Short Story in Hindi: गूंगी गूंज- क्यों मीनो की गुनाहगार बन गई मां?

Short Story in Hindi: “रिमझिम के तराने ले के आई बरसात, याद आई किसी से वो पहली मुलाकात,” जब
भी मैं यह गाना सुनती हूं, तो मन बहुत विचलित हो जाता है, क्योंकि याद
आती है, पहली नहीं, पर आखिरी मुलाकात उस के साथ.

आज फिर एक तूफानी शाम है. मुझे सख्त नफरत है वर्षा  से. वैसे तो यह भुलाए
न भूलने वाली बात है, फिर भी जबजब वर्षा होती है तो मुझे तड़पा जाती है.

मुझे याद आती है मूक मीनो की, जो न तो मेरे जीवन में रही और न ही इस
संसार में. उसे तकदीर ने सब नैमतों से महरूम रखा था. जिन चीजों को हम
बिलकुल सामान्य मानते हैं, वह मीनो के लिए बहुत अहमियत रखती थीं. वह मुंह
से तो कुछ नहीं बोल सकती थी, पर उस के नयन उस के विचार प्रकट कर देते थे.

कहते हैं, गूंगे की मां ही समझे गूंगे की बात. बहुतकुछ समझती थी, पर मैं
अपनी कुछ मजबूरियों के कारण मीनो को न चाह कर भी नाराज कर देती थी.

बारिश की पहली बूंद पड़ती और वह भाग कर बाहर चली जाती और खामोशी से आकाश
की ओर देखती, फिर नीचे पांव के पास बहते पानी को, जिस में बहती जाती थी
सूखें पत्तों की नावें. ताली मार कर खिलखिला कर हंस पड़ती थी वह.

बादलों को देखते ही मेरे मन में एक अजीब सी उथलपुथल हो जाती है और एक
तूफान सा उमड़ जाता है जो मुझे विचलित कर जाता है और मैं चिल्ला उठती हूं
मीनो, मीनो…

मीनो जन्म से ही मानसिक रूप से अविकसित घोषित हुई थी. डाक्टरों की सलाह
से बहुत जगह ले गई, पर कहीं उस के पूर्ण विकास की आशा नजर नहीं आई.

मीनो की अपनी ही दुनिया थी, सब से अलग, सब से पृथक. सब सांसारिक सुखों से
क्या, वह तो शारीरिक व मानसिक सुख से भी वंचित थी. शायद इसीलिए वह कभीकभी
आंतरिक भय से प्रचंड रूप से उत्तेजित हो जाती थी. सब को उस का भय था और
उसे भय था अनजान दुनिया का, पर जब वह मेरे पास होती तो हमेशा सौम्य, बहुत
शांत व मुसकराती रहती.

बहुत कोशिश की थी उस रोज कि मुझे गुस्सा न आए, पर 6 वर्षों की सहनशीलता
ने मानसिक दबावों के आगे घुटने टेक दिए थे और क्रोध सब्र का बांध तोड़ता
हुआ उमड़ पड़ा था. क्या करती मैं? सहनशीलता की भी अपनी सीमाएं होती हैं.

एक तरफ मीनो, जिस ने सारी उम्र मानसिक रूप से 3 साल का ही रहना था और
दूसरी ओर गोद में सुम्मी. दोनों ही बच्चे, दोनों ही अपनी आवश्यकताओं के
लिए मुझ पर निर्भर.

उस दिन एहसास हुआ था मुझे कि कितना सहारा मिलता है एक संयुक्त परिवार से.
कितने ही हाथ होते हैं आप का हाथ बंटाने को और इकाई परिवार में
स्वतंत्रता के नाम पर होती है आत्मनिर्भरता या निर्भर होना पड़ता है
मनमानी करती नौकरानी पर. नौकर मैं रख नहीं सकती थी, क्योंकि मेरी 2
बेटियां थीं और कोई उन पर बुरी नजर नहीं डालेगा, इस की कोई गारंटी नहीं
थी.

आएदिन अखबारों में ऐसी खबरें छपती रहती हैं. मीनो के साथसाथ मेरा भी
परिवार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गया था. संजीव, मीनो, सुम्मी और मैं.
कभीकभी तो संजीव भी अपने को उपक्षित महसूस करते थे. हमारी कलह को देख कर
कई लोगों ने मुझे सलाह दी कि मीनो को मैं पागलखाने में दाखिल करा दूं और
अपना ध्यान अपने पति और दूसरी बच्ची पर पूरी तरह दूं, पर कैसे करती मैं
मीनो को अपने से दूर. उस का संसार तो मैं ही थी और मैं नहीं चाहती थी कि
उसे कोई तकलीफ हो, पर अनचाहे ही सब तकलीफों से छुटकारा दिला दिया मैं ने.

उस दिन मेरा और संजीव का बहुत झगड़ा हुआ था. फुटबाल का ‘विश्व कप’ का
फाइनल मैच था. मैं ने संजीव से सुम्मी को संभालने को कहा, तो उस ने मना
तो नहीं किया, पर बुरी तरह बोलना शुरू कर दिया.

यह देख मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं ने भी उलटेसीधे जवाब दे दिए. फुटबाल
मैच में तो शायद ब्राजील जीता था, परंतु उस मौखिक युद्ध में हम दोनों ही
पराजित हुए थे. दोनों भूखे ही लेट गए और रातभर करवटें बदलते रहे.

सुबह भी संजीव नाराज थे. वे कुछ बोले या खाए बिना दफ्तर चले गए. जैसेतैसे
बच्चों को कुछ खिलापिला कर मैं भी अपनी पीठ सीधी करने के लिए लेट गई.
हलकीहलकी ठंडक थी. मैं कंबल ले कर लेटी ही थी कि मीनो, जो खिलौने से खेल
रही थी, मेरे पास आ गई. मैं ने हाथ बाहर निकाल उसे अपने पास लिटाना चाहा,
पर मीनो बाहर बारिश देखना चाहती थी.

मैं ने 2-3 बार मना किया, मुझे डर था कि कहीं मेरी ऊंची आवाज सुन कर
सुम्मी न जाग जाए. उस समय मैं कुछ भी करने के मूड में नहीं थी. मैं ने एक
बार फिर मीनो को गले लगाने के लिए बांह आगे की और उस ने मुझे कलाई पर काट
लिया.

गुस्से में मैं ने जोर से उस के मुंह पर एक तमाचा मार दिया और चिल्लाई,
‘‘जानवर कहीं की. कुत्ते भी तुम से ज्यादा वफादार होते हैं. पता नहीं
कितने साल तेरे लिए इस तरह काटने हैं मैं ने अपनी जिंदगी के.’’

कहते हैं, दिन में एक बार जबान पर सरस्वती जरूर बैठती है. उस दिन दुर्गा
क्यों नहीं बैठी मेरी काली जबान पर. अपनी तलवार से तो काट लेती यह जबान.

थप्पड़ खाते ही मीनो स्तब्ध रह गई. न रोई, न चिल्लाई. चुपचाप मेरी ओर बिना
देखे ही बाहर निकल गई मेरे कमरे से और मुंह फेर कर मैं भी फूटफूट कर रोई
थी अपनी फूटी किस्मत पर कि कब मुक्ति मिलेगी आजीवन कारावास से, जिस में
बंदी थी मेरी कुंठाएं. किस जुर्म की सजा काट रही हैं हम मांबेटी?

एहसास हुआ एक खामोशी का, जो सिर्फ आतंरिक नहीं थी, बाह्य भी थी. मीनो
बहुत खामोश थी. अपनी आंखें पोंछती मैं ने मीनो को आवाज दी. वह नहीं आई,
जैसे पहले दौड़ कर आती थी. रूठ कर जरूर खिलौने पर निकाल रही होगी अपना
गुस्सा.

मैं उस के कमरे में गई. वहां का खालीपन मुझे दुत्कार रहा था. उदासीन बटन
वाली आंखों वाला पिंचू बंदर जमीन पर मूक पड़ा मानो कुछ कहने को तत्पर था,
पर वह भी तो मीनो की तरह मूक व मौन था.

घबराहट के कारण मेरे पांव मानो जकड़ गए थे. आवाज भी घुट गई थी. अचानक अपने
पालतू कुत्ते भीरू की कूंकूं सुन मुझे होश सा आया. भीरू खुले दरवाजे की
ओर जा कूंकूं करता, फिर मेरी ओर आता. उस के बाल कुछ भीगे से लगे.

यह देख मैं किसी अनजानी आशंका से भयभीत हो गई. कितने ही विचार गुजर गए
पलछिन में. बच्चे उठाने वाला गिरोह, तेज रफ्तार से जाती मोटर कार का मीनो
को मारना.

भीरू ने फिर कूंकूं की तो मैं उस के पीछे यंत्रवत चलने लगी. ठंडक के
बावजूद सब पेड़पौधे पानी की फुहारों में झूम रहे थे. मेरा मजाक उड़ा रहे
थे. मानव जीवन पा कर भी मेरी स्थिति उन से ज्यादा दयनीय थी.

भीरू भागता हुआ सड़क पर निकल गया और कालोनी के पार्क में घुस गया. मैं उस
के पीछेपीछे दौड़ी. भीरू बैंच के पास रुका. बैंच के नीचे मीनो सिकुड़ कर
लेटी हुई थी. मैं ने उसे उठाना चाहा, पर वह और भी सिकुड़ गई. उस ने कस कर
बैंच का सिरा पकड़ लिया. मैं बहुत झुक नहीं सकती. हैरानपरेशान मैं इधरउधर
देख रही थी, तभी संजीव को अपनी ओर आते देखा.

संजीव ने घर फोन किया, लेकिन घंटी बजती रही, इसलिए परेशान हो कर दफ्तर से
घर आया था. खुले दरवाजे व सुम्मी को अकेला देख बहुत परेशान था कि मिसेज
मेहरा ने संजीव को मेरा पार्क की तरफ भागने का बताया. वे भी अपना दरवाजा
बंद कर आ रही थीं.

संजीव ने झुक कर मीनो को बुलाया तो वह चुपचाप बाहर घिसट कर आ गई. मीनो को
इस प्रव्यादेश का जिंदगी में सब से बड़ा व पहला धक्का लगा था. पर मैं खुश
थी कि कोई और बड़ा हादसा नहीं हुआ और मीनो सुरक्षित मिल गई.

घर आ कर भी वह वैसे ही संजीव से चिपटी रही. संजीव ने ही उस के कपड़े बदले
और कहा, ‘‘इस का शरीर तो तप रहा है. शायद, इसे बुखार है,” मैं ने जैसे ही
हाथ लगाना चाहा, मीनो फिर संजीव से लिपट गई और सहमी हुई अपनी बड़ीबड़ी
आंखों से मुझे देखने लगी.

मैं ने उसे प्यार से पुचकारा, “आ जा बेटी, मैं नही मारूंगी,” पर उस के
दिमाग में डर घर कर गया था. वह मेरे पास नहीं आई.

”ठंड लग गई है. गरम दूध के साथ क्रोसीन दवा दे देती हूं,“ मैं ने मायूस
आवाज में कहा.

“सिर्फ दूध दे दो. सुबह तक बुखार नहीं उतरा, तो डाक्टर से पूछ कर दवा दे
देंगे,” संजीव का सुझाव था.

मैं मान गई और दूध ले आई. थोड़ा सा दूध पी मीनो संजीव की गोद में ही सो
गई. अनमने मन से हम ने खाना खाया. सुबह का तूफान थम गया था. शांति थी हम
दोनों के बीच.

संजीव ने प्यार भरे लहजे से पूछा, “उतरा सुबह का गुस्सा?”

उस का यह पूछना था और मैं रो पड़ी.

“पगली सब ठीक हो जाएगा?” संजीव ने प्यार से सहलाया. मेरी रुलाई और फूटी.
मन पर एक पत्थर का बोझ जो था मीनो को तमाचा मारने का.

मीनो सुबह उठी तो सहज थी. मेरे उठाने पर गले भी लगी. मैं खुश थी कि मुझे
माफ कर वह सबकुछ भूल गई है. मुझे क्या पता था कि उस की माफी ही मेरी सजा
थी.

मीनो को बुखार था, इसलिए हम उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने सांत्वना
दी कि जल्दी ही वह ठीक हो जाएगी, पर मानो मीनो ने न ठीक होने की जिद पकड़
ली हो. 4 दिन बाद बुखार टूटा और मीनो शांति से सो गई- हमेशाहमेशा के लिए,
चिरनिद्रा में. मुक्त कर गई मुझे जिंदगीभर के बंधनों से. और अब जब भी
बारिश होती है, तो मुझे उलाहना सा दे जाती है और ले आती है मीनो का एक
मूक संदेश, ”मां तुम आजाद हो मेरी सेवा से. मैं तुम्हारी कर्जदार नहीं
बनना चाहती थी. सब ऋणों से मुक्त हूं मैं.

‘‘मीनो मुझे मुक्त कर इस सजा से. यादों के साथ घुटघुट कर जीनेमरने की सजा.”

लेखिका- नीलमणि भाटिया

Short Story in Hindi

Emotional Story: सहारा- क्या बेटे के लिए पति के पास लौट पाई वंदना

Emotional Story: औफिस से निकल कर वंदना उस शुक्रवार की शाम को करीब 6 बजे क्रेच पहुंची तो पाया कि उस का 5 वर्षीय बेटा राहुल तेज बुखार से तप रहा था.

अपने फ्लैट पर जाने के बजाय वह उसे ले कर सीधे बाल रोग विशेषज्ञ डाक्टर नमन के क्लीनिक पहुंची. वहां की भीड़ देख कर उस का मन खिन्न हो उठा. उसे एहसास हो गया कि

8 बजे से पहले घर नहीं पहुंच पाएगी. डाक्टरों के यहां अब फिर कोरोना के बाद भीड़ बढ़ने लगी थी.

कुछ देर बाद बेचैन राहुल उस की गोद में छाती से लग कर सो गया. एक बार को उस का दिल किया कि अपनी मां को फोन कर के बुला ले, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाई. उन का लैक्चर सुन कर वह अपने मन की परेशानी बढ़ाने के मूड में बिलकुल नहीं थी.

वंदना की बड़ी बहन विनिता का फोन 7 बजे के करीब आया. राहुल के बीमार होने की बात सुन कर वह चिंतित हो उठी. बोली, ‘‘तुम खाने की फिक्र न करना, वंदना. मैं तुम मांबेटे का खाना ले आऊंगी.’’

विनिता की इस पेशकश को सुन वंदना ने राहत महसूस करी.

डाक्टर नमन ने राहुल को मौसमी बुखार बताया और सलाह दी, ‘‘बुखार से जल्दी छुटकारा दिलाने के लिए राहुल को पूरा आराम कराओ और हलकाफुलका खाना प्यार से खिलाती रहना. जरूरत पड़े तो मुझे फोन कर लेना. और हां एहतियातन कोविड टैस्ट करा लो ताकि कोई शक न रहे.’’

कैमिस्ट के यहां से दवाइयां ले कर

फ्लैट पर पहुंचतेपहुंचते उसे

8 बज ही  गए. उस ने पहले राहुल को दवा पिलाई. फिर उसे पलंग पर आराम से लिटाने के बाद अपने लिए चाय बनाने के लिए रसोई में चली आई. अपने तेज सिरदर्द से छुटकारा पाने

के लिए चाय के साथ दर्दनिवारक गोली खाना चाहती थी.

चाय उस ने बना तो ली, पर उसे पूरी न

पी सकी क्योंकि ढंग से पीना उसे नसीब नहीं हुआ. राहुल ने उलटी कर दी थी. जब तक

उस ने उस के पकड़े बदलवाए और फर्श साफ किया, तब तक चाय पूरी तरह से ठंडी हो

चुकी थी.

उसे लगा कि वह अचानक रो पड़ेगी, लेकिन आंखों से आंसू बहें उस से पहले ही विनिता अपने पति सौरभ के साथ वहां आ

पहुंची.

‘‘तुम अब राहुल के पास बैठो. मैं खाना गरम कर के लाती हूं,’’ कह तेजतर्रार स्वभाव वाली विनिता ने फौरन कमान संभाली और काम में जुट गई.

करीब 10 मिनट बाद वंदना की मां कांता भी अपने बेटे विकास और बहू अंजलि के साथ वहां आ गईं.

कांता ने फौरन राहुल को अपनी गोद में उठा कर छाती से लगाया तो वह अपनी नानी को देख कर खुश हो गया.

‘‘आप रात को मेरे पास ही रुकना और मैं खाना भी आप के हाथ से ही खाऊंगा. दादी की तरह आप भी खाना खिलाते हुए मुझे अच्छी सी कहानी सुनाना.’’

टिंडों की तरी वाली सब्जी के साथसाथ

1 फुलका खा कर राहुल अपनी नानी की

बगल में सो गया. वंदना अपने भैयाभाभी, बहन

व जीजा के साथ ड्राइंगरूम में आ बैठी.

हमेशा की तरह विकास और विनिता वंदना के ससुराल छोड़ कर अकेले फ्लैट में रहने की

बात को ले कर 10 मिनट के अंदर ही आपस में भिड़ गए. होने वाली इस बहस में सौरभ अपनी पत्नी का और अंजलि अपने पति का साथ दे

रही थी.

अपने सिरदर्द की तेजी से परेशान वंदना चाहती थी कि वे चारों चुप हो जाएं, पर वह इन बड़ों को चुप करने की हिम्मत अपने अंदर पैदा नहीं कर पाई.

‘‘किसी भी तकरार को जरूरत से ज्यादा लंबा खींचना अच्छा नहीं होता है, वंदना. तुम्हें अपना घर छोड़ कर इस फ्लैट में राहुल के साथ रहते हुए करीबकरीब 2 महीने हो चुके हैं. अरुण तुझे बुलाबुला कर थक गए हैं. अब तू सम?ादारी दिखा और वापस लौट जा.’’

विकास की वंदना को दी गई ऐसी सलाह को सुनते ही विनिता भड़क उठी, ‘‘बेकार की सलाह दे कर उस के सब किएकराए पर पानी मत फिरवाओ भैया,’’ विनिता फौरन उस से उल?ाने को तैयार हो गई, ‘‘वंदना ने ससुराल के नर्क में वापस लौटने को अलग रहने का कदम नहीं उठाया था. रातदिन की टोकाटाकी… रोजरोज

का अपमान… अरे, 7 साल बहुत लंबा समय होता है यों मन मारमार कर जीने के लिए. अगर अरुण को अपनी पत्नी व बेटे के साथ रहना है, तो उसे अब अलग होने का निर्णय लेना ही होगा. वंदना किसी कीमत पर वापस लौटने की मूर्खता नहीं दिखाएगी.’’

‘‘तुम ने ही इसे भड़काभड़का कर इस का दिमाग न खराब किया होता, तो आज यह अपने पति से यों दूर न रह रही होती,’’ विकास का स्वर शिकायती कड़वाहट से भर उठा.

‘‘भैया, विनिता पर गलत आरोप मत लगाइए,’’ सौरभ ने फौरन अपनी पत्नी का पक्ष फौरन लिया, ‘‘हम दोनों वंदना का साथ दे रहे हैं. अलग फ्लैट में रहने का फैसला उस का अपना

है और देख लेना वह जल्दी ही अपने मकसद को पा लेगी.’’

‘‘तुम्हें लगता है कि अरुण दबाव में आ कर अपने घर से अलग होने को तैयार हो जाएगा?’’

‘‘बिलकुल. अरे, अपने बीवीबच्चे से दूर रहना आसान नहीं होता है.’’

‘‘मैं आप से सहमत नहीं हूं, जीजाजी,’’ अंजलि ने अपना मत व्यक्त किया, ‘‘अरुण जीजाजी अपने घर वालों के साथ बड़ी मजबूती से जुड़े हुए हैं. उन की छोटी बहन कुंआरी घर में बैठी है. जब तक उस की शादी नहीं हो जाती, तब तक उन के अलग होने का सवाल ही नहीं उठता है.’’

‘‘अपने घर वालों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को वह घर से अलग रहते हुए क्या पूरी नहीं कर सकता है? और क्या वंदना को खुश और सुखी रखना उस की सब से पहली जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए?’’

विनिता के इस सवाल के जवाब में विकास और अंजलि को खामोश रहना पड़ा.

अरुण और वंदना के बीच बिगड़े रिश्ते के विभिन्न पहलुओं की चर्चा उन चारों के बीच चलती रही थी. वंदना ने कठिनाई से 1 फुलका खाया और अपने सिरदर्द से लड़ते हुए मजबूरन उन सब के बीच बैठी रही. रहरह कर उस का मन अतीत की यादों में घूम आता था. इन सब लोगों के बीच चल रही बहस में उस की ज्यादा रुचि नहीं थी क्योंकि वह इन की दलीलें पहले भी कई बार सुन कर पक चुकी थी.

जब वे चारों घंटेभर बाद भी चुप होने को तैयार नहीं हुए, तो हार कर वंदना ने थके

स्वर में हस्तक्षेप किया, ‘‘ससुराल छोड़ कर यहां अलग रहने का मेरा फैसला गलत था या ठीक, इस विषय पर अब बहस करने का क्या फायदा है? किसी को भी परेशान होने की जरूरत नहीं है. भविष्य में मेरे इस कदम के कारण जो भी नतीजा निकलेगा उस की जिम्मेदार मैं सिर्फ खुद को मानूंगी किसी और को नहीं.’’

‘‘तू अकेली नहीं हैं, हम तेरे साथ है,’’ उस का कंधा हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में दबा कर विनिता अपने घर जाने को उठ खड़ी हुई.

‘‘अरुण को राहुल की बीमारीकी खबर दे देना,’’ ऐसी सलाह दे कर विकास भी जाने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘मां को सुबह यहां छोड़ जाना. मेरे

औफिस में क्लोजिंग चल रही है. कल शनिवार को भी मुझे औफिस जाना है,’’ वंदना की इस बात को सुन कर विकास के माथे पर बल

पड़ गए.

‘‘कल तो अंजलि के मम्मीडैडी के यहां हमारा लंच है. मां भी हमारे साथ जाएंगी,’’ विकास ने जानकारी दी.

‘‘तू राहुल को मेरे पास छोड़ जाना,’’  विनिता ने समस्या का समाधान बताया.

‘‘नहीं, यह ठीक नहीं रहेगा. अगर कहीं कोविड हुआ तो बुखार अमित और सुमित को भी पकड़ लेगा. मम्मी को ही अंजलि के घर जाना कैंसिल कर के यहां रहने आना चाहिए,’’ सौरभ ने कुछ ऐसे कठोर, शुष्क लहजे में अपनी बात कही कि विनिता अपने पति की बात का आगे विरोध नहीं कर सकी.

‘‘मैं तो रात को भी रुक जाती, पर न मैं अपनी दवाइयां लाई हूं और न कहीं और मुझे

ढंग से नींद आती है. राहुल का बुखार अब

कम है. मेरे खयाल से वह सुबह सोता रहेगा. सुबह मैं जल्दी आ जाऊंगी,’’ कांता भी अपने बहूबेटे के साथ लौट जाने को तैयार नजर आईं. तब वंदना ने उन्हें रुक जाने को एक बार भी

नहीं कहा.

उन सब के जाने के बाद वह राहुल के

पास उस का हाथ पकड़ कर बैठ गई. अपने

बेटे के चेहरे को निहारतेनिहारते अचानक उस

के सब्र का बांध टूट गया और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

काफी देर तक बहे आंसू उसे अंदर तक खाली कर गए. खुद को बहुत थकी और निढाल सा महसूस करती हुई वह राहुल की बगल में लेटी और फिर कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह उस के मोबाइल पर कोविड की नैगेटिव रिपोर्ट आ गई तो चैन की सांस ली.

वह जब 7 बजे के  करीब उठी तो खुद को

काफी फिट महसूस कर रही थी. राहुल का

बुखार कम देख कर भी उस ने काफी राहत महसूस करी.

वंदना 8 बजे औफिस जाने को निकलती थी, पर उस की मां इस वक्त तक उस के घर नहीं पहुंचीं. उस के 2-3 बार फोन करने के बाद वे विकास के साथ 9 बजे के करीब आईं.

देर से आने को ले कर वंदना अपने भाई और मां से लड़ पड़ी. जवाब में कांता ने तो

नाराजगी भरी चुप्पी साध ली, पर विकास ने उसे खरीखोटी सुना दी, ‘‘अरे, अगर आज छुट्टी के दिन घंटाभर देर से पहुंच जाएगी, तो कोई मुसीबत का पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा तेरे औफिस पर. नौकरी करने वाली औरतों का दिमाग हमेशा खराब ही रहता है. तुम सब यह क्यों सोचतीं कि तुम्हारा नौकरी करना सब पर बहुत बड़ा एहसान है और अब हर आदमी को तुम्हारे आगेपीछे जीहजूरी करते हुए घूमना चाहिए?’’

विकास का ऐसा जवाब सुन कर वंदना को भी गुस्सा आ गया और फिर दोनों के बीच अच्छीखासी कहासुनी हो गई.

वंदना औफिस घंटाभर देर से पहुंची, तो उसे अपने बौस से भी लैक्चर सुनने को मिला. ज्यादातर लोग वर्क फ्रौम होम कर रहे थे पर कुछ कामों के लिए खुद दफ्तर में मौजूद रहना होता है. उस वजह से काम का बो?ा बहुत बढ़ जाने के कारण उसे अपनी परेशानियों पर ज्यादा सोचविचार करने का वक्त तो नहीं मिला, लेकिन मन खिन्न ही बना रहा.

दिनभर में वह 2 बार ही अपनी मां से बातें कर के राहुल का हाल पूछ पाई. उस का बुखार दवाइयों के कारण ज्यादा नहीं बढ़ा था. राहुल से उस की बात नहीं हुई क्योंकि वह दोनों बार सो रहा था.

लंच में उस के मोबाइल पर अरुण का फोन आया. जब से वह अलग फ्लैट में रहने लगी थी तब से उन दोनों के बीच बड़ा खिंचाव सा पैदा हो गया था. दोनों ने खुल कर एकदूसरे से दिल की बातें करना बंद सा कर दिया था.

राहुल के बीमार पड़ने की बात सुन कर अरुण चिंतित हो उठा.

‘‘उस की फिक्र न करो. मां मु?ा से ज्यादा अच्छे ढंग से उस का ध्यान रख रही हैं?’’ वंदना ने यों रुखा सा जवाब दे कर राहुल की बीमारी की चर्चा को ?ाटके से बंद कर दिया.

चाह कर भी वह औफिस से जल्दी नहीं निकल पाई. शाम को 6 बजे जब वह घर पहुंची, तो अरुण को राहुल के साथ ड्राइंगरूम में खेलते देख मन ही मन चौंक पड़ी.

अरुण ने तो इस फ्लैट में कभी कदम न रखने का प्रण कर रखा था. यहां अलग रहने के उस के फैसले से वह सख्त नाराज जो हुआ था.

राहुल उसे देखते ही उस से लिपट गया. फिर बड़े जोशीले अंदाज में अपने पापा द्वारा लाई रिमोट से चलने वाली कार उसे दिखाने लगा.

कांता 3 कप चाय बना लाई थीं. सभी आपस में बातें न कर के राहुल से वार्त्तालाप कर रहे थे. उन तीनों के ध्यान का केंद्र बन कर राहुल खूब हंसबोल रहा था.

चाय पीने के बाद वंदना बैडरूम में कपड़े बदलने चली गई. नहाधो कर वह तरोताजा महसूस करती जब ड्राइंगरूम में लौटी, तो अरुण विदा लेने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘पापा, आप मत जाओ, प्लीज,’’ राहुल अपने पापा के गले में बांहें डाल कर रोआंसा सा हो उठा.

‘‘मैं फिर आ जाऊंगा, मेरे शेर. तुम टाइम से दवा खा लेना और मम्मी व नानी को तंग मत करना. तुम ठीक हो गए, तो कल मैं तुम्हें बाजार घुमाने भी ले चलूंगा,’’ राहुल का माथा चूम कर अरुण ने उसे प्यार से सम?ाया.

‘‘आप कुछ देर बाद चले जाना. मैं किचन का चक्कर लगा कर आती हूं,’’ वंदना के इस आग्रह में इतना आत्मविश्वास और अपनापन भरा था कि अरुण से कुछ कहते नहीं बना और वह खामोशी से वापस सोफे पर बैठ गया.

कांता अपने घर से खाना बना लाने को तैयार थीं, पर वंदना ने उन्हें मना

कर दिया. वे अपनी बेटी के व्यवहार को समझ नहीं पा रही थी. वंदना का शांत, गंभीर चेहरा

उस के मनोभावों को पूरी कुशलता से छिपा

रहा था.

‘‘आज अरुण ठीक मूड में लग रहा है. तू प्यार और शांति से उसे अलग घर में रहने को राजी करने की कोशिश दिल से करेगी, तो वह जरूर मान जाएगा,’’ बारबार इस सलाह को दोहरा कर कांता गाड़ी मंगा कर अपने घर 7 बजे के करीब पहुंच गईं.

राहुल और अरुण एकदूसरे के साथ खेलने में मग्न थे. वंदना अधिकतर समय रसोई में रही. उस ने सब्जी और रायता तैयार कर चपातियां बनाईं और खाना मेज पर लगा दिया.

उस दिन वह बड़े हलकेफुलके अंदाज में अरुण से बोल रही थी. शिकवेशिकायतें

एक बार भी उस की जबान पर नहीं आईं.

अरुण भी कुछ देर बाद सहज हो गया.

उस ने अपनी छोटी बहन अंजु के रिश्ते की

बात कहांकहां चल रही थी, उस की जानकारी वंदना को दी. दोनों ने अपनेअपने औफिस से जुड़ी जानकारी का आदानप्रदान किया. दोस्तों

व रिश्तेदारों के साथ घटी घटनाओं की चर्चा करी. कुल मिला कर उन के बीच लंबे समय के बाद 2 घंटे का समय बिना तकरार और झगड़े के बीता. भोजन हो जाने के बाद बरतन समेट कर वंदना रसोई में चली गई.

राहुल और अरुण फिर से कार के साथ खेलने लगे. दोनों इतने खुश थे कि उन्हें वंदना

की अनुपस्थिति का डेढ़ घंटे तक एहसास ही

नहीं हुआ.

अरुण के ऊंची आवाज में पुकारने पर वंदना शयनकक्ष से निकल कर ड्राइंगरूम में आ गई.

‘‘अब मैं चलता हूं. 9 बज चुके हैं,’’ राहुल को गोद से उतार कर अरुण खड़ा हो गया.

कोई जवाब न दे कर वंदना वापस बैडरूम में चली गई, तो अरुण की आंखों में हैरानी और उलझन के मिलेजुले भाव उभर आए.

वंदना 1 बड़े सूटकेस को पहियों पर चलाती जब फौरन लौटी, तो अरुण चौंक पड़ा.

‘‘चलो,’’ वंदना ने सूटकेस को मुख्य द्वार की तरफ धकेलना जारी रखा.

‘‘तुम साथ चल रही हो?’’

‘‘हां.’’

वंदना का जवाब सुन कर राहुल खुशी से तालियां बजाता अपने पिता की गोद में चढ़ कर उछलने लगा.

‘‘यों अचानक… मैं बहुत हैरान भी हूं और बेहद खुश भी,’’ अरुण ने प्यार से राहुल का माथा चूम लिया.

वंदना अरुण का हाथ अपने हाथों में ले कर भावुक लहज में कहने लगी, ‘‘अपना घर छोड़ कर इस तरह लौट आने पर दोनों नहीं तीनों ही खुश थे.’’

Emotional Story

Hindi Drama Story: टूटा कप- सुनीता ने विनीता को क्यों दी टूटे कप में चाय

Hindi Drama Story: ‘‘विनी, दिव्या का विवाह पास आ गया है, पहले सोच रही थी सब काम समय से निबट जाएंगे पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. थोड़ा जल्दी आ सको तो अच्छा है. बहुत काम है, समझ नहीं पा रही हूं कहां से प्रारंभ करूं, कुछ शौपिंग कर ली है और कुछ बाकी है.’’

‘‘दीदी, आप चिंता न करें, मैं अवश्य पहुंच जाऊंगी. आखिर मेरी बेटी का भी तो विवाह है,’’ विनीता ने उत्तर दिया.

विनीता अपनी बड़ी बहन सुनीता की बात मान कर विवाह से लगभग 15 दिन पूर्व ही चली आई थी. उस की 7 वर्षीय बेटी पूर्वा भी उस के साथ आ गई थी. विशाल, विक्रांत की पढ़ाई के कारण बाद में आने वाले थे. विनीता को आया देख कर सुनीता ने चैन की सांस ली. चाय का प्याला उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पहले चाय पी ले, बाकी बातें बाद में करेंगे.’’

विनीता ने चाय का प्याला उठाया, टूटा हैंडिल देख कर वह आश्चर्य से भर उठी. ऐसे कप में किसी को चाय देना तो दूर वह उसे उठा कर फेंक दिया करती थी पर इतने शानोशौकत से रहने वाली दीदी के घर भला ऐसी क्या कमी है जो उन्होंने उसे ऐसे कप में चाय दी. मन किया वह चाय न पीए पर रिश्ते की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए खून का घूंट पी कर चाय सिप करने लगी पर उस की पुत्री पूर्वा से नहीं रहा गया. वह बोली, ‘‘मौसी, इस कप का हैंडिल टूटा हुआ है.’’

‘‘क्या, मैं ने ध्यान ही नहीं दिया. सारे कप गंदे पड़े हैं, मुनिया भी पता नहीं कहां चली गई. चाय की पत्ती लाने भेजा था, एक घंटे से ज्यादा हो गया, अभी तक नहीं आई. नौकरानियों से कप ही नहीं बचते. अभी कुछ दिन पहले ही तो खरीद कर लाई थी. दूसरा निकालूंगी तो उस का भी यही हाल होगा. वैसे भी विवाह से 3 दिन पहले होटल में शिफ्ट होना ही है. अभी तो हम लोग ही हैं, इन्हीं से काम चला लेते हैं,’’ सुनीता ने सफाई देते हुए कहा.

विनीता ने कुछ नहीं कहा. पूर्वा खेलने में लग गई. विनीता भी सुनीता के साथ विवाह के कार्यों की समीक्षा करने व उन्हें पूर्ण करने में जुट गई. कुछ दिन बाद नंदिता भी आ गई. उसे देखते ही सुनीता और विनीता की खुशी की सीमा न रही, दोनों एकसाथ बोल उठीं, ‘‘अरे, अचानक तुम कैसे, कोई सूचना भी नहीं दी.’’

‘‘मैं सरप्राइज देना चाहती थी, मुझे पता चला कि तुम दोनों अभी एकसाथ हो तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने सुजय से कहा कि विक्की की परीक्षा की सारी तैयारी करा दी है, आप बाद में आ जाना. मैं जा रही हूं. कम से कम हम तीनों बहनें दिव्या के विवाह के बहाने ही कुछ दिनों साथसाथ रह लेंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा किया, हम दोनों तुम्हें ही याद कर रहे थे. मुनिया, 3 कप चाय बना देना और हां, नए कप में लाना,’’ सुनीता ने नौकरानी को आवाज लगाते हुए कहा, फिर नंदिता की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अगर पहले सूचना दी होती तो गाड़ी भिजवा देती.’’ सुनीता दीदी की बात सुन कर विनीता के मन में कुछ दरक गया. नन्ही पूर्वा के कान भी खड़े हो गए. नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात ने उस के शांत दिल में हलचल पैदा कर दी थी. जब वह आई थी तब तो दीदी को पता था, फिर भी उन्होंने किसी को नहीं भेजा. वह स्वयं ही आटो कर के घर पहुंची थी. बात साधारण थी पर विनीता को ऐसा महसूस हो रहा था कि अनचाहे ही सुनीता दीदी ने उस की हैसियत का एहसास करा दिया है. वह पिछले 8 दिनों से उसी टूटे कप में चाय पीती रही थी पर नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात को वह पचा नहीं पा रही थी. मन कर रहा था वह वहां से उठ कर चली जाए पर न जाने किस मजबूरी के कारण उस के शरीर ने उस के मन की बात मानने से इनकार कर दिया. विनीता तीनों बहनों में छोटी है. सुनीता और नंदिता के विवाह संपन्न परिवारों में हुए थे पर पिताजी की मृत्यु के बाद घर की स्थिति दयनीय हो गई थी.

भाई ने अपनी हैसियत के अनुसार घरवर ढूंढ़ा और विवाह कर दिया. यद्यपि विशाल की नौकरी उस के जीजाजी की तुलना में कम थी. संपत्ति भी उन के बराबर नहीं थी पर वह अत्यंत परिश्रमी, सुलझे हुए व स्वभाव के बहुत अच्छे इंसान हैं. उन्होंने उसे कभी किसी कमी का एहसास नहीं होने दिया था और उस ने भी अपने छोटे से घर को इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा रखा है कि विशाल के सहकर्मी उस से ईर्ष्या करते थे. स्वयं काम करने के कारण उस के घर में कहीं भी गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता था और न ही टूटेफूटे बरतनों का जमावड़ा. यह बात अलग है कि ऐसे ही पारिवारिक आयोजन उसे चाहेअनचाहे उस की हैसियत का एहसास करा जाते हैं पर अपनी सगी बहन को अपने साथ ऐसा व्यवहार करते देख कर वह स्तब्ध रह गई. क्या अब नया सैट खराब नहीं होगा? हमेशा की तरह इस बार भी सुनीता व नंदिता गप मारने लग जातीं और विनीता काम में लगी रहती थी. अगर वह समय निकाल कर उन के पास बैठती तो थोड़ी ही देर बाद कोई काम आने पर उसे ही उठना पड़ता था. पहले वह इन सब बातों पर इतना ध्यान नहीं दिया करती थी पर इस बार उसे काम में लगा देख कर एक दिन उस की पुत्री पूर्वा ने कहा, ‘‘ममा, दोनों मौसियां बातें करती रहती हैं और आप काम में लगी रहती हो, मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘बेटा, वे दोनों बड़ी हैं, मुझे उन का काम करने में खुशी मिलती है,’’ पूर्वा की बात सुन कर वह चौंकी पर संतुलित उत्तर दिया.

उस ने उत्तर तो दे दिया पर पूर्वा की बातें चाहेअनचाहे उस के दिमाग में गूंजने लगीं. पहले भी इस तरह की बातें उस के मन में उठा करती थीं पर यह सोच कर अपनी आवाज दबा दिया करती थी कि आखिर वे उस की बड़ी बहनें हैं, अगर वे उस से कोई काम करने के लिए कहती हैं तो इस में बुराई क्या है. पर इस बार बात कुछ और ही थी जो उसे बारबार चुभ रही थी. न चाहते हुए भी दीदी का नंदिता के आते ही नए कप में चाय लाने व गाड़ी भेजने का आग्रह उस के दिल और दिमाग में हथौड़े मारने लगता.

जबजब ऐसा होता वह यह सोच कर मन को समझाने का प्रयत्न करती कि हो सकता है वह सब दीदी से अनजाने में हुआ हो, उन का वह मंतव्य न हो जो वह सोच रही है. आखिर वह उन की छोटी बहन है, वे उस के साथ भेदभाव क्यों करेंगी. सच तो यह है कि दीदी का उस पर अत्यंत ही विश्वास है तभी तो अपनी सहायता के लिए दीदी ने उसे ही बुलाया. उन का उस के बिना कोई काम नहीं हो पाता है. चाहे वह दुलहन की ड्रैस की पैकिंग हो या बक्से को अरेंज करना हो, चाहे मिठाई के डब्बे रखने की व्यवस्था करनी हो. और तो और, विवाह के समय काम आने वाली सारी सामग्री की जिम्मेदारी भी उसी पर थी.

दिव्या भी अकसर उस से ही आ कर सलाह लेते हुए पूछती,

‘‘मौसी, इस ड्रैस के साथ कौन सी ज्वैलरी पहनूंगी या ये चूडि़यां, पर्स और सैंडिल मैच कर रही हैं या नहीं?’’

विवाह की लगभग आधी से अधिक शौपिंग तो दिव्या ने उस के साथ ही जा कर की थी. वह कहती, ‘मौसी, आप का ड्रैस सैंस बहुत अच्छा है वरना ममा और नंदिता मौसी को तो भारीभरकम कपड़े या हैवी ज्वैलरी ही पसंद आती हैं. अब भला मैं उन को पहन कर औफिस तो जा नहीं सकती, फिर लेने से क्या फायदा?’ कहते हैं मन अच्छा न हो तो छोटी से छोटी बात भी बुरी लगने लग जाती है. शायद यही कारण था कि आजकल वह हर बात का अलग ही अर्थ निकाल रही थी. यह सच है कि दिव्या का निश्छल व्यवहार उस के दिल पर लगे घावों पर मरहम का काम कर रहा था पर दीदी की टोकाटाकी असहनीय होती जा रही थी. उसे लग रहा था कि काम निकालना भी एक कला है. बस, थोड़ी सी प्रशंसा कर दो, और उस के जैसे बेवकूफ बेदाम के गुलाम बन जाते हैं. मन कह रहा था व्यर्थ ही जल्दी आ गई. काम तो सारे होते ही, कम से कम यह मानसिक यंत्रणा तो न झेलनी पड़ती.

‘‘विनीता, जरा इधर आना,’’ सुनीता ने आवाज लगाई.

‘‘देख, यह सैट, नंदिता लाई है दिव्या को देने के लिए,’’ विनीता के आते ही सुनीता ने नंदिता का लाया सैट उसे दिखाते हुए कहा.

‘‘बहुत खूबसूरत है,’’ विनीता ने उसे हाथ में ले कर देखते हुए निश्छल मन से कहा.

‘‘पूरे ढाई लाख रुपए का है,’’ नंदिता ने दर्प से सब को दिखाते हुए कहा.

‘‘मौसी, आप मेरे लिए क्या लाई हो?’’ वहीं खड़ी दिव्या ने विनीता की तरफ देख कर बच्चों सी मनुहार की.

नंदिता का यह वाक्य सुन कर विनीता का मन बुझ गया. अपना लाया गिफ्ट उस बहुमूल्य सैट की तुलना में नगण्य लगने लगा पर दिव्या के आग्रह को वह कैसे ठुकराती, उस ने सकुचाते हुए सूटकेस से अपना लाया उपहार निकाल कर दिखाया. उस का उपहार देख कर दिव्या खुशी से बोली, ‘‘वाउ, मौसी, आप का जवाब नहीं, यह पैंडेंट बहुत ही खूबसूरत है, साथ ही व्हाइट गोल्ड की चेन. ऐसा ही कुछ तो मैं चाहती थी. इसे तो मैं हमेशा पहन सकती हूं.’’ दिव्या की बात सुन कर विनीता के चेहरे पर रौनक लौट आई. लाखों के उस डायमंड सैट की जगह हजारों का उपहार दिव्या को पसंद आया. यही उस के लिए बहुत था.

विवाह खुशीखुशी संपन्न हो गया और सभी अपनेअपने घर चले गए, विनीता भी धीरेधीरे सब भूलने लगी. समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है, वैसे भी दिव्या के विवाह के बाद मिलना भी नहीं हो पाया. न ही दीदी आईं और न ही उस ने प्रयत्न किया, बस फोन पर ही बातें हो जाया करती थीं. समय के साथ विक्की को आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया और पूर्वा प्लस टू में आ गई, इस के साथ ही वह मैडिकल की तैयारी कर रही थी. समय के साथ विशाल के प्रमोशन होते गए और अब वे मैनेजर बन गए थे. एक दिन सुनीता दीदी का फोन आया कि तुम्हारे जीजाजी को वहां किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में आना है. मैं भी आ रही हूं, बहुत दिन हो गए तुम सब से मिले हुए.

दीदी पहली बार उस के घर आ रही हैं, सो पिछली सारी बातें भूल कर उत्सुकता से विनीता उन के आने का इंतजार करने के साथ तैयारियां भी करने लगी. सोने के कमरे को उन के अनुसार सैट कर लिया और दीदी की पसंद की खस्ता कचौड़ी बना लीं व रसगुल्ले मंगा लिए. खाने में जीजाजी की पसंद का मलाई कोफ्ता व पनीर भुर्जी भी बना ली थी. उस ने दीदी, जीजाजी की खातिरदारी का पूरा इंतजाम कर रखा था. पर न जाने क्यों पूर्वा को उस का इतना उत्साह पसंद नहीं आ रहा था. जीजाजी दीदी को ड्रौप कर यह कहते हुए चले गए, ‘‘मुझे देर हो रही है, विनीता, मैं निकलता हूं, आतेआते शाम हो जाएगी, तब तक तुम अपनी बहन से खूब बात कर लो. बहुत तरस रही थीं ये तुम से मिलने के लिए. शाम को आ कर तुम सब से मिलता हूं.’’

दीदी ने उस का घर देख कर कहा, ‘‘छोटे घर को भी तू ने बहुत ही करीने से सजा रखा है,’’ विशेषतया उन्हें पूर्वा का कमरा बहुत पसंद आया.

तब तक पूर्वा ने नाश्ता लगा दिया. नाश्ते के बाद पूर्वा चाय ले आई. चाय का कप मौसी को पकड़ाया. सुनीता उस कप को देख कर चौंकी, विनीता कुछ कहने के लिए मुंह खोलती उस से पहले ही पूर्वा ने कहा, ‘‘मौसी, इस कप को देख कर आप को आश्चर्य हो रहा होगा. पर दिव्या दीदी के विवाह में आप ने ममा को ऐसे ही कप में चाय दी थी. हफ्तेभर तक वे ऐसे ही कपों में चाय पीती रहीं जबकि नंदिता मौसी के आते ही आप ने नया टी सैट निकलवा दिया था.

‘‘तब से मेरे मन में यह बात रहरह कर टीस देती रहती थी. वैसे तो टूटे कप हम फेंक दिया करते हैं पर यह कप मैं ने बहुत सहेज कर रखा था, उस याद को जीवित रखने के लिए कि कैसे कुछ अमीर लोग अपनी करनी से लोगों को उन की हैसियत बता देते हैं, चाहे वे उन के अपने ही क्यों न हों और आज उस अपमान के साथ अपनी बात कहने का अवसर भी मिल गया.’’

सुनीता चुप रह गई. बाद में वह पूर्वा के कमरे में गई और बोली, ‘‘सौरी बेटा, आज तू ने मुझे आईना ही नहीं दिखाया, सबक भी सिखा दिया है. शायद मैं नासमझ थी, मैं यह सोच ही नहीं पाई थी कि हमारे हर क्रियाकलाप को बच्चे बहुत ध्यान से देखते हैं और हमारी हर छोटीबड़ी बात का वे अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ भी निकालते हैं. मुझे इस बात का एहसास ही नहीं था कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, सब में आत्मसम्मान होता है. बड़े एक बार आत्मसम्मान पर लगी चोट को रिश्तों की परवा करते हुए भूलने का प्रयत्न कर भी लेते हैं किंतु बच्चे अपने या अपने घर वालों के प्रति होते अन्याय को सहन नहीं कर पाते और  अपना आक्रोश किसी न किसी रूप में निकालने की कोशिश करते हैं.

‘‘पूर्वा, तुम ने अपने मन की व्यथा को इतने दिनों तक स्वयं तक ही सीमित रखा और आज इतने वर्षों बाद अवसर मिलते ही प्रकट भी कर दिया. मुझे खुशी तो इस बात की है कि तुम ने अपनी बात इतने सहज और सरल ढंग से कह दी. आज तुम ने मुझे एहसास करा दिया बेटे कि उस समय मैं ने जो किया, गलत था. एक बार फिर से सौरी बेटा,’’ यह कह कर उन्होंने पूर्वा को गले से लगा लिया.

जहां सुनीता अपने पिछले व्यवहार पर शर्मिंदा थी वहीं विनीता पूर्वा के कटु वचनों को सुन कर उसे डांटना चाह कर भी नहीं डांट पा रही थी. संतोष था तो सिर्फ इतना कि दीदी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए अपनी गलती मान ली थी.

सच तो यह था कि आज उस के दिल से भी वर्षों पुराना बोझ उतर गया था, आखिर आत्मसम्मान तो हर एक में होता है. उस पर लगी चोट व्यक्ति के दिन का चैन और रात की नींद चुरा लेती है. शायद उस की पुत्री के साथ भी ऐसा ही हुआ था. आज उसे यह भी एहसास हो गया कि आज की पीढ़ी अन्याय का उत्तर देना जानती है, साथ ही बड़ों का सम्मान करना भी. अगर ऐसा न होता तो पूर्वा ‘सौरी मौसी’ कह कर उन के कदमों में न झुकती.

Hindi Drama Story

Social Story in Hindi: परीक्षा- ईश्वर क्यों लेता है भक्त की परीक्षा

कहानी- सुनीत गोस्वामी

Social Story in Hindi: भव्य पंडाल लगा हुआ था जिस में हजारों की भीड़ जमा थी और सभी की एक ही इच्छा थी कि महात्माजी का चेहरा दिख जाए. सत्संग समिति ने भक्तों की इसी इच्छा को ध्यान में रखते हुए पूरे पंडाल में जगह-जगह टेलीविजन लगा रखे थे ताकि जो भक्त महात्मा को नजदीक से नहीं देख पा रहे हैं वे भी उन का चेहरा अच्छी तरह से देख लें.

कथावाचक महात्मा सुग्रीवानंद ने पहले तो ईश्वर शक्ति पर व्याख्यान दिया, फिर उन की कृपा के बारे में बताया और प्रवचन के अंत में गुरुमहिमा पर प्रकाश डाला कि हर गृहस्थी का एक गुरु जरूर होना चाहिए क्योंकि बिना गुरु के भगवान भी कृपा नहीं करते. वे स्त्री या पुरुष जो बिना गुरु बनाए शरीर त्यागते हैं, अगले जन्म में उन्हें पशु योनि मिलती है. जब आम आदमी किसी को गुरु बना लेता है, उन से दीक्षा ले लेता है और उसे गुरुमंत्र मिल जाता है, तब उस का जीवन ही बदल जाता है. गुरुमंत्र का जाप करने से उस के पापों का अंत होने के साथ ही भगवान भी उस के प्रति स्नेह की दृष्टि रखने लगते हैं.

गुरु के बिना तो भगवान के अवतारों को भी मुक्ति नहीं मिलती. आप सब जानते हैं कि राम के गुरु विश्वामित्र थे और कृष्ण के संदीपन. सुग्रीवानंद ने गुरु महिमा पर बहुत बड़ा व्याख्यान दिया.

डर और लालच से मिलाजुला यह व्याख्यान भक्तों को भरमा गया. सुग्रीवानंद का काम बस, यहीं तक था. आगे का काम उन के सेक्रेटरी को करना था.

सेक्रेटरी वीरभद्र ने माइक संभाला और बहुत विनम्र स्वर में भक्तों से कहा, ‘‘महाराजश्री से शहर के तमाम लोगों ने दीक्षा देने के लिए आग्रह किया था और उन्होंने कृपापूर्वक इसे स्वीकार कर लिया है. जो भक्त गुरु से दीक्षा लेना चाहते हैं वे रुके रहें.’’

इस के बाद पंडाल में दीक्षामंडी सी लग गई. इसे हम मंडी इसलिए कह रहे हैं कि जिस तरह मंडी में माल की बोली लगाई जाती है वैसे ही यहां दीक्षा बोलियों में बिक रही थी.

गरीबों की तो जिंदगी ही लाइन में खड़े हो कर बीत जाती है. यहां भी उन के लिए लाइन लगा कर दीक्षा लेने की व्यवस्था थी. 151 रुपए में गुरुमंत्र के साथ ही सुग्रीवानंद के चित्र वाला लाकेट दिया जा रहा था. गुरुमंत्र के नाम पर किसी को राम, किसी को कृष्ण, किसी को शिव का नाम दे कर उस का जाप करने की हिदायत दी जा रही थी. ये दीक्षा पाए लोग सामूहिक रूप से गुरुदर्शन के हकदार थे.

दूसरी दीक्षा 1,100 रुपए की थी. इन्हें चांदी में मढ़ा हुआ लाकेट दिया जा रहा था. गुरुमंत्र और सुग्रीवानंद की कथित लिखी हुई कुछ पुस्तकें देने के साथ उन्हें कभीकभी सुग्रीवानंद के मुख्यालय पर जा कर मिलने की हिदायत दी जा रही थी.

सब से महंगी दीक्षा 21 हजार रुपए की थी. कुछ खास पैसे वाले ही इस गुरुदीक्षा का लाभ उठा सके. ऐसे अमीर भक्त ही तो महात्माओं के खास प्रिय होते हैं. इन भक्तों को सोने की चेन में सुग्रीवानंद के चित्र वाला सोने का लाकेट दिया गया. पुस्तकें दी गईं और प्रवचनों, भजनों की सीडियां भी दी गईं. इन्हें हक दिया गया कि ये कहीं भी, कभी भी गुरु से मिल कर अपने मन की शंका का निवारण कर सकते हैं. इस विभाजित गुरुदीक्षा को देख कर लगा कि स्वर्ग की व्यवस्था भी किसी नर्सिंग होम की तरह होगी.

जिस ने महात्माजी से छोटी गुरुदीक्षा ली थी वह मरने के बाद स्वर्ग जाएगा तो उस के लिए खिड़की खुलेगी. ऐसे तमाम लोगों को सामूहिक रूप में जनरल वार्र्ड में रखा जाएगा. विशिष्ट दीक्षा वालों के लिए स्वर्ग का बड़ा दरवाजा खुलेगा और ये प्राइवेट रूम में रहेंगे.

आज से लगभग 10 साल पहले रमेश एक प्राइवेट हाउसिंग कंपनी में अधिकारी था. एक बार भ्रष्टाचार के मामले में वह पकड़ा गया और नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार शातिर दिमाग रमेश सोचता रहता कि काम ऐसा होना चाहिए जिस में मेहनत कम हो, इज्जत खूब हो और पैसा भी बहुत अधिक हो. वह कई दिन तक इस पर विचार करता रहा कि ये तीनों चीजें एकसाथ कैसे मिलें. तभी उसे सूझा कि धर्म के रास्ते यह सहज संभव है. धर्म की घुट्टी समाज को हजारों वर्षों से पिलाई गई है. यहां अपनेआप को धार्मिक होना लोग श्रेष्ठ मानते हैं. जो शोधक है वह भी दान दे कर अपने अपराधबोध को कम करना चाहता है. यह सब सोेचने के बाद रमेश ने पहले अपनी एक कीर्तन मंडली बनाई और अपना नाम बदल सुग्रीवानंद कर लिया. कीर्तन करतेकरते सुग्रीवानंद कथा करने लगा. धीरेधीरे वह बड़ा कथावाचक बन गया. लोगों को बातों में उलझा कर, भरमा कर, बहका कर धन वसूलने के बहुत से तरीके भी जान गया. उस ने बहुत बड़ा आश्रम बना लिया.

इस तरह दुकानदारी चल पड़ी और धनवर्षा होने लगी तो सरकार से अनुदान पाने के लिए सुग्रीवानंद ने गौशाला और स्कूल भी खोल लिए.

सुग्रीवानंद इस मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझता था कि जो पूंजीपति शोषक और बेईमान होता है उस के अंदर एक अपराधबोध होता है और वह दान दे कर इस बोध से मुक्त होना चाहता है. सुग्रीवानंद जब भी अपने अमीर शिष्यों से घिरा होता तो उन्हें दान की महिमा पर जरूर घुट्टी पिलाता था.

सुरेश एक उद्योगपति था. उस ने भी सुग्रीवानंद से गुरुदीक्षा ली थी. अब वह उस का शिष्य था और शिष्य होने के नाते गुरु के आदेश का पालन करना अपना धर्म समझता था. एक दिन सुग्रीवानंद ने सुरेश से कहा, ‘‘वत्स, मैं ने आश्रम की तरफ से कुछ गरीब कन्याओं के विवाह का संकल्प लिया है.’’

‘‘यह तो बड़ा शुभ कार्य है, गुरुजी. मेरे लिए कोई सेवा बताएं.’’

‘‘वत्स, धर्मशास्त्र कहते हैं कि दान देने में ही मनुष्य का कल्याण है. दान से यह लोक भी सुधरता है और परलोक भी.’’

‘‘आप आदेश करें, गुरुजी, मैं तैयार हूं.’’

‘‘लगभग 2 लाख रुपए का कार्यक्रम है.’’

सुरेश इतनी बड़ी रकम सुन कर मौन हो गया.

शिकार को फांसने की कला में माहिर शिकारी की तरह सुग्रीवानंद ने कहा, ‘‘देखो वत्स, सुरेश, तुम मेरे सब से प्रिय शिष्य हो. इस शुभ अवसर का पूरा पुण्य तुम्हें मिले, यह मेरी इच्छा है. वरना मैं किसी और से भी कह सकता हूं, मेरी बात कोई नहीं टालता.’’

गुरुजी उस पर इतने मेहरबान हैं, यह सोच कर उस ने दूसरे दिन 2 लाख रुपए ला कर गुरुजी को भेंट कर दिए.

रुपए लेने के बाद सुग्रीवानंद ने कहा, ‘‘यह बात किसी दूसरे शिष्य को मत बताना. अध्यात्म के रास्ते पर भी बड़ी ईर्ष्या होती है. भगवान को पाने के लिए दान बहुत बड़ी साधना है और यह साधना गुप्त ही होनी चाहिए.’’

गुरु की आज्ञा का उल्लंघन धर्मभीरु सुरेश कैसे कर सकता था.

सुग्रीवानंद ने अपने सभी अमीर शिष्यों को अलगअलग समय में इसी तरह पटाया. सभी से 2-2 लाख रुपए वसूले और इन्हें दान की महान साधना को गुप्त रखने के आदेश दिए. इस तरह एक तीर से दो शिकार करने वाले सुग्रीवानंद के आश्रम में गरीब कन्याओं के विवाह कराए गए. उस ने मीडिया द्वारा तारीफ भी बटोरी लेकिन यह कोई नहीं जान पाया कि इस खेल में वह कितना पैसा कमा गया.

सुग्रीवानंद ने जगहजगह अपने आश्रम खोले थे लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि इन आश्रमों को उस के परिवार व खानदान के लोग ही नहीं बल्कि रिश्तेदार भी चला रहे थे. धर्मभीरु जनता से धन ऐंठने के नएनए तरीके ढूंढ़ने वाले सुग्रीवानंद ने किसी पत्रिका में आदिवासियों पर एक लेख पढ़ लिया था. बस, लोगों से पैसा हड़पने का उसे एक और तरीका मिल गया, उस ने एक कथा में कहा कि आप के जो अशिक्षित बनवासी भाई हैं वे बहुत ही गरीबी में जी रहे हैं. हम सभी का धर्म है कि उन की सेवा करें. उन्हें शिक्षा के साधन उपलब्ध कराएं. मैं ने इस निमित्त जो संकल्प लिया है वह आप सभी के सहयोग से ही पूरा हो सकता है. सेवा ही धर्म है और सेवा ही भगवान की पूजा है. फिर दरिद्र तो नारायण होता है. इसलिए दरिद्र के लिए आप जितना अधिक दान देंगे, नारायण उतना ही खुश होगा.

सुग्रीवानंद ने आह्वान किया कि आइए, आगे आइए. इस शहर के धनकुबेर आगे आएं और आदिवासियों के लिए उदार दिल से दान की घोषणा करें. सुरेश ने पहली घोषणा की कि 1 लाख रुपए मेरी तरफ से. इस के बाद तो लोग बढ़चढ़ कर दान की घोषणाएं करने लगे. इस तरह सुग्रीवानंद के आश्रम के नाम लगभग 80 लाख रुपए की घोेषणा हो गई.

अभी तक सुरेश इस खुशफहमी में था कि गुरुजी की बातों को मान कर उसे अध्यात्म का लाभ प्राप्त होगा, परलोक का सुख मिलेगा मगर इस परलोक को सुधारने के चक्कर में वह मुसीबत में पड़ता जा रहा था. उस का सारा समय तो दीक्षा के बाद गुरुजी की बताई साधनाओं में ही व्यतीत हो जाता था और कमाई का अधिकांश धन गुरुजी को दान देने में.

परिणाम यह हुआ कि सुरेश का व्यापार डांवांडोल होने लगा. व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी सक्रिय हो गए. वह लाभ कमाने लगे और उस के हिस्से में घाटा आता गया. समय पर आर्डरों की सप्लाई न देने की वजह से बाजार में उस की साख गिरती गई. लाखों रुपए उधारी में फंस गए तब उसे हैरानी इस बात पर भी हुई कि दान का यह उलटा फल क्यों मिल रहा है जबकि गुरुजी कहते थे कि तुम जो भी दान दोगे, उस का कई गुना हो कर वापस मिलेगा. जैसे धरती में थोड़ा सा बीज डालते हैं तो वह कई गुना कर के फसल के रूप में लौटा देती है पर उस ने तो लाखों का दान दिया, फिर वह कंगाली के कगार पर क्यों?

सुरेश ने अपनी परेशानी गुरुजी के सामने रखी. सुग्रीवानंद ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘अरे बेटा, भगवान इसी तरह तो परीक्षा लेते हैं. भगवान अपने प्रिय भक्त को परेशानियों में डालते हैं और देखते हैं कि वह भक्त कितना सच्चा है.’’

सुरेश को यह जवाब उचित नहीं लगा. उस ने फिर पूछा, ‘‘गुरुजी भगवान तो अंतर्यामी हैं. वह जानते हैं कि भक्त कितना सच्चा है. फिर परीक्षा की उन्हें क्या जरूरत है?’’

सुग्रीवानंद को इस का कोई जवाब नहीं सूझा तो उस ने बात को टालते हुए कहा, ‘‘सुरेश, भगवान के विधान को कभी तर्कों से नहीं जाना जा सकता. यह तो विश्वास का मामला है. गुरु की बातों पर संदेह करोगे तो कुछ प्राप्त नहीं होगा.’’

सुरेश को उस के प्रश्न का सही उत्तर नहीं मिला. सुरेश की जो जिज्ञासा थी, उस का उत्तर आज भी किसी महात्मा या कथावाचक के पास नहीं है. महात्माओं के अनुसार ईश्वर घटघटवासी है. वह त्रिकालदर्शी है. करुणा का सागर है. अंतर्यामी है. व्यक्ति के मन की हर बात जानता है. वह कितना सच्चा है, कितना कपटी है, ईश्वर को सब पता रहता है. फिर वह भक्त की परीक्षा क्यों लेता है? यह प्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा में है.

Social Story in Hindi

Family Kahani: अपने पराए- संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ?

Family Kahani: लखनऊ छोड़े मुझे 20 साल हो गए. छोड़ना तो नहीं चाहती थी पर जब पराएपन की बू आने लगे तो रहना संभव नहीं होता. जबतक मेरी जेठानी का रवैया हमारे प्रति आत्मिक था, सब ठीक चलता रहा पर जैसे ही उन की सोच में दुराग्रह आया, मैं ने ही अलग रहना मुनासिब समझा.

आज वर्षों बाद जेठानी का खत आया. खत बेहद मार्मिक था. वे मेरे बेटे प्रखर को देखना चाहती थीं. 60 साल की जेठानी के प्रति अब मेरे मन में कोई मनमुटाव नहीं रहा. मनमुटाव पहले भी नहीं था, पर जब स्वार्थ बीच में आ जाए तो मनमुटाव आना स्वाभाविक था.

शादी के बाद जब ससुराल में मेरा पहला कदम पड़ा तब मेरी जेठानी खुश हो कर बोलीं, ‘‘चलो, एक से भले दो. वरना अकेला घर काटने को दौड़ता था.’’

वे निसंतान थीं. तब भी उन का इलाज चल रहा था पर सफलता कोसों दूर थी. प्रखर हुआ तो मुझ से ज्यादा खुशी उन्हें हुई. हालांकि दिल में अपनी औलाद न होने की कसक थी, जिसे उन्होंने जाहिर नहीं होने दिया. बच्चों की किलकारियों से भला कौन वंचित रहना चाहता है. प्रखर ने घर की मनहूसियत को तोड़ा.

जेठानी ने मुझ से कभी परायापन नहीं रखा. वे भरसक मेरी सहायता करतीं. मेरे पति की आय कम थी. इसलिए वक्तजरूरत रुपएपैसों से मदद करने में भी वे पीछे नहीं हटतीं. प्रखर के दूध का खर्च वही देती थीं. कपड़े आदि भी वही खरीदतीं. मैं ने भी उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया. प्रखर को वे संभालतीं, तो घर का सारा काम मैं देखती. इस तरह मिलजुल कर हम हंसी- खुशी रह रहे थे.

हमारी खुशियों को ग्रहण तब लगा जब मुझे दूसरा बच्चा होने वाला था. नई तकनीक से गर्भधारण करने की जेठानी की कोशिश असफल हुई और डाक्टरों ने कह दिया कि इन की मां बनने की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो गई, तो वे बुझीबुझी सी, उदास रहने लगीं. न उन में पहले जैसी खुशी रही न उत्साह. उन के मां न बन पाने की मर्मांतक पीड़ा का मुझे एहसास था, क्योंकि मैं भी एक मां थी. इसलिए प्रखर को ज्यादातर उन्हीं के पास छोड़ देती. वह भी बड़ी मम्मी, बड़ी मम्मी कह कर उन्हीं से चिपका रहता. रात को उन्हीं के पास सोता. उन की भी आदत कुछ ऐसी बन गई थी कि बिना प्रखर के उन्हें नींद नहीं आती. मैं चाहती थी कि वे किसी तरह अपने दुखों को भूली रहें.

जब मुझे दूसरा बच्चा होने को था, पता नहीं मेरे जेठजेठानी ने क्या मशविरा किया. एक सुबह वे मुसकरा कर बोलीं, ‘‘बबली, इस बच्चे को तू मुझे दे दे,’’ मैं ने इसे मजाक  समझा और उसी लहजे में बोली, ‘‘दीदी, आप दोनों ही रख लीजिए.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही,’’ वे थोड़ा गंभीर हुईं.

‘‘मैं चाहती हूं कि तुम इस बच्चे को कानूनन मुझे दे दो. मैं तुम्हें सोचने का मौका दूंगी.’’

जेठानी के कथन पर मैं संजीदा हो गई. मेरे चेहरे की हंसी एकाएक गुम हो गई. ‘कानूनन’ शब्द मेरे मस्तिष्क में शूल की भांति चुभने लगा.

शाम को मेरे पति औफिस से आए, तो मैं ने जेठानी का जिक्र किया.

‘‘दे दो, हर्ज ही क्या है. भैयाभाभी ही तो हैं,’’ ये बोले.

मैं बिफर पड़ी, ‘‘कैसे पिता हैं? आप को अपने बच्चे का जरा भी मोह नहीं. एक मां से पूछिए जो 9 महीने किन कष्टों से बच्चे को गर्भ में पालती है?’’

‘‘भैया हैं, कोई गैर नहीं.’’

‘‘मैं ने कब इनकार किया. फिर भी कैसे बरदाश्त कर पाऊंगी कि मेरा बच्चा किसी और की अमानत बने. मैं अपने जीतेजी ऐसा हर्गिज नहीं होने दूंगी.’’

‘‘मान लो लड़की हुई तो?’’

‘‘लड़का हो या लड़की. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘मुझे पड़ता है. सीमित आमदनी के चलते कहां से लाएंगे दहेज के लिए लाखों रुपए. भैयाभाभी तो संपन्न हैं. वे उस की बेहतर परवरिश करेंगे.’’

‘‘परवरिश हम भी करेंगे. मैं कुछ भी करूंगी पर अपने कलेजे के टुकड़े को यों जाने नहीं दूंगी,’’ मैं ने आत्मविश्वास के साथ जोर दे कर कहा.

‘‘सोच लो. बाद में पछताना न पड़े.’’

‘‘हिसाबकिताब आप कीजिए. प्रखर मुझ से ज्यादा उन के पास रहता है. क्या मैं ने कभी एतराज किया? जो आएगा उसे भी वही पालें, पर मेरी आंखों के सामने. मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा. उलटे मुझे खुशी होगी कि इसी बहाने खून की कशिश बनी रहेगी.’’

मेरे कथन से मेरे पति संतुष्ट न थे. फिर भी मैं ने मन बना लिया था कि लाख दबाव डालें मैं अपने बच्चे को उन्हें गोद लेने नहीं दूंगी. वैसे भी जेठानीजी को सोचना चाहिए कि क्या जरूरी है कि गोद लेने से बच्चा उन का हो जाएगा? बच्चा कोई सामान नहीं जो खरीदा और अपना हो गया. कल को बच्चा बड़ा होगा, तो क्या उसे पता नहीं चलेगा कि उस के असली मांबाप कौन हैं? वे क्या बच्चा ले कर अदृश्य हो जाएंगी. रहेगा तो वह हम सब के बीच ही.

मुझे जेठानी की सोच में क्षुद्रता नजर आई. उन्होंने हमें और हमारे बच्चों को गैर समझा, तभी तो कानूनी जामा पहनाने की कोशिश कर रही हैं. ताईताऊ, मांबाप से कम नहीं होते बशर्ते वे अपने भतीजों को वैसा स्नेह व अपनापन दें. क्या निसंतान ताईताऊ प्रखर की जिम्मेदारी नहीं होंगे?

15 दिन बाद उन्होंने मुझे पुन: याद दिलाया तो मैं ने साफ मना कर दिया, ‘‘दीदी, मुझे आप पर पूरा भरोसा है, पर मेरा जमीर गवारा नहीं करता कि मैं अपने नवजात शिशु को आप को सौंप दूं. मैं इसे अपनी सांसों तले पलताबढ़ता देखना चाहती हूं. वह मुझ से वंचित रहे, इस से बड़ा गुनाह मेरे लिए कोई नहीं. मैं अपराध बोध के साथ नहीं जी सकूंगी.’’

क्षणांश मैं भावुक हो उठी. आगे बोली, ‘‘ताईताऊ मांबाप से कम नहीं होते. मुझ पर यकीन कीजिए, मैं अपने बच्चों को सही संस्कार दूंगी.’’

मेरे कथन पर उन का मुंह बन गया. वे कुछ बोलीं नहीं पर पति (जेठजी) से देर तक खुसरपुसर करती रहीं. कुछ दिन बाद पता चला कि वे मायके के किसी बच्चे को गोद ले रही हैं. वैसे भी कानूनन गोद लेने की सलाह मायके वालों ने ही उन्हें दी थी. वरना रिश्तों के बीच कोर्टकचहरी की क्या अहमियत?

आहिस्ताआहिस्ता मैं ने महसूस किया कि अब जेठानी में प्रखर के प्रति वैसा लगाव नहीं रहा. दूध का पैसा इस बहाने से बंद कर दिया कि अब उन के लिए संभव नहीं. मुझे दुख भी हुआ, रंज भी. एक प्रखर था, जो दिनभर ‘बड़ीमम्मी’, ‘बड़ीमम्मी’ लगाए रखता था. मैं ने अपने बच्चों के मन में कोई दुर्भावना नहीं भरी. जब मैं ने बच्ची को जन्म दिया तो जेठानी ने सिर्फ औपचारिकता निभाई. जहां प्रखर के जन्म पर उन्होंने दिल खोल कर पार्टी दी थी, वहीं बच्ची के प्रति कृपणता मुझे खल गई. मैं ने भी साथ न रहने का मन बना लिया. घर जेठानी का था. उन्हीं के आग्रह पर रहती थी. जब स्वार्थों की गांठ पड़ गई, तो मुझे घुटन होने लगी. दिल्ली जाने लगी तो जेठ का दिल भर आया. प्रखर को गोद में उठा कर बोले, ‘‘बड़े पापा को भूलना मत,’’ मेरी भी आंखें भर गईं पर जेठानी उदासीन बनी रहीं.

20 साल गुजर गए. मैं एक बार लखनऊ तब आई थी जब जेठानी ने अपनी बहन के छोटे बेटे को गोद लिया था. इस अवसर पर सभी जुटे थे. उन के चेहरे पर अहंकार झलक रहा था, साथ में व्यंग्य भी. जितने दिन रही, उन्होंने हमारी उपेक्षा की. वहीं मायके वालों को सिरआंखों पर बिठाए रखा. इस उपेक्षा से आहत मैं दिल्ली लौटी तो इस निश्चय के साथ कि अब कभी उधर का रुख नहीं करूंगी.

आज 20 साल बाद भीगे मन से उन्होंने मुझे याद किया, तो मैं उन के प्रति सारे गिलेशिकवे भूल गई. उन्हें सहीगलत की पहचान तो हुई? यही बात उन्हें पहले समझ में आ जाती तो हमारे बीच की दूरियां न होतीं. 20 साल मैं ने भी असुरक्षा के माहौल में काटे. एकसाथ रहते तो दुखसुख में काम आते. वक्तजरूरत पर सहारे के लिए किसी को खोजना तो न पड़ता.

खत इस प्रकार था : ‘कागज पर लिख देने से न तो गैर अपना हो जाता है, न मिटा देने से अपना गैर. मैं ने खून से ज्यादा कागजों पर भरोसा किया. उसी का फल भुगत रही हूं. जिसे कलेजे से लगा कर रखा, पढ़ालिखा कर आदमी बनाया, वही ठेंगा दिखा कर चला गया. जो खून से बंधा था उसे कागज से बांधने की नादानी की. ऐसा करते मैं भूल गई थी कि कागज तो कभी भी फाड़ा जा सकता है. रिश्ते भावनाओं से बनते हैं. यहीं मैं चूक गई. मैं भी क्या करती. इस भय से एक बच्चे को गोद ले लिया कि इस पर किसी का कोई हक नहीं रह जाएगा. वह मेरा, सिर्फ मेरा रहेगा. मैं यह भूल गई थी कि 10 साल जिस बच्चे ने मां के आंचल में अपना बचपन गुजारा हो, वह मुझे मां क्यों मानेगा?

‘मैं भी स्वार्थ में अंधी हो गई थी कि वह मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा. उस मां के बारे में नहीं सोचा जिस ने उसे पैदा किया कि क्या वह ऐसा चाहेगी? सिर्फ नाम का गोदनामा था, इस की आड़ में मेरी बहन का मुख्य मकसद मेरी धनसंपदा हथियाना था, जिस में वह सफल रही. मैं यह तो नहीं कहूंगी कि प्रखर को मेरे पास बुढ़ापे की सेवा के लिए भेज दो, क्योंकि यह हक मैं ने खो दिया है फिर भी उस गलती को सुधारना चाहती हूं जो मैं ने 20 साल पहले की थी.’

पत्र पढ़ने के बाद मैं तुरंत लखनऊ आई. मेरे जेठ को फालिज का अटैक था. हमें देखते ही उन की आंखें भर आईं. प्रखर ने पहले ताऊजी फिर ताईजी के पैर छुए, तो जेठानी की आंखें डबडबा गईं. सीने से लगा कर भरे गले से बोलीं, ‘‘बित्ते भर का था, जब तुझे पहली बार सीने से लगाया था. याद है, मेरे बगैर तुझे नींद नहीं आती थी. मां की मार से बचने के लिए मेरे ही आंचल में सिर छिपाता था.’’

‘‘बड़ी मम्मी,’’ प्रखर का इतना कहना भर था कि जेठानीजी अपने आवेग पर नियंत्रण न रख सकीं. फफक कर रो पड़ीं.

‘‘मैं तो अब भी आप की चर्चा करता हूं. मम्मी से कितनी बार कहा कि मुझे बड़ी मम्मी के पास ले चलो.’’

‘‘क्यों बबली, हम क्या इतने गैर हो गए थे. कम से कम अपने बेटे की बात तो रखी होती. बड़ों की गलती बच्चे ही सुधारते हैं,’’ जेठानीजी ने उलाहना दिया.

‘‘दीदी, मुझ से भूल हुई है,’’ मेरे चेहरे पर पश्चात्ताप की लकीरें खिंच गईं.

2 दिन हम वहां रहे. लौटने को हुई तो मैं ने महसूस किया कि जेठानीजी कुछ कहना चाह रही थीं. संकोच, लज्जा जो भी वजह हो पर मैं ने ही उन से कहा कि क्या हम फिर से एकसाथ नहीं रह सकते.

मैं ने जैसे उन के मन की बात छीन ली. प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘बबली, मुझे माफ कर दो.’’

जेठानी के अपनेपन की तपिश ने हमारे मन में जमी कड़वाहट को हमेशा के लिए पिघला दिया.

Family Kahani

Rashami Desai: ऐक्ट्रैस ने कुछ इस तरह घटाया 10kg वेट, जानें खास टिप्स

Rashami Desai: ग्लैमर वर्ल्ड में फिल्म कलाकार हो या टीवी कलाकार, वजन बढ़ने की समस्या से हर किसी को गुजरना पड़ता है, क्योंकि आजकल खानपान और लाइफस्टाइल ऐसा है कि न चाहते हुए भी जरा सी लापरवाही के बाद कई किलोग्राम वजन अचानक ही बढ़ जाता है. ऐसे में अगर कोई आम इंसान हो तो टेंशन उतनी ज्यादा नहीं होती, जितना कोई ग्लैमर फील्ड से जुडा ऐक्टर या ऐक्ट्रैस हो. दरअसल, शारीरिक रूप से खूबसूरत दिखना इन की रोजीरोटी का जरीया होता है.

ऐसे में वजन बढ़ने और मोटा होने के बाद उन कलाकारों को काम मिलना बंद हो जाता है. यही वजह है कि खासतौर पर हीरोइनें अपने फिगर को ले कर हमेशा सजग रहती हैं. लेकिन बावजूद इस के अगर उन का वजन बढ़ जाता है, तो कम करने के लिए हीरोइनें नएनए तरीके भी ढूंढ़ती रहती हैं.

कुछ ही महीनों में कम हुआ वजन

ऐसा ही कुछ कलर्स टीवी शो ‘बिग बॉस 13’ से चर्चित हुईं रश्मि देसाई के साथ है, जो काफी कम उम्र से ही टीवी सीरियल ‘उतरन’ के जरीए टीवी इंडस्ट्री से जुड़ी हुई हैं.

सीरियल ‘उतरन’ के बाद रश्मि देसाई ने कई सारे सीरियल्स किए हैं, लेकिन ‘बिग बॉस 13’ के बाद वे चर्चा में आईं. शो के दौरान अपने रोमांटिक लाइफ के उतारचढ़ाव के चलते रश्मि देसाई ‘बिग बॉस 13’ में लड़तीझगड़ती नजर आईं.

‘बिग बॉस 13’ खत्म होने के बाद रश्मि देसाई का वजन बढ़ने लगा. बढ़ते वजन की वजह से वे काफी परेशान भी थीं क्योंकि उन को काम मिलना भी कम हो गया था. इस के बाद उन्होंने फैसला किया कि वे किसी भी तरह अपना वजन कम करेंगी.

घटाया 10 किलोग्राम वजन

अपने इसी वजन को कम करने की यात्रा के बारे में रश्मि ने 10 किलोग्राम वजन कुछ ही महीनों में कम कर लिया और फिर इस पर खुल कर बताया.

रश्मि देसाई के अनुसार, “अगर आप को सचमुच पूरी तरह से फिट होना है तो बिना डरे या बिना किसी शक के पौजिटिव सोच के साथ आप को अपने पतले होने की जर्नी शुरू करनी पड़ेगी. लिहाजा, सब से पहले मैं ने अपनी सोच को बदलने की तैयारी की, निराशा से निकल कर आशा की तरफ बढ़ते हुए मैं ने अपना वर्कआउट शुरू किया. वर्कआउट करते समय मुझे मोटिवेशन मिला और मैं नियमित ऐक्सरसाइज करने लगी.”

रश्मि कहती हैं,”मैं सुबह की शुरुआत ऐक्सरसाइज से करती हूं. एक अच्छी बौडी के लिए फ्लैक्सिबिलिटी बहुत जरूरी है इसलिए मैं स्ट्रेचिंग और स्ट्रेंथ ट्रेनिंग भी लेती हूं ताकि मेरे शरीर में लचीलापन बना रहे. मैं वजन कम करने से ज्यादा बौडी को मजबूत बनाने और मन को सुकून देने की ज्यादा कोशिश करती हूं. ऐक्सरसाइज से भी ज्यादा मैं सही डाइट फौलो करती हूं. मेरा मानना है कि पतले होने के लिए भूखे रहने से ज्यादा दिमाग पर काबू रखना जरूरी है क्योंकि अगर आप के दिमाग पर काबू रहा तो आप अपनेआप ही सोचसमझ कर और समय पर खाएंगे.”

मजबूत इच्छाशक्ति

वे कहती हैं कि एक फिट बौडी के लिए 70% डाइट और 30% वर्कआउट जरूरी होता है और मैं ने यही किया है. इस के बाद मेरा 10 किलोग्राम वजन कम हो गया. सच कहूं तो मैं वजन कम करने से ज्यादा मानसिक शांति और स्वस्थ शरीर को ज्यादा महत्त्व दे रही हूं ताकि भले ही मेरा वजन धीमी गति से कम हो लेकिन मेरा शरीर पूरी तरह से मजबूत हो ताकि मैं आने वाली बीमारियों से अपने शरीर को बचा सकूं और लंबे समय तक स्वस्थ जीवन जी सकूं.

Rashami Desai

Wedding Stress: शादी में होने वाली थकान से दुलहन कैसे बचे, जानिए एक्सपर्ट से

Wedding Stress: शादी के दिन की खुशी हर लड़की के लिए खास होता है. इस दिन वह आत्मविश्वास से दमकने के साथसाथ सुनहरे सपने को साकार करती है. ऐसे में कई महीनों से शादी की तैयारी, जिस में रातभर जागना, परिवार के साथ समय बिताना आदि कई सारी चीजें शामिल होती हैं.

इस के अलावा आजकल अधिकतर लड़कियां वर्किंग हैं और लगातार शादी की तैयारियों से वे इतनी थक जाती हैं कि शादी को अंत तक ऐंजौय नहीं कर पातीं.

असल में आज की लड़की आजादी पसंद करती है. ऐसे में शादी के बाद आने वाले कमिटमैंट्स और परिवर्तन से कुछ हद तक स्ट्रेस पाल लेती हैं. ऐसे में अकसर शादी से कुछ हफ्ते पहले उन में कई प्रकार की समस्या दिखने लगती है, मसलन नींद न आना, शादी से जुड़े देर तक चलने वाले कार्यक्रम में भाग लेने की स्ट्रेस, आखिरी मिनट की खरीदारी और भावनाओं का एक निरंतर भंवर चलता रहता है.

यही वजह है कि उत्साह और खुशी होने के बावजूद कई दुलहनें खुद को थका हुआ, चिंतित या कभीकभी अस्वस्थ भी महसूस करती हैं.

इस बारे में मुंबई की कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हौस्पिटल की इंटर्नल मैडिसिन और ऐग्जीक्यूटिव हैल्थ चेकअप कंसल्टेंट, डाक्टर संदीप दोशी कहते हैं कि शादी के पहले की इस अवस्था को ‘ब्राइडल फटीग’ यानि शादी की तैयारियों के दौरान होने वाली थकान कहते हैं.

इस के पीछे के मुख्य कारण बहुत ही स्पष्ट और सरल हैं- अनियमित समय पर खाना, सोना और अनुचित आहार लेना.

डाक्टर कहते हैं कि शादी की तैयारियों की भागदौड़ में कई बार फंक्शन, सोशल इवेंट्स या उपवास आदि परंपराओं के कारण खाना न खाना या देर से खाना आम बात है, लेकिन जब शरीर को पर्याप्त प्रोटीन और तरल पदार्थ नहीं मिलते हैं, तो ऊर्जा का स्तर कम हो जाता है. एक दुलहन के आहार में दूध, दही और प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए, ताकि उस की ताकत और चमक बनी रहे.

सही नींद लेना

इस के आगे डाक्टर कहते हैं कि शादी से पहले दुलहन के लिए पर्याप्त नींद लेना जरूरी होता है. इसे शादी से 1 महीने पहले से शुरू कर देना चाहिए, जो तकरीबन 8 घंटे का आराम होना चाहिए. सोने के लिए आदर्श समय रात 11 बजे से सुबह 7 बजे तक है और इस दिनचर्या का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए. सही और पर्याप्त आराम न केवल शरीर को तरोताजा करता है, बल्कि भावनाओं और मानसिक स्पष्टता को संतुलित करने में भी मदद करता है.

करवाएं जांच

अच्छे स्वास्थ्य की शुरुआत जागरूकता से होती है. शादी से कम से कम 1 महीने पहले कुछ सरल ब्लड टेस्ट करवाना सही होता है, जैसे, आयरन, विटामिन बी12, विटामिन डी, फोलिक एसिड की जांच करवा लेना चाहिए. ये परीक्षण किसी भी कमी या पोषण की कमी को जल्दी पहचानने में मदद करते हैं. सही सप्लिमेंट्स और उपचार के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. इस के अलावा जिन दुलहनों को पहले से ही डायबिटीज या थायराइड जैसी स्वास्थ्य समस्याएं हैं, उन्हें शादी के दिन से काफी पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उन की इन दोनों बीमारियों का स्तर नियंत्रण में है, ताकि उन्हें बाद में अधिक भागदौड़ से थकान का अनुभव न हो.

करें हलकीफुलकी वर्कआउट

सही खानपान और पूरी नींद के बाद रोजाना हलकीफुलकी कसरत और आराम को अपनी दिनचर्या में शामिल करने से आप के स्वास्थ्य में जबरदस्त सुधार हो सकता है. 45 से 50 मिनट तक किए जाने वाले कार्डियो व्यायाम जैसे तेज चलना, जौगिंग, तैरना या साइकिल चलाना सही है. तेज चलने की गति 5.5 किलोमीटर प्रति घंटा हो. इस दौरान स्ट्रेंथ ट्रेनिंग या भारी वजन उठाने की सलाह नहीं दी जाती, क्योंकि मांसपेशियों को बढ़ाने के बजाय स्टैमिना और लचीलेपन पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए.

वजन कम करने की न करें कोशिश

दुलहनों की अकसर की जाने वाली एक सब से बड़ी गलती आखिरी वक्त में वजन कम करने की कोशिश होती है. क्रैश डाइट या अचानक शुरू किए गए कीटो प्लान से कमजोरी, चक्कर आना आदि के अलावा कुछ बीमारी भी हो सकती है. असली फिटनैस और खूबसूरती पोषण से आती है, न कि खुद को खाने से दूर रखने से संभव होता है.

यदि वजन कम करने की आवश्यकता है, तो इस की योजना आखिरी 4 हफ्तों में नहीं, बल्कि महीनों पहले से बना लेनी चाहिए.

भावनात्मक रूप से बने मजबूत

शादी जिंदगी को बदलने वाला और खुशी देने वाला कदम है. ऐसे में भावनात्मक उतारचढ़ाव, तनाव और चिंता होना बहुत स्वाभाविक होता है.

ऐक्सपर्ट की सलाह ले कर शादी से पहले होने वाले तनाव को बेहतर ढंग से संभाला जा सकता है. इस से एक लड़की भावनात्मक रूप से मजबूत महसूस करेगी और शादी की तैयारियों और पूरी प्रक्रिया का उत्साह और खुशी के साथ आनंद ले सकेगी.

करवाएं जांच

शादी से 1 महीने पहले स्वास्थ्य की जांच पर विचार करना सब से अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस से किसी भी संभावित आनुवंशिक विकारों या पुरानी संक्रामक बीमारियों का पता लगाने में मदद मिलती है. इस का उद्देश्य संक्रामक रोगों या यौन संचारित रोगों के होने के जोखिम को रोकना होता है. अगर स्वास्थ्य संबंधी कोई बीमारी है, तो उस का इलाज पहले किया जा सकता है.

इस प्रकार शादी से करीब 1 महीने पहले हर लड़की को शारीरिक और मानसिक मजबूती को बनाए रखने के लिए ऐक्सपर्ट की राय लेनी चाहिए, ताकि आप शादी की पूरी प्रक्रिया का भरपूर आनंद ले सकें.

इन सभी आदतों को फौलो कर लेने से शादी के दिन दुलहन न केवल सुंदर दिखती है, बल्कि अंदर और बाहर, दोनों तरफ से आत्मविश्वासी और खिली हुई महसूस करती है.

Wedding Stress

Deepika Padukone: हौलीवुड फिल्में अपनी शर्तों पर करूंगी

Deepika Padukone: दीपिका पादुकोण उन दिग्गज हीरोइनों में से एक हैं जिन्होंने अपने कैरियर के शुरुआत में ही सुपर हिट ऐक्टर शाहरुख खान के साथ डबल रोल वाली सफल फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में काम कर के पूरी लाइमलाइट बटोर ली थी. उस के बाद दीपिका ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और एक के बाद एक हिट फिल्में देती चली गईं, फिर चाहे वह ‘पद्मावती’ हो, ‘पठान हो’, संजय लीला भंसाली की ‘रामलीला’ हो या ‘चैन्नई एक्सप्रेस’ और ‘पठान’ हो, कुछ ही सालों में दीपिका ने बौलीवुड में इतनी खास जगह बना ली कि उन्होंने अपने शर्तों पर काम करना शुरू कर किया.

नाम भी पैसा भी

रणवीर सिंह से शादी और एक बेटी के जन्म के बाद दीपिका पादुकोण ने जहां किसी फिल्म के लिए 8 घंटे ही शूटिंग करने की शर्त रखी, वहीं हौलीवुड फिल्मों में काम करने को ले कर भी दीपिका ने बड़ा बयान दिया.

दीपिका के अनुसार,”मैं 2017 में विन डीजल के साथ फिल्म ‘ऐक्स ऐक्स ऐक्स रिटर्न औफ जैंडर केज’ से हौलीवुड में कदम रखा था. उस के बाद मैं ने कई इंटरनैशनल ब्रैंड साइन किए थे और ग्लोबल मंच पर अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराई थी लेकिन उस के बाद मैं हौलीवुड फिल्में नहीं कीं क्योंकि वहां पर मैं ने रंग भेदभाव भी देखा. ऐसा भेदभाव मेरे साथ भी हुआ. मैं भारत को दुनिया के सामने लाने को ले कर स्पष्ट थी लेकिन जिस भारत को मैं जानती हूं, मुझे वहां ऐसा नहीं दिखा.”

दीपिका के अनुसार, “ग्लोबल औडियंस के हिसाब से हौलीवुड में ऐसा काम करना जो मैं नहीं करना चाहती, भारतीय कलाकारों के लिए छोटे किरदार होना जैसी हम से उम्मीद की जाती थी मैं वैसा काम नहीं करना चाहती थी. वहां पर भारतीयों के बारे में वही पुरानी घिसीपिटी छवि है. फिर चाहे वह कास्टिंग को ले कर हो, रंग को ले कर हो या बोलने के तरीके को ले कर. यही वजह है कि हमें वह काम नहीं मिला जिस की उम्मीद मैं ने की थी. मैं पहले भी स्पष्ट थी और आज भी स्पष्ट हूं की बौलीवुड हो या हौलीवुड मैं वही काम करना पसंद करूंगी जो मुझे करना है. बेशक इस में थोड़ा समय लगेगा लेकिन मुझे खुद पर और अपने काम पर भरोसा है.”

गर्व महसूस हुआ

हाल ही दीपिका ने अपने एक इंटरनैशनल ब्रैंड के अभियान को याद करते हुए  बताया कि जब सनसेट बुलेवार्ड पर जगहजगह मैं ने अपनी होल्डिंग लगी देखी तो मुझे थोड़ा अजीब भी लगा और गर्व भी महसूस हुआ. उस वक्त मुझे एक भारतीय महिला की जीत जैसा महसूस हुआ.

आने वाली फिल्में

फिलहाल अगर दीपिका पादुकोण के वर्क फ्रंट की बात करें तो वे शाहरुख खान के साथ फिल्म ‘किंग’ में नजर आएंगी. इस के अलावा दीपिका साउथ मेकर एटली और अल्लू अर्जुन की फिल्म ‘AA22×A6’ फिल्म भी कर रही हैं, जो आने वाले समय में रिलीज होगी.

Deepika Padukone

पति को मां के हाथ का खाना है ज्यादा पसंद, ऐसे में पत्नियां क्यों न हों नाराज

Family Matters: ज्यादातर बच्चों को अपनी मां के हाथ से बने खाने का स्वाद दिलोदिमाग पर इतना छाया रहता है कि शादी बाद उन को अपनी पत्नी का बनाया हुआ खाना बेस्वाद लगने लगता है. ऐसे में शुरुआत होती है झगड़े की, क्योंकि जब वही पत्नियां पूरे दिल से मेहनत कर के पति के लिए कुछ स्वादिष्ठ पकवान बनाती हैं और पति यह कह कर रिजैक्ट कर देता है कि उस को तो अपनी मां के हाथ का बना खाना ही स्वादिष्ठ लगता है, पत्नी के हाथ का नहीं तो ऐसे में पत्नी का नाराज होना जायज ही है.

ऐसे में, पत्नी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है और कई बार तो कई पत्नियां गुस्से में खाना बनाना ही छोड़ देती हैं, हालांकि कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिन्हें बाहर का जंक फूड, मैगी, पिज्जा, बर्गर आदि ज्यादा पसंद होता है. फिर मां चाहे जितना अच्छा खाना बनाए बच्चे बाहर का खाना ही खाना पसंद करते हैं.

ऐसा क्यों होता है

ऐसा इसलिए भी होता है कि पत्नी, मां के हाथ का बना खाना या जंक फूड खाने की बात नहीं होती, बल्कि मुंह में लगे स्वाद की बात होती है जिस को जो खाना पसंद आता है वह बारबार वही खाना खाना पसंद करता है. फिर चाहे वह खाना मां के हाथ का हो, जंक फूड हो या बीवी के हाथ का ही खाना क्यों न हो.

बच्चे शुरू से ही मां के हाथ का खाना खाते हैं, भले फिर वह कच्चापक्का खाना ही क्यों न बनाएं, लेकिन उस खाने का स्वाद बच्चे की जबान पर चढ़ जाता है और इसीलिए उस को अपनी मां के हाथ का बना खाना खाना ही अच्छा लगता है.

खाने की आदत

ऐसे में अगर पत्नी का बनाया खाना उस को खाना पड़ता है तो पति नाकभौंह सिकोड़ कर कह देता है कि तुम मेरी मां जैसा खाना बना ही नहीं सकती. हालांकि यही बेटा जब 60 की उम्र के पास पहुंचता है, तो उस की पत्नी के हाथ का खाना अपनी बहू के हाथ के बने खाने से ज्यादा अच्छा लगने लगता है, क्योंकि तब तक उस को पत्नी के हाथ से बने खाने की आदत हो जाती है.

दरअसल, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जो खाना हम हमेशा खाते हैं उस का टैस्ट जीभ के ग्लैड की मैमोरी में फिट हो जाता है और फिर हमें वही खाना अच्छा लगता है जो जीभ के ग्लैड यानि ग्रंथि से जुड़ा होता है, जैसेकि मुंबई में मुंबई का प्रसिद्ध वङापाव, भेलपूरी, गोलगप्पे हर जगह मिलते हैं लेकिन फिर भी लोग उसी जगह जा कर खाना पसंद करते हैं जहां का वङापाव या चाट का टैस्ट उन की जबान पर चढ़ा होता है.

स्वाद से ज्यादा जज्बात

ऐसे ही दिल्ली में एक सीताराम भटूरे की दुकान है, जहां पर छोलेकुलचे बहुत अच्छे मिलते हैं. कई सारे दिल्लीवासी वहां पर छोलेभटूरे खाने जाते हैं क्योंकि उस का स्वाद उन की जबान पर चढ़ा हुआ है.

जहां तक मां के हाथ के खाने का सवाल है तो वहां पर स्वाद से भी ज्यादा जज्बात जुड़े होते हैं, इसीलिए बच्चों को ज्यादातर अपनी मां के हाथ का बना खाना ज्यादा पसंद होता है और वह खाना खाने के बाद ही उन को सुकून और आत्मसंतुष्टि मिलती है.

Family Matters 

Drama Story: कीमत- क्या थी वैभव की कहानी

Drama Story: वैभव खेबट एक दिन के लिए मुंबई गया था. उसे विदा करने के बाद उस की पत्नी नेहा और भाभी वंदना घर से बाहर जाने को तैयार हो गईं.

‘‘कोई भी मुश्किल आए, तो फोन कर देना. हम फौरन वहीं पहुंच जाएंगे,’’ इन की सास शारदा ने दोनों को हौसला बढ़ाया.

‘‘इसे संभाल कर रख लो,’’ ससुर रमाकांत ने एक चैकबुक वंदना को पकड़ाई, ‘‘मैं ने 2 ब्लैंक चैक साइन कर दिए हैं. आज इस समस्या का अंत कर के ही लौटना.’’

‘‘जी, पिताजी,’’ एक आत्मविश्वासभरी मुसकान वंदना के होंठों पर उभरी.

दोनों बहुओं ने अपने सासससुर के पैर छू कर आशीर्वाद लिया और दरवाजे की तरफ चल पड़ीं. रमाकांत जब से शहर आए हैं, शहरी बन कर जी रहे हैं पर उन के पिता गांव के चौधरी थे और जानते थे कि टेढी उंगली से घी निकालना आसान नहीं है पर निकाला जा सकता है. वे तो कितने ही चुनाव जीत चुके थे और उन के चेलेचपाटे हर तरफ बिखरे पड़े थे. वे अपने बेटे की जिंदगी बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.

कार से उन्हें रितु के फ्लैट तक पहुंचने में 40 मिनट का समय लगा.

‘‘नेहा, ध्यान रहे कि तुम्हें उस के सामने कमजोर नहीं दिखना है. नो आंसुं, नो गिड़गिड़ाना, आंखों में नो चिंता, ओके.’’ वंदना ने रितु के फ्लैट के दरवाजे के पास पहुंच कर अपनी देवरानी को हिदायतें दीं.

‘‘ओके,’’ नेहा ने मुसकराने के बाद एक गहरी सांस खींची और आने वाली चुनौती का सामना करने को तैयार हो गई.

मैजिक आई में से उन दोनों को देखने के बाद रितु ने दरवाजा खोला और औपचारिक सी मुसकान होंठों पर सजा कर बोली, ‘‘कहिए.’’

‘‘रितु, मैं वंदना खास हूं और यह मेरी देवरानी नेहा है,’’ वंदना ने शालीन लहजे मैं उसे परिचय दिया.

नामों से उन दोनों को पहचानने में रितु को कुछ देर लगी, पर जब नामों का महत्त्व उस की समझ में आया, तो उस के चेहरे का रंग एकदम से फीका पड़ गया था.

‘‘मुझ से क्या काम है आप दोनों को?’’ अपनी आवाज में घबराहट के भावों को दूर रखने की कोशिश करते हुए उस ने सवाल किया.

‘‘तुम ने शायद अभी तक हमें पहचाना नहीं है?’’

‘‘आप वैभव सर की भाभी और ये सर की वाइफ हैं न.’’

‘‘करैक्ट,’’ वंदना ने उस की बगल से हो कर फ्लैट के अंदर कदम रखा, ‘‘आगे की बात हम अंदर बैठ कर करें, तो तुम्हें कोई एतराज होगा?’’ “आइए,” अब घबराहट की जगह चिंता के भाव रितु की आवाज में पैदा हुए और उस ने एक तरफ हो कर वंदना व नेहा को अंदर आने का पूरा रास्ता दे दिया.

ड्राइंगरूम में उन दोनों के सामने सोफे पर बैठते हुए रितु ने पूछा, ‘‘आप चाय या कुछ ठंडा लेंगी?’’

‘‘नो, थैंक्स, हम जो बात करने आए हैं, उसे शुरू करें?’’ वंदना एकदम से गंभीर हो गई.

‘‘करिए,’’ रितु ने बड़ी हद तक अपनी भावनाओं नियंत्रित कर लिया था.

वंदना ने अर्थपूर्ण लहजे में नेहा की तरफ देखा. नेहा ने एक बार अपना गला साफ किया और रितु से मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम सचमुच किसी फिल्मस्टार जैसी सुंदर हो. वैभव को अपने प्रेमजाल में फंसाना तुम्हारे लिए बड़ा आसान रहा होगा.’’

‘‘न, न, सफाई दे कर इस आरोप से बचने की कोशिश मत करो, रितु,’’ वंदना ने रितु को कुछ बोलने से पहले ही टोक दिया, ‘‘इन तसवीरों को देख लोगी, तो हम सब का काफी वक्त बरबाद होने से बच जाएगा. इन के प्रिंट कुछ दिनों पहले ही लिए गए हैं. मोबाइल पर और बहुत सी हैं.” और वंदना ने अपने बैग से निकाल कर कुछ तसवीरें रितु को पकड़ा दीं.

उन पर नजर डालने के बाद पहले तो रितु डर सी गई, लेकिन धीरेधीरे उस की आंखों से गुस्सा झलकने लगा. उस ने तसवीरें मेज पर फेंक दीं और खामोश रह कर उन दोनों की तरफ आक्रामक नजरों से देखने लगी.

‘‘इन तसवीरों से साफ जाहिर हो जाता है कि तुम वैभव की रखैल हो और…’’

‘‘आप तमीज से बात कीजिए, प्लीज,’’ रितु ने वंदना को गुस्से से भरी आवाज में टोक दिया.

‘‘आई एम सौरी, पर शादीशुदा आदमी से संबंध रखने वाली स्त्री को रखैल नहीं तो फिर क्या कहते हैं, रितु?’’

‘‘आप दोनों यहां से चली जाओ. मैं इस बारे में कोई भी बात वैभव की मौजूदगी में ही करूंगी.’’

‘‘ऐसा,’’ वंदना झटके से उठी और रितु का हाथ मजबूती से पकड़ कर बोली, ‘‘आओ, मैं इस खिडक़ी से तुम्हें कुछ दिखाना चाहती हूं.’’

रितु को लगभग खींचती सी वंदना खुली खिडक़ी के पास ले आई और नीचे सडक़ पर खड़े एक व्यक्ति की तरफ इशारा कर बोली, ‘‘यह आदमी रुपयों की खातिर कुछ भी कर सकता है और दौलत की हमारे पास कोई कमी नहीं है. इस तथ्य से तुम भलीभांति परिचित न होतीं, तो वैभव को अपने जाल में फंसाती ही नहीं.’’

‘‘आज यह आदमी हमारे साथ तुम्हारा फ्लैट देखने आया है. हमें उंगली टेढ़ी करने को मजबूर मत करो, नहीं तो अपने भलेबुरे के लिए तुम खुद जिम्मेदार होगी.’’

वंदना ने उसे से धमकी धीमी पर बेहद कठोर आवाज में दी थी. एक बार को तो ऐसा लगा कि रितु भडक़ कर तीखा जवाब देगी, पर उस ने ऐसा करना उचित नहीं समझा और वापस अपनी जगह आ बैठी.

जब रितु ने कुछ और बोलने के लिए मुंह नहीं खोला तो नेहा ने वार्त्तालाप आगे बढ़ाया, ‘‘हमारी तुम से कोई दुश्मनी नही है, रितु, लेकिन हम आज इस समस्या का स्थाई हल निकाल कर ही यहां से जाएंगी. हमें उम्मीद है कि तुम ऐसा करने में अपना पूरा सहयोग दोगी.’’

‘‘मुझ से कैसा सहयोग चाहिए?’’ रितु ने माथे में बल डाल कर पूछा.

‘‘तुम्हारे इस सवाल का जवाब देने से पहले मैं तुम से कुछ पूछना चाहती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हें वैभव चाहिए या उसे छोड़ कर उस की जिंदगी से बहुत दूर चली जाने की अच्छीखासी कीमत.’’

‘‘क्या मतलब?’’ रितु जोर से चौंक पड़ी.

‘‘मतलब मैं समझाती हूं,’’ वंदना बीच में बोल पड़ी, ‘‘देखो, अगर तुम्हें विश्वास हो कि वैभव और तुम्हारे बीच प्यार की जड़ें मजबूत और गहरी हैं, तो तुम उसी को चुनो. नेहा वैभव को तलाक दे देगी क्योंकि वह उसे किसी के भी साथ बांटने को तैयार नहीं है. लेकिन अगर तुम वैभव के साथ सिर्फ मौजमस्ती के लिए प्रेम का खेल खेल रही हो, तो हम तुम्हें इस खेल को सदा के लिए खत्म करने की कीमत देने को तैयार हैं.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि तुम वैभव को आसानी से तलाक देने के लिए तैयार हो जाओगी,’’ कुछ पलों के सोचविचार के बाद रितु ने नेहा को घूरते हुए ऐसी शंका जाहिर की, तो देवरानी व जेठानी दोनों ठहाका मार कर इकट्ठी हंस पड़ीं.

अपनी हंसी पर काबू पाते हुए नेहा ने जवाब दिया, ‘‘यू आर वेरी राइट, रितु. जिस इंसान के साथ मैं 5 साल से शादी कर के जुड़ी हुई हूं और जो मेरी 2 साल की बेटी का पिता है, यकीनन उसे मैं आसानी से तलाक नहीं दूंगी. मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी इस काम को करने के लिए.’’

‘‘तुम्हें कैसी मेहनत करनी पड़ेगी,’’ रितु की आंखों में उलझन के भाव उभरे.

‘‘मुझे वैभव के मन में अपने लिए इतनी नफरत पैदा करनी पड़ेगी कि वह मुझे तलाक देने पर तुल जाए. उस के दिल को बारबार गहरे जख्म देने पड़ेंगे, माई डियर.’’

‘‘और यह काम तुम कैसे करोगी?’’

‘‘बड़ी आसानी से. तुम उसे अगर बहुत प्यारी होगी, तो वह तुम्हें दुख और परेशान देख कर जरूर गुस्से और नफरत से धधकता ज्वालामुखी बन जाएगा.’’

वंदना ने उस की बात का आगे खुलासा किया, ‘‘नेहा रोज तुम से मिलना शुरू कर देगी. तुम्हें तंग करने और तुम्हारा नुकसान करने का कोई मौका यह नहीं चूकेगी. वैभव इसे मना करेगा पर यह न मानेगी. बस, कुछ दिनों में ही वैभव इस से बहुत ज्यादा खफा हो कर तलाक लेने की जिद पकड़ लेगा और तुम्हारी लौटरी निकल आएगी.’’

‘तुम दोनों पागल हो. प्लीज, मेरा दिमाग न खराब करो और यहां से जाओ,’’ रितु ने चिढ़े अंदाज में उन के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘इस ने मुझे पागल कहा है. मैं पागल नहीं हूं,’’ नेहा अचानक ही जोर से चिल्लाई और उस की अगली हरकत रितु का खून सुखा गई. गुस्से से कांप रही नेहा ने पास में रखा सुंदर फूलदान उठाया और उसे फर्श पर पटक कर चूरचूर कर दिया.

फूलदान के टूटने की आवाज में बुरी तरह से डरी हुई रितु के चीखने की आवाज दब गई थी.

‘‘जैसे चोर को चोर कहो तो वह गुस्सा हो जाता है, वैसे ही पागल हो पागल कहो तो वह नाराज हो उठता है. इस फूलदान के टूटने की टैंशन मत लो. हर टूटफूट को मैं नोट कर रही हूं और उन की कीमत चुका कर जाऊंगी,’’ वंदना ने धीमी आवाज में रितु से कहा और फिर बैग से डायरी निकाल कर उस में पैन से फूलदान की कीमत एक हजार रुपए लिख ली.

नेहा ने टूटे फूलदान का जोड़ीदार मेज पर से उठाया और कमरे में इधर से उधर चहलकदमी करने लगी. बीचबीच में वह जब भी रितु को घूर कर देखती, तो उस बेचारी का डर के मारे दिल कांप जाता.

‘‘टैंशन मत लो, यार. ये इंसानों के साथ हिंसा नहीं करती है,’’ वंदना की इस सलाह को मानते हुए नेहा अपनी जगह आ कर बैठ गई.

कुछ देर तो नेहा ने रितु को गुस्से से घूरना जारी रखा. फिर अचानक बड़ी प्यारी सी मुसकान वह अपने होंठों पर लाई और उस से पूछा, ‘‘तो मेरी सौतन को वैभव चाहिए, या उसे छोडऩे की कीमत.’’

‘‘म…मैं वैभव की जिंदगी से निकल जाऊंगी,’’ रितु ने थूक सटकते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड, वैरी गुड,’’ नेहा ने खुश हो कर ताली बताई, ‘‘लेकिन हमें कैसे विश्वास हो कि तुम सच कह रही हो.’’

‘‘मैं सच ही बोल रही हूं.’’

‘‘भाभी, क्या हमें इस की बात पर विश्वास कर लेना चाहिए,’’ नेहा वंदना की तरफ घूमी.

‘‘हमारा विश्वास है कि ये अपने कार्यों से जीतेगी, न कि सिर्फ बातों से,’’ वंदना ने अजीब सा मुंह बनाते हुए जवाब दिया.

‘‘हमारे गांवों में जब भी चौपाल पर फैसले होते थे, लोग तब तो हां कर देते थे पर बाद में मुकर जाते थे. हां, जिन औरतों के मर्द दूसरी औरतों के चक्कर में पड़ जाते थे वे तो देवी आने का नाटक बहुत दिनों तक कर सकती थीं. कौन जाने कितनी असल में मानसिक बीमार होती थीं, कितनी स्वांग करती थीं. नेहा ने कहां, क्या सीखा, मैं नहीं जानती.’’

‘‘और हमारा विश्वास जीतने वाले कार्य क्या हैं, भाभी?’’

‘‘नौकरी से इस्तीफा देने के बाद इस शहर को हमेशा के लिए छोड़ कर जाना.’’

‘‘तुम पाग…’’ फूलदान वाली घटना को याद कर रितु ने अपनी जबान को शब्द पूरा करने से रोका और उन से झगड़ालू लहजे में बोली, ‘‘जो काम हो नहीं सकता, उसे करने के लिए मुझे मत कहो. मैं अपनी अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

वंदना ने अपने मोबाइल पर एक नंबर मिलाते हुए रितु से कहा, ‘‘मेरे ससुर मिस्टर आनंद खेवट की सोसाइटी में बड़ी धाक है और उन की पहुंच ऊंचे लोगों तक है. उन्होंने तुम्हारा तबादला तुम्हारी होम सिटी बेंगलुरु की शाखा में करा दिया है. मैं तुम्हारे एमडी मिस्टर राजन से तुम्हारी बात कराती हूं.’’ तुम जानती हो न रिजर्वेशन वालों का समाज कई बार एकजुट हो जाता है.

संपर्क स्थापित होते ही वंदना ने मिस्टर राजन से कहा, ‘‘सर, मैं आनंद खेबट की बड़ी बहू वंदना बोल रही हूं. उन्होंने आप से बात…जी, मैं रितु को फोन देती हूं. थैंक यू वैरी मच, सर.’’

वंदना ने मोबाइल रितु को पकड़ा दिया था. उस बेचारी को अपने एमडी से मजबूरन बात करनी पड़ी.

‘‘गुड मौर्निंग सर. …नहीं सर, यह तो मेरे लिए अच्छी खबर है. सर, क्या मैं आज ही चार्ज दे सकती हूं. आई एम ग्रेटफुल टु यू, सर. थैंक यू वैरी मच, सर. गुड डे टु यू, सर.’’

वंदना का मोबाइल वापस करते हुए उस ने हैरान लहजे में पूछा, ‘‘जिस तबादले के लिए मैं सालभर से नाकाम कोशिश कर रही थी, उसे इतनी आसानी से तुम लोगों ने कैसे करा लिया?’’

‘‘अभी तुम ने देखा ही क्या है. अब इसे भी लगेहाथ संभाल लो,’’ उस की प्रशंसा को नजरअंदाज करते हुए वंदना ने बेंगलुरु का एक प्लेन टिकट उसे पकड़ा दिया, “इस का बोर्डिंग पास भी ले लिया गया है.”

‘‘यह आज शाम की फ्लाइट है,’’ नेहा ने अपनी आवाज में नकली मिठास घोल कर उसे समझाया.

‘‘इस तरह की जोरजबरदस्ती मैं नहीं सहूंगी. मैं तुम लोगों के साथ सहयोग करने को तैयार हूं, पर अपनी सहूलियत को ध्यान में रख कर ही मैं बेंगलुरु जाने का कार्यक्रम बनाऊंगी,’’ रितु एकदम से चिढ़ उठी.

‘‘अपनी सहूलियत का ध्यान रखोगी तो तुम्हारा 5 लाख रुपए का नुकसान हो जाएगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम्हारी जिंदगी को अस्तव्यस्त करने वाली इतनी ज्यादा हलचल पैदा करने का हम इतना ही मुआवजा तुम्हें देना चाहते हैं.’’

‘‘रियली.’’

‘‘यैस.’’

‘‘लेकिन, मुझे पैकिंग करनी होगी, चार्ज देने औफिस भी जाना है. मुझे 2-3 दिन का समय…’’

‘‘कतई नहीं मिलेगा,’’ वंदना ने उसे टोक दिया, ‘‘यह डील इसी बात पर निर्भर करती है कि तुम आज ही वैभव की जिंदगी से सदा के लिए निकल जाओ. फिर एक सूटकेस को पैक करने में देर ही कितनी लगती है.’’

‘‘मेरे बाकी के सामान का क्या होगा.’’

‘‘उसे कभी बाद में आ कर ले जाना. हम दोनों आज भी पैकिंग कराने में तुम्हारी हैल्प करेंगी और उस दिन भी जब तुम बाकी का सामान लेने वापस आओगी.’’

‘‘मेरा सारा जरूरी सामान एक सूटकेस में नहीं आएगा.’’

‘‘तुम किसी नई जगह नहीं, बल्कि अपने मातापिता के घर जा रही हो. फिर 5 लाख रुपयों से तुम मनचाही खरीदारी कर सकती हो.’’

‘‘मुझे इस फ्लैट का किराया देना है.’’

‘‘वह भी हम दे देंगे और तुम्हारे 5 लाख रुपए में से वह रकम काटेंगे भी नहीं. और कोई समस्या मन में पैदा हो रही हो, तो बताओ.’’

रितु को इस सवाल का कोई जवाब नहीं सूझा, तो वंदना और नेहा दोनों की आंखों में सख्ती के भाव उभर आए.

पहले वंदना ने उसे चेतावनी दी, ‘‘इस फ्लैट का अगले 3 महीने तक किराया हम देंगे. तुम्हारे सामान को बेंगलुरु तक भिजवाने का खर्चा भी हमारे सिर होगा. तुम्हारा ट्रांसफर मनचाही जगह हो ही गया है. ऊपर से तुम्हें 5 लाख रुपए और मिलेंगे.’’

‘‘इन सब के बदले में हम इतना चाहते हैं कि तुम वैभव की जिंदगी से पूरी तरह से निकल जाओ. न कभी उसे फोन करना, न कभी उस के फोन का जवाब देना. क्या तुम्हें हमारी यह शर्त मंजूर है?’’

रितु कुछ जवाब देती उस से पहले नेहा बोल पड़ी, ‘‘रितु, तुम्हारे मन में हमें डबल क्रौस कर वैभव से किसी भी तरह जुड़े रहने का खयाल आ सकता है. उस स्थिति में तुम हमारी यह चेतावनी ध्यान रखना.’’

‘‘वैभव की दौलत तुम्हें उस की तरफ आकर्षित करती है, तो उस दौलत के ऊपर हम दोनों का भी हक है, यह तुम कभी मत भूलना. आज हम वैभव की गलती का मुआवजा तुम्हें खुशी से दे रहे हैं. अगर कल को तुम ने हमें धोखा दिया, तो उस की दौलत की ताकत के बल पर हम तुम्हारा भारी नुकसान करने में जरा भी नहीं हिचकिचाएंगी.’’

‘‘मैं वैभव सर से कोई संबंध नहीं रखूंगी,’’ नेहा की आंखों से फूट रही चिनगारियों से घबरा कर रितु ने फौरन वादा किया और फिर हिम्मत कर के आगे बोली, ‘‘लेकिन मुझे 5 लाख रुपए की रकम मिल जाएगी, मैं इस बात का कैसे विश्वास करूं?’’

‘‘अगर हमारा चैक बाउंस हो जाए, तो तुम भी अपना वादा तोड़ कर वैभव से फिर संबंध जोड़ लेना.’’

‘‘ठीक बात है. मुझे रुपए मिल गए तो मैं उन की जिंदगी से हमेशा के लिए निकल जाऊंगी.’’

‘‘क्या तुम सच बोल रही हो?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘हमें किसी तरह की शिकायत ले कर तुम से मिलने बेंगलुरु तो नहीं आना पड़ेगा?’’

‘‘न…नहीं.’’

‘‘अपना भलाबुरा पहचानती हो, तो अपने इस वादे को कभी न तोडऩा,’’ नेहा ने अचानक ही दूसरा फूलदान उठा कर फर्श पर दे मारा, तो रितु की इस बार भी चीख निकल गई.

वे दोनों रितु को गुस्से से घूर रही थीं. बुरी तरह से डरी रितु उन की आंखों में देखने की हिम्मत पैदा नहीं कर सकी और उस ने नजरें झुका लीं.

‘‘अब उठो और फटाफट पैकिंग करनी शुरू करो,’’ वंदना के इस आदेश पर रितु फौरन उठ कर अपने शयन कक्ष की तरफ चल पड़ी थी.

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