Hindi Satire : पुरुष कल्याण सभा

Hindi Satire :  ‘‘कल कंस्टिट्यूशन क्लब में महिलाओं की एक सभा है, फिर मौन धरना होगा. चलोगी न?’’

‘‘किस बात का धरना?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘रहती कहां हो कुएं की मेढक? शहर और देश की हालत का कुछ ध्यान है या नहीं? बहुएं अपने पतियों को सुसाइड के लिए मजबूर कर रही हैं और हम चुपचाप बैठे देखते रहें? लड़के और उन की मांएं औरत जात हो कर इतना भी न करें?’’ शांता मुझे लताड़ने लगी.

‘‘पर धरने से क्या होगा? इस से सासबहुओं का या हसबैंडवाइफ का झगड़ा मिट तो नहीं जाएगा?’’

‘‘होगा तेरा सिर. आखिर सोशल अवेयरनैस भी कोई चीज है. यह काम औरतों के सिवा कौन करेगा?’’

इतनी डांट खा कर मेरी क्या मजाल थी जो मना करती. फिर दोपहर से दफ्तर बंक कर के जाने का अच्छा मसाला हाथ लग रहा था. उत्सुकता भी थी कि देखूं, वहां क्या होगा. अगले दिन शांता 2 बजे कार ले कर औफिस के नीचे आ गई.

कंस्टिट्यूशन क्लब के एक कमरे में झांक कर देखा. थोड़ी सी औरतें थीं. वे भी शायद हमारी तरह हांक कर लाई गई थीं. कमरा छोटा था पर चायकौफी मिल रही थी. आधेपौने घंटे बाद सोचा कि घूमफिर कर देखें कि कहीं गलत कमरे में तो नहीं आ गए. धत् तेरे की. आयोजन की तैयारियां तो दूसरी मंजिल के कमेटी रूम नंबर 12 पर हो रही थीं. वहां बड़ा सा बैनर भी लगा था. शांता भी बैठी थी.

शांता ने शिकायत की कि इतनी देर क्यों हुई. जब मैं ने बताया तो बोली थी कि सौरी, नहीं गई थी.

रूम में माइक टैस्टिंग चल रही थी.

नारी रक्षा संस्था की पदाधिकारी महिलाएं व्यस्त दिखने का अभिनय करते हुए भी विशेष व्यस्त नहीं हो पा रही थीं. उधर 2-2, 4-4 के समूहों

में महिलाएं बिखरी बैठी थीं. हैड टेबल सैट हो गई. अध्यक्षा परेशान थीं क्योंकि मुख्य अतिथि, एक वरिष्ठ विपक्षी नेता की पत्नी, अभी तक पधारी नहीं थीं. वहीं मुख्य वक्ता भी थीं. सैक्रेटरी का भी अभी तक पता नहीं था.

बाकी बैनर तो उसी के पास थे. काफी इंतजार कराने के बाद वे पहुंची तो आते ही शिकायत करने लगीं, ‘‘क्या करती कार ही

बड़ी देर से आई. उबेर वाले को लोकेशन भेजी थी पर वह किसी और कोने में पहुंच कर इंतजार करने लगा था. ये उबेर ड्राइवर लोग भी ऐसे ही होते हैं.

बैनर निकाल कर हमारे हाथों में थमाए गए. नारे अच्छे लिखे हुए थे उन में एक नारा था-

‘नारी करे न अत्याचार, हम पड़ोसी जिम्मेदार.’

‘‘आप ने अखबार वालों और चैनल वालों को तो खबर भेजी थी न?’’ सैक्रेटरी ने पूछा.

‘‘हांहां, उन का फोटोग्राफर व रिपोर्टर आ रहे हैं, 2-4 यूट्यूब चैनलों के संपादक मेरे पति के घनिष्ठ मित्र हैं,’’ अध्यक्षा ने गर्व से फरमाया.

पता चला कि उन के पति आईएएस हैं. तभी पीछे बैग….. गले में कैमरा लटकराए प्रेस वाले आते दिखाई पड़े.

‘‘सभा शुरू की जाए,’’ की सुगबुगाहट हुई, पर प्रधान वक्ता अभी तक नहीं पहुंची थीं. उन से पहले क्या मजाल थी कि कोई अन्य वक्ता बोलतीं? पर प्रैस के लोग तो इंतजार में बैठे नहीं रह सकते थे. आखिर अध्यक्षा ने ही माइक संभाला, ‘‘बहनो व भाइयो,’’ कह कर उन्होंने भाषण शुरू किया. भाई वहां 2 ही थे, प्रैस वाले. ‘‘आप सब जानते हैं कि हम यहां क्यों एकत्र हुए हैं?’’

उन का भाषण चल रहा था पर औरतों का ध्यान फोटोग्राफर की ओर था. जो महिलाएं सामने खड़ी थीं, अपनी साड़ी का पल्ला संवारने तथा बाल ठीक करने लगीं. एकाध ने तो ?ाट कटे बालों पर कंघी भी फेर ली.

अध्यक्षा ने देखा कि कैमरा दूसरे कोण पर फोकस किया जा रहा है तो बीच में भाषण रोक कर बोलीं, ‘‘एक इस ओर से भी खींचिए. सभा के नाम का बैनर बीच में आना चाहिए.’’

जाहिर है कि नाम वाला बैनर ठीक माइक के पीछे तना हुआ था. सैक्रेटरी भी झट पास आ कर खड़ी हो गईं. संतुष्ट हो कर उन्होंने भाषण जल्दी से खत्म किया और सैक्रेटरीको माइक पर खड़ा कर स्वयं जा कर प्रैस रिपोर्टर की रिपोर्ट देखने लगीं.

तभी अचानक खलबली मच गई. नेताजी की पत्नी पधार रही थीं.

सभी पदाधिकारी महिलाएं अगवानी

करने दौड़ीं.

‘‘हार कहां हैं?’’ अध्यक्षा ने पूछा.

‘‘ओह, वे तो कार में ही छूट गए.’’

बेचारी सैक्रेटरी कुनमुनाई, ‘‘हाय, अब क्या करें? किसी पर कोई काम छोड़ा ही नहीं जा सकता. जिम्मेदारी कौन समझता है?’’

उन के आगे लपकते ही सैक्रेटरी मुंह बिचका कर बड़बड़ाईं, ‘‘अपने आगे किसी को कुछ गिनती ही नहीं है, जैसे लाट साहब हों.’’

फिर वे भी ‘‘आइए…आइए…’’ कहती हुई नेता की पत्नी की ओर बढ़ गईं. मुख पर मुसकराहट का मोटा खोल चढ़ा लिया था. फोटोग्राफर के लिए पोज दिया. फिर संतुष्ट हो कर अध्यक्षा से दूर जा कर खड़ी हो गईं.

नेतानी (मैं ने मन ही मन उन्हें यही नाम दिया) ने भाषण शुरू किया. भाषण क्या था,

पूरी शैतान की आंत. 50 बार एक ही बात

दोहरा दी, ‘‘बहुओं के लिए पति खेलखिलौना नहीं हैं कि जब चाहा तोड़ दिया, जब चाहा केस कर दिया.’’

तभी स्थानीय कालेज की छात्राएं टैक्सी उबेर से उतरीं, ‘‘दीदी, आप ने हमें लाने के लिए कार भेजने को कहा था. कितना इंतजार किया. आखिर टैक्सी से आना पड़ा,’’ उन की नेतानुमा छात्रा बोली.

‘‘क्या बताऊं, मुझे ध्यान ही नहीं रहा, उबेर का भाड़ा ले लेना. गाना तो तैयार है न?’’

‘‘हां,’’ छात्रा ने लठ मारा. शायद भाड़े वाली बात से वह नाराज हो गई थी.

‘‘ऊंह, गाना तैयार करें इन के लिए, फिर आएं भी अपने खर्चे से.’’

यह सब वार्त्तालाप भाषण के दौरान चल रहा था. वैसे यही अधिक मनोरंजक लग रहा था. जैसेतैसे भाषण समाप्त हुआ. नेतानी हाथ जोड़, क्षमा मांग कर कार में बैठ ‘यह जा वह जा.’ उन्हें किसी बाल कल्याण संस्था की सभा में भी भाषण देने जाना था. नेतानियों के जिम्मे तो ऐसे कई काम रहते हैं बेचारी करें क्या?

छात्राओं ने एक करुण रस का गीत गाया, बहुओं के पतियों की दयनीय स्थिति की रूपरेखा खींची. सुन कर मुझे स्वयं पर ग्लानि होने लगी. हमारी बहनें आजकल पुलिस में पति, सास, ससुर, ननद, भाभी कानूनों की तीलियों से फुंक रही हैं और मैं हूं कि चीनी, चावल, रसोई व्हाट्सऐप गु्रप में गुड मौर्निंग, बच्चों की पढ़ाई की, महंगाई की चिंता में ही अपना जीवन व्यर्थ गंवा रही हूं. मोरचा बांध कर सामाजिक चेतना जगाने के स्थान पर बच्चों को कोचिंग क्लासों में भेजने के चक्कर में भटक रही हूं. पर पांचसात मिनट बाद ही मेरी ग्लानि धुलपुंछ गई, जब अगले भाषण के दौरान लड़कियों की खुसरफुसर की ओर ध्यान गया.

सब से चटकीली पोशाक वाली लड़की रेखा जैसी मटक रही थी.

‘‘अरी, आज तेरा विपिन लता के साथ दिखाई पड़ा. कहीं तुम दोनों को ही तो धोखा नहीं दे रहा?’’

‘‘वह बेचारा भी क्या करे? उस के पीछे तो हाथ धो कर पड़ गई है,’’ विपिन की सहेली ने विपिन का बचाव किया.

‘‘टौर्न जींस कैसी टाइट पहन कर आती है जैसे पहनाने के बाद सिलाई की गई हो.’’

‘‘उस के चाचा दुबई से लाए थे.’’

‘‘आज सपन के साथ पिक्चर का प्रोग्राम है, शाम के शो का. वहीं खाना भी खाएंगे.’’

‘‘हाय, रात में घर जाएगी तो डांट नहीं पड़ेगी?’’

‘‘कह दिया है कि राधा के यहां पढ़ रही हूं.’’

‘‘आज प्रोफैसर आनंद की क्लास नहीं थी. कालेज में मजा ही नहीं आया.’’

‘‘मैं तो उस की शक्ल ही देखती रह जाती हूं, क्या रणवीर हीरो जैसा संजीदा चेहरा है. नोट्स क्या खाक लिए जाएं.’’

‘‘इस के बाद ब्यूटीपार्लर चलेंगे. आईब्रोज प्लक करवानी हैं.’’

एकाध पर्स में से छोटा शीशा निकाल कर अपना मुख निहार रही थी. उधर दे भाषण पर भाषण और इधर यह कचरकचर. मेरा तो दिल ही बैठा जा रहा था. अगले 2 साल बाद तो मेरी बेटी पिंकी भी कालेज जाएगी. क्या यही सब सीखेगी वहां पर?

वहां छात्राओं के पास अधिक देर खड़े रहने की हिम्मत न रही. सयानी सी दिखने वाली औरतों के पास जा खड़ी हुई. वहां की बातचीत के अंश भी प्रस्तुत हैं:

‘‘विमला, तेरे बेटे की शादी का तो वीडियो इनलाइट आया है. यह कौन सा रिजोर्ट बुक कराया तूने. नाम ही नहीं सुना.’’

‘‘जब आओ, शो हो जाएगा. उस का क्या है बटन दबाओ और घर में सिनेमा चालू,’’ विमला शान से बोली.

‘‘आती हैं सभा में और घर दहेज से भर रखा है,’’ पीछे से कोई महिला धीमे से उसे सुना कर बोली.

‘‘घर भरा है तो क्या हम मांगने थोड़े ही गए थे? अपनी बेटी को जो जी चाहे दें,’’ विमला चमकी.

‘‘अरी मोहिनी, तेरे देवर का पिछले साल डिवोर्स हो गया था, उस की बात कहीं और चली या नहीं?’’

‘‘अब वह शादी नहीं करेगा. 2 बच्चों को ले कर फिर सेहरा बांधने को तैयार नहीं हो रहा.’’

‘‘भला आदमी भी कहीं ऐसे रहते हैं? मेरी बूआ की ननद की लड़की बहुत खूबसूरत है. तसवीर भेजूं क्या?’’

सभा समाप्त होने को आ गई थी. अब 2 कतारें बना कर हाथों में बैनर उठा कर जुलूस में चलना था. सारी सड़क घिर गई थी. लोग कौतुक से देख रहे थे. मौन जुलूस था, इसलिए नारे नहीं लगाए गए. पर छात्राएं करुण गीत गा रही थीं. कारें, टैक्सियां, बसें हमारे जुलूस के पीछे चींटी की चाल से रेंग रही थीं.

इसी बीच एक महिला ने मुझ से पूछा, ‘‘आप की यह ड्रैस सिल्क की है क्या? चोर बाजार में कितने की मिली? पालिका बाजार से तो 500 रुपए की मिल जाती है.’’

‘‘मैं ने 1,200 रुपए में ली है,’’ मैं ने खीज कर कहा.

‘‘जारा की भी अच्छी रहती है, 2,800 से शुरू होती है.’’

शाम को घर पहुंची तो थकावट से चूर हो चुकी थी. बच्चे मुंह लटकाए खड़े थे. किसी तरह चायनाश्ता बना कर दिया. फिर अल्टीमेटम दे दिया, ‘‘रात का खाना मु?ा से नहीं बनेगा. बाहर से मंगा लो.’’

पति बेचारे की क्या मजाल जो नारी कल्याण सरीखे महान कार्य के सामने घर के खाने जैसी तुच्छ चीज का नाम ले.

दूसरे दिन एक अखबार के छोटे से कोने में जलसे का फोटो व खबर छपी थी. उस में अध्यक्षा माइक के पीछे बैनर के सामने खड़ी अदा से मुसकरा रही थीं. काले बिंदुओं से औरतों के केवल सिर दिख रहे थे. चित्र के नीचे लिखा था-

‘‘शहर की जागरूक महिलाएं…दहेज संबंधी अत्याचारों के विरोध में.’’

इस का वीडियो सब को मोबाइलों पर भेज दिया गया था जो सब ने डिलीट कर दिया होगा.

Short Story : आप भी तो नहीं आए थे

Short Story :  सुबह 6 बजे का समय था. मैं अभी बिस्तर से उठा ही था कि फोन घनघना उठा. सीतापुर से बड़े भैया का फोन था जो वहां के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे.

वह बोले, ‘‘भाई श्रीकांत, तुम्हारी भाभी का आज सुबह 5 बजे इंतकाल हो गया,’’ और इतना बतातेबताते वह बिलख पड़े. मैं ने अपने बड़े भाई को ढाढ़स बंधाया और फोन रख दिया.

पत्नी शीला उठ कर किचन में चाय बना रही थी. उसे मैं ने भाभी के मरने का बताया तो वह बोली, ‘‘आप जाएंगे?’’

‘‘अवश्य.’’

‘‘पर बड़े भैया तो आप के किसी भी कार्य व आयोजन में कभी शामिल नहीं होते. कई बार लखनऊ आते हैं पर कभी भी यहां नहीं आते. इतने लंबे समय तक मांजी बीमार रहीं, कभी उन्हें देखने नहीं आए, उन की मृत्यु पर भी नहीं आए, न आप के विवाह में आए,’’ शीला के स्वर में विरोध की खनक थी.

‘‘पर मैं तो जाऊंगा, शीला, क्योंकि मां ऐसा ही चाहती थीं.’’

‘‘ठीक है, जाइए.’’

‘‘तुम नहीं चलोगी?’’

‘‘चलती हूं मैं भी.’’

हम तैयार हो कर 8 बजे की बस से चल पड़े और साढ़े 10 तक सीतापुर पहुंच गए. बाहर से आने वालों में हम ही सब से पहले पहुंचे थे, निकटस्थ थे, अतएव जल्दी पहुंच गए.

भैया की बेटी वसुधा भी वहीं थी, मां की बीमारी बिगड़ने की खबर सुन कर आ गई थी. वह शीला से चिपट कर रो उठी.

‘‘चाची, मां चली गईं.’’

शीला वसुधा को सांत्वना देने लगी, ‘‘रो मत बेटी, दीदी का वक्त पूरा हो गया था, चली गईं. कुदरत का यही विधान है, जो आया है उसे एक दिन जाना है,’’ वह अपनी चाची से लगी सुबकती रही.

इन का रोना सुन कर भैया भी बाहर निकल आए. उन के साथ उन के एक घनिष्ठ मित्र गोपाल बाबू भी थे और 2-3 दूसरे लोग भी. भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे.

‘‘चली गई, बहुत इलाज कराया पर बचा न सका, कैंसर ने नहीं छोड़ा उसे.’’

मैं उन की पीठ सहलाता रहा.

थोड़ा सामान्य हुए तो बोले, ‘‘तन्मय (उन का बड़ा बेटा) को फोन कर दिया है. फोन उसी ने उठाया था पर मां की मृत्यु का समाचार सुन कर दुखी हुआ हो ऐसा नहीं लगा. कुछ भी तो न बोला, केवल ‘ओह’ कह कर चुप हो गया. एकदम निर्वाक्.

‘‘मैं ने ही फिर कहा, ‘तन्मय, तू सुन रहा है न बेटा.’

‘‘ ‘जी.’ फिर मौन.

‘‘कुछ देर उस के बोलने की प्रतीक्षा कर के मैं ने फोन रख दिया. पता नहीं आएगा या नहीं,’’ कह कर भैया शून्य में ताकने लगे.

बेटी वसुधा बोल उठी, ‘‘आएंगे… आएंगे…आखिर मां मरी है भैया की. मां…सगी मां, मां की मृत्यु पर भी नहीं आएंगे.’’

वह बोल तो गई पर स्वर की अनुगूंज उसे खोखली ही लगी, वह उदासी से भर गई.

इतने में चाय आ गई. सब चाय पीने लगे.

भैया के मित्र गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘कैंसर की एक से एक अच्छी दवाएं ईजाद हो गई हैं. तमाम डाक्टर दावा करते हैं कि अब कैंसर लाइलाज नहीं रहा…पर बचता तो शायद ही कोई मरीज है.’’

भैया बोल उठे, ‘‘आखिरी 15 दिनों में तो उस ने बहुत कष्ट भोगा. बहुत कठिनाई से प्राण निकले. वह तन्मय से बहुत प्यार करती थी उस की प्रतीक्षा में आंखें दरवाजे की ओर ही टिकाए रखती थी. ‘तन्मय को पता है न मेरी बीमारी के बारे में,’ बारबार यही पूछती रहती थी. मैं कहता था, ‘हां है, मैं जबतब फोन कर के उसे बतलाता रहता हूं.’ ‘तब भी वह मुझे देखने…मेरा दुख बांटने क्यों नहीं आता? बोलिए.’ मैं क्या कहता. पूरे 5 साल बीमार रही वह पर तन्मय एक बार भी देखने नहीं आया. देखने आना तो दूर कभी फोन पर भी मां का हाल न पूछा, मां से कोई बात ही न की, ऐसी निरासक्ति.’’

कहतेकहते भैया सिसक पड़े.

‘भैया, ठीक यही तो आप ने किया था अपनी मां के साथ. वह भी रोग शैया पर लेटी दरवाजे पर टकटकी लगाए आप के आने की राह देखा करती थीं, पर आप न आए. न फोन से ही कभी उन का हाल पूछा. वह भी आप को, अपने बड़े बेटे को बहुत प्यार करती थीं. आप को देखने की चाह मन में लिए ही मां चली गईं, बेचारी, आप भी तो निरासक्त बन गए थे,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठा.

भैया का दूसरा बेटा कनाडा में साइंटिस्ट है. उस का नाम चिन्मय है.

मैं ने पूछा, ‘‘चिन्मय को सूचना दे दी?’’

‘‘हां… उसे भी फोन कर दिया है,’’ भैया बोले, ‘‘जानते हो क्या बोला?

‘‘ ‘ओह, वैरी सैड…मौम चली गईं, खैर, बीमार तो थीं ही, उम्र भी हो चली थी. एक दिन जाना तो था ही, कुछ बाद में चली जातीं तो आप को थोड़ा और साथ मिल जाता उन का. पर अभी चली गईं. डैड, एक दिन जाना तो सब को ही है. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए. आप तो पढ़ेलिखे हैं, बहुत बड़े डाक्टर हैं. मृत्यु से जबतब दोचार होते ही रहते हैं. टेक इट ईजी.’

‘‘मैं सिसक पड़ा तो बोला, ‘ओह नो, रोइए मत, डैड.’

‘‘मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘जल्दी आ जाओ बेटा.’

‘‘ ‘ओह नो, डैड. मेरे लिए यह संभव नहीं है. मैं आ तो नहीं सकूंगा, जाने वाली तो चली गईं. मेरे आने से जीवित तो हो नहीं जाएंगी.’

‘‘ ‘कम से कम आ कर अंतिम बार मां का चेहरा तो देख लो.’

‘‘ ‘यह एक मूर्खता भरी भावुकता है. मैं मन की आंखों से उन की डेड बाडी देख रहा हूं. आनेजाने में मेरा बहुत पैसा व्यर्थ में खर्च हो जाएगा. अंतिम संस्कार के लिए आप लोग तो हैं ही, कहें तो कुछ रुपए भेज दूं. हालांकि उस की कोई कमी तो आप को होगी नहीं, यू आर अरनिंग ए वैरी हैंडसम अमाउंट.’

‘‘यह कह कर वह धीरे से हंसा.

‘‘मैं ने फोन रख दिया.’’

भैया फिर रोने लगे. बोले, ‘‘चिन्मय जब छोटा था हर समय मां से चिपका रहता था. पहली बार जब स्कूल जाने को हुआ तो खूब रोया. बोला, ‘मैं मां को छोड़ कर स्कूल नहीं जाऊंगा, मां तुम भी चलो?’ कितना पुचकार कर, दुलार कर स्कूल भेजा था उसे. जब बड़ा हुआ, पढ़ने के लिए विदेश जाने लगा तो भी यह कह कर रोया था कि मां, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा. अब बाहर गया है तो बाहर का ही हो कर रह गया. मां के साथ सदा चिपके  रहने वाले ने एकदम ही मां का साथ छोड़ दिया. मां को एकदम से मन से बाहर कर दिया. मां गुजर गई तो अंतिम संस्कार में भी आने को तैयार नहीं. वाह रे, लड़के.’’

‘ऐसे ही लड़के तो आप भी हैं,’ मैं फिर बुदबुदा उठा.

धीरेधीरे समय सरकता गया. इंतजार हो रहा था कि शायद तन्मय आ जाए. वह आ जाए तो शवयात्रा शुरू की जाए, पर वह न आया.

जब 1 बज गया तो गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘भाई सुकांत, अब बेटे की व्यर्थ प्रतीक्षा छोड़ो और घाट चलने की तैयारी करो. उस को आना होता तो अब तक आ चुका होता. जब श्रीकांत 10 बजे तक आ गए तो वह भी 10-11 तक आ सकता था. लखनऊ यहां से है ही कितनी दूर. फिर उस के पास तो कार है. उस से तो और भी जल्दी आया जा सकता है.’’

प्रतीक्षा छोड़ कर शवयात्रा की तैयारी शुरू कर दी गई और 2 बजे के लगभग शवयात्रा शुरू हो गई. शवदाह से जुड़ी क्रियाएं निबटा कर लौटतेलौटते शाम के 6 बज गए.

तब तक कुछ अन्य रिश्तेदार भी आ चुके थे. सब यही कह रहे थे कि तन्मय क्यों नहीं आया? चिन्मय तो खैर विदेश में है, उस का न आना क्षम्य है, लेकिन तन्मय तो लखनऊ में ही है, उस को तो आना ही चाहिए था, उस की मां मरी है. उस की जन्मदात्री, कितनी गलत बात है.

किसी तरह रात कटी, भोर होते ही सब उठ बैठे.

भैया मेरे पास आ कर बैठे तो बहुत दुखी, उदास, टूटेटूटे और निराश लग रहे थे. वह बोले, ‘‘एकदो दिन में सब चले जाएंगे. फिर मैं रह जाऊंगा और मकान में फैला मरघट सा सन्नाटा. प्रेम से बसाया नीड़ उजड़ गया. सब फुर्र हो गए. अब कैसे कटेगी मेरी तनहा जिंदगी…’’ और इतना कहतेकहते वह फफक पड़े.

थोड़ी देर बाद मुझ से फिर बोले, ‘‘क्यों श्रीकांत? कभी तुम्हारी भेंट तन्मय से होती है?’’

‘‘कभीकभार सड़कबाजार में मिल जाता है या घूमने के दर्शनीय स्थलों पर टकरा जाता है अचानक. बस.’’

‘‘कभी तुम्हारे पास आताजाता नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

भैया, फिर रोने लगे.

मैं लौन में जा कर टहलने लगा, कुछ देर बाद भैया मेरे पास आए और बोले, ‘‘अब कभी तन्मय तुम्हें मिले तो पूछना कि मां की मृत्यु पर क्यों नहीं आया. मां को एकदम ही क्यों भुला दिया?’’

तन्मय के इस बेगाने व रूखे व्यवहार की पीड़ा उन्हें बहुत कसक दे रही थी.

उन की इस करुण व्यथा के प्रति, उस बेकली के प्रति, मेरे मन में दया नहीं उपजी… क्रोध फुफकारने लगा, मन में क्षोभ उभरने लगा. मन में गूंजने लगा कि अपनी मां की मृत्यु पर तुम भी तो नहीं आए थे, तुम्हारे मन में भी तो मां के प्रति कोई ममता, कोई पे्रम भावना नहीं रह गई थी. यदि तुम्हारा बेटा अपनी मां की मृत्यु पर नहीं आया तो इतनी विकलता क्यों? क्या तुम्हारी मां तुम्हारे लिए मां नहीं थी, तन्मय की मां ही मां है. तन्मय की मां के पास तो धन का विपुल भंडार था, उसे तन्मय को पालतेपोसते वक्त धनार्जन हेतु खटना नहीं पड़ा था, पर तुम्हारी मां तो एक गरीब, कमजोर, बेबस विधवा थी. लोगों के कपड़े सींसीं कर, घरघर काम कर के उस ने तुम्हें पालापोसा, पढ़ाया, लिखाया था. जब तन्मय की मां अपने राजाप्रासाद में सुखातिरेक से खिल- खिलाती विचरण करती थी तब तुहारी मां दुख, निसहायता, अभाव से परेशान हो कर गलीगली पीड़ा के अतिरेक से बिलबिलाती घूमती थी. उसी विवश पर ममतामयी मां को भी तुम ने भुला दिया… भुलाया था या नहीं.

तेरहवीं बाद सब विदा होने लगे.

विदा होने के समय भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे. बोले, ‘‘पूछोगे न भैया तन्मय से?’’

मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘यह पूछना निरर्थक है.’’

‘‘क्यों? निरर्थक क्यों है?’’

‘‘क्योंकि आप जानते हैं कि वह क्यों नहीं आया?’’

‘‘मैं जानता हूं कि वह क्यों नहीं आया,’’ यंत्रचलित से वह दोहरा उठे.

‘‘हां, आप जानते हैं…’’ मैं किंचित कठोर हो उठा, ‘‘जरा अपने दिल को टटोलिए. जरा अपने अतीत में झांक कर देखिए…आप को जवाब मिल जाएगा. याद कीजिए, जब आप अपनी मां के बेटे थे, अपनी मां के लाडले थे तो आप को अपनी बीमार मां का, आप के वियोग की व्यथा से जरूर दुखी मां का, आंसुओं से भीगा निस्तेज चेहरा दिखलाई देगा यही शिकायत करता हुआ जो आप को अपने बेटे तन्मय से है.

‘‘वह पूछ रही होगी, ‘बेटा, तू मुझे बीमारी में भी देखने कभी नहीं आया. तू ने बाहर जा कर धीरेधीरे मेरे पास आना ही छोड़ दिया, वह मैं ने सह लिया…मैं ने सोच लिया तू अपने परिवार के साथ खुश है. मेरे पास नहीं आता, मुझे याद नहीं करता, न सही. पर मैं लंबे समय तक रोग शैया पर लेटी बीमारी की यंत्रणा झेलती रही, तब भी तुझे मेरे पास आने की, बीमारी में मुझे सांत्वना देने की इच्छा नहीं हुई. तू इतना निर्दयी, इतना भावनाशून्य, क्योंकर हो गया बेटा, तू अपनी जन्मदात्री को, अपनी पालनपोषणकर्ता मां को ही भुला बैठा, तू मेरी मृत्यु पर मुझे कंधा देने भी नहीं आया, मैं ने ऐसा क्या कर दिया तेरे साथ जो तू ने मुझे एकदम ही त्याग दिया.

‘‘ ‘ऐसा क्यों किया बेटा तू ने? क्या मैं ने तुझे प्यार नहीं किया? अपना स्नेह तुझे नहीं दिया. मैं तुझे हर समय हर क्षण याद करती रही, मां को ऐसे छोड़ देता है कोई. बतला मेरे बेटे, मेरे लाल. मेरे किस कसूर की ऐसी निर्मम सजा तू ने मुझे दी. तुझे एक बार देखने की, एक बार कलेजे से लगाने की इच्छा लिए मैं चली गई. मुझे तेरा धन नहीं तेरा मन चाहिए था बेटा, तेरा प्यार चाहिए था.’ ’’

कह कर मैं थोड़ा रुका, मेरा गला भर आया था.

मैं आगे फिर कहने लगा, ‘‘आप अपने परिवार, अपनी पत्नी और संतान में इतने रम गए कि आप की मां, आप की जन्मदात्री, आप के अपने भाईबहन, सब आप की स्मृति से निकल गए, सब विस्मृति की वीरान वादियों में गुम हो गए. सब को नेपथ्य में भेज दिया आप ने. उन्हीं विस्मृति की वीरान वादियों में…उसी नेपथ्य में आप के बेटे तन्मय ने आप सब को भेज दिया, जो आप ने किया वही उस ने किया. सिर्फ इतिहास की पुनरावृत्ति ही तो हुई है, फिर शिकवाशिकायत क्यों? रोनाबिसूरना क्यों? वह भी अपने प्रेममय एकल परिवार में लिप्त है और आप लोगों से निर्लिप्त है, आप लोगों को याद नहीं करता. बस, आप को अपने बच्चोंं की मां दिखलाई दी पर अपनी मां कभी नजर नहीं आईं, उस को भी अपनी मां नजर नहीं आ रहीं.’’

कह कर मैं फिर थोड़ा रुका, ठीक से बोल नहीं पा रहा था. गला अवरुद्ध सा हुआ जा रहा था. कुछ क्षण के विराम के बाद फिर बोला, ‘‘लगता यह है कि जब धन का अंबार लगने लगता है, जीवन में सुखसुकून का, तृप्ति का, आनंद का, पारावार ठाठें मारने लगता है, तो व्यक्ति केवल निज से ही संपृक्त हो कर रह जाता है. बाकी सब से असंपृक्त हो जाता है. उस के मनमस्तिष्क से अपने मातापिता, भाईबहन वाला परिवार बिसरने लगता है, भूलने लगता है और अपनी संतान वाला परिवार ही मन की गलियों, कोनों में पसरने लगता है. सुखतृप्ति का यह संसार शायद ऐसा सम्मोहन डाल देता है कि व्यक्ति को अपना निजी परिवार ही यथार्थ लगने लगता है और अपने मातापिता वाला परिवार कल्पना लगने लगता है और यथार्थ तो यथार्थ होता है और कल्पना मात्र कल्पना.

‘‘आप को अपनी पत्नी की अपने पुत्र को देखने की ललक दिखलाई पड़ी. अपनी मां की अपने पुत्र को देखने की तड़प दिखलाई नहीं पड़ी. अपनी बीमार पत्नी की बेटे के प्रति चाह भरी आहेंकराहें सुनाई पड़ीं पर अपनी बीमार मां की, आप को देखने की दुख भरी रुलाई नहीं सुनाई पड़ी.

‘‘क्यों सुनाई पड़ती? क्योंकि आप भूल गए थे कि कोई आप की भी मां है, जैसे आप की पत्नी ने रुग्ण अवस्था में दुख भोगा था आप की मां ने भी भोगा था. जैसे आप की पत्नी ने अपने पुत्र के आगमन की रोरो कर प्रतीक्षा की थी वैसे ही दुख भरी प्रतीक्षा आप की मां ने आप की भी की थी. पर आप न आए. न आप पलपल मृत्यु की ओर अग्रसर होती मां को देखने आए और न ही उस के अंतिम संस्कार में शामिल हुए.

‘‘वही अब आप के पुत्र ने भी किया. यह निरासक्ति की, बेगानेपन की फसल, आप ने ही तो बोई थी. तो आप ही काटिए.’’

भैया कुछ न बोले…बस,

Hindi Story : अपारदर्शी सच – तनुजा और मनीष के बीच क्यों था वैवाहिक खालीपन

Hindi Story :  रात के 11 बज चुके थे. तनुजा की आंखें नींद और इंतजार से बोझिल हो रही थीं. बच्चे सो चुके थे. मम्मीजी और मनीष लिविंगरूम में बैठे टीवी देख रहे थे. तनुजा का मन हो रहा था कि मनीष को आवाज दे कर बुला ले, लेकिन मम्मी की उपस्थिति के लिहाज के चलते उसे ठीक नहीं लगा. पानी पीने के लिए किचन में जाते हुए उस ने मनीष को देखा पर उन का ध्यान नहीं गया. पानी पी कर भी अतृप्त सी वह वापस कमरे में आ गई.

बिस्तर पर बैठ कर उस ने एक नजर कमरे पर डाली. उस ने और मनीष ने एकदूसरे की पसंदनापसंद का खयाल रख कर इस कमरे को सजाया था.

हलके नीले रंग की दीवारों में से एक पर खूबसूरत पहाड़ी, नदी से गिरते झरने और पेड़ों की पृष्ठभूमि से सजी पूरी दीवार के आकार का वालपेपर. खिड़कियों पर दीवारों से तालमेल बिठाते नैट के परदे, फर्श से छत तक की अलमारियां, तरहतरह के सौंदर्य प्रसाधनों से भरी अंडाकार कांच की ड्रैसिंगटेबल, बिस्तर पर साटन की रौयल ब्लू चादर और टेबल पर सजा महकते रजनीगंधा के फूलों का गुलदस्ता. उसे लगा, सभी मनीष का इंतजार कर रहे हैं.

तनुजा की आंख खुली, तब दिन चढ़ आया था. उस का इंतजार अभी भी बदन में कसमसा रहा था. मनीष दोनों हाथ बांधे बगल में खर्राटे ले कर सो रहे थे. उस का मन हुआ, उन दोनों बांहों को खुद ही खोल कर उन में समा जाए और कसमसाते इंतजार को मंजिल तक पहुंचा दे. लेकिन घड़ी ने इस की इजाजत नहीं दी. फुरफुराते एहसासों को जूड़े में लपेटते वह बाथरूम चली गई.

बेटे ऋषि व बेटी अनु की तैयारी करते, सब का नाश्ताटिफिन तैयार करते, भागतेदौड़ते खुद की औफिस की तैयारी करते हुए भी रहरह कर एहसास कसमसाते रहे. उस ने आंखें बंद कर जज्बातों को जज्ब करने की कोशिश की, तभी सासुमां किचन में आ गईं. वह सकपका गई. उस ने झटके से आंखें खोल लीं और खुद को व्यस्त दिखाने के लिए पास पड़ा चाकू उठा लिया पर सब्जी तो कट चुकी थी, फिर उस ने करछुल उठा लिया और उसे खाली कड़ाही में चलाने लगी. सासुमां ने चश्मे की ओट से उसे ध्यान से देखा.

कड़ाही उस के हाथ से छूट गई और फर्श पर चक्कर काटती खाली कड़ाही जैसे उस के जलते एहसास उस के जेहन में घूमने लगे और वह चाह कर भी उन्हें थाम नहीं पाई.

एक कोमल स्पर्श उस के कंधों पर हुआ. 2 अनुभवी आंखों में उस के लिए संवेदना थी. वह शर्मिंदा हुई उन आंखों से, खुद को नियंत्रित न कर पाने से, अपने यों बिखर जाने से. उस ने होंठ दबा कर अपनी रुलाई रोकी और तेजी से अपने कमरे में चली गई.

बहुत कोशिश करने के बावजूद उस की रुलाई नहीं रुकी, बाथरूम में शायद जी भर रो सके. जातेजाते उस की नजर घड़ी पर पड़ी. समय उस के हाथ में न था रोने का. तैयार होतेहोते तनुजा ने सोते हुए मनीष को देखा. उस की बेचैनी से बेखबर मनीष गहरी नींद में थे.

तैयार हो कर उस ने खुद को शीशे में निहारा और खुद पर ही मुग्ध हो गई. कौन कह सकता है कि वह कालेज में पढ़ने वाले बच्चों की मां है? कसी हुई देह, गोल चेहरे पर छोटी मगर तीखी नाक, लंबी पतली गरदन, सुडौल कमर के गिर्द लिपटी साड़ी से झांकते बल. इक्कादुक्का झांकते सफेद बालों को फैशनेबल अंदाज में हाईलाइट करवा कर करीने से छिपा लिया है उस ने. सब से बढ़ कर है जीवन के इस पड़ाव का आनंद लेती, जीवन के हिलोरों को महसूस करते मन की अंगड़ाइयों को जाहिर करती उस की खूबसूरत आंखें. अब बच्चे बड़े हो कर अपने जीवन की दिशा तय कर चुके हैं और मनीष अपने कैरियर की बुलंदियों पर हैं. वह खुद भी एक मुकाम हासिल कर चुकी है. भविष्य के प्रति एक आश्वस्ति है जो उस के चेहरे, आंखों, चालढाल से छलकती है.

मनीष उठ चुके थे. रात के अधूरे इंतजार के आक्रोश को परे धकेल एक मीठी सी मुसकान के साथ उस ने गुडमौर्निंग कहा. मनीष ने एक मोहक नजर उस पर डाली और उठ कर उसे बांहों में भर लिया. रीढ़ में फुरफुरी सी दौड़ गई. कसमसाती इच्छाएं मजबूत बांहों का सहारा पा कर कुलबुलाने लगीं. मनीष की आंखों में झांकते हुए तपते होंठों को उस के होंठों के पास ले जाते शरारत से उस ने पूछा, ‘‘इरादा क्या है?’’ मनीष जैसे चौंक गए, पकड़ ढीली हुई, उस के माथे पर चुंबन अंकित करते, घड़ी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘इरादा तो नेक ही है, तुम्हारे औफिस का टाइम हो गया है, तुम निकल जाना.’’ और वे बाथरूम की तरफ बढ़ गए.

जलते होंठों की तपन को ठंडा करने के लिए आंसू छलक पड़े तनुजा के. कुछ देर वह ऐसे ही खड़ी रही उपेक्षित, अवांछित. फिर मन की खिन्नता को परे धकेल, चेहरे पर पाउडर की एक और परत चढ़ा, लिपस्टिक की रगड़ से होंठों को धिक्कार कर वह कमरे से बाहर निकल गई.

करीब सालभर पहले तक सब सामान्य था. मनीष और तनुजा जिंदगी के उस मुकाम पर थे जहां हर तरह से इतमीनान था. अपनी जिंदगी में एकदूसरे की अहमियत समझतेमहसूस करते एकदूसरे के प्यार में खोए रहते.

इस निश्चितता में प्यार का उछाह भी अपने चरम पर था. लगता, जैसे दूसरा हनीमून मना रहे हों जिस में अब उत्सुकता की जगह एकदूसरे को संपूर्ण जान लेने की तसल्ली थी. मनीष अपने दम भर उसे प्यार करते और वह पूरी शिद्दत से उन का साथ देती. फिर अचानक यों ही मनीष जल्दी थकने लगे तो उसी ने पूरा चैकअप करवाने पर जोर दिया.

सबकुछ सामान्य था पर कुछ तो असामान्य था जो पकड़ में नहीं आया था. वह उन का और ध्यान रखने लगी. खाना, फल, दूध, मेवे के साथ ही उन की मेहनत तक का. उस की इच्छाएं उफान पर थीं पर मनीष के मूड के अनुसार वह अपने पर काबू रखती. उस की इच्छा देखते मनीष भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते लेकिन वह अतृप्त ही रह जाती.

हालांकि उस ने कभी शब्दों में शिकायत दर्ज नहीं की, लेकिन उस की झुंझलाहट, मुंह फेर कर सो जाना, तकिए में मुंह दबा कर ली गई सिसकियां मनीष को आहत और शर्मिंदा करती गईं. धीरेधीरे वे उन अंतरंग पलों को टालने लगे. तनुजा कमरे में आती तो मनीष कभी तबीयत खराब होने का बहाना बनाते, कभी बिजी होने की बात कर लैपटौप ले कर बैठ जाते.

कुछकुछ समझते हुए भी उसे शक हुआ कि कहीं मनीष का किसी और से कोई चक्कर तो नहीं है? ऐसा कैसे हो सकता है जो व्यक्ति शाम होते ही उस के आसपास मंडराने लगता था वह अचानक उस से दूर कैसे होने लगा? लेकिन उस ने

यह भी महसूस किया कि मनीष अब भी उस से प्यार करते हैं. उस की छोटीछोटी खुशियां जैसे सप्ताहांत में सिनेमा, शौपिंग, आउटिंग सबकुछ वैसा ही तो था. किसी और से चक्कर होता तो उसे और बच्चों को इतना समय वे कैसे देते? औफिस से सीधे घर आते हैं, कहीं टूर पर जाते नहीं.

शक का कीड़ा जब कुलबुलाता है तब मन जितना उस के न होने की दलीलें देता है उतना उस के होने की तलाश करता. कभी नजर बचा कर डायरी में लिखे नंबर, तो कभी मोबाइल के मैसेज भी तनुजा ने खंगाल डाले पर शक करने जैसा कुछ नहीं मिला.

उस ने कईकई बार खुद को आईने में निहारा, अंगों की कसावट को जांचा, बातोंबातों में अपनी सहेलियों से खुद के बारे में पड़ताल की और पार्टियों, सोशल गैदरिंग में दूसरे पुरुषों की नजर से भी खुद को परखा. कहीं कोई बदलाव, कोई कमी नजर नहीं आई. आज भी जब पूरी तरह से तैयार होती है तो देखने वालों की नजर एक बार उस की ओर उठती जरूरी है.

हर ऐसे मौकों पर कसौटी पर खरा उतरने का दर्प उसे कुछ और उत्तेजित कर गया. उस की आकांक्षाएं कसमसाने लगीं. वह मनीष से अंतरंगता को बेचैन होने लगी और मनीष उन पलों को टालने के लिए कभी काम में, कभी बच्चों और टीवी में व्यस्त होने लगे.

अधूरेपन की बेचैनी दिनोंदिन घनी होती जा रही थी. उस दिन एक कलीग को अपनी ओर देखता पा कर तनुजा के अंदर कुछ कुलबुलाने लगा, फुरफुरी सी उठने लगी. एक विचार उस के दिलोदिमाग में दौड़ कर उसे कंपकंपा गया. छी, यह क्या सोचने लगी हूं मैं? मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती. मेरे मन में यह विचार आया भी कैसे? मनीष और मैं एकदूसरे से प्यार करते हैं, प्यार का मतलब सिर्फ यही तो नहीं है. कितना धिक्कारा था तनुजा ने खुद को लेकिन वह विचार बारबार कौंध जाता, काम करते हाथ ठिठक जाते, मन में उठती हिलोरें पूरे शरीर को उत्तेजित करती रहीं.

अतृप्त इच्छाएं, हर निगाह में खुद के प्रति आकर्षण और उस आकर्षण को किस अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, वह यह सोचने लगी. संस्कारों के अंकुश और नैसर्गिक प्यास की कशमकश में उलझी वह खोईखोई सी रहने लगी.

उस दिन दोपहर तक बादल घिर आए थे. खाना खा कर वह गुदगुदे कंबल में मनीष के साथ एकदूसरे की बांहों में लिपटे हुए कोई रोमांटिक फिल्म देखना चाहती थी. उस ने मनीष को इशारा भी किया जिसे अनदेखा कर मनीष ने बच्चों के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम बना लिया. वे नासमझ बन तनुजा से नजरें चुराते रहे, उस के घुटते दिल को नजरअंदाज करते रहे. वह चिढ़ गई. उस ने जाने से मना कर दिया, खुद को कमरे में बंद कर लिया और सारा दिन अकेले कमरे में रोती रही.

तनुजा ने पत्रपत्रिकाएं, इंटरनैट सब खंगाल डाले. पुरुषों से जुड़ी सैक्स समस्याओं की तमाम जानकारियां पढ़ डालीं. परेशानी कहां है, यह तो समझ आ गया लेकिन समाधान? समाधान निकालने के लिए मनीष से बात करना जरूरी था. बिना उन के सहयोग के कोई समाधान संभव ही नहीं था. बात करना इतना आसान तो नहीं था.

शब्दों को तोलमोल कर बात करना, एक कड़वे सच को प्रकट करना इस तरह कि वह कड़वा न लगे, एक ऐसी सचाई के बारे में बात करना जिसे मनीष पहले से जानते हैं कि तनुजा इसे नहीं जानती और अब उन्हें बताना कि वह भी इसे जानती है, यह सब बताते हुए भी कोई आक्षेप, कोई इलजाम न लगे, दिल तोड़ने वाली बात पर दिल न टूटे, अतिरिक्त प्यारदेखभाल के रैपर में लिपटी शर्मिंदगी को यों सामने रखना कि वह शर्मिंदा न करे, बेहद कठिन काम था.

दिन निकलते गए. कसमसाहटें बढ़ती गईं. अतृप्त प्यास बुझाने के लिए वह रोज नए मौकेरास्ते तलाशती रही. समाज, परिवार और बच्चे उस पर अंकुश लगाते रहे. तनुजा खुद ही सोचती कि क्या इस एक कमी को इस कदर खुद पर हावी होने देना चाहिए? तो कभी खुद ही इस जरूरी जरूरत के बारे में सोचती जिस के पूरा न होने पर बेचैन होना गलत भी तो नहीं. अगर मनीष अतृप्त रहते तो क्या ऐसा संयम रख पाते? नहीं, मनीष उसे कभी धोखा नहीं देते या शायद उसे कभी पता ही नहीं चलने देते.

निशा उस की अच्छी सहेली थी. उस से तनुजा की कशमकश छिपी न रह सकी. तनुजा को दिल का बोझ हलका करने को एक साथी तो मिला जिस से सहानुभूति के रूप में फौरीतौर पर राहत मिल जाती थी. निशा उसे समझाती तो थी पर क्या वह समझना चाहती है, वह खुद भी नहीं समझ पाती थी. उस ने कई बार इशारे में उसे विकल्प तलाशने को कहा तो कई बार इस के खतरे से आगाह भी किया. कई बार तनुजा की जरूरत की अहमितयत बताई तो कई बार समाज, संस्कार के महत्त्व को भी समझाया. तनुजा की बेचैनी ने उस के मन में भी हलचल मचाई और उस ने खुद ही खोजबीन कर के कुछ रास्ते सुझाए.

धड़कते दिल और डगमगाते कदमों से तनुजा ने उस होटल की लौबी में प्रवेश किया था. साड़ी के पल्लू को कस कर लपेटे वह खुद को छिपाना चाह रही थी पर कितनी कामयाब थी, नहीं जानती. रिसैप्शन पर बड़ी मुश्किल से रूम नंबर बता पाई थी. कितनी मुश्किल से अपने दिल को समझा कर वह खुद को यहां तक ले कर आई थी. खुद को लाख मनाने और समझाने पर भी एक व्यक्ति के रूप में खुद को देख पाना एक स्त्री के लिए कितना कठिन होता है, यह जान रही थी.

अपनी इच्छाओं को एक दायरे से बाहर जा कर पूरा करना कितना मुश्किल होता है, लिफ्ट से कमरे तक जाते यही विचार उस के दिमाग को मथ रहे थे. कमरे की घंटी बजा कर दरवाजा खुलने तक 30 सैकंड में 30 बार उस ने भाग जाना चाहा. दिल बुरी तरह धड़क रहा था. दरवाजा खुला, उस ने एक बार आसपास देखा और कमरे के अंदर हो गई. एक अनजबी आवाज में अपना नाम सुनना भी बड़ा अजीब था. फुरफुराते एहसास उस की रीढ़ को झुनझुना रहे थे. बावजूद इस के, सामने देख पाना मुश्किल था. वह कमरे में रखे एक सोफे पर बैठ गई, उसे अपने दिमाग में मनीष का चेहरा दिखाई देने लगा.

क्या वह ठीक कर रही? इस में गलत क्या है? आखिर मैं भी एक इंसान हूं. अपनी इच्छाएं, अपनी जरूरतें पूरी करने का हक है मुझे. मनीष को पता चला तो?

कैसे पता चलेगा, शहर के इस दूसरे कोने में घरऔफिस से दसियों किलोमीटर दूर कुछ हुआ है, इस की भनक तक इतनी दूर नहीं लगेगी. इस के बाद क्या वह खुद से नजरें मिला पाएगी? यह सब सोच कर उस की रीढ़ की वह सनसनाहट ठंडी पड़ गई, उठ कर भाग जाने का मन हुआ. वह इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती. मनीष, मम्मी, बच्चे, जानपहचान वाले, रिश्तेदार सब की नजरों में वह नहीं गिर सकती.

वेटर 2 कौफी रख गया. कौफी की भाप के उस पार 2 आंखें उसे देख रही थीं. उन आंखों की कामुकता में उस के एहसास फिर फुरफुराने लगे. उस ने अपने चेहरे से हो कर गरदन, वक्ष पर घूमती उन निगाहों को महसूस किया. उस के हाथ पर एक स्पर्श उस के सर्वांग को थरथरा गया. उस ने आंखें बंद कर लीं. वह स्पर्श ऊपर और ऊपर चढ़ते बाहों से हो कर गरदन के खुले भाग पर मचलने लगा. उस की अतृप्त कामनाएं सिर उठाने लगीं. अब वह सिर्फ एक स्त्री थी हर दायरे से परे, खुद की कैद से दूर, अपनी जरूरतों को समझने वाली, उन्हें पूरा करने की हिम्मत रखने वाली.

सहीगलत की परिभाषाओं से परे अपनी आदिम इच्छाओं को पूरा करने को तत्पर वह दुनिया के अंतिम कोने तक जा सकने को तैयार, उस में डूब जाने को बेचैन. तभी वह स्पर्श हट गया, अतृप्त खालीपन के झटके से उस ने आंखें खोल दीं. आवाज आई, ‘कौफी पीजिए.’

कामुकता से मुसकराती 2 आंखें देख उसे एक तीव्र वितृष्णा हुई खुद से, खुद के कमजोर होने से और उन 2 आंखों से. होटल के उस कमरे में अकेले उस अपरिचित के साथ यह क्या करने जा रही थी वह? वह झटके से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. लगभग दौड़ते हुए वह होटल से बाहर आई और सामने से आती टैक्सी को हाथ दे कर उस में बैठ गई. तनुजा बुरी तरह हांफ रही थी. वह उस रास्ते पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.

दोनों ओर स्थितियां चरम पर थीं. दोनों ही अंदर से टूटने लगे थे. ऐसे ही जिए जाने की कल्पना भयावह थी. उस रात तनुजा की सिसकियां सुन मनीष ने उसे सीने से लगा लिया. उस का गला रुंध गया, आंसू बह निकले. ‘‘मैं तुम्हारा दोषी हूं तनु, मेरे कारण…’’

तनु ने उस के होंठों पर अपनी हथेली रख दी, ‘‘ऐसा मत कहो, लेकिन मैं करूं क्या? बहुत कोशिश करती हूं लेकिन बरदाश्त नहीं कर पाती.’’

‘‘मैं तुम्हारी बेचैनी समझता हूं, तनु,’’ मनीष ने करवट ले कर तनुजा का चेहरा अपने हाथों में ले लिया, ‘‘तुम चाहो तो किसी और के साथ…’’ बाकी के शब्द एक बड़ी हिचकी में घुल गए.

वह बात जो अब तक विचारों में तनुजा को उकसाती थी और जिसे हकीकत में करने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाई थी, वह मनीष के मुंह से निकल कर वितृष्णा पैदा कर गई.

तनुजा का मन घिना गया. उस ने खुद ऐसा कैसे सोचा, इस बात से ही नफरत हुई. मनीष उस से इतना प्यार करते हैं, उस की खुशी के लिए इतनी बड़ी बात सोच सकते हैं, कह सकते हैं लेकिन क्या वह ऐसा कर पाएगी? क्या ऐसा करना ठीक होगा? नहीं, कतई नहीं. उस ने दृढ़ता से खुद से कहा.

जो सच अब तक संकोच और शर्मिंदगी का आवरण ओढ़े अपारदर्शी बन कर उन के बीच खड़ा था, आज वह आवरण फेंक उन के बीच था और दोनों उस के आरपार एकदूसरे की आंखों में देख रहे थे. अब समाधान उन के सामने था. वे उस के बारे में बात कर सकते थे. उन्होंने देर तक एकदूसरे से बातें कीं और अरसे बाद एकदूसरे की बांहों में सो गए एक नई सुबह मेें उठने के लिए.

Kahaniyan : अजनबी – आखिर कौन था उस दरवाजे के बाहर

Kahaniyan : ‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा. ‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा. ‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्ंि?डग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है? ‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा. इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

?‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया. नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी. ‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’ शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’ शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी. आंटी ने बताया कि उन की बिल्ंिडग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

Story In Hindi : नींद- मनोज का रति से क्या था रिश्ता

Story In Hindi : उस ने दो, तीन बार पुकारा रमा… रमा, पर कोई जवाब नहीं.

‘‘हुंह… अब यह भी कोई समय है सोने का,‘‘ वह मन ही मन बड़बड़ाया और किचन की तरफ चल दिया. वहां देखा कि रमा ने गरमागरम नाश्ता तैयार कर रखा था. सांभर और इडली बन कर तैयार थीं.

‘‘कमाल है, कब बनाया नाश्ता?‘‘ वह सोचने लगा. तभी उसे याद आया कि रति का फोन आया था और वह बात करताकरता छत पर चला गया था. उस ने फोन उठा कर काल टाइम चैक किया. एक घंटा दस मिनट. उस ने हंस कर गरदन हिलाई और मुसकराते हुए अपना नाश्ता ले कर टेबल पर आ गया.

रमा ने लस्सी बना कर रखी थी. उस ने बस एक घूंट पिया ही था कि भीतर से रमा की आवाज आई, ‘‘मनोज, मेरे फिर से तीखा पीठदर्द शुरू हो गया है. मैं दवा ले कर सो रही हूं. फ्रिज से नीबू की चटनी जरूर ले लो.‘‘

‘‘हां… हां, बिलकुल खा रहा हूं,‘‘ कह कर मनोज ने उस को आश्वस्त किया और चटखारे लेले कर इडलीसांभर खाता रहा. वह मन ही मन बुदबुदाया, ‘‘चलो कोई बात नहीं. अगर सो भी रही है तो क्या हुआ, कम से कम सुबहरात थाली तो लगी मिल ही रही है. बाकी अपनी असली जिंदगी में रति जिंदाबाद.‘‘ अपनेआप से यह कह कर मनोज नीबू की चटनी का मजा लेने लगा.

समय देखा, दोपहर के पौने 12 बज रहे थे. अब उसे तुरंत फैक्टरी के लिए निकलना था. उस ने जैसे ही कार की चाबी उठाई, उस आवाज से चौकन्नी हो कर रमा ने कहा, ‘‘बाय मनोज हैव ए गुड डे.‘‘

‘‘बाय रमा, टेक केयर,‘‘ चलताचलता वह बोलता गया और सोचता भी रहा कि कमाल की नींद है इस की. मनोज कभी अपनी आंखें फैला कर तो कभी होंठ सिकोड़ कर सोचता रहा. पर, इस समय न वह भीतर जाना चाहता था और न ही उस की कमर में हाथ फिरा कर कोई दर्द निवारक मलहम लगाना चाहता था. उस ने खुद को निरपराध साबित करने के लिए अपने सिर को झटका दिया और सोचा कि अब यह सब ठेका उस ने ही तो नहीं ले रखा है, बाहर के काम भी करो, रोजीरोटी के लिए बदन तोड़ो और घर आ कर रमा के दुखते बदन में मलहम भी लगाओ. यह सब एक अकेला कब तक करे.

मनोज खुद अपना वकील और जज भी दोनों ही बन रहा था, पर सच बात तो यह थी कि वह यह सब नहीं करना चाहता था और जल्दी से जल्दी रति का चेहरा देखना चाहता था.

गाड़ी निकाल कर मनोज फैक्टरी के रास्ते पर था. मोबाइल पर नजर डाली तो उस में रति का संदेश आ रहा था.

वह हंसने लगा. कम से कम यह रति तो है उस की जिंदगी में. चलो रमा अब 50 की उम्र में बीमार है. अवसाद में है. जैसी भी है, पर निभ ही जाती है. जीवन चल ही रहा है.

यों भी पूरे दिन में मनोज का रमा से पाला ही कितना पड़ता है. पूरे दिन तो रति साथ रहती है. जब वह नहीं रहती, तब उस के लगातार आने वाले संदेश रहते हैं. रति है तो ऐसा लगता है जीवन में आज भी ताजगी ही ताजगी है, बहार ही बहार है. एक लौटरी जैसी रति उस को कितनी अजीज थी. पिछले 3 महीने से रति उस के साथ थी.

रति अचानक ही उस के सामने आ गई थी. वह अपनी फैक्टरी के अहाते में पौधे लगवा रहा था, तभी वह गेट खोल कर आ गई. वह रति को देख कर ठिठक गया था. ऐसे तीखे नैननक्श, इतनी चुस्त पोशाक और हंसतामुसकराता चेहरा. वह आई और आते ही पौधारोपण की फोटो खींचने लगी, तो मनोज को लगा कि शायद प्रैस से आई है. और यों भी पूरी दोपहर उस की खिलौना फैक्टरी में लोगों का तांता लगा रहता था, कभी शिशु विकास संस्थान, तो कभी बाल कल्याण विभाग. कभी ये गैरसरकारी संगठन, तो कभी वो समूह, यह सब लगा रहता था.

मनोज ने रति को भी सहज ही लिया. पौधारोपण पूरा होतेहोते शहर के लगभग 10 अखबारों से रिपोर्टिंग करने वाले प्रतिनिधि आ गए थे. मनोज ने देखा कि रति कोई सवाल नहीं पूछ रही थी. वह बस यहांवहां इधरउधर घूम रही थी, बल्कि रति ने चाय, कौफी, नाश्ता कुछ भी नहीं लिया था.

मनोज को कुछ उत्सुकता सी होने लगी कि आखिर यह कौन है और उस से चाहती क्या है?

कुछ देर बाद चाय, नाश्ता हो गया. फोटो, खबर और सूचना ले कर एकएक कर के सभी प्रैस रिपोर्टर विदा ले कर चले भी गए. पर रति तो अब भी वहीं पर थी. अब मनोज को अकेला पा कर वह उस के पास आई और बेबाक हो कर बोली, ‘‘आप से बस 2 मिनट बात करनी है.”

‘‘हां… हां, जरूर कहिए,‘‘ कह कर मनोज ने पूरी सहमति दी.

‘‘जी, मेरा नाम रति है और मुझे आप की फैक्टरी में काम चाहिए.‘‘

‘‘काम चाहिए, पर अभी तो यहां स्टाफ एकदम पूरा है,‘‘ मनोज ने जवाब दिया.

‘‘जी, किसी तरह 4-5 घंटे का काम दे दीजिए. आप अगर चाहें तो मैं एक आइडिया दूं.‘‘

‘‘हां… हां, जरूर,‘‘ मनोज ने उत्सुकता से कहा, तो वह झट से बोली थी, ‘‘आप अपनी फैक्टरी और इस गोदाम की छत पर सब्जियांफूल उगाने का काम दे दीजिए.‘‘

‘‘अरे… अरे, ओह्ह,‘‘ कह कर मनोज हंसने लगा. वह रति की देह को बड़े ही गौर से देख कर यह प्रतिक्रिया दे बैठा, क्योंकि उस का मन यह मानने को तैयार नहीं था कि रति यह सब कर सकती है.

‘‘हां… हां, क्यों नहीं,” मनोज ने कहा.

“आप इतने मनमोहक पौधों का पौधारोपण करा रहे हो. प्रकृति से तो आप को खूब प्यार होगा. मेरा मन तो यही कहता है,‘‘ ऐसा बोलते समय रति ने भांप लिया था कि मनोज खुश हो गया है.

अब उस के इसी खुश मूड को ताड़ कर वह बोली, ‘‘जी, आप मेरा भरोसा कीजिए. मैं बाजार में बिकवा कर इन की लागत भी दिलवा सकती हूं. और तो और यह तो पक्का है कि आप को मुनाफा ही होगा.‘‘

रति ने कुछ ऐसी कशिश के साथ यह बात कही कि मनोज मान गया.

मनोज को इतना भी पैसे का लालच नहीं था, पर रति का आत्मविश्वास और उस की मनमोहक अदा ने मनोज को उसी समय उस का मुरीद बना दिया था.

उस ने अगले दिन रति को फिर बुलाया और कुछ नियमशर्तों के साथ काम दे दिया. 3 सहायक उस के साथ लगा दिए गए.

बस वह दिन और आज का दिन, रति कभी बैगन, कभी लाल टमाटर, हरी मिर्च, पालक, धनिया वगैरह ला कर दिखाती रहती.

मनोज भी खुश था कि जरा सी लागत में खूब अच्छी सब्जी और फूल खिल रहे थे.

पिछले दिनों रति के इसी कारनामे के कारण मनोज को पर्यावरण मित्र पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका था. पूरे शहर में आज बस उस की ही फैक्टरी थी, जो हरियाली से लबालब थी. आएदिन कोई न कोई फोटोग्राफी की वर्कशौप भी वहीं छत पर होने लगी थी.

रति तो उस के लिए बहुत काम की साबित हो रही थी. यही बात उस ने रति की पीठ पर इत्र की बोतल उडे़लते हुए एक दिन उस से कह दी थी. उस पल अपने अनावृत बदन को उस के सीने में छिपाते हुए रति ने आंखें बंद कर के कहा था, ‘‘बस ये मान लो मनोज कि जिंदगी को जुआ समझ कर खेल रही हूं.

‘‘यह जो मन है ना मनोज, इस के सपने खंडित होना नहीं चाहते. खंडित सपने की नींव पर नया सपना अंकुरित हो जाता है. मैं करूं भी तो क्या. तुम हो तो तुम्हारे दामन में निश्चिंत हूं, आने वाले पल में कब क्या होगा, मैं खुद भी नहीं जानती.’’

उस दिन रति ने उस के सामने अपनी देह के साथ जीवन के भी राज खोल दिए थे. सूखे कुएं की मुंडेर पर अपने मटके लिए वो 7 साल से किसी अभिशाप को ढो रही थी.

पहलेपहले तो पति बाहर कहीं भी जाते थे, तो रति को ताला लगा कर बंद कर के जाते थे. फिर उस ने उन को उन के तरीके से जीतना शुरू किया. वह उन के इस दो कौड़ी के दर्शन को बारबार सराहने लगी. उन को उकसाने लगी कि आप को सारी दुनिया में अपनी बातें फैलानी चाहिए.

दार्शनिक और सनकी पति को सुधारने में समय तो जरूर लगा, पर रति का काम बन गया. इसलिए अब वही हो रहा है जो रति चाहती है. पति बाहर ही रहते हैं और रति को आजादी वापस मिल गई है. कितनी प्यारी है ये आजादी. जितनी सांसें हैं अपने तरीके से जीने की आजादी.

रति को एक हमदर्द चाहिए था. एक अपना जो रोते समय उस की गरदन को कंधा दे सके.

दिन बीतते रहे. हौलेहौले वह जान गया था कि रति को नौकरी नहीं बस मनोज चाहिए था. एक पागल और जिद्दी पति और उस के चिंतन से आजिज आ चुकी रति ने एक बार एक चैनल के साक्षात्कार में मनोज को देखा तो बस उस को हासिल करने की ठान ही ली थी.

पति के दर्शन और ज्ञानभरी बातों से वह दिनभर ऊब जाती थी. नौकरी तो बहाना था. उस को अब इस जीवन में कुछ घंटे हर दिन मनोज का साथ चाहिए था.

मनोज को वह दिन रहरह याद आ रहा था, जब पहली बार रति उस को अपने घर ले गई थी. उस दिन रति के पति नहीं थे, पर वहां नौकरचाकर थे. सबकुछ था. कितनी सुखसुविधाओं से लवरेज था उस का आलीशान बंगला. मगर, उस के घर पर अजीब सी खामोशी थी. पर, मनोज को इस से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता था. रति उसे बिंदास अपने घर पर भी उतना ही हक दे रही थी, जितना वह मनोज को अपनी नशीली, मादक देह पर कुछ दिन पहले दे चुकी थी.

उस दिन जब वह रति से उस के घर पर मिल कर लौट रहा था, तब यही सोच रहा था कि उस की भी तो कोई चाहत है, कोई रंग उस को भी तो चाहिए ही. अब वह और रमा हमउम्र हैं, ठीक है. रमा को जीवन में आराम चाहिए, करे. पूरी तरह आराम कर. पर उस को तो रंगीन और जवान जिंदगी चाहिए. इधर रति खुद एक लता सी किसी शाख का सहारा चाहती थी ना. बस हो गया. एक तरह से वह रति पर अहसान कर रहा था और उस का काम भी चल रहा था.

यही सोचतसोचता वह घर पहुंच गया था. वह जैसे ही भीतर आया, किसी पेनकिलर मलहम की तेज महक उस की नाक में घुसी और उस के कदम की आहट सुन कर रमा की आवाज आई, ‘‘मनोज आ गए तुम. खाना रखा है. प्लीज, खा लो. मैं तो बस जरा लेटी हूं. अब इस दर्द में बिलकुल उठा नहीं जा रहा.‘‘

‘‘हां… हां रमा, ठीक है. तुम आराम करो, सो जाओ,‘‘ कह कर वह बाथरूम में घुस गया.

मनोज बखूबी जानता है कि रमा की नींद रूई से भी हलकी है. कभी लगता है कि उस की नींद में भाप भरी होती है. रमा कभी बेसुध नहीं रहती, कभी चैन की नींद नहीं सोती. ज्यों ही खटका होता है, उस के होने के पहले ही जाग उठती है.
रमा भी अजीब है. इस की यह चेतना सदैव चौकन्नी रहती है. उस को याद है, जब बेटा स्कूल में पढ़ रहा था. परीक्षा के लिए रमा ही उस के साथ रातबिरात जागती थी. तब भी वह बेखबर सोया रहता. पर, रमा उस की एक आहट से जाग जाती और उस को चायकौफी बना कर दे देती थी. तब भी वो कमसिन रमा को झट से जागते, काम करते केवल चुपके से देखता था, दूर से उस को एकटक निहारता था. पर बिस्तर से जाग कर खुद काम नहीं करता था. कभी नहीं.

अब बेटा विदेश में पढ़ रहा है, नौकरी कर के वहीं बस जाएगा, ऐसा उस का फैसला है.

रमा और मनोज दोनों ही अपने बेटे का यह संकल्प जानते हैं. यही सोचता हुआ मनोज बाथरूम से तरोताजा हो कर बाहर आया, तो उस ने परदे की आड़ से कमरे में झांका, रमा सो गई थी.
मनोज ने देखा कि नींद में उस की यह सुंदरता कितनी रहस्यमयी है. उस की नींद और सपनों के कितने कथानक होंगे, क्या वह भी शामिल होगा उन में, शायद नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई भय हो, जो कहीं से इस के मन में भरा हो? इसीलिए जब भी मनोज आता है, रमा सोई मिलती है.

वह चुपचाप सांस रोक कर और बारबार परदे के उस तरफ मुंह तिरछा कर के सांस ले कर उस की नींद का अवलोकन करता रहा.
कुछ पल बाद मनोज ने खाना लगाया और मोबाइल पर रति से चैट करते हुए खाना खाने लगा.

“मनोज डार्लिंग 10 लाख रुपए चाहिए.” अचानक ही रति का संदेश आया. मनोज के लिए यह रकम बड़ी तो थी, पर बहुत मुश्किल भी नहीं थी. मगर वह सकपका गया. वह रति से इतना आसक्त हो गया था कि सवाल तक नहीं कर पा रहा था कि क्यों चाहिए, किसलिए… वो कुछ मिनट खामोश ही रहा. दोबारा संदेश आया. अब न जाने क्या हुआ कि मनोज ने रति का नंबर ब्लौक कर दिया. आज वह बौखला रहा था.
हद है, वह समझ गया कि आखिर कौन सा खेल खेला जा रहा था उस के साथ. अब उस ने तुरंत अपने एक सोशल मीडिया विशेषज्ञ मित्र को रति की तसवीर भेज कर कुछ सवाल पूछे. प्रमाण सहित उत्तर भी आ गए. वह अपनी नादानी पर शर्म से पानीपानी हो रहा था. एक बाजारू महिला के झांसे में.

उफ, उस ने अपना सिर पीट लिया यानी वो उस दिन जिस घर पर ले गई थी, वह न रति का था, न उस के पति का. सच तो यह है कि इस का कोई पति है ही नहीं. यही उस ने आननफानन में खाना खत्म किया और फोन एक तरफ रख कर रमा के पास आ कर लेट गया. अब वह रति से कोई संबंध नहीं रखना चाहता था.

‘‘मनोज खाना खा लिया,‘‘ रमा हौले से फुसफुसा कर पूछ रही थी.

‘‘हां,‘‘ कह कर मनोज अभीअभी लेटा ही था. अचानक करवट ले कर वह बिस्तर पर बैठ गया. अब उस ने आसपास हाथ फिराया, तो मलहम मिल गई. मलहम ले कर वह रमा की पीठ पर मलने लगा और बहुत देर तक मलता रहा. रमा को मीठी नींद आ रही थी. वह हिम्मत नहीं कर पा रहा था कि उस के कानों तक अपना अधर पहुंचा सकता तो दिलासा देता कि तुम निश्चिंत हो, सोती रहो, मैं कोई हानि नहीं पहुंचाऊंगा. मैं कैसे तुम्हारे भरोसे के योग्य बनूं कि तुम अपनी नींद मुझे सौंप दो? मुझे इतना हक कैसे मिले?

मैं कैसे तुम्हारे बसाए घर पर ऐसे चलूं कि कोई दाग ना लगे, तुम को मेरी सांसों के कोलाहल से कोई संशय न हो. तुम निडर हो कर जीती रहो- जैसे सब जीते हैं. इस विश्वास के साथ रहो कि यह घर संपूर्ण रूप से तुम्हारा है. तुम यहां सुरक्षित हो. वह आज यह सोच रहा था कि एक रमा है जो उस से कुछ नहीं मांगती. बस, बिना शर्त प्यार करती है. अगर वह उस का विश्वास जीतने में भी जो विफल रहा, उस ने फिर दुनिया भी जीत ली तो क्या जीता. यह सोचतासोचता वह भी गहरी नींद में सो गया.

अगले दिन रति फैक्टरी नहीं आई. वह उस के बाद फिर कभी नहीं आई.

Aloo Cutlet Recipe : बच्चों को खिलाएं टेस्टी आलू के कटलेट

Aloo Cutlet Recipe : अक्सर बच्चों को स्नैक्स में कुछ टेस्टी खाने का मन करता है, लेकिन हम रोजाना उन्हें मार्केट से खरीदा हुआ सामान नही खिला सकते. आज हम आपको आलू के कटलेट की सिंपल और टेस्टी रेसिपी के बारे में बताएंगे, जिसे आप अपनी फैमिली और बच्चों को खिला सकते हैं. आप चाहें तो आलू कटलेट को किसी होम पार्टी या बच्चों के बर्थडे में भी सर्व कर सकते हैं.

हमें चाहिए

उबले आलू 6-7 मध्यम

ब्रेड/ डबलरोटी 2-3 स्लाइस

हरी मिर्च 2

पिसी लाल मिर्च ½ छोटा चम्मच

चाट मसाला ½ छोटा चम्मच

गरम मसाला ½ छोटा चम्मच

नमक 1 छोटा चम्मच/ स्वादानुसार

कटा हरा धनिया 2 बड़ा चम्मच

तेल तलने के लिए

सामग्री परोसने के लिए

इमली की चटनी

पुदीने की चटनी

बनाने का तरीका

आलू को छीलकर घिस/ मसल लें. हरी मिर्च का डंठल काटकर उसे धो लें और फिर बारीक काट लें. मसले हुए आलू में. नमक, लाल मिर्च पाउडर, गरम मसाला, चाट मसाला, कटी हरी मिर्च और कटा हरा धनिया डालें और सभी सामग्री को अच्छे से मिलाएँ.

ब्रेड के ऊपर थोड़ा पानी छिड़कें. अच्छे से दबा कर अतिरिक्त पानी को निकाल दें. अब ब्रेड को अच्छे से मसल कर आलू के पेस्ट में मिलाएं. फिर अच्छे से मिलाएं ताकि आलू में बाकी मसाला मिल जाए.

अब इस आलू के पेस्ट से अपनी पसंद के साइज के कटलेट बनाएं. मध्यम से तेज आंच पर एक कड़ाई में तेल गरम करें. जब तेल तेज गरम हो जाए तो इसमें 5-6 कटलेट डालें और सुनहरा होने तक इन्हे तलें. तले हुए कटलेट को किचन पेपर पर निकालें और सेजवान सौस या हरी चटनी के साथ अपने बच्चों को गरमागरम आलू कटलेट खिलाएं.

फिल्ममेकर, डाइरैक्टर व अभिनेता Rakesh Roshan के जीवन के उतारचढ़ाव और सफलता का राज क्या है

Rakesh Roshan : हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में 5 दशक से अधिक समय बिता चुके निर्माता, निर्देशक, लेखक, अभिनेता राकेश रोशन की शख्सियत अनूठी है. शांत, हंसमुख, धैर्यवान, हैंडसम राकेश रोशन का पूरा नाम राकेश रोशन नागरथ है, लेकिन पिता की मौत के बाद उन के परिवार वालों ने अपने नाम के पीछे ‘नागरथ’ सरनेम लगाना छोड़ दिया. उन्होंने अपने पिता को याद रखने के लिए उन के ही नाम को अपना सरनेम बना लिया.

राकेश रोशन ने एक अभिनेता के रूप में कैरियर की शुरुआत साल 1970 में फिल्म ‘घरघर की कहानी’ से की थी. अभिनेता के रूप में उन्होंने बहुत कम फिल्मों में काम किया है. जब उन का कैरियर बतौर अभिनेता कुछ खास नहीं रहा, तो साल 1980 में उन्होंने खुद की प्रोडक्शन कंपनी का निर्माण किया. उन्होंने अपने प्रोडक्शन बैनर के तहत फिल्म ‘आप के दीवाने’ बनाई. हालांकि यह फिल्म बौक्स औफिस पर बुरी फ्लौप साबित हुई. इस के बाद उन्होंने फिल्म ‘कामचोर’ बनाई, जो एक सफल फिल्म साबित हुई.

निर्देशक के रूप में उन्होंने कैरियर की शुरुआत वर्ष 1987 में फिल्म ‘खुदगर्ज’ से की. इस के बाद उन्होंने ‘खून भरी मांग’,’कामचोर,’ ‘खेलखेल में’,’खट्टामीठा,’ ‘करन अर्जुन’,’कोयला’ जैसी उन की हिट फिल्मों की लंबी सूची है.

राकेश के पिता रोशन की दोस्ती मशहूर फिल्ममेकर जे.ओमप्रकाश से थी. दोनों के पारिवारिक संबंध थे. उस दौरान जे. ओमप्रकाश अपनी इकलौती बेटी पिंकी के लिए रिश्ता ढूंढ़ रहे थे, तो उन्हें राकेश से बेहतर कोई लड़का नहीं लगा. उन्होंने रोशन से राकेश की शादी की बात कही और रिश्ता जुड़ गया. बाद में
दोनों सुनैना और ऋतिक के पेरैंट्स बने.

नहीं हारा मुसीबतों से

राकेश रोशन के जीवन में कठिन दौर कई बार आए, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. साल 2000 में उन्हें 2 गोलियां लगी थीं, उस अवस्था में उन्होंने खुद गाड़ी चलाई और अस्पताल पहुंचे। अस्पताल में इलाज चला और वे ठीक हो गए. वर्ष 2018 में फिल्म ‘कृष 4’ की शूटिंग के दौरान उन के जीभ के कैंसर का डिटेक्ट हुआ। उन का 12 किलोग्राम वजन घट गया था, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने
कैंसर से भी जंग जीत ली और आगे बढ़ गए.

फिल्म मेकर और डाइरैक्टर के रूप में सफल होने के बाद राकेश रोशन ने अपने बेटे ऋतिक के साथ ‘कहो ना प्यार है,’ ‘कोई मिल गया’ ,’कृष’ जैसी सुपरहिट फिल्में भी दिए. इन दिनों नेटफलिक्स पर रोशन्स परिवार को ले कर बनाई डौक्यूमेंट्री सिरीज ‘द रोशंस’ काफी लोकप्रिय हुआ है और उन्हें काफी मात्रा में अच्छी कौंप्लीमेंट्स मिल रहे हैं. यह सीरीज भी उन्होंने अपने पिता की याद में बनाई है, जिन की वजह से उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में एक लंबा सफर तय किया है.

उन्होंने गृहशोभा से अपनी जर्नी और उस से जुड़े चुनौतियों के बारे में बात की. आइए जानते हैं, उन की कहानी उन की जबानी :

पिता को दिया ट्रिब्यूट

इस सीरीज को बनाने की खास वजह के बारे में राकेश रोशन कहते हैं कि आज से तकरीबन 10 साल पहले एक म्यूजिक डिवाइस आई थी, जिसे किसी कंपनी ने निकाला था, जिस में करीब 10 हजार गाने थे। सारे म्यूजिक डाइरैक्टर के नाम उस वक्त से ले कर आजतक के थे. उस में गीतकार के साथ सारे ऐक्टर के नाम थे। मैं ने 25 से 30 डिवाइस खरीद कर दोस्तों को बांटा भी था. एक दिन मैं सुकून से अपने पिता के गाने सुनना चाहा, तो मैं ने देखा कि मेरे पिता के एक भी गाने उस में नहीं थे, फिर मैं ने उस कंपनी को फोन कर कहा कि आप से कोई भूल हो गई है, आप चेक करें और देखें कि इस में मेरे पिता का नाम भी नहीं है और न ही कोई गाना है.

उन्होंने इस बात को अधिक महत्त्व नहीं दिया. उस दिन मुझे बहुत ठेस लगा कि मेरे पिता ने इतने अच्छे
कंपोजिशन दिए हैं और उन का नाम नहीं है. वे इस दुनिया में नहीं हैं, यह
सोच कर मुझे बहुत मायूसी हुई.

एक दिन मैं ने निर्देशक शशि रंजन से इस बारे में बात की, जो मेरे एक अच्छे दोस्त हैं. मैं ने उन्हें सारी बातें बताई और पूछा कि इस दिशा में हम क्या कर सकते हैं. उन्होंने आइडिया दिया कि रोशन पर एक डौक्यूमेंटरी बनाई जा सकती है। 2-3 दिन बाद मैं ने फिर शशि से कहा कि शायद आज की जैनरेशन 50 साल पुरानी गानों को सुनना भी न चाहे, तो क्यों न हम ऐसी डौक्यूमेंट्री बनाएं, जिस में राजेश रोशन, मैं और ऋतिक रोशन सभी हों, ताकि हमारे जरीए नई जैनरेशन मेरे पिता के गाने सुन सकें. यह कौंसेप्ट शशि को बहुत पसंद आया और मैं ने घर पर आ कर राजेश और ऋतिक से बात की. उन्हें भी यह कौंसेप्ट अच्छा लगा और मैं ने इसे बनाना शुरू किया.

काम आई मेहनत

इसे बनाने में ढाई साल लगे. 1 साल शूटिंग और डेढ़ साल एडिटिंग में लगे. एडिटर गीता सिंह ने बहुत अच्छा काम किया, शशि रंजन ने भी इसे मेरे हिसाब से बड़े पैमाने पर बनाया है। अच्छे लोग, अच्छी लोकैशन पर इस की शूटिंग हुई और मुझे बहुत ही अच्छा लगा कि हम सब की मेहनत आज सभी को पसंद आ रही है.

संगीत डीएनए में

अच्छे संगीत की परंपरा रोशंस परिवार में हमेशा से रहा है, आज की फिल्मों में राकेश रोशन हमेशा अच्छे संगीत डालना पसंद करते हैं, जिसे राजेश रोशन दिया करते हैं. संगीत से उन के लगाव के बारे में पूछने पर वे कहते हैं कि संगीत तो हम सभी के रगरग में बसा हुआ है. मैं संगीत बना नहीं पाता, लेकिन मुझे सुनना बहुत अच्छा लगता है, मैं गा नहीं पाता हूं, लेकिन गाने की कोशिश अवश्य करता हूं, राजेश रोशन में वह गुण है, ऋतिक भी अच्छा गाता है. मेरे दोनों ग्रैंड चिल्ड्रन रेहान और रिदान बहुत अच्छा गाते हैं. पियानों और गिटार बजाते हैं. फिल्मों में भी जब हम गाना डालते हैं, तो स्क्रीन प्ले बनाते समय देखते हैं कि गाना फिल्म की रुकावट न बनें, बल्कि फिल्म का एक हिस्सा हो, कहानी को आगे बढ़ाएं, ऐसे में बोल भी वैसी ही लिखी जाती है, ताकि कहानी में उस का समावेश अच्छी तरह से हो और कहानी से अलग न लगे.

संघर्ष

राकेश रोशन के जीवन में बहुत उतारचढ़ाव आए हैं, उन्होंने बहुत कम उम्र में परिवार की जिम्मेदारी संभाली और आगे बढ़े. पहले डाइरैक्टर बन फिल्में कीं, नहीं चली, तो बाद में ऐक्टर बने. उस में भी खास कामयाबी नहीं मिली, लेकिन जब उन्होंने फिल्मों का निर्माण के साथ निर्देशन शुरू किया, तो उन की
गाड़ी चल पड़ी। एक के बाद एक सफल फिल्में दीं और आज ऋतिक के साथ भी उन्होंने सफल फिल्मी दौर को बनाए रखा है। उन की जिंदगी के कठिन पलों में हार न मानने की वजह के बारे में उन का कहना है कि मैं ने जीवन में कभी हार नहीं मानी। आज मैं 75 साल का हो चुका हूं, लेकिन मुझ में जो हिम्मत है, वह 20 साल वाली ही है. मैं अभी भी फिल्में बनाता हूं और हटके फिल्में बनाने की कोशिश करता हूं, जो दर्शकों को पसंद आए, जिसे भारत में लोगों ने न देखा हो। यही वजह है कि मैं ने ‘कृष’ की कई सीरीज बनाई है, जिसे दर्शकों ने पसंद किया है. अभी हम सभी ‘कृष 4’ पर काम कर रहे हैं. यह भी एक नई तरीके की कहानी होगी और इस का प्रेजैंटेशन भी बाकी से अलग होगा.

मंजिल तक पहुंचना था कठिन

राकेश रोशन को कामयाबी मिली, लेकिन उन के आशानुरूप नहीं मिली, यही वजह है कि वे लगातार उस मंजिल तक पहुंचने की कोशिश करते रहे. वे कहते हैं कि कामयाबी मुझे कुछ हद तक मिली है, लेकिन मैं जिस तरह की सफलता चाहता था, वह नहीं मिली, इसलिए मैं कोशिश करता रहा. अभिनेता से प्रोड्यूसर फिर डाइरैक्टर बना. डाइरैक्टर बनने के बाद मुझे थोड़ी कामयाबी मिली है.

नहीं करता जल्दबाजी

बेटा और अभिनेता ऋतिक रोशन को ले कर राकेश रोशन ने कई सुपरहिट फिल्में बनाई हैं, जिसे दर्शकों ने पसंद किया. इस बारे में उन का कहना है कि मैं कहानी खुद लिखता हूं, जो कहानी मुझे प्रेरित करे, उसे ही फिल्म में डालता हूं. मैं जल्दी में नहीं होता, जब लगे की कहानी नई किस्म की है और इसे बनाना सही होगा साथ ही मैं कहानी को कमर्शियली सजा सकता हूं, ताकि सभी देखना पसंद करें. मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म को झुमरी तलैया से ले कर आस्ट्रेलिया और लास एंजिल्स तक सभी देखें, जिस में गाने अच्छे हों, रोमांस हो, लोकैशंस अच्छी हो। इसी सोच को ले कर मैं आगे बढ़ता हूं.

लीगेसी बनाए रखना मुश्किल

तीन जैनरेशन की लीगेसी को आगे बढ़ाने के बारे में राकेश रोशन का कहना है कि इसे मैं आगे नहीं ले जा रहा, यह खुद ब खुद हो गया है. इसे आगे बढ़ाने में राजेश रोशन ने भी उतनी ही मेहनत की है, जितना मैं कर रहा हूं, उतना ही ऋतिक भी कर रहा है, कोई भी आसानी से यहां तक पहुंचा नहीं है. 4-4 साल ऐसिस्टैंट रह कर सीख कर हम सभी आए हैं. यह 3 जैनरेशन ऐसी है, जिन्होंने किसी काम को आसानी से नहीं लिया, बल्कि सभी ने बहुत मेहनत कर इसे आगे लाने की कोशिश की है, तभी ये लीगेसी बनी.

फिटनैस मंत्र

राकेश रोशन की फिटनैस मंत्र के बारे में पूछने पर हंसते हुए कहते हैं कि इस के लिए कुछ नहीं करना पड़ता, सिर्फ अच्छी सोच रखनी पड़ती है और मैं अपना काम खुद करना पसंद करता हूं.

इस प्रकार प्रोड्यूसर, डाइरैक्टर, ऐक्टर राकेश रोशन ने अपनी मेहनत, लगन और धीरज से इंडस्ट्री में अपनी एक छाप छोड़ी है, जो आज की जैनरेशन के लिए एक इंसपिरेशन है, जिसे वे लगातार बनाए रखने की कोशिश अपने 75 साल की उम्र में भी करते जा रहे हैं.

Personal Hygiene For Kids : बच्चों में ऐसे डालें हैंडवौश की आदत

Personal Hygiene For Kids : बच्चों के नन्हें-नन्हें हाथ जहां प्यारे-प्यारे से लगते हैं, वहीं वे जर्म से भी भरे होते हैं, क्योंकि वे अकसर मिट्टी में खेलते हैं. उन का दिमाग हर समय शरारतों में लगा रहता है. ऐसे में उन्हें मस्ती की इस उम्र में शरारतें करने से तो नहीं रोक सकते लेकिन उन्हें हैंडवौश का महत्त्व जरूर बता सकते हैं. अकसर संक्रामक रोग का कारण गंदगी व हाथ नहीं धोना ही होता है और इस कारण कई बच्चे बीमार व मृत्यु के शिकार हो जाते हैं. ऐसे में हैंडवौश की हैबिट इस अनुपात को आधा करने में सहायक हो सकती है.

हाथों में सब से ज्यादा जर्म

हाथों में 2 तरह के रोगाणु होते हैं, जिन्हें सूक्ष्मजीव भी कहा जाता है. एक रैजिडैंट और दूसरे ट्रैजेंट सूक्ष्मजीव. जो रैजिडैंट सूक्ष्मजीव होते है, वे स्वस्थ लोगों में बीमारियों का कारण नहीं बनते हैं, क्योंकि वे हमेशा हाथों में रहते हैं और हैंडवौश से भी नहीं हटते, जबकि ट्रैजेंट सूक्ष्मजीव आतेजाते रहते हैं. ये खांसने, छींकने, दूषित भोजन को छूने से हाथों पर स्थानांतरित हो जाते हैं. फिर जब एक बार कीटाणु हाथों को दूषित कर देते हैं तो संक्रमण का कारण बनते हैं. इसलिए हाथों को साबुन से धोना बहुत जरूरी है.

न्यूजीलैंड में हुई एक रिसर्च के अनुसार, टौयलेट के बाद 92% महिलाएं व 81% पुरुष ही साबुन का इस्तेमाल करते हैं, जबकि यूएस की रिसर्च के अनुसार सिर्फ 63% लोग ही टौयलेट के बाद हाथ धोते हैं. उन में भी सिर्फ 2% ही साबुन का इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में जरूरी है कि आप पानी व साबुन से हैंडवौश की आदत डालें ताकि आप के बच्चे भी आप को देख कर यह सीखें. क्या हैं ट्रिक्स, जो बच्चों में हैंडवौश की आदत डालेंगे:

फन विद लर्न

आप अपने बच्चों को सिखाएं कि जब भी बाहर से आएं, टौयलेट यूज करें. जब भी किसी ऐनिमल को टच करें, छींकें, खांसें तब हैंडवौश जरूर करें वरना कीटाणु बीमार कर देंगे. आप भी उन के इस रूटीन में भागीदार बनें. उन से कहें कि जो जल्दी हैंडवौश करेगा वही विनर बनेगा. अब देखते हैं तुम या मैं, यह फन विद लर्न गेम उन में हैंडवौश की हैबिट को डैवलप करने का काम करेगा.

स्मार्ट स्टूल्स

कई घरों में हैंडवौश करने की जगह बहुत ऊंची होती है, जिस कारण बच्चे बारबार उस जगह जाना पसंद नहीं करते. ऐसे में आप उन के लिए स्मार्ट सा स्टूल रखें, जिस पर चढ़ना उन्हें अच्छा लगे और वे उस पर चढ़ कर हैंडवौश करें. साथ ही टैप्स में स्मार्ट किड्स फौसिट ऐक्सटैंड, जो बर्ड्स की शेप के आते हैं लगाएं. ये सब चीजें बच्चों को अट्रैक्ट करने के साथसाथ उन में हैंडवौश की आदत डालने का काम करती हैं.

जर्म फ्री हैंड्स

‘जर्म मेक मी सिक’ क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें जर्म बीमार कर दें और तुम उस कारण न तो स्कूल जा पाओ और न ही दोस्तों के साथ खेल पाओ? नहीं न, तो फिर जब भी हैंडवौश करो तो सिर्फ पानी से ही नहीं, बल्कि साबुन से रगड़रगड़ कर अपनी उंगलियों, हथेलियों व अंगूठों को अच्छी तरह साफ करो. इस से तुम्हें जर्म फ्री हैंड्स मिलेंगे.

टीच बाई ग्लिटर मैथड

अगर आप के बच्चे अच्छी तरह हैंडवौश नहीं करते हैं तो आप उन्हें ग्लिटर के माध्यम से जर्म के बारे में समझाएं. इस के लिए आप उन के हाथों पर ग्लिटर डालें, फिर थोड़े से पानी से हैंडवौश कर के टौवेल से पोंछने को कहें. इस के बाद भी उन के हाथों में ग्लिटर रह जाएगा, तब आप उन्हें समझाएं कि अगर आप अच्छी तरह हैंडवौश नहीं करेंगे तो जर्म आप के हाथों में रह कर के आप को बीमार कर देंगे.

फन सौंग्स से डालें आदत

अपने बच्चों में फन सौंग्स गा कर हैंडवौश की हैबिट डालें. जैसे जब भी वे खाना खाने बैठें या फिर टौयलेट से आएं तो उन्हें हैंडवौश कराते हुए कहें,

वौश योर हैंड्स, वौश योर हैंड्स

बिफोर यू ईट, बिफोर यू ईट,

वौश विद सोप ऐंड वाटर, वौश विद सोप ऐंड वाटर,

योर हैंड्स आर क्लीन, यू आर रैडी टू ईट,

वौश योर हैंड्स, वौश योर हैंड्स,

आफ्टर टौयलेट यूज, वौश योर हैंड्स विद सोप ऐंड वाटर,

टू कीप डिजीज अवे.

यकीन मानिए ये ट्रिक आप के बहुत

काम आएंगे.

अट्रैक्टिव सोप डिस्पैंसर

बच्चे अट्रैक्टिव चीजें देख कर खुश होते हैं. ऐसे में आप उन के लिए अट्रैक्टिव हैंडवौश डिस्पैंसर लाएं, जिसे देख कर उन का बार-बार हैंडवौश करने को मन करेगा.

Private Part Problems : प्राइवेट पार्ट की प्रौब्लम के कारण मैं तनाव में हूं…

Private Part Problems : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मैं 24 साल की युवती हूं. 3-4 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. मैं ने अभी तक किसी के साथ सैक्स संबंध नहीं बनाए पर नियमित मास्टरबेशन करती हूं. मुझे लगता है कि इस से प्राइवेट पार्ट की स्किन ढीली हो गई है. इस वजह से बहुत तनाव में रह रही हूं. मैं क्या करूं?

जवाब-

जिस तरह सैक्स करने से प्राइवेट पार्ट की स्किन लूज नहीं होती, उसी तरह मास्टरबेशन से भी स्किन पर कोई फर्क नहीं पड़ता और वह ढीली भी नहीं होती है. यह आप का एक भ्रम है.

हकीकत तो यह है कि किसी अंग के कम उपयोग से ही उस में शिथिलता आती है न कि नियमित उपयोग से. आप अपनी शादी की तैयारियां जोरशोर से करें और मन में व्याप्त भय को पूरी तरह निकाल दें. आप की वैवाहिक जिंदगी पर इस का कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा.

हाल ही में दूसरे देशों में नैशनल और्गेज्म डे मनाया गया और वहां इस से जुड़ी बातें लोग खुले तौर पर करते भी रहते हैं. वहीं भारत में सैक्स और और्गेज्म पर बात करने से लोग मुंह छिपाने लगते हैं. यहां तक कि ज्यादातर लोग अपने ही साथी या पार्टनर से भी इस पर बात नहीं कर पाते. एक बेहद दिलचस्प बात यह भी है कि हिंदी में और्गेज्म का मतलब तृप्ति है जो इस शब्द का सही अर्थ नहीं है.

महिला और पुरुष दोनों एकदूसरे से शारीरिक तौर पर बेहद अलग हैं और दोनों पर धर्म से नियंत्रित समाज का नजरिया और भी अलग है. जहां पुरुषों को सभी प्रकार की छूट बचपन से ही भेंट में मिल जाती है, वहीं महिलाओं को बचपन से ही अलग तरीकों से पाला जाता है. उन के लिए तमाम तरह के नियमबंधन बनाए जाते हैं. उन के बचपन से वयस्क होने की दहलीज तक आते आते उन्हें इस तरह की शिक्षा दी जाती है कि वे अपने शरीर से जुड़ी बातें चाह कर भी नहीं कर पाती हैं.

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Girls Driving : लड़कियों के लिए ड्राइविंग सीखना है बेहद जरूरी, 18 की उम्र से ही सीखें ये स्किल

Girls Driving : नम्रता एक छोटे से शहर में अपने परिवार के साथ रहती थी.उसका परिवार बहुत परंपरागत था, और जहां घर की जिम्मेदारियां निभाना ही एक लड़की का मुख्य काम माना जाता था. कभी भी उसे बाहर जाने के लिए गाड़ी चलाने की अनुमति नहीं मिलती थी. लेकिन 18 की उम्र में उसे महसूस हुआ कि वह अब खुद की ज़िंदगी पर नियंत्रण पाना चाहती है.उसे यह समझ में आने लगा कि अगर उसे भविष्य में स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनना है, तो ड्राइविंग तो उसे सीखनी ही होगी हालांकि जब नम्रता ने अपने मातापिता से ड्राइविंग सी खने की बात की, तो उनके मन में कई सवाल थे. “तुम एक लड़की हो, गाड़ी क्यों चलानी चाहिए?” “क्या तुम रास्ते में सुरक्षित रह पाओगी?” “यह लड़कों का काम है, तुम घर पर ही ठीक रहोगी.” इन सवालों का सामना करते हुए, नम्रता ने पूरी तरह से सोच लिया था कि उसे यह काम करना है.उसने अपने मातापिता को यह समझाया कि ड्राइविंग सीखने से वह स्वतंत्र ही नहीं बल्कि सुरक्षित भी रहेगी.और यह सच भी है जब आपको गाड़ी चलानी आती होगी तो आप कभी भी कहीं भी जा सकती हैं हम तो कहते हैं हर लड़की को अठारह साल की उम्र में कार चलानी सीखनी चाहिए.

ड्राइविंग स्कूल में किया गया तीन हजार का यह इन्वेस्टमेंट आपको सारी जिंदगी सुकून देगा. आपके घर में गाड़ी हो या ना हो फिर भी आपको ड्राइविंग आनी चाहिए क्योंकि कई बार बाहर घूमने जाने पर ड्राइवर के साथ ली गई गाड़ी का किराया दुगना होता है लेकिन अगर आपने ड्राइविंग सीखी होगी तो आपको फायदा होगा और इस तरह ज़्यादा से ज़्यादा गाड़ी जब आपको चलाने के लिए मिलेगी तो आपका हाथ भी साफ होगा.

वैसे तो लड़कियां अब हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं और स्वतंत्र जीवन भी जी रही हैं लेकिन जब लड़कियां 18 साल की होती हैं, तो उनमें उमंग होती है कुछ कर गुज़रने की कुछ नया सीखने कि तो ड्राइविंग स्किल को अपनी लिस्ट में सबसे ऊपर रखें.

1. फ्रीडम का अनुभव

ड्राइविंग सीखने से लड़कियों को अपने जीवन में एक नई स्वतंत्रता मिलती है.अगर किसी लड़की को अपना काम या स्कूल/कौलेज जाना हो, तो ड्राइविंग उसकी राह आसान बनाने में मददगार साबित होती है.यह उन्हें अपने समय को बेहतर तरीके से मैनेज करने में मदद करती है.

2. सेफ्टी ही सेफ्टी

एक लड़की के लिए अपनी सुरक्षा के लिए ड्राइविंग सीखना काफी महत्वपूर्ण है.कभीकभी यह भी ज़रूरी होता है कि अगर किसी ऐसी स्थिति का सामना हो, जहां दूसरे लोग मदद न कर पाएं, तो अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए ड्राइविंग एक काफी जरूरी स्किल हो सकती है.

3. करियर के अवसर

अगर लड़की किसी ऐसे करियर में है जिसमें यात्रा या फील्डवर्क की ज़रूरत हो, तो ड्राइविंग एक ज़रूरी स्किल बन जाती है.यह उन्हें अपने करियर को आगे बढ़ाने में मदद करता है, जैसे कि सेल्स, मार्केटिंग, इवेंट मैनेजमेंट, और बहुत सारे फील्ड जौब्स में.

4. अगर परिवार का सपोर्ट हो

कई बार लड़कियों को अपने घरवालों से भी ड्राइविंग सीखने का सपोर्ट नहीं मिलता, लेकिन अगर उन्हें अपने परिवार से इसमें पूरा सपोर्ट मिले, तो उनका जीवन और भी आसान हो सकता है.घर के काम से लेकर, इमरजेंसी तक, उन्हें हर जगह अपनी ही गाड़ी का इस्तेमाल करने का मौका मिलता है.

5. आत्मविश्वास

जब लड़की ड्राइविंग करते हुए खुद को देखती है, तो उसका अपने ऊपर का आत्मविश्वास काफी बढ़ता है.यह उसे अपने जीवन में नए चैलेंजेस का सामना करने के लिए तैयार करता है.अपनी ड्राइविंग स्किल्स पर विश्वास उसे अपने लिए और भी गोल्स सेट करने में मदद करता है.

6. इमरजेंसी सिचुएशन

कभीकभी ऐसे समय आ जाते हैं जब किसी को तुरंत कहीं जाना पड़ता है या कोई इमरजेंसी हो, और किसी दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है.अगर लड़की को ड्राइविंग आती है, तो वह खुद अपनी मदद कर सकती है और कभी भी इमरजेंसी सिचुएशन को हैंडल कर सकती है.

7. सोशल परसेप्शन में बदलाव

जब लड़कियांं अपनी गाड़ी चलाती हैं, तो उनके बारे में लोगों का नज़रिया भी बदलता है.यह उन्हें ज़्यादा जिम्मेदार और काबिल दिखाता है, जो उन्हें अपने आप को और बेहतर दिखाने का मौका देता है.समाज में बदलाव का एक हिस्सा यह भी है कि लड़कियां हर शहर और शहर के बीच अपने दोस्तों के साथ सफर कर सकती हैं बिना किसी हिचकिचाहट के.

8. व्यक्तिगत विकास

ड्राइविंग एक ऐसा कौशल है जो लड़कियों को जिंदगी में आत्मनिर्भर बनाता है.इससे उन्हें अपने निर्णय लेने और समस्या-समाधान की क्षमताओं को विकसित करने में मदद मिलती है.हर बार जब वह ड्राइविंग करती हैं, वह अपनी मानसिक तीव्रता और निर्णय लेने की क्षमता को सुधारती हैं.

लड़कियां गाड़ी चलाते समय क्या सावधानियां बरते

ड्राइविंग करना एक बड़ी जिम्मेदारी है, और इस जिम्मेदारी को सही तरीके से निभाने के लिए सावधानी बरतना बेहद ज़रूरी है. लड़कियों को ड्राइविंग करते समय अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए और ट्रैफिक नियमों का पालन करना चाहिए. गाड़ी चलाते वक्त हमेशा सीट बेल्ट लगानी चाहिए. कभी भी फोन का इस्तेमाल न करें या महिलाओं की आदत होती है अपने आप को बारबार आइने में निहारने की या ड्राइविंग करते वक्त लिपस्टिक लगाने या काजल लगाने की तो ऐसा बिल्कुल भी न करें. ताकि आप सेफ और कौन्फ़िडेंस ड्राइविंग कर सकें.

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