीचिट्टी… लंबीछरहरी… पूरे 5 फुट

9 इंच की,’’ माताश्री ने मेरी नाक मरोड़ कर मुझे शुभ समाचार दिया था.

मेरा अपना जोडियक कैंसर है… मैं कैंसेरियन हूं… पता नहीं कैंसेरियनस्कोर्पियो की जोड़ी सही होती है या नहीं… बचपन से फूडी रहा हूं. मात्र 80% भोजन पर रोकना मुझ पर अत्याचार ही है. अपना तो नायक वाला फलसफा है कि जब तक जीयो सुख से जीयो, ऋण ले कर धृत का सेवन करो.

रब ने बना दी जोड़ी और यहीं से मेरी ट्रैजेडी की शुरुआत हो गई…

मेरी वाइफ में ओगिमी के जीन का समावेश है. मुझे परहेज पर विवश कर रखा है. ब्रेकफास्ट में अंकुरित मूंग और फ्रूट में सेवकेले का सलाद मिलता है. मेरे उदर तरसता रहता है… इस 25% से क्या संतुष्टि संभव है? मुझे तो मैदे की गरमगरम कचौरियां, रसीली जलेबियों के साथ मीठीतीखी रसदार सब्जी के 120% नाश्ते की जन्मजात आदत रही है. मेरा क्या होगा मुन्ना भाई के यार सर्किट?

‘‘मैं शतकवीर कतई नहीं बनना चाहता…’’ मैं ने ऐडवोकेट लगाए, लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट में अपील की है. लेकिन अब तक बेल नहीं मिली है. किस्मत में तिहाड़ जेल जाना ही लिखा है.

‘‘आदत हो जाएगी… सब्र से काम लीजिए… आप के हित में है… फैमिली को लंबे समय तक आप की जरूरत है,’’ स्कोर्पियन मुझे दिलासा देती है.

मात्र 80% लंच का किस्सा, 1 कटोरी दही और 1 केला मात्र. हर दिन, महीने… साल…

‘‘डिनर बिलकुल हैवी नहीं होना चाहिए… नींद में खलल पड़ता है… स्ट्रीट फूड बिलकुल नहीं… फूड डिसिप्लिन बेहद जरूरी है,’’ स्कोर्पियन मुझे प्यार से झिड़कती है.

वह न तो खुद पार्टी में जाती है और न ही मुझे जाने देती है. यदि जाने की मजबूरी हो तो सलाद से मुंह जूठा कर लिफाफा थमा कर आ जाती है.

जीवनभर शुद्ध वैजिटेरियन खाना खाने से मेरा तो बंटाधार हो जाएगा. अपनी सब से नजदीकी पड़ोसिन अपने हसबैंड को चिकनबिरयानी परोसती है. उस की किचन से देशी घी के बघार की खुशबू आती है. पड़ोसिन सुंदर भी तो है.

मुझे वन प्लस साइज पसंद है. विलियम शैक्सपीयर ने कहा है कि ब्लड ऐंड फ्लैश इज ब्यूटी… मैं स्कोर्पियन से नजरें बचा कर पड़ोसिन से कभीकभार नजरें चार भी कर लिया करता हूं. उस की मनमोहक मुसकान पर फिदा हो जाता हूं.

आप को आपत्ति होगी…आप कहेंगे कि पराई नार पर नजर मत डालो, बुरी आदत है

ये, इसे बदल डालो… आपसी आपत्ति बिलकुल जायज है. मगर जनाब मेरा पड़ोसी मिस्टर इंजीनियर मेरी स्कोर्पियन से बाकायदा इश्क फरमाते हैं. मेरे सामने अपनी बेगमजान की मौजूदगी में मेरी स्कोर्पियन की फिगर की तारीफ करते हैं. बहाने बना कर पहुंच जाते हैं… स्कोर्पियन उन के लिए स्वीट्स भी मंगाती है. मनाही तो सिर्फ मेरे लिए है.

लुकाछिपी का यह खेल खत्म करने की सोचते हैं. मुझे रिच फूड पसंद है. मैदे की पूरियां… रसभरी जलेबियां… पुलाव… बिरयानी… स्ट्रीट फूड… चाट, गोलगप्पे, स्वीट्स, सोहन हलवा, कैलोरी की कोई परवाह नहीं… ब्लड प्रैशर… यूरिक ऐसिड… डायबिटीज सबकुछ मंजूर है… मैं अपनेआप को पूरी तरह नैगलैक्ट कर के ही सही जीना चाहता हूं. मुझे लौंगिविटी नहीं लाइफ चाहिए… मजेदार जिंदगी… मैं अपनेआप को रोक कर, इच्छाओं का दमन कर रोजरोज नहीं मरना चाहता… मैं ओगिमी विलेज में नहीं, अपने शहर में रहना चाहता हूं…

हां तो जनाब, क्या हम अपनीअपनी पसंद को पसंद करने की दिशा में सोच सकते हैं?

Funny Hindi Stories : श्रीमतीजी का अविश्वास प्रस्ताव

‘‘ऐजी आप पहले जैसे नहीं रह गए,’’ एक वाक्य में श्रीमतीजी ने प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया.

हम सरकार के गिरने की उम्मीद लगा बैठे.

‘‘पगली तुम्हें आज 40 साल बाद यह महसूस क्यों हुआ?’’

‘‘देखो हम ने विकास के कितने सारे काम किए हैं. तुम ने सब चूल्हे में झोंक दिया?’’

‘‘बताओ क्या कमी देखती हो अपने सरकार में?’’

‘‘फिर हम भी अपनी सरकार की सुनाएंगे तो समझो चलती गाड़ी का पहिया बिलकुल रुक जाएगा?’’

हमारी चेतावनी पर ध्यान वे अकसर नहीं देतीं. इस बार भी वे इसे इग्नोर कर जातीं, मगर हम जज्बाती हो कर जरा तलखी में बोल गए थे. लिहाजा मामले ने दांपत्य जीवन की शांति भंग की सीमा लांघ दी थी. कुछ नर्म पड़ीं.

हम जानते थे कि दिलासे का जरा सा भी हाथ फेरा तो श्रीमती सुबक पड़ेंगी.

उन्हें नौर्मल करने के अंदाज में हम ने पूछा, देखो आप का बैल जैसा पति औफिस से सीधे घर आता है. ढेरो बालाएंबलाएं औफिस से घर के बीच टकराती घूमती हैं. उन से बच कर निकलता रहता है. फिर बताओ.

यह क्या बात हुई कि आप पहले जैसे नहीं रह गए?’’

‘‘चलो पहले वाली खूबियां गिनवा दो, खामियां बाद में सुन कर देखेंगे क्या बात है? आज शादी के 40 साल बाद आप ने विपक्ष की तरह लंबा मुंह खोला है.’’

‘‘जब हनीमून में गए थे तब आप कैसे आगेआगे हर काम कर रहे थे. स्टेशन से बैग लादना, हर रैस्टोरैंट में और्डर देने के पहले बाकायदा पसंद का पूछना, हर शौपिंग मौल में कितना एतराज कि हमारी ली हुई चीजों की तारीफ करना, उस पर यह कहना कि वेणु आप की पसंद लाजवाब है. मैं विभोर हो जाती थी. आप यह भी कहते तुम्हारा टेस्ट अच्छा है वेणु.’’

‘‘इस चक्कर में हम भी पसंद आ गए न?’’

‘‘सभी मर्द शादी की शुरुआत यों ही करते हैं क्या?’’

हम ने कहा वेणु ‘‘अरसा पहले कहीं पढ़ा था. जब आदमी नई कर लेता है और बीवी बैठने को आती है तो पति दरवाजा खुद खोलता है. इसे देख कर लोग 2 अनुमान लगाते हैं या तो कार नई है या फिर शायद बीवी.’’

हमारे इस जोक की पौलिश श्रीमती को कुछ उतरी हुई लगी. वे तर्क के दूसरे सिरे को पकड़ने को हुईं. ‘‘जनाब, शादी के शुरुआती दिनों में आप की हालत अपने स्टेट जैसी जर्जर थी. न सलीके का पहनना आता था न कोई खानेपीने का टेस्ट था. मैं सिर्फ खाने की कह रही हूं, पीने का शुरुआती टेस्ट तो आप ने दोस्तों की संगत में आजमाना चालू कर दिया था. मैं आप की डैटिंगपैंटिंग क्लास सख्ती से न लेती तो आप ढोलक माफिक फूल गए होते.’’

उलाहना दर उलाहना हमें झुकाने, नीचे पटकने का यह अर्धवार्षिक कार्यक्रम पिछले कुछ दिनों से तिमाही के स्तर पर सैंसैक्स की भांति लुढ़क गया है. हमें अपनी टीआरपी सुधारने का नुसखा तब हासिल होता है, जब कोई धांसू चीज लिख कर उम्दा मैगजीन में छपवा लें. जवाब में हम फक्र से श्रीमती को दिखाकर कहते, ‘‘यह छपी है देख लो.’’

इस प्रदर्शन नुमाइश में वे आर्थिक पहलू पर नजर रखते हुए पूछतीं, ‘‘इस छपे पर कितना मिलेगा?’’

‘‘वे आजकल कुछ देतेवेते नहीं, उलट ईमल से भेजो तो नखरे दिखाते हैं कि हम ईमेल की रचना स्वीकार नहीं करते. भाई लोग हार्ड कौपी मांगते हैं. रचनाओं के स्पीड पोस्ट से… भेजते किसी गरीब लेखक का क्या होता होगा पता नहीं.’’

‘‘मैं देखती हूं, जब भी अपने गुस्से का व्यावहारिक इजहार करती हूं तो आप अपनी साहित्य यात्रा में निकल पड़ते हैं या इसे बीच में ढाल बना खड़े हो जाते हैं. साहित्य भाव मुझ में भी मौजूद हैं, मगर आप के चूल्हेचकले के झंझट में वही रोटी माफिक गोल हो जाते हैं. हां, तो मैं कह रही थी.’’

‘‘आप आजकल बदल गए हैं.’’

हम ने बात को फिर मरोड़ा, ‘‘हां 60 साल की उम्र बदलने की ही होती है.’’ रिटायरमैंट के फक्त 6 महीनों में यह हाल है, हमें घर बैठे देख ऊब जाने का, तो आगे अल्ला जाने क्या होगा, मौला जाने क्या होगा?’’

‘‘देखो घर में दिनभर, कोटटाई में, हिंदुस्तान का कोई भी माई का लाल नहीं रहता. देशी स्टाइल, यानी लुंगीपाजामाकुरता, बनियान यही लपेटे रहता है. हम से जरा नीचे लेबल वाले लोग तो धारीदार चड्डियों में ही पाए जाते हैं. अब इसे बदलना कहते हैं तो बेशक हम बदल गए हैं.’’

श्रीमतीजी को बेकार की बातों पर कान धरने की फुरसत नहीं थी. अत: झल्लाते हुए अंतिम हथियार की सौगात ब्रह्मास्त्र के रूप में दी. गुस्से से पूछा. ‘‘आज तारीख क्या है?’’

हम ने सहजता से कहा, ‘‘6 अगस्त. कल ही तो बैंक से निकाल कर के घर खर्चे वाली रकम दी थी या नहीं, हम ने याददास्त पर जोर दे कर बताया.’’

उधर से दांत पीसने की प्रतिक्रिया नजर आई, ‘‘बस 6 अगस्त…फिर कल?’’

हम ने उसी सहजता से फिर कहा ‘‘एक दिन पहले तो 5 अगस्त हुआ न…न…न…?’’

5 अगस्त याद करते ही हमारी जीभ लड़खड़ा गईं, ‘‘सौरी वेणु डार्लिंग. हमें आप का बर्थडे परसों तक बामुकम्मल याद था. हम ने आराधना ज्वैलर्स को पहली तारीख को बाकायदा और्डर दिया है नई डिजाइन के नैकलैस का.

यह वही नैकलैस है जिसे आप हसरत से रिटायरमैंट के पहले उस ज्वैलर्स की शौप में देख रही थीं. तब हम ने खुद से वादा किया था कि रिटायरमैंट के बाद के पहले बर्थडे पर यह तोहफा तुम्हें दूंगा.’’

श्रीमती जी के मुरझाए चेहरे पर तनिक विश्वास लौटा. वे हमारे चरण छूने को झुकीं

तो हम ने बांहों में थाम लिया. फिर कहा ‘‘हर बर्थडे पर आप पैर छूती थीं, कल क्या हुआ जो…?’’

‘‘अगर छू लेतीं तो हमें याद नहीं आ जाता क्या…’’

‘‘मैं यह देखना चाहती थी कि मेरे भुलक्कड़ राम क्याक्या भूल सकते हैं? मैं ने मौन व्रत ले रखा था अपनी तरफ से… कई बहाने किए आप को याद आ जाए, मगर आप जब अलग दुनिया में खोए रहते हैं.’’

‘‘चलो ज्वैलर्स के पास चलें वरना…’’ हम ने चलने की तैयारी करते पूछ लिया, ‘‘बच्चो ने विश किया?’’

श्रीमतीजी फिर उदासी की लंबी गुफा में समाने लगीं. फिर उदास स्वर में बोलीं.

‘‘आजकल सब अपनी लाइफ जीते हैं… पता नहीं उन्हें याद भी हो या नहीं?’’

हम ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं छोड़ो, मेरी तरह भूल गए होंगे… आप आज अपनी मरजी की पूरी शौपिंग कर लो… हम ने एटीएम कार्ड को चैक कर पर्स में रखा है… बाहर ही खा कर लौटेंगे.’’

श्रीमती चुपचाप साथ हो लीं.

हमें लगा कि अविश्वास प्रस्ताव ने आखिर दम तोड़ दिया.

Miss India 2024 : निकिता पोरवाल का सफर नहीं था आसान, पढ़ें खास इंटरव्यू

Miss India 2024 : 24 वर्षीय खूबसूरत, सुंदर कदकाठी, विनम्र, हंसमुख निकिता पोरवाल मध्यप्रदेश के उज्जैन की रहने वाली हैं. उन्होंने मिस इंडिया 2024 का खिताब अपने नाम किया है और अब मिस वर्ल्ड पेजेंट में भारत का प्रतिनिधित्व करेंगी. निकिता एक ऐक्टर हैं और 18 साल की उम्र से काम कर रही हैं और उन्होंने एक टीवी एंकर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की थी. निकिता अब तक 60 से ज़्यादा नाटकों में काम कर चुकी हैं और उन्होंने एक फिल्म में भी काम किया है, जो कई इंटरनेशनल फैस्टिवल में दिखाई जा चुकी है और जल्द ही भारत में रिलीज़ की जाएगी. मिस इंडिया निकिता पोरवाल ने परंभिक शिक्षा उज्जैन से की है और थिएटर में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए बैचलर औफ परफौर्मिंग आर्ट्स की डिग्री बड़ौदा से किया है.

निकिता पिछले दिनों रायल कौलेज औफ औब्सटेट्रिशियन एंडल गायनेकोलौजिस्ट्स (एआईसीसी आरसीओजी) की जागरूकता अभियान में शामिल हुई और बताया कि गर्भाशय कैंसर की रोकथाम के लिए किशोरियों और युवा लड़कियों को वैक्सीन लगाना अनिवार्य है, क्योंकि ये उनका हक है कि वे हमेशा स्वस्थ रहे. इतना ही नहीं, सर्वाइकल कैंसर के आंकड़े विश्वभर में महिलाओं में होने वाले कैंसर में चौथे स्थान पर आता है, जिसमें लगभग 70% मामलों का कारण एचपीवी यानि ह्यूमन पेपिलोमावायरस, जो एक सामान्य यौन संचारित वायरस है और यह वायरस जननांगों के साथ अंतरंग संपर्क के ज़रिए फैलता है, जो पुरुष और महिला दोनों को संक्रमित कर सकता है, जिसमें 15 से 44 वर्ष की आयु वाली भारतीय महिलाओं को प्रभावित करने वाले कैंसरों में यह दूसरे स्थान पर आता है, जो चिंता का विषय है. इसे आज की सभी लड़कियों को जागरूक होकर डौक्टर की सलाह से वैक्सीन लेने की आवश्यकता है, ताकि वे खुद को इस बीमारी से बचा सकें.

परिवार में हुआ बड़ा औपरेशन  

सर्वाइकल कैंसर के बारें में जागरूकता की कमी को लेकर निकिता कहती है कि हमारे शहर में एक शब्द बड़ा औपरेशन कहा जाता है, जो मेरी मां और दादी को हुआ है, जिसमें उनके यूट्रस निकाले गए है, क्योंकि उनमें सर्वाइकल कैंसर के लक्षण थे, जिसका पता उन्हे बाद में चला था. इसलिए ये बहुत ही कौमन है, 10 में से 8 को होता है, जो उनके जान के लिए भी खतरा होता है. अभी मैं जान गई हूं कि वैक्सीन लगाने से इस बीमारी से छुटकारा पाया जा सकता है तो मैं अवश्य इसमें जागरूकता फैलाने की कोशिश करती रहूंगी.

मिली प्रेरणा

निकिता अभिनेत्री और मिस वर्ल्ड रह चुकीं ऐश्वर्या राय को अपना आदर्श मानती रही हैं और उन्हीं से प्रेरणा लेती रही हैं. निकिता का सपना है कि वो संजय लीला भंसाली की फिल्मों में काम करें. बौलीवुड ऐक्ट्रैस ऐश्वर्या राय और प्रियंका चोपड़ा ने भी ये टाइटल जीता था और उसके बाद कई सालों से संजय लीला भंसाली की फिल्मों का हिस्सा रही हैं. वह कहती हैं कि मुझे हमेशा से ऐक्टिंग का शौक था, मैं एक थिएटर एक्ट्रेस भी हूं, इसलिए अगर कोई अच्छी कहानी फिल्म के लिए मिले, तो मैं उसमें काम करना पसंद करूंगी. ऐक्टिंग के साथ निकिता को जानवरों से भी बहुत प्यार है. वो एनिमल वेलफेयर के लिए काम करती रहती हैं, जो उनके दिल के बहुत करीब है.

मां का सपना  

परिवार का सहयोग निकिता को हमेशा मिला है, उनके साथ उनकी मां का भी सपना था कि वह मिस इंडिया बनें, इसलिए इसका श्रेय वह अपनी मां को देती हैं. वह हंसती हुई कहती हैं कि मैंने मिस इंडिया का सपना बचपन से ही देखा है, मुझे याद है, जब मैं 7 साल की थी, तो मेरी मां ने एक फैन्सी ड्रेस काम्पिटिशन में मुझे मिस इंडिया बनाया था, जिसमें मुझे पुरस्कार मिला, तब  मैं केवल 7 साल की थी, लेकिन जब मैं कौलेज में गई, तो मेरा उद्देश्य देश को ग्लोबल स्टेज पर प्रस्तुत करने का था, जिसमें मेरा सपना विश्व सुंदरी का था.

ब्यूटी के साथ उत्तरदायित्व

खूबसूरत निकिता कहती हैं कि मिस इंडिया बनने पर कई उत्तरदायित्व होते है, जिसे मैं फौलो करूंगी, क्योंकि किसी भी शारीरिक समस्या पर अधिकतर लड़कियां खुलकर बात नहीं करती, मैं उनके दिल में साहस भरकर उन्हे आगे लाना चाहती हूं. मिस इंडिया बनने पर आप सिर्फ भारत की सबसे सुंदर लड़की नहीं बनते, बल्कि उन लड़कियों की उत्तरदायित्व होता है, जो अपनी ड्रीम के लिए फाइट करना चाहती है, ऐसे में मैं एक अच्छा और अप्रोचेबल इंसान बनकर उनका साथ देने की इच्छा रखती हूं. ऐसी छोटीछोटी बदलाव के साथ मुझे जागरूकता लानी है और भारत सुंदरी को विश्व सुंदरी में बदलने की इच्छा रखती हूं, जो इंटेलीजेन्सी के साथसाथ कमिट्मेंट और देशभक्ति के साथ जुड़ा हो.

यूथ की बनूंगी हमसफ़र

निकिता आगे कहती है कि मैं खुद को ग्राउनडेड रखकर ही कुछ कर सकती हूं, मैंने देखा है कि छोटे शहर से आगे बढ़ने वाला अकेले आगे नहीं बढ़ता, बल्कि एक कुनबे को लेकर आगे बढ़ता है, वही से मेरे अंदर ग्राउनडेड वाली फीलिंग आई है, जब भी मैं किसी से मिलती हूं, तो खुद को उनके अनुसार रखने की कोशिश करती हूं, ताकि उन्हे भी लगे कि कोई लड़की उनके बीच से ही यहां तक पहुंची है.

सफर नहीं था आसान  

वह कहती है कि यहां तक पहुंचना मेरे लिए आसान नहीं था, क्योंकि मध्यप्रदेश से कोई भी इस खिताब को पहले जीता नहीं है, ऐसे में यह पहला मौका मुझे मिला है. मिस मध्यप्रदेश बनने के बाद मैंने बहुत मेहनत किया है, ताकि मंच पर सही लग सकूं, खुद को कई महीनों तक ग्रूम किया है. मैंने कल्पना तक नहीं की थी, लेकिन मुझे ये पुरस्कार मिला है और मैं बहुत खुश हूं. आगे मैँ मिस वर्ल्ड बनने की पूरी तैयारी कर रही हूं.

दिया संदेश

नए साल में मैं महिलाओं से कहना चाहती हूं कि एमपावरमेंट का केवल एक फेज नहीं होता, अगर आप जौब करती है, परिवार को संभालती है या खुद को सशक्त बनाती है, तो इन सारी परिस्थितियों में जो आपकी चाइस है, जिसे आप आजादी के साथ कर सकती है, आप एमपावर्ड कहलाएंगी.

Winter Tips For Plant : सर्दियों में पौधों की ऐसे करें देखभाल, रंगत रहेगी बरकरार

Winter Tips For Plant : सर्दियां अकसर पेड़पौधों पर अपना कहर ढाती हैं, जो इस के लिए तैयार नहीं होते. आमतौर पर इन दिनों पेड़पौधे मुरझा जाते हैं और बगीचा बेजान सा दिखने लगता है.

मगर इस वर्ष सर्दियों के मौसम में आप के बगीचे के साथ ऐसा न हो इस के लिए आप को इसे सर्दी के लिए अपना बगीचा समय रहते तैयार करना होगा जिस से पौधों की रंगत बनी रहे.

करें ये काम :

पौधों को कवर करें : प्लास्टिक थैलियों, थीक फैब्रिक, बौक्स से ढ़कें, बगीचों की क्यारियों को ऊंचा उठाएं व पौधों और झाड़ियों की छंटाई न करें.

पानी देते समय ध्यान रखें : ठंड में कम पानी की जरूरत होती है. इसलिए ज्यादा पानी देने से जड़ों में गलन आने लगती है.

सूर्य प्रकाश की जरूरत : इस के लिए गमलों के पौधों को तो घुमा कर रख सकते हैं ताकि सभी पौधों को कुछ धूप अवश्य मिल सके.

पत्तियों में धूल न जमने पाए : धूल जमने से सूर्य प्रकाश अवरोधित होगा और पौधों की प्राकृतिक प्रक्रिया जैसे प्रकाश संश्लेषण बाधित होगी. इसलिए हो सके तो स्प्रे बोतल का प्रयोग कर पत्तियां साफ रखें.

इंडोर पौधों को थोड़ी सूर्य की रौशनी आवश्य दिखाएं

● सर्दियों में पौधों को खाद की अधिक आवशयकता नहीं होती.

● ठंड में जब तापमान कम होगा और सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ेगी तो कीड़ों व बीमारियों विशेषकर कवक जनित बीमारियों के लिए अनुकूल परिस्थिति निर्मित हो जाती है. अतः सप्ताह में 2 बार निगरानी रखें और आवश्यकतानुसार उपचारित करें !

Inspirational Hindi Stories : हिजड़ा

Inspirational Hindi Stories : पिछले कई दिनों से बस स्टैंड के दुकानदार उस हिजड़े से परेशान थे जो न जाने कहां से आ गया था. वह बस स्टैंड की हर दुकान के सामने आ कर अड़ जाता और बिना कुछ लिए न टलता. समझाने पर बिगड़ पड़ता. तालियां बजाबजा कर खासा तमाशा खड़ा कर देता.

एक दिन मैं ने भी उसे समझाना चाहा, कुछ कामधंधा करने की सलाह दी. जवाब में उस ने हाथमुंह मटकाते हुए कुछ विचित्र से जनाने अंदाज में अपनी विकलांगता (नपुंसकता) का हवाला देते हुए ऐसीऐसी दलीलें दे कर मेरे सहित सारे जमाने को कोसना प्रारंभ किया कि चुप ही रह जाना पड़ा. कई दिनों तक उस की विचित्र भावभंगिमा के चित्र आंखों के सामने तैरते रहते और मन घृणा से भर उठता.

फिर एकाएक उस का बस स्टैंड पर दिखना बंद हो गया तो दुकानदारों ने राहत की सांस ली, लेकिन उस के जाने के 2-3 दिन बाद ही न जाने कहां से एक अधनंगी मैलीकुचैली पगली बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती नजर आने लगी थी. अस्पष्ट स्वर में वह न जाने क्या बुदबुदाती रहती और हर दुकान के सामने से तब तक न हटती जब तक कि उसे कुछ मिल न जाता.

जब कोई कुछ खाने को दे देता तो कुछ दूर जा कर वह सड़क पर बैठ कर खाने लगती. जबकि पैसों को वह अपनी फटी साड़ी के आंचल में बांध लेती, कोई दया कर के कपड़े दे देता तो उसे अपने शरीर पर लपेट लेती. कभी वह बड़ी ही विचित्र हंसी हंसने लगती तो कभी सिसकियां भरभर कर रोने लगती. उस का हास्य, उस का रुदन, सब उस के जीवन के रहस्य की तरह ही अबूझ पहेली थे.

कभी किसी ने उसे नहाते न देखा था, मैल की परतों से दबे उस के शरीर से ऐसी बदबू का भभका उठता कि दुकान में उस के आते ही दुकानदार जल्दी से उस के पास 1-2 रुपए का सिक्का फेंक कर उसे दूर भगाने का प्रयास करते. लेकिन इन सब के बावजूद वह उम्र के लिहाज से जवान थी और यह जवानी ही शायद उस दिन कामलोलुप, शराब के नशे में धुत्त युवकों की नजरों में चढ़ गई.

दिनभर बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती यह पगली रात्रि को किसी भी दुकान के बरामदे पर या बस स्टैंड के होटलों के दालानों में बिछी बैंच पर सो जाया करती थी. उस दिन भी वह इन होटलों में से किसी एक होटल की लावारिस पड़ी बैंच पर रात के अंधियारे में दुबक कर सोई हुई थी.

रात्रि को 12 बजे के लगभग मैं अपना पीसीओ बंद कर ही रहा था कि तभी सामने बस स्टैंड के इन होटलों में से किसी एक होटल के बरामदे से वह पगली अस्तव्यस्त हालत में भागती हुई बाहर निकली. उस के पीछे महल्ले के ही 2 अपराधी प्रवृत्ति के शराब के नशे में धुत्त युवक बाहर निकल कर उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे. वह उन से पीछा  छुड़ाने के प्रयास में भागते हुए पीठ के बल गिर पड़ी, उस के मुंह से विचित्र तरह की चीख निकली.

मैं पूरी घटना को देखते हुए अपनी दुकान के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा था. मैं उन दोनों युवकों के आपराधिक कृत्यों से भलीभांति परिचित था. अभी कुछ माह पूर्व ही उन लोगों ने कसबे के एक वकील को गोली मार कर घायल कर दिया था. उन की पीठ पर कसबे के कुख्यात कोलमाफिया का हाथ है. फलस्वरूप कुछ माह में ही जमानत पर वे लोग बाहर आ गए. एक पहल में ही उन के आपराधिक कृत्यों का इतिहास मेरी आंखों के सामने कौंध गया और मैं उन को रोकने का साहस न जुटा सका लेकिन बिना प्रतिरोध किए रह भी नहीं पा रहा था.

सो, उन्हें तेज आवाज में डांटना चाहा लेकिन मेरे मुंह से ऐसी सहमी, मरी हुई आवाज में प्रतिरोध का स्वर निकला कि मैं खुद सहम गया. जबकि जवाब में उन युवकों ने गुर्रा कर डपटा, ‘‘गुलशन चाचा, अपने काम से काम रखो नहीं तो…’’ फिर उस के बाद गालियों, धमकियों का ऐसा रेला उन्होंने मेरी तरफ उछाल दिया कि मैं भयभीत हो गया, डर से घबरा कर जल्दी से दुकान का शटर बंद कर घर में दुबकते हुए चोर नजर से उन की तरफ देखा तो… लगभग घसीटते हुए वे उस पगली को होटल के अंधेरे बरामदे में पड़ी बैंच की ओर ले जा रहे थे.

वह पगली विचित्र अस्पष्ट स्वर में सिसक रही थी, उस के प्रतिरोध का प्रयास भी शिथिल हो गया था, शायद उस ने बचने की कोई सूरत न देख कर आत्मसमर्पण कर दिया था. मैं शटर बंद कर घर में दुबक गया था. बस स्टैंड पर सन्नाटा पसर गया था और शायद काफी गहराई तक मेरे अंदर भी वह सन्नाटा उतरता चला गया.

अगले दिन से फिर वह पगली बस स्टैंड तो क्या पूरे कसबे में ही कहीं नजर नहीं आई. वे 2 युवक जब भी मुझे देखते उन के चेहरे पर व्यंग्य, उपहासभरी मुसकान कौंध जाती और न जाने क्यों मेरा चेहरा पीला पड़ जाता. उस दिन की घटना के बाद मेरा पीसीओ भी रात्रि 8 बजे बंद होने लगा. न जाने क्यों मैं देर रात तक पीसीओ खुले रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं अपनेआप को अकसर समझाता रहता कि अरे इस तरह से लावारिस घूमने वाली पगली व भिखारिन औरतों के साथ ऐसी घटनाओं का होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा तो होता ही रहता है.

मैं भला सक्रिय रूप से उन्हें रोकने का प्रयास कर के भी क्या कर लेता? यही न कि उन युवकों की मारपीट का शिकार हो कर घायल हो जाता, और कहीं वे प्रतिशोध में मेरे घर पर न रहने पर घर में घुस कर मेरी पत्नी के साथ जोरजबरदस्ती कर बैठते तो…कल्पना कर के ही सिहर उठता. न बाबा न, उन से दुश्मनी न मोल ले कर मैं ने ठीक ही किया. लेकिन उस घटना के बाद न जाने मुझे क्या होता जा रहा है.

Tips For Soft Skin : सर्दियों में वैक्सिंग कराना है बेहद जरूरी, स्किन होगी सौफ्ट और ग्लोइंग

Tips For Soft Skin : मौसम कोई भी हो लड़कियां अपने लुक को निखारने में कोई कसर नहीं छोड़तीं. लेकिन जब सर्दी के मौसम में वैक्सिंग की बात आती है तो इसे कराने से बचती हैं. अधिकतर लड़कियों का मानना है कि सर्दी में तो हाथपैर कवर्ड रहते है तो वैक्सिंग कराने से क्या फायदा, इस के अलावा वैक्स कराते समय ठंड लगने के डर से भी वे वैक्सिंग नहीं करातीं. इस से हाथों और पैरों की स्किन पर हेयर ग्रोथ बढ़ती जाती है. इस कारण बौडी पर बालों के साथसाथ डर्ट भी जमा होती जाती है. स्किन पर टैनिंग की लेयर भी बनती जाती है, जो आप के स्किन को बिगाड़ सकती है.

इस मौसम में भी अपनी स्किन को बेहतर बनाने के लिए वैक्सिंग करना कितना जरूरी है इस बारे में बता रही हैं एस स्टूडियो (S Studio) की औनर और मेकअप ऐक्सपर्ट सविता बर्तवाल :

सर्दी के मौसम में वैक्स कराना क्यों है बेहतर

S Studio की औनर और मेकअप ऐक्सपर्ट सविता बर्तवाल का कहना है, “सर्दी के मौसम में लड़कियां अपरलिप्स और फोरहैड की हेयर ग्रोथ को तो वैक्स से क्लीन करवा लेती हैं लेकिन जब बात हाथपैरों की आती है तो सर्दी के 2 से 3 महीने अपने हाथपैरों की हेयर ग्रोथ को बढ़ने देती हैं. वैक्स नहीं कराती हैं। लड़कियों का मानना होता है कि कवर्ड कपड़ो में कौन सा दिख रहा है जबकि सर्दी में वैक्स न कराने से हेयर के साथ डर्ट भी स्किन पर जमा होती जाती है।”

सर्दी में वैक्स कराने से फायदा

सर्दियों के मौसम में सब से अच्छी बात यह होती है कि इस में गरमी के मौसम की तरह वैक्स कराते समय स्वेटिंग नही होती जिस की वजह से वैक्सिंग करते समय स्किन में चिपचिपाहट नही होती और वैक्स आसान तरीके से हो जाता है.

सर्दियों में स्किन में बहुत ड्राईनैस आ जाती है लेकिन वैक्स कराने से स्किन पर जमा ड्राई डेड स्किन हट जाती है और स्किन सौफ्ट और कोमल हो जाती है. इस के अलावा, वैक्स की गई स्किन में मौइस्चराइजर को बेहतर ढंग से लगाया जा सकता है जिस से स्किन सौफ्ट और स्मूद हो जाती है.

रैगुलर करें वैक्सिंग

सविता बर्तवाल का कहना है कि रैगुलर वैक्सिंग बहुत जरूरी है. इस से आप की स्किन कम सैंसेटिव होगी। रैगुलर वैक्सिंग कराने से खींचे जाने वाले हेयर पर हेयर फौलिकल्स की पकड़ समय के साथ लूज होती जाती है, जिस से हेयर को निकालना और भी आसान हो जाता है.

ध्यान देने वाली बात

सर्दी के मौसम में मैरिज पार्टी, क्रिसमस पार्टी, न्यू ईयर पार्टी जैसे विशेष अवसर होते है. इस अवसर पर अगर आप जा रही हैं तो हो सके तो जाने के 2 से 3 दिन पहले वैक्स कराएं क्योंकि सैंसिटिव स्किन वाले लोगों को वैक्स कराने के बाद स्किन पर रैड कलर के रैशेज पड़ जाते हैं जो दिखने में बहुत खराब लगते हैं.

इस के अलावा कभी भी किसी भी ऐक्सरसाइज के बाद वैक्स न कराएं, नही तो स्वेटिंग से इनग्रोथ हेयर और स्किन में इरिटेशन हो सकती है.

वैक्स ट्रीटमैंट से पहले अपने हेयर को शेव करने या प्लक करने से बचें क्योंकि बहुत छोटे हेयर को रूट्स से बेहतर ढंग से हटाया नहीं जा सकता है. वैक्सिंग के लिए हेयर की ग्रोथ होना बहुत जरूरी है, तभी आप के हेयर रूट्स अच्छे से निकल पाएंगे.

वैक्सिंग कराने से पहले आप को जानना होगा कि वैक्स कितने तरह की होती है और आप की स्किन के लिए कौन सी बैस्ट है :

वैक्स के प्रकार

वैक्स 2 प्रकार की होती है- हौट वैक्स और कोल्ड वैक्स. लेकिन अब वैक्सिंग के काफी सारे ऑप्शन मार्केट में मौजूद हैं, हैड्रोसोलुबले (Hydrosoluble) वैक्स और लिपोसोलुबले (liposoluble) वैक्स.

हैड्रोसोलुबले वैक्स : यह वैक्स वाटर बेस्ड होती है. इस में हनी वैक्स, ग्रीन एप्पल वैक्स, व्हाइट चौकलेट वैक्स, एलोवीरा वैक्स, डार्क चौकलेट वैक्स और स्ट्राबेरी वैक्स आती है.

लिपोसोलुबले वैक्स : यह वैक्स औयल बेस्ड होती है. इस में रीका वैक्स, ब्राजीलियन वैक्स और बीन वैक्स आती है.

सर्दी के मौसम में कौन सी हो वैक्स

चौकलेट वैक्स आप सर्दी के मौसम में करा सकती हैं. हालांकि यह गरमी के मौसम में भी हर स्किन टाइप के लिए बैस्ट होती है.

सर्दी के मौसम में कराएं ये वैक्स :

डार्क चौकलेट वैक्स : डार्क चौकलेट में कोको की मात्रा होने के कारण स्किन को फायदा होता है. इस में बहुत अधिक मात्रा में ऐंटी औक्सीडेंट होते हैं, जिस के ऐंटी एजिंग लाभ होते हैं. चौकलेट स्किन को मुलायम और कोमल बनाती है.

कोको बींस भी ऐंटी इंफ्लेमेंटरी हैं. ऐसे में चौकलेट वैक्सिंग कराने से स्वेलिंग कम होती है और रैडनेस और पेन भी कम होता है. इस को कराने के बाद काफी समय तक वैक्स की जरूरत नहीं पड़ती. ये वैक्स सभी स्किन टाइप के लिए बैस्ट है.

इस वैक्स की एक खास बात यह है की इस में चौकलेट की खुशबू आती है, जिस से वैक्सिंग करने और कराने में गुड फीलिंग आती है. टैनिंग रिमूव करने के लिए भी इसे अच्छा माना जाता है.

रीका वैक्स : रीका वैक्स को व्हाइट चौकलेट वैक्स के नाम से भी जाना जाता है, जो वैजिटेबल औयल और प्लांट बेस्ड इंग्रीडिऐंट्स से बनता है जो आसानी से इनग्रोन हेयर को भी रिमूव कर देता है.

इतना ही नहीं, रीका वैक्स इनग्रोन हेयर को दोबारा होने से भी रोकता है. इस के अलावा यह वैक्स बौडी से हेयर के साथसाथ टैनिंग भी हटाता है. रीका वैक्सिंग करते वक्त स्किन को टाइट कर के पकड़ा जाता है जिस से स्किन में किसी तरह की सैगिंग नहीं होती है।

रीका वैक्स एक मैकेनिकल ऐक्सफौलिएंट की तरह है तो जब वैक्स हटाया जाता है तो यह स्किन को ऐक्सफौलिएट कर के डेड सेल्स रिमूव कर के नई स्किन को जवां और ग्लोइंग बनाता है.

चौकलेट वैक्स आम वैक्स के मुताबिक थोड़ी कौस्टली होती है। आप को जब भी वैक्स कराना है अपनी स्किन टाइप और बजट को ध्यान में रख कर कराना है. इस के अलावा मौसम का भी विशेष ध्यान रखना है.

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