अपने नए फोटोशूट में बेहद खूबसूरत लग रही हैं प्रिया प्रकाश वारियर

देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को अपनी आंखों के इशारों पर नचाने वाली मलयालम अभिनेत्री प्रिया प्रकाश एक बार फिर सुर्खियों में हैं. इस बार प्रिया अपने किसी वीडियो के कारण नहीं बल्कि हाल ही में कराए फोटोशूट को लेकर फैंस के बीच चर्चा का सबब बनती नजर आ रही हैं. प्रिया के फोटोशूट की इन तस्वीरों को woodpecker photography के एकाउंट से सोशल मीडिया पर पोस्ट किया गया है.

इन तस्वीरों में प्रिया पिंक कलर के गाउन में बेहद खूबसूरत नजर आ रही है. फोटोशूट की एक तस्वीर प्रिया ने अपने एकाउंट पर भी पोस्ट की है. इस तस्वीर को देखने के बाद फैंस प्रिया की किसी राजकुमारी से तुलना कर रहे हैं.

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प्रिया ने ये फोटोशूट एक फैशन ब्रैंड के लिए कराया है जिसे फैंस काफी पसंद कर रहे हैं. इस फोटोशूट में भी प्रिया के एक्सप्रेशंस से नजरे हटा पाना सभी के लिए काफी मुश्किल है.

स्कूल गर्ल के बाद प्रिया का ये अंदाज भी सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है. आपको बता दें कि ‘उरु अदार लव’ प्रिया प्रकाश की डेब्यू फिल्म है लेकिन वे इसके रिलीज से पहले ही काफी चर्चा में आ गई हैं.

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‘उरु अदार लव’ 3 मार्च को रिलीज होगी. प्यार में इशारों की भाषा को दिखाता ये गाना फेसबुक से लेकर यू-ट्यूब पर सबसे ज्यादा लोकप्रिय बना हुआ है.

फिल्म स्कूल स्टूडेंट की लाइफ पर आधारित है जिसमें टीनएज में पनपे प्रेम की कहानी दिखाई गई है. फिल्म के गाने के वीडियो का एक क्लिप सोशल मीडिया पर बेहिसाब वायरल हुआ था जिसमें प्रिया आंखो से अपने प्यार का इजहार करती नजर आ रही थी इस क्लिप को लेकर सभी अपने स्कूल के दिनों को याद करने के लिए मजबूर हो गए थे. प्रिया को इसी क्लिप ने दुनिया भर में मशहूर कर दिया था.

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जोड़ों के दर्द से परेशान हैं तो अपनाएं ये उपाय

बढ़ती उम्र की सबसे बड़ी समस्या है जोड़ों में दर्द. इस उम्र में इस तरह की समस्या का होना आम है, पर आजकल कम उम्र में भी लोग इस समस्या का शिकार हो रहे है. जिसकी वजह से व्यक्ति का चलना-फिरना मुश्किल हो जाता है. अगर आप भी इस समस्या से परेशान हैं तो अब आपको सतर्क हो जानें और खुद का थोड़ा ख्याल रखने की जरूरत है. क्या आप जानती हैं कि जोड़ों में दर्द होने के कई कारण हो सकते हैं. जोड़ों पर यूरिक एसिड का जमा हो जाना, कमजोरी की वजह से या फिर आनुवंशिक कारणों आदि से भी जोड़ों में दर्द की समस्या होती है. मोटापा भी इसकी एक वजह हो सकता है. अगर आप जोड़ों के दर्द से बचना चाहते हैं तो ये कुछ टिप्स आपके लिए मददगार हो सकते हैं.

रोजाना व्यायाम

जोड़ों के दर्द से राहत पाने का सबसे बेहतर तरीका है शारीरिक रूप से सक्रियता बढ़ा देना. हड्डियों और जोड़ों की मजबूती के लिए एक्सरसाइज करना बेहद जरूरी है. इसेस ओस्टियोपोरोसिस और आर्थराइटिस जैसी बीमारियों को रोकने में मदद मिलती है. इसलिए हो सकें तो रोजाना 15 से 20 मिनट व्यायाम जरूर करें. इससे आपको जल्द ही इस समस्या से राहत मिल जाएगा.

हेल्दी खाना

हेल्दी, पोषक तत्वों से भरपूर खाना खाने से भी जोड़ों के दर्द की समस्या नहीं रहती. इसके अलावा ज्वाइंट पेन से बचने के लिए कोंड्रोटिन और ग्लूकोसेमिन जैसे सप्लीमेंट्स का भी सेवन करना चाहिए. यह जोड़ों के बीच नमी बनाए रखने में मददगार होते हैं.

वजन पर रखें ध्यान

जोड़ों के दर्द से बचने के लिए वजन पर भी नियंत्रण रखना बेहद जरूरी है. ज्यादा वजन आपके जोड़ों पर जोर डालते हैं जिससे दर्द की समस्या होने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे में अपना वजन हेल्दी रेंज में रखने की कोशिश करें.

तनाव से दूर रहें

ज्यादा तनाव लेने से भी जोड़ों में दर्द की समस्या देखी गई है. ऐसे में तनाव से ज्यादा से ज्यादा दूर रहने की कोशिश करें और जितना हो सके खुश रहें. इसके लिए आप मेडिटेशन, थेरेपी, योगा जैसे उपाय आजमा सकती हैं.

जोड़ों पर दबाव न दें

जोड़ों पर ज्यादा दबाव या फिर उन्हें ज्यादा विकृत अवस्था में रखने से बचने की कोशिश करना चाहिए. ऐसा न करने पर जोड़ों के बीच घर्षण ज्यादा होने की वजह से दर्द उठता है.

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बेपटरी जिंदगी और लापरवाह अफसर

रेलवे की सुरक्षा और क्षमता बढ़ाने के लिए बजट में इस बार 1.48 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का प्रस्ताव रखा गया है.  इस पैसे का इस्तेमाल सुरक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर व रेलवे को हाइटैक बनाने में किया जाएगा. लेकिन, बजट के बाद संसद की लोकलेखा समिति की सदन में पेश की गई रिपोर्ट पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं.

मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता वाली लोकलेखा समिति ने रेलवे की कार्यप्रणाली की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि 150 खतरनाक चिह्नित पुलों, पटरियों तथा ट्रेनों की गति पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद रेलवे बोर्ड को 31 पुलों को मंजूरी देने में 213 महीने यानी 17 साल से अधिक का समय लग गया.

घटिया गुणवत्ता

लोकलेखा समिति ने रेलवे बोर्ड पर अपनी टिप्पणी में कहा है कि ब्रिटिश शासनकाल में बनाए गए कुछ पुल अच्छी स्थिति में हैं पर आजादी के बाद बनाए व मरम्मत किए गए पुल घटिया गुणवत्ता वाले हैं. रेल पटरियों का भी ऐसा ही हाल है. यह सब रेल अधिकारियों व ठेकेदारों की मिलीभगत से हुआ है. रिपोर्ट में कुशल कर्मचारियों की कमी पर भी सवाल उठाए गए हैं.

ऐसे में महज रेल बजट बढ़ा देने से क्या यात्रियों की सुरक्षा व्यवस्था पर भरोसा किया जा सकता है? रेल दुर्घटनाओं का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है.

अव्यवस्था की मार

रेलयात्रा में लगातार जानमाल का खतरा बना हुआ है. रेल व्यवस्था राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और निकम्मे अधिकारियों, कर्मचारियों के चलते भारी अव्यवस्था के दौर से गुजर रही है लेकिन फिर भी बुलेट ट्रेन चलाए जाने का शोर है. यात्रियों की जान की सुरक्षा को ले कर कोई गंभीर नहीं है. सरकार और उस के मुलाजिम दोनों ‘मनसा वाचा कर्मणा’ चोर हैं. यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों से होने वाले रेल हादसों की अहम वजह स्टाफ का नकारापन रहा है, मगर सरकार द्वारा इन नकारे स्टाफ पर कोई कार्यवाही नहीं की गई है.

सरकार संसद के भीतर तो यह स्वीकार करती है कि रेल दुर्घटनाओं में रेलकर्मी दोषी हैं, मगर उन को गिरफ्तार करवाने, कठोर सजा दिलवाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती. लगता है कि सरकार मरने वाले यात्रियों को पिछले जन्म का फल मान कर पौराणिक सोच को पोषित करना चाहती है, बस.

लापरवाही की हद

सरकारी आंकड़े खुद चीख रहे हैं कि रेल हादसों के लिए स्टाफ की लापरवाही जिम्मेदार है, फिर भी सरकार है कि उन दोषी रेल अधिकारियों, कर्मचारियों पर कोई आपराधिक कार्यवाही करने से बचती है. मात्र अनुशासनात्मक कार्यवाही कर अगली बार फिर मौत पर मातम मनाती है और आखिर में मौत के मुलाजिमों को मुक्त कर देती है. यही कारण है कि अब तक स्टाफ की कमी से हुई दुर्घटनाओं में कार्यवाही का कोई बड़ा उदाहरण स्थापित नहीं हो सका कि जिस से स्टाफ सहमा हो और रेल दुर्घटनाएं रुकी हों.

होतेहोते बचा हादसा

25 सितंबर, 2017 (एक ही ट्रैक पर आई 3 ट्रेनें) : इलाहाबाद के निकट एक ही ट्रैक पर आई दूरंतो ऐक्सप्रैस सहित 3 ट्रेनें एकसाथ टकराने से बालबाल बच गईं.

29 सितंबर, 2017 को बिना गार्ड के रवाना हुई ट्रेन :  उत्तर प्रदेश के उन्नाव में गंगा घाट रेलवेस्टेशन से मालगाड़ी को बिना गार्ड के ही रायबरेली के लिए रवाना कर दिया गया.

हादसों की वजह सिर्फ स्टाफ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में 3 वर्षों तक रेलमंत्री रहे सुरेश प्रभु के कार्यकाल में छोटेबड़े कुल 300 रेल हादसे हुए, जिन में से सिर्फ साल 2017 में जनवरी से अगस्त तक 31 हुए. तब के रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने दुर्घटनाओं के बाबत नैतिक आधार पर इस्तीफा देने की पेशकश की, जिस के बाद तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल को यह मंत्रालय मिला. मगर हादसे हैं कि अब भी थमने का नाम नहीं ले रहे.

19 जुलाई, 2017 को संसद में सुरेश प्रभु ने रेलवे स्टाफ की लापरवाही की वजह से हुई दुर्घटनाओं के बाबत बताया था कि साल 2015-2016 में हुए कुल 107 हादसों में 55 और साल 2016-2017 में 85 हादसों में से 56 हादसे सिर्फ स्टाफ की लापरवाही से हुए. इसी तरह नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से साल 2016-2017 तक प्रत्येक 10 रेल दुर्घटनाओं में से 6 स्टाफ की चूक की वजह से हुई हैं. नीति आयोग की ही एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2017 में 31 मार्च तक 104 विभिन्न दुर्घटनाओं में 66 दुर्घटनाएं स्टाफ की लापरवाही से हुई हैं.

गुनाहगारों को सजा नहीं

रेलवे की बड़ी दुर्घटनाओं में जांच के लिए संसद? ने एक कानून बना कर रेलवे संरक्षा आयोग बनाया है. निष्पक्ष जांच के लिए इस आयोग को केंद्रीय नागरिक उड्यन मंत्रालय के अधीन रखा गया है. इस आयोग का मुखिया संरक्षा आयुक्त होता है, जो रेलवे के अलगअलग जोन का काम देखने वाले 5 आयुक्तों के साथ काम करता है. संरक्षा आयोग के पास इतना काम होता है कि लंबे अरसे तक जांच ही चलती रहती है. दूसरा, इस आयोग का इतिहास है कि इस के आयुक्त ज्यादातर रेलवे के ही लोग होते हैं, इस से भी जांच का कार्य काफी हद तक प्रभावित होता है.

यही कारण है कि बड़ी से बड़ी दुर्घटनाओं में दोषियों पर आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं की जा सकी है, जिस से स्टाफ की लापरवाही से दुर्घटनाएं होती रहती हैं. फलस्वरूप, रेलयात्रियों की जान जाने पर दोषी सजा नहीं, मजा काटता है.

पानी में जनता की गाढ़ी कमाई

रेलवे के दोषी अधिकारियों, कर्मचारियों पर कोई कठोर कार्यवाही न करने के कारण दुर्घटनाओं के साथसाथ इन से होने वाला आर्थिक नुकसान भी बढ़ता चला जा रहा है, जो जनता की गाढ़ी कमाई है.

संसद में हुई बहस के दौरान जो आंकड़े बताए गए हैं (आशंका है कि सरकारी स्वभाव के अनुसार बहुतकुछ छिपा भी लिया गया हो), उन के अनुसार, रेल दुर्घटनाओं के कारण साल 2014-2015 में 70.07 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ है.

सुरक्षा के बजाय दूध, दवाई और वाईफाई का झांसा : मोदी सरकार अच्छे दिन के जुमले से सत्ता में तो आ गई मगर रेलयात्रा के दौरान होने वाले मौतरूपी मर्ज को जड़ से न दूर कर, ट्वीट करने पर दूध और दवाई मुहैया कराने की वाहवाही लूटने में लग गई. इस के साथ ही बुलेट ट्रेन चलाने का दावा, टे्रन में वाईफाई उपलब्ध करवाने का दावा और अब तो ट्रेन में ही शौपिंग कराने का दावा करने में लगी है. जबकि यात्री सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंच पाएगा, यह सुनिश्चित नहीं है.

नियम हैं, नकेल नहीं

रेलवे के एक रिटायर्ड जनरल मैनेजर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि भारतीय रेलवे की नियम पुस्तिका के अनुसार, ट्रैक के रखरखाव हेतु प्रतिदिन 3-4 घंटे निर्धारित हैं, मगर ऐसा हो नहीं पाता. ज्यादातर नियम स्टाफ की लापरवाही की भेंट चढ़ जाते हैं. कभीकभी ट्रैक के खाली न होने या फिर ट्रेन के विलंब से चलने की वजह से भी ऐसा होता है. वे बताते हैं कि भारतीय रेल की प्रक्रिया बहुत अच्छी तरह से सुपरिभाषित, लिखित और वितरित की जाती है, यदि उस का सही से पालन हो जाए तो शायद ही कोई दुर्घटना हो.

सुरक्षा सुस्त, किराया चुस्त

हाल के दिनों में रेलवे ने टिकट में फ्लैक्सी रेट जैसे नएनए शिगूफे छोड़ कर जम कर आमदनी बढ़ाई है. अकसर रेलयात्री यह कहते हुए मिल जाते हैं कि प्रथम श्रेणी की यात्रा का खर्च उतनी ही दूरी के विमान यात्रा के खर्च के लगभग बराबर है.

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि  जब मुसाफिर का मुख्य मकसद एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचना है तो क्या रेलवे उस स्थान तक सुरक्षित पहुंचाने की गारंटी भी गंभीरता से लेता है. जवाब है, नहीं. तथ्य यह है कि 1 रुपए में मात्र 7 पैसा ही रखरखाव के लिए लगाया जाता है, बाकी दूसरे कामों में इस्तेमाल हो जाता है. हालांकि, साल 2014-2015 के मुकाबले सुरक्षा पर खर्र्च होने वाली रकम को साल 2017-2018 में 42,430 करोड़ रुपए से बढ़ा कर 65,241 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

लाइफलाइन नहीं, किलरलाइन

रेलवे देश की लाइफलाइन कहलाती है, मगर इस के राजनीतिकरण ने इसे लगभग ‘किलरलाइन’ में तबदील कर दिया है. देखने में आता है कि गठबंधन सरकारों में यह मंत्रालय किसी मजबूत दल की झोली में ही रहा और ज्यादातर काम राष्ट्रीय स्तर पर न हो कर, क्षेत्रीय स्तर पर ही किए गए. पूर्व में अलग से पेश होने वाले रेलवे बजट में पश्चिम बंगाल, बिहार, रायबरेली, अमेठी जैसे क्षेत्रों को खास सौगातें मिलती रही हैं.

ऐसे में हाल ही में हुई रेल दुर्घटनाओं के ऊपर अगर लालू प्रसाद यादव यह तंज कसते हैं कि खूंटा बदलने से नहीं, संतुलित आहार देने व खुराक बदलने से भैंस ज्यादा दूध देगी तो इसे महज एक राजनीतिक बयान नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि इस को समग्र परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए. वास्तव में किसी मंत्री का मंत्रालय बदल देने से रेलवे का भला नहीं हो पाएगा. बेहतर होगा कि रेलवे में भ्रष्टाचार, गैरजिम्मेदाराना कार्यसंस्कृति समाप्त हो और रेलवे स्टाफ व मंत्रालय जनता के प्रति जवाबदेह बनें.

हाल में हुए प्रमुख रेल हादसे

हाल में स्टाफ के नकारेपन से कई दुर्घटनाएं हुईं. हद तो तब हो गई जब एक ही दिन में 4-4 रेल हादसे हुए और मोदी सरकार ने उन पर कोई कार्यवाही नहीं की.

24 नवंबर, 2017 : उत्तर प्रदेश के मानिकपुर में वास्कोडिगामापटना सुपरफास्ट ट्रेन की 12 बोगियां बेपटरी हो गईं, जिस से पितापुत्र समेत 3 यात्रियों की मौत हो गई और 9 यात्री घायल हो गए.

29 सितंबर, 2017 : मुंबई के एलफिंस्टन रोड उपनगरीय रेलवे स्टेशन के फुटओवर ब्रिज पर मची भगदड़ से 22 लोगों की मौत हो गई और 32 लोग घायल हो गए.

6 सितंबर, 2017 (एक ही दिन में 4 हादसे) : नए रेलमंत्री पीयूष गोयल की ताजपोशी के एक ही दिन बाद 4 रेल हादसे देश के अलगअलग हिस्सों में हुए. पहली घटना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में घटी जिस में शक्तिपुंज ऐक्सप्रैस के 7 डब्बे बेपटरी हो गए. दूसरी, नई दिल्ली के मिंटो ब्रिज स्टेशन के निकट रांचीदिल्ली राजधानी ऐक्सप्रैस का इंजन और पावरकार उतर गया. तीसरी, महाराष्ट्र में खंडाला के निकट मालगाड़ी पटरी से उतर गई. चौथी, फरुखाबाद और फतेहगढ़ के पास दिल्लीकानपुर कालिंदी ऐक्सप्रैस क्षतिग्रस्त होने से बच गई.

17 अगस्त, 2017 : उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के निकट खतौली में पुरीउत्कल ऐक्सप्रैस के हादसे में 23 लोगों की जानें गईं, जबकि 150 से ज्यादा लोग घायल हुए.

22 अगस्त, 2017 : उत्तर प्रदेश के औरैया में कैफियत ऐक्सप्रैस के डंपर से टकराने के कारण 9 कोच पटरी से उतर गए, दर्जनों यात्री घायल हो गए.

21 मई, 2017 : उत्तर प्रदेश के उन्नाव स्टेशन के पास लोकमान्य तिलक सुपरफास्ट ट्रेन के 8 कोच पटरी से उतर गए, जिस में 30 यात्री गंभीर रूप से घायल हो गए.

15 अप्रैल, 2017 : मेरठलखनऊ राजधानी ऐक्सप्रैस के 8 कोच रामपुर के पास पटरी से उतर गए. इस में लगभग 1 दर्जन यात्री घायल हुए.

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धर्म, संस्कृति व जाति से परे अंतर्राष्ट्रीय विवाह

टैक्नोलौजी बूम के इस दौर में ग्लोबल विलेज में तबदील होती दुनिया में शादियां भी तेजी से ग्लोबल होती जा रही हैं. अब अंतर्धार्मिक, अंतर्जातीय, अंतर्सांस्कृतिक, अंतर्राष्ट्रीय हर तरह की जोडि़यां बन रही हैं. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 5 फरवरी, 2018 को एक मामले के फैसले में साफ कह दिया है कि 2 वयस्कों की शादी में किसी तीसरे का दखल गैरकानूनी है. हालांकि विश्व के अन्य देशों में ऐसे कानून पहले से ही लागू हैं.

यों तो अमेरिका में भारतीय वर्षों से बस रहे हैं पर 1990 के बाद आए टैक्नोलौजी बूम के बाद अमेरिका में काफी संख्या में भारतीय आने लगे हैं. पुराने बसे भारतीयों की पहली पसंद की बहू तो भारतीय लड़की ही होती थी. पर 1990 के बाद अमेरिका आने वालों में से कुछ ने यहीं शादी की है. इन्हें अपनी शादी से संबंधित कुछ समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है. विशेषकर जब वे दूसरे धर्म या समुदाय में शादी करना चाहते हैं.

मातापिता की मानसिकता

अमेरिका में बसे भारतीय मूल के मातापिता, जिन की शादियां दशकों पहले हो चुकी थीं, उन में अंतर्जातीय लवमैरिज विरले ही होती थीं. दूसरे धर्म में शादी तो दूर की बात है. उन की अरेंज्ड मैरिज होती थीं और ज्यादातर सफल ही होती थीं. इन में से लाखों ने सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली और कुछ ने डायमंड जुबली भी मनाई होंगी. उन की मानसिकता अभी भी वही है कि जब हम अरेंज्ड मैरिज निभा सकते हैं तो हमारे बच्चे क्यों नहीं.

उन्हें डर है कि समाज क्या कहेगा या यह परिवार पर एक कलंक सा है. उन्हें लगता है कि अगर कोई बेटा या बेटी लवमैरिज करती है तो बाकी और परिवार के छोटे बच्चों की शादी में मुश्किल होगी, वे अपने बच्चों से काफी उम्मीद लगाए रहते हैं. उन्हें यह भी डर रहता है कि इस तरह की शादी से उन की आशाएं धूमिल हो जाएंगी.

उन की समझ में नहीं आ रहा है या वे समझना ही नहीं चाहते कि जमाना काफी बदल गया है. पहले वे पत्नी पर जिस तरह का दबाव रखते थे, आजकल की पढ़ीलिखी, कमाऊ बहू उसे बरदाश्त नहीं करेगी. यहां तक कि खुद उन के बच्चे भी अब ज्यादा स्वतंत्र होना चाहते हैं और अपनी खुशी से ही जीवनसाथी चुनना चाहते हैं.

अगर मातापिता नहीं मानते तो वे बगावत पर उतर आते हैं. चूंकि वे वयस्क हैं, इसलिए वे उन की इच्छा के विरुद्ध लवमैरिज कर लेते हैं और कानून इसे मान्यता देता है. इस से मातापिता और बच्चों सभी को मानसिक क्लेश होता है, इस में दो मत नहीं हैं.

ज्यादातर मामलों में मातापिता भी आगे चल कर इन्हें स्वीकार कर लेते हैं. बच्चों की खुशी के लिए मातापिता शुरू से ही समझदारी दिखाएं तो रिश्तों में खटास की नौबत ही नहीं आएगी.

भावनात्मक लगाव में कमी

आधुनिकता और औद्योगिकीकरण के युग में अभिभावक बच्चों को अपना ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं. इसलिए बच्चों के साथ भावनात्मक रूप से उन के जुड़े होने में कमी आती है और बच्चे बड़े हो कर अपने साथी में यह आत्मीयता ढूंढ़ते हैं और अमेरिका की तो बात ही कुछ और है.

जो युवा विदेश खासकर अमेरिका में बस गए हैं वे यहां के मुक्त और स्वच्छंद समाज में रहने के आदी हो गए हैं. इन के बच्चे तो बचपन से एलिमैंट्री स्कूल से ले कर कालेज की पढ़ाई और नौकरी तक अमेरिकी कल्चर में करते हैं. इन्हें अपनी पसंद में जाति, धर्म या नस्ल का कोई बंधन स्वीकार नहीं होता है.

देखा गया है कि अमेरिका में लगभग 28 से 30 प्रतिशत एशियन गैरएशियन से शादी करते हैं जिन में काफी भारतीय भी होते हैं.

मिक्स्ड मैरिज

अमेरिकी इंडियंस शिक्षा और कमाई दोनों मामलों में औसत अमेरिकी या किसी भी औसत एशियन (चीनी, जापानी, वियतनामी आबादी) से काफी ऊपर हैं. इसीलिए अगर इन्हें दूसरे धर्मों की लड़कियां पसंद करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

अमेरिका में भारतीय मिक्स्ड

मैरिज हो रही हैं. इन जोडि़यों को सामाजिक, धार्मिक, भावनात्मक और दार्शनिक वातावरण में सामंजस्य बिठाना होता है. शुरू में एडजस्ट करने की समस्या होती है और फिर उन के होने वाले बच्चे किस धर्म से जुड़ेंगे, इस की समस्या आती है.

एक ऐसा उदाहरण देखने को मिला  जिस में एक हिंदू लड़की मुसलिम लड़के से प्यार करती थी. दोनों काफी दिनों तक एकदूसरे से मिलतेजुलते रहे थे और दोनों में प्यार भी था. पर जब शादी की बात आई तो लड़की पर लड़के के मातापिता द्वारा कई शर्तें थोपी गई थीं कि उसे मुस्लिम धर्म अपनाना होगा. होने वाले बच्चों के मुस्लिम नाम होंगे और उसे बुरका पहनना होगा, नौकरी छोड़ कर लड़के के साथ विदेश जाना होगा. बेचारी लड़की पर क्या गुजरी होगी, आप समझ सकते हैं. वह पूरी तरह टूट गई थी और काफी दिनों तक उसे डिप्रैशन में रहना पड़ा था. अंतधार्मिक प्रेम और शादी करने से पहले एक बार युवावर्ग को भी ठीक से सोचना चाहिए.

एक दूसरे मामले में एक हिंदू लड़के ने एक अफ्रीकी अमेरिकी से शादी की थी. लड़के के मातापिता को शुरू में काफी आपत्ति थी कि उन की अगली पीढ़ी भी अमेरिका में ब्लैक अमेरिकी कहलाएगी और समाज उसे निम्न स्तर का मानेगा.

एक ऐसा भी उदाहरण है जहां एक दक्षिण भारतीय कट्टर हिंदू लड़के ने अपने मातापिता की अनुमति से ईसाई धर्म की अमेरिकी लड़की से शादी की. जब लोगों ने पूछा कि ऐसा क्यों किया तो लड़के के मातापिता ने कहा, ‘‘हमारे बच्चे का जन्म ही अमेरिका में हुआ था. शुरू से वह इसी संस्कृति में पला, तो हम उस से पुराने रीतिरिवाज की उम्मीद नहीं रखते हैं.

इतना ही नहीं, वे अपनी बहू से बहुत खुश हैं. उन के दोनों पोतों में एक का नाम हिंदू और एक का क्रिश्चियन है. परिवार में दोनों धर्मों के त्योहार मनाए जाते हैं.

अमेरिका में एक तरफ  कुछ आप्रवासी भारतीय हिंदू भारतीय पत्नी को बेहतर चौइस मानते हैं. उन का कहना है कि भारतीय नारी कितनी भी पढ़ीलिखी और कमाऊ क्यों न हो,

वह पति के प्रति वफादार होती है और नौकरी करते हुए भी पारिवारिक जिम्मेदारियां बखूबी निभाती है. वहीं दूसरी तरफ, अमेरिका में जन्मी और पलीबढ़ी भारतीय मूल की लड़कियां अमेरिकी बौयफ्रैंड को बेहतर मानती हैं. उन का मानना है कि ज्यादातर भारतीय अभी भी पुरानी सोच वाले हैं जो पत्नी और बहू को दासी  समझते हैं.

एक और अमेरिकी भारतीय हिंदू लड़की, जिस का पति अमेरिकी क्रिश्चियन है, भी अपने पति से बहुत खुश है. उस ने हिंदू और क्रिश्चियन दोनों रीतियों से शादी है. उस के बच्चों के हिंदू नाम हैं. उस का पति भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म का बहुत आदर करता है. वह भी अमेरिकन सोसाइटी की उतनी ही इज्जत करती है.

नई पीढ़ी के कुछ भारतीय बच्चों से जब पूछा कि आप के मातापिता को जब गैरभारतीय बौयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड पसंद नहीं हैं तो आप क्यों नहीं कोई भारतीय साथी चुनते हो? तो उन का निर्भीक उत्तर था, ‘‘उन्होंने अपनी खुशी और कैरियर के लिए देश क्यों छोड़ दिया था. भारतीय संस्कृति की इतनी चिंता थी, तो हमें भी वहीं पैदा किया होता. अब जब हमारी खुशी का मौका आया तब वे दखल दे रहे हैं. आप उन्हें समझाएं, हमें नहीं.’’

समानता की सोच

अमेरिका में रहने वाली मैरी कोल्स बताती है कि उस का हैंडसम, ब्राइट और दिलफेंक भाई स्टीव एक बंगाली युवती शेफाली से शादी कर रहा है जो कालेज में उस की जूनियर थी.

दोनों की एक फोटो दिखाते हुए मैरी ने बताया कि कैसे पुराना परिचय दोस्ती में बदला, फिर डेटिंग शुरू हुई और सालभर के भीतर ही मंगनी के बाद दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया.

मैरी ने बताया, स्टूडैंट वीजा के बाद 2 वर्षों के वर्क वीजा पर नौकरी करते हुए अमेरिकी नागरिक से शादी कर के ओ ग्रीनकार्ड मिल जाएगा तो वापस भारत नहीं लौटना पड़ेगा. उच्चशिक्षा के लिए अमेरिका आने वाले बहुत से युवा ऐसा करने के बाद कालांतर में अमेरिकी नागरिक बन जाते हैं.

शेफाली के निर्णय के पीछे उस के जो भी निजी कारण रहे हों, अमेरिका में भारतीय मूल के अधिकांश परिवारों की बेटियां भी अमेरिकी वर चुनती हैं अपवाद की बात अलग. लेकिन पुरुषप्रधान आम भारतीय परिवारों  की गृहिणी को ही गृहस्थी का अधिक बोझ उठाते देख कर शिक्षित और प्रोफैशनल रूप से महत्त्वाकांक्षी बेटी को अमेरिकी या अमेरिकी मानसिकता वाले युवक में वांछित जीवनसाथी दिखता है. ऐसा जीवनसाथी जो घर के हर छोटेबड़े काम में स्वेच्छा से बराबर का साझेदार होगा.

स्थायित्व की संभावना

विदेशों में बसने वाले भारतीय युवाओं को लगता है कि विदेशी पत्नी होने से वहां के समाज में उन्हें और उन की संतान को प्रतिष्ठा मिलेगी.

फूड साइंटिस्ट डा. त्रिवेणी शुक्ला और उन की पत्नी गिरिजा अमेरिका में अपने दशकों पुराने प्रवास के दौरान पूर्वी और पश्चिमी संस्कारों में सुंदर सामंजस्य स्थापित करते  रहे.

अन्य भारतीय परिवारों की तरह शुक्ला दंपती की अपने बच्चों से भी यही उम्मीद थी. उन की दोनों बेटियों और पुत्र ने अमेरिकी जीवनसाथी चुने तो मित्रों और स्वजनों में भारी आलोचना स्वाभाविक थी.

कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एमबीए करने के बाद बड़ी बेटी रेखा ने सोच रखा था कि वह अपनी शैक्षिक और प्रोफैशनल महत्त्वाकांक्षा को विवाह जैसे अहम निर्णय पर हावी नहीं होने देगी.

आज 2 दशकों बाद शुक्ला परिवार के शुभचिंतक इस विवाह को आदर्श मानते हैं.

पौलिसी राइटर रेणु शुक्ला और फाइनैंस डायरैक्टर एरिक जरेट््स्की अमेरिकी मुख्यधारा की 2 उच्छवल तरंगें मिल कर सशक्त प्रवाह बनीं.

उत्तर प्रदेशीय ब्राह्मण परिवार में जन्मी और पलीबढ़ी सुकन्या के संस्कार परंपराबद्ध से अधिक बौद्धिक हैं. वर्षों पहले हिंदू परिवार में जन्मे एक नवयुवक से परिचय भी हुआ था किंतु वैचारिक परिपक्वता के स्थान पर केवल धर्म और संस्कारों की समानता मेलजोल बढ़ाने का कारण न बन सकी.

पीस कोर के लिए वौलंटियर करने के दौरान एरिक जरेट्स्टकी की भी दोस्ती एक भारतीय युवती से हुई थी लेकिन वैचारिक अनुकूलता का अभाव था. यहूदी परिवार के पुत्र एरिक और ब्राह्मण पुत्री रेणु में समान बौद्धिक स्तर प्रथम आकर्षण का कारण बना और दोस्ती प्यार में बदली, प्यार विवाह में. यहूदी धर्मगुरु और ब्राह्मण पिता ने मिल कर विवाह संपन्न करवाया. दोनों के परिवार व बच्चे एकदूसरे के कल्चर को ले कर सम्मान का भाव रखते हैं.

कुछ ऐसी ही कहानी राजन शुक्ला और विक्टोरिया की है. राजन शुक्ला ने बताया कि विक्टोरिया से अधिक उन्हें उस के पिता ने प्रभावित किया था. राजन के सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण और जिंदादिली ने विक्टोरिया का दिल जीत लिया था. विवाह के निर्णय से पहले दोनों के ही मन में असंख्य सवाल थे जिन्हें दोनों ने ताक पर रख दिया.

त्रिवेणी शुक्ला हंस कर कहती हैं कि विवाह बेटेबेटियों का ही नहीं, शुक्ला विक्टर और जरेट्स्की परिवारों का भी हुआ है. जब भी सब जुटते हैं, यूनाइटेड नैशंस बन जाता है.

आंचलिक विस्कौन्सिन के प्रबुद्ध मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी जेसिका एक नामी बुकस्टोर में पार्टटाइम काम कर रही थी. भारत के स्वाधीनता संग्राम के प्रणेता परिवार के पुस्तकप्रेमी प्रपौत्र विष्णु की पोस्ंिटग निकटवर्ती उपनगर में थी और वह नियम से बुक्स्टोर में आता था. जेसिका से उस का परिचय हुआ और परवान चढ़ी. परिचयसूत्र में बंधने के बाद नौकरी के सिलसिले में दोनों जापान, फिनलैंड और फिर अमेरिका में कुछ वर्ष रहे.

जेसिका को आभास हुआ कि सास के हृदय में अपनी जगह बनाने के  लिए उसे पहल करनी पड़ेगी. उस की सास महिला अधिकारों की प्रबल समर्थक रहीं और भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर हुईं. जेसिका ने हर वर्ष अकेले भारत जा कर कुछ समय ससुराल में बिताने का निश्चय किया.

जेसिका के दूसरे बेटे का जन्म विष्णु की  भारत में पोस्ंिटग के दौरान हुआ जहां वे मातापिता के निकट घर ले कर रहे. छोटे पौत्र के जन्म के बाद सास ने हफ्तेभर नवप्रसूता को अपने पास रख कर देखभाल की. जेसिका को गर्व है कि उन की सास अपने साथ एक अलग तरह का संबंध जोड़ने के  लिए पूरा श्रेय उसे देती हैं. विष्णु की तरह बहुत कम पति मां और पत्नी के बीच बंटने की दुविधा से मुक्त रह पाते हैं विशेषकर तब, जब विवाह अंतर्जातीय ही नहीं, अंतर्सांस्कृतिक भी हो.

दादी में अल्जाइमर्स के लक्षण दिखने लगे तो पतिपत्नी से साहस जुटा कर बड़े बेटे को पिछले साल क्रिसमस की छुट्टियों में दादी के पास रहने के लिए अकेले भारत भेजा, इस विचार से कि बालक पीढ़ी बुजुर्गों की सुखद स्मृतियां भरसक संजो सके.

क्याक्या समस्याएं

वैसे तो अपने देश में अरेंज्ड मैरिज में शुरू में एडजस्टमैंट में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर मिक्स्ड मैरिज में कुछ ज्यादा एडजस्टमैंट की आवश्यकता है. मातापिता को डर रहता है कि अब परिवार का संस्कार, रीतिरिवाज खतरे में पड़ जाएंगे. हर परिवार की एक अलग परंपरा, लाइफस्टाइल, संस्कार होते हैं जिन का सम्मान दोनों को करना है.

मिक्स्ड मैरिज के बाद अकसर दोस्त, परिवार और समाज से दूरी या बहिष्कार का भय रहता है. कभीकभी एकदूसरे के त्योहारों व बच्चों की परवरिश को ले कर झगड़े होने लगते हैं जो तलाक तक पहुंच जाते हैं और इन का खमियाजा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है. इस के लिए एक पक्ष अगर आक्रामक है तो दूसरे पक्ष को संयम बरतना चाहिए और यथासंभव रिश्तों को टूटने से बचाना चाहिए.

मातापिता को ऐसी मिक्स्ड मैरिज को सहर्ष स्वीकार करना सीखना होगा. विश्व ग्लोबल विलेज बन रहा है तो इस के वासियों की मानसिकता भी वैश्विक होनी चाहिए. वैचारिक परिपक्वता और पारिवारिक मूल्य ही दीर्घ व सुखी दांपत्य के स्रोत हैं.

कितने निभते हैं अंतर्राष्ट्रीय विवाह

पिं्रसटन के रहने वाले जौर्ज दंपती ने 30 वर्षों से वहां रहने वाले परमविंदर भाटिया की बेटी शिवांगी से अपने बेटे सैम की शादी बड़ी धूमधाम से की. एमबीए शिवांगी ने अपनी सहूलियत से ऊपर उठ कर उन से निभाना चाहा पर वे हमेशा उस के खानपान व क्रिकेट प्रेम की आलोचना बड़ी कटुता से करते हुए उस की निजता पर प्रहार करते रहे. आखिर शिवांगी ने अलग होने का फैसला ले लिया. ऐसी भी शादी क्या, जहां उस के कल्चर का मजाक उड़ाया जाए.

न्यू जर्सी के फ्रैंकलिन स्ट्रीट में रहने वाले केरलवासी गिरीश दंपती के बड़े बेटे ने अमेरिकी लड़की से शादी तो कर ली पर कटु आलोचनाओं से बचने के लिए वह घर से थोड़ी दूर पर ही दूसरे फ्लैट में रहने लगा. लेकिन छोटा बेटा जिस ने एफ्रोअमेरिकी लड़की से शादी की थी, उन्हीं लोगों के साथ रह रहा था. एक दिन मिसेज गिरीश की अपने बहूबेटे के साथ बहुत कहासुनी हुई. बहू ने पुलिस को खबर कर दी. दोनों मांबेटे को पुलिस पकड़ कर ले गई. रातभर लौकअप में रखा. बात इतनी सी थी कि बेटेबहू ने अपने कुछ दोस्तों को बुला कर घर में पार्टी रखी थी. होहल्ला को वे बरदाश्त नहीं कर पाए और तूतूमैंमैं कर बैठे.

प्रताड़ना का पेंच

40 वर्षों से एडीसन में रहते पटेल दंपती की बेटी डा. प्रिया ने जौन से प्रेमविवाह किया था. दोनों न्यू जर्सी के प्रख्यात अस्पताल रौबर्ट वुड में साथसाथ काम करते थे. जौन का व्यवहार दूसरी महिला कर्मचारियों के साथ बड़ा ही उन्मुक्त था. जब भी प्रिया जौन को महिलाओं से दोस्ती की सीमाएं बताती, वह नाराज हो कर भारतीय संस्कृति, परंपराओं, रहनसहन, खानपान का मखौल उड़ाने पर उतर आता था. मानसिक रूप से प्रताडि़त करने के बाद जब जौन शारीरिक हिंसा पर उतर आया तो प्रिया अपनी सोच पर प्रहार नहीं झेल पाई और उस से अलग हो गई. उन का 3 साल का बेटा शेरील प्रिया के पास रहता है क्योंकि वहां, भारत के विपरीत, बच्चों की गार्जियन मां ही होती है.

जमशेदपुर, झारखंड की रहने वाली वीणा पाठक की अमेरिकन बहू एलिस को 3 बच्चे, 2 लड़के और 1 लड़की एकसाथ हुए तो वह उखड़ गई. हैरिसन स्ट्रीट में रहते भारतीय परिवारों से वे जब भी, जहां भी मिलती, यह कहने से नहीं चूकती, ‘‘पता नहीं ये अमेरिकन लड़कियां खाती क्या हैं कि राक्षस की तरह 3-4 बच्चे एकसाथ पैदा कर लेती हैं. अंडा, मछली, गाय, भेड़, बकरी, सूअर सब के कलेजे खाती हैं. मुझे तो यहां पानी पीने से भी वितृष्णा होती है. पता नहीं, मेरे बेटे को यह कैसे भा गई. मैं तो जाने के दिन गिन रही हूं.’’

अमेरिका में रहने वालों के लिए यह कोई नई बात नहीं है. वहां फैशन के कपड़ों की तरह अपनी सहूलियत के अनुसार जीवनसाथी बदले जाते हैं. अलग होने की कानूनी प्रक्रिया भारत की तरह जटिल व उबाऊ नहीं है.

अगर अमेरिकन अंगरेजी में ताना मारते हैं तो भारतीय भी मुंह से हिंदीअंगरेजी दोनों में उस से बढ़ कर आग उगलने से नहीं चूकते हैं. इन की सोच के तरकश में घृणा से बुझे शब्दों के ऐसे तीर होते हैं कि मन छलनी हो जाता है. चूंकि उस देश में कानून दूसरे देशवासियों के लिए भी समान है, सो, उस का लाभ भारतीय भी कम नहीं उठाते.

सुखी वैवाहिक जीवन

इस के विपरीत कितने ही अमेरिकन परिवारों की भारतीय बहुओं के साथ अच्छी निभ रही है. पेनसिल्वेनिया के डा. शिशिर प्रसाद की बेटी मेघा थौमसन परिवार की बहू है. प्रजनन संबंधी जटिलताओं के कारण जब वह मां नहीं बन सकी तो उस ने भारत आ कर पुणे के एक अनाथालय से जुड़वां बच्चियों को गोद लिया. कानूनी कार्यवाही के लिए उसे न जाने कितनी बार भारत आना पड़ा. पति अलबर्ट, जो वहां साइंटिस्ट हैं, का पूरा साथ था कि यहां की जटिल कानूनी प्रक्रियाओं का सामना कर के यहां से बच्चियों को वह अमेरिका ले जा सकी. आज दोनों बच्चियां 18 साल की हो गई हैं और मां से ज्यादा अपने डैडी से घुलीमिली हुई हैं. इसी को नियति कहते हैं.

मिलबर्न स्ट्रीट में रहने वाले फिजिक्स के साइंटिस्ट डा. सतीश प्रसाद, जो मेघा के चाचा हैं, ने अपनी तीनों बेटियों की शादियां अमेरिकन परिवारों में की हैं. तीनों लड़कियों का वैवाहिक जीवन बहुत ही सुखी है. 2 वर्षों पहले सभी भारत आए थे. वहां पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं और अपनी सुविधानुसार ही रहते हैं, लेकिन अवसरों पर वे एकदूसरे के फैमिली मैंबर से प्रेमपूर्वक अवश्य मिलते हैं.

सालों से न्यूयौर्क में रहते डा. सुधांशु की बेटी रिया ने पीटर से प्रेमविवाह किया और आज उन के 2 बच्चे हैं. हर साल क्रिसमस में पीटर का पूरा परिवार नए साल के आगमन तक न्यूयौर्क में ही अपनी बहू के यहां रह कर वहां के सैलिब्रेशंस का आनंद उठाते हैं. डाक्टर के बेटेबहू निसंतान हैं. वे रिया के दोनों बच्चों को बहुत प्यार करते हैं.

होबोकन में  रहते डा. रीता प्रसाद और डा. सुधीर प्रसाद की बहू और दामाद दोनों अमेरिकन हैं. उन से मिल कर कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि 2 विपरीत सभ्यताओं और संस्कृतियों का मिलन है. सभी पेशे से डाक्टर हैं और मिलजुल कर रहते हैं. अमेरिकन और इंडियन परिवारों, जहां ऐसे रिश्ते बने हैं, से मिलने पर यही निष्कर्ष निकला कि ऐसे रिश्तों को निभाने में अमेरिकियों से ज्यादा इंडियन असहनशील हैं. अमेरिकियों को भारतीय सभ्यतासंस्कृति से जुड़े सारे रिवाज बहुत भाते हैं. वे हर त्योहार, पहनावे, खानपान का लुत्फ उठाते हुए उत्सुकता के साथ खुशी से मनाते हैं.

देसी बनाम विदेशी शादियां

जहां एक ओर भारतीय युवतियां विदेशी युवाओं से शादी कर खुश नजर आती हैं वहीं भारतीय युवाओं की शादियां विदेशी युवतियों के साथ असफल नजर आईं. अपना नाम और पता गुप्त रखने की शर्त पर गुरुग्राम के भरत (बदला हुआ नाम और स्थान) ने लिथुआनियन लड़की से विदेश में बस जाने की चाह में अपने मातापिता की मरजी से उन की उपस्थिति में शादी की, लेकिन एक साल के भीतर ही उस का तलाक हो गया जबकि उस की एक नन्ही बच्ची भी है.

दिल्ली के पश्चिमपुरी के विजय (बदला हुआ नाम और स्थान) की भी ऐसी ही कहानी है. इन्होंने भी लिथुआनियन लड़की से विदेश में बस जाने की चाह में 10 साल पहले शादी की थी. इन के 7 और 9 साल के 2 बेटे हैं, लेकिन अब वे तलाक लेना चाहते हैं.

इन दोनों भारतीयों की शादी असफल होने के कारण एकजैसे ही हैं. इन्होंने बताया कि विदेशी लड़कियां शादी के बाद न तो परिवार के लोगों को अपनाना चाहती हैं और न ही भारत आना चाहती हैं. इस के अतिरिक्त अपना पैसा, अपना खर्च, अपना काम जैसा विभाजन कर घर चलाने और उन की जीवन जीने की स्वछंद शैली से आएदिन घर में कलह का माहौल बनता है, जिस से आखिरकार तलाक की नौबत आ जाती है.

श्रुति के पिता कमलजीत सिंह चौहान से बातचीत :


आप की बेटी श्रुति चौहान कहां रहती है, उस की शिक्षा कहां से हुई थी?

हमारी बेटी इटली में रहती है. उस ने दिल्ली के गार्गी कालेज से बीए औनर्स वर्ष 2003 में किया था.

वह विदेश कैसे गई थी?

उस ने वर्ष 2003 में मिस इंडिया कौन्टैस्ट में भाग लिया था और वह कौन्टैस्ट के अंतिम चरण के 5वें नंबर पर चुनी गई थी. इन्हीं दिनों उसे फ्रांस दूतावास ने कल्चरर्स ऐक्सचेंज के तहत फ्रांस आने का निमंत्रण दिया और वह फ्रांस चली गई. उस का झुकाव शुरू से  मौडलिंग की ओर था. उसे इटली की एक कंपनी से वहां मौडलिंग का औफर मिला और वह वहां से इटली चली गई. इटली में उस ने मैनेजमैंट औफ लग्जरी गुड्स में पोस्टग्रेजुएट की शिक्षा प्राप्त की.

श्रुति की शादी किस से और कहां हुई, क्या यह शादी परिवार की सहमति से हुई है?

श्रुति की शादी इटली के मिस्टर जिवोनी कोसोलीटो से हुई है. इटली के मिलान शहर में उन दोनों की दोस्ती हुई. पहले हम उस के साथ कल्चरल डिफरैंस के चलते शादी के खिलाफ थे.

आप लोग हिंदू हैं, क्या धर्म से संबंधित कोई परेशानी श्रुति को शादी के बाद झेलनी पड़ी?

श्रुति की शादी एक रोमन कैथोलिक ईसाई परिवार में हुई है, लेकिन न तो कभी लड़के ने और न ही कभी उस के परिवार वालों ने उसे धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डाला. श्रुति तो दोनों धर्मों के त्योहार अपनी ससुराल वालों के साथ मनाती है. उस का एक बेटा भी है और वह इस विदेशी परिवार के बीच बेहद खुश है. मैं और मेरी पत्नी उस के पास कभी 6 महीने, कभी सालभर रह कर आते हैं.

मोयना की मां लीना से बातचीत :


आप की बेटी कहां रहती है, वह विदेश कैसे गई थी?

मेरी बेटी आजकल लंदन में है. वह उच्चशिक्षा के लिए ब्रिटेन गई थी. उस ने पहले एडनबरा से एमए (इंग्लिश) किया, फिर लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स से मीडिया ऐंड कम्युनिकेशंस की शिक्षा प्राप्त की.

मोयना की शादी किस से और कहां हुई, क्या यह शादी परिवार की सहमति से हुई है?

मोयना की शादी ईसाई परिवार के ब्रिटिशमूल के नागरिक से हुई है. शादी से पहले लंदन में एक ही कंपनी में कार्य करने के दौरान इन की दोस्ती हुई थी. फिर दोनों परिवारों की सहमति से इन की शादी हुई है.

आप लोग हिंदू हैं, क्या धर्म से संबंधित कोई परेशानी मोयना को शादी के बाद झेलनी पड़ी?

मोयना को कभी भी किसी ने धर्म बदलने के लिए दबाव नहीं डाला और न ही उस ने अपना धर्म बदला है. परिवार के सभी सदस्य छुट्टियों के दौरान आपस में मिलतेजुलते हैं. हम भी लंदन उन के परिवार से मिलने अकसर जाते हैं और उन के परिवार के लोग भी भारत हमारे पास आते रहते हैं. मोयना इस परिवार में शादी कर बेहद खुश है.

आप्रवासी भारतीय शादियों में धर्म का धंधा

आप्रवासी भारतीयों के विवाह में धर्म ने पीछा नहीं छोड़ा है. विदेशों में बसे भारतीय परिवार बड़ी संख्या में दूसरे समाजों में शादी रचा रहे हैं. भारतीय हिंदू युवकयुवतियां विदेशी ईसाई, यहूदी, मुसलिम धर्म में विवाह तो कर लेते हैं पर दोनों अपनेअपने धर्म,  आस्था को छोड़ नहीं पाते. आप्रवासी शादियों में अलगअलग सामाजिक, धार्मिक वातावरण के बावजूद धर्म की मौजूदगी देखी जा सकती है. ये परिवार धार्मिक अंधविश्वासों को नहीं छोड़ पाते.

भारतीय ही नहीं, हर देश की विवाह संस्था में धर्म एक जरूरी हिस्सा है. अकेले अमेरिका में लगभग 20 लाख प्रवासी भारतीय हिंदू आश्रमों, मंदिरों, गुरुद्वारों की जीवनशैली अपनाए हुए हैं. प्रवासी भारतीय दूसरे धर्म, संस्कृति में विवाह तो कर लेते हैं पर उन की विचारधारा, विश्वास, रीतिरिवाज, सामाजिक पद्धति के भेद दृढ़ता के साथ अपनी जगह मौजूद रहते हैं. वे इन्हें छोड़ नहीं पाते.

विदेशों में इस तरह के अंतर्धार्मिक विवाह अकसर चर्चों या धर्मस्थलों में संपन्न होते हैं और इन शादियों में पादरी, मुल्लामौलवी, पंडित की उपस्थिति जरूर रहती है. अमेरिका, यूरोप में अधिकांश विवाहों में पादरी, भारतीय पंडे, मौलवी विवाह के लिए विधिवत रूप से नियुक्त होते हैं. कुछ अन्य कानूनी अधिकारी भी होते हैं पर धर्म के इन बिचौलियों के कहने से ही विवाह की रस्में निभाई जाती हैं.

विवाह 2 व्यक्तियों के कानूनी रूप से एकसाथ रहने केलिए सामाजिक मान्यता है पर धार्मिक रीतिरिवाज से किए गए विवाह को अधिक सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है, कानूनी विवाहों को इतनी नहीं होती. प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक कर्तव्य बताया गया है. विवाह का धार्मिक महत्त्व प्रचारित करने से ही अधिकांश समाजों में विवाह विधि धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है.

इस तरह से आप्रवासी धर्म का धंधा चला रहे हैं. भारत से गए कुछ लोगों ने लिखा भी है कि भारत से आने वाले परिवार कुछ सामान, जरूरी चीजों के साथ रामायण, गीता साथ लाए थे यानी विदेशों में बसे भारतीय धर्म की पूरी गठरी ले गए थे और अपनी अलग धार्मिक पहचान बनाने में जुटे रहे.

हालांकि अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों में विवाह के लिए कानून बहुत उदार हैं और मैरिज अफसर के पास जा कर सीधे शादी कर सकते हैं, लेकिन फिर भी विवाह करने वाले दंपती और उन के परिवार धर्म की शरण में जाना अनिवार्य समझते हैं. रोमन कैथोलिक चर्च अब तक विवाह को धार्मिक बंधन समझता है. यहूदियों की धर्मसंहिता के अनुसार, विवाह से बचने वाला व्यक्ति उन के धर्मग्रंथ के आदेशों का उल्लंघन करने के कारण हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता है. रोमनों का भी यह विश्वास था कि परलोक में मृत पूर्वजों का सुखी रहना इस बात पर निर्भर करता है कि उन का विवाह संस्कार धार्मिक विधि से हो तथा उन की आत्मा की शांति के लिए उन्हें अपने वंशजों की प्रार्थनाएं, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहें. इस तरह मिश्रित विवाहों में धर्र्म का धंधा खूब कामयाब है.

धर्म का भेद बुनियादी है और इसी से समस्याएं पैदा होती हैं. जोडि़यां अलगअलग धार्मिक, सामाजिक वातावरण से आती हैं. यूथ अपनी अलग संस्कृति में रगेपगे होते हैं. विवाह के लिए वे धर्म के रिवाजों का दामन थामे रखते हैं.

शिक्षा, सूचना, प्रौद्योगिकी, विज्ञान व उद्योग के क्षेत्र में बड़ी प्रगति के बावजूद प्रवासी समाज अभी भी दकियानूस बना हुआ है. दकियानूसी आप्रवासियों के बल पर विदेश में धर्म का धंधा चलता रहता है.

दुनियाभर के प्रवासियों में भारतीय नंबर वन

करीब 3 करोड़ से भी अधिक प्रवासी भारतीय दुनिया के कोनेकोने में सफलतापूर्वक व्यवसाय व नौकरी कर अपने परिवार के साथ रह रहे हैं. अपनी मेहनत, अनुशासन, कानून अनुसरणता और शांत स्वभाव के चलते विदेशों में रह रहे भारतीयों को अन्य आप्रवासी समुदायों के लिए रोल मौडल की तरह पेश किया जाता है.

यह संख्या अन्य देशों के प्रवासियों के मुकाबले सब से ज्यादा है.  सब से अधिक संख्या में पंजाबी, गुजराती, बिहारी, तमिल, तेलुगू समुदायों और उत्तर प्रदेश के लोगों ने विदेशों में पलायन किया है.

आज भारतीय लोग मुख्यरूप से यूके, यूएसए, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशो में जा कर बसना पसंद कर रहे हैं. यूएसए, यूके, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, यूएई, कतर, सिंगापुर, फिजी, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, केन्या, मौरीशस, सेशल्स, मलयेशिया में फैले भारतीय प्रवासी अन्य प्रवासियों से आंकड़ों के लिहाज से सब से ऊपर हैं. सिर्फ बड़े देशों में ही नहीं, बल्कि कुक आइलैंड, किरिबाली, समोआ, पोलिनेसिया व माइक्रोनेसिप जैसे अपेक्षाकृत कम चर्चित देशों में भी भारतीय प्रवासियों की तादाद खासी है.

दुनिया के करीब 208 देश ऐसे हैं जहां भारतीय आबादी है. विदेश मंत्रालय, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक, 3 करोड़ 8 लाख 40 हजार भारतीय 208 देशों के या तो स्थायी निवासी हैं या वहां रह रहे हैं. यह संख्या भारत में कई बड़े राज्यों की कुल आबादी से भी अधिक है. दिलचस्प बात तो यह है कि भारत समेत 45 देश ही ऐसे हैं जिन की कुल जनसंख्या विदेशों में बसे भारतीयों से ज्यादा है.

आकर्षक रोजगार और बेहतर भविष्य की संभावनाएं जहां ज्यादा दिखती हैं, भारतीय वहां बस जाते हैं. शायद इसीलिए सर्वाधिक यानी 86 लाख 40 हजार भारतीय पश्चिम एशियाई देशों और 60 लाख 30 हजार लोग दक्षिणपूर्व एशिया में हैं. दक्षिण एशिया के देशों में भी भारतीयों की संख्या 23 लाख 20 हजार है. दक्षिण एशिया के देशों में रहने वाले ज्यादातर भारतीय लेबर क्लास के हैं, जबकि उत्तरी अमेरिका में टैक्निकल लोगों की खासी मांग है और इस मांग को पूरा करने में 54 लाख 80 हजार भारतीय हिस्सेदारी निभा रहे हैं.

यूरोपीय देशों की बात करें तो रिपोर्ट बताती है कि उत्तरी यूरोप के देशों में करीब 19 लाख 10 हजार भारतीय हैं तो पश्चिमी यूरोप में उन की संख्या 5 लाख 40 हजार और दक्षिण यूरोप में 3 लाख 40 हजार है. पूर्वी यूरोप के देशों तक में 50 हजार भारतीय प्रवास कर रहे हैं, जबकि अफ्रीकी देशों में भी भारतीयों की संख्या 31 लाख से ज्यादा है. लैटिन अमेरिका व कैरेबियाई देशों में 12 लाख 10 हजार भारतीय हैं.

अपना देश छोड़ कर दूसरे देशों में रहने वालों में सब से ज्यादा भारतीय हैं. इस के बाद मेक्सिको, रूस, चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान, फिलीपींस, अफगानिस्तान, यूके्रन तथा ब्रिटेन शीर्ष 10 में हैं.

एक और दिलचस्प रिपोर्ट आई है जिस के मुताबिक दुनिया के देशों में इंडियन सिर्फ आबादी में ही सब से आगे नहीं हैं बल्कि प्रवास के दौरान अपने देश में पैसा भेजने में भी अव्वल हैं. विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि प्रवासी भारतीयों ने वर्ष 2017 में करीब 72 अरब डौलर भारत भेजे. 64 अरब डौलर के साथ चीन के प्रवासी दूसरे स्थान और फिलीपींस (30 अरब डौलर) के साथ तीसरे?स्थान पर हैं.

यह अलग बात है कि आज भी प्रवासी भारतीयों के साथ नस्लभेद ,की घटनाएं सुनने को मिलती रहती हैं. आस्ट्रेलिया में जहां भारतीय स्टूडैंट्स को पीटा जाता है वहीं अमेरिका में रैड डौट रेसिस्ट गु्रप का काला इतिहास है.

और तो और, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी भारतीय आईटी पेशेवरों की राह में एच-1 वीजा की आड़ में मुश्किलें पैदा कर रहे हैं. रंग और नस्लभेद की तमाम रुकावटों को पार करते हुए भारतीय आज दुनियाभर में अगर सीना तान कर जीवनयापन कर रहे हैं, तो वह उन की अपनी मेहनत है.

  • शकुंतला सिन्हा के साथ इंदिरा मितल, सुरेश चौहान, जगदीश पंवार, राजेश कुमार और रेणु श्रीवास्तव.

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जीने दो मुझे : आखिर लड़कियों के लिए दोहरा मापदंड क्यों

मैं लड़की क्यों पैदा हुई? भाई के लिए टोकाटाकी नहीं? हर समय मुझे ही क्यों नसीहत दी जाती है? ये सब सवाल अधिकतर लड़कियों के मन में बगावत कर रहे होते हैं, मानसिक द्वंद्व चल रहा होता है और कई बार लड़कियां गलत कदम भी उठा लेती हैं.

दुनिया बहुत अलग है. जब लड़की कुछ गलत करती है तो सब लोग उस पर उंगली उठाते हैं. लड़की सोचने पर मजबूर हो जाती है कि उस ने क्या गलत किया, जो उसे लड़की के रूप में जन्म मिला. तुम लड़की हो, लड़कों से अच्छा नहीं कर सकती, लड़की की तरह रहो आदि. समाज यही सब कहता है. उन का समय भी अच्छा होगा जो खुद समाज में अपनी नई पहचान बनाती हैं, पर कुछ को तो घर से बाहर कदम रखते ही बहुत बड़ी सजा मिलती है.

अकसर खुद अपने घर के बड़े सुबह से शाम तक बस, यही नसीहत देते रहते हैं, ‘कभी किसी लड़के से मत बोलो,’ ‘वह तुम्हें बिगाड़ देगा,’ ‘तुम हमारी नाक कटा दोगी,’ वगैरा. लड़कियों को हमेशा ऐसी नसीहत दी जाती है और वह चुपचाप सब सहन कर लेती हैं. लड़की को कितनी मानसिक पीड़ा होती है, उसे कितना तनाव झेलना पड़ता है, शायद यह आप सोच भी नहीं सकते. आज भी अधिकांश घरों में लड़कियों पर ढेरों पाबंदियां हैं. यह क्या बलात्कार से कम है?

उत्तराखंड, काठगोदाम की ज्योति ने इस तरह की पाबंदियों से आजिज आ कर खुदकुशी कर ली, लेकिन आत्महत्या से पहले उस ने एक सुसाइड नोट लिखा जिसे पढ़ कर सब स्तब्ध रह गए. 7वीं क्लास की इस बच्ची ने नोट में लड़कियों के भीतर छिपा दर्द, लड़कालड़की के बीच भेदभाव व पाबंदियों को समाज के सामने रखने की मार्मिक कोशिश की थी. यह न सिर्फ सुसाइड नोट था, बल्कि समाज की रूढि़यों और लड़कियों की बंदिशों पर करारा तमाचा भी था. लड़की होेने के अभिशाप से ज्योति तो हमेशा के लिए बुझ गई, पर बहुत से सवाल खड़े कर गई.

आखिर क्यों मातापिता लड़की पर इतनी पाबंदियां लगाते हैं, जो उन्हें इस सोच के दायरे में रहने को मजबूर करती है और पता नहीं कब तक मजबूर करती रहेगी? इस सोच के जन्मदाता मातापिता हैं. कैसे, कब, कहां, कितना हंसना, रोना, गाना है यह सब मातापिता अपनी बेटियों को सिखाते हैं, लेकिन यही बातें वे बेटों को सिखाना भूल जाते हैं. जब भी घर में मेहमानों का आगमन होता है तो लड़की से पानी लाने को कहा जाएगा बेटे से नहीं. आखिर ऐसा क्यों?

जहां तक यह बात है कि लड़की कैसे कपड़े पहनती है़? किस समय बाहर जाती है? क्यों लड़कों से दोस्ती रखती है? क्यों जोरजोर से हंसती है? तो दरअसल, सामान्य इंसान के रूप में लड़की को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है. आज के बदलते वैश्विक परिवेश में कोई लड़की क्या पहनती है, कैसे रह रही है, किस से मिल रही है आदि उस का पूर्णतया व्यक्तिगत मामला है और इस में हस्तक्षेप करने का, किसी को कोई अधिकार नहीं है.

ग्लैमर और फैशन

मौजूदा दौर में फैशन को ले कर मातापिता और खास कर लड़कियों में तनाव रहता है. मनोवैज्ञानिक डा. मानसी कहती हैं, ‘‘मातापिता को लड़कियों को तल्ख अंदाज के बजाय दोस्त की तरह समझाना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत.’’

सोच अच्छी रखें

जिंदगी के प्रति लड़कियों का रवैया उन की खुशियां तय करता है. चीजें आसानी से नहीं बदलतीं, लेकिन खुद को बदलना असहज लग सकता है.

अकसर मातापिता अपने विचारों का बोझ लड़कियां पर डाल देते हैं, जिस से वे भावनात्मक व मानसिक रूप से टूट जाती हैं और यही बिखराव उन्हें भ्रमित कर देता है. उन्हें यह समझ नहीं आता कि जिंदगी के विभिन्न कालचक्रों में कैसा रुख अख्तियार किया जाए. इस का दबाव उन के द्वारा कैरियर में लिए जाने वाले फैसलों में भी देखने को मिलता है.

क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट डा. राणा कहते हैं, ‘‘जब मातापिता ही लड़कियों के लक्ष्यों का निर्धारण करने लगते हैं, तो लड़की का असमंजस की स्थिति में पड़ना लाजिमी है. पेरैंट्स यह नहीं समझते कि उन की बच्ची की क्षमता कितनी है. वे अपनी बच्ची को वही बनाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें सही लगता है.

मनोवैज्ञानिक एम पी सिंह कहते हैं, ‘‘आज के दौर में उन के पास तमाम ऐसी लड़कियां आती हैं जो अपने मातापिता से संबंधों को ले कर मानसिक रूप से परेशान होती हैं. उन में से अधिकतर मांबाप की हर बात पर टोकाटाकी बरदाश्त नहीं कर पाती हैं. ऐसे में वे डिप्रैशन का शिकार हो जाती हैं. वे सोचने लगती हैं कि क्या वे कठपुतली हैं और दूसरों की उम्मीदों पर खरे उतरने में नाकाम हैं. ऐसे में दोनों के बीच विरोधाभास होता है. ऐसी स्थिति में पेरैंट्स की भूमिका काफी बढ़ जाती है. वे लड़की की मनोस्थिति को समझें और उस से दोस्त की तरह पेश आएं.’’

मातापिता कई बार कैरियर के चुनाव में भी लड़की के लिए एक बड़ी उलझन पैदा कर देते हैं. मनोवैज्ञनिक डा. राजीव मेहता कहते हैं, ‘‘मौजूदा समय में लड़कियों में इंडीविजुअलिटी बढ़ी है. ऐसे में कैरियर जैसे अहम फैसलों पर वे दखलंदाजी पसंद नहीं करतीं. वे कई बातों को नजरअंदाज कर देती हैं या फिर मातापिता की उम्मीदों के मुताबिक ही खुद को ढालने के प्रयास में अवसाद की स्थिति में आ जाती हैं.’’

डा. राजीव सवालिया लहजे में आगे कहते हैं कि बलात्कार से लोग क्या समझते हैं? बलात्कार, न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक भी होता है. लड़की को मेहरबानी कर जीने दें. उसे खुली हवा में सांस लेने दें. उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें. उस का मानसिक बलात्कार न होने दें.

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रोडसाइड टैटूइंग के साइड इफैक्ट्स जानते हैं आप

इंडियन एसोसिएशन औफ लिवर द्वारा किए गए शोध के मुताबिक देश में हैपेटाइटिस का औसत प्रसार 4.7 प्रतिशत है. दुनियाभर में हैपेटाइटिस से 40 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं जो एचआईवी रोगियों के मुकाबले दसगुना अधिक हैं.

आज के युवा हैल्थ से ज्यादा स्टाइल को तवज्जुह देते हैं. कभी अपनी प्रेमिका के नाम को तो कभी अपने फेवरेट कैरेक्टर को अपनी बौडी पर टैटू के जरिए दर्ज करने के चक्कर में वे इस के साइडइफैक्ट्स तक भूल जाते हैं. एक हद तक ऐक्सपरिमैंट करने या नई चीजों को तलाशने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन टैटू एक ऐसी जोखिमभरी प्रक्रिया है जो आप के स्वास्थ्य को सीधे खतरे में डालती है. आजकल हर मौल, शौपिंग कौंप्लैक्स या स्ट्रीट मार्केट में टैटू पार्लर्स खुल गए हैं जो आप की पसंद का टैटू बनाने के लिए अच्छीखासी फीस तो लेते हैं, लेकिन युवाओं को यह कोई नहीं बताता कि इन पार्लर्स में कितने लोग सुरक्षित तरीके से इंकिंग करते हैं. कई बार इन की लापरवाही किसी की जान भी ले सकती है.

हैपेटाइटिस का खतरा

स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि बिना सावधानी के टैटू बनवाने से हैपेटाइटिस हो सकता है. हैपेटाइटिस लिवर की सूजन यानी इनफ्लेमेशन है. यह विभिन्न किस्मों में होती है. हैपेटाइटिस बी और सी दुनियाभर में बढ़ते संक्रमण और मौत के प्रमुख कारण हैं. अनस्टाइल सुइयों या फिर एक ही सुई के इस्तेमाल से यह वायरस, आप के भीतर प्रवेश कर सकता है. हैपेटाइटिस बी बहुत शक्तिशाली है और एचआईवी की तुलना में 0.3 एमएल रक्त की जरूरत के मुकाबले 0.03 मिलीलिटर रक्त ही वायरस फैलाने के लिए पर्याप्त है.

इसी तरह रोडसाइड खुले सैलून में भी लापरवाही बरती जाती है जो स्वास्थ्य पर भारी पड़ती है. एक ही शेविंग ब्लेड के इस्तेमाल से वायरस संचरण यानी ट्रांसमिशन हो सकता है. खास कर जब संक्रमित व्यक्ति को कोई कट लग जाए और घाव खुला हो. इस्तेमाल किए गए ब्लेड से संक्रमित रक्त का संपर्क होता है जिस से यह किसी दूसरे में फैल सकता है. हैपेटाइटिस बी और सी स्थायी लिवर क्षति के कारण घातक हैं क्योंकि यह लिवर कैंसर की बढ़ती आशंका का कारण होता है. यह न सिर्फ आप को बल्कि आप की संतान को खतरे में डालता है. यह रोग वंशानुगत भी होता है. लोगों को ब्रिमिंग लक्षणों के बारे में बहुत सावधान रहना चाहिए, क्योंकि हैपेटाइटिस बी और सी का पता लगाना मुश्किल होता है. उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता है या जब तक आप अस्पताल में ग्लूकोज चढ़वाने नहीं जाते तब तक इस के बारे में पता नहीं लग पाता है.

ब्यूटी सैलून और टैटूइंग दे सकते हैं हैपेटाइटिस

हैपेटाइटिस बी और सी वायरस के कारण होते हैं. इन से हैपेटाइटिस, सिरोसिस और लिवर कैंसर भी हो सकता है. हैपेटाइटिस बी और सी में संक्रमण, दूषित खून से फैलता है. आमतौर पर सैक्सुअल इंटरकोर्स, ड्रग्स की लत वाले किसी व्यक्ति में इस्तेमाल की गई सूई से और उच्च वायरल से पीडि़त मांओं से उन के नवजात बच्चे में यह संक्रमण फैल सकता है. लंबे समय से नाई की दुकानों को भारत में संक्रमण का स्रोत माना जाता है, जहां कई ग्राहकों के लिए एक ही रेजर ब्लेड का इस्तेमाल करना आम बात है. यदि उस दूषित रेजर से किसी को एक छोटी सी खरोंच भी लग जाए तो वायरस फैल सकता है.

हाल के वर्षों में हेयर और ब्यूटी सैलून कुकुरमुत्तों की तरह फैले हैं, ये भी हैपेटाइटिस बी या सी फैलाते हैं. चूंकि हैपेटाइटिस बी वायरस हैपेटाइटिस सी वायरस या एचआईवी से अधिक संक्रामक है, इसलिए हैपेटाइटिस बी के संचरण की अधिक आशंका रहती है.

क्या कहते हैं मैडिकल जर्नल

आजकल युवाओं में मैनीक्योर, पेडीक्योर और हेयरकट्स के अलावा कईर् तरह के ब्यूटी ट्रीटमैंट लेने का चलन है. इस के लिए वे कहीं भी, किसी भी पार्लर में जाने से परहेज नहीं करते. नतीजतन, उन के साथ कई तरह की लापरवाही बरती जाती है. यह हाल न सिर्फ भारत का बल्कि पूरी दुनिया का है. वाशिंगटन में अमेरिकन कालेज औफ गैस्ट्रोऐंट्रोलौजी के जर्नल के मुताबिक, मैनीक्योर, पेडीक्योर और हेयरकट्स के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ सामान्य उपकरणों के माध्यम से हैपेटाइटिस फैलने का एक संभावित जोखिम होता है. नेल फाइल्स, नेल ब्रश, फिंगर बाउल्स, फुट बेसिन, रेजर, क्लिपर्स और कैंची इन सब के बीच महत्त्वपूर्ण है. यदि इन्हें ठीक से साफ या औटोक्लेव्ड नहीं किया जाता है तो हैपेटाइटिस बी और सी के संचरण होने का संभावित खतरा रहता है. इस तरह के ट्रांसमिशन के सटीक जोखिम के बारे में अभी तक बेहतर तरीके से स्टडी नहीं हुई है विशेष रूप से भारत में जहां ऐसे सैलून के लिए नियम पश्चिमी दुनिया के मुकाबले बहुत कम हैं.

टैटू बनवाने से पहले

हैपेटाइटिस बी और सी दोनों को टैटू द्वारा प्रेषित किया जा सकता है. यदि किसी को हैपेटाइटिस बी के खिलाफ टीका लगाया जाता है तो संक्रमण होने का जोखिम काफी कम हो जाता है. हैपेटाइटिस सी के लिए कोई टीका नहीं है लेकिन दोनों को काफी हद तक रोका जा सकता है. टैटू की प्रक्रिया स्याही की छोटी बूंदों के इंजैक्शन के दोहराइए जाने से होती है. इस में सूई को कईर् बार चुभोया जाता है. यदि आप कोई पार्लर चुनते हैं जो उचित संक्रमण नियंत्रण प्रक्रियाओं का पालन नहीं करता है तो यह इस तरह के संक्रमण होने की आशंका को बढ़ाएगा. ऐसे टैटू पार्लर का उपयोग करें जिन के पास उचित परमिट हैं और निवारण जहां सभी संक्रमण का पालन किया जाता है. ऐसे पार्लर का उपयोग करें जो सूइयों, स्याही कप का सही तरीके से इस्तेमाल करता हो. सुनिश्चित करें कि टैटू बनाने वाले व्यक्ति ने अच्छी क्वालिटी के दस्ताने पहने हों. यदि वहां स्वच्छता नहीं है तो टैटू पार्लर को तुरंत छोड़ दें.

क्या कहते हैं टैटू आर्टिस्ट

सीनियर टैटू आर्टिस्ट चार्ली भी इस बात को मानते हैं कि देश में करीब 50 प्रतिशत टैटू पार्लर्स असुरक्षित तरीके से टैटू बनाने का काम कर रहे हैं. उन के मुताबिक, अगर आप टैटू आर्टिस्ट हैं तो आप को युवाओं की स्किन और हैल्थ से समझौता नहीं करना चाहिए. जिस जगह पर भी टैटू पार्लर हैं, वह जगह अच्छे तरीके से साफ होनी ही चाहिए लेकिन शरीर के जिस हिस्से में टैटू बनाना है उसे साफ रखना सब से जरूरी काम है.

युवा जब भी टैटू पार्लर जाएं तो आंख बंद कर टैटू आर्टिस्ट की बातों में आने के बजाय खुद देखें कि वहां टैटू बनाने में इस्तेमाल होने वाली स्पैशल नीडल का प्रयोग हो और मशीन भी स्तरीय हो. नीडल की सील खुली न हो और उसे रखने की जगह भी प्रौपरली सैनिटाइज हो वरना कईर् जगहों पर खास कर मेलों और स्ट्रीट मार्केट में जुगाड़ मशीनों का इस्तेमाल कर युवाओं की स्किन से खिलवाड़ किया जाता है. हैंडग्लव्स भी यूज ऐंड थ्रो यानी लोकल क्वालिटी के बजाय अच्छी वाले हों, इस का भी ध्यान रखें.

चार्ली बताते हैं कि टैटू में इस्तेमाल होने वाली इंक भी प्रौपर वेजीटेबल पिगमैंट वाली हो, न कि लोकल फैब्रिक या कैमल इंक वरना स्किन एलर्जी और इन्फैक्शन होने का खतरा रहता है. जिस तरह हम डाक्टर के पास जाने से पहले उस की डिगरी और काबिलीयत के बारे में जान व समझ लेते हैं.

वैसे टैटू पार्लर और आर्टिस्ट का रजिस्ट्रेशन, सर्टिफिकेट और उस का पिछला रिकौर्ड आदि देख कर ही जाएं. डाक्टर को 100-200 रुपए देते समय हम इतनी सावधानी दिखाते हैं तो फिर टैटू में तो हजारों खर्च होते हैं. आखिर में चार्ली कहते हैं कि टैटू, पियर्सिंग एक कला है और इस से समझौता नहीं होना चाहिए.

मुख्य स्रोत और उन की रोकथाम

शराब के ज्यादा सेवन से अल्कोहौलिक हैपेटाइटिस हो सकता है. कुछ दवाएं भी हैपेटाइटिस का कारण बन सकती हैं. इन में सब से आम आंट ट्यूबरकुलर दवाओं का उपयोग है. पूरक और वैकल्पिक दवाइयां (सीएएम) हमारे देश में हैपेटाइटिस का एक अन्य कारण है. वायरस के कारण हैपेटाइटिस ई शामिल हैं. हैपेटाइटिस ए और ई के वायरस दूषित पानी में पैदा होते हैं.

हैपेटाइटिस ए और ई के विपरीत, हैपेटाइटिस बी, सी और डी को फैलाने वाला वायरस दूषित रक्त द्वारा संक्रमित होता है. इसलिए किसी व्यक्ति को असुरक्षित संभोग से और इंजैक्शन में इस्तेमाल असुरक्षित सूइयों से संक्रमण हो सकता है.

गर्भवती मां से नवजात शिशु को भी यह संक्रमण हो सकता है. इस में सी के मुकाबले हैपेटाइटिस बी होने की अधिक आशंका रहती है.

इस से पहले ब्लड ट्रांसफ्यूजन के कारण भी हैपेटाइटिस बी और सी के वायरस फैलते थे, लेकिन अब ब्लडबैंक हैपेटाइटिस बी और सी के लिए रक्तदाता की जांच करते हैं, ऐसे ट्रांसमिशन असामान्य हैं. ट्रांसमिशन के अन्य तरीकों में ब्यूटी सैलून, नाई की दुकान, टैटूइंग, हैमोडायलिसिस आदि शामिल हैं.

कुल मिला कर स्टाइल और टशन अपनी जगह है, टैटू बनवाना है तो जल्दबाजी न दिखाएं. उपरोक्त सावधानियों और निर्देशों का पालन जरूर करें वरना आप की एक छोटी सी लापरवाही जिंदगी भर का रोग दे सकती है.

(यह लेख डा. वी के मिश्रा, गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट, द गैस्ट्रोलिवर अस्पताल, कानपुर, टैटू आर्टिस्ट चार्ली और ब्यूटी ऐक्सपर्ट्स से बातचीत पर आधारित है.)

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दाढ़ी वाले बाबा : रातदिन का ध्वनि प्रदूषण और रातों की उड़ी नींद

पूरी कालोनी शोर के चलते परेशान हो गई थी. कालोनी में एक सरकारी जमीन का टुकड़ा था. शर्माजी को उस पर कब्जा करना था. उन के मकान से लगालगाया वह टुकड़ा था. उन्होंने थोड़ी सी ईंटें और सीमेंट डलवा कर मंदिर बनवा लिया.

आनेजाने वालों को दिक्कत हो रही थी. लेकिन किसी के बाप की हिम्मत जो भगवान के मंदिर के खिलाफ बोल दे. शर्माजी ने उसी मंदिर से लग कर एक दुकान खोल ली जहां मोटा पेट लिए वे सेठजी बन कर बैठ गए थे. लेकिन अभी उन का मन भरा नहीं था. उन्होंने विचार किया- भगवानजी तो स्वर्ग में रहते हैं, सो उन भगवानजी का ट्रांसफर एकमंजिला बना कर ऊपर कर दें और नीचे पूरा एक हौल निकल आएगा जिस में काफी जगह निकलेगी. उस का गोदाम के तौर पर उपयोग हो जाएगा.

जयपुर से एक पत्थर लाया गया. फिर एकमंजिला ऊंचा मंदिर निर्माण कर के नीचे वाले हिस्से पर शर्माजी ने दुकान और गोदाम निकाल लिया. 5-6 महीने बाद आधी दुकान किराए पर दे कर वे चांदी काटने लगे. लेकिन शर्माजी पूजापाठ करें या दुकानदारी-वे कुछ निर्णय नहीं कर पा रहे थे. इधर कालोनी वाले ईर्ष्या कर रहे थे, शिकायतें भी हो रही थीं. अभी दुकानों की लागत निकली नहीं थी और यदि यह अवैध कब्जा हट गया तो लाखों का नुकसान हो जाएगा. उन्होंने तरकीब भिड़ाई और आननफानन अपने गांव से एक अनाथ प्रौढ़ को बाबा बनवा कर बुलवा लिया. उस बाबा का प्रचारप्रसार कालोनी में हो जाए, इसलिए उन्होंने ध्वनि विस्तारक यंत्र लगा कर धार्मिक दोहों का वाचन रखवा दिया था.

रातदिन चलने वाले इस पाठ का शोर इतना अधिक होता था कि कालोनी में सोने वाले जाग जाए और जागने वाले कालोनी छोड़ कर भाग जाए. लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि कोई भगवानजी के खिलाफ आवाज उठाए. शानदार तरीके से शर्माजी ने दुकानदारी जमा ली थी जिस के परिणामस्वरूप मंदिर का चढ़ावा, दुकान का किराया, किराने का फायदा मिला कर शर्माजी धन कूट रहे थे. कालोनी या उस में रहवासी जाए भाड़ में, उन्हें उस से कोई मतलब नहीं था.

इस बीच, शर्माजी ने अपने पुजारी महाराज के चमत्कारों का प्रचार कर दिया था. हवा से भभूत निकालना, पानी में दीपक जलाना, जबान पर कपूर को जलाना…एकदो नहीं पूरे आधा दर्जन से अधिक चमत्कारों को बतलाने के परिणामस्वरूप मंदिर में भीड़ बढ़ गई. चढ़ावा भी बढ़ गया. दुकान की बिक्री भी बढ़ गई. शर्माजी बहुत खुश थे. एक पसेरी उन का वजन और बढ़ गया था. जब दुकान चल निकली तो चमत्कारों को बढ़ाना तथा भक्तिरस में डूबा बताना भी कर्तव्य हो गया.

शर्माजी का मंदिर ही उस जगह का नाम हो गया था और भीड़ बढ़ती जा रही थी. लोग अंधश्रद्घा में डूबे रहे. कोई प्रश्न खड़ा ही नहीं करे, इस के लिए शर्माजी ने भजनमंडल, पाठों का आयोजन पूरे डीजे साउंड के साथ शुरू कर दिया ताकि पूरी कालोनी में आवाज जाए. मैं ने सोचा कि अब कालोनी का मकान बेच कर चला जाऊं. सो, मैं ग्राहक खोजने लगा. जिस भी ग्राहक को मेरे घर बेचने का कारण पता चलता, वह मुझे अधर्मी कह कर मकान खरीदने से मना कर देता. मैं बहुत परेशान था.

तब ही हमारी एकमात्र सासूजी अचानक आ गईं. सुबहसुबह का समय था. इतना शोर था कि पक्षी भी कोलाहल करना भूल कर पेड़ छोड़ कर उड़ गए थे. सासूजी ने घर में प्रवेश किया और हमारी एकमात्र धर्मपत्नी का चेहरा देखा तो दंग हो गईं. दरअसल, वह पूरे एक महीने से शोर के चलते सो नहीं पाई थी. मेरे सिर के रहेसहे बाल भी उड़ गए थे और सिर खेल का मैदान हो गया था. सासूजी बहुत दुखी हुईं. यात्रा की थकान के चलते आराम करना चाहा, लेकिन दरवाजेखिड़की बंद कर लेने के बाद भी वे शोर से मुक्ति नहीं पा सकीं और सो नहीं पाईं. दोपहर वे कुछ नाराज हो कर खाने की टेबल पर आईं और बेटी से कह उठीं, मैं लौट कर जा रही हूं.

हमारी पत्नीजी ने दुखी हो कर कहा, ‘मम्मीजी, आप के बुद्धि के चर्चे विदेशों में हैं और आप अगर ऐसी स्थिति में हमें छोड़ कर चली जाएंगी तो आखिर हमारा क्या होगा? उपाय करो, मम्मीजी. हम ने भी हाथ जोड़ लिए, प्लीज सासूजी, कुछ विचार तो करो, आखिर हमारे परिवार का ही नहीं, पूरी कालोनी वालों का सवाल है.’

‘ठीक है,’ कुछ सोचती हुईं सासूजी ने कहा.

हम तो खुशी से गुब्बारे की तरह फूल गए. जानते थे कि प्रत्येक स्थिति में सासूजी ही सब को कंट्रोल कर लेंगी. शाम को भगवे कपड़े पहन कर सासूजी अपनी पूर्व परिचित कालोनी की सहेलियों के साथ मंदिर में दर्शन करने गईं. प्रसाद चढ़ाया, चंदा दिया और हाथ जोड़ कर प्रसाद लिया और अपनी सहेलियों के साथ लौट आईं.

अगली सुबह हम सो कर भी नहीं उठे थे कि सासूजी सहेलियों के साथ मंदिर चली गईं जहां भयानक ध्वनिप्रदूषण हो रहा था. उन्होंने तत्काल प्रौढ़ महाराज के हाथों में 500 रुपए का नोट रखा.

महाराज तो दंग रह गया कि आखिर इतना चंदा उसे ही क्यों दिया गया. उस ने खुश हो कर प्रश्न किया, ‘‘मैडमजी, बताइए यह 500 रुपए का चंदा मुझे क्यों दिया जा रहा है?’’

सासूजी की सहेली ने कमान संभाली और कहा, ‘‘पंडितजी, ये 500 रुपए तो कम हैं, इन की इच्छा तो 5,000 रुपए देने की थी.’’

‘‘आखिर क्यों भाई? ऐसी क्या बात हो गई थी?’’

‘‘बात ही कुछ ऐसी थी. इन के पेट में पूरे 3 वर्षों से दर्द था, कल आप का प्रसाद ले गईं…सहेली अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई कि पंडित ने कहा, ‘‘ओह, वो खा कर ये ठीक हो गईं?’’

‘‘नहीं जी.’’

‘‘फिर क्या बात हो गई?’’

‘‘पंडितजी, उस प्रसाद में आप की दाढ़ी का एक बाल था. मैडमजी ने सोचा प्रसाद में बाल आया है, निश्चितरूप से इस का कोई महत्त्व तो होगा. बस, उन्होंने उस बाल को अपने पेट में बांध दिया और देखतेदेखते पेट का दर्द गायब हो गया.’’

‘‘धन्य हो पंडितजी,’’ सब सहेलियों ने समवेत स्वर में कहा.

‘‘ऐसे बाल मैं विशेष लोगों को ही देता हूं, जिस को सौ प्रतिशत लाभ देना होता है,’’ पंडित ने आत्मप्रशंसा से भर कर कहा.

‘‘हम धन्य हो गए,’’ कह कर सब सहेलियों ने चरणस्पर्श किए और चली आईं.

बस फिर क्या था-एक ने दूसरे से, दूसरे ने तीसरी से पूरी बात पूरी कालोनी में 1 घंटे में फैला दी गई. लगभग 9 बजे तक वहां एक हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई जो पंडितजी से सौ प्रतिशत लाभ लेना चाहते थे. मरता क्या न करता. पंडितजी ने एकएक व्यक्ति से दाढ़ी का बाल नुचवाया, सिर टकला हो गया तो जो श्रद्धालु  (ग्राहक) थे उन्होंने सिर के बाल नोचने शुरू कर दिए और देखतेदेखते बिना भौंह, बिना पलकों के, टकले, दाढ़ीविहीन पंडित भूत जैसे लगने लगे. पीड़ा से बिलबिला रहे थे.

अभी भीड़ और बढ़ गई थी जो उन की टांगों व बगलों तक के केशलोचन करने के लिए आमादा थी. शर्माजी 11 बजे तक बिजनैस करते रहे. भारी ग्राहकी से वे खुश थे. लेकिन जब ज्ञात हुआ कि गांव से लाया पंडित पीछे के दरवाजे से भागने की कोशिश कर रहा है तो वे उस की छाती पर आ कर डट गए. सैकड़ों लोग उन के सिर पर बाल उगने की प्रतीक्षा में नंबर लगा कर बैठ गए थे. पंडितजी शौचक्रिया के नाम से जो बाहर गए तो फिर दोबारा लौट कर नहीं आए. 2 दिनों में ही शर्माजी का मंदिर श्मशान की तरह सुनसान हो गया था.

जब कोई नहीं रहा तो ग्राहकों ने आना बंद कर दिया. ग्राहक नहीं तो ध्वनि विस्तारक यंत्र बंद हो गया. जब शोर बंद हो गया तो भीड़ लापता हो गई. चढ़ावा खत्म हो गया. मंदिर के देवता एक दिन चोर के हाथों चोरी हो गए.

देखतेदेखते शर्माजी की दुकानदारी पूरी तरह से खत्म हो गई. शर्माजी आजकल हाथठेले पर सब्जी बेच रहे हैं और हमारी सासूजी उन से सब्जी खरीद कर मनपसंद खाना पकवा कर खा रही हैं. है न हमारी सासूजी बुद्धिमान? हम तो यही कामना करते हैं कि सब को ऐसी सास मिले.

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कैबिनेट्स किचन को आप भी दे सकती हैं स्टाइलिश लुक

यदि आप अपनी किचन को अलग लुक देना चाहती हैं तो जरूरी है कि उस में लगाई जाने वाली सभी चीजों पर खास ध्यान दिया जाए. यदि बात किचन कैबिनेट्स की की जाए तो वे न सिर्फ चीजों को स्टोर करने के लिए जगह देते हैं, बल्कि किचन को स्टाइलिश लुक भी देते हैं. आज मार्केट में किचन कैबिनेट्स की ढेरों वैराइटीज उपलब्ध हैं. फिर चाहे बात कलर्स की हो या साइज की, आप इन्हें अपनी किचन के अकौर्डिंग सैट करा सकती हैं.

स्टेनलैस स्टील कैबिनेट्स

यदि आप लकड़ी के कैबिनेट्स नहीं लगाना चाहतीं, क्योंकि आप के घर में दीमक जल्दी लग जाती है, तो आप स्टेनलैस स्टील कैबिनेट्स लगवा सकती हैं. ये आजकल काफी ट्रैंड में हैं. इन में न तो दीमक लगने का डर रहता है और न ही ये जल्दी गलते हैं. साथ ही स्टाइलिश लुक भी देते हैं.

स्टोरेज कैबिनेट्स

आप की किचन के साथ कोई स्टोर नहीं है और आप को किचन का सामान रखने में दिक्कत होती है, तो आप किचन के लिए स्टोरेज कैबिनेट्स खरीदें. इस में दराजें और अलमारियां काफी बनी होती हैं, जिन में आप आराम से सामान रख सकती हैं. आप महीने भर का सामान भी इन में स्टोर कर सकती हैं, बस इन्हें खरीदते समय यह देख लें कि ये आप की जरूरत के अकौर्डिंग हैं या नहीं. आप इन्हें अपनी जरूरत के अनुसार डिजाइन भी करवा सकती हैं.

ग्लास कैबिनेट्स

यदि आप अपनी किचन को अलग लुक देना चाहती हैं तो ग्लास कैबिनेट्स अपनी किचन में शामिल करें. इन की खासीयत यह होती है कि इन में बनी अलमारियों के दरवाजे ग्लास के होते हैं, जिस से आप को उन में रखा सामान आसानी से नजर आ जाता है. साथ ही यदि आप की क्रौकरी काफी स्टाइलिश है तो आप अलमारी में उन्हें लगवा कर किचन को अट्रैक्टिव लुक दे सकती हैं. इन की आप को ढेरों वैराइटियां और डिजाइन मार्केट में मिल जाएंगे. ग्लासेज को स्टाइलिश लुक देने के लिए इन पर डिजाइनिंग भी की जाती है.

मौडर्न कैबिनेट्स

आज जमाना मौडर्न किचन का है. किचन में लगी हर चीज मौडर्न लुक में मार्केट में मिल रही है. यदि आप चाहती हैं कि आप के लिविंग और बैडरूम की तरह किचन भी मौडर्न लुक दे तो इस के लिए मार्केट में कैबिनेट्स के ढेरों डिजाइन और कलर उपलब्ध हैं. कैबिनेट्स की डिजाइनिंग में अलमारियों की शेप्स व कलर्स का वर्क काफी मौडर्न तरीके से किया जाता है. कुछ शैल्फ सामने की तरफ बनाई जाती हैं, जिन में आप कुछ डैकोरेटिव आइटम्स भी सजा सकती हैं. साथ ही इन में दराजों को इस तरह से डिजाइन किया जाता है कि आप कंफर्टेबल हो कर उन को यूज कर सकें. इन में लाइट भी कुछ अलग तरह की यूज की जाती है जिस से आप की किचन काफी अट्रैक्टिव नजर आती है. किचन के हर सामान के लिए प्रौपर अलमारियां और दराजें डिजाइन की जाती हैं.

सिंपल कैबिनेट्स

आप को अपनी किचन सिंपल ऐंड सोबर पसंद है तो सिंपल ऐंड सोबर लुक देते कैबिनेट्स मार्केट में आराम से मिल जाएंगे. ये जगह भी कम घेरते हैं और साथ ही इन में दराजें और अलमारियां भी कम बनी होती हैं. इस से आप को सामान ढूंढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती है. इन में ज्यादातर 1-2 कलर यूज किए जाते हैं ताकि किचन सिंपल नजर आए. इन के हैंडल भी बिलकुल सिंपल लुक में होते हैं.

खरीदते समय रखें ध्यान

टाइप ऐंड स्टाइल: मार्केट में आप को कैबिनेट्स की ढेरों किस्में और स्टाइल मिल जाएंगे. लेकिन जरूरी है कि आप अपनी किचन के अकौर्डिंग कैबिनेट्स खरीदें. आप को सामान को रखने के लिए कितनी स्पेस चाहिए इस को ध्यान में रखते हुए भी आप इन्हें डिजाइन करवा सकती हैं. कैबिनेट्स फ्रेम्ड या फ्रेमलैस दोनों तरह के मिलते हैं. यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस तरह के कैबिनेट्स लगवाना पसंद करती हैं.

मैटीरियल: किचन कैबिनेट्स में आप को कई तरह का मैटीरियल मार्केट में मिलेगा. यह देखना जरूरी है कि आप को किस मैटीरियल से अपनी किचन को अलग लुक देना है. अपने कंफर्ट और रेंज को देखते हुए आप इन्हें खरीद सकती हैं.

कलर्स: घर का कोई भी कोना हो, उस में कलर बहुत माने रखते हैं. किचन कैबिनेट्स आप अपनी किचन के कलर के अकौर्डिंग ले सकती हैं. कैबिनेट्स में कुछ कलर्स कौमन हैं जैसे व्हाइट, सिलवर, ब्राउन, ब्लैक जिन्हें आप बिना मैचिंग के भी लगवा सकती हैं. वैसे आजकल कलर कौंबिनेशन का भी काफी ट्रैंड है. 2 या 3 कलर का प्रयोग कर के कैबिनेट्स को अट्रैक्टिव बनाया जाता है.

टिकाऊ: कैबिनेट्स खरीदते समय ध्यान रखें कि उन का मैटीरियल टिकाऊ हो. यदि लकड़ी का कैबिनेट है तो उस की लकड़ी अच्छी क्वालिटी की हो. यदि कैबिनेट स्टेनलैस स्टील का है तो वह भी बढि़या क्वालिटी में हो. मार्केट में लाइट से ले कर हैवी सभी तरह की क्वालिटी आप को मिल जाएगी.

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फिल्म रिव्यू : रेड

‘आमिर’ और ‘नो वन किल्ड जेसिका’ जैसी फिल्मों के सर्जक राज कुमार गुप्ता इस बार 1980 के लखनऊ के हाई प्रोफाइल इनकम टैक्स छापे पर आधारित फिल्म ‘‘रेड’’ लेकर आए हैं. फिल्म को यथार्थ परक बनाते समय फिल्मकार यह भूल गए कि फिल्म में मनोरंजन भी चाहिए. फिल्म‘‘रेड’’ देखकर इस बात का अहसास होता है कि यह फिल्म एक अतीत की सत्य कथा को पेश करने के नाम पर सरकारी एजेंडे का प्रचार करने के साथ ही खास सरकार को खुश करने का भी प्रयास है. परिणामतः फिल्म नीरस व शुष्क हो गयी है.

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फिल्म की कहानी 1981 के लखनऊ में पड़े हाई प्रोफाइल इनकम टैक्स छापे पर सच्ची कथा है, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी. आयकर विभाग में कार्यरत औफिसर अमय पटनायक (अजय देवगन)  का तबादला लखनऊ हो जाता है. अमय पटनायक ना सिर्फ ईमानदार बल्कि अति आदर्शवादी हैं. सुबह साढ़े चार बजे उठना, घड़ी देखकर हर काम को पूरी मुस्तैदी के साथ अंजाम देना. अब तक 49 बार उनका तबादला हो चुका है और अमय पटनायक को इसकी आदत पड़ चुकी है. लेकिन इससे उनकी पत्नी मालिनी (इलियाना डिक्रूज) कभी खुश नहीं होती.

मालिनी को बार बार सामान बांधकर एक शहर से दूसरे शहर में भटकना पसंद नहीं. मालिनी अपने पति को समझाती है कि बहुत ज्यादाईमानदार न बनो, पर अंत में वह एक आज्ञाकारी पत्नी की ही तरह काम करती है. लखनऊ पहुंचते ही अमय को जानकारी मिलती है कि एक सांसद रामेश्वर सिंह (सौरभ शुक्ला)  ने जबरदस्त टैक्स चोरी की है. रामेश्वर सिंह के घर में उनकी मां, भाई, बहन, भाभी सहित परिवार का लंबाचौड़ा कुनबा है. रामेश्वर सिंह ताकतवर हैं. उन पर कोई हाथ नहीं डालता. पर अमय अपने सहयोगियों के साथ रामेश्वर सिंह के घर पर छापा मारते हैं.

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रामेश्वर सिंह भी खुद को ईमानदार समझते हैं, इसलिए वह कहते है कि मैं एक ही जगह पर बैठा हूं, जाकर तलाशी ले लो. कुछ नहीं मिलेगा. पहले तो कुछ नहीं मिलता है. पर अचानक मकान की छत पर अमय के हाथ एक कागज आता है और उस कागज में बने नक्शे के आधार पर नए सिरे से तलाशी लेने पर 420 करोड़ की नकदी व जेवर आदि मिलते हैं. उसके बाद अमय पर कई तरह के दबाव आते हैं. यहां तक कि प्रधानमंत्री खुद अमय को फोन करके कहती हैं कि मामले को रफा दफा कर दें, पर अमय किसी की सुनते नहीं हैं.

अमय अपनी जांच जारी रखते हैं, पर अंत में जब सच सामने आता है, तो कुछ अलग ही होता है.

इनकम टैक्स औफिसर के किरदार में अजय देवगन के अभिनय में उनकी पिछली कई फिल्मों का दोहराव ही है. वह एक ही तरह के मैनेरिज्म के साथ परदे पर नजर आते हैं. अजय देवगन ‘गंगाजल’, ‘सिंघम’ सहित कई फिल्मों में सिस्टम के खिलाफ जाकर एक ईमानदार अफसर के किरदार निभा चुके हैं. ‘रेड’ में कुछ भी नया नहीं कर पाए. हर सीन में वह महज फिल्मी हीरो के रूप में ही नजर आते हैं. उनका किरदार स्थिर सा लगता है.

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इलियाना डिक्रूज के हिस्से करने को कुछ है ही नहीं. निर्देशक ने उनकी प्रतिभा का बेजा इस्तेमाल किया है. कथानक मे इलियाना डिकूजा के किरदार की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. सौरभ शुक्ला ने साबित कर दिखाया कि उनके अभिनय का कोई सानी नहीं है. अमित सयाल, गायत्री अय्यर सहित बाकी सभी कलाकारों की प्रतिभा का दुरुपयोग ही किया गया है.

पटकथा व निर्देशन के स्तर पर भी काफी कमियां हैं. एक सत्य कथा को भी नाटकीय ढंग से पेश नहीं कर पाए राज कुमार गुप्ता. फिल्म बेवजह लंबी, रबर की तह खींची गयी है. फिल्म की कहानी लखनऊ शहर की है, मगर फिल्म से लखनऊ गायब है. चंद पुरानी इमारतें दिखाकर यह कहना कि यह लखनऊ शहर है, अजीब सा लगता है. लखनऊ की संस्कृति तहजीब कुछ भी फिल्म का हिस्सा नहीं है. ‘आमिर’ व ‘नो वन किल्ड जेसिका’ जैसी धारदार फिल्में बना चुके राज कुमार गुप्ता की इस फिल्म में कोई धार नहीं है. यह फिल्म मनोरंजन के नाम पर भी शून्य है. राज कुमार गुप्ता को नहीं भूलना चाहिए कि इनकम टैक्स रेड पर ही बनी फिल्म ‘स्पेशल 26’ में नाटकीयता के साथ साथ रोमांच व मनोरंजन भी था.

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फिल्म का गीत संगीत भी कमजोर है. यहां तक कि फिल्म का पार्श्व संगीत भी फिल्म को नाटकीय नहीं बना पाता.

119 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘रेड’’ का निर्माण अभिषेक पाठक, कुमार मंगत पाठक, भूषण कुमार, किशन कुमार ने किया है. निर्देशक राज कुमार गुप्ता, कहानीकार रितेश शाह, पटकथा लेखक राज कुमार गुप्ता व रितेश शाह, संगीतकार अमित त्रिवेदी, कैमरामैन अल्फांसो राय तथा कलाकार हैं – अजय देवगन, इलियाना डिक्रूज, सौरभ शुक्ला, गायत्री अय्यर, अमित सयाल, अक्षय वर्मा, अमित बिमोरेट व अन्य.

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