सामग्री
– 1 कीवी
– 1 सेब
– 2 बड़े चम्मच शहद
– 2 बड़े चम्मच हंग कर्ड
– 2 बड़े चम्मच दूध
– 3-4 आइस क्यूब्स.
विधि
– कीवी और सेब का छिलका उतार कर सारी सामग्री एकसाथ ब्लैंड करें और ठंडा कर सर्व करें.
सामग्री
– 1 कीवी
– 1 सेब
– 2 बड़े चम्मच शहद
– 2 बड़े चम्मच हंग कर्ड
– 2 बड़े चम्मच दूध
– 3-4 आइस क्यूब्स.
विधि
– कीवी और सेब का छिलका उतार कर सारी सामग्री एकसाथ ब्लैंड करें और ठंडा कर सर्व करें.
अगर आपको भी घूमने-फिरने का शौक है या ऐसा कोई दोस्त है जिसे आप ट्रैवलिंग में इस्तेमाल की जाने वाली चीजें गिफ्ट करें. जो न सिर्फ उन्हें पसंद आएंगी बल्कि उनके लिए यादगार साबित होगी. तो आइए हम बताते हैं, ऐसे आइटम्स के बारे में जो ट्रैवलिंग के दौरान आपके लिए काफी मददगार साबित होगी.
फ्लास्क– ऊंचाई पर चढ़ना हो या कई किमी पैदल चलना हो, प्यास के साथ समझौता कर पाना बहुत ही मुश्किल होता है. तो आप अपने फ्रेंड को अच्छा सा फ्लास्क गिफ्ट कर सकती हैं. पानी के अलावा इसमें और भी कई दूसरे तरह के लिक्विड्स को कैरी किया जा सकता है. पहाड़ों पर अक्सर चाय और कौफी की जरूरत महसूस होती है. ऐसे में फ्लास्क में इसे स्टोर भी किया जा सकता है.
सनग्लासेज़– सनग्लासेज़ सिर्फ स्टाइलिश लुक के लिए ही नहीं कैरी किए जाते बल्कि ट्रैवलिंग में भी इनकी बहुत जरूरत पड़ती है खासतौर से हाइकिंग में. जैसे-जैसे ऊंचाई पर पहुंचते हैं सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणें स्किन के साथ-साथ आंखों को भी नुकसान पहुंचाती हैं. जिसके चलते चलना बहुत मुश्किल हो जाता है. ऐसे में आप उन्हें अच्छी क्वालिटी के सनग्लासेज़ गिफ्ट कर सकती हैं. जो न सिर्फ उन्हें पसंद आएगा बल्कि वो इसका बेहतर तरीके से इस्तेमाल भी कर पाएंगी.
स्विस आर्मी नाइफ– ट्रैवलर फ्रेंड को स्विस नाइफ गिफ्ट करने का आइडिया भी है बेस्ट क्योंकि हर तरह के ट्रिप में इसकी जरूरत पड़ती है. सुरक्षा के मद्देनजर भी ये यूज़फुल आइटम है. मार्केट में अलग-अलग वैराइटी वाले स्विस नाइफ अवेलेबल हैं तो अच्छी तरह से रिसर्च के बाद ही इन्हें खरीदें. एडवेंचर ट्रिप के अलावा और भी कई तरीकों से नाइफ को इस्तेमाल किया जा सकता है.
लकड़ी जलाने वाला स्टोव– ट्रैवलर के लिए ट्रैवलिंग में इस्तेमाल की जाने वाली चीज़़ों से बेहतरीन दूसरा कोई गिफ्ट हो ही नहीं सकता. और स्टोव देने का आइडिया उनमें से ही एक है. सर्दियों से बचने के साथ ही ट्रैवलिंग में खाने-पकाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. सबसे अच्छी बात है कि इस स्टोव को आसानी से कहीं भी कैरी कर सकते हैं.
आप घर में बेकार पड़े अखबार को कबाड़ी के हाथों सस्ते दामों में बेच देती हैं या घर के किसी कोने में रख देती हैं. लेकिन क्या आप जानती हैं? इस बेकार पड़े अखबार को आप घर के काम में भी इस्तेमाल कर सकती हैं. तो आज हम आपको इसके कुछ अनोखे इस्तेमाल के बारे में बताएंगे. आइए जानते हैं.
सब्जियों को ताजा रखें– जब तक चाहे तब तक सब्जियों को पेपर में रैप कर के ताजा बनाया जा सकता है. आप चाहें तो ब्रेड को भी पेपर मे रैप कर ताजी बनाए रख सकती हैं.
अत्यधिक मेकअप पोछिये– यदि आपने गलती से ज्यादा गहरी लिपस्टिक लगा ली है तो उसे पोपेपर की सहायता से पोंछ सकती हैं.
कांच की सफाई – कांच के बरतनों की सफाई आसानी से पेपर से कर सकते हैं. पेपर को पानी में भिगोइये और फिर उससे कांच की सफाई कीजिये. आप किसी तरह का भी कांच का समान जैसे, शोपीस, फ्रेम, बरतन या कांच की खिडकियां साफ कर सकती हैं.
जल्दी सुखाने के लिये– पेपर जल्दी ही पानी को सोख लेता है. यदि आपके जूते गीले हैं या फिर डेस्क पर पानी अथवा चाय गिर गई हो तो, उन्हें सुखाने के लिये पेपर का प्रयोग कर सकती हैं.
अलमारी कवर– लकडी या लोहे की अलमारियों में आप पेपर बिछा सकती है जिससे वह साफ सुथरी बनी रहे. कपडे रखने से पहले पेपर जरूर बिछाएं और नेप्थलीन की गोलियां रखें.
घर की सजावट– पेपर को फेकने की बजाए इनसे घर को सजाइये. आप इससे पेपर के फूल या फिर पेपर लैंप बना सकती हैं. इन्हें अपने मन चाहे रंग में रंगिये और घर को सजाइये.
घर को नया और अट्रेक्टिव लुक देने के लिए आपको आसान-सा टिप्स बताएंगे. जिससे आप घर को अट्रेक्टिव लुक देने के लिए अपना सकती हैं. आइए बताते हैं.
बाजार में जमे रहने के लिए छोटीबड़ी कंपनियों को यह जरूरी हो चला है कि वे अपने उत्पाद की खूबियों का प्रचारप्रसार कुछ इस तरह करती रहें कि उपभोक्ता के दिमाग में उस की मौजूदगी बनी रहे. इस गुर को धर्मगुरु और पंडेपुजारी सदियों से व्यापक पैमाने पर अपनाते रहे हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि उन के पास बेचने को कोई उपयुक्त चीज है नहीं, सिवा पुण्य और मोक्ष आदि जैसे काल्पनिक शब्दों के.
धर्म की दुकान की तुलना एक बहुत बड़े शौपिंग माल से की जा सकती है जिस में वाकई सबकुछ मिलता है. बस, आप की जेब में खरीदने के लिए रुपए होने चाहिए. पहले धर्म की जरूरत को इन दुकानदारों ने स्थापित किया फिर तरहतरह से दान की महिमा गाई जिस का सार यह निकलता है कि दरिद्र वह नहीं जिस के पास पैसा नहीं, बल्कि वह है जो दान नहीं करता.
दान की महिमा वाकई अपार है जो देने और लेने वाले दोनों की पात्रता तय करती है. वक्त के मुताबिक ये पैमाने बदलते रहते हैं. पहले छोटी जाति वालों को दान देने लायक भी नहीं माना जाता था मगर बढ़ते मांगने वालों और घटते देने वालों की संख्या के चलते यह बंदिश हट गई है. अब छोटी जाति वाला भी दान कर सकता है मगर लेने वाला आज भी ज्यादातर ब्राह्मण है या किसी जगह का पुजारी.
प्रवचनों का चमकता बाजार किसी सुबूत का मोहताज नहीं है. कुकुरमुत्ते की तरह उग आए धर्मगुरु, संत, बाबा महानगरों से ले कर देहातों तक में पंडाल लगाए बैठे हैं. कोई भागवत सुना रहा है, कोई रामायण तो किसी की रोजीरोटी का जरिया कृष्ण लीला है. हिंदू धर्म में दान झटकने के लिए देवीदेवताओं की कमी नहीं. खूबी की बात इस में गाय जैसे दुधारू जानवर के नाम पर भी पैसा कमाना है. धार्मिक षड्यंत्र या चालाकियां कैसे फलतीफूलती हैं, इस की एक बेहतर मिसाल भोपाल में संपन्न हुआ सातदिवसीय श्रीमद्भागवत गो कथा समारोह था.
यों मची लूट
भोपाल के रवींद्र भवन में 7 दिन लगातार गोपालमणि महाराज जैसे नाम के 3 और संत गाय की धार्मिक महिमा का बखान करते रहे. इन बाबाओं का इकलौता मकसद लोगों को गोदान के लिए उकसाना भर था. किसी सेल्समैन की तरह गोपालमणि रटीरटाई भाषा बोलते रहे कि देवीदेवता तक गाय की महिमा समझते हैं फिर मानव क्यों नहीं समझ रहा. गाय के शरीर में 33 करोड़ देवीदेवता बसते हैं अत: उस की पूजा की जानी चाहिए.
इस बाबा की नजर में गोदान से बड़ा कोई दान नहीं है. मुद्दे की यह बात कहने से पहले गाय से ताल्लुक रखते कई लच्छेदार और मसालेदार पौराणिक प्रसंग भी संतों की मंडली ने सुनाए और लोगों ने सुने. ये प्रसंग इतने हाहाकारी थे कि आदमी अपनेआप पर शर्मिंदा हो उठे कि गोदान बिना जीवन व्यर्थ है. पाप नरक में ले जाने वाला है.
7 दिनों तक संत लोग गायगाय करते रहे तो कइयों ने गो सेवा और गो पालन का मन बना लिया, मगर इन की व्यावहारिक परेशानी यह थी कि गाय रखें कहां. स्वतंत्र मकानों और फ्लैटों में आजकल कुत्तेबिल्ली तक जगह की कमी के चलते रोटी पर मुंह मारने नहीं आते ऐसे में गोशाला के लिए अलग से कमरे का इंतजाम करना लाख 2 लाख रुपए से कम का निवेश नहीं था. घाटे के इस सौदे से लोगों का कतराना स्वाभाविक बात थी. लिहाजा उन्होंने गो सेवा की इच्छा से किनारा करना शुरू कर दिया.
चमत्कारी सर्वव्यापी और दूरदृष्टा इन बाबाओं को शहरी लोगों की इस परेशानी और उस के हल का भी ज्ञान था. लिहाजा उन्होंने कहा और घुमावदार तरीके से कहा कि चिंता की कोई बात नहीं. गो पालन और गो सेवा मत करो, गोदान कर दो, बाकी का काम हम संभाल लेंगे. तुम्हारी गाय की सेवा, खुशामद हम करेंगे और उस का पुण्य तुम्हारे खाते में चढ़ेगा. पुण्य चढ़ेगा यानी पाप का खाता नीचे गिरेगा.
पापपुण्य का बहीखाता चूंकि ऊपर कहीं चित्रगुप्त नाम के देवता के पास रहता है इसलिए दाताओं की हिम्मत इस बैलेंसशीट को देखने की नहीं पड़ी. श्रुति स्मृति और संत सत्संग के खोखले उदाहरणों के तहत उन्होंने तसल्ली भर कर ली कि उन का नाम इस बहीखाते में मोटेमोटे अक्षरों में गो दाता के कालम में चढ़ गया होगा. जिस ने कुछ पाप करे होंगे और जिन्होंने ज्यादा पाप नहीं किए हैं वे चाहें तो गोदान के बाद बेफिक्री से पाप कर सकते हैं.
समारोह में यह सांकेतिक व्यवस्था भी थी कि जो भाईबहन गोदान नहीं कर सकते हैं वे गाय की कीमत के बराबर धन जमा करा दें, गाय दान की हुई मान ली जाएगी. आयोजन स्थल पर हैरानी की बात है कि एक भी गाय नहीं थी. आखिरी दिन 4 गायें कहीं से ढो कर लाई गई थीं. वजह, इस दिन कामधेनु यज्ञ का आयोजन किया गया था.
जब लोगों के दिलोदिमाग में गाय की महिमा आतंक के रूप में बैठ गई तब उन से गोदक्षिणा वसूली गई. श्रद्धालुओं के लिए सौदा फायदे का था. कइयों ने 501 रुपए में गोदान की पात्रता प्राप्त कर 4,500 रुपए बचा लिए क्योंकि दूध देती स्वस्थ गाय 5 हजार रुपए से कम में नहीं मिलती. 4,500 रुपए बचाने वालों को 2 खुशियां एक समय मिलीं, पहली गोदान की और दूसरी एक बड़ी राशि बचाने की. इन बुद्धिजीवियों से यह सोच पाने की उम्मीद करना बेकार है कि 501 रुपए किस बात के चढ़ा आए. पुण्य और मोक्ष प्राप्ति में भी डिस्काउंट चलने लगा है, यह बात भी इस अनूठे आयोजन से उजागर हुई.
गो माहात्म्य का कई ग्रंथों में उल्लेख है, यह हर कोई जानता है. मगर इतने बड़े पैमाने पर है कि 7 दिनों तक इसे तरहतरह से गद्य व पद्य में बताया जा सकता है, यह कम ही लोगों को मालूम था. धर्म में दान से इतर दिलचस्पी रखने वालों को शंका हुई कि गाय के नाम पर अति की जा रही है. मगर इन्होंने खामोश रहने में ही भलाई समझी. वजह, मसला, मकसद और मंशा बेहद साफ थी कि नास्तिक और कलियुगी लोगों को तारने के लिए उन से गोदान करवाया जाए. यही संत कृपा कहलाती है, जो इस आयोजन में गाय के नाम पर लाखों पापियों से बरसे 500 से 5 हजार रुपए वसूल कर नया साल मनाने किसी और जगह चले गए. दानदाता और पापी हर जगह हैं. संत भेदभाव नहीं करते. लिहाजा हर उस जगह जा कर धार्मिक राग गाएंगे जहां से दान मिलने की उम्मीद है.
एक तीर कई निशाने
श्रीमद्भागवत गोमंथन का सातदिवसीय आयोजन बेवजह नहीं था. इस में गोदान के लिए उकसा कर तो संत मंडली ने लाखों रुपए बनाए ही साथ ही हिंदूवादी संगठनों की भी सहायता की. यह वह वक्त था जब आर.एस.एस. की गोमंगल यात्रा भोपाल और आसपास से गुजर रही थी. स्वयंसेवकों ने गांवों का जिम्मा संभाल रखा था जहां जम कर गाय की महिमा गाई गई यानी प्रचारप्रसार किया गया.
छोटीबड़ी कंपनियां कुछ भी कर लें पर किसी काल्पनिक चीज को नहीं बेच सकतीं. यह काम संत और पंडे ही कर सकते हैं, जिन का फंडा यह है कि धर्म है, शाश्वत है. गाय देवी है, उस का दान मनुष्य को तारता है इसलिए गोदान करो. गाय न हो तो उस की कीमत का नगद भी चलेगा. पूरा न हो तो एकचौथाई तक में लेने वाले मान जाते हैं. वजह, उन के खीसे से कुछ नहीं जा रहा, उलटे आता ही है. कल को कोई और चीज ये लोग धर्म पर रख कर ले आएंगे जिस से लोग दान करना भूल न जाएं. एक ही बात या मद पर ये लोग बारबार दान नहीं मांगते, कुछ समय के लिए उसे छोड़ देते हैं.
इस साल भैरों, मंगल, रामदीन और किशना ने कांवड़ समिति में शामिल हो कर कांवड़ लाने का निश्चय किया. पिछले साल चारों महल्ले की डाककांवड़ की व्यवस्था करने वालों में शामिल थे. अच्छी कमाई हुई थी. इस साल ये चारों केंद्रीय कांवड़ समिति के व्यवस्थापकों में शामिल हैं. किसी न किसी रूप में कांवड़ उद्योग से जुड़े रह कर सालभर की कमाई केवल एक महीने में कमा लेने की जो सुविधा उन्हें हासिल है, वह किसी और उद्योग में शायद ही हो.
महज कमाई ही नहीं बल्कि इश्क फरमाने का भी अवसर मिल जाता है. खाने के लिए छप्पन भोगों के अलावा बेहतरीन चीजें भी बड़े आराम से हासिल हो जाती हैं. यानी धर्म का धर्म, मनोरंजन का मनोरंजन, साथ में और भी बहुत कुछ, जो आज के मस्तमलंदों को चाहिए.
कांवड़ ले जाने वालों की बातों पर यकीन करें तो जिंदगी के मजे लेने के लिए तो बस, कांवड़ समिति या कांवरडाक में शामिल हो जाइए, आगे मजे ही मजे हैं. कथित भगवान भी खुश, मनमाफिक संतुष्टि और पैसा व इज्जत मुफ्त में. सोचिए, इतने ढेर सारे फायदे और कहां मिल सकते हैं. इसलिए यह उद्योग दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है. यों तो धर्म के नाम पर और भी तमाम उद्योग सदियों से बेरोकटोक चलाए जाते रहे हैं लेकिन यह उद्योग कई मामलों में दूसरे उद्योगों से अलग तरह का है. जो सम्मान इस उद्योग में है वह और किसी उद्योग में कहां मिल सकता है.
सावन का महीना मन को हराभरा करने वाला होता है. ऐसे में साथसाथ मनोरंजन मुफ्त में मिल जाए तो क्या कहने. भैरों, मंगल, रामदीन और किशना की तरह लाखों की तादाद में लड़के- लड़कियां, महिलाएं, बच्चे, पुरुष सावन का महीना शुरू होते ही उत्तर भारत की तकरीबन हर सड़क पर दिखने लगते हैं. ऐसा लगता है जैसे किसी बड़े कार्य के लिए निकल पड़े हों. घरबार छोड़ कर इस तरह धर्म के नाम पर सड़कों पर नंगे पैर दौड़ लगाने को क्या कहा जाए?
हिंदू समाज में प्रचलित धर्म के नाम पर चलने वाले उद्योगों में कांवड़ बहुत बड़े उद्योग का रूप धारण कर चुका है. खासकर बरसात के मौसम में यह आमदनी का धंधा जोरों पर होता है. पौराणिक परंपराओं का प्रतीक कहा जाने वाला यह पौराणिक धंधा सदियों से तथाकथित धर्म के बिचौलियों की देखरेख में फलताफूलता रहा है. शिव पुराण, ब्रह्म पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो सनातनी यानी सनातन धर्म को मानने वाला सावन के महीने में गंगा और दूसरी पवित्र नदियों के जल को ला कर शिवलिंग पर चढ़ाता है, उस की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और मरने के बाद परम पद अर्थात स्वर्ग का अधिकारी बनता है. सभी कामनाओं के पूरा होने और मरने के बाद स्वर्ग पाने की चाहत में करोड़ों लोग कांवड़ से नदियों का जल ला कर शिवलिंग पर चढ़ाते हैं और धर्म के व्यापारियों का मुंह मुंहमांगी दक्षिणा से भर देते हैं.
कहां से हुई शुरुआत
कांवड़ ले जाने की परंपरा बहुत पुरानी है. बेटे बूढ़े मातापिता को तीर्थाटन कराने के लिए कांवड़ का इस्तेमाल करते थे. धीरेधीरे धर्म के धंधेबाजों ने इसे धर्म से जोड़ कर महिमामंडित करना शुरू किया कि जो सावन के महीने में पैदल चल कर गंगा और दूसरी पवित्र नदियों से कांवड़ के जरिए पानी ला कर शिवलिंग पर चढ़ाएगा उस की सारी मनोकामनाएं पूरी होंगी. भारतीय धर्मभीरुओं ने इसे बिना सोचेसमझे और बिना परखे स्वीकार कर लिया. धीरेधीरे इसे व्यापार का रूप दे दिया गया और आज यह अरबों का व्यापार बन चुका है.
क्या है इस का कर्मकांड
वैसे तो कांवड़ लाने की परंपरा सावन में ही है लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने इसे धंधे का रूप देने के लिए बारहों महीने का धंधा बना दिया है. कांवड़ लाने वालों के लिए एक विशेष तरह की ड्रैस बाजार में बड़ी तादाद में उपलब्ध रहती है. अमूमन यह गेरुए या लाल रंग की होती है. इस में हाफपैंट, बनियान, टीशर्ट, गमछा तथा टोपी होती है. कांवड़ वालों के लिए इसे पहनना जरूरी होता है. इस ड्रैस को जो नहीं पहनता उसे कांवडि़ए के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता.
इस के अलावा ‘बहंगी’ यानी कंधे पर रख कर ले जाने वाली कांवड़ भी इस में शामिल होती है. आगेपीछे डब्बे या बड़े घड़े कांवड़ में लटकाए जाते हैं. जिस आदमी को कांवड़ लानी होती है उसे पूरे 15 दिन तक फलाहार या जलाहार पर रहना होता है. वह 15 दिन पहले एक विशेष कर्मकांड के जरिए कांवड़ लाने और कामनाओं की पूर्ति के लिए पंडित, पंडे या पुरोहित से विशेष हवन कराता है.
कांवडि़ए कांवड़ ले जाने से पहले अपने दूसरे साथी के घर जा कर कांवड़ लाने की शर्तों को समझाता है और फिर घर आ कर घर के सभी बड़ेबुजुर्गों के पैर छूता है, फिर गाजेबाजे के साथ कांवड़ यात्रा के लिए विदा लेता है.
मोबाइल और पैदल सेवा
यह उद्योग जैसेजैसे बृहद रूप लेता जा रहा है वैसेवैसे कांवड़ लाने के तमाम आधुनिक तरीके अपनाए जाने लगे हैं. इन तरीकों में मोबाइल सेवा और फास्ट वाहन सेवा प्रमुख हैं. मोबाइल सेवा काफी महंगी है. यह इसलिए कि इस में ऐश करने की सभी आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध होती हैं. इस में शराब के साथसाथ गांजा, चरस और भांग भी बहुत बड़ी तादाद में उपलब्ध होती है. लड़कियां और लड़के इस में साथसाथ रहते हैं. कांवडि़ए को कांवड़ सेवा समिति की तरफ से जगहजगह रुकने की सुविधा उपलब्ध होती है. कई किलोमीटर के लंबे सफर में थोड़ीथोड़ी दूर पर कांवड़ के संचालकों की तरफ से रुकने, खानेपीने और ऐश करने की सुविधाएं उपलब्ध होती हैं. अमूमन एक कांवडि़ए को 2 से ले कर 5 हजार तक खर्च करने पड़ते हैं.
धर्म के इस धंधे की असलियत क्या है
धर्म के धंधेबाजों द्वारा शुरू किया गया यह उद्योग सब से बड़े फायदे के उद्योगों में शामिल हो गया है. यह धंधा इसलिए तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि यह धर्म के नाम पर चल रहा है. जाहिर है, धर्म के नाम पर इस देश में जितना भ्रष्टाचार और दुराचार हो रहा है उतना किसी और क्षेत्र में देखने को नहीं मिलता. दरअसल, धर्म के नाम पर यह उद्योग पूरी तरह शोषण, अमानवीयता, अन्याय और भ्रष्टाचार पर आधारित है. एक तरफ भोलीभाली धर्मभीरु जनता है जिस का सदियों से धर्म के नाम पर शोषण किया जा रहा है तो दूसरी तरफ धर्म के वे बिचौलिए हैं जो सदियों से धर्म के नाम पर जनता का शोषण करते आ रहे हैं.
कहने को तो लोग बड़ी तादाद में पढ़लिख गए हैं लेकिन जब धर्म की बात आती है तो बगैर कुछ सोचेसमझे अंधविश्वास से युक्त ढकोसलों पर यकीन कर लेते हैं. यही हाल कांवड़ लाने वालों का है जो धार्मिक भेड़चाल में शामिल हो कर अपना समय और पैसा बरबाद करते हैं.
और यह बड़ा उद्योग
एक अनुमान के मुताबिक हर साल इस उद्योग के जरिए इस धंधे से जुड़े लोगों को एक अरब से ज्यादा की आय होती है. इस में कपड़ा, डब्बा और सेवा के नाम पर बांटे जाने वाला भोजन और फल भी शामिल हैं. मतलब एक कारखाने में जैसा कुछ होता है बस, उसी तर्ज पर. सब से अहम बात यह है कि इस उद्योग में लागत न के बराबर लगती है और फायदा 100 प्रतिशत. इस धार्मिक उद्योग की बड़ी विशेषता यह है कि इस में कोई रिस्क नहीं है.
शोषण का कारोबार
धर्म के नाम पर ठगी का धंधा कितनी सहजता से चलाया जा सकता है और उस से रातोंरात मालामाल हुआ जा सकता, यह कांवड़ उद्योग के जरिए बखूबी समझा जा सकता है. सब से ताज्जुब की बात यह है कि धर्म की इस ठेकेदारी की आड़ में लड़कियों, लड़कों और महिलाओं का हर तरह से शोषण किया जाता है और जो लोग शोषित होते हैं वे दूसरों का शोषण करने के लिए तैयार रहते हैं. शोषित लोग अपना मुंह इसलिए नहीं खोलते क्योंकि उन्हें यह बताया और समझाया जाता है कि शिव की भक्ति के लिए तन, मन और धन का संपूर्ण समर्पण ही मनोकामनाओं को पूरा करेगा.
शासन भी शोषण में सहयोगी
सरकारें धर्मकर्म के नाम पर जैसे दूसरे धर्म वालों को सबकुछ जायज- नाजायज करने की छूट देती हैं, उसी तरह से कांवड़ ले जाने वालों के लिए हर तरह से सहयोग देती हैं लेकिन इस की आड़ में जिस प्रकार से एक उद्योग चलाया जा रहा है उस के बारे में सरकार मौन रहती है. इसलिए कांवड़ उद्योग से जुड़े धर्म के ठेकेदारों के जरिए कांवडि़यों के शोषण को सरकार मौन हो कर देखती रहती है. मतलब बेखौफ हो कर शोषण करने की आजादी इस धंधे से जुड़े लोगों को मिलती है.
कैसे रुके शोषण
धर्म के नाम पर किए जाने वाले शोषण को रोकना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है. यह इसलिए कि एक बहुत बड़ी तादाद में धर्मकर्म पर यकीन करने वाले यह मानते हैं कि यह विश्वास का मामला है, इस पर तर्कवितर्क करने की गुंजाइश नहीं है. तर्क करने से भगवान नाराज हो जाते हैं. इसलिए जब कभी अंधविश्वास, पाखंड और तंत्रमंत्र के फरेब उजागर होते हैं तो नास्तिकों के विरोध को धर्म विरोधियों की करतूतें या आक्रमण बता कर इसे रफादफा करने की कोशिश की जाती है.
अब इसे शिद्दत के साथ समझने की जरूरत है. धर्म के नाम पर चलने वाले इस उद्योग की रफ्तार को रोकने के लिए जनजागरूकता चलाने और लोगों में वैज्ञानिक समझ को बढ़ाने की बहुत जरूरत है खासकर देहात और कसबाई इलाकों में. जनजागरूकता के जरिए लोगों को यह बताना जरूरी है कि तुम्हारा शोषण धर्म के नाम पर किस तरह किया जा रहा है, तुम्हारे पसीने की कमाई पर किस तरह डाका डाला जा रहा और कैसे इस से बच कर अपने और परिवार को प्रगति के रास्ते पर ले चल सकते हो.
शारीरिक संबंधों में अनावश्यक सहना या अपनेआप समय गुजरने के साथ उन में तबदीली हो जाने की गुंजाइश मान कर चलना भ्रम है. यह इन संबंधों के सहज आनंद को कम करता है. कुछ महिलाओं ने बताया कि उन्हें पति की आक्रामकता पसंद नहीं आती थी. लेकिन लज्जा या संकोचवश कुछ कहना अच्छा नहीं लगता था. कुछ महिलाओं का कहना है कि पति को खुद भी समझना चाहिए कि पत्नी को क्या पसंद आ रहा है, क्या नहीं. मगर इस पसंदनापसंद के निश्चित मानदंड तो हैं नहीं, जिन से कोई अपनेआप ही समझ जाए और आनंद के क्षण जल्दी और ज्यादा मिल जाएं.
एक महिला ने बताया कि उस का पति सुहागरात वाले दिन से ही अश्लील वीडियो देख कर उस के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाता था. यह सिलसिला शादी के कई साल बाद तक चलता रहा. अगर वह इस का विरोध करती तो पति उसे धमकियां देता. शर्म के कारण वह अपने मातापिता को इस बारे में बता नहीं पाती थी. इस दौरान उसे शारीरिक तौर पर परेशानी भी शुरू होने लगी. उस के मुताबिक, अप्राकृतिक संबंध से होने वाली परेशानी के बारे में पति को बताने पर भी वह नहीं माना. वह लगातार ऐसा करता रहा. शिकायत करने पर वह मारता भी. उस महिला के मुताबिक बाकी समय तो उस का पति सामान्य रहता था, लेकिन सहवास के समय वह हैवान बन जाता और लगभग रोज ऐसा करता. मजबूर हो कर उसे पुलिस स्टेशन में शिकायत करनी पड़ी.
भावना कहती है, ‘‘मैं कुछ समय पति की आक्रामकता बरदाश्त करती रही. हनीमून के बाद कहने की सोची पर हिम्मत नहीं जुटा पाई. मगर जब यह आक्रामकता थोड़ी और बढ़ने लगी तो कुछ महीनों बाद मुझे बात करनी ही पड़ी. उन्हें मेरा बात करना अच्छा नहीं लगा. हमारे संबंध कुछ समय के लिए प्रभावित हुए. पति बारबार ताना मारते. यह सच है कि यदि मैं ने समय पर उन से अपनी बात कह दी होती तो ऐसी नौबत नहीं आती.’’
रमा कहती है, ‘‘मैं ने तो पहली रात में ही पति से कह दिया कि यह अननैचुरल वाली आदत मुझे पसंद नहीं. इस पर पति का कहना था कि धीरेधीरे पड़ जाएगी. मगर मैं ने स्पष्ट कह दिया कि हम इंसान हैं, जानवर नहीं. फिर क्या था. 4-5 दिनों में सब ठीक हो गया. मैं जानती हूं इस प्रकार की आक्रामकता को बरदाश्त करना कितना कठिन होता है. इस से सैक्स बो?िल हो जाता है. खुल कर बोलने से न केवल अप्रिय स्थितियां सुधरती हैं, बल्कि अच्छी स्थितियों के लिए भी माहौल तैयार होता है.’’
सैक्स को ले कर जितने आतुर मर्द रहते हैं उतनी महिलाएं भी होती हैं. हां यह बात अलग है कि वे इस का जिक्र कभी किसी से नहीं करती हैं. बात अगर स्पैशल रात की हो तो मर्दों से ज्यादा महिलाओं में ऐक्साइटमैंट होता है. यह कहानी सिर्फ हीरो का इंतजार करती हीरोइन की नहीं, बल्कि हर उस लड़की की है जो बेसब्री से इंतजार करती है.
कोई रिश्ता परफैक्ट नहीं
सचाई यह है कि कोईर् भी रिश्ता परफैक्ट नहीं होता. यदि आप यह सोचती हैं कि रिश्ते में सब कुछ आप की मरजी के अनुसार या किसी फिल्मी कहानी की तरह होना चाहिए, तो चोट लगनी लाजिम है. हर रिश्ता अलग होता है. यही नहीं हर रिश्ते को आप के प्यार, समर्पण, श्रम और साथ के खादपानी की जरूरत होती है. कई बार रिश्ता टूटने की वजह बेमानी ही होती है.
वह हमेशा सही बातें करेगा
ऐसा नहीं होगा और न ही आप उस से ऐसी उम्मीद रखें. वह परफैक्ट नहीं है और न ही वह किसी रोमानी फिल्म का हीरो है, जो हमेशा सही और अच्छी बातें ही करेगा. वह भी इंसान है और आम इंसानों की तरह वह भी गलतियां करेगा. वह ऐसी बातें कर सकता है, जो उसे नहीं करनी चाहिए.
और्गैज्म
पति हो या पत्नी, दोनों में से किसी भी एक का तरीका यदि आक्रामक व नैगेटिव हो तो उस के भावों पर ध्यान देना चाहिए. बहुत सी पत्नियां अपने पति से कहतीं कि तुम स्वार्थी हो, तुम्हें सिर्फ अपने आनंद की पड़ी होती है, तुम्हें मेरी परवाह नहीं. इस का सीधा मतलब है अभी उस का और्गैज्म पर पहुंचना बाकी है या आप उस के और्गैज्म पर पहुंचने की परवाह नहीं करते. जल्दीजल्दी और बारबार कही गई बात चिढ़ाने और सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली हो सकती है.
इसलिए जब भी जितना कुछ कहा जाए वह किया भी जाए. तभी वह सार्थक और असरदार बदलाव लाने वाला होता है. निजी संबंधों को कहनेसुनने की कुशलता सिर्फ बैडरूम तक ही सीमित नहीं रहती. वह जीवन में घरबाहर भी सार्थक बातचीत का सिस्टम पैदा करती है और उसे बढ़ावा देती है.
सैक्स कोरी क्रिया नहीं, एक खूबसूरत कला है. इसे सदियों से काम कला का स्थान प्राप्त है. इस में हर बार कुछ नया, कुछ अनोखा किए जाने का स्कोप रहता है. पतिपत्नी के रिश्ते में प्यार और सैक्स दांपत्य की इमारत को खड़ा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मजबूत पिलर हैं.
बौलीवुड अभिनेता रितेश देखमुख ने आज से 15 साल पहले जेनेलिया डिसूजा के साथ बौलीवुड में डेब्यू किया था और बाद में दोनों ने शादी कर ली. अब इस जोड़ी की एक बार फिर साथ में बड़े परदे पर वापसी होने जा रही है. बता दें कि जेनेलिया अब डिसूजा से देशमुख बन कर रितेश के साथ मराठी फिल्म माउली के एक होली वाले गाने में नजर आएंगी.
जी हां, आदित्य सरपोतदार के निर्देशन में बनी इस फिल्म में रितेश के अपोजिट मिर्ज्या वालीं संयमी खेर हैं. इस गाने को पिछले दिनों शूट किया गया था और गाने का नाम सर्फ लाऊंन धून टाक (सर्फ लगा कर धो डालो) रखा गया है. मजे की बात यह है कि चार साल पहले रितेश और जेनेलिया की जोड़ी इस तरह के होली वाले गाने में ही नजर आई थी. लय भारी नाम की इस मराठी फिल्म में रितेश लीड रोल में थे. रितेश और जेनेलिया के इस नये गाने को अजय अतुल ने कम्पोज किया है.
पत्नी संग फिर से काम करने के बारे में रितेश कहते हैं कि वो जेनेलिया के साथ काम करने का कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाहते. होली के गाने में उनके साथ परफौर्म कर बहुत मजा आया है और उम्मीद है कि दर्शकों को भी ये पसंद आएगा.
जानकारी के लिए बता दें कि रितेश और जेनेलिया ने साथ में डेब्यू करने के बाद कुछ और फिल्मों में काम किया और उसके बाद साल 2012 में शादी कर ली. उनके दो बेटे हैं. शादी और बच्चों की परवरिश के चलते जेनेलिया फिल्मों से दूर हैं. रितेश देशमुख की ये मराठी फिल्म माउली 14 दिसंबर को रिलीज हो रही है.
आजकल फैशन के चक्कर की मारी हमारी युवा पीढ़ी कई तरह के प्रयोग करने से पीछे नहीं हटती. वो खुशी-खुशी नाभि में छेद यानी की पियर्सिंग करवा रही हैं. लेकिन देखा-देखी में ऐसा करना कहीं महंगा ना पड़ जाए क्योंकि जब पियर्सिंग करवाई जाती है, तब इसे पूरी तरह से ठीक होने में तकरीबन 3-4 महीने तक का समय आराम से लग जाता है. साथ ही इसको सुरक्षित रखने के लिये भी अपनी दिनचर्या में कई अहम बदलाव करने पड़ सकते हैं. यदि आप भी अपनी नाभि छिदवाने का शौक रखती हैं, तो आपको इन बातों का खास ख्याल रखना जरुरी है.
नाभि साफ करें : छोटी सी नाभि में बहुत सारी गंदगी छिपी रहती है. तो इसलिये आप जब भी पियर्सिंग करवाने किसी क्लीनिक में जाएं, तो इयरबड से अपनी नाभि साफ करते हुए जाएं. आप चाहें तो इसे किसी लोशन से भी साफ कर सकती हैं, लेकिन इस बात का ख्याल रखें की नाभि को साफ करते वक्त जादा अंदर तक ना जाएं.
छेड़खानी ना करें : नई-नई पियर्सिंग देखने तथा दिखाने में बड़ी ही अच्छी लगती है, लेकिन कभी उससे छेड़खानी ना करें. वरना उसे ठीक होने में समय लग जाएगा तथा उसमें संक्रमण होने का खतरा भी दोगुना हो जाएगा.
सोने का तरीका : अगर आपको पेट के बल पर सोने की आदत है, तो ऐसा ना कर के पीठ के बल पर सोना शुरु करें. वरना घाव और ज्यादा गहरा होगा तथा अन्य समस्याएं भी शुरु हो जाएंगी.
हरदम ज्वैलरी ना बदलें : बार-बार ज्वैलरी बदलने से त्वचा को और ज्यादा नुक्सान होगा. इसलिये एक बार इसे पूरी तरह से ठीक हो जाने दें, फिर नई-नई ज्वैलरी से प्रयोग करें.
ढीले कपड़े पहने : पियर्सिंग करवाने से पहले टाईट टी-शर्ट या टाईट जींस बिल्कुल भी ना पहने. इससे शरीर से कपड़ा रगड खाएगा और फिर दर्द तथा घाव भरने में समय लगेगा. इसलिये कुछ महीनों के लिये आपको ढीले-ढाले पैजामें तथा लूज टौप पहनने होंगे.
भरोसेमंद ब्रांड के आभूषण खरीदें : हो सकता है आपको सड़क किनारे से कोई खूबसूरत ज्वैलरी पसंद आ जाए और आप उसे ही खरीद लें. लेकिन सावधान रहें, ऐसा बिल्कुल ना करें क्योंकि इससे संक्रमण होने का खतरा हो सकता है. कुछ धातुओं से शरीर की त्वचा को एलर्जी होती है और यह नुकसानदेह हो सकता है.
हिंदी फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ की सीरीज बनाकर चर्चित हुए निर्माता, निर्देशक आनंद एल राय दिल्ली के हैं, उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत एक इंजिनियर के रूप में की, लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा और वे मुंबई आकर टीवी निर्देशक अपने बड़े भाई रवि राय को एसिस्ट करने लगें. कुछ दिनों के संघर्ष के बाद उन्हें फिल्म ‘रांझणा’ मिली, जो कमोवेश सफल रही. इसके बाद उन्होंने कंगना रनौत को लेकर फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ बनायीं, जो बौक्स आफिस पर कामयाब फिल्म रही. आनंद रोमांटिक कौमेडी फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं और हर तरह की फिल्में उन्हें आकर्षित करती है, जो उन्हें चुनौतीपूर्ण लगती है. फिल्म ‘जीरो’ भी ऐसी ही एक नयी कांसेप्ट पर आधारित फिल्म है, उनसे मुलाकात हुई, पेश है कुछ अंश.
कितने सालों से इस फिल्म को बनाने की तैयारियां चल रहीं थी?
मेरे हिसाब से एक निर्देशक को तब कहानी कहनी चाहिए, जब उसे कहने की कोई वजह हो. मैं कहानी में इन्वेस्ट होता हूं. उसे कहने के लिए 3 से 4 साल चला जाता है. इसलिए अगर किसी कहानी को कहने में उतना वक्त चला जाता है, जिसे मैं अपनी बेटी और परिवार के साथ बिता सकता था और उन्हें समय न देकर अगर मैं कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूं तो उसकी वजह का होना बहुत जरुरी है. ये कहानी मेरे लिए बहुत अलग है. इससे पहले जो फिल्में बनायीं उससे दर्शकों में ये धारणा हो गयी कि मैं छोटे शहर और उनसे जुड़े लोगों को ही पर्दे पर दिखाना पसंद करता हूं. ऐसे में मुझे इस दायरे में बंध जाना पसंद नहीं. इसलिए मैंने अलग तरह की फिल्म बनाने की सोची. इसमें मैंने वी एफ एक्स को एक इमोशन का रूप देने की कोशिश की है.
बौनों पर फिल्म बनाने की इच्छा कहां से आई?
कुछ साल पहले हम सब सुपर हिरोस की तरफ जा रहे थे, लोगों को वैसी फिल्में पसंद भी आ रही थी, पर मैं उससे जुड़ नहीं पाया. मुझे फिल्में अच्छी लग रही थी, पर लगता था कि ऐसा सुपर हीरो हमारे बीच का कोई व्यक्ति नहीं हो सकता. वो उधार लिया हुआ चरित्र है और ऐसा फिल्म मैं नहीं बना सकता, क्योंकि हम कद में छोटे हैं. यही कद छोटे होने की बात ने मुझे इस फिल्म को बनाने के लिए प्रेरित किया.
रियल लाइफ में कभी बौनों से मिलना हुआ?
मैंने शोध किया है और मैं यह सोचता हूं कि हमें अपनी लाइफ को हर कमजोरी के साथ सेलिब्रेट करनी चाहिए. आप कैसे भी खुश रह सकते हैं. इस फिल्म को बनाने की एक वजह ये भी है कि हम अपने लाइफ को कैसे भी सेलिब्रेट करें. मैं मिला नहीं, पर उनके लाइफ के बारें में जानने और समझने की कोशिश की है.
इस फिल्म को बनाने में चुनौतियां कहां आई?
मेरी हौबी आज मेरा प्रोफेशन बन चुकी है और मैं खुश हूं कि दर्शक मेरा साथ दे रहे हैं. इस फिल्म को बनाना कठिन था, पर चुनौतियां अधिक नहीं आई, क्योंकि मुझे इसे बनाने में मजा आ रहा था.
क्या बड़े स्टार को फिल्म में काम करवाना मुश्किल होता है?
ऐसा नहीं है, हर किसी का हर किसी के साथ जुड़ाव अलग-अलग होता है और अगर मैं ऐसा ही सोचता रहूं, तो मैं कभी भी फिल्म बना नहीं सकता, क्योंकि हर व्यक्ति में मुझे कमियां ही दिखेंगी.
जब फिल्में नहीं चलती तो उसका जिम्मेदार निर्देशक को ठहराया जाता है, इस फिल्म के लिए आप पर किस तरह का प्रेशर है?
निर्देशक ही जिम्मेदार है और इसे मैं सही मानता हूं. इसमें भी उतना ही प्रेशर है, जितना हर फिल्म के लिए होता है. मैं इस बात से सहमत हूं कि फिल्म चलने या न चलने दोनों में निर्देशक की जिम्मेदारी होनी चाहिए, क्योंकि वह उसका सपना होता है. ये उसकी जिद होती है कि वह अपनी कहानी दर्शकों के सामने लायें.
ऐसी फिल्में पहले भी बनी है ऐसे में आपकी फिल्म किसी फिल्म का दोहराव तो नहीं?
अप्पु राजा ऐसी फिल्म थी, पर इसकी कहानी अलग है. इसमें एक बौना जो अपनी जिंदगी से बहुत खुश है और उसने कभी अपने आपको किसी साधारण इंसान से कम नहीं समझा.
आगे की योजनाये क्या है?
अभी कुछ सोचा नहीं हूं. मैं अपनी लाइफ में हमेशा नयी कहानी सुनाने की इच्छा रखता हूं. ये मेरी भूख है, जो थोड़े दिनों बाद मुझे लगती है और मैं फिर से कुछ नयी कहानी के बारें में सोचने लगता हूं. मैं कहानी का गुलाम हूं.
समय मिले तो क्या करना पसंद करते हैं?
मैं अभी ये समझ पाया हूं कि मैंने परिवार के साथ बैठकर फिल्मों के अलावा कोई बात नहीं की. मैं अपनी लाइफ में अनुसाशन को लाने की कोशिश करूंगा और थोडा समय परिवार के साथ बिताने की कोशिश करूंगा.