कैसे रखें दिल को स्वस्थ व मजबूत, आप भी जानिए

30 वर्षीय सुमित एक कौर्पोरेट कंपनी में काम करता था. एक दिन औफिस पहुंचने के बाद अचानक उनकी तबीयत खराब हो जाने पर उसे और उस के सहयोगियों को समझ नहीं आया कि क्या करें? पहले तो उन्हें लगा कि  अधिक काम व तनाव लेने की वजह से उसे ऐसा महसूस हो रहा है, थोड़ा आराम करने पर ठीक हो जाएगा, लेकिन जब उस की असहजता कम होने के बजाय बढ़ने लगी तो उस के सहयोगियों ने उसे पास के अस्पताल में ले जाना सही समझा, लेकिन वहां पहुंचने के पहले ही उस ने दम तोड़ दिया.

यह घटना चौंकाने वाली तब लगी जब डाक्टर ने कहा कि इस 2 से 3 घंटे के दौरान उसे कई बार दिल का दौरा पड़ चुका है. इस उम्र में ऐसी घटना हर किसी के लिए सोचने वाली हो सकती है क्योंकि न तो सुमित बीमार था, न ही वह कोई दवा ले रहा था. शारीरिक रूप से भी वह बिलकुल फिट था.

मुंबई के सर एच. एन. रिलायंस फाउंडेशन हौस्पिटल ऐंड रिसर्च सैंटर के कार्डियो सर्जन डा. विपिन चंद्र भामरे इस बारे में कहते हैं कि आजकल के जौब में तनाव के साथ घंटों बैठ कर काम करने की वजह से युवाओं में दिल की बीमारी बढ़ी है. यहां यह समझना जरूरी है कि कैसा तनाव हो सकता है जानलेवा.

तनाव 2 तरह के होते हैं, एक्यूट और क्रौनिक स्ट्रैस. क्रौनिक स्ट्रैस की वजह से व्यक्ति में हार्मोनल बदलाव होते हैं, जिस से हाइपरटैंशन, डायबिटीज और दिल की बीमारियां हो सकती हैं. ऐसे में 30 साल की उम्र वाले व्यक्ति, जिस ने काफी समय तक तनाव को झेला है व एक स्थान पर बैठ कर काम करता है, को कौरोनरी हार्ट अटैक की संभावना अधिक बढ़ जाती है. वहीं, एक्यूट स्ट्रैस अधिकतर वयस्कों में होता है, जो उम्र की वजह से अपनेआप को संभाल नहीं पाते और तनाव में जीते हैं.

रिसर्च में पाया गया है कि 20 से 30 वर्षों की उम्र वाले लोगों में आजकल हाई कौलेस्ट्रौल लेवल पाया जाता है. जिस की वजह से कम उम्र में ही कौरोनरी हार्ट अटैक से 2 से साढ़े 3 गुना लोगों की मौत हो जाती है. इसलिए, अब 20 वर्ष की उम्र पार करते ही कई बार डाक्टर यूथ को कौलेस्ट्रौल चैक करवाने की सलाह देते हैं. अपनी जीवनशैली को सुधार कर युवा इस बीमारी को अपने से दूर रख सकते हैं. इस बारे में डा. विपिन चंद्र ने युवाओं को कुछ टिप्स दिए हैं-

– हमेशा संतुलित आहार लें जिन में विटामिन्स और न्यूट्रिएंट्स अधिक मात्रा में हों. फल, दाल, सब्जियों को अपने आहार में अवश्य शामिल करें.

–      ऐक्टिव रहने के लिए रोज 35 से 40 मिनट व्यायाम करें, लिफ्ट के बजाय सीढि़यों का इस्तेमाल करें.

–      अपने वजन को हमेशा नियंत्रण में रखें, ओवरईटिंग न करें.

–      धूम्रपान और नशा करने से बचें.

–      ब्लडप्रैशर और कौलेस्ट्रौल  की जांच समयसमय पर करवाते रहें.

–      तनाव को कम करने के लिए मैडिटेशन करें, किसी भी तनाव को अपने अंदर न रख कर अपने दोस्त या परिवार के साथ शेयर करें.

–      नींद पूरी लें. पर्याप्त नींद न लेने पर थकान, चिड़चिड़ापन बढ़ता है, जो हाइपरटैंशन व हृदय संबंधी बीमारियों को जन्म देता है.

–      परिवार और दोस्तों के साथ हमेशा जुड़े रहें, ताकि आप उन से मिल कर अपनेआप को हलका महसूस करें.

–      अपने ओरल हाईजीन को बनाए रखें, क्योंकि कई बार दांतों की समस्या भी हार्ट अटैक को जन्म देती है.

–      हृदय से संबंधित किसी भी लक्षण, जैसे छाती में दर्द, थकान आदि की उपेक्षा न करें, तुरंत डाक्टर से सलाह लें.

–      ब्लडशुगर को हमेशा नियंत्रण में रखें.

–      नई खोज और उस से होने वाले फायदे से हमेशा अपनेआप को अपडेट रखें.

–      जंक और औयली फूड से परहेज करें, रेशेदार भोजन अधिक लें.

–      अगर आप एक स्थान पर बैठ कर घंटों काम करते हैं तो बीचबीच में थोड़ीथोड़ी देर के लिए टहल लिया करें.

–      आप का दिल जवान रहे, इस के लिए हमेशा अपने अंदर सकारात्मक सोच रखें व खुश रहने की भरपूर कोशिश  करें.

हार्ट फेल्योर जानलेवा नहीं

17 साल की एक लड़की, जो बेहोशी की हालत में अस्पताल में लाई गई थी, का पल्स रेट 200 था. जबकि सामान्य स्थिति में पल्स रेट 60 से 90 के बीच में होता है. जांच करने पर पता चला कि उस का कार्डिएक फेल्योर हो गया है, पेसमेकर दे कर उस की जान बचाई गई. हमारे देश में बहुत कम लोगों को पता है कि हार्ट अटैक और हार्ट फेल्योर में अंतर क्या हैं. इस वजह से सही समय पर सही इलाज नहीं मिल पाता और रोगी की जान बचाना मुश्किल हो जाता है.

ग्लोबल बर्डन औफ डिजीज स्टडी के हिसाब से पूरे विश्व में 60 मिलियन से अधिक लोग हार्ट फेल्योर की बीमारी से पीडि़त हैं. भारत में इस बीमारी के बढ़ने की वजह इस के प्रति जागरूकता में कमी का होना है. अधिकतर लोग इसे हार्ट अटैक से जोड़ कर देखते हैं.

अनुमान है कि भारत में कौरोनरी हार्ट डिजीज, हाइपरटैंशन, मोटापा, मधुमेह, और रियूमेटिक हार्ट डिजीज की वजह से हार्ट फेल्योर 1.3 मिलियन से 4.6 मिलियन की रैंज में बढ़ने वाला है. सही समय पर इस बीमारी का पता चलने पर रोगी को बचाया जा सकता है. यह समझना जरूरी है कि हार्ट अटैक और हार्ट फेल्योर में क्या अंतर है.

हार्ट फेल्योर का मतलब हार्ट का अप्रभावी तरीके से काम करना होता है. हार्ट खून को पंप कर पूरे शरीर में भेजता है. अगर इस की काम करने की क्षमता कम हो जाती है तो, खून पूरे बदन में सही तरीके से नहीं पहुंच पाता. इस का अर्थ यह नहीं है कि हार्ट कभी भी रुक जाएगा. इस में हार्ट केवल उतना काम प्रभावी तरीके से नहीं कर पाता, जितना करना चाहिए. इस में रोगी को कोई दर्द महसूस नहीं होता और न ही उस की अचानक मौत होती है. वहीं, हार्ट अटैक में रोगी को सीने में दर्द होता है और उस वक्त उसे इलाज न मिले तो उस की मृत्यु हो सकती है. हार्ट फेल्योर की बीमारी धीरेधीरे बढ़ती है.

इस बारे में कार्डियोलौजी सोसाइटी औफ इंडिया के अध्यक्ष डा. एम एस हिरेमथ कहते हैं कि हार्ट फेल्योर के लक्षणों को समझ कर अगर रोगी समय पर डाक्टर के पास पहुंचता है तो किडनी फेल्योर और हार्ट वौल्व को क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सकता है. हार्ट फेल्योर के लक्षण में सांस लेने में मुश्किल होना, पैर या टखनों में सूजन का होना, थकान या कमजोरी महसूस होना, रात को बारबार मूत्र त्यागने की जरूरत महसूस होना, किसी प्रकार का वर्कआउट न कर पाना, भूख न लगना, उलटी महसूस करना, अचानक वजन बढ़ना, बारबार खांसना और एकाग्रता कम होना आदि शामिल हैं. ये सभी लक्षण जानलेवा नहीं हैं. हार्ट फेल्योर के रिस्क फैक्टर्स में ब्लडप्रैशर और अधिक कौलेस्ट्रौल  का होना, ड्रग या शराब का सेवन करने के अलावा मधुमेह, मोटापा, डिप्रैशन के साथ हृदय की बीमारियां शामिल होती हैं. हृदय रोगों में खासकर कार्डियोमयोपेथी, हाइपोथायराइडिज्म, हार्ट वौल्व का खराब होना, अनियमित हृदय की धड़कन आदि शामिल हैं.

डा. हिरेमथ कहते हैं कि इस का इलाज संभव है. लक्षण का पता चलते ही तुरंत कार्डियोलौजिस्ट से संपर्क करें. इस के कुछ लक्षण शारीरिक होते हैं, लेकिन कुछ को जांच द्वारा पता किया जाता है. सब से आम टैस्ट इकोकार्डियोग्राम है. इस के अलावा कार्डियक स्ट्रैस टैस्ट, हार्ट कैथेटराइजेशन और हृदय की एमआरआई से भी हार्ट फेल्योर का पता लगाया जा सकता है. इस के इलाज में क्षतिग्रस्त भाग को ठीक नहीं, बल्कि उस का इलाज किया जाता है. आज की आधुनिक जीवनशैली भी इस बीमारी को बढ़ा रही है. इस से बचने के लिए कुछ बदलाव अपनी जीवनशैली में करने जरूरी हैं, ताकि इसे नियंत्रित किया जा सके, जैसे वजन पर नियंत्रण रखें, डाक्टर की सलाह के अनुसार व्यायाम करें, दवाइयां समय पर डाक्टर की सलाह से लें, नशे से अपनेआप को दूर रखें और वजन या सूजन कम करने के लिए डाक्टर से परामर्श अवश्य लें. साथ ही, दवा लेने के बावजूद अगर कोई समस्या दिखे, तो डाक्टर को बताएं.

युवा बनाम वृद्ध : उम्र के सिनेमाई फासले

देश, समाज या कार्य के हर क्षेत्र में युवा व वृद्ध एकदूसरे से प्रतिस्पर्धा करते दिख जाते हैं. फिल्मी परदे पर परस्पर अनुभवी, सक्रिय व ज्यादा उपयोगी दिखाने की होड़ में राजनीतिक, सामाजिक व आदर्श की फिल्मी जमीन पर युवा बनाम वृद्ध के किरदार बेहद दिलचस्प तरीके से चूहेबिल्ली का खेल खेलते हैं.

60 साल से भी ज्यादा उम्र के अभिनेता रजनीकांत जब अपने से आधी उम्र की नायिका सोनाक्षी सिन्हा से रोमांस करते हैं तो युवा बनाम वृद्ध की दूरियां कम होती दिखती हैं.

मणिरत्नम की फिल्म ‘युवा’ में जब युवा दल का नेता अपने साथियों के साथ चुनावी जीत हासिल करने के बाद संसद प्रांगण में दाखिल होता है तो वहां पहले से मौजूद वरिष्ठ व वृद्ध नेताओं और मंत्रियों के हावभाव देख कर युवा बनाम वृद्ध के बीच के अहं, संघर्ष, वैचारिक असमानता और तल्खियों भरे रिश्ते बखूबी जाहिर होते हैं. भारतीय सिनेमा में उम्र के इस फासले के टकराव को वैचारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आपराधारिक मोर्चे पर मिर्चमसाले के तड़के के साथ पेश करना बेहद कामयाब फार्मूला रहा है.

कभी नायक नायिका के अमीरी के नशे में चूर वृद्ध पिता से टकराता है तो कभी युवा नायक पुलिस या सैनिक की वरदी में उम्रदराज विलेन से दोदो हाथ करता नजर आता है. कई दफा रोमांस की पिच पर एक हसीना के प्यार में पागल युवा और वृद्ध नायक मजेदार चूहेबिल्ली का खेल खेलते दिखते हैं. कभीकभी तकरार चुनावी पगडंडियों से गुजरती हुई पार्लियामैंट तक पहुंच जाती है. और इस सारे क्रम में जैनरेशन गैप के चलते दोनों के बीच की भिड़ंत का इमोशन प्रभावी तरीके से उभरता है. यही वजह है कि बदलते दौर के सिनेमा में सबकुछ बदला लेकिन यंग गन को ओल्ड बैरल के सामने हमेशा दोदो हाथ कर दिखाया गया.

ऐसा नहीं है कि दोनों हमेशा टकराते ही रहते हैं. फिल्म ‘पिंक’ में एक नए तरीके से युवावृद्ध को संवेदनशील तार में पिरोते देखा गया. युवा अपराधी 3 लड़कियों से न सिर्फ छेड़छाड़ करते हैं बल्कि उन में से एक लड़की के साथ बलात्कार भी करते हैं. जब लड़कियां राजनीतिक रसूख के सामने घुटने तोड़ रही होती हैं तभी एक बुजुर्ग वकील उन के लिए अदालत की चौखट पर इंसाफ की बहस करता है और उन्हें न्याय दिलाता है.

युवा बनाम वृद्ध के फार्मूले की बदौलत सिनेमाघरों में जो संख्या युवाओं की होती है, लगभग उसी तादाद में बुजुर्ग भी दिख जाते हैं. आगे हम कुछ ऐसी ही फिल्मों व किरदारों की चर्चा करते हैं जहां उम्र के सिनेमाई फासले अपनीअपनी उम्र के फायदे और नुकसानों के साथ एकदूसरे के सामने डट कर खड़े हैं.

उपेक्षित बुजुर्ग, स्वच्छंद युवा

रजत कपूर की फिल्म ‘दत्तक’ पितापुत्र के रिश्ते को नए तरीके से परिभाषित करती है. उस में युवा और बुजुर्ग के बीच संघर्ष की कोई आर्थिक, आपराधिक या सियासी वजह नहीं है. मामला उपेक्षा का है. जब देश के महल्ले वृद्धाश्रम बनते जा रहे हैं और युवा कैरियर की स्वच्छंदता के नाम पर अपनी दुनिया में मसरूफ हों तो बुजुर्ग कहां जाएं, इस मुद्दे को फोकस में ले कर फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है.

विदेश से कई सालों बाद लौटा पुत्र अपने बुजुर्ग पिता की तलाश में भारत लौटा है और इस क्रम में उसे अपने पिता के साथ वृद्ध आश्रम में अंतिम दिनों के साथी रहे बुजुर्ग से उन के आखिरी दिनों का पता चलता है. जब उसे पता चलता है कि उस के पिता की मृत्यु उस का इंतजार करतेकरते हो गई तो वह अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है लेकिन एक क्रांतिकारी फैसला भी लेता है. पुत्र पिता की जगह उस बुजुर्ग को अपने साथ ले जाता है, इस तर्क के साथ कि जब पुत्र को दत्तक लिया जा सकता है तो पिता को क्यों नहीं?

बेहद अहम मसलों को रेखांकित करती इस फिल्म के प्लौट को कई और फिल्मों में देखा गया. मसलन, ‘अवतार’, ‘बागबान’, ‘उम्र’, और ‘आ अब लौट चलें’ आदि में युवाओं द्वारा उपेक्षित बुजुर्गों का दर्द बयां हुआ. ‘पूरब और पश्चिम’ और ‘नमस्ते लंदन’ में दिखाया गया कि किस तरह युवा अपनी स्वच्छंद जिंदगी के लिए बुजुर्ग मातापिता को अकेलेपन की अंधेरी गुफा में धकेल रहा है.

रोमांस में जब चीनी हो कम

रुपहले परदे पर रोमांस सब से बड़ा बिकाऊ और हिट फार्मूला रहा है. रोमांस में मजेदार परिस्थितियां अकसर उम्र के फासलों को ले कर पैदा होती हैं. हीरो और हीरोइन के बीच जातपांत और अमीरीगरीबी का मामला किसी तरह सुलझ भी जाए लेकिन अगर दोनों के बीच उम्र का अंतर है तो मामला रोचक होना तय है.

फिल्म ‘चीनी कम में’ जब 60 पार कर चुके खड़ूस शेफ का दिल 30 पार लड़की पर आ जाता है तो उम्र की उस दीवार को तोड़ने में नायक के पसीने छूट जाते हैं. पहले कम उम्र की लड़की को कंवेन्स करो, फिर उम्र में खुद से छोटे अपने ससुर का आमरण अनशन तुड़वाओ और न जाने क्याक्या, बस इस तिकड़म में अमिताभ बच्चन, तब्बू और परेश रावल की जुगलबंदी दर्शकों को मजेदार और मनोरंजक लगती है.

इसी थीम को दोहराया गया राम गोपाल वर्मा की विवादित फिल्म ‘निशब्द’ में. फर्क इतना था कि यहां नायक तो 60 साल का बूढ़ा है लेकिन दिल जिस पर आया है उस की उम्र स्वीट 16 की है. साल 2003 में सुभाष घई की फिल्म ‘जौगर्स पार्क’ में एक रिटायर्ड जज खुद से आधी उम्र की लड़की के इश्क में पड़ जाता है. लिहाजा, उसे अपनी बीवी और बच्चों के सामने फजीहत का शिकार होना पड़ता है. उम्र का फासला लोगों को उन के प्यार की गहराई नहीं समझने देता. इस के उलट, ‘श्रीमान आशिक’ और ‘इक्के पे इक्का’ जैसी हास्य फिल्मों में बुजुर्ग हीरो दिल में रोमांस की चाह लिए युवा का रूप धर नायिका का दिल जीतने की मजेदार तिकड़में भिड़ाता है.

ऐसा नहीं है कि हर बार नायक ही बुजुर्ग होता है. कई बार नायिका बुजुर्ग या उम्रदराज होती है और कम उम्र के नायक का दिल उस पर आ जाता है. याद आती है यश चोपड़ा की बहुचर्चित फिल्म ‘लमहे’. फिल्म के फर्स्ट हाफ में अपने से बड़ी उम्र की औरत के प्यार में खोया नायक जब अपने प्यार को नहीं हासिल कर पाता है तो ताउम्र अविवाहित रहने का फैसला करता है.

कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब नायक के प्रेम को अस्वीकृत करने वाली औरत की कमसिन बेटी उम्रदराज हो चुके उसी नायक की तरफ आकर्षित होने लगती है जो उस की मां से प्रेम करता था. उम्र के अनूठे मोड़ में उलझी इस प्रेमकहानी को रिलीज के समय भले ही दर्शकों का वाजिब प्यार न मिला हो पर आज इस फिल्म को क्लासिक का दरजा हासिल है.

इन मसलों को हास्य के हलकेफुलके अंदाज में ‘हसीना मान जाएगी’ में देखा गया जब एक उम्रदराज बूआ का दिल युवा पर आ जाता है. ‘सात खून माफ’ में यह मामला जरा डार्क थीम में लिपटा था. इस तरह जबतब रोमांस की रोड पर उम्र का ब्रेकर लगा है, हालात जरा इश्किया हो ही जाते हैं.

उफ…ये तुम्हारे आदर्श…

रोमांस से आगे बढ़ते हैं तो फिल्मी परदे पर युवा और वृद्ध के बीच सियासी, सामाजिक व आदर्शवाद का संघर्ष होने लगता है. विचारधारा का टकराव कभी भ्रष्टाचार और उसूलों को ले कर होता है तो कभी जिंदगी जीने के तरीके व नियमकानून  को मानने या न मानने को ले कर. कई दफा युवा सोच सही साबित होती है तो कई बार वृद्ध के अनुभव युवाओं पर भारी पड़ते हैं.

फिल्म ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ में बुजुर्ग प्रोफैसर और युवा मैनेजमैंट के स्टूडैंट का वैचारिक टकराव काबिलेगौर है. एक पूंजीवाद का समर्थन है तो दूसरा वाम विचारधारा का है. इसी तरह का द्वन्द सुधीर मिश्रा ने फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ में दर्शाया था. जहां नक्सल और पूंजीवाद की जमीन पर युवाओं का उम्रदराज व भ्रष्ट व्यवस्था से विरोध था.

फिल्म ‘पीकू’ में पितापुत्री की जोड़ी अपनेअपने नजरिए को ले कर तकरार भी करती है और प्यार भी. यश चोपड़ा की ही एक और फिल्म ‘मोहब्बतें’ में जहां युवा संगीतकार शिक्षक कालेज में प्यार के सभी दरवाजे छात्रों के लिए खोलना चाहता है, वहीं ‘प्रिंसिपल’ कठोर अनुशासन का समर्थक है. हालांकि फिल्म के आखिर में युवा दिल और सोच के आगे कठोर दिल पिघल जाता है.

अमिताभ और अक्षय कुमार की 3 फिल्में ‘एक रिश्ता,’ ‘खाकी’ और ‘वक्त’ में युवा बनाम वृद्ध के संघर्ष के 3 अलगअलग आयाम दिखे. फिल्म ‘एक रिश्ता’ में बुजुर्ग पिता अपने युवा पुत्र पर भरोसा नहीं दिखाता और किसी के बहकावे में आ कर उसे घर से बाहर निकाल देता है. यहां दोनों के बीच संघर्ष कारोबार के संचालन को ले कर है. जबकि फिल्म ‘खाकी’ में दोनों के बीच संघर्ष ईमानदारी और बेईमानी को ले कर है. यहां युवा करप्ट है और वृद्ध पुलिस अफसर ईमानदार. जबकि ‘वक्त’ में युवा पुत्र कामचोर है और बुजुर्ग पिता अपनी जिंदगी के बचे चंद दिनों में अपने पुत्र को काबिल और जिम्मेदार बनाने के लिए अनूठा प्रयोग कर रहा है.

भ्रष्टाचार के धरातल में कमल हासन की फिल्म ‘हिंदुस्तानी’ अनोखी पहल थी. यहां बुजुर्ग स्वतंत्रतासेनानी समाज में फैले करप्शन को खत्म करने के लिए हिंसक तरीके अपना रहा है और इस राह में आने वाले अपने इकलौते व भ्रष्ट पुत्र को भी मृत्युदंड देने से पीछे नहीं हटता. इस फिल्म में पितापुत्र दोनों किरदार कमल हासन ने बखूबी निभाए.

आदर्श और उसूलों की युवा बनाम वृद्ध का संघर्ष ‘शक्ति’, ‘सारांश’, ‘मैं ने गांधी को नहीं मारा’, ‘गांधी-माई फादर’, ‘ऐलान’ जैसी कई फिल्मों में रोचक अंदाज में प्रदर्शित हुआ. फिल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ और दिलीप कुमार की जोड़ी पितापुत्र के रूप में दिखी. जहां दोनों में संघर्ष इस बात को ले कर है कि फर्ज की खातिर पुलिस पिता ने बेटे के जीवन की परवा नहीं की. परिणामस्वरूप बेटा खफा हो कर अपराध के रास्ते पर निकल कर पिता के सामने कानून का दुश्मन बन कर खड़ा हो जाता है.

यंगिस्तान की राजनीति

अकसर हमारे नेताओं की इस बात को ले कर तीखी आलोचना होती है कि वे राजनीति में युवाओं को आगे नहीं लाना चाहते और खुद ही कुर्सियों पर जमे रहना चाहते हैं. इस बाबत कई युवा नेताओं और बुजुर्ग नेताओं के बीच अमर्यादित बयानबाजी भी देखी गई है.

फिल्म ‘यंगिस्तान’ में एक मंत्री की अचानक हुई मौत के चलते जब उस के नौसिखिए बेटे को मंत्री बनाया जाता है तो पार्टी में पहले से मौजूद बुजुर्ग नेताओं की प्रतिक्रिया नकारात्मक रहती है. फिल्म में युवा नेता के नए सियासी तरीकों और बुजुर्गों के अडि़यल स्वभाव पर तीखा कटाक्ष किया गया है.

इस मामले में सब से रोचक फिल्म जो याद आती है वह है अनिल कपूर अभिनीत ‘नायक’. निर्देशक शंकर की इस फिल्म में युवा और ईमानदार राजनीति बनाम करप्ट और बुजुर्ग खलनेता के बीच जबरदस्त टक्कर दिखाई गई है. युवा नायक न्यूज चैनल के दफ्तर में रिपोर्टर कम कैमरामैन है और उस के सामने है वृद्ध राजनेता खलनायक बतौर सीएम. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि एक लाइव इंटरव्यू के दौरान सीएम नायक को एक दिन का सीएम बनने की चुनौती देता है. फिर इसी अजीबोगरीब उठापटक में शुरू होती है युवा बनाम वृद्ध की सियासी जंग.

मणिरत्नम की फिल्म ‘युवा’ में अजय देवगन, अभिषेक बच्चन और विवेक ओबेराय युवा शक्ति को अपनेअपने तरीके से प्रतिबिंबित करते हैं और उन के रास्ते में बाधक बनते हैं बुजुर्ग राजनेता.

उम्र से आंखमिचौली

दिलचस्प बात यह है कि तमाम सिनेमाई प्रयोगों में ज्यादातर वृद्ध व सशक्त किरदार अपेक्षाकृत युवा अभिनेताओं ने अदा किए. अपनी उम्र से कई गुना बड़े किरदारों को युवा ऐक्टर्स ने संजीदगी से जिया. ‘सारांश’ फिल्म में

60 पार की भूमिका के लिए नैशनल अवार्ड पाने वाले अनुपम खेर उन दिनों 28 साल के भी नहीं थे. इसी तरह कमल हासन ‘हिंदुस्तानी’ में 80 साल के फ्रीडम फाइटर का रोल 40 साल की उम्र में विश्वसनीयता से निभाते हैं.

भारत-पाक क्रौसबौर्डर लव ड्रामा ‘वीर जारा’ में शाहरुख खान और प्रिटी जिंटा को बुजुर्ग किरदारों में देखा गया. सुपरस्टार राजेश खन्ना ने भी जवानी के दिनों में ‘अवतार’ और ‘आप की कसम’ जैसी फिल्मों में बुजुर्ग किरदार सफलतापूर्वक अदा किए. फिल्म ‘गांधी- माइफादर’ में गांधी का किरदार निभाने वाले दर्शन जरीवाला, रिचर्ड एटंबर्ग की औस्कर विजेता फिल्म ‘गांधी’ में बेन किंग्सल ने भी यही काम किया.

इस तरह की फिल्मों में सब से ज्यादा प्रयोग अगर किसी अभिनेता ने किए हैं तो वे संजीव कुमार हैं. संजीव कई फिल्मों में अपनी उम्र से बड़े किरदारों में दिखे. अलगअलग फिल्मों में अभिनेत्री जया बच्चन के पति, पिता, ससुर और प्रेमी की भूमिका निभाने वाले संजीव अकेले ऐक्टर थे.

फिल्म ‘पा’ में अमिताभ बच्चन ने बेहद अनूठा प्रयोग किया. इस फिल्म में वे 10 साल के प्रोजोरिया से पीडि़त लड़के की भूमिका 60 साल में करते दिखे. और तो और, अपने रियल लाइफ पुत्र अभिषेक बच्चन के बेटे बने नजर आए.

उम्र का जो फासला रुपहले परदे पर मेकअप की परतों के तले होता है, असल जिंदगी में कुछ और हो जाता है. असल जिंदगी में जहां अभिनेता अक्षय खन्ना जैसे युवा सितारे उम्रदराज लगते हैं तो वहीं सलमान खान, अनिल कपूर और जैकी श्रौफ जैसे उम्रदराज सितारे युवा अभिनेताओं को टक्कर देते हुए अभी तो हम जवान हैं के फलसफे को चरितार्थ कर रहे हैं.

अब श्रीदेवी को ही ले लीजिए. अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना के साथ काम करने वाली अभिनेत्री ने जब फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ से जोरदार वापसी की तो अपने यंगलुक्स और सैक्सी फिगर से कमसिन अभिनेत्रियों को टक्कर दे गईं. अमिताभ बच्चन जब ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ में दिखते हैं तो लगता नहीं है कि उन की उम्र 60 पार है. ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी भी कई युवा अभिनेत्रियों को कौंपलैक्स देने के लिए काफी हैं.

माधुरी दीक्षित, रेखा, सिमी ग्रेवाल और जूही चावला ने भी खुद को काफी हद तक जवान बना रखा है. इस लिस्ट में ऐश्वर्या, रवीना टंडन, शिल्पा शेट्टी, आसिफ शेख और सोनाली बेंद्रे के नाम भी लिए जा सकते हैं.

संतुलन की सीढ़ी

कुल मिला कर भारतीय सिनेमा में जब भी युवा और वृद्ध किरदार आमनेसामने आए हैं, दर्शकों का खूब मनोरंजन हुआ है. उम्र का यह फिल्मी फासला और संघर्ष कभी हंसाता है, कभी रुलाता है तो कभी सामाजिक सरोकार से जुडे़ कई अहम और गंभीर सवाल खड़े कर देता है. समझने वाली बात तो यह है कि ये फिल्मी किरदार हमारी असल जिंदगी से प्रेरित या आधारित होते हैं.

समाज के किसी न किसी कोने में उम्र का फासला लिए 2 जैनरेशन एकदूसरे से संघर्ष करती दिख जाती हैं. कभी दफ्तरों में बौस-कर्मचारी की तरह, कभी खेल के मैदान में कोच-खिलाड़ी की तरह तो कभी राजनीतिक मोरचे पर.

कार्य के हर क्षेत्र में वृद्ध और युवा एकदूसरे को ज्यादा उपयोगी और सक्रिय दिखाने की होड़ में भिड़ते हैं, प्रतिस्पर्धा करते हैं. कभी युवा का उत्साह और ऊर्जा जीतती है तो कभी बुजुर्गियत का अनुभव बाजी मार जाता है. लेकिन, उम्र का यह फासला हमारे देश, समाज और पारिवारिक संरचना के संतुलन की सीढ़ी का काम भी करता है.

वृद्धों की जेब से मालामाल बौक्स औफिस

एकल सिनेमा यानी सिंगल स्क्रीन सिनेमा का दौर अब लगभग खत्म हो चुका है. पुराने सिंगल स्क्रीन या तो तोड़ कर मौल, मल्टीप्लैक्स की शक्ल ले चुके हैं या फिर स्टोरहाउस बनने पर मजबूर हैं. इस बदलाव ने फिल्मों की कमी और बौक्स औफिस के गणित को भी बदल कर रख दिया है.

90 के दशक तक फिल्म का टिकट औसतन 5 रुपए से 30 रुपए तक था. मल्टीप्लैक्स सिनेमाघरों के आने के बाद अब वही टिकट 500 रुपए तक पहुंच गया है. जाहिर है इतना पैसा युवा दर्शक आसानी से नहीं जुटा पाते, जिन में स्कूल छात्र, कोचिंग स्टूडैंट, साधारण नौकरीपेशा शामिल हैं.

अब फिल्म दर्शकों में पैसे वाले युवा कम हैं और वृद्घ प्रौढ़ दर्शक ज्यादा हैं जो मल्टीप्लैक्स में पैसा खर्च कर सकते हैं. इसलिए उन के मतलब की सस्ती फिल्में भी जोरदार कमाई कर जाती हैं और युवा व बच्चों को ध्यान में रख कर बनाई गई फिल्में पिट जाती हैं.

‘सीक्रेट सुपरस्टार’, ‘रिदम’, ‘स्निफ’, ‘आवाज’, ‘सिक्सटीन’, ‘कच्चा लिम्बू’, ‘स्टैनली का डिब्बा’ जैसी कई फिल्में आईं जो छात्र जीवन और संघर्ष पर आधारित थी, दर्शकों को मल्टीप्लैक्स नहीं खींच पाईं, क्योंकि इन फिल्मों के दर्शक युवा थे. वहीं पिछले 1-2 सालों में प्रदर्शित हुई फिल्मों बाहुबली-2, ‘टौयलेट एक प्रेमकथा’, ‘काबिल’, ‘रईस’, ‘जौली एलएलबी-2’, ‘पीकू’, ‘प्रेम रतन धन पायो’,  ‘सरबजीत’, ‘साला खड़ूस,’ ‘अजहर’, ‘मदारी’, ‘तलवार’, ‘सुलतान’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘बाहुबली’, ‘पिंक’, ‘तीन’, ‘बाजीराव मस्तानी’, ‘दिल धड़कने दो’, ‘गब्बर इज बैक’, ‘एयरलिफ्ट’, ‘बेबी’, ‘मांझी-द माउंटेन मैन’, ‘रूस्तम’, ‘कबाली’, ‘घायल वंस अगेन’, ‘जय गंगाजल’, ‘गंगाजल,’ ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’, ‘वेलकम बैक’, ‘बदलापुर’, ‘दृश्यम’ ने जोरदार कमाई की. ऐसा इसलिए क्योंकि ये सभी फिल्में या तो पारिवारिक थीं या फिर अपने मैच्योर या सस्ते कंटैंट की वजह से दर्शकों की जेबें ढीली कर लेती हैं.

एक फिल्म के लिए 250 से 500 रुपए तक के टिकट के अलावा करीब 500 रुपए तक के स्नैक्स. आनेजाने का खर्चा मिला कर लगभग 1,000 रुपए खर्च करना, जाहिर है युवाओं की पौकेट पर भारी पड़ता है. वे या तो नई फिल्मों के स्मार्टफोन पर पायरेटेड वर्जन देख कर मन बहला लेते हैं या फिर टीवी प्रीमियर के भरोसे बैठे रहते हैं. लेकिन वृद्ध  दर्शक जो किसी मल्टीनैशनल कंपनी के एमडी, मैनेजर, सीनियर पोस्ट पर काम करते हैं, आसानी से इतने पैसे मल्टीप्लैक्स में जा कर खर्च करने की कूवत रखते हैं.

इस के अलावा सामाजिक ढांचे में भी बदलाव आया है. एक दौर था जब बड़ेबूढ़े सिनेमाघरों से अपने बच्चों को दूर रखते थे. तर्क था कि फिल्में देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं. इस के चलते सिनेमाघरों में जाना उन दिनों आपराधिक कृत्य सरीखा था. अब वृद्घों की मानसिकता बदली है. लिहाजा, वे अब फिल्मों को देखना वीकैंड होलीडे समझते हैं और अपनी जेब से पैसे खर्च कर पूरे परिवार को मल्टीप्लैक्स की सैर कराते हैं.

फिल्म एक्सपर्ट मानते हैं कि हिंदी में ज्यादातर सुपरहिट फिल्में फैमिली ओरिएंटेड रही हैं. इस के पीछे की वजह यही है कि उन के दर्शक वयोवृद्ध थे. सिर्फ युवाओं ने किसी फिल्म को सुपरहिट कराया हो, ऐसी कोई फिल्म नहीं है. ‘प्रेम रतन धन पायो’ इस बात की तसदीक करती है.

फिल्म उन्हीं घिसेपिटे फैमिली ड्रामा, मूल्य, भाईबहन का प्यार, जायदाद का बंटवारा, पारिवारिक साजिश और राजश्री के प्रचलित फार्मूलों पर चलती है. यह बेसिरपैर का मसला बूढ़े दर्शकों को आज भी भाता है. वे उसे अपने परिवार से जोड़ कर देखते हैं और अपने बच्चों को ऐसी फिल्में दिखाने पर जोर देते हैं. फिल्में तभी बड़ी हिट होती हैं जब उन्हें फैमिली दर्शक मिलते हैं. सूरज बड़जात्या की फिल्में रूढि़वादी और पारंपरिक होती हैं और इसी कारण पारंपरिक व रूढि़बद्ध बूढ़े दर्शकों को पसंद आती हैं.

इस बदलाव को भांपते हुए फिल्मकार इसी उम्र के दर्शकों को ध्यान में रख कर सस्ती और गैरसामाजिक सरोकार की सस्ती फिल्में बनाते हैं और बूढ़े दर्शक सिनेमाघरों में आ कर अपनी जेबें ढीली कर जाते हैं.

बूढों के सहारे फिल्म उद्योग

राजनीति में राहुल गांधी (47 साल) और अखिलेश यादव (44 साल) जैसे 40 पार नेताओं को युवा नेता बता कर खूब पोस्टरबाजी की जाती है, युवा कार्यकर्ताओं व वोटर्स को रिझाया भी जाता है. दरअसल, राजनीति में कद्दावर व भीड़ खींचने वाले 30-35 साल के कन्हैया कुमार या हार्दिक पटेल जैसे युवा नेता न के बराबर हैं. सो, पार्टियों को इन अधेड़ कथित युवा राजनेताओं का सहारा लेना पड़ता है.

राजनीति की ही तरह, हिंदी फिल्म को भी अब बूढ़े स्टार्स का ही सहारा है. फिल्मों को भी बूढ़ों का सहारा लेना पड़ रहा है क्योंकि यहां भी युवा स्टार्स की बेहद कमी है. वृद्घ स्टार हैं कि रिटायर नहीं हो रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा फिल्में करने को तैयार हैं. इसलिए बूढ़े सितारे ही दर्शकों को सिनेमाघर पर खींच रहे हैं. यहां तो राजनीति से भी बुरा हाल है. क्योंकि यहां का युवा सितारा कथित तौर पर 50 साल का है. 25-30 साल के युवा अभिनेता या तो टीवी सीरियल्स और मौडलिंग वर्ल्ड में खपाए जा रहे हैं या फिर इंटरनैट की वैब सीरीज में काम करने को मजबूर हैं. फिल्मों में तो 50-60 साल के अभिनेता ही सुपरस्टार बने हुए हैं. वृद्ध स्टार आज साल में 3-4 फिल्में करने से गुरेज नहीं करते. मौजूदा ज्यादातर स्थापित स्टार 80-90 के दशक से फिल्मों में घिसे जा रहे हैं.

सलमान खान की उम्र 52 साल की है और वे ‘सुलतान’ फिल्म में 30 साल के लड़के का रोल कर रहे हैं. ऐसे ही अक्षय कुमार 50 के हो चुके हैं लेकिन फिल्म ‘खट्टा मीठा’ में छात्र की भूमिका मजे से निभाते हैं, ‘स्पैशल 26’ में भी वे यही काम करते हैं. आमिर खान, जिन की उम्र 52 साल है, फिल्म ‘3 इडियट्स’ में मैनेजमैंट के अपनी उम्र से आधे के छात्र के किरदार में दिखते हैं. इसी तरह अधेड़ हो चुके शाहरुख खान 52 साल के हो चुके हैं लेकिन दीपिका पादुकोण और आलिया भट्ट के साथ मजे से काम कर रहे हैं. इसी तरह संजय दत्त 58 साल के हो चुके हैं. सैफ अली खान 46 साल के हैं और आसानी से 25-30 साल की अभिनेत्रियों के साथ रोमांस कर रहे हैं.

अक्षय कुमार, सलमान, अजय देवगन, सुनील शेट्टी, शाहरुख खान, सैफ अली आदि स्टार्स 50 के आसपास हैं और 1990 से फिल्मों में सक्रिय हैं. फिर भी युवा स्टार्स उन के सामने कहीं से भी टिक नहीं पाते. या कह सकते हैं कि इन के होते उन्हें मौका ही नहीं मिल रहा. नतीजतन, ये सभी उम्रदराज स्टार बौलीवुड को अपनी मुट्ठी में कैद किए हैं.

इस मामले में अमिताभ बच्चन का भी जवाब नहीं. जनाब 75 साल के हो चुके हैं. इस उम्र के ज्यादातर बुजुर्ग अपने नातीपोतों के साथ घर में खाली वक्त बिताते हैं लेकिन अमिताभ बच्चन साल में ‘पिंक,’ ‘तीन’ और ‘पीकू’ जैसी फिल्में कर युवा कलाकारों से ज्यादा मेहनताना जेब में अंटी कर लेते हैं. 75 साल के होते हुए वे खुद को बूढ़ा मानने के लिए तैयार नहीं हैं. ‘बूड्ढा होगा तेरा बाप’ जैसी फिल्मों में खुद को युवाओं का स्टार साबित करने की कोशिश करते दिख जाते हैं. बिग बी की तरह नाना पाटेकर, अनिल कपूर, आदित्य पंचोली, आसिफ शेख, जैकी श्रौफ, अरबाज खान के भी नाम लिए जा सकते हैं.

इन सब स्टार्स से अपेक्षाकृत स्टार की बात करें तो शाहिद कपूर, विवेक ओबेराय, आफताब शिवदासानी, अर्जुन कपूर, ऋतिक रोशन, रणवीर सिंह, रणबीर कपूर, वरुण धवन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, जिमी शेरगिल के नाम आते हैं. हालांकि ये भी 30 से 40 साल के हैं और युवा होने के मूल मापदंड से काफी दूर हैं, फिर भी रुपहले परदे पर 20-25 साल के युवा किरदारों को कर लेते हैं. हालांकि ये हमेशा दूसरी श्रेणी के ही स्टार रहे हैं. पहली कतार में 50 साला स्टार ही आते हैं. उन की फिल्में भी करोड़ों का कारोबार करती हैं. उन के अपने प्रोडक्शन हाउस भी हैं.

यही हाल अभिनेत्रियों के मामले में भी है. दीपिका पादुकोण, करीना कपूर, कैटरीना कैफ, ऐश्वर्या राय, तब्बू, प्रियंका चोपड़ा, विद्या बालन, रानी मुखर्जी, अमीषा पटेल, काजोल जैसी बड़ी अभिनेत्रियां 35-40 साल की हैं और युवा अभिनेत्रियां इन की सहेली, साइडकिक के रोल करने को मजबूर हैं. आलिया भट्ट व श्रद्धा कपूर जरूर युवा हैं लेकिन इन के नाम अपवाद सरीखे हैं.

दरअसल, बूढ़े हो चुके ये स्टार जब अपनी फिल्मों में युवा किरदारों में स्वीकृत हो जाते हैं तो अन्य फिल्मकार उन भूमिकाओं के लिए युवा कलाकारों को नहीं लेते. वजह, युवा स्टार के बजाय उम्रदराज स्टार की फिल्म सिनेमाहौल तक ज्यादा भीड़ लाती है.

साऊथ इंडियन फिल्म इंडस्ट्री का भी बुरा हाल है. वहां तो रजनीकांत (66), बालकृष्ण (57), चिरंजीवी (62), वेंकटेश (56), ममूटी (66), मोहन लाल (57) साल के हैं लेकिन अपनी हर फिल्म में 25-30 साल की हीरोइन के साथ रोमांस करते हैं और दर्शकों को भी सिनेमाघर के आगे ढोलनगाड़े बजाने पर मजबूर कर देते हैं. कमोबेश हर भाषा की फिल्मनगरी में बूढ़े स्टार्स राज कर रहे हैं और युवा स्टार्स की कमी बनी हुई है.

तकनीकी शिक्षा को नेत्रहीनों तक पहुंचाना चाहती हूं : विद्या येल्लारेड्डी

जिन्हें सब कुछ मिला है, वे कुछ न कुछ कमियां खुद में निकालकर जिंदगी से मायूस होकर गलत कदम उठाकर जिंदगी को खत्म कर देते हैं, अपराधी बन जाते हैं या फिर डिप्रेशन में चले जाते हैं. इस दौर में कुछ ऐसे भी इंसान है, जिन्होंने अपनी कमी को ही अपनी शक्ति बनाकर संघर्ष कर अपनी मुकाम हासिल की. ऐसी ही चरित्र की धनी हैं, कर्नाटक के बंगलुरु की तिरुमा गोंडाना हाली गांव की रहने वाली  23 वर्षीय विद्या येल्लारेड्डी, जिन्होंने नेत्रहीन होने के बावजूद तकनीक के क्षेत्र में पढ़ाई पूरी की.

इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा, लेकिन वह कभी पीछे नहीं हटी और कामयाबी हासिल की. आज वह एक ऐसी एनजीओ खोलना चाहती हैं, जो गणित और विज्ञान पढ़ने की इच्छा रखने वाले नेत्रहीन बच्चों को सहयोग दे. विद्या को इस कामयाबी के लिए रीबोक ने ‘फिट टू फाइट’ पुरस्कार से सम्मानित किया है.

विद्या जन्म से नेत्रहीन हैं, लेकिन उनके माता-पिता ने उसे आम लड़की की तरह ही पाला है, उसे कभी एहसास नहीं हुआ कि वह किसी से कम है. वह कहती है कि मेरे माता-पिता कम पढ़े-लिखे हैं, लेकिन उनका सहयोग ही मुझे यहां तक ले आया है. गांव में मेरा जन्म होने की वजह से वहां किसी भी प्रकार की जानकारी उन्हें नहीं थी कि वे मुझे किसी डाक्टर के पास ले जाएं या कोई इलाज मेरी आंखों के लिए करवाएं. मैं उनकी पहली संतान और प्रीमेच्योर बच्चा होने की वजह से वे बहुत परेशान थे. उन्हें मुझे स्वीकारने में भी समय लगा. मुझसे छोटी दो बहनें नार्मल हैं.

लड़की का जन्म वैसे ही गांव में खराब माना जाता है, ऐसे में अगर वह लड़की नेत्रहीन हो, तो क्या कहने, गांव के लोग हजारों सुझाव देने लगते हैं, मसलन स्कूल मत भेजो, इसे कौन सम्हालेगा, इससे कौन शादी करेगा, उसके युट्रेस को निकलवा दो, ताकि कभी बच्चा न हो आदि कहते थे, लेकिन मेरे माता–पिता बहुत साहसी हैं, उन्होंने हर तरह के सुझाव सुने, लेकिन उन्हें जो ठीक लगा उन्होंने किया. मेरी मां की शादी भी बहुत कम उम्र में हुई थी. मैं उनकी पहली संतान हूं, ऐसे में उन्हें भी सामान्य होने में काफी समय लगा. कम पढ़े-लिखे होने पर भी उनकी समझदारी बहुत अधिक है.

हालांकि विद्या ब्लाइंड हैं, पर उन्हें कुछ अलग करने की इच्छा बचपन से थी, वह अपने आप को एक सामान्य बच्चे की तरह ही समझती थी और वैसे ही जीना चाहती थी. वह बताती हैं कि सारे ब्लाइंड स्कूल गांव से काफी दूर शहर में थे, ऐसे में कैसे क्या करना है, समझ पाना मुश्किल हो रहा था. फिर माता-पिता ने मुझे बंगलुरु के एक हॉस्टल में रहने के लिए भेजा ,जहां से मैं रोज अकेले आया-जाया कर सकती थी. वहां पढ़ाई अच्छी थी, पर मैथ और साइंस की पढ़ाई ठीक नहीं थी. डायग्राम नहीं पढ़ाये जाते थे, क्योंकि उसके लिए विजुअल माध्यम जरूरी होता है. 7वीं कक्षा तक मैं ब्लाइंड स्कूल में पढ़ी, लेकिन इसके बाद मैं आम स्कूल में जाना चाहती थी, पर किसी भी स्कूल में मुझे दाखिला नहीं मिला, क्योंकि मैं ब्लाइंड हूं. इतना ही नहीं वे मुझे पूछते थे कि मैं बाथरूम कैसे जाती हूं, कैसे अपने आप को संभालती हूं.

विद्या को अब समझ में आ गया था कि उसे अपना अधिकार पाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, वह तैयार भी थी. वह हंसती हुई कहती हैं कि मैंने अपने माता-पिता से चर्चा की और अपने गांव में आकर आम बच्चों के साथ पढ़ने के लिए अत्तिविले गांव में जाने लगी. मैंने मैथ और साइंस लिया, पर मुझे बोर्ड पर लिखा कुछ समझ में नहीं आता था. फिर मैंने टीचर की सहायता से पढ़ना शुरू किया. उस समय ब्लाइंड पर्सन के लिए मैथ और साइंस के लिए ब्रेल में कोई किताब नहीं थी. टीचर ने कई बार मुझे कहा कि मैं ह्युमनिटी के विषय ले लूं, पर मुझे गणित और विज्ञान लेकर ही पढ़ना था और मैं पढ़ी और 10 वीं कक्षा में 95 प्रतिशत अंक लेकर पास किया.

11वीं और 12वीं के लिए मैंने कॉलेज ज्वाइन किया और 58 किलोमीटर बस से यात्रा करने लगी. इस काम में मेरे कजिन भाई मुरली का बहुत बड़ा हाथ रहा, जो मेरे साथ पूरा दिन क्लास में रहकर टेप कर मुझे सुनाता था और परीक्षा में वही मेरी जगह लिखता था. इसके लिए जब मैंने एक घंटा अधिक परीक्षा समय के लिए कर्नाटक के शिक्षा विभाग के अधिकारी से मांगा, तो उन्होंने मुझे पहले मना कर दिया, लेकिन बाद में कौलेज की तरफ से सहयोग देने पर सभी ब्लाइंड बच्चों को एक घंटे का अधिक समय मिलने लगा. इसके बाद मैंने कंप्यूटर साइंस लिया, लेकिन कौलेज में इस विषय को समझना मुश्किल था. फिर मैंने स्काइप के सहारे सुन-सुनकर अपनी पढ़ाई घर पर पूरी की. इसके बाद मैंने बैंगलोर के तकनीकी कौलेज से पोस्टग्रेजुएट किया, जहां मुझे गोल्ड मैडल मिला.

विद्या को केवल पढाई में ही नहीं बल्कि हर जगह चुनौती थी. उन्हें हमेशा यह एहसास दिलाया जाता रहा है कि वह दूसरों से कम हैं. किसी भी अवसर या विवाह पर उन्हें कही जाना अच्छा नहीं लगता था. इसलिए वह हमेशा घर पर ही रहती थी. उनका आगे कहना है कि मुझे सबकी ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती थी. मैं मानसिक रूप से परेशान होती थी, क्योंकि मैं भी आम लड़कियों की तरह ही सब कुछ करना चाहती हूं. इसलिए अब मैंने सोचा है कि मैं शिक्षा के सभी स्तर को नेत्रहीन बच्चों तक पहुंचाने के लिए जो करना पड़े करुंगी, ताकि मुझ जैसी हालात किसी बच्चे की न हो. इसलिए मैं ‘विजन एम्पावर’ संस्था के साथ जुडकर मैथ और साइंस को ब्लाइंड बच्चों तक सुलभता से पहुंचाने की तकनीक को पूरे देश में फैलाने की कोशिश कर रही हूं, क्योंकि तब से लेकर आज तक हमारे देश में कोई सुधार नहीं हुआ है.

कर्नाटक में 45 ब्लाइंड स्कूल में केवल 1 स्कूल में केवल 10 वीं तक मैथ एंड साइंस है. जबकि भारत में 11लाख, 5 से 19 की उम्र वाले बच्चे नेत्रहीन हैं, जिसमें केवल 68 प्रतिशत बच्चे ही स्कूल जा पाते हैं, जिसमें केवल 15 प्रतिशत बच्चे ही उच्च शिक्षा लेते हैं, इसलिए मैंने शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए ये कदम उठाया है. यह मेरा पहली प्रोजेक्ट है और मैं चाहती हूं कि जो भी नेत्रहीन बच्चे हमारे देश में कहीं भी हों, वे विदेशों की तरह यहां हर क्षेत्र में पढ़ सकें. आज से 10 साल पहले जब मैं पढ़ रही थी, तब जिस तरह के किताबों की कमी नेत्रहीनों के लिए थी, वह आज भी कायम है. ये मेरे लिए बहुत दुखदायी है. इस काम में प्रोफेसर सुप्रिया और अमित मुझे बहुत सहयोग दे रहे हैं. इसके अलावा हेल्थकेयर के क्षेत्र में भी मैं कुछ करना चाहती हूं, हौस्पिटल और एक स्कूल खोलने की इच्छा है.

यहां तक पहुंचने में विद्या ने हमेशा चुनौती का सामना किया है. पहली वह अपने मन मुताबिक पढ़ नहीं सकती थी. जो विषय वहां नेत्रहीन बच्चों के लिए है, उसी को पढ़ना था. इसके अलावा स्कूल उसके घर से बहुत दूर था, जिसकी वजह से उसे बहुत ट्रेवल करना पड़ता था. माता-पिता कम पढ़े-लिखे होने की वजह से उनका सहयोग विद्या को नहीं मिला और उसे किसी और के ऊपर हमेशा निर्भर रहना पड़ता था. मसलन परीक्षा में उसके विषय को लिखना, कॉलेज में पढ़ाई जाने वाली विषय को उसे पढ़कर समझाना आदि. पहले विद्या को सबकी उलाहने और सुझाव सुनकर बहुत दुःख होता था, पर आज नहीं. उसने इससे निकलना सीख लिया है. समय मिले तो विद्या कर्नाटक संगीत सुनना, गाना, शतरंज खेलना और जरुरतमंदों को हेल्प करना पसंद करती हैं.

रसोई छोटी हो या बड़ी, पर हर रसोई कुछ कहती है

रसोई छोटी हो या बड़ी, वह परिवार की मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक जरूरतों को पूरा करती है, कुकिंग करने वाले का परफैक्ट मूड बनाती है. यानी हर रसोई कुछ कहती है. कैसे, बता रही हैं ललिता गोयल.

बचपन में मेरे पास एक किचन सैट था जो मुझे मेरी मां ने गिफ्ट किया था. उस किचन सैट से जुड़ी यादें, भावनाएं आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं. विवाह के बाद अपनी रसोई डिजाइन करवाते समय मैं ने अपने डिजाइनर से उन्हीं खास यादों, रंगों, खुशनुमा पलों को समेटने को कहा ताकि वे यादें, खुशनुमा पल मेरी जिंदगी, मेरे परिवार में हमेशा रहें और मैं अपने परिवार को वे सारी खुशियां अपनी रसोई के माध्यम से परोस सकूं जो मैं अपने छोटे से किचन सैट से खेलखेल कर महसूस करती थी.

आप हैरान हो रहे होंगे कि क्या बचपन की यादों का रसोई की डिजाइन पर असर होता है. जी हां, वास्तव में ऐसा होता है. रसोई के डिजाइन के पीछे हर व्यक्ति की एक मनोवैज्ञानिक सोच होती है जो उस के आपसी रिश्तों, आदतों, सेहत पर प्रभाव डालती है. कोई भी व्यक्ति ऐसी रसोई कभी नहीं चाहेगा जो उसे उस स्थान की याद दिलाए जहां उस ने अपने मातापिता को सदैव लड़तेझगड़ते देखा था. हर व्यक्ति ऐसी रसोई चाहता है जहां से पूरे परिवार की खुशियां जुड़ी हों और जहां से आने वाले व्यंजनों की खुशबू सारी चिंताओं को दूर कर के आपसी रिश्तों में मिठास भर दे. इसलिए एक अच्छा किचन डिजाइनर किसी के लिए भी किचन डिजाइन करते समय उस के परिवार की जरूरतों, उस के इतिहास, उस के स्वभाव व आपसी रिश्तों की जानकारी भी लेता है.

किचन रिवोल्यूशन

रसोई डिजाइन करते समय इस बात का ध्यान भी रखा जाता है कि उस में अधिक से अधिक सामान आ जाए और वह फैलीफैली न लगे. एक ऐसी रसोई जिस के रंग, लाइट, खिड़कियां, वहां रखा सामान काम करने वाले की मनोवैज्ञानिक जरूरत के आधार पर हों तो वे उस व्यक्ति को सेहतमंद व स्वादिष्ठ खाना बनाने के लिए प्रेरित करते हैं.

आजकल किचन डिजाइन करते समय बोरियत से बचने के लिए मनोरंजन के संसाधन भी रखे जाने लगे हैं. यानी किचन जितनी स्टाइलिश और जरूरतों के आधार पर होगी, कुकिंग उतनी ही मजेदार होगी और रिश्तों में उतनी ही प्रगाढ़ता आएगी. इसलिए समय के साथ चलने के लिए किचन का कायाकल्प मनोवैज्ञानिक जरूरतों के आधार पर करना होगा.

रस्टिक किचन

यह किचन उन महिलाओं के लिए डिजाइन की जाती है जिन के पास समय की कमी होती है और वे रसोई का प्रबंधन ढंग से नहीं कर पातीं. यह किचन कौंसैप्ट आधुनिक होममेकर्स के लिए एक वरदान है. रस्टिक किचनवेयर में अर्दनवेयर पोट्स को सजावट के लिए प्रयोग किया जाता है. रस्टिक लुक के लिए कैबिनेट्स में ट्रैडिशनल लुक वाले हैंडल्स व नौब्स प्रयोग किए जाते हैं.

जैसा स्वभाव वैसी किचन

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग अंतर्मुखी होते हैं वे नहीं चाहते कि उन्हें किचन में खाना पकाते या उस की तैयारी व साफसफाई करते समय कोई देखे. इसलिए वे किचन ऐसी जगह पर चाहते हैं जहां से घर के मेहमान उन्हें खाना बनाते समय न देख सकें. और वे मेहमानों को बिना देखे ही उन से बात करना चाहते हैं. इसे उन का अक्खड़ स्वभाव न समझें, यह उन का जन्मजात स्वभाव है. इस के विपरीत वे लोग जो बहिर्मुखी हैं वे चाहेंगे कि उन की किचन घर के ऐसे स्थान पर हो जहां से मेहमान उन्हें देख सकें और वे वहीं से उन्हें देखते हुए बातें कर सकें.

मनोवैज्ञानिक प्रांजलि मल्होत्रा इस विषय पर कहती हैं, ‘‘पुराने समय से किचन को हमारे घरों का सब से पवित्र और शुद्ध हिस्सा माना जाता रहा है. इस का स्थान हमेशा ऐसी जगह पर होता है जो वेलकमिंग हो. किसी गृहिणी की किचन साफसुथरी, सिस्टेमैटिक और वैलडैकोरेटेड होती है तो उस किचन से अच्छी भावनाएं आती हैं. अगर किचन का रंग, डैकोरेशन गृहिणी की पसंद का होता है, उस में अच्छी सनलाइट आ रही होती है तो वह अपनी कुकिंग को एंजौय करती है, कुकिंग में नएनए ऐक्सपैरिमैंट करती है, उसे खाना बनाना एक बोझ नहीं लगता. यही नहीं, खाना बनाने में मिलाया गया प्यार का रस घर के सदस्यों में आपसी स्नेह को भी बढ़ाता है. इस के विपरीत जब किचन किसी होममेकर की मनोवैज्ञानिक सोच के आधार पर डिजाइन नहीं होती, उस का रंग, लाइट, उस की पसंद का नहीं होता तो वह तनाव व गुस्से में भोजन पकाती है जिस का विपरीत और नकारात्मक असर घर के सदस्यों के स्वास्थ्य और आपसी रिश्तों पर पड़ता है.’’

इंटीरियर डिजाइनर सोनिया किचन डिजाइन के पीछे छिपी मनोवैज्ञानिक सोच के बारे में कहती हैं, ‘‘किचन का जितना अच्छा डिजाइन होगा पतिपत्नी के बीच उतना ही अधिक प्यार बढ़ेगा जैसे लाइट पिंक रंग अगर किचन में कराया जाए तो वह कुकिंग करने वाले को शांत रखता है और घर में प्यार बढ़ता है जबकि किचन में डार्क रंग कुकिंग करने वाले को हाइपर बनाते हैं.’’ किचन डिजाइन करते समय हम घर के सदस्यों की सोच, उन की पसंद का ध्यान रखते हैं क्योंकि यह सोच उन के आपसी रिश्तों और घर के सदस्यों के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है. अगर किचन में म्यूजिक व डिजाइनर क्रौकरी का इस्तेमाल किया जाता है तो खाना बनाने वाला कुकिंग को एंजौय करता है. कुल मिला कर किचन छोटी हो या

बड़ी, वह परिवार की मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक जरूरतों को पूरा करती है, इसलिए वह जगह जहां से पूरे घर के लोगों को स्वाद और सेहत परोसी जाती है, ऐसी होनी चाहिए जो कुकिंग करने वाले का परफैक्ट मूड बनाए ताकि गृहिणी घर के सदस्यों को एक से बढ़ कर एक स्वाद परोस सके.

रोशनी हो ऐसी

रसोई में परफैक्ट लाइटिंग, कुकिंग करने वालों और भोजन खाने वालों के बीच के रिश्तों को मजबूत बनाती है. ब्राइट लाइट ग्लास व हलके रंगों के वुड के साथ परफैक्ट मैच करती है. जबकि गहरे रंगों की लाइट वाइब्रैंट वुड वर्क व ऐप्लाएंस के साथ मैच करती है. इसीलिए डिजाइनर्स आजकल किचन की डिजाइन करते समय मानव मूड पर रोशनी के महत्त्वपूर्ण प्रभाव की महत्ता को समझते लाइट को महत्त्वपूर्ण स्थान देने लगे हैं.

मनोवैज्ञानिक सोच

रंगों के जानकार कहते हैं कि अगर आप के जेहन में किचन की अच्छी यादें हैं तो आप बड़े हो कर भी उन्हीं रंगों को अपनी किचन में अपनाना चाहेंगे. जैसे अगर आप सफेद और नीले रंग की किचन को देखते हुए बड़े हुए हैं और उस किचन से आप की अच्छी यादें जुड़ी हैं तो आप अपनी किचन में नीला और सफेद रंग ही चाहेंगे. ऐसा करना आप के और आप के परिवार के लिए भी खुशियों को आमंत्रण देगा. अगर आप की यादों में कोई विशेष रंग नहीं है तो लाल व पीला रंग आप के लिए बेहतर रहेगा.

वहीं, अगर आप अपने बढ़ते वजन से परेशान हैं और वजन पर नियंत्रण करना चाहते हैं तो लाल रंग किचन में हरगिज न करवाएं क्योंकि कंसल्टैंट्स कहते हैं कि लाल रंग परिवार के सदस्यों को ज्यादा खाने के लिए प्रेरित करता है. आप ने देखा होगा कि अधिकांश रैस्टोरैंट्स और ईटिंग जौइंट्स के डिजाइन में लाल रंग का इस्तेमाल किया जाता है. अलगअलग रंग व्यक्ति के मूड पर अलगअलग तरह से प्रभाव डालते हैं. जैसे, अगर आप अपने परिवार के सदस्यों व मेहमानों की भूख बढ़ाना चाहते हैं तो अपनी किचन में लाल रंग का तड़का लगाइए. अगर आप सौफिस्टिकेटेड लुक चाहते हैं तो हलके रंगों का इस्तेमाल कीजिए. अगर आप किचन को ऐक्सपैंसिव लुक देना चाहते हैं तो ब्राइट कलर्स का प्रयोग करें क्योंकि ये फ्रैंडली व हैप्पी कलर्स माने जाते हैं. ये रंग घर के सदस्यों के बीच संवाद कायम करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.

पनीर स्टफ्ड पोटैटो का स्वाद हमेशा रहेगा याद

सामग्री

पनीर के टुकड़े, आलू, प्याज, धनिया, नमक, हलदी, लालमिर्च पाउडर, तलने के लिए तेल, सजाने के लिए चीज.

विधि

आलुओं को छील कर उन के 2 टुकड़े करें. हरेक टुकड़े के बीच में गहरा छेद करें व फ्राई कर के एक तरफ रख लें. पनीर भुरजी बनाने के लिए तेल गरम करें. इस में प्याज, पनीर और सभी मसाला मिलाएं और भूनें. जब भुरजी तैयार हो जाए तो उसे आलुओं में भरें. फिर हरेक के ऊपर चीज का एक टुकड़ा रख कर ओवन में 10 मिनट 180 डिग्री सेल्सियस पर बेक करें. फिर इन्हें स्नैक्स के तौर पर परोसें.

अच्छा लगता था जब कोई मुझे छेड़ता था : दिव्यंका त्रिपाठी

स्टार प्लस के शो ‘ये है मोहब्बतें’ में नजर आने वाली टीवी एक्ट्रेस दिव्यंका त्रिपाठी दर्शकों में काफी फेमस हैं. एकता कपूर के इस शो में दिव्यंका अक्सर लड़कियों के हक के लिए आवाज उठाती नजर आती हैं. वह इस शो के जरिए लड़कियों को सीख भी देती हैं कि अगर कोई लड़का उन्हें राह चलते छेड़े तो उन्हें इसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. लेकिन एक शो के दौरान दिव्यंका खुद के साथ हुई छेड़छाड़ से काफी खुश दिखीं. उन्होंने एक पुराने इंटरव्यू में शो के होस्ट से कहा कि जब उन्हें कोई लड़का छेड़ता था तो वह नाराज होने के बजाए खुश हुआ करती थीं.

दर्शकों के बीच में इशिमा के नाम से फेमस दिव्यंका ने एक टौक शो के दौरान बताया कि वह बचपन में खुद को लड़कों की तरह रखती थीं. वह ढीले कपड़े, एक कान में कुंडल और छोटे बालों में घूमा करती थीं. उन्होंने इसके पीछे की वजह बताते हुए कहा कि वह घर में दूसरी लड़की थीं और उनके होने पर उनके माता-पिता को लगता था कि एक और लड़की हो गई.

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इस वजह से ही दिव्यंका खुद को लड़कों की तरह रखने लगीं. वह अपने माता पिता का बेटा बनना चाहती थीं. इस शो के दौरान उन्होंने बताया कि पहले वो नहीं जानती थीं कि वह इतनी खूबसूरत हैं. उन्हें काफी बाद में इस बात का पता चला कि वह अच्छी दिखती हैं.

शो के होस्ट ने दिव्यंका से पूछा कि क्या आपको कोई छेड़ता भी नहीं था. दिव्यंका ने इस सवाल के जवाब में कहा नहीं तब मुझे लोग देखते तो थे लेकिन कोई छेड़ता नहीं था. इसके बाद शो के होस्ट ने पूछा कि क्या अब भी कोई नहीं छेड़ता है. इस पर दिव्यंका ने कहा अब छेड़ते हैं.

उन्होंने बताया कि वह एक बार दिल्ली आईं थीं तब चांदनी चौक पर उन्हें कुछ लोगों ने छेड़ा था. इसके आगे हंसते हुए दिव्यंका ने कहा कि मुझे बहुत अच्छा लगा जब उसने छेड़ा. दिव्यंका ने कहा कि लड़कियों को बुरा लगता है जब कोई उन्हें छेड़ता है लेकिन मुझे अच्छा लगता था, जब कोई मुझे छेड़ता था. क्योंकि मुझे कभी किसी ने छे़ड़ा ही नहीं था. बता दें दिव्यंका ने अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत साल 2006 में टीवी शो बनूं मैं तेरी दुल्हन से की थी.

राजस्थान की ‘ब्लू सिटी’ के ये नजारे आपकी यात्रा का मजा दोगुना कर देंगे

बात करें राजस्थान में सैर-सपाटे की, तो ज्यादातर लोग पिंक सिटी जयपुर के बारे में बातें करेंगे. जयपुर में घूमने-फिरने की काफी जगह हैं. यहां सभी इमारतें गुलाबी रंग से रंगी हुई हैं, इस वजह से इसे गुलाबी शहर कहते हैं. गुलाबी शहर की तरह राजस्थान में नीला शहर भी है.

इस शहर में मौजूद ऐतिहासिक किले, पुराने महल और प्राचीन मंदिर जोधपुर के गौरवशाली इतिहास का प्रतिक हैं. इस शहर का हस्तशिल्प, लोकनृत्य, भोजन और गीत- संगीत सभी अपने आप में निराले हैं, जो इस शहर की शोभा को कई गुना बढ़ा देते हैं.

अगर आपने राजस्थान के मशहूर गुलाबी शहर का भ्रमण कर लिया है, तो अब बारी है यहां के नीले शहर के भ्रमण की. यहां जाने के बाद आपको शहर की हर चीज नीले रंग की दिखेगी. इस शहर को देखने के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी ने पुरे शहर को नील आसमानी चादर से ढंक दिया हो.

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ब्लू सिटी जोधपुर

इस खूबसूरत शहर को बसे हुए लगभग 558 साल हो गए, जिसे राव जोधा ने बसाया था. जोधपुर को ब्लू सिटी के नाम से भी जाना जाता है. जोधपुर अपने आप में एक बेहद ही खूबसूरत शहर है, जिसकी खूबसूरती सूर्योदय और सूर्यास्त के समय चार गुना बढ़ जाती है.

इस शहर में सूर्य देवता ज्यादा देर तक ठहरते हैं इसी वजह से इसे सूर्य नगरी के नाम से जाना जाता है और वहीं इस शहर में घरों व महलों में नीलें रंग के पत्थर लगे हुए हैं, नीले रंग का इस्तेमाल घरों को प्राकृतिक रूप से ठंडा रखने के लिए किया जाता है. इस शानदार शाही शहर में आप भव्य महल, किले, मंदिर, संग्रहालय और शानदार बगीचे आदि का लुफ्त उठा सकते हैं.

ऐतिहासिक किलों की शान निराली

यहां आलीशान शाही ऐतिहासिक शहर में एक तरफ किले, मंदिर और वैभवशाली महल इस शहर के गौरवकाल को दर्शाते हैं, तो वही दूसरी ओर मेहरानगढ़, जसवंत थड़ा, उम्मेद भवन पैलेस, मंडोर उद्यान, रणछोड़जी का मंदिर, कायलाना झील, माचिया सफारी पार्क, ओसियां इसकी शान को दर्शाते हैं. यहां की हस्तकलाएं, लोक नृत्य, संगीत बेहद मशहूर हैं.

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मंडोर उद्यान के बारे में सबसे खास बात ये है कि मंडोर का नाम रावण की पत्नी मंदौदरी के नाम पर पड़ा है.

कैसे जाएं

जोधपुर रेलवे स्टेशन भारत, दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद जैसे प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है. कई ट्रेन इस जंक्शन से नियमित रूप से गुजरती हैं. इनमें से कुछ ट्रेनों में हावड़ा जोधपुर एक्सप्रेस, जोधपुर दिल्ली मंदोर एक्सप्रेस, जोधपुर इंदौर जंक्शन रणथंभौर एक्सप्रेस आदि शामिल हैं. हवाई जहाज से जाने के लिए आपको जयपुर एयरपोर्ट या जोधपुर उतरना होगा.

यहां की शान मेहरानगढ़ का किला

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इस शहर में स्थित मेहरानगढ़ का किला इस नीले शहर जोधपुर का शान कहा जाता है. भूतल से 125 मीटर की ऊंचाई पर बना यह किला सबसे पुराने किलों में से एक है. इस किले का निर्माण 15वीं सदी में जोधपुर के 15वें शासक राव जोधा ने करवाया था. भारत के गौरवमयी इतिहास को दर्शाने वाले इस विशालकाय किले से पुरे नीले शहर को देखा जा सकता है. यहां से शहर की खूबसूरती देखते ही बनती है.

कब जाएं : दिसम्बर से फरवरी

आप भी कराइये ‘होम इंश्योरेंस’, हमेशा फायदे में रहेंगी

इंश्योरेंस कंपनियां जिस तरह व्यक्तियों, कार और मोबाइल का इंश्योरेंस करती है उसी तरह वो लोगों को उनके घर का इंश्योरेंस करवाने की सुविधा भी उपलब्ध करवाती हैं. हम अपनी इस खबर के माध्यम से आपको बताने की कोशिश करेंगे कि आपके लिए होम इंश्योरेंस पौलिसी लेना कितना जरूरी होता है और इसके क्या फायदे मिलते हैं.

क्या है होम इंश्योरेंस पौलिसी

होम इंश्योरेंस एक प्रभावी टूल होता है जो किसी भी संभावित आपदा से आपके घर को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है. अगर अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखें तो आज के समय में लोग अपने लक्ष्यों (बुनियादी जरूरतों) को आसानी से और समय पूर्व प्राप्त कर रहे हैं. बीते कुछ दशकों में भवन निर्माण में भी तेजी आई है और लोग घरों (फ्लैट या मकान) की खरीद बहुत ही आसानी से कर पा रहे हैं लिहाजा इस तरह की संपत्ति की सुरक्षा भी काफी अहम हो जाती है.

क्यों जरूरी है होम इंश्योरेंस पौलिसी

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हाल ही में आईं कुछ प्राकृतिक आपदाओं के कारण आर्थिक नुकसान और बीमित नुकसान के बीच अंतर पाया गया है. ऐसा फाइनेंशियल टूल की पर्याप्त जानकारी न होने की वजह से देखने को मिलता है. इसलिए प्राकृतिक आपदाओं की सूरत में घर के मालिक को होम इंश्योरेंस न होने के कारण काफी नुकसान उठाना पड़ता है.

जिस तरह से आप अपनी ज्वैलरी की सुरक्षा के लिए उसका बीमा करवाते हैं उसे बैंक लौकर में रखवाते हैं ठीक उसी तरह घर का बीमा भी आज के दौर में काफी अहम हो चला है. आप घर के बीमा के साथ साथ घर में उपलब्ध सामानों जैसे कि होम अप्लाइंस, पोर्टेबल इक्विपमेंट (सेलफोन, लेपटौप और टीवी) की सुरक्षा को भी सुनिश्चित कर सकते हैं.

एक्सपर्ट की राय

एक्सपर्ट बताते हैं कि आज के समय में होम इंश्योरेंस पौलिसी लेना घर के मालिकों के लिए काफी जरूरी होता है. आमतौर पर इस तरह की बीमा पौलिसियों में दो श्रेणियों को कवर किया जाता है. पहला बिल्डिंग स्ट्रक्चर और दूसरा घर का कीमती सामान. यानी अगर किसी प्राकृतिक आपदा में आपके घर के स्ट्रक्चर को कोई नुकसान होता है तो उसमें आने वाले खर्चे (कंस्ट्रक्शन कौस्ट) की अधिकांश भरपाई इंश्योरेंस कंपनी की ओर से की जाती है.

वहीं अगर आपने अपने घर के कीमती सामान मसलन होम अप्लाइंस, पोर्टेबल इक्विपमेंट (सेलफोन, लेपटौप और टीवी) को भी कवर करवा रखा है तो आगजनी, चोरी और सेंधमारी के बाद आपको ज्यादा वित्तीय नुकसान नहीं उठाना पड़ता है. होम इंश्योरेंस पौलिसी में प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान, चोरी और सेंधमारी से सुरक्षा मिलती है. जितेंद्र सोलंकी ने बताया कि कुछ बीमा कंपनिया किराए के घर में भी आपके बहुमूल्य सामान को कवर करती है. वहीं उन्होंने यह भी बताया कि पैकेज पौलिसी लेना ज्यादा फायदेमंद रहता है क्योंकि इसमें बिल्डिंग के साथ-साथ घर के सामान और अन्य अहम चीजों को कवर करने की सुविधा दी जाती है.

मैं फाइटर हूं : उषा जाधव

बचपन से अभिनय की इच्छा रखने वाली अभिनेत्री उषा जाधव महाराष्ट्र के कोल्हापुर की हैं. उन्होंने अभिनय की शुरुआत मराठी थिएटर से की थी. थिएटर में काम करने के दौरान उन्हें कई टीवी विज्ञापनों में भी काम मिला. हिंदी फिल्म में उन्हें पहला ब्रेक मधुर भंडारकर की फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ से मिला.

दलित और लोअर मिडिल क्लास की होने की वजह से उषा को अभिनय के क्षेत्र में आने में काफी मुश्किलें आईं. संघर्ष के बारे में पूछे जाने पर वे बताती हैं, ‘‘कोल्हापुर एक छोटा शहर है, वहां मैं ने 12वीं तक की पढ़ाई की. मेरे घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी. इसलिए पुणे आ कर एक ट्रैवल एजेंसी में काम किया. उस समय 3,000 रुपए की सैलरी मेरे लिए काफी थी. काम करतेकरते 3 साल निकल गए. जब घर की जिम्मेदारी थोड़ी कम हुई, तो मुंबई आ कर फिल्मों के लिए औडिशन दिया और मुझे कास्टिंग डायरैक्टर की मदद से मधुर भंडारकर की फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ मिली, क्योंकि इस फिल्म में उन्हें ‘डस्की स्किन’ की लड़की चाहिए थी. पहले उस में मेरा केवल एक सीन ही था. जब मैं ने उस सीन को अच्छी तरह से किया तो मधुर ने खुश हो कर 3 सीन और करने के लिए दिए.

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‘‘इस के बाद दीप्ति नवल की फिल्म ‘दो पैसे की धूप चार आने की बारिश’, ‘भूतनाथ रिटर्न्स’ आदि में भी छोटे रोल किए. फिल्मों में मुझे 2 या 3 सीन्स मिल रहे थे, कोई बड़ा प्रोजैक्ट नहीं मिल रहा था. मैं ने ऐसा काम करना बंद कर दिया. ऐसे में मुंबई में रहना मुश्किल हो रहा था. मैं अपनी जौब भी छोड़ चुकी थी. मैं ने एड फिल्मों की ओर रुख किया. जहां भी कुछ औफर मिलता, मैं तुरंत औडिशन देने लगती. करीब 20 से 25 एड फिल्मों में मैं ने काम किया और मैं थोड़ी सैटल हो गई.’’

उषा जाधव स्वभाव से मिलनसार और स्पष्टभाषी हैं. उन्हें जो बात अच्छी नहीं लगती, उसे तुरंत कह देती हैं. मराठी फिल्म में मुख्य भूमिका का मिलना उन के लिए खुशी की बात थी.

वे कहती हैं, मैं महाराष्ट्रियन हूं और मराठी मेरी मातृभाषा है. मुझे फिल्म ‘धग’ के निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल, जिन्होंने मुझे एक विज्ञापन फिल्म में देखा था, ने जब कहानी सुनाई, तो मैं दंग रह गई और मैं ने तुरंत हां कह दिया. कहानी इतनी अच्छी थी कि मैं फिल्म करने के लिए उत्साहित हो गई. लेकिन यह पता नहीं था कि यह फिल्म मुझे नैशनल अवार्ड दिलवाएगी. इस फिल्म को मैं अपने कैरियर का टर्निंग प्वाइंट मानती हूं. इस फिल्म में मैं ने एक युवा बालक की मां की भूमिका अदा की थी. जो निम्न मध्यम वर्ग की होने के बावजूद चाहती है कि उस का बच्चा सब से अधिक शिक्षित हो.

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बैस्ट ऐक्ट्रैस के पुरस्कार का मिलना उषा के जीवन में सब से अहम था. इस से उन्हें स्फूर्ति मिलती है और आगे भी वे ऐसी ही चुनौतीपूर्ण भूमिका करना चाहती हैं.

वे कहती हैं, ‘‘यह भूमिका मेरे लिए बहुत चैलेंजिंग था, क्योंकि एक दलित डोम जाति की महिला कैसे अपने बच्चे को आगे लाने की बात सोच सकती है और उसे किनकिन हालात से गुजरना पड़ता है, यह सब इस फिल्म में दिखाया गया है. इस तरह के हालात अभी भी हमारे देश में गांव और छोटेछोटे कसबों में पाए जाते हैं जहां दलित को कुछ भी करने का हक नहीं है.’’

क्या असल जिंदगी में आप का दलित होना, आप के कैरियर को बाधित करता है, यह पूछे जाने पर उषा बताती हैं, ‘‘दलित होने से भी अधिक मेरा रंग सब से अधिक आड़े आता है. ऐक्ट्रैस होने का अर्थ है गोरीचिट्टी और खूबसूरत होना, जबकि मैं सांवली हूं. बहुत अधिक रिजैक्शन का सामना इंडस्ट्री में करना पड़ा. अधिकतर निर्माता निर्देशक कहते थे कि वे कैसे मान लें कि मुझे ऐक्टिंग आती है? मेरी तरफ देखने का नजरिया ही बहुत अलग था. कोई सम्मान मुझे नहीं मिला, लेकिन मैं ने सोच लिया था कि मैं हार नहीं मानूंगी और एक दिन जरूर साबित करूंगी कि मैं एक अभिनेत्री हूं. मराठी फिल्म ‘धग’ की सफलता के बाद मेरी पहचान बदल गई.’’

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उषा आगे हंसती हुई कहती हैं, ‘‘दलित होने का एहसास सब ने मेरे साथ बहुत जताया. मैं ने कई बार लोगों को कहते हुए सुना है कि मुझे इस से अधिक क्या मिल सकता है. मैं ने सोचा, मैं अपना काम करूंगी, क्योंकि हाथी जब रास्ते पर चलता है तो कुत्तों के भौंकने से कुछ नहीं होता. इस के अलावा मेरे पिता को दलित होने का बहुत मलाल था क्योंकि दलित होने की वजह से उन का परिवार पिछड़ा था.

‘‘मेरे पिता कृष्णा जाधव ने खुद पढ़ाई पूरी की और इस दलदल से निकले और हमें अच्छी तालीम दी. 5 बहन और एक भाई के परिवार में मेरे मातापिता बहुत समझदार थे. मेरे पिता खुद अपनी पढ़ाई के लिए रोज 4 किलोमीटर चल कर जातेआते थे. मैं इस बात से गर्वित हूं कि मेरे मातापिता ने मुझे हर तरह की आजादी दी.’’

आजकल वोटबैंक को कायम रखने के लिए आरक्षण को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है. इस बारे में उषा जाधव की राय है, ‘‘मेरे हिसाब से कई ऐसे परिवार हैं जो आर्थिक रूप से बहुत गरीब हैं और बच्चों की पढ़ाई की फीस तक नहीं दे पाते. आरक्षण उन के लिए जरूरी है. आर्थिकरूप से कमजोर परिवार को ही आरक्षण देना चाहिए, वह भी कुछ खास क्षेत्र में, सभी में नहीं.’’

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उषा की हिंदी अच्छी है, इसलिए उन्हें हिंदी बोलना सीखना नहीं पड़ा. उन्हें हिंदी फिल्में देखना बचपन से अच्छा लगता है. वे धैर्यवान हैं और किसी भी परिस्थिति में अपनेआप को संभाल सकती हैं. उन की इच्छा है कि वे हमेशा अलगअलग किरदार निभाएं. मां की भूमिका अब वे नहीं करना चाहतीं.

वे कहती हैं, ‘‘मैं एक फाइटर हूं और अच्छी भूमिका के लिए अंत तक लड़ती रहूंगी. अभी मैं एक स्पैनिश फिल्म में काम कर रही हूं, जिस के लिए मैं स्पैनिश सीख रही हूं. मैं एक स्टूडैंट हूं और आगे भी सीखती रहूंगी. इस के अलावा मैं पिता की बायोपिक में अपनी मां की भूमिका निभाना चाहती हूं.’’

इंडस्ट्री में अपने अनुभवों के बारे में उषा का कहना है, ‘‘यहां भाईभतीजावाद से अधिक गु्रपिज्म हावी रहता है. स्टार के बच्चों का प्रैशर मेरे ऊपर नहीं है, क्योंकि आजकल हर तरह की फिल्में बनती हैं और सब को काम मिल सकता है.’’

उषा के परिवार का सहयोग उन के इस काम में नहीं था. वे नहीं चाहते थे कि वह फिल्मों में काम करे. उन का कहना है, ‘‘मेरे शहर में मिडिल क्लास परिवार में लड़की के काम करने को अच्छा नहीं माना जाता है. ऐसे में जब मैं ने काम करना शुरू किया, तो वे मेरे मातापिता से कहते थे कि तुम्हारी लड़की मुंबई में कोई गलत काम तो नहीं कर रही? वह कहीं दिखती तो नहीं है? ऐसी बातें उन्हें दुखी करती थीं, लेकिन जब ‘धग’ फिल्म आई और मुझे पुरस्कार मिला तो आसपड़ोस के सब के मुंह बंद हो गए और मातापिता भी काफी खुश हुए.’’

नैशनल अवार्ड मिलते ही उषा के प्रति फिल्म इंडस्ट्री का नजरिया बदल गया. कल तक अपने रंगरूप व जाति के चलते रिजैक्शन का सामना कर रही उषा अब अपने दम पर कामयाबी हासिल कर रही हैं.

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