एक कहानी का अंत: सुख के दिन क्यों न देख सकी पुष्पा

‘‘मेरे पूरे जिस्म में दर्द हो रहा है. पूरा जिस्म अकड़ रहा है. आह, कम से कम अब तो मुक्ति मिल जाए. कोई तो बुलाओ डाक्टर को,’’ पुष्पा कराहते हुए बोल रही थी.

‘‘शांत हो जाओ, मां. लो, मुंह खोलो, दवा पिलानी है,’’ मंजू बोली.

‘‘मेरी बच्ची, अब समय आ गया, मैं नहीं बचूंगी,’’ कहते हुए पुष्पा ने गिलास लगभग छीनते हुए पकड़ा और दवा एकदम गटक ली.

मंजू को लगा कि मां के जिस्म में चेतना आ रही है और वे सही हो जाएंगी. वैसे भी, पहले भी कई बार ऐसा ही कुछ हुआ था. अभी वह सोच ही रही थी कि गिलास के गिरने की आवाज आई और उस की मां पुष्पा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मां, मां, उठो, बात करो मु झ से. आंखें खोलो न.’’ पर मां तो जा चुकी थीं, दूर, बहुत दूर.

कमरे में सन्नाटा छा गया था. अगर कोई विलाप कर रहा था तो वह थी मंजू. रोते हुए उस ने अपने पति को सूचना दी और वहीं बैठ गई. वह मां के पार्थिव शरीर को पत्थर बनी ताकती रही.

‘‘रात के डेढ़ बजे हैं, सब काम सुबह होंगे,’’ कह कर भाईभाभी अपने कमरे की तरफ चल दिए. वह बारबार मां को छू कर देखती, उम्मीद लिए कि शायद वापस आ जाएंगी वे. फिर सब की शिकायत करेंगी उस से.

कितना दुखी जीवन था उस की मां पुष्पा का. मंजू ने जब से होश संभाला हमेशा मां को रोते ही देखा…एक जल्लाद पति, बृजेश, हमेशा नशे में धुत. कहने को तो स्कूल अध्यापक था, पर ताश खेलना और शराब पीना, बस, यही उस की दिनचर्या थी. जब देखो तब वह पुष्पा को जलील करता, नशे में मारता, गालियां देता. कई बार उस ने पुष्पा को जान से मारने की भी कोशिश की थी. लेकिन आदमी जो ठहरा, रात में अपने शरीर की पिपासा बु झाने से भी वह बाज न आता.

सबकुछ सह रही थी पुष्पा. सिर्फ और सिर्फ अपने 3 छोटे बच्चों के लिए. कहां जाती वरना. न तो सासससुर का साया था और न ही मातापिता का. नाम का भाई था जो कभीकभी पत्नी से छिप कर मिलने आ जाता था और चुपचाप कुछ रुपए उस के हाथ में रख जाता.

बृजेश की आधी से ज्यादा कमाई ऐयाशी में उड़ जाती. जैसेतैसे घर की गाड़ी चल रही थी, बच्चों के साथ परेशानियां भी बड़ी होने लगीं.

बृजेश के काले मन को पुष्पा भांप गई थी, इसलिए साए के जैसे वह मंजू के साथ रहती. एक दिन पड़ोस में गमी में जाना पड़ गया, तो वह मंजू की जिम्मेदारी अपने बड़े बेटे पर सौंप कर चली गईं. बृजेश को जैसे भनक लग गई थी, उस ने अपने बेटे को किसी काम से बाजार भेज दिया और मंजू को अपनी बांहों में दबोच लिया. वह अपने को छुड़ाने के लिए छटपटा रही थी पर बृजेश पर तो शैतान हावी था.

अचानक पुष्पा आ गई. यह देखते ही वह गुस्से से पागल हो गई. वहीं एक बांस रखा था, आव देखा न ताव, वह बृजेश को पीटने लगी, ‘कमीने, बेशर्म, चला जा यहां से. बाप के नाम पर धब्बा है तू. कभी सूरत मत दिखाना. मैं नहीं चाहती तेरा साया भी पड़े मेरे बच्चों पर.’ मंजू सहमी सी खड़ी देख रही थी यह सब. धमकी दे कर बृजेश वहां से चला गया.

अब पुष्पा सिलाई और बिंदी बनाने का काम करने लगी. उसी से घरखर्च चल रहा था. बड़े बेटे ने पढ़ाई छोड़ दी. उसे शराब और सट्टेबाजी की लत लग गई. अकसर नशे में वह मां को कोसता और गाली देता. वह बाप के जाने का दोषी मां को ठहराता था.

पुष्पा खून के आंसू पी कर रह जाती. पुष्पा को अब बड़े होते बच्चों की चिंता सताने लगी थी. सो, म झले बेटे को उस के मामा के घर भेज दिया आगे पढ़ने के लिए. इंटर पूरा करते ही मंजू के हाथ पीले कर दिए. म झले बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी लग गई बैंक में. पुष्पा ने उस का भी विवाह कर दिया. जबकि बड़ा अभी कुंआरा था.

आशा के विपरीत म झले बेटे की बहू ने सब की जिम्मेदारी से बचने के लिए अलग घर बसाने की पेशकश की और शहर से बाहर चली गई. फिर कभी नहीं आई. कितनी बार पुष्पा ने उसे बुलाना चाहा पर उसे नहीं आना था सो नहीं आई. टूट चुकी थी पुष्पा. अब बड़े बेटे की जिम्मेदारी से निबटने के लिए उस का भी विवाह कर दिया.

इसी बीच, बृजेश को कैंसर हो गया. दरदर भटकते अब उसे घर की याद आई थी. पुष्पा को याद करता हुआ किसी तरह पहुंच ही गया उस के पास. अपने आखिरी दिनों में उस ने अपने किए की कई बार पुष्पा से क्षमा मांगी. पुष्पा ने उसे घर में रुकने की इजाजत तो दे दी पर दिल से माफ नहीं कर पाई. अब घर एक जंग का मैदान हो गया था.

पुष्पा कुछ भी कहती, बहू दानापानी ले कर चढ़ जाती. आखिरकार एक दिन बृजेश ने इस दुनिया से विदा ली. धीरेधीरे गमों को पीते हुए पुष्पा भी बिस्तर से लग गई, उस के पैर बेकार हो चुके थे. बहू उस की कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, उलटा आएदिन अपना हिस्सा मांगती. पुष्पा के पास अगर कुछ था तो यही एक मकान, जहां अब वह जिंदगी के बाकी बचे दिन काट रही थी. सब की नजर उस मकान पर थी. शायद पुष्पा की आंख बंद होने का इंतजार था.

पुष्पा ने एक आया सुनीता लगा ली थी. वही उस के सब काम नहलानाधुलाना आदि करती थी. आएदिन पुष्पा मंजू को फोन कर के उस से घर के सदस्यों की शिकायत करती. मंजू जब भी भाभी को सम झाना चाहती, वह टका सा जवाब देती. हार कर फिर वह मां को ही सम झाती. पुष्पा अकसर मंजू से बोलती, ‘लल्ली, तू नहीं सम झेगी, मेरे जाने के बाद पता चलेगा. सारा जीवन दे दिया पर कोई अपना नहीं हुआ. यह दुनिया पैसे की है. मु झे कोई नहीं पूछता, सारे दिन गफलत में पड़ी रहती हूं. जिस दिन कुछ खाने को मांग लिया उसी दिन तूफान.’

‘‘जीजी, जीजी,’’ सुनीता की आवाज से मंजू चौंकी. ‘‘जीजाजी आ गए. पति को देखते ही उस के सब्र का बांध टूट गया. वह खूब रोई. इतने में सुनीता ने एक पत्र उस के पति को देते हुए कहा, ‘‘अम्मा लिख गई हैं, कह रही थीं, मेरे बाद मंजू को देना.’’ शायद, पुष्पा को अपने आखिरी समय का एहसास हो गया था.

मंजू ने पत्र पति के हाथ से ले लिया. आंसू पोंछते हुए पत्र पढ़ने लगी.

‘मंजू बेटी, तू दुनिया की सब से अच्छी बेटी है. तू ने मेरी बहुत सेवा की. मेरी एक विनती है कि मेरे बाद मेरा क्रियाकर्म संबंधी काम एक दिन में ही पूरा कर देना, जिन बहूबेटों के पास जीतेजी मेरे लिए समय नहीं था उन को बाद में भी परेशान होने की जरूरत नहीं.

‘पिछले महीने ही तू मेरे लिए कपड़े लाई थी, वे सब बांट देना. मेरी रोटी के लिए जिन के पास रुपए नहीं थे वे मेरे बाद मु झ पर खर्च न करें. दामादजी, आप इस घर का सौदा कर दें. उस सौदे से मिलने वाली रकम के 3 हिस्से करना. एक हिस्सा इन दोनों लड़कों का और दो हिस्से में से एक सुनीता को दे देना. बेचारी ने बहुत ध्यान रखा मेरा. अगले महीने उस की लड़की की शादी है. एक हिस्सा मेरी नातिन का है. मंजू बेटी, तू मेरा बेटा भी थी. मेरी हर छोटी से छोटी जरूरत और इच्छा का खयाल रखा तू ने. शायद मैं जिंदा ही तेरी वजह से थी. कर्जदार हूं मैं तेरी. सदा खुश रहो. सब को तेरी जैसी बेटी मिले.’

‘‘मां.’’

सब की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. मां के कहेनुसार एक ही दिन में सब कार्य कर मंजू अपने पति के साथ भारी मन से वापस अपने घर चली गई.

मां के साथ ही उस के दुखों का अंत हो गया था. बड़ी दुखदायी, एक कहानी का अंत हो गया था. बड़ा लंबा वनवास था यह. 70 साल का सफर कम नहीं होता, जो पुष्पा ने अकेले ही तय किया था. जीवन जिया तो था उस ने लेकिन सुख के दिन क्या होते हैं, कभी नहीं देख सकी.

मजबूरियां: प्रकाश को क्या मिला निशा का प्यार

romantic story in hindi

दोहरा चरित्र- भाग 2

वह अनजान बनने की कोशिश करने लगा.

‘‘मासूम बन कर सुनीता को बरगलाओ, मुझे नहीं. मैं पुरुषों की नसनस से वाकिफ हूं. पिछले एक हफ्ते से नैपकिन लाने के लिए कह रही हूं, लाए?’’

‘‘मैं भूल गया था.’’

‘‘आजकल तो सिर्फ सुनीता की जरूरतों के अलावा कुछ याद नहीं रहता है तुम को.’’

‘‘बारबार उस का नाम मत लो. वरना…’’ सुधीर ने दांत पीसे. बात बढ़ती देख वह कमरे से बाहर निकल गया.

कायर पुरुषों की यही पहचान होती है. वे मुंह छिपा कर भागने में ही भलाई समझते हैं. सुधीर अपनी मां के कमरे में आया.

‘‘बहुत बदतमीज है,’’ मेरी सास बोलीं, ‘‘चार दिन के लिए आई है उसे भी चैन से रहने नहीं देती. वह क्या सोचेगी,’’ सिर पर हाथ रख कर वे बैठ गईं. न जाने क्या सोच कर वे थोड़ी देर बाद मेरे कमरे में आईं.

‘‘क्यों बहू, तुम्हारे संस्कार यही सिखाते हैं कि अतिथियों के साथ बुरा सलूक करो?’’

‘‘आप का बेटा अपनी पत्नी के साथ क्या कर रहा है, क्या आप ने जानने की कोशिश की?’’

‘‘क्या कर रहा है?’’

‘‘क्या नहीं कर रहा है. कुछ भी तो नहीं छिपा है आप से. सुनीता को सिरमाथे पर बिठाया जा रहा है. वहीं मेरी तरफ ताकने तक की फुरसत नहीं है किसी के पास.’’

‘‘यह तुम्हारा वहम है.’’

‘‘हकीकत है, मांजी.’’

‘‘हकीकत ही सही. इस के लिए तुम जिम्मेदार हो.’’

‘‘सुनीता को मैं यहां लाई?’’

‘‘बेवजह उसे बीच में मत घसीटो. तुम अच्छी तरह जानती हो कि पतिपत्नी के बीच रिश्तों की डोर औलाद से मजबूत होती है.’’

‘‘तो क्या यह संभावना सुनीता में देखी जा रही है?’’

‘‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे.’’

‘‘बेशर्म तो आप हैं जो अपने बेटे को शह दे रही हैं,’’ मैं भी कुछ छिपाने के मूड में नहीं थी.

‘‘ऐसा ही सही. तुम्हें रहना हो तो रहो.’’

‘‘रहूंगी तो मैं यहीं. देखती हूं मुझे कोई मेरे हक से कैसे वंचित करता है,’’ अतिभावुकता के चलते मेरी रुलाई फूट गई. बिस्तर पर लेटेलेटे सोचने लगी, एक मैं थी जो यह जानते हुए भी कि सुधीर विकलांग है उसे अपनाना अपना धर्म समझा. वहीं सुधीर, मेरे बांझपन को इतनी बड़ी विकलांगता समझ रहा है कि मुझ से छुटकारा पाने तक की सोचने लगा है. इतनी जल्दी बदल सकता है सुधीर. यह वही सुधीर है जिस ने सुहागरात वाले दिन मेरे माथे को चूम कर कहा था, ‘यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे तुम जैसे विशाल हृदय वाली जीवनसंगिनी मिली. मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि कभी अपनी तरफ से तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगा,’ आज सुधीर इतना गिर गया है कि उसे रिश्तों की मर्यादाओं का भी खयाल नहीं रहा. माना कि दूर के रिश्ते की मामी की लड़की है सुनीता, पर जब नाम दे दिया तो उसे निभाने का भी संस्कार हर मांबाप अपने बच्चों को देते हैं. पता नहीं, मेरी सास को क्या हो गया है कि सब  जानते हुए भी अनजान बनी हैं.

पापा की तबीयत ठीक नहीं थी. भैया ने बुलाया तो मायके जाना पड़ा. एक बार सोचा अपनी पीड़ा कह कर मन हलका कर लूं पर हिम्मत न पड़ी. पापा तनावग्रस्त होंगे. पर भाभी की नजरों से मेरी पीड़ा छिप न सकी. वे एकांत पा कर मुझ से पूछ बैठीं. पहले तो मैं ने टालमटोल किया. आखिर कब तक? मेरी हकीकत मेरे आंसुओं ने बेपरदा कर दी.

रात भैया से उन्होंने खुलासा किया. वे क्रोध से भर गए. उन का क्रोध करना वाजिब था. कोई भाई अपनी बहन का दुख नहीं देख सकता. रात ही वे मेरे कमरे में आने वाले थे पर भाभी ने मना कर दिया.

सुबह नाश्ते में उन्होंने सुधीर का जिक्र छेड़ा.

‘‘तू अब उस के पास नहीं जाएगी. फोन लगा मैं उस बेहूदे से अभी बात करता हूं.’’

मैं ने किसी तरह उन्हें मनाया.

1 महीना रह कर मैं जब वापस भरे मन से ससुराल जाने लगी तो भाभी मुझे सीने से लगाते हुए बोलीं, ‘‘दीदी, चिंता की कोई जरूरत नहीं. आप के लिए इस घर के दरवाजे हमेशा के लिए खुले हैं. भाभी को मां का दरजा यों ही नहीं दिया गया है. मैं खुद नहीं खाऊंगी पर आप को भूखा नहीं रखूंगी. यह मेरा वादा है. नहीं पटे तो निसंकोच चली आइएगा.’’

‘‘मैं कोशिश करूंगी भाभी कि मैं उसे सही रास्ते पर ले आऊं,’’ भरे कंठ से मैं बोली.

ससुराल में आ कर जो दृश्य मैं ने देखा तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. सुनीता की मांग में सिंदूर भरा था. तो क्या सुधीर ने सुनीता से शादी कर ली? सोच कर मैं सिहर गई. मैं तेजी से चल कर अपने कमरे में आई. देखा सुधीर लेटा हुआ था. उसे झकझोर कर उठाया.

‘‘यह मैं क्या देख रही हूं. सुनीता की शादी कब हुई? कौन है उस का पति?’’ पहले तो सुधीर ने नजरें चुराने की कोशिश की पर ज्यादा देर तक हकीकत पर परदा न डाल सका. बेशर्मों की तरह बोला, ‘‘तुम जो समझ रही हो वह सच है.’’

‘‘सुनीता से तुम ने शादी कर ली?’’

‘‘हां.’’

‘‘मेरे रहते हुए तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘तुम इसे चाहे जिस रूप में लो पर यह अच्छी तरह जानती हो कि मुझे अपना बच्चा चाहिए.’’

‘‘मेरी सहमति लेना तुम ने मुनासिब नहीं समझा.’’

‘‘क्या तुम देतीं?’’

‘‘हो सकता था मैं दे देती.’’

सुन कर सुधीर खुश हो गया, ‘‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी,’’ कह कर जैसे ही सुधीर ने मेरे करीब आ मुझे अपनी बांहों में भर कर प्यार जताने का नाटक दिखाना चाहा, मैं ने उसे झटक दिया. मेरे क्रोध की सीमा न रही. मुझ से न रोते बन रहा था न हंसते. किसी तरह खुद को संभाला. अब जो हुआ उसे बदला तो नहीं जा सकता था. वैसे भी हमेशा पुरुषों की चली है. लिहाजा, मैं ने परिस्थिति से समझौता करना मुनासिब समझा. फिर भी सुधीर को औकात बताने से न चूकी.

‘‘सुधीर, तुम अच्छी तरह जानते हो कि बांझ शब्द एक स्त्री के लिए गाली से कम नहीं होता. फिर उस स्त्री के लिए तो और ज्यादा जो इस कलंक के साथ अभिशापित जीवन जीने के लिए मजबूर हो. मुझे दुख इस बात का नहीं है कि तुम ने सुनीता से शादी की, दुख इस बात का है कि तुम ने मेरी पीठ में छुरा भोंका. मेरे विश्वास का कत्ल किया. यही काम तुम मुझे विश्वास में ले कर कर सकते थे.

‘‘सुधीर, अगर तुम्हारी विकलांगता को खामी समझ कर मैं ने तुम से शादी से इनकार कर दिया होता तो तुम मुझे किस रूप में लेते?’’

दोहरा चरित्र- भाग 3

सुधीर ने कोई जवाब नहीं दिया. मुझे लगा मैं ने व्यर्थ का सवाल उठा दिया. जिस का चरित्र दोगला हो वह भला यह सब सोचविचार क्यों करेगा? खैर, यह समाचार मेरे मायके तक पहुंचा. भैया मेरी ससुराल आते ही गरजे, ‘‘कहां है सुधीर, मैं उसे बरबाद कर के छोड़ूंगा. सरकारी कर्मचारी हो कर भी उस की हिम्मत कैसे हुई दूसरी शादी करने की?’’

मैं ने भैया को किसी तरह शांत करने की कोशिश की.

‘‘मैं चुप रहने वाला नहीं. पुलिस में रिपोर्ट करूंगा. इस के अफसरों से शिकायत करूंगा. दरदर की ठोकर न खिलवाई तो मेरा नाम नहीं.’’

सुधीर चुपके से निकल कर बाहर चला गया. मेरी सास आईं, ‘‘भड़ास निकाल ली. अब मेरी भी सुनिए. सुनीता बिन बाप की बेटी थी. सुधीर ने सिर्फ सहारा दिया है,’’ वे बोलीं.

‘‘अपनी बेशर्मी को सहारे का नाम मत दीजिए. एक को सहारा दिया और दूसरे को बेसहारा किया,’’ भैया ने व्यंग्य किया.

‘‘आरती को क्या किसी ने घर से जाने के लिए कहा है?’’ सास बोलीं.

‘‘निकल ही जाएगी,’’ भैया बोले.

‘‘उस की मरजी. पर न मैं चाहूंगी न ही सुधीर कि वह इस घर से जाए. उस का जो दरजा है वह बना रहेगा.’’

‘‘मुझे बहलाने की कोशिश मत कीजिए,’’ भैया मेरी तरफ मुखातिब हुए, ‘‘आरती, तुम सामान बांधो. अब मैं तुम्हें यहां एक पल भी न रहने दूंगा.’’

‘‘नहीं भैया, मैं ससुराल छोड़ने वाली नहीं. आज भी हमारा समाज किसी ब्याहता को मायके में स्वीकार नहीं करता,’’ मैं कहतेकहते भावुक हो गई, ‘‘मैं ससुराल की चौखट पर ही दम तोड़ना पसंद करूंगी मगर मायके नहीं जाऊंगी.’’

भैया की भी आंखें भर आईं. रूढि़वादी समाज से क्या लड़ना आसान है? गोत्र के नाम पर पतिपत्नी को भाईबहन बता दिया जाता है. ऐसे जड़ समाज से परिवर्तन की उम्मीद करना रेगिस्तान में पानी तलाशने जैसा है.

भैया की चरणधूलि लेते समय मैं ने उन्हें वचन दिया कि मैं कमजोर औरत नहीं हूं. अपने अस्तित्व के लिए कमजोर नहीं पड़ूंगी. फिर भी उन्होंने मुझे इस के लिए आश्वस्त किया कि जब चाहोगी तुम्हारे लिए मायके के दरवाजे हमेशा के लिए खुले रहेंगे.

भैया के जाने के 2 घंटे बाद सुधीर आया. आते ही हेकड़ी दिखाने लगा. मैं ने भी जता दिया कि वह अपनी औकात में रहे. सुधीर ने मुझे अलग रहने के लिए एक फ्लैट खरीद कर दिया. पहले तो मैं ने सोचा कि यहीं रह कर अपने हक के लिए लड़ती रहूंगी. कभी उस के खिलाफ कोर्ट भी जाने की इच्छा हुई पर यह सोच कर कदम पीछे कर लेती कि उस से फायदा क्या होगा? बहुत हुआ उस की नौकरी जाएगी. जेल जाएगा. वह हर महीने मुझे इतने रुपए दे जाता था कि मेरा खर्च आसानी से चल जाता. सुनीता पर दया आती, सो अलग. उसे मेरी सास और सुधीर ने बरगलाया. बहरहाल, जो हुआ उसे मैं ने नियति का चक्र मान कर स्वीकार कर लिया. मैं ने समय काटने के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली.

समय धीरेधीरे सरकने लगा. सुधीर से मेरा संबंध सिर्फ महीने के खर्च लेने के अलावा कुछ नहीं रहा. सुनीता के मोहपाश में बंधे सुधीर को मेरी कोई फिक्र न थी, न ही मुझे ऐसे आदमी से कोई ताल्लुक रखना था. एक दिन उस ने बड़े भरे मन से खुलासा किया, ‘मेरे जीवन में बाप बनना ही नहीं लिखा है.’ जिस स्वर में उस ने कहा मुझे उस से सहानुभूति हो गई. जो भी हो वह मेरा पति है. चाहती तो व्यंग्यबाण से उस का हृदय छलनी कर सकती थी पर पीछे लौट कर मैं अपने ही जख्मों को कुरेदना नहीं चाहती थी. मेरे जीवन में नियति ने जो कुछ दिया वह मिला. अब मैं क्यों बेवजह किसी को कोसूं. फिर भी पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘सुनीता के खून में इन्फैक्शन है. डाक्टर का कहना है कि अगर वह मां बनेगी तो निश्चय ही उसे विकलांग बच्चा पैदा होगा.’’

सुन कर मुझे अफसोस हुआ. सुधीर से ज्यादा दुख सुनीता के लिए हुआ. उस बेचारी का जीवन खराब हुआ. सुधीर ने 2-2 जिंदगियां बरबाद कीं. काश, वह मेरी बात मान कर किसी अनाथ बच्चे को गोद ले लेता तो हमें बुढ़ापे का सहारा मिल जाता और उस बच्चे का जीवन सुधर जाता. क्षणांश चुप्पी के बाद सुधीर आगे बोला, ‘‘आरती, किस मुंह से कहूं. कहने के लिए बचा ही क्या है.’’

मैं संशय में पड़ गई. सुधीर आखिर कहना क्या चाहता है. सुधीर के दोहरे चरित्र से तो मैं वाकिफ हो चुकी थी. इसलिए सजग थी. मैं ने ज्यादा जोर नहीं डाला. आखिरकार उसे ही कहना पड़ा, ‘‘क्या हम फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

सुनते ही मेरा पारा सातवें आसमान पर चला गया. जी में आया कि अभी धक्के मार कर बाहर निकाल दूं. मेरा अनुमान सही निकला. सुधीर का दोहरा चरित्र एक बार फिर से जाहिर हो गया. किसी तरह अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए मैं ने उस से सवाल किया, ‘‘इस हमदर्दी की वजह?’’

‘‘हमदर्दी नहीं हक,’’ यह सुधीर की बेशर्मी की पराकाष्ठा थी. स्त्री व पुरुष के मूल स्वभाव में यही तो फर्क होता है. तभी तो सारे व्रत जैसे करवाचौथ, तीज सिर्फ औरतों से करवाए जाते रहे. हमारे धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषों को खुला सांड़ बना दिया, वहीं औरतों की ममता को हजार बंधनों में बांध कर उन्हें पंगु कर दिया. पर मैं भावुकता में नहीं बही.

‘‘जब सुनीता को ले आए तब हक का खयाल नहीं आया?’’

‘‘मैं भटक गया था,’’ बड़ी मासूमियत से वह बोला.

‘‘अब गलती सुधारना चाहते हो.’’

वह चुप रहा. मैं उस के चेहरे के पलपल बदलते भावों को बखूबी पढ़ रही थी. व्यर्थ बहस में पड़ने से अच्छा मुझे सबकुछ जानना उचित लगा. वह बोला, ‘‘मैं चाहता हूं कि तुम टैस्ट ट्यूब तकनीक से मां बन जाओ.’’

मुझे हंसी सूझी, साथ में रंज भी हुआ. वह हतप्रभ मुझे देखने लगा.

‘‘तीसरी शादी कर लो. मेरी राय में यही ठीक रहेगा.’’

‘‘आरती, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारे साथ बहुत नाइंसाफी की है.’’

‘‘माफ कर दिया.’’

‘‘तो क्या तुम…’’ उस का चेहरा खिल गया.

‘‘जैसा तुम सोच रहे हो वैसा कुछ नहीं होने वाला. अच्छा होगा तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.’’

तमाम कोशिशों के बाद भी जब उस की दाल नहीं गली तो भरे कदमों से चल कर फाटक की तरफ बढ़ा. मुझ से रहा न गया, अपने मन की बात कह दी.

‘‘सुधीर, सौतन ला कर तुम ने पत्नी के अस्तित्व को गाली दी है. तुम्हारे बाप बनने की हसरत कभी पूरी नहीं होगी.’’

उस के जाते ही बिस्तर पर पड़ कर मैं फूटफूट कर रोने लगी.

दोहरा चरित्र- भाग 1

सचमुच पुरुष को बदलते देर नहीं लगती. यह वही सुधीर था जिसे मैं ने हर हाल में स्वीकारा. चाहती तो शादी से इनकार कर सकती थी पर मेरे अंतर्मन को गवारा न था. इंगेजमैंट के 1 महीने बाद सुधीर का पैर एक ऐक्सिडैंट में कट गया. भावी ससुर ने संदेश भिजवाया कि क्या मैं सुधीर से इस स्थिति में भी शादी करने के लिए तैयार हूं?

पापा दुविधा में थे. लड़के की सरकारी नौकरी थी. देखनेसुनने में खूबसूरत था. अब नियति को क्या कहें? पैर कटने को लिखा था, सो कट गया. फिर भी मुझ पर उन्होंने जोर नहीं डाला. मुझे अपने तरीके से फैसला लेने की छूट दे रखी थी. दुविधा में तो मैं भी थी. जिस से मेरी शादी होनी थी कल तक तो वह ठीक था. आज उस में ऐब आ गया तो क्या उस का साथ छोड़ना उचित होगा? कल मुझ में भी शादी के बाद कोई ऐब आ जाए और सुधीर मुझे छोड़ दे तब?

मैं दुविधा से उबरी और मन को पक्का कर सुधीर से शादी के लिए हां कर दी. शादी के कुछ साल आराम से कटे. सुधीर ने कृत्रिम पैर लगवा लिया था. इस तरह वह कहीं भी आनेजाने में समर्थ हो गया. मुझे अच्छा लगा कि चलो, सुधीर के मन से हीनभावना निकल जाएगी कि वह अक्षम हैं.

5 साल गुजर गए. काफी इलाज के बाद भी मैं मां न बन सकी तो मैं गहरे अवसाद में डूब गई. कहने को भले ही सुधीर ने कह दिया कि उसे बाप न बन पाने का जरा भी मलाल नहीं है लेकिन मैं ने उस के चेहरे पर उस पीड़ा का एहसास किया जो बातोंबातों में अकसर उभर कर सामने आ जाती. एक दिन मुझ से रहा न गया, कह बैठी, ‘‘अगर एतराज न हो तो मैं एक सलाह दूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘क्यों न हम एक बच्चा गोद ले लें?’’ यह सुन कर सुधीर उखड़ गया, ‘‘मुझे अपना बच्चा ही चाहिए.’’

‘‘वह शायद ही संभव हो,’’ मैं ने दबी जबान में कहा. बिना कोई जवाब दिए सुधीर वहां से चला गया. मेरा मन तिक्त हो गया. यह भी कोई तरीका है अपना नजरिया रखने का. सुधीर की यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती कि मिलबैठ कर कोई सार्थक हल निकालने की जगह वह दकियानूसी व्यवस्था से चिपके रहना चाहता था. मैं ने महसूस किया कि सुधीर में पहले वाली बात नहीं रही. वह मुझ से कम ही बोलता. देर रात टीवी देखता या फिर रात देर से घर लौटता.

मैं पूछती तो यही कहता, ‘अकेला घर काटने को दौड़ता है.’

‘‘अकेले कहां हो तुम. क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं रही?’’ सुधीर टाल जाता. मेरी त्योरियां चढ़ जातीं.

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती जो पत्नी को अकेला छोड़ कर देर रात घर आते हो.’’

‘‘शर्म तुम्हें आनी चाहिए जो मुझे वंश चलाने के लिए एक बच्चा भी न दे सकीं.’’

सुन कर मैं रोंआसी हो गई. एक औरत सिर्फ बच्चा जनने के लिए ब्याह कर लाई जाती है? क्या वह सिर्फ जरूरत की वस्तु होती है? जरूरतों की कसौटी पर खरी उतरी तो ठीक है नहीं तो फेर लिया मुंह. बहरहाल, अपने आंसुओं पर मैं ने नियंत्रण रखा और कोशिश की कि अपनी कमजोरियों को न जाहिर होने दूं.

‘‘मैं तुम्हारी बीवी हूं. मुझे पूरा हक है यह जानने का कि तुम देर रात तक क्या करते हो.’’

‘‘अच्छा तो अब समझा,’’ सुधीर के चेहरे पर व्यंग्य के भाव तिर आए, ‘‘तुम्हें जलन हो रही है न कि मैं ने कहीं दूसरी न रख ली हो?’’

‘‘रख सकते हैं आप. यह कोई नई बात नहीं होगी मेरे लिए.’’

‘‘तो क्यों पूछताछ करती हो. सोच लो कि मैं ने रख ली.’’

भले ही यह कथन झूठा हो तो भी इस से सुधीर की मंशा समझ में तो आ ही गई. वह चला गया पर एक ऐसा दंश दे कर गया जिस की पीड़ा का शूल मेरे अंतस को देर तक भेदता रहा. अकेले में सुबकने लगी. कैसे कोई पुरुष इतना बदल सकता है. 5 साल जिस के साथ सुखदुख साझा किया वह एकाएक कैसे निर्मोही हो सकता है. लाख कोशिशों के बाद भी मैं इस सवाल का जवाब न ढूंढ़ सकी. किसी तरह मैं ने अपनेआप को संभाला.

आज सुधीर के एक दूर के रिश्ते की मामी की लड़की सुनीता आने वाली थी. बिन बाप की लड़की थी. उसे बीएड करना था. इस लिहाज से तो वह एक साल रहेगी ही रहेगी. हालांकि सुधीर के मांबाप नाकभौं सिकोड़ रहे थे.

‘‘दीदी, बिन बाप की बेटी है. तुम लोग चाहोगे तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी. वरना मेरे पास तो कुछ भी नहीं है जिस के बल पर उस का ब्याह कर सकूं. पढ़ाईलिखाई का ही भरोसा है. पढ़लिख कर कम से कम अपना पेट पाल तो सकेगी,’’ कह कर मामी रोंआसी हो गईं.

मेरी सास ने उन्हें ढाढ़स बंधाया. मेरी सास सुधीर की तरफ मुखातिब हुईं, ‘‘सुधीर, तुम सुनीता को उस का स्कूल दिखा दो.’’

‘‘बेटा, यहां आनेजाने के लिए रिकशा तो मिल जाता होगा?’’ मामीजी मुंह बना कर बोलीं.

‘‘नहीं मिलेगा तो मैं छोड़ आया करूंगा,’’ सुधीर ने एक नजर सुनीता पर डाली तो वह मुसकरा दी.

‘‘यही सब सोच कर आई थी कि यहां सुनीता को कोई परेशानी नहीं होगी. तुम सब लोग उसे संभाल लोगे,’’ मामीजी भावुक हो उठीं. वे आगे बोलीं, ‘‘सुनीता के पापा के जाने के बाद तुम लोगों के सिवा मेरा है ही कौन. रिश्तेदारों ने सहारा न दिया होता तो मैं कब की टूट चुकी होती,’’ यह कह कर वे सुबकने लगीं.

सुनीता ने उन्हें डांटा, ‘‘हर जगह अपना रोना ले कर बैठ जाती हैं.’’

‘‘क्या करूं, मैं अपनेआप को रोक नहीं पाती. आज तेरे पापा जिंदा होते तो मुझे इतनी भागदौड़ न करनी होती.’’

‘‘आप कोई गैर थोड़े ही हैं, जीजी. हम सब सुनीता का वैसा ही खयाल रखेंगे जैसे आप उस का घर पर रखती हैं,’’ मेरी सास ने तसल्ली दी. वे आंसू पोंछने लगीं.

2 दिन रह कर मामीजी बरेली चली गईं. सुधीर ने सुनीता को उस का कालेज दिखलाया और दाखिला करवा दिया. उस की जरूरतों का सामान खरीदा. निश्चय ही रुपए सुधीर ने खर्च किए होंगे, मुझे कोई एतराज न था मगर इस बहाने वह सुनीता का कुछ ज्यादा ही खयाल रखने लगा. उस के खानेपीने से ले कर छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी वह हमेशा मोटरसाइकिल स्टार्ट किए रहता.

पत्नी से ज्यादा गैर को तवज्जुह देना मेरे लिए असहनीय था. मेरी सास भी उसी की हो कर रह गई थीं. न जाने मांबेटे के बीच क्या चल रहा था. एक दिन मुझ से रहा न गया तो मैं बोल पड़ी, ‘‘सुनीता क्या मुझ से ज्यादा अहमियत रखने लगी है तुम्हारे लिए?’’

‘‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि वह बिन बाप की बेटी है,’’ सुधीर बोला.

‘‘तो क्या बाप की भूमिका निभा रहे हो?’’ मैं ने व्यंग्य किया.

‘‘तमीज से बात करो,’’ वह उखड़ गया.

‘‘चिल्लाओ मत,’’ मैं ने भी अपना स्वर ऊंचा कर लिया.

वह संभल गया.

‘‘आहिस्ता बोलो.’’

‘‘अब आए रास्ते पर. यह मत समझना कि तुम कुछ भी करोगे और मैं चुपचाप तमाशा देखती रहूंगी.’’

‘‘क्या किया है मैं ने?’’

‘‘अपने दिल से पूछो.’’

चुनौती- भाग 1: शर्वरी मौसी ने कौनसी तरकीब निकाली

‘‘सुप्रिया कहां हो तुम?’’ ललिता देवी फोन रखते ही  बेचैनी से चिल्लाईं.

‘‘घर में ही हूं, मां. क्या हो गया? इस तरह क्यों चीख रही हो?’’ सुप्रिया ने उत्तर दिया.

‘‘यही तो समस्या है कि तुम घर में रह कर भी नहीं रहतीं. पता नहीं कौन सी नई दुनिया बसा ली है तुम ने.’’

‘‘मां, मुझे बहुत काम है. प्लीज, थोड़ा धीरज रखो. एक घंटे में आऊंगी. अभी तो मुझे सांस लेने तक की भी फुरसत नहीं है,’’ सुप्रिया ने अपनी व्यस्तता का हवाला दिया.

‘‘देखा, मैं कहती थी न, सुप्रिया तो घर में रह कर भी नहीं रहती. कई सप्ताह बीत जाते हैं, हमें एकदूजे से बात किए बगैर,’’ ललिता ने टीवी देखने में व्यस्त अपने पति, पुत्र व दूसरी पुत्री नीरजा से शिकायत की पर किसी ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘मैं भी कुछ कह रही हूं न. कोई मेरी भी सुन ले,’’ झुंझला कर उन्होंने टीवी बंद कर दिया. टीवी बंद करते ही भूचाल आ गया.

‘‘क्या कर रही हो, ललिता? मैं इतना महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम देख रहा हूं और तुम ने आ कर टीवी बंद कर दिया. मुश्किल से 10-15 मिनट के लिए टीवी देखता हूं मैं. तुम से वह भी सहन नहीं होता,’’ उन के पति अपूर्व भड़क उठे.

‘‘और भी गम हैं जमाने में…’’ ललिता बड़ी अदा से बोलीं.

‘‘मैं शेर सुनने के मूड में नहीं हूं. पहेलियां मत बुझाओ. रिमोट मुझे दो और जल्दी बताओ, समस्या क्या है?’’ वे बोले. उन के पुत्र प्रताप और पुत्री नीरजा ने जोरशोर से पिता की बात का समर्थन किया.

‘‘तो पहले मेरी समस्या सुन लो, बाद में टीवी देख लेना.’’

‘‘जल्दी कहो न, मां. हमारे सीरियल की नायिका एक नए षड्यंत्र की तैयारी कर रही है. वह निकल जाएगा,’’ नीरजा अधीरता से बोली.

‘‘कभी अपने घर के सीरियल की भी चिंता कर लिया करो. पता है अभी किस का फोन था?’’ ललिता ने नीरजा को आंख दिखाई.

‘‘नहीं.’’

‘‘तेरी शर्वरी मौसी का.’’

‘‘यही बताने के लिए आप ने टीवी बंद कर दिया.’’

‘‘यह बताने के लिए नहीं बुद्धू, यह बताने के लिए कि उन्होंने क्या कहा. और टीवी तेरी मौसी से अधिक आवश्यक हो गया?’’ ललिता देवी कुछ और बोलतीं उस से पहले ही सुप्रिया आ पहुंची, ‘‘बोलो मां, क्या हुआ जो आप ने पूरा घर सिर पर उठा रखा है? मेरा कल आवश्यक प्रेजेंटेशन है उसी की तैयारी कर रही थी. पर आप ने बुलाया तो अपना काम छोड़ कर आई हूं.’’

‘‘आ, मेरे पास बैठ. तू ही मेरी रानी बेटी है और किसी को तो मेरी चिंता ही नहीं है. तेरी शर्वरी मौसी का फोन आया था. वे कल अपने किसी परिचित को साथ ले कर यहां आ रही हैं. वे उन के बेटे से तुझे मिलवाना चाहती हैं. कह रही थीं कि रूप और गुण का ऐसा संयोग शायद ही कहीं मिले. वह तुझे अवश्य पसंद आएगा.’’

‘‘क्या हो गया है आप लोगों को? यदि आप यह सोचती हैं कि मैं चाय की टे्र ले कर सिर पर पल्लू रखे शरमाती, सकुचाती स्वयं को वर पक्ष के सम्मुख प्रस्तुत करूंगी तो भूल जाइए. मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाली. मैं प्रेमरहित विवाह में विश्वास ही नहीं करती.’’

सुप्रिया ने अपना निर्णय कुछ इस अंदाज में सुनाया कि सब के कान खड़े हो गए. किसी को न टीवी की चिंता रही न अपने पसंद के कार्यक्रम की. सुप्रिया और प्रेम विवाह? किसी को विश्वास ही नहीं हुआ. सदा  अपनी पढ़ाईलिखाई में व्यस्त रहने वाली और सदैव हर परीक्षा में प्रथम रहने वाली सुप्रिया प्रेम विवाह की बात भी करेगी, ऐसा तो उन में से किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था.

‘‘कोई है क्या?’’ अपूर्व, नीरजा और प्रताप ने समवेत स्वर में पूछा.

‘‘कोई है, क्या मतलब है?’’ सुप्रिया ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही पूछ डाला.

‘‘मतलब यह है दीदी कि प्रेम विवाह के लिए एक अदद प्रेमी की भी आवश्यकता पड़ती है. हम सब यही जानने का यत्न कर रहे थे कि आप ने किसी को चुन रखा है क्या? या शायद आप किसी के प्रेम में आकंठ डूबी हुई हैं और हमें पता तक नहीं,’’ नीरजा हर एक शब्द पर जोर दे कर बोली.

‘‘जी नहीं, किसी को नहीं चुना है अभी तक. समय ही नहीं मिला. पर जब विवाह करना होगा तो समय भी निकाल लूंगी,’’ सुप्रिया का उत्तर था.

‘‘मुझे यही आशा थी. सुप्रिया, प्यार के लिए समय निकाला नहीं जाता, अपनेआप निकल आता है. 26 की हो गई हो तुम. समय रेत की तरह हाथ से फिसलता जा रहा है. तुम सब से बड़ी हो. इसलिए नीरजा और प्रताप का विवाह भी रुका हुआ है,’’ ललिता बेचैन स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मेरे लिए इन दोनों का विवाह रोकने की क्या आवश्यकता है. दोनों ने अपने जीवनसाथी चुन रखे हैं. वे भला कब तक प्रतीक्षा करेंगे. मुझे जब विवाह करना होगा, कर लूंगी. कोई मेरी पसंद का नहीं मिला तो शायद मैं विवाह ही न करूं,’’ सुप्रिया ने चुटकियों में ललिता की समस्या हल कर दी.

‘‘यह तो मैं पहले भी कई बार सुन चुकी हूं पर तुम भी कान खोल कर सुन लो. हमारे संस्कार ऐसे नहीं हैं कि बड़ी बहन बैठी रहे और छोटे भाईबहनों का विवाह हो जाए.’’

‘‘पापा, आप कुछ कहिए न. मां तो जिद पकड़ कर बैठी हैं. मेरे कारण प्रताप और नीरजा का विवाह रोक कर रखने की क्या तुक है?’’

‘‘वे क्या बोलेंगे. उन्हें तो यह समझ  ही नहीं आता कि विवाह भी जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. यों भी हर चीज का एक समय होता है. वे तो तुम्हारी उपलब्धियों का बखान करते नहीं थकते. बस, एक बात इन की समझ में नहीं आती कि अच्छा सा वर देख कर तुम्हारे हाथ पीले कर दें…’’

‘‘ललिता, प्लीज, क्यों बैठेबिठाए घर में तनाव पैदा कर देती हो. हां, मुझे गर्व है कि सुप्रिया मेरी बेटी है. कभी 90 प्रतिशत से कम अंक नहीं आए हैं इस के. इतनी सी आयु में अपनी कंपनी की वाइस प्रैसिडैंट है. यहां तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत की है इस ने.

चार लोग इस की प्रशंसा करते हैं तो अच्छा लगता है,’’ अपूर्व ने बीच में ही टोक दिया.

‘‘वह सब तो ठीक है, पर पिता होने के नाते आप का भी कुछ फर्ज है या नहीं? सुप्रिया से पहले प्रताप और नीरजा का विवाह हो गया तो ये लोग ही बातें बनाएंगे.’’

‘‘मां, समय बदल चुका है. सब अपने जीवन में इतने व्यस्त हैं कि दूसरों के लिए समय ही नहीं है? कोई कुछ नहीं कहेगा. आप निश्ंिचत हो कर इन दोनों के विवाह की तैयारी कीजिए.

मुझे भी तो कुछ आनंद उठाने दीजिए. मेरे बाद इन का विवाह हुआ तो मैं भला जी खोल कर खुशियां कैसे मना पाऊंगी. अच्छा, मैं चली, बहुत काम पड़ा है,’’ सुप्रिया उठ खड़ी हुई.

‘‘रुक जा. खाना खा कर जा, नहीं तो फिर परेशान करेगी,’’ ललिता अनमने स्वर में बोलीं. खाने की मेज पर भी यही वादविवाद चलता रहा.

अपना अपना मापदंड- भाग 1: क्या था शुभा का रिश्तों का नजरिया

अजय कुछ दिन से चुपचुप सा है. समझ नहीं पा रही हूं कि क्या वजह है. मैं मानती हूं कि 18-20 साल की उम्र संवेदनशील होती है, मगर यही संवेदनशीलता अजय की चुप्पी का कारण होगी यह मानने को मेरा दिल नहीं मान रहा. अजय हंसमुख है, सदा मस्त रहता है फिर उस के मन में ऐसा क्या है, जो उसे गुपचुप सा बनाता जा रहा है.

‘‘क्या अकेला बच्चा स्वार्थी हो जाता है, मां?’’

‘‘क्या मतलब…मैं समझी नहीं?’’

सब्जी काटतेकाटते मेरे हाथ रुक से गए. अजय हमारी इकलौती संतान है, क्या वह अपने ही बारे में पूछ रहा है?

‘‘मैं ने मनोविज्ञान की एक किताब में पढ़ा है कि जो इनसान अपने मांबाप की इकलौती संतान होता है वह बेहद स्वार्थी होता है. उस की सोच सिर्फ अपने आसपास घूमती है. वह किसी के साथ न अपनी चीजें बांटना चाहता है न अधिकार. उस की सोच का दायरा इतना संकुचित होता है कि वह सिर्फ अपने सुखदुख के बारे में ही सोचता है…’’ कहताकहता अजय तनिक रुक गया. उस ने गौर से मेरा चेहरा देखा तो मुझे लगा मानो वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘मां, आप भी तो उस दिन कह रही थीं न कि आज का इनसान इसीलिए इतना स्वार्थी होता जा रहा है क्योंकि वह अकेला है. घर में 2 बच्चों में अकसर 1 बहन 1 भाई होने लगा है और बहन के ससुराल जाने के बाद बेटा मांबाप की हर चीज का एकमात्र अधिकारी बन जाता है.’’

‘‘बड़ी गहरी बातें करने लगा है मेरा बच्चा,’’ हंस पड़ी मैं, ‘‘हां, यह भी सत्य है, हर संस्कार बच्चा घर से ही तो ग्रहण करता है. लेनादेना भी तभी आएगा उसे जब वह इस प्रक्रिया से गुजरेगा. देने का सुख क्या होता है, यह वह कैसे जान सकता है जिस ने कभी किसी को कुछ दिया ही नहीं.’’

‘‘तो फिर दादी आप से इतनी घृणा क्यों करती हैं? क्या आप उन का अपमान करती रही हैं? जिस का फल वह आप से नफरत कर के आप को देना चाहती हैं?’’

अवाक् रह गई मैं. अजय का सवाल कहां से कहां चला आया था. कुछ दिन पहले वह अपनी दादी के साथ रहने गया था. मैं चाहती तो बेटे को वहां जाने से रोक सकती थी क्योंकि जिस औरत ने कभी मुझ से प्यार नहीं किया वह मेरे खून से प्यार कैसे करेगी? फिर भी भेज दिया था. मैं नहीं चाहती कि मेरा बेटा मेरे कहने पर अपना व्यवहार निर्धारित करे.

20 साल का बच्चा इतना भी छोटा या नासमझ नहीं होता कि उसे रिश्तों के बारे में उंगली पकड़ कर चलाया जाए. रिश्तों की समझ उसे उन रिश्तों के साथ जी कर ही आए तो वही ज्यादा अच्छा है. अजय जितना मेरा है उतना ही वह अपनी दादी का भी है न.

‘‘मां, दादी तुम से इतनी नफरत क्यों करती हैं?’’ अजय ने अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘तुम दादी से ही पूछ लेते, यह सवाल मुझ से क्यों पूछ रहे हो?’’

हंस पड़ी मैं, यह सोच कर कि 3-4 दिन अपनी दादी के साथ रह कर मेरा बेटा यही बटोर पाया था. अब समझी मैं कि अजय इतना चुप क्यों है.

‘‘4 दिन मैं वहां रहा था मां. दादी ने जब भी आप से संबंधित कोई बात की उन की जबान की मिठास कड़वाहट में बदलती रही. एक बार भी उन के मुंह से आप का नाम नहीं सुना मैं ने. बूआ आईं तो उन्होंने भी आप के बारे में कुछ नहीं पूछा. पिछले दिनों आप अस्पताल में रहीं, आप का इतना बड़ा आपरेशन हुआ था. आप का हालचाल ही पूछ लेतीं एक बार.’’

‘‘तुम पूछते न उन से… पूछा क्यों नहीं…तुम्हारे पापा से भी मैं अकसर पूछती हूं पर वह भी कोई उत्तर नहीं देते. मुझे तो इतना ही समझ में आता है कि तुम्हारे पापा की पत्नी होना ही मेरा सब से बड़ा दोष है.’’

‘‘क्यों? क्या तुम्हारी शादी दादी की इच्छा के खिलाफ हुई थी?’’

‘‘नहीं तो. तुम्हारी दादी खुद गई थीं मेरा रिश्ता मांगने क्योंकि तुम्हारे पापा को मैं बहुत पसंद थी.’’

‘‘क्या पापा ने अपनी मां और बहन को मजबूर किया था इस शादी के लिए?’’

‘‘यह बात तुम अपने पापा से पूछना क्योेंकि कुछ सवालों का उत्तर मेरे पास है ही नहीं. लेकिन यह सच है कि तुम्हारी दादी ने हमारे 22 साल के विवाहित जीवन में कभी मुझ से प्यार के दो मीठे बोल नहीं बोले.’’

‘‘तुम तो उन के साथ भी नहीं रहती हो जो गिलेशिकवे की गुंजाइश उठती हो. जब भी हम घर जाते हैं या दादी यहां आती हैं वह आप से ज्यादा बात नहीं करतीं. हां, इतना जरूर है कि उन के आने से पापा का व्यवहार  बहुत अटपटा सा हो जाता है…अच्छा नहीं लगता मुझे… इसीलिए इस बार मैं उन के साथ रहने चला गया था यह सोच कर कि शायद मैं अकेला जाऊं तो उन्हें अच्छा लगे.’’

‘‘तो कैसा लगा उन्हें? क्या अच्छा लगा तुम्हें उन का व्यवहार?’’

‘‘मां, उन्हें तो मैं भी अच्छा नहीं लगा. एक दिन मैं ने इतना कह दिया था कि मां आलू की सब्जी बहुत अच्छी बनाती हैं. आप भी आज वैसी ही सब्जी बना कर खिलाएं. मेरा इतना कहना था कि दादी को गुस्सा आ गया. डोंगे में पड़ी सब्जी उठा कर बाहर डस्टबिन में गिरा दी. भूखा ही उठना पड़ा मुझे. रोेटियां भी उठा कर फेंक दीं. कहने लगीं कि इतनी अच्छी लगती है मां के हाथ की रोटी तो यहां क्या लेने आया है, जा, चला जा अपनी मां के पास…’’

अवाक् रह गई थी मैं. एक 80 साल की वृद्धा में इतनी जिद. बुरा तो लगा था मुझे लेकिन मेरे लिए यह नई बात नहीं थी.

‘‘क्या मैं अपनी मां के हाथ के खाने की तारीफ भी नहीं कर सकता हूं… आप का नाम लिया उस का फल यह मिला कि मुझे पूरी रात भूखा रहना पड़ा, ऐसा क्यों, मां?’’

मैं अपने बच्चे को उस क्यों का क्या उत्तर देती. मन भर आया मेरा. मेरा बच्चा पूरी रात भूखा रहा इस बात का अफसोस हुआ मुझे, मगर इतना संतोष भी हुआ कि मेरे सिवा कोई और भी है जिसे मेरी ही तरह अपमानित कर उस वृद्धा ने घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया. इस का मतलब अजय इसी वजह से जल्दी वापस चला आया होगा.

अहंकार के दायरे: क्या बेटे की खुशियां लौटा सके पिताजी

family story in hindi

चुनौती- भाग 2: शर्वरी मौसी ने कौनसी तरकीब निकाली

‘‘शर्वरी दीदी अपना समझ कर ही तो मदद कर रही हैं. कितनी आशा ले कर आएंगी वे. जब उन्हें पता चलेगा कि यह महारानी तो विवाह के लिए तैयार ही नहीं हैं तो क्या बीतेगी उन पर. मैं तो सोच रही हूं कि उन्हें फोन कर के मना कर दूं,’’ ललिता देवी अब भी अपनी ही धुन में थीं.

‘‘नहीं मां, ऐसा मत करो, मौसी बुरा मान जाएंगी,’’ नीरजा बोली.

‘‘ठीक कह रही है, नीरजा. पहले से ही यह सोच कर बैठ जाना कि हम तो किसी से मिलेंगे ही नहीं, कहां की बुद्धिमानी है. शर्वरी दीदी किसी को ले कर आ रही हैं तो कुछ सोचसमझ कर ही ला रही होंगी. सुप्रिया, इस बारे में मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूंगा. तुम्हारी मां जो कह रही हैं तुम्हारे भले के लिए ही कह रही हैं. तुम्हें उन की बात का सम्मान करना चाहिए,’’ अपूर्व ने पत्नी का पक्ष लेते हुए कहा.

‘‘ठीक है. मैं आप के अतिथियों से मिल लूंगी. बस, इतना ही आश्वासन दे सकती हूं. क्या करूं, न आप को नाराज कर सकती हूं न शर्वरी मौसी को,’’ सुप्रिया ने हथियार डाल दिए. वह नहीं चाहती थी कि यह बहस और लंबी खिंचे. परिवार का आश्वासन पा कर ललिता तैयारियों में जुट गईं. घर को सजानेसंवारने का काम वे रात में ही पूरा कर लेना चाहती थीं. अगला दिन तो खानेपीने की तैयारियों में ही बीत जाएगा. लगभग 1 बजे जब सुप्रिया अपना लैपटौप बंद कर सोने चली तो पाया कि ललिता देवी अब भी नए कुशन कवर लगाने में जुटी थीं.

‘‘मां, कब तक लगी रहोगी. रात का 1 बजा है. पता नहीं क्यों दिनरात काम में जुटी रहती हो. कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता कर लिया करो,’’ सुप्रिया बड़े प्यार से उन्हें पकड़ कर शयनकक्ष में ले गई. ललिता मुसकरा कर रह गईं. बात तो सच थी. 3 युवा संतानों की मां होते हुए भी घर के काम में वही जुटी रहती थीं. कभीकभी अपूर्व उन का हाथ बंटा लेते थे. अन्यथा उन्हें अपनी काम वाली बाई आशा का ही सहारा था. उस के नाजनखरे वे केवल इसलिए सह लेती थीं कि वह कामधंधे में उन का हाथ बंटाने में कभी आनाकानी नहीं करती थी. पर आज सुप्रिया ने उन के प्रति चिंता जताई तो उन्हें अच्छा लगा. कम से कम उन के बारे में सोचती तो है सुप्रिया. क्या पता घर के अन्य सदस्य भी उन की चिंता करते हों या शायद न करते हों, कौन जाने. बचपन में सुप्रिया दौड़दौड़ कर उन का हाथ बंटाती थी पर उन्होंने ही पढ़ाई में ध्यान देने का हवाला दे कर उसे ऐसा करने से रोक दिया.

अगले दिन औफिस जाते समय ललिता ने सुप्रिया को समझा दिया था, समय रहते ही घर लौट आए. फिर भी उन का दिल धड़क रहा था. क्या पता कहीं कुछ गड़बड़ हो गई तो. नीरजा को उन्होंने सुप्रिया को समय से घर लाने और तैयार करने का काम सौंप रखा था. अपूर्व अपने औफिस चले गए थे और तीनों बच्चे अपनेअपने काम पर. सभी लगभग तभी घर लौटने वाले थे जब मेहमान के आने का कार्यक्रम था. जरा सी फुरसत मिली तो शर्वरी को फोन मिला लिया. उन्हें सुप्रिया के संबंध में सूचना देना तो आवश्यक था.

‘‘बोल ललिता, कैसा चल रहा है सबकुछ? सारी तैयारी हो गई न?’’ शर्वरी ने ललिता का स्वर सुनते ही प्रश्न किया.

‘‘कहां दीदी, कुछ भी ठीक नहीं है. सुप्रिया ने तो साफ कह दिया है कि

वह प्रेम विवाह में विश्वास करती है. ऐसे में सारे तामझाम का क्या अर्थ है, दीदी.’’

‘‘तू छोटीछोटी बातों से परेशान मत हुआ कर. सुप्रिया जैसा चाहती है वैसा ही होगा. शर्वरी ने कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं. मैं सब संभाल लूंगी,’’ शर्वरी ने आश्वासन दिया.

‘‘ठीक है, दीदी, पर मुझे बहुत डर लग रहा है. सुप्रिया आजकल की लड़कियों जैसी नहीं है. आप तो उसे अच्छी तरह जानती हैं. वह तो आसानी से किसी से मिलतीजुलती भी नहीं.’’

‘‘चिंता मत कर. सुप्रिया बहुत समझदार है. अपना भलाबुरा भली प्रकार समझती है. वह जो भी निर्णय लेगी सोचसमझ कर ही लेगी. चल, ठीक है. फिर मिलते हैं शाम को,’’ शर्वरी ने उन्हें धीरज बंधाया. सुप्रिया के घर लौटते ही गतिविधियां तेज हो गईं. नीरजा अपने साथ अपनी 2 ब्यूटीशियन सहेलियों को भी लाई थी. तीनों ने मिल कर सुप्रिया को तैयार किया.

‘‘मेरी बेटी को किसी की नजर न लग जाए,’’ ललिता सुप्रिया को देखते ही खिल उठीं.

‘‘काला टीका लगा दो मां. दीदी हैं ही इतनी सुंदर कि जो देखे, देखता ही रह जाए,’’ नीरजा हंसी.

‘‘तुम लोगों को भी मुझे बनाने का अच्छा अवसर मिला है,’’ सुप्रिया हंस दी थी. अपूर्व और प्रताप मेज सजाने में ललिता की सहायता कर रहे थे.

‘‘हमारे समय में विवाह संबंध इसी तरह पक्के किए जाते थे. कई दिनों तक घर में उत्सव का सा वातावरण रहता था.’’

अपूर्व प्रताप को समझा रहे थे कि तभी सब को हैलोहाय कहते हुए शर्वरी का आगमन हुआ. उन के साथ ही एक युवक और उस के मातापिता भी थे. अपूर्व, प्रताप और ललिता ने आगे बढ़ कर उन का स्वागत किया. पहले औपचारिक और फिर अनौपचारिक बातचीत होने लगी. दोनों ही पक्ष बढ़चढ़ कर अपनी संतानों का गुणगान करने लगे. शीघ्र ही ठंडे पेय प्रस्तुत किए गए. उधर, शर्वरी ललिता का हाथ बंटाने उस के साथ चली गई.

‘‘अब बता, क्यों इतनी चिंता कर रही थी तू?’’ शर्वरी ने प्रश्न किया.

‘‘दीदी, सुप्रिया ने तो सुनते ही कह दिया कि वह तो प्रेम विवाह ही करेगी, मातापिता द्वारा तय किए विवाह में उस की कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘उस ने कहा और तू ने मान लिया. ये बच्चे हमें बताएंगे कि वे किस प्रकार का विवाह करेंगे. हम ने क्या बिना प्रेम के ही विवाह कर लिया था. सच कहूं तो मुझे तेरे जीजाजी से पहली नजर में ही प्यार हो गया था. हमारा विवाह तो 6 माह बाद हुआ था.’’

‘‘ठीक कह रही हो, दीदी. मैं और अपूर्व तो मांपापा से छिपछिप कर मिलते थे. आप को तो सब पता है. मां को पता लगा तो कितना नाराज हुई थीं. उस मिलन में भी कितना रोमांच था. आधे घंटे की भेंट के लिए मैं दिनभर तैयार होती थी.’’

‘‘वही तो, हमारे प्यार में शालीनता थी, जिसे आज की पीढ़ी चाह कर भी समझ नहीं सकती.’’

‘‘वह सब छोड़ो न दीदी. इस बारे में कभी बाद में बात करेंगे. सुप्रिया का क्या करें, अभी तो यह बताइए?’’

‘‘तू क्यों चिंता करती है, सब ठीक हो जाएगा. मैं अभीष्ट और उस के मातापिता को ले कर आई हूं. अभीष्ट और सुप्रिया एकदूसरे को भली प्रकार जानते हैं. याद है 3 वर्ष पहले सुप्रिया मेरे पास छुट्टियां मनाने आई थी.’’

‘‘हां, याद है.’’

‘‘वहीं दोनों की मित्रता हुई थी जो बाद में घनिष्ठता में बदल गई. तुम चाहो तो इसे प्यार का नाम दे सकती हो.

नया सवेरा- भाग 3: बड़े भैया के लिए पिताजी का क्या था फैसला

छोटे भैया भी तब तक वहां भाभी को खोजते आ पहुंचे थे. मुझे इस हालत में देख सब को हंसाने के लिए बोले, ‘‘क्यों बीनू, कल की शादी देख मन मचल गया क्या? खूब भाभी को मसका लग रहा है.’’

उन की बात सुन मैं और जोर से रो पड़ी. छोटी भाभी ने उन्हें इशारे से बुलाया व सारी बात समझाई. सुनते ही भैया बड़ी भाभी के कमरे में पहुंचे. यह तो अच्छा था कि मां पूजा पर बैठ चुकी थीं और डेढ़ घंटे तक उन के उठने की कोई संभावना न थी. छोटी भाभी के साथ मैं भी भैया के पीछेपीछे बड़ी भाभी के कमरे में पहुंची.

नैकलैस ढूंढ़तेढूंढ़ते भाभी को अपने लौकर की चाबी मिल गई. मुझे देख उन्होंने कहा, ‘‘बीनू, यदि तुम्हारा नैकलैस नहीं मिला तो मैं अपना नैकलैस तुम्हें दे दूंगी, तुम चिंता मत करो,’’ उन की आवाज बता रही थी कि उन्हें भी नैकलैस न मिलने का गहरा दुख है.

उन्होंने सब के सामने लौकर खोला तो चक्कर खा कर गिर पड़ीं. भैया ने उन्हें बिस्तर पर लिटाया. छोटी भाभी मुझे छोड़ उन की तरफ लपकीं और मैं पानी लेने दौड़ पड़ी. यह सब इतनी जल्दी हुआ कि कुछ सोचने का होश ही नहीं रहा.

छोटे भैया ने देखा कि लौकर खाली पड़ा है. तब तक भाभी को भी होश आ गया. वे जोरजोर से रोने लगीं. छोटे भैया इस मौके को कहां छोड़ने वाले थे. बड़ी भाभी को आड़े हाथों लिया.अंत में यह फैसला हुआ कि मां और पिताजी को कुछ न बताया जाए. पिताजी दिल के मरीज हैं, शायद इस सदमे को बरदाश्त न कर सकें. सभी आगे की योजना बनाने लगे कि तभी बड़े भैया मजे से सीटी बजाते कमरे में दाखिल हुए.

भाभी को बिस्तर पर लेटे और हम सब को पास बैठे देख वे दौड़ कर उन के पास पहुंचे व घबरा कर बोले, ‘‘सुमन, क्या हुआ, तुम ठीक तो हो?’’

‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ लगाया. अब और नाटक मत करो,’’ इस तेज आवाज ने हम सब को सकते में डाल दिया. उन्होंने भैया को खूब झिड़का, ‘‘तुम पति बनने के योग्य नहीं हो. सिर्फ शराब पीने के लिए तुम ने इतनी घिनौनी हरकत कर डाली. मुझे मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.’’

भैया ‘सुमन सुनो तो’ कहते रहे किंतु भाभी पर तो जैसे भूत सवार था. तब भैया फौरन बाहर जाने को पलटे.

‘‘खबरदार, जो एक कदम भी आगे बढ़ाया,’’ इस आवाज ने भैया के पैरों में जैसे जंजीर डाल दी. बड़े भैया आश्चर्य से पत्नी को देख रहे थे. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि जो पत्नी उन के आगेपीछे गऊ की तरह दुम हिलाती थी, आज शेरनी कैसे बन गई.तब तक भाभी के कहने पर छोटे भैया ने बड़े भैया की तलाशी ले डाली. उन की जेब से रुपयों की गड्डी तथा एक रसीद मिली. यह देख भाभी सिर पकड़ कर वहीं बैठ गईं.

छोटे भैया रसीद व रुपए ले कर तुरंत बाहर निकल गए. बड़े भैया भी पीछेपीछे पता नहीं कहां चल पड़े.

करीब आधे घंटे में छोटे भैया नैकलैस व भाभी की बालियां ले कर लौट आए. उन्होंने बताया कि भैया ने भाभी के सारे गहने उसी सुनार के यहां गिरवी रख छोड़े हैं जहां नैकलैस दिया था.

भाभी के तो आंसू ही नहीं रुक रहे थे. अचानक छोटी भाभी कमरे से चली गईं. कुछ देर बाद लौटीं तो उन के हाथों में कुछ रुपए थे. उन्होंने रुपए पति को दे कर कहा, ‘‘जितने भी गहने आ सकते हैं, ले आइए.’’

तब तक मैं भी अपनी जमाराशि ले आई थी. बड़ी भाभी ने हम दोनों को लिपटा लिया और जोर से रो पड़ीं. हम सब को भी रोना आ गया.छोटे भैया ने बात संभाली, उन्होंने फिर से सब को सचेत किया कि मां को भनक तक नहीं लगनी चाहिए.

बड़ी भाभी दिनभर कमरे से बाहर न निकलीं. मां 2-3 बार देखने भी आईं पर उन्होंने बीमारी का बहाना बना दिया. उन के 1 वर्ष के बेटे को छोटी भाभी ही संभाले रहीं.

छोटे भैया ने बड़ी भाभी के व अपने खाते से रुपए निकाल कर भाभी के सारे गहने शाम तक ला दिए. बड़े भैया का रातभर कुछ पता न चला.

सुबहसुबह उन के दोस्त अजय ने आ कर खबर दी कि वे भैया को अस्पताल में दाखिल करा कर आ रहे हैं. उन्होंने बताया कि बड़े भैया अपने किए पर इतना शर्मिंदा थे कि सुबह से ही शराब पी रहे थे. रात बेहोशी की हालत में उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया. ज्यादा पीने से उन के एक गुरदे ने काम करना बंद कर दिया है. रातभर वे वहीं थे. डाक्टरों ने औपरेशन कर दिया है. वे खतरे से बाहर हैं.

अभी हम सब यह बुरी खबर सुन ही रहे थे कि नौकर ने आ कर खबर दी कि पिताजी ने छोटे भैया को अपने कमरे में बुलाया है. सुन कर सभी घबरा गए.

छोटे भैया ने सब को शांत किया और ऊपर गए. हम सब से रहा न गया. सभी दबेपांव पिताजी के कमरे के बाहर जा पहुंचे. मां भी वहीं थीं.

पिताजी ने शांत स्वर में पूछा, ‘‘पैसों की इतनी जरूरत आन पड़ी थी कि इतने सारे रुपए एकसाथ तुम ने व बहू ने निकाले?’’

सब का खाता उसी बैंक में था जहां वे मैनेजर थे. कैशियर छोटे भैया को पहचानता था. चापलूसी के लिए शायद उस ने सारी बात पिताजी को बता दी थी.

छोटे भैया ने सारी बातें पिताजी को बता दीं. बस, नैकलैस की बात छिपा गए. मां तो सुन कर ‘हायहाय’ करने लगीं किंतु पिताजी ने उन्हें डांट कर चुप करा दिया. फिर बोले, ‘‘मुझे खुशी है कि छोटे ने इस विपत्ति में हिम्मत और समझदारी से काम लिया. चलो, अस्पताल चलते हैं. शायद उस नालायक को भी सद्बुद्धि आ जाए.’’

हम सभी अस्पताल पहुंचे. पहले भैया हम सब से मिलने को तैयार ही न हुए. किंतु उन के दोस्त अजय के बहुत समझाने पर मिलने को राजी हो गए. वे किसी से आंखें नहीं मिला पा रहे थे. दोनों हाथों से मुंह ढक कर रो पड़े. उन्हें रोते देख हम सब रो

पड़े. पिताजी उन के सिर पर हाथ फेरते रहे. मां उन के आंसुओं को पोंछती हुई चेहरा भिगो रही थीं.

आखिर बड़े भैया बोले, ‘‘मुझे जीने का कोई हक नहीं है. मैं ने सब के विश्वास को धोखा दिया है.’’

‘‘नहीं बेटे, ऐसा नहीं कहते. जब आंख खुले, तभी सवेरा. देखो, यह क्या करिश्मा है कि समय रहते तुम्हें सद्बुद्धि आ गई,’’ पिताजी ने उन्हें धीरज बंधाया.

हम सभी की आंखें भरी थीं, पर आंसू अब गम के नहीं, खुशी के थे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें