हैल्दी रहने के लिए बदलें लाइफस्टाइल

गत 25 फरवरी, 2018 को नोएडा के सैक्टर-47 स्थित जलवायु टावर में महिलाओं की चहेती पत्रिका गृहशोभा व आईटीसी के तत्वावधान में आशीर्वाद सर्वगुणसंपन्न कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिस में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर भागीदारी ले कर जता दिया कि वे किसी से कम नहीं हैं.

इवेंट की शुरुआत रोटी मेकिंग की ऐक्टिविटी से हुई, जिस में ऐंकर अंकिता ने वहां उपस्थित महिलाओं की ड्रैस के रंग के आधार पर 3 महिलाओं को स्टेज पर बुला रोटी बनाने को कहा. ऐक्टिविटी का उद्देश्य सिर्फ रोटी बनाना ही नहीं था, बल्कि यह भी था कि रोटी दिखने में अच्छी होने के साथसाथ सौफ्ट व टेस्टी भी हो. इस में प्रियंका द्वारा बनाई रोटी ही विजेता बनी, क्योंकि वह आशीर्वाद सलैक्ट आटे की जो बनी थी.

शैफ की हैल्दी रैसिपी

इस के बाद शैफ सारिका मेहता ने आशीर्वाद आटे की गुणवत्ता बताते हुए आशीर्वाद शुगर रिलीज कंट्रोल आटे से चूरोज बनाना सिखाया. इसे बच्चे और बड़े दोनों बड़े चाव से खाते हैं. इसे बनाने में भी काफी कम समय लगता है. सारिका ने यह भी बताया कि इसे डायबिटीज के मरीज भी खा सकते हैं, क्योंकि इस में काफी लो शुगर होती है.

न्यूट्रिशनिस्ट डा. अमृता ने कार्यक्रम में मौजूद महिलाओं को आशीर्वाद मल्टीग्रेन आटा क्यों खाना चाहिए यह बताते हुए डाइटिंग के बैड इफैक्ट्स बताए. अमृता ने बताया कि महिलाओं को अपने दिमाग, अपनी लाइफ से हमेशा के लिए डाइटिंग शब्द निकाल देना चाहिए वरना वे कई बीमारियों की गिरफ्त में आ सकती हैं. उन्होंने कहा कि जब भी कुछ खाएं तो थोड़ीथोड़ी मात्रा में खाएं और साथ ही अपने लाइफस्टाइल को चेंज करने पर भी ध्यान दें. फिर देखें कि आप खुद को अंदर से कितना फिट फील करती हैं.

मनोरंजक टास्क

इवेंट को और मनोरंजक बनाने के लिए ‘मल्टी टास्किंग दीवा’ के लिए 2 महिलाओं को बुलाया गया, जिन्हें 2 मिनट में ज्यादा से ज्यादा रोटियां बनाने के साथसाथ ऐंकर द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जवाब भी देने थे. इस रोचक ऐक्टिविटी में भी महिलाओं ने बढ़चढ़ कर भाग लेने का उत्साह दिखाया. इस में मंजू रावत ने प्रथम पुरस्कार तो मधु ने द्वितीय पुरस्कार जीता. फिर पुन: 2 महिलाओं को बुला कर उन्हें 15 मिनट में आशीर्वाद पौपुलर आटा व अन्य दी गई सामग्री से डिश बनाने को कहा. इस में औडियंस ने भी बढ़चढ़ कर भाग लिया. और ‘मोस्ट पौपुलर दीवा’ के खिताब को काठी रोल बना कर मंजू ने अपने नाम किया. द्वितीय पुरस्कार की विजेता रही फ्रूट रोल बनाने वाली अंजू.

इस के बाद रैसिपी विनर्स के नामों की घोषणा की गई. मालपुआ बना कर मंजू आनंद ने प्रथम पुरस्कार, लौकी की मुठिया बना कर राखी वर्मा ने द्वितीय पुरस्कार और आटा केक बना कर प्रियंका ने तृतीय पुरस्कार जीता. वाणी को वैज आटा मोमोज के लिए सांत्वना पुरस्कार मिला. अंत में सभी को गुड्डी बैग्स दिए गए.

लौन : आपके पास है ये हराभरा गलीचा

आधुनिक युग में जहां एक ओर घर की आंतरिक बनावट व साजसज्जा का ध्यान रखा जाता है वहीं दूसरी ओर घर के चारों ओर खाली पड़ी जमीन या आंगन को आकर्षक बनाया जाता है. घर के बाहर का बगीचा आजकल आउटडोर लिविंगरूम कहलाता है. इस लिविंगरूम का फर्श यदि एक जीवंत हराभरा गलीचा हो तो घर की शोभा ही अनोखी बन जाती है. जी हां, हम जिस हरेभरे गलीचे की बात कर रहे हैं वह और कुछ नहीं बल्कि लौन है.

लौन एक हरे कैनवस की भांति होता है जिस के ऊपर आप रुचि के अनुसार रंग बिखेर सकते हैं. आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने भी यह स्वीकारा है कि हमारे आसपास पेड़पौधों व हरियाली का मानव मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. सुबहशाम लौन पर नंगे पांव चलने से प्राकृतिक रूप से ऐक्यूप्रैशर होता है और आंखों को भी शीतलता प्राप्त होती है. अन्य पौधों के मुकाबले लौन की विशेषता यह है कि यह वर्षभर हराभरा रहने के साथ बगीचे का स्थायी अंग बन जाता है, जिसे बारबार लगाने की आवश्यकता नहीं होती. आइए, लौन लगाने व उस की देखभाल करने की जानकारी लें.

घास का चुनाव : घास का चुनाव करते समय वातावरण, तापमान, आर्द्रता इत्यादि की जानकारी अवश्य लें. गरम स्थानों पर उगाई जाने वाली घास जहां गरम, आर्द्र मौसम को सहन कर सकती है वहीं ठंडे स्थानों पर लगाई जाने वाली घास अत्यंत कम तापमान (कभीकभी 0 डिगरी सैंटीग्रेड से नीचे) व पाले की मार को सहन करने की क्षमता रखती है. अगर भूमि काफी है तो दूब घास यानी साइनोडोन डैक्टाइलोन की उन्नत किस्मों का प्रयोग करें. छोटे लौन में गद्देदार घास, कोरियन घास यानी जौयशिया जैपोनिका का प्रयोग कर सकते हैं.

इसी प्रकार ठंडे इलाकों में जहां तापमान शून्य से कम चला जाता है और पाले की मार भी अधिक होती है वहां बंगाल बैंट यानी एगरोस्टिस की विभिन्न प्रजातियां बहुत अच्छा गलीचा बनाती हैं. कैंटकी ब्लू घास यानी पोआ प्रेटेंसिस व राई घास यानी लोलियम पेरेनि भी ठंडे क्षेत्रों में उपयुक्त पाई गई हैं.

जमीन की तैयारी : लौन लगाने के लिए धूपदार जगह का चुनाव करें. एक बार लौन लगाने पर वह वर्षों तक आप के आंगन की खूबसूरती बढ़ाएगा, इसलिए जमीन की तैयारी पर अधिक ध्यान देना आवश्यक है. चूंकि घास जमीन की सतह पर चारों ओर फैलती है और जड़ें बहुत गहरी नहीं जातीं इसलिए ऊपरी 10-12 इंच की मिट्टी का भुरभुरा होना जरूरी है. इस मिट्टी को भली प्रकार छान लें और कंकड़पत्थर निकाल दें. अब मिश्रण तैयार करें. इस में 2 भाग छनी हुई मिट्टी, 1 भाग छनी हुई रेत व 1 भाग छनी हुई गोबर की खाद मिलाएं. इस मिश्रण को 15-20 दिन तक धूप लगाएं व 2 दिन के अंतराल पर उलटपलट करें. मिश्रण को गीला कर के पौलिथीन शीट से इस प्रकार ढकें कि हवा कहीं से भी अंदर न जा सके. इसे 25-30 दिन तक बिना छेड़े रहने दें, पौलिथीन से मिश्रण का तापमान बढ़ेगा और कीट, बीमारियां व खरपतवार के बीज नष्ट हो जाएंगे. इस प्रकार तैयार किया गया मिश्रण आदर्श लौन लगाने के लिए सर्वोत्तम है. अब इस मिश्रण को समान सतह बना कर फैलाएं. मिश्रण फैलाते समय ग्रेडिएंट का ध्यान रखना आवश्यक है ताकि पानी निकासी का उचित प्रबंधन हो. वैसे तो लौन समतल भूमि पर बनाया जाता है परंतु इसे और अधिक आकर्षक बनाने के लिए छोटेछोटे टीले यानी पहाड़ भी बनाए जा सकते हैं.

लौन लगाने का समय : शुष्क व गरम इलाकों में बरसात के आरंभ में लौन लगाएं. इस में घास के पौधे शुरुआती जड़ें अच्छी तरह पकड़ेंगे और वातावरण में नमी की मात्रा अधिक होने से घास का फैलाव भी शीघ्रता से होगा. ठंडे इलाकों में लौन फरवरी, मार्च, जुलाई, अगस्त या सितंबर, अक्तूबर में भी लगाया जा सकता है. यद्यपि अगर सिंचाई करने की पर्याप्त सुविधा हो तो सर्द महीनों को छोड़ कर लगभग पूरे वर्ष लौन लगा सकते हैं.

लौन कैसे लगाएं : लौन लगाने के 2 प्रमुख तरीके हैं, बीज से व पौध से. जब लौन बीज से लगाना चाहें तो  बीज की मात्रा का ज्ञान होना चाहिए. घास की कुछ प्रजातियों के बीज अत्यंत छोटे होते हैं ऐसे बीजों को समान मात्रा में रेत में मिला कर बोया जाता है. इस में लौन को कई बराबर भागों में विभाजित करें. फिर उस में बीज बराबर हिस्सों में छिड़काव विधि द्वारा डालें. इस से पूरे लौन में बराबर बीज डलेगा. बीज डालने के बाद उस के ऊपर लौन मिश्रण की 0.5 से 1.0 सैंटीमीटर ऊंची सतह बिछाएं. लौन के ऊपर बीज डाल कर सीधे सिंचाई न करें. इस पर जूट या बोरी या सूखी घास बिछा कर फौआरे से सिंचाई करें.

बीज बोने के बाद मिश्रण में नमी खत्म न होने दें, आवश्यकतानुसार फौआरे या स्प्रिंकलर से पानी दें. लगभग 12-15 दिन बाद जब बीज उगना शुरू हो जाए तो जूट हटा दें. बहुत बड़ा लौन हो तो बिना जूट से ढके केवल स्प्रिंकलर से भी पानी दे सकते हैं. पौध से लौन लगाने के लिए पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है, फिर जड़दार घास को लगाया जाता है. यह तरीका बड़े लौन के लिए ठीक नहीं है.

लौन लगाने के और भी कई तरीके हैं परंतु सब से आधुनिकतम तरीका है टर्फिंग. इस में लौन विभिन्न आकार के टुकड़ों (टाइलों) में बनाबनाया उपलब्ध रहता है. सब से पहले लौन का मिश्रण मनचाहे आकार में बिछा लें. अब इस भूमि को नाप कर, इसी के आकार का टुकड़ा नर्सरी से ले आएं. यदि लौन का आकार बड़ा है तो घास टाइलों के रूप में (1×1 फुट) कटवा कर लाएं. इन टाइलों को ईंटों की चिनाई की तरह भूमि पर बिछाएं. लौन को खूब पानी दें. इस प्रकार की लौन घास लगभग सभी नर्सरियों में 90-150 रुपए प्रति किलोग्राम के मूल्य पर उपलब्ध रहती है. यह लौन लगाने का सब से आसान व शीघ्रतम तरीका है. इस तरह आप रातोंरात घर के आंगन में हराभरा लौन लगा सकते हैं. इसे इंस्टैंट लैंडस्केपिंग भी कहा जाता है.

लौन की देखभाल : खूबसूरत लौन बगीचे की जान और घर की शान है. यदि लौन की घास ऊंचीनीची, ज्यादा बढ़ी या खरपतवार से भरपूर है तो बगिया की सुंदरता नष्ट हो जाती है. लौन को खूबसूरत बनाए रखने के लिए इन बातों का खयाल रखें :

मोइंग (घास काटना) : घास की सतह को समतल व हराभरा रखने के लिए घास को समयसमय पर काटना आवश्यक है. मोइंग करने से घास में नई कोंपलें (टिलरिंग) निकलती हैं, जिस से लौन घना बनता है और शीघ्रता से एक हरे गलीचे की तरह फैलता है. मोइंग करते समय घास की ऊंचाई 5-7 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. अधिक छोटी करने पर घास की जड़ें कमजोर पड़ सकती हैं और घास पर तीव्र धूप व पाले का असर भी जल्द पड़ता है. मोइंग कितने समय के अंतराल पर करें, यह घास के स्वभाव और उस के उगने की क्षमता पर निर्भर करता है. छोटे लौन के लिए हाथ से चलने वाला मोअर इस्तेमाल करें.

रोलिंग : लौन में समतल हरियाली प्राप्त करने के लिए रोलिंग करना जरूरी है. रोलिंग का काम बरसात का मौसम शुरू होने पर शुरू करें. रोलिंग में घास के तने, जो जमीन से ऊपर उठे हों, को रोलर के दबाव से मिट्टी के नजदीक पहुंचा दिया जाता है. घास की गांठों से नई जड़ें निकलती हैं जिस से घास के बीच की खाली जमीन भर जाती है और घास समान रूप से पूरे लौन को ढक लेती है.

सिंचाई : नए लगाए लौन में तब तक सिंचाई करें जब तक जड़ें मिट्टी न पकड़ लें. वैसे सालभर आमतौर पर तापमान और वातावरण की नमी के अनुसार सिंचाई करें. जब लौन अपनी जड़ें पकड़ ले तब लौन में समुचित पानी दें और उस के बाद सिंचाई के अंतराल को बढ़ा दें. दूसरी सिंचाई तभी करें जब लौन की मिट्टी में सूखने के आसार नजर आने लगें. ऐसा करने से घास की जड़ें गहराई तक जाएंगी और मजबूत बनेंगी, गहरी जड़ें लौन को वातावरण के दुष्प्रभावों  से बचाने के साथसाथ घास को बारंबार मोइंग सहन करने की ममता भी प्रदान करती हैं.

खाद व उर्वरक : लौन में हरियाली कायम रखने के लिए पोषक तत्त्वों में से नाइट्रोजन सब से जरूरी है. इस के लिए रासायनिक खादों में 15 भाग अमोनियम सल्फेट, 5 भाग सुपर फास्फेट व 2 भाग पोटैशियम सल्फेट का मिश्रण बनाएं. अब इस मिश्रण को 2.5 किलोग्राम प्रति 100 वर्ग मीटर की दर से लौन में छिड़काव विधि द्वारा वर्ष में 2 बार डालें. खाद डालने के बाद लौन की जम कर सिंचाई करें, ताकि ये रसायन मिट्टी में चले जाएं और जड़ों तक पोषक तत्त्व पहुंच जाएं.

खरपतवार उन्मूलन : लौन में खरपतवार का होना उस की सुंदरता को नष्ट करता है. अगर लौन मिश्रण को अच्छी प्रकार स्टरिलाइज किया गया हो तो यह ज्यादा परेशानी का कारण नहीं बनता. छोटे लौन में खुरपी से खरपतवार को जड़सहित निकाल फेंकें. चौड़े पत्ते वाले खरपतवार के लिए रासायनिक स्प्रे का प्रयोग किया जा सकता है.

कीट व बीमारियां : आमतौर पर लौन में कीट व बीमारियों का प्रकोप बहुत कम देखने को मिलता है. यद्यपि कोई बीमारी अगर लौन में नजर आए तो उस का सावधानी से निरीक्षण करें. कई बार खराब जल निकासी के कारण भी लौन में समस्या आती है. ऐसा होने पर जल निकासी का प्रबंध करें. फफूंद की समस्या आने पर लौन में डाइथेनन (2 लिटर पानी) व बाविस्टिन (1 ग्रा./लिटर पानी) के घोल से ड्रैचिंग करें, यानी मग में डाल कर घास पर डालें. घास में रस्ट की समस्या आने पर प्रोपिकोनाजोल का स्प्रे करें.

जड़ों को छेदने वाले ग्रब्ज या कीटों की रोकथाम के लिए क्लोरपाइरेफास (2 मिली./लिटर पानी) की डै्रचिंग करें. वैसे तो आंगन में एक हराभरा लौन सब की नजर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है लेकिन अगर इस के साथसाथ छोटे अलंकृत पौधे या वस्तुएं सजाएं तो इस का आकर्षण कई गुना हो जाता है. यदि लौन से हो कर घर का प्रवेशद्वार पड़ता है तो लौन में रास्ता बनाएं ताकि लौन पर लोग न चलें. बाजार में अलगअलग प्रकार के पेवर उपलब्ध हैं जिन का बखूबी प्रयोग किया जा सकता है. गोल पत्थर के पेवर आप के लौन को जापानी आभास देंगे. लौन के एक कोने में छोटी रौकरी, फौआरा या झरना इत्यादि आप के लैंडस्केप को जीवंत कर देगा. किसी कोने में रखा बर्ड बाथ व पेड़ों की शाखों पर बर्ड नैस्ट आप के प्रकृति प्रेम को उजागर करेगा.

व्यंजनों के देश में विदेशी जायके की दीवानगी

भारत को व्यंजनों का महादेश कहा जाता है. अपने देश के बारे में मशहूर है कि यहां कोसकोस में पानी और 4 कोस में वाणी बदल जाती है. और जहां तक बात व्यंजनों या पकवानों की है तो इन के बारे में तो मशहूर ही नहीं, बल्कि सर्वविदित है कि ये तो हर घर में अलग मिलते हैं. एक ही तरह की चीज से हमारे यहां हर घर में दूसरे घर से भिन्न व्यंजन बनते हैं. इस से हमारे यहां खानपान की समृद्धि और व्यंजनों की विविधता को जाना जा सकता है. कुछ साल पहले डिस्कवरी चैनल ने भारतीय खानपान को ले कर डौक्यूमैंटरी की एक शृंखला प्रसारित की थी, जिस में बताया गया था कि दुनिया में कुल मौजूद 82 हजार व्यंजनोें में से 77 हजार व्यंजन अकेले भारत जैसे महादेश के हैं. शेष में 2 हजार से ज्यादा व्यंजन अकेले चीन के और इस के बाद बची संख्या में पूरी दुनिया के व्यंजन शामिल हैं. इन आंकड़ों से भी खानपान को ले कर हमारी समृद्धि का पता चलता है.

लेकिन यह कैसी विडंबना है कि जो देश खानपान की विविधता, स्वाद की मौलिकता और प्रयोगों के अथाह सागर का मालिक हो उसी देश में इन दिनों विदेशी व्यंजन छाते जा रहे हैं. इन दिनों हिंदुस्तान में चाइनीज, थाई, इटैलियन, मैक्सिकन, स्पेनी व्यंजनों का जलवा हर तरफ दिखता है. बड़े शहर हों या छोटे, चाउमिन, चिली पोटैटो, मंचूरियन, पिज्जा, बर्गर, फ्रैंचफ्राई, पास्ता जैसे तमाम तरह के व्यंजन युवाओं की जबान का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं. सवाल है क्या भूमंडलीकरण के दौर में हिंदुस्तानी व्यंजन विदेशी व्यंजनों के सामने टिक नहीं पा रहे हैं?

भारतीय बाजार में सेंध

90 के दशक में जब भूमंडलीकरण के प्रभावों को ले कर हमारे यहां बहस शुरू हुई थी तो इस के ज्यादातर समर्थकों को भी यह उम्मीद नहीं थी कि कुछ ही सालों बाद हमारे खानपान में इस कदर जबरदस्त बदलाव आ जाएगा. भूमंडलीकरण के धुर समर्थक भी यह बात जोर दे कर कह रहे थे कि हिंदुस्तानी अपना खानपान, अपने रिश्ते और अपने रीतिरिवाज कभी नहीं छोड़ते. इसलिए देश में पिज्जा, बर्गर, हौट डौग और चाउमिन की संस्कृति से कम से कम देशी रेस्तरां को तो कोई फिकर नहीं है. लेकिन पिछले 2 दशकों के व्यावहारिक अनुभव ने इस धारणा को बदल दिया है. 1996 में देश में पहला विदेशी फास्टफूड आउटलेट, डौमिनोज पिज्जा राजधानी दिल्ली में खुला. बाद में इसी वर्ष पिज्जा कौर्नर, पिज्जा हट और फिर साल के अंत आतेआते मैकडोनाल्ड्स ने खानपान के भारतीय बाजार में सेंध लगाई. लेकिन देशी रेस्तरां के मालिक तब तक कतई चिंतित नहीं थे. दरअसल, उन्हें यह आशंका नहीं थी कि खानपान में बेहद पारंपरिक रुचि वाले भारतीय इन विदेशी रेस्तराओं का इस कदर दिल खोल कर स्वागत करेंगे.

बढ़ती जा रही दीवानगी

लेकिन 2 दशक बाद आज भारत में विदेशी फूड चेन्स की तसवीर बिलकुल बदली हुई है. आज देश के बड़े महानगरों में ही नहीं, 300 से ज्यादा छोटे शहरों में भी विदेशी फास्ट फूड के आउटलेट्स देखे जा सकते हैं. इन की संख्या में बहुत तेजी से इजाफा हो रहा है. इन में जा कर खाने की हिंदुस्तानी लोगों की दीवानगी का आलम यह है कि कुछ साल पहले जब कानपुर में पिज्जा कौर्नर का आउटलेट खुला तो वहां इतने ज्यादा ग्राहक पहुंचे कि उन की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को बुलाना पड़ा. आज हर दिन करीब 2 अरब रुपए के विदेशी व्यंजनों का कारोबार हो रहा है. हालांकि इस में देशी रेस्तरां और रेहडि़यों तक में विदेशी पकवानों की खरीदफरोख्त का आंकड़ा भी शामिल है. दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु, चंडीगढ़, इंदौर, भोपाल, मद्रास, हैदराबाद, पुणे, जयपुर, लखनऊ, पटना, कोलकाता, गुवाहाटी, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, विशाखापट्टनम, अमृतसर, शिमला, कोचीन, पणजी, रायपुर, देहरादून और रांची आदि देश का कोई ऐसा बड़ा या मझोला शहर  नहीं है जहां आज की तारीख में मैकडोनाल्ड्स, पिज्जा कौर्नर, पिज्जा हट, डौमिनोज पिज्जा और केएफसी के आउटलेट्स न हों. बड़े और पहले दर्जे के शहरों को छोडि़ए आज मथुरा, अजमेर और नवसारी जैसे छोटे शहरों में भी ये विदेशी रेस्तरां धड़ल्ले से दिख रहे हैं.

भारतीय ग्रुप की योजना

1996 में जब मैकडोनाल्ड्स कौरपोरेशन यूएसए ने हिंदुस्तान में अपनी 2 मास्टर फ्रैंचाइजियों- हार्डकैसल रैस्टोरैंट्स प्राइवेट लिमिटेड और कनाट प्लाजा रैस्टोरैंट्स प्राइवेट लिमिटेड के जरीए हिंदुस्तान में कदम रखा था तो भारतीय रैस्टोरैंट्स के मालिकों का यही खयाल था कि मैकडोनाल्ड्स कुछ महीने उछलकूद मचा कर वापस चला जाएगा, क्योंकि हिंदुस्तानियों को अपने पारंपरिक और थोड़े जटिल किस्म के व्यंजनों से बेहद लगाव है, जिन्हें परोस पाना विदेशी रैस्टोरैंट्स के लिए कभी संभव न होगा. हालांकि मैकडोनाल्ड्स की फूड चेन्स दुनिया के सब से ज्यादा देशों में सफलतापूर्वक चल रही थीं, लेकिन भारतीय रैस्टोरैंट्स के मालिक यह मानने को कतई तैयार नहीं थे कि उस की विस्तृत फूड चेन्स सूची का हिंदुस्तान भी कभी सफल हिस्सा बन पाएगा. भारतीय रेस्तरां मालिक गलत साबित हुए. इस में दोराय नहीं कि आज भी हिंदुस्तानी अपने भारतीय व्यंजनों से बेहद लगाव रखते हैं, लेकिन यह भी सच है कि भारतीय बेहद प्रयोगशील भी हैं और विदेशी जायके से उन्हें परहेज नहीं. नतीजतन, जिस मैकडोनाल्ड्स के बारे में भारतीय रेस्तराओं के मालिक सोचते थे कि साल 6 महीनों में वह हताशनिराश हो कर लौट जाएगा, वह गलत साबित हुआ था. आज पूरे भारत में मैकडोनाल्ड्स के 220 से भी ज्यादा आउटलेट्स हैं जिन में 120 से ऊपर केवल उत्तर व पूर्वी भारत में जबकि 48 दक्षिण व करीब 60 पश्चिम भारत में चल रहे हैं. अगले कुछ सालों में इन की संख्या बढ़ कर 500 के पार पहुंच जाएगी. जबकि कोई भी देशी रेस्तरां अखिल भारतीय नहीं है. अखिल भारतीय होना तो दूर की बात है देश में कोई भी फूड चेन ऐसी नहीं है जिस की 5 राज्यों में एकसाथ मौजूदगी हो. हालांकि मैकडोनाल्ड्स और दूसरी विदेशी फूड चेन्स से सबक सीख कर अब निरुलाज और हलदीराम, सागर रत्ना जैसे भारतीय ग्रुप अपने विस्तार की योजना बना रहे हैं, लेकिन अभी भी इस योजना में कश्मीर से कन्याकुमारी तक का हिंदुस्तान शामिल नहीं है.

सफलता की कहानी

मैकडोनाल्ड्स की सफलता की कहानी अकेली नहीं है. पिज्जा कौर्नर भी उसी साल आया था जिस साल मैकडोनाल्ड्स हिंदुस्तान आया था. उस ने भी अपना तेजी से विस्तार किया है. आज पिज्जा कौर्नर देश के 50 से ज्यादा छोटेबड़े शहरों में अपने 150 से ज्यादा आउटलेट्स के साथ मौजूद है. इस का अगले 5 सालों के भीतर देश के 500 से ज्यादा शहरों तक पहुंचने का लक्ष्य है. डौमिनोज पिज्जा और पिज्जा हट ने भी देश के बड़े शहरों में अपने को तेजी से विस्तारित किया है. जबकि देश की सब से पुरानी और सफल फूड चेन्स में से एक निरुलाज के सिर्फ उत्तर भारत में ही अभी 86 के आसपास आउटलेट्स हैं. हालांकि 1934 में दिल्ली के कनाट प्लेस इलाके से शुरू हुई निरुलाज की फूड चेन्स आने वाले दिनों में तेजी से बढ़ती हुई दिखेंगी लेकिन अब ये पूरी तरह से हिंदुस्तानी फूड चेन्स नहीं होंगी, क्योंकि कुछ साल पहले इसे मलयेशिया की नेविस कैपिटल व एमडी समीर कुकरेजा ने अधिग्रहीत कर लिया है.

पीछे छूटते भारतीय रेस्तरां

सवाल है, आखिर हिंदुस्तान में इस कदर तेजी से विदेशी रैस्टोरैंट्स क्यों छा गए हैं? जो हिंदुस्तानी खानपान के मामले में बेहद पारंपरिक समझा जाता था, उस ने आखिर इन विदेशी रेस्तराओं को हाथोंहाथ क्यों लिया? इस की कई वजहें हैं. मसलन, एक बड़ी वजह तो यही है कि हिंदुस्तानी खानपान के शौकीन हैं. आज भी जबकि पिछले 2 दशकों में भारतीयों के एक वर्ग की औसत सालाना आय बढ़ कर 2-3 गुनी हो गई है तब भी आम भारतीय खानेपीने की चीजों में कमाए गए एक रुपए का 57 पैसा खर्च कर देता है. नैशनल काउंसिल फौर अप्लाइड इकौनोमिक रिसर्च तथा फिक्की द्वारा कुछ साल पहले किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 1 रुपए में से खानपान के लिए खर्च किए जाने वाले 57 पैसोें में 6 पैसे घर के बाहर होटल व रेस्तराओं में जा कर खर्च होते थे, जबकि 10 साल पहले होटल व रेस्तराओं में जा कर खर्च करने के लिए औसत हिंदुस्तानी के पास 1 रुपए का 1.5 पैसा ही होता था. मतबल साफ है कि पिछले एकडेढ़ दशक में भारत में जिस तेजी से अर्थव्यवस्था बढ़ी है, उस बढ़ी हुई अर्थव्यवस्था ने भी फूड चेन्स की रौनक बढ़ाई है. आज सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रत्येक भारतीय की औसतन सालाना आय क्व2 लाख से ऊपर है. लेकिन वास्तविक आंकड़ा शायद इस से भी थोड़ा बेहतर है. यही नहीं अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2020 तक 80 फीसदी भारतीयों की सालाना आय 5 लाख से ऊपर हो जाएगी. हालांकि यह भी सच है कि देश में जहां मध्यवर्ग खुशहाल हो रहा है, वहीं पहले से ही गरीब और भी कहीं ज्यादा गरीब हो रहे हैं. बहरहाल, भारतीयों की आय बढ़ रही है और इस का मतलब यह है कि आने वाले दिनों में रेस्तराओं में भीड़ कम होने वाली नहीं, बल्कि बढ़ने ही वाली है. फिर चाहे वे देशी हों या विदेशी.

बदलाव है वजह

विदेशी रैस्टोरैंट्स के देश में छा जाने का जहां एक बड़ा कारण पिछले 2 दशकों में लगातार हुई आर्थिक वृद्धि, बढ़ता शहरीकरण और मध्यवर्ग की आय में हुआ खासा इजाफा है, वहीं विदेशी रैस्टोरैंट्स के छा जाने का दूसरा बड़ा कारण है कामकाज की इन की संस्कृति. विदेशी रैस्टोरैंट्स शुरुआत में अपने व्यंजनों की बदौलत भारतीयों को भले न आकर्षित कर सके हों, लेकिन अपनी सत्कार संस्कृति से उन्होंने शुरू से ही भारतीयों का दिल जीत लिया है. सच बात तो यह है कि 1996 में मैकडोनाल्ड्स के हिंदुस्तान आने के बाद खानपान की रेस्तरां संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है. भले रैस्टोरैंट्स के मेन्यू कार्ड्स में यह बहुत व्यापक परिवर्तन न दिख रहा हो, लेकिन इस में कोई शक नहीं कि विदेशी रैस्टोरैंट्स के आने के बाद हमारे यहां खानपान की आदत लगभग बदल गई है.

बदल गया है अंदाज

पहले आप रेस्तरां में बैठते थे और मेन्यू कार्ड उठा कर जिस चीज का और्डर देने की कोशिश करते थे, पता चलता था वही चीज मौजूद नहीं है. रैस्टोरैंट्स में कोई चीज और्डर देने के घंटों बाद वह टेबल तक पहुंचती थी. कई रेस्तरां तुरतफुरत नई सब्जियां, पुरानी सब्जियों से मिला कर बना देते थे. जहां आप खानेपीने के लिए बैठे होते थे, वहीं सिर के ऊपर लिखा होता था कृपया खाली न बैठें. वेटर और्डर पूछने आता था और इस तरह आ कर खड़ा हो जाता था जैसे उस की और्डर लेने में नहीं, बल्कि मांगी गई चीज के उपलब्ध न होने की खबर सुनाने में दिलचस्पी हो. विदेशी रैस्टोरैंट्स ने खानपान की इस संस्कृति में पूरी तरह से बदलाव ला दिया है. शानदार बैठने की जगह, साफसफाई, साफसुथरे चुस्त ही नहीं, बल्कि और्डर को कनविंस करने वाले वेटर, मेन्यू कार्ड्स में लिखी हर चीज की हर समय उपलब्धता और समय पर गुणवत्तापूर्ण डिलिवरी ने भारतीयों का जायका ही नहीं सत्कार और सुकून हासिल करने का अंदाज भी बदल दिया है.

बढ़ती लोकप्रियता

पहले आमतौर पर भारतीय रेस्तरां आसपास ही होम डिलिवरी करते थे. उस में भी समय पर डिलिवरी पहुंचने की गारंटी नहीं होती थी. कई बार तो डिलिवरी का और्डर देने वाले लोग थक कर कुछ और खा लेते थे, तब कहीं जा कर डिलिवरी पहुंचती थी. लेकिन विदेशी रैस्टोरैंट्स ने होम डिलिवरी की इस संस्कृति को बदल दिया है. आज दिल्ली के किसी भी कोने में पिज्जा हट की डिलिवरी पाई जा सकती है और उस के लिए जिस सैंट्रलाइज फोन नंबर पर ग्राहक और्डर बुक कराते हैं, वह नंबर दिल्ली के बाहर गुड़गांव से कंट्रोल  होता है. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि विदेशी रैस्टोरैंट्स होम डिलिवरी को ले कर कितने कौंशस हैं.

पहले जब सिर्फ हिंदुस्तानी रेस्तरां थे तो वे न सिर्फ होम डिलिवरी के लिए अतिरिक्त शुल्क लेते थे, बल्कि डिलिवरी बौय भी टिप की उम्मीद ले कर आता था और अगर आप ने उसे डिलिवरी चार्ज के अलावा टिप न दी तो वह बुरा सा मुंह बनाता था और धोखे से भी अगर अगली बार फिर उस डिलिवरी बौय को आप के घर आना पड़ता तो उस का व्यवहार बेहद रूखा होता. विदेशी रैस्टोरैंट्स ने इस माहौल को पूरी तरह से बदल दिया है. आज विदेशी रैस्टोरैंट्स समय पर और बिना अतिरिक्त शुल्क लिए डिलिवरी देते हैं. बड़े शहरों में मैकडोनाल्ड्स और पिज्जा कौर्नर के रिटेल आउटलेट महज खानेपीने की जगह भर नहीं रहे, बल्कि ये मीटिंग पौइंट भी बन गए हैं. खासकर युवाओं के लिए. युवा जोड़े 1-1 कप कौफी और 1-1 बर्गर के बहाने यहां घंटों बैठे रहते हैं. लेकिन इन में कहीं पर भी कृपया बेकार न बैठें का बोर्ड नहीं टंगा होता. यही वजह है कि विदेशी आउटलेट युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं. सच तो यह है कि भारतीय रैस्टोरैंट्स की भीतरी दीवारों पर लिखे जुमलों कृपया बेकार न बैठें को विदेशी रैस्टोरैंट्स ने एक अवसर की तरह भुनाया है.बड़ेबड़े शहरों में ही नहीं छोटेछोटे शहरों में भी ये विदेशी आउटलेट्स हर समय ग्राहकों से खचाखच भरे होते हैं. विदेशी रेस्तरां ने भारतीयों को संतुष्ट करने का फौर्मूला खोज लिया है. इसलिए वे नएनए प्रयोग बेहिचक कर रहे हैं और 74 हजार से 80 हजार करोड़ रुपए के सालाना खानपान के कारोबार के एक बड़े हिस्से पर कब्जा जमा चुके हैं. अगर देशी रैस्टोरैंट्स की अभी भी आंखें नहीं खुलीं तो पारंपरिक फूड के ग्राहक भी उन से किनारा कर लेंगे. 

झगड़ें नहीं तर्क की भाषा इस्तेमाल करें

‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के बूढ़े पिता के बेटे का बालकनी से लटक कर अपनी बात मनवाने के स्टाइल में 4 गुंडों ने 43 माले की एक बिल्डिंग इंपीरियल हाइट से डौन को पैसा वसूलने के लिए लटका दिया. हार कर पीडि़त ने पैसा देना मंजूर कर लिया पर उस ने हिम्मत दिखा कर पुलिस में शिकायत कर दी और अब चारों जेल में हैं. पैसे वसूलने के ये घिनौने तरीके नए नहीं हैं. इन से कहीं ज्यादा क्रूर तरीके अपनाए जाते हैं. गनीमत है कि देश में अभी भी खासा कानून का राज है और पुलिस पूरी तरह बेबस नहीं है. हां, पीडि़त को भी खासा खर्च करना पड़ता है और वर्षों परेशान रहना पड़ता है.

ये मामले आजकल आम गृहिणियों को भी झेलने पड़ रहे हैं. घरों के नौकरनौकरानियां, छोटीमोटी सेवा देने वाले पेंटर, बढ़ई, माली, आदि काम करने के दौरान या खराब काम करने पर कटौती करने पर धमकियों पर उतर आते हैं और उन से निबटना बड़ा मुश्किल काम हो जाता है. घरेलू नौकरानियां तो अकसर मालकिन के पति पर सैक्सुअल हैरेसमैंट का झूठा मुकदमा दायर कर देती हैं. कानूनों की भरमार ऐसी है कि हर छोटी चीज का विवाद बनाया जा सकता है और यदि कोई थोड़ा हिम्मत वाला हो तो जराजरा से मामले में यारोंदोस्तों को बुला कर धमकियां दे सकता है या पुलिस बुलवा सकता है.

वैसे तो बुद्धिमानी इसी में है कि लेनदेन में जितना हो पहले ही बात साफ कर ली जाए और कुछ खो देने को तैयार रहें. यह कमजोरी नहीं, बल्कि शांति खरीदना है. अपनी जिद पर अड़ कर नौकरानी के  200 काट लेना या फ्रिज बेचने वाले के यहां सिर पटकने से अच्छा है कि जो जैसा है उसे सह लिया जाए और आगे चल दिया जाए.

पर इस का अर्थ यह नहीं कि तर्क, अधिकार, स्पष्टता, नैतिकता को नाली में बहा दिया जाए. जहां जरूरत हो वहां हर तरह से अड़ना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि दूसरे पक्ष को समझाया जा सके कि इस की सेवा में कमी है, इसलिए पैसे काटे जा रहे हैं. जबरदस्ती नहीं. मगर दिक्कत यह है कि हमारे यहां तर्क की भाषा का इस्तेमाल न तो पतिपत्नी में होता है, न रिश्तेदारों में और न ही सामान्य बाहरी लोगों से व्यवहार में.

आम नौकर, सब्जी वाला, प्लंबर या दुकानदार भी वास्तव में झगड़ा नहीं चाहता. वह भी काम कर के अपने रास्ते चले जाना चाहता है. झगड़े में उस का भी नुकसान होता है. समय लगता है, वह काम पर नहीं जा पाता. तकादों के लिए आनेजाने पर खर्च करता है. वह भी चाहता है कि उस के भविष्य पर आंच न आए. लोग उसे झगड़ालू न समझें. सभ्य समाज का तकाजा है कि बिना हल्ला किए विवाद हल करें पर अपना हक हरगिज न खोएं.

शांति नहीं पीड़ा देता है अध्यात्म

जिंदगी जीना क्या होता है? जीने का अर्थ क्या होता है? क्या हम सचमुच अपनी इच्छानुसार जीते हैं या जिंदगी ही हमें अपनी इच्छानुसार जीने के लिए बाध्य करती है? कई बार सवाल बहुत ही जटिल होते हैं और इस की वजह से हम उन के जवाब भी बहुत ही कठिन और पेचीदा कर देते हैं. लेकिन सवाल चाहे कितने भी कठिन हों उन के जवाबों को आसान करना हमारे ही हाथ में होता है. कई लोगों को यह बात ध्यान में ही नहीं आती या यों कहें कि कठिन सवालों के बीच छिपी आसानी किसी की समझ नहीं आती और फिर शुरू होती है खुद की पहचान ढूंढ़ने वाली और कभी खत्म न होने वाली खोज.

हम सभी की जीने की एक अलग ही चाह होती है, अलग कल्पना और महत्त्वाकांक्षा होती है. जब किसी चीज को पाने की चाह होती है तब जीना एक संघर्ष बन जाता है और फिर इस संघर्ष में 2 ही विकल्प बचते हैं- जीतना या फिर खत्म हो जाना. कई बार तो अपनी विवेकबुद्धि परे रख कर किसी भी राह को अपनाते हुए सफलता के पीछे दौड़ लगाई जाती है और कई बार ऐसा रास्ता चुनने की हमें कीमत भी चुकानी पड़ती है. इस सब में सब से ज्यादा ठेस लगती है हमारे मन को और यहीं से शुरू होती है मन:शांति की खोज.

हमारी मन:शांति क्यों कहीं खो जाती है? ऐसा क्या होता है कि जिस चीज को पाने के लिए इतनी जिद की जाती है, उसे अचानक छोड़ देने की हमारी इच्छा होती है? ऐसा क्यों होता है कि सभी चीजों का त्याग कर हमारे कदम यकायक अध्यात्म की राह में चलने लगते हैं?

सोफिया का मामला

हाल ही का एक उदाहरण लें. ब्रिटेन की ग्लैमरस हीरोइन और मौडल सोफिया हयात भी अचानक अध्यात्म की राह पर चल पड़ी हैं. उन्होंने नन बन कर संन्यासी जीवन जीने का फैसला किया है.

ब्रिटेन से ज्यादा भारत में मशहूर सोफिया ने ‘बिग बौस 7’ में अपनी नग्न अदाओं से सभी को आकर्षित किया था. एक समय सोफिया का न्यूड फोटोशूट भी बहुत मशहूर हुआ था. क्रिकेटर रोहित शर्मा के साथ भी उन का नाम जोड़ा गया था. बिकिनी पहन कर रंगों से खेलते हुए उन की तसवीरों ने भी काफी धूम मचाई थी.

पिछले साल जब पोर्न साइट्स पर रोक लगाने का मामला काफी चर्चा में था, तब सोफिया ने अपनी नग्न तसवीरें ट्विटर में डाल कर खलबली मचा दी थी. सितंबर, 2013 में सोफिया पूरी दुनिया की 81वीं मादक ललना थीं.

मुसलमान परिवार में जन्मी सोफिया बचपन से ही अपने पिता की मार खाते हुए बड़ी हुई हैं. बचपन में जब वे स्कूल से घर वापस आती थीं तब उन के अब्बा उन्हें उन की मां और उन की छोटी बहन को बैल्ट से लहूलुहान होने तक पीटते रहते थे. इस सब से परेशान हो कर सोफिया ने क्रिश्चियन धर्म स्वीकार किया और फिर अपनी मादकता, खुला व्यवहार, बिंदास बातें, लैंगिक स्वतंत्रता आदि बातों से अपनी अलग पहचान बनाई.

मगर फिर अचानक सब कुछ बदल गया. यह बिंदास और बोल्ड जिंदगी उन्हें विरक्त लगने लगी और उन्होंने नन बनने का फैसला कर लिया.

सोफिया बताती हैं कि उन्होंने पूरे मन से अपनी जिंदगी जी ली है. कई दोस्तों के साथ लैंगिक सुख का भी अनुभव कर लिया है. कई बार उन के साथ धोखा भी हुआ. आज सोफिया को मौडल सोफिया के बजाय मदर सोफिया पुकारना ज्यादा खुशी देता है.

अध्यात्म का रास्ता चुनने के बावजूद सोफिया आज भी अपनी शोहरत का मोह नहीं छोड़ पा रही हैं. आज भी वे अपने संन्यासी जीवन की हर खबर ट्विटर, फेसबुक और अन्य प्रसार माध्यमों द्वारा दुनिया तक पहुंचा रही हैं.

हाल ही में उन्होंने एक प्रैस कौन्फ्रैंसिंग का आयोजन कर अपनी कथा और व्यथा पत्रकारों के सामने रखी. सोफिया बताती हैं कि नन होने का निर्णय यों ही नहीं लिया गया. अपने प्रेमप्रकरण में उन के साथ कई बार धोखा हुआ है. इस सब से छुटकारा पाने के लिए ही उन्होंने यह फैसला किया है. अब लैंगिक संबंध, दोस्त, शादी, बच्चे इस सब के लिए उन के मन में कोई उत्साह बाकी नहीं रहा है.

भारत लौटने से पहले ही उन्होंने अपने अंदर के झूठे सत्य का चोला उतार फेंका था. सिलिकौन के कृत्रिम वक्ष भी उन्होंने निकाल दिए और सभी पत्रकारों को उन्हें दिखाते हुए कहा कि अब इन का उन के लिए कोई उपयोग नहीं है. अब किसी को भी उन के उन्नत वक्ष का आकर्षण नहीं रहेगा.

मामला अकेली का नहीं

80 के दशक के मशहूर अभिनेता विनोद खन्ना ने भी इस प्रकार अध्यात्मकता की राह पकड़ी थी. उस समय वे काफी मशहूर थे. उन की तुलना अमिताभ बच्चन से होती थी, लेकिन अपनी शोहरत के ऊंचे शिखर पर पहुंचने के बाद उन्होंने ओशो का अध्यात्मिक मार्ग स्वीकारा.

1980 में विनोद खन्ना अमेरिका के ओशो आश्रम में स्वामी विनोद भारती के नाम से रहने लगे थे. वहां के आश्रम में वे सभी प्रकार के काम करते थे. माली का काम, आश्रम में जूठे बरतन धोना आदि. लेकिन 1980 में वह सब छोड़ कर वापस आ गए और उन्होंने दूसरी शादी कर ली.

1994 की मिस इंडिया बरखा मदान भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर के भिक्षुक बनी थीं.

1990 की ‘आशिकी’ फिल्म की नायिका अनु अग्रवाल भी अचानक अध्यात्म की राह पर चल पड़ी थीं. कई राजकीय लोग, क्रिकेटर्स सीधेसीधे विरक्त जीवन भले ही न जीते हों, पर उन का अध्यात्मिकता का खिंचाव किसी से छिपा नहीं है.

सचिन तेंदुलकर की सत्य साईंबाबा की श्रद्धा भी किसी से छिपी नहीं है. दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव भी सत्य साईंबाबा के परम भक्त थे.

महानायक अमिताभ बच्चन के हाथों की विविध ग्रहों की अंगूठियां भी उन की आध्यात्मिक मानसिकता का परिचय कराती हैं.

ये सारे चरित्र अपनेअपने क्षेत्र में काफी सफल रहे हैं. सोफिया हयात की तुलना इन में से किसी के साथ नहीं हो सकती. सोफिया हयात का अध्यात्मिकता की राह पर जाने का कारण साफ है कि उन में अच्छेबुरे की पहचान की समझ नहीं.

परिपक्वता पाने के लिए बुद्धि और समझ का मिलाप होना जरूरी है. अच्छेबुरे का अंतर समझने की समझ होनी चाहिए. इन सभी बातों का अभाव होने पर ही इस तरह के रास्ते अपनाए जाते हैं. ऐसे भगवान के नाम पर दुकानें खोले बैठे लोगों का अच्छाखासा फायदा होता है. नन, साध्वी, संन्यास आदि मार्ग समाज पर लादने की क्या जरूरत है?

संतुलित विचार, सच्ची राह और अपने पसंदीदा क्षेत्र में कठोर मेहनत कर के भी हम सफलता पा सकते हैं. किसी के धोखा देने की वजह से संन्यास ले कर आत्मक्लेश का रास्ता अपनाना कोई उपाय नहीं है और होना भी नहीं चाहिए. नन, साध्वी आदि किसी न किसी धर्म द्वारा तैयार की गई संकल्पना है, और जो मनुष्य द्वारा ही तैयार की गई है. इस में आत्मउन्नति की राह कहीं पर भी दिखाई नहीं देती.

अप्राकृतिक तरीके से जीना, अपनी सारी इच्छाआकांक्षाएं मार कर अपनी जिंदगी और भी भयानक बनाना, जीवन की सारी खुशियां खत्म करना ही अगर धर्म है तो ऐसे धर्म या उस की संकल्पना के रास्ते न जाना ही बेहतर होगा. खुद को विद्रूप बना कर, अच्छा खानापीना छोड़ देना यदि अध्यात्म के मार्ग पर चलना है तो ऐसे अध्यात्म से दूर रहना ही उचित है. इस से कुछ हासिल नहीं होगा. ऐसे में मन:शांति के बजाय मानसिक पीड़ा ही ज्यादा हो सकती है.

कुदरत ने हमें बहुत ही सुंदर जीवन दिया है. उस का खुल कर आनंद लें. अच्छा, योग्य, संतुलित आहार, भरपूर व्यायाम, भरपूर काम और खुद को भी खुशी देने वाली बातें करें. भरपूर पठन करें. इस से विचारों में परिपक्वता आती है. सुंदर रहें, सुंदर जीएं, सुंदर दिखें, जरूरतमंदों की मदद करें. आप खुद ही पाएंगे कि आप को मन:शांति की खोज में कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. वह खुद आप को ढूंढ़ते हुए आप के पास आएगी.

खूबसूरती बढ़ाते सनग्लास, बस खरीदने से पहले इन बातों पर गौर करें

क्या आप का चेहरा छोटा, लंबा, वर्गाकार या फिर सिकुड़ा हुआ है? क्या सनग्लास खरीदते समय इस बारे में सोचते हैं? ऐसा सोचने की जरूरत क्यों पड़ती है?

दरअसल, सूर्य की हानिकारक किरणों से आंखों की सुरक्षा करने में व खूबसूरती बढ़ाने में यहां तक कि आंखों के इर्दगिर्द की बारीक झुर्रियों को छिपाने में सनग्लास महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. कुछ लोग सनग्लास का इस्तेमाल फैशन की दौड़ में आगे रहने के लिए करते हैं तो कुछ अपनी आंखों की सुरक्षा तथा सुकून के लिए.

जिन लोगों की आंखों की रोशनी कमजोर होती है वे फोटोक्रोमिक लैंस वाले सनग्लास चुनते हैं ताकि उन की नजर भी साफ रह सके और आंखों को सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से भी सुरक्षा हो सके. वहीं साइक्लिंग और राफ्टिंग के प्रेमी अपनी जरूरत के अनुरूप सनग्लास चुनते हैं.

आप चाहें अपने लिए कोई भी फ्रेम चुनें, लेकिन आराम से समझौता कभी न करें. उपयुक्त फ्रेम के चुनाव को ध्यान में रखते हुए आप को अपने चेहरे के आकार के अनुरूप फ्रेम का चयन करना चाहिए यानी उसी आकार का फ्रेम चुनें, जो आप के चेहरे पर फिट बैठता हो.

चेहरे के अनुरूप

अभिनेत्री रानी मुखर्जी जैसे गोल चेहरे के लिए आयताकार फ्रेम सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. गोल चेहरे की लंबाई और चौड़ाई समान होती है और आयताकार फ्रेम उन के चेहरे को लंबा दिखाता है. यह फ्रेम चेहरे पर सही कंट्रास्ट बनाते हुए चेहरे को छरहरा लुक देता है. गोलाकार चेहरे वालों को कोणीय फ्रेम चुनना चाहिए ताकि चेहरे की बनावट थोड़ा अलग नजर आए.

आयताकार चेहरे के लिए ऐविएटर फ्रेम सर्वश्रेष्ठ है. चूंकि ऐसे चेहरे लंबे होते हैं इसलिए ऐविएटर फ्रेम लंबे चेहरे को छोटा दर्शाता है. इस आकार के चेहरे वालों को आयताकार सनग्लास पहनने से बचना चाहिए, क्योंकि उस से उन का चेहरा और लंबा नजर आता है.

वर्गाकार चेहरे वालों को अंडाकार फ्रेम वाला सनग्लास पहनना चाहिए, जो संकीर्ण हो. यह कंट्रास्ट लुक प्रदान करेगा. इस से आप के चेहरे का आकार सौम्य दिखेगा.

जिन लोगों के चेहरे का आकार दिल के आकार जैसा होता है यानी जिन का ललाट चौड़ा, लेकिन जबड़ों का आकार पतला होता है उन पर संकीर्ण फ्रेम सब से ज्यादा अच्छा लगता है. ऐसे लोगों को ऐविएटर या शेड्स फ्रेम के इस्तेमाल से बचना चाहिए, क्योंकि उस से उन के चेहरे का आकार और स्पष्ट दिखेगा. सब से अच्छा विकल्प हलके रंग के रिमलेस फ्रेम का इस्तेमाल होगा, क्योंकि उस से उस व्यक्ति का चेहरा पतला होने का भ्रम रहेगा. दिल के आकार के चेहरे वाले व्यक्ति मौउ जिम की क्लासिक लाइन शृंखला के केमाना सनग्लास लगाने पर खूबसूरत दिखेंगे या फिर उन्हें शील्ड्स शृंखला के मौउ जिम कुला सनग्लास का इस्तेमाल करना चाहिए.

अंडाकार चेहरे वालों के लिए यह समस्या नहीं होती कि किस प्रकार का फ्रेम चुनें किस प्रकार का नहीं. उन के पास बहुत सारे विकल्प होते हैं, अंडाकार चेहरे वाले व्यक्ति के लिए शेड्स चुनना भी सब से आसान होता है. अंडाकार चेहरे पर हर तरह का सनग्लास बिलकुल सटीक दिखता है, क्योंकि इस आकार का चेहरा संतुलित और समानुपात में ढला होता है. हालांकि मौउ जिम होकू, मौउ जिम हवाई तथा मौउ जिम कपालुआ इस आकार के चेहरे वाले व्यक्तियों के लिए पहली पसंद बन सकते हैं.

प्रैस्क्रिप्शन सनग्लास

जो लोग दृष्टिदोष में सुधार चाहते हैं, अब उन्हें टैक्नोलौजी की सुविधा से युक्त सनग्लास से वंचित रहने की जरूरत नहीं.

चिलचिलाती धूप में आप को भी कभी न कभी मौजमस्ती या कोई काम करने का मौका मिलता होगा, तब आप ऐसे सनग्लास की सख्त आवश्यकता महसूस करते होंगे, जो गरमी से झुलसती आप की आंखों को ठंडक प्रदान करे.

आंखों की रोशनी दुरुस्त करने के लिए चश्मा लगाने वाले बहुत सारे लोग सनग्लास के फायदे और आराम से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि वे अपनी नजर के चश्मे की जगह सुरक्षा के लिए सनग्लास का इस्तेमाल नहीं कर सकते. जिन लोगों को नजर की परेशानी होती है, उन के लिए चश्मे के बगैर गाड़ी चलाना खतरनाक हो सकता है, यहां तक कि नजर ठीक रखने वाली ऐनक के बगैर सड़क पर टहलना भी उन के लिए खतरनाक रहता है. तो क्या नजर के चश्मे पहनने वाले लोग चिलचिलाती धूप से बचने और फैशन स्टेटमैंट के लिए सनग्लास का इस्तेमाल कर ही नहीं सकते? नहीं, कतई नहीं. आजकल कमजोर नजर वाले ऐसे प्रैस्क्रिप्शन सनग्लास आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, जिन में नजर सुधारने और धूप से आंखों को बचाने की दोनों क्षमताएं होती हैं.

नजर का चश्मा पहनने वाले कई लोग अकसर इस दोहरे मकसद के लिए परंपरागत लैंस का इस्तेमाल करते हैं और अलगअलग मौसम के अनुसार चश्मा बदलने की असुविधा से बच जाते हैं. लेकिन परंपरागत लैंस कभीकभी ऐडजस्ट नहीं हो पाते. प्रैस्क्रिप्शन सनग्लास विशेष टैक्नोलौजी समर्थित सनग्लास होता है, जिस में व्यक्ति की नजर सुधारने के लिए पावर लैंस भी होता है.

पहले जहां सनग्लासेज को ज्यादातर लोग फैशन ऐक्सैसरीज मानते थे, वहीं अब आंखों की सेहत की सुरक्षा के लिए भी ऐसे सनग्लासेज पहनने का चलन बढ़ने लगा है, जो सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से हमारी आंखों को सुरक्षा देते हैं.

फिल्म रिव्यू : हिचकी

टौरेट सिंड्रोम से पीड़ित रहे अमरीकन मोटीवेशनल प्रवक्ता और शिक्षक ब्रैड कोहेन तमाम मुसीबतों का सामना करते हुए सफल शिक्षक बने थे. फिर उन्होंने अपनी कहानी पर एक किताब भी लिखी, जिस पर अमरीका में 2008 में एक फिल्म ‘‘फ्रंट आफ द क्लास” बनी थी, उसी के अधिकार लेकर ‘यशराज फिल्मस’ ने फिल्म ‘हिचकी’ का निर्माण किया है. मगर यह फिल्म रानी मुखर्जी के अभिनय को नजरंदाज करने पर शून्य हो जाती है. अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि रानी मुखर्जी महज अपने अभिनय के बल पर इस फिल्म को बाक्स आफिस पर कितनी सफलता दिला पाएंगी?

फिल्म ‘‘हिचकी’’ की कहानी टौरेट सिंड्रोम की बीमारी से पीड़ित शिक्षक नैना माथुर (रानी मुखर्जी) के इर्दगिर्द घूमती है. इस बीमारी की वजह से उन्हें बार बार हिचकी आती है. इसके चलते बचपन में उन्हें 12 स्कूल बदलने पड़े और अब जब वह शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहती हैं, तो उसे 18 स्कूलों ने नौकरी देने से इंकार कर दिया. जबकि नैना माथुर के पास कई डिग्रियां हैं. पर वह हार नही मानती. जबकि नैना माथुर सभी को टौरेट सिंड्रोम के बारे में विस्तार से बताती भी हैं. अंततः पांच साल के संघर्ष के बाद नैना माथुर को एक कैथौलिक स्कूल में नौकरी मिल जाती है. इस स्कूल के संस्थापक को भी बोलने की समस्या थी. इस स्कूल में शिक्षा के अधिकार के तहत भर्ती गरीब बच्चों की कक्षा नौ एफ को भौतिक शास्त्र पढ़ाने का अवसर नैना माथुर को मिलता है. नैना माथुर इन बच्चों को आम प्रचलित पद्धति की बजाय अनोखे तरीके से पढ़ाती हैं. इस कक्षा के बच्चे झोपड़पट्टी के हैं, तो स्वाभाविक तौर पर वह अपनी शिक्षक को परेशान भी करते हैं और नैना, आतिश (हर्ष मयार) सहित 14 विद्रोही व शरारती बच्चों से निपटती भी हैं.

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नकल के लिए अक्ल की जरुरत होती है. पर फिल्म ‘हिचकी’ के लेखक व निर्देशक के पास शायद यह अक्ल भी नही रही. यह फिल्म 2008 में बनी अमरीकन फिल्म ‘‘फ्रंट आफ द क्लास’’ की अति घटिया नकल है. वास्तव में फिल्म के निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा ने फिल्म को बेवजह अति नाटकीय/मेलोड्रामैटिक बनाने के चक्कर में फिल्म की ऐसी की तैसी कर दी, जिसे रानी मुखर्जी का उत्कृष्ट अभिनय भी नहीं बचा पाया. मजेदार बत यह है कि इसी विषय पर दक्षिण भारत में एक हौरर फिल्म बनी थी, जिसे हिंदी में ‘‘मोहन वदनी’ के नाम से डब किया गया. इस फिल्म की हीरोईन को भी यही बीमारी रहती है, जिसकी मौत कक्षा के अंदर होती है और उसकी आत्मा स्कूल में भटकती रहती है. यह फिल्म भी टौरेट सिंड्रोम पर जागरूकता लाने में असफल है.

लेखकीय यानी कि कथा कथन और निर्देशकीय कमजोरी के चलते फिल्म ‘‘हिचकी’’ अपने पूरे मकसद से भटक गयी. इसे अपने दमदार अभिनय की बदौलत रानी मुखर्जी भी नहीं बचा पाएंगी? फिल्मकार ने शिक्षक व विद्यार्थी के बीच ऐसा आदर्शवाद परोसा है, जो कि पूरी तरह से बनावटी लगता है, परिणामतः दर्शकों का फिल्म के मूल मकसद से ध्यान हट जाता है. यानी कि फिल्म ‘‘हिचकी’’ टौरेट सिंड्रोम जैसी बीमारी को लेकर जागरूकता नहीं पैदा कर पाती. यहां तक कि छात्र व शिक्षक के बीच का रिश्ता भी जबरन थोपा हुआ नजर आता है. इंटरवल से पहले दर्शक नैना माथुर के साथ जुड़े रहते हैं, मगर इंटरवल के बाद आने वाले उतार चढ़ाव, फिल्म में आने वाले मोड़ का आकलन दर्शक पहले ही लगा लेता है, जिसके चलते इंटरवल के बाद फिल्म दर्शकों को बोर करती है. इतना ही नहीं खलनायक के रूप में नीरव कावी जो कुछ करते हुए नजर आते हैं, वह भी अनावश्यक लगता है. फिल्म का क्लायमेक्स भी अति बनावटी है. लेखक व निर्देशक दोनों ही रूप में सिद्धार्थ पी मल्होत्रा असफल रहे हैं.

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फिल्म का गीत संगीत फिल्म के कथानक के साथ तारतम्य नही बैठाता. फिल्म के कैमरामैन बधाई के पात्र हैं.  रानी मुखर्जी ने नैना माथुर के किरदार को पूरे सम्मानजनक तरीके से परदे पर अपने अभिनय से पेश करते हुए टौरेट सिंड्रोम को जिया है. दर्शक नैना माथुर के पढ़ाने की अपरंपरागत शैली के सम्मोहन में जरुर बंधता है. दर्शक सिर्फ रानी मुखर्जी के अभिनय के लिए ही इस फिल्म को देखने जा सकता है.

एक घंटे 58 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘हिचकी’’ का निर्माण ‘यशराज फिल्मस’ ने किया है. फिल्म के लेखक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा व अंकुर चैधरी, पटकथा लेखक अंकुर चैधरी, अंबर हड़प व गणेश पंडित, संगीतकार हितेश सोनिक, कैमरामैन अविनाश वरूण व कलाकार हैं- रानी मुखर्जी, हर्ष मयार, नीरज कावी, सुप्रिया पिलगांवकर, सचिन पिलगांवकर, कुणाल शिंदे, शिवकुमार सुब्रमणियम, सुप्रिया बोस, जन्नत जुबेर रहमानी व अन्य.

डार्क सर्कल्स चेहरे की सुंदरता खराब कर रहे हैं तो आजमाएं ये उपाय

आंखें कुदरत का दिया अनमोल तोहफा हैं. इन से हम दुनिया की खूबसूरती का अवलोकन करते हैं. मगर आजकल की भागतीदौड़ती जिंदगी की थकान और बढ़ती उम्र में होने वाले बदलाव के कारण खूबसूरती को निहारने वाली इन आंखों की कशिश फीकी पड़ जाती है. अत: इन की सुंदरता को हमेशा बरकरार रखने के लिए निम्न आई ट्रीटमैंट्स अपनाएं:

एएचए क्रीम

एएचए यानी अल्फा हाइड्रौक्सी ऐसिड क्रीम जिस में फलों से निकाले गए ऐसिड होते हैं, जो त्वचा में कोलोजन तेजी से बना कर उस पर झुर्रियां पड़ने से बचाते हैं और आंखों के नीचे का कालापन दूर करने में भी मदद करते हैं. इस क्रीम के इस्तेमाल से ऐक्सफौलिएशन और नए सैल्स बनने की प्रक्रिया तेज होती है, जिस से त्वचा में नवीनीकरण दिखाई देता है. रोज रात को चेहरा साफ करने के बाद अपनी रिंग फिंगर में थोड़ी सी एएचए क्रीम ले कर आंखों के चारों तरफ गोलाई में मसाज करें. इस क्रीम के रोजाना इस्तेमाल से साइन औफ ऐजिंग कम होंगे और साथ ही त्वचा भी निखरीनिखरी नजर आएगी. बस ध्यान रखें क्रीम आंखों में न जाए.

कोलोजन सीरम

उम्र बढ़ने पर त्वचा में कोलोजन बनना कम हो जाता है जिस कारण आंखों के नीचे झुर्रियां, फाइन लाइंस आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं. ऐसे में कोलोजन सीरम का रोजाना इस्तेमाल आप की स्किन को रिपेयर कर के उसे प्रोटैक्ट व हाइड्रेट करेगा. कोलोजन सीरम कौन्सेंट्रेटिव फौर्म में होता है, इसलिए बहुत कम मात्रा में लगाया जाता है. कोलोजन सीरम का इस्तेमाल सुबह चेहरे को हलका स्क्रब करने के बाद ही करें.

बायोप्ट्रान ट्रीटमैंट

यह एक तरह की यलो लेजर है, जो दोनों आंखों पर 8-10 मिनट के लिए दी जाती है. आमतौर पर लेजर आंखों के लिए सुरक्षित नहीं होती पर यह लेजर आंखों के लिए सेफ है. इस के प्रभाव से त्वचा रिजेनरेट होती है. इस के अलावा ब्लड सर्कुलेशन बढ़ता है, जिस की वजह से आंखों के आसपास छाई पफनैस कम होती है, साथ ही पिग्मैंटेशन के कम होने से डार्क सर्कल्स भी लाइट नजर आने लगते हैं. यही नहीं इस ट्रीटमैंट से बहुत हद तक झुर्रियां भी कम हो जाती हैं.

सनग्लासेज

फैशनेबल ऐक्सैसरीज के रूप में प्रयोग किए जाने वाले गौगल्स न सिर्फ आप को स्टाइलिश दिखाते हैं, बल्कि आप की आंखों व उन के आसपास की त्वचा की भी सुरक्षा करते हैं. धूप से केवल आप की त्वचा टैंड ही नहीं होती, बल्कि आंखों के नीचे झुर्रियां भी पड़ने लगती हैं. ऐसे में स्टाइलिश गौगल्स लगाने से आप की आंखों की भी सुरक्षा होती है और आप बेहद खूबसूरत व फैशनेबल भी नजर आते हैं.

अंडर आई पीलिंग ट्रीटमैंट

डार्क सर्कल्स को कम करने के लिए यह सब से इफैक्टिव ट्रीटमैंट है. इस के अंतर्गत माइल्ड कैमिकल पीलिंग की जाती है. सब से पहले इस में आंखों के आसपास आरजी पील करते हैं. उस के 10 मिनट बाद उसे न्यूट्रालाइजर से न्यूट्रालाइज करते हैं. हर 10 दिन के अंतराल पर इस ट्रीटमैंट की 6 सिटिंग्स दी जाती हैं, जिस से डार्क सर्कल्स बेहद लाइट हो जाते हैं.

औरेंज औयल

विटामिन सी युक्त औरेंज औयल डैमेज सैल्स की रिपेयर कर के ऐजिंग प्रक्रिया को बढ़ने से रोकता है. इस के साथ ही 1/2 चम्मच बादाम का तेल और 5 बूंदें औरेंज औयल की मिक्स कर आंखों के चारों ओर हलकेहलके से गोलाई में मालिश करें. ऐसा करने से काले घेरे भी लाइट हो जाते हैं.

कोलोजन मास्क

कोलोजन मास्क त्वचा में कसाव लाता है और त्वचा को बढ़ती उम्र के निशानों से काफी हद तक बचाए रखता है. यह मास्क आप किसी भी अच्छे कौस्मैटिक क्लीनिक से लगवा सकती हैं. वैसे लेजर के साथ इस मास्क का प्रयोग करने से बेहतरीन परिणाम निकलते हैं. लेजर से त्वचा के नीचे मृत सैल्स में नई जान आती है और मास्क में 95% कोलोजन होने के कारण त्वचा को आवश्यक खुराक मिलती है. आंखों के काले घेरों और झुर्रियों को दूर करने में इस से बेहतर और कोई उपचार नहीं.

व्यायाम

आंखों पर से डेली लाइफ के स्ट्रैस को कम करने के लिए व्यायाम भी एक बेहतर उपचार है. ऐसा करने से आंखों के आसपास की मांसपेशियां मजबूत रहती हैं, साथ ही लचीलापन भी बरकरार रहता है. इस के अलावा डेली व्यायाम से आंखों की रोशनी भी बढ़ती है. आप रोजाना काम के बीच ही कुछ बातों का खयाल रख कर अपनी आंखों को स्वस्थ बना सकते हैं. जैसे गरदन को सीधा रख कर आंखों की पुतलियों को पहले 5-6 बार ऊपरनीचे और दाएंबाएं घुमाएं. इस के बाद इस क्रिया को क्लौकवाइज और ऐंटीक्लौकवाइज करें. आंखों को घुमाते वक्त बीचबीच में हथेलियों के मध्य भाग से आंखों को कुछ देर ढक कर रखें. इस से आंखों की मांसपेशियां मजबूत बनी रहेंगी.

होम मेड ट्रीटमैंट

बढ़ती उम्र की आम समस्या यानी झुर्रियां आमतौर पर त्वचा रूखी होने के कारण होती हैं. ऐसे में अपनी आंखों को घर पर पोषण देने के लिए ब्रैड क्रंब्स को कुनकुने दूध में फुलाएं. अब इस में बादाम का तेल और ऐलोवेरा ऐक्सट्रैक्ट की कुछ बूंदें मिला लें. इस मिश्रण को गौज में लपेटें और बंद आंखों पर 15 मिनट रखें. हफ्ते में कम से कम 3 बार ऐसा करने से कुछ ही दिनों में झुर्रियां कम हो जाएंगी.

बैलेंस्ड डाइट

अपनी आंखों को स्वस्थ बनाए रखने के लिए ओमेगा-3 फैटी ऐसिड, विटामिन ए, सी व ई युक्त आहार जैसे पालक, फिश, अखरोट, संतरा, बादाम आदि अपनी डाइट में जरूर शामिल करें. विटामिन ए के सेवन से आंखों की चमक व रोशनी बढ़ती है, सी से कालापन कम होता है, तो ई से आंखों को पोषण मिलता है, जो झुर्रियां दूर करने में मदद करता है. इसी तरह ओमेगा-3 फैटी ऐसिड से त्वचा की इलास्टिसिटी मैंटेन रहती है.


  • भारती तनेजा

डायरैक्टर, एल्प्स ब्यूटी क्लीनिक ऐंड ऐकैडमी

इनकम टैक्स से जुड़ी 10 बातें, जो आपको मालूम होनी चाहिये

125 करोड़ की आबादी वाले भारत में सिर्फ 2 से 3 फीसद लोग ही इनकम टैक्स (कर) भरते हैं. ऐसे में जो 2 से 3 फीसद लोग देश में करदाता है उनके लिए सिर्फ टैक्स का भुगतान करना ही काफी नहीं होता, उन्हें आयकर (इनकम टैक्स) से जुड़ी बारीक जानकारियां भी रखनी चाहिए. आपको बता दें कि चालू वित्त वर्ष के लिए आईटीआर रिटर्न दाखिल करने की डेडलाइन 31 जुलाई 2018 है. हम अपनी इस खबर में 10 ऐसी बातें बताने जा रहे हैं जो हर करदाता को मालूम होनी चाहिए.

फाइनेंशियल इयर और असेसमेंट इयर में अंतर समझें?

फाइनेंशियल इयर (वित्त वर्ष) वह होता है जिसमें आप कमाई करते हैं. यह एक अप्रैल से शुरू होकर 31 मार्च तक चलता है. असेसमेंट इयर फाइनेंशियल इयर के ठीक बाद का साल होता है. यानी अगर वित्त वर्ष 2017-18 एक अप्रैल 2017 से शुरू होकर 31 मार्च 2018 तक चलता है तो इसका असेसमेंट इयर 2018-19 होगा जो कि 1 अप्रैल 2018 से शुरू होकर 31 मार्च 2019 तक चलेगा.

इनकम टैक्स स्लैब क्या होती है?

करदाताओं (टैक्सपेयर्स) को उनकी सालाना कमाई के आधार पर अलग अलग वर्गों में बाटा गया है जिसे टैक्स स्लैब कहते हैं. बतौर करदाता आपको मालूम होना चाहिए कि आप किस टैक्स स्लैब में आते हैं और आपको अपनी कमाई पर कितना फीसद हिस्सा बतौर टैक्स देना है.

finance

सामान्य वर्ग के लिए

  • 2,50,000 तक की कमाई कोई कर नहीं (निल कैटेगरी)
  • 2,50,000 से 5,00,000 रुपए तक की कमाई 5 फीसद कर
  • 5,00,000 से 10,00,000 रुपए तक की कमाई 20 फीसद कर
  • 10,00,000 रुपए से ऊपर की कमाई पर 30 फीसद कर

सीनियर सिटीजन के लिए (60 से 80 वर्ष)

  • 3,00,000 रुपए तक कोई कर नहीं
  • 3,00,000 से 5,00,000 रुपए तक 5 फीसद कर
  • 5,00,000 से 10,00,000 रुपए तक 20 फीसद कर
  • 10,00,000 रुपए से ऊपर 30 फीसद कर

सुपर सीनियर सिटीजन (80 वर्ष के ऊपर)

  • 5,00,000 रुपए तक कोई टैक्स नहीं
  • 5,00,000 से 10,00,000 तक 20 फीसद कर
  • 10,00,000 से ऊपर 30 फीसद कर

कैसे चेक कर सकती हैं TDS कटौती?

सैलरी से हुई किसी भी टैक्स कटौती को, आप फौर्म 16 की मदद से जो कि नियोक्ता की ओर से जारी किया जाता है, जान सकती हैं. हालांकि अन्य आय पर हुई टैक्स कटौती को अगर आप जानना चाहती हैं तो इसके लिए आपको फौर्म 26AS देखना होगा. इसे आप औनलाइन माध्यम से देख सकती हैं.

पूर्व नियोक्ता की ओर से हुई कमाई को बताना न भूलें

नौकरी छोड़ने के बाद आमतौर पर कर्मचारी अपने पूर्व नियोक्ता से हुई कमाई के बारे में अपने मौजूदा नियोक्ता को जानकारी नहीं देते हैं. आमतौर पर नए नियोक्ता भी पिछली नौकरी से अर्जित आय के बारे में ध्यान नहीं देते हैं. टैक्स की कटौती तब इस अवधारणा पर की जाती है कि बाकी बचे महीनों के लिए होने वाली कमाई सिर्फ इस साल की ही आय है. लेकिन यह उस वक्त मुश्किल खड़ी कर देता है जब टैक्सपेयर्स साल के आखिर में रिटर्न फाइल करते हैं. उस वक्त दोनों नियोक्ताओं की ओर से हुई कमाई को जोड़ा जाता है और कटौती एवं कर छूट आधी रह जाती है और कर देयता की स्थिति बन जाती है.

एसेट्स का खुलासा करें

ऐसे करदाता जिनकी कमाई 50 लाख रुपए से ज्यादा की होती है. उसे उन वित्तीय संपत्तियों (चल और अचल संपत्तियों सहित) के विवरण का खुलासा करना आवश्यक होता है, जिसे उन्हें उस तिथि तक अर्जित किया हुआ होता है. ऐसा करना इस तरह के करदाताओं का कर्तव्य होता है.

सभी तरह की कमाई का जिक्र करें

आमतौर पर आधे से ज्यादा करदाता टैक्स सेविंग एफडी और अन्य एफडी से हुई कमाई का खुलासा करना भूल जाते हैं. कुछ करदाताओं को लगता है कि ये टैक्स फ्री है, यह एक मिथ है. उन्हें नहीं पता होता है कि हालांकि ये आयकर की धारा 80सी के तहत टैक्स बचाने में मददगार होते हैं. हालांकि इनसे होने वाली ब्याज योग्य आय पर टैक्स देना होता है. इसलिए बतौर करदाता अपनी इस तरह की आय का खुलासा आईटीआर में जरूर करें.

विदेशी परिसंपत्तियों और आय का खुलासा जरूर करें

कर चोरी रोकने के लिहाज से, करदाता के लिए यह जरूरी है कि वह अपने विदेशी खातों की जानकारी भी आयकर विभाग को दे, साथ ही यह भी बताए कि उस वित्त वर्ष के दौरान उसने उस पर कितना ब्याज हासिल किया है. आपकी विदेशी संपत्तियों के संबंध में कोई भी गलत जानकारी आपको मुश्किल में डाल सकती है.

अपने आईटीआर को कर सकती हैं ई-वेरिफाई

ये एक ऐसी चीज है जिसे आप चाहकर भी इग्नोर नहीं कर सकती हैं. हर साल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने के बाद आपको आईटीआर वेरिफाई करने की जरूरत होती है, क्योंकि आईटीआर को वेरिफाई न करना आईटीआर फाइल न करने के जैसा है. आईटीआर के ई-वेरिफिकेशन के दो तरीके हैं मैनुअली और इलेक्ट्रौनिक (ई-वेरिफिकेशन). इसके अलावा, नेटबैंकिंग, आधार ओटीपी इत्यादि के माध्यम से भी इलेक्ट्रौनिक रूप से वेरिफाई किया जा सकता है.

अगर जरूरत हो तो एडवांस टैक्स भरें

एडवांस टैक्स का मतलब होता है कि आपने जैसे ही कमाई की है वैसे ही आपने उस पर टैक्स का भुगतान कर दिया है. ऐसे करदाता जितनी कर देयता टीडीएस कटौती के बाद 10,000 या फिर उससे ज्यादा की होती है उन्हें एडवांस टैक्स का भुगतान करना होता है.

ओरिजनल डौक्यूमेंट की नहीं होती है जरूरत

इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने के दौरान आयकर विभाग को ओरिजनल डौक्यूमेंट दिए जाने की जरूरत नहीं होती है. वहीं आपकी ओर से ये दस्तावेज सीए को भी देना जरूरी नहीं होता है. बस जरूरत पड़ने पर आपको इन दस्तावेजों की कौपी उपलब्ध करवानी होती हैं.

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