यह कैसी शानोशौकत

जानवरों पर अत्याचार अभी भी कम नहीं हो रहे. अमीर लोग दुर्लभ जानवरों की हड्डियों, खालों, दांतों और यहां तक कि खोपडि़यों तक का इस्तेमाल महज सजावट के लिए करने से बाज नहीं आ रहे. आस्ट्रेलिया के कस्टम विभाग ने औरेंगुटन किस्म के बंदर की नक्काशी की हुई खोपडि़यां पकड़ीं. जानवरों को बचाना है तो अमीरों को उन्हें शान की चीज समझना बंद करना होगा.

अब स्मृतियां ही शेष

1975 से 1979 यानी केवल 4-5 वर्ष में कंबोडिया की कट्टर खामेर रूज सरकार ने लाखों को बेघर कर दिया और लाखों को मार डाला. उन की याद में जगहजगह अब स्मृतियां बची हैं जहां लोग अपने प्रियजनों को श्रद्धांजलि देने आते हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि अंगकोरवत्त मंदिरों के लिए प्रसिद्ध यह देश अब साफसुथरा भला सा लगता है, अपने देश जैसा बिखरा, गरीब, गंदा नहीं.

मेहनत का अच्छा नतीजा

यह छोटू कुमामोन कोई देवीदेवता नहीं, जापान के कुमामोटो जिले का एक प्रतीक चिह्न है जिसे अब वहां के एक जौहरी ने 10 किलोग्राम सोने का बनाया है. पर्यटक इस जिले में आएं और जापानी आवभगत का मजा लें, इस के लिए आम व्यापारी भी मेहनत करते रहते हैं.

बड़ा होता फिल्मी बाजार

जापान की जानीमानी अभिनेत्री अयाका कोमात्सु अब हौलीवुड को डरा रही है, क्योंकि जापानी, चीनी फिल्मों का बाजार अमेरिका के बाजार से बड़ा होता जा रहा है.

ताकि गुम न हो जाए इतिहास

गलीमहल्लों में होने वाली लीलाओं में उन्हें बड़ा मजा आता है जिन्हें नाटकों या अभिनय से कोई मतलब नहीं. एक टैंट में अपने को पोतते हुए युवक, युवती व बच्चे की खुशी तो देखिए. हर कालोनी, सोसाइटी और महल्ले को इस तरह के आयोजन करते रहना चाहिए.

कागज के फूल महकते नहीं

यौन संबंधों की आजादी की वकालत करना तो अच्छा लगता है पर यह आजादी भारी भी पड़ती है. जैसे नारायणदत्त तिवारी को अपने आखिरी दिनों में अपने जैविक बालिग बेटे को अपनाना पड़ा तो उस की मां को अपने जीवन में अपनी निजी इच्छा के खिलाफ फिर प्रवेश की इजाजत देनी पड़ी. 

कांगे्रसी नेता दिग्विजय सिंह की खूब फजीहत उड़ी जब उन के एक पत्रकार के साथ संबंधों के राज ही नहीं, अंतरंग क्षणों के फोटो भी जगजाहिर हो गए.

दिल्ली में एक पुत्र ने 18 साल पहले हुई अपने पिता की मौत के लिए एक पुलिस वाले और अपनी मां के संबंधों को ले कर अदालत का दरवाजा खटखटाया है. इस मामले में 18 साल पहले उस के पिता की एक सड़क दुर्घटना में मौत हुई बताया गया और उस के बाद एक पुलिस वाले का घर आनाजाना बढ़ गया. अब जब बेटा 25 साल का हो गया तब भी उस पुलिस वाले का घर आना बरकरार रहा. बेटे ने सामाजिक आपत्ति की दुहाई देते हुए उस व्यक्ति को घर आने से रोका तो उसे धमकी दी गई कि जिस तरह उस के बाप को रास्ते से हटा दिया गया था, उसी तरह उसे भी हटा दिया जाएगा. बेटे ने अब मां और उस के मित्र के खिलाफ पिता की हत्या की जांच के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है.

विवाह या बच्चे दिल पर ताला नहीं लगा सकते. अगर स्त्रीपुरुष में लगाव पैदा होने लगे तो लोग अपने पूरे कैरियर, कामकाज, वर्षों के धंधे और राजपाट तक को दांव पर लगा देते हैं. बालिगों के बीच बनते संबंधों पर आसानी से रोक भी नहीं लगाई जा सकती. विवाहित साथी की तलाक की मांग से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उस के बाद विवाहित साथी को न सिर्फ आर्थिक कष्ट झेलने पड़ सकते हैं, अकेलापन व सामाजिक अवहेलना भी सहनी पड़ सकती है.

बच्चे भी अकसर बंट कर रह जाते हैं. उन का ध्यान अपने कैरियर से हट कर दूसरी ओर चला जाता है. यदि तलाक की लंबी उबाऊ प्रक्रिया चालू हो जाए तो बच्चों के पालनपोषण के अधिकार को ले कर वे चक्की के 2 पाटों में पिसने लगते हैं.

विवाह बाद के संबंधों में कानूनी रोक असंभव है, क्योंकि इस का अपराधीकरण करना एक नई मुसीबत को सामने लाना होगा. हमारे कानून में पति अपनी पत्नी के दूसरे से संबंधों पर आपराधिक कानूनी कार्यवाही तो कर सकता है पर उसे साबित करना पड़ेगा कि दोनों में यौन संबंध हैं. इस दौरान उस की फजीहत ज्यादा होगी इसलिए यह हक भी कम इस्तेमाल होता है.

विवाह एक सामाजिक समझौता है और दोनों पक्षों को इसे खुशीखुशी मानना चाहिए. यही सुख का आधार है. बाहर सुख ढूंढ़ना चाहोगे तो कंकड़ और कांटे ज्यादा मिलेंगे कहकहे कम. जहां यह होने लगे वहां पतिपत्नी दोनों को इस पर परदा डाल कर रखना चाहिए और बातबेबात हल्ला नहीं मचाना चाहिए. यह सोचना कि मरनेमारने की घुड़की से साथी को हराया जा सकता है, गलत है. परेशान साथी फिर बाहर शांति और सुकून ढूंढ़ता है.

स्त्री शक्ति पर भरोसा

नरेंद्र मोदी ने सुषमा स्वराज को विदेश मंत्रालय दे कर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि मंत्रिमंडल में महिलाएं केवल दिखावटी, सजावटी चेहरा नहीं होतीं, उन से गंभीर काम भी कराए जा सकते हैं.

विदेश मंत्रालय आजकल एक तौर से गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से भी ज्यादा महत्त्व का मंत्रालय बन गया है, क्योंकि सारे देशों की अर्थव्यवस्थाएं अब रेल के डब्बों की तरह एकदूसरे से जुड़ गई हैं और 1 डब्बे की आग दूसरे को खतरा पहुंचा सकती है. सभी देशों के साथ तालमेल बैठाए रखना एक टेढ़ी खीर है.

सुषमा स्वराज पहले आमतौर पर घरेलू राजनीति पर ही ज्यादा बोलती थीं पर आशा है कि वे हिलेरी क्लिंटन की तरह विदेश मंत्रालय को और प्रभावशाली बना सकेंगी.

भारत इस समय ज्वालामुखियों के बीच में है. पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, चीन सब विदेशी मामलों से जूझ रहे हैं, क्योंकि उन की आतंरिक स्थिति का निर्णय कहीं बाहर हो रहा है.

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर है, तो चीन को तिब्बत व अपने मुसलिम इलाकों की वजह से विदेशी समर्थन चाहिए. श्रीलंका में तमिल संहार की खून भरी कहानी अभी फीकी नहीं पड़ी है, तो म्यांमार कब फिर फौजियों के हाथों चला जाए पता नहीं, क्योंकि उस के पड़ोस का थाईलैंड अच्छे भले लोकतंत्र से मुड़ कर सैनिक शासन की ओर जा रहा है.

विदेश मंत्री को अफगानिस्तान का मसला न दिल्ली, न काबुल और न इसलामाबाद बल्कि ब्रुसैल्स, लंदन, न्यूयार्क और वाशिंगटन में सुलझाना होगा. भारत के हित अफगानिस्तान से जुड़े हैं और कोई भूलचूक बहुत महंगी पड़ सकती है.

इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी सरकारों को चलाती रही हैं पर विदेश मंत्रालय में जो औपचारिकता निभानी होती है, वह विलक्षण होती है और वहां हलकी सी बात को भी गंभीर रूप से लिया जाता है. सौम्य व्यक्तित्व से वैसे काफी देशों की विदेश मंत्री काम बनाती रही हैं और उम्मीद करिए कि सुषमा स्वराज भी चूल्हे की गैस को उपयोगी बना कर रखेंगी.

धर्म की मारी काशी की विधवाएं

नरेंद्र मोदी की सरकार गंगा का सफाई अभियान तो जोरशोर से चलाने का दावा कर रही है पर काशी पर लगे गहरे दाग व काशी की विधवाओं के बारे में उसे कुछ नहीं कहना. इस बार के लोकसभा चुनावों के दौरान काशी कई महीने चर्चा में रही और वहां की मिठाइयों, सांडों और गलियों की तो खूब चर्चा हुई पर हिंदू समाज की पाखंडता विधवाओं की देन नहीं, इस पर कहीं कोई बात नहीं हुई.

अब चाहे काशी और वृंदावन में छोटी और बड़ीबूढ़ी विधवाएं कम आती हों पर काशी आज भी घर में बेकार पड़ी विधवाओं का ठौर समझा जाता है, जहां ये विधवाएं तिलतिल कर मरती हैं.

महान हिंदू संस्कृति का ढिंढोरा पीटपीट कर हम अपनेआप को चाहे जितना श्रेष्ठ कह लें, ये विधवाएं असल में हमारी कट्टरता और अंधविश्वासों की देन हैं. अब देश में विधवाओं को जलाया तो नहीं जाता पर उन के साथ होने वाले दुर्व्यवहार कम नहीं हुए हैं. आम घरों में साल में कईकई बार धार्मिक प्रयोजन करवाने में पंडों की बरात सफल रहती है पर हर धार्मिक आयोजन में अगर घर में विधवा हो तो उस को कचोटा और दुत्कारा जाता है.

मजेदार बात तो यह है कि उन पंडितों को दोष नहीं दिया जाता जिन्होंने कुंडली मिला कर विवाह कराया और न ही उन देवताओं को जिन का आह्वान कर वरवधू को आशीर्वाद दिलवाया जाता है. इसी बुलावे का ही तो पंडेपुजारी कमीशन लेते हैं.

हिंदू समाज गंदी गंगा के साथ जी सकता है, क्योंकि अब घरों तक पहुंचने वाला पानी पहले शुद्ध कर लिया जाता है. पर वह उन सैकड़ों विधवाओं को कैसे सहन कर ले जो काशी, वृंदावन या घरों में तिरस्कृत जीवन जी रही हैं. जब विधुर शान से सीना फुलाए जी सकते हैं तो विधवाएं क्यों सफेद साड़ी पहनें और चेहरे की हंसी को दबा कर रखें?

यह जिम्मेदारी सरकारों की नहीं पर जब सरकार सामाजिक व धार्मिक मुद्दों के बल पर बनी हो तो वह इस जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती.

नदियों की सफाई के साथसाथ नदियों के किनारे पनप रही दूषित संस्कृति को भी समाप्त करना होगा. मगर अफसोस की बात तो यह है कि हमारे समाज के रक्षक अब तक इन विधवाओं की देखभाल करने की जगह इन्हें छिपा कर ही रखना चाहते हैं. इन पर बनाई गई दीपा मेहता की फिल्म ‘वाटर’ की शूटिंग इसीलिए यहां नहीं होने दी गई.

इस सत्य से इनकार करने से काशी का यह धब्बा उस तरह नहीं मिटाया जा सकता जैसे ‘गंगा का पानी अमृत समान है’ कह कर व उस का आचमन कर किसी चीज को शुद्ध और साफ कर लिया जाता है.

अब काशी विदेशियों की नजर में और ज्यादा आएगी, क्योंकि नरेंद्र मोदी यहां से सांसद हैं और विदेशी पत्रकारों की आदत होती है कि वे आंखों पर हिंदुओं की तरह विलक्षण चश्मा चढ़ाए नहीं घूमते कि केवल अच्छा ही अच्छा दिखे. वे गंदा भी देखेंगे, पूछताछ भी करेंगे और बारबार उसे देश की राजधानी व राजनीति से जोड़ेंगे. इन में काशी की विधवाएं आएंगी ही. भारत अगर तानाशाही देश होता तो विधवाओं को शहर निकाला का आदेश दे दिया जाता पर अब तो

नरेंद्र मोदी की पार्टी को इन का शूल सहना होगा.

फूल भी कांटे भी

गृहशोभा के मई (प्रथम), 2014 अंक को पढ़ कर यह बात पूरी तरह साबित हो गई है कि हमारी इस प्रिय पत्रिका में सभी उम्र के लोगों के लिए ज्ञान और मनोरंजन की पूरीपूरी सामग्री होती है.

गृहशोभा सिर्फ महिलाओं की लोकप्रिय पत्रिका है, यह कहना गलत है, क्योंकि मेरे और मेरी कई सहेलियों के पति और बड़े होते बच्चे भी गृहशोभा के हमारी तरह ही दीवाने हैं.

टीवी की गोल्डन गर्ल्स के बारे में दी गई जानकारी को पढ़ कर हर कोई इस का दीवाना हो गया. इस के लिए गृहशोभा को धन्यवाद.

हर घर में टीवी के कलाकारों की पैठ घर के सदस्यों की तरह है. भले ही टीवी को बुद्धू बौक्स कहा जाता हो, लेकिन गुणदोष तो सभी में होते हैं. यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर करता है कि वह क्या ग्रहण करता है.

सभी स्थायी स्तंभ, पकवानों की विधियां और कहानियों का भी जवाब नहीं.

विमला गुगलानी, चंडीगढ़

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक संग्रहणीय रहा. इस में प्रकाशित लेख ‘मांबेटी का रिश्ता है अनमोल’ सौहार्दपूर्ण रिश्ते की अहमियत को बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से उजागर करता है.

यकीनन, एक भरेपूरे परिवार में मां ही वह धुरी होती है, जो अपनी भावनाओं को शब्दों में बयां कर के बेटी को सही दिशा बताती व ज्ञान देती है. मां की ममता का कोई वर्गीकरण नहीं हो सकता. वह स्वयं एक अनूठे निस्वार्थ प्रेम का उदाहरण है.

शशिप्रभा गुप्ता, .प्र.

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक महत्त्वपूर्ण जानकारी से परिपूर्ण है. इस अंक में  प्रकाशित लेख ‘मम्मी को नहीं है पता’ अभिभावकों की आंखें खोलने वाला और वास्तविकता से परिपूर्ण है. गृहशोभा के इस विशिष्ट लेख के द्वारा हमें ऐसी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिली कि दिल व दिमाग दोनों से सोचने विचारने को मजबूर हो गए कि हां, हम अभिभावक बच्चों की इन्हीं छोटीछोटी बातों को ही तो नजरअंदाज कर जाते हैं. बहुत कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जिन्हें हम जानने की जरूरत ही नहीं समझते, जबकि उन्हें समझने की भी जरूरत होती है.

करीब करीब लगभग प्रत्येक अभिभावक की यही सोच रहती है कि उन का बच्चा सही है. वे इस द्वंद् में भी रहते हैं कि बच्चों की जासूसी उन की निजी स्वतंत्रता का हनन तो नहीं? लेकिन उन की निजी स्वतंत्रता में अभिभावकों की दखलंदाजी अनिवार्य है. बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताते हुए उन्हें सही और गलत का फर्क बताएं.

आज के अभिभावकों को यह समझन होगा कि बच्चों को किताबी कीड़ा नहीं बनाना चाहिए. व्यावहारिक शिक्षा के महत्त्व को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

पूजा राघव, दिल्ली

 

गृहशोभा का मई (प्रथम), 2014 अंक ‘गोल्डन गर्ल्स’ प्रस्तुतीकरण और लेखों के मामले में सचमुच बेजोड़ है.

‘रियल लाइफ में पैठ बनाते धारावाहिक’ कवर स्टोरी ने गृहशोभा के इस अंक को अलग हट कर बना दिया. मैं ने पूरे मई माह में इस अंक को पूरी तरह ऐंजौय किया.

आदिश्री मक्कड़, नई दिल्ली

 

सर्वश्रेष्ठ पत्र : सोनू अपने पापा के साथ खेल रहा था. उस के पापा उसे कंधों पर बैठा कर घूम रहे थे. तभी सोनू की मम्मी उस के पापा से बोलीं, ‘‘यह क्या आप भी बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हो.’’

कभीकभी बड़ों की कुछ हरकतें देख कर हम में से कुछ लोग कह उठते हैं, ‘‘क्या बचपना कर रहे हो बच्चों की तरह.’’

पर शायद यह आप भी नहीं जानते होंगे कि इसी तरह के बचपने से इंसान को ऊर्जा लाइफ टौनिक मिलता है. कभीकभी हम अपनी भागदौड़ में इतने खो जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि हम सब में एक बचपना छिपा है, जो कभीकभार बाहर आ ही जाता है.

वैसे बचपना ही एक ऐसा माध्यम है जिस से कई बार हमें वे बातें पता चलती हैं जिन्हें हम खुद नहीं जानते थे. कई मरतबा ऐसा हुनर भी सामने आ जाता है, जो हमें अब तक पता नहीं होता. पर जब हम उस से रूबरू होते हैं तब हमें पता चलता है कि हमारे अंदर भी एक बालक बैठा है, जो हमें खुद के बचपन का एहसास कराता है.

कई बार यह भी देखने में आता है कि बचपने में खो कर व्यक्ति कुछ पलों के लिए अपने सारे दुख भूल जाता है. रह जाती है तो बस होंठों पर बिखरी मुसकान. इस का एक फायदा यह भी है कि आप को अपने बच्चों को और करीब से जानने का मौका मिलता है और बच्चे भी आप को अपने दिल के करीब पाते हैं. हम एक नई ऊर्जा से भर उठते हैं और फिर से संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाते हैं. तो फिर आप किस सोच में हैं? घुलमिल जाएं बच्चों के साथ और उठाएं इस टौनिक का भरपूर फायदा.

पायल श्रीवास्तव, आंध्र प्रदेश

 

गृहशोभा के मई (प्रथम), 2014 अंक में प्रकाशित व्यंग्य ‘मुन्नी बदनाम हुई’ रोचक व सचाई को छूता लगा. वाकई मुन्नी को एज का गे्रस नहीं मिलता. 9-10 साल की मुन्नी भी पूर्णयौवना मानी जाती है. मगर 21-22 साल का मुन्ना नन्हामुन्ना ही माना जाता है.

मीरा हिंगोरानी, दिल्ली

मैं तनाव कभी नहीं लेती : हुमा कुरैशी

फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ से चर्चा में आईं हुमा कुरैशी स्वभाव से स्ट्रेटफौरवर्ड और बोल्ड हैं. लेकिन बहुत कम समय में उन्होंने अपना नाम सफल अभिनेत्रियों की सूची में शामिल कर लिया है. बचपन से ही अभिनय के क्षेत्र में काम करने की इच्छा रखने वाली हुमा ने पहले दिल्ली में थिएटर में काम किया. उस दौरान उन्हें कई विज्ञापनों में काम करने का अवसर मिला. इस के बाद उन्हें फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ मिली. उन्हें अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा, क्योंकि थिएटर बैकग्राउंड ने उन्हें अभिनय की दुनिया में आगे बढ़ने में सहायता प्रदान की. वे हर तरह के चरित्र निभाना चाहती हैं और उन के इस काम में उन के परिवार का पूरा सहयोग है. मुंबई में वे अपने भाई साकिब सलीम के साथ रहती हैं. साकिब भी अभिनेता हैं.

दिल्ली के एक मुसलिम परिवार में जन्मी हुमा के पिता कई रेस्तरां के मालिक हैं, जबकि मां हाउसवाइफ हैं. उन दोनों ने हमेशा उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है.

हुमा से अभी हाल में ही एक मुलाकात के दौरान बातचीत हुई. पेश हैं, बातचीत के खास अंश:

आप किसी फिल्म को चुनते समय किस बात का ध्यान रखती हैं?

कहानी और निर्देशन को अधिक महत्त्व देती हूं. साथ में मैं अपनी भूमिका छोटी हो या बड़ी, उस के महत्त्व को देखती हूं.

आप को संघर्ष कितना करना पड़ा?

संघर्ष हमेशा रहा है और रहेगा. स्ट्रगल से आप की लर्निंग होती है यानी उस से हर स्तर पर आप को कुछ सीखने को मिलता है. यह मेरे लिए हमेशा चलता रहेगा. अगर सीखना बंद हो जाएगा तो विकास भी बंद हो जाएगा और कैरियर बेहतर बनाने का चार्म खो जाएगा.

दैनिक जीवन में आप कैसी हैं?

मैं इमोशनल हूं, रैश डिसीजन लेती हूं, लेकिन मुझे अलग तरह का अभिनय करने में मजा आता है.

मुंबई आ कर ग्लैमर वर्ल्ड में टिके रहना कितना मुश्किल था?

पहले मुश्किल था पर अब नहीं है. मेरा भाई मेरे साथ रहता है, इसलिए हर काम में मेरी मदद करता है और मुझे कैरियर व घर दोनों को संभालना पड़ता है. मैं परिवार के साथ हमेशा जुड़ी रहती हूं. मम्मी दिन में 2 बार मुझे फोन करती हैं. इस से उन्हें भी हमारी परेशानी समझ में आती है और वे भी हमारी मदद करती हैं.

क्या किसी अभिनेत्री से प्रतियोगिता है?

मेरा कोई गौडफादर नहीं है. मैं कंपीटिशन में यकीन करती हूं इसलिए मैं ने इतनी मेहनत की है कि दर्शकों को उस का रिजल्ट दिखे.

फिल्मों में अंतरंग सीन को फिल्माते वक्त आप कितनी सहज रहती हैं?

लड़की होने के नाते मैं कभी सहज नहीं रह सकती, लेकिन मुझे यह भी देखना पड़ता है कि कहानी की मांग क्या है? अगर आप प्रेम या रोमांस पर फिल्म कर रहे हैं तो अंतरंग सीन अवश्य होंगे. उन्हें करना ही पड़ेगा. पर अगर केवल पब्लिसिटी के लिए अंतरंग सीन हैं तो ऐसे सीन मैं कभी भी नहीं करना चाहूंगी. इस के अलावा प्यार या रोमांस को जब खूबसूरती से दिखाया जाता है तो वह अपनेआप में सुंदर होता है.

महिलाओं के लिए शिक्षा आप की नजर में कितनी जरूरी है?

मेरे हिसाब से महिलाओं के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है. महिलाओं को भी पढ़लिख कर अपना कैरियर खुद चुनने का पूरा अधिकार होना चाहिए. मुझे तब बड़ा खराब लगता है, जब लड़कियों की पढ़ाई पर ध्यान न दे कर लोग लड़कों को शिक्षा देते हैं. मेरे परिवार में मेरे अलावा सभी लड़के हैं, पर मुझे हर तरह की आजादी मिली है.

कभी तनाव होता है?

मैं तनाव कभी नहीं लेती. मैं अपने काम को मेहनत से करती हूं और अगर सफल नहीं होती तो आगे और अच्छा करने की बात सोचती हूं.

कितनी फैशनेबल हैं?

मैं फैशन करती हूं, क्योंकि अच्छी तरह ड्रैसअप होना मैं जरूरी समझती हूं. फैशन आप के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है. पर फैशन का गुलाम नहीं होना चाहिए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें