एकतरफा निर्णय से कानून भी कठघरे में होगा

सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाहों को ले कर एक मामले में कहा है कि चाहे बाल विवाह मानव अधिकारों के खिलाफ हों और कितने ही घृणित हों, जिस संख्या में ये देश में हो रहे हैं इन का अपराधीकरण नहीं करा जाना चाहिए. यह ठीक है. देश में हर काम को अपराध घोषित करने की परंपरा सी चालू हो गई है.

पहले जियो और जीने दो का जो सिद्धांत कानून बनाने वाले दिमाग में रखते थे अब धर्मों के अनुयायी बन गए हैं कि जो भी कुछ करोगे, पाप करोगे और प्रायश्चित्त करोगे ही.

सुप्रीम कोर्ट के पास मामला गया था कि क्या सहमति से 15 व 17 वर्ष के लड़कीलड़के के यौन संबंध जायज हैं? सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, सहमति हो अथवा न हो, अपराध घोषित करा है. 15 से 18 साल की विवाहित लड़की से पति के यौन संबंध अब तक अपराध नहीं थे.

पर असल बात तो यह है कि लड़कियों के यौन संबंध 13-14 साल की उम्र से सहमति से शुरू हो जाते हैं और इस कदर होते हैं कि अगर सभी को कानूनी दायरे में लाया गया तो अदालतों में सैकड़ों लड़के अपराधी बने दिखेंगे और सैकड़ों लड़कियां पीडि़ता के रूप में गवाह. यह नकारना कि 17-18 वर्ष की लड़कियों में यौन संबंध अपवाद हैं गलत होगा.

ये संबंध गलत हैं, इस में शक नहीं है पर इन्हें सामान्य अपराधों की गिनती में डालना भी सही नहीं होगा. हमउम्र नाबालिगों के यौन संबंधों को अपराध मान लिया गया तो दोनों के ऊपर जीवन भर का धब्बा लग जाएगा. लड़के को बालगृह की यातनाओं को भुगतने के लिए भेजना होगा और उस का कैरियर चौपट हो जाएगा तो लड़की पर धब्बा लग जाएगा कि वह चालू है. उस की भी पढ़ाईलिखाई चौपट हो जाएगी.

अगर नाबालिग स्कूली यौन संबंध सहमति से हों तो बहुत सावधानी से हैंडल होने चाहिए. हमारी पुलिस और अदालतें इस तरह की नाजुक स्थिति को संभालने लायक नहीं हैं. पुलिस ऐसे मामले में मातापिताओं को लूटने में लग जाती है और अदालतें तारीख पर तारीख डालने में. दोनों की सहज प्राकृतिक क्रिया उन्हें एक अंधेरे कुएं में डाल देती है.

यह भयावह स्थिति आज दिखती नहीं है, क्योंकि अपराध होते हुए भी कोई कानून का दरवाजा नहीं खटखटाता और मामला दबा कर रखा जाता है. लड़कों को डांटडपट दिया जाता है और लड़कियों को घरों में बंद कर दिया जाता है. अगर पुलिस को भनक लगने लगे और जैसा सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि सहमति से नाबालिगों के बीच बना यौन संबंध बलात्कार है, जिस में दोषी केवल लड़का है तो हर चौथा घर लपेटे में आ जाए तो बड़ी बात नहीं.

इस तरह के संवेदनशील पर प्राकृतिक मामलों को सुप्रीम कोर्ट, दूसरी अदालतें और पुलिस खाप पंचायतों की तरह सुलझाने की कोशिश कर रही हैं कि हर मामले में बिना अगरमगर सुने अपराधी घोषित कर दिया जाए और सजा दे दी जाए. पुलिस की कैद खाप पंचायतों की सजा से भी बदतर होती है.

धर्म की दुकानदारी को गैरकानूनी करना ही होगा

वीरेंद्र देव दीक्षित जैसे बाबा कैसे लड़कियों को बहकाते हैं कि वे अपने मातापिता को भी भुला देती हैं, एक चमत्कार ही है. मध्य प्रदेश के सतना के राजेश प्रताप सिंह ने 7 साल पहले अपनी 16 वर्षीय बेटी को किस मोह में या किस अंधविश्वास में बाबा के द्वारका आश्रम में भेज दिया यह आश्चर्य है.

लोग खुले हाथ अपनी मेहनत की मोटी कमाई इन बाबाओं को देते रहते हैं जो कोई नई बात नहीं है पर बच्चों को भी आज के युग में उपहार की तरह बाकायदा स्टांप पेपर पर अनुबंध लिख कर दे दिया जाए यह गंभीर मामला है.

धर्म के नाम पर अनाचार सदियों से होता रहा है और पीडि़ताएं खुदबखुद इस अनाचार को ठीक उसी तरह नियति मान कर स्वीकार करती रही हैं जैसे वेश्याएं चकलों में जिंदगी को सहन करने लगती हैं और सैनिक गोलियों की बौछारों को. इन सब मामलों में निरंतर तर्क और सत्य के स्थान पर अंधभक्ति इस प्रकार दिमाग में प्रत्यारोपित कर दी जाती है कि लड़कियां व उन के मातापिता इसी को भाग्य मान कर संतुष्ट ही नहीं हो जाते, इस बात पर समाज में गर्व भी करने लगते हैं.

वैसे दुनिया के सभी समाजों में पिता अपनी बेटियों को उन के लिए ढूंढ़े ए वर के हाथ में सौंपते हुए भी यही कहते हैं कि बेटी, अब जो कुछ तुम्हारे साथ होगा, वह पति करेगा यानी कि वे बेटी को जीवन से पूरी तरह बाहर निकाल देते हैं. कई समाजों में तो विवाह बाद बेटियों की शक्ल ही नहीं देखी जाती. अन्य उदार समाजों में भी पिता के घर के दरवाजे लगभग बंद ही हो जाते हैं.

बेटियों के प्रति यही सोच आश्रमों के बाबाओं को मालामाल बनाती है. बेटी का भार ग्रहण करते हुए आश्रमों के बाबा मातापिता से मोटा दान भी दहेज की तरह ले लेते हैं और फिर उन का मनमाना दुरुपयोग करते हैं. 2-4 महीनों में बेटियां आश्रम के जीवन की आदी हो जाती हैं और मरजी से अपनी जगह वहीं बनाना शुरू कर देती हैं. सैकड़ों बाबाओं ने इसी का लाभ उठाया है. वे बेटियां भी ग्रहण करते हैं, पत्नियां भी. बहुत सी औरतें पतियों को जानबूझ कर छोड़ कर आश्रमों में बस जाती हैं तो कुछ घर में सेंध लगा कर आश्रम की अपने तन और पति के धन दोनों से सेवा करती हैं.

जब कभी हल्ला मचता है तो लोग ऐसे हायहाय करते हैं मानों राम रहीम या वीरेंद्र देव दीक्षित कई अपवाद और अपराधी हैं जबकि ये औरतें अपनी या मातापिता की मरजी से ही इन आश्रमों में आती हैं.

अगर इस दुर्दांत कथा का अंत करना है तो धर्म की दुकानदारी को गैरकानूनी करना होगा, जो भारत हो या अमेरिका कहीं भी संभव नहीं लगता. जब तक यह नहीं होगा राम रहीम, वीरेंद्र देव दीक्षित और अमेरिका के अपने ही ऐसे बाबा पनपते रहेंगे.

विंटर फैशन का नया ट्रैंड साड़ी जैकेट

साड़ी पार्टीवियर में आज भी सब से अधिक प्रयोग की जाती है. मगर विंटर में यह जाड़े की सर्द हवाओं को रोक नहीं पाती है. ऐसे में कई बार साड़ी पहन कर विंटर पार्टी में जाने वाली लेडीज सर्दी का शिकार हो जाती हैं. फैशन डिजाइनरों ने इस परेशानी को दूर करने के लिए फैशनेबल जैकेट्स तैयार की हैं, जिन्हें साड़ी के ऊपर पहना जा सकता है. यह जैकेट साड़ी और डिजाइनर ब्लाउज को छिपाती नहीं, बल्कि उस की खूबसूरती को और अधिक निखार देती है. यह जैकेट लौंग कोट जैसी घुटनों के नीचे तक होती है. साड़ी के साथ मैच करती यह फैशन का नया ट्रैंड है.

स्पैशल डिजाइनर जैकेट

फैशन डिजाइनर काशनी कबीर कहती हैं, ‘‘साड़ी के साथ ओवर कोट या कोट पहले भी पहना जाता रहा है. स्वैटर भी साड़ी पर पहना जाता था. कोट और स्वैटर में साड़ी की खूबसूरती छिप जाती है और यह पार्टी ड्रैस नहीं लगती यही वजह है कि महिलाएं इसे पार्टी में पहनने से बचती हैं. फिर विंटर की पार्टी में केवल साड़ीब्लाउज में जाना मौसम के अनुकूल भी नहीं होता. ऐसे में साड़ी के साथ यह स्पैशल डिजाइनर जैकेट का नया ट्रैंड है.’’

साड़ी के साथ जैकेट सही से कैरी हो सके, इस के लिए जैकेट में सुंदर बैल्ट भी लगाई जा सकती है, जिस से साड़ी और जैकेट पहनने के बाद भी फिगर सही दिखती है. यह जैकेट इस तरह तैयार की जाती है कि इसे पहनने पर साड़ी की डिजाइन और ब्लाउज का कट छिपे नहीं. जैकेट को तैयार करने में फैब्रिक और सिलाई इस तरह की जाती है कि वह फैशनेबल तो दिखे ही, विंटर में सर्द हवाओं को भी रोके.

विंटर सीजन में नो टैंशन

साड़ी के साथ पहनी जाने वाली यह जैकेट फैशनेबल लुक देती है. इस की सब से खास बात यह है कि इसे डिजाइनर सलवारकुरता और लहंगे के साथ भी पहना जा सकता है. जैकेट का कलर और फैब्रिक ऐसा होता है कि इसे कई अलगअलग रंगों की साडि़यों व सलवार सूट्स के साथ पहना जा सके.

साड़ी की ही तरह लहंगाजैकेट भी चलन में है. ऐसे में लहंगा कई तरह से काम आ सकता है. इस जैकेट को अनारकली लहंगा के साथ पहना जा सकता है. चोली के पास इस की खास फिटिंग होती है, जिस से पहनने वाली ग्लैमरस लगती है. इंडोवैस्टर्न लहंगों के साथ भी यह पहनी जा सकती है. यानी अब इस विंटर सीजन में महिलाओं को साड़ी को ले कर परेशान होने की जरूरत नहीं है.

कास्टिंग काउच : एक्ट्रेस ने दर्द बयां कर कहा, 5 प्रोड्यूसर्स मुझे आपस में बांटना चाहते थे

श्रुति हरिहरन साउथ इंडियन फिल्मों की जानी मानी एक्ट्रेस हैं. उन्होंने एक कार्यक्रम में कबूला कि वह कास्टिंग काउच की शिकार हुई थीं. श्रुति ने इस दौरान अपनी पहली फिल्म का वो डरा देने वाला अनुभव शेयर किया, जिसके बाद उन्हें फिल्म ही छोड़नी पड़ी.

श्रुति ने कास्ट‍िंग काउच का एक अनुभव सुनाते हुए बताया कि कैसे एक प्रोड्यूसर उनको अन्य चार प्रोड्यूसर्स के साथ समझौता करने को कहता था. श्रुति ने कहा, एक तमिल फिल्मकार मेरी ही कन्नड़ फिल्म का रीमेक बनाना चाहते थे. उन्होंने मुझे ही इसके लिए साइन किया. मैं अपनी पहली फिल्म के दौरान सिर्फ 18 साल की थीं. टेलीफोन पर उन्होंने मेरे सामने अजीब शर्त रखी. प्रोड्यूसर ने फिल्म देने के लिए कहा कि फिल्म में 5 प्रोड्यूसर हैं और वह किसी भी तरह से मेरा इस्तेमाल कर सकते हैं. ये सुनकर मैं हैरान रह गई. इस घटना ने मुझे झकझौर कर रख दिया था क्योंकि ये मेरी फिल्मी दुनिया में शुरुआत ही थी. तब मुझे 5 प्रड्यूसर्स आपस में बांटना चाहते थे.

इस घटना के बारे में जब मैंने अपने डांस कोरोग्राफर को बताया तो उन्होंने कहा, यदि ये सब हैंडल नहीं कर सकतीं तो तत्काल दफा हो जाओ. ये सुनकर मेरी आंखों में आंसू आ गया. मैं बुरी तरह से डर गई थी और आखिरकार मैंने उस फिल्म को छोड़ दिया. जब मैंने इस घटना के बारे में अन्य लोगों के बताया तो काफी लंबे समय तक मुझे इंडस्ट्री में काम नहीं मिला.

श्रुति हरीहरन ने आगे कहा कि फिल्मों में लड़कियों के किरदार को हमेशा समाज में उसके लिए प्रचलित भावनाओं के आधार पर उतारा जाता है. अधिकतर फिल्मों में लड़कियों को बतौर कमोडिटी शूट किया जाता है, जिससे वह देखने में सुन्दर, सेक्सी लगें और फिल्म चलने की संभावना बढ़ जाए.

श्रुति का मानना है कि कास्टिंग काउच पर महिलाओं का चुप रहना अब कोई विकल्प नहीं है. ज्यादातर लड़कियों को इसका सामना ‘ना’ कहकर करने की जरूरत है. इसके लिए सिर्फ पुरुषों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है. कास्टिंग काउच से पहला मौका जरूर मिल सकता है, लेकिन इसके सहारे करियर नहीं बनाया जा सकता.

गर्भावस्था के सकारात्मक प्रभाव जिंदगी के प्रति आप का नजरिया बदल देंगे

गर्भावस्था महिलाओं के लिए वह समय होता है जब वे शिशु की सुरक्षा के लिए अपने खानेपीने और स्वास्थ्य का हर संभव ध्यान रखती हैं. गर्भवती महिलाएं हमेशा खुश रहने और अपना ज्यादा से ज्यादा ध्यान रखने की कोशिश करती हैं.

कुछ महिलाओं के लिए गर्भावस्था तकलीफदेह हो सकती है जैसे उन्हें मौर्निंग सिकनैस, पैरों में सूजन, चक्कर और मिचली आना आदि परेशानियां हो सकती हैं. मगर आमतौर पर गर्भावस्था हमेशा महिलाओं में सकारात्मक बदलाव ले कर आती है. इस से उन के शरीर और दिमाग दोनों में संपूर्ण रूप से सकारात्मक बदलाव आते हैं.

शरीर पर गर्भावस्था के सकारात्मक प्रभाव

– गर्भावस्था का अर्थ है कम मासिकस्राव, जिस से ऐस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरौन हारमोन का संपर्क सीमित हो जाता है. ये हारमोंस स्तन कैंसर के खतरे को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि ये कोशिकाओं की वृद्धि को प्रेरित करते हैं और महिलाओं के स्तन कैंसर के खतरे को बढ़ा सकते हैं. साथ ही गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान ब्रैस्ट सैल्स में जिस तरह के बदलाव होते हैं, वे उन्हें कैंसर कोशिकाओं में बदलने के प्रति अधिक प्रतिरोधक बना देते हैं.

– गर्भावस्था के दौरान पेल्विक क्षेत्र में रक्तसंचार बढ़ जाता है, प्रसव और डिलिवरी से गुजरने के बाद महिलाओं को खुद में एक नई ताकत महसूस होती है.

दिमाग पर सकारात्मक प्रभाव

– बच्चा होने से औटोइम्यून डिसऔर्डस जैसे मल्टीपल स्केल्रोसिस के होने का खतरा कम हो जाता है.

– गर्भावस्था सकारात्मक व्यवहार ले कर आती है और महिला को मजबूत बनाती है. इस से जीवन में आने वाले बदलावों से लड़ने में आसानी हो जाती है, साथ ही नकारात्मक सोच व चिंता से भी बचाव होता है.

शिशु के जन्म के बाद सकारात्मक प्रभाव

– अधिकांश महिलाओं ने पाया है कि पहले बच्चे के जन्म के बाद उन की मासिकस्राव से जुड़ी तकलीफें काफी कम हो गई हैं.

– प्रसव के बाद अधिकांश महिलाओं के स्वास्थ्य में सकारात्मक बदलाव आते हैं और वे शराब, धूम्रपान जैसी बुरी लतें छोड़ देती हैं.

– एक मां अपने आसपास खुशियों का खजाना देख कर खुशी और उत्साह से भर जाती है. जब भी मां अपने बच्चे को गोद में लेती या उसे स्तनपान कराती है तो औक्सीटोसिन हारमोन इस गहरे रिश्ते को जोड़ने में अहम भूमिका निभाता है. यह बहुत ही ताकतवर होता है, जिस की वजह से कोई भी कुछ घंटों के लिए और कई बार कुछ दिनों के लिए भी चिंता को भूल सकता है.

– शिशु के जन्म के बाद त्वचा चमकदार और बाल चमकीले हो जाते हैं, साथ ही कीलमुंहासों की समस्या से भी मुक्ति मिल जाती है.

स्टाइलिश 2018 की करें शुरुआत आरजे पीहू के साथ

पिछले कुछ सालों में हम ने फैशन में बहुत परिवर्तन देखे हैं. आजकल लोग काफी ऐक्सपेरिमेंटल होते हैं और कुछ नया ट्राई करने के लिए हमेशा रेडी रहते हैं. आज के दौर में कुछ नया पहनना ही फैशन नहीं है, बल्कि एक सिंपल आउटफिट को अलग ढंग से कैरी करना ट्रैंड में है. आजकल कलर्स पर भी काफी ध्यान दिया जाता है और सीजन के हिसाब से लोग कलर सलैक्ट करते हैं.

फैशन स्टाइलिस्ट गोर्की पुरी के अनुसार 2017 में भी हम ने ऐसे काफी वैरिएशंस देखे फैशन में. फ्लोरल ड्रैसेस में पैचवर्क काफी इन रहा और 1980 से 1990 का फेमस कोल्ड शोल्डर से औफ शोल्डर का ट्रैंड भी लोग अभी तक पसंद कर रहे हैं. पुराना फैशन फिर से लौट कर आ रहा है और उस में वैरिएशंस कर के लोग कुछ नया ट्राई करना चाह रहे हैं. पेस्टल कलर भी आजकल बहुत फैशन में है और पहले की तरह सिर्फ 3, 4 कलर्स तक लोग अब सीमित नहीं हैं, बल्कि लाइट कलर्स भी पसंद करने लगे हैं.

फैशन के अलग अंदाज

लेयरिंग और 2 पीस ड्रैसेस भी आजकल काफी पसंद की जा रही है. कौंट्रास्ट से ज्यादा लोग सेम कलर कौंबिनेशन ज्यादा प्रैपर करने लगे 2017 में और 2018 में भी यह ट्रैंड कैरी फौरवर्ड होगा. फ्लेयर्स, बेल स्लीव्स, फ्रिल, फौल, केप ये सब चीजें बहुत देखी जाएंगी आने वाले साल में भी.

2018 भी काफी फैशनेबल रहेगा सब के लिए और काफी पहले के ट्रैंड अलग स्टाइल में वापस आते नजर आएंगे.

मेकअप

मेकअप आर्टिस्ट अंशू बेदी पटेल का कहना है कि मेकअप से चेहरा ही नहीं बल्कि आप का व्यक्तित्व भी आकर्षक हो जाता है और ऐसे व्यक्तित्व और सौंदर्य की हर कोई प्रशंसा करता है. आप भी हर दिन कुछ खास और अलग दिखना चाहती हैं तो आप को उचित मेकअप प्रसाधनों का चुनाव और मेकअप कला की विविधता को जानने और अपनाने की आवश्यकता है.

डेली सूफले

डेली सूफले या मौइश्चराइजर बेस फाउंडेशन भी इस मौसम के लिए बैस्ट है. शियर फाउंडेशन अप्लाई करें, इस से स्किन में खूबसूरत शाइन नजर आएगी.

सबसे पहले चेहरे पर अच्छी क्वालिटी का मौइश्चराइजर लगाएं, फिर फाउंडेशन लगाएं.

– हैवी पाउडर या कौम्पैक्ट लगाने से बचें. इस से स्किन पैची नजर आने लगेगी.

– अपनी मेकअप किट में सनस्क्रीन मौइश्चराइजर, फेस वाश, मेकअप क्लींजर और लिप बाम जरूर रखें.

– ब्राइट और बोल्ड कलर्स इस साल मेकअप में इन हैं.

इस के अलावा आइशैडो में मजेंटा, ग्रीन, ब्लू कलर्स भी ट्रैंड में इन होंगे. आईमेकअप के लिए नियौन के शेड्स चुनें. नियौन के ब्राइट शेड्स विंटर में खूबसूरत लगते हैं.

फाउंडेशन चुनें ऐसे

– फाउंडेशन के शेड चैक करने के लिए इसे अपनी जौ लाइन पर लगा कर देखें.

– अगर आप ने मेकअप किया है तो फाउंडेशन शेड चैक करने से पहले मेकअप हटा दें नहीं तो आप को सही शेड का पता नहीं चलेगा.

– अपनी स्किन से एक कलर हलके शेड वाला फाउंडेशन चुनें.

– फाउंडेशन टैस्टिंग के दौरान अपनी पिक्चर भी क्लिक कर सकती हैं ताकि आप यह देख सकें कि आप का मेकअप आप पर अच्छा लग रहा है या नहीं.

– मौसम के अनुसार भी फाउंडेशन का चुनाव कर सकती हैं. गरमियों के लिए औयल फ्री फाउंडेशन चुनें और सर्दियों के लिए मौइश्चर वाला फाउंडेशन सही रहता है.

– दिन व रात के मेकअप के लिए अलगअलग तरह के फाउंडेशन खरीदें. लाइट फौर्मूला वाला फाउंडेशन दिन के लिए और रात के लिए थिकर फौर्मूला फाउंडेशन चुनें. साथ ही यह भी जरूरी है कि वह आप को ग्लौसी लुक भी दे.

– फाउंडेशन को रात में खरीदने की गलती न करें. कृत्रिम रोशनी में सही शेड का पता नहीं चलता. फाउंडेशन हमेशा डे लाइट में ही खरीदें.

– फाउंडेशन खरीदने से पहले डिसाइड कर लें कि आप को किस तरह की कवरेज चाहिए. शीर कवरेज वाला फाउंडेशन लाइट कवरेज के लिए है और नैचुरल लुक देता है तो मीडियम कवरेज वाला फाउंडेशन काफी थिक होता है. यह चेहरे के दागधब्बों को छिपाने में मदद करता है. फुल कवरेज पिंपल मार्क्स को छिपाता है.

– आप की स्किन ड्राई है तो आप क्रीम बेस्ड फाउंडेशन यूज कर सकती हैं. चाहें तो आप इस में अलग से मौइश्चराइजर भी मिला सकती हैं.

आइसबर्ग सैंडविच : स्वाद भी और सेहत भी

सामग्री

50 ग्राम दही गाढ़ा, 5 ग्राम लहसुन कटा, 10 ग्राम ताजा डिल,  10 एमएल औलिव औयल, 200 ग्राम खीरा कद्दूकस किया, 100 ग्राम आइसबर्ग लैट्यूस, 4 पीस मल्टीग्रेन ब्रैडस्लाइस, नमक व कालीमिर्च स्वादानुसार.

विधि

एक कटोरे में सारी सामग्री को फेंटे हुए दही में अच्छी तरह मिलाएं. इस में बर्फ के छोटेछोटे टुकड़े मिलाएं. अब इस मिश्रण को ब्रैडस्लाइस पर लगा कर सर्व करें.

फिल्म रिव्यू : वोदका डायरीज

एक पुरानी कहावत है कि किसी किताब के मृख्य पृष्ठ को देखकर उसकी अच्छी या बुरी होने का निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए. यही बात विज्ञापन फिल्म बनाते बनाते फिल्म निर्देशक बने कुशल श्रीवास्तव की मनोवैज्ञानिक रोमांचक फिल्म ‘‘वोदका डायरीज’’ को लेकर कहा जाना चाहिए. इस फिल्म में शराब वाली न वोदका है और न ही कोई रहस्य व रोमांच.

फिल्म की कहानी एसीपी अश्विनी दीक्षित (के के मेनन) से शुरू होती है, जो कि अपनी पत्नी व कवि शिखा दीक्षित (मंदिरा बेदी) के साथ कुछ दिन की छुट्टियां मनाकर वापस मनाली लौट रहे हैं. उन्हे लेने गया उनका सहायक अंकित (शरीब हाशमी) भी उनके साथ ही है. रास्ते में अंकित बताता है कि एसीपी अश्विनी का सच साबित हुआ और अपनी नई किताब के विमोचन के वक्त मारे गए लेखक का मसला सुलझ गया है. के के दीक्षित अपनी ड्यूटी करते हुए भी अपनी पत्नी शिखा की अनदेखी नहीं करते हैं. घर पहुंचते ही अंकित का फोन आता है कि एक लेखिका की हत्या हो गयी है. अश्विनी दीक्षित तुरंत घटनास्थल पर पहुंचते हैं, वहां पर उन्हे सुराग के तौर पर मनाली के एक क्लब वोदका डायरीज का एक वीआईपी पास मिलता है.

अश्विनी दीक्षित वहां पहुंचते हैं, तो वहां  एक के बाद एक कई हत्याएं होती जाती हैं. हत्यारा अश्विनी की पकड़ से कोसों दूर होता है. अंकित बीच बीच में जोक्स सुनाकर माहौल को संजीदा नहीं होने देता. इधर रोशनी (राइमा सेन), अश्विनी दीक्षित के आस पास घूमती रहती है, वहीं उनकी पत्नी शिखा भी गायब हो चुकी हैं. अब वोदका डायरीज में हुई हत्याओं के हत्यारे की तलाश करने की बजाय अश्विनी दीक्षित अपनी पत्नी शिखा की तलाश में लग जाते हैं. कहानी में कई नए किरदार भी आ जाते हैं. पर कातिल का पता ही नहीं चलता. फिल्म का क्लायमेक्स भी बहुतकनफ्यूज करता है.

जब एक ही फिल्म में कई कहानी और कई किरदार हों, तो उन्हें किसी सटीक अंजाम तक पहुंचाना हर फिल्मकार के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है. ऐसे में पहली बार फिल्म निर्देशक बने कुशल श्रीवास्तव के लिए तो सफल होना असंभव ही रहा. फिल्म देखते समय दर्शक भी दुविधाग्रस्त होता रहता है. उसकी समझ में ही नहीं आता कि वास्तव में कहानी क्या है और हो क्या रहा है. फिल्म कभी वर्तमान में तो कभी अतीत में ऐसे हिचकोले लेकर चलती है कि हर कोई कहने लगता है-‘‘हे भगवान कहां फंसा दिया.’’

फिल्म ‘‘वोदका डायरीज’’ की एक वाक्य की कहानी यह है कि एसीपी अश्विनी दीक्षित अपनी पत्नी की मौत का गम भुला नहीं पाए हैं और उन्हे लगता है कि वह कहीं गायब हो गई हैं. तो उनके साथी एक कहानी रचते हैं, जिससे अश्विनी को सच का अहसास कराया जाए, इसलिए अश्विनीको जो हत्याएं हुई लगती हैं, वह हकीकत में हुई ही नहीं हैं. मगर इस सीधी सादी कहानी को कहानीकार व पटकथा लेखक वैभव बाजपेयी तथा निर्देशक कुशल श्रीवास्तव ने इतना घुमा दिया है कि खुद भी इसका सही क्लायमेक्स पेश नहीं कर पाए और फिल्म पूरी तरह से उबाउ व नीरस हो गयी है. फिल्म में ऐसा कुछ नही है जो कि दर्शकों को बांधकर रख सके. यदि अच्छा लेखक इस कहानी को लिखता तो बहुत बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. फिल्म का गीत संगीत भी प्रभावित नहीं करता.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो के के मेनन ने एक जटिल किरदार को बड़ी सहजता से निभाया है. इस तरह के किरदार  निभाना हर कलाकार के बस की बात नहीं होती. शरीब हाशमी व राइमा सेन ने भी अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है. मंदिरा बेदी महज खूबूसरत गुड़िया ही नजर आती हैं.

फिल्म को अति खूबसूरत लेाकेशनों पर फिल्माया गया है. कैमरामैन मनीष चंद्र भट्ट ने कमाल की कला दिखायी है. फिल्म अपनी लागत वसूल कर पाएगी, इसमें भी संदेह है.

एक घंटे 57 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘वोदका डायरीज’’ का निर्माण विशाल कुकेरजा, कुशल श्रीवास्तव व अतुल पुनेजा सहित छह लोगों ने मिलकर किया है. फिल्म के लेखक वैभव बाजपेयी, निर्देशक कुशल श्रीवास्तव, कैमरामैन मनीष चंद्र भट्ट तथा कलाकार हैं – के के मेनन, मंदिरा बेदी, राइमा सेन, शरीब हाशमी व अन्य.

फिक्स डिपौजिट 95 प्रतिशत लोगों की है पहली पसंद, जानें फायदे और नुकसान

सेबी के एक सर्वे के जरिए यह बात सामने आई है कि देश के 95 फीसदी लोग आज भी अपना पैसा निवेश करने के लिए बैंक जमाओं (फिक्स्ड डिपौजिट) को तरजीह देते हैं, जबकि 10 फीसद से भी कम लोग अपना पैसा म्युचुअल फंड और स्टौक में निवेश करना पसंद करते हैं. देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में किया गया यह सर्वे बताता है कि भारतीयों के लिए जीवन बीमा दूसरा सबसे पसंदीदा निवेश विकल्प है. इसके अलावा भारतीयों के शीर्ष पांच निवेश विकल्पों में कीमती धातु(सोना-चांदी), पोस्ट औफिस सेविंग स्कीम और रियल एस्टेट आता है.

आज हम अपनी खबर के माध्यम से आपको फिक्स्ड डिपौजिट के फायदे और नुकसान बताएंगे.

बैंक में फिक्स्ड डिपौजिट करना आम निवेशकों के बीच एक लोकप्रिय निवेश विकल्प है. इसका सीधा कारण एक तो बैंक एफडी के जरिए किए जाने वाले निवेश का जोखिमरहित होना है और दूसरा निश्चित अवधि के एक निश्चित और आकर्षक ब्याज दर पर रिटर्न मिलना है. लेकिन एक्सपर्ट मानते हैं कि इन खूबियों के बाद भी बैंक में फिक्स्ड डिपौजिट करवाने के कुछ नुकसान भी हैं.

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समझिए फिक्स्ड डिपौजिट करवाने के फायदे और नुकसान

फिक्स्ड डिपौजिट करवाने के फायदे-

जब कोई व्यक्ति किसी बैंक या पोस्ट औफिस में फिक्स्ड डिपौजिट करवाता है तो यह निवेश पूरी तरह से जोखिम रहित होता है. यह निवेश किसी भी तरह से लिंक नहीं होता. फिक्स्ड डिपौजिट की अवधि पूरी होने के बाद निवेशक को पूरी राशि ब्याज के साथ वापस मिल जाती है. ब्याज दर सीनियर सिटीजन के लिए कुछ अधिक होती है. साथ ही बैंक भी समय-समय पर इसकी समीक्षा करके बाजार के अनुरूप फिक्स्ड डिपौजिट की दर को तय करते हैं. तमाम बैंकों की फिक्स्ड डिपौजिट की दर में मामूली अंतर होता है. कई बार बैंक ज्यादा से ज्यादा निवेश आकर्षित करने के उद्देश्य से ग्राहकों को फिक्स्ड डिपौजिट पर ऊंची दर की पेशकश करते हैं.

फिक्स्ड डिपौजिट करवाने के नुकसान-

बैंक एफडी पर मिलने वाला ब्याज प्राय: महंगाई की दर के बराबर ही होता है और कई बार इस दर से कम भी रह जाता है. एक्सपर्ट निवेश विकल्प पर रिटर्न जोड़ते समय उपभोक्ता महंगाई की औसत दर 8 फीसदी के बराबर मानते हैं. ऐसे में बैंक एफडी पर अगर निवेशक को 8 – 8.5 फीसदी के आसपास का ही ब्याज मिलता है तो निवेशक बमुश्किल महंगाई दर को पछाड़ पाता है. ऐसे में निवेशक को निवेश पर मिलने वाला रिटर्न शून्य हो जाता है.

बैंक एफडी पर मिलने वाला रिटर्न टैक्सेबल होता है. आमतौर पर लंबे समय के लिए किया जाने वाला निवेश करमुक्त होता है. लेकिन बैंक एफडी पर मिलने वाला ब्याज मौजूदा स्लैब में ही करयोग्य होता है. ऐसे में मिलने वाला शुद्ध रिटर्न और घट जाता है.

इस तरह महंगाई की दर से कम रिटर्न और मिलने वाले रिटर्न पर भी टैक्स लगने की वजह से शुद्ध कमाई का घट जाना ये दो ऐसे कारण हैं जो बैंक एफडी जैसे जोखिमरहित निवेश को बेहतर नहीं बनाते.

एक्सपर्ट का मानना है कि यदि आपने कम उम्र में निवेश शुरू किया है तो लंबी अवधि के लिए इक्विटी म्युचुअल फंड में निवेश करना आपके लिए एक बेहतरीन विकल्प है. इसके इतर अगर उम्र या किसी अन्य कारण आपके जोखिम लेने की क्षमता नहीं है तभी आपको एफडी जैसे विकल्पों को चुनना चाहिए.

मेरा परिवार प्रोग्रेसिव है : सोनम कपूर

फिल्म ‘ब्लैक’ में सहायक निर्देशक के रूप में काम करने वाली सोनम कपूर ने फिल्म ‘सांवरिया’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा. फिल्म सफल नहीं थी, पर उसमें उसके अभिनय की तारीफें की गयी और धीरे-धीरे उन्होंने कई फिल्मों में अच्छा अभिनय किया. फिल्म ‘नीरजा’ उनके कैरियर की सबसे बेहतरीन फिल्म थी, जिसमें उन्हें नेशनल अवार्ड मिला. हालांकि उन्हें सफलता अधिक नहीं मिली, पर वह हर फिल्म के लिए सौ प्रतिशत मेहनत करती हैं. सोनम इन दिनों व्यवसायी आनंद आहूजा को डेट कर रही हैं और उनसे शादी भी करने वाली हैं, लेकिन इस विषय पर अभी वह बात करना नहीं चाहतीं. स्वभाव से हंसमुख सोनम फिल्म ‘पैडमेन’ के प्रमोशन पर हैं, पेश है अंश.

प्र. इस फिल्म को चुनने की खास वजह क्या है?

इसकी कहानी बहुत स्पेशल है. इसमें जिस विषय पर बात की गयी है, उस पर लोग खुलकर बात करना पसंद नहीं करते, जो जरुरी है. ये एक अच्छी लव स्टोरी के साथ-साथ एक अच्छा मेसेज भी देती है. असल में मासिक धर्म के साथ सालों से टैबू जुड़ा हुआ है, लेकिन मेरे घर में कभी ऐसा नहीं था. ये शर्म की बात नहीं थी, पर कई घरों में ऐसा होता है कि इन पांच दिनों तक महिलाएं किचन में नहीं जाती, अचार नहीं छूती आदि कई कुसंस्कार है. जिसे महिलाएं ईमानदारी से फोलो करती हैं. ऐसे में जब मुझे ये स्क्रिप्ट पढ़ने को मिला, तो मैं बहुत उत्साहित हुई. मैंने जब रिसर्च किया तो पता चला कि केवल 12 प्रतिशत महिलाएं ही सेनेटरी नेपकिन का प्रयोग कर पाती हैं, जो शर्मनाक है.

प्र. फिल्म के दौरान आपको कोई खास अनुभव मिला?

मैंने पाया कि गांव की महिलाएं मासिक धर्म के दौरान राख, मिट्टी, पत्ते, कपड़े आदि का प्रयोग करती है जो हाईजैनिक न होने के साथ-साथ उनके सेहत के लिए भी हानिकारक है. इतना ही नहीं जिस कपड़े को वे प्रयोग करती है उसे वे नाली के गंदे पानी में धोती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ये गन्दी चीज है और गंदे पानी से धोयी जानी चाहिए. वे इतनी पीछे की सोच रखती हैं, जिससे वे कई तरह की बीमारी का शिकार बन जाती हैं. एक जगह शूटिंग में वहां के लोकल लोग भी पैड को छूने से मना कर शूटिंग से निकल गए थे.

प्र. आपको जब पहली बार पीरियड्स हुआ तो कैसे मेनेज किया?

मैं जब 15 साल की थी तब मासिक धर्म हुआ था. मैं पहले बहुत तनाव में थी, क्योंकि मुझे छोड़ मेरी सारी सहेलियों को पीरियड्स हो चुके थे. मैं अलग-थलग पड़ गयी थी और मासिक धर्म का इंतज़ार कर रही थी. कई बार तो मैंने मां से पूछा भी था कि मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है, कहीं मुझमे कुछ कमी तो नहीं है? उन्होंने हंसकर समझाया थी कि कभी- कभी किसी को लेट पीरियड्स आते हैं, जो गलत नहीं. मुंबई में तो हर स्कूल में इस बारें में पहले से बता दिया जाता है, ताकि लड़कियों को इस बारें में पता चलें.

प्र. आपके यहां तक पहुंचने में परिवार का कितना योगदान रहा है?

मेरा परिवार बहुत प्रोग्रेसिव है. वे हर बात में सहयोग देते हैं. उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि तुम कुछ नहीं कर सकती, बल्कि ये कहा कि तुम कुछ भी कर सकती हो. मैं शादी करूं या न करूं, उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा. किसी तरह का प्रेशर नहीं है. इससे मुझे हमेशा आत्मविश्वास मिला और मैं आगे बढ़ती गयी, पर जब मैं इंडस्ट्री में आई और मुझे छोटा और हीरो को बड़ा रूम देने की बात कही गयी तो मुझे बहुत अजीब लगा, क्योंकि मैंने मेरे घर में कभी भी लड़के और लड़की में कोई अंतर देखा नहीं था. मैंने इसका विरोध भी किया था.

प्र. इंडस्ट्री में आये 10 साल को कैसे देखती है?

इंडस्ट्री में मेरी जर्नी में हमेशा ग्रोथ ही हुई है. हर फिल्म में मैंने कुछ न कुछ सीखा है. मेरे हिसाब से जर्नी कभी भी कठिन नहीं होनी चाहिए. हर सुबह काम पर जाने की इच्छा मुझे शुरू से रही है. मैंने कभी किसी काम के बाद अवार्ड के बारें में नहीं सोचा है, अगर मैं वह सोचने लगूं और न हो तो चिढ़-चिढ़ा महसूस करने लगूंगी, जिसे मैं ठीक नहीं मानती.

प्र. क्या आपका ‘फैशनिस्ता’ टैग आपके फिल्मी कैरियर पर हावी रहा?

फैशन के बारें में मैं अधिक नहीं सोचती, उसके बारें में मेरी छोटी बहन रिया सोचती है. मेरे हर ड्रेस की डिजाइनिंग वही करती है. मेरी हर फिल्म में उसकी ड्रेस रहती है.

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