तोहफा: पति के जाने के बाद शैली ने क्यों बढ़ाई सुमित से नजदीकियां

शैली एकटक बादलों की तरफ देख रही थी और सोच रही थी कि बहती हवाओं के साथ बदलती आकृतियों में ढलते रुई के फाहों से ये बादल के टुकड़े मन को कितना सुकून देते हैं. लगता है जैसे अपना ही वजूद वक्त के झोंकों के साथ कभी सिमट रहा है, तो कभी नए आयामों को छूने का प्रयास कर रहा है. एक अजीब सा स्पंदन था उस के मन के हर कोने में. लोग कहते हैं, प्रेम की उम्र तो बस युवावस्था में ही होती है. मगर शैली उस की अल्हड़ता को इस उम्र में भी उतनी ही प्रगाढ़ता से महसूस कर रही थी. उस का मन तो चाह रहा था कि वह भी हवा के झोंकों के साथ उड़ जाए. वहां जहां किसी की भी नजर न पड़े उस पर. बस वह हो और उस के एहसास.

वह बचपन से आज तक अपनी जिंदगी अपने ही तरीकों से जीती आई है. कभी जिंदगी की गति को चंद पड़ावों में  नहीं बांटा वरन नदी के प्रवाह की तरह बह जाने दिया. उस दिन सुमित ने उसे छेड़ा था, ‘‘तुम दूसरों जैसी बिलकुल भी नहीं, काफी अलग तरह से सोचती हो और अपनी जिंदगी के प्रति तुम्हारा रवैया भी बहुत अलग है…’’

‘‘हां सच कहा. वैसे होता तो यही है कि लोगों की जिंदगी की शुरुआत में ही तय कर दिया जाता है कि इस उम्र में पढ़ाई पूरी करनी है, उस उम्र में शादी, बच्चे और फिर उम्र भर के लिए उसी रिश्ते में बंधे रहना. भले ही खुशी से ज्यादा गम ही क्यों न मिले. मैं घिसेपिटे फौर्मूले से अलग जीना चाहती हूं, इसलिए स्वयं को एक मकसद के हवाले कर दिया. मकसद के बगैर इंसान कितना अधूरा होता है न.’’ ‘‘पर मुझे तो लगता है कि जो इंसान अधूरा होता है, वही जीने के लिए मकसद तलाशता है.’’

सुमित ने उस की कही बात की खिल्ली उड़ाने जैसी बात कही थी पर वह सुमित के इस कथन से स्वयं को विचलित होता दिखाना नहीं चाहती थी. उस ने स्वयं को समझाया कि बिलकुल विपरीत सोच है सुमित की, तो इस में बुराई क्या है? नदी के 2 किनारों की तरह हम भी नहीं मिल सकते पर साथ तो चल सकते हैं. उस ने सुमित से बस इतना कहा था,   ‘‘क्या इंसान को पूर्ण होने के लिए दूसरे की मदद लेनी जरूरी है? क्या प्रकृति ने इंसान को पूर्ण बना कर नहीं भेजा है? लोग यह क्यों समझते हैं कि जीवनसाथी के बगैर व्यक्ति अधूरा है.’’

‘‘मैं ने यह तो नहीं कहा,’’ सुमित ने प्रतिरोध किया.

‘‘मगर तुम्हारे कहने का अर्थ तो यही था.’’

‘‘नहीं ऐसा नहीं है. तुम ने मेरी बात को उसी रूप में घुमा लिया जैसा तुम दूसरों को बोलते सुनती हो.’’

फिर थोड़ी देर शैली खामोश रही तो सुमित ने उसे छेड़ते हुए पूछा, ‘‘एक बात बताओ शैली, तुम्हें इतना बोलना क्यों पसंद है? कभी खामोश रह कर भी देखो. उन लमहों को महसूस करो जिन्हें वैसे कभी महसूस नहीं कर सकतीं. बहुत सी बातें और यादें एकएक कर तुम्हारे जेहन में खिले फलों सी महकने लगेंगी.’’ ‘‘जरूरी नहीं कि वह फूलों की महक ही हो, कांटों की चुभन भी हो सकती है. तो कोई क्यों आने दे उन एहसासों को मन के गलियारों में फिर से?’’

‘‘तुम ने कभी अपने बारे में कुछ नहीं बताया, पर लगता है कि तुम जिस से बेहद प्यार करती थीं उसी ने गम दिया है तुम्हें.’’

‘‘कोई बात मैं कहती हूं, तो जरूरी तो नहीं कि उस का सरोकार मुझ से हो ही.’’

‘‘कुछ भी कह लो, पर तुम्हारी जबान कभी तुम्हारी आंखों का साथ नहीं देती.’’

‘‘साथ तो कोई किसी का नहीं देता. साथ की आस करना ही बेमानी है. जो अपना होता है, परछाईं की तरह खुद ही साथ चला आता है. पर किसी से अपेक्षाएं रखो तो गमों के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता.’’

‘‘तुम्हारी बातें मुझे समझ में नहीं आतीं, पर बहुत अच्छी लगती हैं. लगता है जैसे शब्दों के साथ खेल रही हो. काश तुम्हारा यह अंदाज मेरे पास भी होता.’’

‘‘वैसे शब्दों से खेलते तो तुम भी हो. अंतर सिर्फ इतना है कि दोनों का अंदाज अलगअलग है,’’ यह कहते हुए. एक राज भरी मुसकान आई  थी शैली के होंठों पर. उसे न जाने क्यों आजकल सुमित से मिलना, बातें करना अच्छा लगने लगा था.  सब से पहले सुमित की पेंटिंग्स देख कर उस की और आकर्षित हुई थी वह. पर अब उस की बातें भी अच्छी लगने लगी थीं.

किसी को पसंद करना ऐसा एहसास है, जिसे लाख छिपाना चाहो तो भी दूसरों को खबर लग ही जाती है. कल की ही तो बात है. वह बरामदे में बैठी सुमित की बातें सोच रही थी कि बेटी नेहा का स्वर गूंजा,  ‘‘ममा अकेली बैठ कर मुसकरा क्यों रही हो?’’ वह कोई जवाब नहीं दे सकी. तुरंत खड़ी हो गई जैसे चोरी पकड़ी गई हो.फिर खुद को संभाल कर, प्यार से बेटी के कंधों पर हाथ रखते हुए बोली,  ‘‘कुछ नहीं, सोच रही हूं कि आज खाने में क्या बनाऊं,’’ और किचन की तरफ चल दी. कितना अंतर था सुमित और उस के पति संकल्प में. कढ़ी बनाते समय सहसा ही पुराने जख्म हरे हो गए थे. उस के जेहन में संकल्प के कहे गए शब्द गूंजने लगे थे.

‘‘शैली तुम खाना अच्छा बनाती हो. पर जो भी हो तुम्हारी बनाई कढ़ी में वह स्वाद नहीं जो अम्मां की बनाई कढ़ी में आता है.’’

अपने पति का यह रिमार्क उसे अंदर तक बेध गया क्योंकि सामने बैठी सास ने बड़े ही व्यंग्य से मुसकुरा कर उसे देखा था. यह एक दिन की बात नहीं थी. रोज ही ऐसा होता था. संकल्प मां के गुण गाता, मां मुसकरातीं और यह मुसकराहट जले पर नमक का काम करती. शैली बातबात पर संकल्प से झगड़ कर अपना गुस्सा उतारती, तो संकल्प भी उसे जी भर कर जलीकटी सुनाता. उस के पिता ने कितने अरमानों से संकल्प के साथ उस की शादी की थी. उस ने भी ख्वाहिशें लिए हुए ही ससुराल में कदम रखा था. पर छोटीछोटी बातों ने कब रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं, उसे पता ही नहीं चला. कभी सास के साथ बदतमीजी की बात, कभी दोस्तों, रिश्तेदारों की सही आवभगत न करने की शिकायत. कभी बात न मानने का गिला और कभी अपनी मरजी चलाने का हवाला दे कर किसी न किसी तरह संकल्प उस पर बरसते ही रहते थे और कभी अन्याय न सहने वाली शैली हर दफा बंद कमरे में चीखचीख कर रोती और अपना गुस्सा उतारती.

इस तरह अपने गुस्से की आग को पानी बनाने के प्रयास में कब उस का प्यार भी पानी बनता चला गया इस बात का उसे एहसास  भी नहीं हुआ. अब संकल्प के करीब आने पर उसे मिलन की उत्कंठा नहीं  होती थी. कोई एहसास नहीं जागता था. उन दोनों के बीच वक्त के साथ दूरियां बढ़ती ही गईं और एक दिन उस ने अलग रहने का फैसला कर लिया, जब छोटी सी बात पर संकल्प ने उस पर हाथ उठा दिया. दरअसल, उस की सास सदा ही शैली के खिलाफ संकल्प को भड़काती रहतीं और उलटीसीधी बातें कहतीं. लगातार किसी के खिलाफ बातें कही जाएं तो स्वाभाविक है, कोई भी शख्स उसे सच मान लेगा. संकल्प के साथ भी ऐसा ही हुआ. आवेश के किन्हीं क्षणों में शैली के मुंह से सास के लिए कुछ ऐसा निकल गया जिस की शिकायत सास ने बढ़ाचढ़ा कर बेटे से कर दी. बिना कुछ पूछे संकल्प ने मां के आगे ही शैली को तमाचा रसीद कर दिया और मां व्यंग्य से मुसकरा पड़ीं.

संकल्प का यह व्यवहार शैली के दिल में कांटे की तरह चुभ गया. उस ने उसी समय घर छोड़ने का फैसला कर  लिया और अपना सामान पैक करने लगी. उसे किसी ने नहीं रोका. वह बेटी  को ले कर निकलने ही वाली थी कि सास ने उस की बेटी नेहा का हाथ थाम लिया. उन का हाथ झटक कर नेहा को लिए वह बाहर निकल आई.पीछे से सास की आवाज कानों में गूंजी,  ‘‘इस तरह घर छोड़ कर जा रही हो तो याद रखना, लौट कर आने की जरूरत नहीं है.’’

शैली ने मुड़ कर जवाब दिया था,  ‘‘अब जिंदगी में कभी आप की सूरत नहीं देखूंगी.’’ और फिर सचमुच परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उन की सूरत दोबारा देखने का मौका शैली को नहीं मिला. 2 साल पहले ही टायफाइड बुखार में उन की जान चली गई. छोटी ननद बिट्टन ने अब तक सब संभाला था मगर पिछले साल संकल्प ने उस की शादी कर दी. शैली को आमंत्रित किया था वह गई नहीं. बस फोन पर ही बातें कर के शुभकामनाएं दे दी थीं. अब संकल्प बिलकुल अकेले रह गए थे. शैली को लगता था कि वे उस से तलाक ले कर दूसरी शादी करेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. यह बात अलग है कि संकल्प ने कभी उसे वापस चलने को भी नहीं कहा. हां वे नेहा से मिलने अकसर आ जाया करते थे.

शैली ने स्वयं को एक संस्था से जोड़ लिया तो उसे जीने की वजह मिल गई और वहीं पर मिला सुमित, जिस से मिल कर शैली को ऐसा लगा था जैसे जिंदगी ने उसे दोबारा मौका दिया है. अब तक वह 40वां वसंत पार कर चुकी थी और बेटी भी 14वें साल में प्रवेश कर चुकी थी. धीरेधीरे वह सुमित के करीब होती जा रही थी. शुरुआत में उस ने चाहा था कि वह स्वयं को रोक ले पर ऐसा कर न सकी और सुमित के मोहपाश में बंधती चली गई. अब सुमित कभीकभी शैली के घर भी आने लगा था. वह उस की बेटी नेहा के लिए हमेशा कुछ न कुछ गिफ्ट ले कर आता. कभी नई ड्रैस, तो कभी कुछ और. शैली को खुशी होती कि वह बेटी को भी अपनाने को तैयार है. मगर एक दिन बेटी से बात करने के बाद वह अपने ही फैसले पर पुन: सोचने को मजबूर हो गई.

उस दिन वह जल्दी आ गई थी. बेटी के साथ इधरउधर की बातें कर रही थी. तभी वह बोली, ‘‘ममा, एक बात कहूं?’’

‘‘हां बेटा, बोलो न.’’

‘‘ममा, आप को सुमित अंकल बहुत अच्छे लगते हैं न?’’ थोड़ा सकुचा गई थी वह. फिर बोली, ‘‘हां बेटा, पर वे तो तुम्हें भी अच्छे लगते हैं न?’’

‘‘ममा, मैं मानती हूं कि वे अच्छे हैं और हमारा खयाल भी रखते हैं, पर…’’

‘‘पर क्या नेहा?’’

‘‘पर ममा पता नहीं क्यों उन का स्पर्श वैसा नहीं लगता जैसा पापा का है. पापा करीब आते हैं तो लगता है जैसे मैं सुरक्षा के घेरे में हूं. मगर अंकल बहुत अजीब तरह से देखते हैं. बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता मुझे.’’ दिल की बात कह दी थी नेहा ने. शैली हतप्रभ सी रह गई.

‘‘और ममा, एक बात बताऊं.’’

‘‘हांहां नेहा बोलो.’’

‘‘याद है ममा, पिछले संडे स्कूल में देर ज्यादा हो गई थी, तो आप ने सुमित अंकल को भेजा था, मुझे लाने को.’’

‘‘हां बेटा, तो क्या हुआ?’’

‘‘ममा…,’’ अचानक नेहा की आंखें भर आईं, ‘‘ममा, वे मुझे कुछ अजीब तरह से छूने लगे थे. तभी मुझे रास्ते में  काजल दिख गई और मैं ने फौरन गाड़ी रुकवा कर काजल को बैठा लिया वरना जाने क्या…’’ शब्द उस के गले में ही अटक गए थे. एक अजीब सी हदस शैली के अंतर तक उतरती चली गई.

‘‘तूने पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘मैं क्या कहती ममा, मुझे लगा आप नाराज होंगी.’’

‘‘नहींनहीं बेटा, तुझ से महत्त्वपूर्ण मेरे लिए कुछ भी नहीं,’’ और फिर अपने आगोश में भर लिया था उस ने नेहा को. फिर उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब सुमित को घर कभी नहीं बुलाएगी. बाहर भी ज्यादा मिलने नहीं जाएगी. भले ही अपनी जिंदगी का फैसला करने का उसे पूरा हक है मगर अपनी बेटी की भावनाओं को भी नजरअंदाज नहीं कर सकती, क्योंकि बेटी की जिंदगी भी तो  उस से जुड़ी हुई है और फिर बेटी की सुरक्षा यों भी बहुत माने रखती है उस के लिए. अगले दिन से ही शैली ने सुमित के साथ एक दूरी बना ली. औफिस में सब का ध्यान इस बात पर गया. उस के बगल में बैठने वाली मीरा ने उस से सीधा सवाल ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ शैली? आजकल सुमित को भाव नहीं दे रहीं?’’

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं. बस मुझे अपनी मर्यादा का खयाल रखना होगा न, एक बेटी की मां हूं मैं.’’

‘‘बहुत सही फैसला किया है, तुम ने शैली,’’ मीरा ने कहा, ‘‘मुझे खुशी है कि तुम उस का अगला शिकार होने से बच गईं.’’

‘‘अगला शिकार…?’’ वह चौंक गई.

‘‘भोलीभाली, अकेली महिलाओं से दोस्ती कर उन की बहूबेटियों पर हाथ साफ करना खूब आता है उसे.’’

‘‘क्या…?’’

एकबारगी हिल गई थी वह यानी नेहा का शक सही था. वाकई सुमित की नीयत साफ नहीं. अच्छा हुआ जो उस की आंखें खुल गईं. दिल ही दिल में राहत की सांस ली थी उस ने. जीवन के इस मोड़ पर मन में उठे झंझावातों से राहत पाने के लिए उस ने 3 दिनों की छुट्टी ले ली और पूरा समय अपनी बेटी के साथ बिताने का फैसला किया. दिन भर शौपिंग, मस्ती और नईनई जगह घूमने जाना, यही उन की दिनचर्या बन गई थी. और फिर एक दिन शाम को कनाट प्लेस में शौपिंग के बाद शैली बेटी को ले कर एक रैस्टारैंट की तरफ मुड़ गई. यह वही रैस्टोरैंट था जहां वह अकसर सुमित के साथ आती थी. अंदर आते ही एक टेबल पर उस की नजर पड़ी, तो वह भौचक्की रह गई. सुमित एक 15-16 साल की लड़की के साथ वहां बैठा था. किसी तरह का रिएक्शन न देते हुए वह दूर एक कोने की टेबल पर बैठ गई. यहां से वह सुमित पर नजर रख सकती थी. थोड़ी देर में ही शैली ने सुमित के हावभाव से महसूस कर लिया कि वह लड़की सुमित का नया शिकार है. शैली चुपचाप बेटी के साथ रैस्टोरैंट से निकल आई और तय कर लिया कि सुमित से दूरी बनाने के अपने फैसले पर पुरी दृढ़ता से कायम रहेगी.

एक अधूरे और घिनौने प्यार का एहसास उसे अंदर तक व्याकुल कर रहा था. जिन लमहों में उस ने सुमित के लिए कुछ महसूस किया था, वे लमहे अब शूल की तरह उसे चुभने लगे थे. कई दिनों तक उदास सी रही वह. जब भी जिंदगी में उस ने प्यार की चाहत की, तो उसे उपेक्षा और धोखा ही मिला. शायद उस की जिंदगी में प्यार लिखा ही नहीं है. उसे उम्र भर अकेले ही रहना है. इस विचार के साथ रहरह कर तड़प उठती थी वह. एक दिन उस की बेटी ने माथा सहलाते हुए उस से कहा था, ‘‘ममा, आजकल आप उदास क्यों रहती हो?’’

शैली ने कुछ नहीं कहा. बस म़ुसकरा कर रह गई.

‘‘ममा, आप वापस पापा के पास क्यों नहीं चलतीं. पापा अच्छे हैं ममा.’’ शैली का चेहरा पीला पड़ गया. संकल्प से अलग होने के बाद पहली दफा नेहा ने वापस चलने की बात कही थी. कोई तो बात होगी जो इस मासूम को परेशान किए हुए है. कहां तो वह बीती जिंदगी याद भी नहीं करना चाहती थी और कहां उस की बेटी उसे वापस उसी दुनिया में चलने को कह रही थी.

शैली ने प्यार से बेटी का माथा सहलाया, ‘‘बेटा , आप वापस पापा के पास जाना क्यों चाहती हो? आप को याद नहीं, पापा आप की ममा के साथ कितना झगड़ा किया करते थे.’’

‘‘पर ममा, पापा आप से प्यार भी तो करते थे,’’ उस ने कहा और चुपचाप शैली की तरफ देखने लगी. शैली ने उस की आंखें बंद करते हुए कहा, ‘‘अब सो जा नेहा. कल स्कूल भी जाना है न तुझे.’’ सच तो यह था कि शैली उस की नजरों का सामना ही नहीं कर पा रही थी. उस की बातों के भंवर में डूबने लगी थी. कई सवाल उस के जेहन में कौंधने लगे थे. वह सोच रही थी कि संकल्प मुझ से प्यार करते थे तो मुझे अलग होने से रोका क्यों नहीं? कभी मुझे कहा क्यों नहीं कि वे मुझ से प्यार करते हैं. मेरे बगैर रह नहीं सकते. मैं तो जैसे अनपेक्षित थी उन की जिंदगी में, तभी तो कभी मनाने की कोशिश नहीं की, सौरी भी नहीं कहा. एक दिन पड़ोस की एक महिला से नेहा की झड़प हो गई. वैसे आंटीआंटी कह कर नेहा उस के साथ काफी बातें करती थी और क्लोज भी थी मगर जब उस ने उस की मां को उलटीसीधी बातें कहीं तो वह बिलकुल आपा खो बैठी और उस महिला को बढ़चढ़ कर बातें सुनाने लगी.

उस वक्त  तो शैली ने उसे चुप करा दिया, मगर बाद में जब शैली ने इस बारे में नेहा से बात करनी चाही कि जो भी हुआ, सही नहीं था, तो बड़े ही रोंआसे स्वर में वह बोली, ‘‘ममा, वह आप को बात सुना रही थीं और यह बात मुझे सहन नहीं हुई. मुझे खुद समझ नहीं आ रहा कि मैं उन के प्रति इतनी रूखी कैसे हो गई.’’ शैली खामोश हो गई थी. नेहा की बात उस के दिल को छू गई.

‘‘एक बात कहूं ममा,’’ अचानक नेहा ने मां के गले में प्यार से अपना हाथ डालते हुए कहा, ‘‘ममा, पापा की आप से लड़ाई सब से ज्यादा किस बात पर होती थी? जहां तक मुझे याद है, इस वजह से ही न कि वे दादी का पक्ष ले कर आप से झगड़ा करते थे.’’

‘‘हां बेटे, यही बात मुझे ज्यादा बुरी लगती थी कि बात सही हो या गलत हमेशा मां का ही पक्ष लेते थे.’’

‘‘ममा, मुझे लगता है, पापा उतने भी गलत नहीं, जितना आप समझने लगी हैं. बिलीव मी ममा, वे आज भी आप से बहुत प्यार करते हैं. बस जाहिर नहीं कर पाते,’’ नेहा ने बड़ी मासूमियत से कहा था. उस की बातों में छिपा इशारा शैली समझ गई थी. उसे खुशी हुई थी कि उस की बेटी अब वाकई समझदार हो गई है. शैली ने उस का मन टटोलते हुए पूछा था, ‘‘एक बात बता नेहा, क्या तू आज भी वापस पापा के पास जाना चाहती है? क्या उन के हाथ मुझे पिटता हुआ देख पाएगी या फिर मुझे छोड़ कर तू पापा के पास चली जाएगी?’’

‘‘नहीं ममा, ऐसा बिलकुल भी नहीं है. मैं ममा को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी,’’ कहते हुए नेहा शैली से लिपट गई. बेटी के दिल में छिपी ख्वाहिश से अनभिज्ञ नहीं थी वह. पर अपने जख्मों को याद कर कमी भी हिम्मत नहीं होती थी उस की वापस लौटने की. कैसे भूल सकती थी वह संकल्प का बातबात में चीखनाचिल्लाना. एक बार फिर कड़वे अतीत की आंच ने उसे अपना फैसला बदलने से रोक लिया था. आज नेहा का जन्मदिन था. शैली ने उस के लिए खासतौर पर केक मंगवाया था और खूबसूरत गुलाबी रंग की ड्रैस खरीदी थी. उसे पहन कर नेहा बहुत सुंदर लग रही थी. पार्टी के लिए उस ने पासपड़ोस के कुछ लोगों और नेहा की खास सहेलियों को बुलाया था. नेहा ने अपने पापा को भी बुलाया होगा, इस बात का यकीन था उसे. 8 बजे पार्टी शुरू होनी थी. आज शौर्टलीव ले कर निकल जाएगी सोच कर वह जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी थी. ठीक 4 बजे वह औफिस से निकल गई. अभी रास्ते में ही थी कि संकल्प का फोन आया. बहुत बेचैन आवाज में उन्होंने कहा,  ‘‘शैली, हमारी नेहा…’’

‘‘क्या हुआ नेहा को?’’ परेशान हो कर शैली ने पूछा.

‘‘दरअसल, घर में अचानक ही आग लग गई. मुझे लगता है कि यह सब शौर्ट सर्किट की वजह से हुआ होगा. मैं नेहा को ले कर हौस्पिटल जा रहा हूं, सिटी हौस्पिटल. तुम भी जल्दी पहुंचो.’’

शैली दौड़तीभागती अस्पताल पहुंची तो देखा बेसुध से संकल्प कोने में बैठे हैं. उसे देखते ही वे दौड़ कर आए और रोते हुए उसे अपने बाहुपाश में बांध लिया. ऐसा लगा ही नहीं जैसे वर्षों से दोनों एकदूसरे से दूर रहे हों. एक अजीब सा सुखद एहसास हुआ था उसे. लगा जैसे बस वक्त यहीं थम गया हो. फिर उन से अलग होती हुई वह बोली,  ‘‘नेहा कहां है? कैसी है ?’’ ‘‘चलो मेरे साथ,’’ संकल्प बोले. फिर दोनों नेहा के कमरे में पहुंचे तो नेहा उन्हें साथ देख कर ऐसी हालत में भी मुसकरा पड़ी.

शैली ने उस का माथा सहलाते हुए पूछा, ‘‘बेटे, कैसी है तू?’’

नेहा मुसकराती हुई बोली, ‘‘जब मेरे मम्मीपापा मेरे साथ हैं तो भला मुझे क्या हो सकता है? पापा ही थे जिन्होंने उस धुएं, जलन और आग की लपटों से निकाल कर मुझे हौस्पिटल तक पहुंचाया. पापा, रिअली आई लव यू.’’

शैली चुप खड़ी बापबेटी का प्यार देखती रही. उसे दिल में अंदर ही अंदर कुछ जुड़ता हुआ सा महसूस हुआ. अपने अंदर का दर्द सिमटता हुआ सा लगा. उसे जिंदगी ने शायद वह वापस दे दिया था जिसे वह खो चुकी थी. शायद यह उसी पूर्णता का एहसास था जो पहले संकल्प के साथ महसूस होता था. अचानक नेहा ने शैली का हाथ थामा और उसे संकल्प के हाथों में देती हुई बोली,  ‘‘मुझे आप दोनों से बस एक ही तोहफा चाहिए और वह यह कि आप एक हो जाएं. क्या मेरे जन्म दिन पर आप मुझे इतना भी नहीं दे सकते?’’ शैली और संकल्प पहले तो सकपका गए मगर फिर मुसकरा कर दोनों ने नेहा को चूम लिया. नेहा ने शायद शैली और संकल्प दोनों को नए सिरे से जिंदगी के बारे में  सोचने को विवश कर दिया था.

अमिताभ बच्चन नहीं बल्कि इस सुपरस्टार की फैन हैं Jaya Bachchan

आज के समय में जया बच्चन (Jaya Bachchan) जहां अपने सख्त स्वभाव को लेकर जानी जाती है. वहीं एक जमाने में जया बच्चन अपने बेहतरीन अभिनय और शांत और शालीन स्वभाव के लिए जानी जाती थी. जया ने अपने पति अमिताभ बच्चन से भी ज्यादा धर्मेंद्र के साथ फिल्मों में काम किया है और जया डंके की चोट पर इस बात को कबूल करती है कि वह बचपन से अमिताभ बच्चन की नहीं बल्कि धर्मेंद्र की फैन रही है.

धर्मेंद्र उनके पसंदीदा ऐक्टर हैं. जया बच्चन के अनुसार पूरी फिल्म इंडस्ट्री में धर्मेंद्र जितना खूबसूरत हैंडसम हीरो कोई नहीं है. यही वजह है कि बचपन से वह धर्मेंद्र को पसंद करती हैं. जया बच्चन ने धर्मेंद्र के साथ कई फिल्मों में काम किया है जैसे शोले, गुड्डी , रौकी और रानी की प्रेम कहानी आदि फिल्मों में एक साथ काम किया है.

जया भादुरी के अनुसार जब पहली बार फिल्म गुड्डी के लिए वह धर्मेंद्र से मिली तो उनको धर्मेंद्र से पहली नजर में ही प्यार हो गया था . लेकिन गुड्डी फिल्म की कहानी की तरह मेरा वो प्यार धर्मेंद्र की खूबसूरती से था. गुड्डी के दौरान धर्मेंद्र इतनी खूबसूरत थे कि जब मैंने उनको पहली बार देखा तो मैं सोफे के पीछे छुप गई थी. क्योंकि मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या बात करूं. धर्मेंद्र को देखकर मेरी बोलती ही बंद हो गई थी.

मुझे वह एकदम ग्रीक गौड जैसे लग रहे थे. जया के अनुसार उनको धर्मेंद्र इतना पसंद है कि वह शोले में भी बसंती वाला रोल करना चाहती थी ताकि धर्मेंद्र के साथ काम कर सके. धर्मेंद्र के प्रति जया की दीवानगी से अमिताभ बच्चन भी वाकिफ है. लेकिन उनको धर्मेंद्र से जलन नहीं होती. क्योंकि आज भी धर्मेंद्र और अमिताभ और जया बहुत अच्छे दोस्त हैं.

Shweta Tiwari और विशाल आदित्य सिंह की शादी का फोटो वायरल, जानें क्या है सच्चाई

श्वेता तिवारी (Shweta Tiwari) टीवी की बेहतरीन और खूबसूरत ऐक्ट्रैस जो अपने काम से ज्यादा अपनी शादी और अपने अफेयर को लेकर चर्चा में रहती है , फिलहाल श्वेता तिवारी का अफेयर बिग बौस 13 के प्रतियोगी विशाल आदित्य सिंह के साथ चर्चा का विषय बना हुआ है.  हाल ही में श्वेता तिवारी की फोटो देखकर पूरी फिल्म इंडस्ट्री में और दर्शकों के बीच हंगामा हो गया क्योंकि यह फोटो श्वेता और विशाल दोनों की कोर्ट में शादी करते हुए फोटो थी. जिसमें श्वेता तिवारी शादी के ड्रेस में है मांग में सिंदूर भी भरे हुए हैं  और विशाल गले में फूलों की माला पहनकर श्वेता के साथ कोर्ट में शादी करते नजर आ रहे हैं.

श्वेता और विशाल की शादी करते हुए यह फोटो तेजी से वायरल हो गई और श्वेता और विशाल दोनों को बधाई आना भी शुरू हो गया . इस फोटो के पीछे का सच कुछ और ही है विशाल और श्वेता की खतरों के खिलाड़ी 11 के दौरान दोस्ती जरूर हुई थी लेकिन फिलहाल उनकी शादी नहीं हुई है. दोनों ने सोशल मीडिया पर आकर शादी न होने की पुष्टि की है. साथ ही इस वायरल फोटो को फोटो शौप का कारनामा बताया है.

श्वेता तिवारी के अनुसार हम दोनों करीबी दोस्त हैं लेकिन शादी वाली बात पूरी तरह से गलत है. गौरतलब है श्वेता तिवारी की दो शादियां पहले ही हो चुकी है जो असफल रही है. एक शादी राजा चौधरी से और दूसरी शादी 13 जुलाई 2013 में अभिनव कोहली से हुई. राजा चौधरी से जहां उनको बेटी है जिसका नाम पलक तिवारी है और वह एक ऐक्ट्रेस है. अभिनव कोहली से एक बेटा है जिसका नाम रेयांश कोहली है. दो शादी की असफलता के बाद क्या श्वेता तिवारी तीसरी शादी करेंगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. श्वेता तिवारी के अगर वर्क फ्रंट की बात करें, तो हाल ही में वह रोहित शेट्टी की फिल्म सिंघम अगेन 3 में नजर आई थी और श्वेता अगली बार करण जौहर के साथ नए प्रोजेक्ट में नजर आएगी.

विजय देवराकोंडा ने Rashmika Mandana के साथ रिलेशनशिप पर लगाई मुहर, जानें शादी कब है

Vijay Devrakonda and Rashmika love story : साउथ इंडियन सिनेमा के फेमस एक्‍टर विजय देवरकोंडा ने ऐक्‍ट्रैस रश्मिका मंदाना के साथ अपने रिश्‍ते को कबूल कर लिया है. इतना ही नहीं अपनी शादी की प्‍लानिंग की डिटैल भी बताई.

 

‘कर्ली टैल्‍स’ को दिए अपने इंटरव्‍यू के दौरान ‘लाइगर’ एक्‍टर विजय ( Vijay Devrakonda) ने कबूला क‍ि वह रिलेशनशिप में हैं. इतना ही नहीं उन्‍होंने मजाकिया अंदाज में यह भी कहा कि वह 35 साल के हैं इसलिए वह सिंगल कैसे हो सकते हैं. विजय ने यह भी माना कि लड़‍कों से ज्‍यादा लड़कियों के लिए शादी चैलेंजिंग होती है. उन्‍होंने इस बात को स्‍वीकारा कि औरतों के लिए शादी करना बहुत मुश्किल काम है क्‍योंकि इसका प्रभाव उनके प्रोफेशन पर पड़ता है. लड़कियों की शादी में इस बात के भी काफी मायने होते हैं कि वह किस प्रोफेशन में है.

कब विजय और रश्मिका आएं करीब

‘गीत गोविंदम’ और ‘डियर कौमरेड’ जैसी साउथ इंडियन मूवीज में इन दोनों लव बर्ड्स की औनस्‍क्रीन केमिस्‍ट्री फैंस को बहुत पसंद आई. धीरेधीरे इनकी नजदीकियों की खबरें भी फैलने लगी. अब सारी अफवाहों पर विराम लग गया है जबसे एक टौक शो के दौरान विजय से पूछा गया कि क्‍या वह अपनी कोस्‍टार को डेट कर रहे हैं, तो इस पर उनका जवाब था, “हां, मैंने किया है.” विजय ने यह भी कहा कि प्‍यार में शर्त न हो ऐसा नहीं हो सकता है क्‍योंकि प्रेम करने वालों की कुछ उम्‍मीदें होती है. विजय ने यह भी माना कि उनका प्‍यार भी बिना शर्त वाला नहीं है क्‍योंकि यह भी कुछ अपेक्षाएं रखता है.

अब बात आती है शादी की

विजय देवराकोंडा और रश्मिका मंदाना की रिेलेशनशिप कंफर्म होने के बाद इनके ज्‍यादातर फैंस इस बात को जानना चाहेंगे कि यह जोड़ी शादी कब करेगी. इस पर विजय ने कहा कि महिलाओं की शादी में उनका करियर काफी मायने रखता है.

सबकुछ ओवर रोमांटिक है

इसी बातचीत के दौरान विजय ने यह बताया कि उन्‍हें ऐसा महसूस होता है कि सबकुछ ओवर रोमांटिक हो रहा है. साउथ एक्‍टर ने यह बताया कि आमतौर पर वे बाहर नहीं जाते हैं. अगर कभी ऐसा मौका आता भी है, तो वह उसी के साथ बाहर जाते हैं जिसके साथ उनकी दोस्‍ती हो जाती है या किसी को जब वह अच्‍छी तरह से जान चुके होते हैं.

सिकंदर मूवी में सलमान खान के साथ दिखेगी रश्मिका

विजय देवराकोंडा जल्‍द ही तेलगु मूवी ‘वीडी 12’ में नजर आएंगे. इसके अलावा उनकी एक मूवी ‘जेजीएम जण गण मण’ भी आने वाली है. विजय देवराकोंडा की हिंदी मूवी ‘लाइगर’ फ्लौप रही थी, इस मूवी में उनकी कोस्‍टार अनन्‍या पांडे थी. रश्मिका मंदाना ने भी बौलीवुड का रुख कर लिया है, रनबीर कपूर के साथ उनकी मूवी ‘एनिमल’ सुपरहिट हुई. यह साल 2023 के आखिर में रिलीज हुई थी. इसके अलावा वह जल्‍दी ही सलमान खान के साथ भी नजर आएंगी. सलमान की मूवी सिकंदर में भी वजह दिखाई देंगी. इसके अलावा भी उनकी 5 मूवीज आ रही है, जिनमें ‘पुष्‍पा : 2 द रुल’, ‘छावा : द ग्रेट वारियर’, ‘द गर्लफ्रेंड’, ‘कुबेर’ और ‘एनिमल पार्क’ शामिल है. शायद रश्मिका की इसी व्‍यस्‍तता की वजह से विजय देवराकोंडा ने यह कहा होगा कि लड़कियों की शादी में उनका कैरियर बहुत मायने रखता है और उनके पेशे में शादी को कभी बाधा नहीं बनना चाहिए.

रश्मिका और विजय की आने वाली मूवीज

वैसे इसमें दो राय नहीं कि एक बौयफ्रेंड के रूप में विजय को इस बात की परवाह है कि करियर लड़कियों के लिए मायने रखता है. आज के बदलते वक्‍त में ऐसी सोच ही कपल को साथ रखेगी और उनके बीच अलगाव की नौबत नहीं आएगी.

कहीं एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर की वजह से तो नहीं हुआ AR Rahman का तलाक ?

एआर रहमान (AR Rahman) अपने तलाक की खबरों को लेकर सुर्खियों में छाए हुए हैं. शादी के 29 सालों बाद एआर रहमान अपनी पत्नी सायरा बनो से अलग हो गए. 19 नवंबर को देर रात ये खबर आई कि एआर रहमान और सायरा बानो अलग हो रहे हैं. एर रहमान के तलाक की अनाउंसमेंट के कुछ देर बाद ही उनकी ग्रुप की बेस गिटारिस्ट मोहिनी डे ने भी अपने पति से अलग होने की घोषणा कर दी थी.

इसके बाद ये अटकलें थीं कि क्या मोहिनी से रहमान के तलाक का कोई कनेक्शन है? सोशल मीडिया पर कुछ यूजर्स ने तो ये भी कहा कि पतिपत्नी के बीच में ‘वो’ की एंट्री हुई, जिसके बाद दोनों के रिश्ते खत्म हो गए.

क्या एआर रहमान और मोहिनी डे का है कोई कनेक्शन 

लेकिन अब मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सायरा बानो की वकील वंदना शाह ने सफाई पेश की है. कहा है कि सायरा और रहमान ने तलाक लेने का खुद फैसला लिया है. उन्होंने ये भी बताया कि मोहिनी और मिस्टर रहमान के तलाक का कोई कनेक्शन नहीं है. सायरा की वकील ने आगे कहा कि ‘हर लंबी शादी उतारचढ़ाव से गुजरती है और उनके साथ भी कुछ वैसा ही हो रहा था. मुझे इस बात बेहद खुशी है कि अगर इसका अंत हुआ है, तो यह गरिमापूर्ण तरीके से हुआ है. रहमान और सायरा दोनों एकदूसरे का समर्थन करना जारी रखेंगे और एक-दूसरे के अच्छे होने की कामना करेंगे.’

रिपोर्ट के मुताबिक जब वंदना से सवाल किया गया कि रहमान और सायरा के अलग होने के क्या कारण थे? तो वंदना शाह ने रहमान और सायरा के फैसले का कारण शेयर करने से मना कर दिया और कहा कि ‘वे दोनों जेनुइन हैं और दोनों ने ये फैसला हल्के में नहीं लिया है. यह वह नहीं है, जिसे आप दिखावटी शादी कहेंगे.वंदना शाह ने उनका तलाक को ‘सौहार्दपूर्ण’ बताया.

एआर रहमान ने क्यों बदला था धर्म

एआर रहमान का जन्म हिंदू परिवार में हुआ था और उन्होंने 1980 में मुस्लिम धर्म अपना लिया था. खबरों के मुताबिक एक टाक शो में उन्होंने बताया था कि आखिर उन्होंने मुस्लिम धर्म क्यों अपनाया था. ए आर रहमान ने बताया था कि एक सूफी थे जिन्होंने उनके पिता के आखिरी दिनों में उनका इलाज किया था. ए आर रहमान के पिता कैंसर से लड़ रहे थे. जब बाद में जब वो और उनका परिवार 7-8 साल बाद उस सूफी से मिले, तो उन्होंने दूसरा धर्म अपनाने का फैसला किया. रिपोर्ट के मुताबिक रहमान ने ये भी बताया कि मेरी मां हिंदू धर्म फौलो करती थीं. उनका हमेशा से ही आध्यात्मिकता की ओर झुकाव था

शादी के 29 सालों बाद तलाक लेने का लिया फैसला

सायरा की वकील वंदना शाह ने स्टेटमेंट जारी कर कपल के तलाक की अनाउंसमेंट की थी.  कुछ समय बाद एआर रहमान ने भी सोशल मीडिया पर इमोशनल नोट शेयर कर इसे कंफर्म कर दिया था. एआर रहमान ने भी एक्स पर एक पोस्ट शेयर किया है और इसमें लिखा कि ‘हमें उम्मीद थी कि हम 30 साल पूरे कर लेंगे, लेकिन ऐसा लगता है कि सभी चीजों का एक अनदेखा अंत होता है. उन्होंने आगे लिखा कि टूटे हुए दिलों के वजन से ईश्वर का सिंहासन भी हिल सकता है. फिर भी, इस बिखराव में, हम अर्थ तलाशते हैं, भले ही टुकड़ों को फिर से अपनी जगह न मिले. हमारे दोस्तों, इस नाजुक दौर से गुजरते समय हमारी निजता का सम्मान करने के लिए धन्यवाद.’

Aishwarya Rai ने बेटी का जन्मदिन मां के घर किया सेलिब्रैट, सामने आई अभिषेक के साथ रिश्ते की सच्चाई

मिस वर्ल्ड ऐश्वर्या राय (Aishwarya Rai) के लिए नवंबर का महीना बेहद खास होता है. इस महीने में ऐश अपने अलावा अपनी बेटी आराध्या का बर्थडे सेलिब्रैट करती है. वह अपने दिवंगत पिता कृष्णराज राय की बर्थ एनिवर्सरी भी 21 नवंबर को सैलिब्रैट करती हैं.

आराध्या अपना बर्थडे 16 नवंबर को मनाती है. हर साल ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन (Abhishek Bachchan) अपनी लाडली के लिए सोशल मीडिया पर पोस्ट कर बर्थडे विश करते हैं, लेकिन इस साल किसी ने भी पोस्ट शेयर नहीं किया था. आराध्या के बर्थडे फोटोज का फैंस को बेसब्री से इंतजार था.

ऐश्वर्या राय ने  पिता की बर्थ एनिवर्सरी किया सेलिब्रैट

aishwarya rai

ऐश्वर्या राय ने अपने पिता के बर्थ एनिवर्सरी पर कुछ फोटोज फैंस के साथ शेयर किया है, जिसमें बेटी आराध्या का भी बर्थडे सेलिब्रैट करती नजर आ रही हैं. ऐश्वर्या ने ये फोटोज बुधवार देर रात को इंस्टाग्राम पर शेयर किया. कुछ फोटोज में ऐश्वर्या और आराध्या दिवंगत कृष्णराज राय की फोटो के आगे आशीर्वाद लेते हुए नजर आ रही हैं. इन फोटोज में ऐश्वर्या की मां वृंदा राय भी मौजूद हैं.

फोटोज में नहीं दिखें अभिषेक बच्चन

aishwarya rai

तो वही लास्ट की कुछ फोटोज में ऐश ने अपनी आराध्या के जन्म से लेकर अभी तक के लेटेस्ट कई फोटोज शेयर की हैं. साथ ही एक बलून पर लिखा है, अब तुम औफिशियली टिनएजर हो गई. ऐश्वर्या राय ने फोटोज के कैप्शन में लिखा है कि मेरे जीवन के अमर प्यार, प्यारे डैडी-अज्जा और मेरी प्यारी आराध्या को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं…मेरा दिल…मेरी आत्मा…हमेशा और उससे भी आगे..

इन तस्वीरों में कहीं भी अभिषेक बच्चन नजर नहीं आए. कई यूजर्स ने सवाल भी किया है, बच्चन फैमिली कहां है ? दूसरा यूजर ने लिखा कि तलाक की खबर अब सच लगती है. कई यूजर्स ने सवाल किया कि अभिषेक ने अपनी बेटी के जन्मदिन पर कुछ भी पोस्ट नहीं किया.

तलाक की अफवाहों के बीच ऐश ने फ्लौंट किया वेडिंग रिंग

हालांकि अभिषेक-ऐश की तलाक की अफवाहें जोरों से चल रही है और इन तस्वीरों में भी अभिषेक कहीं नजर नहीं आए, लेकिन एक गौर करने वाली बात है कि इन फोटोज में ऐश्वर्या ने वेडिंग रिंग फ्लौंट करते हुए तलाक की अफवाह को झूठा करार दिया.

कब से शुरू हुई तलाक की अफवाह

ऐश्वर्या राय बच्चन और अभिषेक के रिश्ते में दरार की खबर काफी समय से चलती आ रही है, लेकिन आज तक बच्चन फैमिली में से किसी ने भी इस पर रिएक्य नहीं किया. आपको बता दें कि अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट के वेडिंग फंक्शन में बच्चन फैमिली और ऐश्वर्या राय अलगअलग नजर आए थे. इसके अलावा कई मौकों पर ऐश्वर्या को अकेले ही देखा गया है. ऐसे में कयास लगाए जाने लगे कि कपल तलाक लेने जा रहा है.

मुट्ठी भर प्यार : बूआजी का प्यार आखिर किस वजह से था

‘‘धरा, मम्मी गुजर गईं. मैं निकल रही हूं अभी,’’ सुबकते हुए बूआजी ने बताया.

मैं उन से एक शब्द भी नहीं बोल पाई. बोल ही कहां पाती…सूचना ही इतनी अप्रत्याशित थी. सुन कर जैसे यकीन ही नहीं आया और जब तक यकीन हुआ फोन कट चुका था. इतना भी नहीं पूछ पाई कि यह सब कैसे और कब हुआ.

वे मानें या न मानें पर यह सच है कि जितना हम बूआ के प्या

र को तरसे हैं उतनी ही हमारी कमी बूआजी ने भी महसूस की होगी. हमारे संबंधों में लक्ष्मण रेखाएं मम्मीपापा ने खींच दीं. इस में हम दोनों बहनें कहां दोषी हैं. कहते हैं कि मांबाप के कर्मों की सजा उन के बच्चों को भोगनी पड़ती है. सो भोग रहे हैं, कारण चाहे कुछ भी हों.

कितनाकितना सामान बूआजी हम दोनों बहनों के लिए ले कर आती थीं. बूआजी के कोई बेटी नहीं थी और हमारा कोई भाई नहीं था. पापा के लिए भी जो कुछ थीं बस, बूआजी ही थीं. अत: अकेली बूआजी हर रक्षाबंधन पर दौड़ी चली आतीं. उमंग और नमन भैया के हम से राखी बंधवातीं और राखी बंधाई में भैया हमें सुंदर ड्रेसें देते, साथ में होतीं मैचिंग क्लिप, रूमाल, चूडि़यां, टौफी और चौकलेट.

हम बूआजी के आगेपीछे घूमते. बूआजी अपने साथ बाजार ले जातीं, आइसक्रीम खिलातीं, कोक पिलातीं, ढेरों सामान से लदे जब हम घर में घुसते तो दादीमां बूआजी को डांटतीं, ‘इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी? इन दोनों के पास इतना सामान है, खिलौने हैं, पर इन का मन भरता ही नहीं.’

बूआजी हंस कर कहतीं, ‘मम्मी, अब घर में शैतानी करने को ये ही 2 बच्चियां हैं. घर कैसा गुलजार रहता है. ये हमारा बूआभतीजी का मामला है, कोई बीच में नहीं बोलेगा.’

थोडे़ बड़े हुए तो मुट्ठी में बंद सितारे बिखर गए. बूआजी को बुलाना तो दूर पापाजी ने उन का नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी. बूआजी आतीं, भैया आते तो हम चोरीचोरी उन से मिलते. वह प्यार करतीं तो उन की आंखें नम हो आतीं.

पापामम्मी ने कभी बूआजी को अपने घर नहीं बुलाया. भैया से भी नहीं बोले, जबकि बूआजी हम पर अब भी जान छिड़कती थीं. राखियां खुल गईं. रिश्ते बेमानी हो गए. कैसे इंतजार करूं कि कभी बूआजी बुलाएंगी और कहेंगी, ‘धरा और तान्या, तुम अपनी बूआजी को कैसे भूल गईं? कभी अपनी बूआ के घर आओ न.’

कैसे कहतीं बूआजी? उन के आगे रिश्तों का एक जंगल उग आया था और उस के पार बूआजी आ नहीं सकती थीं. जाने ऐसे कितने जंगल रिश्तों के बीच उग आए जो वक्तबेवक्त खरोंच कर लहूलुहान करते रहे. बूआजी के एक फोन से कितना कुछ सोच गई मैं.

मैं अतीत से बाहर आ कर अपने कर्तव्य की ओर उन्मुख हुई. तान्या को मैं ने फौरन फोन मिलाया तो वह बोली, ‘‘दीदी, फिलहाल मैं नहीं निकल पाऊंगी. बंगलौर से वहां पहुंचने में 2 दिन तो लग ही जाएंगे. फ्लाइट का भी कोई भरोसा नहीं, टिकट मिले न मिले. फिर ईशान भी यहां नहीं हैं. मैं तेरहवीं पर पहुंचूंगी. प्लीज, आप निकल जाइए,’’ फिर थोड़ा रुक कर पूछने लगीं, ‘‘दीदी, आप को खबर किस ने दी? कैसे हुआ ये सब?’’ पूछतेपूछते रो दी तानी.

‘‘तानी, मुझे कुछ भी पता नहीं. बस, बूआजी का फोन आया था. कितना प्यार करती थीं हमें दादी. तानी, क्या मेरा जाना मम्मीपापा को अच्छा लगेगा? क्या मम्मीपापा भी उन्हें अंतिम प्रणाम करेंगे?’’

‘‘नहीं, दीदी, यह समय रिश्तों को तोलने का नहीं है. मम्मीपापा अपने रिश्ते आप जानें. हमें तो अपनी दादी के करीब उन के अंतिम क्षणों में जाना चाहिए. दादी को अंतिम प्रणाम के लिए मेरी ओर से कुछ फूल जरूर चढ़ा देना.’’

मैं ने हर्ष के आफिस फोन मिलाया और उन्हें भी इस दुखद समाचार से अवगत कराया.

‘‘तुम तैयार रहना, धरा. मैं 15 मिनट में पहुंच रहा हूं.’’

फोन रख मैं ने अलमारी खोली और तैयार होने के लिए साड़ी निकालने लगी. तभी दादी की दी हुई कांजीवरम की साड़ी पर नजर पड़ी. मैं ने साड़ी छुई तो लगा दादी को छू रही हूं. उन का प्यार मुझे सहला गया. दादी की दी हुई एकएक चीज पर मैं हाथ फिरा कर देखने लगी. इतना प्यार इन चीजों पर इस से पहले मुझे कभी नहीं आया था.

आंखें बहे जा रही थीं. दादी की दी हुई सोने की चेन, अंगूठी, टौप्स को देने का उन का ढंग याद आ गया. लौटते समय दादी चुपचाप मुट्ठी में थमा देतीं. उन के देने का यही ढंग रहा. अपना मुट्ठी भर प्यार मुट्ठी में ही दिया.

हर्ष को भी जब चाहे कुछ न कुछ मुट्ठी में थमा ही देतीं. 1-2 बार हर्ष ने मना करना चाहा तो बोलीं, ‘‘हर्ष बेटा, इतना सा भी अधिकार तुम मुझे देना नहीं चाहते. तुम्हें कुछ दे कर मुझे सुकून मिलता है,’’ और इतना कहतेकहते उन की आंखें भर आई थीं.

तभी से हर्ष दादी से मिले रुपयों पर एक छोटा सा फूल बना कर संभाल कर रख देते और मुझे भी सख्त हिदायत थी कि मैं भी दादी से मिले रुपए खर्च न करूं.

मुझे नहीं पता कि मम्मीपापा का झगड़ा दादादादी से किस बात पर हुआ. बस, धुंधली सी याद है. उस समय मैं 6 साल की थी. पापादादी मां से खूब लड़ेझगड़े थे और उसी के बाद अपना सामान ऊपर की मंजिल में ले जा कर रहने लगे थे.

इस के बाद ही मम्मीपापा ने दादी और दादा के पास जाने पर रोक लगा दी. यदि हमें उन से कुछ लेते देख लेते तो छीन कर कूड़े की टोकरी में फेंक देते और दादी को खूब खरीखोटी सुनाते. दादी ने कभी उन की बात का जवाब नहीं दिया.

जब पापा कहीं चले जाते और मम्मी आराम करने लगतीं तो हम यानी मैं और तानी चुपके से नीचे उतर जातीं. दादी हमें कलेजे से लगा लेतीं और खाने के लिए हमारी पसंद की चीजें देतीं. बाजार जातीं तो हमारे लिए पेस्ट्री अवश्य लातीं जिसे पापामम्मी की नजरें बचा कर स्कूल जाते समय हमें थमा देतीं.

मम्मी पापा से शिकायत करतीं. पापा चांटे लगाते और कान पकड़ कर प्रामिस लेते कि अब नीचे नहीं जाएंगे. और हम डर कर प्रामिस कर लेतीं लेकिन उन के घर से निकलते ही मैं और तानी आंखोंआंखों में इशारा करतीं और खेलने का बहाना कर दादी के पास पहुंच जाते. दादी हमें खूब प्यार करतीं और समझातीं, ‘‘अच्छे बच्चे अपने मम्मीपापा का कहना मानते हैं.’’

तानी गुस्से से कहती, ‘‘वह आप के पास नहीं आने देते. हम तो यहां जरूर आएंगे. क्या आप हमारे दादादादी नहीं हो? क्या आप के बच्चे आप की बात मानते हैं जो हम मानें?’’

दादी के पास हमारे इस सवाल का कोई उत्तर नहीं होता था.

दादी के एक तरफ मैं लेटती दूसरी तरफ तानी और बीच में वह लेटतीं. वह रोज हमें नई कहानियां सुनातीं. स्कूल की बातें सुनातीं और जब पापा छोटे थे तब की ढेर सारी बातें बतातीं. हमें बड़ा आनंद आता.

दादाजी की जेब की तलाशी में कभी चुइंगम, कभी जैली और कभी टौफी मिल जाती, क्योंकि दादाजी जानते थे कि बच्चों को जेबों की तलाशी लेनी है और उन्हें निराश नहीं होने देना है. उन के मतलब का कुछ तो मिलना चाहिए.

दादी झगड़ती हुई दादाजी से कहतीं, ‘तुम ने टौफी, चाकलेट खिलाखिला कर इन की आदतें खराब कर दी हैं. ये तानी तो सारा दिन चीज मांगती रहती है. देखते नहीं बच्चों के सारे दांत खराब हो रहे हैं.’

दादाजी चुपचाप सुनते और मुसकराते रहते.

तानी दादी की नकल करती हुई घुटनों पर हाथ रख कर उन की तरह कराहती. कभी पलंग पर चढ़ कर बिस्तर गंदा करती.

‘तानी, तू कहना नहीं मानेगी तो तेरी मैडम से शिकायत करूंगी,’ दादी झिड़कती हुई कहतीं.

‘मैडम मुझ से कुछ कहेंगी ही नहीं क्योंकि वह मुझे प्यार करती हैं,’ तानी कहती जाती और दादी को चिढ़ाती जाती. दादी उसे पकड़ लेतीं और गाल चूम कर कहती, ‘प्यार तो तुझे मैं भी बहुत करती हूं.’

सर्दियों के दिनों में दादी हमारी जेबों में बादाम, काजू, किशमिश, पिस्ता, रेवड़ी, मूंगफली कुछ भी भर देतीं. स्कूल बस में हम दोनों बहनें खुद भी खातीं और अपने दोस्तों को भी खिलातीं.

तानी और मुझे साड़ी बांधने का बड़ा शौक था. हम दादी की अलमारी में से साड़ी निकालतीं और खूब अच्छी सी पिनअप कर के साड़ी बांधतीं हम शीशे में अपने को देख कर खूब खुश होते.

‘दादी, हमारे कान कब छिदेंगे? हम टौप्स कब पहनेंगे?’

‘तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओ, मेरे कंधे तक आ जाओ तो तुम्हारे कान छिदवा दूंगी और तुम्हारे लिए सोने की बाली भी खरीद दूंगी.’

दादी की बातों से हम आश्वस्त हो जातीं और रोज अपनी लंबाई दादी के पास खड़ी हो कर नापतीं.

एक बार दादाजी और दादी मथुरा घूमने गए. वहां से हमारे लिए जरीगोटे वाले लहंगे ले कर आए. हम लहंगे पहन कर, टेप चला कर खूब देर तक नाचतीं और वह दोनों तालियां बजाते.

‘दादी, ऊपर छत पर चलो, खेलेंगे.’

‘मेरे घुटने दुखते हैं. कैसे चढ़ पाऊंगी?’

‘दादी, आप को चढ़ना नहीं पड़ेगा. हम आप को ऊपर ले जाएंगी.’

‘वह कैसे, बिटिया?’ उन्हें आश्चर्य होता.

‘एक तरफ से दीदी हाथ पकड़ेगी, एक तरफ से मैं. बस, आप ऊपर पहुंच जाओगी.’ तानी के ऐसे लाड़ भरे उत्तर पर दादी उसे गोद में बिठा कर चूम लेतीं.

दादी का कोई भी बालपेन तानी न छोड़ती. वह कहीं भी छिपा कर रखतीं तानी निकाल कर ले जाती. दादी डांटतीं, तब तो दे जाती. लेकिन जैसे ही उन की नजर बचती, बालपेन फिर गायब हो जाती. वह अपने बालपेन के साथ हमारे लिए भी खरीद कर लातीं, पर दादी के हाथ में जो कलम होती हमें वही अच्छी लगती.

हम उन दोनों के साथ कैरम व लूडो खेलतीं. खूब चीटिंग करतीं. दादी देख लेतीं और कहतीं कि चीटिंग करोगी तो नहीं खेलूंगी. हम कान पकड़ कर सौरी बोलतीं. दादाजी, इतनी अच्छी तरह स्ट्रोक मारते कि एकसाथ 4-4 गोटियां निकालते.

‘हाय, दादाजी, इस बार भी आप ही जीतेंगे,’ माथे पर हाथ मार कर मैं कहती, तभी तान्या दादाजी की गोटी उठा कर खाने में डाल देती.

‘चीटिंगचीटिंग दादी,’ कहतीं.

‘ओह दादी, अब खेलने भी दो. बच्चे तो ऐसे ही खेलेंगे न,’ सभी तानी की प्यारी सी बात पर हंस पड़ते.

‘दादी, आप के घुटने दबाऊं. देखो, दर्द अभी कैसे भागता है?’ तानी अपने छोटेछोटे हाथों से उन के घुटने सहलाती. वह गद्गद हो उठतीं.

‘अरे, बिटिया, तू ने तो सचमुच मेरा दर्द भगा दिया.’

तानी की आंखें चमक उठतीं, ‘मैं कहती न थी कि आप को ठीक कर दूंगी, अब आप काम मत करना. मैं आप का सारा काम कर दूंगी,’ और तानी झाड़न उठा कर कुरसीमेज साफ करने लगती.

‘दादी, आप के लिए चाय बनाऊं?’ पूछतेपूछते तानी रसोई में पहुंच जाती.

लाइटर उठा कर गैस जलाने की कोशिश करती.

दादी वहीं से आवाज लगातीं, ‘चाय रहने दे, तानी. एक गिलास पानी दे जा और दवा का डब्बा भी.’

तानी पानी लाती और अपने हाथ से दादी के मुंह में दवा डालती.

एक बार मैं किसी शादी में गई थी. वहां बच्चों का झूला लगा था. मैं भी बच्चों के साथ झूलने लगी. पता नहीं कैसे झूले में मेरा पैर फंस गया. मुश्किल से सब ने खींच कर मेरा पैर निकाला. बहुत दर्द हुआ. पांव सूज गया. चला भी नहीं जा रहा था. मैं रोतेरोते पापामम्मी के साथ घर आई. पापा ने मुझे दादी के पास जाने नहीं दिया. जब पापामम्मी गए तब मैं चुपके से दीवार पकड़ कर सीढि़यों पर बैठबैठ कर नीचे उतरी. दादी के पास जा कर रोने लगी.

उन्होंने मेरा पैर देखा. मुझे बिस्तर पर लिटाया. पैर पर मूव की मालिश की. हीटर जला कर सिंकाई की और गोली खाने को दी. थोड़ी देर बाद दादी की प्यार भरी थपकियों ने मुझे उन की गोद में सुला दिया. कितनी भी कड़वी दवा हम दादी के हाथों हंसतेहंसते खा लेती थीं.

मेरा या तानी का जन्मदिन आता तो दादी पूछतीं, ‘क्या चाहिए तुम दोनों को?’

हम अपनी ढेरों फरमाइशें उन के सामने रखते. वह हमारी फरमाइशों में से एकएक चीज हमें ला देतीं और हम पूरा दिन दादी का दिया गिफ्ट अपने से अलग न करतीं.

बचपन इसी प्रकार गुजरता रहा.

नानी के यहां जाने पर हमारा मन ही न लगता. हम चाहती थीं कि हम दादी के पास रह जाएं, पर मम्मी हमें खींच कर ले जातीं. हम वहां जा कर दादाजी को फोन मिलाते, ‘दादाजी, हमारा मन नहीं लग रहा, आप आ कर ले जाइए.’

‘सारे बच्चे नानी के यहां खुशीखुशी जाते हैं. नानी खूब प्यार करती हैं, पर तुम्हारा मन क्यों नहीं लग रहा?’ दादाजी समझाते हुए पूछते.

‘दादाजी, हमें आप की और दादी की याद आ रही है. हमें न तो कोई अपने साथ बाजार ले कर जाता है, न चीज दिलाता है. नानी कहानी भी नहीं सुनातीं. बस, सारा दिन हनी व सनी के साथ लगी रहती हैं. हम क्या करें दादाजी?’

दादाजी रास्ता सुझाते, ‘बेटा, धरा और तानी सुनो, तुम अपने पापा को फोन लगाओ और उन से कहो कि हम आप को बहुत मिस कर रहे हैं. आप आ कर ले जाओ.’

दादाजी की यह तरकीब काम कर जाती. हम रोरो कर पापा से ले जाने के लिए कहते और अगले दिन पापा हमें ले आते. हम दोनों लौट कर दादी और दादाजी से ऐसे लिपट जाते जैसे कब के बिछुड़े हों.

पापा ने हमें पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया. हम लौटते तो दादाजी और दादी को इंतजार करते पाते. उन की अलमारी हमारे लिए सौगातों से भरी रहती. हाईस्कूल पास करने के बाद दादाजी ने मुझे घड़ी दी थी.

हम बड़े हुए तो पता चला कि दादाजी केवल पेंशन पर गुजारा करते हैं. हमारा मन कहता कि हमें अब उन से उपहार नहीं लेने चाहिए, लेकिन जब दादी हमारी मुट्ठियों में रुपए ठूंस देतीं तो हम इनकार न कर पाते. होस्टल जाते समय लड्डूमठरी के डब्बे साथ रखना दादी कभी न भूलतीं.

दोनों बहनों का कर्णछेदन एकसाथ हुआ तो दादी ने छोटेछोटे कर्णफूल अपने हाथ से हमारे कानों में पहनाए. और जब मेरी शादी पक्की हुई तो दादी हर्ष को देखने के लिए कितना तड़पीं. जब नहीं रहा गया तो मुझे बुला कर बोली थीं, ‘धरा बेटा, अपना दूल्हा मुझे नहीं दिखाएगी.’

‘अभी दिखाती हूं, दादी,’ कह कर एक छलांग में ऊपर पहुंच कर हर्ष का फोटो अलमारी से निकाल दादी की हथेली पर रख दिया था. दादी कभी मुझे तो कभी फोटो को देखतीं, जैसे दोनों का मिलान कर रही हों. फिर बोली, ‘हर्ष बहुत सुंदर है बिलकुल तेरे अनुरूप. दोनों में खूब निभेगी.’

मैं ने हर्ष को मोबाइल मिलाया और बोली, ‘हर्ष, दादी तुम से मिलना चाहती हैं, शाम तक पहुंचो.’

शाम को हर्ष दादी के पैर छू रहा था.

मेरी शादी मैरिज होम से हुई. शादी में पापा ने दादादादी को बुलाया नहीं तो वे गए भी नहीं. विवाह के बाद मैं अड़ गई कि मेरी विदाई घर से होगी. विवश हो मेरी बात उन्हें रखनी पड़ी. मुझे तो अपने दादाजी और दादी का आशीर्वाद लेना था. दुलहन वेश में उन्हें अपनी धरा को देखना था. उन से किया वादा कैसे टालती.

मेरी विदाई के समय दादाजी और दादी उसी प्रकार बाहरी दरवाजे पर खड़े थे जैसे स्कूल जाते समय खड़े रहते थे. मैं दौड़ कर दादी से लिपट गई. दादाजी के पांव छूने झुकी तो उन्होंने बीच में ही रोक कर गले से लगा लिया. दादी ने सोने का हार मेरी मुट्ठी में थमा दिया और सोने की एक गिन्नी हर्ष की मुट्ठी में.

जब भी मायके जाती, दादी से सौगात में मिले कभी रिंग, कभी टौप्स, कभी साड़ी मुट्ठी में दबाए लौटती. दादी ने मुझे ही नहीं तानी को भी खूब दिया. उन्होंने हम दोनों बहनों को कभी खाली हाथ नहीं आने दिया. कैसे आने देतीं, उन का मन प्यार से लबालब भरा था. वह खाली होना जानती ही न थीं. उन के पास जो कुछ अपना था सब हम पर लुटा रही थीं. मम्मीपापा देखते रह जाते. हम ने उन की बातों को कभी अहमियत नहीं दी, बल्कि मूक विरोध ही करते रहे.

‘‘अरे धरा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुईं. अलमारी पकड़े  क्या सोच रही हो?’’ हर्ष बोले तो मैं जैसे सोते से जागी.

‘‘हर्ष, मेरी दादी चली गईं, मुट्ठी भरा प्यार चला गया. अब कौन मेरी और तुम्हारी मुट्ठियों में सौगात ठूंसेगा? कौन आशीर्वाद देगा? मैं दादी को निर्जीव कैसे देख पाऊंगी,’’ हर्ष के कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

मैं जब हर्ष के साथ वहां पहुंची तो लगभग सभी रिश्तेदार आ चुके थे. दादी के पास बूआजी तथा अन्य महिलाएं बैठी थीं. मैं बूआजी को देख लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही पूछा, ‘‘बूआजी, मम्मीपापा?’’

बूआजी ने ‘न’ में गरदन हिला दी. मैं दनदनाती हुई ऊपर जा पहुंची. मेरा रोदन क्षोभ और क्रोध बन कर फूट पड़ा, ‘‘आप दोनों को मम्मीपापा कहते हुए आज मुझे शर्म आ रही है. पापा, आप ने तो अपनी मां के दूध की इज्जत भी नहीं रखी. एक मां ने आप को 9 महीने अपनी कोख में रखा, आज उसी का ऋण आप चुका देते और मम्मी, जिस मां ने अपना कोख जाया आप के आंचल से बांध दिया, अपना भविष्य, अपनी उम्मीदें आप को सौंप दीं, उन्हीं के पुत्र के कारण आज आप मां का दरजा पा सकीं. एक औरत हो कर औरत का दिल नहीं समझ सकीं. आप आज भी उन्हीं के घर में रह रही हैं. कितने कृतघ्न हैं आप दोनों.

‘‘पापा, क्या आप अपनी देह से उस खून और मज्जा को नोच कर फेंक सकते हैं जो आप को उन्होंने दिया है. उन का दिया नाम आप ने आज तक क्यों नहीं मिटाया? आप की अपनी क्या पहचान है? यह देह भी उन्हीं के कारण धारण किए हुए हो. यदि आप अपना फर्ज नहीं निभाओगे तो क्या दादी यों ही पड़ी रहेंगी. आप सोचते होंगे कि इस घड़ी में दादाजी आप की खुशामद करेंगे. नहीं, उमंग भैया किस दिन काम आएंगे.

‘‘यदि आज आप दोनों ने अपना फर्ज पूरा नहीं किया तो इस भरे समाज में मैं आप का त्याग कर दूंगी और दादाजी को अपने साथ ले जाऊंगी’’

चौंक पडे़ दोनों. सोचने लगे, तो ऐसी नहीं थी, आज क्या हुआ इसे.

‘‘सुनो धरा, तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए था.’’

‘‘क्यों नहीं आती? मेरी दादी गई हैं. उन्हें अंतिम प्रणाम करने का मेरा अधिकार कोई नहीं छीन सकता. आप लोग भी नहीं.’’

‘‘होश में आओ, धरा.’’

‘‘अभी तक होश में नहीं थी पापा, आज पहली बार होश आया है, और अब सोना नहीं चाहती. आज उस मुट्ठी भर प्यार की कसम, आप दोनों नीचे आ रहे हैं या नहीं?’’

धारा की आवाज में चेतावनी की आग थी. विवश हो दोनों को नीचे जाना ही पड़ा.

घूंघट में घोटाला: दुल्हन का चेहरा देख रामसागर को क्यों लगा झटका

रामसागर बड़ा खुश था. उसका दिल बल्लियों उछल रहा था. बात खुशी की ही थी, उसकी शादी जो तय हो गयी थी. आखिरकार इतनी दुआओं और मन्नतों के बाद जीवन में यह शुभ अवसर आया था. वरना उसने तो अब शादी के विषय में सोचना ही छोड़ दिया था. मां-बाप जल्दी गुजर गये थे. रामसागर घर में सबसे बड़ा था. उसके बाद दो बहनें और दो भाई थे, जिनकी पूरी जिम्मेदारी उस अकेले के कंधे पर थी. थोड़ी खेतीबाड़ी थी और एक किराने की दुकान भी.

अट्ठारह बरस की उम्र रही होगी जब मां-बाप साथ छोड़ गये. रामसागर ने बड़ी मेहनत की. चारों भाई-बहनों की देखभाल और उनकी शादी-ब्याह की जिम्मेदारी उसने मां-बाप बन कर उठाये. अब उसकी बयालीस बरस की उम्र हो आयी थी. इस उम्र के उसके दोस्त अपने बच्चों की शादी की चिन्ता में मग्न थे और वो अभी तक छुट्टे बैल की तरह घूम रहा था…! छोटे भाई-बहनों की नय्या पार लगाते-लगाते कब रामसागर के बालों में सफेदी झलकने लगी थी, उसे पता ही नहीं चला. सबका घर बसाने के चक्कर में उसका अपना घर अब तक नहीं बस पाया था.

चलो देर आये दुरुस्त आये. रिश्ते की बुआ ने आखिरकार उसकी सगाई तय करा ही दी. उसका मन बुआ को दुआएं देते नहीं थक रहा था. लड़की पास के गांव की थी. छह बहनों में तीसरे नंबर की. रामसागर अपनी बुआ के साथ लड़की देखने पहुंचा तो शर्म के मारे गर्दन ही नहीं उठ रही थी. लड़की चाय की ट्रे लिए सामने खड़ी थी. रामसागर नजरें नीचे किए बस उसके कोमल पैरों को निहार रहा था. गोरे-गोरे पैर पतली पट्टी की सस्ती सी सैंडिल में चमक रहे थे. नाखूनों पर लाल रंग की नेलपौलिश चढ़ी थी. रामसागर तो उसके पैरों को देखकर ही रीझ गया. बुआ ने कोहनी मारी, ‘जरा नजर उठा कर निहार ले… बाद में न कहना कि कैसी लड़की से ब्याह करवा दिया.’

रामसागर ने बमुश्किल नजरें उठायीं. लड़की के सिर पर गुलाबी पल्ला था. आधा चेहरा ही रामसागर को नजर आया. चांद सा. बिल्कुल गोरा-गोरा. रामसागर ने धीरे से गर्दन हिला कर अपनी रजामंदी जाहिर कर दी. शादी की तारीख महीने भर बाद की तय हुई थी. रामसागर घर की एक-एक चीज साफ करने में जुटा था. घर में उसके सिवा कोई था ही कहां, जो सब संवारे-बुहारे. सब उसे ही करना था. बहनें ब्याह कर अपने घरों की हो गई थीं. दोनों भाई रोजगार के चक्कर में दिल्ली गये तो वहीं के होकर रह गये. एक-एक करके अपनी पत्नियों और बच्चों को भी ले गये कि वहां बच्चों की अच्छी परवरिश और पढ़ाई हो सकेगी. पीछे रह गया रामसागर. अकेला.

एक महीने में रामसागर ने घर का कायाकल्प कर डाला. अपनी पत्नी के स्वागत में वह जो कुछ भी कर सकता था उसने किया. आखिरकार शादी का दिन भी आ पहुंचा. घोड़ी पर सवार रामसागर कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों से घिरा गाजे-बाजे के साथ धड़कते दिल से अपनी होने वाली ससुराल पहुंचा. लड़की वालों ने स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी. जयमाल, फेरे सब हो गये. रामसागर बस एक नजर अपनी पत्नी के चेहरे को देख लेना चाहता था. मगर चांद पर लंबा घूंघट पड़ा था. आगे पीछे उसकी बहनें, सहेलियां और रिश्ते की बहुएं. सुबह विदाई के वक्त भी लंबा सा घूंघट. विदा की बेला आ गयी. रामसागर घूंघट में जार-जार रोती अपनी दुल्हन को लेकर अपने गांव पहुंच गया. सारा दिन रीति रिवाज निभाते बीत गये. दुल्हन भीतर कमरे में औरतों के बीच दुबकी बैठी रही और वह बाहर मर्दों में. आखिरकार सुहागरात की बेला आ गयी. औरतों ने आकर रामसागर को पुकारा और धक्का देकर कमरे के भीतर धकेल दिया.

चांद पर अब भी घूंघट पड़ा था. रामसागर झिझकते हुए पलंग पर बैठा तो उसका चांद और ज्यादा सिमट गया. काफी देर खामोशी छाई रही. आखिर हिम्मत जुटा कर रामसागर ने घूंघट के पट खोले तो जैसे उसको सांप सूंघ गया. घूंघट का चांद वो चांद नहीं था जो उस दिन नजर आया था. ये तो कुछ फीका-फीका सा था.  बेसाख्ता उसके मुख से निकला, ‘तुम कौन हो?’ वह धीरे से बोली, ‘अनीता’. रामसागर ने कहा, ‘मगर मेरी शादी तो सुनीता से तय हुई थी.’

अनीता ने गर्दन झुका ली. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सकते में डूबे रामसागर ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने बुआ खड़ी थी. वह झपट कर अंदर आयीं और दरवाजा बंद करके पलंग पर बैठ गयीं. रामसागर हैरानी से उनकी ओर देख रहा था. कुछ पूछना ही चाहता था कि बुआ बोल पड़ी, ‘रामसागर ये अनीता है. सुनीता की बड़ी बहन. तेरी शादी सुनीता से तय हुई थी, मगर वह किसी और से प्रेम करती थी. उसके साथ भाग गयी. वह उम्र में भी तुझसे काफी छोटी थी. चंचल थी. तू उसे संभाल नहीं पाता. इसके पिता तो बड़े दुखी थे. मुझे बुला कर सब सच-सच बता दिये थे. माफी मांगते थे. मिन्नतें करते थे. फिर मैंने तेरे लिए अनीता को पसन्द कर लिया. सब विधि का विधान है. यह भी शायद तेरे लिए ही अब तक कुंवारी बैठी थी. छोटी बहनों की शादियां पहले हो गयीं. देख रामसागर, अनीता रूप में भले सुनीता से थोड़ी दबी हो, मगर गुणों की खान है. अपना पूरा घर इसी ने अकेले संभाल रखा था. इसको अपना ले. तेरा ब्याह इसी के साथ हुआ है. अब यही तेरी पत्नी है.’ बुआ रामसागर पर दबाव बनाते हुए बोली.

रामसागर सिर पकड़े नीचे बैठ गया. बुआ और अनीता एकटक उसका चेहरा देख रही थीं कि पता नहीं इस खुलासे का क्या अंजाम सामने आये. चंद सेकेंड बाद रामसागर ने सिर उठाया और बोला, ‘बुआ, घूंघट में घोटाला हो गया… मगर कोई बात नहीं… नुकसान ज्यादा न हुआ.’

बुआ हंस पड़ी, साथ में रामसागर भी ठठा पड़ा और चांद के चेहरे पर भी मुस्कुराहट तैर गयी.

जिंदगी मेरी मरजी भी मेरी, ‘खुद लें जिंदगी से जुड़े फैसले’

टाटा एआईए लाइफ इंश्योरैंस (टाटा एआईए) के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कामकाजी युवतियों की संख्या बढ़ी है लेकिन जब बात कोई फैसला लेने की आती है तो वे कतराती हैं. सर्वेक्षण से पता चलता है कि 59त्न महिलाएं अपने वित्तीय मामलों पर स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं लेती हैं. वैसे अगर उन्हें विकल्प दिया जाए तो 44त्न महिलाएं अपने फाइनैंशियल डिसीजंस खुद लेने को तैयार हैं. सर्वेक्षण के निष्कर्षों से यह भी पता चला कि 89त्न विवाहित महिलाएं और युवतियां फाइनैंशियल प्लानिंग के लिए अपने पति पर निर्भर हैं. शादी से पहले पिता युवतियों के फाइनैंशियल डिसीजंस के लिए जिम्मेदार होते हैं जिसे शादी के बाद चुपचाप पति को सौंप दिया जाता है.

अधिकांश महिलाओं के लिए आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें अपने वित्त से संबंधित निर्णय लेने की स्वतंत्रता है. महिलाओं में फैसले न लेने का यह रवैया केवल महज आर्थिक बातों में ही नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में कमोबेश यही स्थिति है. उदाहरण के लिए इस समय त्योहारों का दौर चल रहा है. घरों में कपड़ों और दूसरी जरूरी चीजों की खरीदारी होती है जिस का फैसला ज्यादातर पुरुष लेते हैं. महिलाएं भी सब पुरुषों पर छोड़ देती हैं जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि अकसर इन चीजों का इस्तेमाल उन्हें ही करना होता है.

अगर किचन इक्विपमैंट आ रहा है तो जाहिर है उस का इस्तेमाल स्त्री को करना है, बच्चों के कपड़े हैं तो वहां भी स्त्री को ही बच्चों को संभालना है. चीजें महिला के काम की हैं

मगर क्या लाना है या क्या नहीं लाना है यह फैसला पति का क्यों हो? घर के परदे बदलने हैं तो स्त्रियां अपनी पसंद के रंग वाले परदे क्यों न लाएं?

समाज की परिपाटी

दरअसल, हमारे समाज में सभ्य और संस्कारी औरत वही मानी जाती है जो समाज की बनाई परिपाटी के अनुसार जीवन बिताती है. मसलन, पढ़ाई के बाद जौब मिली तो ठीक और नहीं मिली तो शादी होने में देर नहीं लगती. शादी के बाद बच्चा पैदा करना है या नहीं इस में युवतियों की मरजी नहीं चलती. उन्हें बच्चे पैदा करने ही हैं और फिर उन की परवरिश और घरपरिवार संभालना ही उन का दायित्व बन जाता है. इन सब के बीच युवतियों की अपनी जिंदगी, अपनी पसंद, अपने लमहे और अपने फैसले खो से जाते हैं. वे वही करती जाती हैं जो उन्हें करने को कहा जाता है.

पहले पिता और सासससुर, फिर पति और उम्र बढ़ने पर बच्चे ही महिला की जिंदगी के छोटेबड़े हर तरह के फैसलों के मालिक होते हैं. कोई औरत इस परिपाटी को तोड़ना चाहे और अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीना चाहे तो समाज के लोग उसे कनखियों से देखने लगते हैं और उस पर छींटाकशी करना अपना अधिकार समझने लगते हैं.

जिंदगी जीने का हक

यदि कोई लड़की अविवाहित रहना चाहे या शादी के बाद बच्चा पैदा न करना चाहे, जौब पर फोकस करना चाहे या कोई पसंदीदा कैरियर अपनाना चाहे तो ऐसी लड़कियों को समाज अलग ही नजरिए से देखता है और उन का अपमान करता है. असल में समाज यह मानता है कि जिस ने शादी नहीं की उस को अपने हिसाब से जिंदगी जीने का कोई हक नहीं और अकेली रहने का हक तो बिलकुल नहीं. जिस ने शादी कर ली उसे केवल पति की आज्ञानुसार पीछेपीछे चलना है तभी वह संस्कारी और गुणी कहलाएगी. यदि कोई युवती अपने फैसलों के साथ जीना चाहती है तो अकसर समाज उस का जीना मुहाल कर देता है.

दिल्ली के अशोक नगर में रहने वाली अनुजा कहती हैं कि हमारी सोसाइटी में 35-40 साल की एक अविवाहित युवती अकेली रहती थी. वह कामकाजी थी. शनिवाररविवार ही घर पर दिखती और बाकी दिन ड्यूटी पर रहती. सोसाइटी के कुछ बुजुर्ग हमेशा उस महिला पर नजर रखते. कब उस के मित्र आते हैं, कब जाते हैं, उस ने कैसे कपड़े पहन रखे हैं, फोन पर क्या बातें करती है.

छोटीछोटी बात के लिए उसे परेशान करते. उस के चरित्र पर उंगली उठाते. उसे एक तरह से सोसाइटी से बहिष्कृत रखते. अंत में उस युवती ने तंग आ कर मकान ही खाली कर दिया और कहीं दूसरी जगह शिफ्ट हो गई.

मलाला यूसुफजई ने बदली सोच

इस संदर्भ में मलाला यूसुफजई का उदाहरण भी बहुत सटीक बैठता है जिसे पता था कि जिंदगी में उसे क्या चाहिए. उस ने अपने फैसले खुद लिए. किसी की नहीं सुनी. समाज की भी नहीं. मगर उसे बहुत कठिन रास्तों से गुजरना पड़ा.

एक स्त्री अपनी जिंदगी के फैसले खुद ले भला यह संकीर्ण मानसिकता के लोगों को कैसे सहन हो सकता है?

मलाला का जन्म 12 जुलाई, 1997 को स्वात घाटी के सब से बड़े शहर मिंगोरा में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है. बहुत छोटी उम्र में ही मलाला में ज्ञान की प्यास पैदा हो गई थी. 2007 में जब मलाला 10 साल की थी तो तालिबान ने स्वात घाटी को नियंत्रित करना शुरू कर दिया और प्रमुख सामाजिकराजनीतिक ताकत बन गया.

शिक्षा पर प्रतिबंध

लड़कियों के स्कूल जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. नृत्य और टैलीविजन देखने जैसी सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया. तब 2008 के अंत तक तालिबान ने लगभग 400 स्कूलों को नष्ट कर दिया था. स्कूल जाने के लिए दृढ़निश्चयी और शिक्षा के अपने अधिकार में दृढ़विश्वास के साथ मलाला तालिबान के खिलाफ खड़ी हो गई. उस ने एक बार पाकिस्तानी टीवी पर कहा था, ‘‘तालिबान ने मेरी शिक्षा के मूल अधिकार को छीनने की हिम्मत कैसे की?’’

2009 की शुरुआत में मलाला ने ब्रिटिश ब्रौडकास्टिंग कौरपोरेशन (बीबीसी) की उर्दू भाषा की साइट पर गुमनाम रूप से ब्लौग लिखना शुरू किया. उस ने तालिबान शासन के तहत स्वात घाटी में जीवन और स्कूल जाने की अपनी इच्छा के बारे में लिखा. ‘गुल मकाई’ नाम का उपयोग करते हुए उस ने घर पर रहने के लिए मजबूर होने का वर्णन किया और उस ने तालिबान के इरादों पर सवाल उठाया.

मलाला 11 साल की थी जब उस ने अपनी पहली बीबीसी डायरी लिखी थी. ब्लौग शीर्षक ‘मुझे डर लग रहा है’ के अंतर्गत उस ने अपनी खूबसूरत स्वात घाटी में एक पूर्ण युद्ध के डर और तालिबान के कारण स्कूल जाने से डरने के अपने बुरे सपनों का वर्णन किया.

मलाला ने स्कूल जाने के अपने अधिकार के लिए अपना सार्वजनिक अभियान जारी रखा. उस की आवाज और तेज होती गई और 2011 में अंतर्राष्ट्रीय बाल शांति पुरस्कार के लिए उस का नामांकन हुआ. उसी वर्ष उसे पाकिस्तान के राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

9 अक्तूबर, 2012 की सुबह 15 वर्षीय मलाला यूसुफजई को तालिबान ने गोली मार दी. गोली लगने के बाद उस की अविश्वसनीय रिकवरी और स्कूल में वापसी के परिणामस्वरूप मलाला के लिए दुनियाभर से समर्थन की बाढ़ आ गई.

12 जुलाई, 2013 को अपने 16वें जन्मदिन पर  मलाला ने न्यूयौर्क का दौरा किया और संयुक्त राष्ट्र में भाषण दिया. उसी वर्ष बाद में उस ने अपनी पहली पुस्तक ‘एक आत्मकथा’ प्रकाशित की जिस का शीर्षक था ‘आई एम मलाला: द गर्ल हू स्टुड अप फौर ऐजुकेशन ऐंड वाज शौट बाय द तालिबान’.

10 अक्तूबर, 2013 को उस के काम की सराहना करते हुए यूरोपीय संसद ने मलाला को विचार की स्वतंत्रता के लिए प्रतिष्ठित सखारोव पुरस्कार से सम्मानित किया. बाद में उस ने अपने पिता के साथ मलाला फंड की सहस्थापना की. अक्तूबर, 2014 में मलाला को भारतीय बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबेल शांति पुरस्कार विजेता घोषित किया गया. 17 साल की उम्र में वे यह पुरस्कार पाने वाली सब से कम उम्र की व्यक्ति बन गईं.

जाहिर है मलाला ने हिम्मत दिखाई, अपने पढ़ने के फैसले पर डटी रहीं, अपनी जिंदगी के फैसले खुद लिए और सब के लिए एक प्रेरणा बन गईं.

मलाला यूसुफजई के शब्दों में, ‘‘हमें अपनी आवाज का महत्त्व तभी पता चलता है जब उसे दबा दिया जाता है.’’

उर्फी जावेद ने भी खुद लिए जिंदगी के फैसले कुछ ऐसे ही उर्फी जावेद ने भी अपनी जिंदगी की कमान अपने हाथों में ली. अपने फैसलों के लिए उसे अपने पिता समेत पूरे समाज से लड़ना पड़ा लेकिन जो उसे दिल कहता उसे ही करती गई. उर्फी को भले ही बहुत से लोग नकारात्मक नजरिए से देखते हैं मगर यदि उस की जिंदगी को सही तरीके से देखा जाए तो वह शुरू से ही फोकस थी कि उसे क्या करना है. उस ने अपनी जिंदगी को जीने का निर्णय खुद लिया. आज जब वह सफल हो गई तो सब का मुंह बंद कर दिया.

वैसे ऊर्फी जावेद का नाम आते ही लोग ऊटपटांग ड्रैस पहनने वाली लड़की को याद करते हैं. लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि उर्फी सोशल मीडिया का एक जानामाना नाम है. वह अकसर अपनी ड्रैस और बेबाक बयान की वजह से चर्चा में बनी रहती है.

एक बार फिर से उर्फी चर्चा का विषय बनी हुई है. इस बार की वजह उस की ड्रैसिंग सैंस नहीं बल्कि उस की जिंदगी पर आधारित सीरीज ‘फौलो कर लो यार’ है. यह सीरीज ओटीटी प्लेटफौर्म 23 अगस्त से नैटफ्लिक्स पर आ चुकी है. इस में कई सैलिब्रिटीज के साथसाथ उर्फी जावेद के परिवार को भी उन के बारे में खट्टेमीठे किस्से बताते हुए देखा जा सकता है.

उर्फी के पिता बहुत ही रूढि़वादी थे और जब उर्फी अपने मन की करती तो वे उसे मारते थे. अपने दर्दनाक बचपन के बारे में खुल कर बात करते हुए एक इंटरव्यू में उर्फी जावेद ने बताया था कि एक बार उन के पिता ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई थी. उसे 17 साल की उम्र में अपना शहर लखनऊ छोड़ना पड़ा था. दरअसल, लखनऊ जैसी छोटी जगह में अपना पैशन पूरा करने के लिए निकलती थी तो लोग बहुत टोकाटाकी करते थे. तब उसे लगा कि वह जैसा जीवन जीना चाहती है वैसा इस संकीर्ण समाज में नहीं जी पाएगी.

एक बार वह अपनी जिंदगी और उस में आने वाली परेशानियों से इतना परेशान हो गई थी कि उस के दिमाग में सुसाइड के खयाल आने लगे थे. उर्फी जावेद ऐन मौके पर रुक गई थी और फिर उस ने फैसला कर लिया था कि वह कभी अपनी दिक्कतों के आगे झुकेगी नहीं बल्कि जीवन में अपना संघर्ष जारी रखेगी.

उर्फी लखनऊ छोड़ कर और दिल्ली आ गई. पैसों के लिए ट्यूशन की और एक कौल सैंटर में भी काम किया जिस के बाद वह मुंबई चली गई. मुंबई में उस के पास पैसे नहीं थे जिस की वजह से छोटी जौब करनी पड़ी, औडिशन और इंटरव्यू देने पड़े लेकिन इस के बाद भी उस की दाल नहीं गली. बिग बौस ओटीटी से भी जब उर्फी 1 हफ्ते में आउट हो गई तो उस ने फैसला किया कि वह अपने कपड़ों को ले कर ऐक्सपैरिमैंट करेगी क्योंकि उसे यही सब पसंद है. उस के सपने बड़े थे.

ब्रैंडैड कपड़ों का शौक

उर्फी को ब्रैंडैड कपड़ों का शौक था. महंगी कारों का शौक था. उस ने अपनी टीम बनाई और यह काम शुरू किया. अपने हिसाब से कपड़ों को डिजाइन करना और पहन कर निकलना शुरू किया. लोग उसे जानने लगे. कुछ को उस की फैशन सैंस बुरी और अजीब लगी मगर ज्यादातर लोगों ने उस की काबीलियत का लोहा माना. लोग उस की नकल कर के कपड़े पहनने लगे. इस तरह उसे एक अलग पहचान मिली. उर्फी का कैरियर उटपटांग कपड़ों पर ही चलता है. अजीबोगरीब कपड़े पहन कर वह फेमस हो गई.

दूसरे ब्रैंड भी उस से अपनी ब्रैंडिंग करा रहे हैं. इसी से वह कमाई कर रही है. आज वह इतनी सफल हो गई है कि अपनी बहनों का भी कैरियर बना दिया और परिवार को भी सपोर्ट करती है. आज उर्फी अतरंगी फैशन आइकौन बन चुकी है और अबूजानी संदीप खोसला और राहुल मिश्रा जैसे बड़े डिजाइनर्स के कपड़ों में मौडलिंग करती हैं.

अल एनोन ने सही कहा था कि यदि आप को दरवाजे की चटाई बनना पसंद नहीं है तो फर्श से उठ जाइए. अपने वजूद को स्थापित करने और अलग पहचान बनाने के लिए जिंदगी को अपने हिसाब से जीना जरूरी है. अपने फैसले ले कर अपने कैरियर पर फोकस करना जरूरी है. दिल की सुन कर अपनी मरजी चलानी जरूरी है.

अच्छी महिला होने का तमगा

बहुत सी बातें महिलाओं की गतिशीलता, स्वतंत्रता और यौनिकता को प्रभावित करती हैं. समाज में ‘अच्छे घर की औरतें’ ऐसा नहीं करती हैं, बाहर नहीं जाती हैं, बाहर नहीं दिखती हैं, उन के घर में ऐसा नहीं होता है जैसे कथनों के द्वारा उन्हें रोका जाता है. एक मां, बेटी, पत्नी के रूप में उन से इस व्यवहार की उम्मीद की जाती है. घर की मर्यादा को बढ़ाने का भार उन पर लाद कर उसे घर में भी कैद कर दिया जाता है.

दुनियाभर में करीब 240 करोड़ महिलाएं, पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित हैं. अनुमान है कि उन के बीच के इस अंतराल को भरने में अभी 50 साल और लगेंगे.

यह सही है कि आज अतीत के मुकाबले कहीं ज्यादा बच्चियां शिक्षा ले रही हैं. इसी तरह बालविवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा और खतना जैसी सामाजिक कुरीतियों में कमी आई है. महिला स्वास्थ्य की दिशा में प्रगति हुई है जिस की वजह से महिलाओं की औसत उम्र में इजाफा हुआ है.

अब पहले से कहीं ज्यादा महिलाएं संसद तक पहुंच रही हैं. भारत जैसे देशों में तो वे देश का प्रतिनिधित्व भी कर रही हैं. बड़ी संख्या में लोग महिलाओं के खिलाफ होती हिंसा के खिलाफ सामने आ रहे हैं. महिला श्रमिकों के अधिकारों में बढ़ोतरी हुई है. लेकिन इस के बावजूद महिलाओं और पुरुषों के बीच जो असमानता की खाई है वह अभी भी काफी गहरी है जिसे भरने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना होगा और वह चुनौतियों से भरा होगा. भले ही हम ने विकास के कितने ही पायदान चढ़ लिए हों लेकिन आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा नहीं मिला है.

वे आज भी रोजगार, आय, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित कई क्षेत्रों में पुरुषों से पीछे हैं. दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं है जो महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक दिला पाने की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरा हो.

एक रिपोर्ट के मुताबिक पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा पर बहुत कम निवेश किया जाता है. इसी तरह रोजगार में उन के पास पुरुषों से कम मौके उपलब्ध होते हैं. यदि मौका मिल भी जाए तो उन्हें.

पुरुषों से कम वेतन दिया जाता है. आंकड़ों के अनुसार 24.5 करोड़ से ज्यादा महिलाएं या युवतियां हर साल शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार बनती हैं.

गहरी है असमानता की खाई

आंकड़ों की मानें तो दुनिया में आज भी केवल काम करने योग्य आयु की केवल 61.8 फीसदी महिलाएं श्रम बल का हिस्सा हैं. यह आंकड़ा पिछले 3 दशकों में नहीं बदला है वहीं पुरुषों की बात करें तो 90 फीसदी काम कर रहे हैं. इतना ही नहीं पारिवारिक जिम्मेदारियां और बिना वेतन के घंटों किया जाने वाला काम उन के पुरुषों की तरह श्रम बल में शामिल होने की क्षमता को बाधित करता है. उन्हें अभी भी पुरुषों से कमतर आंका जाता है.

लैंगिक भूमिका और पितृसत्तात्मक परिवार

अकसर मातापिता अपने बच्चों को समानता का पाठ तो पढ़ाते हैं पर उस समानता को उन के जीवन में उतारने में कहीं न कहीं चूक जाते हैं. व्यावहारिक जीवन में लगभग हर घर में वही पितृसत्तात्मक सोच हावी है. बच्चे का वातावरण ही उस के मस्तिष्क के विकास को आकार देता है. बचपन में सीखी और सम?ा बातें ही उसे जीवनभर याद रहती हैं और वह उसी तरह का व्यवहार करता है. जरूरी है कि हम बच्चों में उन के लिंग के आधार पर कामों का बंटवारा न कर के उन की इच्छा के अनुसार कामों का बंटवारा करें.

मां कामकाजी हो या न हो लेकिन ज्यादातर घरों में रसोई की पूरी जिम्मेदारी उसी की होती है. एक बच्चा या बच्ची जन्म से अपनी मां या दादी को घरेलू कामों में उल?ा हुआ देखती है. इसी के अनुसार वह अपने मन में समाज के प्रति अपना योगदान निर्धारित कर लेती है. लड़कियों को मांबाप यही सिखाते आए हैं कि वे पराया धन हैं और उन्हें दूसरे के घर जा कर अपना जीवन बिताना है इसलिए उन में सहन और सम?ाता करने का गुण होना चाहिए.

यदि कोई बड़ा या घर का सदस्य एक गिलास पानी मांगे तो वह एक गिलास पानी देने की उम्मीद घर की लड़कियों से ही की जाती है. यदि किसी भी स्तर पर कोई भी सम?ाता करना हो तो उस सम?ाते की उम्मीद लड़कियों से ही की जाती है. उन्हें पढ़ाया तो जाता है लेकिन पढ़ाई का क्षेत्र बीएड, मैडिकल और सामान्य परीक्षाओं की तैयारी तक ही सीमित रहता है. नौकरी करने की अनुमति तो होती है लेकिन टीचिंग और बैंकिंग सैक्टर में ही ताकि नौकरी करने के साथसाथ वे घर की जिम्मेदारी भी अच्छी तरीके से निभा सके.

विडंबना नहीं तो और क्या

ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवारों में मातापिता अपनी लड़कियों को सपने देखना बाद में और उन की हद पहले बताते हैं. यूनिसेफ की ही एक और रिपोर्ट के अनुसार लड़कियों और लड़कों के बीच भेदभाव जैसेजैसे बढ़ता जाता है इस का असर न केवल उन के बचपन में दिखता है बल्कि वयस्कता तक आतेआते इस का स्वरूप और व्यापक हो जाता है.

जिस भी रिश्ते से औरत जुड़ी है उस रिश्ते को महिमामंडित किया जाता है. औरत की हर रिश्ते में एक खास छवि बना दी गई है- बेटी के रूप में, बहन, पत्नी, मां और सास के रूप में. इस सब में ‘देवी,’ ‘सम्मान,’ ‘पवित्रता’ जैसे शब्द डाल कर औरत की ऐसी छवि तैयार कर दी गई है कि जबजब भी इस छवि से बाहर निकलने की औरत ने कोशिश की है उस की ओर उंगली उठ गई है. आक्षेप लगाए गए हैं.

यह छवि खुद औरत पर इस कदर हावी है कि वह निरंतर हाथपैर समेट कर बनाए गए फ्रेम के अंदर कैद रहने की कोशिश करती रहती है. इस के बाहर भी उस की पहचान बन सकती है  यह खुद वह नहीं जान पाती. विडंबना यह है कि इस छवि की कैद औरत को कैद नहीं लगती क्योंकि पुरुष लगातार उसे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करता रहा है. उसे देवी होने का एहसास दिलाता है पर वास्तव में उसे महज एक कैदी मानता है.

खुद लें जिंदगी से जुड़े फैसले

जिंदगी के छोटे फैसले हों या बड़े उन्हें खुद लीजिए. बात शौपिंग की हो, कैरियर चौइस की हो या ट्रैवल प्लान की, जौब की हो या रिश्तेदारी निभाने की, फ्यूचर प्लान की हों या इनवैस्टमैंट का फैसला लेने की सब में महिलाओं और युवतियों को अपनी बात रखनी चाहिए और अपने डिसीजन खुद लेने चाहिए.

कैरियर डिसीजन

कालेज टाइम में किसी ने इंटर कर लिया है फिर आगे उस की चौइस की पढ़ाई से पेरैंट्स सिर्फ इसलिए नहीं रोक सकते कि जहां पढ़ने जाना है वह जगह दूर है. अगर आप अभी उन की बात सुनेंगी तो अपनी कैरियर चौइस से पीछे रह जाएंगी. वह नहीं कर पाएंगी जो आप वास्तव में करना चाहती थीं. कैरियर ग्रोथ में भी अपने डिसीजन होने चाहिए क्योंकि आप को पूरी लाइफ अपने बल पर अपने हिसाब से बितानी है न कि किसी और के डिसीजन के हिसाब से. नौकरी या बिजनैस के मामलों में भी केवल अपनी सुनें.

फैशन चौइस

फैशन चौइस में हमेशा याद रखें कि नो बौडी कैन रूल यू कि आप को क्या पहनना है और क्या नहीं पहनना है. जिस में आप कंफर्टेबल हों, जिस में आप को लगता है कि आप स्टाइलिश और कौन्फिडैंट लगती हों वही पहनें. फैस्टिव में कपड़े आने हैं तो जो पापा ले आएंगे उन्हें पहन लेंगे वाली सोच सही नहीं. आप वह खरीदो जो आप के स्टाइल को शूट करता हो. कितनी सारी सैलिब्रिटीज ऐसी हैं जो अपने स्टाइल के लिए जानी जाती हैं और स्टाइल आइकौन कहलाती हैं. मसलन दीपिका पादुकोण, ऐश्वर्या राय, कैटरीना कैफ, सोनम कपूर वगैरह. आप 48 साल की ऐश्वर्या को ही लें.

कांस फिल्म फैस्टिवल में जब ऐश रैड कार्पेट पर चलती हैं तो सच पूछिए उन की खूबसूरती, स्टाइल के आगे अधिकतर हौलीवुड ऐक्ट्रैसेज की पावर भी फीकी पड़ जाती है. इन का स्टाइल सब को दीवाना बना देता है.

वैसे ही आप अपने कालेज या औफिस की स्टाइल आइकौन बन सकती हैं. यह पहचान भी जरूरी है. इस से कौन्फिडैंस बढ़ता है.

इनवैस्टमैंट प्लान

इनवैस्टमैंट के बारे में अधिक से अधिक जानने और सम?ाने का प्रयास करें. खुद बैंक जाएं, खुद हर तरह की कागजी कार्यवाही करें. अपने नाम पर घर और प्लाट खरीदें. सारे डाक्यूमैंट्स खुद संभाल कर रखें. खुद लौयर या इनवैस्टर आदि से मिलें. आप खुद इंटरैस्ट लेंगी तभी आगे सबकुछ अपने हिसाब से कर सकेंगी. इस में जरा भी हिचकिचाएं नहीं.

ट्रिप प्लान: स्कूलकालेज के दौरान भी अगर कहीं ट्रिप पर जाना है तो प्लान लड़के बनाएंगे और लड़कियां बस साथ जाएंगी, ऐसी सोच न रखें. आप अपने हिसाब से और अपनी पसंद से जगह का चयन करें. क्या करना है, कहां ठहरना है, कहांकहां जाना है, क्या और्डर करना है, कहां से खाना मंगाना है, कैसे रिजर्वेशन कराना है, जैसी बातों के लिए लड़कों का मुंह न ताकें. खुद इनिशिएटिव लें. खुद सबकुछ डिसाइड करें. शुरू से यह आदत रहेगी तो आगे जा कर आप की जिंदगी बहुत सरल हो जाएगी और आप का आत्मविश्वास बढ़ेगा. शादी के बाद भी फिर आप हर फैसले के लिए पति पर निर्भर नहीं रहेंगी.

अब समय आ गया है जब युवतियां और स्त्रियां अपने वजूद को पहचानें. पुरुषों के हाथों की कठपुतली बनने के बजाय खुद की जिंदगी की कमान अपने हाथों में लें. अपने हिसाब से जीएं. अपने फैसले लें और उन फैसलों पर डटी रहें. तभी जिंदगी का एक नया विहान सामने आएगा. वे न सिर्फ खुल कर जी पाएंगी बल्कि हकीकत में पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर आगे भी बढ़ पाएंगी.

Health Tips: पेट है अलमारी नहीं, उतना ही खाएं जितनी जगह हो

Health Tips:  40 वर्षीय पवन का पूरा परिवार, पत्नी अनीता, 10 साल का बेटा अनुज और 8 साल की बेटी मेधा सुबह से ही अच्छे मूड में थे. खुश होने का पहला कारण था, आज संडे था. औफिस, स्कूल की छुट्टी थी. अनीता इस बात पर खुश थी कि आज दिनभर शौर्टकट मार कर हलका ही खाना बनाना होगा क्योंकि शाम को एक शादी में जाना था.

पवन ने उठते ही कह दिया, ‘‘आज तो भाई अब शाम को ही खाने पर टूटना है, बच्चे दिन में कम खाएंगे ताकि रात का माल उड़ा सकें.’’

नाश्ते में चारों ने 1-1 कप दूध में ओट्स डाल कर खा लिए. लंच में खिचड़ी खाई गई. शाम को रोज की तरह न बच्चों को कोई फल दिया गया, न खुद खाया गया, कहीं पेट न भर जाए. शादी में जाएं और पेट में जगह न हो तो सारा मजा ही खराब हो जाएगा. फिर क्या फायदा शादी में जाने का? बच्चों ने खेल कर आने पर कुछ खाने के लिए मांगा तो उन्हें समझया गया कि घर में ही खा लोगे तो वहां जा कर क्या खाओगे? वहां बहुत सारी चीजें होंगी, सब खानी हैं.

कुछ खाया कुछ छोड़ दिया

पवन की सोसाइटी के ही एक अतिसमृद्ध परिचित के बेटे की रिसैप्शन थी, वे लोग शादी कहीं और डेस्टिनेशन वैडिंग कर के आए थे. अब यहां के परिचितों के लिए एक शानदार ओपन स्पेस वाले होटल में बड़ी सी पार्टी रखी थी. जब रात 8 बजे पवन परिवार के साथ वहां पहुंचा, उसे काफी परिचित भी मिले. मेजबानों से मिल कर, स्टेज पर दूल्हादुलहन को शगुन का लिफाफा दे कर.

शालीनता के साथ आशीर्वाद देते हुए फोटो खिंचवा कर अब पवन अपने असली रूप में आया. अब परिवार के साथ खाने के स्टाल्स पर नजर डाली, चारों का मन खुश हो गया. जहां तक नजर डाली, खाना ही खाना था.

‘‘कहां से शुरू करें, बच्चो. अनीता तुम एक टेबल घेरो जिस से बैठ कर आराम से खाना दबा कर खा सकें. एक तरफ से सबकुछ खाना है. मैं अपनी प्लेट लगा कर लाता हूं. ऐसा करो, अनुज. तुम मेरे साथ आ जाओ, 2-2 कर के खाना ले आते हैं.’’

अनीता ने कहा, ‘‘जाओ बेटा, खूब अच्छी तरह अपनी प्लेट में खाना भर कर ले आना. सबकुछ खाना है. देख कर ही मजा आ रहा है.’’

एक टेबल घेर ली गई. उस के बाद शुरू हुआ प्लेट पर प्लेट भरभर कर लाने का दौर. कुछ खाया गया, कुछ छोड़ दिया गया, चाट वाले स्टाल पर इतनी देर खाया गया कि कई साथी खा कर चले भी गए. जो इन्हें जानते थे वे मजाक भी कर गए कि अभी तो अनुज कई लोगों का साथ देगा चलो आज तो इन्होंने पूरा दिन कुछ हलका ही खाया होगा.

पर अगर ऐसी बातों का अनुज और उस के परिवार पर फर्क पड़ा होता तो अभी तक प्लेटें रख दी गई होतीं क्योंकि पेट तो बहुत पहले भर चुका था. पेट भर जाने के बाद भी प्लेट में अभी भी इतना खाना था कि अब पेट रो उठा, पेट, गले, मुंह  ने जब तक हाथ खड़े नहीं किए, तब तक खाने की प्लेट्स रखी नहीं गईं.

डस्टबिन में एक अनुज के परिवार की ही खाना भरी प्लेट्स नहीं थीं, अनुज जैसे और भी कई लोग इस पार्टी में मौजूद थे.

उतना ही खाएं जितनी पेट में जगह हो

किसी शादी में जाना बस कहीं जाना ही नहीं होता, लोगों से मिलनाजुलना भी होता है, भागदौड़ के जीवन से एक ब्रेक भी होता है, हम रोज से हट कर तैयार होते हैं, कुछ बातें अनजाने में खुद सीखते हैं, कुछ इस बहाने बच्चों को भी सिखाते हैं. यहां अगर अनुज और अनीता बच्चों को घर से ही सिखा कर ले गए होते कि खाना बेकार नहीं करना है, उतना ही खाना चाहिए जितनी पेट में जगह हो तो वे देश के भविष्य के लिए 2 अच्छे नागरिक तैयार कर रहे होते. पर यहां तो उलटा ही हो रहा था, मातापिता ही पेट को डस्टबिन बनाने पर तुले थे.

पेट पेट ही है, उसे सामान भरने वाली अलमारी समझने वाले लोग अपने साथ अच्छा नहीं करते. ज्यादा खाना पेट के लिए अच्छा नहीं है. ज्यादा खाना है क्या? ज्यादा खाना खाने का मतलब है पेट भर जाने के बाद भी खाना. फ्री का खाना और टेस्ट के चक्कर में पेटू बनने की आदत हैल्थ को भी बहुत नुकसान पहुंचाती है. वजन बढ़ता है और भी कई बीमारियां हो सकती हैं. एक रिसर्च के अनुसार अगर आप एकसाथ ही जरूरत से ज्यादा खाना खा लेते हैं तो इस से आप के वजन, फैट लैवल और ब्लड शुगर लैवल पर हानिकारक असर पड़ सकता है.

वहीं यदि आप अधिक कैलोरीज वाली चीजों की ओवरईटिंग करते हैं तो इस से आप के शरीर को और अधिक नुकसान पहुंचने की संभावना होती है जैसे नींद से जुड़ी समस्याएं, शुगर लैवल बढ़ना, मोटापा बड़ना, डाइजेशन संबंधी परेशानी, दिल से जुड़ी समस्याएं, ब्रेन फंक्शंस पर असर.

शादियों, उत्सवों या त्योहारों में होने वाली खाने की बरबादी हम सब को पता है. इन मौकों पर कितना खाना डस्टबिन में चला जाता है. होटल्स में भी बहुत सारा खाना यों ही छोड़ दिया जाता है. एक शादी में कितनी ही आइटम्स परोसी जाती हैं, खाने वाले इंसान के पेट की भी एक सीमा होती है. वैसे तो भारतीय संस्कृति में खाना छोड़ना बुरा समझ गया है लेकिन हर तरह के नएनए पकवान चखने की चाह में खाने की बरबादी ही देखने को मिलती है.

दिखावा पसंद लोग अपनी अमीरी दिखाने के लिए शादीविवाह जैसे आयोजनों में सैकड़ों टन खाना बरबाद कर रहे हैं. दिखावा, प्रदर्शन और फुजूलखर्च पर प्रतिबंध की दृष्टि से विवाह समारोह अधिनियम, 2006 हमारे यहां बना हुआ है लेकिन यह सख्ती से लागू नहीं होता जबकि इसे सख्ती से लागू करने की जरूरत है.

भोजन की बरबादी क्यों

संपन्न लोगों की शादियां कईकई महीनों तक चलती हैं, अनगिनत फंक्शंस होते हैं जहां पैसा पानी की तरह बहाया जाता है. दुनियाभर में हर साल जितना भोजन तैयार होता है उस का एकतिहाई भोजन बरबाद होता है. बरबाद होने वाला भोजन इतना होता है कि उस से 2 अरब लोगों के खाने की जरूरत पूरी हो सकती है. भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के लिए यह पाठ पढ़ना जरूरी है क्योंकि एक तरफ विवाह, शादियों, पर्वत्योहारों और पारिवारिक आयोजनों में भोजन की बरबादी बढ़ती जा रही है तो दूसरी ओर भूखे लोगों द्वारा भोजन की लूटपाट देखने को मिल रही है.

भोजन की लूटपाट जहां मानवीय त्रासदी है, वहीं भोजन की बरबादी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है. एक तरफ करोड़ों लोग दानेदाने को मुहताज हैं, कुपोषण के शिकार हैं, वहीं दूसरी ओर रोज लाखों टन भोजन की बरबादी एक विडंबना है.

विश्व खाद्य संगठन के अनुसार भारत में हर साल 50 हजार करोड़ का भोजन बरबाद चला जाता है जोकि देश के खाद्य उत्पादन का 40 फीसदी है. इस बरबादी का बुरा असर भारत के नैचुरल रिसोर्सेज पर पड़ रहा है. हमारा देश पानी की कमी से जूझ रहा है लेकिन बरबाद जाने वाले इस भोजन को तैयार करने में इतना पानी बेकार चला जाता है कि उस से 10 करोड़ लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है.

बच्चों को भी सिखाएं

असल में हमारे यहां घरों में भी मानमनुहार से सामने वाले को ज्यादा खाना खिलाना प्यार दिखाने का तरीका समझ जाता है, ‘अरे भाई साहब, एक और लीजिए न, आप ने तो कुछ खाया ही नहीं. आप ने तो बड़ी जल्दी खाना बस खा लिया है.’

‘‘अच्छा लगा तो एक और खाइए न,’’

बेटा घर आया तो मां उस के आलू के पराठे के ऊपर मक्खन रखरख कर खिलाएंगी. अकेला

रहने वाला बेटा चाहे हैल्दी खाना सीख गया हो, चाहे वह सूप, जूस और सलाद खा कर स्वस्थ रहने की कोशिश में हो, भारतीय मां उस के घर आने पर उस का खाना घीतेल से नहला देती है. जब वह वापस जाता है तो उस की अच्छीभली फिगर 2-3 किलोग्राम वजन साथ ले कर ही जाती है.

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