Hindi Story Collection : शोभना की नींद खुली तो उस ने देखा कि किताबें, कागज, पेन, पैंसिल लैपटौप, चार्जर सब सिरहाने वैसे ही तकिए के नीचे दबे पड़े हैं, जैसे रात छोड़े थे. उस ने उठ कर घड़ी देखी. सुबह
के 5 बजे थे. दिल्ली की दिसंबर की ठंड, उस पर 2 दिन से बारिश लगी थी. उस का मन हुआ कि फिर से रजाई में दुबक कर सो जाए और फिर गहरी नींद में डूब गई शोभना.
‘‘लो, चाय पी लो,’’ आवाज सुन कर शोभना चौंकी. अरे, यह तो तरुणाजी की आवाज है. वही स्नेह और अपनत्व से पूर्ण स्वर. बड़ी हिचक और शर्म के साथ शोभना उठ बैठी. साथ की मेज पर गरम चाय रखी थी. बहुत चाह कर भी शोभना बैड टी लेने की आदी नहीं हो पाई थी. सुबह की चाय पीने से पहले हाथमुंह जरूर धो लेती है, कुल्ला कर लेती है.
शोभना गुसलखाने से निकली तो देखा कि तरुणाजी उस के सामान को समेट कर करीने से रख रही है. सिमटी हुई चादर भी सीधी कर दी थी. इस अपनेपन के बो?ा से दबी शोभना इतना ही बोली, ‘‘क्यों शर्मिंदा करती हो भाभीजी? आप तो मेरी आदत ही खराब किए दे रही हैं.’’
तरुणा भाभी हंस कर कुछ कहना चाहती थी किंतु मेड के आने की आहट सुन उठ कर चली गई.
शोभना अपने डाक्टरी पेशे में व्यस्त रहने के बाद भी इस क्षेत्र में आगे शोध के लिए इच्छुक थी. वह जयपुर के एक बड़े नर्सिंगहोम में सहचिकित्सक के रूप में पिछले 10 वर्षों से काम कर रही थी. उस के पति तथा दोनों बच्चे कभी स्थाई रूप से साथ नहीं रह पाए. दादी को
व्यस्त बहू पर अपने एकमात्र बेटे की दोनों संतानों का दायित्व डालना शायद ममतावश सहन नहीं होता था, इसलिए उन के पति व बच्चे आगरा में ही रहते थे. छुट्टियों में कभी बच्चे साथ रहने आ जाते, कभी स्वयं शोभना कुछ
दिनों के लिए आगरा चली जाती. पति सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, निजी इंजीनियरिंग के व्यवसाय में व्यस्त.
दिल्ली में डाक्टर प्रशांत को एक विख्यात डाक्टर के रूप में जाना जाता था. इन के मार्गदर्शन में अध्ययन करने पर संभव था कि उसे बच्चों
के रोगों के विषय में ऐसी जानकारी हासिल हो जाती, जिस के बारे में वह जिज्ञासु रही थी. साथ ही वह ‘बालरोग एवं उन के उपचार’ नामक लेख को तैयार कर सकती थी, जिसे वह ‘ब्रिटिश मैडिकल जर्नल’ में भेजने के लिए इच्छुक थी. शोभना के गुरु डाक्टर नमन ने ही डाक्टर प्रशांत का पता दिया था.
फिर एक दिन दोपहर को अपना थोड़ा सा आवश्यक सामान और अध्ययन लेखन की सामग्री लिए शोभना बड़े संकोच के साथ डाक्टर प्रशांत के घर आ गई थी. पर उस के संकोच के ठीक विपरीत तरुणा ने बड़े प्यार से शोभना को ड्राइंगरूम में बैठा कर कहा, ‘‘डाक्टर नमन का मैसेज परसों मिला था जब डाक्टर साहब मीटिंग में गए हुए थे. आज ही लौटे हैं. अभी नहा कर निकलते ही होंगे. तब तक आप हाथमुंह धो लीजिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’
शोभना बड़े ध्यान से तरुणा को देख रही थी. वह सोच रही थी कि यह कितनी सरलहृदया, आकर्षक और मृदुभाषिणी है, पूरा घर बड़े सलीके से और रूचि के साथ सजाया हुआ था.
चाय पीतेपीते तरुणा ने बताया, ‘‘बेटी बीए औनर्स में पढ़ रही है और बेटा इसी साल एमबीबीएस में आया है,’’ उन का बेटा शायद शोभना के बेटे का ही समवयस्क हो क्योंकि बब्बू का भी इसी साल बीएससी कर के इंजीनियरिंग में दाखिल हुआ है. डाक्टर प्रशांत का बेटा सौमित्र लखनऊ मैडिकल कालेज में पढ़ रहा है, यह तो शोभना जानती थी. बेटी भी ननिहाल यानी लखनऊ में ही पढ़ रही थी. शायद स्वभाव से ही शांत और संकोची डाक्टर प्रशांत को दिल्ली की मशीनी जिंदगी और महानगरीय कोलाहल से चिढ़ थी या लखनऊ से पुराना मोह, जिस वजह से उन्होंने बच्चों को बाहर अध्ययन के लिए भेज दिया था.
शोभना जब तक कुछ सहज हुई, डाक्टर साहब नहा कर निकल चुके थे. उन के होंठों पर किसी गीत की धीमी गुनगुनाहट थी, जिस से वातावरण मधुर हो गया था. कुछ ही देर में डाक्टर प्रशांत ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. लंबा, पुष्ट शरीर, गेहुआं रंग, चेहरे पर शांति और सौम्यता का भाव. उन्होंने बड़ी आत्मीयता भरी मुसकराहट के साथ शोभना से यात्रा के बारे में पूछा, फिर घर तक पहुंचने के बारे में. उस के बाद अध्ययन के विषय पर आ गए. इसी बीच तरुणा फिर आ कर बैठ गई थी.
शोभना नहाधो कर छत की बालकनी पर आई तो देखा, डाक्टर प्रशांत बड़े स्नेह और प्यार के साथ तरुणा के जूड़े में फूल लगा रहे थे. ठिठक कर शोभना लौटने लगी पर तभी उसे डाक्टर प्रशांत की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे शोभना, अब जब आप गुरुबहन हो कर आई हैं तो आप से क्या छिपाना? यों उम्र में भी आप में और तरुणा में ज्यादा अंतर नहीं होगा. यह ‘ड्यूटी’ तो मंडल में भांवरों के समय ही सौंप दी गई थी और कहा गया था कि अपनी पत्नी के अलावा मैं और किसी को फूल न लगाऊं,’’ और फिर एक खुला हुआ अट्टाहास.
तरुणा एक नवयौवना सी शरमा गई. 2 घंटे पहले अतिथि रूप में आई शोभना ऐसा महसूस कर रही थी जैसे वह अपने घर लखनऊ के आंगन में खड़ी हो और उस के भैयाभाभी एकदूसरे को चिढ़ा रहे हों.
डाक्टर प्रशांत ने अध्ययन का समय रात 10 बजे से दो बजे तक तय किया था. दोपहर में खाना खाने से पहले तक शोभना ने बहुत कुछ लेखन सामग्री तैयार कर ली थी. धीमी गुनगुनाहट के साथ तरुणा रसोई में खाना बना रही थी. इसी बीच एक तरफ कौफी चुपचाप उस के पास रख गई थी. जब डाक्टर प्रशांत दोपहर के भोजन के लिए आए तब तक शोभना व तरुणा एकदूसरे से काफी बातचीत कर चुकी थीं. तरुणा भी यह जान गई थी कि शोभना के पति कितने सुल?ो हुए, सरल एवं उदार व्यक्ति हैं. वे मां के वात्सल्य को नहीं ठुकरा सकते और पत्नी के प्रति अपनी आत्मीयता और प्यार आज शादी के 22 वर्षों के बाद भी वैसा ही बना हुआ है.
शादी से पहले उस के पति सोमेश इंजीनियर ही थे, पर रोजरोज वरिष्ठ अफसरों के रोब को सहना और अनावश्यक रूप से उन्हें प्रसन्न रखने के प्रयास करना सोमेश के स्वभाव के विपरीत था. शोभना ने अपने उदार और मेधावी पति के सामने एक ही बात रखी थी कि वह डाक्टर है और अपना यह काम वह शादी के बाद भी जारी रखेगी. सोमेश ने बड़ी सहृदयता से उस के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था.
विवाह के समय शोभना की 2 छोटी ननदें थीं. दोनों देवर क्रमश: एमएससी तथा बीए में पढ़ रहे थे. ससुर नहर विभाग में इंजीनियर थे, पर विवाह के कुछ साल बाद ही एक जीप दुर्घटना में उन की मृत्यु हो गई थी. शादी के 4 वर्ष बाद ही शोभना ने अपनी सास, ननदों और दोनों देवरों का जो दायित्व संभाला, उसे वह आज तक निभा रही थी. अब उस के दोनों देवर अच्छे पदों पर हैं तथा ननदें अच्छे घरों में विवाह के बाद सुखी हैं. सास को जो आदरमान शोभना ने पहले दिन दिया वही आज भी उस के और सोमेश के मन में है. बच्चे तो बिना दादीमां के रह ही नहीं सकते.
आगरा और जयपुर की दूरी इतनी कम है कि पिछले 6 सालों से शोभना हर 15-20 दिन बाद अपने पति से मिल लेती है. देवरों के अध्ययन एवं विवाह के लिए लिया गया ऋण कब और कैसे सोमेश व शोभना ने लौटा दिया, यह अम्माजी जान भी न पाई थीं. हालांकि, शोभना को लगता है कि अम्माजी का स्नेहिल चेहरा सदैव उसे एवं उस के परिवार को आशीष देता रहता है.
पिछले 3 दिनों से शोभना डाक्टर प्रशांत के साथ रात 2 बजे तक काम करती रही. घंटेभर बाद ही डाक्टर प्रशांत स्वयं उठ कर कौफी बनाते और 1 कप शोभना को पकड़ा कर कहते, ‘‘लीजिए, थोड़ी देर दिमाग को आराम दीजिए,’’ फिर अनायास ही कुछ याद करते से उठते और बैडरूम की ओर चले जाते. आ कर कहते, ‘‘तरुणा जब थक कर चूर हो जाती है तब सोते समय उसे होश नहीं रहता कि रजाई कहां जा रही है. दवाई कभी मैं ही पिलाऊं तो ले लेगी, अपनेआप नहीं ले सकती. मैं तो मरीजों में या फिर शोध लेखन में ही व्यस्त रहता हूं. किंतु यह कभी शिकायत नहीं करती. न जाने किस चीज की बनी है, हर बात में संतोष, हर परिस्थिति से सम?ौता.’’
शोभना डाक्टर प्रशांत के गरिमामय व्यक्तित्व, ज्ञान तथा शालीनता से प्रभावित होती चली गई. 1 हफ्ते तक पढ़ाई का यही क्रम चलता रहा. उस के लेख और शोधपत्र को न जाने कितनी बार डाक्टर प्रशांत ने सुधारा. पर बड़ा आश्चर्य था कि तरुणा ने उस के रात ढाईतीन बजे तक डाक्टर प्रशांत के साथ बैठ कर पढ़नेलिखने, बात करने पर कभी कोई संदेह व्यक्त नहीं किया.
दिसंबर की रात्रि के एकांत क्षणों में स्त्रीपुरुष का यों साथ बैठ कर बातें करना, किसी विषय पर देर तक तर्कवितर्क करना, कौफी, चाय आदि पीना किसी भी महिला के ईर्ष्या का विषय हो सकता है. पर तरुणा भाभी के प्रशांत गंभीर हृदय में कौन सा ऐसा स्नेहिल ठोस हिमखंड है, जो धीरेधीरे पिघल कर अपनी उदारता एवं स्नेह की अमृतधारा में शोभना को डुबोता चला जा रहा है, यह स्वयं शोभना भी सम?ा नहीं पाती.
कल रात बहुत देर तक शोभना को नींद नहीं आई. वह अपने सरल हृदय पति के बार में ही सोचती रही. वे कितने उदार हैं. पर रंजना ने जब फैक्टरी में 3 महीने तक रिसैपशनिस्ट का काम किया था तब शोभना जैसी सुल?ा हुई पत्नी के मन में भी ईर्ष्या और संदेह की भावना जड़ पकड़ने लगी थी. वह कभी 15 दिन से ज्यादा छुट्टी नहीं लेती, पर उस बार 1 महीना आगरा रह गई थी. शायद उस के पति सोमेश ने भी उस के मन के संदेह को भांप लिया था.
महीने में 1-2 बार किसी काम से फैक्टरी जाने वाली शोभना अब रोज किसी न किसी बहाने सोमेश के दफ्तर में पहुंचने लगी. वह रंजना को ऊपर से नीचे तक आलोचक निगाहों से देखती. अकारण ही सोमेश के कोट के कालर पर कभी लिपस्टिक के दाग ढूंढ़ती और कभी रंजना द्वारा प्रयुक्त सैंट की खुशबू पहचानती, पर सोमेश उस की इन बातों को जान कर भी नजरअंदाज करते रहे.
शोभना को याद आया कि उस के बड़े बेटे की सालगिरह थी. सभी तैयारियां हो चुकी थीं. तभी सोमेश का फोन आया कि वह पार्टी में शरीक नहीं हो सकेगा. उस ने कहा कि रंजना की बेटी की हालत बहुत खराब हो गई है और उसे ले कर मैडिकल कालेज जाना है. शोभना के संशय ने अब विकृत रूप ले लिया और वह भूल गई कि पति के अभाव में रंजना को अपने बच्चों की पूरी जिम्मेदारी पिता के ढंग से भी निभानी होती है.
सुंदर, आकर्षक पर पति द्वारा परित्यक्ता रंजना एक संभ्रांत परिवार की सुशील, शिक्षित महिला थी. मगर शोभना ने उस दिन सोमेश के वापस आने पर उस से बात तक नहीं की. उस ने भद्दे शब्दों में रंजना पर लांछन लगा दिए.
सोमेश ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘इतनी पिड़ली बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती? रंजना की बेटी की हालत खराब देख कर अगर मैं ने अपनी गाड़ी में बैठा कर उन दोनों को ले जाने का, बच्ची को अस्पताल में दाखिल कराने का काम कर दिया तो कौन सा पहाड़ टूट गया. लानत है तुम्हारी पढ़ाई और काबिलीयत पर. इतने सालों से तुम नौकरी कर रही हो, सब तरह के डाक्टरों और मरीजों से पाला पड़ता है पर मैं ने तो कभी तुम्हें कुछ नहीं कहा. तुम नहीं जानतीं कि रंजना कितनी शरीफ और काबिल है. मेरी सम?ा में नहीं आता कि औरतआदमी का रिश्ता इतना सस्ता क्यों होता जा रहा है? क्या हम एकदूसरे के लिए सहकर्मी, मित्र, सहायक या हमदर्द नहीं हो सकते?’’
पता नहीं क्यों शोभना तब कुछ बोल नहीं सकी. पार्टी के बरतन उठाते हुए फैक्टरी के नौकर शंभू ने शायद ये सभी बातें सुनी थीं. दूसरे दिन रंजना शाम को अपना त्यागपत्र ले कर आई. शोभना उस से आंखें न मिला सकी थी. सोमेश ने चुपचाप वह त्यागपत्र रख लिया. सोमेश की यह खामोशी उसे अंदर ही अंदर सालती रही.
अब तरुणा को देख कर उसे अपने ऊपर ग्लानि होती जा रही थी. कहने को शोभना एक पढ़ीलिखी डाक्टर है पर मात्र बीए पास तरुणा के मन की महत्ता और गहराई की तुलना में वह अपनेआप को एक हलका तिनका ही पाती रही. मन के विश्वास के शिलाखंड के सामने वह अपनेआप को बड़ा बौना महसूस कर रही थी.
परसों शोभना को वापस जाना है. यहां रहते हुए उस ने काफी शोधकार्य कर लिया है. अपने व्यवसाय के क्षेत्र में वह बच्चों के अनेक रोगों के बारे में बहुत सी उपयोगी सामग्री इकट्ठा कर चुकी है. जो पेपर वह ‘ब्रिटिश मैडिकल जर्नल’ में भेजना चाहती थी वह भी बहुत सी काटछांट व बदलाव के बाद डाक्टर प्रशांत के निरीक्षण में पूरा हो चुका था. साथ ही आगरा में अपने पति के साथ रहने के प्रयास में वह डाक्टर प्रशांत व उन के सहयोगियों से पर्याप्त मदद भी ले चुकी थी. संभव है कि उस की नियुक्ति राजस्थान की गुलाबी नगरी से हट कर मुगल शहनशाहों के प्रिय क्षेत्र में हो ही जाए. कई पड़ोसियों से भी शोभना का परिचय तरुणा करवा चुकी थी.
डाक्टर प्रशांत को उस ने बहुत करीब से देखा है. कहीं मन में कोई कुंठा नहीं. मरीजों, दवाइयों और किताबों में डूबे प्रशांत उसे गुरु जैसे लगते. पर कुछ ही समय बाद वह देखती कि अपनी पत्नी तरुणा के साथ लान में टहलतेटहलते वे हलके ढंग से कुछ गुनगुनाने लगते और तरुणा का हाथ पकड़ कर जब वह उसे क्यारी पार करवाने लगते और उस की पीठ पर एक धौल लगा देते तब शोभना अपने कमरे की जालीदार खिड़की के पीछे खड़ी देखती रह जाती. दोनों के मन में कितना विश्वासपूर्ण प्यार है. शायद तभी अत्यधिक व्यस्त 24 घंटों में से 24 मिनट का समय निकाल कर वे दोनों सहज स्वाभाविक रूप से जीना नहीं भूलते.
शोभना को याद आता है कि पिछले ही वर्ष उस की सहकर्मी डाक्टर सुल?ा ने अपने पति से तलाक लिया था. कारण मात्र यह था कि जरमनी से लौटने के बाद उन्होंने अपने विभाग में वहीं के विश्वविद्यालय की एक मेधावी छात्रा को अपने निरीक्षण में रिसर्च फैलोशिप दे दी थी. वह दिनभर व्यस्त रहने लगे थे. सदैव से सीधे और सरल तथा पत्नी का अत्यधिक खयाल रखने वाले डाक्टर मनोज से मात्र इसी आधार पर उन की पत्नी ने तलाक लिया था कि वे जरमन छात्रा के शोध कार्य में अधिक समय देने लगे थे. उन की पत्नी ने डाक्टर मनोज के इस तथ्य को बिलकुल नहीं माना था कि विदेशी छात्रा होने के नाते उस के पास समय कम था और उसे भारत में चल रहे अपने शोध कार्य की मासिक प्रगति भी अपने देश भेजनी पड़ी है.
डाक्टर प्रशांत के घर आ कर शायद शोभना की मनोचिकित्सा सी होती जा रही थी. लगातार 3 दिन वह घर से 14 किलोमीटर दूर डाक्टर प्रशांत के साथ मैडिकल इंस्टिट्यूट जाती रही. कितने प्यार से तरुणा उसे टिफिन में नाश्ता रख कर पकड़ाती, ‘‘इसे रख लीजिए. यह दिल्ली है, यहां यह नहीं कि 1-2 किलोमीटर चले आए और खाना खा लिया. फिर बाजार का खाना भी ठीक नहीं रहता. मैं ने 4 परांठे और भुना मीट रख दिया है. आप और डाक्टर साहब खा लीजिएगा. हां, कौफी का जिम्मा आप के डाक्टर साहब का है.’’
शोभना अपनी आंखें उस निश्छल उदार हृदय की स्वामिनी तरुणा के चेहरे पर गड़ा देती थी. जी चाहता था कि उस से लिपट कर प्यार से पूछे, ‘‘किस धातु की बनी हो तरुणा तुम? कहां से आया इतना विश्वास? तुम्हारे पति के साथ रोज रात 2-2 बजे तक काम करती हूं. उन की कार की अगली सीट पर बैठ कर जाती हूं. कभी शक नहीं किया, कुछ नहीं पूछा.’’
मैं ने तो सुना है कि यहां महिलाएं आती रहती हैं, कभी स्थानीय तो कभी बाहरी. सभी डाक्टर प्रशांत के ज्ञान, अनुभव व यश से कुछ लाभ उठाने व सीखने आती हैं. यह नहीं कि
कोई कुछ कहता नहीं है. यही दिल्ली की एक लेडी डाक्टर ने मात्र 2 दिन के परिचय के बाद ही शोभना से मजाक में कहा था, ‘‘अच्छा,
आप डाक्टर प्रशांत के यहां रुकी हैं, अरे भई, डाक्टर प्रशांत तो एकाध ऐक्स्ट्रा के बिना रह ही नहीं सकते. चलिए, बढि़या कटती होगी. सुना है पत्नी उपेक्षित रहती है. मु?ो उस पर बड़ी दया आती है.’’
शोभना का मन हुआ कि अपना पर्स खींच कर उस लेडी डाक्टर के मुंह पर दे मारे और उस से कहे कि क्यों अपने से सब को तौलती हो? देखने में तो पढ़ीलिखी औरत हो, पर मन से तो तुम एक अनपढ़, गंवार से भी बदतर हो. तुम्हें क्या मालूम डाक्टर प्रशांत किस पुण्य गंगा के कमल हैं और उन की पत्नी तरुणा उस कमल पर पड़ी शीतल ओस की बूंद है.
मगर शोभना ने अपने मन के आवेश पर काबू किया और इतना ही बोली, ‘‘जरा संभल
कर बोलो. किसी को कुछ कहने से पहले
अगर इनसान अपनी बात को मन में दोहरा ले तो शायद किसी महान व्यक्ति के लिए इतने छिछले शब्द मुंह से न निकलें,’’ और वह लेडी डाक्टर शोभना को जलती हुई नजरों से घूरती हुई वहां से चली गई.
आज शोभना को वापस आगरा जाना है. इस बीच वह अकसर पति तथा बच्चों से फोन पर बात करती रही थी, पर आज जा कर उन से मिलेगी. दिनभर तरुणा बारबार दोबारा दिल्ली आने का आग्रह करती रही. दोनों बाजार से घर लौटीं तो देखा कि फाटक पर ही सुशीला मिल गई.
तरुणा शोभना की ओर संकेत करती हुई बोली, ‘‘आज विक्की की बूआ वापस जा रही है आगरा, इसलिए हम लोग बाजार खरीदारी के लिए निकल गए थे.’’
‘बूआ… हां बूआ… मात्र शब्द ही नहीं, उस में उस शब्द के स्नेहिल, अपनत्वपूर्ण प्यार भरे परिचय से शोभना का मन हुआ कि वह पैर छू ले तरुणा के. उस की आंखें भर आईं. ऐसा लगा कि उस ने अपने अम्मांपिताजी का ही प्यार भाभी के दुलार भरे शब्दों में पा लिया हो.
घर आते ही वे तरुणा का हाथ थाम कर वहीं दालान में पड़े सोफे पर बैठ गई और बोली, ‘‘भाभी, आप ने कहां से पाया है इतना उदार और निच्छल मन? इतने दिन से आप के पास हूं. आप के समान ही उम्र मेरी भी होगी. आप रसोई में बैठ कर नौकरों और गृहस्थी में उल?ा रहती हैं. मैं घंटों डाक्टर साहब के कमरे में बैठ कर उन से पढ़तीलिखती हूं और बातें करती हूं. पूरापूरा बाहर रहती हूं, कभी शक नहीं आया आप के मन में?’’
तरुणा हंस कर हलके से दुलारती हुई बोली, ‘‘शोभना, तुम मुझ से कहीं ज्यादा पढ़ीलिखी हो. पर शायद अनुभव और व्यवहार की जितनी कसौटियों पर मैं ने अपनेआप को परखा है, उतना तुम ने नहीं. मैं इतनी ज्ञानी और बुजुर्ग तो नहीं कि तुम्हें भाषण दूं या समझाऊं. एक बहन की सी सलाह दे रही हूं कि निरर्थक शक या संदेह पतिपत्नी को ही नहीं, मांबाप से बेटीबेटे को तथा भाई से बहन को अलग कर देता.
‘‘कभीकभी बात कुछ भी नहीं होती, पर हम एक छोटे से कारण को तूल बना देते हैं. युवा होते बेटाबेटी दिए गए समय से आधापौन घंटे लेट हो गए कि बस आफत खड़ी कर दी कि कहां थे? क्यों देर लगाई? कौन साथ था? मैं फोन कर के पूछूं तेरे दोस्त के घर? यही जहर बिंधे शब्द बच्चों को विद्रोही बना देते हैं.
‘‘शोभना, यह तो बच्चों की बात है. आज जिस अवस्था में मैं और मेरे पति डाक्टर प्रशांत
या तुम और तुम्हारे पति खड़े हैं, वहां इन छोटीछोटी बातों को ले कर यदि शक और अकारण संदेह को मन में जगह दी तो हमारे पारस्परिक प्यार और विश्वास की नींव ही ढह जाएगी. फिर पति और पत्नी का संबंध बच्चों का बालू का घरौंदा तो नहीं, जो जरा सी ठोकर मारने से ढह जाए. तुम जो जानती हो, उमड़ती वेगवान नदियों के बीच भी शिलाखंड अडिग, स्थिर, शान से खड़े रहते हैं. वही हैं मेरे और डाक्टर प्रशांत के संबंधों के प्रतीक.
‘‘अपने पति के बड़प्पन को मैं ने जितना पहचाना है, उतना कोई क्या जानेगा? प्रशांत मुझे आज भी उतना ही प्यार देते हैं क्योंकि मैं ने उन पर कभी संदेह नहीं किया, अपने विश्वास और स्नेह को शिलाखंड सा अडिग बनाए रखा. फिर अनेक छिछले व्यक्तित्व के पुरुषों की भांति उन के व्यक्तित्व में आज तक कहीं कोई ऐसा अशोभनीय रूप न देख पाई जो मैं आमतौर से लोगों से सुनती हूं. शोभना, जिंदगी को अच्छा व सुंदर बनाना बहुत कुछ अपने हाथ में होता है.’’
शोभना शायद एक नई शोभना बन कर अपने घर जा रही थी. वह जानती थी कि तरुणा ने जिस शिलाखंड की ओर संकेत किया है वह सिर्फ उन का ही नहीं है, किसी का भी हो सकता है. हां, उस का भी.